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इतिहास अपने आप को पुनः दोहराता है।
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महान होने वाले ही सभी ख़य्याम नहीं होते ।
उनकी महानता के 'रोहि' इनाम नहीं होते ।
फर्क नहीं पढ़ता उनकी शख्सियत में कुछ भी ,
ग़मों में सम्हल जाते हैं जो कभी नाकाम नहीं होते।।
बड़ी सिद्दत से संजोया है ठोकरों के अनुभवों को ,
अनुभवों से प्रमाणित ज्ञान के कोई दाम नहीं होते ।।
आने वाली अगली पीढी़याँ उन्हें ज़ेहन में संजोती हैं ।
याद करती हैं उन्हें मुशीबतों में उन्हीं के लिए रोती हैं।।
जो समाज की हीनता मिटाकर उनके स्वाभिमान के लिए कुछ खा़स और नया उपक्रम करते हैं ।
सारी दुनियाँ सब सोती हैं वे रात तक श्रम करते हैं ।
भारतीय समाज की यह सदीयों पुरानी विडम्बना ही रही कि धर्म ठेकेदार कुछ रूढ़िवादी पुरोहितों ने धर्म के नाम पर कुछ प्रवञ्चनाऐं समाज पर आरोपित कीं ...
अहीरों के इतिहास के साथ भी यही हुआ ।
यदि किसी पर शासन करना है तो उनके अन्तर में हीनता भर दो और उसे अज्ञान-तिमिर मेंं रहने देना काफी है।
यद्यपि हीनता और अज्ञानता सम्पूरक सत्ताऐं ।
यादवों का इतिहास कुछ तथाकथित चारण पुरोहितों द्वारा हीनता से सम्बद्ध करके लिखा गया ।
उनके दोगले विधान और नियम षड्यंत्रों की विसात थे ।
उन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वीयों को हमेशा हेय और शूद्र रूप में मान्य किया ।
और सत्य भी है दुश्मन अपने दुश्मन के गुणों में भी दोष ही देखता है गुण उसे दिखाई देते ही नहीं ;
विरोध के लिए विरोध उनका चलता ही रहता है ।
वर्तमान में यादव शक्ति पत्रिका के लेखक भी आँखें बन्द करके लकीर के फकीर बनकर ऐसा लेखन कार्य कर रहे हैं जो पुरोहितों ने यादवों के लिए लिख कर किया था |
उन्हें शूद्र और -नीच घोषित करना ।
यद्यपि वैदिक ब्राह्मणों ने स्वीकार किया " गावो विश्वस्य मातर:" गाय विश्व की माता है ।
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दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥
मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुख:
(महाभारत अनुशासन पर्व:- 69.7)
अर्थात् 'गौएँ सभी प्राणियों की माता कहलाती हैं।
वे सभी को सुख देने वाली हैं।'
और कृषि और गोपालन करने का कार्य सदा ही राजाओं ने किया एवं ऋषियों - ब्राह्मणों ने भी गोपालन किया है |
लेकिन पुरोहितों उन्हें दास अथवा शूद्र नहीं लिखा | यद्यपि कृषि एवं गोपालन वैश्य कर्म ग्रन्थों में लिखा गया है |
लेकिन यह कर्म वैश्यों द्वारा कभी करता हुआ आज तक नहीं देखा गया है |
वैश्य या वणिक केवल वस्तुओं की खरीद-फरोख्त का व्यापार ही करते हैं ।
कृषि और चरावाहों की वृत्ति परस्पर सम्बद्ध हैं ।
क्यों कि चरावाहों से ही कालान्तरण में कृषि संस्कृति का विकास हुआ ।
विदित हो कि यूनानी मिथकों में युद्ध का देवता अरीज् (अरि) माना गया है ।
यह अरीज् वेदों में अरि: और सैमेटिक तथा सुमेरियन संस्कृति में "एल" देवता के रूप में है ।
अत: अरि से सम्बद्ध होने से आर्य्य का अर्थ वीर अथवा यौद्धा ही है ।
ब्राह्मण युद्ध नही कर सकते थे वे केवल राजाओं की धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करते थे ।
इसलिए वे आर्य्य नही कहे जा सकते हैं ।
यद्यपि गोपालन वृत्ति यादवों के पूर्वजों से आगात है ।
संस्कृतियाँ सदैव से रूढ़ियों के पथ पर अग्रसर होती रहीं हैं ।
केवल कृषि और गोपालन वृत्ति या पशु पालन करने से ही किसी को वैश्य या शूद्र घोषित कर देना ।
केवल द्वेष और जहालत है ।
आज के दौर में देखा जाये तो कृषि और गोपलन ब्राह्मण, क्षत्रिय सभी कर रहे हैं |
इस आधार पर सभी वैश्य माने जायेंगे | किन्तु ऐसा नहीं है |
जातियाँ जन्म आधारित हैं जो वर्ण व्यवस्था के रूप में
ग्रन्थों में विधान बद्ध हैं ।
अतः समाज की हीनता मिटाकर उनके स्वाभिमान के लिए सत्य के प्रस्तुति-करण की यह पहल हम सबको करनी चाहिए ।
वर्ण व्यवस्था को यादवों ने कभी स्वीकार नहीं किया ।
और इसी लिए एक नये "भागवत धर्म" को जन्म दिया !
क्यों की जब यदु को ही वेदों में दास कहा है ।
तो क्या होता ?
लौकिक ग्रन्थों में दास शब्द का प्रयोग शूद्र के अर्थ में किया गया है ।
जैसा की ब्राह्मणों ने स्मृतियों में लिखा की शूद्र अपने नाम के पश्चात दास लगाए वैश्य गुप्त और क्षत्रिय वर्मा तथा ब्राह्मण शर्मा शब्द को लगाए !✍
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मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में लिखा हैं कि :
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 3
(अध्याय 2 मनुस्मृति)
शर्म देवश्च विप्रस्य वर्म त्राता च भूभुज:।
भूतिर्दत्ताश्च वैश्यस्य दास: शूद्रस्य कारयेत्॥
( यमसंहिता )॥
शर्म वद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रा संयुतम्।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो: ।
(विष्णुपुराण)
अग्निपुराण अध्याय 153 निम्नलिखित श्लोकांश देखे
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शर्मान्तं ब्राह्मस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्य तु ।१५३.००४
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३.००५
शर्मान्तं ब्रह्मणस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्यच।१५३.००६
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३.००७
सबका निचोड़ (सार ) यह हैं कि ''ब्राह्मणों के नाम के अन्त में शर्मा और देव शब्द होने चाहिए, एवं क्षत्रिय के नामान्त में वर्मा और त्राता, वैश्य के गुप्त, दत्त आदि और शूद्र के नामान्त में केवल दास शब्द लगाना चाहिए।
तो फिर ये लौकिक ग्रन्थ पुराण, स्मृति आदि इस बात का क्यों विरोध करें ?
वे तो वेदों का ही अनुकरण करेंगे ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।
अब आप कहो कि दास शब्द का अर्थ इस ऋचा में सेवक है; तो वैदिक सन्दर्भ में दास का अर्थ देव संस्कृति का विद्रोही है सेवक नहीं ।
ईरानी भाषाओं में दास शब्द का प्रतिरूप "दाहे" है जिसका अर्थ है ; नेता अथवा दाता !
और कृष्ण ने इन्द्र की पूजा बन्द करायी ये आप जानते ही हैं ।
समस्त पुराणों में यह प्रतिध्वनित ही है ।
कृष्ण की भगवद्गीता किस प्रकार वेदों के विधानों का खण्डन करती है ?
द्वेष वश ही यादवों को दास या शूद्र स्मृतियों में भी
वर्णित किया गया ।
वह भी गोपों को रूप में ।
अब आप स्वयं देख लो पाखण्डीयों के षड्यंत्र
स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
यह भी देखें--- व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:
----------------------------------------------------------------- अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं !
और पाराशर स्मृति में वर्णित है कि.. __________________________________________
वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: ।।
एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: ।
चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद,
चाण्डालदास श्वपचकोलका:।११।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
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वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली ,
कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं ।
इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है । ____________________________ अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।
शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
_______________
(व्यास-स्मृति) नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।। जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०।
________________________________________
(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२)
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स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में.. _________________________________________
वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। __________________________________________
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । --------------------------------------------------------------
निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।
आपको पाता होना चाहिए कि वेदों में भी यदु को गोप कहा ...
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;
गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।
वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ तो लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा करें यह बात असंगत ही है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है ।👇
देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
अत:मह् धातु का अर्थ प्रशंसायाम् के सन्दर्भों में नहीं है ।
ऋग्वेद के प्राय: (अधिकतर) ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में दाहे शब्द के रूप में विकसित है ।
---जो एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है ।
---जो वर्तमान में दाहिस्तान Dagestan को आबाद करने वाले हैं ।
दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
दास अथवा दाहे जन-जाति सेमेटिक शाखा की असीरियन (असुर) जन जातियों से निकली हुईं हैं ।
यहूदी और असीरियन दौनों सैमेटिक शाखा से सम्बद्ध हैं।
यहूदियों में गोपों को कॉप्ट तथा कोफा कहा गया है
जो भारतीय संस्कृति मे गोप और गुप्त है ।
यूरोपी भाषाओं में कोप Coap पुलिस का वाचक है ।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ।
यदि क्षत्रिय हैं तो केवल अपनी वीरता के कारण
किया भी शंकराचार्य या पुरोहित से उन्हें क्षत्रिय प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है ।
यादव वे क्षत्रिय नहीं जो ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें है । जैसा कि महाभारत में वर्णित किया गया है।
महाभारत आदि पर्व ६४वाँ अध्याय में लिखा है ।👇
अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१ )वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया ।
तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पाने के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की ।
अहीर आज तक रूढ़िवादी ब्राह्मणों की दृष्टि में शूद्र हैं
क्यों की उनकी वर्चस्व वादी वर्ण व्यवस्था को इन्हेंने कभी स्वीकार नहीं किया है ।
आपको पता होना चाहिए कि वेदों में भी यदु को गोप कहा हम पूर्व में उद्धृत कर चुके हैं ।...
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;
गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।
वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है ।
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"प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तमभी है देखें---
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"अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले !
सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज-असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें-
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"सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है ।
किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो
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और बात ठाकुर शब्द की हैं क्यों कि कुछ राजपूत समाज के लोग तथा अल्पज्ञानी पुरोहित कृष्ण को ठाकुर बनाने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं ।
तो कृष्ण को ठाकुर लकब का प्रयोग किया भी शास्त्र या पुराण में नहीं किया गया।
संस्कृत ग्रन्थ में कृष्ण को ठाकुर विशेषण का कभी कोई सम्बोधन नहीं दिया गया ?
क्यों कि ठाकुर शब्द ही तुर्की आर्मेनियन तथा फारसी मूल का है ।
ठाकुर शब्द की व्युत्पत्ति पर कुछ चर्चा -
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सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी ।
संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठाकुर: का उपयोग भी किया गया है,
जो भगवान कृष्ण के संदर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है ।
यह नाम भी इस संहिता में पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय से आया
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया है ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है ।
और यह शब्द का आगमन बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ।
ये संस्कृत भाषा में प्राप्त जो ठक्कुर शब्द है वह निश्चित रूप से मध्य कालीन विवरण हैं ।
अनन्त-संहिता बाद की कृति है ; इसमें विष्णु के अवतार की देव मूर्ति को भी ठाकुर कह दिया हैं।
और उनके मन्दिर को हवेली दौनों शब्द पैण्ट-कमी़ज की तरह साथ साथ हैं।
उच्च वर्ग के क्षत्रिय आदि की प्राकृत उपाधि ठाकुर भी इसी से निकली है।
जो तर्कों की रियासती देन है ।
किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति को ठाकुर या ठक्कुर कहा जा सकता है बशर्ते वह जमीदार हो । __________________________________________ इन्हीं विशेषताओं और सन्दर्भों के रहते भगवान कृष्ण के लिए भक्त गण ठाकुर जी सम्बोधन का उपयोग करने लगे
विशेषकर श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी संप्रदाय के अनुयायी भगवान कृष्ण के लिए ठाकुर जी संबोधन देते हैं।
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इसी सम्प्रदाय ने उन्हें कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।
अन्यथा किया भी पुराण में कृष्ण के सम्बोधन में ठाकुर शब्द नहीं आया ।
यद्यपि किसी पुराण अथवा शास्त्र में ठक्कुर शब्द का प्रयोग कृष्ण के लिए नहीं है यह बात प्रमाणित ही है ।
फिर कुछ 'नाजानकार लोग कृष्ण को ठाकुर कहते हैं ।
हाँ ! इस सम्बोधन के मूल में कालान्तरण में यह भावना प्रबल रही कि " कृष्ण को यादव सम्बोधन न देकर केवल आभीर (गोप) जन-जाति को हेय सिद्ध किया जा सके ।
क्यों की यादव का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप ,गुप्त अथवा पाल और गोपाल भी था ।
जिन्हें काशी के ब्राह्मण स्मृतियों में शूद्र घोषित कर चुके थे ।
और कृष्ण के विना ब्राह्मण अपने धर्म का वर्चस्व स्थापित नहीं करपा रहे थे ।
बौद्धों और जाटों से ब्राह्मणों की प्रतिद्वन्द्विता थी।
इस लिए यादवों के भागवत धर्म को हाईजैक किया गया।
'अभी हमने पाल शब्द का प्रयोग आहीर अथवा गोप के सन्दर्भ में किया तो आज पाल का प्रयोग बघेले या धेनुगर भी करते हैं ।
'परन्तु बघेलों का वाचक पाल शब्द पल्लव शब्द का तद्भव रूप है।
अब बघेले ही कहलाते हैं ।
जो पल्लव का तद्भव रूप है ।
यद्यपि धेनुगर भी यादवों के ही रूप हैं
धेनुगर शब्द धेनुकर का तद्भव है जो गोप का वाचक है ।
धेनु संस्कृत में गाय को कहते हैं ।
अब देखिए कुछ लोग नन्द को तो गोप कहते ही हैं हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को भी गोप ही (आभीर) कहा गया है !
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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९।
(हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय । )
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें :- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण..
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" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं
गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक:
तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत:
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अर्थात् हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
हरिवंशपुराण में तथा भागवतपुराण में भी नन्द और वसुदेव को चचेरा भाई बताया गया है ।
वसुदेव और नन्द सगे भाई -👇
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पुराणों वर्णित है कि नन्द और वसुदेव दौनों ही गोप थे ।
जो वंशमूलक रूप में यादव और प्रवृत्ति मूलक रूप में आभीर या आहिर थे ।
प्रमाीकरण के लिए पुराणों से निम्नलिखित उद्धरण देखें :-👇
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वसुनामक द्रोणावतारे ब्रजस्थिते द्वादश गोपभेदे
“द्रोणो वसूनां प्रवरो धरया सह भार्य्यया ।
करिष्यमाण आदेशान् ब्रह्मणस्तमुवाच ह । ।
जातयोर्नौ महादेवे भुवि विश्वेश्वरे हरौ ।
भक्तिः स्यात् परमा लोके ययाञ्जोदुस्तरं तरेत् । अस्त्वित्युक्तः स एवेह व्रजे द्रोणो महायशाः।
जज्ञे नन्द इति ख्यातो यशोदा सा धरा भवत् ” (भागवतपुराण १० स्कन्धे ८ अध्याय श्लोकांश १३)
अर्थात् ब्रह्मा जी के आदेश से द्रोण नामक वसु अपनी पत्नी धरा के साथ ब्रज में बारहवें गोपों के अन्तर्गत हुआ ; ---जो नन्द और यशोदा के नाम से विख्यात हुए ।
यह द्रोण नामक वसु पृथ्वी पर पत्नी सहित अवतरित हुए विश्वेश्वर महादेव की कृपा से भक्त दुस्तर से दुस्तर भव सिन्धु को पार कर जाते हैं ;
महाभारत के विक्षिप्त (नकली )मूसल पर्व के अष्टम् अध्याय का वही श्लोक यह है और जिसका प्रस्तुती करण ही गलत है ।
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ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।
अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को परास्त कर लूट लिया ।।
महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है ।
और इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का वर्णन किया गया है ।
इसे भी देखें---
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
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हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
(श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय
एक श्लोक संख्या २०)
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देखें हरिवंशपुराण से उद्धरण :- 👇
देवमीढे वसुदेवपितामहे च नन्दे “अश्मक्यां जनयामास शूरं वै देवमीढुषः अपिच नन्द जनयामास मारिष्यापर्जन्यो।।
अर्थात् देवमीढ़ वसुदेव और नन्द के पितामह
( बाबा)थे ।
अशमकी नाम की पत्नी से वसुदेव के पिता शूरसेन और मारिष्या नामक पत्नी से नन्द के पिता
पर्जन्य उत्पन्न हुए ।
देखें हरिवंशपुराण से उद्धरण :- 👇
देवमीढे वसुदेव पितामहे च नन्दे
“अश्मक्यां जनयामास शूरं वै देवमीढुषः
अपिच नन्द जनयामास मारिष्यापर्जन्यो।।१।
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( हरिवंशपुराण विष्णुपर्व 35 वाँ अध्याय)
वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश पृष्ठ संख्या 3738)
अर्थात् देवमीढ़ वसुदेव और नन्द के पितामह ( बाबा)थे ।
अशमकी नाम की पत्नी से वसुदेव के पिता शूरसेन और मारिष्या नामक पत्नी से नन्द के पिता पर्जन्य उत्पन्न हुए
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अब कुछ लोग कहेंगे अहीरों अर्जुन को परास्त कर यदुवंशीयों की स्त्रियों के लूटा था !
तो हम जानते हैं कि वो नारायणी सेना के गोप यौद्धा ही थे । जिनकी अनुपस्थिति में सुभद्रा का अपहरण कर ले गया था।
भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय में इस
प्रकरण का आँशिक विवरण है ।
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सोऽहं नृपेन्द्र रहितः पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयने शुन्य ।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमंग रक्षन गोपैरसाद्भिबलेव विनिर्जितोऽस्मि ॥२०॥
तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते सोऽहं रथी नॄपतयो यत आनमन्ति ।
सर्व क्षणेन तदभुदसदीशरिक्तं भस्मन हुतं कुहकाराद्भमोवोत्पमुष्याम ॥२१॥
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यद्यपि पुराण कारों ने कृष्ण के लिए ठाकुर सम्बोधन कभी प्रयुक्त नहीं किया ।
यह तथ्य हम पूर्व में उद्धृत कर चुके हैं ।
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क्योंकि ठाकुर शब्द संस्कृत भाषा का नहीं अपितु ये तुर्की , ईरानी तथा आरमेनियन मूल का है ।
अतः शास्त्र कार इस शब्द के प्रयोग से बचते रहे । __________________________________________
पुराणों में तथा महाभारत के अन्तर्गत शान्ति - पर्व से उद्धृत श्रीमद्भगवद् गीता में भी कृष्ण को यादव ही कह कर सम्बोधित किया गया है , ठाकुर नहीं ।
देखें--- _______________________________________
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥११- ४१॥
(श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय ११ श्लोक संख्या ४१) ________________________________________
अर्थात् हे भगवन्, आप को केवल अपना मित्र ही मान कर, मैंने प्रमादवश अथवा प्रेम वश आपको जो यह हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा (मित्र) कह कर सम्बोधित किया, वह आप की महिमा को न जानते हुए ही किया हैे।
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और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ भारत आया ; ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत : स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त है ।
न कि जन-जाति विशेष के लिए ।
कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा ही प्रमुखत: है ।
इसी लिए यादव स्वयं को क्षत्रिय अथवा राजपूत या ठाकुर नहीं लिखते क्यों कि ये टाइटल राजपूतों ने ग्रहण कर लिए हैं और अहीर कभी भी 'न तो ये टाइटल स्वीकार करते हैं और 'न ब्राह्मण ही उन्हें ये टाइटल देने के इच्छुक हैं ।
ज्यादा बड़ी बात किया 'कहें' अहीर अपने नाम के बाद क्षत्रिय भी इसी लिए नहीं लगाते क्यों कि 👿
क्षत्रिय हैं ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें --देखें महाभारत में
देखें संस्कृत श्लोकों के प्रमाण सहित 👇
त्रिसप्तकृत्व : पृथ्वी कृत्वा नि: क्षत्रियां पुरा ।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।४।
तदा नि:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति ।
ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन्यकृत सुतार्थिन्य८भिचक्रमु:।५।
ताभ्यां: सहसमापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता: ।
ऋतो वृतौ नरव्याघ्र न कामात् अन् ऋतौ यथा ।६।
तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:
तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान्।७।
कुमारांश्च कुमारीश्च पुन: क्षत्राभिवृद्धये ।
एवं तद् ब्राह्मणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि:।८।
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारो८पि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्ममणोत्तरा: ।९।
(महाभारत आदि पर्व ६४वाँ अध्याय)
अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१ )बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया ।
तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पाने के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की ।
तब ऋतु काल में ब्राह्मणों ने उनके साथ संभोग कर उनको गर्भिणी किया ।
तब उन ब्राह्मणों के वीर्य से हजारों क्षत्रिय राजा हुए
और चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की वृद्धि हुई।
पुराणों राजपूतों की उत्पत्ति वर्ण-संकर रूप में है
क्षत्रात् करण कन्यायां राजपुत्रो बभूव ह |
राजपुत्र्यां तु करणादागरिति प्रकीर्तित: ||१०३|
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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में राजपुत्र (राजपूत)जाति की उत्पत्ति हुई है ; और राजपुत्र जाति की कन्या और करण पुरुष से आगरी जाति की उत्पत्ति हुई ||१०३|
ब्रह्मवैवर्तपुराण दशवाँ अध्याय |
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पुराणों में ये सन्दर्भ है जैसे राजा के पुत्र होने से हम राजपुत्र तो हो सकते हैं
और राजकुमार ही राजा की वैध सन्तानें मानी जाती थीं
यदु का वंश सदीयों से पश्चिमी एशिया में शासन करता रहा 'परन्तु भारतीय पुरोहितों ने भले ही यदु को क्षत्रिय वर्ण में समाहित 'न किया हो तो भी हम स्वयं को राजा यदु की सन्तति मानने के कारण से राजपुत्र या राजकुमार मानते हैं।
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'परन्तु बात राजपूत समाज की बात आती है तो हम राजपूत इस लिए नहीं बन सकते क्यों कि राजपूत शब्द ही पञ्चम- षष्ठम सदी की पैदाइश है ।
और यह शब्द राजपुत्र या राजकुमार की अपेक्षा हेय है ।
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राजपूत को पुराणों में करणी जाति की कन्या से उत्पन्न राजा की अवैध सन्तान माना गया है ।
इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिनकी स्मृति में राजपूतों ने करणी सेना का गठन कर लिया है ।
करणी एक चारण कन्या थी
और चारण और भाट जनजातियाँ ही बहुतायत से राजपूत हो गये हैं ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
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शूद्रायां क्षत्रियादुभ: क्रूरकर्मो प्रजायते ।
शास्त्रविद्यासु कुशल संग्रामे कुशलो भवेत् ।
तथा वृत्या सजीवैद्य शूद्र धर्मां प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद : ।
हिन्दी अनुवाद:-👇
क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है ।
यह भयानक शस्त्र-विद्या और रण में चतुर और शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र-वृत्ति से अपनी जीविका चलाने वाला होता है ।
(सह्याद्रि खण्ड स्कन्द पुराण 26 )
दूसरे ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार वर्णन है जो हम पूर्व में बता चुके हैं ।👇
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।
तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।
करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति भी है ।
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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।
और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं ।
इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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राजपूत्र क्षत्रिय का शुद्धत्तम मानक नहीं है
उसमें भी ब्राह्मणों को अधिक श्रेष्ठ माना गया ।
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और सुनो !
---जो स्वयं को क्षत्रिय अथवा राजपूत कहते हैं महाभारत और भागवतपुराण आदि पुराणों के अनुसार ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें हैं ।
अब इसे बात को हम नहीं कहते यह तो महाभारत ग्रन्थ कहता है ।
विशेष मन्तव्य👇
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इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता है , बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक तथ्य होता है ।
छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं,
तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है ।
और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है
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सत्य के अन्वेषण में प्रमाण ही ढ़ाल हैं ।
जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध हमारी रक्षा करता है ।
अथवा हम कहें ;कि विवादों के भ्रमर में प्रमाण पतवार हैं।
अथवा पाँडित्यवाद के संग्राम में सटीक तर्क किसी अस्त्र से कम नहीं हैं।
मैं दृढ़ता से अब भी कहुँगा कि ...
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गतिविधियाँ कभी भी एक-भौमिक नहीं होती है ।
अपितु विश्व-व्यापी होती है !
क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है ।
इतिहास एक वैज्ञानिक व गहन विश्लेषणात्मक तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है ""
सम्पूर्ण भारतीय इतिहास का प्रादुर्भाव महात्मा बुद्ध के समय से ही है इसलिए इसे लम्बी तूल देना उचित नहीं
ईसा से पूर्व सप्तम सदी से ही ग्रन्थ लेखन हुआ ।
बुद्ध का वर्णन तो सारे पुराण महाभारत और वाल्मीकि रामायण में भी है ।
प्राय: इतिहास के नाम पर ब्राह्मण समुदाय ने जो केवल कर्म-काण्ड में विश्वास रखता था ।
उसने काल्पनिक रूप से ही ग्रन्थ रचना की है ।
जिसमें ब्राह्मण स्वार्थों को ध्यान में रखा गया ।
केवल वेदों को छोड़ कर सब बुद्ध के समय का उल्लेख है ।
फिर भी वेदों में यद्यपि पुरुष सूक्त की प्राचीनता सन्दिग्ध है ,
क्योंकि इसकी भाषा पाणिनीय कालिक ई०पू० ५०० के समकक्ष है ।
भारतीय इतिहास एक वर्ग विशेष के लोगों द्वारा पूर्व- आग्रहों से ग्रसित होकर ही लिखा गया ।
आज आवश्यकता है इसके पुनर्लेखन की ।
और हमारा प्रयास भी उसी श्रृंखला की एक कणि है ।
विद्वान् इस तथ्य पर अपनी प्रतिक्रियाऐं अवश्य दें ...
प्रत्येक काल में इतिहास पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर लिखा जाता रहा है ; आधुनिक इतिहास हो या फिर प्राचीन इतिहास या पौराणिक आख्यानकों में वर्णित कल्पना रञ्जित कथाऐं !
अहीरों की निर्भीकता और पक्षपात विरोधी प्रवृत्ति के कारण या 'कहें' उनका बागी प्रवृत्ति के कारण
भारतीय पुरोहित वर्ग ने अहीरों को (Criminal tribe ) अापराधिक जन-जाति के रूप में तथा दुर्दान्त हत्यारों और लूटेरों के रूप में भी वर्णित किया है।
पता नहीं इतिहासकारों की कौन सी भैंस अहीरों ने चुरा ली थी ।
विदित हो की यादवों ने अपने अधिकारों और अस्मिता के लिए दस्यु या डकैटी के तो अपनाया था ।
और डकैटी करना या डकैट होना गरीबों की सम्पत्ति चुराना नहीं है ।
यदि ऐसी होता तो महाभारत में दस्युओं की प्रसंशा नहीं की जाती ।
दस्यु वे विद्रोही थे जिन्होंने कभी भी किसी की अधीनता स्वीकार करके उसकी अनुचित कानून के माना हो
ऐसे विद्रोही हर युग और हर समाज में अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए सदैव से बनते रहे हैं ।
और यह भी सर्वविदित है कि
इतिहास कार भी विशेष समुदाय वर्ग के ही थे ।
उस वर्ग के जो समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित कर के उसके निम्न और मध्य वर्गों पर शासन करते थे ।
उनकी सुन्दर कन्याओं और स्त्रियों के अपनी वासना पूर्ति के लिए तलब कर लेते थे ।
'परन्तु अहीरों ने दासता स्वीकार 'न करके दस्यु बनना बहतर समझा !
क्यों की वीर अथवा यौद्धा कभी असमानता मूलक सामाजिक अव्यवस्थाओं से समझौता नहीं करके हैं ।
अहीरों के विषय में ऐसा केवल नकारात्मक ऐैतिहासिक विवरण पढ़ने वाले गधों से अधिक कुछ नहीं हैं।
अहीर क्रिमिनल ट्राइब कदापि नही हैं अपितु विद्रोही ट्राइब अवश्य रही है ; वो भी अत्याचारी शासन व्यवस्थाओं के खिलाफ ,
क्योंकि इतिहास भी शासन के प्रभाव में ही लिखा जाता था।
और कोई शासक विद्रोहियों को सन्त तो कहेगा नहीं
और 'न ही उसको सम्मानित दर्जा देगा ।
परन्तु जनता क्यूँ सच मान लेती है ये सारी काल्पनिक बाते यही समझ में नहीं आता ?
सम्भवत: जनता में भी वर्चस्व वादीयों की धाक होती है ।
नकारात्मक रूप से ऐसी ऊटपेटांग बातें आजादी के बाद यादवों के बारे में वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदकों ने ही पूर्व-दुराग्रहों से ग्रसित होकर लिखीं ।
क्यों की उन्हें उनसे खतरा था की ये तो सबको समानता के पक्षधर हैं तो हमारी स्वार्थ वत्ता कैसे सिद्ध होती रहेंगी ?
परन्तु यथार्थोन्मुख सत्य तो ये है कि यादवों ने ना कभी कोई आपराधिक कार्य अपने स्वार्थ या अनुचित माँगों को मनवाने के लिए किया हो !
कोई तोड़ फोड़ कभी की हो ! और ना ही -गरीबों की -बहिन बेटीयों को सताया हो ।
गरीबों के अपनी हमकदम अपना भाई माना
केवल कुकर्मीयों , व्यभिचारीयों के खिलाफ विद्रोह अवश्य किया, वो भी हथियार बन्ध होकर ,
यादवों का विद्रोह शासन और उस शासक के खिलाफ रहा हमेशा से , जिसने समाज का शोषण किया ना की आम लोगों के खिलाफ !
जनता को सोचना-समझना चाहिए ! न कि बोगस लोगो के कहने पर विश्वास करने चाहिए !
जिस प्रकार से आज समाज में अहीरों के खिलाफ सभी रूढ़ि वादी समुदाय एक जुट हो गये हैं ।
और उन्हें घेरने की कोशिश करते हैं
नि: सन्देह यह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है
क्यों की हर क्रिया की प्रतिक्रियाऐं शाश्वत हैं ।
जो धूल तो ठोकर मार कर यह सोचते हैं की हम बादशह हैं तो वह धूल उन्हीं के सिर पर बैठती है ।
जय श्री कृष्णाय नम: !
समर्पण उनको जो अपनी बेवाक -विचार धारा के लिए किसी से समझौता नहीं करते हैं ।
वञ्चित समाज के उत्थान में अहर्निश संघर्ष करने वाले
साम्यवादी मसीहा हैं !
प्रस्तुति-करण :- यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर
पत्रालय- पहाड़ीपुर
जनपद- अलीगढ़---उ०प्र० 8077160219
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यह एक शोध - लिपि है जिसके समग्र प्रमाण ।
यादव योगेश कुमार 'रोहि' के द्वारा
अनुसन्धानित है ।
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