शनिवार, 30 मई 2020

तथागत बुद्ध एक पौराणिक विवेचना ....

 यदि आस्था या श्रृद्धा को मनु ( मनन) का सम्बल 'न मिले तो वह अन्धे के समान भटकती रहती है 
आज भी धर्म के बीहड़ में आस्था भटक कर चरित्र हीनता की पराकाष्ठा पर मूर्च्छित पड़ी है ।
'लोग' पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर सत्य का विवेचन नहीं कर पाते हैं ।
अशोक वशिष्ठ नामक महानुभाव जो  शक्ति उपासक हैं उनके अनुसार  वाल्मीकीय रामायण सर्ग ११०(कहीं पर १०९) श्लोक ३३,३४ में तथागत बुद्ध का रूढ़ अर्थ नहोकर यौगिक अर्थ हैे।

श्लोक 34 में  "बुद्धस्तथागतं"  में विसर्ग सन्धि है जिसका विच्छेद करने पर "बुद्धः + तथागतः"  एवं इसके बाद शब्द आया है -- "नास्तिकमत्र"  जिसमें दो शब्द हैं "नास्तिकम् + अत्र", इसके बाद आया है-- "विद्धि"  इसका अन्वय हुआ – विद्धि नास्तिकम अत्र तथागतम्  अर्थात् ‌ नास्तिक को केवलमात्र जो बुद्धिजीवी है उसके समान  मानना चाहिए। 
इसके पहले की पंक्ति का अन्वय हुआ – यथा हि तथा हि सः बुद्धाः चोरः – अर्थात् केवलमात्र जो बुद्धिजीवी है उसको चोर के समान मानना चाहिए और 

पूर्व श्लोक ३३ में बताया है जहाँ जाबालि के लिए– ”विषमस्थबुद्धिम् बुद्ध्यानयेवंविधया” शब्द से वेद मार्ग भ्रष्ट, विषम बुद्धि वाला कहा गया है अत: ३४ वे श्लोक में आया बुद्ध शब्द का सम्पूर्ण तात्पर्य होगा– विषम बुद्धि वाला, वेद विरोधी, कुत्सित बुद्धि वाला बुद्धिजीवी अर्थात "ऐसा व्यक्ति जो अपनी तर्क शक्ति का प्रयोग कुत्सित कार्यो में करता है |”

संस्कृत का सामान्य जानकार भी यहां गौतम बुद्ध की चर्चा नहीं करेगा क्योंकि ‘बुद्ध’ तो ज्ञानी व्यक्ति को कहते हैं, वो तो कोई भी हो सकता है।
 यहां जाबाल के लिये ‘बुद्ध’ आया है यानी वे कुबुद्धि से तर्कवाद कर रहे थे। यहां पर ‘तथागत’ शब्द देखकर बुद्ध का भ्रम होता है। पर ये निर्मूल है।

तथागत का अर्थ ‘वाचस्पत्यम्’ में है:- तथागत¦ 
पु॰ तथा सत्यं गतं ज्ञानं यस्य यथा न पुनरावृत्ति-र्भवति तथा तेन प्रकारेण गत इति वा तथा गतः सहसु-पेति समासः।
अर्थात्- जो जहां से आता है, वहीं को जाता है यानी उसकी पुनरावृत्ति नहीं होती। प्रायः सत्य और ज्ञान से वो मोक्ष को प्राप्त होता है, इसलिए तथागत है।
यहां पर “जो जहां से आता है, वहीं को जाता है” ऐसा अर्थ है तथागत अतः यहां पर तथागत शब्द का गौतम बुद्ध से कोई  संबंध नहीं है।

यहां पर “यथा हि चोरः तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।” ( १०९/३४) “बुद्धस्तथागतं” का अन्वय होगा “बुद्धः तथागतं” यहां तथागत का अर्थ नास्तिक_मत से है, जो आवागमन नहीं मानता, मिट्टी से जन्मकर मिट्टी में मिलना मानता है। इसलिये जाबाल को नास्तिक मानकर तथागत कहा है, यानी जो केवल नश्वरवादी भौतिकवादी बुद्ध यानी जो तर्कवादी कुबुद्धि है। बुद्ध यानी जो नाम मात्र का बुद्धिजीवी है, वो चोर के समान दंड का अधिकारी है 

यदि तथागत का अर्थ बुद्ध ही लेना है तो महाभारत जो ५१०० साल पुराना है उसमें गौतम बुद्ध कहां से आ टपके? 
महाभारते । ३ । ७७ । ५ । 
“ततो वभूव नगरे सुमहान् हर्षजः स्वनः । 
जनस्य संप्रहृष्टस्य नलं दृष्ट्वा तथागतम् ॥”

महाभारत में भी तथागत शब्द है, इस श्लोक में क्या बुद्ध का अर्थ ग्रहण हो सकता है?

और देखिये रामायण में नल के साथ तथागत शब्द :- नलं दृष्ट्वातथागतम्” 
भा॰ व॰ ७७ अ॰।
पांडवों के साथ तथागत शब्द:-
“श्रियं तथागतां दृष्ट्वाज्वलन्तीमिव पाण्डवे” भा॰ स॰ १६ अ॰।
अब यहां पर क्या नल या पांडव तथागत बुद्ध हो गये या वो गौतम बुद्ध से मिलकर आये थे 

शायद बुद्ध ने ही पांडवों और नल को बौद्ध धर्म में दीक्षित भी कर दिया होगा 

कुछ प्राचीन टीकाकार जैसे ‘रामाभिराम” आदि भी यहां बुद्ध को निकालने लगे।
 इनकी देखादेखी गीता प्रेस भी यही करने लगा! 

वाल्मीकि मुनि वैदिक ऋषि थे।
उनके कई शब्द यौगिक हो सकते हैं, लौकिक शब्दकोष से उनका अर्थ नहीं किया जा सकता। 

ध्यान_रहे_टीकाओं_के_कारण_रामायण_नहीं_है_रामायण_के_कारण_टीकायें_बनी_हैं।

यदि देखा जाये तो राम भी गौतम बुद्ध को नास्तिक नहीं कह सकते, बुद्ध का वेद से जन्म जन्मांतर का संबंध था। 
सेतकेतु जातक में-- उन्होंने पूर्वजन्म में वेद का समर्थन करके,  एक वेद विरोधी संन्यासी सेतकेतु का खंडन किया था। 
साथ ही, उनको "वेदगू वेदांतगू" भी कहा गया है  "चारों वेदों का जाननेवाला, कुल मिलाकर वेद को मानने वाला" नास्तिक नहीं हो सकता।

पुराणों के अनुसार बुद्ध और राम  विष्णु  के अवतार है। एक अवतार दूसरे अवतार को नास्तिक नहीं बोल सकता और एक_ही_काल मे विष्णु के तीन अवतार राम, परशुराम, और बुद्ध...???

राम मानते हैं कि नास्तिक वो है:-- जो आवागमन, पुनर्जन्म नहीं मानता। 
पर बुद्ध को तो नास्तिक मानते हैं  परन्तु उनकी जातककथायें उनके पुनर्जन्म की कथाओं से ही भरी हैं और धम्मपद ४/१८ में कहते हैं:-
” इध मोदति पेच्च मोदति कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति।”
“पुण्य करने वाला इस लोक और परलोक दोनों में मुदित होता है।”

ऐसे सैकड़ो प्रमाण हम दे सकते हैं जिसमें बुद्ध लोक परलोक, पुनर्जन्म, आवागमन आदि को मानते दिखते हैं। इसलिये आवागमन, पुनर्जन्म न मानने वाला नास्तिक_उनको_नहीं_कहा जा सकता।
यथा हि चोरः स तथाहि बुद्धः?--- एक अन्वेषण।

हमारे सनातन-वैदिक-हिन्दु-धर्मग्रन्थोंकी छविको धूल-धूसरित करने हेतु विधर्मियोंद्वारा अनेकों कुत्सित प्रयास किये गये हैं परन्तु शास्त्रोंमे आस्तिकबुद्धि रखनेवाले, यह मानते हुए कि शास्त्रोंमें परस्पर विरोध न ढूंढ़कर समन्वयका ही प्रयास करना चाहिये, इसे बिना विचारे मान लेते हैं और समन्वयकारी समाधानका प्रयास करते हैं। वह यह भूल जाते हैं कि हमारे शास्त्र अमल हैं और उनमें अप्रासङ्गिक, मल-प्रक्षेपका कोई स्थान नहीं। अन्वेषणकी परम्परा भी तो हमें यह सिखाती है कि अन्वेषकको विश्लेष्य पदार्थसे निरपेक्ष रहकर ही विश्लेषण करना चाहिये, अन्यथा निष्कर्षमें शैथिल्यकी संभावना बढ़ जाती है।
वाल्मीकि रामायणके अयोध्याकाण्डमें एक प्रसङ्ग आता है जब जाबालिने रामको लौटानेके लिये धर्मविरुद्ध नास्तिकों जैसी बातें करते हुये कहा - "कौन किसका बंधु है। किससे किसको क्या लेना है। व्रत-दानादि सब प्रपञ्च वैदिकाचार करनेवाले शास्त्रादिका निर्माण मेधावियोंने दानादि प्राप्त करनेहेतु किया है ....... इत्यादि।" तब इसका अनेकों भाँतिसे खण्डन करते हुए रामने कहा- "मैं पिताजीके उस कर्मकी निन्दा करता हूँ जिसमें उन्होंने धर्मविमुख विषमबुद्धिवाले आप सरिस नास्तिकको अपने यहाँ रखा था।" उसके आगे कहते हैं- "यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्॥ (वा. रा. २।१०९।३४)" अर्थात् जैसे चोर है वैसे ही बुद्ध है, और तथागत (बुद्धतुल्य) तथा नास्तिक भी। प्रजापर अनुग्रहहेतु राजाद्वारा बुद्ध, तथागत तथा नास्तिकको चोरके समान दण्ड दिलाया ही जाय और यदि दण्ड देना अशक्य हो तो ऐसे नास्तिकोंसे विद्वान् ब्राह्मण कभी वार्तालाप न करे।
यहाँपर स्वामी करपात्रीजी महाराज कहते हैं-"बुद्धादि नास्तिक भी प्राचीन हैं। कई लोग बुद्ध और तथागत का नाम देखकर वाल्मीकिरामायण का निर्माण गौतम बुद्ध के पश्चात्‌कालीन मानते हैं, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि अवतार बुद्ध गौतम बुद्ध से भिन्न ही हैं। जैसे मुख्यलक्ष्मी गृहलक्ष्मी से भिन्न होती हैं वसे ही बुद्ध भी गौतम बुद्ध से भिन्न हैं। बौद्धों के जातकों का भी यही मत है।" (देखें रामायण मीमांसा, तृ. संस्करण,पृ. १०७)
बुद्धादि नास्तिक भी प्राचीन हैं, यह तो मान्य है; परन्तु क्या यह स्वीकार्य है कि रामायणकालमें, अर्थात् त्रेतायुगमें, बुद्धादि नास्तिक भी थे? निश्चयेन इसका उत्तर नकारात्मक होगा और यह उत्तर ही हमें श्लोककी प्रक्षिप्तता अथवा बुद्ध शब्दकी अप्रामाणिकताको प्रमाणित करता है।

यूँ तो इस विषयपर अनेको मत इस प्रतिपादनके समर्थन अथवा विरोधमें आये रहे होंगे, परन्तु आज मैं एक ऐसे बहुमुखी शेमुषीके धनी प्रो. (डॉ.) रामतवक्या शर्माके वह शोध-प्रबंधकी चर्चा कर रहा हूँ जिसके सम्बन्धमें सम्पादकने लिखा है- "छात्र के रूप में हमलोग सुना करते थे कि यह शोध-प्रबन्ध उन्होंने पी.एच.डी. के लिए प्रस्तुत किया था; किन्तु इसपर इन्हें डी. लिट्. की उपाधि मिली थी और एक परीक्षक ने शायद मन्तव्य दिया था कि डी. लिट्. से भी बड़ी कोई उपाधि होती तो इस शोध-प्रबन्ध पर दिया जा सकता था। परीक्षकों में हिन्दी-साहित्य के वरेण्य, मूर्द्धन्य विद्वान थे, अतः इस प्रकार के सम्मति का विशिष्ट महत्त्व था।" यह शोध-प्रबन्ध था- ’तुलसी-साहित्य पर संस्कृत के अनार्ष प्रबन्धों की छाया’, जो सन् १९६४ में पटना विश्वविद्यालयको पी.एच.डी. के लिए प्रस्तुत किया गया था। प्रो. (डॉ.) रामतवक्या शर्माका हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि अनेक भाषाओंपर असाधारण अधिकार था। प्रतिपाद्य विषयको प्रमाणित करने हेतु उनके भगीरथ- प्रयत्नको देखकर आप अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते।
अब उपरोक्त विषयपर प्रो. (डॉ.) रामतवक्या शर्माका अभिमत उन्हींके शब्दोंमें उनके ही शोध-प्रबन्ध (पृ. ३८१)से साभार उद्धृत करता हूँ ---
"यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्॥ (अयोध्या: १०९.३४)
’जैसे चोर दण्डनीय होता है उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धमतावलम्बी) भी दण्डनीय है। तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिये। इसलिये प्रजा पर अनुग्रह करने के लिये राजा द्वारा जिस नास्तिक को दण्ड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान दण्ड दिलाया ही जाय; परन्तु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो- उससे वार्तालाप न करे।’
यह श्लोक रामायण में नहीं था; लाहौर, बंगाल (गोरेसियो), नेपाल, कश्मीर आदि संस्करणों में यह श्लोक नहीं मिलता; अतः स्पष्ट है कि किसी पाण्डुलिपिकार या विद्वान् ने यह श्लोक रामायण में बाद में जोड़ दिया और दुर्भाग्यवश गीता-प्रेस संस्करण में प्रकाशित होने के कारण यह अधिक प्रसिद्ध हो गया। किन्तु जिन क्षेत्रों में यह श्लोक जुड़ा, उन क्षेत्रों में भी इस श्लोक के विभिन्न रूप इस प्रकार हैं। यहाँ द्रष्टव्य है कि इतनी पाण्डुलिपियों में से केवल एक में बुद्ध शब्द का व्यवहार हुआ है। वह भी लुब्धः का भ्रमवशात् पाठ हो सकता है।
यथा हि चोरः स तथार्थलुब्धस्तथा वयं नास्तिकमुग्रबुद्धिं। तस्माद्धि यः शक्यतमः द्विजानां स नास्तिको योप्यसुखी बुधः स्यात्॥D2॥ स्थान-गुजरात, देवनागरीलिपि, काल-१७७३ ई.
यथा हि चोरः स तथार्थलुब्धस्तथागतं नास्तिकमत्रसिद्धं। न स्याद्धि तत्कांततरं प्रजानां स नास्तिको नास्ति सुखी बुधः स्यात्॥D4॥ स्थान-राजस्थान, देवनागरीलिपि, १८वीं शताब्दी
यथा हि चोरः स तथार्थलुब्धः दंड्यस्तथा नास्तिकयुक्तबुद्धिः। तस्मान्न कांतारतरं द्विजानां स नास्तिको नाप्यसुखी नरः स्यात्॥D5॥ स्थान-गुजरात, १८४८ ई.
यथा हि चोरः स तथार्थलुब्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। न स्याद्धि तत्कांततरं प्रजानां स नास्तिको नाथ सुखी बुधः स्यात्॥D7॥ स्थान-राजस्थान, १६४०ई.
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागता नास्तिकमंत्रसिद्धिः। तस्माद्धि या शक्यमतः प्रजानां स नास्तिकेनाभिमुखो बुधः स्यात्॥M4॥ मलयालम लिपि, १६वीं शताब्दी लगभग
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिकेनाभिमुखो बुधः स्यात्॥G2॥ ग्रन्थ लिपि, १४वीं शताब्दी
यथा हि चोरः स तथा हि लोकस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिकेनाभिमुखो बुधः स्यात्॥T1॥ तेलगु लिपि, १७वीं शताब्दी
यहाँ ध्यातव्य यह है कि D2, D4, D5 तथा D7 में लुब्धः पाठ ही है जो प्रमादवशात् बुद्धः हो गया होगा क्योंकि लुब्धः भी तो चोरवत् पापियों की श्रेणी में आता है (अतः दण्डनीय है), यथा-
यो लुब्धः पिशुनः क्रूरो दांभिको विषयात्मकः।।
सर्वतीर्थेष्वपि स्नातः पापो मलिन एव सः ।। स्क. पु. काशी खं.(४).६.३४ ।।
अर्थात् जो लोभी है, चुगलखोर है, क्रूर है, दम्भी है और विषयात्मक है वह सभी तीर्थोंमें स्नान करके भी पापी और मलिन ही रह जाता है।
अतः श्लोक हुआ -
"यथा हि चोरः स तथा हि लुब्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्॥




वाल्मीकि-रामायण में बुद्ध का वर्णन है 
और महाभारत में भी बुद्ध हैं 
महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन  इस प्रकार है। देखें👇
________________________________________
दानवांस्तु  वशेकृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागत:।
सर्गस्य  रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।

अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन:  बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध ।स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।

हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्‍छांस्तुरगवाहन:।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।

जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्‍छों का वध करेंगे उन कल्कि  रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।

( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।

बुद्धिज्म में अवतारवाद नही माना जाता है। गौतम बुद्ध से पहले भी 27 बौद्ध हुए थे उनके नाम कुछ इस प्रकार है

28 बुद्धों के नाम 
1 ) Tanhankara Buddha ( तण्हन्कर बुद्ध ) 
2 ) Medhankara Buddha ( मेधन्कर बुद्ध )
3 ) Sarankara Buddha ( सरणंकर बुद्ध ) 
4 ) Dipankara Buddha ( दीपंकर बुद्ध ) 
5 ) Kondanna Buddha ( कोण्डिन्य बुद्ध ) 
6 ) Mangala Buddha ( मङ्गल बुद्ध ) 
7 ) Sumana Buddha ( सुमन बुद्ध ) 
8 ) Revata Buddha ( रेवत बुद्ध ) 
9 ) Sobhita Buddha ( सोभित बुद्ध ) 
10 ) Anomadassi Buddha ( अनोमदस्सी बुद्ध ) 
11 ) Paduma Buddha ( पदुम बुद्ध ) 
12 ) Narada Buddha ( नारद बुद्ध ) 
13 ) Padumuttara Buddha ( पदमुत्तर बुद्ध ) 
14 ) Sumedha Buddha ( सुमेध बुद्ध ) 
15 ) Sujata Buddha ( सुजात बुद्ध ) 
16 ) Piyadassi Buddha ( पियदस्सी बुद्ध ) 
17 ) Atthadassi Buddha ( अत्थदस्सी बुद्ध ) ) 
18 ) Dhammadassi Buddha ( धम्मदस्सी बुद्ध ) 
19 ) Siddhattha Buddha ( सिद्धत्थ बुद्ध ) 
20 ) Tissa Buddha ( तिस्स बुद्ध ) 
21 ) Phussa Buddha ( फुस्स बुद्ध )
22 ) Vipassi Buddha ( विपस्सी बुद्ध ) 
23 ) Sikhi Buddha ( सिखी बुद्ध ) 
24 ) Vessabhu Buddha ( वेस्सभू बुद्ध ) 
25 ) Kakusandha Buddha(ककुसंध बुद्ध ) 
26 ) Konagamana Buddha ( कोणागमन बुद्ध ) 
27 ) Kassapa Buddha ( कस्सप बुद्ध ) ) 
28 ) Gotama Buddha ( गौतम बुद्ध )



भार्गवेंद्राय रामाय राघवाय पराय च ।।
कृष्णाय वेदकर्त्रे च बुद्धकल्किस्वरूपिणे ।। ६२-५४ ।।
श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे द्वितीयपादे बृहदुपाख्याने मोक्षधर्म्मनिरूपणं नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ।।

समाप्तश्चायं द्वितीयः पादः ।।

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