मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

शूद्र और आर्यों का एक यथार्थ ऐतिहासिक सन्दर्भ....-यादव योगेश कुमार 'रोहि'


                      शूद्र कौन थे ?
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👔👘👖🎽👗👚👞👟👠👡👢💼👕...भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास का प्रथम अद्भुत् शोध " योगेश कुमार 'रोहि ' के द्वारा अनुसन्धानित ....
.... विश्व सांस्कृतिक अन्वेषणों के पश्चात् एक तथ्य पूर्णतः प्रमाणित हुआ है। कि  जिस वर्ण व्यवस्था को मनु का विधान कह कर भारतीय संस्कृति के प्राणों में प्रतिष्ठित किया गया था ; उसकी प्राचीनता भी पूर्णतः संदिग्ध ही है , मिथ्या वादीयों ने वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय विधान घोषित भी किया तो इसके मूल में केवल इसकी प्राचीनता है ।
परन्तु यह प्राचीनता केवल  कुछ हजार वर्ष ई०पू०की लगभग 2050  से ई०पू० 1500 तक के काल खण्ड की है ।
जब ईरानी और भारतीय आर्य समान रूप से एक साथ अजर-बेजान (आर्यन- आवास) में निवास कर रहे थे ।
तब वर्ग--- व्यवस्था की प्रस्तावना बनी थी ।
तव वर्ग था नकि वर्ण -
वर्ण व्यवस्था प्राचीन तो है , पर ईश्वरीय विधान कदापि नहीं है।
और ना ही मनु का विधान !
.. ..... मैं  यादव योगेश कुमार 'रोहि'
वर्ण - व्यवस्था के विषय में केवल वही तथ्य उद्गृत करुँगा ..जो सर्वथा नवीन हैं ,... वर्ण व्यवस्था के विषय में आज जैसा आदर्श प्रस्तुत किया जाता है।
कुछ तथाकथित रूढ़वादियों द्वारा वह आदर्श
यथार्थ की सीमाओं में नहीं है ...
वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप स्वभाव प्रवृत्ति और कर्म गत भले ही हो !
परन्तु कालान्तरण में यह जाति अर्थात् जन्म गत हो गया
शूद्र भारतीय समाज व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण या जाति है।
उत्पत्ति शूद्र शब्द मूलत: विदेशी है ।
अर्थात् ये भी स्कॉटलेण्ड के निवासी तथा ड्रयूड (Druids) कबीले से सम्बद्ध है ।
जिन्हें भारतीय पुराणों में द्रविड कहा गया ।
और संभवत: एक पराजित अनार्य जाति का मूल नाम था।अब पराजित कैसे हुए यह भी एक रहस्य है ।
यद्यपि द्रविड संस्कृति और ज्ञान के क्षेत्र में प्राचीन विश्व में द्रविड सर्वोपरि व अद्वितीय थे ।आर्यों की बहुतायत शाखा
जर्मन जाति से सम्बद्ध है; यह तथ्य भी प्रमाणिकता के दायरे में आ गयें हैं ।
परन्तु आर्यों और द्रविडों की देव सूची समान ही थी ।
और पूर्वज भी !
भारतीय पौराणिक संदर्भ के अनुसार  वायु पुराण का कथन है कि " शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं "भविष्यपुराण में " श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए"
वैदिक परम्पराअथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था। इस प्रकार के वर्णन भी मिलते हैं ।
परम्परा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था।
किन्तु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया।
ये तथ्य कहाँ तक सत्य हैं कहा नहीं जा सकता है ।
शूद्र जनजाति का उल्लेख;- विश्व इतिहास कार
डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं।
आर्थिक स्थिति उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं । इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता।
वह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था।
ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्यस्कंध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर संबद्ध मानते हैं।
संबंधित लेखवर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, चर्मकार, मीणा, कुम्हार, दास, भील, बंजारा
अन्य जानकारी पद से उत्पन्न होने के कारण पदपरिचर्या शूद्रों का विशिष्ट व्यवसाय है। द्विजों के साथ आसन, शयन वाक और पथ में समता की इच्छा रखने वाला शूद्र दंड्य है।
शूद्र शब्द का व्युत्पत्यर्थ निकालने के जो प्रयास हुए हैं, वे अनिश्चित से लगते हैं ; और उनसे वर्ण की समस्या को सुलझाने में शायद ही कोई सहायता मिलती है।
बादरायण का काल्पनिक आरोपण करके शूद्र शब्द की काल्पनिक व अव्याकरणिक व्युत्पत्ति- करने की असफल चेष्टा भी दर्शनीय है :--
सबसे पहले 'वेदान्त सूत्र' में बादरायण ने इस दिशा में प्रयास किया था। इसमें 'शूद्र' शब्द को दो भागों में विभक्त कर दिया गया है- 'शुक्’ और ‘द्र’, जो ‘द्रु’ धातु से बना है और जिसका अर्थ है, दौड़ना। इसकी टीका करते हुए ।
शंकर ने इस बात की तीन वैकल्पिक व्याख्याएँ की हैं कि जानश्रुति शूद्र क्यों कहलाया -
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'वह शोक के अन्दर दौड़ गया’, - ‘वह शोक निमग्न हो गया’:--- (शुचम् अभिदुद्राव)
‘उस पर शोक दौड़ आया’, - ‘उस पर सन्ताप छा गया’ (शुचा वा अभिद्रुवे)
‘अपने शोक के मारे वह रैक्व दौड़ गया’ (शुचा वा रैक्वम् अभिदुद्राव)। 
शंकर का निष्कर्ष है कि शूद्र, शब्द के विभिन्न अंगों की व्याख्या करने पर ही उसे समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं।
बादरायण द्वारा 'शूद्र' शब्द की व्युत्पत्ति और शंकर द्वारा उसकी व्याख्या दोनों ही वस्तुत: असंतोषजनक हैं।
केवल काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं ।
कहा जाता है कि शंकर ने जिस जानश्रुति का उल्लेख किया है, वह अथर्ववेद में वर्णित उत्तर - पश्चिम भारत के निवासी महावृषों पर राज्य करता था। यह अनिश्चित है कि वह 'शूद्र वर्ण' का था। वह या तो 'शूद्र जनजाति' का था या उत्तर-पश्चिम की किसी जाति का था, जिसे ब्राह्मण लेखकों ने शूद्र के रूप में चित्रित किया है।
पाणिनि के अनुसार
पाणिनि के व्याकरण में 'उणादिसूत्र' के लेखक ने इस शब्द की ऐसी ही व्यत्पत्ति की है, जिसमें शूद्र शब्द के दो भाग किए गए हैं, अर्थात् धातु 'शुच्' या( शुक्+र।) प्रत्यय ‘र’ की व्याख्या करना कठिन है और यह व्युत्पत्ति भी काल्पनिक और अस्वाभाविक लगती है।
पुराणों के अनुसार
पुराणों में जो परम्पराएँ हैं, उनसे भी शूद्र शब्द 'शुच्' धातु से सम्बद्ध जान पड़ता है, जिसका अर्थ होता है, संतप्त होना। कहा जाता है कि ‘जो खिन्न हुए और भागे, शारीरिक श्रम करने के अभ्यस्त थे तथा दीन-हीन थे, उन्हें शूद्र बना दिया गया’।
किन्तु शूद्र शब्द की ऐसी व्याख्या उसके व्युत्पत्यर्थ बताने की अपेक्षा परवर्ती काल में शूद्रों की स्थिति पर ही प्रकाश डालती है।
बौद्धों के अनुसार
बौद्धों द्वारा प्रस्तुत व्याख्या भी ब्राह्मणों की व्याख्या की ही तरह काल्पनिक मालूम होती है। बुद्ध के अनुसार जिन व्यक्तियों का आचरण आतंकपूर्ण और हीन कोटि का था वे सुद्द[कहलाने लगे और इस तरह सुद्द, संस्कृत-शूद्र शब्द बना।
यदि मध्यकाल के बौद्ध शब्दकोश में शूद्र शब्द क्षुद्र का पर्याय बन गया,और इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि शूद्र शब्द क्षुद्र से बना है।
दोनों ही व्युत्पत्तियाँ भाषाविज्ञान की दृष्टि से असंतोषजनक हैं ।
किन्तु फिर भी महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि उनसे प्राचीन काल में 'शूद्र वर्ण' के प्रति प्रचलित धारणा का आभास मिलता है।
समाज का प्रभाव:------
ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है, किन्तु बौद्ध व्युत्पत्ति में समाज में उनकी हीनता और न्यूनता का पर
...... कालान्तरण में भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की विकृति -पूर्ण परिणति जाति वाद के रूप में हुई..
ऋग्वेद में एक ऋचा है - (कारुर् अहम् ततो भिषग् उपल प्रक्षिणी नना) अर्थात् मैं करीगर हूँ पिता वैद्य और माता पीसने वाली है-
यह ऋचा इस तथ्य की सूचक है , कि आर्यों का प्रवास जब मैसॉपोटामियन संस्कृतियों के सम्पर्क में था ;तब कोई वर्ण-व्यवस्था नहीं थी ।
हाँ गॉलों की ड्रयूड( Druids ) संस्कृति के चिर प्रतिद्वन्द्वी जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध आर्यों का जब भू-मध्य-रेखीय देश भारत में प्रवेश हुआ तो यहाँ गॉल जन-जाति के अन्य रूप भरत (Britons) और स्वयं गॉल जन-जाति के लोग कोेल (कोरी) रूप में रहते थे ।
मनु -स्मृति तथा आपस्तम्ब गृह्य शूत्रों ने भी प्रायः जाति गत वर्ण व्यवस्था का ही अनुमोदन किया है।
इन ग्रन्थों का लेखन कार्य तो अर्वाचीन ही है ।
प्राचीन नहीं ।
क्योंकि मनु सम्पूर्ण द्रविड और जर्मनिक जन-जातियाँ के आदि पुरुष थे ।
वर्तमान में मनु के नाम पर ग्रन्थ मनु-स्मृति जो शूद्रों को लक्ष्य करके योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध है ।
केवल पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक रचना है ।
मनु स्मृति के कुछ अमानवीय रूप भी आलोचनीय हैं ।
" शक्तिनापि हि शूद्रेण न  कार्यो धन सञ्चय:
शूद्रो हि धनम् असाद्य ब्राह्मणानेव बाधते ।। १०/१२६
अर्थात्  शक्ति शाली होने पर भी शूद्र के द्वारा धन सञ्चय नहीं करना चाहिए ; क्योंकि धनवान बनने पर
शूद्र ब्राह्मणों को बाधा पहँचा के हैं ।
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विस्त्रब्धं ब्राह्मण: शूद्राद् द्रव्योपादाना  माचरेत् ।
नहि तस्यास्ति किञ्चितस्वं भर्तृहार्य धनो हि स:।। ८/४१६
अर्थात् शूद्र द्वारा अर्जित धन को ब्राह्मण निर्भीक होकर से सकता है । क्योंकि शूद्र को धन रखने का अधिकार नहीं है ।उसका धन उसको स्वामी के ही अधीन होता है -----------------------------------------------------------------
नाम जाति ग्रहं तु एषामभिद्रोहेण कुर्वत: ।
निक्षेप्यो अयोमय: शंकुर् ज्वलन्नास्ये दशांगुल : ।।८/२१७
अर्थात्  कोई शूद्र द्रोह (बगावत) द्वारा ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग का नाम उच्चारण भी करता है तो उसके मुंह में दश अंगुल लम्बी जलती हुई कील ठोंक देनी चाहिए ।
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एकजातिर्द्विजातिस्तु वाचा दारुण या क्षिपन् ।
जिह्वया: प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि स:।८/२६९
अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग को यदि अप शब्द बोले जाएें तो उस शूद्र की जिह्वा काट लेनी चाहिए ।
तुच्छ वर्ण का होने के कारण उसे यही दण्ड मिलना चाहिए ।
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पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनम् अर्हति ।
पादेन प्रहरन्कोपात् पादच्छेदनमर्हति ।।२८०।
अर्थात् शूद्र अपने जिस अंग से द्विज को मारेउसका वही अंग काटना चाहिए  । यदि द्विज को मानने के लिए हाथ उठाया हो अथवा लाठी तानी हो तो उसका हाथ काट देना चाहिए और क्रोध से ब्राह्मण को लात मारे तो उसका पैर काट देना चाहिए ।
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ब्राह्मणों के द्वारा यदि कोई बड़ा अपराध होता है तो
तो उसका केवल मुण्डन ही दण्ड है ।
बलात्कार करने पर भी ब्राह्मण को इतना ही दण्ड शेष है ।
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"मौण्ड्य प्राणान्तिको दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते।
इतरेषामं तु वर्णानां दण्ड: प्राणान्तिको भवेत् ।।३७९।।
न जातु ब्राह्मणं हन्यात् सर्व पापेषु अपि स्थितम् ।
राष्ट्राद् एनं बाहि: कुर्यात् समग्र धनमक्षतम् ।।३८०।।
अर्थात् ब्राह्मण के सिर के बाल मुड़ा देना ही उसका प्राण दण्ड है ।
परन्तु अन्य वर्णों को प्राण दण्ड देना चाहिए ।
सब प्रकार के पाप में रत होने पर भी ब्राह्मण का बध कभी न करें।उसे धन सहित बिना मारे अपने देश से विकास दें ।
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ब्राह्मणों द्वारा अन्य वर्ण की कन्याओं के साथ
व्यभिचार करने को भी कर्तव्य नियत करने का विधान
घोषित करना :----
"उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधमर्हति ।।
शुल्कं दद्यात् सेवमानस्तु :समामिच्छेत्पिता यदि।।३६६।
अर्थात् उत्तम वर्ण (ब्राह्मण)जाति के पुरुष के साथ
सम्भोग करने की इच्छा से उस ब्राह्मण आदि की सेवा करने वाली कन्या को राजा कुछ भी दण्ड न करे ।
पर उचित वर्ण की कन्या का हीन जाति के साथ जाने पर राजा उचित नियमन करे ।
उत्तम वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला नीच वर्ण का व्यक्ति वध के योग्य है ।। समान वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला , यदि उस कन्या का पिता धन से सन्तुष्ट हो तो पुरुष उस कन्या से धन देकर विवाह कर ले ।
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पुष्य मित्र सुंग काल का सामाजिक विधान देखिए

सह आसनं अभिप्रेप्सु: उत्कृष्टस्यापकृष्टज:
कटयां कृतांको निवास्य: स्फिर्च वास्यावकर्तयेत्।।२८१।।
अवनिष्ठीवती दर्पाद् द्वावोष्ठौ छेदयेत् नृप: ।
अवमूत्रयतो मेढमवशर्धयतो गुदम् ।।२८२।।
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अर्थात् जो शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण आदि वर्णों के साथ आसन पर बैठने की इच्छा करता है तो राजा उसके तो राजा उसके कमर मे छिद्र करके देश से निकाल दे ।
अथवा उसके नितम्ब का मास कटवा ले
राजा ब्राह्मण के ऊपर थूकने वाले अहंकारी के
दौनों ओष्ठ तथा मूत्र विसर्जन करने वाला लिंग
और अधोवायु करने वाला मल- द्वार कटवा दे
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समस्या यह है कि हमारा दलित समाज मनु-स्मृति को मनु द्वारा लिखित मानता है ।

जबकि मनु का प्रादुर्भाव भारतीय धरा पर हुआ ही नहीं:-देखें ,

क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज ने उसे मनु के नाम पर रच दिया है ।
अब इन लोगों ने राम और कृष्ण को भी ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक आरोपित वर्ण व्यवस्था का पोषक वर्णित कर दिया है ।जबकि वस्तु स्थिति इसको विपरीत है ।
कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९६ वें सूक्त में असुर के रूप में वर्णित किया गया है ।
मनु के विषय में सभी धर्म - मतावलम्बी अपने अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त मिले , किसी ने मनु को  अयोध्या का आदि पुरुष कहा , तो किसी ने हिमालय का अधिवासी कहा है ।
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..परन्तु सत्य के निर्णय निश्पक्षता के सम धरातल पर होते हैं , न कि पूर्वाग्रह के -ऊबड़ खाबड़ स्थलों पर "
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विश्व की सभी महान संस्कृतियों में मनु का वर्णन किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है  !
परन्तु भारतीय संस्कृति में यह मान्यता अधिक प्रबल तथा पूर्णत्व को प्राप्त  है ।
इसी आधार पर काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज द्वारा
वर्ण-व्यवस्था का समाज पर आरोपण कर दिया गया , जो..
वैचारिक रूप से तो सम्यक् था ।
परन्तु जाति अथवा जन्म के आधार पर दोष-पूर्ण व अवैज्ञानिक ही था ...
इसी वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय विधान सिद्ध करने के लिए काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज ने मनु-स्मृति
की रचना की ...
जिसमें तथ्य समायोजन इस प्रकार किया गया कि
स्थूल दृष्टि से कोई बात नैतिक रूप से मिथ्या प्रतीत न हो ।
यह कृति पुष्यमित्र सुंग  (ई०पू०१८४) के समकालिक,
उसी के निर्देशन में ब्राह्मण समाज द्वारा रची गयी है ।
परन्तु...
मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे ।
और ना  हि  अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी ।
प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है ।
यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने  अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।
जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
.. यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व- जनियतृ { Pro -Genitor }के रूप में स्वीकृत  की  है !
मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ
प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं  हैं ।
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वस्तुत:
भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है ।
जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरूष जो देवों का  का भी प्रतिनिधि था , वह मेनेस् (Menes)अथवा मेनिस् Menis संज्ञा से अभिहित था
मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक था , और मेंम्फिस
(Memphis) नगर में जिसका निवास था , मेंम्फिस...
प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है ।
तथा यहीं का पार्श्वर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में ....मनु का वर्णन मिअॉन (Meon)के रूप में है ,।
मिअॉन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है ,
जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।
.............
और यहीं एशिया- माइनर के पश्चिमीय
समीपवर्ती लीडिया( Lydia) देश वासी भी इसी मिअॉन (Meon) रूप में मनु को अपना पूर्व पुरुष मानते थे।
इसी मनु के द्वारा बसाए जाने के कारण लीडिया देश का प्राचीन नाम मेअॉनिया Maionia भी था .
ग्रीक साहित्य में  विशेषत: होमर के काव्य  में ---
मनु को (Knossos) क्षेत्र का का राजा बताया गया है ... ........................... .
कनान देश की कैन्नानाइटी(Canaanite )
संस्कृति में बाल -मिअॉन के रूप में भारतीयों के बल और मनु (Baal- meon)और यम्म (Yamm) देव के रूप मे वैदिक देव यम  से साम्य विचारणीय है-
.............
यम:---- 
यहाँ भी भारतीय पुराणों के समान यम का उल्लेख यथाक्रम नदी ,समुद्र ,पर्वत तथा न्याय के अधिष्ठात्री देवता के रूप में हुआ है
....कनान प्रदेश से ही कालान्तरण में सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं का विकास हुआ था ।
स्वयम् कनान शब्द भारोपीय है , केन्नाइटी भाषा में कनान शब्द का अर्थ होता है मैदान अथवा जड्.गल यूरोपीय कोलों अथवा कैल्टों की भाषा पुरानी फ्रॉन्च में कनकन (Cancan)आज भी जड्.गल को कहते हैं ।
और संस्कृत भाषा में कानन =जंगल..
परन्तु कुछ बाइबिल की कथाओं के अनुसार
कनान हेम (Ham)की परम्पराओं में
एनॉस का पुत्र था  ।

जब कैल्ट जन जाति का प्रव्रजन (Migration)
बाल्टिक सागर से भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में हुआ..
तब ...
    मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में कैल्डिया के रूप में इनकी दर्शन हुआ ...
तब यहाँ जीव सिद्ध ( जियोसुद्द )अथवा नूह के रूप में
मनु की किश्ती और प्रलय की कथाओं की रचना हुयी ...
.......और तो क्या ? यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट( Crete )की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया के आर्यों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए ।
भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध
वस्तुत: मन के विचार (मनु) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) का मानवीय-करण (personification) रूप है |
शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को मनु के विषय में सभी धर्म - मतावलम्बी अपने अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त मिले , किसी ने मनु को  अयोध्या का आदि पुरुष कहा , तो किसी ने हिमालय का अधिवासी कहा है ।
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..परन्तु सत्य के निर्णय निश्पक्षता के सम धरातल पर होते हैं , न कि पूर्वाग्रह के -ऊबड़ खाबड़ स्थलों पर "
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विश्व की सभी महान संस्कृतियों में मनु का वर्णन किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है  !
परन्तु भारतीय संस्कृति में यह मान्यता अधिक प्रबल तथा पूर्णत्व को प्राप्त  है ।
इसी आधार पर काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज द्वारा
वर्ण-व्यवस्था का समाज पर आरोपण कर दिया गया , जो..
वैचारिक रूप से तो सम्यक् था ।
परन्तु जाति अथवा जन्म के आधार पर दोष-पूर्ण व अवैज्ञानिक ही था ...
इसी वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय विधान सिद्ध करने के लिए काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज ने मनु-स्मृति
की रचना की ...
जिसमें तथ्य समायोजन इस प्रकार किया गया कि
स्थूल दृष्टि से कोई बात नैतिक रूप से मिथ्या प्रतीत न हो ।
यह कृति पुष्यमित्र सुंग  (ई०पू०१८४) के समकालिक,
उसी के निर्देशन में ब्राह्मण समाज द्वारा रची गयी है ।
परन्तु...
मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे ।
और ना  हि  अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी ।
प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है ।
यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने  अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।
जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
.. यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व- जनियतृ { Pro -Genitor }के रूप में स्वीकृत  की  है !
मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ
प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं  हैं ।
वस्तुत:
भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है ।
जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरूष जो देवों का  का भी प्रतिनिधि था , वह मेनेस् (Menes)अथवा मेनिस् Menis संज्ञा से अभिहित था
मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक था , और मेंम्फिस
(Memphis) नगर में जिसका निवास था , मेंम्फिस...
प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है ।

तथा यहीं का पार्श्वर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में ....मनु का वर्णन मिअॉन (Meon)के रूप में है ,।
मिअॉन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है ,
जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।
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तथा उनके पूर्वज यदु को दास अथवा शूद्र कहा गया है:--
देखें--- उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं हम उन मुस्कराहठ से पूर्ण दृष्टि वाले यदु और तुर्वसु नामक दौनो दासों की सराहना करते हैं ।
वाल्मीकि-रामायण में राम के मुख से तथागत बुद्ध को चोर और नास्तिक कहलवाया गया है।
यथा ही चोर: स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि ।

राम सम्बूक का वध केवल शूद्र होकर तपस्या करने पर कर देते हैं ।

केवल पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज द्वारा बनाया गया कल्पित उपाख्यान है ।शूद्रों की तप साधना को प्रतिबन्धित करने के लक्ष्य से --
वर्ण-व्यवस्था वस्तुत वर्ग व्यवस्था थी ।
जो व्यक्ति के स्वेैच्छिक व्यवसाय पर आधारित थी ।
, परन्तु आर्यों की सामाजिक प्रणाली में वर्ण
व्यवस्था

का प्रादुर्भाव कब हुआ ?
और कहाँ से हुआ ?

काल्पनिक रूप से शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति बौद्ध काल के परवर्ती चरण में की गयी --
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जो इस प्रकार है " शुच--रक् पृषो० चस्य दः दीर्घश्च । १ चतुर्थे वर्णे स्त्रियां टाप् ।

सेवक शब्द का मूल अर्थ भी देखें:---
सीव्यति सिव--ण्वुल् । १ सीवनकर्त्तरि (दरजी) सेव--ण्वुल् । २ भृत्ये ३ दासे ४ अनुचरे च त्रि० मेदि० ।
यद्यपि शुच् धातु का एक अर्थ शूचिकर्मणि भी है ।

शूद्रा शूद्रजातिस्त्रियाम् । पुंयोगे ङीष् । शूद्री शूद्रभार्य्यायाम् । शुचा द्रवति द्रु० ड पृषो० । २ शोकहेतुकगतियुक्ते शूद्राधिकरणशब्दे दृश्यम् । अथ शूद्रधर्मादि “विप्राणामर्चनं नित्यं शूद्रधर्मो विधो- यते । तद्द्वेषो तद्धनग्राही शूद्रश्चाण्डालतां व्रजेत् । नृध्रः कोटिसहस्राणि शतजन्मानि शूकरः । श्वापदः शतजन्मानि शूद्रो विप्रधनापहा । यः शूद्रो ब्राह्मणी- गामो मातृगामी स पातकी । कुम्भीपाके पच्यते स यावद्वै ब्रह्मणः शतम् । कुम्भीपाके तप्ततैके दष्टः सर्पैर- हर्निशम् । शब्दञ्च विकृताकारं कुरुते यमताडनात् । ततश्चाण्डालयोनिः स्यात् सप्तजन्मसु पातकी । सप्त- जन्मसु सर्पश्च जलौकाः सप्तजन्मसु । जन्मकोटिसहस्रञ्च विष्ठायां जायते कृमिः । योनिक्रिमिः पुंश्चलीनां स भवेत् सप्तजन्मसु । गवां व्रणकृमिः स्याच्च पातकी सप्तजन्मसु । योनौ यौनौ भ्रमत्येवं न पुनर्जायते नरः” ब्रह्मवै० पु० ८३ अ० । “द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्य्या सदा त्विह । पादप्रक्षालनं गन्धैर्भोज्यमुच्छिष्टमात्रकम् । ते तु चक्रु स्तदा चैव तेभ्यो भूयः पितामहः । शुश्रू- षार्थ मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः । द्विजानां क्षात्त्र- वर्गाणां वैश्यानाञ्च भवद्विधाः । त्रिभ्यः शुश्रूषणा कार्य्या इत्यवादीद्वचस्तदा” पाद्मे सृ० स्व० १६ अ० । “शुश्रूषैव द्वि- जातीनां शूद्राणां धर्मसाधनम् । कारुकर्म तथाऽऽजीवः पाकयज्ञोऽपि धर्मतः” गारुड़े ४९ अ० । “तथा मद्यस्य पानेन ब्राह्मणीगमनेन च । वेदाक्षरविचारेण शूद्रश्चा० ण्डालतां व्रजेत्” इति शूद्रकमलाकरधृतपराशरवाक्यम् । ब्राह्मणस्य तदन्नभोजननिषेधो यथा “शूद्रान्नं ब्राह्मणो- ऽश्नन् वै मामं भासार्द्धमेव वा । तद्योनावभिजायेत सत्यमेतद्विदुर्बुधाः । अथोदरस्थशूद्राम्नो मृतः श्वा चैव जायते । द्धादश दश चाष्टौ च गृध्रशूकरपुष्कराः । उदरस्थितशूद्रान्नो ह्यधीयानोऽपि नित्यशः । जुह्वन् वापि जपन् वापि गतिमूर्द्ध्वां न विन्दति । अमृतं ब्रा- ह्मणस्यान्नं क्षत्रियान्नं पयः स्मृतम् । वैश्यस्य चान्नमे- वान्नं शूद्रान्नं रुधिरं स्मृतम् । तस्मात् शूद्रं न भिक्षेयु- र्यज्ञार्थं सद्द्विजातयः । श्मशानमिव यच्छूद्रस्तस्मात्तं परिवर्जयेत् । कणानामथ वा भिक्षां कुर्य्याच्चातिविक- र्षितः । सच्छूद्राणां गृहे कुर्वन् तत्पापेन न लिप्यते । विशुद्धान्वयसंजातो निवृत्तो सद्यमांसतः । द्विजभक्तो बणिग्वृत्तिः शूद्रः सन् परिकीर्त्तितः” वृहत्पराशरः । शूद्रकृत्यविचारणतत्त्वे मत्स्यपुराणम् “एवं शूद्रोऽपि सामान्यं वृद्धिश्राद्धन्तु सर्वदा । नभरशा रेण गन्त्रेण कुर्य्यादामान्नवद्बुधः । दानप्रधामः शूद्रः स्यादित्याह भगवान् प्रभुः । दानेन सर्वकामाप्तिरस्क संजायते यतः” । ततो दानमेवापेक्षित न तु मोजन- मपि । सामान्यं सर्वजनकर्त्तव्यत्वेन प्रतिमासकृष्णपक्षा- दिविहितश्राद्धम् आभ्युदयिकश्राद्धञ्च एवं द्विजातिवत् शूद्रोऽपि कुर्य्यादित्यन्वयः । नमस्कारेण मन्त्रेण न तु पठितमन्त्रेण । आमान्नवदित्यनेन जलसेकसिद्धान्नव्यावृत्तिः “स्मिन्नमन्नमुदाहृतम्” इति वशिष्ठेन स्यिन्नस्यैवाद्भत्वस्या- भिधानात् कन्दुपक्वस्य भ्रष्टत्वं न तु स्विन्नत्वं हारीतेन स्वेदनभर्जनयोः पृथक्त्वमुक्तं यथा “आदीपनताषनस्वे- दनभर्जनपचनादिभिः पञ्चमीति” । अस्यार्थः आदीपनं काष्ठानां, तापनं तोयादेः, स्वेदनं धान्यादेर्भर्जनं यवादेः, पचनं तण्डुलादेः इति पञ्चमी सूना इति कल्पतरुः । अतएव स्विन्नधान्येन व्यवह्रियते । “कन्दुपक्वानि तैलेन पायसं दधिसक्तवः । द्विजैरेतानि भोज्यानि शूदूगेह- कृतान्यपि” इति कूर्मपुराणवचने शूद्रकर्तृक कन्दुपक्वा- देर्ब्राह्मणभक्ष्यत्वेन श्राद्धे देयत्वमुक्तम् । कन्दुपक्वं जलोपसेकं विना केवलपात्रेण यद्वह्निना पक्वम् । पायसं पाकेन काठिन्यविकारापन्नं दुग्धं परमान्नपरत्वे पुंलि- ङ्गनिर्देशापत्तेः तथा चामरः “परमान्नन्तु पायसः” इति । “दिने त्रयोदशे प्राप्ते पाकेन भोजयेद्घिजान् । अयं विधिः प्रयोक्तव्यः शूद्राणां मन्त्रवर्जितः” इति श्राद्धचिन्ताभणिधृतवराहपुराणवचनमपि कन्दुपक्वपरम् एवन्तु एतद्वचनं सच्छूद्रपरं मैथिलोक्तं हेयम् । एवम् आममांसस्यापि श्राद्धे देयत्वं सामगश्राद्धतत्त्वेऽनुसन्धे- यम् । तत्र द्गव्यदेवताप्रकाशार्थं ब्राह्मणेन मन्त्राः पाठ्याः “अयमेव विधिः प्रोक्तः शूद्राणां मन्त्रवर्जितः । अमन्त्रस्य तु शूद्रस्य विप्रोमन्त्रेण गृह्यते” इति वराहपुरा- णात् अयं श्राद्धेतिकर्त्तव्यताकोविधिः शद्रकर्तृकमन्त्र- पाठरहितः शूद्रस्य मन्त्रपाठानधिकारसिद्धौ यदमन्त्र- स्येति पुनर्वचनं तत्स्त्रियाग्रहणार्थं परिभाषार्थञ्च ततश्च तत्कर्मसम्बन्धिमन्त्रेण विप्रस्तदीयकर्मकारयितृब्राह्मणो गृह्यते तेन ब्रह्मणेन तत्र मन्त्रः पठनीय इति तात्पर्य्यं तत्र यजुर्वेदिको मन्त्रः तथा च स्मृतिः “आर्षक्रमेण सर्वत्र शूद्रा वाजसनेयिनः । तस्माच्छूद्रः स्वयं कर्म यजुर्वेदीव कारयेत्” । आर्षक्रमेण श्रुत्युक्तक्रमेण यजुर्वेदि- सम्बन्धिगृह्यादिना “चतुर्णामपि वर्णानां यानि प्रो- क्तानि वेधसा । धभशास्त्राणि राजेन्द्र! शृणु तानि गप्रोत्तम! । विशेषतस्तु शूद्राणां पावनामि मनीपिभिः । अष्टादश पुराणानि चरितं राघवस्य च । रामस्य कुरु- शार्दूल धर्मकामार्थसिद्धये । तथोक्तं भारतं बीर! पारा- शर्य्येण धीमता । वेदार्थं सकलं योज्य धर्मशास्त्राणि च प्रभो!” इति भविष्यपुराणवचनात्तेषां पौराणिकादि- बिधिः । योज्य योजयित्वा । अत्र च “श्राद्धं वेदमन्त्रवर्जं शूद्रस्य इति वचने वेदेत्युपादानात् श्राद्धे पुराणमन्त्रः शूद्रेण पठनीय इति मैथिलोक्तं तन्न वराहपुराणे शूद्राणां मन्त्रवर्जित इत्यनेन मन्त्रमात्रनिषेधात् मत्स्यपुराणे नमस्कारेण मन्त्रेण इत्युपादानाच्च पौराणिकस्यापि श्राद्धे निषेषः प्रतीयते । एवं स्नानेऽपि “ब्रह्मक्षत्रविशामेव मन्त्रवत् स्नानमिष्यते । तूष्णामेव हि शूद्रस्य सनमस्का- रकं मतम्” इत्थनेन नमस्कारविधानात् पञ्चयज्ञेऽपि । “शूद्रस्य द्विजशुश्रूपा तया जीवनवान् भवेत् । शिल्पैवां विविधैर्जीवेत् द्विजातिहितमाचरन् । भार्य्यारतिः शुचि- र्भृत्यभर्त्ता श्राद्धक्रियारतः । नमस्कारेण मन्त्रेण पञ्च यज्ञान्न हापयेत्” इति नमस्कारमात्रविधानात् श्राद्धा- दिषु पौराणिकमन्त्रनिषेधः । ततश्च स्नानश्राद्धतर्पण पञ्चयज्ञेतरत्र शूद्रस्य पौराणिकमन्त्रपाठः प्रतीयते । अत्र “षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मङ्गलं कुले” इति मनुवचनात् “चूड़ा कार्य्या यथाकुलम्” इति याज्ञवल्क्य- वचनाच्च संस्कारमात्रे कुलधर्मानुरोधेन कालान्तरस्य नामविशेषोच्चारणस्याभिधानाच्च शूद्रादीनां नामकरणे वसुघोषादिकपद्धतियुक्तनामकरणस्य च प्रतीतेर्वैदिकक- र्मणि शूद्राणां पद्धतियुक्तानामाभिधानं क्रियते इति” । शूद्रस्त्वाचमने दैवतीर्थेन ओष्ठे जलं सकृत्क्षिपेत् न पिबेत् तथा च याज्ञवल्क्यः “हृत्कण्ठतालुगाद्भिस्तु यथासंख्यं द्विजातयः । शुन्धरन् स्त्री च शूद्रश्च सकृत् स्पृ- ष्टाभिरन्ततः” । अन्ततो हृदयादिसमीपेन ओष्ठेन उत्त- रात्तरमपकर्षात् अतएव स्पृष्टाभिरित्युक्तं न तु भक्षि- ताभिरिति “स्त्रीशूद्रः शुध्यते नित्यं क्षालनाच्च करोथयोः” इति ब्रह्मपुराणवचनाच्च । याज्ञवल्क्यः “प्राग्वा ब्राह्मेण तीर्थेन द्विजो नित्यमुपस्पृशेत्” अत्र द्विजस्यै- वाचमने ब्राह्मतीर्थोपादानात् स्त्रीशूद्रयोर्न तेनाचमनम् एवमेव मिताक्षरायां व्यक्तमुक्तं मरीचिना “स्त्रियास्त्रै- दशिकं तीर्थं शूद्रजातेस्तथैव च । सकृदाचमनाच्छुद्धि- रेतयोरेव चोभयोः” इति । एतदनन्तरम् इन्द्रियादि- स्पशनन्तु ब्राह्मणवदेव प्रमाणान्तरन्तु वाजसनेयिसामग- श्राद्धाह्निकतत्त्वर्योरनुसन्धेयम्” आ० त० रघु० ।
_____________________________________

इसी तथ्य को मेेेैंने अपने अनुसन्धान का विषय बनाया है ....मनस्वी पाठकों से मैं यही निवेदन करता हूँ हमारे इन तथ्यों की समीक्षा कर अवश्य प्रतिक्रियाऐं प्रेषित करें ...
🌷🌸🌷🌸🌷🌸🌷🌸🌷🌸🌷🌸🌷🌸🌷🌸 वर्ण व्यवस्था का वैचारिक उद्भव अपने बीज - वपन रूप में आज से सात हज़ार वर्ष पूर्व बाल्टिक सागर के तट- वर्ती स्थलों पर  होगया था ।
............ जहाँ जर्मन के आर्यों तथा यहीं बाल्टिक सागर के दक्षिण -पश्चिम में बसे हुए ..गोैलॉ (कोलों) .वेल्सों .ब्रिटों (व्रात्यों ) के पुरोहित ड्रयडों (Druids )के सांस्कृतिक द्वेष के रूप में हुआ था
...यह मेरे प्रबल प्रमाणों के दायरे में है.।
प्रारम्भ में केवल दो ही वर्ण थे ! आर्य और ड्रयूड (द्रविड).जिन्हें यूरोपीयन संस्कृतियों में क्रमशः
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Ehre (एर )"The honrable people in Germen tribes  who fights whith Druids prophet "....... जर्मन भाषा में आर्य शब्द के ही इतर रूप हैं ...Arier तथाArisch आरिष यही एरिष Arisch शब्द जर्मन भाषा की उप शाखा डच और स्वीडिस् में भी विद्यमान है......... और दूसरा शब्द शुट्र( Shouter.) है ।
शुट्र शब्द का परवर्ती उच्चारण साउटर Souter शब्द के रूप में भी है, शाउटर यूरोप की धरा पर स्कॉटलेण्ड के मूल निवासी थे ., इसी का इतर नाम आयरलेण्ड भी।
था|
          (Definition of souter)
chiefly Scotland
:shoemaker
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Origin and Etymology of souter
Middle English, from Old English sūtere, from Latin sutor, from suere to sew — more at sew
Souterplay
biographical name  Sou·ter  \ ˈsü-tər \
Definition of Souter
David 1939–     American jurist
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*syu-
syū-, also sū:-, Proto-Indo-European root meaning "to bind, sew."
It forms all or part of: accouter; couture; hymen; Kama Sutra; seam; sew; souter; souvlaki; sutra; sutile; suture.
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit sivyati "sews," sutram "thread, string;" Greek hymen "thin skin, membrane," hymnos "song;" Latin suere "to sew, sew together;" Old Church Slavonic šijo "to sew," šivu "seam;" Lettish siuviu, siuti "to sew," siuvikis "tailor;" Russian švec "tailor;" Old English siwian "to stitch, sew, mend, patch, knit together ..
आयर लोग आयबेरिया अर्थात् वर्तमान स्पेन और पुर्तगाल का क्षेत्र ही था ।
यही जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) भी कहलाया ।
जिसके पश्चिम में फ्राँस की सीमाऐं है ।
जिसे प्राचीन गॉल देश कहा जाता था ।
. . शुट्र लोग गॉल अथवा ड्रयूडों की ही एक शाखा थी जो परम्परागत से चर्म के द्वार वस्त्रों का निर्माण और व्यवसाय करती थी
... .Shouter a race who had sewed Shoes and Vestriarium..for nordic  Germen tribes is called Souter or shouter .
souter
souter "maker or mender of shoes," O.E. sutere, from L. sutor "shoemaker," from suere "to sew, stitch" (see SEW (Cf. sew)).
souteneursouth
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Souter — is a surname, and may refer to:* Alexander Souter, Scottish biblical scholar * Brian Souter, Scottish businessman * Camille Souter, Irish painter * David Souter, Associate Justice of the Supreme Court of the United States * David Henry Souter,… …   Wikipedia
souter — ● souter verbe transitif (de soute) Fournir ou recevoir à bord le combustible nécessaire aux chaudières ou aux moteurs d un navire. ⇒SOUTER, verbe trans.
Souter — Sou ter, n. [AS. s?t?re, fr. It. sutor, fr. suere to sew.] A shoemaker; a cobbler. [Obs.] Chaucer. [1913 Webster] There is no work better than another to please God: . . . to wash dishes, to be a souter, or an apostle, all is one. Tyndale. [1913… …   The Collaborative International Dictionary of English
…   English World dictionary
Souter — This unusual and interesting name is of Anglo Saxon origin, and is an occupational surname for a shoemaker or a cobbler. The name derives from the Old English pre 7th Century word sutere , from the Latin sutor , shoemaker, a derivative of suere …   Surnames reference
souter — noun Etymology: Middle English, from Old English sūtere, from Latin sutor, from suere to sew more at sew Date: before 12th century chiefly Scottish shoemaker …   New Collegiate Dictionary
Souter — biographical name David 1939 American jurist …   New Collegiate Dictionary
souter — /sooh teuhrdd/, n. Scot. and North Eng. a person who makes or repairs shoes; cobbler; shoemaker. Also, soutter. [bef. 1000; ME sutor, OE sutere < L sutor, equiv. to su , var. s. of su(ere) to SEW1 + tor TOR] * * * …   Universalium
Souter — /sooh teuhr/, , MODx.
*eu-(vest) संस्कृत भाषा में वस्त्र शब्द का विकास -
इयु (उ) व का सम्प्रसारण रूप है ।
Proto-Indo-European root meaning "to dress," with extended form *wes- (2) "to clothe."
It forms all or part of: divest; exuviae; invest; revetment; transvestite; travesty; vest; vestry; wear. संस्कृत भाषा में भृ धारण करना ।
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Hittite washshush "garments," washanzi "they dress;" Sanskrit vaste "he puts on," vasanam "garment;" Avestan vah-; वह (वस) Greek esthes "clothing," hennymi "to clothe," eima "garment;" Latin vestire "to clothe;" Welsh gwisgo, Breton gwiska; Old English werian "to clothe, put on, cover up," wæstling "sheet, blanket."

..... ...यूरोप की संस्कृति में वस्त्र बहुत बड़ी अवश्यकता और बहु- मूल्य सम्पत्ति थे .
..क्यों कि शीत का प्रभाव ही यहाँ अत्यधिक था.... उधर उत्तरी-जर्मन के नार्वे आदि संस्कृतियों में इन्हें सुटारी (Sutari ) के रूप में सम्बोधित किया जाता था
यहाँ की संस्कृति में इनकी महानता सर्व विदित है यूरोप की प्राचीन सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह शब्द ...सुटॉर.(Sutor ) के रूप में है ....तथा पुरानी अंग्रेजी (एंग्लो-सेक्शन) में यही शब्द सुटेयर -Sutere -के रूप में है.. जर्मनों की प्राचीनत्तम शाखा गॉथिक भाषा में यही शब्द सूतर (Sooter )के रूप में है... विदित हो कि गॉथ जर्मन आर्यों का एक प्राचीन राष्ट्र है ।
जो विशेषतः बाल्टिक सागर के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है ।
बाल्टिक सागर को स्केण्डिनेविया भी कहते हैं ।
बहुत बाद में
ईसा की तीसरी शताब्दी में डेसिया राज्य में इन शुट्र लोगों ने  प्रस्थान किया।
डेसिया का समावेश इटली के अन्तर्गत हो गया !
क्योंकि रोमन जन-जाति के यौद्धा यूरोप में सर्वत्र अपना सामाज्र्य विस्तार कर रहे थे ।
गॉथ राष्ट्र की सीमाऐं दक्षिणी फ्रान्स तथा स्पेन तक थी ।
रोमन सत्ता ने यहाँ भी दस्तक दी ..
.. उत्तरी जर्मन में यही गॉथ लोग ज्यूटों के रूप में प्रतिष्ठित थे ।
और भारतीय आर्यों में ये गौडों के रूप में परिलक्षित होते हैं... ...ये बातें आकस्मिक और काल्पनिक नहीं हैं , क्यों कि यूरोप में जर्मन आर्यों की बहुत सी शाखाऐं प्राचीन भारतीय गोत्र-प्रवर्तक ऋषियों के आधार पर हैं, जैसे अंगिरस् ऋषि के आधार पर जर्मनों की ऐञ्जीलस् Angelus या Angle. जिन्हें पुर्तगालीयों ने अंग्रेज कहा था ।
ईसा की पाँचवीं सदी में ब्रिटेन के मूल वासीयों को परास्त कर ब्रिटेन का नाम- करण इन्होंने आंग्ल -लेण्ड कर दिया था... जर्मन आर्यों में गोत्र -प्रवर्तक भृगु ऋषि के वंशज (Borough)...उपाधि अब भी लगाते हैं और वशिष्ठ के वंशज बेस्त कह लाते हैं समानताओं के और भी स्तर हैं ।
...परन्तु हमारा वर्ण्य विषय शूद्रों से ही सम्बद्ध है ...📖📖📚📖📚📖📚📖📚📖✏........ लैटिन भाषा में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन क्रिया स्वेयर -- Suere = to sew( सीवन करना )- सिलना अथवा ,वस्त्र -वपन करना ....... विदित हो कि संस्कृत भाषा में भी शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति शुट्र  शब्द के समान है देखें  (श्वि + द्रा + क )= शूद्र ..
अर्थात् श्वि धातु संज्ञा करणे में द्रा + क प्रत्यय परे करने पर शूद्र शब्द बनता है !
कहीं कहीं भागुरि आचार्य के मतानुसार कोश कारों ने ....शुच् = शूचि कर्मणि धातु में संज्ञा भावे रक् प्रत्यय करने पर दीर्घ भाव में इस शब्द की व्युत्पत्ति-सिद्ध की है ..
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....और इस शब्द का पर्याय सेवक शब्द है .......जिसका भी मूल अर्थ होता है... वस्त्रों का सीवन sewing ..करने वाला ..
souter (n.)सुट्र ---
"maker or mender of shoes," Old English sutere, from Latin sutor "shoemaker," from suere "to sew, stitch" (from PIE root *syu- "to bind, sew").
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विचार केवल संक्षेप में ही व्यक्त करुँगा !
भारतीय आर्यों ने अपने आगमन काल में भारतीय धरा पर द्रविडों की शाखा कोलों को ही शूद्रों की प्रथम संज्ञा प्रदान की थी ....जिन्हें दक्षिण भारत में चोल .या चौर तथा चोड्र भी कहा गया था .. कोरी- जुलाहों के रूप में आज तक ये लोग वस्त्रों का परम्परागत रूप से निर्माण करते चले आरहे हैं ।
बौद्ध काल के बाद में लिपि- बद्ध ग्रन्थ पुराणों आदि में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति- करने के काल्पनिक निरर्थक प्रयास भी किये गये ---
जो वस्तुत असत्य ही हैं क्योंकि सत्य केवल एक रूप में होता है ।
और असत्य अनेक वैकल्पिक रूपों में होता है ।
जैसे वायु -पुराण में कहा कि " शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र कहलाया"
इधर भविष्य-पुराण इससे भिन्न व्युत्पत्ति- करता है ।
कि "श्रुतियों अर्थात् वेद की द्रुति (अवशिष्ट अंश प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए "
वस्तुत: ये व्युत्पत्ति की काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं ।
शूद्रों का उल्लेख यूनानी इतिहास- कार डायोडॉरस तथा टॉल्मी ने भी किया है ।
तथा चीन के इतिहास- कार ह्वेन-सांग भी करता है ।
शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-करने के जो भी प्रयास आज तक हुए हैं ।
वे सभी अनिश्चित तथा सन्दिग्ध ही हैं ।
बादरायण जिनका समय लगभग ई०पू० २००० के समकक्ष है।
उनका नाम आरोपित करके किसी ने इन्हीं के नाम पर शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-करने की असफल चेष्टा की है।
जिनमें शूद्र शब्द को दो भागों मे विभक्त कर शुक् और द्र पदों से व्युत्पत्ति- दर्शायी है ।
अर्थात् दो धातुऐं शुच् धातु तथा द्रु धातु
अर्थात् शोक करना और दौड़ना
आचार्य शंकर ने अपने वेदान्त सूत्र के शारीरिक भाष्य में इस शब्द की व्युत्पत्ति- की टीका करते हुए -
तीन वैकल्पिक व्याख्याऐं दी हैं ।
  जो आनुमानिक ही हैं ।
कि जानाश्रुति राजा शूद्र क्यों कहलाया ---
१---" वह शोक के अन्तर दौड़ गया "" स: शुचमभिदुद्राव तस्मात् कारणात् शूद्र: कथ्यते "
२-----"उस पर शोक दौड़ गया अथवा उस पर सन्ताप आच्छादित हो गया ..
तेषुशुचा वा अभिद्रुवे...
३----"अपने शोक के कारण वह रैक्व में दौड़ गया ।
शंकराचार्य का निष्कर्ष है , कि शूद्र शब्द के विभिन्न अंगों की व्याख्याऐं करने पर ही ,उसका व्युत्पत्ति- को समझा जा सकता है अन्यथा नहीं...
  वस्तुत: यहाँ बादरायण द्वारा शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति- तथा शंकराचार्य द्वारा उसका व्याख्याऐं दौनों ही असन्तोष जनक हैं ।
कहा जाता है कि शंकराचार्य ने जिस जानाश्रुति राजा का उल्लेख किया है , वह उत्तरी पश्चिम के निवासी  महावृषों पर राज करता था ।
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार उणादि सूत्र के लेखक ने  शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति- तो कुछ सही की है ,परन्तु अर्थ सही नहीं किया है ।
शुच् धातु तथा + रक् प्रत्यय परक की है ।
पुराणों आदि में शूद्र शब्द की जो व्युत्पत्ति- करने की चेष्टा की है ।
वह सत्य भले ही न हो परन्तु शूद्रों के प्रति तत्कालीन ब्राह्मण समाज की कुत्सित मानसिकता को अवश्य ध्वनित करता है ।
बौद्ध काल में भी इसी शब्द की व्युत्पत्ति- पर कोई सत्य प्रकाश नहीं पड़ता है ।
वे शूद्र को सुद्द कहते थे ..
कहीं क्षुद्र शब्द से इसका तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा की गयी ..
यह बहुत ही विस्मय पूर्ण है कि यहाँ दो धातुऐं के योग से शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-की गयी है ।
जो कि पाणिनीय व्याकरण के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है
क्योंकि कृदन्त शब्द पदों की  व्युत्पत्ति- एक ही धातु से होती है , दो धातुओं से नहीं ..
    संस्कृत में भी इसी शब्द का कोई व्युत्पत्ति-परक (Etymological)--प्राचीन आधार नहीं है ।
   वस्तुत: ब्राह्मण समाज के लेखक इस शब्द को जो अर्थ देना चाहते हैं , वह केवल प्रचलित समाज में शूद्रों के प्रति परम्परागत मनोवृत्ति का प्रकाशन मात्र है ।

इतना ही नहीं विकृितियों की सरहद तो यहाँ पर पार  हो गयी
जब शूद्रों की ईश्वरीय उत्पत्ति का वैदिक सिद्धान्त भी
सृजित कर लिया गया ..
   देखें ----
ब्राह्मणोsस्य मुखं आसीद् ,बाहू राजन्य:कृत: ।
उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत ।।
____________________________
_______.                                       ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ९०वें सूक्त का १२वाँ श्लोक ..
शूद्रों की उत्पत्ति ईश्वर के पैरों से करा कर उनके लिए आजीवन ब्राह्मण के पैरों तले पड़े रहने का कर्तव्य नियत कर दिया गया .....
   निश्चित रूप से इससे बड़ा संसार का कोई जघन्य पाप कर्म नहीं था ।
  शूद्रों के लिए धार्मिक मान्यताओं की मौहर लगाकर
ब्राह्मणों की पद-प्रणतिपरक दासता पूर्ण
विधान पारित किये गये थे ।
कि शूद्र आजीवन ब्राह्मण तथा उनके अंग रक्षक क्षत्रियों के पैरों की सेवा करते रहें ...
उनके पैरों के लिए जूते चप्पल बनाते रहें ...
यह निश्चित रूप से ब्राह्मण की बुद्धि महत्ता नहीं था अपितु चालाकी से पूर्ण कपट और दोखा था ।
इस कृत्य के लिए ईश्वर भी क्षमा नहीं करेंगे ...
और कदाचित वो दिन अब आ चुके हैं ....
  भारत में आगत आर्यों का प्रथम समागम द्रविड परिवार की एक शाखा कोलों से हुआ था ।
   जो वस्त्रों का निर्माण कर लेते थे उन्हें ही आर्यों ने शूद्र शब्द से सम्बोधित किया था ।
👕🎽👗👚👖👔👕👖🎽👗👚. ईरानी आर्यों ने इन्हीं वस्त्र निर्माण कर्ता शूद्रों को वास्तर्योशान अथवा वास्त्रोपश्या के रूप में अपनी वर्ण व्यवस्था में वर्गीकृत किया था !!!!!!!
...... फारसी धर्म की अर्वाचीन पुस्तकों में भी आर्यों के इन चार वर्णों का वर्णन कुछ नाम परिवर्तन के साथ है
---जैसे देखें नामामिहाबाद पुस्तक के अनुसार
१ ---- होरिस्तान. जिसका पहलवी रूप है अथर्वण जिसे वेदों मैं अथर्वा कहा है ..
२-----नूरिस्तान ..जिसका पहलवी रूप रथेस्तारान ...जिसका वैदिक रूप रथेष्ठा तथा
३---रोजिस्तारान् जिसका पहलवी रूप होथथायन था तथा
४---चतुर्थ वर्ण पोरिस्तारान को ही वास्तर्योशान कहा गया है !!!!
यही लोग द्रुज थे जिन्हे कालान्तरण में दर्जी भी कहा गया है ।
ये कैल्ट जन जाति के पुरोहितों ड्रयूडों (Druids) की ही एक शाखा थी ।
वर्तमान सीरिया , जॉर्डन पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल तथा लेबनान में द्रुज लोग यहूदीयों के सहवर्ती थे ।
यहीं से ये लोग बलूचिस्तान होते हुए भारत में भी आये । विदित हो कि बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा शूद्रों की भाषा मानी जाती है ।
  अत: इतिहास कार शूद्रों को प्रथम आगत द्रविड स्कन्द आभीरों अथवा यादवों के सहवर्ती मानते हैं
ये आभीर अथवा यादव इज़राएल में अबीर कहलाए जो यहूदीयों का एक यौद्धा कब़ीला है ।
शूद्रों को ही युद्ध कला में महारत हासिल थी ।
पुरानी फ्रेंच भाषा में सैनिक अथवा यौद्धा को  सॉडर Souder (Soldier )कहा जाता था ।
व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से -- One tribe who serves in the Army for pay is called Souder ..
वास्तव में रोमन संस्कृति में सोने के सिक्के को  सॉलिडस् (Solidus) कहा जाता था ।
इस कारण ये सॉल्जर कह लाए ..
ये लोग पिक्टस (pictis) कहलाते थे।
जो ऋग्वेद में पृक्त कहे गये ।
जो वर्तमान पठान शब्द का पूर्व रूप है ।
फ़ारसी रूप पुख़्ता ---या पख़्तून ...
क्योंकि अपने शरीर को सुरक्षात्मक दृष्टि से अनेक लेपो से टेटू बना कर सजाते थे ।
ये पूर्वोत्तरीय स्कॉटलेण्ड में रहते थे ।
ये शुट्र ही थे जो स्कॉटलेण्ड में बहुत पहले से बसे हुए थे
The pictis were a tribal Confederadration of peoples who lived in what is today Eastern and northern Scotland...
ये लोग यहाँ पर ड्रयूडों की शाखा से सम्बद्ध थे ।
    भारतीय द्रविड अथवा इज़राएल के द्रुज़ तथा बाल्टिक सादर के तटवर्ती ड्रयूड (Druids)
एक ही जन जाति के लोग थे ।
मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों एक संस्कृति केल्डियनों
(Chaldean) सेमेटिक जन-जाति की भी है ।
जो ई०पू० छठी सदी में विद्यमान रहे हैं ।
बैवीलॉनियन संस्कृतियों में इनका अतीव योगदान है ।
यूनानीयों ने इन्हें कालाडी (khaldaia ) कहा है ।
ये सेमेटिक जन-जाति के थे ।
अत: भारतीय पुराणों में इन्हें  सोम वंशी कहा ।
जो कालान्तरण में चन्द्र का विशेषण बनकर चन्द्र वंशी के रूप में रूढ़ हो गया ।
पुराणों में भी प्राय: सोम शब्द ही है ।
चन्द्र शब्द नहीं ...
वस्तुत ये कैल्ट लोग ही थे ।
जिससे द्रुज़ जन-जाति का विकास पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल के क्षेत्र में हुआ ।
मैसॉपोटामिया की
असीरियन अक्काडियन हिब्रू तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों की श्रृंखला में केल्डिय संस्कृति भी एक कणिका थी ।
इन्हीं के सानिध्य में एमॉराइट तथा कस्साइट्स (कश या खश) जन-जातीयाँ भारत की पश्चिमोत्तर पहाड़ी क्षेत्रों में प्रविष्ट हुईं ।
महाभारत में खश जन-जातीयाँ बड़ा क्रूर तथा साहसी बताया गयीं हैं ।
भारतीय आर्यों ने इन्हें किरात संज्ञा दी
..यजुर्वेद में किरातों का उल्लेख है ।.
जाति शब्द ज्ञाति का अपभ्रंश रूप है ।
ये थे तो एक ही पूर्वज की सन्तानें परन्तु इनमें परस्पर सांस्कृतिक भेद हो गये थे ।
केल्डियनों का उल्लेख ऑल्ड- टेक्ष्टामेण्ट (Old-textament) में सृष्टि-खण्ड (Genesis) 11:28 पर है ।
मैसॉपोटामिया के सुमेरियन के उर नामक नगर में जहाँ हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम का जन्म हुआ था ।
chesed कैसेड से जो हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम का भतीजा था ।
ये लोग आज ईसाई हैं ,
परन्तु यह अनुमान मात्र है ।
प्रमाणों के दायरे में नहीं है
यह भेद कारक ज्ञान ही इनकी ज्ञाति थी ।
सम्भवत: ईरानी संस्कृति में इन्हें कुर्द़ कहा गया है ...
जो अब इस्लाम के अनुयायी हैं ।
.....इसी सन्दर्भ में तथ्य भी विचारणीय है कि ईरानी आर्यों का सानिध्य ईरान आने से पूर्व आर्यन -आवास अथवा (आर्याणाम् बीज). जो आजकल सॉवियत -रूस का सदस्य देश अज़र -बेजान है एक समय यहीं पर सभी आर्यों का समागम स्थल था.......जिनमें जर्मन आर्य ,ईरानी आर्य ,तथा भारतीय आर्य भी थे ****** उत्तरीय ध्रुव के पार्श्व -वर्ती स्वीडन जिसे प्राचीन नॉर्स भाषा में स्वरगे .Svirge कहा गया है ।
भारतीय आर्यों का स्वर्ग ही था ।
यूरोप में जिस प्रकार जर्मन आर्यों का  सांस्कृतिक युद्ध पश्चिमी यूरोप में गोल Goal ..केल्ट ,वेल्स ( सिमिरी )तथा ब्रिटॉनों से निरन्तर होता रहता था. जिनके पुरोहित ड्रयूड Druids -थे शुट्र( Souter)भी गॉलो की शाखा थी
..वास्तव में भारत में यही जन जातियाँ क्रमशः .कोल ,किरात तथा भिल्लस् और भरत कह लायीं ।
ये भरत जन जाति भारत के उत्तरी-पूर्व जंगलों में रहने वाली थी और ये वृत्र के अनुयायी व उपासक थे ...
जिसे केल्टिक माइथॉलॉजी मे ए-बरटा (A- barta)
कहा गया है । भारत में भी इन जन -जातियों के पुरोहित भी द्रविड ही थे यह एक अद्भुत संयोग है !
  शूद्र शब्द का प्रथम प्रयोग कोलों के लिए हुआ था इसी सन्दर्भ में आर्यों का परिचय भी स्पष्टत हो जाय :-
~ आर्य कौन थे ~•~ ?
   यह एक शोध - लिपि है
          जिसके समग्र प्रमाण :- यादव योगेश कुमार रोहि
के द्वारा अनुसन्धानित है ।
     अत: कोई जिज्ञासु इस विषय में
इन से विचार- विश्लेषण कर सकता है ।
   
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•••• भारत तथा यूरोप की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में आर्य शब्द यौद्धा अथवा वीर के अर्थ में व्यवहृत है ! …………
पारसीयों पवित्र धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में अनेक स्थलों पर आर्य शब्द आया है जैसे –सिरोज़ह प्रथम- के यश्त ९ पर, तथा सिरोज़ह प्रथम के यश्त २५ पर …अवेस्ता में आर्य शब्द का अर्थ है ——-€ …तीव्र वाण (Arrow ) चलाने वाला यौद्धा —यश्त ८. स्वयं ईरान शब्द आर्यन् शब्द का तद्भव रूप है ..
परन्तु भारतीय आर्यों के ये चिर सांस्कृतिक प्रतिद्वन्द्वी अवश्य थे !! ये असुर संस्कृति के उपासक आर्य थे. देव शब्द का अर्थ इनकी भाषाओं में निम्न व दुष्ट अर्थों में है …परन्तु अग्नि के अखण्ड उपासक आर्य थे ये लोग… स्वयं ऋग्वेद में असुर शब्द उच्च और पूज्य अर्थों में है —-जैसे वृहद् श्रुभा असुरो वर्हणा कृतः ऋग्वेद १/५४/३. तथा और भी महान देवता वरुण के रूप में …त्वम् राजेन्द्र ये च देवा रक्षा नृन पाहि .असुर त्वं अस्मान् —ऋ० १/१/७४ तथा प्रसाक्षितः असुर यामहि –ऋ० १/१५/४. ऋग्वेद में और भी बहुत से स्थल हैं जहाँ पर असुर शब्द सर्वोपरि शक्तिवान् ईश्वर का वाचक है ..
पारसीयों ने असुर शब्द का उच्चारण ..अहुर ….के रूप में किया है….अतः आर्य विशेषण.. असुर और देव दौनो ही संस्कृतियों के उपासकों का था ….और उधर यूरोप में द्वित्तीय महा -युद्ध का महानायक ऐडोल्फ हिटलर Adolf-Hitler स्वयं को शुद्ध नारादिक nordic आर्य कहता था और स्वास्तिक का चिन्ह अपनी युद्ध ध्वजा पर अंकित करता था विदित हो कि जर्मन भाषा में स्वास्तिक को हैकैन- क्रूज. Haken- cruez कहते थे …जर्मन वर्ग की भाषाओं में आर्य शब्द के बहुत से रूप हैं ….
..ऐरे Ehere जो कि जर्मन लोगों की एक सम्माननीय उपाधि है ..जर्मन भाषाओं में ऐह्रे Ahere तथा Herr शब्द स्वामी अथवा उच्च व्यक्तिों के वाचक थे …और इसी हर्र Herr शब्द से यूरोपीय भाषाओं में..प्रचलित सर ….Sir …..शब्द का विकास हुआ. और आरिश Arisch शब्द तथा आरिर् Arier स्वीडिश डच आदि जर्मन भाषाओं में श्रेष्ठ और वीरों का विशेषण है …..
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इधर एशिया माइनर के पार्श्व वर्ती यूरोप के प्रवेश -द्वार ग्रीक अथवा आयोनियन भाषाओं में भी आर्य शब्द. …आर्च Arch तथा आर्क Arck के रूप मे है जो हिब्रू तथा अरबी भाषा में आक़ा होगया है…ग्रीक मूल का शब्द हीरों Hero भी वेरोस् अथवा वीरः शब्द का ही विकसित रूप है और वीरः शब्द स्वयं आर्य शब्द का प्रतिरूप है जर्मन वर्ग की भाषा ऐंग्लो -सेक्शन में वीर शब्द वर Wer के रूप में है ..तथा रोम की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह वीर शब्द Vir के रूप में है……… ईरानी आर्यों की संस्कृति में भी वीर शब्द आर्य शब्द का विशेषण है यूरोपीय भाषाओं में भी आर्य और वीर शब्द समानार्थक रहे हैं !….हम यह स्पष्ट करदे कि आर्य शब्द किन किन संस्कृतियों में प्रचीन काल से आज तक विद्यमान है.. लैटिन वर्ग की भाषा आधुनिक फ्रान्च में…Arien तथा Aryen दौनों रूपों में …इधर दक्षिणी अमेरिक की ओर पुर्तगाली तथा स्पेन भाषाओं में यह शब्द आरियो Ario के रूप में है पुर्तगाली में इसका एक रूप ऐरिऐनॉ Ariano भी है और फिन्नो-उग्रियन शाखा की फिनिश भाषा में Arialainen ऐरियल-ऐनन के रूप में है .. रूस की उप शाखा पॉलिस भाषा में Aryika के रूप में है.. कैटालन भाषा में Ari तथा Arica दौनो रूपों में है स्वयं रूसी भाषा में आरिजक Arijec अथवा आर्यक के रूप में है इधर पश्चिमीय एशिया की सेमेटिक शाखा आरमेनियन तथा हिब्रू और अरबी भाषा में क्रमशः Ariacoi तथाAri तथा अरबी भाषा मे हिब्रू प्रभाव से म-अारि.
M(ariyy तथा अरि दौनो रूपों में.. तथा ताज़िक भाषा में ऑरियॉयी Oriyoyi रूप. …इधर बॉल्गा नदी मुहाने वुल्गारियन संस्कृति में आर्य शब्द ऐराइस् Arice के रूप में है .वेलारूस की भाषा मेंAryeic तथा Aryika दौनों रूप में..पूरबी एशिया की जापानी कॉरीयन और चीनी भाषाओं में बौद्ध धर्म के प्रभाव से आर्य शब्द .Aria–iin..के रूप में है …..
आर्य शब्द के विषय में इतने तथ्य अब तक हमने दूसरी संस्कृतियों से उद्धृत किए हैं…. परन्तु जिस भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव आर्यों की संस्कृति से हुआ ..🐂🐂🐂🐎🐎🐎🐂🐎🐕🐕🐕🐾🌲🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🌰उस के विषय में हम कुछ कहते हैं ….विदित हो कि यह समग्र तथ्य 📖📚📖📚📗📕📘📙📓📓📔📑📑📃📄📝✏ ……योगेश कुमार रोहि के शोधों पर……. आधारित हैं ..⚡⚡⚡❄❄❄❄.भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं
स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ Rootnal-Mean ..आरम् धारण करने वाला वीर …..संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा ….अथवा वीरः |आर्य शब्द की व्युत्पत्ति Etymology संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन अर्थ सर्व मान्य है ।
१–गमन करना Togo २– मारना to kill ३– हल (अरम्) चलाना …. Harrow मध्य इंग्लिश—रूप Harwe कृषि कार्य करना… ..प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे …..🍪🍪🍪🍪🍪🌽🍅🍈🍇🍒🍍🍐🍠🍑🍋🍊🍇🍓🍌🍌🍌🍌
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कात्स्न्र्यम् धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च..परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा .अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है
वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity.यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =togo
के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर Err है
…….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशःAraval तथा Aravalis हैं अर्थात् कृषि कार्य.सम्बन्धी …..आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य ही थे …सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था …🐂🐕🐂🐎🐄🐏🐚🐚🐚🐚🐚🐚🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌾🌿आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ….यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था …🏠🏡🏠🏡🌄🌅🎠🎠🎠🚣🚣🚣🚣🏤🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡🏡..अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी(घास के मैदान )देखते
उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे …क्यों किअब भी .
संस्कृत तथा यूरोप की सभी भाषाओं में…. ग्राम शब्द का मूल अर्थ ग्रास-भूमि तथा घास है
…..इसी सन्दर्भ यह तथ्य भी प्रमाणित है कि आर्य ही ज्ञान और लेखन क्रिया के विश्व में प्रथम प्रकासक थे …ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—–ग्रस् +मन् प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है जिससे ग्रह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है
गृह ही ग्राम की इकाई रूप है ..जहाँ ग्रसन भोजन की सम्पूर्ण व्यवस्थाऐं होती हैं👣👣👣👣👣👣🔰🔰🔰🔰🔰📖📖📖📕📓📑📒📰📚📚📙📘📗📔📒📝📝📄💽📐. सर्व प्रथम आर्यों ने घास केे पत्तों पर लेखन क्रिया की थी.. क्यों कि वेदों में गृभ धातु का प्रयोग ..लेखन उत्कीर्णन तथा ग्रसन (काटने खुरचने )केेे अर्थ में भी प्रयुक्त है… यूरोप की भाषाओं में देखें–जैसे ग्रीक भाषा में ग्राफेन Graphein तथा graphion = to write वैदिक रूप .गृभण..इसी से अंग्रेजी मेंGrapht और graph जैसे शब्दों का विकास हुआ है पुरानी फ्रेन्च मेंGraffe लैटिन मेंgraphiumअर्थात् लिखना .ग्रीक भाषा मेंgrammaशब्द का अर्थ वर्ण letterरूढ़ हो गया .जिससे कालान्तरण में ग्रामर शब्द का विकास हुआ..
आर्यों ने अपनी बुद्धिमता से कृषि पद्धति का विकास किया अनेक ध्वनि संकेतों काआविष्कार कर कर अनेक लिपियों को जन्म दिया …अन्न और भोजन के अर्थ में भी ग्रास शब्द यूरोप की भाषाओं में है पुरानी नॉर्स ,जर्मन ,डच, तथा गॉथिक भाषाओं में Gras .पुरानी अंग्रेजी मेंgaers .,green ग्रहण तथा grow, grasp लैटिनgranum- grain स्पेनिस् grab= to seize …

••• 🌎🌍🌏🌎🌍🌏🌎🌍..यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट कर दें कि इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता , बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक होता है छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं, ••• ..तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है , और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है ..⚡⚡⚡⚡⚡⚡👚⚡🎽⚡
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सत्य के अन्वेषण में प्रमाण ही ढ़ाल हैं ,जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध हमारी रक्षा करता है ~|
अथवा हम कहें कि विवादों के भ्रमर में प्रमाण पतवार हैं ,🏄🏄🏂🏄🏂🏄 अथवा पाँडित्यवाद के संग्राम में सटीक तर्क रोहि किसी अस्त्र से कम नहीं हैं।
मैं दृढ़ता से अब भी कहुँगा ....सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ,गतिविधियाँ कभी भी एक-भौमिक नहीं,  अपितु विश्व-व्यापी होती है ! क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है. इतिहास एक वैज्ञानिक व गहन विश्लेषणात्मक तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है "" विद्वान् इस तथ्य पर अपनी प्रतिक्रियाऐं अवश्य दें ...
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      यह एक शोध - लिपि है
          जिसके समग्र प्रमाण योगेश कुमार रोहि
के द्वारा अनुसन्धानित है ।
     अत: कोई जिज्ञासु इस विषय में
इन से विचार- विश्लेषण कर सकता है ।
     सम्पर्क - सूत्र ----8077160219....

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