गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

प्रस्तावना-

     


"पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, 
पूर्णमेवाव शिष्यते।१।


उपर्युक्त श्लोक बृहदारण्यक उपनिषद के पांचवें अध्याय से है और ईशावास्योपनिषद का शांति पाठ है।

पूर्णमद: = पूर्णम (पूर्ण, अनंत, infinite) + अदः (वह- ईश्वर, ब्रह्म)
पूर्णमिदं = पूर्णम (पूर्ण, अनंत, infinite) + इदं (यह - ब्रह्माण्ड, जगत)
पूर्णात् = पूर्ण से (ईश्वर से )
पूर्णमुदच्यते = पूर्णम + उदच्यते (उदय होता है)
पूर्णस्य = पूर्ण  से
पूर्णमादाय = पूर्णम् + आदाय (पूर्ण लेकर)
पूर्णमेवावशिष्यते = पूर्णम् + एव + अवशिष्यते =( शेष बचता है )
तात्पर्य:-
वह (ब्रह्म) पूर्ण है, यह (जगत्) भी पूर्ण है । (उस) पूर्ण ब्रह्म से ही यह पूर्ण जगत्- प्रादुर्भूत हुआ है । उस पूर्ण ब्रह्म में से इस पूर्ण जगत् को निकाल लेने पर भी
पूर्ण ब्रह्म ही शेष रहता है ।

जैसे गणितीय प्रक्रिया में शून्य से शून्य घटाने पर शून्य ही शेष बचता है।

अनन्त की सम्भावना एक सर्वमान्य गणितीय अवधारणा है। 
( ∞ - ∞ = ∞ )
और यदि गुणात्मक तौर पर देखें तो, पूर्ण परमात्मा से जो भी  उत्पन्न होगा उसमें भी वह सारी पूर्णता अवश्य विद्यमान होगी ही।

वह परिपूर्णतम परमात्मा सर्वोच्च लोक गोलोक में सृष्टि काल में साकार रूप में  गोपों के साथ गोप रूप में अपने एक लीला रूप  ही विद्यमान रहता है ; यही उसका लीला काल है। 

गोलोक शाश्वत लोक है। इसकी आयु अनन्त है।
वैकुण्ठलोक और शिवलोक उसी प्रकार और उसी रूप में उसकी आनुपातिक आयुवाले हैं जिस प्रकार विष्णु और शिव की आयु का अनुपात है। अत: गोलोक की अपेक्षा वैकुण्ठ लोक और शिवलोक शाश्वत नहीं हैं।

वैकुण्ठलोक,  शिव-लोक की आयु ब्रह्मा के लोक ब्रह्मलोक की अपेक्षा अधिक अवश्य है।

परन्तु ये दोनों  लोक भी क्रमश: सात्विक और तामसिक होने से प्राकृतिक ही हैं।  ये दोनों लोक रजोगुणात्मक ब्रह्मा के लोक  की अपेक्षा अधिक आयु वाले हैं।


गोलोक में ही राधा और कृष्ण के महारास लीला के उपरान्त आदि प्रकृति रूपा  राधा से आदि पुरुष के तेज से एक विराटमय बालक का जन्म होता है। 
उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में एक ब्रह्माण्ड विद्यमान है इस प्रकार अनेक रोमकूपों एक- एक के क्रम से में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विद्यमान हैं। 

और एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान हैं।
नारायण और नारद के संवाद क्रम में यह सृष्टि सर्जन ( उत्पादन ) का रहस्य नारायण नारद को बताते हैं।

वत्स नारद ! देवताओं की संख्या  (तीन + तीस) तेतीस करोड़ है जो परम ब्रह्म - श्रीकृष्ण के पृष्ठदेश( पीठ) से उत्पन्न हुए ।

 जबकि गोप हृदय देश के रोमकूपों से  कोशिका विभाजन की समरूपण( क्लोन) विधि के द्वारा उत्पन्न हुए हैं।

 गोप -सृष्टि देव- सृष्टि की अपेक्षा उच्च और प्रथम है।

गोपगण  कृष्ण स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। और देव परमेश्वर के पृष्ठदेश से उत्पन्न होने से गोपों के समकक्ष नहीं हैं। स्थान विशेष से उत्पत्ति भेद होने से ही देव गोपों से निम्न श्रेणी के हैं।

 अत: गोप श्रीकृष्ण सारूप्य होने से देवों के भी पूज्य और उन देवों से श्रेष्ठ  हैं।
__________________
ये सभी देवता सर्वत्र (सब स्थानों पर) भाव और अधिष्ठातृ रूप से व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं।

 भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। जो ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न हैं। नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
______
नारद ! परम ब्रह्म के साकार रूप श्रीकृष्ण और उनकी सहचारिणी आदि प्रकृति रूपा राधा से महविष्णु का जन्म हुआ। जो एक विराट् बालक के रूप में था।  अप जन्मकाल के कुछ काल उपरान्त विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। उस समय गोलोक में  वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल खाली था।
दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया।

तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे। पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया। 
कहा- ‘बेटा ! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ।भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ।

इस ब्रह्म वैवर्तपुराण के समान देवी भागवत पुराण- प्रकृति खण्ड- स्कन्ध नवम् अध्याय तृतीय) मे ंभी  इस  बालक के विषय में ठीक इसी प्रकार का वर्णन है  -

ब्रह्मपुत्र नारद ! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो ! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं,
उसमें से सोलहवाँ भाग तो विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित किए गये हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है। यह बालक ही महाविष्णु है।

रूद्र की उत्पत्ति का प्रकरण पुराणों में भिन्न-भिन्न ढ़ग से प्राप्त होता है। सैद्धान्तिक रूप से विष्णु की प्रेरणा से रूद्र से ब्रह्मा की उत्पत्ति होनी चाहिए- 
परन्तु अधिकतर ग्रन्थों में प्रक्षेपित रूप से ब्रह्मा से शिव ( रूद्र ) उत्पत्ति का प्रकरण प्राप्त होता है। कदाचित यह तीन गुणों का क्रमवार उच्च, मध्य और निम्न के अनुसार उत्पत्ति प्रकरण होना तो सम्भव है।  और यदि गुणसंयोजन प्रक्रिया के सिद्धान्त के अनुसार "सत और "तम के परिणाम स्वरूप "रजो गुण" की उत्पत्ति क्रम में रूद्र से ब्रह्मा की उत्पत्ति का होने का गुणात्मक सिद्धान्त भी सम्भव  है।

ब्रह्मा और शिव (रूद्र) की उत्पत्ति के प्रकरण के दोनों रूपों को हम तुलनात्मक रूप से निम्न गद्यांशों में प्रस्तुत करते हैं।

शब्दार्थ एवम्- व्याकरणिक विश्लेषण-
ललाटे- सप्तमी विभक्ति एक वचन - ललाट में -
ब्रह्मण: -  पञ्चमी विभक्ति ब्रह्मणः - ब्रह्मा से ।  एव- ही च और। रूद्रा: -रूद्रगण। एकादश:- ग्यारह । एव- ही। शिवांशेन में तृतीया विभक्ति एक वचन- शिव अंश से । वै - निश्चय ही। सृष्टि सञ्चरणाय-सृष्टि विनाश के लिए । भविष्यन्ति- उत्पन्न होंगे।
अनुवाद:-
और इस प्रकार ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रूद्र तो शिव के अंश से सृष्टि के संहार के लिए उत्पन्न होंगे।४३।

शब्दार्थ एवम्- व्याकरणिक विश्लेषण-
कालाग्नि-रूद्र- तेषु- एक:। विश्व- संहार- कारक =
उनमें कालाग्नि नामक एक  रूद्र  विश्व का संहारक होगा।
पाता= पा धातु - रक्षणे कर्म्मणि + घञ् कृदन्त प्रत्यय पात:  (त्राता) त्रि० मेदिनीकोश -रक्षक विष्णु: का विशेषण रक्षक या पालक होने से "पाता" है। - विषयी=विषयों का भोक्ता।  क्षुद्रांशेन- भविष्यति। क्षुद्र (छोटे) अंश से उत्पन्न होगा।

अनुवाद:-
इन रूद्रों में एक कालाग्नि  नामक रूद्र विश्व का संहारक होगा
विषयों के भोक्ता विष्णु क्षुद्र अंश से( क्षुद्र विष्णु) अवतीर्ण होकर विश्व की रक्षा करने वाले होंगे।४४।

"ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रकृतिखण्डःअध्याय"३-

वस्तुत: विष्णु ब्रह्मा और रूद्र तीनों महान ईश्वरीय सत्ताऐं  त्रिगुण ( सत- रज और तम) नामक प्रकृति के गुणों के प्रतिनिधि हैं। सत और तम प्रकाश और अन्धकार गुणधर्मी हैं सृष्टि उत्पत्ति क्रम में भी सत और तम स्वतन्त्र और सापेक्ष समान महत्व के गुण हैं। केवल स्थिति ही  दोंनों गुणों की परस्पर विपरीत है। 'सत और 'तम दोनों गुणों के मिलने से 'रजोगुण' निर्मित होता है। इस क्रम से रजोगुण के प्रतिनिधि ब्रह्मा भी  विष्णु से प्रेरित रूद्र से उत्पन्न होने चाहिए। लिंग पुराण में सायद रूद्र से ब्रह्मा की उत्पत्ति के इस प्रयोग का वर्णन है।

 "लिङ्गमहापुराण पूर्वभाग रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नामक(२२) वें अध्याय में रूद्र की उत्पत्ति मृत ब्रह्मा की देह से दर्शायी है।

'प्रजाः स्रष्टुमनाश्चक्रे तप उग्रं पितामहः।
तस्यैवं तप्यमानस्य न किञ्चित्समवर्तत।१७ ।
अनुवाद:-
संतान उत्पन्न करने की इच्छा से ब्रह्मा ने कठोर तपस्या की इस प्रकार तप करते समय उस तप से कुछ नहीं हुआ ।22.17 ।

'ततो दीर्घेण कालेन दुःखात्क्रोधो ह्यजायत।।
क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दवः।१८।
अनुवाद:-
फिर बहुत दिनों के बाद ब्रह्मा के दुःख से क्रोध उत्पन्न हो गया। और क्रोध से आवेशित उसकी आँखों से आँसू की बूँदें गिर पड़ी। 22.18 ।

"ततस्तेभ्योऽश्रुबिन्दुभ्यो वातपित्तकफात्मकाः।
महाभागा महासत्त्वाः स्वस्तिकैरप्यलङ्कृताः।१९।
अनुवाद:-
फिर उन आंसू की बूंदों से वायु, पित्त और कफ से युक्त सत्व सम्पन्न महाभाग्यशाली  स्वास्तिक से अलंकृत ।१९। 

प्रकीर्णकेशाः सर्पास्ते प्रादुर्भूता महा विषाः।
सर्पांस्तानग्रजान्दृष्ट्वा ब्रह्मात्मानमनिन्दयत्।२०।
अनुवाद,:-महाविषधर सर्प उत्पन्न हुए।
जिनके केश फैले हुए थे।-19।
अपने सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए उन सर्पों को देखकर  ब्रह्मा ने स्वयं अपनी  निंदा की।20।.

अहो धिक् तपसो मह्यं फलमीदृशकं यदि।
लोकवैनाशिकी जज्ञे आदावेव प्रजा मम।२१।
अनुवाद:-
यदि यह मेरी तपस्या का फल है तो धिक्कार है मुझ पर मेरे प्रजा के आदि में जगत् का नाश करने के लिए सर्प उत्पन्न हुए हैं।21।.
_________
तस्य तीव्राभवन्मूर्च्छा क्रोधामर्षसमुद्भवा।
मूर्च्छाभिपरितापेन जहौ प्राणान्प्रजापतिः।२२।
अनुवाद:-
उस तीव्र मूर्च्छा, क्रोध और अमर्ष- (असहनशीलता) के कारण ब्रह्मा अत्यधिक बेहोश हो गये और प्रजापति ब्रह्मा ने मूर्च्छा के ताप से  अपने प्राण त्याग दिये ।.22 ।

'तस्याप्रतिमवीर्यस्य देहात्कारुण्यपूर्वकम्।
अथैकादश ते रुद्रा रुदन्तोऽभ्यक्रमस्तथा।२३।
अनुवाद:-
तब उस अतुलनीय पराक्रमी पुरुष के शरीर से करुणापूर्वक रोते हुए ग्यारह रुद्र उत्पन्न होकर उनके पास आये ।23 ।

"रोदनात्खलु रुद्रत्वं तेषु वै समजायत।
ये रुद्रास्ते खलु प्राणा ये प्राणास्ते तदात्मकाः।२४।
अनुवाद:-
उनके रुदन करने  से ही वे रुद्र कहलाए वे रुद्र वास्तव में जीवन-शक्ति ( प्राण) हैं और वे जीवन-शक्तियाँ उन्हीं से बनी हैं।24।

'प्राणाः प्राणवतां ज्ञेयाः सर्वभूतेष्ववस्थिताः।
अत्युग्रस्य महत्त्वस्य साधुराचरितस्य च।२५।
अनुवाद:-
जीवन देने वाले प्राणों को सभी प्राणियों में निवास के रूप में समझा जाना चाहिए।
वह अत्यंत उग्र और अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा साधु आचरण वाला थे ।25।
_________     

प्राणांस्तस्य ददौ भूयस्त्रिशूली नीललोहितः।
लब्ध्वासून् भगवान्ब्रह्म देवदेवमुमापतिम्।२६।अनुवाद:-
नीले और लाल त्रिशूल धारी नील-लोहित रूद्र ने उस ब्रह्मा को फिर से जीवन देकर जीवित कर दिया।
देवताओं के स्वामी ब्रह्मा  ने प्राणों  को प्राप्त कर  रूद्र रूप में  उमापति को ही प्राप्त कर लिया।26।
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श्रीलिङ्गमहापुराण पूर्वभाग रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नामक द्वाविंशतितमोऽध्यायः। २२।
यह  लिंग-पुराण के पूर्वी भाग में रुद्र की उत्पत्ति का वर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय है।22।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अतिरिक्त  "देवी-भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के तृतीय अध्याय- में भी इसी प्रकार का गोलोक से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स ! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने सूक्ष्म अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे।  ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में जो ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक( नाशकरने वाले) होंगे।

"हे बालक ! विष्णु  विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे सूक्ष्म अंश से प्रकट होंगे। जिनको  क्षुद्रविराट (छोटा- विष्णु) कहा जाएगा ।

मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी।
उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स ! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहर कर स्थित रहो।'

इस प्रकार उस बालक से यह कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ गोलोक में पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।

भगवान श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) रूप में ब्रह्मा से बोले– 'वत्स ! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे ! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से तुम  प्रकट होओ।' 

फिर गोपेश्वर श्री कृष्ण ने रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव ! जाओ। महाभाग ! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’

नारद ! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये।

महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी ब्रह्माण्ड में क्षुद्र विष्णु के रूप में विद्यमान हैं। उन क्षुद्र विराट विष्णु  का स्वरूप कृष्ण की अपेक्षा युवा है जबकि कृष्ण का स्वरूप सदा किशोर वय में होता है। यही दोनों की मौलिकता का एक प्रमुख भेद है।
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अनुवाद:-
इन क्षीर-शायी नारायण  की सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का शरीर है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उस (क्षुद्र विष्णु) के अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे परन्तु उसका कभी कहीं अन्त नहीं पाया।
सन्दर्भ:-
ब्रह्म वैवर्त पुराण-
प्रकृतिखण्ड: अध्याय(3) तथा देवीभागवत पुराण नवम स्कन्ध अध्याय-(3) 
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नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा जब पद्मनाभ (विष्णु) की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष ( छोटे विष्णु )के दर्शन प्राप्त हुए।

महाविराट(वे पुरुष  क्षुद्र विराट् )  रोमकूपक में ( क्षीरसागर )के  भीतर जलमय शैय्या पर  शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, तब ब्रह्मा को उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए। 

साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी ब्रह्मा आदि को  दर्शन हुआ। फिर तो उन ब्रह्मा ने स्वयं  श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।

स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु ( श्रीकृष्ण)  जो गोलोक में अपने मूल कारण "कृष्ण" रूप में ही विराजमान हैं वही समयानुसार आभीर जाति में मानवरूप में सीधे अवतरित होकर इस पृथ्वी पर धर्म ( सदाचरण) की शिक्षा देने के लिए आते हैं; 

क्योंकि आभीर (गोप) जाति साक्षात् उनके रोम कूप ( शरीर के हृदय कोशिका) से उत्पन है जो गुण-धर्म में उन्हीं कृष्ण के समान होती है। विज्ञान में यही समरूपण (क्लोन) विधि कहलाती है।

इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो  को हम प्रस्तुत करते हैं।

कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि में कोई  दूसरी जाति नहीं  है।

अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर  स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं।

लोकनाथ" भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण  गोपों के ही घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं।                      

इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)

गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत:  इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_ 

ऋग्वेद में विष्णु के लिए  'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है।  वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित  विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं। 

जो पुराण वर्णित गोलोक का  ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा  "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी) लम्बे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे  ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।

विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप  परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ  रहती हैं , वहाँ पड़ता है।

"कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।

ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)

शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥

इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड को तीन पगों( कदमों) ही में नाप लिया है

इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान गोलोक ही माना गया है -

"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।

उस विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य दिखाई देते है। अर्थात तद् विष्णो:( उस विष्णु के)
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर के  (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥

अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं अर्थात- जिस प्रकाशित लोक में अनेक सूर्य गण विस्तारित हैं। जो  विस्तृत नेत्रों के समान उस विष्णु के उत्तम से उत्तम स्थान (लोक ) को सदैव देखते हैं।

ऋग्वेद के मण्डल 1 के सूक्त (154) की ऋचा संख्या (6) में भी नीचे देखें-

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" ऋग्वेद-१/१५४/६।)

सरल अनुवाद व अर्थ:-जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं स्थित  अथवा विचरण करती हैं उस  स्थानों को - तुम्हारे  जाने के लिए जिसे-  वास्तव में तुम चाहते भी हो। जो- बहुत प्रकारों से प्रशंसित है जो- सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का  उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान लोक है जो अत्यन्त उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है  उसी के लिए यहाँ हम वर्णन करते हैं ॥६॥

उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)। वस्तुत ऋग्वेद में यहाँ उसी गोलोक का वर्णन है जो ब्रह्म वैवर्त पुराण और देवीभागवतपुराण और गर्ग संहिता आदि  में वर्णित गोलोक है ।

विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी ( बहुत अंशों वाला) रूप है। 

सृष्टि में क्रियान्वित रहता है। स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत:  गोलोक की ही सृष्टि हैं 

"परन्तु पृथ्वी लोक पर गोपों की उत्पत्ति सत्युग में स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से ही उसी क्रम में होती है। जैसे गोलोक में कृष्ण से मूल सृष्टि होती है  क्योंकि क्षुद्र विष्णु  भी स्वराट् विष्णु के अंश अवतार है।

पृथ्वी पर सत्युग में गोप (आभीर) जन उपस्थित रहते हैं। चातुर्वर्ण की सृष्टि और ऋषि, देवता आदि की सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात् जब ब्रह्मा एक महायज्ञ करते हैं। उसमें ब्रह्मा अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के  चातुर्यवर्ण के लोगों को आमन्त्रित करते हैं। गोप ब्रह्मा की सृष्टि न होने से  इस यज्ञ में ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किये जाते हैं।

जब इस यज्ञ के शुभ मुहूर्त (दिन- रात का तीसवाँ भाग ) व्यतीत न हो जाये इसी कारण से ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । अत्रि इस "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में हैं।

विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है होतृ कहलाता है।। 

जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में  महायज्ञ के अवसर पर जब ब्रह्मा  की पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर मुहूर्त के अनुसार उपस्थित न होती हैं। क्यों वे सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं। याज्ञिक अनुष्ठान मुहूर्त विशेष में ही फलकारक होते हैं। सावित्री गृह कार्य में व्यस्त होने से यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं। अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब ब्रह्मा की सृष्टि से अलग वैष्णव सृष्टि गोपों (आभीरों) की कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।

विष्णु ही इस कन्या के दत्ता (कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं।

"निष्कर्ष:- उपर्युक्त पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय- (१६-१७) में वर्णित गायत्री की कथा से प्रमाणित होता है कि गायत्री के परिवारीय-जन गोप ,गोलोक से पृथ्वी पर गोपालन हेतु सतयुग में ही अवतरित हो गये थे। गोपों की सृष्टि पृथ्वी पर ही गोलोक के समान स्वराट् विष्णु के प्रतिनिधि क्षुद्र विष्णु के रोम कूपों से ब्रह्मा से पूर्व ही हो जाती है। 

 ये ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक थे; इसलिए पुष्कर यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के साथ इन्हें ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किया गया। ब्रह्मा का यह यज्ञ एक हजार वर्ष तक चला था।

अत्रि जो सावित्री द्वारा शापित हो गये थे;  गायत्री और ब्रह्मा के विवाह में सहायक होने के कारण उन्हें फिर आभीर कन्या गायत्री द्वारा  ही शाप मुक्त कर वरदान से अनुग्रहीत किया गया।

इसलिए अत्रि ने गायत्री को माँ कहकर सम्बोधित किया तब अत्रि को आभीर कन्या गायत्री का प्रथम विवाह कराने वाले पुरोहित होता हुए तभी से अहीरों के गोत्र प्रवर्तक हैं। अत: इन अत्रि को अहीरों का  पूर्वज कैसे कहा जा सकता है ? 

अत्रि आभीर कन्या  गायत्री  का विवाह भगवान् - विष्णु के अभिभावकत्व (संरक्षक होने के भाव ) में केवल यज्ञ कार्य व आध्यात्मिक कार्य करने हेतु ब्रह्मा के साथ कराते हैं गायत्री वैष्णवी शक्ति होने से ब्रह्मा से कोई सन्तान उत्पन्न नही होती है। ये ब्रह्मा की नाम मात्र की पत्नी हैं। गायत्री के समय से अत्रि अहीरों के प्रथम पुरोहित होने से गोत्र प्रवर्तक भी बन जाते है। परन्तु 'अत्रि का आभीर (यादव ) जाति से कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है।

 ये कालान्तर में अहीर जाति के पुरोहित बन कर  गोत्र प्रवर्तक  हो गये हों यह सम्भव है परन्तु अहीर जाति अत्रि से उत्पन्न हुई है यह कहना शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत है । 

विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों में ही रहता है।

"कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।

विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि (इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।

विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड '  ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में  गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।

ऋग्वेद 1.22.18) में  भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।

विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।

आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।

और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु (कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।

"व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेने की पात्रता प्राप्त कर लेता है।

वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का  पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।

 "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानम्-अधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजामि- अहम्।। 
श्रीमद्भगवद्गीता- ( 4/7) 

'हे अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।

अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। सृष्टि सर्जन खण्ड में दश अध्याय हैं।

पुस्तक के द्वितीय खण्ड में कृष्ण के आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारों का सैद्धान्तिक विवेचन व उनकी मानव जीवन में उपयोगिता पर उपनिषदों और भगवद्गीता के माध्यम से आनुषंगिक व्याख्या प्रस्तुत की गयी है।


और अन्तिम लोकाचरण खण्ड में गोपेश्वर भगवान  श्री कृष्ण के सांसारिक आचरण तथा लोक व्यवहार की विवेचना लौकिक और पारलौकिक सन्दर्भों में की गयी है।

व्यक्ति संसार में जन्म लेकर अपने विचारों को क्रियान्वित करते हुए कर्म करता है। और वाणी उसके विचारों को ध्वन्यात्मक रूप से प्रस्तुत करने का माध्यम है। सच्चे अर्थों में विचारों का  व्याख्यात्मक रूप आचरण है। और वाणी उसका भाष्य है।

मानव जीवन के चरित्र की समग्रता को अभिव्यक्त करने में कृष्ण का  चरित्र एक आदर्श है।

कृष्ण ने जीवन पर्यन्त समाज का समय के अनुरूप मार्गदर्शन किया। कृष्ण ने ही सर्वप्रथम पशुओं की हिंसा से सनी हुई इन्द्र पूजा अथवा यज्ञ पर रोक लगाई- पुराणों इस अभियान को गोवर्धन पूजा के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया गया है।

कृष्ण ने स्वयं उस भागवत सम्प्रदाय को परम्परागत देवपूजा से पृथक शक्ति और कर्म काण्ड रहित रूप दिया- भागवत का ही नामान्तरण वैष्णव है। वैष्णव, भागवत, पाञ्चरात्र आदि नाम परस्पर पर्याय वाली हैं। अहीर परम भागवत तथा वैष्णव थे।




भविष्यपुराणम् ‎ | पर्व ३ (प्रतिसर्गपर्व)/खण्डः ४अध्याय (19) में  श्रीकृष्ण के जीवन की उन घटनाओं का भी विवरण जिसे जन सामान्य लोग नहीं जानते हैं।
कृष्ण का पशु-प्रेम  और देवों की यज्ञ में पशुओं की हिंसा होने से उन्हें बन्द कराने की बात बुद्ध से भी प्राचीन है। 
इन्द्र की यज्ञ में पशुओं का बध प्राय:  होता ही था। इस लिए गोकुल के समस्त यादव गोपों को निर्देशित किया कि वे इन्द्र की परम्परागत यज्ञ का तत्काल निषेध और बहिष्कार करें-
___________________________________
अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में  विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती थी ।
 इसी कारण कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये भागवत( वैष्णव) मत  का विधान किया ।६०।

समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।
अनुवाद:- ★- कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का  विधान किया।61

विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। 

यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।

देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।  
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् ।    प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-★ कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। 

तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।    

तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।
अनुवाद:- ★ तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।    
            
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम् ।नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★ तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।

राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।       
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-★ वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।
 वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।

इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    
शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
अनुवाद:- ★ यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।

इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★

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विचार विश्लेषण-
इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। 
जिसके साक्ष्य जहाँ तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।
जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही थी और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
तब ऐसे में श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।

पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी।  तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में  रोककर निषिद्ध दिया था। 

पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित  भी किया ही है। भले ही रूपकविधेय कोई भी हो-
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है। 
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।

कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से  रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को  हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:-  कि  कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।
वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।
वह चौर, सर्वभोगी ,मांसभक्षक  और पराई स्त्री का भोग करने वाला यम गृह जाने वाला है। 

जीवहन्ता तो विशेषतया यम के सदन में जाता ही है। और जो इन सब लक्षणों से दूर  है वही प्रकृति से परे भगवान् है।48-53।

रूढ़िवादी ब्राह्मण  "वैदिकी हिंसा हिंसा  न भवति का विधान बनाते हैं । मनुस्मृति के पञ्चम अध्याय में पशुबलि के विधान पारित रूढ़िवादी पुरोहितों द्वारा किए गये हैं । विस्तार भय से यहाँ देने उचित नहीं है।

वही बात  रूढ़िवादी पुरोहित मध्वाचार्य और चैतन्य के बहाने से रूढ़िवादी पुरोहित यहाँ यज्ञाञ्श के द्वारा कृष्ण भक्त मध्वाचार्य के प्रति  कर रहे हैं।

उन शचिपुत्र यज्ञाञ्श के अनुसार-
यह भगवान हिंसायुक्त यज्ञ से तृप्त होते हैं। 
वह पशु जिनकी अग्नि में आहुति प्रदान की जाती है। शीघ्र ही  परम पद को गमन करता है उसे मोक्ष मिलता है।
इसमें यज्ञ कर्ता का पुण्य ओर भी बढ़ जाता है।

जो पापी मनुष्य हिंसा से रहित यज्ञ को विधिरहित रूप से करता है।  वह उस दोष के कारण अन्धतामिस्र नरक में चिरकाल तक व्यथित होता है। इस लिए हिंसा युक्त यज्ञ-विधि सहित करने से महा पुण्य और विधि रहित करने से महापाप की प्राप्ति होती है।

परन्तु कृष्ण इस हिंसक देव यज्ञ को  सदैव विरोधी थे।इसी कारण से कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र के यज्ञों पर रोक लगा दी। 
कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर दिया । 
और उसके स्थानपर कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि को प्राकृतिक उत्सव के आयोजन पर अन्नकूट( अन्नमय ईश्वरी यजन  का विधान किया।58-61।

इस अन्नकूट के विधान से क्रोधित होकर ही देवराज इन्द्र  व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने दुष्प्रयास  किया था।

तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति प्रसन्न हो गयीं तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण को हृदय में प्रवेश कर गयीं। 

तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया । 
तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।।62-64।।

निष्कर्ष:-
वस्तुत इस शचीपुत्र यज्ञांश में श्लेष पद द्वारा पुराण कार इन्द्र आदि देवों के कृष्ण द्वारा किए गये निषेध को इंगित कर रहा है।

कृष्ण को आध्यात्मिक चरित्र पर रास और श्रृँगार की कीचड़ उछाल ने वाले भी यही पुरोहित और इनके अनुयायी ही थे।  ब्राह्मण से प्रथक् भागवत अथवा वैष्णव अथवा सात्वत गोपो का धर्म अथवा मत था। जिसमें वर्ण व्यवस्था और यज्ञ मूलक कर्मकाण्ड त्याज्य थे । केवल भाव शुद्धि और सम बुद्धि ही मान्य थी। 

श्रीमद्भगवद्गीता में कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर देव पूजा तथा वर्णव्यवस्था और पुरोहित वाद का जोरदार खण्डन बड़े ही दार्शनिक अन्दाज में किया गया है।

मध्वाचार्य और चैतन्य महाप्रभु  ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं।

 श्रीचैतन्य महाप्रभु, बंगाल प्रान्त के नवद्वीप नगर के श्रीधाम मायापुर स्थान में फाल्गुन पूर्णिमा की संध्या को १४०७ शकाब्द (तदनुसार फरवरी १४८६ ई.) में जन्मे  थे ।

उनके पिता श्री जगन्नाथ मिश्र सिल्हट जिले के एक विद्वान् ब्राह्मण थे जो विद्यार्थी के रूप में नवद्वीप आये थे क्योंकि उस समय नवद्वीप शिक्षा तथा संस्कृति का क्रेन्द्र माना जाता था। 

वे नवद्वीप के महान् विद्वान् श्रील नीलाम्बर चक्रवर्ती की पुत्री श्रीमती शचीदेवी से विवाह करने के पश्चात् गंगानदी के तट पर निवास करने लगे।

श्री जगन्नाथ मिश्र को उनकी पत्नी श्रीमती शचीदेवी से कई पुत्रियाँ हुईं, जिनमें से अधिकांश की मृत्यु कच्ची आयु में ही हो गई।
उनके दो पुत्र बचे रहे, जिनके नाम श्री विश्वरूप तथा श्री विश्वम्भर थे, जिन्हें उनके माता-पिता का प्यार प्राप्त हो सका। 
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विश्वम्भर उनकी दसवीं तथा सबसे छोटी सन्तान थे, जो आगे चलकर निमाई पण्डित के नाम से विख्यात हुए और संन्यास आश्रम ग्रहण करने के बाद भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु कहलाए।

भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु ४८ वर्षों तक अपनी दिव्य लीलाओं को प्रदर्शित करने के बाद १४५५ शकाब्द में पुरी में देह त्याग कर  गये।

वे अपने प्रथम चौबीस वर्षों तक विद्यार्थी तथा गृहस्थ के रूप में नवद्वीप में रहे।

उनकी पहली पत्नी श्रीमती लक्ष्मीप्रिया थीं, जिनकी मृत्यु अल्पायु में हो गई जब महाप्रभु अपने नगर से बाहर गये हुए थे। 
जब वे पूर्वी बंगाल से लौट कर आये, तो उनकी माता ने दूसरा ब्याह करने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने मान लिया। उनकी दूसरी पत्नी का नाम विष्णुप्रिया देवी था, जिन्हें आजीवन अपने स्वामी का वियोग सहना पड़ा, क्योंकि उन्होंने चौबीस वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया, जब श्रीमती विष्णुप्रिया मुश्किल से सोलह वर्ष की थीं।

संन्यास ग्रहण करने के बाद महाप्रभु ने अपनी माता श्रीमती शचीदेवी के आग्रह पर जगन्नाथपुरी को अपनी कर्मभूमि बना लिया। 

भगवान् वहाँ पर चौबीस वर्षों तक रहे। इनमें से उन्होंने छह वर्ष भारत (विशेष रूप से संपूर्ण दक्षिण भारत) में श्रीमद्भागवत का उपदेश देते हुए निरन्तर भ्रमण करने में बिताये।

भगवान् चैतन्य ने न केवल श्रीमद्भागवत का उपदेश दिया, अपितु भगवद्गीता का भी अत्यन्त व्यावहारिक ढंग से प्रचार किया। 
भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण को परम भगवान् के रूप में अंकित किया गया है।
अत: चैतन्य जी कृष्ण ते अनन्य भक्त थे।
इस ऐतिहासिक सांस्कृतिक लेखन का भावपूर्ण
 समर्पण सभी क्रान्ति कारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक अन्वेषकों को 





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