रविवार, 28 जून 2020

------राधा तत्व भक्ति मूलक...

राधा का वेदों में वर्णन --
राधा तत्वामृत
राधा ---व्युत्पत्ति व उदभव---- ------
राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र, यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है|

 अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं | 

कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं।
 आराधिका शब्द में से अा उपसर्ग हटा देने से राधिका बनता है। 
कुछ भी सही परम्परागत रूप से कृष्ण चरित्र का सहचरी रूप है राधा ।

राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। 

यहाँ राधा का मंदिर भी है। 
राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है।

 ------- यह आश्चर्य की बात हे कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता, यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य मिलता है। 

राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया। 
कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। 
'परन्तु यह प्रेम लौकिक प्रेम नहीं था ।
जो वासना समन्वित है ।

दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे। 
'परन्तु भारतीय पुरोहितों'ने भी कृष्ण चरित्र को जन किंवदंतियों से ग्रहण कर अपने अपने भाव प्रवृत्तियों के अनुरूप वर्णित किया ।
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यहाँ पर हम वस्तुतः राधा शब्द व चरित्र कहाँ से आया इस प्रश्न पर कुछ प्रकाशन डालने का प्रयत्न करेंगे | 

प्रयत्न ही कर सकते हैं, यद्यपि यह भी एक धृष्टता ही है क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण (श्री राधाजी व श्री कृष्ण ) स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं अतः सत्य तो वे ही जानते हैं |

  राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमदभागवत में स्पष्ट नहीं मिलता ....
वेद-उपनिषद में भी राधा का उल्लेख नहीं है।
  ऐसा आर्य्य समाजी मानते हैं ।
आर्य्य समाजी तो वेदों की व्याख्या अपने धातुज या योगज शब्दों के अर्थ रूप में करते हैं ।
जो अनर्थ मूलक और पूर्व दुराग्रह से ग्रस्त ही हैं ।

राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है| 
'परन्तु वहाँ भक्ति में श्रृंँगार प्रवाहित है ।

'परन्तु राधा  भागवत धर्म में भक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं और स्वयं भगवान् भक्ति के अधीन है ।

वेदों में राधा शब्द सर्व-प्रथम ऋग्वेद के भाग-१ /मंडल १,२ ...में ...राधस शब्द का प्रयोग हुआ है ।

....जिसे वैभव के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
ऋग्वेद के २/मण्डल ३-४-५ में ..सुराधा ...शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है ।

...सभी देवों से उनकी अपनी संरक्षक शक्ति का उपयोग करके धनों की प्राप्ति व प्राकृतिक साधनों के उचित प्रयोग की प्रार्थना की गयी है|

 ऋग्वेद-५/५२/..में -- राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं...यथा.. “ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”

अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है | 

एवं..... “गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव: नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |”

 ------कृष्ण = कृ = कार्य = कर्म -----राधो = अराधना, राधन ( गूंथना ), शोध, शोधन, नियमितता, साधना ...अर्थात ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता उन्नति की वृद्धि ...कृष्ण-राधा द्वारा हुई = कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से हुई |

 इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण (ऋग्वेद ३. ५ १. १ ०) ---ओ राधापति ( इंद्र – बाद में विष्णु ) वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं। 
उनके द्वारा सोमरस पान करो।

 -------विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ २ २. ७). 
-------ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो हमारी आराधना सुनें हमारी रक्षा करो।
 त्वं नृचक्सम वृषभानुपूर्वी : कृष्नास्वग्ने अरुषोविभाही ...(ऋग्वेद ) 
--------इस मन्त्र में श्री राधा के पिता वृषभानु का उल्लेख किया गया है जो अन्य किसी भी प्रकार के संदेह को मिटा देता है ,क्योंकि वही तो राधा के पिता हैं। 

------यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : ---(अथर्ववेदीय राधिकोपनिषद )
 ----राधा वह शख्शियत है जिसके कमलवत चरणों की रज श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक अपने माथे पे लगाते हैं। 

राधा को दक्षिणी भारतीय आख्यानकों में 
भक्ति की अधिष्ठात्री देवी रूप में स्वीकार किया गया है।

तमिलनाडू की गाथा के अनुसार --दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह, उत्तर के यादव के समकक्ष हैं | 

एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे |


 उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया --- श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था | तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्रीय संहिता के अनुसार ---विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति –दिशाओं की देवी भी कहते हैं |

 नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं –अदिति ...| 

---------श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी---नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है जो दक्षिण की राधा है |
नामान्तरण से ये पात्र. राधा हैं ।

 एक कथा के अनुसार राधाके कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी | 
-----पुराणों में श्री राध का वर्णन अतिरञ्जना पूर्ण शैली में हुआ है ।

वेदव्यास जी ने श्रीमदभागवत के अलावा १७ और पुराण रचे हैं अथवा उनके अनुयायी सूतों ने रचना की इनमें से छ :में श्री राधारानी का उल्लेख है।

 यथा राधा प्रिया विष्णो : (पद्मपुराण ) 

राधा वामांश संभूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण )

 तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण ) 

रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने (मत्स्य पुराण १३. ३७ ) 

राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवी भागवत पुराण ) 

-----यां गोपीमनयत कृष्णो (श्रीमद भागवतम १०.३०.३५ )

 ---श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर हो गए। महारास से विलग हो गए। 

गोपी, राधा का एक नाम है|

 ----अन्या अाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर : -(श्रीमद भागवतम )

 ----इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति( आराधना) की है।
 इसीलिए कृष्ण उन्हें अपने (संग रखे हैं ) संग ले गए, इसीलिये वह आराधिका ...राधिका है |

 --------- वस्तुतः ऋग्वेदिक व यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति = रयि (संसार, ऐश्वर्य, श्री, वैभव) +धा (धारक, धारण करने वाली शक्ति) से हुई है; 
अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ज्ञान मार्गीकाल में सृष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तो समस्त संसार की धारक चितशक्ति, ह्लादिनी शक्ति, परमेश्वरी राधा का आविर्भाव हुआ|

 ----भविष्य पुराण में--जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा गया तो उनकी मूल कृतित्व - काल, कर्म, धर्म व काम के अधिष्ठाता हुए—कालरूप- कृष्ण व उनकी सहोदरी (साथ-साथ उदभूत) राधा-परमेश्वरी......कर्म रूप - ब्रह्मा व नियति (सहोदरी).... धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा (सहोदरी) .....एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ( सहोदरी )---- इस प्रकार राधा परमात्व तत्व कृष्ण की चिर सहचरी, चिच्छित-शक्ति (ब्रह्मसंहिता) है। 

------वही परवर्ती साहित्य में.... श्रीकृष्ण का लीला-रमण व लौकिक रूप के आविर्भाव के साथ उनकी साथी, प्रेमिका, पत्नी हुई व ब्रजबासिनी रूप में जन-नेत्री। ------भागवत-पुराण ...मैं जो आराधिता नाम की गोपी का उल्लेख है 

...... किसी एक प्रिय गोपी को भगवान श्री कृष्ण महारास के मध्य में लोप होते समय साथ ले गये थे जिसे ’मान ’ होने पर छोडकर अन्तर्ध्यान हुए थे; संभवतः यह वही गोपी रही होगी जिसे गीत-गोविन्द के रचयिता विद्यापति व सूरदास आदि परवर्ती कवियों, भक्तों ने श्रंगारभूति श्रीकृष्ण (पुरुष) की रसेश्वरी (प्रक्रति) राधा....के रूप मेंकल्पित व प्रतिष्ठित किया। 

-------महाभारत में राधा ----
उल्लेख उस समय आ सकता था जब शिशुपाल श्रीकृष्ण की लम्पटता का बखान कर रहा था| 

परन्तु भागवतकार निश्चय ही राधा जैसे पावन चरित्र को इसमें घसीटना नहीं चाहता होगा, अतः शिशुपाल से केवल सांकेतिक भाषा में कहलवाया गया, अनर्गल बात नहीं कहलवाई गयी|

 -------- कुछ विद्वानों के अनुसार महाभारत में तत्व रूप में राधा का नाम सर्वत्र है क्योंकि उसमें कृष्ण को सदैव श्री कृष्ण कहा गया है |

 श्री का अर्थ राधा ही है जो आत्मतत्व की भांति सर्वत्र अंतर्गुन्थित है, श्रीकृष्ण = राधाकृष्ण | 

श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप अथवा अहीर की पुत्री थीं।

 राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं।
 राधा की माता कीर्ति के लिए 'वृषभानु पत्नी 'शब्द का प्रयोग किया जाता है।

 राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं।

 राधा वृषभानु की पुत्री थी।
 पद्म पुराण ने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है।

 यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि में कन्या के रूप में राधा मिली।

 राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया। 

यह भी कथा मिलती है कि विष्णु ने कृष्ण अवतार लेते समय अपने परिवार के सभी देवताओं से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा।

 तभी राधा भी जो चतुर्भुज विष्णु की अर्धांगिनी और लक्ष्मी के रूप में वैकुंठ लोक में निवास करती थीं, राधा बनकर पृथ्वी पर आई। 

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थी और उसका विवाह रापाण अथवा रायाण नामक व्यक्ति के साथ हुआ था।

 अन्यत्र  जैसे गर्गसंहिता अष्टम अध्याय में भाण्डीर वन में राधा और कृष्ण के विवाह का भी उल्लेख मिलता है। 

कहते हैं, राधा अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी। 
---------यह भी किंवदन्ती है कि जन्म के समय राधा अन्धी थी और यमुना में नहाते समय जाते हुए राजा वृषभानु को सरोवर में कमल के पुष्प पर खेलती हुई मिली।

 शिशु अवस्था में ही श्री कृष्ण की माता यशोदा के साथ बरसाना में प्रथम मुलाक़ात हुई, पालने में सोते हुए राधा को कृष्ण द्वारा झांक कर देखते ही जन्मांध राधा की आँखें खुल गईं | 

महान कवियों- लेखकों ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही जैसी उपाधि दी।

 दे भी क्यूँ न ? राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था...उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें, वृन्दावन की वे कुंज वेल गलियाँ वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते .....

 वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी ।

 ------राधा जो वनों में भटकती, कृष्ण कृष्ण पुकारती, अपने प्रेम को अमर बनाती, उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नही देखा।

 ...तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाए ।

किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नहीं सुना। 

स्वयं कृष्ण को कहाँ कभी समय मिला कि वो अपने हृदय की बात..मन की बात सुन सकें। 

जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर वे प्रभास -क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तब 'जरा'के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई। 

उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए 'राधा'शब्द का उच्चारण किया।
 जिसे 'जरा' ननेमक बसुेलिए न  सुना और 'उद्धव' को जो उसी समय वह पहुँचे उन्हें सुनाया।

 उद्धव की आँखों से आँसू लगतार बहने लगे।
 सभी लोगों को कृष्ण का संदेश देने के बाद जब उद्धव राधा के पास पहुँचे तो वे केवल इतना कह सके ---

"राधा, कान्हा तो सारे संसार के थे ।
राधिके ! कृष्ण सर्वस्य जगते: 
-----किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी…....कान्हा के हृदय में तो केवल राधा थीं .... 
समस्त भारतीय साहित्य के अध्यन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम और भक्ति का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। 
यदि है तो वह प्रक्षिप्त ही है ।
इसलिए इस प्रेम को शाश्वत प्रेम की श्रेणी में रखते हैं।

 इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।
 -------बरसाना के श्री जी के मंदिर में ठाकुर जी भी रहते हैं | 
ठाकुर शब्द का प्रयोग तेरहवीं सदी में हुआ तुर्की आर्मेनियन और ईरानी भाषाओं से 
सोलहवीं सदी में पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय के वैष्णव सन्त बल्लभाचार्य'ने इसका प्रयोग किया ।
सामले खुद ही चूनर ओढ़ा देते हैं सखी वेष में रहते हैं ताकि कोई जान न पाये | 

महात्माओं से सुनते हैं कि ऐसा संसार में कहीं नहीं है जहाँ कृष्ण सखी वेश में रहते हैं | 
जो पूर्ण पुरुषोत्तम पुरुष सखी बने ऐसा केवल बरसाने में है |
 अति सरस्यौ बरसानो जू | 
राजत रमणीक रवानों जू || 
जहाँ मनिमय मंदिर सोहै जू | 

****श्रीकृष्ण तत्वामृत***** -
----वो कृष्णा है ----वो गाय चराता है, गोमृत दुहता है...दधि खाता है...उसे माखन बहुत सुहाता है ...वह गोपाल है।
.....गोविन्द है.....वो कृष्ण है....... 
-------गौ अर्थात गाय, ज्ञान, बुद्धि, इन्द्रियां, धरतीमाता ....अतः वह बुद्धि, ज्ञान , इन्द्रियों का, समस्त धरती का (कृषक ) पालक है –गोपाल, वह गौ को प्रसन्नता देता है (विन्दते) गोविन्द है ..... दधि...अर्थात स्थिर बुद्धि, प्रज्ञा ...को पहचानता है...उसके अनुरूप कार्य करता है वह दधि खाता है ... ------माखन उसको सबसे प्रिय है

 .....माखन अर्थात गौदुग्ध को बिलो कर आलोड़ित करके प्राप्त उसका तत्व ज्ञान पर आचरण करना व संसार को देना उसे सबसे प्रिय है .. 
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“सर्वोपनिषद गावो दोग्धा नन्द नन्दनं “ ...

सभी उपनिषद् गायें हैं जिन्हें नन्द नंदन श्री कृष्ण ने दुहा !
....गीतामृत रूपी माखन स्वयं खाया, प्रयोग किया ....संसार को प्रदान करने हेतु..... 

 वह बाल लीलाएं करता हुआ कंस जैसे महान अत्याचारी सम्राट का अंत करता है ...।
वो प्रेम गीत गाता है वह गोपिकाओं के साथ रमण करता है, नाचता है , प्रेम करता है , राधा का प्रेमी है, कुब्जा का प्रेमी है ...मोहन है ...परन्तु उसे किसी से भी प्रेम नहीं है...निर्मोही है ...वह किसी का नहीं .. वह सभी से सामान रूप से प्रेम करता है ..वह सबका है और सब उसके ... 
वो आठ पटरानियों का एवं १६०० पत्नियों का पति है, पुत्र-पुत्रियों में, संसार में लिप्त है ...परन्तु योगीराज है, योगेश्वर है |
 वो कर्म के गीत गाता है एवं युद्ध क्षेत्र में भी भक्ति व ज्ञान का मार्ग, धर्म की राह दिखाता है ,,,गीता रचता है .... 

---- वो रणछोड़ है ...वो स्वयं युद्ध नहीं करता, अस्त्र नहीं उठाता, परन्तु विश्व के सबसे भीषण युद्ध का प्रणेता, संचालक व कारक है |

 ---अपने सम्मुख ही अपनी नारायणी सेना का विनाश कराता है, कुलनाश कराता है... ---काल के महान विद्वान् उसके आगे शीश झुकाते हैं ...

 ------------वो कृष्णा, कृष्ण है श्री कृष्ण है ............

वह कोइ विशेषज्ञ नहीं अपितु शेषज्ञ है उसके आगे काल व ज्ञान स्वयं शेष होजाते हैं |

 ---------- वह कृष्ण है ........
 कर्म शब्द कृ धातु से निकला है कृ धातु का अर्थ है करना। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ कर्मफल भी होता है।
 -----कृ से उत्पन्न कृष का अर्थ है ।
विलेखण......आचार्यगण कहते हैं..... ‘संसिद्धि: फल संपत्ति:’ अर्थात फल के रूप में परिणत होना ही संसिद्धि है और ‘विलेखनं हलोत्कीर्णं ” अर्थात विलेखन शब्द का अर्थ है हल-जोतना |

..जो तत्पश्चात अन्नोत्पत्ति के कारण ..मानव जीवन के सुख-आनंद का कारण ...अतः कृष्ण का अर्थ.. कृष्णन, कर्षण, आकर्षक, आकर्षण व आनंद स्वरूप हुआ... | -
---वो कृष्ण है ------ 'संस्कृति' शब्द भी 

….'कृष्टि'शब्द से बना है, जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत की 'कृष'धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है- 'खेती करना', संवर्धन करना, बोना आदि होता है।सांकेतिक अथवा लाक्षणिक अर्थ होगा- जीवन की मिट्टी को जोतना और बोना।
 …..‘संस्कृति’ शब्द का अंग्रेजी पर्याय "कल्चर"शब्द ( ( कृष्टि -कल्ट कल्चर ) भी वही अर्थ देता है। 

कृषि के लिए जिस प्रकार भूमि शोधन और निर्माण की प्रक्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार संस्कृति के लिए भी मन के संस्कार–परिष्कार की अपेक्षा होती है। 

____अत: जो कर्म द्वारा मन के, समाज के परिष्करण का मार्ग प्रशस्त करता है वह कृष्ण है... |

 'कृष'धातु में 'ण'प्रत्यय जोड़ कर 'कृष्ण'बना है जिसका अर्थ आकर्षक व आनंद स्वरूप कृष्ण है.. ---वो कृष्ना है...कृष्ण है ..... शिव–नारद संवाद में शिव का कथन ---‘कृष्ण शब्द में कृष शब्द का अर्थ समस्त और 'न'का अर्थ मैं...आत्मा है .इसीलिये वह सर्वआत्मा परमब्रह्म कृष्ण नाम से कहे जाते हैं| 
कृष का अर्थ आड़े’.. और न.. का अर्थ आत्मा होने से वे सबके आदि पुरुष हैं |
 -----..अर्थात कृष का अर्थ आड़े-तिरछा और न: (न:=मैं, हम...नाम ) का अर्थ आत्मा ( आत्म ) होने से वे सबके आदि पुरुष हैं...कृष्ण हैं|

 क्रिष्ट..क्लिष्ट ...टेड़े..त्रिभंगी...कृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा का यही तत्व-अर्थ है... **** कृष्ण = क्र या कृ = करना, कार्य=कर्म …..राधो = आराधना, राधन, रांधना, गूंथना, शोध, नियमितता , साधना....राधा.... गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव: नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |..
अस्तु यह सब भाव व्याख्या है।

ऋग्वेद ---ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता उन्नति की वृद्धि ...कृष्ण-राधा द्वारा हुई = कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से हुई ....साधना के बिना कर्म सफल कब होता है ... वो राधा है ।
राध धातु से राधा और कृष् धातु से कृष्ण नाम व्युत्पन्न हुये| 
राध्धातु का अर्थ है संसिद्धि ( वैदिक रयि= संसार..धन, समृद्धि एवं धा = धारक )... ----ऋग्वेद-५/५२/४०९४-- में राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं...यथा.. “ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”

....अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है |

नारद पंचरात्र में राधा का एक नाम हरा या हारा भी वर्णित है...वर्णित है | 

जो गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय में प्रचलित है| 

अतः महामंत्र की उत्पत्ति....  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे//

 ----सामवेद की छान्दोग्य उपनिषद् में कथन है... ”स्यामक केवलं प्रपध्यये, स्वालक च्यमं प्रपध्यये स्यामक”.... ----श्यामक अर्थात काले की सहायता से श्वेत का ज्ञान होता है (सेवा प्राप्त होती है).. तथा श्वेत की सहायता से हमें स्याम का ज्ञान होता है ( सेवा का अवसर मिलता है)....यहाँ श्याम ..कृष्ण का एवं श्वेत राधा का प्रतीक है |
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शनिवार, 27 जून 2020

वर्ण व्यवस्था और देव संस्कृतियों का यथार्थ मूलक विश्लेषण ...

वर्ण-व्यवस्था की प्रक्रिया का वर्णन करने वाले ऋग्वेद के पुरुष सूक्त की वास्तविकताओं पर कुछ प्रकाशन:---  

वैदिक भाषा (छान्दस्) और लौकिक भाषा (संस्कृत) को तुलनानात्मक रूप में सन्दर्भित करते हुए --
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ऋग्वेद को  आप्तग्रन्थ  एवं अपौरुषेय भारतीय रूढि वादी ब्राह्मण समाज सदीयों से मानता आ रहा है । 

इसी कारण वेदों के सूक्तों को ईश्वरीय विधान के रूप में भारतीय समाज पर मान्यताऐं आरोपित भी की जाती रहीं है  ।
परन्तु ऋग्वेद के अनेक सूक्त अर्वाचीन अथवा परवर्ती काल के हैं । 

यद्यपि ऋग्वेद के अनेक सूक्त प्राचीनत्तम भी हैं ---जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन संस्कृतियों की पृष्ठ-भूमि को आलेखित करते हैं । 

मैसॉपोटमिया की संस्कृतियाँ आधुनिक ईरान तथा ईराक की प्राचीनत्तम व पूर्व इस्लामिक संस्कृतियाँ थीं ।

वस्तुत: भारत और ईरानी समाज में वर्ग -व्यवस्था तो थी । 
परन्तु वर्ण -व्यवस्था कभी नहीं रही ।

दौनों देशों की भाषाओं में साम्य होते हुए भी सांस्कृतिक भेद पूर्ण रूपेण है। 

क्योंकि ईरानी आर्य असुर संस्कृति के अनुयायी तथा भारतीय आर्य देव संस्कृति के अनुयायी थे । 
दौनों संस्कृतियों 'ने असुर और देव शब्द को सांस्कृतिक शीर्षक के रूप में आत्मसात् किया ।
जैसे ईरानीयों 'ने असु-र के (अहु-र) रूप में अपने सर्वोच्च आराध्य अहुर-मज्दा में प्रतिष्ठित किया ।
और देव को "दएव" के रूप में निकृृष्ट और हेय अर्थ में ग्रहण किया ।

इसी प्रकार देव संस्कृतियों के अनुयायीयों 'ने भी ईरानी आर्य्यों के साथ किया की असु-र (प्राणवन्त ) के असुर ( जो सुर 'न हो ) के रूप में स्वीकार करके (असु-र )को 
(अ-सुर ) बना दिया ।
आप जानते हो कि संस्कृत तथा वैदिक भाषाओं में असु -प्राण अथवा शक्ति का वाचक है।

ये सांस्कृतिक द्वेष कालान्तरण में अनेक अर्थ विकृतियों का कारण हुआ ...

इन दौनों समाजों में चार व्यावसायिक वर्ग भले ही रहे हों परन्तु वर्ण-व्यवस्था भारतीय समाज में ही थी।

हम्बूरावी कि विधि संहिता में भी समाज का व्यवसाय परक -तीन वर्गों में विभाजन था ।

इधर भारतीय धरातल पर आगत देव संस्कृति के अनुयायी ब्राह्मणों ने वेदों का प्रणयन किया जिसमें स्केण्डिनेवियन संस्कृतियों स्वीडन , नार्वे तथा अजरवेज़ान (आर्यन-आवास )की संस्कृतियाँ की धूमिल  स्मृतियाँ अवशिष्ट थी ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के 90 वें सूक्त का 12 वीं ऋचा में शूद्रों की उत्पत्ति ईश्वर (विराट् पुरुष)के पैरों से करा कर ; उनके लिए आजीवन ब्राह्मण के पैरों - तले पड़े रहने का कर्तव्य नियत कर दिया गया । 

जो वस्तुत ब्राह्मण समाज की स्वार्थ-प्रेरित परियोजना थी  पठन-पाठन का अधिकार ब्राह्मणों ने शूद्रों से छीन लिया -
और धार्मिक क्रियाऐं इनको लिए निषिद्ध घोषित कर दी गयीं परिणामत: ये संस्कार हीन , अशिक्षित, अन्ध-विश्वास से ओत-प्रोत एवं पतित होते चले गये ।

यह ब्राह्मण समाज का मानवीय अपराध था ।
निश्चित रूप से इससे बड़ा संसार का कोई जघन्य पाप- कर्म मानवता के प्रति कभी नहीं हुआ था ।

शूद्रों के लिए ब्राह्मणों द्वारा कुछ धार्मिक मान्यताओं की मौहर लगाकर पद-प्रणति परक दासता पूर्ण विधान पारित किये गये थे। 

जिससे कि शूद्र आजीवन ब्राह्मण तथा उनके अंग रक्षक क्षत्रियों के पैरों की सेवा करते रहें ।

... उनके पैरों के लिए जूते ,चप्पल बनाते रहें ... यह निश्चित रूप से ब्राह्मणों की बुद्धि -महत्ता नहीं थी!
अपितु चालाकी , पूर्ण कपट और दोखा  अथवा प्रवञ्चना थी । 

इस कृत्य के लिए ईश्वर भी  इन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा !
और कदाचित वो दिन अब आ भी चुके हैं ।

अब इन व्यभिचारीयों के वंशजों की दुर्गति हो रही है ।
भारत में आगत आर्यों का प्रथम समागम द्रविड परिवार की एक शाखा कोलों से हुआ था । 

---जो  भारतीय धरातल पर उत्तर-पूर्वीय पहाड़ी क्षेत्रों में बसे हुए थे ।

जो वस्त्रों का निर्माण कर लेते थे ; उन्हें ही आर्यों ने शूद्र शब्द से सम्बोधित किया था ।
क्योंकि यह शूद्र शब्द सुट्र शब्द के रूप में यूरोपीय भाषाओं में विद्यमान है-।

👕 ईरानी आर्यों ने इन्हीं वस्त्र निर्माण - कर्ता शूद्रों को वास्तर्योशान अथवा वास्त्रोपश्या के रूप में अपनी वर्ग - व्यवस्था में वर्गीकृत किया था ।
न कि हुत्ती रूप में  ! 

फारसी धर्म की अर्वाचीन पुस्तकों में  इन चार वर्गों का वर्णन कुछ नाम परिवर्तन के साथ है ---जैसे :- 
देखें:---

नामामिहाबाद पुस्तक के अनुसार 
१ --- होरिस्तान. जिसका पहलवी रूप है अथर्वण जिसे वेदों मैं अथर्वा कहा है .. 

२---नूरिस्तान ..जिसका पहलवी रूप रथेस्तारान ...जिसका वैदिक रूप रथेष्ठा तथा 

३---रोजिस्तारान् जिसका पहलवी रूप होथथायन था तथा 

४---चतुर्थ वर्ण पोरिस्तारान को ही 
वास्तर्योशान कहा गया है !!!!


19 वीं शताब्दी में कुछ यूरोपीय भाषा विश्लेषकों ने अवस्ताई फ़ारसी और ऋग्वैदिक भाषा दोनों पर तुलनानात्मक अध्ययन किया और इन दौनों के गहरे सम्बन्धों का तथ्य उनके सामने जल्दी ही आ गया।

उन्होंने देखा के अवस्ताई फ़ारसी और ऋग्वैदिक भाषा के शब्दों में कुछ सरल नियमों के साथ एक से दुसरे को अनुवादित किया जा सकता था ।

और व्याकरण की दृष्टि से यह दोनों बहुत नज़दीक थे। अपनी सन् 1892 में प्रकाशित किताब "अवस्ताई व्याकरण की संस्कृत से तुलना और अवस्ताई वर्णमाला और उसका लिप्यान्तरण" में भाषावैज्ञानिक और विद्वान "एब्राहम जैक्सन" ने उदहारण के लिए एक अवस्ताई धार्मिक श्लोक का ऋग्वैदिक भाषा में सीधा अनुवाद किया।
जो देव नागरी लिपि में निम्नलिखित है 👇
_________________________________________
मूल अवस्ताई अनुवाद

"तम अमवन्तम यज़तम
सूरम दामोहु सविश्तम
मिथ़्रम यज़ाइ ज़ओथ़्राब्यो।

वैदिक भाषा का अनुवाद रूप -

तम आमवन्तम यजताम
शूरम् धामेषु शाविष्ठम
मित्राम यजाइ होत्राभ्यः

अवस्ताई एक पूर्वी ईरानी भाषा है; जिसका ज्ञान आधुनिक युग में केवल पारसी धर्म के -ग्रन्थों, विशेष: अवेस्ता ए जैन्द के द्वारा प्राप्त हो पाया है।

इतिहासकारों का मानना है के मध्य एशिया के बॅक्ट्रिया और मार्गु क्षेत्रों में स्थित याज़िदी संस्कृति में यह भाषा या इसकी उपभाषाएँ (1500-1100) ईसा पूर्व के काल में बोली जाती थीं। 

क्योंकि यह एक धार्मिक भाषा बन गई, इसलिए इस भाषा के साधारण जीवन से लुप्त होने के पश्चात भी इसका प्रयोग नए -ग्रन्थों को लिखने के लिए होता रहा।

जड़े -(श्रोत)

सन् 1500 ईसा पूर्व के युग की केवल दो ईरानी भाषाओँ की लिखित रचनाएँ मिली हैं।

एक "प्राचीन अवस्ताई" है जो उत्तरपूर्व में बोली जाती थी और एक "प्राचीन फ़ारसी" है जो दक्षिण-पश्चिम में बोली जाती थी।
ईरानी भाषाओँ में यह पूर्वी ईरानी भाषाओँ और पश्चिमी ईरानी भाषाओँ का एक बहुत बड़ा विभाजन है।

आरम्भ में केवल एक "आदिम हिन्द-ईरानी भाषा" थी - इसी से हिन्द-ईरानी भाषा परिवार की सभी भाषाएँ जन्मी हैं, जिनमें संस्कृत, हिंदी, कश्मीरी, फ़ारसी, पश्तो सभी शामिल हैं। 

प्राचीन अवस्ताई उस युग की भाषा है जब पूर्वी ईरानी भाषाएँ और वैदिक संस्कृत बहुत मिलती-जुलती थीं। पश्चिमी ईरानी भाषाओं में कुछ बदलाव आ रहे थे ;

 जिस से वह वैदिक संस्कृत से थोड़ी भिन्न हो चुकी थी। कहा जा सकता है के प्राचीन अवस्ताई इन दोनों के बीच थी - यह वैदिक संस्कृत से बहुत मिलती-जुलती है और यह प्राचीन (पश्चिमी) फ़ारसी से भी मिलती जुलती है।

 अवस्ताई भाषा में रचनाएँ कम हैं इसलिए अवस्ताई शब्द-व्याकरण समझने के लिए भाषा वैज्ञानिक वैदिक संस्कृत का पहले अध्ययन कर उसकी सहायता लेते हैं ।
क्योंकि अवस्ताई और वैदिक संस्कृत में इस क्षेत्र में निकट का सम्बन्ध है।

वस्त्र शब्द फारसी और संस्कृत में समान रूप से प्रचलित रहा है ।
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वास्तर्योशान यह ईरानी समाज में वे लोग थे ---जो द्रुज शाखा के थे ! 
जिन्हे कालान्तरण में दर्जी या दारेजी भी कहा गया है । 

ये कैल्ट जन जाति के पुरोहितों ड्रयूडों (Druids) की ही एक शाखा थी । 

वर्तमान सीरिया , जॉर्डन, पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल, कनान तथा लेबनान में द्रुज लोग यहूदीयों के सहवर्ती थे ।

यहीं से ये लोग बलूचिस्तान होते हुए भारत में भी आये विदित हो कि बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा शूद्रों की भाषा मानी जाती है । 

अत: इतिहास कार शूद्रों को प्रथम आगत द्रविड स्कन्ध आभीरों अथवा यादवों के सहवर्ती मानते हैं ।

ये आभीर अथवा यादव इज़राएल में अबीर कहलाए जो यहूदीयों का एक मार्सल आर्ट का सर्जक यौद्धा कब़ीला है 

इसके लिए देखें--- हिब्रू बाइबिल का -सृष्टि खण्ड (जेनेसिस)- 

शूद्रों को ही युद्ध कला में महारत हासिल थी । 
यह तथ्य भी आधुनिक अन्वेषणों से उद् घाटित हुआ है 
पुरानी फ्रेंच भाषा में सैनिक अथवा यौद्धा को सॉडर (Souder ) तथा(Soldier )कहा जाता था ।

और सम्पूर्ण यूरोपीय भाषाओं में यह शब्द प्रचलित था ।
व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से शूद्र शब्द का अर्थ-

--Celtic genus or tribe of a Scotis origin --- which was related to pictus; And  waged in war, it was called Shudra (Shooter ) in Europe...

एक स्कॉट्स मूल की कैल्टिक जन-जाति --जो  पिक्टों से सम्बद्ध थी ; तथा युद्ध में वेतन  लेकर युद्ध करती थी , वह यूरोप में शूद्र कहलाती थी ।

वास्तव में रोमन संस्कृति में सोने के सिक्के को सॉलिडस् (Solidus) कहा जाता था ।

इस कारण ये सॉल्जर कह लाए .. ये लोग पिक्टस (pictis) कहलाते थे।

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Shudras only mastered martial arts. Soldier or warrior in old French was called Soder Souder (Soldier). 

Originally-derived - One tribe who serves in the army for pay is called Souder .. 

In fact, gold coins in the Roman culture were called Solidus. Because of this, they called the Soldier. These people were called paintings...

शूद्रों की एक शाखा को पिक्टस कहा गया।
जो ऋग्वेद में पृक्त कहे गये ।

जो वर्तमान पठान शब्द का पूर्व रूप है । 

---जो बाद में पख़्तो हो गया है । 
फ़ारसी रूप पुख़्ता ---या पख़्तून भी इसी शब्द से सम्बद्ध हैं ।

हिन्दी पट्ठा  या पट्ठे ! का विकास भी इसी शब्द से हुआ ।
... क्योंकि अपने शरीर को सुरक्षात्मक दृष्टि से अनेक लेपो से टेटू बना कर ये लोग सजात भीे भी थे ।

ताकि युद्ध काल में व्रण- संक्रमण (सैप्टिक )न हो सके ।
ये पूर्वोत्तरीय स्कॉटलेण्ड में रहते थे ।

ये शुट्र ही थे जो स्कॉटलेण्ड में बहुत पहले से बसे हुए थे ।

" The pictis were a tribal Confederadration of peoples who lived in what is today Eastern and northern Scotland... "

ये लोग यहाँ पर ड्रयूडों की शाखा से सम्बद्ध थे । 
भारतीय द्रविड अथवा इज़राएल के द्रुज़ तथा बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूड (Druids) एक ही जन जाति के लोग थे । 

मैसॉपोटामिया की धरा पर एक संस्कृति केल्डियनों (Chaldean) सेमेटिक जन-जाति की भी है।
जो ई०पू० छठी सदी में विद्यमान रहे हैं ।

बैवीलॉनियन संस्कृतियों में इनका अतीव योगदान है । 
यूनानीयों ने इन्हें कालाडी (khaldaia ) कहा है।

ये सेमेटिक जन-जाति के थे ; अत: भारतीय पुराणों में इन्हें सोम वंशी कहा । 

जो कालान्तरण में चन्द्र का विशेषण बनकर चन्द्र वंशी के रूप में रूढ़ हो गया ।
पुराणों में भी प्राय: सोम शब्द ही है । 
चन्द्र शब्द नहीं ... 

वस्तुत ये कैल्ट लोग ही थे ; जिससे द्रुज़ जन-जाति का विकास पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल के क्षेत्र में हुआ । 
मैसॉपोटामिया की असीरियन (असुर) अक्काडियन, हिब्रू तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों की श्रृंखला में केल्डियन संस्कृति भी एक कणिका थी।

भारतीय समाज की सदीयों से यही विडम्बना रही की यहाँ ब्राह्मण समाज ने ( उपनिषद कालीन ब्राह्मण समाज को छोड़कर)
अशिक्षित  जनमानस को दिग्भ्रमित करने वाली प्रमाण रूप बातों को बहुत ही सफाई से समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है! 

और अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं सृजित की जिनका ऐैतिहासिक रूप से कहीं अस्तित्व नहीं था ।

लेकिन कहीं भी ऐसे वर्णन करने वाले ग्रन्थ हों सम्भव नहीं ! 
सब के सब जनता को पथ-भ्रमित करने के लिए एक अतिशयोक्ति और चाटूकारिता पूर्ण कल्पना मात्र हैं, 

जो लोगों को मानवता के पथ से विचलित कर रूढ़िगत मार्ग पर ढ़केल ले जाती हैं।

जैसे ऋग्वेद जो अपौरुषेय वाणी बना हुआ भारतीय जनमानस  के मस्तिष्क पटल पर दौड़ लगा रहा है ! 

वह भी पारसीयों ( ईरानीयों) के सर्वमान्य ग्रन्थ जींद ए अवेस्ता का  परिष्कृत संस्कृत रूपान्तरण है। 

दौनों में काफी साम्य देखने को मिलता है,।
सम्भवत दौनों -ग्रन्थों का श्रोत समान रहा हो !
दौनों के पात्र एवं शब्द- समूह समान है ।

-जैसे यम विवस्वत् का पुत्र है । 

वृत्रघ्न , त्रित ,त्रितान अहिदास ,सोम ,वशिष्ठ ,अथर्वा, मित्र आदि को क्रमश यिम, विबनघत ,वेरेतघन ,सित, सिहतान ,अजिदाह ,हॉम वहिश्त ,अथरवा ,मिथ्र आदि  
दौनों की घटनाओं का भी समायोजन है ।

ऋग्वेद की प्रारम्भिक ऋचाओं का प्रणयन अजरवेज़ान ( आर्यन-आवास ) रूस तथा तुर्की के समीप वर्ती क्षेत्रों में हुआ ।
और दौनों -ग्रन्थों में जो विषमताएं देखने को मिलती हैं स्पष्टत: वे बहुत बाद की है ।

और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो ऋचाऐं हैं वे सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करती हैं 12 वें मंत्र (ऋचा) जो  चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है वही ऋचा यजुर्वेद ,सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है. 
_________________________________________

ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)

इसमें प्रयुक्त क्रिया (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचन रूप है । 
नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय  लड्. लकार के क्रिया रूप हैं ।

तथा आसीत् अस् धातु का लड्. लकार का प्रथम पुरुष एक वचन का परस्मैपदीय रूप है ।

तथा अजायत क्रिया जन् धातु का आत्मनेपदीय रूप
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम् प्रथमपुरुषःअजायत अजायेताम् अजायन्त ।

मध्यमपुरुषःअजायथाः अजायेथाम् अजायध्वम् 
उत्तमपुरुषः अजाये अजायावहि अजायामहि

  लड्.( अनद्यतन प्रत्यक्ष भूत काल ) लकार का प्रयोग हुआ है ---जो असंगत तथा व्याकरण नियम के पूर्णत: विरुद्ध भी है । 

क्योंकि इस लकार का प्रयोग आज के बाद कभी भी घटित भूत काल को दर्शाने के लिए होता है ---जो आँखों के सामने घटित हुआ हो। 

और अनद्यतन  परोक्ष भूत काल में लिट् लकार का प्रयोग -युक्ति युक्त है क्योंकि इसका अर्थ है ऐसा भूत काल ---जो आज के बाद कभी हुआ हो परन्तु आँखों के सामने घटित न हुआ हो ---जो ऐैतिहासिक विवरण प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है।

और लड् लकार का प्रयोग इस सूक्त के लगभग पूरी ऋचाओं में है, तो इससे यह बात स्वयं ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है ।

वह भी व्याकरण नियम के विरुद्ध ।
अब लिट् लकार के क्रिया रूपों का वर्णन करते हैं :-
लिट् लकार का क्रिया रूप---

प्रथमपुरुषः जज्ञे जज्ञाते जज्ञिरे 
मध्यमपुरुषः जज्ञिषे जज्ञाथे जज्ञिध्वे 
उत्तमपुरुषः. जज्ञे जज्ञिवहे जज्ञिमहे 

लिट् लकार तथा लड्. लकार दौनों के अन्तर को स्पष्ट कर दिया गया है ।
इनका कुछ और स्पष्टीकरण:-
2. लङ् -- Past tense - imperfect
         (लङ् लकार = अनद्यतन भूत काल ) 
आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- आपने उस दिन भोजन पकाया था ।

भूतकाल का एक और लकार :--
3. लुङ् --  Past tense - aorist
         लुङ् लकार = सामान्य (अनिश्चित )भूत काल ; जो कभी भी बीत चुका हो ।
जैसे :- मैंने गाना खाया । 
व्याकरण शास्त्रीय ग्रीक में और कुछ अन्य उपेक्षित भाषाओं में क्रिया का एक काल है, 

जो कि बिना कार्रवाई के क्षणिक कार्रवाई को क्षणिक या निरन्तर दर्शाता था, इस संदर्भ के बिना पिछली कार्रवाई का संकेत देता है।

1. शास्त्रीय यूनानी के रूप में एक क्रिया काल, कार्रवाई व्यक्त, ।
अतीत में, पूरा होने, अवधि, या पुनरावृत्ति के रूप में आगे के निहितार्थ के बिना।
समायोजन को दर्शाता है ।

अर्थात् एक साधारण भूतकाल, विशेष रूप से प्राचीन ग्रीक में, जो निरंतरता या क्षणिकता का संकेत नहीं देता है।
अब संस्कृत के लिट् लकार को देखें---
4. लिट् --  Past tense - perfect( पूर्ण )
     लिट् =अनद्यतन परोक्ष भूतकाल । जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो 
जैसे :- राम ने रावण को मारा था ।
संस्कृत भाषा में दश लकार क्रिया के दश कालों को दर्शाते हैं
5. लुट् -- Future tense - likely
6. लृट् -- Future tense - certain
7. लृङ्  -- Conditional mood
8. विधिलिङ् -- Potential mood
9. आशीर्लिङ् -- Benedictive mood
10. लोट् --  Imperative mood

लौकिक संस्कृत तथा वैदिक भाषा में अन्तर रेखाऐं --

लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है। 

दोनों के शब्दरूप तथा धातुरूप  अनेक प्रकार से भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं।

इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं :-

(1) शब्दरूप की दृष्टि से उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे - देवाः, जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)। 

जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप देवासः, जनासः भी बनते हैं। 

इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है।
तृतीया विभक्ति बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है। 

इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ भी प्राप्त होता है।

तथा दासा वैदिक द्विवचन रूप तो लौकिक दासौ रूप मिलता है. 

(2) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है। 

वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है; तथा उसमें कुछ अन्य रूपों की उपलब्धि होती है।

जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिड्. जोकि लट् प्रकृति अर्थात् वर्तमान काल की धातु से बनते हैं। 

उदाहरणार्थ पठ् से पठतु और पठेत् ये दोनों बनते हैं। 
वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो अन्य लकार हैं- लेट् लकार एवं निषेधात्मक लुंलकार (Injunctive)
(जो कि लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ निपात से प्रदर्शित होता है ;और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है)।

इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुड्. प्रकृति से भी बनते हैं। 

इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। वैदिक भाषा में 'मिनीमसि भी' (लट्, उत्तम पुरुष, बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है। 

जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि।

निश्चित रूप से पुरुष सूक्त पुष्यमित्र सुंग कालीन रूढि वादी ब्राह्मणों के द्वारा रचित हुआ है ।
कालान्तरण में ब्राह्मणों के द्वारा यह सूक्त वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है । 

क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है।
और वेद में केवल लिट् लकार  व  लेट् लकार का प्रयोग होता है ।
विशेषत: लेट लकार का ..
जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है
 
इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है; कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व चातुर्य पूर्ण गहन षड्यन्त्र है ।
जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया।

ईरानी समाज में  वर्ग-व्यवस्था थी । 
जो वस्तुत: असुर-महत् (अहुर-मज्दा) के उपासक थे ।

वर्ग-व्यवस्था का विधान व्यक्ति के स्वैच्छिक वरण अथवा चयन प्रक्रिया पर आश्रित था ।

और इरानी स्वयं को आर्य अथवा वीर कहते थे ।
परन्तु इन्हीं ईरानीयों की वर्ग-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था बना दिया । 

यही वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था की शैशवावस्था थी ।
  ब्राह्मण जो स्वयं  को आर्य मानते हैं
वस्तुत: आर्य कदापि नहीं हैं । 

क्यों कि आर्य शब्द का मूल भारोपीय अर्थ है :- वीर अथवा यौद्धा और ब्राह्मण कब से वीर अथवा यौद्धा होने लगे ? 
ब्राह्मण मन्त्रों का उच्चस्वर में उच्चारण करने वाले 
धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करते थे ।
युद्ध इनका कार्य नहीं था ।

ये तो केवल आर्यों के चारण अथवा भाट होते थे । 
शोध के अनुसार ये केवल आर्यो के कबिलों के भाट थे ।जो अपने मालिकों का गुणगान करते थे । 

और उनकी वंशावली का इतिहास लिखते थे ।
उनसे ही इनकी जीविका चलती थी । 
ये यौद्धा अथवा वीरों के लिए देवों से स्तुति तथा युद्ध में विजयी होने की प्रार्थना तथा धार्मिक करें- काण्ड करते थे ।
वस्तुत: ये इनका धन्धा था , व्यवसाय था  आज भी वही है बस  !
 धन्धे को इन्होंने धर्म बता दिया  है ।

आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर थे ! 
उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था ।
जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है ।

वास्तव में ये सब गोलमाल है ।

कथित ब्राह्मणों में आर्य होने का कोई प्रमाण नही है । 
न तो ये वैदिक ऋचाओं के  अनुसार आर्य हैं और न  वैज्ञानिक शोधों के अनुसार ...
क्यों ऋग्वेद के दशम् मण्डल  का पुरुष-सूक्त भी प्रक्षिप्त है काल्पनिक है जिसकी भाषा लौकिक संस्कृत है  । 

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ब्राह्मणो८स्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: ! 
उरू तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रो८जायत !! 
(ऋग्वेद 10/90/12)

जबकि इससे पहले की ऋचा ऋग्वेद के नवम मण्डल में है 👇

"कारूरहं ततोभिषग् उपल प्रक्षिणी नना ।। 
(ऋग्वेद 9/112//3)

अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने  वाली   है । 

उपर्युक्त ऋचा में सामज में वर्ग-व्यवस्था का विधान ही प्रतिध्वनित होता है ।

इस लिए वर्ण-व्यवस्था कभी भी आर्यों की व्यवस्था नहीं थी ।
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यादव योगेश कुमार 'रोहि'-----
सम्पर्क सूत्र 8077160219

गुरुवार, 25 जून 2020

तेरी भक्ति का साहरा चाहता हूँ ...

तेरी भक्ति का साहरा माँगता हूँ।
तेरी भक्ति-- का माँगता चाहता हूँ।

खो गया हूँ ख़ुद में 'कहीं लापता हूँ।
तेरी भक्ति का साहरा माँगता हूँ ।

खो गया हूँ ख़ुद में 'कहीं लापता हूँ।

जानता है तू सब तुझे क्या बताऊँ।
जानता है तू सब तुझे क्या बताऊँ।

क्षमा कर दे भगवन् यदि ,बाख़ता हूँ।
तेरी भक्ति का आसरा  माँगता हूँ।
_________________________

मुफ़लिसी के दौरे में, नदेख आ जमाके ।
ग़म ए दिल को तसल्ली ,दे प्रभु तू आके ।

बड़ी राहत 'पाते हैं  हम  गीत तेरे गाके ।
बड़ी राहत 'पाते हैं  हम 'गीत तेरे  गाके ।

पापों का प्रायश्चित कर 
पापों का प्रायश्चित कर ,खुद सुधारता  हूँ।
क्षमा कर दे भगवन् यदि बाख़ता हूँ।

तेरी भक्ति का साहरा माँगता हूँ ।।

_________________________
सबकी एक दुनियाँ है , सबकी एक हस्ती है ।
 लालचों की अग्नि में ,जिन्दगी सुलगती है ।

स्वार्थों की मण्डी में, जिन्दगी ये सस्ती है 
जरूरत खूब सूरत मेरी अँखिया तरस्ती हैं ।
तन्हाईयों में अक्सर ..

तन्हाईयों में अक्सर  मैं पुकारता हूँ ।
क्षमा कर दे भगवन् यदि बाख़ता हूँ।
तेरी भक्ति का आसरा माँगता हूँ।
______________________________
हम्हें एेसा लगता है कुछ खो गया है ।
जिसने दया की ,कौन महोदया है ।

'न समय पुराना ये 'न कुछ नया है ।
मतलबों के दौरे में आदमी बेहया है ।

रुसबाईयों को पीकर ग़मो को फाँकता हूँ।
क्षमा कर दे भगवन् यदि बाख़ता हूँ ।
तेरी भक्ति का आसरा माँगता हूँ ।
_________________________
जिन्दगी में कायम हैं ऐसी हालातें ।
वक्त के थपेड़े हैं , बदनशीं की लातें ।

हीनताओं से भरी हैं  इन सब की बातें
मतलबों से शिरकत सब मतलबों से नाते
मतलबों से शिरकत सब मतलबों से नाते
किस्मत में है जितना ,
किस्मत में है जितना ,
निश्चित मानता हूँ।
 क्षमा कर दे भगवन्, यदि बाख़ता हूँ।
तेरी भक्ति का साहरा माँगता हूँ ।
______________________________________
अहंकार जन्मों के संचित,
नास्तिकों के करम हैं । 
लाभ लोभ में जिसने देखा ,
नादानों के भरम हैं ।
चमक रही सिकता चाँदी सी ।
चमक चमाचम हैं ।
टूटे काँच के टुकड़े में
टूटे काँच के टुकड़े में मणियों को झाँकता हूँ।
क्षमा कर दे भगवन् यदि बाख़ता हूँ ।
__________________________________________
फिर भी हम जीते लोगो हस्ते गाते।
फिर भी हम जीते लोगो हस्ते गाते ।

किस्मत में जितना ,निश्चित मानता हूँ।
तेरी भक्ति का साहरा चाहता हूँ।
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कर्मों में इच्छा , जैसे अर्थ शब्दों में ।
 दरिया की शोभा है,उसकी सरहदों में।।

 बर्षा में उफान देखे हैं हमने  इन नदों में ।
अहंकार उमड़ते हैं लोगों के पदों में ।
सादिगी के पथ पर 
सादिगी के पथ पर मन को हाँकता हूँ ।
क्षमा कर दे भगवन् यदि बाख़ता हूँ ।
तेरी भक्ति का आसरा माँगता हूँ।
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 भव सागर में विकट हैं लहरें ।
डूब 'न जाऐं हम कहीं गहरे ।

हम नकरे मोज से समझौते ।
मोह के भँवर लोभ के गोते ।।

देकर मुसीबतों को न्योते ।
सब कुछ जीवन का हारता हूँ।

क्षमा कर दे भगवन् यदि बाख़ता हूँ।
तेरी भक्ति का आसरा माँगता हूँ।
___________________________


(गीत व  स्वर )
यादव योगेश कुमार 'रोहि'  ।
ग्राम:- आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़
8077160219

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सोमवार, 22 जून 2020

कृष्ण चरित्र पुराणों से परे ...

क्या आप कृष्ण को पुराणों और महाभारत तक ही सीमित मानते हो ?

क्या कृष्ण के चरित्र को दूषित करने के लिए अनेक सिद्धान्त विहीन व मन गड़न्त कथाऐं नहीं जोड़ी गयीं ?

कृष्ण का चरित्र पुराणों से पूर्व का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 👇
उपनिषत् वेदों के परवर्ती हैं जिन्हें वेदान्त के रूप में स्वीकार किया जाता है ।

छान्दोग्य उपनिषत् (3.17.6 )👇
कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच”इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः
_____________________________
 उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि  घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।

श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था । 
यद्यपि जैन और बौद्ध मिथकों में भी कृष्ण चरित्र भिन्न भिन्न रूपोमें वर्णित है।
कृष्ण भागवत धर्म के प्रतिष्ठापक
और देव-संस्कृति के विध्वंसक भी थे । 
इन्द्र की पूजा और वर्ण व्यवस्था का खण्डन करने वाले भी वही थे 
लोक- तन्त्र के प्रचारक और प्रसारक कृष्ण थे ।


'परन्तु रूढ़िवादी पुरोहितों 'ने कृष्ण के प्रभाव को सहन नहीं कर पाया परिणाम स्वरूप भागवत धर्म से समझौता किया ।
और वैष्णव धारा के रूप में भागवत धर्म से समझौता तो किया 'परन्तु कपट पूर्ण रूप से 
भागवत के प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रन्थों में वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण वाद का वर्चस्व और उनके दान देने का विधान प्रतिपादन कर दिया ।

और फिर रूढि वादी  पुरोहितों ने अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं कृष्ण के साथ समायोजित कर दी 
जैसे- जमुना नदी को ही उनकी चौथी पटरानी बना दिया । 

शम्बर असुर का बध करा दिया । अनेक  असुरों का संहार करा दिया ।

वर्ण व्यवस्था को ईश्वर कृत कहलवा दिया।

 परन्तु ये केवल काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं ।

क्योंकि  यादव और असुर परस्पर बान्धव  सोम के वंशज अर्थात्‌ सैमेटिक थे ।
असुर ही असीरियन जन जाति के लोग थे ---जो यहूदीयों के सजातीय सेमेटिक ( सोम वंशी) लोग थे ।
ये दजला और फरात सदीयों के मुहाने पर मेसोपोटामिया की सभ्यता के प्रकाशक और प्रवर्तक भी थे ।

ऋग्वेद में कृष्ण को स्पष्टत: असुर अथवा अदेव कहा है ।

---जो यमुना की तलहटी में चरावाहे के रूप में इन्द्र से युद्ध करते हैं दश हजार गोप मण्डली के साथ -
और गीता में भी उसी शिक्षा का प्रतिपादन किया ---जो द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध है  ।

गीता में कुछ श्लोक ही कृष्ण के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं । लगभग 100 के करीब उनके ही माध्यम से  कृष्ण ने  द्रविड संस्कृति को प्रकाशित किया है ।
किया गया है।
श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् में वर्तमान में ७००श्लोक हैं ।
जो विस्तार अतिशय का परिणाम हैं ।
ब्रह्म सूत्र पदों के माध्यम से बौद्धों के सम्प्रदाय भी गीता में वर्णित कर दिये हैं यह कार्य पाँचवीं सदी में हुआ ।
श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् शान्ति पर्व के अनुकूल रचना है इसका भीष्म पर्व में संपृक्त करना युक्तियुक्त नहीं था ।

परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
और कुछ इसमें ये तोड़ दी 
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जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:"
तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम" 

क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई।

अब एक अन्य  कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं। (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के  तटवर्ती प्रदेश में रहता था । 

और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है।

यद्यपि सुरा संस्कृति देव संस्कृतियों का अभिन्न अंग था ।
'परन्तु उसमें सुरा से यादवों को जोड़ने की कोशिश की गयी ।
🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠

विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है  देखें---
अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् । 
सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र । 
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रामायण ( ४३ अ० )। 


पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति (सन्तान)रूप में वर्णित किया है ।

ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा अदेव कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।

द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: 
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: 
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार  (ग्वालो)के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सेना 
तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।

जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गायें चराता है ।
चरन्तीर्बृहस्पतिना में चरन्तम् ( गाय चराते हुए को) क्रिया पद कृष्ण के गोप रूप को प्रकट करता है ।
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कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।

वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
और गोप भी गोपालन वृत्ति यादवों का सनातन परम्परागत कार्य है ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के बासठ वें सूक्त की दशवीं ऋचा में दास और गोप कहा 'परन्तु वैदिक सन्दर्भ में दास असुर का वाचक है।

यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त  वरुण , अग्नि आदि का वाचक भी है।
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'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है।
उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। 

विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। 

इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। 
असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है।
यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे।
यह स्थान सुमेर बैबीलॉन तथा मैसॉपोटमिया ( ईराक- ईरान के समीपवर्ती क्षेत्र थे ।

अनन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। 

फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर:(अ-सुर- असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया ।
इसका वर्ण-विन्यास (अ-सुर) रूप में किया ।
जबकि (असु-र) यह वर्ण विन्यास 
शक्ति शाली और प्राणवन्त  अर्थ का द्योतक है ।

कालान्तरण में देव संस्कृतियों के अनुयायीयों द्वारा असु-र शब्द का अर्थ द्वेष वश विकृति-पूर्ण रूप में प्रतिष्ठित किया गया ।
जबकि ईरानी आर्य्यों 'ने देव शब्द को दएव के रूप में दुष्ट या अधम अर्थ में मान्य कर दिया ।

अर्थात्‌ इधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('दएव' के रूप में) अपने धर्म के विरोधीयों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। 

फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रेघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था।

(ऋक्. १०।१३८।३-४)
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शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं ।

(तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)---( यास्क निरुक्त)

ये लोग पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम इतिहास में असीरियन कहलाए ।

पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।

शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।

देव संस्कृतियों के आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है। 

पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।

यहूदी जन-जाति और असीरियन जन-जाति समान कुल गोत्र के अर्थात् सॉम या साम की सन्तानें थे । 

इसी लिए भारतीय पुराणों में यादवों को असुर , (असीरियन) दस्यु अथवा दास कहकर मधु असुर का वंशज भी वर्णित किया है । 
ये मधु असुर मधुमती के पिता और यदु के नाना थे । 
हरिवंश पुराण में हर्यश्व जो इक्ष्वाकु वंशी राजा थे उन्हें मधुमती का पति बताया 
तो कहीं ययाति की पत्नी को असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री से यदु का जन्म दर्शाया है ।
 
यद्यपि बाद में काल्पनिक रूप से यदु के पुत्र को मधु वर्णित किया परन्तु समाधान संदिग्ध रहा ।
क्योंकि हरिवशं पुराण में माधव भी यदु का ज्येष्ठ पुत्र है ।
'परन्तु यदु के नाना मधु असुर है ।

क्योंकि (मधुपर) अथवा मथुरा मधु दैत्य के आधार पर नाामित है। 
और यह यादवों की प्राचीनत्तम राजधानी है ।
इसी लिए इन्हें सेमेटिक 
सोम वंश का कहा जाता है ।

पुराणों में सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया।
इसी कारण ही कृष्ण को असुर कहा जाना आश्चर्य की  बात नहीं है ।

यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें--जो यदु को दास अथवा असुर कहती है ।

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(१०/६२/१०ऋग्वेद )

इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित ही है ।

यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं । 

जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।
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पुराणों में कृष्ण को  प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है। 

"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में  राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था । 
'परन्तु कृष्ण के चरित्र को दूषित दर्शाने के लिए इन्द्र उपासक पुरोहितों का बड़ा हाथ है ।

बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए  भागवत धर्म को रूढ़िवादी पुरोहितों'ने दिखावा के तौर पर आत्मसात तो किया 'परन्तु विद्रोह वश ।

द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को  विलास पुरुष बना दिया ।"
जबकि कामी विलासी इन्द्र था ।

वास्तव में भागवत धर्म जो भक्ति सम्मूलक धर्म है द्रविड़ों की ही संस्कृति है ।
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कृष्ण की कथाओं का सम्बन्ध अहीरों से है ।

अहीरों से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण यदु वंश से जिनमें गुर्जर गौश्चर:(गा: चारयति येन सो गौश्चर: इतिभाषायां गुर्जर) जाट तथा दलित और पिछड़ी जन-जातियाँ भी हैं। 

पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज का द्रोह यदुवंशजों के विरुद्ध चलता रहा ।
जैसे --"भुसे में सुलगती आग "
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सत्य पूछा जाय तो ये सम्पूर्ण विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल से प्रारम्भ होकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक अनवरत 
यादव अर्थात् आभीर जन जाति को हीन दीन दर्शाने के लिए योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध ग्रन्थ रूप में हुई-
जो हम्हें विरासत में प्राप्त हुईं हैं ।
जिन लोगों को यादवों का इतिहास ज्ञात नहीं था वे अहीरों को गोपों'ने से अलग और गोपों' को यादवों से अलग बताते रहे इसमें कुछ द्वेष भी था ...
'परन्तु ये तीनों विशेषण यादवों के हैं आभीर यदु से भी प्राचीन विशेषण है । 

हिब्रूू बाइबिल जैनेसिस खण्ड में यदु पूर्वज ययाति को अबीर शब्द से सम्बोधित किया अबीर शब्द हिब्रूू बाइबिल में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है । 
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    यादव योगेश कुमार 'रोहि'

शनिवार, 20 जून 2020

हिब्रू बाइबिल के अनुसार अबीर जन-जाति का इतिहास

हिब्रू बाइबिल के अनुसार अबीर जन-जाति का  इतिहास
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यहूदी लोगों का सम्बन्ध, इब्राहीम (ब्राहम), इसहाक( यशाक-इक्ष्वाकु), और याकूब (याक़ोक - ययाति)  तीनों कुलपतियों के साथ शुरू होता है।

भारतीय पुराणों में ये ही पात्र क्रमश: ब्रह्मा , इक्ष्वाकु ,  ययाति , मनु तथा सोम के रूप में वर्णित हैं ।

परन्तु कालान्तरण दौनों संस्कृतियों की कथा-वस्तु में अन्तर एवं मतान्तरण भी आना स्वाभाविक ही है ।

नूह के पुत्र शेम के पहले वंशजों द्वारा विकसित  लड़ाकू  विध्वंसक प्रणाली पर बनाए गए कुलपति, अपनी अनूठी  विवेचना के द्वारा विकास में विभिन्न तत्वों को एक साथ बुनाई करते हैं।

मानवों के पूर्वजों एब्राहम  के जन्म के समय, सेमिटिक लोगों  (शेम के वंशजों ) की मुख्य एकाग्रता "शिनार" अर्थात् सुमेर (उर्फ "बावेल" / मेसापोटेमिया) में  उत्कीर्ण है ;।

बावेल के राजा निम्रोद(नमरूद) के शासनकाल और उस समय पूरी ज्ञात दुनिया के शासक के शासनकाल के दौरान मेसापोटेमिया में उनका प्रभाव महसूस किया गया था।

पोशाक, कला, संगीत, आहार और वास्तुकला का सेमिटिक उन्नयन इस क्षेत्र में तेजी से प्रमुख आकर्षण का केन्द्र बन गया और सत्तारूढ़ राजशाही और सैन्य वर्गों से मेसोपोटेमिया में  शीघ्र ही फैल गया और आम आदमी  सभी तरह से निम्न स्तरों पर  चला गया क्योंकि वह जहालत की हालत से उबरना नहीं चाहता था । 

वस्तुत: पिछले समय में अलफ नाम के अबीर ने हमें सिखाया कि सेमिटिक / हिब्रू परम्पराओं के प्राचीन योद्धा भी महान संगीतकार और नर्तक थे। 

अहीरों के नर्तक (हल्लीशम् ) तथा गायन की प्रसिद्ध तो भारतीय पुराणों में भी परिलक्षित होती हैं ।

राग अहीर भी अहीरों के संगीतज्ञ भाव को व्यञ्जित करता है ।

 ब्राहम-ग्राहम( ए-ब्राहम) निम्रोद के योद्धा तेराह का पुत्र था ।

- जो उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए एक अद्भुत योद्धा होना चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं है! 

ग्राहम को छिपना और बावेल से भागना पड़ा, अपने शिष्यों के 318, योद्धाओं और उनके घर के सदस्यों को हारान में ले जाना पड़ा, बाद में कनान देश की ओर बढ़ गया था।  

भगवान ने कनान को अराम के लिए एक पवित्र भूमि के रूप में वादा किया, ताकि वह अपने सन्तानों द्वारा विजय प्राप्त कर सके। 

ए-ब्राहम (ग्राहम )भगवान के विचारों और मानव जाति के प्रति एकेश्वरवादी विश्वास को पेश करने वाले पहले व्यक्ति थे। 

ग्राहम के बेटे यिशाक (इसहाक) भी एक शक्तिशाली योद्धा थे ; और अपने बेटों को अबीरियत  में भी प्रशिक्षित किया था।  

समय के साथ, यह इसहाक के लिए स्पष्ट हो गया कि उसका बेटा याकूब "पवित्रता में डूबा हुआ" था ।
और प्रार्थना और धार्मिकता में अपनी शक्ति का उपयोग करता था, जबकि उसके भाई एसाव (एसाव) ने "टोपी की बूंद पर खून छीन लिया।" 
इसलिए इशहाक (इक्ष्वाकु) ने याकूब (ययाति)को आशीर्वाद दिया।

हमारे पितृसत्ता याकूब, एबरहम के पोते को उनकी शक्ति और प्रतिद्वन्द्विता के लिए "अबीर याकूब" और उनकी महान ताकत के लिए "इज़राइल की चट्टान" भी कहा जाता था; उनका विश्वास एक चट्टान के रूप में अचूक था। 

याकूब ने बारह पुत्रों को जन्म दिया; जैसे-जैसे लड़के बढ़ते गये , उन्हें कनान देश में कई राजाओं और कुलों के साथ कई भयंकर लड़ाई में (उनके पिता के साथ) खींचा गया था। 

शुरुआती दिनों से, उनके कौशल लगभग अलौकिकता के रूप में देखा गया था।

परंपरा यह है कि याकूव (Ya'qovov ) प्रत्येक बेटे को एक विशेष लड़ाई रूप दिया।

बुद्धिमानी और भावनाओं  के साथ, याकूब ने युद्ध में प्रत्येक बेटे की शक्तियों और कमजोरियों को देखा, प्रत्येक बेटे के अद्वितीय शारीरिक और आध्यात्मिक गुणों का आकलन किया - साथ ही इजरायल की भूमि में विभिन्न  क्षेत्रों द्वारा मांगे जाने वाले विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं को जो प्रत्येक पुत्र के वंशज नियत थे अनन्त काल के लिए विरासत के लिए प्रदान किए गये।
प्राचीन यहूदियों का एक मिस्र का चित्रण (उनके दाढ़ी और वस्त्र द्वारा पहचाना गया) 

वह समुदाय के  बुजुर्ग "रब्बा" या आध्यात्मिक नेता थे। 
सभी हब्बानी योद्धाओं जिनमें गुप्त "बानी अबीर" शामिल था, मुख्य रूप से अलफ अबीर के वंश के भीतर एक कोर समूह से खींचे गए थे, 

जिसे "मातुफ" नाम से जाना जाता था (हालांकि एक बिंदु पर परिवार की एक शाखा " दोह, "कपड़ा रंगों में उनके काम के संदर्भ में भी अबीर का उल्लेख है)। 

उस समय से, "बानी अबीर" में मातुफ परिवार के सदस्यों और दोहा परिवार के सदस्यों दोनों शामिल थे, और इसके अलावा उन्हें "मातुफ दोह" या "मातुफ इल दोह" भी कहा जाता था।

"बनी अबीर" के भीतर, अलफ नाम के अबीर के परिवार को "सोफर" (भारतीय पुराणों में सौवीर )कहा जाता था,

जो बाद में "मातुफ" और "दोह" दोनों को बदलने के लिए आया था। एक "सोफर" आज केवल एक लेखक के रूप में जाना जाता है।

जो टोरा स्क्रोल और अन्य पवित्र ग्रन्थ लिखता है; हालांकि, एक "सोफर" भी एक संरक्षक है, 

पूरे यहूदी समुदाय ने कुछ समय पहले हब्बन को इज़राइल जाने के लिए छोड़ दिया था ।

अबीर प्रणाली पूरी तरह से भूमिगत हो गई थी ।
हजारों सालों से प्राचीन इस्राएली लोगों की तरह रहने के बाद हब्बानी यहूदियों ने इज़राइल देश लौटने के साठ साल बाद, अबीर के हाथों से ज्ञान सीखने वाले हब्बानी अधिकांश दुनिया से चले गए हैं।

केवल कुछ बुजुर्ग लोगों में कुछ नृत्य चालों को देखने की याद शेष रह जाती है - 
जो अभी भी पारिवारिक समारोहों में देखी जाती हैं -  ये विधियाँ लड़ने के रूप में सही ढंग से लागू होती हैं। 
कुछ पुराने टाइमर अभी भी तलवारों के साथ नृत्य करते हैं। आज, युवा हब्बानी अभी भी पारम्परिक पानी की पाइप को धुआं कर सकते हैं, लेकिन कोई भी लंबे बालों को पहनता है और हमारे पूर्वजों को मुंडा नहीं लेता है, या अपने पूर्वजों के वस्त्र में अपने शरीर और सिर लपेटता है। 

आखिरी हब्बानी ने छोड़ा जो अभी भी अपने बालों को पहनता है, जो अभी भी पारंपरिक कपड़ों में कपड़े पहनता है, जो अभी भी अबीर का अभ्यास करता है -  फिलिप द्वारा हिब्रू बाइबिल पढ़ें और आप उन लोगों की लड़ाई की अद्भुत कहानियां देखेंगे जो इज़राइल के भगवान ने अपने लोगों, इज़राइलियों के लिए जीता था ।

... वे वास्तव में उन लड़ाइयों में कैसे लड़ते थे?
यदि इस्राएलियों ने कई प्राचीन राष्ट्रों पर अनगिनत जीत हासिल की - 'अमालेकी, कानाई, अम्मोनियों, मोआवियों, बाबुलियों - और यदि सैकड़ों इस्राएली नियमित रूप से हजारों सैनिकों को पराजित करते थे ... 

उन्होंने इतनी भारी बाधाओं को कैसे दूर किया? ऐतिहासिक रिकॉर्ड ग्रीक और रोमन सेनाओं के खिलाफ जुदेन सशस्त्र प्रतिरोध के बारे में बताते हैं, यह प्रमाणित करते हुए कि वे कई वर्षों तक युद्ध में बहादुरी से लड़े ... उन्होंने विश्व महाशक्तियों की सेनाओं को कैसे पराजित किया जिन्होंने पूरी दुनिया पर विजय प्राप्त की थी? 

 युद्ध की कला के लिए इस्राएलियों का रहस्य क्या था? क्या वे बस अनियंत्रित और भाग्यशाली किसान थे? या क्या यह संभव है कि वे कुशल और अनुभवी योद्धा थे, एक प्राचीन योद्धा कला के स्वामी जो आज तक जीवित रहे हैं? बहुत से लोग नहीं जानते कि इस्राएली एक शक्तिशाली योद्धा परंपरा है जिसे हजारों वर्षों में  जीविका रखा और विकसित किया गया है अबीर जन-जाति द्वारा ... ..

. बहुत परम्परा जो हम आज सिखाते हैं और अभ्यास करते हैं:  अबीर  यहूदी, हिब्रू-इज़राइली राष्ट्र की युद्ध प्रणाली है।

जैसा कि कोई इज़राइल के बच्चों से अपेक्षा कर सकता है, अबीर एक युद्ध प्रणाली है जो अपने व्यवसायियों द्वारा की गई हर कार्रवाई के संबंध में प्रामाणिक तोराह फैसलों से अविभाज्य है, और अधीनस्थ है।

यह प्रणाली इज़राइल के भगवान, उनके पवित्र तोराह और इज़राइल के लोगों के लिए विश्वास और प्रतिबद्धता की एक गहरी, आध्यात्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करती है ।


जो अपने प्रामाणिक कानूनों से जीने वाले राष्ट्र के रूप में है।
अबीर युद्ध प्रणाली शारीरिक मुकाबले के रूप में प्रभावी है, क्योंकि यह एक आध्यात्मिक अनुशासन के रूप में है।

 एक अबीर व्यवसायी उपयोगी लड़ाई कौशल प्राप्त करता है जो विभिन्न प्रकार की रक्षात्मक आवश्यकताओं के समाधान प्रदान करता है।

इज़राएल के इतिहास से उद्धृत  अबीर जन-जाति के 
       यलगारी मोज्जे ---

प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार'रोहि 
सम्पर्क सूत्र  8077160219'अलीगढ़

गुरुवार, 18 जून 2020

द्रविड़ बनाम ड्रयूडस् Druids ..

ओ३म् की व्युत्पत्ति---- मूलक व्याख्या ...... 
 ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति----
  एक वैश्विक विश्लेषण --  यादव योगेश कुमार 'रोहि'
    के द्वारा ......
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ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है ।
 कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham) शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था !

यह बात है कई सहस्राब्दी पूर्व की ...
कि  उनका विश्वास था ! कि इस प्रकार आउमा(Ow- ma ) अर्थात् जिसे भारतीय देव संस्कृतियों के अनुयायी आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है।
आर्य्य शब्द असुर संस्कृतियों के सन्निकट
 अधिक है अत: उसे  देव संस्कृतियों का जातिगत विशेषण न मानो .. 

 
प्राचीन भारतीय देव संस्कृतियों की मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति ( syllable prosperity ) यथावत् रहती है
इस ओ३म्' के उच्चारण प्रभाव से ।।।

...ओघम् का मूर्त प्रारूप (🌞) सूर्य के आकार या सादृश्य पर था ...
जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं ... वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है .
जैसे सूर्य से उसका प्रकाश 🌞☀⚡☀⚡⛅☁प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा ( ammon - ra ) के रूप ने था।

 ..जो वस्तुत: भारतीय मिथकों में ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है।
 .. आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है ।
-रवि संज्ञा रौति इति -रवि से व्युत्पन्न है ।
अर्थात्‌ सूर्य के विशेषण ओ३म्'और -रवि ध्वनित अनुकरण मूलक हैं।
सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अोमन् शब्द आमीन के रूप में है .. तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! 
जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे .. दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे ।

..मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए 
.. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि ..अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,  मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज इन्हीं से ईसाईयों में आमेन ( Amen ) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् !! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन omi /ovin या के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे जो भारतीयों का बुध ज्ञान का देवता था इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था
 
यही woden अंग्रेजी मेंgoden बन गया था ..
जिससे कालान्तर में गॉड(god )शब्द बना है जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में प्रतिष्ठित हैं ! सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ।
वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है ।
भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की ! 

 जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ *******"**************************** 

 पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे ! ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे !
 वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था ... ...द्रुज जनजाति ...प्राचीन इज़राएल .. जॉर्डन ..लेबनॉन में तथा सीरिया में आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है .. .द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है तथा..पुनर्जन्म .. कर्म फल के भोग के लिए होता है ।
...
..ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति druid द्रयूडों  पुरोहितों( prophet,s )में प्रबल रूप  में मान्य  थी ! केल्ट ,वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था ! 
... द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य - वेत्ता और तत्व दर्शी थे ! जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है द्रविड   द्रव + विद --  समाक्षर लोप से द्रविड  ...
...मैं योगेश कुमार रोहि भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर कुछ व्याख्यान करता हूँ ! जो संक्षिप्त ही है ।
 ऊँ एक प्लुत स्वर है जो सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है !! इसके अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्ववर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए है यूनानी आर्य ज्यूस और पॉसीडन ( पूषण ) की साधना के अवसर पर अमोनॉस ( amono) 

इसी प्रकार प्राचीन सेल्टिक सभ्यता के दिशा-निर्देशकों को 'द्रविड' (Druids)  के नाम से अभिहित किया जाता है। 
भारत के ब्राम्हणों में एक वर्ग द्राविड़ कहलाता है (देखें- ब्राह्मणों का वर्गीकरण 'पंचगौड़'  एवं 'पंचद्राविड़', पृष्ठ ४३)। 'द्रविड़' (अथवा 'द्रुइड') का सेल्टिक भाषा में अर्थ है- '
ओक या बलूत के जंगलों में घूमने वाले उपदेशक  के रूप में कार्य करते थे।

 ये द्रूड  प्राचीन सेल्टिक सभ्यता के संरक्षक थे। जनता के सभी वर्ग उनका बड़ा सम्मान करते थे।
 वे ही सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत, सभी प्रकार के विवादों में न्यायकर्ता भी थे।

 वे अपराधियों को दंड भी दे सकते थे। वे युद्घ में भाग नहीं लेते थे, न सरकार को कोई कर देते थे।

न्यायधीश के कपड़ों में एक द्रविड़ 

वर्ष में एक बार ये द्रविड़ आल्पस पर्वत के उत्तर-पूर्व में किसी पवित्र स्थल पर इकट्ठा होते थे।

 ये वार्षिक सम्मेलन प्राचीनत्तम फ्रॉन्स( गाल (Gaul)  देश में होते, जहाँ अनातोलिया से लेकर आयरलैंड तक के द्रविड़ इकट्ठा होकर अपना प्रमुख चुनतेथे। 

वहीं सब प्रतिनिधियों के बीच नीति विषयक बातें होती थीं। 
समस्त विवादों का, जो उन्हें सौंपे जाते, वे निर्णय करते थे।
 ये वैसे ही सम्मेलन थे जैसे भारत में कुंभ मेले के अवसर पर होते थे। 
वे साधारणतया अपने कर्मकांड एवं पठन-पाठन बस्ती से दूर निर्जन जंगल में करते।

 द्रविड़ आत्मा की अनश्वरता और पुनर्जन्म पर विश्वास करते थे और मानते थे कि आत्मा एक शरीर से नवीन कलेवर में प्रवेश करती है।

 '
' इन देवमूर्तियों का वे पूजन भी करते थे। आंग्ल विश्वकोश के अनुसार- 'बहुत से विद्वान यह विश्वास करते हैं कि भारत के हिंदु ब्राह्मण और पश्चिमी प्राचीन सभ्यता के सेल्टिक 'द्रविड़' एक ही हिंदु-यूरोपीय पुरोहित वर्ग के अवशेष हैं।'

सेल्टिक सभ्यता के द्रविड़ (द्रुइड) के बारे में विद्वानों ने प्रारंभिक खोजों में 'उनके समय, उनकी दंतकथाओं, मान्यताओं, धारणाओं आदि के अध्ययन से यही निष्कर्ष निकाला कि वे भारत से आए दार्शनिक पुरोहित थे। वे भारत के ब्राह्मण थे, जो उत्तर में साइबेरिया ('शिविर' देश) से लेकर सुदूर पश्चिम आयरलैंड तक पहुँचे, जिन्होंने भारतीय सभ्यता को पश्चिम के सुदूर छोर तक पहुँचाया।' श्री पुरूषोत्तम नागेश ओक ने अपनी पुस्तक 'वैदिक विश्व-राष्ट्र का इतिहास' (देखें- अध्याय २३ और २४), जहाँ से ऊपर के उद्घरण हैं, में सेल्टिक सभ्यता के 'द्रविड़' (द्रुइड) का बड़ा विशद वर्णन उस विषय के शोधग्रंथों के आधार पर किया है।

 उन्होंने 'द्रविड़' भारत के उन ज्ञानी तथा साहसी पुत्रों को कहा जो सारे संसार में 'आर्य द संस्कृति के अधीक्षक' बनकर फैले।

उनके अनुसार-'सारे मानवों को सम्मिलित करने वाले वैदिक समाज के विश्व भर के अधीक्षक, निरीक्षक, व्यवस्थापक, जो ऋषि-मुनि वर्ग होता था, उसे 'द्रविड़' की संज्ञा मिली थी। 
वैदिक सामाजिक जीवन सुसंगठित रूप से चलता रहे, यह उनकी जिम्मेदारी थी।ये 'त्रिमूर्ति' को मानते थे।
 एक, ब्रह्मा जिन्होंने विश्व का निर्माण किया; दूसरे, ब्रेश्चेन (Braschen) यानी विष्णु, जो विश्व के पालनकर्ता हैं और तीसरे, महदिया (Mahaddia) यानी  महादेव, जो संहारकर्ता हैं।

 वे उस समाज के पुरोहित, अध्यापक, गुरू, गणितज्ञ, वैज्ञानिक, पंचांगकर्ता, खगोल ज्योतिषी, भविष्यवेत्ता, मंत्रद्रष्टा, वंदपाठी, धार्मिक क्रियाओं की परिपाटी चलाने वाले; प्रयश्चित आदि का निर्णय लेने वाले गुरूजन थे।... यूरोप में उस शब्द का उच्चारण 'द्रुइड' रूढ़ है।'
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हमने खोजा केवल उन्हीं तथ्यों को 
जो दुनियाँ के लिए अनजाने थे ।

सदीयों से जीवन्त रहे तहजीवों में ।
बुनियाद बन कर के सब जीवों में ।
उनके कुद में ही अपने मायने थे ।


भारतीय पुराणों में  जिस ओ३म् (ऊँ) शब्द के उच्चारण करने पर शूद्र अथवा निम्न समझी जाने वाली जन-जातियाें की जिह्वा का रूढि वादी परम्पराओं के अनुगामी पुरोहितों  उच्छेदन तक कर देते थे ।

 और जिस ओ३म् शब्द का प्रादुर्भाव उसी द्रविड संस्कृति से हुआ हो ! 
जिनके लिए इसका शब्द के उच्चारण पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया हो ।

आज हम उस शब्द की जन्म-कुण्डली खोलेंने का प्रयास करेंगे -
सर्वप्रथम हम यह प्रकाशिका कर दें कि द्रविड शब्द यूरोपीय इतिहास में ड्रयूड् (Druid) है ।
और यही लोग प्राचीनत्तम विश्व में द्रव- ( जल, वायु आकाश , अग्नि और वनस्पति तथा वन्य संस्कृतियों के सूत्रधार व जन्म दिया थे ।
_________________________________________
सर्व-प्रथम हम विचार करते हैं ओ३म् शब्द के विकास की पृष्ठ-भूमि पर...

 विश्व इतिहास के सांस्कृतिक अन्वेषणों के उपरान्त कुछ तथ्यों से हम अवगत हुए ।

कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय धार्मिक अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (OGHUM )शब्द का दृढता से  उच्चारण विधान किया जाता था ।

तो इसी के समानान्तरण मिश्र , असीरिया , असीरिया  स्वीडन या जर्मनिक ,आयोनिया , हिब्रूू , सुमेरियन, बैबीलोनियन आदि में भी कुछ अन्तर के साथ यह शब्द विद्यमान था ।

  ड्रयूडस(Druids) संस्कृति के  विश्वास करने वालों का मत था !  कि इस प्रकार आउ-मा (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों  ने ओ३म् रूप में साहित्य ,कला और ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया है ...

अर्थात्  प्राचीन भारतीय देव संस्कृति के अनुयायीयों की मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति ( syllable prosperity ) यथावत् रहती है !
ये ड्रयूडस् पुरोहित भी इसी प्रकार की मान्यता स्थापित किए हुए थे।

 प्राचीनत्तम फ्रॉन्स की संस्कृतियों में ओघम् का मूर्त प्रारूप 🌞 सूर्य के आकार के सादृश्य पर था ।

जैसा कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं 
वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार  नि:सृत होती है जैसे सूर्य से उसका प्रकाश ।

प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में भी द्रविड संस्कृति का यही ऑघम शब्द  (आमोन् -रा) ( ammon - ra ) के रूप में था ।
जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मयी
 रूप में प्रस्तावित है ..
किसी भी संस्कृत के प्रतिष्ठित वैय्याकरणिक के द्वारा 
कवि शब्द की व्युत्पत्ति ध्वनि-विवृति मूलक रूप में नहीं की गयी ।
'परन्तु हमारी मान्यता तो  रवि( सूर्य) के धवनि अनुकरण मूलक रूप पर थी ।

आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान (नासा)
के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है ।
बाकयी हर गतिशील चीज में ध्वनि होना स्वाभाविक ही है।
 सुमेरियन एवं सैमेटिक हिब्रू आदि परम्पराओं  में ..
 रब़ अथवा रब्बी शब्द का अर्थ - नेता तथा महान एवं गुरू होता हेै !

जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है ..
अरबी भाषा में रब़ -- ईश्वर का वाचक है ।
जैसा कि
रब्बुल अल अलामीन का  मतलब " ईश्वर सम्पूर्ण संसार का रक्षक है ।

अमीन शब्द (अरबी:जुबान में ( آمین) या आमीन का शाब्दिक अर्थ है "ऐसा हो सकता है" या "ऐसा है"।
यह स्वीकृति बोधक अव्यय है ।

 मुसलमानों में शब्द आमिन का प्रयोग आमतौर पर उसी शब्द के साथ किया जाता है जिसका अर्थ है "मुझे जवाब दें", और वाक्यांश "इलाही अमीन" 
(अरबी: الهی آمین; अर्थ: हे मेरे भगवान! मुझे जवाब दें)

 आधुनिक काल में यह सैमेटिक परम्पराओं के अनुयायी लोगों के बीच बहुत आम है। 

इसका उपयोग अंग्रेजी में अमेन के रूप में किया जाता है (अर्थ: तो यह हो)।
 वस्तुत: अमेन हिब्रू बाइबिल में वर्णित रूप है ।

शिया  शरीयत  में, प्रार्थनाओं में कुरान 1 (सूर अल-हम्द) को पढ़ने के बाद "अमीन" न कहने पर  कि प्रार्थना को शरीयती तौर पर अमान्य कर दिया गया है।

हिब्रू परम्पराओं से ही यह अरब की रबायतों में कायम हुआ।

हिब्रू में, शब्द अमीन को सबसे पहले "सही" और "सत्य" नामक विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था,।

 लेकिन यशायाह की किताब के मुताबिक इसका उपयोग संज्ञा के रूप में किया जाता था। 

यह शब्द फिर हिब्रू में एक invariant ऑपरेटर (अर्थात्, "वास्तव में" और "निश्चित रूप से")के अर्थ में बदल गया। 

इसका उपयोग बाइबिल में 30 बार और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के यूनानी अनुवाद में 33 बार किया गया है।

इतिहास की पहली पुस्तक वेद  और किंग्स बुक्स जैसी पहली पुस्तक में इस शब्द की घटना से पता चलता है।

 कि यह शब्द यहूदी प्रार्थनाओं और अनुष्ठानों में चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले भी इस्तेमाल किया गया था।

 प्राचीन यहूदी परम्परा में, इस शब्द का उपयोग शुरुआत या प्रार्थना के अन्त में किया गया था।

 प्रार्थनाओं, और भजनों के अन्त में इसकी पुनरावृत्ति प्रासंगिक सामग्रियों की पुष्टि और समर्थन दोनों में थी ,
 और उम्मीद की अभिव्यक्ति थी कि हर कोई अमेन का उल्लेख करने के दौरान अभ्यास के आशीर्वाद साझा कर सकता है।

 तलमूद और अन्य यहूदी परम्पराओं की अवधि में, यह महत्वपूर्ण था कि विभिन्न स्थितियों में शब्द का उपयोग कैसे किया जाए, और ऐसा माना जाता था कि भगवान किसी भी प्रार्थना के लिए "आमीन" कहता है जो उसे सम्बोधित किया जाता है।

ईसाई धर्म में---------

यहूदी परम्पराओं को ईसाई चर्चों में अपना रास्ता मिला। "अमीन" शब्द का प्रयोग नए नियम में 119 बार किया गया था, जिनमें से 52 मामले यहूदी धर्म में इसका उपयोग कैसे किया जाता है। 

नए नियम के माध्यम से, शब्द दुनिया की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में प्रवेश किया।

शब्द, अमीन, जैसा कि नए नियम में प्रयोग किया गया है, उसमें इसके  चार अर्थ हैं -

पावती और अनुमोदन; एक प्रार्थना में समझौता या भागीदारी, और किसी के प्रतिज्ञा की अभिव्यक्ति।

दिव्य प्रतिक्रिया का अनुरोध, जिसका अर्थ है: 
"हे भगवान! स्वीकार करें या जवाब दें!" 

अर्थात् एवं अस्तु !
एक प्रार्थना या प्रतिज्ञा की पुष्टि, जिसका अर्थ है: "तो यह हो" (आज शब्द को दो अर्थों को इंगित करने के लिए प्रार्थनाओं के अंत में उपयोग किया जाता है)।
एक विशेषता या यीशु मसीह का नाम ।
अरबी में

चूंकि इस्लाम के उद्भव से पहले यहूदी धर्म और नाज़रेन ईसाई धर्म दोनों अरब प्रायद्वीप में अनुयायी थे,


 इसलिए यह संभव है कि मक्का और मदीना समेत अरब, इससे परिचित थे, हालांकि जहिल्या काल की कविताओं में इसका कोई निशान नहीं मिला है।

 यह शब्द कुरान में नहीं होता है, लेकिन प्रारंभिक मुस्लिम शब्द से निश्चित रूप से परिचित थे। 

पैगंबर मुहम्मद ने शब्द का प्रयोग किया, लेकिन ऐसा लगता है कि शुरुआती मुस्लिम शब्द के अर्थ के बारे में निश्चित नहीं थे, क्योंकि पैगंबर ने उन्हें एक स्पष्टीकरण और शब्द की व्याख्या दी (यह कहकर कि "अमीन एक है अपने वफादार सेवकों पर दिव्य डाक टिकट ")।



 और 'अब्द अल्लाह बी. अल-अब्बास " ने शब्द का व्याकरणिक विवरण देने की कोशिश की।

 कुरान के निष्कर्षों में

यह शब्द कुरान 10:88 और 89 के उत्थानों में उल्लिखित है। 

कुरान के लगभग सभी exegetes के अनुसार, जब पैगंबर मूसा (ए) फिरौन को शाप दिया, वह और उसके भाई, भविष्यवक्ता हारून (ए) , शब्द अमेन उद्धृत किया।
'परन्तु मूसा यहूदियों के पैगम्बर थे ।

मूसा प्रार्थना में अमीन का हवाला देते हुए कहते हैं।

सुन्नी मुस्लिम इस शब्द का हवाला देते हैं, अमीन, प्रार्थना में कुरान 1 को कविता के जवाब के रूप में पढ़ने के बाद, "हमें सही मार्ग दिखाएं", (कुरान, 1: 6)।

 यदि उपासक अपनी प्रार्थना व्यक्तिगत रूप से कहता है, तो वे स्वयं को इस शब्द का हवाला देते हैं, और यदि वे एक मंडली प्रार्थना कहते हैं, जब प्रार्थना के नेता कुरान 1 को पढ़ना समाप्त कर देते हैं, 
तो सभी अनुयायियों ने एक साथ उद्धृत किया है। 
शिया न्यायविदों का कहना है कि प्रार्थना में अमीन का हवाला देते हुए यह अमान्य है, क्योंकि यह प्रार्थना में एक विधर्मी अभ्यास है जिसे पैगंबर की परंपरा में पुष्टि नहीं माना जाता है।

टिप्पणियाँ

↑ यशायाह 65:16
↑ धन्य है यहोवा, इस्राएल का परमेश्वर, अनन्तकाल से अनन्तकाल तक। "तब सभी लोगों ने कहा" 
आमीन! "1 पुरानी


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हैमेटिक शाखा मिश्र में 
.अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे ..
दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे 
..मिश्र की संस्कृति 
में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में 
अत्यधिक पूज्य था ..

क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि ..अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण 
है मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्परओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !! 

....इन्हीं से ईसाईयों में Amen तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् !! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन omi /ovin  या  के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे .....

.इसी वुधः का दूसरा सम्बोधन (ouvin )ऑविन् भी था ..
...यही !woden )अंग्रेजी में(goden) बन गया था जिससे कालान्तर में गोड(god )शब्द बना है।
जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में हैं !

सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ।

 वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है ।
 भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३म् ) ने ही पाणिनी को ध्वनि निकाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की !
 ......
जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ  पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे !
ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे !

वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था ...
...द्रुज जनजाति ...प्राचीन इज़राएल ..
जॉर्डन ..लेबनॉन में तथा सीरिया में 
आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है ..
.द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है ..पुनर्जन्म ..   कर्म फल के भोग के लिए होता है ।
..ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति Druid द्रयूडों में पुरोहितों के रूप में थी !

केल्ट वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने 

इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था ! 
एक द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य - वेत्ता और तत्व दर्शी थे !

जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है !

...मैं  यादव योगेश कुमार 'रोहि' 
भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर
 कुछ व्याख्यान करता हूँ !

जो संक्षिप्त ही है  ऊँ एक प्लुत स्वर है जो सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है !!

 इसके अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्ववर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए है ।

यूनानी आर्य ज्यूस और पॉसीडन ( पूषण ) की साधना के अवसर पर अमोनॉस ( amonos) के रूप में ओमन् अथवा ओ३म् का उच्चारण करते थे !!!!!!!

भारतीय सांस्कृतिक संन्दर्भ में भी ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति परक व्याख्या आवश्यक है वैदिक ग्रन्थों विशेषतः ऋग्वेद मेंओमान् के रूप में भी है संस्कृत के वैय्याकरणों के अनुसार ओ३म् शब्द धातुज ( यौगिक) है जो अव् घातु में मन् प्रत्यय करने पर बना है ।

पाणिनीय धातु पाठ में अव् धातु के अनेक अर्थ हैं ।
 अव्-- --१ रक्षक २ गति ३ कान्ति४ प्रीति ५ तृप्ति ६ अवगम ७ प्रवेश ८ श्रवण ९ स्वामी १० अर्थ ११ याचन १२ क्रिया १३ इच्छा १४ दीप्ति १५ अवाप्ति १६ आलिड्.गन १७ हिंसा १८ आदान १९ भाव वृद्धिषु ( १/३९६/  भाषायी रूप में ओ३म् एक अव्यय ( interjection) है जिसका अर्थ है -- ऐसा ही हो ! ( एवमस्तु !) it be so इसका अरबी़ तथा हिब्रू रूप है आमीन् ।

 लौकिक संस्कृत में ओमन् ( ऊँ) का अर्थ--- औपचारिकपुष्टि करण अथवा मान्य स्वीकृति का वाचक है ---
मालती माधव ग्रन्थ में १/७५ पृष्ट पर-- ओम इति उच्यताम् अमात्यः" तथा साहित्य दर्पण --- द्वित्तीयश्चेदोम् इति ब्रूम १/""
ईरानीयों 'ने भी ओ३म्' शब्द को अपने मिथकों में स्थापित किया ।

प्रारम्भिक रूप में मानव-संस्कृतियों का मूल स्रोत अथवा उत्स कभी एक था
इसे यह बात भी सिद्ध होती है ।

 हमारा यह संदेश प्रेषण क्रम अनवरत चलता रहेगा **** मैं यादव योगेश कुमार रोहि निवेदन करता हूँ !! कि इस महान संदेश को सारे संसार में प्रसारित कर दो !!! आमीन् ..............


योगेश कुमार रोहि के द्वारा अनुसन्धानित
भारतीय ही नहीं अपितु विश्व -इतिहास का यह एक नवीनत्तम् सांस्कृतिक शोध है |



बुधवार, 17 जून 2020

ययाति पुत्र यदु बनाम हर्यश्व पुत्र यदु ...

यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है ।

यद्यपि कृष्ण और पाण्डवों के प्रतिद्वन्द्वीयों में समाहित रहे  जरासन्ध,  दमघोष आदि एक कुल ही हैहयवंश के यादव ही थे 'परन्तु उन्हें यादव कहकर  कितनी बार सम्बोधित किया गया ?
सायद नहीं के बरावर ...

इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है हरिवंशपुराण से यह विश्लेषण ...

और किस प्रकार कालान्तरण में परवर्ती पुराण कारों 'ने यदु को ही एक रहस्यमय विधि से सूर्य वंश में घसीटने की भी कोशिश की ...

दरअसल भारतीय पुरोहित वर्ग 'ने यदु की कथाऐं सैमेटिक जनजातियों  यहूदियों और असीरीयों से ग्रहण की और  श्रुत्यान्तरण से उसमें व्युत्क्रम होना स्वाभाविक ही था।
विदित हो की यहूदी और असीरीयों ( असुर) दौनों' जनजातियाँ ही सैमेटिक लोग थे ।
जिन्हें भारतीय पुराणों ने सोमवंश कहा ..
'परन्तु जब ईसा० पूर्व की सदीयों में  भारतीय मिथकों में यदु और तुर्वशु की कथाऐं समाविष्ट हुईं ।
तो पूर्वाग्रह 'ने कथाओं का स्वरूप ही बदल दिया।

हरिवंशपुराण  हो या भागवत पुराण सभी में एक कृत्रिम विधि से  कुछ बातें जोड़ी और तोड़ी गयी तो परिणाम स्वरूप विरोधाभास और एक क्षेपक उत्पन्न होने लगा ।

किस प्रकार यादवों के आदि पुरुष यदु के वंशजों को ही एक शाखा को यादव तो दूसरी को भोज तीसरी को अन्धक  तो चौथी को वृष्णि भी कहा गया 'परन्तु थे सभी यादव ही 'परन्तु भोज या अन्धक  या भैम को क्यों यादव नहीं कहा गया ?
'परन्तु आभीर जो यदु के पूर्वजों ययाति की भी उपाधि थी वह भी प्रवृत्ति मूलक विशेषण रूप में जो कालान्तरण में गोप अर्थ में समाहित हो गयी ।
आभीर यादवों का भी विशेषण रहा 
जबकि ये भी यदु के वंशजों में सुमार थे ।🌸

यादव शब्द ही कालान्तरण में केवल कुछ यदुवंशीयों  के लिए रूढ़ हो गया था क्या ? जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में भी यादव अलग से कुल बताया गया है ।
जो मूर्खता पूर्ण है ।
जिसके विषय में हमने पूर्व संकेत किया ।👇
यह भविष्य वाणी नागराज धूम्रवर्ण करता है जो हर्यश्व पुत्र यदु को अपनी पाँच कन्याऐं पत्नी रूप देता है।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 66-70 संस्कृत श्लोक ...

स तस्मै धूम्रवर्णो वै कन्या: कन्याव्रते स्थिता:।
जलपूर्णेन योगेन ददाविन्द्रवसमाय वै।।66।।
 
वरं चास्मै ददौ प्रीत: स वै पन्नगपुंगव:।
श्रावयन् कन्यका: सर्वा यथाक्रममदीनवत्।।67।।

एतासु ते सुता: पंच सुतासु मम मानद।
उत्पस्यन्ते पितुस्तेजो मातुश्चैव समाश्रिता:।।68।।

अस्मत्समयबद्धाश्च सलिलाभ्यन्तरेचरा:।
तव वंशे भविष्यन्ति पार्थिवा: कामरूपिण:।।69।।

स वरं कन्यकाश्चैव लब्ध्वा यदुवरस्तदा।
उदतिष्ठत वेगेन सलिलाच्चन्द्रमा इव।।70।।

____
भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
अर्थ:- जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक ,दाशार्ह ,भैम, यादव,  और वृष्णि नाम  सात वंश वाले शाखा में  प्रसिद्ध होंगे 

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीस वाँ अध्याय

अब हद तो तब हो गयी जब यदु को सैमेटिक या सोमवंश से हाइजैक कर हैम या सूर्य वंश में स्थापित करने की दुष्चेष्टा की गयी 


दरअसल भारतीय पुराणों में यदु के विषय में जो कथाऐं आलेखित की गयीं  वे यहूदियों के आख्यानकों से ली गयीं हैं !
ऋग्वेद में उद्गाता पुरोहित यदु और तुर्वशु को परास्त करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं ।
इस बात को भी कम 'लोग'जानते हैं ।

क्योंकि जो यहूदियों के आख्यानकों में इश्हाक है वही पात्र पुराणों में इक्ष्वाकु है ।

कहीं सैमेटिक तो कहीं हैमेटिक रूप में इसे माना गया 
भारतीय पुराणों में भी सोम का रूपान्तरण चन्द्र में कर के चन्द्र वंश की कल्पना कर ली गयी ।
______
जैसे हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सप्तत्रिंशो८ध्याय: 
में वर्णित है कि वैवस्वत मनु के वश में इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व राजा हुए ।
जो प्रजा का रञ्जन करते थे इसी राजा कहलाये ।

मधु असुर की पुत्री मधुवती ये हर्यश्व का विवाह हुआ ।
_____
एक दिन हर्यश्व के बड़े भाई 'ने उसे राज्य से निकाल दिया तब हर्यश्व 'ने अयोध्या छोड़ दी ।

तब मधुमती हर्यश्व को मधुवन ले गयी  यही मधपुरी भी था 

मधु असुर 'ने केवल मधुवन को छोड़कर अपना सारा राज्य अपने जामाता हर्यश्व को दे दिया ।
लवण मधु का पुत्र भी हर्यश्व का सहायक बना ।

 यह मधुवन  गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है यहांँ आभीर या गोप जाति ही बहुतायत से रहती था ।
इस प्रकार का वर्णन भी हरिवंशपुराण में है ।
देखें निम्नलिखित श्लोक इस विषय में तथा हिन्दी अनुवाद  विस्तृत रूप में
_____ 
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 16-20 में हर्यश्व और मधुमती के विषय में वर्णित है 👇

सा तमिक्ष्वांकुशार्दूलं कामयामास कामिनी।
स कदाचिन्नरश्रेष्ठो भ्रात्रा ज्येष्ठे्न माधव।।16।।

राज्यान्निरस्तो विश्वस्त: सोऽयोध्यां सम्परित्यजत्।
स तदाल्प‍परीवार: प्रियया सहितो वने।।17।।

रेमे समेत्य कालज्ञ: प्रियया कमलेक्षण:।
भ्रात्रा विनिष्कृतं राज्यात् प्रोवाच कमलेक्षणा।।18।।

एह्यागच्छ नरश्रेष्ठ त्यज राज्यकृतां स्पृहाम्।
गच्छाव: सहितौ वीर मधोर्मम पितुर्गृहम्।।19।।

रम्यं मधुवनं नाम कामपुष्पफलद्रुमम्।
सहितौ तत्र रंस्यावो यथा दिवि गतौ तथा।।20।।

 वह कामिनी होकर इक्ष्वाकु वंश के श्रेष्ठ वीर हर्यश्व को सम्पूर्ण से हृदय चाहती थी।

 माधव! एक दिन बड़े भाई ने उनके विश्वास पर रहने वाले नरश्रेष्ठ हर्यश्व को राज्य से निकाल दिया, 

तब उन्होंने अयोध्या छोड़ दी और थोड़े से परिवार के साथ अपने प्रिया मधुमती सहित वे वन में रहने लगे काल की महिमा को जानने वाले कमलनयन हर्यश्व अपनी प्यारी पत्नी के साथ मिलकर वहाँ बड़े आनन्द से समय बिताने लगे।

 एक दिन कमलनयनी मधुमती ने भाई द्वारा राज्य से निकाले गये पति से कहा- ‘नरश्रेष्ठ वीर! अयोध्या के राज्य की अभिलाषा छोड़ दो और आओ मेरे साथ चलो।

 हम दोनों मेरे पिता मधु के घर चलें सुरम्य मधुवन नामक वन ही मेरे पिता का निवास स्थान है। 

वहाँ के वृक्ष इच्छानुसार फूल और फल देने वाले हैं।

वहाँ हम दोनों साथ रहकर स्वर्गवासियों के सामने मौज करेंगे।' 

पृथ्वीनाथ! मेरे पिता और माता दोनों को ही तुम बहुत प्रिय हो और मेरा प्रिय करने के लिये मेरा भाई लवणासुर भी तुम्हें अत्यन्त प्रिय मानेगा। 

नरश्रेष्ठ! वहाँ जाकर हम दोनों साथ-साथ रहकर राज्य पर बैठे हुए दम्पत्तियों की भाँति इच्छानुरूप वस्तुओं का उपभोग करते हुए रमण करेंगे। 

जैसे देवपुरी के नन्दवन में देवांगना और देवता विहार करते हैं, उसी प्रकार वहाँ हम दोनों विहार करेंगे। 
_______
हर्यश्व को राज्य देकर मधु तप करने वन में चला गया। ययाति पुत्र महाराज यदु योगबल से पुन: मधुमती के गर्भ में आए। 

इनके वंश में ही मथुरा के सभी यादव हैं। 
जो आभीर रूप में पहले रहते हैं ।

ये महाराज यदु एक बार अपनी पत्नियों सहित समुद्र स्नान करने गए।
 वहाँ सर्पराज धूम्रवर्ण उन्हें खींच कर नाग लोक ले गए और अपनी पाँच कन्याएं उन्होंने विवाह दीं। 
ये पाँचों प्रसिद्ध महाराज यौवनाश्य की बहन की संतति भानजी थीं। 

नाग राज ने साथ ही वरदान दिया–तुमसे सात कुल चलेंगे। 
ये वंश भैम, कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव, दाशार्ह और वृष्णि रूप में होगा ।

नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए– मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित। 
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।

 पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
 पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे। हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए। 
________


माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।

पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।

 पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।

 इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
 सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।

युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
 इनके पुत्र भीम।

 इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा। 
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे। 

उसी समय श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न कुमार ने लवणासुर को मार कर मधुपुरी बसाई।

'परन्तु भागवत पुराण में यदु के पिता ययाति ही है और यदु के पुत्र चार  थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु 
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।
यदो: सहस्रजित् क्रोष्टा नलो रिपु: इति श्रुता : ।।२०।
चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयेश्चेति तत्सुता: ।२१।
भागवत पुराण नवम स्कन्द अध्याय चौबीस( पृष्ठ संख्या ९३... गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)

इस वंश में स्वयं भगवान् पर ब्रह्म श्रीकृष्ण 'ने नर रूप में अवतार लिया था - यदु के चार पुत्र थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु 
सहस्रजित् से  शतजित् का जन्म हुआ - शतजित् के तीन' पुत्र उत्पन्न हुए -महाहय, वेणुहय और हैहय ।।२०-२१।।

अब 'हरि वंश पुराण में यदु के पाँच पुत्र हैं ।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए–
 मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित। 
______________
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।

 पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
 पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे। हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए। 
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माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।

पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।

 पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।

 इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
 सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।

युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
 इनके पुत्र भीम।

 इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा। 
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे। 


अब सहस्रजित् क्रोष्टा नल और रिपु का कहाँ गये उनका वंश कहाँ गया 
कोई बताए !

'परन्तु यहांँ क्षेपक है यह तथ्य कि मधुरा शत्रुघ्न ने बसाई क्यों कि उसका नामकरण मधु असुर के आधार पर है ।।

 मधुवन का उच्छेद करके यह पुरी बसी।
 श्री राम के परमधाम जाने पर शत्रुघ्न के पुत्र ने विरक्त होकर राज्य त्याग दिया ये बातें भी क्षेपक ही हैं ।

 
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 36-40

स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।

बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।

सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।
येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।

राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।

तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।

✍✍✍✍
तब मधुपुरी–मथुरा पर भीम ने अधिकार कर लिया। अयोध्या में जब कुश राजा थे–मथुरा सिंहासन पर भीम के पुत्र अंधक का अभिषेक हुआ।
ये अन्धक के पिता भीम यादव थे ।
अन्धको नाम भीमस्ये सुतो राज्यवमकारयत्।।43।।
___
अन्धकस्या सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिव:।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जयज्ञे रम्येन पर्वतमूर्धनि।।44।।

ततो रैवत उत्पकन्नय: पर्वत: सागरान्तिके।
नाम्नाव रैवतको नाम भूमौ भूमिधर: स्मृत:।।45।।

अन्धक के पुत्र रैवत थे। 
इनकी पत्नी ने पुत्र ऋक्ष को पर्वत शिखर पर जन्म दिया था। 
_______
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 46-50

रैवतस्यात्माजो राजा विश्वागर्भो महायशा:।
बभूव पृथिवीपाल: पृथिव्यां प्रथित: प्रभु:।।46।।

तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यारूपासु केशव।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालापमा: शुभा:।।47।।

वसुर्बभ्रु: सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान्।
यदुप्रवीरा: प्रख्याता लोकपाला इवापरे।।48।।

तैरये यादवो वंश: पार्थिवैर्बहुलीकृत:।
यै: साकं कृष्णर लोकेऽस्मिन् प्रजावन्त: प्रजेश्वरा:।।49।।

वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेव: सुतो विभु:।
तत: स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके।।50।।
_______
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 46-58 का हिन्दी अनुवाद--
रैवत (ऋक्ष) के महायशस्वी राजा विश्वगर्भ हुए, जो पृथ्वी पर प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली भूमिपाल थे।
 केशव! उनके तीन भार्याऐं थीं। 

तीनों ही दिव्य रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थीं। 
उनके गर्भ से राजा के चार सुन्दर पुत्र हुए, जो लोकपालों के समान पराक्रमी थे।

 उनके नाम इस प्रकार हैं- वसु, बभ्रु, सुषेण और बलवान सभाक्ष। 
ये यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे।

श्रीकृष्ण! उन राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से सम्पन्न कर दिया।

 जिनके साथ इस संसार में बहुत-से संतानवान नरेश हैं। वसु से (जिनका दूसरा नाम शूर था) वसुदेव उत्पन्न हुए। ये वसुपुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं।

 वसुदेव की उत्पत्ति के अनन्तर वसु ने दो कान्तिमती कन्याओं को जन्म दिया (जो पृथा (कुन्ती) और श्रुतश्रवा नाम से विख्यात हुईं) इनमें से पृथा कुन्ति देश में (राजा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री के रुप में) रहती थी।

 कुन्ती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी, महाराज पाण्डु की महारानी हुईं तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशित होने वाली श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की पत्नी हुईं।

___
रैवत के पुत्र विश्वगर्भ हुए जिनका दूसरा नाम देवमीढ था 
इस ऋक्ष का दूसरा नाम रैवत था।
 इन महाराज रैवत के पुत्र विश्वगर्भ को देवमीढ़ कहा जाता है। 
__________________________
उनकी तीन रानियों से चार पुत्र हुए– वसु, वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष।
 ज्येष्ठ पुत्र वसु का ही दूसरा नाम शूरसेन है।
वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष ये ही क्रमश अर्जन्य पर्जन्य और राजन्य थे ।
 शूरसेन की संतान ही वसुदेव  हैं।
और पर्जन्य के पुत्र नन्द थे।
🌸
__________________________________________
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 26-30

ततो मधुपुरं राजा हर्यश्व: स जगाम च।
भार्यया सह कामिन्या कामी पुरुषपुंगव:।।26।।

मधुना दानवेन्द्रेण स साम्न समुदाहृत:।
स्वागतं वत्स हर्यश्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात्।।27।।

यदेतन्मम राज्यं वै सर्वं मधुवनं विना।
ददामि तव राजेन्द्र वासश्च प्रतिगृह्यताम्।।28।।

वनेऽस्मिल्लँवणश्चायं सहायस्ते भविष्यति।
अमित्रनिग्रहे चैव कर्णधारत्ववमेष्यति।।29।।
हरिवशं पुराणों में अन्य जनजातियों की उत्पत्ति भी प्रक्षिप्त ही है ।
प्रस्तुत हैं ये प्रमाण ....👇

हरिवंशपुराण हरिवशंपर्व पञ्चम अध्याय में एक स्थान पर वर्णन है कि 
निषादवंशकर्तासौ बभूव वदतां वर ।
धीवरानसृजच्चाथ वेनकल्मषसम्भवान्।।१९।

•-- वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय ! वह निषादों के वंश को चलाने वाला हुआ और उसने धीवरों को जन्म दिया  वे  निषाद , धीवर वेन के पाप से उत्पन्न हुए थे ।१९।
( क्या यह सत्य कथन है ?)

ये चान्ये विन्ध्यनिलय तुषार तुम्बरास्तथा ।
अधर्म रुचयो ये च विद्धि तान्  वेनसम्भवान् ।२०।

धीवरों के अतिरिक्त तुषार (तोखारी)
•--तुम्बर ( तोमर) तथा अधर्म से प्रेम करने वाले वन वासी ( गोण्ड- कोल आदि )हैं इन सबको तुम वेन के पाप से उत्पन्न हुआ समझो !

( तोमर जन-जाति राजपूत संघ गुर्जर संघ और जाट संघ में भी समायोजित है ।
'परन्तु हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में ये  वनवासी के रूप में हैं । 

हरिवंशपुराण हरिवशं पर्व इकतालीसवाँ अध्याय में श्रीमद्भगवदगीता के एक श्लोक का पूर्वार्द्ध हरिवंशपुराण में भी यथावत है ।👇
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
धर्म संस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभु ।।१७।

यह श्लोक श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक से साम्य रखता है 

भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में वर्णन हरिवंशपुराण में है ।
इतनी ही नहीं ...
भागवत धर्म के विषय में ही एक श्लोक है ।👇
जिसके उद्गाता अक्रूर नामक यादव हैं
_______
अक्रूर ने श्रीकृष्‍ण से कहा- 'भैया! रथ को यहीं खड़ा रखो और घोड़ों को काबू में रखने का प्रयत्‍न करो। तात!

 घोड़ों को दाना-घास देकर, इनके पात्र और रथ की विशेष यत्नपूर्वक देखभाल करते हुए एक क्षण तक मेरी प्रतीक्षा करो।

 तब तक मैं यमुना जी के इस कुण्‍ड में प्रवेश करके दिव्‍य भागवत मन्‍त्रों द्वारा सम्‍पूर्ण जगत के स्‍वामी नागराज अनन्‍त की स्‍तुति कर लूँ। 

वे गुहरास्‍वरूप भागवत देवता हैं, सम्‍पूर्ण लोकों के उत्‍पादक एवं उन्नायक हैं।

 उनका मस्तिक कान्तिमान स्‍वस्तिक चिह्न से अलंकृत है। वे सर्प-विग्रहधारी भगवान अनन्‍त देव सहस्र सिरों से सुशोभित तथा नील वस्‍त्र धारण करने वाले हैं। मैं उन्‍हें प्रणाम करूँगा।

यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं ।
दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२।

तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल
 में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२।

गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् ।
श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् ।
सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३।

वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं । 
सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं ।

 उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है  वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देव सहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 
'मैं उन्हें प्रणाम करुँगा ।४३।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है ।

 कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे ।
ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया ।

'परन्तु इसका तथ्य को पुराणों में दबाया- गया ।..

यह श्लोक गुप्त काल की धर्म मूलक अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है ।


______________________________________
यहीं तीसवें श्लोक में आभीर वर्णन है ।👇

पालयैनं शुभं राष्ट्रं समुद्रानूपभूषितम्।
गोसमृद्धं श्रिया जुष्टम् आभीर प्रायमानुषम्।।30।।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में सैंतीसवाँ अध्याय श्लोक संख्या ३० पर 

वस्तुतः ये ययाति पुत्र यदु के वंशजों में सुमार आभीर हैं जिन्होंने ही व्रज क्षेत्र की प्रतिष्ठा की 
यह आभीर नामक यादव जाति का ही वर्णन है ।

तीसवें श्लोक का अर्थ है 👇
अर्थात्‌ तुम समुद्र के जलप्राय प्रदेश से विभूषित इस सुराष्ट्र (सूरत ) का पालन करो ! यह गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है तथा यहीं अधिकतर अहीर ( आभीर ) निवास करते हैं।३०।
गुजरात नामकरण आभीर की उपशाखा गौश्चर गौज्जर गूर्जर से है ।

 हरिवंशपुराण के इसी अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में वर्णन है कि

ययातमपि वंशस्ते समेष्यति च यादववम्।
अनुवंशं च वंशस्ते सोमस्य भविता किल ।।३४।

•--अर्थात्‌ तुम्हारा यह वंश ययाति पुत्र यदु के वंश में मिल जाएगा । जो सोम वंश का रूप है ।३४।
 
 विदित हो कि हर्यश्व का राज्य आनर्त (गुजरात)था ।
वहीं सुराष्ट्र( सूरत )है ।

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•♪--

•--सर्पराज 'ने कहा कि तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇

 " भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: 
दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।

(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )

जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव ,दाशार्ह ,भैम  और वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे ।

अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि  कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे ? 
यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से आगया ।
सरे आम बकवास है ये तो !

आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि
इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा 
राजा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।

राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।

माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।

सत्वत्त के पुत्र भीम हुए । 
इनके वंशज भैम कहलाये  
जब राजा भीम आनर्त देश पर राज्य करते थे और तब अयोध्या मे राम का शासन था । 

तब इसके समय पर ही मधु के पुत्र लवण को शत्रुघ्न 'ने मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला था।३९।

 और उसी मधुवन के स्थान पर शत्रुघ्न' ने मधुपुरी को बसाया ।।४०।

तस्मिन् मधुवन स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन: ।।४०।।

'परन्तु प्रश्न यहांँ भी है कि मधु के नाम पर ही मधु पुर या मधुपुरी( मथुरा) शत्रुघ्न'ने क्यों बसाई अपने पूर्वजों के नाम ये अपने नाम से क्यों नहीं?
____________

'परन्तु जब शत्रुघ्न परलोक पधारे तो पुन: यादव राजा भीम ने इस वैष्णव स्थान मथुरा को पुन: प्राप्त किया ।क्यों कि यह भी उनके नाना मधु की नगरी थी ।

कालान्तरण भीम के पुत्र अन्धक मथुरा के राजा हुए और अन्धक के पुत्र रैवत ( ऋक्ष) के पुत्र विश्वगर्भ ( देवमीढ) हुए मथुरा के राजा हुए  ।

विश्वगर्भ का नामान्तरण ही देवमीढ है ।

 ये देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पूर्वजों में थे ।
पर्जन्य और शूरसेन के पिता देवमीढ थे ।


यद्यपि भागवत पुराण में एक प्रसंग के अनुसार जब अर्जुन को  द्वारिका गये हुए कई महीने हो जाते हैं तब युधिष्ठर भीम को वहाँ यह जानने के लिए भेजते हैं कि 
क्या कारण है अर्जुन को वहाँ इतना समय क्यों हो गया ?

इसी सन्दर्भ में समस्त ननिहाल के लोगों का कुशल क्षेम पूछने के लिए युधिष्ठर सबको पूछने के क्रम में सुनन्द और नन्द जो दूसरे अन्य यदुकुल के हैं उनका भी कुशल क्षेम पूछते हैं 
अब प्रश्न यह बनता है कि ये सुनन्द और नन्द कौन दूसरे अन्य यदुकुल 'लोग' हैं ?

वास्तव में ये नौ नन्द ही हैं 

धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद,नन्द,सुनंद अभिनंद,  ., कर्मानन्द , धर्मानंद ,  और वल्लभ। 
 नन्द से  नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। 


श्रीमद्भागवत पुराण में प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह में ही श्लोक संख्या ३२ पर तथैवानुचरा: शौरे: श्रुतदेवोद्धवाय: सुनन्द नन्द शीर्षण्या ये चान्ये  सात्वतर्षभा: ।।३२।

अर्थ-  भगवान् कृष्ण के सेवक  श्रुतदेव ,उद्धव , तथा दूसरे अन्य सुनन्द नन्द आदि शीर्ष यदुकुल के कृष्ण और बलराम के बाहुबल से संरक्षित हैं ।
सब के सब सकुशल हैं 'न?
हमसे अत्यंत प्रेमकरने वाले वे 'लोग' कभी हमारा कुशल-मंगल पूछते हैं ?३२-३३
नन्द उपनन्द कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
'परन्तु सुनन्द और नन्द और उपनन्द ये पर्जन्य के पुत्रों में समविष्ट थे ।

नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजा:।

कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्।।४८।

अर्थ:- नन्द ,उपनन्द, कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।

और वसुदेव की कौसल्या नामकी पत्नी 'ने एक ही वंश- उजागर पुत्र उत्पन्न किया उसका नाम केशी था ।४८। ( भागवत पुराण नवम् स्कन्द अध्याय चौबीस पृष्ठ संख्या १००(गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)

इसलिए उपर्युक्त श्लोक में नौ नन्द सुनन्द, नन्द और उपनन्द आदि नव गोपों' का अर्थ ग्रहण करना चाहिए ..

आनर्त देश के विषय में कतिपय जानकारी करें 👇 --+-

आनर्त प्राचीन भारत में गुजरात के उत्तर भाग को कहा जाता था। 
द्वारावती आधुनिक द्वारका इसकी प्रधान नगरी थी।

महाभारत के अनुसार अर्जुन ने पश्चिम दिशा की विजय-यात्रा में आनर्तों को जीता था।

महाभारत के सभापर्व के एक अन्य वर्णन से ज्ञात होता है कि आनर्त का राजा शाल्व था, जिसकी राजधानी सौभनगर में थी। 

श्री कृष्ण ने इस देश को शाल्व से जीत लिया था।
विष्णु पुराण में आनर्त की राजधानी कुशस्थली 
बताई गई है-
________
'आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रो जज्ञे, योऽसावनर्तविशयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास।'

इस उद्धरण से यह भी सूचित होता है कि आनर्त के राजा रेवत के पिता का नाम आनर्त था। 
इसी के नाम से इस देश का नाम आनर्त हुआ होगा।

रेवत बलराम की पत्नी रेवती के पिता थे।

महाभारत से भी विदित होता है कि आनर्त नगरी, द्वारका का नाम था-
_____
'तमेव दिवसं चापि कौन्तेय: पांडुनंदन:, आनर्त नगरीं रम्यां जगामाशु धनंजय:।'

गिरनार के प्रसिद्ध अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन आभीर ने 150 ई. के लगभग अपने पहलव अमात्य सुविशाख को आनर्त और सौराष्ट्र आदि जनपदों का शासक नियुक्त किया था-
___
'कृत्स्नानामानर्त सौराष्ट्राणां पालनार्थं नियुक्तेन पह्लवे कुलैप पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन।'

रुद्रदामन ने आनर्त को सिंधु-सौवीर आदि जनपदों के साथ विजित किया था।
_________________
टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली | 
पृष्ठ संख्या= 63-64| विजयेन्द्र कुमार माथुर |
 वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | 
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार 

( यादव योगेश कुमार'रोहि'अलीगढ़ --8077160219)

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 59 श्लोक 16-20

 ________
पृथ्वी पति राजा जरासन्ध 'ने चेदिराज सुनीथ के पुत्र शिशुपाल के लिए भयानक पराक्रमी भीष्मक  से उनकी कन्या रुक्मणि को माँगा था ।१९।

क्योंकि जरासन्ध दमघोष का वंशज था ।
विदित हो की चेदिराज उपरिचर वसु के एक पुत्र का नाम बृहद्रथ था जिसने मगध में पहले गिरिव्रज नामक नगर का निर्माण किया था उसी के वंश में जरासन्ध उत्पन्न हुए। उपरिचर वसु के ही वंश में उन्हीं दिनों दमघोष (सुनीथ) उत्पन्न हुए जो चेदि देश के राजा थे । 

दमघोष के पाँच पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए शिशुपाल, दशग्रीव ,रैभ्य,उपदिश,और बली ।
जरासन्ध दमघोष का वंशज या कुटुम्बी था और समान वंश में उत्पन्न हुआ इसलिए दमघोष ने अपना पुत्र शिशुपाल जरासन्ध को सौंप दिया था ।

रुक्मिणी त्वयभवद् राजन् रूपेणासदशी भूवि।
चकमे वासुदेवस्तां श्रवादेव महाद्युति:।।16।।

स तया चाभिलषित: श्रवादेव जनार्दन:।
तेजोवीर्यबलोपेत: स मे भर्ता भवेदिति।।17।।

तां ददौ न च कृष्णाय द्वेषाद् रुक्मीि महाबल:।
कंसस्यौ वधसंतापात् कृष्णाययामिततेजसे।।18।।
याचमानाय कंसस्य द्वेष्योदयमिति चिन्तययन्।

चैद्यस्याकर्थे सुनीथस्य जरासंधस्तु् भूमिप:।
वरयामास तां राजा भीष्म कं भीमव्रिकमम्।।19।।

चेदिराजस्यं तु वसोरासीत् पुत्रो बृहद्रथ:।
मगधेषु पुरा येन निर्मितोऽसौ गिरिव्रज:।।20।।

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 58 श्लोक 21-25

तस्यान्वावाये जज्ञेऽसौ जरासंधो :।
वसोरेव तदा वंशे दमघोषोऽपि चेदिराट्।।21।।

दमघोष पुत्रास्तु पंच भीमपराक्रमा:।
भगिन्यां वसुदेवस्य श्रुतश्रवसि जज्ञिरे।।22।।

शिशुपालो दशग्रीवो रैभ्योयऽथोपदिशो बली।
सर्वास्त्रकुशला वीरा वीर्यवन्तो महाबला:।।23।।

निम्नलिखित श्लोक दमघोष जरासन्ध समान कुल वंशञ् समानवंशस्य सुनीथ: प्रददौ सुतम्।
जरासंधस्तु सुतवद् ददर्शैनं जुगोप च।।24।।

जरासंधं पुरस्कृत्य वृष्णिशत्रुं महाबलम्।
कृतान्यागांसि चैद्येन वृष्णीनां चाप्रियौषिणा।।25।।

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इसी पुराण में  पृथ्वी के प्रथम राजा पृथु का वर्णन यूनानी-माइथॉलॉजी के प्रोटियस् से ग्राह्य है ।
हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोक में पृथु की पुत्री है पृथ्वी ।👇

तत८भयुपगमाद् राज्ञ्य: पृथोर्वैन्यस्य भारत ।
दुहितृत्वमनुप्राप्ता देवी पृथ्वीति चोच्यते ।।
पृथुना प्रविभक्ता च शोधिता च वसुंधरा ।।४६।

अर्थात्‌ भरत वंशी राजन्य ! फिर वेनपुत्र राजा पृथु के पुत्री रूप में  स्वीकार करने पर यह देवी उसकी पुत्री बनगयी और पृथ्वी कहलाया । 
इस प्रकार पृथु 'ने पृथ्वी को अनेक
भागों 'ने विभक्ति किया और शुद्ध किया ।४६।
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देखें निम्नलिखित यूनानी-माइथॉलॉजी से उद्धृत तथ्य साम्य--
In Greek mythology, Proteus (/ˈproʊtiəs, -tjuːs/;[1] Ancient Greek: Πρωτεύς) is an early prophetic sea-god or god of rivers and oceanic bodies of water, one of several deities whom Homer calls the "Old Man of the Sea" (halios gerôn).

[2] Some who ascribe a specific domain to Proteus call him the god of "elusive sea change", which suggests the constantly changing nature of the sea or the liquid quality of water.

 He can foretell the future, but, in a mytheme familiar to several cultures, will change his shape to avoid doing so; he answers only to those who are capable of capturing him. From this feature of Proteus comes the adjective protean, meaning "versatile", "mutable", or "capable of assuming many forms". "Protean" has positive connotations of flexibility, versatility and adaptability.

Name Origin -

Proteus' name suggests the "first" (from Greek "πρῶτος" prōtos, "first"), as prōtogonos (πρωτόγονος) is the "primordial" or the "firstborn".

 It is not certain to what this refers, but in myths where he is the son of Poseidon, it possibly refers to his being Poseidon's eldest son, older than Poseidon's other son, the sea-god Triton. 

The first attestation of the name, although it is not certain whether it refers to the god or just a person, is in Mycenaean Greek; the attested form, in Linear B, is 𐀡𐀫𐀳𐀄, po-ro-te-u.[3][4][5]

Family -

Proteus was generally regarded as the son of the sea-god Poseidon.[6][7] 

The children of Proteus, besides Eidothea, include Polygonus and Telegonus, who both challenged Heracles at the behest of Hera and were killed, one of Heracles' many successful encounters with representatives of the pre-Olympian world order.

 Cabeiro, mother of the Cabeiri and the three Cabeirian nymphs by Hephaestus, was also called the daughter of Proteus.[8]

Mythology-

Proteus, prophetic sea-god Edit
According to Homer (Odyssey iv: 355), the sandy island of Pharos situated off the coast of the Nile Delta was the home of Proteus, the oracular Old Man of the Sea and herdsman of the sea-beasts.

 In the Odyssey, Menelaus relates to Telemachus that he had been becalmed here on his journey home from the Trojan War. 

He learned from Proteus' daughter Eidothea ("the very image of the Goddess"), that if he could capture her father, he could force him to reveal which of the gods he had offended and how he could propitiate them and return home. 

Proteus emerged from the sea to sleep among his colony of seals, but Menelaus was successful in holding him, though Proteus took the forms of a lion, a serpent, a leopard, a pig, even of water or a tree.

 Proteus then answered truthfully, further informing Menelaus that his brother Agamemnon had been murdered on his return home, that Ajax the Lesser had been shipwrecked and killed, and that Odysseus was stranded on Calypso's Isle Ogygia.

According to Virgil in the fourth Georgic, at one time the bees of Aristaeus, son of Apollo, all died of a disease. 

Aristaeus went to his mother, Cyrene, for help; she told him that Proteus could tell him how to prevent another such disaster, but would do so only if compelled.

 Aristaeus had to seize Proteus and hold him, no matter what he would change into. Aristaeus did so, and Proteus eventually gave up and told him that the bees' death was a punishment for causing the death of Eurydice.

 To make amends, Aristaeus needed to sacrifice 12 animals to the gods, leave the carcasses in the place of sacrifice, and return three days later. 

He followed these instructions, and upon returning, he found in one of the carcasses a swarm of bees which he took to his apiary. The bees were never again troubled by disease.

There are also legends concerning Apollonius of Tyana that say Proteus incarnated himself as the 1st century philosopher.

 These legends are mentioned in the 3rd century biographical work Life of Apollonius of Tyana.

Proteus, king of Egypt -
Main article: Proteus of Egypt
In the Odyssey (iv.430ff) Menelaus wrestles with "Proteus of Egypt, 

ग्रीक पौराणिक कथाओं में, प्रोटियस (/ ʊproəti ,s, -tju /s /; [1] प्राचीन ग्रीक: Greekρ:) एक प्रारंभिक भविष्यवक्ता समुद्र-देवता या नदियों और समुद्र के पानी के देवता हैं, कई देवताओं में से एक जिन्हें होमर "ओल्ड मैन ऑफ" कहते हैं। द सी ”(हेलोस गेरोन)।

[२] कुछ लोग जो प्रोटीज को एक विशिष्ट डोमेन बताते हैं, उन्हें "मायावी समुद्र परिवर्तन" का देवता कहते हैं, जो समुद्र के निरंतर बदलते स्वरूप या पानी की तरल गुणवत्ता का सुझाव देता है।

 वह भविष्य की भविष्यवाणी कर सकता है, लेकिन, कई संस्कृतियों से परिचित एक मिथक में, ऐसा करने से बचने के लिए अपना आकार बदल देगा; वह केवल उन लोगों को जवाब देता है जो उसे पकड़ने में सक्षम हैं। प्रोटीन की इस विशेषता से विशेषण का अर्थ आता है, जिसका अर्थ है "बहुमुखी", "परस्पर", या "कई रूपों को ग्रहण करने में सक्षम"। "प्रोटियन" में लचीलापन, बहुमुखी प्रतिभा और अनुकूलनशीलता के सकारात्मक अर्थ हैं।

नाम की उत्पत्ति -

प्रोटियस का नाम "प्रथम" (ग्रीक "ῶτρςοō" pr'tos, "प्रथम") से पता चलता है, क्योंकि pr )togonos (πρωτόγονος) "प्रिमोरियल" या "प्रथम" है।

 यह निश्चित नहीं है कि यह क्या संदर्भित करता है, लेकिन मिथकों में जहां वह पोसिडॉन का पुत्र है, संभवतः यह पोसिदोन के सबसे बड़े पुत्र, पोसिदोन के दूसरे बेटे, समुद्र-देवता ट्राइटन से बड़ा है।

नाम का पहला सत्यापन, हालांकि यह निश्चित नहीं है कि यह भगवान या सिर्फ एक व्यक्ति को संदर्भित करता है, माइसेनियन ग्रीक में है; अनुप्रमाणित रूप, रैखिक बी में, po, पो-रो-ते-यू है। [३] [४] [५]

परिवार -

प्रोटीन को आमतौर पर समुद्र-देवता पोसिडॉन का पुत्र माना जाता था। [६] [regarded]

प्रोटिओस के बच्चों में ईडोथिया के अलावा, पॉलीगोनस और टेलीगोनस शामिल हैं, जिन्होंने दोनों हेरा के इशारे पर हेराक्लेज़ को चुनौती दी और मारे गए, हेराक्लीज़ के पूर्व ओलंपियन विश्व व्यवस्था के प्रतिनिधियों के साथ कई सफल मुठभेड़ों में से एक।

 हेबेस्टस द्वारा कैबेरियो, कैबिरी की मां और तीन कैबेरियन अप्सराओं को प्रोटियस की बेटी भी कहा जाता था। [of]

पौराणिक कथा-

प्रोटीन, भविष्यद्वक्ता समुद्री देवता
होमर (ओडिसी iv: 355) के अनुसार, नील डेल्टा के तट से दूर फैरोस का रेतीला द्वीप, प्रोटियस का घर था, जो समुद्र का अलौकिक ओल्ड मैन और समुद्र-घाटों का चरवाहा था।

 ओडिसी में, मेनलॉस टेलिमैचस से संबंधित है कि ट्रोप युद्ध से अपनी यात्रा के घर पर उसे यहां लाया गया था।

उसने प्रोटियस की बेटी ईडोथिया ("देवी की बहुत छवि") से सीखा, कि यदि वह अपने पिता को पकड़ सकती है, तो वह उसे यह बताने के लिए मजबूर कर सकती है कि उसने किस देवता को नाराज किया था और वह उन्हें कैसे बता सकता था और घर वापस लौट सकता था।

प्रोटीज समुद्र से अपनी कॉलोनी की सीलों के बीच सोने के लिए उभरा, लेकिन मेनलॉस उसे पकड़ने में सफल रहा, हालांकि प्रोटियस ने एक शेर, एक सर्प, एक तेंदुआ, एक सुअर, यहां तक ​​कि पानी या पेड़ का रूप ले लिया।

 इसके बाद प्रोटियस ने सच्चाई से जवाब दिया, मेनेलॉस को सूचित करते हुए कि उसके भाई अगेम्नोन की घर लौटने पर हत्या कर दी गई थी, कि अजाक्स द लेवर को मार दिया गया था और उसे मार दिया गया था, और ओडीसियस को कैलिप्सो के आइल ओगियागिया में फंसा दिया गया था।

चौथे जॉर्जीक में वर्जिल के अनुसार, एक समय में अपोलो के बेटे अरिस्टेअस की मधुमक्खियों की बीमारी से मौत हो गई थी।

अरिस्टियस मदद के लिए अपनी माँ साइरेन के पास गया; उसने उसे बताया कि प्रोटियस उसे बता सकता है कि इस तरह की दूसरी आपदा को कैसे रोका जाए, लेकिन मजबूर होने पर ही ऐसा करेगा।

 अरिस्टेअस को प्रोटीज को जब्त करना और उसे पकड़ना था, चाहे वह किसी भी स्थिति में बदल जाए। अरिस्टेअस ने ऐसा किया, और प्रोटियस ने अंततः हार मान ली और उसे बताया कि मधुमक्खियों की मौत यूरियाडाइस की मौत का कारण है।

 संशोधन करने के लिए, अरिस्टेअस को देवताओं को 12 जानवरों की बलि देने की जरूरत थी, बलिदान के स्थान पर शवों को छोड़ दें, और तीन दिन बाद वापस आ जाएं।

उसने इन निर्देशों का पालन किया, और लौटने पर, उसने शवों में से एक को मधुमक्खियों के झुंड में पाया, जिसे वह अपने आशिक के पास ले गया था। मधुमक्खियां फिर कभी बीमारी से परेशान नहीं हुईं।

वहाँ भी Tyana के Apollonius से संबंधित किंवदंतियों है कि कहते हैं कि प्रोटियस ने खुद को 1 शताब्दी के दार्शनिक के रूप में अवतार लिया।

 इन किंवदंतियों का उल्लेख तीसरी शताब्दी की जीवनी कार्य लाइफ ऑफ़ एपोलोनियस ऑफ़ टायना में किया गया है।

प्रोटीज, मिस्र का राजा -
मुख्य लेख: मिस्र का प्रोटीन
ओडिसी (iv.430ff) मेनेलॉस कुश्ती में "मिस्र के प्रोटीन,"

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As a concept and as a word, Proteus is not a commonly used term today, but has been adopted by some companies to be an interesting concept for the basis of their business names, ranging from healthcare to industrial supplies all the way to sports nutrition and supplementation.

In medicine, Proteus syndrome refers to a rare genetic condition characterized by symmetric overgrowth of the bones, skin, and other tissues.

 Organs and tissues affected by the disease grow out of proportion to the rest of the body. This condition is associated with mutations of the PTEN gene.

 Proteus also refers to a genus of Gram-negative Proteobacteria, some of which are opportunistic human pathogens known to cause urinary tract infections, most notably. Proteus mirabilis is one of these and is most referenced in its tendency to produce "stag-horn" calculi composed of struvite (magnesium ammonium phosphate) that fill the human renal pelvis.

In Professional Wrestling, British company PROGRESS Wrestling has announced the introduction of a Proteus Championship.

 The current holder of the championship will be allowed to declare the type of match they will defend the championship in, with each new champion being able to set their own match type.

 The name of the championship was chosen due to its ever-changing nature, reflecting the shape-changing abilities of the deity it was named for.

Biology -
The protist Amoeba proteus is named for the Greek god, as it has no fixed shape and constantly changes form.

एक अवधारणा के रूप में और एक शब्द के रूप में भी , प्रोटियस आज आमतौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाने वाला शब्द है, ।
लेकिन कुछ कंपनियों द्वारा अपने व्यवसाय के नाम के आधार पर एक दिलचस्प अवधारणा को अपनाया गया है, स्वास्थ्य सेवा से लेकर औद्योगिक आपूर्ति तक सभी खेल पोषण के लिए और पूरकता के लिए भी ।
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चिकित्सा में, प्रोटियस सिंड्रोम एक दुर्लभ आनुवंशिक स्थिति को दर्शाता है जो हड्डियों, त्वचा और अन्य ऊतकों के सममित अतिवृद्धि द्वारा विशेषता है।

 रोग से प्रभावित अंग और ऊतक शरीर के बाकी हिस्सों के अनुपात से बढ़ते हैं।
 यह स्थिति PTEN जीन के उत्परिवर्तन से जुड़ी है।

 प्रोटीन ग्राम-नकारात्मक प्रोटीनोबैक्टीरिया के एक जीनस को भी संदर्भित करता है, जिनमें से कुछ अवसरवादी मानव रोगजनकों का समावेश हैं जिन्हें मूत्र पथ के संक्रमण के कारण जाना जाता है, 
विशेष रूप से प्रोटीज मिराबिलिस इनमें से एक है और इसकी सबसे अधिक संदर्भित "स्टैग-हॉर्न" केल्चुरी (मैग्नीशियम अमोनियम फॉस्फेट) से बना है जो मानव वृक्कीय श्रोणि को भरता है।

प्रोफेशनल रेसलिंग में, ब्रिटिश कंपनी PROGRESS रेसलिंग ने प्रोटियस चैंपियनशिप शुरू करने की घोषणा की है।

 चैंपियनशिप के वर्तमान धारक को उस प्रकार के मैच की घोषणा करने की अनुमति दी जाएगी, जिसमें वे चैंपियनशिप की रक्षा करेंगे, प्रत्येक नए चैंपियन को अपना मैच प्रकार सेट करने में सक्षम होना चाहिए।

 चैंपियनशिप का नाम अपने कभी बदलते स्वभाव के कारण चुना गया था, जिसे देवता की आकार-बदलती क्षमताओं को दर्शाया गया था।

( यूनानी-माइथॉलॉजी से उद्धृत ---

जीवविज्ञान -
प्रोटेस्टिस्ट अमीबा प्रोटक्टस का नाम ग्रीक देवता के लिए रखा गया है, क्योंकि इसका कोई निश्चित आकार नहीं है और यह लगातार रूप बदलता रहता है। [१eb]

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प्रस्तुति-करण:-
 यादव योगेश कुमार'रोहि'  8077160219