रविवार, 8 अक्तूबर 2017

सिंहल दीप का यथार्थ:----

सिंहल द्वीप (श्रीलंका) के राजा गंधर्वसेन जिसकी पुत्री पद्मिनी थी। उन्होंने एक हीरामन नामक तोता पाल रखा था जो मानवीय आवाज में बोल सकता था। एक दिन पदमावती की अनुपस्थिति में तोता भाग निकला और कई हाथों से होते हुए चित्तौड़ के राजा राणा रतनसिंह के हाथ लगा । इसी तोते से राजा ने पदमावती के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुना, तो उसे प्राप्त करन के लिये योगी बनकर निकल पड़े. अनेक वनों और समुद्रों को पार करके वह सिंहल पहुंचे और साथ में तोते को भी ले गए । तोते के द्वारा पदमावती के पास अपना प्रेमसंदेश भेजा। पदमावती राणा से मिलने के लिये एक देवालय में आई और जाते समय राजकुमारी पदमावती ने सन्देश दिया कि मुझे कोई तब पा सकेगा जब वह सात आकाशों जैसे ऊँचे सिंहलगढ़ (दुर्ग) पर चढ़कर आएगा। अत: राणा ने तोते के बताए हुए गुप्त मार्ग से सिंहलगढ़ के भीतर प्रवेश किया। फिर वहां के राजा ने पदमावती का विवाह राणा साथ कर दिया। राणा रतनसिंह पहले से भी विवाहित थे और उनकी एक विवाहिता रानी का नाम नागमती था। एक कथा इसमें यह भी है की रतनसेन के विरह में नागमती ने बारह महीने कष्ट झेल कर किसी प्रकार एक पक्षी के द्वारा अपनी विरहगाथा रतनसिंह राजपूत के पास भिजवाई और इस विरहगाथा से द्रवित होकर रतनसिंह पदमावती को लेकर चित्तौड़ लौट आये। इस घटना की ऐतिहासिक प्रमाण कुछ इस प्रकार है अंग्रेज इतिहासकार टॉड के ‘राजस्थान का इतिहास’-भाग-1, अनुसार सन 1275 ई. में चित्तौड़ के सिंहासन पर लक्ष्मण सिंह नमक अवयस्क बालक बैठा अतः उसका संरक्षक राजा के चाचा भीमसिंह को बनाया गया। जबकि चितौड़ पर खिलजी के आक्रमण 1303 के समय राणा रतनसिंह शासक है दूसरे चित्तौड़ के राणा भीम सिंह ने खिलजी की मृत्यु के बाद अपना उत्तराधिकारी राणा हम्मीर को नियुक्त करते है किन्तु इतिहासकार ओझा जी ने रत्नसिंह की अवस्थिति सिद्ध करने के लिये कुंभलगढ़ का प्रशस्तिलेख का आधार लिया है उसमें राणा रतनसिंह को मेवाड़ का स्वामी और समरसिंह का पुत्र लिखा गया है, यद्यपि यह लेख भी रत्नसिंह की मृत्यु (1303) के 157वर्ष पश्चात् सन् 1460 में उत्कीर्ण हुआ था। राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार ओझा जी के अनुसार इस ऐतिहासिक राष्ट्र नायिका रानी पद्मिनी का जन्म स्थान चित्तौड़ से चालीस मील दूर सिंगोली नामक गांव है, सिंहल द्वीप की राजकन्या के रूप में पद्मिनी की स्थिति तो घोर अनैतिहासिक है । संभव है, सतीत्वरक्षा के निमित्त जौहर की आदर्श परंपरा की नेत्री चित्तौड़ की अज्ञातनामा रानी को सर्वश्रेष्ठ नायिका पद्मिनी नाम देकर तथा सतीप्रथा संबंधी पुरावृत्त के आधार पर इस कथा को रोचक तथा कथारुढ़िसंमत बनाने के लिये अन्यान्य प्रसंग गढ़ लिए हों। सैंदर्य तथा आदर्श के लोकप्रसिद्ध प्रतीक तथा काव्यगत कल्पित पात्र के रूप में ही पद्मिनी नाम स्वीकार किया जाना ठीक लगता है। अमर काव्य वंशावली में भी रानी पद्मिनी का जन्म स्थान सिंगोली गाँव ही उल्लेखित है| और यह कथन इस लिए उचित प्रतीत होता है क्योंकी तत्कालीन सिंहल द्वीप ( श्रीलंका) में ऐसे किसी राजकुमारी के भारतीय पुरुष से विवाह के प्रमाण नहीं है. इस प्रेरक ऐतिहासिक कथानांक के दुसरे भाग में खिलजी का चितौड़ पर आक्रमण और कारण राणा के दरबार में राघव नामक जादूगर था जोकि बिना वजह लोगो अपने करतबो से परेशान करता रहता था अतः रतनसिंह ने उसे देश निकाला दे दिया तो वह सुल्तान अलाउद्दीन की सेवा में जा पहुँचा और पदमावती के सौंदर्य की प्रशंसा की। अलाउद्दीन पदमावती के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुनकर उसको प्राप्त करने के लिये लालायित हो उठा और उसने इसी उद्देश्य से चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। दीर्घ काल तक उसने चित्तौड़ पर घेरा डाल रखा, किंतु कोई सफलता मिलती न दिखाई पड़ी तो राणा के पास संधि का संदेश भेजा और लौटजाने वादा किया इस शर्त पर की पद्मावती को एक नजर भर देखने की इच्छा जताई, राणा ने पहले तो मना कर दिया किन्तु रानी पदमावती के समझाने और राजपूत वीरो के इतनी छोटी सी बात के लिए युद्ध में झोकने से रोकने के लिए सामान्य बात जैसे बताने पर रतन सिंह ने आईने में रानी का प्रतिबिम्ब दिखाने को राजी हो गए, लेकिन अलाउद्दीन रानी आईने में रानी का प्रतिबिम्ब को देखने के बाद राणा को अपने सैनिक शिविर तक साथ चलने को कहा जहाँ पहुचने के बाद राणा को कैद कर लिया गया और खिलजी ने रानी को अपने हरम में आने की शर्त पर राणा को छोड़ने को कहा I अलाउद्दीन किसी भी सुन्दर स्त्री के लिए ऐसा निसंदेहकर सकता था किन्तु विश्वसनीय प्रमाण के न होने से ऐतिहासिकता संदिग्ध जान पड़ती है। तत्कालीन दरबारी इतिहासकार अमीर खुसरो में जो की खिलजी के साथ चित्तौड़ आक्रमण के समय साथ में था ने 'तवारीख ऐ अलाई' में और अलाउद्दीन पुत्र खिज्र खाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेम कथा 'मसनवी खिज्र खाँ' में रानी पद्मिनी के प्राप्त करने के के लिए युद्ध का कारन नहीं बताया है। साथ ही परवर्ती इतिहासकारो ने भी इस संबध में कुछ नहीं लिखा है। सिवाय फरिश्ता के जिसने की चित्तौड़ युद्धके लगभग 300 वर्ष बाद सन् 1610 में 'पद्मावत्' के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया । दूसरे चित्तौड़ युद्ध के दौरान दो राजपूत सरदारो की वीरता के कथनांक जो की आज भी राजपूताने की गली गली गाये जाते है किसी हद तक सत्य है वे है गोरा और बादल, चाचा और भतीजा संबंधी थे राणा को खिलजी के कैद से मुक्त करने के लिए पदमावती अपने सामंत सरदार गोरा तथा बादल के घर गई तो दोनों चाचा भतीजा गोरा बादल ने रतनसिह को मुक्त कराने का बीड़ा लिया। इस समय बादल की आयु बारह वर्ष थी दोनों ने एक योजना के तहत सात सौ डोलियाँ सजाईं जिनके भीतर राजपूत सैनिक स्त्री वेश में थे और डोलिया उठाने वाले भी हथियारों से लैस थे और दिल्ली की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने खिलजी से यह कहलवाया की पद्मावती अपनी चेरियों के साथ सुल्तान की सेवा में आई है और अंतिम बार अपने पति रतनसिह से मिलने के लिय आज्ञा चाहती है। सुल्तान ने आज्ञा दे दी। डोलियों में बैठे हुए राजपूतों ने राणा को बेड़ियों से मुक्त किया और लेकर निकल भागे। सुल्तानी सेना ने उनका पीछा किया, किंतु रतनसिह सुरक्षित चित्तौड़ पहुँच गढ़ तक पहुंचाया इन वीर राजपूत गोरां -बादल ने, गोरां -बादल की वीरगाथा, एकलिंग जी मंदिर में आज भी देखी जा सकती है। गोरा युद्ध भूमि में ही खेत गया किन्तु बादल राणा को चित्तौड़ के किले में सुरक्षित पहुचाने के बाद। 2100 हिंदू राजपूत वीरों ने अलाउद्दीन की लगभग 9000 सैनिको को देखते ही देखते काट डाला। राणा के 500 राजपूत खेत रहे I इस घटना से नाराज़ हुए खिलजी ने चितौड़ गढ़ को घेर लिया और अपनी सारी ताकत इस किले विजित करने में लगादी। अंततः राणा व् समस्त राजपूत कोई विकल्प न पाकर आखिरकार युद्ध भूमि में उतरे, तत्कालीन अभिलेखों के आधार पर यह स्थापित है की खिलजी ने चित्तौड़ आक्रमण के समय भारी तबाही मचाया हजारों निर्दोष लोगो की हत्याएं किया, किले की हजारो स्त्रियों ने जौहर कर लिया, राणा समेत लगभग तीस हजार राजपूत योद्दा मारे गए, खुसरो के अनुसार दक्कन की विजयों की तरह चित्तौड़ विजय से कोई विशेष आर्थिक लाभ नहीं हुआ किन्तु दक्कन और पश्चिम जाने के लिए एक सामरिक महत्व के एक चौकी के लिए उपयुक्त था रानी पद्मिनी के जौहर के सम्बन्ध में एक लोकोक्ति यह भी है की जिस समय वह दिल्ली में बंदी था, कुंभलनेर के राजा देवपाल ने पदमावती के पास दूत भेजकर उससे प्रेमप्रस्ताव किया। राणा के खिलजी के कैद से वापस आने के बाद जब पदमावती ने उसे यह घटना सुनाई, तो राणा गुस्से में कुंभलनेर जा पहुँचा। और देवपाल को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा और देवपाल को मारकर चित्तौड़ लौटा किंतु देवपाल द्वारा युद्ध में बुरी तरह घायल होने पर चित्तौड़ पहुँचते ही राणा की मृत्यु हो गयी । पदमावती और नागमती ने राणा के चितारोहण के साथ जौहर कर लिया। अलाउद्दीन भी रतनसिंह का पीछा करता हुआ चित्तौड़ पहुँचा, किंतु उसे पदमावती न मिलकर उसकी चिता की राख ही मिली। कुछ इतिहासकारों अमीर खुसरो के रानी शैबा और सुलेमान के प्रेम प्रसंग के उल्लेख आधार पर 'पद्मावत की कथा' की पैरोडी मानते है उसी आधार पर अलाउद्दीन के आक्रमण व् रानी पद्मिनी के अनुपन सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षण को बताया है। इस ऐतिहासिक घटना की ऐतिहासिकता या प्रमाणिकता भले ही कितनी भी संदिग्ध हो किन्तु गोरा बादल की वीरता राष्ट्र के प्रति सम्मान व् बलिदान, रानी पद्मिनी व् नागमती समेत राजपुतानियों का जौहर, मुठ्ठी भर राजपूत योद्धाओं का शौर्य वीरता आजतक भारतीय समुदाय के प्रेरणा का श्रोत बानी हुई है इसमें कोई संदेह नहीं है।

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