इस ज्ञान पर भक्तों क्यों नहीं बोलते हो
पण्डित जी बलात्कार करने के बाद भी पूजनीय हैं।
दुःशीलोऽपि द्विजः पूज्यो न तु शूद्रो जितेन्द्रियः ।
कः परित्यज्य गां दुष्टां दुहेच्छीलवतीं खरीं ।८.२५।
धर्मशास्त्ररथारूढा वेदखड्गधरा द्विजाः।
क्रीडार्थं अपि यद्ब्रूयुः स धर्मः परमः स्मृतः। ८.२६।
पाराशर स्मृति आठवाँ अध्याय
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ब्राह्मणस्य द्विजस्य वा भार्या शूद्रा धर्म्मार्थे न भवेत् क्वचित्।
रत्यर्थ नैव सा यस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिता ।।
(विष्णु- स्मृति) ___________________________________________
अर्थात् ब्राह्मण के लिए शूद्रा स्त्री धर्म कार्य के लिए नही अपितु वासना तृप्ति के लिए होनी चाहिए अत: शूद्रा का ब्राह्मण काम-तृप्ति ( Sensuality )के लिए इस्तेमाल करे उसे वास्तविक पत्नी 'न बनाऐ ऐसा ब्राह्मणों के स्मृति ग्रन्थों में वर्णित है ।
क्या यही भारतीय ब्राह्मणों की सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रारूप था?
यदि ऐसा था तो यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है।
इससे बड़ी लज्जास्पद कोई और बात नहीं । ____________________________________________
महिलाओं की सामाजिक स्थिति स्मृति काल में कैसी थी ? इसका अन्दाजा हम इस श्लोक से लगा सकते हैं।👇
बाल्ययौवनवार्द्धकेष्वपि पितृभर्तपुत्राधीनता।
मृते भर्त्तरि ब्रह्म चर्य्य तदनवारोहणं वा। _________________________
अर्थात् बालकपन , यौवन और वृद्धा अवस्था में भी पिता, भर्ता और पुत्रों की अधीनता में रहना स्त्रियों का धर्म है।
अन्त में अपने पति के मर जाने पर विधवा ब्रह्म चर्य्य का पूर्ण पालन करे अथवा पति की चिता पर आरोहण कर उसके साथ जल जाऐं यही स्त्रियों का परम धर्म है। (विष्णु-स्मृति) ____________________________________
विचारणीय तथ्य यह है कि क्या महिलाओं के प्रति यह व्यवहार आज भी प्रासंगिक है ?
और सत्य का मानक शाश्वतता है । जो सर्वत्र और सार्वकालिक है वही सत्य है ।
अतएव स्वार्थ प्रवृत्ति मे निमग्न पुरोहितों के ये विधान सत्य नहीं है
एक षड्यन्त्र तहत महिलाओं के धर्म की जंजीरों में बाँधा गया ।
सत्य पूछा जाए तो महिलाओं का शैक्षिक अधिकारों का हनन उनको गुलाम बनाने लिए काफी था ।
सामाजिक और धार्मिक विधानों के परिधानों में स्त्रियों को सुसज्जित करने वाले पुरुषों 'ने स्त्रीयों के धर्म या कर्तव्य अधिक और स्वतन्त्रता या अधिकार 'न के बराबर दिए !
और खुद के लिए अधिकारों का बाहुल्य तथा कर्तव्य कम निर्धारित किए।
-स्मृतियों की रचना पुराणों के बाद हुई जैसा कि
(शान्तातप स्मृति )में वर्णन है कि 👇
"ब्राह्मणोद्वाहनञ्चैव कर्तव्यं तेन शुद्धये।
श्रवणं हरिवशंस्य कर्त्तव्यञ्च यथाविधि।।61।
इस पाप से छुटकारा पाने के लिए किसी ब्राह्मण का उद्वाहन करना चाहिए और विधि पूर्वक हरिवंश पुराण का श्रवण करना चाहिए।61।
विदित हो की हरिवंशपुराण महाभारत का खिल-भाग है।
इस पुराणों में वसुदेव और नन्द को गोप अथवा अहीर कहा गया है ।
परन्तु विचारणीय तथ्य यह भी है कि जो गोप या आभीर नारायणी सेना के यौद्धाओं में शुमार थे ।
वे स्मृति कारों' ने शूद्र कैसे बनाये ? नरेन्द्र सेन आभीर या गोप की कन्या वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री शूद्र क्यों नहीं हुई ?
... क्योंकि पाराशर स्मृति ,सम्वर्त स्मृति तथा मनुस्मृति आदि में गोप ,गोपाल और आभीरों को वर्ण संकर Hybrid के रूप में वर्णित करना परवर्ती पुरोहितों की मक्कारी और धूर्तता नहीं है ?
अवश्य यह मक्कारी और धूर्तता आज भी रूढ़िवादीयों अन्धविश्वाशी जनता को मान्य है ।
जिन्हें यादव समाज कभी क्षमा नहीं करेगा !
नारायणी सेना के यौद्धाओं का वर्णन कहीं गोप रूप में है ;तो कहीं यादव और कहीं आभीर जैसे महाभारत के मूसल पर्व अष्टम अध्याय श्लोकांश 47 में आभीर के रूप में है ।
तो भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय के श्लोक संख्या 20 में गोप रूप में !
विदित हो कि नारायणी सेना के गोपों ने अर्जुन को सेना सहित पंजाब (पञ्चनद प्रदेश) में परास्त कर दिया था ।
अर्जुन को केवल नारायणी सेना के गोप यौद्धा ही उसे समय परास्त कर सकते थे ।
और किसी की सामर्थ्य कहाँ थी ।
अर्जुन के पूर्वज कौरव पाण्डव पुरवंशी थे विदित हो की पुरु यदु का भाई था ?
नारायणी सेना के यौद्धाओं द्वारा अर्जुन को परास्त करने की बात महाभारत में है ।
महाभारत के मूसलपर्व अष्टम अध्याय के श्लोक 47 में आभीर रूप में तो है ही । '
परन्तु परवर्ती रूपान्तरण होने से प्रस्तुति-करण गलत है क्योंकि कि द्वेषवादी पुरोहितों 'ने अर्जुन द्वारा सुभद्रा अपहरण और दुर्योधन की पक्षधर नारायणी सेना के यौद्धाओं और अर्जुन की प्राचीन शत्रुता के मूलकारण वाले प्रकरण को तिरोहित (गायब) ही कर दिया
और यदुवंशी तथा अहीर या गोपों को अलग दिखाने की कोशिश की है ।
-स्मृतियों के काल में यह ज्यादा ही हुई ।
गोपों ने ही पंजाब प्रदेश में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था वे ही गोप ,अहीर नामान्तरण से भी थे ।
अर्जुन से नारायणी सेना के यौद्धाओं की शत्रुता के एक नहीं अपितु कई समन्वित कारण थे ।
ये तो महाभारत और अन्य पुराणों में ध्वनित होता ही है
एक घटना अर्जुन द्वारा अपने सगे मामा की लड़की- अर्थात् ममेरी बहिन सुभद्रा का काम-मोहित होकर कपट पूर्वक अपहरण करना था ।
अर्जुन का उस काल में यह सबसे बड़ा व्यभिचार पूर्ण कार्य था ।
मातुल (मामा)वैसे भी माँ के तुल(समान) पालन करने वाला होने से ही मातुल संज्ञा का अधिकारी हुआ।
और मामा की पुत्री बहिन ही है ।
और अर्जुन' का अपने मामा वसुदेव की पुत्री सुभद्रा का अपहरण कर उसके साथ विवाह करना यह कारनामा कभी नैतिक मर्यादाओं में समाहित नहीं था ।
क्यों स्मृतियों मे भी वर्णन है कि मामा की सात पुश्तों में ही वैवाहिक सम्बन्ध सम्भव हैं ।
'परन्तु जिसे अर्जुन बहन मानता हो और उसे ही कामुक होकर अपहरण कर ले ।
तो यह बात कभी भी धर्म संगत नहीं ।
(मा तुल)– माँ के तुल्य संस्कृत भाषा में मातुल शब्द की व्युत्पत्ति – मातुर्भ्राता मातृ--डुलच् । १ मातुर्भ्रातरि अमरःकोश २ तत्पत्न्यां वा ङीष् वा आनुक् च । मातुलानी मातुली मातुला च ।
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मद मूलक धतूरे की व्युत्पत्ति में
मद् उन्मत्ते मद--णिच्--उलच् पृषो० दस्य तः ।
(माद् उलच् )३ धुस्तूरे ४ व्रीहिभेदे ५ मदनवृक्षे च मेदिनीकोश ।
६ सर्पभेदे हेमचन्द्र-कोश ।
विदित हो कि अर्जुन ऐसी कई नैतिक गलतीयाँ कर चुका था । शास्त्रों में ये विधान भी थे ।👇
"मातुलानीं सनाभिञ्च मातुलस्यात्मजां स्नुषाम् ।
एता गत्वा स्त्रियो मोहान् पराकेश विशुध्यति ।।157।
(सम्वर्त स्मृति )
मामी ,सनाभि ,मामा की पुत्री अथवा उसकी पुत्र वधू इनके साथ जो व्यक्ति लुब्ध या मोहित होकर मैथुन करता है तो वह पराक नामक प्रायश्चित से शुद्ध होता है यह महापाप है ।
शास्त्रों में ये प्रायश्चित विधान सामाजिक व्यवस्थाओं के उन्नयन के लिए नैतिक रूप से बनाये गये थे ।
ताकि समाज पापोन्मुख न हो । आपको ये भी याद होगा की अर्जुन 'ने अपने मामा वसुदेव की कन्या और अपनी ममेरी बहिन सुभद्रा का अपहरण काम मोहित होकर ही किया था ।
उसकी नैतिकता और धर्म मर्यादाओं का नाश हो गया था इसीलिउसने अपनी ममेरी बहिन के साथ ये हरकत कर डाली वह भी कपटपूर्वक नारायणी सेना के यौद्धाओं अर्थात् अहीरों या गोपों'ने अर्जुन को पंजाब प्रदेश में तब और बुरी तरह परास्त कर दिया था ।
जब वह कृष्ण के कुल की यदुवंशी स्त्रीयो गोपियों को अपने ही साथ इन्द्र -प्रस्थ ले जा रहा था ।
इसी कहीं गोप तो कहीं अहीर शब्दों के द्वारा अर्जुन को परास्त करने वाला बताया गया पुराणों में ।
हम आपको वे श्लोक भी दिखाते हैं ____________________________________
और प्राय: इसलिए भ्रान्त चित कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने वाले महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से यह प्रक्षिप्त (नकली)श्लोक उद्धृत करते हैं ।
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" ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।
अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले !अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७।
अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है । इसे देखें--- _______________________________________________
"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन । सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया । और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! ( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें--- महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है।
अब भी कोई सन्देह की गुँजाइश है ।
कि अहीर और गोप अलग अलग हैं ।
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर:
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)
अत: साक्ष्य अहीरों के पक्ष में ही अधिक हैं यदुवंशी होने के और सम्पूर्ण भारत में अहीर ही यादव या गोपं के रूप में मान्य हैं ।
यद्यपि ये लोग चरावाहों की परम्पराओं का निर्वहन यदु को द्वारा स्थापित होने से करते थे ।
क्यों कि यदु ने कभी भी राज्य स्वीकार नहीं किया ।
वे गोप थे और हमेशा गायों से घिरे रहते थे ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें सूक्त की दशवीं ऋचा में देखें-- " उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।।ऋ०10/62/10 ।
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हरिवंशपुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 11 श्लोक 56 में कृष्ण स्वयं कहते
हैं कि यदुवंशी गोप में मैं जन्म लिया है ।
एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।58।।
__________________________
इसलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और मैंने गोपों में जन्म लिया ताकि इस संसार में कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्माओं का दमन कर सकूँ ।।58।।
_______________________
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ ।
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोअध्याय:।
वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।
हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है ।
पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति
भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त
ब्रह्मवाक्यं ।।५१।
शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं)
संस्कृत कोश के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन कुल के विषय में वर्णन है ।👇
यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।
यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः ।
इतिमेदिनी कोष:)
परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्ता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।
और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।
जैसे अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।
'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि - गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍
अभीर:- अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । गोपे जातिवाचकादन्तशब्दत्वेन ततः स्त्रियां ङीप् ।
आभीर :-समन्तात् भियं राति रा--क । गोपे सङ्कीर्ण्ण जातिभेदे स हि अल्पभोतिहेतोरप्यधिकं बिभेतीतितस्य तथात्वम्
और महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; एेसा वर्णन है ।
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहाँ कहा है ?
______________________
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।२७।
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
अनुवादित रूप :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा
।२१।
कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर उन गायों का अपहरण किया ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं
२४-२७।(उद्धृत सन्दर्भ --)
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है ।
____________________
गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) के घर में क्यों हुए ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय
पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)।
दरअसल नारायणी सेना के गोप यदुवंशी यौद्धा ही थे सुभद्रा हरण ' 'ने यदुवंशी गोपों को अर्जुन का घोर शत्रुओं बना दिया था इन्हीं गोपो नें पंजाब में अर्जुन को बुरी तरह परास्त कर दिया था।
यद्यपि गोप आभीर और यादव समानान्तरण अर्थ में प्रयुक्त हैं । केवल कुछ शातिर व धूर्त पुरोहितों 'ने द्वेष वश आभीर के स्थान पर गोप लिखा और फिर गोप को केवल यादव लिखा । और आज अहीरों, गोप और यादवों को अलग- अलग बताने की कोशिश में हैं ।
अहीर शब्द तो पुराणों में से लगभग यादवों का प्रत्यक्ष रूप से विशेषण नही रहने दिया । स्मृतियों में द्वेष वश तत्कालीन पुरोहितों'ने गोपों या कीं अहीरों को वर्ण संकर (Hybrid) या शूद्र कहकर भी वर्णित किया है ।👇
इसी काण कालान्तरण में ब्राह्मण धर्म पतित होने लगा अहीरों 'ने भागवत धर्म की स्थापना की गुर्जर ,जाट, अहीर और अन्य कृषि मूलक जन-जातियों की सरला और शान्ति प्रियता से अनुचित लाभ लेने की कोशिश में तत्कालीन पुरोहितों ने इनका इतिहास भी हीनता से प्रेरित होकर हीनता पूर्ण तरीके से लिखा उसका परिणाम यह हुआ कि ये जनजातियाँ कहीं मुसलमान तो कहीं कहीं बौद्ध और कहीं सिख और जैन या ईसाइयों के मिशन में भी समाहित हो गयीं ।
पुरोहितों ने इन्हेंं हीनता पूर्वक शूद्र वर्ण में समामिल करने की कोशिश की 'परन्तु ये विद्रोही या बागी लोग अपने अधिकारों के लिए दस्यु या डकैट तक हम गये 'परन्तु ब्राह्मणों की चाटुकारिता या गुलामी इन सनातन यौद्धाओं को कभी रास नहीं आयी आज भी ये जनजातियाँ हिन्दुस्तान , पाकिस्तान अफगानिस्तान तथा मध्य एशिया में कजर, गेटे और अवर या अहीर रूप में बड़ी सरफऱोश हैं ।
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प्रस्तुति-करण :-
यादव योगेश कुमार 'रोहि'
8077160219
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