श्रीकृष्णावतार : भगवान का परिपूर्णतम अवतार
भगवान अपने जन्म की विलक्षणता बतलाते हुए कहते हैं कि वे अजन्मा और अविनाशी हैं, फिर भी सभी जीवों के स्वामी हैं। उनका न कभी जन्म होता है न मरण होता है। भगवान का मंगलमय शरीर नित्य, सत्य और चिन्मय है जो जन्म लेता हुआ-सा तथा अन्तर्धान हुआ-सा दिखाई देता है। वे युग-युग में अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (४।९) में कहा है–‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्।’ इसका आशय है कि मनुष्य का शरीर कर्त्तव्य और वासनापूर्ण किए हुए कर्म का फल है, किन्तु भगवान का शरीर कर्तृत्वरहित, वासनारहित तथा कर्मफल से रहित अवतरण है।
भगवान के परिपूर्णतम अवतार के विषय में बताते हुए श्रीगर्गाचार्यजी कहते हैं–जिसके अपने तेज में अन्य सभी तेज विलीन हो जाते हैं, भगवान के उस अवतार को ‘परिपूर्णतम अवतार’ कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण सोलह कलाओं (छ: ऐश्वर्य, आठ सिद्धि, कृपा तथा लीला) के साथ प्रकट हुए। स्वयं परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण ही हैं, दूसरा कोई नहीं; क्योंकि श्रीकृष्ण ने एक कार्य के उद्देश्य से अवतार लेकर अन्य अनेक कार्यों का सम्पादन किया। इससे भी उनके लिए ‘कृष्णस्तु भगवान स्वयम्’ कहा जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण का भूतल पर अवतार
पूर्वकाल में (वाराह-कल्प में) पृथ्वी दानव, दैत्य, असुर-स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओं के भार से आक्रान्त हो गयी थी; शोकाकुल होकर वह गौ का रूप धारणकर असुरों द्वारा सताये गए देवताओं के साथ ब्रह्माजी की शरण में गई। देवताओं सहित पृथ्वी ने अपनी व्यथा चतुरानन ब्रह्माजी को सुनाई।
ब्रह्माजी पृथ्वी सहित देवताओं को लेकर भगवान शंकर के निवासस्थान कैलास पर्वत पर गए। भक्तों पर आए कष्ट को सुनकर पार्वतीजी और शंकरजी को बहुत दु:ख हुआ पर वे उनकी पीड़ा को हरने में असमर्थ थे। फिर धर्म के साथ विचार-विमर्श कर ब्रह्माजी सबके साथ श्रीहरि के धाम वैकुण्ठ पहुंचे और श्रीहरि की स्तुति कर पृथ्वी की व्यथा सुनाई। देवताओं की स्तुति सुनकर श्रीहरि ने कहा–’ब्रह्मन् ! साक्षात् श्रीकृष्ण ही अगणित ब्रह्माण्डों के स्वामी और परमेश्वर हैं। उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा। अत: तुम लोग उन्हीं के अविनाशी गोलोकधाम को जाओ। वहां तुम्हारे अभीष्ट कार्य की सिद्धि होगी। फिर हमलोग–लक्ष्मी, सरस्वती, श्वेतद्वीप निवासी विष्णु, नर-नारायण, अनन्त शेषनाग, मेरी माया, कार्तिकेय, गणेश, वेदमाता सावित्री आदि देवता–सबकी इष्टसिद्धि के लिए वहां आ जाएंगे।’
सब देवता अद्भुत गोलोकधाम की ओर चल दिए जो भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। श्रीकृष्ण ही वायु रूप से उसे धारण करते हैं। समस्त देवताओं ने परम सुन्दर गोलोकधाम के दर्शन किए। गोलोकधाम में ब्रह्माजी, शंकर व धर्म आदि देवताओ को एक अद्भुत तेज:पुंज दिखाई दिया जो करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस तेजस्वरूप, परात्पर, परमेश्वर श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए ब्रह्माजी ने कहा–
वरं वरेण्यं वरदं वरदानां च कारणम्।
कारणं सर्वभूतानां तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
मंगल्यं मंगलार्हं च मंगलं मंगलप्रदम्।
समस्तमंगलाधारं तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
अर्थात्–जो वर, वरेण्य, वरद, वरदायकों के कारण तथा सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति के हेतु हैं; उन तेज:स्वरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मंगलकारी, मंगल के योग्य, मंगलरूप, मंगलदायक तथा समस्त मंगलों के आधार हैं; उन तेजोमय परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ।
समस्त योगीजन आपके इस मनोवांछित ज्योतिर्मय स्वरूप का ध्यान करते हैं। परन्तु जो आपके भक्त हैं, वे आपके दास बनकर सदा आपके चरणकमलों की सेवा करते हैं।
ब्रह्मा आदि देवताओं को तेजपुंज में श्रीराधाकृष्ण का दर्शन
ब्रह्माजी ने कहा–’परमेश्वर आपका जो परम सुन्दर और कमनीय किशोर-रूप है, आप उसी का हमें दर्शन कराइए।’ तब उन देवताओं ने उस तेज:पुंज के मध्यभाग में एक कमनीय स्वरूप देखा जिसका बादलों के समान श्यामवर्ण था और उनके मुख की मन्द मुसकान त्रिलोकी के मन को मोह लेने वाली थी। उन्होंने अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है, उनके गालों पर मकराकृति कुण्डल, वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, चरणारविन्दों में रत्नजटित नूपुर व श्रीविग्रह पर अग्नि के समान दिव्य पीताम्बर शोभायमान था। पके हुए अनार के बीज की भांति चमकीली दंतपक्ति उनके मुख की मनोरमता को और बढ़ा रही थी। बिम्बाफल के समान अरुण अधरों पर मुरली लिए वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए कातर जान पड़ते थे। कमलदल के समान बड़े-बड़े नेत्र और भ्रकुटि-विलास से कामदेव को भी मोहित कर रहे थे। माथे पर मोरपंख का मुकुट, मालती के सुगंधित पुष्पों का श्रृंगार व चंदन, अगुरु, कस्तूरी और केसर के अंगराग से विभूषित थे। उनकी घुटनों तक लम्बी-बड़ी भुजाएं व गले में सुन्दर वनमाला है। बहुमूल्य रत्नों के बने किरीट, बाजूबंद और हार उनके विभिन्न अंगों की शोभा को बढ़ा रहे थे। विशाल वक्ष:स्थल पर कौस्तुभमणि प्रकाशित हो रही थी। भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय अंग ही आभूषणों को सुशोभित कर रहे थे–‘भूषणानां भूषणानि अंगानि यस्य स:।’
श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान के गले का चिन्तन करें, जो मानो कौस्तुभमणि को भी सुशोभित करने के लिए ही उसे धारण करता है–
‘कण्ठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थम्।’ (३।२८।२६)
उसी तेजपुंज में देवताओं ने मनमोहिनी श्रीराधा को भी देखा। वे प्रियतम श्रीकृष्ण को तिरछी चितवन से निहार रही थीं। जिनकी मोतियों के समान दंतपक्ति, मन्द हास्य से युक्त मुख की छटा, शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों से नेत्र, दुपहरिया के फूल के समान लाल-लाल अधर, पैरों में झनकारते हुए मंजीर, मणिरत्नों की आभा के समान नख, कुंकुम की आभा को तिरस्कृत करने वाले चरणतल, कानों में मणियों के कर्णफूल, गरुड़ की चोंच के समान नुकीली नासिका में गजमुक्ता की बुलाक, उतम रत्नों के हार, कंगन व बाजूबंद, घुंघराले बालों की वेणी में लिपटी मालती की माला, कण्ठ में पारिजात पुष्पों की माला, विचित्र शंख के बने रमणीय भूषण, वक्ष:स्थल में अनेक कौस्तुभमणियों का हार व अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण किए हुए थीं और तपाये हुए सुवर्ण की-सी जिनकी अंगकांति थी। वे समस्त आभूषणों से विभूषित थीं और समस्त आभूषण उनके सौंदर्य से विभूषित थे।
परमेश्वर श्रीकृष्ण और परमेश्वरी श्रीराधा के दर्शन से समस्त देवता आनन्द के समुद्र में गोता खाने लगे और उन्हें ऐसा लगा कि उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये। सभी देवताऔं ने भगवान श्रीराधाकृष्ण को प्रणाम कर स्तुति की।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा देवताओं का स्वागत और उन्हें आश्वासन देना
भगवान श्रीकृष्ण ने सब देवताओं से कहा–तुम सब लोग मेरे इस धाम में पधारे हो, तुम्हारा स्वागत है। मैं समस्त जीवों के अन्दर स्थित हूँ, किन्तु स्तुति से ही प्रत्यक्ष होता हूँ। तुम लोग यहां जिस कारण से आए हो, वह मैं निश्चित रूप से जानता हूँ। मेरे रहते तुम्हें क्या चिन्ता है? मैं कालों का भी काल, विधाता का भी विधाता, संहारकारी का भी संहारक और पालक का भी पालक परात्पर परमेश्वर हूँ। मेरी आज्ञा से शिव संहार करते हैं; इसलिए उनका नाम ‘हर’ है। तुम मेरे आदेश से सृष्टि के लिए उद्यत रहते हो; इसलिए ‘विश्वस्रष्टा’ कहलाते हो और धर्मदेव रक्षा के कारण ही ‘पालक’ कहलाते हैं। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सबका ईश्वर में ही हूँ। मैं ही कर्मफल का दाता तथा कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। पर भक्त मेरे प्राणों के समान हैं और मैं भी भक्तों का प्राण हूँ।
वेद मेरी वाणी, ब्राह्मण मुख और गौ शरीर है। सभी देवता मेरे अंग हैं व साधुपुरुष मेरे प्राण हैं। प्रत्येक युग में जब भी दुष्टों द्वारा इन्हें पीड़ा होती है, तब मैं स्वयं अपने-आपको भूतल पर प्रकट करता हूँ। जो लोग भक्तों, ब्राह्मणों व गौओं से द्वेष रखते हैं, उनका घातक बनकर जब मैं उपस्थित होता हूँ, तब कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर पाता। देवताओ! मैं पृथ्वी पर जाऊँगा और तुम भी भूतल पर अपने अंश से अवतार लो। इस प्रसंग से स्पष्ट है कि परमात्मा के संसार की सुव्यवस्था के आधार विप्र, धेनु, सुर और संत हैं। इन चारों पर जब संकट आ पड़ता है, तब भगवान का अवतार किसी लीला के माध्यम से होता है। भगवान श्रीकृष्ण के परिपूर्णतम अवतार का प्रयोजन भक्तों की चिन्ताओं को दूर करना व उन्हें प्रसन्न करना है।
श्रीराधा सहित गोप-गोपियों को व्रज में अवतीर्ण होने के लिए भगवान श्रीकृष्ण का आदेश
भगवान श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर कहा–’गोपो और गोपियो ! तुम सब-के-सब नन्दरायजी का जो उत्कृष्ट व्रज है, वहां जाओ और व्रज में गोपों के घर-घर में जन्म लो। राधिके ! तुम भी व्रज में वृषभानु के घर प्रकट हो, मैं बालक रूप में वहां आकर तुम्हें प्राप्त करुंगा। सुशीला आदि जो तैंतीस तुम्हारी सखियां हैं, उनके तथा अन्य बहुसंख्यक गोपियों के साथ तुम गोकुल को पधारो। मेरे प्रिय-से प्रिय गोप बहुत बड़ी संख्या में मेरे साथ क्रीडा के लिए व्रज में चलें और वहां गोपों के घर में जन्म लें।’ श्रीराधा ने भगवान से कहा–’जैसे शरीर छाया के साथ और प्राण शरीर के साथ रहते हैं, उसी प्रकार हम दोनों का जन्म और जीवन एक-दूसरे के साथ बीते, यह वर मुझे दीजिए।’ भगवान ने कहा–’मेरी आत्मा, मेरा मन और मेरे प्राण जिस तरह तुममें स्थापित हैं, उसी तरह तुम्हारे मन, प्राण और आत्मा भी मुझमें स्थापित हैं। हम दोनों में कहीं भेद नहीं है; जहां आत्मा है, वहां शरीर है। वे दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं हैं।’
श्रीराधाजी ने भगवान से कहा–जहां वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिलता। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने धाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा।
वैकुण्ठवासी नारायण और क्षीरशायी विष्णु आदि देवताओं का श्रीकृष्ण के स्वरूप में लीन होना
देवताओं के प्रार्थना करने पर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अवतार धारण करना स्वीकार कर लेते हैं। अब अवतार का आयोजन होने लगता है। इतने में वहां एक दिव्य रथ आता है और उसमें से उतरकर शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज नारायण महाविष्णु सबके देखते-देखते भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। यह परम आश्चर्य देखकर सभी देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। तदन्तर दूसरे दिव्य रथ पर पृथ्वीपति श्रीविष्णु पधारते हैं और वे भी राधिकेश्वर भगवान में विलीन हो जाते हैं। दूसरा महान आश्चर्य देखकर सभी देवता विस्मित हो गए। उसी समय प्रचण्ड पराक्रमी भगवान नृसिंह पधारे और वे भी श्रीकृष्ण के तेज में समा गए। इसके बाद सहस्त्र भुजाओं से सुशोभित श्वेतद्वीप के विराट्पुरुष भगवान श्रीकृष्ण के विग्रह में प्रविष्ट हो गए। फिर धनुष-बाण लिए कमललोचन भगवान श्रीराम, सीताजी व तीनों भाइयों सहित आए और श्रीकृष्ण के विग्रह में लीन हो गए। भगवान यज्ञनारायण अपनी पत्नी दक्षिणा के साथ पधारे, वे भी श्रीकृष्ण के श्यामविग्रह में लीन हो गए। तत्पश्चात् भगवान नर-नारायण जो जटा-जूट बांधे, अखण्ड ब्रह्मचर्य से शोभित, मुनिवेष में वहां उपस्थित थे, उनमें से नारायण ऋषि भी श्रीकृष्ण में लीन हो गए। किन्तु नर ऋषि अर्जुन के रूप में दृष्टिगोचर हुए। इस प्रकार के विलक्षण दिव्य दर्शन प्राप्तकर देवताओं को महान आश्चर्य हुआ और उन सबको यह भलीभांति ज्ञात हो गया कि परमात्मा श्रीकृष्ण ही स्वयं परिपूर्णतम भगवान हैं, और वे पुन: भगवान की स्तुति करने लगे।
कृष्णाय पूर्णपुरुषाय परात्पराय यज्ञेश्वराय परकारणकारणाय।
राधावराय परिपूर्णतमाय साक्षाद् गोलोकधामधिषणाय नम: परस्मै।।
अर्थात्–जो भगवान श्रीकृष्ण पूर्णपुरुष, पर से भी पर, यज्ञों के स्वामी, कारण के भी परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात् गोलोकधाम के अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावर को हम सादर नमस्कार करते हैं।
देवताओं ने आगे कहा–जो श्रीराधिकाजी के हृदय को सुशोभित करने वाले चन्द्रहार हैं, गोपियों के नेत्र और जीवन के मूल आधार हैं तथा ध्वजा की भांति गोलोकधाम को अलंकृत कर रहे हैं, वे भगवान आप संकट में पड़े हुए हम देवताओं की रक्षा करें और धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा, शंकर एवं अन्य देवताओं से कहा–मेरे आदेशानुसार तुमलोग अपने अंशों से देवियों के साथ भूतल पर जाओ और जन्म धारण करो। मैं भी अवतार लूंगा और मेरे द्वारा पृथ्वी का भार दूर होगा। मेरा यह अवतार यदुकुल में होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूंगा।
किस देवता का कहां और किस रूप में जन्म
ब्रह्माजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा–भूतल पर किसके लिए कहां निवासस्थान होगा? कौन देवता किस रूप में अवतार लेगा और वह किस नाम से ख्याति प्राप्त करेगा–यह बताइए? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–’कश्यप’ के अंश से ‘वसुदेव’ और ‘अदिति’ के अंश से ‘देवकी’ होंगी। मैं स्वयं वसुदेव और देवकी के यहां प्रकट होऊंगा। श्रीमद्भागवत के अनुसार–वे साक्षात् परम पुरुष भगवान वसुदेव के घर प्रकट होंगे, उनकी सेवा के लिए तथा उनके साथ ही उनकी प्रियतमा (श्रीराधाजी) की सेवा के लिए देवांगनाएं भी वहां जन्म धारण करें।
वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुष: पर:।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं सम्भवन्तु सुरस्रिय:।।
भगवान श्रीकृष्ण ने योगमाया को आदेश दिया–मेरे कलास्वरूप ये ‘शेष’ (भगवान अनन्त) देवकी के गर्भ से आकृष्ट हो रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे। तुम देवकी के उस गर्भ को ले जाकर रोहिणी के उदर में रख देना। उस गर्भ का संकर्षण होने से उनका नाम ‘संकर्षण’ होगा।
वसु ‘द्रोण’ व्रज में ‘नन्द’ होंगे और इनकी पत्नी ‘धरादेवी’ ‘यशोदा’ कहलाएंगी। ‘सुचन्द्र’ ‘वृषभानु’ बनेंगे तथा इनकी पत्नी ‘कलावती’ पृथ्वी पर ‘कीर्ति’ के नाम से प्रसिद्ध होंगी; इन्हीं के यहां ‘श्रीराधा’ का प्राकट्य होगा।
भगवान श्रीकृष्ण के सखा ‘सुबल’ और ‘श्रीदामा’ नन्द और उपनन्द के घर जन्म धारण करेंगे। इनके अलावा श्रीकृष्ण के ‘स्तोककृष्ण’, ‘अर्जुन’ एवं ‘अंशु’ आदि सखा नौ नन्दों के यहां प्रकट होगें। व्रजमण्डल में जो छ: वृषभानु हैं, उनके घर में श्रीकृष्ण के सखा–विशाल, ऋषभ, तेजस्वी और वरूथप अवतीर्ण होंगे।
गर्गसंहिता में वर्णन आता है कि गोलोकधाम में भगवान श्रीकृष्ण के निकुंजद्वार पर जो नौ गोप हाथ नें बेंत लिए पहरा देते थे, वे ही नौ गोप भगवल्लीला में सहयोग देने के लिए व्रज में ‘नौ नन्द’ के रूप में अवतरित हुए। इसी प्रकार गोलोकधाम में निकुंजवन में जो गायों का पालन करते थे, वे भी लीला में सहयोग देने के लिए ‘उपनन्द’ के रूप में अवतरित हुए। व्रजमण्डल के सबसे बड़े माननीय गोप पर्जन्यजी के नौ पुत्र हुए–धरानन्द, ध्रुवनन्द, उपनन्द, अभिनन्द, नन्द, सुनन्द, कर्मानन्द, धर्मानन्द और बल्लभ–वे ही नौ नन्द हैं। नौ नन्दों में श्रीनन्दरायजी की विशेष महिमा है।
नन्द, उपनन्द और वृषभानु
ब्रह्माजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा–’नन्द’, ‘उपनन्द’ तथा ‘वृषभानु’ किसको कहते हैं? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–नौ लाख गायों के स्वामी को ‘नन्द’ कहा जाता है। पांच लाख गौओं का स्वामी ‘उपनन्द’ पद को प्राप्त करता है। ‘वृषभानु’ उसे कहते हैं जिसके अधिकार में दस लाख गौएं रहतीं हैं। जिनके यहां एक करोड़ गौओं की रक्षा होती है, वह ‘नन्दराज’ कहलाता है। पचास लाख गौओं के स्वामी को ‘वृषभानुवर’ कहते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्यरूपधारिणी पार्वती’ से कहा–तुम सृष्टि-संहारकारिणी महामाया हो, तुम अंशरूप से नन्द के व्रज में जाओ और वहां नन्द के घर यशोदा के गर्भ से जन्म धारण करो। मानवगण पृथ्वी पर नगर-नगर में में तुम्हारी पूजा करेंगे। पृथ्वी पर प्रकट होते ही मेरे पिता वसुदेव यशोदा के सूतिकागृह में मुझे स्थापित कर तुम्हें ले आएंगे और कंस के स्पर्श करते ही तुम पुन: शिव के समीप चली जाओगी और मैं भूतल का भार उतारकर अपने धाम में आ जाऊंगा।
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