बुधवार, 13 मई 2020

भागवत धर्म इतिहास में...



 

 


 

 


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जब जैन-धर्म तथा बौद्ध-धर्म ह्रास के मार्ग पर बढ़ रहे थे तब दूसरी ओर इन्हीं के समानान्तरण भागवत धर्म भी वैदिक-धर्म की प्रतिक्रिया स्वरूप उदय हो रहा था । 

वैदिक-धर्म भी अपने पुनरुत्थान में लगा था।

 उसने गुप्त काल के प्रारम्भ में भागवत धर्म को अपना में आत्मसात् करने का प्रयास किया। 
ब्राह्मण-चिंतकों ने खर्चीले वैदिक-यज्ञों, जटिल-कर्मकाण्डों तथा लम्बे-अनुष्ठानों और वर्ण व्यवस्था से विखण्डित हुए भारतीय समाज को भक्ति पर अवलम्बित नवीन धर्म में आश्रय लेने के लिए प्रेरित किया जिसमें वेद-वर्णित देवताओं को बलि देने की बजाए उनकी पूजा एवं भक्ति पर जोर दिया गया। 

वह भी एकैश्वर वाद के रूप में वेद-वर्णित उन सूक्तों की ऋचाओं का संकलन और प्रतिपादन सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान एवं भक्तवत्सल परमात्मा के व्याख्यान में हुआ । 

एक ईश्वर के ही सभी देवताओं का भी स्वामी माना गया जो सम्पूर्ण सृष्टि का सर्जक, पालक एवं संहारक था। 

वह देवताओं का भी स्वामी था। 
उसकी भक्ति को धर्म एवं मोक्ष का साधन घोषित किया गया। परम्परागत रूप से प्रचलित आख्यानकों को रामायण एवं महाभारत नामक महाकाव्यों में समावेशित किया गया।

 इस नए धर्म का न केवल बीज-वपन हो चुका था अपितु यह भलीभांति पल्लवित भी हो चुका था। 
यही नवीन धर्म पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म के रूप में विशाल वटवृक्ष बन गया। 

इसी समय रामायण के मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा महाभारत के योगेश्वर कृष्ण को पौराणिक धर्म में वेद-वर्णित विष्णु के अवतार घोषित किया गया । 

विष्णु-देव की भी सुमेरियन बैबीलॉनियन मिथकों में वर्णित बिष-नु है ।
 यहूदियों के नवी वाद से अवतारवाद का प्रादुर्भाव हुआ । पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म का विकास समानान्तरण हुआ पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म का मुख्य आधार वेद-वर्णित गौण देवता विष्णु था । 

पुराणों में देवता विष्णु एवं उनके दस अवतार- मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि हैं।
 पहले तीन अवतार अर्थात् मत्स्य, कूर्म और वराह सतयुग में, नृसिंह, वामन, परशुराम और राम त्रेतायुग में तथा कृष्ण और बलराम द्वापरयुग में अवतरित हुए। 


कलियुग के लिए भविष्य में होने वाला कल्कि अवतार भी कल्पित किया गया। 
विष्णु एवं उनके अवतारों के साथ-साथ शिव, सूर्य, दुर्गा, गणेश एवं कर्तिकेय गौण देवता के रूप में भी भक्तों पर प्रसन्न होने वाले, उनके कष्ट हरने वाले, संकट के समय उनकी रक्षा करने वाले देवता घोषित किए गए।

 इन देवी-देवताओं के प्राकट्य, उनके विविध स्वरूपों, उनमें निहित शक्तियों एवं गुणों तथा उनकी लीलाओं पर आधारित कथाओं की रचना की गई। इन कथाओं को विभिन्न पुराणों में लिखा गया। इसलिए इसे 'पौराणिक धर्म' कहा गया। 

'पुराण' अपने पूर्ववर्ती वेदों, उपनिषदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों आदि से बिल्कुल अलग तथा पूरी तरह नवीन ग्रंथ थे किंतु इनके रचयिताओं ने इन्हें 'पुराण' कहकर पुकारा जिसका अर्थ होता है- 'पुराना।

 ' इन नवीन ग्रंथों को पुराना कहकर पुकारे जाने का मूल कारण यह था कि इन ग्रंथों के रचनाकार के प्रति जनसामान्य को यह संदेश नहीं देना चाहते थे कि उन्होंने किसी नवीन धर्म का प्रतिपादन अथवा निर्माण किया है, 

अपितु इन ग्रंथों के माध्यम से वे जनसामान्य को यह संदेश देना चाहते थे कि इन ग्रंथों में उन्हीं वेदविहित ईश्वर तथा देवी-देवताओं के स्वरूपों, गुणों एवं लीलाओं का वर्णन किया गया है जिनकी पूजा देव संस्कृति के अनुयायी अनादि काल से करते चले आए हैं। 

भगवान के 'सर्वशक्तिशाली', 'भक्त-वत्सल', 'संकट मोचक' एवं 'मोक्षदायक' स्वरूप ने जन-सामान्य को तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया।

 भगवान की कृपा में विश्वास रखने के कारण इस धर्म को 'भागवत् धर्म' कहा गया। 

चूंकि विष्णु इस धर्म के मुख्य उपास्य थे इसलिए इसे वैष्णव धर्म भी कहा गया।

 इस धर्म में विष्णु को सर्वशक्ति सम्पन्न तथा सर्वश्रेष्ठ देवता से भी आगे बढ़कर सर्वव्यापी भगवान माना गया।

 इस कारण उन्हें 'वासुदेव' कहा गया जिसका अर्थ है 'जो सब जगह व्याप्त' है तथा 'जिसमें सारे पदार्थ निवास करते हैं'।

 'परन्तु सत्य पूछा जाय तो वसुदेव में सन्तति वोधक अण् तद्धित प्रत्यय करने पर वासुदेव शब्द बनता है । 

जिसका अर्थ है वसुदेव का पुत्र कृष्ण। भागवत धर्म के प्रतिपादक-कृष्ण स्वयं थे ।

 वह 'ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य तथा तेज' नामक छः उत्तम गुणों से युक्त तथा हेय गुणों से रहित होने से भागवत ( भगवत् अण्) है। इस धर्म को नामान्तरण से 'सात्वत धर्म', 'पांचरात्र धर्म' तथा 'नारायणीय धर्म' तथा यादव धर्म भी कहा जाता है।

 कुछ विद्वानों का मानना है कि भागवत् धर्म, सात्वत धर्म, पांचरात्र धर्म तथा नारायणी धर्म उत्तर-पश्चिम भारत में अलग-अलग एवं स्वतंत्र रूप से प्रकट हुए थे। 
'परन्तु यह मात्र भ्रान्त धारणा है । 

भागवत,पाञ्चरात्र, और सात्वत धर्मों के देवी-देवता लगभग एक जैसे थे तथा भक्ति एवं ईश्वरीय कृपा ही इन धर्मों के मुख्य आधार थे,।
 इसलिए ये सब धर्म अपने-अपने देवी-देवताओं, धार्मिक मान्यताओं एवं उपासना विधियों को साथ लेकर वैष्णव धर्म में समाहित हो गए जो अपने पूर्ववर्ती धर्मों अर्थात् भागवत् धर्म, सात्वत धर्म, पांचरात्र धर्म तथा नारायणी धर्म से अधिक पुष्ट था।

 इस प्रकार वैष्णव धर्म का उदय किसी एक व्यक्ति द्वारा रची जाने वाली अथवा किसी एक निश्चित समय में घटित होने वाली घटना नहीं थी अपितु इसका विकास दीर्घकाल में तथा बहुत से गोप लोगों द्वारा किए गए प्रयासों का परिणाम था। 

वैदिक धर्म तथा पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) में अंतर

पों में विद्यमान रहा तथा उनका संशलिष्ट स्वरूप 'वैष्णव धर्म' के रूप में इसके बाद ही सामने आया। 

तीसरी शताब्दी ईस्वी में कुषाणों का उच्छेदन करने वाले भारशिव-नाग राजाओं ने हिन्दू-धर्म को राजधर्म बनाया।
 उसने दस अश्वमेध यज्ञ किए।

 भारशिव-नागों से तथा उनके बाद के गुप्त राजाओं का संरक्षण पाकर पौराणिक हिन्दू-धर्म का उत्कर्ष होने लगा और बौद्ध धर्म में क्षीणता आ गई।

(2) पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) का उत्कर्ष काल

ई.300 से ई.1200 तक लगभग 900 वर्षों का काल पौराणिक धर्म का उत्कर्ष काल माना गया है।

 इस काल का प्रारम्भ मगध में गुप्त सामाज्य की नींव पड़ने से होता है जो ई.495 तक अस्त्तिव में रहता है। राजनीतिक स्तर पर गुप्त वंश ही सच्चे अर्थों में पौराणिक धर्म का उन्नायक था।

 गुप्त शासकों के संरक्षण में वैष्णव धर्म की स्थापना राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी धूमधाम से हुई किंतु बौद्ध धर्म अपना अस्त्तिव बनाए रहा। चौथी शताब्दी ईस्वी से भारत में बौद्ध तथा जैन धर्मों की तुलना में पौराणिक हिन्दू-धर्म को प्रधानता मिलने लगी।

पांचवी शताब्दी ईस्वी के अंत में विदेशी हूण शक्ति ने गुप्त साम्राजय का विनाश किया किंतु हूण बौद्धों के परम-शत्रु सिद्ध हुए।

 उनके क्रूर प्रहारों से बौद्ध धर्म इतिहास के अस्ताचल में खिसक गया और पौराणिक धर्म को भलीभांति फलने-फूलने का अवसर प्राप्त हुआ। 

सातवीं शताब्दी ईस्वी में थाणेश्वर में पुष्भूति वंश का उदय हुआ जिसका सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हर्षवर्द्धन, सभी धर्मों को आदर देने वाला था किंतु उसने बौद्ध धर्म की पुनर्स्थापना के विशेष प्रयास किए।

हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत में राजपूत वंशों का उदय हुआ जिनका राज्य निरंतर होने वाले युद्धों पर टिका था। 

इसलिए राजपूत राजाओं ने बौद्ध एवं जैन-धर्म की बजाए पौराणिक धर्म को अपनाया जिसमें सर्वशक्तिमान, भक्तवत्सल एवं शत्रुविनाशक विष्णु, शिव एवं दुर्गा तथा उनके विविध अवतारों की पूजा होती थी।

 राजपूत राज्य 12वीं शताब्दी के अंत तक अपना स्वतंत्र अस्त्तिव बनाए रहे किंतु जब दिल्ली में मुस्लिम सल्तनत की स्थापना हुई तो पौराणिक धर्म की प्रगति अवरुद्ध हो गई।

दिल्ली के मुस्लिम सुल्तानों ने हजारों मंदिरों एवं मूर्तियों को तोड़ डाला, हिन्दू ग्रंथों को नष्ट कर दिया और लाखों हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसमलमान बनाया। 

फिर भी पौराणिक धर्म, बौद्ध धर्म की तरह नष्ट नहीं हुआ। वह भक्तवत्सल भगवान की शरण में जीवन जीने की शक्ति प्राप्त करता रहा।

 पौराणिक धर्म आज भी पूरे उत्साह के साथ जीवित है और भारत की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या इस धर्म का पालन करती है।

 12 वीं शताब्दी के अन्त तक पौराणिक धर्म के दोनों प्रतिद्वंद्वी समाप्त हो गए। बौद्ध धर्म का तो भारत में नामलेवा तक नहीं बचा और जैन-धर्म का प्रभाव नगण्य रह गया।


पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म के मूल तत्त्व

विष्णु

पुराणों का वैचारिक आधार विष्णु की भक्ति एवं उपासना पर अवलम्बित है।

 विष्णु को हरि, वासुदेव, नारायण, दामोदर आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। 

उसी को ईश्वर एवं परम-पिता-परमात्मा आदि रूपों में जाना जाता है। वह 'अच्युत' है अर्थात् उसका कभी पतन नहीं होता।

 वेदों और उपनिषदों में विष्णु की उपासना का उल्लेख कई स्थलों पर हुआ है। ऋग्वेद में विष्णु को सूर्य का रूप माना गया है तथा 'निरुक्त' में बताया गया है कि सूर्य का नाम ही विष्णु है।

ऋग्वेद में वर्णित 'त्रिविक्रम की कथा' में विष्णु को समस्त विश्व की रक्षा करने वाला माना गया है। विष्णु के इन तीन विस्तीर्ण पदन्यासों ने समस्त लोकों को माप लिया। इनमें से दो चरण ही मनुष्य देख या प्राप्त कर पाते हैं किंतु तृतीय चरण पक्षियों की उड़ान से भी परे है। उसका कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता। विष्णु इन्द्र के सखा हैं तथा उसकी सहायता करते हैं। ऋग्वेद में विष्णु का जगत् के नियामक के रूप में वर्णन है। विष्णु के परमपद में मधु का उत्स है जहाँ देवताओं के इच्छुक मनुष्य आनंद करते हैं।

ऋग्वेद में विष्णु को इतना महत्व दिए जाने के उपरांत भी वहाँ विष्णु मध्यम श्रेणी के देवता हैं तथा इन्द्र से निम्न हैं। ब्राह्मण ग्रंथों के रचना काल में विष्णु की स्थिति ऋग्वेद काल की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण दिखाई देती है। विष्णु इस युग में भी यज्ञ से ही सम्बद्ध हैं, भक्ति से नहीं। वरुण के साथ मिलकर विष्णु यज्ञ की रक्षा किया करते हैं किंतु ब्राह्मण युग में विष्णु के तृतीय चरण अथवा परम पद के प्रति सम्मान भावना ने विष्णु के महत्वोत्कर्ष में सर्वाधिक योगदान दिया।

ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता के रूप में प्राप्त होता है। शतपथ ब्राह्मण में एक कथा प्राप्त होती है जिसमें देवताओं ने तेज, ऐश्वर्य एवं अन्न प्राप्ति के लिए किए गए यज्ञ में यह प्रस्ताव किया कि देवों में जो अपने कर्म से यज्ञ के अंत को सर्वप्रथम प्राप्त कर ले, वह सर्वोच्च पद प्राप्त करे। विष्णु ने यज्ञ का अंत सर्वप्रथम प्राप्त कर लिया। अतः विष्णु को देवों में श्रेष्ठ माना गया। शतपथ ब्राह्मण से ही वामन विष्णु की कथा भी प्राप्त होती है जिसमें विष्णु को अद्भुत शक्तियों से सम्पन्न कर दिया गया है।

आरण्यक तथा उपनिषद् काल में विष्णु का महत्व ब्राह्मण ग्रंथों के रचना काल की अपेक्षा बढ़ गया। 'तैत्तिरीय आरण्यक' में यज्ञान्त प्राप्त करने के कारण श्रेष्ठता प्राप्त विष्णु की कथा शतपथ ब्राह्मण की ही भांति प्राप्त होती है। 'मैत्री उपनिषद' में अन्न को जगत के धारक विष्णु का स्वरूप कहा गया है। कठोपनिषद में स्पष्ट उल्लिखित है कि विवेकयुक्त बुद्धि सारथि से युक्त तथा मन पर नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति संसार मार्ग से पार होकर विष्णु के परमपद को प्राप्त होता है।

महाकाव्यों एवं पुराणों के समय तक आते-आते विष्णु परमात्मा के पद पर प्रतिष्ठित हो गए। महाकाव्य काल में इन्द्र केवल देवराज रह गए जिनका सिंहासन विष्णु की कृपा से ही सुरक्षित रहता था। वेद में विष्णु का सूर्य से जो सम्बन्ध था वह परवर्ती युग में भी बना रहा। विभिन्न पुराणों में आदित्यों के नाम की अलग-अलग सूचियां मिलती हैं किंतु विष्णु नाम सब सूचियों में है। वैष्णव चक्र भी विष्णु का सूर्य से ही सम्बन्ध सूचित करता है। ऐसे परम पद प्राप्त विष्णु से वासुदेव का तादात्म्य हुआ।

महाभारत वासुदेव कृष्ण तथा विष्णु के एकत्व का प्रतिपादन करता है। भीष्म पर्व के 65 एवं 66 वें अध्याय में परमात्मा को नारायण एवं विष्या तथा वासुदेव कहा गया है। शांति पर्व के 43वें अध्याय में युधिष्ठिर कृष्ण की स्तुति करते हुए उन्हें विष्णु कहते हैं। भगवद्गीता में कृष्ण अपना विराट रूप दिखाते हैं। आश्वमेधिक पर्व के 53 से 55 वें अध्याय में उत्तंक ऋषि की प्रार्थना पर कृष्ण उन्हें अध्यात्म ज्ञान की शिक्षा देते हुए पुनः अपने विराट् स्वरूप का दर्शन करवाते हैं किंतु यहाँ उन्हें विष्णु रूप कहा गया है।

नारायण

पौराणिक धर्म में नारायण-विष्णु तथा उनके विशिष्ट अवतारों की उपासना एवं भक्ति प्रमुख है। महाकाव्य एवं पुराण गंथों में नारायण तथा विष्णु में कोई भेद नहीं है किंतु पुराण-धर्म के आदि स्वरूप में विष्णु की अपेक्षा नारायण की प्रमुखता थी। महाभारत में भी उपास्य देव को प्रायः नारायण नाम से पुकारा गया है। विष्णु नाम अपेक्षाकृत बहुत कम है। विष्णु एवं नारायण के तादात्म्य का प्रारम्भिक संकेत बोधायन धर्मसूत्र से प्राप्त होता है। मनुस्मृति के अनुसार 'नाराः' का अर्थ है जल और परमात्मा का प्रथम निवास जल है।

इस कारण 'परमात्मा' नारायण कहे जाते हैं। नारायण नाम का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में हुआ है। इसके अनुसार नारायण ने क्रमशः प्रातः मध्याह्न तथा सायंकाल के समय आहुतियों के द्वारा वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों को यज्ञस्थल से हटा दिया। प्रजापति ने उनसे पुनः यज्ञ करने को कहा। इस प्रकार नारायण ने यज्ञ के द्वारा समस्त लोकों, समस्त देवों, समस्त वेदों तथा सभी प्राणों में स्वयं को प्रतिष्ठित किया और उन सभी को स्वयं में प्रतिष्ठित कर लिया।

शतपथ ब्राह्मण के ही द्वितीय उल्लेख के अनुसार पुरुष नारायण के द्वारा पांचरात्र सत्र किया गया जिस सत्र के कर लेने से पुरुष नारायण को समस्त भूतों पर सर्वश्रेष्ठता प्राप्त हो गई 

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आरण्यक में नारायण का वर्णन परमात्मा के उन समस्त विशेषणों के द्वारा किया गया जो सामान्यतः उपनिषदों में मिलते हैं। महाभारत में अनेक कथाओं में नारायण का वर्णन है तथा उनका तादात्म्य वासुदेव के साथ किया गया है।

नारायणीय के प्रथम अध्याय में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं कि भगवान् नारायण सम्पूर्ण जगत् के आत्मा, चतुर्मूर्ति और सनातन देव हैं। वे ही धर्म के पुत्र रूप में प्रगट हुए थे। स्वायंभू मन्वन्तर के सत्य युग में उनके चार स्वयंभू अवतार हुए थे जिनके नाम हैं- 'नर, नारायण, हरि एवं कृष्ण। इनमें से अविनाशी नर और नारायण ने बदरिकाश्रम में घोर तपस्या की।' पुराणों में सृष्टि रचना के प्रसंग में नारायण का वर्णन परमेश्वर के रूप में हुआ है।

वासुदेव

पुराण-धर्म में वासुदेव नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। सात्वत गोत्रीय 'कृष्ण' वसुदेव के पुत्र होने के कारण वासुदेव कृष्ण कहलाए। ईस्वी सन् से पूर्व की अनेक रचनाओं- घट जातक, महाभाष्य तथा कतिपय शिलालेखों में इन्हीं वासुदेव कृष्ण का परम देव के रूप में वर्णन किया गया है जो संकर्षण बलराम के भाई थे किंतु अनेक इतिहास लेखकों ने वसुदेव के पुत्र वासुदेव (कृष्ण) से पूर्ववर्ती एक और वासुदेव की सत्ता स्वीकार की है। वासुदेव कृष्ण से पूर्व एक और दिव्य वासुदेव अवश्य हुए हैं।

यह नाम किसी देवता का भी हो सकता है। विष्णु-पुराण ने देवता वासुदेव तथा देवकी पुत्र वासुदेव कृष्ण को भिन्न-भिन्न प्रतिपादित किया है कि भगवान् वासुदेव का एक अंश दो भागों में विभक्त होकर कृष्ण और बलराम में स्थापित हुआ। महाभारत के वनपर्व में पौण्ड्रक शाल्व नरेश की कथा है जो स्वयं को वास्तविक वासुदेव घोषित करता है। इस शाल्व राजा को कृष्ण ने युद्ध में मार डाला था। यह कथा स्पष्ट संकेत करती है कि कृष्ण से पूर्व भी वासुदेव की पूजा प्रचलित थी किंतु बाद में ये दोनों वासुदेव एक हो गए।

कृष्ण

वसुदेव-देवकी के पुत्र कृष्ण का व्यक्तित्व ऐतिहासिक है किंतु कृष्ण के समय का सही-सही निर्धारण कर पाना कठिन है। कृष्ण के जीवनचरित को जानने के लिए छान्दोग्य उपनिषद्, पतंजलि का महाभाष्य, बौद्ध एवं जैन आख्यान, महाभारत तथा विभिन्न पुराणों का सहारा लिया जाता है। ये सभी स्रोत अलग-अलग समय के हैं तथा इनमें शताब्दियों का अंतराल मौजूद है। इसलिए इनमें दिए गए कृष्ण सम्बन्धी वृत्तांतों में पर्याप्त अंतर है।

ऋग्वेद के एक उल्लेख के अनुसार इन्द्र ने अंशुमती नदी के तट पर कृष्ण नामक एक अनार्य प्रमुख का संहार किया था। पुरात्तवविदों के अनुसार यह अंशुमती कोई और नदी नहीं अपितु यमुना ही है। छांदोग्य उपनिषद में कृष्ण को देवकी का पुत्र बताया गया है जिसने घोर अंगरिस से शिक्षा ग्रहण की थी। दूसरे स्रोतों से अनुमान होता है कि गीता का उपदेश इसी कृष्ण ने किया था। पतंजलि के महाभाष्य में कृष्ण देवता के रूप में उल्लिखित हैं। बौद्ध ग्रंथ 'घट-जातक' से वासुदेव-कृष्ण के जन्म की कथा उपलब्ध होती है।

उसके अनुसार वासुदेव-कृष्ण तथा उसके भाई बलदेव, 'कंसभगिनी देवगब्भा' तथा उसके पति 'उपसागर' के पुत्र थे। उन्हें पालन-पोषण के लिए 'अंधकवेण्हु' नामक पुरुष और 'नंदगोपा' नामक उसकी पत्नी को सौंप दिया गया था जो कि देवगब्भा की दासी थी। जैनियों के 'उत्तराध्ययन सूत्र' में वासुदेव को 'केशव' कहा गया है। जैनों के बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि अथवा नेमिनाथ के समकालीन रूप में उनके तिरेसठ शलाका पुरुषों में केशव (वासुदेव) भी वर्णित हैं।

केशव के माता-पिता वसुदेव एवं देवकी थे। वर्तमान काल में कृष्ण का प्रचलित चरित महाभारत, हरिवंश, श्रीमद्भागवत् तथा अन्य पुराणों के आधार पर विकसित एक मिश्रित रूप है। भिन्न-भिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न युगों में कृष्ण के साथ गोपिकाओं, राधा, असुर संहार आदि की कथाएं जुड़ती चली गईं। विष्णु-नारायण-वासुदेव के साथ कृष्ण की एकरूपता सिद्ध होने में स्वभावतः ही उन देवों के गुणों तथा विशेषताओं को आरोपित कर दिया गया। वेद में विष्णु के साथ गायों का सम्बन्ध था।

विष्णु के परम पद में 'भूरिश्ृंगा गावः' स्थिति थी। कृष्ण के साथ भी गायों का घनिष्ट सम्बन्ध पौराणिक परम्परा में स्थापित हुआ। कृष्ण का परम लोक 'गोलोक' कहलाता है। बोधायन धर्मसूत्र में आए हुए गोविन्द तथा दामोदर नाम कृष्ण के साथ जुड़कर भिन्न अर्थ प्रकट करने लगे।

भक्ति

यद्यपि 'भक्ति' एक ऐसा तत्त्व है जिसने पुराणों को वेदों से अलग किया तथापि भक्ति का बीजारोपण वेदों में ही होता हुआ दिखाई देता है। 
वैदिक विष्णु का सम्बन्ध सर्वत्र 'यज्ञ' से है किंतु पौराणिक विष्णु का सम्बन्ध 'भक्ति' से है। वैदिक युग में राजा बसु द्वारा यज्ञों में पशुबलि का विरोध करने तथा 'हरि' की उपासना पर बल देने से भक्ति-प्रधान धर्म का बीजारोपण हो गया। 
उपनिषदों में भी भक्ति करने तथा ईश्वर के शरणागत होने के भाव है।


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