"श्रीनारायण उवाच
सावित्रीवचनं श्रुत्वा जगाम विस्मयं यमः ।
प्रहस्य वक्तुमारेभे कर्मपाकं तु जीविनाम् ॥१।
"अनुवाद:-
श्रीनारायण बोले [हे नारद!] सावित्री की बात सुनकर यमराज आश्चर्यमें पड़ गये और हँसकर उन्होंने प्राणियों के कर्मफलके विषयमें बताना आरम्भ किया ॥1॥
"धर्म उवाच
कन्या द्वादशवर्षीया वत्से त्वं वयसाधुना।
ज्ञानं ते पूर्वविदुषां ज्ञानिनां योगिनां परम् ॥२॥
"अनुवाद:-
धर्म बोले- हे वत्से ! इस समय तुम्हारी अवस्था तो मात्र बारह वर्षकी है, किंतु तुम्हारा ज्ञान बड़े-बड़े विद्वानों, ज्ञानियों और योगियोंसे भी बढ़कर है॥2॥
*सेवन्ते द्विभुजं कृष्णं परमात्मानमीश्वरम् ।
गोलोकं प्रति ते भक्ता दिव्यरूपविधारिणः ॥२७॥
"अनुवाद:-
हे साध्वी ! उन निष्काम जनों को पुनः इस लोक में नहीं आना पड़ता जो द्विभुज परमात्मा श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं और अन्त में वे भक्त दिव्यरूप धारणकर गोलोक को ही प्राप्त होते हैं ॥27 ॥
सकामिनो वैष्णवाश्च गत्वा वैकुण्ठमेव च ।
भारतं पुनरायान्ति तेषां जन्म द्विजातिषु ॥२८॥
"अनुवाद:-
सकाम वैष्णव वैकुण्ठधाम में जाकर समयानुसार पुनः भारतवर्ष में लौट आते हैं और यहाँ पर द्विजातियों ( ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य) के कुलमें उनका जन्म होता है।२८।
काले गते च निष्कामा भवन्त्येव क्रमेण च ।
भक्तिं च निर्मलां तेभ्यो दास्यामि निश्चितं पुनः॥ २९ ॥
"अनुवाद:-
वे सभी कुछ समय बीतने पर क्रमशः निष्काम भक्त बन जाते हैं और मैं उन्हें अपनी निर्मल भक्ति प्रदान कर देता हूँ; यह सर्वथा निश्चित है। २९।
*ब्राह्मणा वैष्णवाश्चैव सकामाः सर्वजन्मसु ।
न तेषां निर्मला बुद्धिर्विष्णुभक्तिविवर्जिताः॥३०॥
"अनुवाद:-
जो सकाम ब्राह्मण तथा वैष्णवजन हैं, अनेक जन्मों में भी विष्णुभक्ति से रहित होने के कारण उनकी बुद्धि निर्मल नहीं हो पाती ॥30 ॥
*मूलप्रकृतिभक्ता ये निष्कामा धर्मचारिणः।
मणिद्वीपं प्रयान्त्येव पुनरावृत्तिवर्जितम् ॥३४॥
"अनुवाद:-
जो धर्मपरायण तथा निष्काम मानव मूलप्रकृति भगवती जगदम्बा की भक्ति करते हैं, वे मणिद्वीप में जाते हैं और फिर वहाँ से लौटकर नहीं आते ॥ 34 ॥
*स याति विष्णुलोकं च श्वेतद्वीपं मनोहरम् ।
तत्रैव निवसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥४९॥
"अनुवाद:-
जो मनुष्य ब्राह्मणोंको भूमि तथा प्रचुर धन प्रदान करता है, वह भगवान् विष्णुके श्वेतद्वीप नामक मनोहर लोक में पहुँच जाता है और वहाँ पर चन्द्र सूर्यकी स्थितिपर्यन्त निवास करता है।४९।
*अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
देवतीर्थसहायेन कायव्यूहेन शुध्यति।
एतत्ते कथितं किञ्चित् किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥ ७०॥
(देवीभागवतपुराण)
कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥३९॥
शिवपुराण-8/23/39
शिवपुराण में कर्म- फल के विषय में एक प्राचीन प्रसंग है
एक बार-देवर्षि नारद जी ने श्री सनकजी से कहाः "भगवन् ! मेरे मन में एक संदेह पैदा हो गया है। आपने कहा है कि जो लोग पुण्यकर्म करते हैं, उन्हें कोटि सहस्र कल्पों तक उनका महान भोग प्राप्त होता रहता है। दूसरी ओर यह भी आपने बताया है कि प्राकृत प्रलय में सम्पूर्ण लोकों का नाश हो जाता है और एकमात्र भगवान स्वराट् विष्णु ही शेष रह जाते हैं। अतः मुझे यह संशय हुआ है कि क्या प्रलयकाल तक जीव के पुण्य और पापभोग की समाप्ति नहीं होती ? आप इस संदेह का निवारण कीजिये "
श्रीसनक जी बोलेः "महाप्राज्ञ ! भगवान स्वराट-विष्णु अविनाशी, अनंत, परम प्रकाशस्वरूप और सनातन पुरुष हैं। वे विशुद्ध, निर्गुण, नित्य और माया-मोह से रहित हैं। परमानंदस्वरूप श्रीहरि निर्गुण होते हुए भी सगुण से प्रतीत होते हैं।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि रूपों में व्यक्त होकर वे ही भेदभाव से दिखायी देते हैं। वे ही माया के संयोग से सम्पूर्ण जगत का कार्य करते हैं।
ये ही श्री हरि ब्रह्माजी के रूप से सृष्टि तथा विष्णुरूप से जगत का पालन करते हैं और अंत में भगवान रूद्र के रूप से ही सबको अपना ग्रास बनाते हैं। यह निश्चित सत्य है। प्रलय काल व्यतीत होने पर भगवान जनार्दन ने शेषशय्या से उठकर ब्रह्माजी के रूप से सम्पूर्ण चराचर विश्व की पूर्वकल्पों में जो-जो स्थावर-जंगम जीव जहाँ-जहाँ स्थित थे, नूतन कल्प में ब्रह्माजी उस सम्पूर्ण जगत की पूर्ववत् सृष्टि कर देते हैं।
अतः साधुशिरोमणे ! किये हुए पापों और पुण्यों का अक्षय फल अवश्य भोगना पड़ता है (प्रलय हो जाने पर जीव के जिन कर्मों का फल शेष रह जाता है, दूसरे कल्प में नयी सृष्टि होने पर वह जीव पुनः अपने पुरातन कर्मों का भोग भोगता है।)
कोई भी कर्म सौ करोड़ कल्पों में भी बिना भोगे नष्ट नहीं होता। अपने किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।"
"नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।(नारद पुराणः पूर्व भागः 31/69-70)
अवश्यमेव भोक्तव्यं कर्मणां ह्यक्षयं फलम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।३१-६९।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
यो देवः सर्वलोकानामंतरात्मा जगन्मयः।
सर्वकर्मफलं भुक्ते परिपूर्णः सनातनः।३१-७०।
योऽसौ विश्वंभरो देवो गुणमेदव्यवस्थितः।
सूजत्यवति चात्त्येतत्सर्वं सर्वभुगव्यय:।३१-७१।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे प्रथमपादे यमदूतकृत्यनिरुपणं नामैकत्रिंशोऽध्यायः।
(राम और कृष्ण की भक्ति का भिन्न भिन्न फल-)
श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे॥७६॥
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत् ॥७७॥
(कृष्ण की भक्ति का फल-)
कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह ।
भारते पूजयेद्भक्त्या चोपचाराणि षोडश।८६।
गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्दृढाम्।८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।८८।
ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत् ।८९।
शुक्लां वाप्यथवा कृष्णां करोत्येकादशीं च यः ।
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।९०।
भारते पुनरागत्य कृष्णभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
क्रमेण भक्तिं सुदृढां करोत्येकां हरेरहो ।९१।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः ।
ततः कृष्णस्य सारूप्यं सम्प्राप्य पार्षदो भवेत्।९२।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत् ।
अनुवाद:-
जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों (अहीरों) तथा गोपियों(अहीराणीयों) को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधासहित श्रीकृष्णकी पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थितिपर्यन्त गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है।
भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्णके समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है।
पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्युसे सर्वथा रहित हो जाता है । 85-89 ॥
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी (बहुलाश्व) ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये।
उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये।
वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे। वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था।
उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे।
उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।
फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नी दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे।
वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें