बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

मनु-स्मृति के श्रेष्ठ श्लोक -

धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥ अर्थ - धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना (अक्रोध)। नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु। गूहेत्कूर्म इवांगानि रक्षेद्विवरमात्मन: ॥ वकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत्। वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत् ॥ अर्थ - कोई शत्रु अपने छिद्र (निर्बलता) को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है, वैसे ही शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रक्खे। जैसे बगुला ध्यानमग्न होकर मछली पकड़ने को ताकता है, वैसे अर्थसंग्रह का विचार किया करे, शस्त्र और बल की वृद्धि कर के शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करे। चीते के समान छिप कर शत्रुओं को पकड़े और समीप से आये बलवान शत्रुओं से शश (खरगोश) के समान दूर भाग जाये और बाद में उनको छल से पकड़े। नोच्छिष्ठं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याचैव तथान्तरा। न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद् व्रजेत् ॥ अर्थ - न किसी को अपना जूंठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे, न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात हाथ-मुंह धोये बिना कहीं इधर-उधर जाये। तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि। तावद्भवति चांडाल: यावद् स्नानं न समाचरेत ॥ अर्थ - तेल-मालिश के उपरांत, चिता के धूंऐं में रहने के बाद, मिथुन (संभोग) के बाद और केश-मुंडन के पश्चात - व्यक्ति तब तक चांडाल (अपवित्र) रहता है जब तक स्नान नहीं कर लेता - मतलब इन कामों के बाद नहाना जरूरी है। अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ अर्थ - अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें