मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
दुनियाँँ झूँठी किस्मत रूठी और नइया मझधार में-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे ।
करता आज पुकार मैं-
         मुखड़ा-
            
खाटू वाले श्याम निराले ।
जीवन मेरा अब तेरे हबाले-
दीन दु:खियों के ओ रखवाले-
क्यों भटक रहा बेकार मैं-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
       अन्तरा-१

वृन्दावन की सन्त गलिन में
लेकर आया अन्त: मलिन मैं-
कभी तंज और, तन्हाई को झेला-
सूने पथ पर मैं पथिक अकेला
चलता धीमी  रफ्तार में-
       अन्तरा २

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
दुनियाँँ झूँठी किस्मत रूठी और नइया मझधार में-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे ।
करता आज पुकार मैं-

चंचल मन है क्षणभंगुर काया 
कभी सत्य का मैंने सार न पाया।
दुनियाँ के सब  नौटंकी मेले-
करते करते ही समय बिताया।
साँसों को भी  बैच दिया 
 इस गफलत के  बाजार में 
         अन्तर-३

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
दुनियाँँ झूँठी किस्मत रूठी और नइया मझधार में-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे ।
करता आज पुकार मैं-

जज्वा जो मेरे जेहन में समाया।
बदनशींवी के जुल्मत का  साया
उम्र का सूरज भी ढलने को आया
तेरी माया का कोई भेद न पाया
समय निकल गया है गुबार में-

मोहन प्यारे तेरे द्वारे।
करता आज पुकार मैं-
दुनियाँँ झूँठी किस्मत रूठी और नइया मझधार में-
मोहन प्यारे तेरे द्वारे ।
करता आज पुकार मैं-
        
   गीतकार- वीरपाल- यादव
        
         

सोमवार, 29 अप्रैल 2024

ताप और उष्मा में अन्तर-

ऊष्मा और तापमान ये दोनों काफी भ्रमित करने वाले शब्द हैं। आमतौर पर हम इन दोनों शब्दों को अपने दैनिक जीवन में अपनी सुविधानुसार प्रयोग करते हैं। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि ये दोनों शब्द एक दूसरे से बहुत अलग हैं। इससे पहले कि मैं इन दोनों शब्दों के बीच अंतर को बताऊं, पहले ये देखते हैं कि आम प्रचलित धारणाएं क्या हैं।

सामान्यतः लोग ऊष्मा और तापमान शब्दों को कुछ इस तरह प्रयोग करते हैं -

  • ऊष्मा एक प्रकार की ऊर्जा है।
  • तापमान ऊष्मा का मापक है।
  • अगर कोई वस्तु ठंडी है तो उसका तापमान कम होगा। अगर वस्तु गर्म है तो उसका तापमान ज्यादा होगा।

दैनिक जीवन में प्रयोग किए जाने वाले ऐसे वाक्य एक हद तक ही सही हैं। परन्तु विज्ञान में हमें धारणाओं को एकदम सूक्ष्म रूप में सही सिद्ध करना होता है। अतएव ऊपर लिखी सारी बातें पूर्णरुपेण सही नहीं हैं।

आइए अब देखते हैं कि इन दोनों शब्दों में क्या अंतर है।

ऊष्मा - ऊष्मा एक तरीका है जिसके द्वारा आप ऊर्जा को एक जगह से दूसरे जगह तक स्थानांतरित कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आप किसी ईंधन का प्रयोग करके किसी वस्तु को गर्म कर रहे हैं। गर्म करने से वस्तु का तापमान बढ़ जाता है। वास्तव में उस वस्तु की आंतरिक ऊर्जा बढ़ जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में आप ईंधन की रासायनिक ऊर्जा को उस वस्तु के अणुओं की गतिज ऊर्जा और स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित कर रहे हैं और ऊष्मा यहां एक माध्यम का कार्य करती है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ऊष्मा स्वयं में कोई ऊर्जा नहीं है बल्कि आप ऊष्मा के उपयोग से ऊर्जा को स्थानांतरित करते हैं।

तापमान - किसी भी वस्तु के अणुओं अथवा कणों जिससे वह बनी है उनकी कुल औसत गतिज ऊर्जा को ही उस वस्तु का तापमान कहते हैं।

इसका अर्थ है कि तापमान एक तरह से किसी वस्तु की आंतरिक ऊर्जा का मापक है ना कि ऊष्मा का।

 अगर किसी वस्तु का तापमान ज्यादा है तो हम कहते हैं कि उसके कणों की औसत गतिज ऊर्जा ज्यादा है। अगर किसी वस्तु का तापमान कम है तो हम कहते हैं कि उसके कणों की औसत गतिज ऊर्जा कम है।

वास्तव में जब भी आप किसी वस्तु को गर्म करते हैं तो आप ऊष्मा के माध्यम से उस वस्तु में ऊर्जा को स्थानांतरित करते हैं। अब चूंकि आप उस वस्तु को ऊर्जा दे रहे हैं इसलिए उस वस्तु के कण काफी तीव्रता से गति करने लगते हैं। यही कारण कि वस्तु के कणों की औसत गतिज ऊर्जा बढ़ जाती है। और यही कारण है कि वस्तु का तापमान भी बढ़ जाता है।


किसी वस्तु का ताप उसकी गर्माहट अथवा ठंडेपन की माप है अथवा अन्य शब्दों में किसी वस्तु का ताप वह भौतिक राशि है जिससे दो वस्तुओं को संपर्क में रखने पर उसमे ऊष्मा के प्रवाह की दिशा का ज्ञान होता है।



रविवार, 28 अप्रैल 2024

श्रीकृष्णावतार : भगवान का परिपूर्णतम अवतार

श्रीकृष्णावतार : भगवान का परिपूर्णतम अवतार

भगवान अपने जन्म की विलक्षणता बतलाते हुए कहते हैं कि वे अजन्मा और अविनाशी हैं, फिर भी सभी जीवों के स्वामी हैं। उनका न कभी जन्म होता है न मरण होता है। भगवान का मंगलमय शरीर नित्य, सत्य और चिन्मय है जो जन्म लेता हुआ-सा तथा अन्तर्धान हुआ-सा दिखाई देता है। वे युग-युग में अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (४।९) में कहा है–‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्।’ इसका आशय है कि मनुष्य का शरीर कर्त्तव्य और वासनापूर्ण किए हुए कर्म का फल है, किन्तु भगवान का शरीर कर्तृत्वरहित, वासनारहित तथा कर्मफल से रहित अवतरण है।

भगवान के परिपूर्णतम अवतार के विषय में बताते हुए श्रीगर्गाचार्यजी कहते हैं–जिसके अपने तेज में अन्य सभी तेज विलीन हो जाते हैं, भगवान के उस अवतार को ‘परिपूर्णतम अवतार’ कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण सोलह कलाओं (छ: ऐश्वर्य, आठ सिद्धि, कृपा तथा लीला) के साथ प्रकट हुए। स्वयं परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण ही हैं, दूसरा कोई नहीं; क्योंकि श्रीकृष्ण ने एक कार्य के उद्देश्य से अवतार लेकर अन्य अनेक कार्यों का सम्पादन किया। इससे भी उनके लिए ‘कृष्णस्तु भगवान स्वयम्’ कहा जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण का भूतल पर अवतार

पूर्वकाल में (वाराह-कल्प में) पृथ्वी दानव, दैत्य, असुर-स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओं के भार से आक्रान्त हो गयी थी; शोकाकुल होकर वह गौ का रूप धारणकर असुरों द्वारा सताये गए देवताओं के साथ ब्रह्माजी की शरण में गई। देवताओं सहित पृथ्वी ने अपनी व्यथा चतुरानन ब्रह्माजी को सुनाई।

 ब्रह्माजी पृथ्वी सहित देवताओं को लेकर भगवान शंकर के निवासस्थान कैलास पर्वत पर गए। भक्तों पर आए कष्ट को सुनकर पार्वतीजी और शंकरजी को बहुत दु:ख हुआ पर वे उनकी पीड़ा को हरने में असमर्थ थे। फिर धर्म के साथ विचार-विमर्श कर ब्रह्माजी सबके साथ श्रीहरि के धाम वैकुण्ठ पहुंचे और श्रीहरि की स्तुति कर पृथ्वी की व्यथा सुनाई। देवताओं की स्तुति सुनकर श्रीहरि ने कहा–’ब्रह्मन् ! साक्षात् श्रीकृष्ण ही अगणित ब्रह्माण्डों के स्वामी और परमेश्वर हैं। उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा। अत: तुम लोग उन्हीं के अविनाशी गोलोकधाम को जाओ। वहां तुम्हारे अभीष्ट कार्य की सिद्धि होगी। फिर हमलोग–लक्ष्मी, सरस्वती, श्वेतद्वीप निवासी विष्णु, नर-नारायण, अनन्त शेषनाग, मेरी माया, कार्तिकेय, गणेश, वेदमाता सावित्री आदि देवता–सबकी इष्टसिद्धि के लिए वहां आ जाएंगे।’

सब देवता अद्भुत गोलोकधाम की ओर चल दिए जो भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। श्रीकृष्ण ही वायु रूप से उसे धारण करते हैं। समस्त देवताओं ने परम सुन्दर गोलोकधाम के दर्शन किए। गोलोकधाम में ब्रह्माजी, शंकर व धर्म आदि देवताओ को एक अद्भुत तेज:पुंज दिखाई दिया जो करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस तेजस्वरूप, परात्पर, परमेश्वर श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए ब्रह्माजी ने कहा–

वरं वरेण्यं वरदं वरदानां च कारणम्।
कारणं सर्वभूतानां तेजोरूपं नमाम्यहम्।।
मंगल्यं मंगलार्हं च मंगलं मंगलप्रदम्।
समस्तमंगलाधारं तेजोरूपं नमाम्यहम्।।

अर्थात्–जो वर, वरेण्य, वरद, वरदायकों के कारण तथा सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति के हेतु हैं; उन तेज:स्वरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मंगलकारी, मंगल के योग्य, मंगलरूप, मंगलदायक तथा समस्त मंगलों के आधार हैं; उन तेजोमय परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ।

समस्त योगीजन आपके इस मनोवांछित ज्योतिर्मय स्वरूप का ध्यान करते हैं। परन्तु जो आपके भक्त हैं, वे आपके दास बनकर सदा आपके चरणकमलों की सेवा करते हैं।

ब्रह्मा आदि देवताओं को तेजपुंज में श्रीराधाकृष्ण का दर्शन

ब्रह्माजी ने कहा–’परमेश्वर आपका जो परम सुन्दर और कमनीय किशोर-रूप है, आप उसी का हमें दर्शन कराइए।’ तब उन देवताओं ने उस तेज:पुंज के मध्यभाग में एक कमनीय स्वरूप देखा जिसका बादलों के समान श्यामवर्ण था और उनके मुख की मन्द मुसकान त्रिलोकी के मन को मोह लेने वाली थी। उन्होंने अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है, उनके गालों पर मकराकृति कुण्डल, वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, चरणारविन्दों में रत्नजटित नूपुर व श्रीविग्रह पर अग्नि के समान दिव्य पीताम्बर शोभायमान था। पके हुए अनार के बीज की भांति चमकीली दंतपक्ति उनके मुख की मनोरमता को और बढ़ा रही थी। बिम्बाफल के समान अरुण अधरों पर मुरली लिए वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए कातर जान पड़ते थे। कमलदल के समान  बड़े-बड़े नेत्र और भ्रकुटि-विलास से कामदेव को भी मोहित कर रहे थे। माथे पर मोरपंख का मुकुट, मालती के सुगंधित पुष्पों का श्रृंगार व चंदन, अगुरु, कस्तूरी और केसर के अंगराग से विभूषित थे। उनकी घुटनों तक लम्बी-बड़ी भुजाएं व गले में सुन्दर वनमाला है। बहुमूल्य रत्नों के बने किरीट, बाजूबंद और हार उनके विभिन्न अंगों की शोभा को बढ़ा रहे थे। विशाल वक्ष:स्थल पर कौस्तुभमणि प्रकाशित हो रही थी। भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय अंग ही आभूषणों को सुशोभित कर रहे थे–‘भूषणानां भूषणानि अंगानि यस्य स:।’

श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान के गले का चिन्तन करें, जो मानो कौस्तुभमणि को भी सुशोभित करने के लिए ही उसे धारण करता है–

‘कण्ठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थम्।’ (३।२८।२६)

उसी तेजपुंज में देवताओं ने मनमोहिनी श्रीराधा को भी देखा। वे प्रियतम श्रीकृष्ण को तिरछी चितवन से निहार रही थीं। जिनकी मोतियों के समान दंतपक्ति, मन्द हास्य से युक्त मुख की छटा, शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों से नेत्र, दुपहरिया के फूल के समान लाल-लाल अधर, पैरों में झनकारते हुए मंजीर, मणिरत्नों की आभा के समान नख, कुंकुम की आभा को तिरस्कृत करने वाले चरणतल, कानों में मणियों के कर्णफूल, गरुड़ की चोंच के समान नुकीली नासिका में गजमुक्ता की बुलाक, उतम रत्नों के हार, कंगन व बाजूबंद, घुंघराले बालों की वेणी में लिपटी मालती की माला, कण्ठ में पारिजात पुष्पों की माला, विचित्र शंख के बने रमणीय भूषण, वक्ष:स्थल में अनेक कौस्तुभमणियों का हार व अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण किए हुए थीं और तपाये हुए सुवर्ण की-सी जिनकी अंगकांति थी। वे समस्त आभूषणों से विभूषित थीं और समस्त आभूषण उनके सौंदर्य से विभूषित थे।

परमेश्वर श्रीकृष्ण और परमेश्वरी श्रीराधा के दर्शन से समस्त देवता आनन्द के समुद्र में गोता खाने लगे और उन्हें ऐसा लगा कि उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये। सभी देवताऔं ने भगवान श्रीराधाकृष्ण को प्रणाम कर स्तुति की।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा देवताओं का स्वागत और उन्हें आश्वासन देना

भगवान श्रीकृष्ण ने सब देवताओं से कहा–तुम सब लोग मेरे इस धाम में पधारे हो, तुम्हारा स्वागत है। मैं समस्त जीवों के अन्दर स्थित हूँ, किन्तु स्तुति से ही प्रत्यक्ष होता हूँ। तुम लोग यहां जिस कारण से आए हो, वह मैं निश्चित रूप से जानता हूँ।  मेरे रहते तुम्हें क्या चिन्ता है? मैं कालों का भी काल, विधाता का भी विधाता, संहारकारी का भी संहारक और पालक का भी पालक परात्पर परमेश्वर हूँ। मेरी आज्ञा से शिव संहार करते हैं; इसलिए उनका नाम ‘हर’ है। तुम मेरे आदेश से सृष्टि के लिए उद्यत रहते हो; इसलिए ‘विश्वस्रष्टा’ कहलाते हो और धर्मदेव रक्षा के कारण ही ‘पालक’ कहलाते हैं। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सबका ईश्वर में ही हूँ। मैं ही कर्मफल का दाता तथा कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। पर भक्त मेरे प्राणों के समान हैं और मैं भी भक्तों का प्राण हूँ।

वेद मेरी वाणी, ब्राह्मण मुख और गौ शरीर है। सभी देवता मेरे अंग हैं व साधुपुरुष मेरे प्राण हैं। प्रत्येक युग में जब भी दुष्टों द्वारा इन्हें पीड़ा होती है, तब मैं स्वयं अपने-आपको भूतल पर प्रकट करता हूँ। जो लोग भक्तों, ब्राह्मणों व गौओं से द्वेष रखते हैं, उनका घातक बनकर जब मैं उपस्थित होता हूँ, तब कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर पाता। देवताओ! मैं पृथ्वी पर जाऊँगा और तुम भी भूतल पर अपने अंश से अवतार लो। इस प्रसंग से स्पष्ट है कि परमात्मा के संसार की सुव्यवस्था के आधार विप्र, धेनु, सुर और संत हैं। इन चारों पर जब संकट आ पड़ता है, तब भगवान का अवतार किसी लीला के माध्यम से होता है। भगवान श्रीकृष्ण के परिपूर्णतम अवतार का प्रयोजन भक्तों की चिन्ताओं को दूर करना व उन्हें प्रसन्न करना है।

श्रीराधा सहित गोप-गोपियों को व्रज में अवतीर्ण होने के लिए भगवान श्रीकृष्ण का आदेश

भगवान श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर कहा–’गोपो और गोपियो ! तुम सब-के-सब नन्दरायजी का जो उत्कृष्ट व्रज है, वहां जाओ और व्रज में गोपों के घर-घर में जन्म लो। राधिके ! तुम भी व्रज में वृषभानु के घर प्रकट हो, मैं बालक रूप में वहां आकर तुम्हें प्राप्त करुंगा। सुशीला आदि जो तैंतीस तुम्हारी सखियां हैं, उनके तथा अन्य बहुसंख्यक गोपियों के साथ तुम गोकुल को पधारो। मेरे प्रिय-से प्रिय गोप बहुत बड़ी संख्या में मेरे साथ क्रीडा के लिए व्रज में चलें और वहां गोपों के घर में जन्म लें।’ श्रीराधा ने भगवान से कहा–’जैसे शरीर छाया के साथ और प्राण शरीर के साथ रहते हैं, उसी प्रकार हम दोनों का जन्म और जीवन एक-दूसरे के साथ बीते, यह वर मुझे दीजिए।’ भगवान ने कहा–’मेरी आत्मा, मेरा मन और मेरे प्राण जिस तरह तुममें स्थापित हैं, उसी तरह तुम्हारे मन, प्राण और आत्मा भी मुझमें स्थापित हैं। हम दोनों में कहीं भेद नहीं है; जहां आत्मा है, वहां शरीर है। वे दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं हैं।’

श्रीराधाजी ने भगवान से कहा–जहां वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिलता। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने धाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा।

वैकुण्ठवासी नारायण और क्षीरशायी विष्णु आदि देवताओं का श्रीकृष्ण के स्वरूप में लीन होना

देवताओं के प्रार्थना करने पर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अवतार धारण करना स्वीकार कर लेते हैं। अब अवतार का आयोजन होने लगता है। इतने में वहां एक दिव्य रथ आता है और उसमें से उतरकर शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज नारायण महाविष्णु सबके देखते-देखते भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। यह परम आश्चर्य देखकर सभी देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। तदन्तर दूसरे दिव्य रथ पर पृथ्वीपति श्रीविष्णु पधारते हैं और वे भी राधिकेश्वर भगवान में विलीन हो जाते हैं। दूसरा महान आश्चर्य देखकर सभी देवता विस्मित हो गए। उसी समय प्रचण्ड पराक्रमी भगवान नृसिंह पधारे और वे भी श्रीकृष्ण के तेज में समा गए। इसके बाद सहस्त्र भुजाओं से सुशोभित श्वेतद्वीप के विराट्पुरुष भगवान श्रीकृष्ण के विग्रह में प्रविष्ट हो गए। फिर धनुष-बाण लिए कमललोचन भगवान श्रीराम, सीताजी व तीनों भाइयों सहित आए और श्रीकृष्ण के विग्रह में लीन हो गए। भगवान यज्ञनारायण अपनी पत्नी दक्षिणा के साथ पधारे, वे भी श्रीकृष्ण के श्यामविग्रह में लीन हो गए। तत्पश्चात् भगवान नर-नारायण जो जटा-जूट बांधे, अखण्ड ब्रह्मचर्य से शोभित, मुनिवेष में वहां उपस्थित थे, उनमें से नारायण ऋषि भी श्रीकृष्ण में लीन हो गए। किन्तु नर ऋषि अर्जुन के रूप में दृष्टिगोचर हुए। इस प्रकार के विलक्षण दिव्य दर्शन प्राप्तकर देवताओं को महान आश्चर्य हुआ और उन सबको यह भलीभांति ज्ञात हो गया कि परमात्मा श्रीकृष्ण ही स्वयं परिपूर्णतम भगवान हैं, और वे पुन: भगवान की स्तुति करने लगे।

कृष्णाय पूर्णपुरुषाय परात्पराय यज्ञेश्वराय परकारणकारणाय।
राधावराय परिपूर्णतमाय साक्षाद् गोलोकधामधिषणाय नम: परस्मै।।

अर्थात्–जो भगवान श्रीकृष्ण पूर्णपुरुष, पर से भी पर, यज्ञों के स्वामी, कारण के भी परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात् गोलोकधाम के अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावर को हम सादर नमस्कार करते हैं।

देवताओं ने आगे कहा–जो श्रीराधिकाजी के हृदय को सुशोभित करने वाले चन्द्रहार हैं, गोपियों के नेत्र और जीवन के मूल आधार हैं तथा ध्वजा की भांति गोलोकधाम को अलंकृत कर रहे हैं, वे भगवान आप संकट में पड़े हुए हम देवताओं की रक्षा करें और धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा, शंकर एवं अन्य देवताओं से कहा–मेरे आदेशानुसार तुमलोग अपने अंशों से देवियों के साथ भूतल पर जाओ और जन्म धारण करो। मैं भी अवतार लूंगा और मेरे द्वारा पृथ्वी का भार दूर होगा। मेरा यह अवतार यदुकुल में होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूंगा।

किस देवता का कहां और किस रूप में जन्म

ब्रह्माजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा–भूतल पर किसके लिए कहां निवासस्थान होगा? कौन देवता किस रूप में अवतार लेगा और वह किस नाम से ख्याति प्राप्त करेगा–यह बताइए? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–’कश्यप’ के अंश से ‘वसुदेव’ और ‘अदिति’ के अंश से ‘देवकी’ होंगी। मैं स्वयं वसुदेव और देवकी के यहां प्रकट होऊंगा। श्रीमद्भागवत के अनुसार–वे साक्षात् परम पुरुष भगवान वसुदेव के घर प्रकट होंगे, उनकी सेवा के लिए तथा उनके साथ ही उनकी प्रियतमा (श्रीराधाजी) की सेवा के लिए देवांगनाएं भी वहां जन्म धारण करें।

वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुष: पर:।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं सम्भवन्तु सुरस्रिय:।।

भगवान श्रीकृष्ण ने योगमाया को आदेश दिया–मेरे कलास्वरूप ये ‘शेष’ (भगवान अनन्त) देवकी के गर्भ से आकृष्ट हो रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे। तुम देवकी के उस गर्भ को ले जाकर रोहिणी के उदर में रख देना। उस गर्भ का संकर्षण होने से उनका नाम ‘संकर्षण’ होगा।

वसु ‘द्रोण’ व्रज में ‘नन्द’ होंगे और इनकी पत्नी ‘धरादेवी’ ‘यशोदा’ कहलाएंगी। ‘सुचन्द्र’ ‘वृषभानु’ बनेंगे तथा इनकी पत्नी ‘कलावती’ पृथ्वी पर ‘कीर्ति’ के नाम से प्रसिद्ध होंगी; इन्हीं के यहां ‘श्रीराधा’ का प्राकट्य होगा।

भगवान श्रीकृष्ण के सखा ‘सुबल’ और ‘श्रीदामा’ नन्द और उपनन्द के घर जन्म धारण करेंगे। इनके अलावा श्रीकृष्ण के ‘स्तोककृष्ण’, ‘अर्जुन’ एवं ‘अंशु’ आदि सखा नौ नन्दों के यहां प्रकट होगें। व्रजमण्डल में जो छ: वृषभानु हैं, उनके घर में श्रीकृष्ण के सखा–विशाल, ऋषभ, तेजस्वी और वरूथप अवतीर्ण होंगे।

गर्गसंहिता में वर्णन आता है कि गोलोकधाम में भगवान श्रीकृष्ण के निकुंजद्वार पर जो नौ गोप हाथ नें बेंत लिए पहरा देते थे, वे ही नौ गोप भगवल्लीला में सहयोग देने के लिए व्रज में ‘नौ नन्द’ के रूप में अवतरित हुए। इसी प्रकार गोलोकधाम में निकुंजवन में जो गायों का पालन करते थे, वे भी लीला में सहयोग देने के लिए ‘उपनन्द’ के रूप में अवतरित हुए। व्रजमण्डल के सबसे बड़े माननीय गोप पर्जन्यजी के नौ पुत्र हुए–धरानन्द, ध्रुवनन्द, उपनन्द, अभिनन्द, नन्द, सुनन्द, कर्मानन्द, धर्मानन्द और बल्लभ–वे ही नौ नन्द हैं। नौ नन्दों में श्रीनन्दरायजी की विशेष महिमा है।

नन्द, उपनन्द और वृषभानु

ब्रह्माजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा–’नन्द’, ‘उपनन्द’ तथा ‘वृषभानु’ किसको कहते हैं? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–नौ लाख गायों के स्वामी को ‘नन्द’ कहा जाता है। पांच लाख गौओं का स्वामी ‘उपनन्द’ पद को प्राप्त करता है। ‘वृषभानु’ उसे कहते हैं जिसके अधिकार में दस लाख गौएं रहतीं हैं। जिनके यहां एक करोड़ गौओं की रक्षा होती है, वह ‘नन्दराज’ कहलाता है। पचास लाख गौओं के स्वामी को ‘वृषभानुवर’ कहते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्यरूपधारिणी पार्वती’ से कहा–तुम सृष्टि-संहारकारिणी महामाया हो, तुम अंशरूप से नन्द के व्रज में जाओ और वहां नन्द के घर यशोदा के गर्भ से जन्म धारण करो। मानवगण पृथ्वी पर नगर-नगर में में तुम्हारी पूजा करेंगे। पृथ्वी पर प्रकट होते ही मेरे पिता वसुदेव यशोदा के सूतिकागृह में मुझे स्थापित कर तुम्हें ले आएंगे और कंस के स्पर्श करते ही तुम पुन: शिव के समीप चली जाओगी और मैं भूतल का भार उतारकर अपने धाम में आ जाऊंगा।


श्रीयदुवंशसमुद्भवा राधिकाजीवनी-)

(श्रीयदुवंशसमुद्भवा राधिकाजीवनी-)

परिचय

पाठ १-

 "Yadav Yogesh kumar Rohi

गर्ग संहिता गोलोक खण्ड : अध्याय 8 से उद्धृत आख्यान-

सुचन्द्र और कलावती के पूर्व-पुण्य का वर्णन, तथा अट्ठाईसवें द्वापर में उन दोनों का क्रमश: वृषभानु तथा कीर्ति के रूप में अवतरण जिसे गर्ग- आचार्य ने शौनक और जनक वंशीय राजा बहुलाश्व के रूप में वर्णन किया है।


श्रीगर्गजी कहते हैं- शौनक ! राजा बहुलाश्व का हृदय भक्तिभाव से परिपूर्ण था। हरिभक्ति में उनकी अविचल निष्ठा थी। उन्होंने इस प्रसंग को सुनकर ज्ञानियों श्रेष्ठ एवं महाविलक्षण स्वभाव वाले देवर्षि नारद जी को प्रणाम किया और पुन: पूछा।


राजा बहुलाश्व ने कहा- भगवन ! आपने अपने आनन्दप्रद, नित्य वृद्धिशील, निर्मल यश से मेरे कुल को पृथ्वी पर अत्यंत विशद विशाल बना दिया; क्योंकि श्रीकृष्ण भक्तों के क्षणभर के संग से साधारण जन भी सत्पुरुष महात्मा बन जाता है। इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ। श्रीराधा के साथ भूतल अवतीर्ण हुए साक्षात परिपूर्णतम भगवान ने भूतल पर अवतीर्ण हुए साक्षात परिपूर्णतम भगवान ने व्रज में कौन-सी लीलाएँ कीं- यह मुझे कृपा पूर्वक बताइये। देवर्षे ! ऋषीश्वर ! इस कथामृत द्वारा आप त्रिताप-दु:ख से मेरी रक्षा कीजिये।


श्री नारद जी बहुलाश्व से कहते हैं- राजन ! वह कुल धन्य है, जिसे परात्पर श्रीकृष्ण भक्त राजा निमि ने समस्त सदगुणों से परिपूर्ण बना दिया है और जिसमें तुम- जैसे योगयुक्त एवं भव-बन्धन से मुक्त पुरुष ने जन्म लिया है। तुम्हारे इस कुल के लिये कुछ भी विचित्र नहीं है। अब तुम उन परम पुरुष भगवान श्रीकृष्ण की परम मंगलमयी पवित्र लीला का श्रवण करो। वे भगवान केवल कंस का संहार करने के लिये ही नहीं, अपितु भूतल के संतजनों की रक्षा के लिये अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने अपनी तेजोमयी पराशक्ति श्री राधा का वृषभानु की पत्नी कीर्ति रानी के गर्भ में प्रवेश कराया। वे श्री राधा कलिन्दजाकूलवर्ती निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मन्दिर में अवतीर्ण हुईं। 

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उस समय भाद्रपद का महीना था। शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि एवं सोम का दिन था। मध्याह्न का समय था और आकाश में बादल छाये हुए थे। देवगण नन्दनवन के भव्य प्रसून लेकर भवन पर बरसा रहे थे। उस समय श्री राधिका जी के अवतार धारण करने से नदियों का जल स्वच्छ हो गया।

 सम्पूर्ण दिशाएँ प्रसन्न-निर्मल हो उठीं। कमलों की सुगन्ध से व्याप्त शीतल वायु मन्द गति से प्रवाहित हो रही थी। शरत्पूर्णिमा के शत-शत चन्द्रमाओं से भी अधिक अभिराम कन्या को देखकर गोपी कीर्तिदा आनन्द में निमग्न हो गयीं



गोलोक खण्ड : अध्याय 8

उन्होंने मंगल कृत्य कराकर पुत्री के कल्याण की कामना से आनन्ददायिनी दो लाख उत्तम गौएँ ब्राह्मणों को दान की। जिनका दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, तत्त्वज्ञ मनुष्य सैकड़ों जन्मों तक तप करने पर भी जिनकी झाँकी नहीं पाते, वे ही श्री राधिका जी जब वृषभानु के यहाँ साकार रूप से प्रकट हुईं और गोप-ललनाएँ जब उनका लालन-पालन करने लगी, तब सर्वधारण एवं सुन्दर रत्नों से खचित, चन्दन निर्मित तथा रत्न किरण मंडित पालने में सखी जनों द्वारा नित्य झुलायी जाती हुई श्री राधा प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की भाँति बढ़ने लगी। 

नारद के शब्दों में राधा जी का परिचय निम्न वाक्यों में है।

श्री राधा क्या हैं- रास की रंगस्थली को प्रकाशित करने वाली चन्द्रिका, वृषभानु-मन्दिर की दीपावली, गोलोक-चूड़ामणि श्रीकृष्ण के कण्ठ की हारावली। मैं उन्हीं पराशक्ति का ध्यान करता हुआ भूतल पर विचरता रहता हूँ।


पाठ २-

राजा बहुलाश्व ने पूछा- मुने ! वृषभानु जी का सौभाग्य अदभुत है, अवर्णनीय है; क्योंकि उनके यहाँ श्री राधिकाजी स्वयं पुत्री रूप से अवतीर्ण हुईं। कलावती और सुचन्द्र ने पूर्वजन्म में कौन सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप इन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ।


श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! राजराजेश्वर महाभाग सुचन्द्र राजा नृग के पुत्र थे। परम सुन्दर सुचन्द्र चक्रवर्ती नरेश थे। उन्हें साक्षात भगवान का अंश माना जाता है। पूर्वकाल में (अर्यमा प्रभृति) पितरों के यहाँ तीन मानसी कन्याएँ उत्पन्न हुई थी। वे सभी परम सुन्दरी थी। उनके नाम थे- कलावती, रत्नमाला और मेनका। पितरों ने स्वेच्छा से ही कलावती का हाथ श्री हरि के अंश भूत बुद्धिमान सुचन्द्र के हाथ में दे दिया। रत्नमाला को विदेहराज जनक के हाथ में और मेनका को हिमालय के हाथ में अर्पित कर दिया।

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 साथ ही विधि पूर्वक दहेज की वस्तुएँ भी दी। महामते ! रत्नमाला से सीताजी और मेनका के गर्भ से पार्वती जी प्रकट हुई।***

इन दोनों देवियों की कथाएँ पुराणों में प्रसिद्ध हैं। तदनंतर कलावती को साथ लेकर महाभाग सुचन्द्र गोमती के तट पर ‘नैमिषारण्य( नीमसार)’ नामक वन में गये। उन्होंने ब्रह्माजी की प्रसन्नता के लिये तपस्या आरम्भ की। वह तप देवताओं के कालमान से बारह वर्षों तक चलता रहा।



गोलोक खण्ड : अध्याय 8

तदनंतर ब्रह्माजी वहाँ पधारे और बोले- ‘वर माँगो।’ राजा के शरीर पर दीमकें चढ़ गयी थीं। ब्रह्मवाणी सुनकर वे दिव्य रूप धारण करके बाँबी से बाहर निकले। उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्माजी को प्रणाम किया और कहा- ‘मुझे दिव्य परात्पर मोक्ष प्राप्त हो।’ राजा की बात सुनकर साध्वी रानी कलावती का मन दु:खी हो गया। अत: उन्होंने


ब्रह्माजी से कहा- ‘पितामह ! पति ही नारियों के लिये सर्वोत्कृष्ट देवता माना गया है। यदि ये मेरे पति देवता मुक्ति प्राप्त कर रहे हैं तो मेरी क्या गति होगी ? इनके बिना मैं जीवित नहीं रहूँगी। यदि आप इन्हें मोक्ष देंगे तो मैं पतिसाहचर्य में विक्षेप के कारण विह्वल हो आपको शाप दे दूँगी।


ब्रह्माजी ने कहा- देवि ! मैं तुम्हारे शाप के भय से अवश्य डरता हूँ; किंतु मेरा दिया हुआ वर कभी विफल नहीं हो सकता। इसलिये तुम अपने प्राणपति के साथ गोलोक में जाओ। वहाँ गोलोक में सुख भोगकर कालांतर में फिर पृथ्वी पर जन्म लोगी। द्वापर के अंत में भारतवर्ष में, गंगा और यमुना के बीच, तुम्हारा जन्म होगा। तुम दोनों से जब परिपूर्ण भगवान की प्रिया साक्षात श्रीराधिका जी पुत्री रूप में प्रकट होंगी, तब तुम दोनों साथ ही मुक्त हो जाओगे।


श्री नारद जी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्माजी के दिव्य एवं अमोघ वरसे कलावती और सुचन्द्र- दोनों की भूतल पर उत्पत्ति हुई। वे ही ‘कीर्ति’ तथा ‘श्री वृषभानु’ हुए हैं। कलावती कान्यकुब्ज देश (कन्नौज) में राजा भलन्दन के यज्ञ कुण्ड़ से प्रकट हुई। उस दिव्य कन्या को अपने पूर्वजन्म की सारी बातें स्मरण थीं। सुरभानु गोप के घर सुचन्द्र का जन्म हुआ। उस समय वे सन चन्द्र ही ‘श्रीवृषभानु’ नाम से विख्यात हुए। उन्हें भी पूर्वजन्म की स्मृति बनी रही। वे गोपों में श्रेष्ठ होने के साथ ही दूसरे कामदेव के समान परम सुन्दर थे। 

परम बुद्धिमान नन्दराज जी ने इन दोनों का विवाह-सम्बन्ध जोड़ा था। उन दोनों को पूर्वजन्म की स्मृति थी ही, अत: वह एक-दूसरे को चाहते थे और दोनों की इच्छा से ही यह सम्बन्ध हुआ। जो मनुष्य वृषभानु और कलावती के इस उपाख्यान को श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापों से छूट जाता है और अंत में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के सायुज्य को प्राप्त कर लेता है।

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इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अंतर्गत नारद-बहुलाश्व संवाद में ‘श्री राधिका के पूर्वजन्म का वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।



पाठ३-

गर्ग संहिता गोलोक खण्ड : अध्याय 3 श्रीराधिकाजी ने कहा- आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये भूमण्डल पर अवश्य पधारें; परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा है, उसे भी सुन लें- प्राणनाथ ! आपके चले जाने पर एक क्षण भी मैं यहाँ जीवन धारण नहीं कर सकूँगी। यदि आप मेरी इस प्रतिज्ञा पर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो मैं दुबारा भी कह रही हूँ। अब मेरे प्राण अधर तक पहुँचने को अत्यंत विह्वल हैं। ये इस शरीर से वैसे ही उड़ जायँगे, जैसे कपूर के धूलिकण। श्रीभगवान बोले- राधिके ! तुम विषाद मत करो। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा और पृथ्वी का भार दूर करूँगा। मेरे द्वारा तुम्हारी बात अवश्य पूर्ण होगी। श्रीराधिकाजी ने कहा- (परंतु) प्रभो ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मन को सुख नहीं मिलता। 

नारदजी कहते हैं- (श्रीराधिकाजी के इस प्रकार कहने पर) भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने धाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा। उस समय सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजी ने परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को बार-बार प्रणाम करके कहा। श्रीब्रह्माजी ने कहा- भगवन ! मेरे लिये कौन स्थान होगा ? आप कहाँ पधारेंगे ? तथा ये सम्पूर्ण देवता किन गृहों में रहेंगे और किन-किन नामों से इनकी प्रसिद्धि होगी? श्रीभगवान ने कहा- मैं स्वयं वसुदेव और देवकी के यहाँ प्रकट होऊँगा। मेरे कला स्वरूप ये ‘शेष’ रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे- इसमें संशय नहीं है। साक्षात ‘लक्ष्मी’ राजा भीष्म के घर पुत्री रूप से उत्पन्न होंगी। इनका नाम ‘रुक्मणी’ होगा और ‘पार्वती’ ‘जाम्बवती’ के नाम से प्रकट होंगी। यज्ञ पुरुष की पत्नी ‘दक्षिणा देवी’ वहाँ ‘लक्ष्मणा’ नाम धारण करेंगी। यहाँ जो ‘विरजा’ नाम की नदी है, वही ‘कालिन्दी’ नाम से विख्यात होगी। 

भगवती ‘लज्जा’ का नाम ‘भद्रा’ होगा। समस्त पापों का प्रशमन करने वाली ‘गंगा’ ‘मित्रविन्दा’ नाम धारण करेगी। जो इस समय ‘कामदेव’ हैं, वे ही रुक्मणी के गर्भ से ‘प्रद्युम्न’ रूप में उत्पन्न होंगे। प्रद्युम्न के घर तुम्हारा अवतार होगा। उस समय तुम्हें ‘अनिरूद्ध’ कहा जायेगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। ये ‘वसु’ जो ‘द्रोण’ के नाम से प्रसिद्ध हैं, व्रज में ‘नन्द’ होंगे और स्वयं इनकी प्राणप्रिया ‘धरा देवी’ ‘यशोदा’ नाम धारण करेंगी।

 ‘सुचन्द्र’ ‘वृषभानु’ बनेंगे तथा इनकी सहधर्मिणी ‘कलावती’ धराधाम पर ‘कीर्ति’ के नाम से प्रसिद्ध होंगी। फिर उन्हीं के यहाँ इन श्रीराधिकाजी का प्राकट्य होगा। मैं व्रजमण्डल में गोपियों के साथ सदा रासविहार करूँगा।

 इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोक खण्डा के अंतर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘भूतल पर अवतीर्ण होने के उद्योग का वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।


पाठ ४-

गर्ग संहिता

गोलोक खण्ड : अध्याय 4।

नन्द आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय; श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्व प्राप्त वरदानों का विवरण


भगवान ने कहा- ब्रह्मन ! ‘सुबल’ और ‘श्रीदामा’ नाम के मेरे सखा नन्द तथा उपनन्द के घर पर जन्म धारण करेंगे। इसी प्रकार और भी मेरे सखा हैं, जिनके नाम ‘स्तोककृष्ण’, ‘अर्जुन’ एवं ‘अंशु’ आदि हैं, वे सभी नौ नन्दों के यहाँ प्रकट होंगे। व्रजमण्डल में जो छ: वृषभानु हैं, उनके गृह में विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप नाम के मेरे सखा अवतीर्ण होंगे।


श्रीब्रह्माजी ने पूछा- देवेश्वर ! किसे ‘नन्द’ कहा जाता है और किसे ‘उपनन्द’ तथा ‘वृषभानु’ के क्या लक्षण हैं?


श्रीभगवान कहते हैं- जो गोशालाओं में सदा गौंओं का पालन करते रहते हैं एवं गो-सेवा ही जिनकी जीविका है, उन्हें मैंने ‘गोपाल’ संज्ञा दी है। अब तुम उनके लक्षण सुनो। गोपालों के साथ नौ लाख गायों के स्वामी को ‘नन्द’ कहा जाता है। पाँच लाख गौओं का स्वामी ‘उपनन्द’ पद को प्राप्त करता है। ‘वृषभानु’ नाम उसका पड़ता है, जिसके अधिकार में दस लाख गौएँ रहती हैं, ऐसी ही जिसके यहाँ एक करोड़ॅ गौओं की रक्षा होती है, वह ‘नन्दराज’ कहलाता है।


पचास लाख गौओं के अध्यक्ष की ‘वृषभानुवर’ संज्ञा है। ‘सुचन्द्र’ और ‘द्रोण’- ये दो ही व्रज में इस प्रकार के सम्पूर्ण लक्षणों से सम्पन्न गोपराज बनेंगे और मेरे दिव्य व्रज में सुन्दर वस्त्र धारण करने वाली शतचन्द्रानना गोप सुन्दरियों के सौ यूथ होंगे।


श्रीब्रह्माजी ने कहा- भगवन ! आप दीनजनों के बन्धु और जगत के कारण (प्रकृति) के भी कारण हैं। प्रभो ! अब आप मेरे समक्ष यूथ के सम्पूर्ण लक्षणों का वर्णन कीजिये।


श्रीभगवान बोले- ब्रह्माजी ! मुनियों ने दस कोटि को एक ‘अर्बुद’ कहा है। जहाँ दस अर्बुद होते हैं। उसे ‘यूथ’ कहा जाता है। यहाँ की गोपियों में कुछ गोलोकवासिनी हैं, कुछ द्वारपालिका हैं, कुछ श्रृंगार साधनों की व्यवस्था करने वाली हैं और कुछ शय्या सँवारने में संलग्न रहती हैं। कई तो पार्षद कोटि में आती हैं और कुछ गोपियाँ श्रीवृन्दावन की देख-रेख किया करती हैं। कुछ गोपियों का गोर्वधन गिरि पर निवास है। कई गोपियों कुंजवन को सजाती सँवारती हैं तथा बहुतेरी गोपियाँ मेरे निकुंज में रहती हैं। इन सबको मेरे व्रज में पधारना होगा। ऐसे ही यमुना-गंगा के भी यूथ हैं। इसी प्रकार रमा, मधुमाधवी, विरजा, ललिता, विशाखा एवं माया के यूथ होंगे। ब्रह्माजी ! इसी प्रकार मेरे व्रज में आठ, सोलह और बत्तीस सखियों के भी यूथ होंगे। पूर्व के अनेक युगों में जो श्रुतियाँ, मुनियों की पत्नियाँ, अयोध्या की महिलाएँ, यज्ञ में स्थापित की हुई सीता, जनकपुर एवं कोसल देश की निवासनी सुन्दरियाँ तथा पुलिन्द कन्याएँ थीं तथा जिनको मैं पूर्ववर्ती युग-युग में वर दे चुका हूँ, वे सब मेरे पुण्यमय व्रज में गोपीरूप में पधारेंगी और उनके भी यूथ होंगे


पाठ ५-

मैं अपने आध्यात्मिक गुरु के चरण कमलों में आदरपूर्वक प्रणाम करता हूँ। मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर प्रणाम करता हूं, जो नित्यानंद प्रभु के साथ इस दुनिया में प्रकट हुए और अपने भक्तों से घिरे हुए हैं।


मैं श्रीमति राधारानी के दोनों चरण कमलों को सादर प्रणाम करता हूँ। मैं भगवान नन्दनन्दन को सादर प्रणाम करता हूँ, जो गोपियों से घिरे हुए हैं और वृन्दावन के निवासियों के मन को मोहित करते हैं।


वृन्दावन के राजा और रानी के प्रतिष्ठित व्यक्तिगत सहयोगियों का वैदिक साहित्य और मौखिक परंपरा दोनों में बड़े आनंद के साथ संक्षिप्त लेकिन सच्चाई से वर्णन किया गया है। यह किताब उनका भी वर्णन करेगी.

भगवान के इन सहयोगियों का वर्णन मथुरा-मंडल के निवासियों, भक्तों द्वारा लिखी गई विभिन्न पुस्तकों, पुराण और आगम जैसे विभिन्न वैदिक साहित्य और महान भक्तों और संत व्यक्तियों द्वारा किया गया है। मेरे प्यारे दोस्तों की संतुष्टि के लिए, भगवान के ये सहयोगी अब भगवान के परमानंद प्रेम के मार्ग में पिछले अधिकारियों का अनुसरण करते हुए संक्षेप में लिखित रूप से वर्णन करेंगे।

पाठ 6

व्रजभूमि में रहने वाले कृष्ण के सहयोगियों को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है: 1. घरेलू पशुओं के रक्षक, 2. ब्राह्मण, 3. अन्य।

पाठ 7

घरेलू पशुओं के संरक्षक

ये यदु वंश के वंशज हैं और इन्हें तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है: 1-वैश्य वृत्ति से सम्पन्न अक्रूर वंशज 2- गोपालक और कृषक आभीर, 3. गुर्जर।

पाठ 8

वैश्य-अधिकांशतः सबसे महत्वपूर्ण वैश्य गायों की रक्षा करके अपनी आजीविका कमाते हैं। 

पाठ 9

आभीर

आभीर वे हैं  जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा की चातुर्य  वर्ण व्यवस्था से अलग है। ये साक्षात स्वराट्- विष्णु के हृदय रोम कूपों से उत्पन्न हैं। वैदिक काल में गोपों को गोष नाम से भी सम्बोधित किया गया है इन्हें  लौकिक संस्कृत भाषा में घोष जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है।

पाठ 10

गुर्जरा

अभीरों से थोड़ा हीन, गुर्जरा बकरियों और इसी तरह के जानवरों की रक्षा करके अपनी आजीविका कमाते हैं। उनकी शारीरिक विशेषताएं थोड़ी मोटी हैं और वे व्रज के बाहरी इलाके में रहते हैं। ये आभीरों के ही सजातीय हैं।

पाठ 11

ब्राह्मण

सभी वेदों में विद्वान, ब्राह्मण यज्ञ करने, देवता की पूजा करने और अन्य ब्राह्मणवादी व्यवसायों में संलग्न रहते हैं ये ब्रह्मा के वंशज होने से ही ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तानें हैं। यह वर्ण के चार रूपों में विभाजित हे जाते हैं। ब्राह्मणों के पिता ब्रह्मा गोपों की स्तुति करते हुए  कृष्ण की महिमा गाते हैं।

पाठ 12

बहिष्ठ

बहिष्ठ विभिन्न व्यापारों और शिल्पों में संलग्न होकर अपनी आजीविका कमाते हैं। इस प्रकार हमने व्रजभूमि में भगवान हरि के पांच प्रकार के सहयोगियों (वैश्य, आभीर, गुर्जरा, ब्राह्मण और बहिष्ठ) का वर्णन किया है।

पाठ 13

भगवान कृष्ण के सहयोगियों को भी निम्नलिखित आठ समूहों में विभाजित किया जा सकता है: 1. पूजनीय वरिष्ठ, 2. रिश्तेदार जो समान स्तर के हों (जैसे भाई-बहन) 3. गोपी दूत, 4. नौकर, 5. शिल्पकार, 6. नौकरानियाँ , 7. समसामयिक ग्वाल सखियाँ और 8. प्रिय गोपी सखियाँ। पूजनीय वरिष्ठों में नंद महाराजा के भाई और समान रिश्तेदार, नंद के समकालीन मित्र, सेवक, अन्य सहयोगी और बुजुर्ग गोपियाँ शामिल हैं। कृष्ण सदैव इन वरिष्ठों का सम्मान करते हैं।

पाठ 14

1. पूजनीय वरिष्ठजन

पूजनीय वरिष्ठों में कृष्ण के दादा, अन्य बुजुर्ग रिश्तेदार और ब्राह्मण समुदाय भी शामिल हैं।

पाठ 15 और 16

कृष्ण के गोरे रंग, सफेद बालों वाले और सफेद पोशाक वाले दादाजी का नाम पर्जन्य महाराजा है, क्योंकि वह एक महान बादल (पर्जन्य) की तरह शुभता का अमृत बरसा रहे हैं। वे सभी व्रजवासियों में सर्वश्रेष्ठ हैं।

एक योग्य वंश की इच्छा रखते हुए, उन्होंने देवर्षि नारद की सलाह का पालन किया और लक्ष्मी के पति भगवान नारायण की पूजा में लग गए। जब वह नंदीश्वर-पुर में नारायण की पूजा कर रहे थे, तो आकाश से एक सुखद आवाज ने निम्नलिखित शब्द बोले।

पाठ 17 और 18

"अपनी पवित्र तपस्या के कारण आपको पांच पुत्र प्राप्त होंगे। इन पुत्रों में से बीच वाला, जिसका नाम नंद है, सबसे अच्छा होगा। नंद का गौरवशाली पुत्र व्रजवासियों को प्रसन्न करेगा। वह सभी विरोधों को हरा देगा। देवता और राक्षस दोनों पूजा करेंगे वह, उनके मुकुटों के आभूषणों को अपने कमल चरणों से स्पर्श कर रहा है।"

पाठ 19

यह सुनकर पर्जन्य महाराज प्रसन्न हो गये और उन्होंने वहीं निवास करने का निश्चय किया। वह तब तक वहीं रहे जब तक उन्होंने केशी राक्षस को आते नहीं देखा और उसके उत्पातों  से वह भयभीत हो गये और अपने सभी सहयोगियों के साथ महावन की ओर चले गये।

पाठ 20

कृष्ण की दादी वरियसी का व्रज भूमि में सम्मान किया जाता है। उनका कद छोटा है और उनका रंग कुसुम्भ के फूल के समान है। वह हरे रंग के वस्त्र पहने हुए है और उसके बाल दूध के रंग के हैं।

पाठ 21

पर्जन्य महाराजा के भाइयों का नाम अर्जन्य और राजन्य है और उनकी बहन सुवेर्जना नाम की एक विशेषज्ञ नर्तकी है। उनके पति का नाम गुनावीरा है और वे सूर्य-कुंजा नामक शहर में रहते हैं।

पाठ 22 और 23

कृष्ण के पिता नंद महाराज हैं। नंदा व्रजवासियों को प्रसन्न करते हैं और समस्त लोक उनकी पूजा करते हैं। उनका पेट उभरा हुआ है, उनका रंग चंदन के समान है, उनका कद लंबा है और उनके वस्त्र बंधुजिवा फूल के रंग के हैं। उनकी दाढ़ी काले और सफेद बालों का मिश्रण है, जैसे चावल और भुने हुए तिल एक साथ मिश्रित होते हैं।

पाठ 24

नंद ग्वालों के राजा, उपनंद के छोटे भाई और महाराजा वासुदेव के घनिष्ठ मित्र व परिवार जन हैं। नंद और उनकी पत्नी यशोदा व्रजभूमि के राजा और रानी और भगवान कृष्ण के माता-पिता हैं।

पाठ 25

क्योंकि उनके पास महान धन (वसु) का वैभव (देव) है, नंद महाराजा को वसुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे अनकदुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं और ज्ञात होता है कि पूर्व जन्म में उनका नाम द्रोण था।

पाठ 26

महाराजा नंद के इन नामों का वर्णन गरुड़ पुराण के मथुरा-महिमा खंड में किया गया है। नंदा के सबसे घनिष्ठ मित्र का नाम महाराजा वृषभानु है।

पाठ 27

कृष्ण की माता का नाम यशोदा है क्योंकि वह व्रज के ग्वालों को यश (यश) प्रदान करती थीं। वह कृष्ण के प्रति माता-पिता के प्रेम की प्रतिमूर्ति है। उसका रंग साँवला है और उसके वस्त्र इन्द्रधनुष के समान हैं।

पाठ 28

माता यशोदा का शरीर मध्यम आकार का है, न बड़ा, न छोटा। उसके लंबे काले बाल है। उनकी सबसे करीबी दोस्त ऐन्दवी और कीर्तिदा हैं।

पाठ 29

यशोदा गोकुल के राजा नंद की पत्नी हैं। वह व्रज में चरवाहों की रानी, ​​​​देवकी की मित्र और भगवान कृष्ण की माँ हैं।

पाठ 30

यशोदा की मित्रता का वर्णन आदि पुराण के निम्नलिखित कथन में किया गया है: "महाराजा नंद की पत्नी को दो नामों से जाना जाता था, यशोदा और देवकी। आंशिक रूप से क्योंकि वे एक ही नाम (देवकी) साझा करते हैं, महाराज नंद की पत्नी और उनकी पत्नी महाराजा वासुदेव बहुत अच्छे मित्र थे।"

पाठ 31

भगवान बलराम की माता का नाम रोहिणी है, क्योंकि वह दिव्य आनंद की निरंतर बढ़ती (आरोहिणी) बाढ़ से भरी हुई हैं। हालाँकि वह अपने पुत्र बलराम से बहुत प्यार करती है, लेकिन वह कृष्ण से लाखों गुना अधिक प्यार करती है।

पाठ 32

नंद महाराजा के बड़े भाई उपनंद और अभिनंद हैं और उनके छोटे भाई सानंद और नंदन हैं। ये भगवान कृष्ण के चाचाओं के नाम हैं।

पाठ 33

उपनंदा का रंग गुलाबी है। उनकी लम्बी दाढ़ी है और वे हरे वस्त्र पहनते हैं। तुंगी-देवी उनकी प्रिय पत्नी हैं। उसका रंग और वस्त्र दोनों कैटाका पक्षी के रंग के हैं।

पाठ 34

अभिनंद गहरे रंग के वस्त्र पहनते हैं और उनकी लंबी सुंदर दाढ़ी एक महान शंख के समान है। पिवरी-देवी उनकी पत्नी हैं। वह नीले वस्त्र पहनती है और उसका रंग गुलाबी है।

पाठ 35

सन्नन्दा को सुनन्दा के नाम से भी जाना जाता है। उनका रंग सफ़ेद है और वे गहरे रंग के कपड़े पहनते हैं। उसके दो या तीन सफेद बाल हैं और वह भगवान केशव को बहुत प्रिय है।

पाठ 36

कुवलय-देवी सन्नन्दा की पत्नी हैं। उनका रंग नीले कमल के फूल के समान है और वह लाल वस्त्र पहनती हैं। नंदना कैंडटा फूल के रंग के वस्त्र पहनती हैं और उनका रंग मोर के रंग जैसा है।

पाठ 37

नंदन अपने पिता पर्जन्य महाराजा के साथ एक ही घर में रहते हैं। वह अपने युवा भतीजे कृष्ण के प्रति प्रेम से भरा हुआ है। अतुल्य-देवी नंदन की पत्नी हैं। उसका रंग बिजली के समान है और उसके वस्त्र काले बादल के समान हैं।

पाठ 38

कृष्ण के पिता की दो बहनें हैं, सानंद-देवी और नंदिनी-देवी। वे दोनों कई अलग-अलग रंगों के परिधान पहनते हैं। उनके दांत सुंदर होते हैं और उनका रंग सफेद झाग जैसा होता है। सानंद-देवी के पति का नाम महानिला है और नंदिनी के पति का नाम सुनीला है।

पाठ 39 और 40

कण्डव और दण्डव उपनन्द के दो पुत्र हैं। उनके चेहरे कमल के फूल के समान सुंदर हैं और वे अपने मित्र सुबाला की संगति में विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं।

कैटु और बटुका नंद महाराजा के दो क्षत्रिय चचेरे भाई हैं जो वासुदेव महाराजा के वंश में पैदा हुए थे। कैटु की पत्नी दधिसार और बटुक की पत्नी हविहसार है।

पाठ 41

कृष्ण के ऊर्जावान और उत्साही नाना का नाम सुमुख है। उनकी लंबी दाढ़ी विशाल शंख के समान है और उनका रंग पके हुए जम्बू फल के समान है।

पाठ 42

रानी पाताल-देवी कृष्ण की नानी हैं और वह व्रजभूमि में बहुत प्रसिद्ध हैं। उसके बाल दही के समान सफेद हैं, उसका रंग पाताल के फूल के समान गुलाबी है और उसके वस्त्र हरे हैं।

पाठ 43

पाताल-देवी की प्रिय सखी का नाम मुखरा-गोपी है। अपनी सहेली के प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण, मुखरा शिशु यशोदा को अपने स्तन का दूध पिलाती थी।

पाठ 44 और 45

चारुमुख सुमुख का छोटा भाई है। उनका रंग काली आंखों के सौंदर्य प्रसाधन के समान है और उनकी पत्नी बालाका-गोपी का पालन-पोषण उनके सौतेले माता-पिता ने किया था। गोला, कृष्ण की दादी पाताल-देवी का भाई है। उसके वस्त्र धुएँ के रंग के हैं। उसका साला सुमुखा उसका मजाक उड़ाता था और हँसी-मजाक करता था और इस कारण गोला उससे बहुत क्रोधित रहता था। क्योंकि उसने अपने पिछले जन्म में दुर्वासा मुनि की पूजा की थी, गोला को उज्ज्वला के परिवार में व्रजभूमि में जन्म लेने की अनुमति दी गई थी।

पाठ 46

जटिला-देवी गोला की पत्नी हैं। उसका पेट बड़ा है और उसका रंग गाय के समान है। उनके पुत्र यशोधरा, यशोदेव और सुदेव कृष्ण के मामाओं के समूह के प्रमुख हैं।

पाठ 47

कृष्ण के मामाओं का रंग गहरे अतसी फूल के समान है और वे सफेद वस्त्र पहनते हैं। उनकी पत्नियों का रंग करकटी के फूलों जैसा होता है और वे धुएँ के रंग के वस्त्र पहनती हैं।

पाठ 48

रेमा-देवी, रोमा-देवी और सुरेमा-देवी कृष्ण के चाचा पावना की बेटियाँ हैं। यशोदेवी और यशस्विनी कृष्ण की माता यशोदा की बहनें हैं। यशस्विनी के पति का नाम मल्ला है।

पाठ 49

यशोदेवी बड़ी हैं. इनका रंग सांवला है और इन्हें दधिसरा नाम से भी जाना जाता है। यशस्विनी छोटी हैं. इनका रंग गोरा है और इन्हें हविह्सरा नाम से भी जाना जाता है। दोनों ने सिन्दूरी रंग के कपड़े पहने हैं।

पाठ 50

यशोदा की बहनों ने दो क्षत्रिय कैटु और बटुका से विवाह किया (पाठ 40 देखें)। यशोदा के चाचा चारुमुख का एक बेटा है जिसका नाम सुकारू है।

पाठ 51

सुकारू की पत्नी तुलावती-देवी है, जो सुमुखा के बहनोई गोला की बेटी है। टुंडु, कुतेरा, पुरता और अन्य कृष्ण के दादा के समकालीन सहयोगी हैं।

पाठ 52

किला, अंतकेला, तिलता, कृपिता, पुरता, गोंडा, कल्लोटा, करंडा, तारिसाना, वारिसाना, विरारोहा और वरारोहा कृष्ण के नाना के समकालीन सहयोगियों में से हैं।

पाठ 53

बुजुर्ग महिलाएँ सिलाभेरी, सिखंबरा, भरुनी, भंगुर, भंगी, भारसखा और सिखा, कृष्ण की दादी के समकालीन सहयोगियों में से हैं।

पाठ 54 और 55

भरुंडा, जटिला, भेला, कराला, करबालिका, घरघरा, मुखरा, घोरा, घंटा, घोनी, सुघंटिका, ध्वनिकरुंती, हांडी, टुंडी, डिंगिमा, मंजुरानिका, कैक्किनी, कोंडिका, कुंडी, डिंडिमा, पुंडवनिका, दामानी, दमारी, दाम्बी और डंका हैं। कृष्ण की नानी के समकालीन सहयोगियों में से।

पाठ 56-58

मंगला, पिंगला, पिंगा, मथुरा, पिथा, पट्टिसा, शंकर, संगारा, भृंगक, घृणि, घटिका, सरघा, पथिरा, दंडी, केदारा, सौरभेय, ​​काला, अंकुरा, धुरिना, धुरवा, चक्रंगा, मस्करा, उत्पला, कंबला, सुपक्षा, सौदा, हरिता, हरिकेसा, हारा और उपनंद कृष्ण के पिता नंद महाराज के समकालीन सहयोगियों में से हैं।

पाठ 59

अपनी युवावस्था में दोस्ती की शपथ लेने के बाद, पर्जन्य और सुमुखा हमेशा सबसे अच्छे दोस्त बने रहे। नंद महाराजा और कई अन्य चरवाहे उनके परिवारों के वंशज हैं।

पाठ 60 - 62

वत्सला, कुसाला, ताली, मेदुरा, मस्र्णा, कृपा, संकिनी, बिम्बिनी, मित्रा, सुभगा, भोगिनी, प्रभा, सारिका हिंगुला, नीति, कपिला, धामनिधरा, पक्षसती, पताका, पुंडी, सुतुंडा, तुष्टि, अंजना, तरंगाक्षी, तरलिका, सुभदा , मलिका, अंगद, विशाला, सल्लकी, वेना और वर्तिका कृष्ण की माँ, यशोदा-देवी के समकालीन सहयोगियों में से हैं।

पाठ 63

अंबिका और किलिम्बा दो नर्सें हैं जिन्होंने कृष्ण को अपने स्तन का दूध पिलाया। इन दोनों में से व्रज की रानी की प्रिय सखी अम्बिका सबसे महत्वपूर्ण है।

पाठ 64 -65

ब्राह्मण

गोकुल में ब्राह्मणों के दो समूह निवास करते हैं: एक जिनका पालन-पोषण नंद महाराजा करते थे और दूसरे वे जो पुजारी हैं और वैदिक यज्ञों के प्रदर्शन में लगे रहते हैं। पुजारियों में वेदगर्भ, महायज्व और भागुरि प्रमुख हैं। उनकी संबंधित पत्नियाँ सामधेनी, महाकाव्य और वेदिका हैं।

पाठ 66

सुलभा, गौतमी, गार्गी, कैंडिला, कुबजिका, वामनी, स्वाहा, सुलता, सैंडिली, स्वधा और भार्गवी उन ब्राह्मण महिलाओं में सबसे महत्वपूर्ण हैं जिनकी व्रज के निवासियों द्वारा सम्मानपूर्वक पूजा की जाती है।

पाठ 67 - 69

दिव्य ऐश्वर्य से भरपूर, पौर्णमासी-देवी भगवान की योगमाया शक्ति का अवतार हैं। वह भगवान कृष्ण की लीलाओं को उचित ढंग से संपन्न कराने की व्यवस्था करती है। वह कद में थोड़ी लंबी है और उसका रंग गोरा है। उसके बाल कासा के फूलों के रंग के हैं और वह लाल वस्त्र पहनती है। नंद महाराज और व्रजभूमि के अन्य सभी निवासी उनका बहुत सम्मान करते हैं। वह देवर्षि नारद की प्रिय शिष्या थीं और उनकी सलाह पर उन्होंने अपने प्रिय पुत्र सांदीपनि मुनि को अवंतीपुरा में छोड़ दिया और अपने आराध्य भगवान कृष्ण के प्रति अत्यधिक प्रेम से प्रेरित होकर गोकुल आ गईं।

पाठ 70

कृष्ण के सहयोगियों को दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है: गोपियाँ और गोप। गोपियों को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है: 1. कृष्ण की हमउम्र गोपी सखियाँ, 2. दासियाँ और 3. गोपी दूत।

पाठ 71-72

विद्वान विद्वानों ने भगवान कृष्ण के सहयोगियों को भी निम्नलिखित नौ श्रेणियों में विभाजित किया है: 1. यूथ, 2. कुल, 3. मंडल, 4. वर्ग, 5. गण, 6. समवाय, 7. संकय, 8. समाज, 9. और समन्वय। .

पाठ 73 - 75

कृष्ण की गोपी मित्र:

पाठ 70 में वर्णित भगवान के तीन प्रकार के गोपी सहयोगियों में से, पहला समूह, कृष्ण के समकालीन गोपी मित्र, सबसे श्रेष्ठ हैं, दूसरा समूह, दासियाँ अगला सबसे श्रेष्ठ हैं , और गोपी दूत उनके पीछे आते हैं। ये तीन समूह क्रमशः समाज, मंडल और गण के रूप में उल्लिखित समूहों के अनुरूप हैं (पाठ 71-72 में)। पहला समूह, कृष्ण के समकालीन गोपी मित्र, को आगे चलकर वरिष्ठ (सबसे ऊंचा) और वर (ऊंचा) में विभाजित किया जा सकता है।

पाठ 76

वरिष्ठा (सर्वोत्तम गोपियाँ)

वरिष्ठ गोपियाँ अन्य सभी गोपियों से अधिक प्रसिद्ध हैं। वे सदैव श्री श्री राधा-कृष्ण के घनिष्ठ मित्र हैं। दिव्य जोड़े के प्रति उनके प्रेम की कोई भी बराबरी या उससे अधिक नहीं कर सकता।

पाठ 77

कृष्ण के सभी मित्रों में वरिष्ठ गोपियाँ सबसे अधिक पूजनीय हैं। वे अतुलनीय दिव्य गुणों, शारीरिक सौंदर्य और अन्य सभी आकर्षक ऐश्वर्यों से सुशोभित हैं।

पाठ 78

कृष्ण की गोपी मित्र

ललिता, विशाखा, चित्र, कैम्पकमल्लिका, तुंगविद्या, इंदुलेखा, रंगदेवी और सुदेवी भगवान कृष्ण की सबसे घनिष्ठ गोपी सखियाँ हैं।

पाठ 79

ललिता

इन आठ गोपियों में से पहली ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं। वह दिव्य दंपत्ति की प्रिय मित्र है और वह 27 वर्ष की है, कृष्ण की गोपी मित्रों में सबसे बड़ी है।

पाठ 80

ललिता श्रीमती राधारानी की निरंतर साथी और अनुयायी के रूप में प्रसिद्ध हैं। ललिता स्वभाव से विपरीत और क्रोधी स्वभाव की है। उसका रंग पीले वर्णक गोरोकाना जैसा है और उसके वस्त्र मोर पंख जैसे हैं।

पाठ 81

उनकी मां सरदी-देवी और पिता विसोका हैं। उनके पति का नाम भैरव है। वह गोवर्धन-गोप का घनिष्ठ मित्र है।

पाठ 82 - 83

विशाखा

विशाखा इन आठ वरिष्ठ-गोपियों में से दूसरी सबसे महत्वपूर्ण हैं। उसके गुण, कार्यकलाप और संकल्प सभी उसकी सखी ललिता की तरह ही बेकार हैं। विशाखा का जन्म ठीक उसी समय हुआ जब उनकी प्रिय सखी श्रीमती राधारानी इस दुनिया में प्रकट हुईं। विशाखा के वस्त्र तारों से सुशोभित हैं और उसका रंग बिजली के समान है। उनके पिता पावना हैं, जो मुखरा-गोपी की बहन के बेटे हैं और उनकी मां दक्षिणा-देवी हैं, जो जटिला की बहन की बेटी हैं। उनके पति वाहिका-गोप हैं।

पाठ 84

Campakalata

कैंपकलता वरिष्ठ-गोपियों में तीसरी हैं। उसका रंग खिले हुए पीले कैम्पका फूल के समान है और उसके वस्त्र ब्लू-जे के लक्षण के रंग के हैं। वह श्रीमती राधारानी से एक दिन छोटी हैं।

पाठ 85

उनके पति का नाम अरमा है, उनकी मां का नाम वटिका-देवी है और उनके पति का नाम चंडाकसा है। उसके गुण काफी हद तक विशाखा जैसे हैं।

पाठ 86

सिट्रा

चित्र वरिष्ठ गोपियों में चतुर्थ हैं। उसका गोरा रंग कुंकुमा के रंग जैसा है और उसके वस्त्र क्रिस्टल के रंग के हैं। वह श्रीमती राधारानी से 26 दिन छोटी हैं। जब भगवान माधव आनंद से भर जाते हैं, तो वह संतुष्ट हो जाती हैं।

पाठ 87

उनके पिता कैटूरा, सूर्यमित्र के चाचा हैं। उनकी माता कार्सिका-देवी हैं। उनके पति पिथारा हैं।

पाठ 88

तुंगविद्या

तुंगविद्या वरिष्ठ गोपियों में पाँचवीं हैं। उसका रंग कुंकुमा के समान है और उसके शरीर की सुगंध कपूर मिले चंदन के समान है। वह श्रीमती राधारानी से पंद्रह दिन छोटी हैं

पाठ 89

तुंगविद्या गर्म स्वभाव वाली और झूठ बोलने में माहिर हैं। वह सफेद वस्त्र पहनती है। उनके माता-पिता पुस्करा और मेधा-देवी हैं और उनके पति बालिसा हैं।

पाठ 90

इंदुलेखा

इंदुलेखा वरिष्ठ गोपियों में छठी हैं। उसका रंग सांवला है और वह अनार के फूल के रंग के कपड़े पहनती है। वह श्रीमती राधारानी से तीन दिन छोटी हैं।

पाठ 91

उनके माता-पिता सागर और वेला-देवी हैं और उनके पति दुर्बाला हैं। वह स्वभाव से विपरीत और क्रोधी स्वभाव की होती है।

पाठ 92

रंगादेवी

रंगादेवी वरिष्ठ गोपियों में सातवीं हैं। उसका रंग कमल के तंतु के समान है और उसके वस्त्र लाल गुलाब के रंग के हैं। वह श्रीमती राधारानी से सात दिन छोटी हैं।

पाठ 93

उनके व्यक्तिगत गुण काफी हद तक कैंपाकलाटा के समान हैं। उनके माता-पिता करुणा-देवी और रंगसारा हैं।

पाठ 94

सुदेवी

सुदेवी वरिष्ठ गोपियों में आठवीं हैं। वह स्वभाव से मधुर और आकर्षक है। वह रंगादेवी की बहन हैं। उनके पति वक्रेक्षण हैं, जो भैरव के छोटे भाई हैं।

पाठ 95

वक्रेकसाना के साथ उनका विवाह उनके छोटे भाई ने तय किया था। उनका रूप और अन्य गुण उनकी बहन रंगादेवी से इतने मिलते-जुलते हैं कि अक्सर उन्हें एक-दूसरे के लिए गलत समझा जाता है।

पाठ 96-97

वर-गोपियाँ

जिस प्रकार आठ वरिष्ठ (सर्वोत्तम) गोपियाँ हैं, उसी प्रकार आठ वर (सर्वोत्तम) गोपियाँ भी हैं। वर-गोपियाँ सभी किशोर लड़कियाँ हैं। उनके नाम हैं कलावती, सुभांगदा, हिरण्यंगी, रत्नलेखा, सिखवती, कंदर्पा मंजरी, फुलकालिका और अनंगा मंजरी।

पाठ 98

कलावती के माता-पिता सिंधुमती-देवी और अर्कमित्र के मामा कलंकुरा-गोप हैं।

पाठ 99

उसका रंग पीले चंदन के समान है और वह तोते के रंग के वस्त्र पहनती है। उनके पति वाहिका के सबसे छोटे भाई कपोटा हैं।

पाठ 100

सुभांगदा

सुभंगदा विशाखा की छोटी बहन है। उसका रंग बहुत गोरा है और उसका विवाह पिथारा के छोटे भाई पात्री से हुआ है।

पाठ 101

हिरण्यंगी

हिरण्यांगी का रंग सोने के रंग का है और वह एक मंदिर या महल की तरह प्रतीत होती है जिसमें सारी सुंदरता संरक्षित है। इनका जन्म हरिणी-देवी के गर्भ से हुआ था।

पाठ 102

महावसु-गोप पवित्र, प्रसिद्ध और वैदिक यज्ञ करने के प्रति समर्पित हैं। वह अद्भुत सद्गुणों से सुशोभित है और अर्कमित्र का घनिष्ठ मित्र है।

पाठ 103

महावसु-गोप एक शक्तिशाली और वीर पुत्र और एक सुंदर बेटी पैदा करना चाहते थे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आत्मसंयमी महावसु ने भागुरि मुनि को वैदिक यज्ञ करने में लगाया।

पाठ 104

उस यज्ञ से कुछ अमृतमय खाद्य पदार्थ प्रकट हुए और प्रसन्न महावसु ने उन्हें अपनी पत्नी सुचंद्रा-देवी को दे दिया।

पाठ 105 - 106

जब सुचंद्रा-देवी अपने सामने बरामदे में जल्दबाजी में पवित्र भोजन खा रही थी, तो उसने उसमें से कुछ गिरा दिया। उस समय सुरंगा नामक हिरणी, जो रंगिणी नामक हिरणी की मां थी, व्रजभूमि में घूम रही थी। सुचंद्रा-देवी को कुछ खाद्य पदार्थ बिखरते देख, हिरणी सुरंगा तेजी से आगे आई और उसमें से कुछ खा लिया। इस पवित्र भोजन को खाने के परिणामस्वरूप, गोपी सुचंद्रा और हिरणी सुरंगा दोनों गर्भवती हो गईं।

पाठ 107

सुचंद्र-देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसे गोपों ने स्टोकाकृष्ण कहा और हिरण ने व्रजा गांव में लड़की हिरण्यांगी को जन्म दिया।

पाठ 108

हिरण्यांगी श्रीमती राधारानी को बहुत प्रिय है और श्रीमती राधारानी उन्हें बहुत प्रिय हैं। हिरण्यांगी ने सुंदर वस्त्र पहने हैं जो अद्वितीय खिले हुए फूलों की एक बड़ी भीड़ की तरह दिखाई देते हैं।

पाठ 109

तब पिता महावसु ने बड़े आदर के साथ श्रेष्ठ हिरण्यांगी का विवाह एक वृद्ध गोप से करने का वचन दिया, जो उसका पति बनने के लिए पूरी तरह अयोग्य था।

पाठ 110 - 111

रत्नलेखा

महाराज वृषभानु के चचेरे भाई पयोनिधि का एक पुत्र था लेकिन कोई पुत्री नहीं थी। उनकी पत्नी मित्रा-देवी भी एक बेटी चाहती थीं और इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने निष्ठापूर्वक सूर्य-देवता विवस्वान की पूजा की। विवस्वान की कृपा से उन्होंने एक पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम रत्नलेखा रखा गया।

पाठ 112

रत्नलेखा का रंग मनहसिला खनिज का लाल रंग है और उसके वस्त्र भौंरों के सुंदर झुंड के समान प्रतीत होते हैं। वह महाराज वृषभानु की पुत्री श्रीमती राधारानी को बहुत प्रिय हैं। उनकी माँ उन्हें और उनकी सखी राधारानी दोनों को सूर्य-देव की समर्पित ध्यानपूर्वक पूजा में लगाती हैं। जब रत्नलेखा भगवान माधव को देखती है, तो उसकी आँखों से भयंकर क्रोध झलकने लगता है और वह उन्हें कड़ी फटकार लगाती है।

पाठ 113

सिखावटी

सिखवती के पिता धन्यधान्य और माता सुसिखा-देवी हैं। सिखावती का रंग कर्णिकार फूल के समान है। वह कुंडलतिका की छोटी बहन है।

पाठ 114

वह मधुरता और आकर्षण से परिपूर्ण है। उसके वस्त्र पुराने फ्रैंकोलिन पार्ट्रिज के धब्बेदार रंग हैं। उनका विवाह गर्जरा-गोप से हुआ, जिन्हें गरुड़-गोप के नाम से भी जाना जाता है।

पाठ 115 और 116

कंदर्प-मंजरी

कंदर्प-मंजरी के पिता पुष्पकर और माता कुरुविंदा-देवी हैं। कंदर्प-मंजरी के पिता ने उसका विवाह किसी से नहीं किया, क्योंकि वह मन ही मन मानता था कि भगवान हरि ही उसकी पुत्री के लिए एकमात्र उपयुक्त पति हैं। कंदर्प-मंजरी का रंग किंकिराता पक्षी का रंग है और उसके वस्त्र कई अलग-अलग रंगों से सजाए गए हैं।

पाठ 117

फुलकलिका

फुलकलिका के पिता श्रीमल्ल और माता कमलिनी हैं। फुल्लकलिका का रंग नीले कमल के फूल के समान गहरा है और उनके वस्त्र इंद्रधनुष के समान हैं।

पाठ 118

उनके माथे पर प्राकृतिक रूप से पीली तिलक रेखाएं अंकित हैं। उनके पति विदुर की आवाज तेज़ है और वे दूर से ही भैंसों को बुलाने में सक्षम हैं।

पाठ 119

अनंग-मंजरी

अनंगा-मंजरी अत्यंत सुंदर है और इसलिए यह बहुत उपयुक्त है कि उसका नाम अनंगा (कामदेव) के नाम पर रखा गया है। उनका रंग वसंत ऋतु केतकी फूल के समान है और उनके वस्त्र नीले कमल के रंग के हैं।

पाठ 120

उनके गौरवान्वित पति दुर्माडा उनकी बहन के जीजा भी हैं। वह ललिता और विशाखा को विशेष प्रिय है।

पाठ 121

कृष्ण के समकालीन गोपी मित्रों की गतिविधियों का सामान्य विवरण

कृष्ण के समकालीन गोपी सखा अपनी प्रिय सखी श्रीमती राधारानी को सजाते हैं। वे अपने पति के माता-पिता और अन्य अभिभावकों को धोखा देते हैं (राधा और कृष्ण से मिलने के लिए जाकर) और जब श्रीमति राधारानी का भगवान हरि के साथ प्रेमी का झगड़ा होता है तो वे उनका पक्ष लेते हैं।

पाठ 122

ये गोपियाँ राधा और कृष्ण की गुप्त मुलाकात में सहायता करती हैं। ये गोपियाँ दिव्य जोड़े को स्वादिष्ट भोजन परोसती हैं और बाद में उनके द्वारा छोड़े गए अवशेषों का स्वाद लेती हैं। ये गोपियाँ राधा और कृष्ण की गोपनीय लीलाओं के रहस्य की सावधानीपूर्वक रक्षा करती हैं।

पाठ 123

उनका मन शुद्ध होता है और वे बहुत विशेषज्ञ और बुद्धिमान होते हैं। वे राधा और कृष्ण की बहुत उचित सेवा करते हैं। वे अपने स्वयं के समूह का महिमामंडन करते हैं और राधारानी के प्रतिद्वंद्वी चंद्रावली के अनुयायियों की आलोचना करते हैं।

पाठ 124

वे निपुणता से गायन, नृत्य और वाद्य संगीत बजाकर राधा और कृष्ण को प्रसन्न करते हैं। उचित समय पर वे विभिन्न उपयुक्त सेवाओं में संलग्न होने का आग्रह करते हैं।

पाठ 125

अधिकांशतः विद्वान भक्त कृष्ण के गोपी मित्रों की इन गतिविधियों के बारे में जानते हैं। सभी गोपियाँ इन और अन्य सभी समान सेवाओं से अवगत हैं और वे इन गतिविधियों को करके सक्रिय रूप से राधा और कृष्ण की सेवा करती हैं।

पाठ 126

गोपियाँ जो दिव्य जोड़े की करीबी सहयोगी हैं, सीधे तौर पर इन सेवाओं में लगी हुई हैं, जबकि अन्य गोपियाँ नहीं हैं। अब हम इन अंतरंग सेवाओं में संलग्न गोपियों का एक-एक करके वर्णन करेंगे।

पाठ 127

इन सबसे श्रेष्ठ गोपियों में से जो कृष्ण को सबसे अधिक प्रिय हैं, उनकी अगुआ और नियंता ललिता देवी हैं।

पाठ 128

ललिता-देवी दिव्य जोड़े के प्रति परम प्रेम से भरी हैं। वह उनकी मुलाकात और उनके वैवाहिक संघर्ष दोनों की व्यवस्था करने में विशेषज्ञ है। कभी-कभी, राधा की खातिर, वह भगवान माधव को नाराज कर देती है।

पाठ 129

अन्य सभी गोपियों का सौंदर्य ललिता-देवी के रूप में संरक्षित प्रतीत होता है। किसी बहस में उसका मुँह भयंकर क्रोध से झुक जाता है और वह निपुणता से सबसे अपमानजनक और अहंकारपूर्ण उत्तर देती है।

पाठ 130

जब अहंकारी गोपियाँ कृष्ण से झगड़ा करती हैं, तो वह संघर्ष में सबसे आगे होती हैं। जब राधा और कृष्ण मिलते हैं, तो वह साहसपूर्वक उनसे थोड़ी दूर खड़ी रहती हैं।

पाठ 131

पूर्णमासी-देवी और अन्य गोपियों की मदद से वह राधा और कृष्ण के मिलन की व्यवस्था करती है। वह दिव्य जोड़े के लिए छत्र रखती है, वह उन्हें फूलों से सजाती है और वह कुटिया को सजाती है जहां वे रात में आराम करते हैं और सुबह उठते हैं।

पाठ 132 - 133

कुछ गोपियाँ बगीचे में फूलों वाली लताओं, पान की लताओं और पान के पेड़ों के बीच मदनोन्मादिनी के नाम से जाने जाने वाले दिव्य जोड़े की सेवा करती हैं। कुछ गोपियाँ विभिन्न जादुई करतब दिखाने में माहिर हैं, कुछ पहेलियाँ लिखने में माहिर हैं और कुछ को दिव्य जोड़े के लिए सुपारी देने के लिए नियुक्त किया गया है। ये सभी गोपियाँ श्रीमति राधारानी की दासी हैं।

पाठ 134

अन्य गोपियाँ विशेष रूप से भगवान बलदेव की सखी हैं। ललिता-देवी इन सभी श्रेष्ठ और पूजनीय युवा गोपियों की नेता और नियंत्रक हैं।

पाठ 135

रत्नलेखा और यहां वर्णित आठ अन्य प्रिय वर-गोपियां हमेशा और सभी मामलों में ललिता-देवी के नक्शेकदम पर चलती हैं।

पाठ 136

इन आठ गोपियों में से रत्नप्रभा-द्वि और रतिकला-देवी अपने दिव्य गुणों, सुंदरता, अनुभव और आकर्षक मिठास के लिए प्रसिद्ध हैं।

पाठ 137-138

फूलों की सजावट

दिव्य जोड़े के पुष्प आभूषण हैं 1. पुष्प मुकुट, 2. बालों में फूल, 3. पुष्प बालियां, 4. माथे को सजाने वाले फूल, 5. पुष्प हार, 6. पुष्प बाजूबंद, 7. पुष्प कमरबंद, 8. पुष्प ब्रेलेट, 9. फूलों की पायल, 10. फूलों की चोली और कई अन्य प्रकार के फूलों के आभूषण। जिस तरह ये आभूषण कीमती रत्नों, सोने या अन्य सामग्रियों से बनाए जा सकते हैं, उसी तरह ये फूलों से भी बनाए जा सकते हैं।

पाठ 139 - 140

ताज

दिव्य जोड़े के मुकुट रंगिनी फूल, पीले चमेली के फूल, नवमाली फूल, सुमाली फूल, धृति रत्न, माणिक, गोमेद रत्न, मोती या शानदार चंद्रमणि से बने हो सकते हैं। इन्हें सुंदर मुकुट बनाने के लिए कलात्मक ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है।

पाठ 141

मुकुट सात बिंदुओं से बनाए जा सकते हैं और उनकी रंगीन और सुंदर सामग्री के बीच सोने के केतकी फूल या विभिन्न फूलों की कलियाँ भी हो सकती हैं। ये मुकुट भगवान श्रीहरि के मन को मोहित कर लेते हैं।

पाठ 142

पुष्पपारा के नाम से जाने जाने वाले पुष्प मुकुट सबसे अच्छे होते हैं और वे सर्वोत्तम रत्नजड़ित मुकुट (रत्नपारा) से भी अधिक मनभावन होते हैं। ललिता-देवी ने श्रीमती राधारानी से इन पुष्पपारा मुकुटों को बनाना सीखा।

पाठ 143

ये पुष्पपारा मुकुट पांच अलग-अलग रंगों के फूलों और फूलों की कलियों से पांच बिंदुओं में व्यवस्थित किए गए हैं। इस मुकुट का उपयोग विशेष रूप से श्रीमती राधारानी को सजाने के लिए किया जाता है।

पाठ 144

बालापस्या

फूलों की कलियों और इसी तरह की सामग्रियों की एक माला को एक साथ पिरोकर बालों पर लगाना बालापस्य कहलाता है।

पाठ 145

कान की बाली

कुशल कारीगरों का कहना है कि बालियां पांच प्रकार की होती हैं। इन्हें तडंका, कुंडल, पुस्पि, कर्णिका और कर्ण-वेस्ताना नाम से जाना जाता है।

पाठ 146

तडंका

कान में पहनी जाने वाली खोखली सोने की चौकी को ताड़ंका कहा जाता है। इस तरह की इयररिंग दो तरह की होती है। पहली किस्म में इस बाली में सुनहरे केतकी फूल की पंखुड़ी लगी होती है। दूसरे प्रकार में किसी अन्य रंग-बिरंगे फूल की पंखुड़ी लगी होती है।

पाठ 147

कुण्डला

जब किसी वस्तु की तरह दिखने के लिए फूलों से बाली बनाई जाती है, तो उस बाली को कुंडल कहा जाता है। कुंडल बालियां कई प्रकार की होती हैं। फूलों को मोर, शार्क, कमल, अर्धचंद्र या कई अन्य चीजों के समान व्यवस्थित किया जा सकता है।

पाठ 148

पुस्पि

पुस्पी बालियां चार अलग-अलग प्रकार के फूलों से बनाई गई हैं, जिन्हें बीच में एक बड़ी गुंजा बेरी के साथ एक घेरे में रखा गया है।

पाठ 149

कर्णिका

कर्णिका बाली पीले फूलों से घिरे नीले कमल के घेरे से बनाई गई है। बीच में भृंगिका फूल और अनार का फूल है।

पाठ 150

कर्ण-वेस्ताना

जब फूल की बाली इतनी बड़ी हो जाती है कि वह कान को पूरी तरह से ढक लेती है, तो बाली को कर्ण-वेत्सना के रूप में जाना जाता है।

पाठ 151

माथे के लिए सजावट.

ललाटिका के साथ ऊपरी माथे पर लगाई जाने वाली फूलों की माला को ललाटिका कहा जाता है। ऐसी माला में दो रंग के फूल होने चाहिए: माला के बीच में लाल और दोनों तरफ दूसरे रंग के फूल।

पाठ 152

ग्रेवेक्याका (फूल कॉलर)

एक ही प्रकार के फूल से बना, गले में चार बार पिरोया गया हार ग्रेवेयक कहलाता है।

पाठ 153

अंगद (बाजूबंद)

एक फूल-बाजूबंद (अंगड़ा) को एक के बाद एक गुंथे हुए तीन प्रकार के फूलों से बनाया जा सकता है, जो एक छोटे फूल की लता जैसा दिखता है।

पाठ 154

कांसी (सैश)

पांच अलग-अलग रंगों के फूलों से बना एक सैश, जिसे कलात्मक रूप से एक साथ हल्के से लहराते हुए पैटर्न में पिरोया जाता है, कांसी कहलाता है।

पाठ 155

कटका (फूल पायल)

कई अलग-अलग फूलों की कलियों से बनी पायल को कटका कहा जाता है। ये कई अलग-अलग किस्मों के होते हैं.

पाठ 156

मणिबंधनी (कंगन)

चार रंगों के फूलों से बना कंगन, जिसमें फूलों के गुच्छे तीन स्थानों पर लटकते हों, मणिबंधनी कहलाते हैं।

पाठ 157

हमसाका (फूल जूते)

जब फूलों की सजावट पैरों के पूरे ऊपरी और पार्श्व भागों को कवर करती है और चार स्थानों पर फूलों के गुच्छे होते हैं, तो ऐसी सजावट को हमसका कहा जाता है।

पाठ 158

कंकुली (फूल चोली)

छह रंगों के फूलों से बनी, कलात्मक रूप से व्यवस्थित और कस्तूरी से सुगंधित चोली जो गर्दन से शुरू होती है, कंकुली कहलाती है।

पाठ 159

चतरा (छत्र)

पतली सफेद छड़ियों से बना, सफेद फूलों से सजाया गया और पीले चमेली के फूलों से सजाए गए हैंडल के साथ, एक फूल छत्र को छत्र कहा जाता है।

पाठ 160

सयानम (सोफ़ा)

सोफ़ा कैम्पका और मल्ली फूलों से बना है और छोटी घंटियों से सजाया गया है। इसमें नवमाली फूलों का एक बड़ा तकिया है।

पाठ 161

उलोका (एक शामियाना)

एक शामियाना विभिन्न रंग-बिरंगे फूलों, केतकी की पंखुड़ियों और विभिन्न पत्तों की जाली से बनाया जाता है। इस शामियाने से बहुत सारे मल्ली के फूल नीचे लटक रहे हैं।

पाठ 162

चंद्रतापा (एक शामियाना)

जब मोतियों की तरह सफेद सिंधुवर के कई फूल किनारों को सजाते हैं और बीच में ताजे कमल के फूल लटकते हैं, तो शामियाने को चंद्रतापा कहा जाता है।

पाठ 163

वेस्मा (कॉटेज)

खंभों के रूप में नरकट और छत और चार दीवारों के रूप में विभिन्न रंग-बिरंगे फूलों के साथ, एक वेस्मा (फूलों की कुटिया) का निर्माण किया गया है।

पाठ 164 ए

गोपी दूत

वृंदा, वृंदारिका, मेला और मुरली सबसे महत्वपूर्ण गोपी दूत हैं। गोपी दूत वृन्दावन की भौगोलिक स्थिति को भली-भांति जानते हैं और वे वहां के प्रत्येक उपवन और उद्यान को बारीकी से जानते हैं। वे बागवानी के विज्ञान में भी सीखे हुए हैं।

पाठ 164 बी

ये सभी श्रेष्ठ गोपी दूत श्री श्री राधा और कृष्ण के प्रति महान प्रेम से भरे हुए हैं। गोपी दूतों का रंग गोरा है और वे रंग-बिरंगे परिधान पहनते हैं। इनमें वृंदा देवी सबसे महत्वपूर्ण हैं।

पाठ 165

विशाखा

विशाखा-देवी, दिव्य जोड़े की अंतरंग सखी, हालांकि वह इन युवा गोपियों से अधिक महान हैं, राधा और कृष्ण के बीच संदेश पहुंचाने का काम भी करती हैं और वह सभी गोपी दूतों में सबसे बुद्धिमान और विशेषज्ञ हैं। वाचाल विशाखा भगवान गोविंदा के साथ मजाक करने में माहिर हैं और वह दिव्य जोड़े की आदर्श सलाहकार हैं। वह कामुक कूटनीति के सभी पहलुओं में माहिर है और वह सभी कलाएं जानती है कि कैसे रूठे हुए प्रेमी को मनाना है, कैसे उसे रिश्वत देनी है और कैसे उससे झगड़ा करना है।

पाठ 166

रंगावली-देवी और अन्य गोपियाँ तिलक में विभिन्न डिज़ाइन बनाने, कलात्मक रूप से फूलों की मालाएँ पिरोने, चतुर छंदों की रचना करने और सर्वतोभद्र जैसे कलावादों की रचना करने, मंत्रों का जाप करके जादुई भ्रम पैदा करने, विभिन्न साज-सज्जा के साथ सूर्य देव की पूजा करने, विभिन्न विदेशी भाषाओं में गाने में विशेषज्ञ हैं। विभिन्न प्रकार की कविताएँ लिखना।

पाठ 167

दासियाँ जो श्रीमति राधारानी को वस्त्र पहनाती हैं।

माधवई, मालती और चंद्ररेखा प्रमुख गोपी सेवक हैं जो श्रीमती राधारानी को कपड़े पहनाते और सजाते हैं।

पाठ 168-169

वृंदा-देवी द्वारा नियुक्त गोपी दूतों के अधिकार क्षेत्र में वृन्दावन के फूल वाले पेड़ हैं। मलिका देवी इन अद्भुत आनंदमय गोपियों की नेता हैं। गोपी दूतों के इन दो समूहों (1. विशाखा और 2. वृंदा-देवी के अनुयायी) के अलावा, कैम्पकलता-देवी गोपी दूतों में से तीसरी हैं।

पाठ 170

कैंपाकलाटा अपनी गतिविधियों को बहुत गोपनीयता से छुपाती है। वह तार्किक अनुनय की कला में माहिर है, और वह एक मारी गई राजनयिक है जो जानती है कि श्रीमती राधारानी के प्रतिद्वंद्वियों को कैसे विफल करना है।

पाठ 171

कैंपाकलाटा जंगल से फल, फूल और जड़ें इकट्ठा करने में माहिर हैं। केवल अपने हाथों के कौशल का उपयोग करके वह मिट्टी से कलात्मक रूप से चीजें बना सकती हैं।

पाठ 172

कैंपाकलाटा एक विशेषज्ञ रसोइया है जो स्वादिष्ट खाना पकाने के छह स्वादों का वर्णन करने वाले सभी साहित्य को जानता है।

वह तरह-तरह की मिठाइयाँ बनाने में इतनी माहिर है कि वह मिस्ताहस्ता (मीठे हाथ) के नाम से मशहूर हो गई है।

पाठ 173

व्रजा गांव में आठ गोपी दासियां ​​भी हैं जो दूध उत्पादों से विभिन्न व्यंजन बनाने में विशेषज्ञ हैं। कुरंगाक्षी-देवी इन गोपी रसोइयों की नेता हैं।

पाठ 174

आठ प्रधान गोपियों की गतिविधियाँ |

इन सभी गोपियों में से जिन्हें वृन्दावन के पेड़ों, लताओं और झाड़ियों की रक्षक के रूप में नियुक्त किया गया है, नेता कैम्पकलता-देवी हैं।

पाठ 175

सिट्रा

सिट्रा-देवी उन सभी गतिविधियों में आश्चर्यजनक रूप से विशेषज्ञ हैं जिनका हमने अभी वर्णन किया है। वह विशेष रूप से विशेषज्ञ है

राधा और कृष्ण के बीच प्रेमी का झगड़ा (छह में से तीसरा)।

अभिसारण शब्द की परिभाषाएँ)।

पाठ 176

सिट्रा-देवी कई अलग-अलग भाषाओं में लिखी गई किताबों और पत्रों की पंक्तियों के बीच लेखक के छिपे इरादों को समझ सकती हैं। वह एक कुशल पेटू है और शहद, दूध और अन्य सामग्रियों से बने विभिन्न खाद्य पदार्थों के स्वाद को केवल उन पर नज़र डालकर समझ सकती है।

पाठ 177

वह अलग-अलग मात्रा में पानी से भरे बर्तनों पर संगीत बजाने में माहिर हैं। वह खगोल विज्ञान और ज्योतिष का वर्णन करने वाले साहित्य में पारंगत हैं, और वह घरेलू जानवरों की रक्षा की सैद्धांतिक और व्यावहारिक गतिविधियों में पारंगत हैं।

पाठ 178

वह विशेष रूप से बागवानी में विशेषज्ञ है और वह विभिन्न प्रकार के अमृतमय पेय पदार्थ अच्छी तरह से बना सकती है।

पाठ 179

रसालिका-देवी की अध्यक्षता में आठ अन्य गोपी दासियाँ भी हैं, जो विभिन्न प्रकार के अमृत पेय बनाने में विशेषज्ञ हैं।

पाठ 180

ऐसी अन्य गोपियाँ भी हैं जो ज्यादातर जंगल से दिव्य जड़ी-बूटियाँ और औषधीय लताएँ इकट्ठा करती हैं और फूल या कुछ और इकट्ठा नहीं करती हैं। चित्र-देवी इन गोपियों की नेत्री हैं।

पाठ 181

तुंगविद्या

तुंगविद्या गोपियों के नेताओं में से एक हैं। वह ज्ञान की अठारह शाखाओं में विदित है।

पाठ 182

उसे कृष्ण पर पूरा भरोसा है. वह दिव्य जोड़े की मुलाकात की व्यवस्था करने में बहुत विशेषज्ञ है। वह रस-शास्त्र (अनुवांशिक मधुरता), नीति-शास्त्र (नैतिकता), नृत्य, नाटक, साहित्य और अन्य सभी कलाओं और विज्ञानों में सीखी गई हैं।

पाठ 183

वह एक प्रसिद्ध संगीत शिक्षिका हैं जो वीणा बजाने और मार्ग नामक शैली में गाने में विशेषज्ञ हैं।

पाठ 184

मंजुमेधा-देवी के नेतृत्व में आठ गोपी दूतों को विशेष रूप से राधा और कृष्ण के बीच राजनीति की कला में पहली कूटनीतिक चाल के रूप में राजनीतिक गठबंधन (संधि) की व्यवस्था करने की उम्मीद है।

पाठ 185

ये गोपियाँ सर्वश्रेष्ठ नर्तकियाँ हैं। वे मृदंग बजाने और गायन कक्षों में गाने में विशेषज्ञ संगीतकार हैं।

पाठ 186

ये गोपियाँ विशेष रूप से वृन्दावन में झरनों से पानी लाने में लगी हुई हैं। तुंगविद्या इन गोपियों की नेता हैं।

पाठ 187

इंदुलेखा

नोबल इंदुलेखा को नागा-शास्त्र के विज्ञान और मंत्रों में सीखा जाता है, जिसमें आकर्षक सांपों की विभिन्न विधियों का वर्णन किया गया है। उन्हें समुद्रक-शास्त्र में भी सीखा गया है, जो हस्तरेखा विज्ञान का वर्णन करता है।

पाठ 188

वह तरह-तरह के अद्भुत हार पिरोने, दांतों को लाल पदार्थों से सजाने, रत्न विद्या और तरह-तरह के कपड़े बुनने में माहिर है।

पाठ 189

वह अपने हाथ में दिव्य जोड़े के शुभ संदेश रखती है। इस प्रकार वह राधा और कृष्ण के बीच परस्पर प्रेम और आकर्षण पैदा करके उनके सौभाग्य का निर्माण करती है।

पाठ 190

तुंगभद्रा-देवी की अध्यक्षता में गोपियों का समूह इंदुलेखा के मित्र और पड़ोसी हैं। इन गोपियों में एक समूह है, जिसका नेतृत्व पलिंधिका-देवी करती हैं, जो दिव्य जोड़े के लिए दूत के रूप में कार्य करता है।

पाठ 191

इंदुलेखा-देवी दिव्य जोड़े के गोपनीय रहस्यों से पूरी तरह परिचित हैं। उसके कुछ दोस्त दिव्य जोड़े के लिए आभूषण उपलब्ध कराने में लगे हुए हैं, अन्य उत्तम वस्त्र प्रदान करते हैं और अन्य दिव्य जोड़े के खजाने की रक्षा करते हैं।

पाठ 192

इस प्रकार इन्दुलेखा-देवी वृन्दावन के विभिन्न भागों में इन सेवाओं में लगी सभी गोपियों की नेता हैं।

पाठ 193

रंगा-देवी

रंगा-देवी हमेशा मधुर शब्दों और इशारों के एक विशाल महासागर की तरह हैं। उन्हें भगवान कृष्ण की उपस्थिति में अपनी सखी श्रीमती राधारानी के साथ मजाक करना बहुत पसंद है।

पाठ 194

कूटनीति की छह गतिविधियों में से वह चौथी में विशेष रूप से विशेषज्ञ हैं: धैर्यपूर्वक दुश्मन के अगले कदम की प्रतीक्षा करना। वह एक कुशल तर्कशास्त्री है और पिछली तपस्याओं के कारण उसने एक मंत्र प्राप्त कर लिया है जिसके द्वारा वह भगवान कृष्ण को आकर्षित कर सकती है।

पाठ 195

कलाकांति-देवी रंगा-देवी के आठ सबसे महत्वपूर्ण मित्रों में से नेता हैं। ये सभी दोस्त परफ्यूम और कॉस्मेटिक्स के इस्तेमाल में माहिर हैं।

पाठ 196

रंगा-देवी की सहेलियाँ सुगंधित धूप जलाने, सर्दियों के दौरान कोयला ले जाने और गर्मियों में दिव्य जोड़े को हवा देने में विशेषज्ञ हैं।

पाठ 197

रंगा-देवी के दोस्त जंगल में शेर, हिरण और अन्य जंगली जानवरों को नियंत्रित करने में सक्षम हैं। रंगा-देवी इन सभी गोपियों की नेता हैं।

पाठ 198

सुदेवी

सुदेवी सदैव अपनी प्रिय सखी श्रीमती राधारानी के पक्ष में रहती हैं। सुदेवी राधारानी के बालों को व्यवस्थित करती हैं, उनकी आँखों को काजल से सजाती हैं और उनके शरीर की मालिश करती हैं।

पाठ 199

वह नर और मादा तोतों को प्रशिक्षण देने में तो माहिर है ही, मुर्गों की लीलाओं में भी माहिर है। वह एक विशेषज्ञ नाविक है और शकुन-शास्त्र में वर्णित शुभ और अशुभ शकुनों से पूरी तरह परिचित है।

पाठ 200

वह सुगंधित तेलों से शरीर की मालिश करने में माहिर है, वह जानती है कि आग कैसे जलानी है और उसे जलाए रखना है और वह जानती है कि चंद्रमा के उगने के साथ कौन से फूल खिलते हैं।

पाठ 201

कावेरी-देवी और सुदेवी की अन्य सहेलियाँ पत्तों से थूक बनाने, घंटियों पर संगीत बजाने और सोफों को विभिन्न तरीकों से सजाने में विशेषज्ञ हैं।

पाठ 202 - 203

सुदेवी की सहेलियों को दिव्य जोड़े के बैठने के स्थान की साज-सज्जा का काम भी सौंपा गया है। सुदेवी की सहेलियाँ चतुर जासूसों के रूप में काम करती हैं, खुद को विभिन्न तरीकों से छिपाती हैं और राधारानी के प्रतिद्वंद्वियों (चंद्रावली और उसकी सहेलियों) के बीच जाकर उनके रहस्यों का पता लगाती हैं। सुदेवी के मित्र वृन्दावन वन के देवता हैं और उन पर वन पक्षियों और मधुमक्खियों की सुरक्षा का भार है। सुदेवी इन गोपियों की नेत्री हैं।

पाठ 204

विभिन्न गोपियों का वर्णन |

अब गोपियों की अद्भुत कला, शिल्प और अन्य कर्तव्यों का वर्णन किया जाएगा।

पाठ 205 - 206

पिंडका-देवी, निर्वितंदिका-देवी, पुंडरिका-देवी, सीताखंडी-देवी, करुचंडी-देवी, सुदंतिका-देवी, अकुंथिता-देवी, कलाकंठी-देवी, रामसी-देवी और मेसिका-देवी उन गोपियों में से हैं जो बहुत मजबूत और जिद्दी हैं। कोई वाद-विवाद या संघर्ष है. इनमें पिंडका-देवी प्रमुख हैं। वह लाल वस्त्र पहनती है। वह बहुत सुंदर है। जब भगवान कृष्ण आते हैं तो वह उन पर कई क्रूर मजाकिया व्यंग्यों से हमला करके उन्हें शर्मिंदा करती है।

पाठ 207

हरिद्राभा-देवी, हरिकसेला-देवी और हरिमित्र-देवी कई अतार्किक और तुच्छ आपत्तियां बोलती हैं क्योंकि वे भगवान कृष्ण को उस स्थान पर ले जाती हैं जहां श्रीमती राधारानी उनकी प्रतीक्षा करती हैं।

पाठ 208

पुंडरिका-देवी के वस्त्र और रंग दोनों ही सफेद कमल के फूल के रंग के हैं। वह कमल-नेत्र भगवान कृष्ण का क्रूरतापूर्वक उपहास करती है।

पाठ 209

गौरी-देवी सदैव श्वेत वस्त्र धारण करती हैं। इनका रंग मोर के समान है। चूँकि उनके मधुर और मनमोहक शब्द अक्सर तीखे व्यंग्यों से युक्त होते हैं, इसलिए भगवान कृष्ण उन्हें मजाक में सीताखंडी (हमेशा मधुर) कहते हैं।

पाठ 210

गौरी-देवी की बहन को कारुकांडी के नाम से जाना जाता है क्योंकि उनके शब्द कभी हल्के और सुखद (कारु) और कभी कठोर और हिंसक (कैंडी) होते हैं। कारुकांडी का रंग काली मधुमक्खी का रंग है और उसके वस्त्र बिजली के रंग के हैं।

पाठ 211

सुदान्तिका-देवी कुरुन्थाका फूल के रंग के वस्त्र पहनती हैं। उसका रंग सिरिसा फूल के समान है। वह उज्ज्वला-रस की कामुक भावनाओं को भड़काने में माहिर है।

पाठ 212

अकुंठिता-देवी का रंग कमल के तने के समान है। वह कमल के तने के रेशों के रंग के सफेद वस्त्र पहनती है। वह अपने गोपी मित्रों के मनोरंजन के लिए कृष्ण का अपमान करना पसंद करती है।

पाठ 213

कलाकंठी-देवी का रंग कुली के फूल के समान है और उनके वस्त्र दूध के रंग के हैं। वह भगवान कृष्ण से बात करती है, राधारानी के ईर्ष्यालु क्रोध का वर्णन करती है और उन्हें उनसे क्षमा मांगने की सलाह देती है।

पाठ 214

रमासी-देवी ललिता-देवी की नर्स की बेटी है। रामासी का रंग सुनहरा है और उसके वस्त्र तोते के रंग के हैं। वह मजाक में कृष्ण का अपमान करने और उन पर हंसने में आनंद लेती है।

पाठ 215

रामसी-देवी सदैव श्वेत वस्त्र धारण करती हैं। इनका वर्ण पिंडा पुष्प के समान है। वह भगवान कृष्ण का अपमान करने में माहिर है।

पाठ 216-217

पेटारी-देवी, वरुदा-देवी, कैरी-देवी, कोटारी-देवी, कलातिप्पनी-देवी, मारुंडा-देवी, मोरटा-देवी, कुदा-देवी, कुंडारी-देवी और गोंडिका-देवी उन गोपी दूतों की नेता हैं जो अतीत में हैं युवावस्था का चरम. ये वृद्ध गोपियाँ बड़ी जिद के साथ बहस कर सकती हैं और दिव्य जोड़े के भोजन करते समय वे अच्छा गा भी सकती हैं। ये गोपियाँ सदैव दिव्य युगल की वन लीलाओं की व्यवस्था करने में लगी रहती हैं।

पाठ 218

पेटारी-देवी एक बुजुर्ग गुजराती महिला हैं जिनके बालों का रंग कमल के तने के रेशों जैसा है। वरुडी-देवी गरुड़-देश की मूल निवासी हैं और उनके गूंथे हुए बाल नदी की धारा की तरह हैं।

पाठ 219

कैरी-देवी, जो कुकरी-देवी की बहन हैं, को तपहकात्यायनी के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने कठोर तपस्या की थी और देवी कात्यायनी (दुर्गा) की शरण ली थी। कोटारी-देवी का जन्म अभीरा जाति में हुआ था। उसके बाल काले और सफेद रंग का मिश्रण हैं, जो भुने हुए तिल के साथ मिश्रित चावल के समान हैं।

पाठ 220

कलातिप्पनी-देवी सफेद बालों वाली एक बुजुर्ग धोबी हैं। मारुंडा-देवी की भौहें सफेद हैं और सिर मुंडा हुआ है।

पाठ 221

चंचल मोराटा-देवी के बालों का रंग कासा के फूल जैसा है। कुडा-देवी का चेहरा झुर्रीदार है और माथा कई भूरे बालों से सजा हुआ है।

पाठ 222

ब्राह्मणी कुंडरी-देवी अन्य देवी-देवताओं जितनी पुरानी नहीं हैं। कमल-नेत्र भगवान कृष्ण उनकी महिमा करते हैं और उनके साथ बहुत सम्मान से पेश आते हैं। गोंडिका-देवी अपने सिर पर शानदार सफेद बाल मुंडवाती हैं। उम्र के साथ उसके गालों पर झुर्रियां पड़ गई हैं।

पाठ 223 - 224

गोपी दूत जो दिव्य जोड़े की मुलाकात की व्यवस्था करते हैं

शिवदा-देवी, सौम्यदर्शन-देवी, सुप्रसाद-देवी, सदासंत-देवी, शांतिदा-देवी और कांतिदा-देवी गोपी दूतों के नेता हैं जो कुशलता से राधा और कृष्ण की मुलाकात की व्यवस्था करते हैं। ये गोपियाँ ललिता-देवी को अपना सबसे प्रिय प्राण और आत्मा मानती हैं। वे भगवान कृष्ण के घनिष्ठ सहयोगियों में गिने जाते हैं।

पाठ 225

एक निश्चित समय पर श्रीमती राधारानी भगवान कृष्ण से झगड़ा करती हैं और उन्हें देखने से इंकार कर देती हैं। ललिता देवी के संकेत को समझकर ये गोपियाँ भगवान कृष्ण के पास पहुँचती हैं।

पाठ 226-227

ये गोपियाँ भगवान कृष्ण को प्रसन्न करती हैं और विभिन्न तरीकों से उन्हें प्रसन्न करती हैं। बहुत प्रयास से वे उसे समझाते हैं कि उसकी वास्तविक इच्छा राधा से दोबारा मिलने की है। जब ये गोपियाँ अपने लिए वह उपहार लाती हैं जो भगवान कृष्ण ने उन्हें शांति प्रसाद के रूप में दिया था, तो श्रीमती राधारानी उनसे बहुत प्रसन्न हो जाती हैं और उन्हें अपनी दया प्रदान करती हैं।

पाठ 228-229

शिवदा-देवी का जन्म रागिहु वंश में, सौम्यदर्शन-देवी का जन्म चंद्र-देवता के वंश में, सुप्रसाद-देवी का पुरु वंश में, सदासंत-देवी का तपस्वियों के परिवार में और शांतिदा और कांतिदा का ब्राह्मण परिवारों में हुआ था। नारद मुनि की कृपा से वे सभी व्रज में निवास करने में सक्षम हो गये।

पाठ 230

गोपियों का दूसरा समूह

गोपियों के इस पहले समूह के बाद गोपियों का दूसरा समूह है, जिनका दिव्य युगल के प्रति प्रेम पहले समूह की तुलना में थोड़ा कम है। गोपियों के इस दूसरे समूह को फिर से दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है: सम-प्रेमा और आसमा-प्रेमा। इन गोपियों का वर्णन निम्नलिखित श्लोकों में किया जायेगा।

पाठ 231

सम-प्रेमा गोपियों को दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है - वे जो शाश्वत रूप से परिपूर्ण हैं और वे जो भक्ति सेवा में संलग्न होकर पूर्णता प्राप्त कर चुकी हैं।

पाठ 232

एक सौ करोड़ गोपियों में से आठ लाख गोपियाँ नित्य सिद्ध हैं।

पाठ 233-234

आठ प्रमुख गोपियों के प्रत्यक्ष अनुयायियों की गणना अलग-अलग प्रकार से की जाती है। कुछ लोग कहते हैं कि उनकी संख्या पाँच हज़ार है, अन्य कहते हैं कि उनकी संख्या चार या पाँच हज़ार है, फिर भी अन्य कहते हैं कि उनकी संख्या तीन या चार हज़ार है और फिर भी अन्य कहते हैं कि उनकी संख्या एक हज़ार है।

पाठ 235

कुछ लोग कहते हैं कि आठ प्रमुख गोपियों के अनुयायी कई समूहों में विभाजित हैं और अन्य कहते हैं कि वे समूहों में बिल्कुल भी विभाजित नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि दिव्य जोड़े के प्रति उनके प्रेम की प्रकृति के अनुसार उन्हें सोलह समूहों में विभाजित किया गया है।

पाठ 236

कुछ कहते हैं कि ये गोपियाँ बीस समूहों में विभाजित हैं, कुछ कहते हैं कि पच्चीस समूह हैं, कुछ कहते हैं तीस हैं, कुछ कहते हैं साठ हैं और कुछ कहते हैं गोपियों के चौंसठ समूह हैं।

पाठ 237

कुछ लोग कहते हैं कि गोपियों का यह समूह दो उपसमूहों में विभाजित है। अन्य कहते हैं कि यह दो या तीन उपसमूहों में विभाजित है और अन्य कहते हैं कि यह तीन या चार उपसमूहों में विभाजित है।

पाठ 238

संपूर्ण गोपी समुदाय विभिन्न तरीकों से विभाजित हो सकता है। कोई कहता है गोपियों के चालीस समूह हैं तो कोई कहता है कि पाँच सौ समूह हैं।

पाठ 239-246

आठ वरिष्ठ-गोपों और आठ वर-गोपियों के अलावा, चौंसठ गोपियों को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। उनके नाम हैं: 1. रत्नप्रभा, 2. रतिकाला, 3. सुभद्रा, 4. रतिका,

5. सुमुखी, 6. धनिष्ठा, 7. कालहमसी, 8. कलापिनी, 9. माधवी, 10. मालती, 11. चंद्ररेखा, 12. कुंजरि, 13. हरिणी,

14. कैपाला, 15. दामनी, 16. सुरभि, 17. सुभानन, 18. कुरंगाक्षी, 19. सुचरिता, 20. मंडली, 21. मणिकुंडला, 22. चंद्रिका, 23. चंद्रलाटिका, 24. पंकजाक्षी, 25. सुमनदिरा,

26. रसालिका, 27. तिलकिनी, 28. सौरसेनी, 29. सुगंधिका,

30. रमणी, 31. कामनगरी, 32. नागरी, 33. नागवेनिका,

34. मंजुमेधा, 35. सुमधुरा, 36. सुमध्या, 37. मधुरेकसाना,

38. तनुमध्या, 39. मधुस्पंद, 40. गुणकुडा, 41. वरांगदा,

42. तुंगभद्रा, 43. रसोत्तुंगा, 44. रंगावती, 45. सुसंगता,

46. ​​चित्ररेखा, 47. विचित्रांगी, 48. मोदिनी, 49. मदनलसा, 50. कलाकंठी, 51. शशिकला, 52. कमला, 53. मधुरेंदिरा,

54. कंदर्प-सुंदरी, 55. कमलातिका, 56. प्रेम-मंजरी,

57. कावेरी, 58. कारुकावरा, 59. सुकेसी, 60. मंजुकेसी,

61. हरहिरा, 62. महाहिरा, 63. हरकंठी, 64. मनोहरा।

पाठ 247

सम्मोहन-तंत्र में श्रीमती राधारानी की आठ प्रमुख सखियों का वर्णन

श्रीमती राधारानी की आठ प्रमुख गोपी सखियों की एक अलग सूची सम्मोहन-तंत्र के निम्नलिखित कथन में पाई जाती है: "लीलावती, साधिका, चंद्रिका, माधवी, ललिता, विजया, गौरी और नंदी श्रीमती राधारानी की आठ प्रमुख गोपी सखियाँ हैं।"

पाठ 248

आठ प्रमुख गोपियों का एक और वर्णन

वैदिक साहित्य का एक अन्य उद्धरण निम्नलिखित विवरण देता है: "कलावती, श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी और सारदा आठ प्रधान गोपियाँ हैं।

पाठ 249 - 250

गोपियों के इस वर्णन में प्रस्तुत संख्याओं का आध्यात्मिक जगत में शाश्वत रूप से मुक्त गोपियों की संख्या से कोई वास्तविक प्रासंगिकता नहीं है। वहाँ वृन्दावन के राजा और रानी के सहयोगियों की संख्या असीमित है। उन्हें कोई गिन नहीं सकता. हमने बस कुछ संकेत दिए हैं ताकि पाठक दिव्य जोड़े के सहयोगियों की विशाल संख्या को समझ सकें।

पाठ 251

दिव्य जोड़े के लिए शयनकक्ष, भोजन, पेय और सुपारी तैयार करना, उन्हें झूले पर झुलाना और उन्हें तिलक से सजाना गोपियों द्वारा की जाने वाली कई सेवाओं में से एक है। विद्वान भक्त इस पर शोध कर इन सभी सेवाओं की गणना कर सकते हैं।

पाठ 252

रूप गोस्वामी प्रार्थना करते हैं कि दीप्तिमान कृष्ण-सूर्य उनकी आंखों से अंधापन दूर कर दें और उन्हें श्री श्री राधा-कृष्ण और उनके सहयोगियों का वर्णन करने वाले विभिन्न रस-शास्त्रों को ठीक से देखने और समझने में सक्षम करें।

पाठ 253

शक संवत के वर्ष 1472 (1550 ई.) में, रविवार को, श्रावण महीने के छठे दिन, व्रज के राजा के घर नंदग्राम में, यह पुस्तक, राधा-कृष्ण-गणोद्देश-दीपिका पूरी हुई।

भाग दो

पाठ 1

श्री कृष्ण का दिव्य स्वरूप और गुण

श्रीकृष्ण का रूप उनकी अमृतमय सुंदरता की मिठास के काले काजल से चमकता है। उनका रंग नीले कमल के फूल या नीलमणि के समान है।

पाठ 2

उनका रंग पन्ना, तमाला वृक्ष या सुंदर काले बादलों के समूह के समान मनमोहक है। वह अमृतमय सुन्दरता का सागर है।

पाठ 3

वह पीले वस्त्र और वन पुष्पों की माला पहनते हैं। वह विभिन्न रत्नों से सुशोभित है और वह अनेक दिव्य लीलाओं के अमृत का महान भण्डार है।

पाठ 4

उसके लंबे, घुंघराले बाल हैं और वह कई सुगंधित सुगंधों से सना हुआ है। उनका सुंदर मुकुट अनेक प्रकार के फूलों से सजाया गया है।

पाठ 5

उनका सुंदर माथा तिलक के निशान और घुंघराले बालों से शानदार ढंग से सजाया गया है। उनकी उठी हुई, गहरी भौंहों की चंचल हरकतें गोपियों के दिलों को मंत्रमुग्ध कर देती हैं।

पाठ 6

उनकी घूमती हुई आंखें लाल और नीले कमल के फूलों की तरह शानदार हैं। उनकी नाक की नोक पक्षियों के राजा गरुड़ की चोंच के समान सुंदर है।

पाठ 7

उनके आकर्षक कान और गाल विभिन्न रत्नों से बनी बालियों से सुशोभित हैं।

पाठ 8

उनका सुंदर कमल मुख करोड़ों चंद्रमाओं के समान शोभायमान है। वह कई आकर्षक चुटकुले बोलता है और उसकी ठुड्डी अत्यंत सुंदर है।

पाठ 9

उनकी सुंदर, चिकनी और आकर्षक गर्दन तीन स्थानों पर झुकती है। मोतियों के हार से सुशोभित, उनकी गर्दन की सुंदरता तीन ग्रह प्रणालियों के निवासियों को मंत्रमुग्ध कर देती है।

पाठ 10

मोतियों के हार और बिजली की तरह चमकने वाली कौस्तुभ मणि से सुसज्जित, कृष्ण की सुंदर छाती सुंदर गोपियों की संगति का आनंद लेने के लिए उत्सुक है।

पाठ 11

कंगनों और बाजूबंदों से सुसज्जित, कृष्ण की भुजाएँ उनके घुटनों तक लटकी हुई हैं। उनके लाल कमल हाथ विभिन्न शुभ चिन्हों से सुशोभित हैं।

पाठ 12

कृष्ण के हाथ गदा, शंख, जौ के दाने, छत्र, अर्धचंद्र, हाथियों को नियंत्रित करने वाली छड़ी, ध्वज, कमल के फूल, यज्ञ की चौकी, हल, घड़ा और मछली के शुभ चिन्हों से खूबसूरती से सुशोभित हैं।

पाठ 13

कृष्ण का आकर्षक उदर सुन्दरता का लीला निवास है। उनकी अमृतमयी पीठ सुंदर गोपियों के चंचल स्पर्श के लिए लालायित प्रतीत होती है।

पाठ 14

अमृतमय कमल का फूल, जो कि भगवान कृष्ण का नितंब है, देवता कामदेव को मोहित कर देता है। कृष्ण की जांघें दो खूबसूरत केले के पेड़ों की तरह हैं जो सभी महिलाओं के दिलों को मोहित करती हैं।

पाठ 15

कृष्ण के घुटने बहुत शानदार, आकर्षक और सुंदर हैं। उनके आकर्षक कमल पैर रत्नजड़ित घुंघरुओं से सुशोभित हैं।

पाठ 16-17

कृष्ण के पैरों में गुलाब की चमक है, और वे विभिन्न शुभ चिह्नों से सुशोभित हैं, जैसे चक्र, अर्धचंद्र, अष्टकोण, त्रिकोण, जौ के दाने, आकाश, छत्र, जलपात्र, शंख, गाय के खुर का निशान, स्वस्तिक, छड़ी का चिह्न। हाथियों को नियंत्रित करना, कमल का फूल, धनुष और जम्बू फल।

पाठ 18

कृष्ण के सुंदर कमल चरण शुद्ध प्रेम की खुशी से भरे दो महासागरों की तरह हैं। उनके लाल पैर की उंगलियों को पूर्णिमा की पंक्ति से सजाया गया है जो उनके पैर के नाखून हैं।

पाठ 19

हालाँकि हमने कभी-कभी कृष्ण की सुंदरता की तुलना विभिन्न चीज़ों से की है, लेकिन वास्तव में कोई भी चीज़ इसकी बराबरी नहीं कर सकती है। इस स्थान पर हमने पाठक का आकर्षण जगाने के लिए कृष्ण की सुंदरता का एक छोटा सा संकेत दिया है।

पाठ 20

कृष्ण के मित्र

अब भगवान कृष्ण के मित्रों का वर्णन किया जायेगा। कृष्ण के सबसे महत्वपूर्ण मित्र उनके बड़े भाई बलराम हैं।

पाठ 21

विभिन्न प्रकार के मित्र

कृष्ण के मित्रों को चार समूहों में विभाजित किया गया है: 1. शुभचिंतक मित्र (सुहृत), 2. सामान्य मित्र (सखा), 3. अधिक गोपनीय मित्र (प्रिय-सखा), और 4. अंतरंग मित्र

(प्रिया-नर्म-सखा)

पाठ 22

शुभचिंतक मित्र (सुहर्ट)

शुभचिंतक मित्रों में कृष्ण के चचेरे भाई भी शामिल हैं:

सुभद्रा, कुंडल, दंडी और मंडल। सुनन्दना, नंदी, आनंदी और अन्य जो वृन्दावन वन में गायों और बछड़ों को चराते समय कृष्ण के साथ जाते हैं, वे भी शुभचिंतक मित्र हैं।

पाठ 23 - 24

शुभचिंतक मित्रों में सुभद्रा, मंडलीभद्र, भद्रवर्धन, गोभट, यक्षेंद्र, भट्ट, भद्रंग, वीरभद्र, महागुण, कुलवीरा, महाभीम, दिव्यशक्ति, सुरप्रभा, रणस्थिर और अन्य भी शामिल हैं। ये शुभचिंतक मित्र कृष्ण से भी बड़े हैं और वे उन्हें किसी भी खतरे से बचाने की कोशिश करते हैं।

पाठ 25

कृष्ण के माता-पिता अपने बेटे से बहुत प्यार करते हैं। वे उसे अपने जीवन की साँसों से भी लाखों गुना अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। वे इस बात से बहुत भयभीत थे कि राक्षस कंस उनके बेटे को नुकसान पहुंचाएगा, उन्होंने अपने शुभचिंतक मित्रों (सुहर्ट) को उसकी रक्षा के लिए नियुक्त किया। इन शुभचिंतक मित्रों का नेता विजयक्ष नाम का एक लड़का है, जिसकी माँ, अंबिका-देवी, कृष्ण की नर्स थी। अंबिका-देवी ने देवी पार्वती की पूजा की और एक शक्तिशाली पुत्र प्राप्त करने के लिए बड़ी तपस्या की जो कृष्ण की रक्षा कर सके।

पाठ 26

सुभद्रा

सुभद्रा का रंग अत्यंत सुन्दर काला है। वह पीले वस्त्र और विभिन्न आभूषण पहनते हैं।

पाठ 27

सुभद्रा के पिता उपनंद हैं, और उनकी माँ पवित्र और वफादार तुला-देवी हैं। कुण्डलता-देवी उसकी पत्नी बनेगी। सुभद्रा यौवन के तेज से परिपूर्ण हैं।

पाठ 28-29

कृष्ण के साधारण मित्र (सखा)

कृष्ण के साधारण मित्रों (सखा) के समूह में विशाला, वृषभ, ओजस्वी, देवप्रस्थ, वरुथपा, मंदार, कुसुमापीड, मणिबंधकार, मंदार, चंदना, कुंडा, कालिंदी, कुलिका और कई अन्य शामिल हैं। ये मित्र कृष्ण से छोटे हैं और हमेशा उनकी सेवा के लिए उत्सुक रहते हैं।

पाठ 30 - 31

कृष्ण के गोपनीय मित्र (प्रिय-सखा)

कृष्ण के गोपनीय मित्र हैं श्रीदामा, सुदामा, दामा, वसुदामा, किंकिनी, भद्रसेन, अम्सु, स्टोकाकृष्ण, विलासी, पुंडारिका, वितंकाक्ष, कलाविंका और प्रियस्करा। ये मित्र कृष्ण के समयुग हैं। उनके नेता श्रीदामा हैं, जिन्हें पीथमर्दक के नाम से भी जाना जाता है।

पाठ 32

भद्रसेन वह सेनापति है जो कृष्ण के बचपन के दोस्तों को सैन्य गतिविधियों में ले जाता है। स्टोकाकृष्ण का नाम बहुत उचित है, क्योंकि वह एक छोटे (स्टोका) कृष्ण की तरह है।

पाठ 33

ये गोपनीय मित्र (प्रिय-सखा) अपनी उत्साही और उल्लासपूर्ण कुश्ती, छड़ी-लड़ाई और अन्य खेलों से भगवान कृष्ण को प्रसन्न करते हैं।

पाठ 34

ये सभी गोपनीय मित्र स्वभाव से बहुत शांतिपूर्ण हैं। उनमें से प्रत्येक भगवान कृष्ण को अपने जीवन की सांस के बराबर मानता है।

पाठ 35

कृष्ण के अंतरंग मित्र (प्रिया-नर्म-सखा)

सुबाला, अर्जुन, गंधर्व, वसंत, उज्ज्वला, कोकिला, सनन्दना और विदग्ध कृष्ण के घनिष्ठ मित्रों में से सबसे महत्वपूर्ण हैं।

पाठ 36

कृष्ण इन घनिष्ठ मित्रों से कोई रहस्य नहीं रखते। इनमें मधुमंगला, पुष्पंका और हसंका मजाक करने के शौकीन लोगों में अग्रणी हैं। सुंदर सनन्दन कृष्ण के साथ अपनी घनिष्ठ मित्रता से बहुत प्रसन्न हैं और तेजस्वी उज्ज्वला सभी पारलौकिक मधुरताओं की साक्षात् शासक प्रतीत होती हैं। चंचल बालकों के शिखर रत्न भगवान कृष्ण अपनी प्रिय सखी उज्ज्वला के प्रति विनम्र हैं।

पाठ 37

श्रीदामा का रंग सुन्दर साँवला है। वह पीले वस्त्र और रत्नों का हार पहनते हैं।

पाठ 38

वह सोलह साल का एक शानदार युवा है। वह असंख्य दिव्य लीलाओं के अमृत का एक महान भण्डार है। वह भगवान कृष्ण के सबसे प्रिय मित्र हैं।

पाठ 39

उनके पिता महाराज वृषभानु हैं और उनकी माता पवित्र कीर्तिदा-देवी हैं। श्रीमती राधारानी और अनंग-मंजरी उनकी दो छोटी बहनें हैं।

पाठ 40

सुदामा

सुदामा का सुन्दर रंग कुछ-कुछ गोरा है। वह रत्नजड़ित आभूषणों से सुसज्जित हैं और नीले वस्त्र पहनते हैं।

पाठ 41

उनके पिता का नाम मटुका और माता का नाम रोकाना-देवी है। वह बहुत छोटा है और कई तरह के गेम खेलने का शौकीन है।

पाठ 42

सुबाला

सुबाला का रंग गोरा है. वह सुंदर नीले वस्त्र पहनता है और उसे कई प्रकार के आभूषणों और फूलों से सजाया जाता है।

पाठ 43

वह साढ़े बारह वर्ष का है और युवा कान्ति से चमकता है। यद्यपि वह कृष्ण का मित्र है, फिर भी वह विभिन्न तरीकों से कृष्ण की सेवा में लगा हुआ है।

पाठ 44

वह दिव्य जोड़े की मुलाकात की व्यवस्था करने में माहिर हैं। वह आकर्षक है और उनके प्रति अलौकिक प्रेम से भरपूर है। वह प्रसन्नचित्त तथा अच्छे गुणों से परिपूर्ण है। वह कृष्ण को बहुत प्रिय है.

पाठ 45

अर्जुन

अर्जुन का चमकता हुआ रंग लाल कमल के फूल के समान है। उनके वस्त्र चांदनी के रंग के हैं और वे अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हैं।

पाठ 46

उनके पिता सुदक्षिणा, माता भद्रा-देवी और उनके बड़े भाई वसुदामा हैं। वह हमेशा दिव्य जोड़े के लिए दिव्य प्रेम में डूबा रहता है।

पाठ 47

वह साढ़े चौदह साल का है और यौवन की चमक से भरपूर है। वह वन पुष्पों की माला तथा अन्य अनेक प्रकार के पुष्प-आभूषण धारण करते हैं।

पाठ 48

गंधर्व

सुंदर गंधर्व का रंग चांदनी के समान होता है। वह लाल वस्त्र और कई तरह के आभूषण पहनते हैं।

पाठ 49

वह बारह वर्ष का है और यौवन तेज से परिपूर्ण है। उन्हें कई तरह के फूलों से सजाया गया है.

पाठ 50

उनकी माता संत मित्र देवी और पिता महान आत्मा विनोका हैं। वह बहुत चंचल है और श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय है।

पाठ 51

वसंत

वसंता का रंग शानदार गोरा है। उनके वस्त्र चंद्रमा के समान चमकते हैं और वे विभिन्न रत्नों से सुशोभित हैं।

पाठ 52

उसकी उमर ग्यारह साल है। उन्हें अनेक प्रकार की पुष्प मालाओं से सजाया गया है। उनकी माता साधू सारदि देवी हैं और उनके पिता महान आत्मा पिंगला हैं।

पाठ 53

उज्ज्वला

उज्ज्वला का रंग शानदार लाल है। उनके परिधान सितारों के पैटर्न से सजाए गए हैं और उन्हें मोतियों और फूलों से सजाया गया है।

पाठ 54

उनके पिता का नाम सागर है और उनकी माता पवित्र वेणी-देवी हैं। वह तेरह वर्ष का है और यौवनपूर्ण तेज से परिपूर्ण है।

पाठ 55

कोकिला

कोकिला का रंग गोरा है और वह बेहद खूबसूरत है। वह नीले वस्त्र धारण करता है और अनेक प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित रहता है।

पाठ 56

उसकी उम्र ग्यारह साल चार महीने है. उनके पिता का नाम पुष्कर है और उनकी माता प्रसिद्ध मेधा-देवी हैं।

पाठ 57

सनन्दना

सुंदर सानंदना का रंग गोरा है। वह नीले वस्त्र पहनते हैं और विभिन्न आभूषणों से सुसज्जित होते हैं।

पाठ 58

वह चौदह वर्ष का है। वह फूलों की माला पहनते हैं. उनके पिता अरुणाक्ष और माता मल्लिका-देवी हैं।

पाठ 59

सुंदर सनन्दन भगवान कृष्ण की मित्रता पाकर बहुत प्रसन्न हैं। वह सभी पारलौकिक मधुरताओं के शानदार सम्राट की तरह है।

पाठ 60

विदग्ध का रंग पीले चंपक फूल के समान शानदार है। वह नीले वस्त्र और मोतियों का हार पहनता है।

पाठ 61

वह चौदह वर्ष का है और यौवन तेज से परिपूर्ण है। उनके पिता का नाम मटुका और माता का नाम रोकाना-देवी है।

पाठ 62

उनके बड़े भाई सुदामा और बहन सुशीला देवी हैं। वह श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय है। वह दिव्य जोड़े के प्रति अलौकिक प्रेम से परिपूर्ण है।

पाठ 63

मधुमंगल

मधुमंगल का रंग थोड़ा साँवला है। वह पीले वस्त्र और वन पुष्पों की माला पहनते हैं।

पाठ 64

उनके पिता संत संदीपनी मुनि हैं, उनकी माता पवित्र सुमुखी देवी हैं, उनकी बहन नंदीमुखी-देवी हैं और उनकी दादी पौरणमासी-देवी हैं।

पाठ 65

एक विशेषज्ञ हास्य अभिनेता, जो हमेशा विदूषक की भूमिका निभाते हैं, श्री मधुमंगल भगवान कृष्ण के निरंतर साथी हैं।

पाठ 66 - 67

श्री बलराम

शक्तिशाली भगवान बलराम का रंग क्रिस्टल के समान गोरा है। वह नीले वस्त्र और वन पुष्पों की माला पहनते हैं।

पाठ 68

उनके खूबसूरत बाल एक खूबसूरत टॉपनॉट में बंधे हुए हैं। शानदार बालियाँ उसके कानों को सजाती हैं।

पाठ 69

उनकी गर्दन फूलों की मालाओं और रत्नों की लड़ियों से शानदार ढंग से सुशोभित है। उनकी भुजाएँ कंगनों और बाजूबंदों से शोभायमान हैं।

पाठ 70

उनके पैर शानदार रत्नजड़ित पायलों से सुशोभित हैं। उनके पिता महाराजा वासुदेव हैं और उनकी माता रोहिणी-देवी हैं।

पाठ 71

नंद महाराजा उनके पिता के मित्र हैं। यशोदा देवी उनकी माता हैं, श्रीकृष्ण उनके छोटे भाई और सुभद्रा उनकी बहन हैं।

पाठ 72

वह सोलह वर्ष का है और यौवन की चमक से भरपूर है। वह श्रीकृष्ण के सबसे प्रिय मित्र हैं। वह अनेक प्रकार की दिव्य लीलाओं के अमृत माधुर्य का महान भण्डार है।

पाठ 73

विटास

संगीत, नाटक, साहित्य, विभिन्न प्रकार की गंधों के विज्ञान और कई कलाओं में विशेषज्ञ, विता कई अलग-अलग तरीकों से भगवान कृष्ण की सेवा करने में बहुत खुश हैं।

पाठ 74 - 75

कृष्ण के सेवक

भंगुरा, ब्रंगारा, संधिका, ग्रहिला, रक्तका, पत्रक, पत्री, मधुकंठ, मधुव्रत, सालिका, तालिका, माली, मन और मालाधर भगवान कृष्ण के सबसे प्रमुख सेवक हैं।

पाठ 76

ये सेवक कृष्ण की वेणु और मुरली बांसुरी, भैंस के सींग का बिगुल, छड़ी, रस्सी और अन्य सामान ले जाते हैं। वे खनिज रंग भी लाते हैं (चरवाहे लड़के अपने शरीर को सजाने के लिए उपयोग करते हैं)।

पाठ 77 - 78

सुपारी नौकर

पल्लव, मंगला, फुल्ल, कोमला, कपिला, सुविलासा, विलासक्ष, रसाला, रसासलि और जम्बुला भगवान कृष्ण के सुपारी सेवकों में सबसे महत्वपूर्ण हैं। वे कृष्ण से छोटे हैं और हमेशा गायन और संगीत वाद्ययंत्र बजाने में माहिर हैं। वे कृष्ण से छोटे हैं और सदैव उनके निकट रहते हैं।

पाठ 79

जल वाहक

पयोदा और वरिदा भगवान कृष्ण के लिए जल ले जाने में लगे सेवकों में सबसे महत्वपूर्ण हैं।

कपड़े धोने वाले

सारंगा और बकुला भगवान कृष्ण के कपड़े धोने में विशेषज्ञ रूप से लगे सेवकों में सबसे महत्वपूर्ण हैं।

पाठ 80

सज्जाकार

प्रेमकंद, महागंध, सैरिंध्र, मधु, कंडाला और मकरंद सबसे महत्वपूर्ण सेवक हैं जो लगातार भगवान कृष्ण को विभिन्न आभूषणों और कपड़ों से सजाने में लगे रहते हैं।

पाठ 81

सुगंधित पदार्थ उपलब्ध कराने वाले सेवक

सुमनः, कुसुमोल्लस, पुष्पहारा, हारा और अन्य लोग कुशलतापूर्वक कृष्ण को फूल, फूलों के आभूषण, फूलों की माला और कपूर जैसे विभिन्न सुगंधित पदार्थ प्रदान करते हैं।

पाठ 82

नेपिटास

स्वच्छा, सुशीला, प्रगुण और अन्य विभिन्न सेवाओं में लगे हुए हैं, जैसे कि भगवान के बालों की देखभाल करना, उनकी मालिश करना, उन्हें दर्पण देना और उनके खजाने की रक्षा करना।

अन्य

विमला, कोमला और अन्य लोग भगवान की रसोई की देखभाल जैसी विभिन्न सेवाओं में लगे हुए हैं।

पाठ 83

लौंडियां

धनिष्ठा-देवी, चंदनाकला-देवी, गुणमाला-देवी, रतिप्रभा-देवी, तरूणी-देवी, इंदुप्रभा-देवी, शोभा-देवी और रंभा-देवी कृष्ण की सेवा में लगी गोपियों की नेता हैं। ये गोपियाँ कृष्ण के घर की सफाई और सजावट करने, विभिन्न सुगंधित पदार्थों से उसका अभिषेक करने, दूध ले जाने और अन्य कर्तव्यों को निभाने में विशेषज्ञ हैं।

पाठ 84

अन्य नौकरानियाँ

कुरंगी-देवी, भृंगरी-देवी, सुलम्बा-देवी, आलंबिका-देवी और अन्य गोपियाँ भी इन तरीकों से कृष्ण की सेवा करती हैं।

पाठ 85

जासूस

कैटूरा, कैराना, धीमान और पेसाला कृष्ण के विशेषज्ञ जासूसों के नेता हैं, जो ग्वालों और गोपियों के बीच विभिन्न भेषों में यात्रा करते हैं।

पाठ 86

गोपा संदेशवाहक

विसारदा, तुंगा, ववादुका, मनोरमा और नीतिसार गोप दूतों के नेता हैं। वे लीलाओं की व्यवस्था करने और झगड़ों को निपटाने के लिए गोपियों तक कृष्ण के संदेश ले जाते हैं।

पाठ 87

कृष्ण के गोपी दूत

पौर्णमासी-देवी, वीरा-देवी, वृंदा-देवी, वामसी-देवी, नंदीमुखी-देवी, वृंदारिका-देवी, मेला-देवी और मुरली-देवी कृष्ण के गोपी दूतों की नेता हैं।

पाठ 88

इन सभी गोपी दूतों में वृंदा देवी सर्वश्रेष्ठ हैं। वह राधा और कृष्ण के मिलन की व्यवस्था करने में विशेषज्ञ हैं और वह वृन्दावन के भूगोल से पूरी तरह परिचित हैं, दिव्य युगल के मिलन के लिए सर्वोत्तम स्थानों को जानती हैं।

पाठ 89

पौर्णमासी

पौरणमासी का रंग पिघले हुए सोने के समान होता है। वह श्वेत वस्त्र और अनेक रत्नजड़ित आभूषण पहनती है।

पाठ 90

पौर्णमासी बहुत विद्वान और प्रसिद्ध है। उनके पिता सुरतदेव हैं और उनकी पवित्र माता चंद्रकला हैं। उनके पति प्रबला हैं.

पाठ 91

उसका भाई देवप्रस्थ है। वह व्रज भूमि को सुशोभित करने वाली एक उत्तम शिखा मणि के समान है। वह राधा और कृष्ण के मिलन के लिए विभिन्न व्यवस्थाएँ करने में विशेषज्ञ हैं।

पाठ 92(ए)

वीरा

एक अन्य गोपी दूत वीरा-देवी हैं। वह बहुत प्रसिद्ध है और व्रज में उसका बहुत सम्मान किया जाता है। वह बहुत अहंकार और निर्भीकता से बोल सकती है और वह वृंदा देवी की तरह मीठी और चापलूसी भरी बातें भी कर सकती है।

पाठ 92(बी)

उसका रंग सांवला है. वह शानदार सफेद वस्त्र और विभिन्न आभूषण और फूलों की माला पहनती है।

पाठ 93

उनके पति कावला हैं, उनकी माँ पवित्र मोहिनी-देवी हैं, उनके पिता विशाला हैं और उनकी बहन कावला-देवी हैं। वह जटिला-देवी को बहुत प्रिय है। वह जावता गांव में रहती है

पाठ 94

वह राधा और कृष्ण के मिलन के लिए विभिन्न व्यवस्थाएँ करने में विशेषज्ञ हैं।

पाठ 95

वृंदा-देवी

वृंदा देवी का रंग पिघले हुए सोने के समान सुंदर है। वह नीले वस्त्र पहनती है और मोतियों और फूलों से सजी होती है।

पाठ 96

उनके पिता चंद्रभानु और माता फुलारा-देवी हैं। उनके पति महीपाल और बहन मंजरी-देवी हैं।

पाठ 97

वह हमेशा वृन्दावन में रहती है, राधा और कृष्ण के प्रेम में डूबी रहती है और दोनों के मिलन की व्यवस्था करने और उनकी दिव्य लीलाओं में सहायता करने के अमृत का स्वाद चखने के लिए उत्सुक रहती है।

पाठ 98

नान्दीमुखी-देवी

नंदीमुखी-देवी का रंग गोरा है और वह उत्तम वस्त्र पहनती हैं। उनके पिता सांदीपनि मुनि हैं और उनकी माता पवित्र सुमुखी-देवी हैं।

पाठ 99

उनके भाई मधुमंगला हैं और उनकी दादी पौरणमासी-देवी हैं। वह विभिन्न आभूषण पहनती है और युवा चमक से दमकती है।

पाठ 100

वह विभिन्न कलाओं और शिल्पों में विशेषज्ञ हैं। राधा और कृष्ण के प्रति प्रेम से भरपूर, वह उनकी मुलाकात के लिए विभिन्न व्यवस्थाएँ करने में विशेषज्ञ हैं।

पाठ 101

भगवान कृष्ण के सेवकों का सामान्य विवरण

शोभना, दीपाना और अन्य लोग भगवान के लिए दीपक प्रदान करते हैं और सुधाकर, सुधानादा, सानंद और अन्य लोग उनकी संतुष्टि के लिए मृदंग बजाते हैं।

पाठ 102

विचित्रराव और मधुरराव प्रतिभाशाली और गुणी कवियों के नेता हैं, जो श्री कृष्ण की महिमा करते हुए प्रार्थनाएँ लिखते हैं, जबकि चंद्रहास, इंदुहास और चंद्रमुख उन सेवकों के नेता हैं जो भगवान की संतुष्टि के लिए नृत्य करते हैं।

पाठ 103

कलाकंठ, सुकंठ, सुधाकंठ, भरत, सारदा, विद्याविलास, सरसा और अन्य सभी प्रकार की साहित्यिक रचना की कला में निपुण हैं। वे अपनी किताबें और कागजात अपने साथ रखते हैं और वे भक्ति सेवा के सभी तरीकों से पूरी तरह परिचित हैं।

पाठ 104

रौसिका वह दर्जी है जो भगवान के लिए कपड़े सिलता है। सुमुखा, दुर्लभा, रंजना और अन्य लोग भगवान के कपड़े धोते हैं।

पाठ 105

पुण्यपुंज और भाग्यरासी दो सफाई कर्मचारी हैं जो कृष्ण के घर के आसपास के क्षेत्र की सफाई करते हैं।

पाठ 106

रंगना और टंकाना सुनार हैं जो भगवान के लिए आभूषण बनाते हैं। पावना और कर्मथा कुम्हार हैं जो मक्खन मथने के लिए पीने के बर्तन और सुराही बनाते हैं।

पाठ 107

वर्धकी और वर्धमान बढ़ई हैं जो गाड़ियाँ, सोफ़े और अन्य वस्तुएँ बनाकर भगवान की सेवा करते हैं। सुचित्रा और विसिट्रा प्रतिभाशाली कलाकार हैं जो भगवान के लिए चित्र बनाते हैं।

पाठ 108

कुंडा, कैंथोला, करंडा और अन्य कारीगर हैं जो रस्सियाँ, मथनी की छड़ें, कुल्हाड़ी, टोकरियाँ, भारी वस्तुओं को ले जाने के लिए तराजू और विभिन्न अन्य सामान्य बर्तन बनाते हैं।

पाठ 109

सुरभि गायों में मंगला, पिंगला, गंगा, पिसंगी, मणिकस्तानी, हमसी और वामसिप्रिया सबसे महत्वपूर्ण हैं, जो भगवान कृष्ण को बहुत प्रिय हैं।

पाठ 110

पद्मगंधा और पीसांगक्ष कृष्ण के पालतू बैल हैं। सुरंगा उनका पालतू हिरण है और दधिलोभा उनका पालतू बंदर है।

पाठ 111

व्याघ्र और भ्रमरक कृष्ण के पालतू कुत्ते हैं। कलास्वन उनके पालतू हंस हैं, तांडविका उनके पालतू मोर हैं और दक्ष और विकास उनके पालतू तोते हैं।

पाठ 112

कृष्ण की लीलाओं के स्थानों का वर्णन |

कृष्ण की लीलाओं के सभी स्थानों में सर्वश्रेष्ठ वह महान उद्यान है जिसे वृन्दावन वन के नाम से जाना जाता है। भगवान की लीलाओं का एक अन्य महत्वपूर्ण स्थान सुंदर और भव्य गोवर्धन पर्वत है। इस पहाड़ी का नाम बहुत ही उचित रखा गया है क्योंकि यह अपनी घास से कृष्ण की गायों का पोषण करती है।

पाठ 113

गोवर्धन पहाड़ी पर मणिकंदली नामक गुफा और नीलमंडपिका नामक नदी-अवस्थान स्थान है। मनसा-गंगा नदी पर परंगा नामक प्रसिद्ध लैंडिंग स्थल है।

पाठ 114

सुविलासतारा नामक नाव इसी परंगा अवतरण स्थल पर रहती है। एक अन्य महत्वपूर्ण स्थान नंदीश्वर पहाड़ी, कृष्ण का घर है, जहां भाग्य की देवी व्यक्तिगत रूप से मौजूद हैं।

पाठ 115

नंदीश्वर पहाड़ी पर शानदार सफेद पत्थर का घर है जहां कृष्ण बड़े हुए थे। इस घर का नाम अमोदावर्धन इसलिए रखा गया है क्योंकि यह हमेशा धूप और अन्य सुगंधित पदार्थों की सुखद सुगंध (अमोदा) से भरा रहता है।

पाठ 116

कृष्ण के घर के पास की झील का नाम पावना है और इसके किनारे पर कई उपवन हैं जहाँ भगवान लीलाओं का आनंद लेते हैं। कृष्ण के घर के पास ही काम महातीर्थ नामक उपवन और मंदार नामक रत्नमय मार्ग भी है।

पाठ 117

कदंबराज नाम के शानदार कदम्ब के पेड़ और भंडीरा नाम के बरगद के पेड़ वृन्दावन के जंगल में उगते हैं। यमुना के रेतीले तट पर अनागरंगा-भू नामक लीलास्थली है।

पाठ 118

यमुना नदी के तट पर पवित्र स्थान है जिसे खेला-तीर्थ के नाम से जाना जाता है, जहां भगवान कृष्ण अपनी सबसे प्रिय श्रीमती राधारानी के साथ सदैव लीलाओं का आनंद लेते हैं।

पाठ 119

श्री कृष्ण का साज-सामान

कृष्ण के दर्पण का नाम सारदिंदु है और उनके प्रशंसक का नाम मरुमारुता है। उनके खिलौने वाले कमल के फूल का नाम सदसमेरा है और उनकी खिलौने की गेंद का नाम चित्रकोरका है।

पाठ 120

कृष्ण के स्वर्ण धनुष का नाम विलासकर्मण है। इस धनुष के दोनों सिरे रत्नों से जड़ित हैं और इसमें मंजुलसार नामक धनुष की प्रत्यंचा लगी हुई है।

पाठ 121

उनकी चमचमाती रत्न-संचालित कैंची का नाम टस्टिडा है। उनके भैंस के सींग वाले बिगुल का नाम मंदराघोष है और उनकी बांसुरी का नाम भुवनमोहिनी है।

पाठ 122

कृष्ण के पास महानंदा नाम की एक और बांसुरी है, जो एक फिशशूक की तरह है जो श्रीमती राधारानी के दिल और दिमाग की मछली को पकड़ लेती है। एक अन्य बांसुरी, जिसमें छह छेद होते हैं, मदनझंकृति के नाम से जानी जाती है।

पाठ 123

सरला नाम की कृष्ण की बांसुरी धीरे-धीरे गाने वाली कोयल की आवाज की तरह धीमी, मृदु स्वर बनाती है। कृष्ण को राग गौड़ी और गरजरी में यह बांसुरी बजाना बहुत पसंद है।

पाठ 124

वह जिस अद्भुत पवित्र मंत्र का जाप करते हैं वह उनकी सबसे प्रिय राधारानी का नाम है। उनकी छड़ी का नाम मंदना है, उनकी वीणा का नाम तरंगिनी है, वे जो दो रस्सियाँ लेकर चलते हैं उनका नाम पसुवसिकरा है और उनकी दूध की बाल्टी का नाम अमृतदोहनी है।

पाठ 125

कृष्ण के आभूषण

कृष्ण की बांह पर नौ रत्नों से जड़ित एक ताबीज है और उनकी सुरक्षा के लिए उनकी मां ने वहां रखा था।

पाठ 126

उनके दो बाजूबंदों का नाम रंगदा है, उनके दो कंगनों का नाम शोभना है, उनकी अंगूठी का नाम रत्नमुखी है और उनके पीले वस्त्रों का नाम निगमशोभना है।

पाठ 127

कृष्ण की छोटी घंटी की डोरी का नाम कालाझंकार है और उनकी दो पायलों का नाम हंसगंजना है। इन आभूषणों की झनकार ध्वनि हिरण जैसी आंखों वाली गोपियों के मन को मंत्रमुग्ध कर देती है।

पाठ 128

कृष्ण के मोती के हार का नाम तारावली है और उनके रत्न के हार का नाम तदितप्रभा है। वह अपनी छाती पर जो लॉकेट पहनते हैं उसका नाम ह्रदयमोदन है और इसके भीतर श्रीमती राधारानी की तस्वीर है।

पाठ 129

कृष्ण के रत्न का नाम कौस्तुभ है। कालिया झील में कालिया नाग की पत्नियों ने अपने हाथों से यह मणि भगवान को दी थी।

पाठ 130

कृष्ण की शार्क के आकार की बालियों का नाम रतिरागधिदैवता है, उनके मुकुट का नाम रत्नापारा है और उनके शिखा-रत्न का नाम कैमरादामारी है।

पाठ 131

कृष्ण के मोर पंख वाले मुकुट का नाम नवरत्नविदम्बा है, उनके गुंजा हार का नाम रागवल्ली है और उनके तिलक चिन्ह का नाम दृष्टिमोहन है।

पाठ 132

कृष्ण की वन के फूलों और पत्तियों की माला, जो उनके चरणों तक पहुँचती है और जिसमें पाँच अलग-अलग रंगों के फूल होते हैं, वैजयंती कहलाती है।

पाठ 133

भाद्र महीने में अंधेरे चंद्रमा की आठवीं रात, जब चंद्रमा अपने प्रिय साथी, रोहिणी तारे के साथ उग आया, इस दुनिया में भगवान कृष्ण के जन्म से सुशोभित पवित्र समय है।

पाठ 134

कृष्ण की प्रिय गोपियाँ

अब अत्यंत अद्भुत गोपियाँ, जो लक्ष्मी-देवियों और भाग्य की अन्य देवियों से भी अधिक मात्रा में भगवान के शुद्ध प्रेम के सौभाग्य से सुशोभित हैं, महिमामंडित होंगी।

पाठ 135

श्रीमती राधारानी

सभी सुंदर गोपियों में श्रीमती राधारानी सर्वश्रेष्ठ हैं। राधारानी वृन्दावन की रानी हैं। ललिता और विशाखा सहित उसके कई प्रसिद्ध मित्र हैं।

पाठ 136-139

श्रीमती राधारानी की प्रतिद्वंदी चन्द्रावली है। चंद्रावली की सखियों में पद्मा, श्यामा, सैब्या, भद्रा, विचित्रा, गोपाली, पालिका, चंद्रसालिका, मंगला, विमला, लीला, तरलाक्षी, मनोरमा, कंदर्पा-मंजरी, मंजुभासिनी, खंजनेकसना, कुमुदा, कैरावी, सारी, सरदाक्षी, विसारदा, संकरी हैं। कुंकुमा, कृष्णा, सारंगी, इंद्रावली, शिवा, तारावली, गुणवती, सुमुखी, केली-मंजरी, हरावली, काकोराक्सी, भारती और कमला।

पाठ 140

सुंदर गोपियों को सैकड़ों समूहों में माना जा सकता है, प्रत्येक समूह में सैकड़ों हजारों गोपियाँ होती हैं।

पाठ 141

इन सभी गोपियों में सबसे महत्वपूर्ण हैं श्रीमती राधारानी, ​​चंद्रावली, भद्रा, श्यामा और पालिका। ये गोपियाँ सभी दिव्य अच्छे गुणों से परिपूर्ण हैं।

पाठ 142

इन गोपियों में श्रीमती राधारानी और चंद्रावली सर्वश्रेष्ठ हैं। उनमें से प्रत्येक के लाखों हिरनी जैसी आंखों वाले गोपी अनुयायी हैं।

पाठ 143

क्योंकि उनमें सारा आकर्षण और माधुर्य है, श्रीमती राधारानी दोनों में श्रेष्ठ हैं। वह बेहद मशहूर हैं. श्रुति-शास्त्र में उन्हें गंधर्व-देवी के नाम से जाना जाता है।

पाठ 144

श्री कृष्ण, चरवाहे राजकुमार जिनकी आकर्षक मिठास के बराबर या श्रेष्ठ कोई नहीं है, श्रीमती राधारानी के बहुत प्रिय हैं। वह उसे अपने प्राणों से भी लाखों-करोड़ों गुना अधिक प्रिय मानती है।

पाठ 145

अब श्रीमती राधारानी के दिव्य स्वरूप के सौन्दर्य का वर्णन किया जायेगा। श्रीमती राधारानी सभी ललित कलाओं में निपुण हैं और उनका दिव्य रूप अमृत के सागर के समान है।

पाठ 146

उसकी शानदार शारीरिक चमक पीले वर्णक गोरोकाना, पिघले हुए सोने या स्थिर बिजली की तरह है।

पाठ 147

वह अद्भुत सुंदर नीले वस्त्र पहनती है और उसे विभिन्न मोतियों और फूलों से सजाया जाता है।

पाठ 148

वह बहुत सुंदर है और उसके लंबे, अच्छी तरह से गूंथे हुए बाल हैं। उन्हें फूलों की माला और सुंदर मोतियों के हार से सजाया गया है।

पाठ 149

उसका शानदार माथा लाल रंग के सिन्दूर और घुंघराले बालों की खूबसूरत लटों से सजाया गया है।

पाठ 150

नीली चूड़ियों से सुसज्जित, उनकी भुजाओं ने अपनी सुंदरता से कामदेव की छड़ी को हरा दिया है।

पाठ 151

काले काजल से सुशोभित और लगभग उनके कानों तक पहुँचने वाली, श्रीमती राधारानी की कमल आँखें तीनों ग्रह प्रणालियों में सबसे सुंदर हैं।

पाठ 152

उसकी नाक तिल के फूल के समान सुन्दर है और वह मोती से सुशोभित है। विभिन्न इत्रों से उनका अभिषेक किया जाता है। वह बेहद खूबसूरत हैं.

पाठ 153

उसके कान अद्भुत बालियों से सुशोभित हैं और उसके अमृतमय होंठ लाल कमल के फूलों को मात देते हैं।

पाठ 154

उसके दाँत मोतियों की कतार के समान हैं और उसकी जीभ बहुत सुन्दर है। कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम की अमृतमय मुस्कान से सुशोभित, उनका सुंदर चेहरा लाखों चंद्रमाओं के समान शानदार है।

पाठ 155

उसकी ठुड्डी की सुंदरता ने देवता कामदेव को हरा दिया और भ्रमित कर दिया। कस्तूरी की बूंद से सुशोभित उनकी ठुड्डी भौंरे के साथ सुनहरे कमल के फूल की तरह दिखाई देती है।

पाठ 156

अद्भुत सौन्दर्य के सभी चिन्हों को धारण करते हुए, उसकी गर्दन मोतियों की माला से सुशोभित है। उसकी गर्दन, पीठ और बाजू मनमोहक रूप से सुंदर हैं।

पाठ 157

उसके सुंदर स्तन चोली से ढके हुए और मोतियों के हार से सुशोभित दो शानदार जलपात्रों के समान हैं।

पाठ 158

उसकी सुंदर मनमोहक भुजाएँ रत्नजड़ित बाजूबंदों से सुशोभित हैं।

पाठ 159

उनकी भुजाएँ रत्नजटित कंगनों तथा अन्य प्रकार के रत्नजड़ित आभूषणों से सुशोभित हैं। उसके हाथ दो लाल कमल के फूलों की तरह हैं जो चंद्रमाओं की श्रृंखला से प्रकाशित होते हैं जो उसके नाखून हैं

पाठ 160

श्रीमती राधारानी के हाथों पर शुभ निशान

श्रीमती राधारानी के हाथ भौंरा, कमल, अर्धचंद्र, कान की बाली, छत्र, यज्ञ पद, शंख, वृक्ष, फूल, कक्ष और स्वस्तिक जैसे कई शुभ चिह्नों से सुशोभित हैं।

पाठ 161

ये शुभ चिह्न श्रीमती राधारानी के कमल हाथों पर विभिन्न प्रकार से प्रकट होते हैं। उनकी शानदार खूबसूरत उंगलियां भी रत्न जड़ित अंगूठियों से सजी हुई हैं।

पाठ 162

आकर्षक, मधुर रस से भरपूर और गहरी नाभि से सुशोभित, श्रीमती राधारानी की सुंदर कमर तीनों लोकों को मंत्रमुग्ध कर देती है।

पाठ 163

उसके झुके हुए कूल्हे उसकी आकर्षक सुंदर पतली कमर की ओर ले जाते हैं, जो त्वचा की तीन सुंदर परतों की लता से बंधी होती है और खनकती घंटियों के एक कमरबंद से सुशोभित होती है।

पाठ 164

दो उत्तम केले के पेड़ों की तरह सुंदर, उसकी जांघें कामदेव के मन को मंत्रमुग्ध कर देती हैं। उसके सुंदर घुटने विभिन्न दिव्य लीलाओं के अमृत से भरे दो जलाशयों की तरह हैं।

पाठ 165

उनके सुंदर कमल पैर रत्नजड़ित घुंघरुओं से सुशोभित हैं और उनके पैरों की अंगुलियों में बिछिया वरुण के खजाने के समान सुंदर हैं।

पाठ 166

श्रीमती राधारानी के चरण कमलों पर शुभ चिह्न

श्रीमती राधारानी के चरण कमलों पर शुभ चिह्नों में शंख, चंद्रमा, हाथी, जौ के दाने, हाथियों को नियंत्रित करने वाली छड़ी, रथ ध्वज, छोटा ड्रम, स्वस्तिक और मछली के चिह्न शामिल हैं।

पाठ 167

श्रीमती राधारानी पन्द्रह वर्ष की हैं और यौवन की चमक से भरपूर हैं।

पाठ 168

ग्वालों की रानी, ​​यशोदा-देवी, राधारानी के प्रति लाखों माताओं से भी अधिक स्नेही हैं। राधारानी के पिता राजा वृषभानु हैं, जो सूर्य के समान तेजस्वी हैं।

पाठ 169

श्रीमती राधारानी की माता कीर्तिदा-देवी हैं, जिन्हें इस संसार में रत्नगर्भा-देवी के नाम से भी जाना जाता है। राधारानी के दादा महीभानु और नाना इंदु हैं।

पाठ 170

उनकी नानी मुखरा-देवी हैं और उनकी दादी सुखदा-देवी हैं। उनके पिता के भाई (उनके चाचा) रत्नभानु, सुभानु और भानु हैं।

पाठ 171

भद्रकीर्ति, महाकीर्ति और कीर्तिचन्द्र राधारानी के मामा हैं। मेनका-देवी, षष्ठी-देवी, गौरी-देवी, धात्री-देवी और धातकी-देवी राधारानी की मौसी हैं।

पाठ 172

राधारानी की माँ की बहन कीर्तिमती-देवी हैं, जिनके पति कासा हैं। राधारानी के पिता की बहन भानुमुद्रा-देवी हैं, जिनके पति कुश हैं।

पाठ 173

राधारानी के बड़े भाई श्रीदामा हैं और उनकी छोटी बहन अनंग-मंजरी हैं। राधारानी के ससुर का नाम वृकागोप है और उनके देवर का नाम दुर्मदा है।

पाठ 174

जटिला-देवी राधारानी की सास हैं और अभिमन्यु राधारानी के तथाकथित पति हैं। कुटिला देवी, जो सदैव दोष ढूंढने को उत्सुक रहती हैं, राधारानी की भाभी हैं।

पाठ 175

ललिता, विशाखा, सुचित्र, कैम्पकलता, रंगा-देवी, सुदेवी, तुंगविद्या और इंदुलेखा श्रीमती राधारानी की आठ सबसे प्रिय सखियाँ हैं। ये गोपियाँ अन्य सभी गोपियों की नेता मानी जाती हैं।

पाठ 176

कुरंगाक्षी, मंडली, मानकीकुंडला, मातलि, चंद्रलालिता, माधवी, मदनलसा, मंजुमेधा, शशिकला, सुमाध्या, मधुरेकसाना, कमला, कमलातिका, गुनाकुडा, वरांगदा, माधुरी, कैंड्रिका, प्रेमा-मंजरी, तनुमध्यामा, कंदर्पा-सुंदरी और मंजुकेसी लाखों में से हैं। श्रीमती राधारानी की प्रिय सखियाँ (प्रिया-सखी)।

पाठ 177

लसिका, केलिकंदली, कादंबरी, शशिमुखी, चंद्ररेखा, प्रियंवदा, मदोनमदा, मधुमती, वसंती, कालभासिनी, रत्नावली, मणिमती और कर्पूरालतिका उन सखियों (जीविता-सखी) में से हैं जिनके लिए श्रीमती राधारानी जीवन के समान प्रिय हैं।

पाठ 178

कस्तूरी, मनोंजना, मणिमंजरी, सिंदुरा, चंदनवती, कौमुदी और मदिरा श्रीमती राधारानी की शाश्वत सखियों (नित्य-सखी) में से हैं।

पाठ 179-181

श्रीमती राधारानी की मंजरी सखियाँ।

अनंग-मंजरी, रूप-मंजरी, रति-मंजरी, लवंगा-मंजरी, राग-मंजरी, रस-मंजरी, विलासा-मंजरी, प्रेम-मंजरी, मणि-मंजरी, सुवर्ण-मंजरी, काम-मंजरी, रत्न-मंजरी, कस्तूरी- मंजरी, गंध-मंजरी, नेत्र-मंजरी, श्रीपद्म-मंजरी, लीला-मंजरी और हेमा-मंजरी श्रीमती राधारानी की मंजरी सखियों में से हैं। प्रेम-मंजरी और रति-मंजरी दोनों को भानुमती-देवी के नाम से भी जाना जाता है।

पाठ 182

श्रीमती राधारानी की पूजा की वस्तुएँ

श्रीमती राधारानी के आराध्य देवता सूर्य-देव हैं, जो कमल के फूलों को जीवंत करते हैं और पूरी दुनिया के लिए एक आँख के रूप में कार्य करते हैं। श्रीमती राधारानी का महामंत्र भगवान कृष्ण का नाम है। श्रीमती राधारानी की उपकारी, जो उन्हें सभी सौभाग्य प्रदान करती हैं, भगवती पौर्णमासी हैं।

पाठ 183

विभिन्न गोपियों का विशिष्ट वर्णन |

ललिता-देवी और अन्य आठ प्रमुख गोपियाँ, अन्य गोपियाँ और मंजरी के ऐसे रूप हैं जो अधिकांशतः वृन्दावन की रानी श्रीमती राधारानी के दिव्य रूप के समान हैं।

पाठ 184

वृन्दा-देवी, कुंडलत-देवी और उनके अनुयायी वृन्दावन के विभिन्न जंगलों में दिव्य जोड़े को उनकी लीलाओं में सहायता करते हैं। धनिष्ठा देवी, गुणमाला देवी और उनके अनुयायी चरवाहे राजा नंद महाराजा के घर में रहते हैं और वहां से भगवान की लीलाओं में सहायता करते हैं।

पाठ 185

कामदा-देवी श्रीमती राधारानी की नर्स की बेटी हैं। कामदा राधारानी की विशेष घनिष्ठ सखी हैं। रागलेखा-देवी, कलाकेली-देवी और मंजुला-देवी राधारानी की कुछ दासियाँ हैं।

पाठ 186

नंदीमुखी-देवी और बिंदुमती-देवी उन गोपियों की नेता हैं जो राधा और कृष्ण के मिलन की व्यवस्था करती हैं। श्यामला-देवी और मंगला-देवी उन गोपियों की नेता हैं जो श्रीमती राधारानी की शुभचिंतक के रूप में कार्य करती हैं।

पाठ 187

चंद्रावली-देवी उन गोपियों की नेता हैं जो श्रीमती राधारानी की प्रतिद्वंद्वी हैं।

पाठ 188

प्रतिभाशाली संगीतकार रसोल्लासा-देवी, गुनातुंगा-देवी, कलाकंथी-देवी, सुखंती-देवी और पिकाकांति-देवी विशाखा की संगीत रचनाएँ गाकर भगवान हरि को प्रसन्न करते हैं।

पाठ 189

माणिकी-देवी, नर्मदा-देवी, और कुसुमापेसल-देवी ड्रम, झांझ, वीणा जैसे तार वाले वाद्य और बांसुरी जैसे वायु वाद्ययंत्र बजाकर दिव्य जोड़े की सेवा करती हैं।

पाठ 190

इस प्रकार हमने कुछ सखियों (गोपी सखियों), नित्य-सखियों (शाश्वत गोपी सखियों), प्राण-सखियों (गोपी सखियों जो जीवन के समान प्रिय हैं), प्रिया-सखियों (प्रिय गोपी सखियों) और परम-प्रेष्ठा का वर्णन किया है। -सखियाँ (सबसे प्रिय गोपी मित्र)

पाठ 191

श्रीमती राधारानी की दासियाँ

रागलेखा-देवी, कलाकेली-देवी और भूरिदा-देवी उन गोपियों की नेता हैं जो श्रीमती राधारानी की दासियाँ हैं। इन नौकरानियों में सुगंधा-देवी और नलिनी-देवी (दिवाकीर्ति-देवी की दो बेटियाँ) और मंजिष्ठा-देवी और रंगरागा-देवी (नंद महाराजा के कपड़े धोने वालों की दो बेटियाँ) हैं।

पाठ 192

पलिन्द्री-देवी श्रीमति राधारानी को कपड़े पहनाकर और सजाकर उनकी सेवा करती हैं। सिट्रीनी राधारानी को विभिन्न सौंदर्य प्रसाधनों से सजाती है। मांत्रिकी-देवी और तांत्रिक-देवी ज्योतिषी हैं जो श्रीमती राधारानी को भविष्य बताते हैं।

पाठ 193

कात्यायनी-देवी उन गोपी दूतों की नेता हैं जो श्रीमती राधारानी से बड़ी हैं। महाराजा नंद के सफ़ाईकर्मी की दो बेटियाँ, भाग्यवती-देवी और पुण्यपुंजा-देवी, श्रीमती राधारानी की दासियाँ भी हैं।

पाठ 194

तुंगा-देवी, मल्ली-देवी और मटल्ली-देवी उन लड़कियों की नेता हैं जो पुलिंदों के नाम से जानी जाने वाली असभ्य पहाड़ी जनजाति से आती हैं। वृन्दावन में कुछ पुलिन्द लड़कियाँ श्रीमती राधारानी की सखी के रूप में कार्य करती हैं और कुछ श्री कृष्ण की सखी हैं।

पाठ 195

श्रीमती राधारानी की सेवकों में गार्गी-देवी और अन्य बहुत सम्मानित ब्राह्मण लड़कियाँ, भृंगारिका-देवी और सेटी समुदाय की अन्य लड़कियाँ, विजया-देवी, रसाला-देवी, पयोदा-देवी और वीटा समुदाय की अन्य लड़कियाँ भी शामिल हैं। लड़के सुबाला, उज्ज्वला, गंधर्व, मधुमंगल और रक्तक।

पाठ 196

तुंगा-देवी, पिसांगी-देवी और कलाकंदला-देवी हमेशा श्रीमती राधारानी की सेवा के लिए उनके पास रहती हैं। मंजुल-देवी, बिंदुला-देवी, संध्या-देवी, मृदुला-देवी और अन्य, हालांकि बहुत छोटी हैं फिर भी राधारानी की सेवा में लगी हुई हैं।

पाठ 197

सुनदा, यमुना और बहुला श्रीमती राधारानी की पालतू सुरभि गायों में सबसे महत्वपूर्ण हैं। तुंगी उसका मोटा पालतू बछड़ा है, कक्खती उसकी बूढ़ी पालतू बंदर है, रंगिनी उसकी पालतू हिरणी है और करुक्नाद्रिका उसकी पालतू काकोरी पक्षी है।

पाठ 198

टुंडीकेरी राधारानी के पालतू हंस का नाम है, जो राधा-कुंड में तैरने का शौकीन है। माधुरी राधारानी की पालतू हथिनी है और सुक्ष्मधि और सुभा उनके दो पालतू तोते हैं।

पाठ 199

दोनों तोते ललिता-देवी के अपने मालिक और मालकिन (श्री श्री राधा-कृष्ण) से बोले गए चंचल चुटकुलों की पूरी तरह नकल करते हैं। इस अद्भुत पुनरावृत्ति से तोते गोपियों को आश्चर्यचकित कर देते हैं।

पाठ 200

श्रीमती राधारानी के आभूषण

श्रीमती राधारानी के तिलक अंकन का नाम स्मरयंत्र है। उनके रत्नजड़ित हार का नाम हरिमोहना है, उनकी रत्नजड़ित बालियों का नाम रोकाना है और उनकी नाक को सजाने वाले मोती का नाम प्रभाकरी है।

पाठ 201

उनके लॉकेट जिसमें भगवान कृष्ण की तस्वीर है, का नाम मदन है। उनके स्यमंतक रत्न को संखाकुड़ा-सिरोमणि 9संखाकुड़ा का शिखा-रत्न) के नाम से भी जाना जाता है।

पाठ 202

वह अपने गले में जो शुभ आभूषण पहनती है उसे पुष्पवन कहा जाता है क्योंकि यह सूर्य और चंद्रमा के एक साथ उगने पर अपनी चमक के साथ ग्रहण करता है (पुष्पवन0)। उसकी पायल को कैटकारवा कहा जाता है क्योंकि उनकी खनकती आवाज कैटक पक्षियों की छन-छन जैसी होती है। उसके कंगन को मणिकरवुरा कहा जाता है।

पाठ 203

श्रीमती राधारानी की अंगूठी का नाम विपक्षमर्दिनी है। उनके कमरबंद का नाम कंचनसित्रंगी है और उनके घुंघरू, जो अपनी खनकती ध्वनि से भगवान कृष्ण को अचेत कर देते हैं, का नाम रत्नागोपुरा है।

पाठ 204

श्रीमती राधारानी के वस्त्रों का नाम मेघाम्बरा है। इनका ऊपरी वस्त्र माणिक के समान लाल है और यह भगवान हरि को प्रिय है। राधारानी का निचला वस्त्र नीले बादल के रंग का है और यह उनका अपना पसंदीदा है।

पाठ 205

श्रीमती राधारानी के रत्नजड़ित दर्पण का नाम सुदामसुदारपहरण है, जिसका अर्थ है "वह जो चंद्रमा (सुदामसु) के अभिमान (दर्प) को दूर (हरण) करता है।"

पाठ 206

काजल लगाने के लिए उनकी सुनहरी छड़ी का नाम नर्मदा है, उनकी रत्नजड़ित कंघी का नाम स्वस्तिदा है और उनके निजी फूलों के बगीचे का नाम कंदर्पकुहली है।

पाठ 207

राधारानी के बगीचे में सुनहरे चमेली के फूलों की एक लता है जिसे उन्होंने ताडिडवल्ली ("बिजली की बेल") नाम दिया है। उनकी निजी झील का अपना नाम (राधा-कुंड) है और उस झील के किनारे पर एक कदंब का पेड़ है जो उनके और भगवान कृष्ण के बीच बहुत गोपनीय बातचीत का स्थान है।

पाठ 208

उनके पसंदीदा राग मल्लारा और धनश्री हैं और उनके पसंदीदा नृत्य चालिक्य और रुद्रवल्लकी हैं।

पाठ 209

श्रीमती राधारानी का गौरवशाली जन्म भाद्र माह में उज्ज्वल चंद्रमा के आठवें दिन हुआ था। हालाँकि उस दिन आम तौर पर पूरा चाँद नहीं होता था, लेकिन राधारानी के इस दुनिया में प्रकट होने का जश्न मनाने के लिए चाँद पूरा दिखाई देता था।

पाठ 210

इस प्रकार हमने श्री वृन्दावन के दो सम्राटों, श्री श्री राधा और कृष्ण के अनगिनत सहयोगियों के बारे में थोड़ा खुलासा किया है।




एकदा पृथिवी वत्स दुष्टसंघैश्च ताडिता ।३४।
गौर्भूत्वा च भृशं दीना चाययौ सा ममांतिकम् ।३४।
निवेदयामास दुःखं रुदंती च पुनः पुनः ३५।
तद्वाक्यं च समाकर्ण्य गतोऽहं विष्णुसंनिधिम् ।३५।
कृष्णे निवेदितश्चाशु पृथिव्या दुःखसंचयः ३६।
तेनोक्तं गच्छ भो ब्रह्मन्देवैः सार्द्धं च भूतले ।३६।


अहं तत्रापि गच्छामि पश्चान्ममगणैः सह ३७।
तच्छ्रुत्वा सहितो दैवैरागतः पृथिवीतलम् ।३७।


ततः कृष्णः समाहूय राधां प्राणगरीयसीम् ३८।
उवाच वचनं देवि गच्छेहं पृथिवीतलम् ।३८।


पृथिवीभारनाशाय गच्छ त्वं मर्त्त्यमंडलम् ३९।
इति श्रुत्वापि सा राधाप्यागता पृथिवीं ततः ।३९।


भाद्रे मासि सिते पक्षे अष्टमीसंज्ञिके तिथौ ४०।
वृषभानो र्यज्ञभूमौ जाता सा राधिका दिवा ।४०।


यज्ञार्थं शोधितायां च दृष्टा सा दिव्यरूपिणी ४१।
राजानं दमना भूत्वा तां प्राप्य निजमंदिरम् ।४१।


दत्तवान्महिषीं नीत्वा सा च तां पर्यपालयत् ४२।
इति ते कथितं वत्स त्वया पृष्टं च यद्वचः ।४२।


गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ४३।
सूत उवाच-
य इदं शृणुयाद्भक्त्या चतुर्वर्गफलप्रदम् ।४३।


सर्वपापविनिर्मुक्तश्चांतेयातिहरेर्गृहम् ४४।
इति श्रीपाद्मे महापुराणे ब्रह्मखंडे ब्रह्मनारदसंवादे श्रीराधाष्टमीमाहात्म्यंनाम सप्तमोऽध्यायः ७।