जीवक नामक राजा को तीन रानियाँ थीं। तीनों को कोई संतान नहीं थी। राजा वंशवृद्धि के लिए बहुत चिंतित थे। एक बार उन्होंने पुत्र का स्वप्न देखा। भविष्यवस्ताओं के कहने पर वे उंदुबरा नामक पुष्प की तलाश में समुद्र तट पर गये। वहाँ से पुष्प लाकर उन्होंने रानी को दिया। पुष्प भक्षण से रानी को एक पुत्र हुआ जिसका नाम राम रखा गया। कालांतर में राम राजा बने। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। उन्होंने अपने राज्य में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु कुकुचंद को आमंत्रित किया। लंका के एक दानव ने मृग का रुप धारण कर लिया था। उसका अगला धड़ सोना और पिछला चांदी का था। वह राम के राज्य में निवास करने वाले ॠषियों की तपस्या में बाधा पहुँचाता था। ॠषियों ने राम को बुलवाया। राम ने पत्थर से मृग की एक आँख फोड़ दी। ॠषियों ने आशीर्वाद स्वरुप उन्हें अजेय शक्ति प्रदान की। दानवों के देश में एक बूढ़ी औरत ने एक बच्ची को जन्म दिया। ज्योतिष शास्र के ज्ञाताओं ने कहा कि यदि वह लड़की जीवित रहती है, तो देश का नाश हो जायेगा। दानवों ने उसे एक बक्से में बंदकर समुद्र में फेंक दिया। वह बक्सा जंबू द्वीप चला गया जहाँ वह एक किसान को मिला। किसान ने उस बच्ची का पालन-पोषण किया। जब वह बड़ी हुई, तब उसने राम से उसका विवाह कर दिया। दानवराज दशग्रीव को अपनी बहन द्वारा राम की पत्नी के सौंदर्य का पता चला। उसने अपने एक मंत्री को मनोहर मृग का रुप धारण कर राम के पास जाने के लिए कहा। वह मृग उन्हें लुभाकर दूर ले गया। राम जिस समय द्रुत गति से भागते हुए मृग का पीछा कर रहे थे, दानवराज उनकी पत्नी का अपहरण कर अपने देश ले गया। राम अपनी पत्नी को तलाशते हुए बंदरों के राज्य में पहुँचे। वहाँ दो बंदर आपस में लड़ रहे थे। उनके नाम वालि और सुग्रीव थे। उन्होंने सुग्रीव के अनुरोध पर वालि का वध कर दिया। आभारवश सुग्रीव ने उन्हें बंदरों की विशाल सेना प्रदान की जिसके प्रधान हनुमान थे। राम वानरी सेना के साथ लंका पहुँचे। वे दानव राज को पराजित कर अपनी पत्नी के साथ देश लौट गये, जहाँ वे सुख से जीवन व्यतीत करने लगे । का विदेश में स्थानीकरण
शिलालेखों से झांकती राम कथा
शिला चित्रों में रुपादित रामायण
भित्तियो पर उरेही गयी रामचरित-चित्रावली
रामलीला: कितने रंग, कितने रुप
रामकथा का विदेश भ्रमण
इंडोनेशिया की रामकथा: रामायण का कावीन
कंपूचिया की राम कथा: रामकेर्ति
थाईलैंड की राम कथा: रामकियेन
लाओस की रामकथा: राम जातक
बर्मा की राम कथा और रामवत्थु
मलयेशिया की राम कथा और हिकायत सेरी राम
फिलिपींस की राम कथा: महालादिया लावन
तिब्बत की राम कथा
चीन की राम कथा
खोतानी राम कथा
मंगोलिया की राम कथा
जापान की राम कथा
श्रीलंका की राम कथा
नेपाल की राम कथा: भानुभक्त कृत रामायण
यात्रा की अनंतता
खोतानी राम कथा
एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है जिसकी भाषा खोतानी है। एच.डब्लू. बेली ने पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से खोतानी रामायण को खोजकर प्रकाश में लाया। उनकी गणना के अनुसार इसकी तिथि नौवीं शताब्दी है।१ खोतानी रामायण अनेक स्थलों पर तिब्बीती रामायण के समान है, किंतु इसमें अनेक ऐसे वृत्तांत हैं जो तिब्बती रामायण में नहीं हैं।
खोतानी रामायण के अनुसार राजा दशरथ के प्रतापी पुत्र सहस्त्रवाहु वन में शिकार खेलने गये जहाँ उनकी भेंट एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण से हुई। उन्होंने अपनी तपस्या से चिंतामणिऔर कामधेनु प्राप्त किया था। कामधेनु की कृपा से ब्राह्मण ने राजा का भव्य स्वागत किया। प्रस्थान करते समय राजा की आज्ञा से उनके अनुचर ब्राह्मण की गाय लेकर चले गये। इसकी जानकारी ब्राह्मण पुत्र परशुराम को हुई। उसने सहस्त्रवाहु का वध कर दिया। परशुराम के भय से सहस्त्रवाहु की पत्नी ने अपने पुत्र राम और रैषमा (लक्ष्मण) को पृथ्वी के अंदर छिपा दिया। बारह वर्षों के बाद दोनों बाहर आये। राम अद्वितीय धनुर्धर थे। उन्होंने अपने अनुज रैषमा को राज्य संभालने के लिए कहा और स्वयं अपने पिता के हत्यारे परशुराम को ढूंढ़ कर वध कर दिया।
दानवराज दशग्रीव को एक पुत्री हुई। भविष्य वक्ताओं ने उसकी कुंडली देखकर कहा कि वह अपने पिता के साथ समस्त दानव कुल के नाशकर कारण बनेगी। इसलिए उसे बक्से में बंदकर नदी में बहा दिया गया। वह बक्सा एक ॠषि को मिला। उन्होंने उसका पालन पोषण किया। वह रक्षा वलय के बीच एक वाटिका में रहती थी। राम और रैषमा उसे देखकर मोहित हो गये। खोतानी रामायण में यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि राम और रैषमा का उसके साथ कैसा संबंध था।
खोतानी रामायण के अनुसार चमत्कारी मृग की सौ आंखे थी। राम और रैषमा ने उसकी पीछा किया। इसी अंतराल में दशग्रीव वहाँ पहुँचा, किंतु वह रक्षा वलय को पार नहीं कर सका। इसके बाद वह भिक्षुक वेश में सीता के पास गया और रक्षा वलय के बाहर आने पर उन्हें उठाकर भाग गया।
सीतन्वेषण क्रम में दोनों भाईयों की भेंट एक बूढ़े बंदर से हुई। उसी स्थल पर दो सहोदर बंदर पैत्रिक राज्य के लिए युद्धरत थे। उनमें से एक का नाम सुग्रीव और दूसरे का नंद था। राम की नंद से मैत्री हो गयी। उन्होंने सुग्रीव का वध कर दिया। नंद ने यह कह कर बंदरों को सीता की खोज करने के लिए भेजा कि यदि वे सात दिनों में सीता की खोज नहीं कर पाते, तो उनकी आँखें निकाल ली जायेगी। छह दिन बीत गये। सातवें दिन लफुस नामक एक बंदरी ने मादा काक और उसके बच्चों की बात को सुन लिया। मादा काक अपने बच्चों से कह रही थी कि दशग्रीव ने सीता का अपहरण कर लिया है। बंदर उन्हें खोज नहीं पायेंगे। इसलिए कल्ह उन्हें बंदरों की आँखे खाने का सुयोग है। बंदरी के माध्यम से यह समाचार बंदरों को मिला। फिर, यह संदेश राम और रैषमा को दिया गया।
राम और रैषमा वानरी सेना के साथ समुद्र तट पर गये। वहाँ पहुँचने पर नंद ने कहा ब्रह्मा के वरदान के कारण उसके द्वारा स्पर्श करने पर पत्थर जल में तैरने लगते हैं। फिर, नंद के सहयोग से सेतु का निर्माण हुआ और सेना सहित राम और रैषमा लंका पहुँचे।
बंदरों के कोलाहल से दशग्रीव उत्तेजित हो गया। वह उड़कर आकाश में चला गया और समुद्र से एक विषधर सांप को पकड़कर उसी से बानरी सेना पर प्रहार किया। नागास्र से राम आहत हो गये। नंद अमृत-संजीवनी लाने के क्रम में हिमवंत पर्वत को ही उखाड़कर ले आया। औषधि के प्रयोग से राम स्वस्थ हो गये।
रावण की जन्म कुंडली देखने पर पता चला कि उसकी जीवनी उसके अंगूठे में है। राम ने उसे अंगूठा दिखाने के लिए कहा। उसने जैसे ही अंगूठा दिखाया, राम ने उस पर बाण प्रहार कर उसे मुर्छित कर दिया। आत्मसमपंण करने के बाद उसे मुक्त कर दिया गया। बौद्ध प्रभाव के कारण उसका वध नहीं किया गया। राम और रैषमा ने सीता के साथ सौ वर्ष बिताया। इसी बीच लोकापवाद के कारण सीता धरती में प्रवेश कर गयी। अंत में शाक्य मुनि कहते हैं कि इस कथा का नायक राम स्वयं वे ही थे और मैत्रेय रैषमा था ।
भित्तियो पर उरेही गयी रामचरित-चित्रावली
रामलीला: कितने रंग, कितने रुप
रामकथा का विदेश भ्रमण
इंडोनेशिया की रामकथा: रामायण का कावीन
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थाईलैंड की राम कथा: रामकियेन
लाओस की रामकथा: राम जातक
बर्मा की राम कथा और रामवत्थु
मलयेशिया की राम कथा और हिकायत सेरी राम
फिलिपींस की राम कथा: महालादिया लावन
तिब्बत की राम कथा
चीन की राम कथा
खोतानी राम कथा
मंगोलिया की राम कथा
जापान की राम कथा
श्रीलंका की राम कथा
नेपाल की राम कथा: भानुभक्त कृत रामायण
यात्रा की अनंतता
तिब्बत की राम कथा
राम कथा की उत्तरवाहिनी धारा कब तिब्बत पहुँची, यह सुनिश्चित रुप से नहीं कहा जा सकता है, किंतु वहाँ के लोग प्राचीन काल से वाल्मीकि रामायण की मुख्य कथा से सुपरिचित थे। तिब्बती रामायण की छह प्रतियाँ तुन-हुआंग नामक स्थल से प्राप्त हुई है। उत्तर-पश्चिम चीन स्थित तुन-हुआंग पर ७८७ से ८४८ ई. तक तिब्बतियों का आधिपत्य था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि उसी अवधि में इन गैर-बौद्ध परंपरावादी राम कथाओं का सृजन हुआ।१ तिब्ब्त की सबसे प्रामाणिक राम कथा किंरस-पुंस-पा की है जो 'काव्यदर्श' की श्लोक संख्या २९७ तथा २८९ के संदर्भ में व्याख्यायित हुई है।२
किंरस-पुंस-पा की राम कथा के आरंभ में कहा गया है कि शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण द्वारा दसों सिर अर्पित करने के बाद उसकी दश गर्दनें शेष रह जाती हैं। इसी कारण उसे दशग्रीव कहा जाता है। महेश्वर स्वयं उसके पास जाते हैं और उसे तब तक के लिए अमरता का वरदान देते हैं, जब तक कि उसका अश्वमुख मंजित नहीं हो जाता।
दशरथ देवासुर संग्राम में घायल हो जाते हैं। अयोध्या लौटने पर केकेया (केकैयी) उनके घावों का उपचार करती है। स्वस्थ होने पर राजा उसकी कोई एक इच्छा पूरी करने का वरदान देते हैं। कालांतर में जब राजा दशरथ ज्येष्ठ पुत्र रामन को राजा बनाना चाहते हैं, तब केकेया अपने पुत्र को राज्य और रामन को बारह वर्ष वनवास का वर माँग लेती है। पिता के आदेशानुसार रामन सीता सहित वन चले जाते है।
रावण के घर एक रुपवती कन्या का जन्म होता है, किंतु ऐसा संकेत मिलता है कि लंका में उसके रहने से दानवों का विनाश हो सकता है। इसलिए उसे तांबे के बक्से में बंद कर जल में फेंक दिया जाता है। वह कन्या एक कृषक को मिलती है। वह उसका नाम रौल-रेंड-मा रख देता है। उसका विवाह राम से होता है, तब उसका नाम सीता रख दिया जाता है।
पति के साथ वन गमन के बाद दशग्रीव को उसके सौंदर्य का पता चलता है। दशग्रीव की बहन स्ला-वियड-मा (शूपंणखा) रामन को प्रलोभित कर सीता से अलग हटाने के लिए मगृ रुप धारण कर उसके पास जाती है। मृग का पीछा करने के पूर्व रामन सीता की सुरक्षा हेतु प्रकाश-भित्ति की घेराबंदी कर जाते हैं। राम के जाने के बाद दशग्रीव दानवी माया से उस भूखंड को ही उठाकर लंका ले जाता है।
मृग को पकड़ने में विफल होने के बाद रामन अपने निवास स्थान लौटते हैं, तब उन्हें पता चलता है कि सीता का अपहरण हो गया। सीतान्वेषण क्रम में उन्हें एक गर्म जलवाली नदी मिली जिसका स्रोत राज्य के लिए युद्धरत बब्ले (वालि) और सुग्रीव का स्वेद था। रामन ने सुग्रीव की सहायता की। उनके बाण से वालि की मृत्यु हो गयी। सुग्रीव रामन को शिव पुत्र हनुमान के पास ले गया। त्रिनेत्रधारी हनुमान सीता हरण की बात सुनकर एक ही छलांग में लंका पहुँच गये। वंदिनी सीता को उन्होंने अपना परिचय रामदूत के रुप में दिया और उन्हें रामन की अंगूठी दी। सीता का संदेश लेकर वे फिर एक ही छलांग में रामन के पास पहुँच गये।
वानरी सेना के साथ रामन समुद्र तट पहुँचे। सेतु निर्माण के बाद वे समुद्र पार कर दैत्यराज के राजभवन में प्रवेश कर गये। रामन ने उसका अश्व मस्तक काट कर उसका वध कर दिया। उन्होंने असंख्य दानवों का भी दलन किया। अपने इसी पाप के कारण वे कलियुग में बुद्ध के रुप में अवतरित हुए। हनुमान ने वाटिका के वृक्षों को उखाड़कर उलटा खड़ा कर दिया। यद्यपि वे आसानी से भाग सकते थे, किंतु अपनी अद्भुत शक्ति के प्रदर्शन हेतु बंधन में बंध गये। उनकी पूँछ में आग लगा दी गयी, तो उन्होंने उस आग से लौह प्राचीर सहित त्रिकूट स्थित नगर को भ कर दिया।
रावण का अनुज कुंभकर्ण तपस्यारत था। बंदरों ने उसके कान में पिघला हुआ कांसा डाल दिया। उसके श्वास से रामन और हनुमान को छोड़कर संपूर्ण सेना कंकाल बन गयी। हिमगिरि से औषधि लाने के क्रम में हनुमान पूरे पहाड़ को ही उठाकर ले आये। रामन ने स्वयं औषधि ढूंढकर सबका उपचार किया। हनुमान से पर्वत को पुन: यथा स्थान रख आने के लिए कहा गया, तो उन्होंने उसे वही से उठाकर अपनी जगह पर फ्ैंक दिया जिससे उसकी चोटी टेढ़ी हो गयी। उसी पर्वत का एक भाग टूट कर गिर गया जो तिसे (कैलास) के नाम से विख्यात हुआ। अंत में सीता सहित रामन पुष्पक विमान से अयोध्या लौट गये जहाँ भरत जहाँ भरत ने उनका भव्य स्वागत किया।
राम कथा की विदेश यात्रा -
रामायण का अर्थ राम का यात्रा पथ
रामायण के घटना स्थलों का विदेश में स्थानीकरण
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नेपाल की राम कथा: भानुभक्त कृत रामायण
यात्रा की अनंतता
चीन की राम कथा
चीनी साहित्य में राम कथा पर आधारित कोई मौलिक रचना नहीं हैं। बौद्ध धर्म ग्रंथ त्रिपिटक के चीनी संस्करण में रामायण से संबद्ध दो रचनाएँ मिलती हैं। 'अनामकं जातकम्' और 'दशरथ कथानम्'। फादर कामिल लुल्के के अनुसार तीसरी शताब्दी ईस्वी में 'अनामकं जातकम्' का कांग-सेंग-हुई द्वारा चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था जिसका मूल भारतीय पाठ अप्राप्य है। चीनी अनुवाद लियेऊ-तुत्सी-किंग नामक पुस्तक में सुरक्षित है।१
'अनामकं जातकम्' में किसी पात्र का नामोल्लेख नहीं हुआ है, किंतु कथा के रचनात्मक स्वरुप से ज्ञात होता है कि यह रामायण पर आधारित है, क्योंकि इसमें राम वन गमन, सीता हरण, सुग्रीव मैत्री, सेतुबंधष लंका विजय आदि प्रमुख घटनाओं का स्पष्ट संकेत मिलता है। नायिका विहीन 'अनामकं जातकम्', जानकी हरण, वालि वध, लंका दहन, सेतुबंध, रावण वध आदि प्रमुख घटनाओं के अभाव के बावजूद वाल्मीकि रामायण के निकट जान पड़ता है। अहिंसा की प्रमुखता के कारण चीनी राम कथाओं पर बौद्ध धर्म का प्रभाव स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है।
'दशरथ कथानम्'२ के अनुसार राजा दशरथ जंबू द्वीप के सम्राट थे। राजा की प्रधान रानी के पुत्र का नाम लोमो (राम)। दूसरी रानी के पुत्र का नाम लो-मन (लक्ष्मण) था। राजकुमार लोमो में ना-लो-येन (नारायण) का बल और पराक्रम था। उनमें 'सेन' और 'रा' नामक अलौकिक शक्ति थी तीसरी रानी के पुत्र का ना पो-लो-रो (भरत) और चौथी रानी के पुत्र का नाम शत्रुघ्न था।
राजा तीसरी रानी पर आसक्त थे। वे उसकी इच्छापूर्ति हेतु सर्व न्योछावर करने की बात करते थे। रानी ने उनके वचन को धरोहर के रुप में रख छोड़ा था। कालांतर में राजा बीमार हो गये। उन्होंने राजकुमार लोमो को राजा बना दिया। उनके बालों को रेशम की डोरी से बांधा गया और सिर पर दिव्य मुकुट पहना दिया गया। छोटी रानी को लोमो का राजा बनना रास नहीं आया। राजा के कुछ स्वस्थ होने पर उसने पूर्व में दिये गये वचन के अनुसार अपने पुत्र पो-लो-रो को राजा बनाने के लिए कहा। राजा को अपने ज्येष्ठ पुत्र पर पूरा भरोसा था। उन्होंने उसे अपदस्थ कर पो-लो-रो को राजा बना दिया।
लोमो के अनुज ने उनसे इसका विरोध करने के लिए कहा, क्योंकि उनके पास 'सेन' और 'रा' नामक अलौकिक शक्ति थी, किंतु उन्होंने उत्तर दिया कि आज्ञाकारी पुत्र को पिता की इच्छा के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए। छोटी माता को मेरे पूज्य पिता का स्नेह प्राप्त है। इसलिए वही सच्ची माता हैं। रामानुज चुप हो गये। पिता के आदेशानुसार वे दोनों बारह वर्षों के लिए वन चले गये।
राजा का स्वर्गवास हो गया। उस समय पो-लो-रो दूसरे देश में थे। उन्हें स्वदेश बुलाया गया और राजा बना दिया गया, किंतु परंपरा के प्रतिकूल आग्रज को अपदस्थ कर उन्हें राजा बनाया गया था। इसलिए उनके मन में अपनी माता के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी। वे सेना के साथ अपने अग्रज से मिलने पहाड़ परगये। लो-मन के मन में संदेह हुआ, किंतु लोमो के मन में किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न नहीं हुआ। उन्होंने पो-लो-रो से सेना के साथ आने का कारण पूछा,तो उसने बताया कि मार्ग में लुटेरों से बचने के लिए उसने ऐसा किया। उसने अपने अग्रज से स्वदेश लौटकर राज्य का शासन संभालने के लिए बार-बार अनुरोध किया, किंतु लोमो ने पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना उचित नहीं समझा। अंतत: पो-लो-रो अपने अग्रज की चरण पादुका लेकर घर लौट गये और उन्हें राज सिंहासन पर स्थापित कर दिया।
पो-लो-रो चरण पादुका की पूजा करते थे और उससे आदेश लेकर शासन संचालन करते थे। लोमो को मालूम हो गया था कि पो-लो-रो उनकी चरण पादुका को आग्रज की तरह सम्मान देते हैं। इसलिए समय पूरा होने पर वे घर लौट गये। राजा का पद ग्रहण करने से इन्कार करने पर पो-लो-रो ने उन्हें यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि परंपरानुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राज सिंहासन का उत्तराधिकारी होता है। परंपरा भंग करना उचित नहीं है। लोमो राजा बने। देश धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया। कोई किसी रोग से पीड़ित नहीं रहा। जंबू द्वीप के लोगों की सुख-समृद्धि जंबू द्वीप के लोगों की सुख-समृद्धि पहले से दस गुनी हो गयी ।
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जापान की राम कथा
श्रीलंका की राम कथा
नेपाल की राम कथा: भानुभक्त कृत रामायण
यात्रा की अनंतता
मंगोलिया की राम कथा
चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया के लोगों को राम कथा की विस्तृत जानकारी है। वहाँ के लामाओं के निवास स्थल से वानर-पूजा की अनेक पुस्तकें और प्रतिमाएँ मिली हैं। वानर पूजा का संबंध राम के प्रिय पात्र हनुमान से स्थापित किया गया है।१ मंगोलिया में राम कथा से संबद्ध काष्ठचित्र और पांडुलिपियाँ भी उपलबध हुई हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि बौद्ध साहित्य के साथ संस्कृत साहित्य की भी बहुत सारी रचनाएँ वहाँ पहुँची। इन्हीं रचनाओं के साथ रामकथा भी वहाँ पहुँच गयी। दम्दिन सुरेन ने मंगोलियाई भाषा में लिखित चार राम कथाओं की खोज की है।२ इनमें राजा जीवक की कथा विशेष रुप से उल्लेखनीय है जिसकी पांडुलिपि लेलिनगार्द में सुरक्षित है।
जीवक जातक की कथा का अठारहवीं शताब्दी में तिब्बती से मंगोलियाई भाषा में अनुवाद हुआ था जिसके मूल तिब्बती ग्रंथ की कोई जानकारी नहीं है। आठ अध्यायों में विभक्त जीवक जातक पर बौद्ध प्रभाव स्पष्ट रुप से दिखाई पड़ता है। इसमें सर्वप्रथम गुरु तथा बोधिसत्व मंजुश्री की प्रार्थना की गयी है। जीवक पूर्व जन्म में बौद्ध सम्राट थे। उन्होंने अपनी पत्नी तथा पुत्र का परित्याग कर दिया। इसी कारण उन्हें दोनों ने शाप दे दिया कि अगले जन्म में वे संतानहीन हो जायेंगे। जीवक की भेंट भगवान बुद्ध से हुई। उन्होंने श्रद्धा के साथ उनका प्रवचन सुना और उन्हें अपने निवास स्थान पर आमंत्रित किया। इस घटना के बाद जीवक की भेंट दस हज़ार मछुआरों से हुई। उन्होंने उन्हें अहिंसा का उपदेश दिया।
जीवक नामक राजा को तीन रानियाँ थीं। तीनों को कोई संतान नहीं थी। राजा वंशवृद्धि के लिए बहुत चिंतित थे। एक बार उन्होंने पुत्र का स्वप्न देखा। भविष्यवस्ताओं के कहने पर वे उंदुबरा नामक पुष्प की तलाश में समुद्र तट पर गये। वहाँ से पुष्प लाकर उन्होंने रानी को दिया। पुष्प भक्षण से रानी को एक पुत्र हुआ जिसका नाम राम रखा गया। कालांतर में राम राजा बने। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। उन्होंने अपने राज्य में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु कुकुचंद को आमंत्रित किया।
लंका के एक दानव ने मृग का रुप धारण कर लिया था। उसका अगला धड़ सोना और पिछला चांदी का था। वह राम के राज्य में निवास करने वाले ॠषियों की तपस्या में बाधा पहुँचाता था। ॠषियों ने राम को बुलवाया। राम ने पत्थर से मृग की एक आँख फोड़ दी। ॠषियों ने आशीर्वाद स्वरुप उन्हें अजेय शक्ति प्रदान की।
दानवों के देश में एक बूढ़ी औरत ने एक बच्ची को जन्म दिया। ज्योतिष शास्र के ज्ञाताओं ने कहा कि यदि वह लड़की जीवित रहती है, तो देश का नाश हो जायेगा। दानवों ने उसे एक बक्से में बंदकर समुद्र में फेंक दिया। वह बक्सा जंबू द्वीप चला गया जहाँ वह एक किसान को मिला। किसान ने उस बच्ची का पालन-पोषण किया। जब वह बड़ी हुई, तब उसने राम से उसका विवाह कर दिया।
दानवराज दशग्रीव को अपनी बहन द्वारा राम की पत्नी के सौंदर्य का पता चला। उसने अपने एक मंत्री को मनोहर मृग का रुप धारण कर राम के पास जाने के लिए कहा। वह मृग उन्हें लुभाकर दूर ले गया। राम जिस समय द्रुत गति से भागते हुए मृग का पीछा कर रहे थे, दानवराज उनकी पत्नी का अपहरण कर अपने देश ले गया।
राम अपनी पत्नी को तलाशते हुए बंदरों के राज्य में पहुँचे। वहाँ दो बंदर आपस में लड़ रहे थे। उनके नाम वालि और सुग्रीव थे। उन्होंने सुग्रीव के अनुरोध पर वालि का वध कर दिया। आभारवश सुग्रीव ने उन्हें बंदरों की विशाल सेना प्रदान की जिसके प्रधान हनुमान थे। राम वानरी सेना के साथ लंका पहुँचे। वे दानव राज को पराजित कर अपनी पत्नी के साथ देश लौट गये, जहाँ वे सुख से जीवन व्यतीत करने लगे।
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श्रीलंका की राम कथा
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यात्रा की अनंतता
इंडोनेशिया की रामकथा:
रामायण का कावीन
इंडोनेशिया के नब्बे प्रतिशत निवासी मुसलमान हैं, फिर भी उनकी संस्कृति पर रामायण की गहरी छाप है। फादर कामिल बुल्के १९८२ई. में लिखते हैं, 'पैंतीस वर्ष पहले मेरे एक मित्र ने जावा के किसी गाँव में एक मुस्लिम शिक्षक को रामायण पढ़ते देखकर पूछा था कि आप रामायण क्यों पढ़ते है? उत्तर मिला, 'मैं और अच्छा मनुष्य बनने के लिए रामायण पढ़ता हूँ।'१
रामकथा पर आधारित जावा की प्राचीनतम कृति 'रामायण काकावीन' है। यह नौवीं शताब्दी की रचना है। परंपरानुसार इसके रचनाकार योगीश्वर हैं। यहाँ की एक प्राचीन रचना 'उत्तरकांड' है जिसकी रचना गद्य में हुई है। चरित रामायण अथवा कवि जानकी में रामायण के प्रथम छह कांडों की कथा के साथ व्याकरण के उदाहरण भी दिये गये हैं।२ बाली द्वीप के संस्कृत साहित्य में अनुष्ठभ छंद में ५० श्लोकों की संक्षिप्त रामकथा है। रामकथा पर आधारित परवर्ती रचनाओं में 'सेरतकांड', 'रामकेलिंग' और 'सेरी राम' का नाम उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त ग्यारहवीं शताब्दी की रचना 'सुमनसांतक' में इंदुमती का जन्म, अज का विवाह और दशरथ की जन्मकथा का वर्णन हुआ है। चौदहवीं शताब्दी की रचना अर्जुन विजय की कथावस्तु का आधार अर्जुन सहस्त्रवाहु द्वारा रावण की पराजय है।
रामायण काकावीन की रचना कावी भाषा में हुई है। यह जावा की प्राचीन शास्रीय भाषा है। काकावीन का अर्थ महाकाव्य है। कावी भाषा में कई महाकाव्यों का सृजन हुआ है।उनमें रामायण काकावीन का स्थान सर्वोपरि है। रामायण का कावीन छब्बीस अध्यायों में विभक्त एक विशाल ग्रंथ है, जिसमें महाराज दशरथ को विश्वरंजन की संज्ञा से विभूषित किया गया है और उन्हें शैव मतावलंबी कहा गया है। इस रचना का आरंभ राम जन्म से होता है। विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण के प्रस्थान के समय अष्टनेम ॠषि उनकी मंगल कामना करते हैं और दशरथ के राज प्रसाद में हिंदेशिया का वाद्य यंत्र गामलान बजने लगता है।
द्वितीय अध्याय का आरंभ बसंत वर्णन से हुआ है। यहाँ भी इंडोनेशायाई परिवेश दर्शनीय है। तुंजुंग के फूल खिले हुए हैं। सूर्य की किरणें सरोवर के जल पर बिखरी हुई हैं। उसका सिंदूरी वर्ण लाल-लाल लक्षा की तरहा सुशोभित है। लगता है मानो सूर्य की किरणे पिघल-पिघल कर स्वच्छ सरोवर के जल में परिवर्तित हो गयी है।१
विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण के यात्रा-क्रम में हिंदेशिया की प्रकृति का भव्य चित्रण हुआ है।
विश्वामित्र आश्रम में दोनों राजकुमारों को अस्र-शस्र एवं ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाती है और ताड़का वध के बाद विष्णु का अवतार मान कर उनकी वंदना की जाती है।इस महाकाव्य में मिथिला गमन, धनुभर्ंग और विवाह का वर्णन अत्यंत संक्षिप्त है। तीनों प्रसंगों का वर्णन मात्र तेरह पदों में हुआ है। इसके अनुसार देवी सीता का जिस समय जन्म हुआ था, उस समय पहले से ही उनके हाथ में एक धनुष था। वह भगवान शिव का धनुष था और उसी से त्रिपुर राक्षस का संहार हुआ था।
रामायण काकावीन में परशुराम का आगमन विवाह के बाद अयोध्या लौटने के समय वन प्रदेश में होता है। उनका शरीर ताल वृक्ष के समान लंबा है। वे धनुभर्ंग की चर्चा किये बिना उन्हें अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए ललकारते हैं, किंतु राम के प्रभाव से वे परास्त होकर लौट जाते हैं। इस महाकाव्य में श्री राम के अतिरिक्त उनके अनेय किसी भाई के विवाह की चर्चा नहीं हुई है।
अयोध्याकांड की घटनाओं की गति इस रचना में बहुत तीव्र है। राम राज्यभिषेक की तैयारी, कैकेयी कोप, राम वनवास, राजा दशरथ की मृत्यु और भरत के अयोध्या आगमन की घटनाएँ यहाँ पलक झपकते ही समाप्त हो जाती हैं। अयोध्या लौटने पर जब भरत को जानकारी मिलती है कि उनकी माता कैकेयी के कारण भीषण परिस्थिति उत्पन्न हुई, तब वे उस पर कुपित होते है। फिर, वे नागरिकों और गुरुजनों को बुलाकर चंद्रोदय के पूर्व पिता का श्राद्ध करने के उपरांत सदल-बल श्री राम की खोज में वन-प्रस्थान करते हैं।
मार्ग में गंगा-यमुना के संगम पर भारद्वाज आश्रम में उनका भव्य स्वागत होता है। Ram Katha Ki Videsh Yatra
रामायण का अर्थ राम का यात्रा पथ
रामायण के घटना स्थलों का विदेश में स्थानीकरण
शिलालेखों से झांकती राम कथा
शिला चित्रों में रुपादित रामायण
भित्तियो पर उरेही गयी रामचरित-चित्रावली
रामलीला: कितने रंग, कितने रुप
रामकथा का विदेश भ्रमण
इंडोनेशिया की रामकथा: रामायण का कावीन
कंपूचिया की राम कथा: रामकेर्ति
थाईलैंड की राम कथा: रामकियेन
लाओस की रामकथा: राम जातक
बर्मा की राम कथा और रामवत्थु
मलयेशिया की राम कथा और हिकायत सेरी राम
फिलिपींस की राम कथा: महालादिया लावन
तिब्बत की राम कथा
चीन की राम कथा
खोतानी राम कथा
मंगोलिया की राम कथा
जापान की राम कथा
श्रीलंका की राम कथा
नेपाल की राम कथा: भानुभक्त कृत रामायण
यात्रा की अनंतता
मंगोलिया की राम कथा
चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया के लोगों को राम कथा की विस्तृत जानकारी है। वहाँ के लामाओं के निवास स्थल से वानर-पूजा की अनेक पुस्तकें और प्रतिमाएँ मिली हैं। वानर पूजा का संबंध राम के प्रिय पात्र हनुमान से स्थापित किया गया है।१ मंगोलिया में राम कथा से संबद्ध काष्ठचित्र और पांडुलिपियाँ भी उपलबध हुई हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि बौद्ध साहित्य के साथ संस्कृत साहित्य की भी बहुत सारी रचनाएँ वहाँ पहुँची। इन्हीं रचनाओं के साथ रामकथा भी वहाँ पहुँच गयी। दम्दिन सुरेन ने मंगोलियाई भाषा में लिखित चार राम कथाओं की खोज की है।२ इनमें राजा जीवक की कथा विशेष रुप से उल्लेखनीय है जिसकी पांडुलिपि लेलिनगार्द में सुरक्षित है।
जीवक जातक की कथा का अठारहवीं शताब्दी में तिब्बती से मंगोलियाई भाषा में अनुवाद हुआ था जिसके मूल तिब्बती ग्रंथ की कोई जानकारी नहीं है। आठ अध्यायों में विभक्त जीवक जातक पर बौद्ध प्रभाव स्पष्ट रुप से दिखाई पड़ता है। इसमें सर्वप्रथम गुरु तथा बोधिसत्व मंजुश्री की प्रार्थना की गयी है। जीवक पूर्व जन्म में बौद्ध सम्राट थे। उन्होंने अपनी पत्नी तथा पुत्र का परित्याग कर दिया। इसी कारण उन्हें दोनों ने शाप दे दिया कि अगले जन्म में वे संतानहीन हो जायेंगे। जीवक की भेंट भगवान बुद्ध से हुई। उन्होंने श्रद्धा के साथ उनका प्रवचन सुना और उन्हें अपने निवास स्थान पर आमंत्रित किया। इस घटना के बाद जीवक की भेंट दस हज़ार मछुआरों से हुई। उन्होंने उन्हें अहिंसा का उपदेश दिया।
जीवक नामक राजा को तीन रानियाँ थीं। तीनों को कोई संतान नहीं थी। राजा वंशवृद्धि के लिए बहुत चिंतित थे। एक बार उन्होंने पुत्र का स्वप्न देखा। भविष्यवस्ताओं के कहने पर वे उंदुबरा नामक पुष्प की तलाश में समुद्र तट पर गये। वहाँ से पुष्प लाकर उन्होंने रानी को दिया। पुष्प भक्षण से रानी को एक पुत्र हुआ जिसका नाम राम रखा गया। कालांतर में राम राजा बने। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। उन्होंने अपने राज्य में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु कुकुचंद को आमंत्रित किया।
लंका के एक दानव ने मृग का रुप धारण कर लिया था। उसका अगला धड़ सोना और पिछला चांदी का था। वह राम के राज्य में निवास करने वाले ॠषियों की तपस्या में बाधा पहुँचाता था। ॠषियों ने राम को बुलवाया। राम ने पत्थर से मृग की एक आँख फोड़ दी। ॠषियों ने आशीर्वाद स्वरुप उन्हें अजेय शक्ति प्रदान की।
दानवों के देश में एक बूढ़ी औरत ने एक बच्ची को जन्म दिया। ज्योतिष शास्र के ज्ञाताओं ने कहा कि यदि वह लड़की जीवित रहती है, तो देश का नाश हो जायेगा। दानवों ने उसे एक बक्से में बंदकर समुद्र में फेंक दिया। वह बक्सा जंबू द्वीप चला गया जहाँ वह एक किसान को मिला। किसान ने उस बच्ची का पालन-पोषण किया। जब वह बड़ी हुई, तब उसने राम से उसका विवाह कर दिया।
दानवराज दशग्रीव को अपनी बहन द्वारा राम की पत्नी के सौंदर्य का पता चला। उसने अपने एक मंत्री को मनोहर मृग का रुप धारण कर राम के पास जाने के लिए कहा। वह मृग उन्हें लुभाकर दूर ले गया। राम जिस समय द्रुत गति से भागते हुए मृग का पीछा कर रहे थे, दानवराज उनकी पत्नी का अपहरण कर अपने देश ले गया।
राम अपनी पत्नी को तलाशते हुए बंदरों के राज्य में पहुँचे। वहाँ दो बंदर आपस में लड़ रहे थे। उनके नाम वालि और सुग्रीव थे। उन्होंने सुग्रीव के अनुरोध पर वालि का वध कर दिया। आभारवश सुग्रीव ने उन्हें बंदरों की विशाल सेना प्रदान की जिसके प्रधान हनुमान थे। राम वानरी सेना के साथ लंका पहुँचे। वे दानव राज को पराजित कर अपनी पत्नी के साथ देश लौट गये, जहाँ वे सुख से जीवन व्यतीत करने लगे ।
शिलालेखों से झांकती राम कथा
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मलयेशिया की राम कथा और हिकायत सेरी राम
मलयेशिया का इस्लामीकरण तेरहवीं शताब्दी के आस-पास हुआ। मलय रामायण की प्राचीनतम पांडुलिपि बोडलियन पुस्तकालय में १६३३ई. में जमा की गयी थी।१ इससे ज्ञात होता है कि मलयवासियों पर रामायण का इतना प्रभाव था कि इस्लामीकरण के बाद भी लोग उसके परित्याग नहीं कर सके। मलयेशिया में रामकथा पर आधरित एक विस्तृत रचना है 'हिकायत सेरीराम'। इसका लेखक अज्ञात है। इसकी रचना तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच हुई थी। इसके अतिरिक्त यहाँ के लोकाख्यानों में उपलब्ध रामकथाएँ भी प्रकाशित हुई हैं। इस संदर्भ में मैक्सवेल द्वारा संपादित 'सेरीराम', विंसटेड द्वारा प्रकाशित 'पातानी रामकथा' और ओवरवेक द्वारा प्रस्तुत हिकायत महाराज रावण के नाम उल्लेखनीय हैं।
हिकायत सेरीराम विचित्रताओं का अजायब घर है। इसका आरंभ रावण की जन्म कथा से हुआ है। किंद्रान (स्वर्गलोक) की सुंदरियों के साथ व्यभिचार करने वाले सिरानचक (हिरण्याक्ष) को पृथ्वी पर दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण के रुप में जन्म लेना पड़ा। वह चित्रवह का पुत्र और वोर्मराज (ब्रह्मराज) का पौत्र था। चित्रवह को रावण के अतिरिक्त कुंबकेर्न (कुंभकर्ण) और बिबुसनम (विभीषण) नामक दो पुत्र और सुरपंडकी (शूपंणखा) नामक एक पुत्री थी।२
दुराचरण के कारण रावण को उसके पिता ने जहाज से बुटिक सरेन द्वीप भेज दिया। वहाँ उसने अपने पैरों को पेड़ की डाल में बाँध कर तपस्या करने लगा। आदम उसकी तपस्या से प्रसन्न हो गये। उन्होंने अल्लाह से आग्रह किया और उसे पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल का राजा बनवा दिया। तीनों लोकों का राज्य मिलने पर रावण ने तीन विवाह किया। उसकी पहली पत्नी स्वर्ग की अप्सरा नील-उत्तम, दूसरी पृथ्वी देवी और तीसरी समुद्रों की रानी गंगा महादेवी थी। नीलोत्तमा ने तीन सिरों और छह भुजाओं वाले एंदेरजात (इंद्रजित), पृथ्वी देवी ने पाताल महारायन (महिरावण) और गंगा महादेवी ने गंगमहासुर नाम के पुत्रों को जन्म दिया।
चक्रवर्ती के पुत्र दशरथ इस्पबोगा के राजा थे। वे एक सुंदर नगर बसाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने मंत्री पुष्पजय क्रम को नियुक्त किया। उसने एक पहाड़ की चोटी पर नया नगर बसाने की योजना बनाई। उस स्थान की सफाई होने लगी, तो बाँस की एक झाड़ी नहीं उखड़ सकी, तब राजा स्वयं कुल्हाड़ी लेकर हाथी से उतर गये। उन्होने झाड़ी में एक सुंदरी को देखा। वे उसे हाथी पर बैठा कर घर ले गये। शुभ मुहूर्त में राजा से मंडूदेवी का विवाह हुआ। विवाह के बाद राजा ने नई रानी के साथ सत्रह मंजिली पालकी पर सवार होकर अपने राज्य की सात परिक्रमा करने गये। सातवीं परिक्रमा में पालकी टूट गयी, किंतु राजा की पटरानी बलियादारी ने उसे अपने कंधे पर रोक लिया। राजा ने बलियादारी को वचन दिया कि उसके बाद उसकी संतान ही राज्य का स्वामी बनेगा।
नये नगर का निर्माण हो गया। उसका नाम मदुरापुर रखा गया, किंतु संतान नहीं होने के कारण राजा चिंतित रहा करते थे। एक ॠषि के कहने पर उन्होंने यज्ञ किया। यज्ञोदन को छह भागों में विभाजित किया गया। उसमें से तीन भाग मंडू देवी या मंदुदरी और तीन भाग बलियादारी को दिया गया। बलियादारी के हिस्से का एक भाग एक काक लेकर भाग गया। वह रावण का संबंधी था। ॠषि ने शाप दिया कि काक मंदुदरी के पुत्र द्वारा मारा जायेगा और जो कोई उस यज्ञोदन को खायेगा, उसे एक पुत्री होगी। उसका विवाह मदुदरी के पुत्र से होगा। काक यज्ञोदन लेकर लंका पुरी गया जहाँ रावण उसे खा गया। कालांतर में मंदुदरी को सेरी राम और लक्ष्मण नामक दे पुत्र हुए। बलियादारी ने बेरदन (भरत) और चित्रदन (शत्रुघ्न) को जन्म दिया।
रावण को मंदुदरी के अनुपम सौंदर्य का पता चला। वह ब्राह्मण वेश में मदुरापुर पहुँचा और राजभवन के सात तालों को मंत्र द्वारा खोलकर अंदर चला गया और वीणा बजाने लगा। वीणा की ध्वनि सुनकर दशरथ अंत:पुर से बाहर निकले, तो ब्राह्मण वेशधारी रावण ने उनसे मंदुदरी को देने का आग्रह किया। उन्होंने पहले तो उसके अनुरोध को ठुकरा दिया, किंतु बाद में अपनी स्वीकृति दे दी। मंदुदरी ने भी पहले उसके साथ जाने से इन्कार किया, किंतु बाद में उसने अपने समान एक सुंदरी का सृजन कर उसे दे दिया।
ह ब्राह्मण वेश में मदुरापुर पहुँचा और राजभवन के सात तालों को मंत्र द्वारा खोलकर अंदर चला गया और वीणा बजाने लगा। वीणा की ध्वनि सुनकर दशरथ अंत:पुर से बाहर निकले, तो ब्राह्मण वेशधारी रावण ने उनसे मंदुदरी को देने का आग्रह किया। उन्होंने पहले तो उसके अनुरोध को ठुकरा दिया, किंतु बाद में अपनी स्वीकृति दे दी। मंदुदरी ने भी पहले उसके साथ जाने से इन्कार किया, किंतु बाद में उसने अपने समान एक सुंदरी का सृजन कर उसे दे दिया। रावण नकली मंदुदरी को लेकर चला गया। रास्ते में उसकी भेंट एक तपस्वी से हुई। उसने तपस्वी से पूछा कि वह आदमी है अथवा बंदर। वह तपस्वी विष्णु का भक्त था। उसने रावण को शाप दिया कि उसकी मृत्यु आदमी या बंदर के द्वारा होगी।
रावण ने धूमधाम से नकली मंदुदरी के साथ विवाह किया। कुछ दिनों बाद उसे एक पुत्री हुई जो सोने के समान सुंदर थी।रावण के भाई बिवुसनभ (विभीषण) ने उसकी कुंडली देखकर कहा कि इस कन्या का पति उसके पिता का वध करेगा। यह जानकर रावण उसे लोहे के बक्से में बंदकर समुद्र में फेंक दिया।३ लोहे का बक्सा बहकर द्वारावती चला गया। महर्षि कलि समुद्र स्नान कर रहे थे। उसी समय वह बक्सा उनके पैर से टकराया। वे बक्सा लेकर अपनी पत्नी मनुरमा देवी के पास गये। बक्सा खोलने पर पूरा घर प्रकाशमान हो गया। उसमें एक अत्यंत सुंदर कन्या थी। महर्षि कलि ने उसका नाम सीता देवी रखा। उन्होनें उसी समय चालीस ताल वृक्ष रखा। उन्होंने उसी समय चालीस तान वृक्ष इस उद्देश्य से लाग दिया कि जो कोई उन्हें एक ही बाण से खंडित कर देगा, उसी से सीता देवी का विवाह होगा।४
महर्षि कलि मंदुरापुर पहुँचे। उन्होने दशरथ के समक्ष राम और लक्ष्मण को अपने सात ले जाने की इच्छा प्रकट की। राजा ने उनके बदले भरत और शत्रुघ्न को अपने साथ ले जाने के लिए कहा। महर्षि उन दोनों की परीक्षा लेने लगे। उन्होंने कहा कि द्वारावती जाने के चार रास्ते हैं। वे किस मार्ग से वहाँ जाना चाहेंगे। पहला रास्ता सत्रह दिनों का है। वह मार्ग अत्यधिक भयानक है। उस रास्ते में जगिनी नामक राक्षसी रहती है जिसे रावण भी पराजित नहीं कर सका। दूसरा रास्ता बीस दिनों का है। इस पथ से जाने वाले को अंगई-गंगई नामक गैंड़ा को मारना पड़ेगा। तीसरा रास्ता पच्चीस दिनों का है। उस रास्त में सुरंगिनी नामक नागिन रहती है। चौथा रास्ता चालीस दिनों का है। उसमें कोई खतरा नहीं है। दोनों भाईयों ने चौथ रास्ते का चुनाव किया। महर्षि समझ गये कि दोनों में शौर्य और पराक्रम का अभाव है। उन्होंने पुन: राजा से राम और लक्ष्मण को अपने साथ जाने देने का आग्रह किया। राजा ने अपनी स्वीकृति दे दी। ॠषि ने राम से भी वही सवाल पूछा। उन्होंने पहले रास्ते का चुनाव किया।
आदि से अंत तक 'हिकायत सेरी राम' इसी प्रकार की विचित्रताओ से परिपूर्ण है। यद्यपि इसमें वाल्मीकीय परंपरा का बहुत हद तक निर्वाह हुआ है, तथापि इसमें सीता के निर्वासन और पुनर्मिलन की कथा में भी विचित्रता है। सेरी राम से विलग होने पर सीता देवी ने कहा कि यदि वह निर्दोष होंगी, तो सभी पशु-पक्षी मूक हो जायेंगे। उनके पुनर्मिलन के बाद पशु-पक्षी बोलने लगते हैं। इस रचना में अयोध्या नगर का निर्माण भी राम और सीता के पुनर्मिलन के बाद ही होता है।
1.Hussein, Ismail, Ramayana in Malyasia, The Ramayana Tradition in Asia, P.143
2. Stutterlein, W., Rama Legends and Rama Reliefs in Indonesia, P.23
3. Stutterlein, W., Rama Legend and Rama Reliefs in Indonesia, P.26-28
4. Stutterlein, W., Rama Legend and Rama Reliefs in Indonesia, P.
थाईलैंड की राम कथा: रामकियेन
एक स्वतंत्र राज्य के रुप में थाईलैंड के अस्तित्व में आने के पहले ही इस क्षेत्र में रामायणीय संस्कृति विकसित हो गई थी। अधिकतर थाईवासी परंपरागत रुप से राम कथा से सुपरिचित थे।१ १२३८ई. में स्वतंत्र थाई राष्ट्र की स्थापना हुई। उस समय उसका नाम स्याम था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि तेरहवीं शताब्दी में राम वहाँ की जनता के नायक के रुप में प्रतिष्ठित हो गये थे,२ किंतु राम कथा पर आधारित सुविकसित साहित्य अठारहवीं शताब्दी में ही उपलब्ध होता है।
राजा बोरोमकोत (१७३२-५८ई.) के रजत्व काल की रचनाओं में राम कथा के पात्रों तथा घटनाओं का उल्लेख हुआ है। परवर्ती काल में जब तासकिन (१७६७-८२ई.) थोनबुरी के सम्राट बने, तब उन्होंने थाई भाषा में रामायण को छंदोबद्ध किया जिसके चार खंडों में २०१२ पद हैं। पुन: सम्राट राम प्रथम (१७८२-१८०९ई.) ने अनेक कवियों के सहयोग से जिस रामायण की रचना करवाई उसमें ५०१८८ पद हैं। यही थाई भाषा का पूर्ण रामायण है।३ यह विशाल रचना नाटक के लिए उपयुक्त नहीं थी। इसलिए राम द्वितीय (१८०९-२४ई.) ने एक संक्षिप्त रामायण की रचना की जिसमें १४३०० पद हैं। तदुपरांत राम चतुर्थ ने स्वयं पद्य में रामायण की रचना की जिसमें १६६४ पद हैं।४ इसके अतिरिक्त थाईलैंड में राम कथा पर आधारित अनेक कृतियाँ हैं।
रामकियेन का आरंभ राम और रावण तो वंश विवरण के साथ अयोध्या और लंका की स्थापना से होता है। तदुपरांत इसमें वालि, सुग्रीव, हनुमान, सीता आदि की जन्म कथा का उल्लेख हुआ है। विश्वामित्र के आगमन के साथ कथा की धारा सम्यक के रुप से प्रवाहित होने लगती है जिसमें राम विवाह से सीता त्याग और पुन: युगल जोड़ी के पुनर्मिलन तक की समस्त घटनाओं का समावेश हुआ है। रामकियेन वस्तुत: एक विशाल कृति है जिसमें अनेकानेक उपकथाएँ सम्मिलित हैं। इसकी तुलना हनुमान की पूँछ से की जाती है। रामकियेन की अनेक ऐसे भी प्रसंग हैं जो थाईलैंड को छोड़कर अन्यत्र अप्राप्य हैं। इसमें विभीषण पुत्री वेंजकाया द्वारा सीता का स्वांग रचाना, ब्रह्मा द्वारा राम और रावण के बीच मध्यस्थ की भूमिक निभाना आदि प्रसंग विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।
नाराई (नारायण) ध्यानावस्था में थे। उसी समय क्षीर सागर से एक कमल पुष्प
की उत्पत्ति हुई। उस कमल पुष्प से एक बालक अवतरित हुआ। नाराई उसे लेकर शिव के पास गये। शिव ने उसका नाम अनोमतन रख दिया और उसे पृथ्वी का सम्राट बनाकर उसके लिए इंद्र को एक सुंदर नगर का निर्माण करने के लिए कहा।
इंद्र ऐरावत पर आरुढ़ होकर जंबू द्वीप में एक अत्यंत रमणीय स्थल पर पहुँचे जहाँ अजदह, युक्खर, ताहा और याका नामक ॠषि तपस्यारत थे। उन्होंने ॠषियों के समक्ष शिव के प्रस्ताव की चर्चा की। ॠषियों ने द्वारावती नामक स्थल को नगर निर्माण के लिए सर्वोत्तम स्थल बताया जहाँ पूर्व दिशा में राजकीय छत्र के समान एक विशाल वृक्ष था। नगर निर्माण के बाद इंद्र ने उन्हीं चार ॠषियों के नाम के आद्यक्षरों के आधार पर उस नगर का नाम अयु (अयोध्या) रख दिया। अनोमतन उस नगर के प्रथम सम्राट बने। इंद्र ने एक अन्य द्वीप पर जाकर मैनीगैसौर्न नामक एक अपूर्व सुंदरी की सृष्टि की। सम्राट अनोमतन का विवाह उसी महासुंदरी से हुआ। उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम अच्छवन था। अपने पिता के बाद वह अयोध्या का सम्राट बना। उसका विवाह थेपबसौर्न नामक सुंदरी से हुआ। दशरथ उन्हीं के पुत्र थे।५
ब्रह्मा अपने चचेरे भाई सहमालिवान को रंका (लंका) द्वीप से पाताल की ओर भागते देखकर चिंतित हो गये। लंका द्वीप पर नीलकल नामक एक गगनचुंबी काला पहाड़ था। उसकी चोटी पर कौवों का एक विशाल घोसला था। ब्रह्मा ने उसे शुभलक्षण का संकेत मानकर वहाँ एक नगर निर्माण करने का निश्चय किया। उनके आदेश से विश्वकर्मा ने उस द्वीप पर दुहरे पाचीरवाले एक सुरम्य नगर का निर्माण किया। ब्रह्मा ने उस नगर का नाम विजयी लंका रखा और अपने चचेरे भाई तदप्रौम को उसका अधिपति बना दिया। उन्होंने उसे चतुर्मुख की उपाधि प्रदान की। चतुर्मुख रानी मल्लिका के अतिरिक्त सोलह हज़ार पटरानियों के साथ वहाँ रहने लग। कालांतर में मल्लिका के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम लसेतियन था।६
वह पिता के स्वर्गवास के बाद लंकाधिपति बना। उसे पाँच रानियाँ थीं। पाँचों रानियों से पाँच पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम कुपेरन (कुबेर), तपरसुन, अक्रथद, मारन और तोत्सकान (दशकंठ) थे। कालांतर में रचदा के गर्भ से कुंपकान (कुंभकर्ण), पिपेक (विभीषण), तूत (दूषण), खौर्न (खर) और त्रिसियन (त्रिसिरा) नामक पाँच पुत्र और सम्मनखा (सूपंणखा) नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई।७
नंतौक (नंदक) नामक हरित देहधारी दानव को शिव ने कैलाश पर्वत पर
देवताओं के पादप्रक्षालनार्थ नियुक्त किया था। देवगण अकारणही कौतुकवश उसके बाल नोच लिया करते थे जिसके परिणाम स्वरुप कालांतर में वहमें वह गंजा हो गया। नंदक ने शिव से अपनी व्यथा-कथा सुनाई, तो उन्होंने द्रवित होकर उसकी तर्जनी ऊँगली में ऐसी शक्ति दे दी कि उससे वह जिसकी ओर इंगित कर देता था, उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती थी। नंदक अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने लगा। देवगण व्यग्र होकर शिव को नंदक की करतूत के विषय में कहा। शिव ने नारायण को बुलाकर नंदक का वध करने के लिए अनुरोध किया।
नारायण नर्तकी का रुप धारण कर नंदक के पास पहुँचे। नंदक उनके रुप को देखकर मोहित हो गया। नर्तकी रुपधारी नारायण ने इतनी चतुराई से नृत्य किया कि नंदक ने अपनी ऊँगली से अपनी ओर ही इंगित कर लिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पूर्व उसने नर्तकी को नारायण रुप धारण करते हुए देख लिया। इसलिए प्रत्यक्ष युद्ध नहीं करने के लिए वह उनकी भत्र्सना करने लगा, तब नारायण ने कहा कि अगले जन्म में वह दस सिर और बीस भुजाओं वाले दानव के रुप में उत्पन्न होगा और वे मनुष्य रुप में अवतरित होकर उसका उद्धार करेंगे।८
अयोध्या के निकट साकेत नामक एक नगर था। उसके सम्राट कौदम (गौतम) थे। संतानहीन होने के कारण वे वन में तपस्या करने चले गये। हज़ारों वर्ष वाद उनकी लंबी और सफ़ेद दाढ़ी के अंदर गौरैया की एक जोड़ी ने घोसला बना लिया। एक दिन नर-पक्षी कमल पुष्प पर खाद्य सामग्री एकत्र करने के लिए बैठा था।उसी समय सूर्यास्त हो जाने के कारण कमल की पंखुड़ियाँ बंद हो गयीं। पक्षी को रातभर उसी के अंदर रहना पड़ा। प्रात:काल कमल खिलने पर वह अपनी पत्नी के पास पहुँचा, तो माद-पक्षी ने उस पर विश्वासघात का आरोप लगाया। नर-पक्षी ने कहा कि यदि उसका आरोप सही है, तो वह ॠषि के सारे पाप का भागी होगा। ॠषि उसकी बात सुनकर चकित हो गये। उन्होंने पक्षी से अपने पाप के विषय में पूछा। पक्षी ने कहा कि नि:संतान होना पाप है।
ॠषि को जब अपनी भूल की जानकारी हुई, तो उन्होंने गृहस्त आश्रम में प्रवेश करने का निर्णय लिया। उन्होंने तपोबल से एक सुंदरी का सृजन किया और उसे अपनी पत्नी बना लिया। उसका नाम अंजना था। अंजना ने स्वाहा नामक एक पुत्री को जन्म दिया। गौतम एक दिन भोज्य सामग्री की तलाश में गये। इसी बीच अंजना का इंद्र से संपर्क हो गया जिसके फलस्वरुप उसने हरित देहधारी एक पुत्र को जन्म
दिया। इस घटना के बाद एक बार सूर्य की दृष्टि अंजना पर पड़ी। सूर्य के संयोग से अंजना ने पुन: एक पुत्र को जन्म दिया जो आदित्य के समान ही देदीव्यमान था। गौतम दोनों को अपना पुत्र समझते थे।
गौतम एक दिन स्नान करने चले, तो उन्होंने एक पुत्र को पीठ पर और दूसरे को गोद में ले लिया। उनकी पुत्री उनके साथ पैदल जा रही थी। उसने गौतम से कहा कि वे दूसरों की संतान को देह पर लादे हुए हैं और उनकी अपनी संतान पैदल चल रही है। गौतम के पूछने पर उसने सारा भेद खोल दिया। गौतम ने क्रुद्ध होकर तीनों को यह कहकर जल में फ्ैंक दिया कि उनकी अपनी संतान उनके पास लौट आयेगी और दूसरों की संतति बंदर बन जायेंगे। स्वाहा लौट कर उनके पास आ गयी, किंतु उनके दोनों पुत्र बंदर बन गये। हरित बंदर पाली (वालि) और लाल बंदर सुक्रीप (सुग्रीव) के नाम से विख्यात हुआ।
संपूर्ण 'रामकियेन' इस प्रकार की विचित्र आख्यानों से परिपूर्ण है, किंतु इसके अंतर्गत रामकथा के मूल स्वरुप में कोई मौलिक अंतर नहीं दिखाई पड़ता। 'रामकियेन' के अंत में सीता के धरती-प्रवेश के बाद राम ने विभीषण को बुलाकर समस्या का समाधान के विषय में पूछा। उसने कहा कि ग्रह का कुचक्र है। उन्हें एक वर्ष तक वन में रहना पड़ेगा। उसके परामर्श के अनुसार राम तथा लक्ष्मण हनुमान के साथ एक वर्ष वन में रहे और उसके बाद अयोध्या लौट गये। अंत में इंद्र के अनुरोध पर शिव ने राम और सीता दोनों को अपने पास बुलाया। शिव ने कहा कि सीता निर्दोष हैं। उन्हें कोई स्पर्श नहीं कर सकता, क्योंकि उनको स्पर्श करने वाला भ हो जायेगा। अंतत: शिव की कृपा से सीता और राम का पुनर्मिलन हुआ।
1. Raghvan, V. (Ed.), The Ramayana Tradition in Asia, P.245
2.Cadet, J.H., Ramkien, P.31-32
3. Raghvan, V. op.cit., P.247
4.Ibid
5. Thongthep, Meechai, Ramkien, P.34
6.Ramayana by Rama I of Sian, P.8-9
७. वर्मा, सूधा, पूर्ववत्, पृ.१३१-३२
रामायण के घटना स्थलों का विदेश में स्थानीकरण
शिलालेखों से झांकती राम कथा
शिला चित्रों में रुपादित रामायण
भित्तियो पर उरेही गयी रामचरित-चित्रावली
रामलीला: कितने रंग, कितने रुप
रामकथा का विदेश भ्रमण
इंडोनेशिया की रामकथा: रामायण का कावीन
कंपूचिया की राम कथा: रामकेर्ति
थाईलैंड की राम कथा: रामकियेन
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बर्मा की राम कथा और रामवत्थु
मलयेशिया की राम कथा और हिकायत सेरी राम
फिलिपींस की राम कथा: महालादिया लावन
तिब्बत की राम कथा
चीन की राम कथा
खोतानी राम कथा
मंगोलिया की राम कथा
जापान की राम कथा
श्रीलंका की राम कथा
नेपाल की राम कथा: भानुभक्त कृत रामायण
यात्रा की अनंतता
रामायण के घटना स्थलों का विदेश में स्थानीकरण
भारतवासी जहाँ कहीं भी गये वहाँ की सभ्यता और संस्कृति को तो उन लोगों ने प्रभावित किया है, वहाँ के स्थानों के भी नाम बदलकर उनका भारतीयकरण कर दिया। कहा गया है कि इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप का नामकरण सुमित्रा के नाम पर हुआ था। जावा के एक मुख्य नर का नाम योग्याकार्य है। 'योग्या' संस्कृत के अयोध्या का विकसित रुप है और जावानी भाषा में कार्टा का अर्थ नगर होता है। इस प्रकार योग्याकार्टा का अर्थ अयोध्या नगर है। मध्य जावा की एक नदी का नाम सेरयू है और उसी क्षेत्र के निकट स्थित एक गुफा का नाम किस्केंदा अर्थात् किष्किंधा है।१ जावा के पूर्वीछोर पर अवस्थित एक शहर का नाम सेतुविंदा है जो निश्चय ही सेतुबंध का जावानी रुप है। इंडोनेशिया में रामायणीय संस्कृति से संबद्ध इस स्थानों का नामकरण कब हुआ, यह कहना कठिन है, किंतु मुसलमान बहुल इस देश का प्रतीक चिन्ह गरुड़ निश्चय ही भारतीय संस्कृति से अपने सरोकार को उजागर करता है।
मलाया स्थित लंग्या सुक अर्थात् लंका के राजकुमार ने चीन के सम्राट को ५१५ई. में दूत के माध्यम से एक पत्र भेजा था जिसमें यह लिखा गया था कि उसके देश में मूल्यवान संस्कृत की जानकारी है उसके भव्य नगर के महल और प्राचीर गंधमादन पर्वत की तरह ऊँचे है।२ मलाया के राजदरबार के पंडितों को संस्कृत का ज्ञान था, इसकी पुष्टि संस्कृत में उत्कीर्ण वहाँ के प्राचीन शिला लेखों से भी होती है। गंधमादन उस पर्वत का नाम था जिसे मेघनाद के वाण से आहत लक्ष्मण के उपचार हेतु हनुमान ने औषधि लाने के क्रम में उखाड़ कर लाया था। मलाया स्थित लंका की भौगोलिक स्थिति के संबंध में क्रोम नामक डच विद्वान का मत है कि यह राज्य सुमत्रा द्वीप में था, किंतु ह्मिवटले ने प्रमाणित किया है कि यह मलाया प्राय द्वीप में ही था।३
बर्मा का पोपा पर्वत ओषधियों के लिए विख्यात है। वहाँ के निवासियों को यह विश्वास है कि लक्ष्मण के उपचार हेतु पोपा पर्वत के ही एक भाग को हनुमान उखाड़कर ले गये थे। वे लोग उस पर्वत के मध्यवर्ती खाली स्थान को दिखाकर पर्यटकों को यह बताते हैं कि पर्वत के उसी भाग को हनुमान उखाड़ कर लंका ले गये थे। वापसी यात्रा में उनका संतुलन बिगड़ गया और वे पहाड़ के साथ जमीन पर गिर गये जिससे एक बहुत बड़ी झील बन गयी। इनवोंग नाम से विख्यात यह झील बर्मा के योमेथिन जिला में है।४ बर्मा के लोकाख्यान से इतना तो स्पष्ट होता ही है कि
वहाँ के लोग प्राचीन काल से ही रामायण से परिचित थे और उन लोगों ने उससे अपने को जोड़ने का भी प्रयत्न किया।
थाईलैंड का प्राचीन नाम स्याम था और द्वारावती (द्वारिका) उसका एक प्राचीन नगर था। थाई सम्राट रामातिबोदी ने १३५०ई. में अपनी राजधानी का नाम अयुध्या (अयोध्या) रखा जहाँ ३३ राजाओं ने राज किया। ७ अप्रैल १७६७ई. को बर्मा के आक्रमण से उसका पतन हो गया। अयोध्या का भग्नावशेष थाईलैंड का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर है। अयोध्या के पतन के बाद थाई नरेश दक्षिण के सेनापति चाओ-फ्रा-चक्री को नागरिकों ने १७८५ई. में अपना राजा घोषित किया। उसका अभिषेक राम प्रथम के नाम से हुआ। राम प्रथम ने बैंकॉक में अपनी राजधानी की स्थापना की। राम प्रथम के बाद चक्री वंश के सभी राजाओं द्वारा अभिषेक के समय राम की उपाधि धारण की जाती है। वर्तमान थाई सम्राट राम नवम हैं।
थाईलैंड में लौपबुरी (लवपुरी) नामक एक प्रांत है। इसके अंतर्गत वांग-प्र नामक स्थान के निकट फाली (वालि) नामक एक गुफा है। कहा जाता है कि वालि ने इसी गुफा में थोरफी नामक महिष का वध किया था।५ यहाँ यह उल्लेखनीय है कि थाई रामायण रामकियेन में दुंदुभि दानव की कथा में थोड़ा परिवर्तन हुआ है। इसमें दुंदुभि राक्षस के स्थान पर थोरफी नामक एक महाशक्तिशाली महिष है जिसका वालि द्वारा वध होता है। वालि नामक गुफा से प्रवाहित होने वाली जलधारा का नाम सुग्रीव है। थाईलैंड के ही नखोन-रचसीमा प्रांत के पाक-थांग-चाई के निकट थोरफी पर्वत है जहाँ से वालि ने थोरफी के मृत शरीर को उठाकर २००कि.मी. दूर लौपबुरी फेंक दिया था।
६ सुखो थाई के निकट संपत नदी के पास फ्राराम गुफा
गुफा है। उसके पास ही सीता नामक गुफा भी है।७
दक्षिणी थाईलैंड और मलयेशिया के रामलीला कलाकारों को ऐसा विश्वास है कि रामायण के पात्र मूलत: दक्षिण-पूर्व एशिया के निवासी थे और रामायण की सारी घटनाएँ इसी क्षेत्र में घटी थी। वे मलाया के उत्तर-पश्चिम स्थित एक छोटे द्वीप को लंका मानते हैं। इसी प्रकार उनका विश्वास है कि दक्षिणी थाईलैंड के सिंग्गोरा नामक स्थान पर सीता का स्वयंवर रचाया गया था जहाँ राम ने एक ही बाण से सात ताल वृक्षों को बेधा था। सिंग्गोरा में आज भी सात ताल वृक्ष हैं।८ जिस प्रकार भारत और नेपाल के लोग जनकपुर को निकट स्थित एक प्राचीन शिलाखंड को राम द्वारा तोड़े गये धनुष का टुकड़ा मानते हैं, उसी प्रकार थाईलैंड और मलेशिया के लोगों को भी
विश्वास है कि राम ने उन्हीं ताल वृक्षों को बेध कर सीता को प्राप्त किया था।
वियतनाम का प्राचीन नाम चंपा है। थाई वासियों की तरह वहाँ के लोग भी अपने देश को राम की लीलभूमि मानते है। उनकी मान्यता की पुष्टि सातवीं शताब्दी के एक शिलालेख से होती है जिसमें आदिकवि वाल्मीकि के मंदिर का उल्लेख हुआ है जिसका पुनर्निमाण प्रकाश धर्म नामक सम्राट ने करवाया था।९ प्रकाशधर्म (६५३-६७९ई.) का यह शिलालेख अनूठा है, क्योंकि आदिकवि की जन्मभूमि भारत में भी उनके किसी प्राचीन मंदिर का अवशेष उपलब्ध नहीं है।
भारतवासी जहाँ कही भी गये भौतिक साधनों के अतिरिक्त आस्था के संबल भी साथ ले गये। भौतिक संसाधनों का तो कालांतर में विनाश हो गया, किंतु उनके विश्वास का वृक्ष स्थानीय परिवेश में फलता-फूलता रहा। प्राकृतिक कारणों से उनकी आकृति और प्रकृति में संशोधन और परिवर्तन अवश्य हुआ, किंतु उन्होंने शिला खंडों पर खोद कर जो उनका इतिहास छोड़ा था, वह आज भी उनकी कहानी कर रही है।
1. Raghavan, V., The Ramayana in Greater India, P.87
2. Sarkar, H.B., The Ramayana Tradition in Asia, P.104-105
3. Itaid, P.105
4. Iyer, K.B., The Ramayana in Burma, Triveni, 1942, 239-40
5. Sahai, Sachchidanand, The Ramayana in Laos, P.123
६. वर्मा सुधा, आग्नेय एशिया में रामकथा, पृ.१२३
७. उपरिवत्, पृ.१२७
८. Sweems Amin, The Ramayana Tradition in Asia, P.128
9. Iyengar, K.R Srinivas, Asian Variation in Ramayana, P.193
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