प्रेम के लिए अंग्रेजी भाषा में प्रचलित शब्द (love) का प्रयोग हमारी संस्कृति में असंगत व यथार्थ भाव का बोधक नहीं है ।
लव तो केवल लोभः और वासना का विशेषण है ।
उसमें प्रेम के जैसी आध्यात्मिक आत्मीय भावना कहाँ !
इसी विषय पर हमारा एक अल्प प्रयास ।
..... विचार- विश्लेषक :---- यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम:- आजादपुर पत्रालय :-पहाड़ीपुर जनपद :-अलीगढ़
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यह पाश्चात्य संस्कृति का वासनामयी प्रदूषण ही है,
जिसके आवेश में धूमिल-विचारक किशोर- वय
विद्या की अरथी को वहन करने वाला विद्यार्थी होकर भी दिग्भ्रमित है ।
पाश्चात्य संस्कृति में "प्रेम - लोभ व वासना का अभिव्यञ्जक हो गया है ।
तैरहवीं शताब्दी में कबीर सदृश महान आध्यात्मिक सन्त भी " कहते हैं कि
" पोथी पढ़ पढ़ जग मरा भया न पण्डित कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय"
कबीर का प्रेम वासना का वाचक नहीं है।
वह तो भक्ति का अभिभासक है ।
वास्तव में भारोपीय भाषा परिवार का लव ( Love) शब्द संस्कृत भाषा में लुभःअथवा लोभः के रूप में प्रस्तावित है।
क्योंकि संस्कृत भाषा भारोपीय भाषा परिवार की शतम् वर्ग की भाषा होने से ग्रीक और लैटिन भाषा की बड़ी बहिन है ।
संस्कृत भाषा में लगभग ८०℅ अस्सी प्रतिशत मूल तथा सांस्कृतिक शब्द यूरोपीय भाषाओं के सदृश हैं ।
लव शब्द जो कि लैटिन में लिबेट( Libet )तथा लुबेट (Lubet) के रूप में विद्यमान है ।
..जिसका संस्कृत में रूप है :-- लुब्ध ( लुभ् + क्त ) भूतकालिक कर्मणि कृदन्त रूप व्युत्पन्न होता है ।संस्कृत भाषा में लुभः / लोभः का अभिधा मूलक अर्थ है :-
(काम की तीव्रता अथवा वासना की उत्तेजना) .. वस्तुतः लोभः में प्रत्यक्ष तो लाभ दिखाई देता है ,परन्तु परोक्षतः व्याज सहित हानि ही है । अंग्रेजी भाषा में यह शब्द (Love )लव शब्द के रूप में है । तथा जर्मन में लीव (Lieve) है , तो ऐंग्लो -सैक्शन अथवा पुरानी अंग्रेजी में (Lufu )लूफु के रूप में है । यह तो सर्व विदित है कि यूरोपीय संस्कृति में प्रेम के नाम पर वासना का उन्मुक्त ताण्डव है ।
वहाँ प्रेम के नाम पर इन्द्रिय-सुख मात्र है ।
जबकि प्रेम निःस्वार्थ रूप से आत्म समर्पण का भाव है, प्रेम तो भक्ति है ।
जबकि भारतीय संस्कृति एक समय खण्ड में संयम मूलक व चित्त की प्राकृतिक वृत्तियों का विरोध करने वाली रही है , यही उपनिषद काल था ।
इन्हीं सन्दर्भों में राधा और कृष्ण का जीवन चरित हमारी विवेचना का विषय है ।
सर्व-प्रथम राधा जी के विषय में -
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राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी ।
यह शब्द वेदों में भी आया है ।
व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा:- स्त्रीलिंग(राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् + अच् । टाप् ):-
अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है ।
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इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।।(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० )
अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है । वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो।
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विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ . २ २. ७)
_______________________________________ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा ! जो राधा को गोपियों में से ले गए वह सबको जन्म देने वाले प्रभु हमारी रक्षा करें।
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त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा:
जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२)
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अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें ।
जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक
स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो ।
त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि ।
वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ )
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अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में कृष्ण अग्नि के सदृश् गमन करने वाले है । ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे
इस दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है । जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं।
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यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त :
-(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद )
राधा वह व्यक्तित्व है , जिसके कमल वत् चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं।
पुराणों में श्री राधा जी का वर्णन कर पुराण कारों ने उसे अश्लीलताओं से पूर्ण कर अपनी
काम प्रवृत्तियों का ही प्रकाशन किया है ।
श्रीमद्भागवत पुराण के रचयिता के अलावा १७ और अन्य पुराण रचने वालों ने राधा का वर्णन नहीं किया है ।
इनमें स केवल छ :में श्री राधा का उल्लेख है।
यथा " राधा प्रिया विष्णो : (पद्म पुराण )
राधा वामांश सम्भूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता
(नारद पुराण )
तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण
रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने ।
(मत्स्य पुराण १३. ३७ (साध्नोति साधयति सकलान् कामान् यया राधा प्रकीर्तिता: )
(देवी भागवत पुराण )
राधोपनिषद में श्री राधा जी के २८ नामों का उल्लेख है।
गोपी ,रमा तथा "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं।
कुंचकुंकु मगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत : (श्रीमदभागवत )
हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसकी रोली श्रीकृष्ण के पैरों से संपृक्त है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ).
यहाँ "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है ।
महालक्ष्मी के लिए नहीं।
क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेल हैं।
वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी ?
रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक : स्वप्रतिबिम्ब विभाति " -(श्रीमदभागवतम १ ०. ३३.१ ६ कृष्ण रमा के संग रास करते हैं। यहाँ रमा राधा के लिए ही आया है। रमा का मतलब लक्ष्मी भी होता है लेकिन यहाँ इसका रास प्रयोजन नहीं है.लक्ष्मीपति रास नहीं करते हैं।
रास तो लीलापुरुष घनश्याम ही करते हैं।
आक्षिप्तचित्ता : प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा सहृदय तादात्म्य -(श्रीमदभागवतम १०. ३०.२ )
जब श्री कृष्ण महारास के मध्यअप्रकट(दृष्टि ओझल ,अगोचर ) हो गए गोपियाँ प्रलाप करते हुए मोहभाव को प्राप्त हुईं।
वे रमापति (रमा के पति ) के रास का अनुकरण करने लगीं। स्वांग भरने लगीं। यहाँ भी रमा का अर्थ राधा ही है । लक्ष्मी नहीं हो सकता क्योंकि विष्णु रास रचाने वाले नहीं रहे हैं।
वस्तुत यह अति श्रृंगारिकता कृष्ण के पावन चरित्र को लाँछित भी करती है । परन्तु ये सब काल्पनिक उड़ाने मात्र ही हैं ।
यां गोपीमनयत कृष्णो (श्रीमद् भागवत १०/३०/३५ )
श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर (अप्रकट )हो गए।
महारास से विलग हो गए।
गोपी राधा का भी एक नाम है।
अन्याअ अराधितो (अन्याययराधितो )नूनं भगवान् हरिरीश्वर :
इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति की है। कृष्ण उन्हें अपने संग ले गए.
अलावा इसके राधा का उल्लेख अनेक पौराणिक ग्रन्थों में हुआ है।
और कृष्णः ज्ञान योग के द्वारा कर्षण करने वाले ।
राधा भक्ति रूप हैं , तो कृष्ण स्वयं ज्ञान का स्वरूप,
कृष्ण आभीर (गोप) शिरोमणि तत्कालीन यादव समाज के महानायक थे |
यद्यपि महाभारत भी विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाओं से बचा नहीं है तो भी
कृष्ण का कुछ उज्ज्वल चरित्र महाभारत में प्राप्त होता है । परन्तु राधा का वर्णन नहीं प्राप्त हो का है ।
कृष्ण का वर्णन ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९६ वें--सूक्त में।
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ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९६ में सूक्त की ऋचा संख्या (१३,१४,१५,) पर कृष्ण को असुर कहा है ।
और इन्द्र के साथ कृष्ण का युद्ध वर्णन है !
जो यमुना नदी (अंशुमती) के तलहटी मे कृष्ण गायें चराते हैं ।
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आवत् तमिन्द्र शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।।१४।।
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कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।
वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त वरुण , अग्नि आदि का वाचक है।
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'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: मेधावी') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अनंतर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरंभ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। (ऋक्. १०।१३८।३-४)
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शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)
ये लोग पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम इतिहास में असीरियन कहलाए ।
पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।
शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।
आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का संबंध असुरों से माना जाता है। पुराणों तथा अवांतर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।
यहूदी जन-जाति और असीरियन जन-जाति समान कुल गोत्र के अर्थात् सॉम या साम की सन्तानें थे ।
इसी लिए इन्हें सेमेटिक सोम वंश का कहा जाती है ।
पुराणों में सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया।
इसी कारण ही कृष्ण को असुर कहा जाना आश्चर्य की बात नहीं है ।
यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें---
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(१०/६२/१०ऋग्वेद )
इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित ही है ।
यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं । जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।
पुराणों में कृष्ण को प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है।
"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था । बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को विलास पुरुष बना दिया ।"
तब तक यूनानीयों का पदार्पण भारतीय सीमाओं में हो गया था ।
महाभारत में ला़क्षा ग्रहण में सुरंगम् शब्द यूनानी शब्द ही है । सिरिञ्ज(sȳringēs )
(1375–1425; new singular formed from Late Latin sȳringēs, plural of sȳrinx syrinx; replacing late Middle English syring <
Medieval Latin syringa.
syringe. early 15c., from Late Latin syringa, from Greek syringa, accusative of syrinx "tube, hole, channel, shepherd's pipe," related to syrizein "to pipe, whistle, hiss," from PIE root *swer- (see susurration). Originally a catheter for irrigating wounds, the application to hypodermic needles is from 1884.
संस्कृत भाषा में सुरंगम् :--(सुष्ठु रङ्गो यस्मात् । ) नागरङ्गः । इति राजनिर्घण्टः ॥ गर्त्तविशेषः । इति सुरङ्गयुक्शब्ददर्शनात् ॥
स्वर्ग गंगा से व्युत्पन्न कर दिया है ।
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क्योंकि रास, रति तथा काम जैसे श्रृंगारिक शब्द ग्रीक भाषा के हैं।
अर्थात् एरॉस( Eros) एरेटॉ erotes
god of love, from Greek eros (plural erotes), "god or personification of love," literally "love,"
प्रेम की शाब्दिक परिभाषा ज्ञात करने से पूर्व यह अनुभव करना आवश्यक होगा, की प्रेम अधिकतर आभासीत होकर ही अभिव्यक्ति होता है, और अपनी चरम् अनुभूति में स्पर्शमय भी हो सकता है।
परन्तु वह स्पर्श वासनाओं से परे होगा "
शुद्ध प्रेम त्याग पूर्ण होता है,उसमे स्वार्थ का निम्नतम अंश ही पाया जाता है। स्वार्थ और वासना की बढ़ती मात्रा प्रेम के स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध हो जाती है।
मनोवैज्ञानिक (जीक रुबिन )के अनुसार शुद्ध प्रेम में तीन तत्वों का होना, अति आवश्यक है, वो है,
1• लगाव (attachment)
2• ख्याल (caring)
3• अंतरंगता (intimacy)
उनका मानना है, इन तीनो के कारण ही, एक व्यक्ति दूसरे से प्रेम चाहता है।
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प्रेम की उत्तम परिभाषा यही है, इसमे कहीं “मैं” का समावेश नहीं रहता, इसके लिए “हम” ही उत्तम माना गया है। दूसरी बात प्रेम में पवित्रता का आभास होता है, परन्तु वासना के बारे में ऐसा कहने से संकोच का अनुभव होता है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है, कि प्रेम सत्यता के आसपास रहना चाहता है ।
अतृप्ति का ही नाम वासना है । तथा पूर्ण तृप्ति है प्रेम।
प्रेम जितना भावनात्मक है ।
वासना उतनी ही शारीरिक बुभुक्षा (भोगने की इच्छा)
जिसे हम भूख कहते हैं।
प्रेम में कोई आकाँक्षी नहीं होता है, क्योंकि आकाँक्षाएं तो अतृप्ति के जल में उत्पन्न लहरें ही हैं। और अतृप्त व्यक्ति किसी भी तरह स्वयं तृप्त हो जाना चाहता है, वह यह इसकी चिन्ता नहीं करता है , कि किसी को कष्ट भी हो रहा है। वासना में व्यक्ति पशु के भाँति व्यवहार करता है। जबकि प्रेम में परम विश्रांति को प्राप्त होता है । वासना और प्रेम में मुख्य भेद यह है कि वासना में मनुष्य कि उर्जा नीचे की ओर प्रवाहित तथा प्रेम में ऊपर की ओर प्रवाहित होती है। वासना में मनुष्य का केंद्र खो जाता है तथा प्रेम में केंद्र पर होता है। बहुत लोग प्रेम के भ्रम में वासना को ही पोषित करते रहते हैं। जहाँ पर थोड़ा भी अपने सुख का ख्याल आया वहां प्रेम नहीं हो सकता है भले ही हम उसे देख न पायें। प्रेम में दो नहीं होते जहाँ पर दो की अनुभूति होती है वहां पर वासना ही होती है। प्रेम अखंड होता है तथा वासना में व्यक्ति बनता होता है।
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आज का नव युवक केवल शारीरिक सम्बन्धों और विवाह को ही प्रेम की अन्तिम सीढ़ी समझते हैं।
वासना एक ऐसी यथार्थ प्रवृत्ति गत भूख है। जो कि हर एक स्त्री पुरूष में एक दूसरे के प्रति ऋण -धन के विद्युतीय आवेशात्मकता रूप में
आकर्षण उत्पन्न करती है ।
यह दौनों की एक दूसरे को प्राकृतिक आवश्यकता है।
और सौन्दर्य आवश्यकता मूलक दृष्टि-कोण ही है।
इस आवश्यकता की आपूर्ति होना आवश्यक है ।अन्यथा मनुष्य में विक्षिप्तताऐं आ जाती है। यही प्रक्रृति का नियम भी है।
वासना का अर्थ होता है :- कामलिप्सा या मैथुन की तीव्र इच्छा , वासना कभी-कभी हिंसक रूप में भी प्रकट होती है। अधिकांश धर्मों में इसे पाप माना गया है।
वासनाओं के जल में ही पाप की लहरें और अपराध के बुलबुलें उठते रहते हैं
वासना आपूर्ति क्षणिक सुख का आभास तो कर सकती है परन्तु प्रेम आनन्द की उस अनुभूति का कारण है ,।
जो प्राकृतिक सीमाओं से परे है ।
विषयों में अनुराग रखने वाला पुरुष ही बन्धन में होता है।
वासना विषय गत है ।
विषय हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। ये इन पाँच महाभूतों की तन्मात्रायें है
आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी आदि
शब्दादि इसकी तन्मात्रायें ही हमारी इन्द्रियों के लिए विषय हैं। स्वभावतः ये विषय सुखदायी लगते हैं और इनमें हमारा राग-द्वेष होता है।
अनुकूल होने पर विषय सुखदायी और प्रतिकूल होने पर दु:ख दायी क्योंकि ::--
(सु = अनुकूल + ख = इन्द्रिय-
इसी प्रकार दु: = प्रतिकूल + ख इन्द्रिय- )लगते हैं और उनमें आसक्ति हो जाती है।
आसक्ति के कारण हम विषयों के अधीन हो जाते हैं, उनके बिना हम अपना जीवन निरर्थक समझने लगते हैं , और विषय हमें अपने बन्धन में बाँध लेते हैं।
बार-बार विषयों का सुख लेते रहने पर चित्त में उनका संस्कार निर्मित होता है।
संस्कार दृढ़ होकर वासना का रूप धारण कर लेता है। वासना के कारण मनुष्य की विषय-सुख की इच्छा बार-बार होती है। वह उन्हें प्राप्त करने और भोगने का प्रयास करता है। यही कामनाऐं जीवन का कारण हैं
आसक्ति युक्त भोग से वासना बार-बार दृढ़ होती रहती है। जीवन के अन्त तक वह बहुत बढ जाती है। वासनाओं की तृप्ति के लिए जीव को बार-बार शरीर धारण करना पडता है। यह जीव के लिए विवशता है। इसे बंधन कहते हैं।
इस प्रकार जीव विषयासक्ति के बंधन में पड़कर पुनर्जन्म के दुःख भोगता है। किसी पुण्यकर्म के कारण सत्संग प्राप्त होता है तो जीव को अपनी समस्या का बोध होता है। वह अपने बंधन से छूटना चाहता है। उसके लिए वह परमात्मा का सहारा लेता है। निरन्तर प्रयासरत रहने पर जीव मुक्त हो सकता है।
यदि विषयों में अनुराग नहीं रह जाता, मनुष्य विरक्त हो जाता है तो वह मुक्त ही है। विषयों में राग न रहना ही वैराग्य या विरक्ति है ।
विषयों का राग या आसक्ति स्वतः समाप्त नहीं हो जाती।
वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ शिथिल और दुर्बल हो जाने पर अनासक्त हो जाने का भ्रम होता है। वस्तुतः वासनायें बडी सूक्ष्म और गहन होती हैं।
वे वृद्धावस्था में सूक्ष्म से से बीज के समान चित्तभूमि में पडी रहती हैं। मरने के बाद जब अगला शरीर मिलता है, तो इन्द्रियाँ फिर सशक्त होने लगती हैं ।
और पूर्व जन्म की वासनाएं अंकुरित होकर जीव को पुनः भोगों में प्रवृत्त कर देती है। इस प्रकार जीव का बंधन जन्म-जन्मान्तर चलता है ।वह स्वतः कभी मुक्त नहीं होता।
मुक्त होने के लिए जीव को प्रयास करना होता है। उसके लिए एक सुनिश्चित क्रमबद्ध मार्ग है। उस पर धैर्य के साथ आगे बढते रहने से अन्त में आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है। उसे अनुभव हो जाता है। फिर वह विषयों का सुख झूठा समझकर त्याग देता है। विषयों का यह वैराग्य ही मुक्ति का लक्षण है।
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संस्कृत भाषा में रति और श्रृंगार शब्द विवेचनीय है ।
जिसको मूलत: विश्लेषण करेंगे ।
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god of love, late 14c., from Greek eros (plural erotes), "god or personification of love," literally "love," from eran "to love," erasthai "to love, desire," which is of uncertain origin.
अर्थात् ग्रीक देश के निवासी आर्य काम के देवता को एरॉस कहते थे ! वास्तविकता में यह काम भावना का मानवीय करण नहीं जैवीय करण है।
संस्कृत भाषा में अर् हर् तथा ऋ धातु ग्रीक के एरन से सम्बद्ध है
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According to Greek literature----
Freudian sense of "urge to self-preservation and sexual pleasure" is from Ancient Greek distinguished four ways of love: erao "to be in love with, to desire passionately or sexually;" phileo "have affection for;" agapao "have regard for, be contented with;" and stergo, used especially of the love of parents and children or a ruler and his subjects.
संस्कृत भाषा में हृष्टि तथा हर्षित जैसे शब्द
ग्रीक भाषा में (erasthai ) अर्थात् हर्षित करना ।
स्पर्श करना आदि से तादात्म्य स्थापित करते हैं ।..
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Eros is the god of love, from Greek eros (plural erotes), "god or personification of love," literally "love," from eran identify with Sanskrit (अरण ) अथवा हरण (हर्षण)
"to love," erasthai "to love, desire," which is of Indo European origin.
Freudian sense of "urge to self-preservation and sexual pleasure" is from .Ancient Greek distinguished four ways of love: erao "to be in love with, to desire passionately or sexually;" phileo "have affection for;" agapao "have regard for, be contented with;" and stergo, used especially of the love of parents and children or a ruler and his subjet ..हर्षः, पुं, (हृष तुष्टौ + घञ् ।)
इष्टश्रवणजन्य- सुखम् । इति महाभारते मोक्षधर्म्मः ॥ आह्लादः । तत्पर्य्यायः । मुत् २ प्रीतिः ३ प्रमदः ४ प्रमोदः ५ आमोदः ६ सम्मदः ७ आनन्दथुः ८ आनन्दः ९ शर्म्म १० शातम् ११ सुखम् १२ इत्यमरः । १ । ४ । २४ ॥ मुदा १३ मुदिता १४ आनन्दिः १५ नन्दिः १६ सातम् १७ सौख्यम् १८ । केचिंत्तु मुदादिसप्तकं प्रीतौ आनन्दथ्वादिपञ्चकं सुखे । प्रीतिश्च सुखजो विकारः
इत्याहुः । इति तट्टीकायां भरतः ॥ तथा च । “मुत् प्रीतिः प्रमदामोदसम्मोदमोदसम्मदाः । प्रमोदो हर्ष इत्येव हर्षपर्य्याय ईरितः ॥ आनन्दो नन्दथुर्नन्दः सुखमानन्दथुर्म्मुदा । सौख्यं शर्म्मोपजोषः स्यादानन्दं जोषमित्यपि ॥ मुदादिजोषपर्य्यन्तमेकपर्य्यायः इत्यपि ॥” इति शब्दरत्नावली ॥ * ॥ हर्षस्य पुत्त्रः कन्दर्पः । यथा, -- पुलस्त्य उवाच । “कन्दर्पो हर्षतनयो योऽसौ कामो निगद्यते ।
स शङ्करेण संदग्धो ह्यनङ्गत्वमुपागतः ॥” इति वामने ५ अध्यायः ॥ (रोमाञ्चः । यथा । “हृष्येते हर्षयुक्तौ भवतः हर्षश्च रोमाञ्चप्रायः ।” इति रुग्विनिश्चयस्य वातव्याधिव्याख्याने विजयरक्षितः ॥)
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रति देवी का उल्लेख प्राचीन काल से ही वेद, शतपथ ब्राह्मण, एवं उपनिषदों में होता चला आ रहा है। इन परम्परओं में इसे सौंदर्य की अधिष्ठात्री देवी एवं उषा के समकक्ष कहा गया है। पौराणिक परम्परा में दक्ष की पुत्री एवं शतपथ ब्राह्मण के अनुसार गन्धर्व कन्या के रूप में इनका उल्लेख मिलता है।
दक्ष एवं गन्धर्व वस्तुतः विलासी जातियां रही है।
इन्हें कामदेव की अर्धांगिनी भी कहा जाता है।
संस्कृत भाषा में इसकी व्युत्पत्ति-कोश कारों ने आनुमानिक रूप से ही की है ।
विशेष रूप से यूनानी काल में रचित ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार :--
(रम्यतेऽनया इति । रम् + क्तिन् । ) कामदेवपत्नी ॥ (अस्याः नामनिरुक्तिर्यथा ब्रह्मवैवर्त्ते प्रकृतिखण्डे । ४ । ९ । “ मनो मथ्नाति सर्व्वेषां पञ्चबाणेन कामिनीम् । तन्नाम मन्मथस्तेन प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ तस्य पुंसो वामपार्श्वात् कामस्य कामिनी वरा । बभूवातीव ललिता सर्व्वेषां मोहकारिणी ॥ रतिर्बभूव सर्व्वेषां तां दृष्ट्वा सस्मितां सतीम् । रतीति तेन तन्नाम प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ “ ) तस्य उत्पत्तिः नामकारणं कामपत्नीत्वञ्च यथा दक्ष उवाच । “ मद्देहजेयं कन्दर्प मद्रूपगुणशालिनी । एनां गृह्णीष्व भार्य्यार्थे भवतः सदृशी गुणैः ॥ एषा तव महातेजाः सर्व्वदा सहचारिणी । भविष्यति यथाकामं धर्म्मतो वशवर्त्तिनी ॥
अपिच ----
मार्कण्डेय उवाच :---
इत्युक्त्वा प्रददौ दक्षो देहस्वेदजलोद्भवाम् । कन्दर्पायाग्रतः कृत्वा नाम कृत्वा रतीति ताम् ॥
तां वीक्ष्य मदनो रामां रत्याख्यां सुमनोहराम् । आत्माशुगेन विद्धोऽसौ मुमोह रतिरञ्जितः ॥
“ इति कालिकापुराणे ३ अध्यायः ॥
अनुरागः । (यथा भागवते । १ । २ । ८ । “ नोत्पादयेद् यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ “ ) रतम् । (यथा बृहत्संहितायाम् । ७४ । १८ ।
“ कामिनीं प्रथमयौवनान्वितां मन्दवल्गुमृदुपीडितस्वनाम् । उत्स्तनीं समवलम्ब्य या रतिः सा न धातृभवनेऽस्ति मे मतिः ॥ “ ) गुह्यम् । इति मेदिनी कोश। । ४९ ॥
(अप्सरोविशेषः । यथा महाभारते । १३ । १९ । ४५ ।
“ विद्युता प्रशमी दान्ता विद्योता रतिरेव च । एताश्चान्याश्च वै बह्व्यः प्रनृत्ताप्सरसः शुभाः ॥ “ प्रीतिः । यथा रामायणे । १ । १८ । २४ । “ तेषां केतुरिव ज्येष्ठो रामो रतिकरः पितुः ॥ “ ‘ रतिः प्रीतिः । ‘ इति तट्टीकायां रामानुजः ॥ )
रतिबन्धा यथा -“ न भवन्ति यदा नार्य्यस्तुष्टा वाद्यरते मताः । नानाविधैस्तथाबन्धै रन्तव्याः कामिभिः स्त्रियः ॥ पद्मासनो नागपाशो लतावेष्टोऽर्द्धसंपुटम् ।
कुलिशं सुन्दरश्चैव तथा केशर एव च ॥
हिल्लोलो नरसिं होऽपि विपरीतस्तथापरः । क्षुब्धो वै धेनुकश्चैवमुत्कण्ठस्तु ततः परम् । सिंहासनो रतिनागो विद्याधरस्तु षोडशः ॥
“ इति रतिमञ्जरी ॥ एतेषां लक्षणानि तत्तच्छब्दे द्रष्टव्यानि ॥
अमरकोशः में वर्णित है :--
रतम्, क्ली, (रमणमिलि । रम् + भावे क्तः ।) मैथुनम् । इत्यमरः । २ । ७ । ५७ ॥
(यथा, आर्य्यासप्तशत्याम् । ५४९ । “विपरीतमपि रतं ते स्रोतो नद्या इवानुकूल- मिदम् । तटतरुमिव मम हृदयं समूलमपि वेगतो हरति ॥” तत्तु द्बिविधम् । यथा, कामशास्त्रम् । “बाह्यमाभ्यन्तरञ्चेति द्बिविधं रतमुच्यते । तत्राद्यं चुम्बनाश्लेषनखदन्त क्षतादिकम् ॥ द्बितीयं सुरतं साक्षान्नानाकारेण कल्पितम् ॥”) गुह्यम् । इति मेदिनी । ते, ४९ ॥ अनुरक्ते, त्रि ॥ (यथा, राजतरङ्गिण्याम् । ३ । ५०५ । “तत्तुल्यगुणनिर्व्विण्णा तद्बिपक्षस्तुतौ रता ॥” नियुक्तः । यथा, मनुः । २ । २३५ । “यावत्त्रयस्ते जीवेयुस्तावन्नान्यं समाचरेत् । तेष्वेव नित्यं शुश्रूषां कुर्य्यात् प्रियहिते रतः ॥”)
अमरकोशः
रत नपुं। मैथुनम्
समानार्थक:व्यवाय,ग्राम्यधर्म,मैथुन,निधुवन,रत
(2।7।57।1।5 )
व्यवायो ग्राम्यधर्मो मैथुनं निधुवनं रतम्. त्रिवर्गो धर्मकामार्थैश्चतुर्वर्गः समोक्षकैः॥
पदार्थ-विभागः : , क्रिया
वाचस्पत्यम्
'''रत'''¦ न॰ रम--भावे क्त।
१ रमणे स्त्रीपुंसयोः सङ्गमे मैथुनेअमरः कोश ।
२ गुह्ये च मेदि॰। कर्त्तरि क्त।
३ अनुरक्ते त्रि॰।
शब्दसागरः
रत¦ mfn. (-तः-ता-तं) Occupied or engaged by, actively intent on. n. (-तं)
1. Copulation, sexual union.
2. Pleasure.
3. A privity, a private part. E. रम् to sport, क्त aff.
Apte
रत [rata], p. p. [रम्-कर्तरि क्त]
Pleased, delighted, gratified.
Pleased or delighted with, fond of, enamoured of, fondly attached to.
Inclined to, disposed.
Loved, beloved.
Intent on, engaged in, devoted to; गोब्राह्मणहिते रतः Ms.11.78.
Having sexual intercourse with (see रम्).
तम् Pleasure.
Sexual union, coition; अन्वभूत् परिजनाङ्गनारतम् R.19.23,25; Me.91.
The private parts. -Comp. -अन्ध्री (अङ्घ्री ?) f. mist, fog,-अन्दुकः, -आमर्दः a dog. -अयनी a prostitute, harlot.-अर्थिन् a. lustful, lascivious. -उद्वहः the (Indian) cuckoo.
ऋद्धिक a day.
the eight auspicious objects.
bathing for pleasure.
कीलः a dog.
a penis. -कूजितम् lustful or lascivious murmur. -गुरुः a husband. -गृहम् pudendum muliebre. -ज्वरः a crow.-तालिन् m. a libertine, sensualist. -ताली a procuress, bawd.
नाराचः, नीरीचः a voluptuary.
(the god of love, Cupid.)
a dog.
lascivious murmur. -निधिः the wagtail. -बन्धः sexual union. -मानस a. having a delighted mind. -विशेषाः various kinds of sexual union.-व्रणः, -शायिन् m. a dog.
हिण्डक a ravisher or seducer of women.
a voluptuary.
Monier-Williams Dictionary
रत रतिetc. See. under रम्, p.867 , cols. 2 , 3.
रत mfn. pleased , amused , gratified BhP.
रत mfn. delighting in , intent upon , fond or enamoured of , devoted or attached or addicted or disposed to( loc. instr. or comp. ) S3Br. etc.
रत mfn. ( ifc. )having sexual intercourse with BhP.
रत mfn. loved , beloved MW.
रत n. pleasure , enjoyment , ( esp. ) enjoyment of love , sexual union , copulation Ka1v. Var. etc.
रत n. the private parts L.
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संस्कृत भाषा में रास शब्द के सूत्र यूनानी शब्द एरॉस (Eros) प्रस्तावित हैं ।
संस्कृत भाषा में भी रास शब्द की व्युत्पत्ति करने की आनुमानिक रूप से चेष्टा की गयी है ।
देखें :-
(रासनमिति रासतेऽत्रेति वा । रास शब्दे + भावे अधिकरणे वा घञ् । ) कोलाहलः । ध्वानः । भाषाशृङ्खलकः । गोपानां क्रीडाभेदः । इति मेदिनी । से ११ ॥ तस्य विधिर्यथा -“ कार्त्तिकीपूर्णिमायाञ्च कृत्वा तु रासमण्डलम् । गोपानां शतकं कृत्त्वा गोपीनां शतकन्तथा ॥ शिलायां प्रतिमायां वा श्रीकृष्णं राघया सह । भारते पूजयेत् कृत्वा चोपहाराणि षोडश ॥ गोलोके च वसेत् सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः । भारतं पुनरागत्य हरिभक्तिं लभेद्ध्रुघम् ॥ क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरपि । देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति च ॥ तत्र कृष्णस्य सारूप्यं संप्राप्य पार्श्वदो भवेत् । पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो महान् ॥ “ इति ब्रह्मवैवर्त्ते प्रकृतिखण्डे २५ अध्यायः ॥ विस्तारस्तु श्रीकृष्णजन्मखण्डे २८ अध्याये
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तथा बारहवीं सदी में रचित ग्रन्थ श्री-मद् भागवत पुराण के अनुसार:---
तैर्वञ्चितो हंसकुलं समाविशत् नरोचयन् शीलमुपैति वानरान् । तज्जातिरासेन सुनिर्वृतेन्द्रियः परस्परोद्बीक्षणविस्मृतावधिः ॥ “ “ तैर्वञ्चितस्तत्र फलाभावं ज्ञात्वा हंसानां ब्राह्मणानां कुलं पुनः प्रविशन् तेषां शीलं प्रायश्चित्तपूर्ब्बकं पुनरुपनयनाद्याचारमरोचयन् अप्रियं पश्यन् वानरतुल्यान् भ्रष्टाचारान् शूद्रप्रायानुपैति । तज्जातिरासेन वानरजातिक्रियया स्त्रियां मिथुनीभूय परस्परमुखोद्वीक्षणेन विस्मृतो जीवितावधिर्मरणकालो येन । “ इति तट्टीकायां श्रीधरस्वामी ॥ )
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असली हीरे की खोज में कितनो ने ही कांच को गले लगाने की भूल की है। इसमें असली हीरे का क्या कसूर जो कोई कांच से घायल होकर हीरे को बदनाम करे। कुछ ऐसी ही दुविधा प्रेम-के क्षेत्र में भी देखने को मिलती है।
कृष्ण का वर्णन ऋग्वेद के बाद छान्दोग्य उपनिषद में हुआ । तथा फिर
महाभारत में भगवान् कृष्ण का सर्वप्रथम उल्लेख हुआ है ।
आदिपर्व में द्रौपदी – स्वयंवर के प्रसंग में इनका वर्णन मिलता है, जहां अन्य राजाओं की भांति वे भी स्वयंवर के देखने को पधारे थे ।
यहां भगवान के पूर्व चरित का कोई वर्णन न करके उनके विषय में यह कहा गया है ।
कि वे एक प्रसिद्ध राजा थे ।
इसी प्रसंग में पहले – पहल भगवान श्रीकृष्ण का उल्लेख मिलने की बात इसलिए कही है, कि इसके पूर्व दो एक जगह जो भगवान उल्लेख है, उसका महाभारत मुख्य कथानक अर्थात् कौरव पाण्डवों के आख्यान से कोई संबंध नहीं है ।
राधा और कृष्ण का पौराणिक कथाओं में केवल श्रृंगारिक वर्णन ही अधिक अश्लील है ।
. संस्कृत भाषा में राधा का अर्थ ही प्रेम , भक्ति और सिद्धि है |
..और आज के नवयुवक और नव युवतियाँ पूर्णतः प्रेम के नाम पर दिग्भ्रमित है ।
अतः ये नव युवक व युवतीयाँ लोभ और वासना के पुजारी हैं ।
प्रेम के तत्व को ये क्या समझ सकते है ?
श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं ।
जिनका सम्बन्ध असीरियन तथा द्रविड सभ्यता से ही सम्बद्ध है ।
इसका स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक उल्लेख में मिलता है।
वहां (3.17.6) कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षिदेव:घोर आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था ।
और श्रीमद्भगवद् गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।
यद्यपि गीता का अर्थ गुरु शिष्य का संवाद "
परन्तु इसमें भी मिलाबट है
परन्तु कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है ।
किन्तु इनके जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत का है और वह ऐतिहासिक कम, आध्यात्मिक अधिक है और यह बात ग्रंथ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है।
भागवत पुराण बारहवीं सदी की रचना है ।
ग्रन्थ में चमत्कारी भौतिक वर्णनों के पर्दे के पीछे गहन आध्यात्मिक संकेत संजोए गए हैं।
वस्तुतः भागवत में सृष्टि की संपूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन कराया गया है। ग्रंथ के पूर्वार्ध (स्कंध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कंध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है।
भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहचानने का यहाँ प्रयास किया गया है।
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हिन्दू कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई० पूर्व हुआ था,परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ई०पूर्व मानना अधिक युक्ति युक्त है।
जो महाभारत युद्ध की कालगणना से मेल खाता है ।
यद्यपि महाभारत का रचना काल महात्मा बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में किया गया है ।
क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है।
बुद्ध का समय ई०पू०563 के समकक्ष है ।
छान्दोग्य उपनिषद का अनुमान है, जो 8 वीं और 6 वीं शताब्दी ई.पू. के बीच कुछ समय में रचित हुआ था,
प्राचीन भारत में कृष्ण के बारे में अटकलों का एक और स्रोत रहा है।
भागवत महापुराण के द्वादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरंभ के सन्दर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारंभ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फ़रवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकण्ड पर हुआ था।
परन्तु यह तथ्य प्रमाण रूप नहीं हैं ।
पुराणों में बताया गया है ,कि जब श्री कृष्ण का स्वर्गवास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ, इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ई०पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा। इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई।
पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था।
जो हमें भागवत आदि पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा के ओर ले जाता है।
इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व हुआ होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है।
इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है।
ऋग्वेद -- में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं
(ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमतीअर्थात् यमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहता था । और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ वर्णित किया गया था।
विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे$धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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ऋग्वेद कहता है :-----
" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सेना
तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है ।
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एक स्थान पर ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में है " कि
यदु जो कृष्ण के आदि पूर्वज हैं ।
उनको तुर्वशु के साथ दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया गया है ।
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
ऋग्वेद-१०/ ६२ /१०
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असुर शब्द दास का पर्याय वाची है ।
क्योंकि ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के २/३/६ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर वर्णित किया गया है ।
कृष्ण की कथाओं का सम्बन्ध अहीरों से है ।
अहीरों से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण यदु वंश से पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज का द्रोह चलता रहा ।
सत्य पूछा जाय तो ये सम्पूर्ण विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल से प्रारम्भ होकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक अनवरत
यादव अर्थात् आभीर जन जाति को हीन दीन दर्शाने के लिए योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध ग्रन्थ रूप में हुई-
जो हम्हें विरासत में प्राप्त हुईं हैं ।
अहीरों के अतिरिक्त यादवों की अनेक शाखाऐं हैं
परन्तु अाभीरों प्राचीनत्तम शाखा है ।
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विष्णु पुराण अंक ५ अध्याय १३ श्लोक ५९,६० में लिखा हैं :-
"गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी ।
प्रत्येक रात्रि को वे रति “(विषय -भोग)” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी ।
कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के लेखकों ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं ।
भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ श्लोक १७ में लिखा हैं :– कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी उन्मत्त हो उनसे खुलकर हास विलास करते थे ।
जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपने प्रतिबिम्ब से क्रीडा करता है ।
वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, (काम क्रीडा ) अथवा‘विषय भोग’ करते, भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ श्लोक ४५,४६ में लिखा हैं :-
कृष्णा ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपिओं के साथ प्रवेश किया ।
वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था । वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना , उनकी छोटी पकरना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन (पकड़ना) मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपिओं को खूब जागृत करके उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय भोग) किया ।
बस अश्लीलता की सामाजिक भंग हो गयी ।
ऐसे अभद्र विचार कृष्णा को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द १० के अध्याय २९,३३ में वर्णित किये हैं ।
जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए हम वर्णन नहीं कर सकते ।
आर्य समाज के कुछ विचारकों ने इन वर्ण में का हवाला देकर पुराण पन्थीयों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं ।
राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता हैं ।
यद्यपि अन्य पुराणों में राधा बृषभानु आभीर अथवा गौश्चर (गुर्जर) की कन्या है , परन्तु
महाभारत में राधा का वर्णन तक नहीं मिलता और कदाचित भागवत पुराण में भी नहीं है ।
राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यन्त अशोभनिय वृतान्त का वर्णन करते हुए मिलता हैं ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ३ श्लोक ५९,६०,६१,६२ में लिखा हैं ।
की गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकर लिया तो शाप देकर कहा :– हे कृष्ण ब्रज के प्रिय , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता हैं – हे चञ्चल , हे अति लम्पट कामुक मैंने तुझे जान लिया हैं ।
तू मेरे पास से चला जा ।
तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट हैं,।
तुझे मनुष्यों की योनि मिले, तू गौलोक से भारत में चला जा ।
हे सुशीले, हे शाशिकले, हे पद्मावते, ! यह कृष्ण धूर्त हैं इसे निकल कर बहार करो, इसका यहाँ कोई कार्य नहीं. ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय १५ में राधा का कृष्ण से रमण का अत्यंत अश्लील वर्णन लिखा हैं ।
जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए हम यहाँ विस्तार से वर्णन नहीं कर सकते हैं ।
निश्चित रूप से ये कथाऐं काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं ।
अस्वाभाविक व कृत्रिमता पूर्ण हैं ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण-जन्म खंड अध्याय ७२ में कुब्जा का कृष्ण के साथ सम्भोग भी अत्यंत अश्लील रूप में वर्णित हैं ।
राधा का कृष्ण के साथ सम्बन्ध भी भ्रामक हैं ।
राधा कृष्ण के वामांग से पैदा होने के कारण कृष्ण की पुत्री थी ।
अथवा रायण से विवाह होने से कृष्ण की पुत्रवधु थी ।
चूँकि गोलोक में रायण कृष्ण के अंश से पैदा हुआ था ।
इसलिए कृष्ण का पुत्र हुआ, जबकि पृथ्वी पर रायण कृष्ण की माता यशोदा का भाई था ।
इसलिए कृष्ण का मामा हुआ जिससे राधा कृष्ण की मामी हुई|
परन्तु ये सारी बकवास बातें हैं।
कृष्ण की गोपिओं कौन थी?
पदम् पुराण उत्तर खंड अध्याय २४५ में वर्णन है कि
रामचंद्र जी दण्डकारण्य वन में जब पहुचें तो उनके सुन्दर स्वरुप को देखकर वहां के निवासी सम्पूर्ण ऋषि मुनि गण उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे ।
उन सारे ऋषिओं ने द्वापर के अन्त में गोपियों के रूप में जन्म लिया और रामचंद्र जी कृष्ण बने तब उन गोपियों के साथ कृष्ण ने भोग किया ।
"_____"____"_____"_____"____"_______"____"
इससे उन गोपियों की मोक्ष हो गई ।
अन्यथा अन्य प्रकार से उनकी संसार रुपी भवसागर से मुक्ति कभी न होती ।
क्या गोपियों की उत्पत्ति का दृष्टान्त बुद्धि से स्वीकार किया जा सकता हैं? सायद कदापि नहीं,
क्या है राधा का सच| राधा का अर्थ है सफ़लता | यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का पांचवा मंत्र, ईश्वर से सत्य को स्वीकारने तथा असत्य को त्यागने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ रहने में सफ़लता की कामना करता है | कृष्ण अपनी जिंदगी में इन दृढ़ संकल्पों और संयम का मूर्तिमान आदर्श थे |
गीतोपदेश में वर्णित वाणी से यही भासित होता है ।
यद्यपि अवान्तर काल में महाभारत में भी वाल्मीकि-रामायण के उत्तर काण्ड के सादृश्य पर मूसल पर्व का काल्पनिक रूप से निर्माण कर आभीरों अथवा यादवों को ही स्वयं अपने ही गोपिकाओं को लूटने का विरोधाभासी वर्णन महाभारत की प्रमाणिकता को सन्दिग्ध कर देता है।
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महाभारत के आदि पर्व में महात्मा बुद्ध को भी वर्णित किया गया है।
पुराणों के समान अत: यह सर्व ब्राह्मण वर्चस्व को स्थापित कर ने का उपक्रम मात्र था ।
भीष्म पर्व में वर्णित श्रीमद्भगवद् गीता में आध्यात्मिक विचारों का प्रकाशन अवश्य कृष्ण से सम्बद्ध है ।
परन्तु इसमें भी
"वर्णानां ब्राह्मणोsहम् "
तथा
"चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:"
ब्राह्मण वाद का आदर्श प्रस्तुत करना ही है ।
परन्तु ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त के दशम् ऋचा में गोप जन-जाति के पूर्व प्रवर्तक एवम् पूर्वज यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया गया है।
जो हम पूर्व वर्णित कर चुके हैं और फिर देखें---
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।
(10/62/10 ऋग्वेद )
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं ।
अत: सम्मान के पात्र हैं |(10/62/10 ऋग्वेद)
यद्यपि पौराणिक कथाओं में यदु नाम के दो राजा हुए ।
एक हर्यश्व का पुत्र यदु ,तथा एक ययाति का पुत्र और तुर्वसु का सहवर्ती यदु ।
आभीर जन जाति का सम्बन्ध तुर्वसु के सहवर्ती यदु से है ।
जिसका वर्णन हिब्रू बाइबिल में भी अबीर (Abeer)
रूप में है ।
""Chapter. 8: The meaning of names in the Bible ... Abir -derived from the Hebrew, which means “strong.” Abiri -derived ... In the Bible (l Kings 5:15), a leader of the tribe of Gaderiya sub clain of Yehudah "...
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है धेनुकर अथवा गौश्चर (गुर्जर)
ये सभी विशेषण यदु कबीले के हैं ।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत गवां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
हे अच्यत् ! वरुण ने कश्यप को पृथ्वी पर वसुदेव के रूप में गोप होकर जन्म लेने का शाप दे दिया ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड मे नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध कन्या मान कर ब्रह्मा ने विवाह कर लिया है ।
परन्तु व्यास-स्मृति के अध्याय प्रथम के श्लोक ११-१२ में गोप शूद्र के रूप में हैं :-
वर्द्धिकी नापितो गोप आशाप कुम्भकारको .
..इति शूद्रा: भिन्न स्वकर्मभि:
कृष्ण असुर संस्कृति के होकर भी महान थे ।
निश्चित रूप से कृष्ण के पावन चरित्र का प्रकाशन कृष्ण की इसी वाणी में ध्वनित है ।
मन के निग्रह उपदेश करती है ।
अर्जुन उवाच योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥
भावार्थ :--अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ॥33॥
(श्रीमद्भगवद् गीता)
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
भावार्थ :- क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ॥34॥
श्री भगवानुवाच असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
भावार्थ :-श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।) और वैराग्य से वश में होता है॥35॥
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः । वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
भावार्थ : जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है॥36॥
योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा के सन्दर्भों में देखें---
अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है॥37॥
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति । अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥
भावार्थ : हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?॥38॥
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः । त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥
भावार्थ : हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है॥39॥
श्रीभगवानुवाच पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता॥40॥
यदि हम कृष्ण की इन तत्व ज्ञान प्रकाशित करने वाले वचन सुनते हैं । तब कृष्ण के कामी रूप में विरोधाभास ही ध्वनित होता है ।
रीति काल में रति क्रियाओं को आधार मानकर
लिपिबद्ध ग्रन्थ ब्रह्म वैवर्त आदि पुराण ग्रन्थ हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण वेदमार्ग का दसवाँ पुराण है।
परन्तु यह तो वेद शब्द को भी कलंकित करता है ।
इसमें भगवान श्रीकृष्ण की काल्पनिक कथा एवम् लीलाओं का विस्तृत वर्णन, श्रीराधा की गोलोक-लीला तथा अवतार-लीलाका सुन्दर विवेचन, विभिन्न देवताओं की महिमा एवं एकरूपता और उनकी साधना-उपासनाका सुन्दर निरूपण किया गया है।
अनेक भक्तिपरक आख्यानों एवं स्तोत्रोंका भी इसमें अद्भुत संग्रह होते हुए भी अश्लीलता की सीमाओं को लाँघ देती है।
इस पुराण में चार खण्ड हैं। १-ब्रह्मखण्ड, २-प्रकृतिखण्ड, ३-श्रीकृष्णजन्मखण्ड और४- गणेशखण्ड।
इन चारों खण्डों से युक्त यह पुराण अठारह हजार श्लोकों का बताया गया है।
यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर राशि।
ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।
कहने का तात्पर्य है प्रकृति के भिन्न-भिन्न परिणामों का जहां प्रतिपादन हो वही पुराण ब्रह्मवैवर्त कहलाता है। विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में श्रीकृष्ण लीला का वर्णन 'भागवत पुराण' से काफी भिन्न है। 'भागवत पुराण' का वर्णन साहित्यिक और सात्विक है जबकि 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' का वर्णन श्रृंगार रस से परिपूर्ण है।
१८,००० श्लोक
व्यास जी के नाम पर सृजित कर ब्रह्मवैवर्त पुराण के चार भाग किये हैं ब्रह्म खण्ड, प्रकृति खण्ड, गणेश खण्ड और श्रीकृष्ण खण्ड। इन चारों में दो सौ अठारह अध्याय हैं।
इन चारों खण्डों से युक्त यह पुराण अठारह हजार श्लोकों का बताया गया है।
यह पुराण कहता है कि इस विश्व में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अपने-अपने विष्णु, ब्रह्मा और महेश हैं। इन सभी ब्रह्माण्डों से भी ऊपर स्थित गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण निवास करते हैं।
ऐसा ही वर्णन योग-वाशिष्ठ महारामायण में है ।
-सृष्टि के विषय में ।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में सृष्टि निर्माण के उपरान्त सर्वप्रथम उनके अर्द्ध वाम अंग से राधा प्रकट हुई।
कृष्ण से ही ब्रह्मा, विष्णु, नारायण, धर्म, काल, महेश और प्रकृति की उत्पत्ति बतायी गयी है ।
फिर नारायण का जन्म कृष्ण के दाये अंग से और पञ्चमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा, सावित्री, कामदेव, रति, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ।
इस पुराण के चार खण्ड हैं- ब्रह्म खण्ड, प्रकृति खण्ड, गणपति खण्ड और श्रीकृष्ण जन्म खण्ड निम्नलिखित है-(१) ब्रह्म खण्ड
ब्रह्म खण्ड में भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र की लीलाओं का वर्णन है। ब्रह्म कल्प के चरित्र का वर्णन है। साथ ही तत्त्व ज्ञान का वर्णन है। इसी खण्ड में श्रीकृष्ण के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप में राधा का आविर्भाव उनके वाम अंग से दिखाया गया है।(२) प्रकृति खण्ड
प्रकृति खण्ड में देवियों के विभिन्न चरित्रों की चर्चा के साथ विशेष रूप में सरस्वती जी की पूजा का विधान आदि दिया है।
अंत में देवी की उत्पत्ति और चरित्र का आख्यान है। इसमें विभिन्न देवियों के आविर्भाव और उनकी शक्तियों तथा चरित्रों का सुन्दर विवरण प्राप्त होता है। इस खण्ड का प्रारम्भ 'पंचदेवीरूपा प्रकृति' के वर्णन से होता है। ये पांच रूप यशदुर्गा, महालक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री और सावित्री के हैं -(३) गणपति खण्ड
गणेश खंड में गणेश जी के जन्म की विस्तार से चर्चा तथा पुण्यक व्रत की महिमा, गणेश जी की स्तवन, दशाक्षरी विद्या व दुर्गा कवच का वर्णन है।
गणेश के एकदन्त होने की कथा है। परशुराम कथा है।(४) श्रीकृष्ण खण्ड
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड में भगवान के जन्म तथा उनकी लीलाओं का बड़ा श्रृंगारी चित्रण यहां किया गया है। कृष्ण के बचपन व कालिया नाग से सम्पर्क की भी कथा है।
गोरी व्रत की कथा भी है और अन्त में रासकेन्द्र वृन्दावन का विस्तार से वर्णन है। 'श्रीमद्भागवत' में भी इसी प्रकार श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन उपलब्ध होता है। इसी खण्ड में सौ के लगभग उन वस्तुओं, द्रव्यों और अनुष्ठानों की सूची भी दी गई है जिनके मात्र से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इसी खण्ड में तिथि विशेष में विभिन्न तीर्थों में स्नान करने और पुण्य लाभ पाने का उल्लेख किया गया है।
जो कृष्ण का काल्पनिक अशोभनिय चित्रण करता है
संभवत: कृष्ण का बचपन नंदगांव और गोकुल में गोपियों के बीच
बीता !
गोपियों के साथ कृष्ण का यौन सम्बन्ध था। इस विषय
में लगभग सारा रीति कालीन संस्कृत कृष्ण- साहित्य एकमत हैं ।
इन गोपियों में विवाहित और
कुमारी दोनों प्रकार की थी वे अपने पतियों,
पिताओ और भाइयो के कहने पर भी नहीं रूकती थी:
‘ ता: वार्यमाणा: पतिभि:
पितृभिभ्रातृभि स्तथा,
कृष्ण
गोपांगना रात्रौं रमयंती रतिप्रिया :’
-विष्णुपुराण, 5, 13/59.
अर्थात वे रतिप्रिय गोपियाँ अपने
पतियों, पिताओं और भाइयो के रोकने पर भि रात में कृष्ण के साथ रमण करती थी.
कृष्ण ने गोपियों के साथ साथ ठण्डी बालू
वाले
नदी पुलिन पर प्रवेश कर के रमण किया.
वह स्थान
कुमुद की चंचल और सुगन्धित वायु आनन्द दायक
बन रहा था. बाहे फैलाना, आलिंगन करना,
गोपियों के हाथ
दबाना, बाल (चोटी) खींचना, जंघाओं पर
हाथ फेरना,
नीवी एवं स्तनों को चुन, गोपियों के नर्म
अंगो नाखुनो से नोचना, तिरछी दृष्टि से
देखना,
हंसीमजाक करना आदि क्रियाओं से
गोपियों में
कामवासना बढ़ाते हुए कृष्ण ने रमण किया.
श्रीमदभागवत महापुराण 10/29/45
कृष्ण ने रात रात भर जाग कर अपने
साथियो सहित
अपने से अधिक अवस्था वाली और माता जैसे
दिखने
वाली गोपियों को भोगा.
– आनंद रामायण, राज्य सर्ग 3/47
– ब्रह्मावैवर्त पुराण, कृष्णजन्म खंड 4,
अध्याय
28-6/18, 74, 75, 77, 85, 86, 105,
109,110,
134, 70.
– ब्रह्मावैवर्त पुराण, कृष्णजन्म खंड 4,
115/86-88
कृष्ण का सम्बन्ध अनेक नारियों से रहा हैं
कृष्ण
की विवाहिता पत्नियों की संख्या सोलह
हज़ार एक
सो आठ बताई जाती हैं।
धार्मिक क्षेत्र में कृष्ण के साथ
राधा का नाम ही अधिक प्रचलित हैं।
ब्रह्मावैवर्त पुराण राधा कृष्ण
की मामी बताई गयी हैं.
इसी पुराण में राधा की उत्पत्ति कृष्ण के
बाए अंग से
बताई गयी हैं
‘कृष्ण के बायें भाग से एक कन्या उत्पन्न हुई.
गुडवानो ने
उसका नाम राधा रखा.
:– ब्रह्मावैवर्त पुराण, 5/25-26
‘उस राधा का विवाह रायाण नामक वैश्य
के साथ कर
दिया गया कृष्ण
की जो माता यशोदा थी रायाण
उनका सगा भाई था.
– ब्रह्मावैवर्त पुराण, 49/39,41,49
यदि राधा को कृष्ण के अंग से उत्पन्न माने
तो वह
उसकी पुत्री हुई ।
यदि यशोदा के नाते
विचार करें
तो वह कृष्ण की मामी हुई.
दोनों ही दृष्टियो से
राधा का कृष्ण के साथ प्रेम अनुचित था ।और
कृष्ण ने अनेको बार राधा के साथ सम्भोग
किया था ( ब्रह्मावैवर्त पुराण, कृष्णजन्म
खंड 4,
अध्याय 15) और यहाँ तक विवाह भी कर
लिया था (ब्रह्मावैवर्त पुराण, कृष्णजन्म
खंड 4,
115/86-88).
अब आप ही विचार करें कि ये काल्पनिक उड़ाने
उस समाज में थी ।
जिसका महात्मा बुद्ध ने विरोध किया ।
उन्हीं व्यक्तियों ने अपनी वासनाओं के प्रकाशन के लिए कृष्ण को आधार बना लिया ।
और सम्पूर्ण अश्लीलताओं का आरोपण कृष्ण के ऊपर कर दिया !
विचार-विश्लेषण:--- यादव योगेश कुमार 'रोहि' ग्राम आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---के सौजन्य से----
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..मित्रों मेरे इस वक्तव्य पर प्रतिक्रिया दें !
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