कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की संक्षिप्त भूमिकाओं का परिचय निम्न प्रकार से है।।
- भारत के संविधान की शक्तियों के विभाजन को सरकार के तीन प्राथमिक अंगों में स्थापित किया जाता है जो केन्द्र सरकार की शक्तियों के नियन्त्रण और उनके उपयोग की प्रणाली सुनिश्चित करता है।
- कार्यपालिका कानूनों और संवैधानिक नीतियों के कार्यान्वयन के लिए उत्तरदायी है। इसके अन्तर्गत राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, मंत्रिपरिषद और अन्य नौकरशाही मशीनरी शामिल हैं।
- विधायिका कानून बनाने के लिए उत्तरदायी है। इसमें केन्द्रीय स्तर पर संसद (लोकसभा और राज्यसभा) और राज्य स्तर पर राज्य विधानमण्डल शामिल हैं।
- न्यायपालिका कानून की व्याख्या और उसे लागू करती है। यह न्याय सुनिश्चित करती है, संविधान की रक्षा करती है और मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करती है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय शामिल हैं।
- शक्तियों का यह पृथक्करण लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला है और जो प्रणाली के भीतर जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करता है।
- यह प्रणाली मोंटेस्क्यू के शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के दर्शन से प्रेरित है, जो सरकार के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों के स्पष्ट सीमांकन की वकालत करता है। मोंटेस्क्यू एक फ्रांस के राजनैतिक विचारक, न्यायविद, दार्शनिक, इतिहासकार तथा उपन्यासकार थे। उन्होने शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त दिया था।
- संसद, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय
- यह विकल्प सरकार के विभिन्न अंगों के कार्यों को मिलाता है। संसद विधायिका का हिस्सा है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय न्यायपालिका से सम्बन्धित हैं।
- ये संस्थान हैं, सरकार के तीन प्रमुख अंग नहीं।
- राजतन्त्र, कुलीनतंत्र और लोकतंत्र
- ये किसी सरकार के रूप हैं, सरकार के अंग नहीं। पहले भी दुनियाँ के कुछ देशों में उपर्युक्त तीनों शासन प्रणाली किसी काल खण्ड में कभी न कभी प्रचलित रही ही हैं।
- राजतन्त्र- एक ऐसी प्रणाली को सन्दर्भित करती है जहाँ एक राजा या रानी शासन करते हैं। भारत में यह प्रणाली आज भी सभी पार्टियों में कहीं ज्यादा तो कहीं कम रूप में परोक्ष राजतन्त्र लोकतन्त्र के नाम पर आरोपित है।
- जबकि कुलीनतन्त्र कुछ अभिजात वर्ग द्वारा शासन को दर्शाता है, और लोकतन्त्र का अर्थ बहुतायत जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा शासन है।
- प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल
- यह भारत में कार्यपालिका शाखा के घटकों को संदर्भित करता है, न कि सरकार के तीन अंगों को।
- प्रधान मंत्री सरकार के प्रमुख पदों में हैं, राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख पदों में हैं, और मंत्रिमंडल में मंत्री शामिल होते हैं जो शासन में सहायता करते हैं।
आज विपक्ष ही नहीं अपितु स्वतन्त्र सामाजिक विश्लेकों द्वारा भी संविधान के अनुरूप काम नहीं करने' के आरोप सत्तारूढ़ दलों पर लगाए जाते हैं। परन्तु अब यह आरोप प्रारूप के रूप में समक्ष भी आने लगे हैं।
संविधान की प्रस्तावना में बदलाव हो, या जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली हो, दल-बदल क़ानून हो, जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा ख़त्म करना हो या फिर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की बात हो तो वर्तमान में केन्द्र सरकार द्वारा यह सब परोक्ष रूप से किया जा रहा है। ये लोग संविधान को बदल रहे हैं। देश के धार्मिक और सांस्कृतिक विधान को बदल रहे हैं।
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है. इसके अनुच्छेद (368) के आधार पर संसद को संविधान में समय और परिस्थितियों के अनुरूप संशोधन करने का अधिकार दिया गया है.
संविधान में पहला संशोधन (1951) में अस्थायी संसद ने पारित किया था. उस समय राज्यसभा नहीं थी. पहले संशोधन के तहत 'राज्यों'को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की प्रगति के लिए सकारात्मक कदम उठाने का अधिकार दिया गया था।
यूँ तो अब तक संविधान में (105) संशोधन किए जा चुके हैं, लेकिन संविधान की प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन किया गया है.
- 101वां संशोधन (2016): देश में वस्तु एवं सेवा कर (GST) लागू किया गया।जिससे आम जनता को मल- मूत्र विसर्जित करने पर भी टैक्स देना पड़ता है
- 102वां संशोधन (2018): राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) को संवैधानिक दर्जा दिया गया। परन्तु उसके हित में कोई काम नहीं हुआ।
- अपराधीकरण और भ्रष्टाचार: राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की बढ़ती संख्या और व्यापक भ्रष्टाचार एक प्रमुख मुद्दा है वर्तमान सरकार धर्म और जाति के नाम पर राजनीति कर रही है। धर्म ने पाखण्ड और दिखावे का रूप धारण कर लिया है शातिर अपराधी अब सत्तापक्ष की सरकार की सदस्यता ग्रहण करके सभी सजाओं और मुकद्दमों से मुक्त हो जाता है।
- पक्षपातपूर्ण राजनीति: समाज में गहराता राजनीतिक ध्रुवीकरण और आम आदमी के बीच भी "पक्षीय राजनीति" जातिवाद की प्रवृत्ति के रूप में उभरती जा रही है। आज यादवों और मुसलमानों को बीजेपी सरकार द्वार राजकीय अनुदानों तथा सहायताओं से वञ्चित किया जा रहा है। , जहाँ सत्ता पक्ष लोग गलत होने पर भी अपने जातीय लोगों का बचाव करते हैं।
- जातिवाद और धर्मवाद: सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दल जाति और धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण करते हैं, जिसमे बीजेपी ने एकाधिकार ले लिया है। जो राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक है।
- शासन की गुणवत्ता और आर्थिक मुद्दे: गरीबी, बेरोजगारी, असमानता, और स्वास्थ्य देखभाल जैसी बुनियादी समस्याओं का प्रभावी समाधान न होना भी समाजिक विघटन का कारण है
- लोकतान्त्रिक संस्थानों पर दबाव: सरकारी आलोचकों को निशाना बनाने के लिए सरकारी एजेंसियों का उपयोग और असहमति का दमन जैसी कार्रवाइयाँ लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण का संकेत देती हैं जिसमें सीवीआई और सीआइडी जैसी संस्थाऐं भी प्रभावित हैं।
103वां संशोधन (2019): आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण का प्रावधान किया गया परन्तु लाभ सब सवर्ण वर्ग को ही मिल रहा है।
104वां संशोधन (2020): लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए सीटों के आरक्षण को दस साल (2030 तक) के लिए बढ़ाया गया। परन्तु अब राज्य सरकारें केवल जातीय आधार पर सीटें भर रही हैं।
105वां संशोधन (2021): राज्यों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (SEBC) की अपनी सूची तैयार करने की शक्ति बहाल की गई।
106वां संशोधन (2023): लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और दिल्ली विधानसभा में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान किया गया (यह जनगणना और परिसीमन के बाद लागू होगा) परन्तु यहाँ भी ब्राह्मण वणिक और राजपूत जाति के ही लोगों का आरक्षण परोक्ष रूप से है। ।
देश का लोकतन्त्र खत्म हो रहा है।
- लोकतंत्र सूचकांक: द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (EIU) द्वारा प्रकाशित लोकतंत्र सूचकांक जैसे माप, देशों को उनके चुनावी प्रक्रिया, नागरिक स्वतंत्रता, सरकार के कामकाज, राजनीतिक भागीदारी और राजनीतिक संस्कृति के आधार पर रैंक करते हैं। इन सूचकांकों ने हाल के वर्षों में कई स्थापित लोकतंत्रों सहित, दुनिया भर में "लोकतांत्रिक वापसी" (democratic backsliding) या लोकतांत्रिक मानकों में गिरावट का संकेत दिया है। संस्थाओं की भूमिका: एक मजबूत लोकतंत्र स्वतंत्र मीडिया, निष्पक्ष न्यायपालिका, सक्रिय विपक्ष, और मजबूत नागरिक समाज संगठनों पर निर्भर करता है। इन संस्थानों की स्वायत्तता या कार्यप्रणाली पर कोई भी दबाव चिंता का विषय हो सकता है। विभिन्न दृष्टिकोण: नागरिकों, राजनीतिक विश्लेषकों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच अक्सर लोकतंत्र की स्थिति पर अलग-अलग राय होती है। कुछ लोग मान सकते हैं कि देश मजबूत बना हुआ है और लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं सक्रिय हैं, जबकि अन्य लोग विशिष्ट नीतियों, ध्रुवीकरण या सत्ता के केंद्रीकरण का हवाला देते हुए गिरावट का तर्क दे सकते हैं।
- नियुक्ति प्रक्रिया: 2023 में एक नए कानून ने चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की चयन समिति से भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को हटा दिया और उनकी जगह एक कैबिनेट मंत्री (प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के साथ) को शामिल किया, जिससे यह प्रक्रिया सरकार-केंद्रित हो गई।
- विपक्ष का तर्क है कि यह परिवर्तन आयोग की स्वतंत्रता को कमजोर करता है।
- शिकायतों पर कार्रवाई: विपक्षी दलों, जैसे कांग्रेस, टीएमसी, और बीआरएस ने आरोप लगाया है कि ECI ने सत्तारूढ़ दल (भाजपा) के नेताओं, विशेष रूप से प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के खिलाफ कथित आदर्श आचार संहिता उल्लंघनों और कथित विभाजनकारी भाषणों पर नरम रुख अपनाया, जबकि विपक्षी नेताओं के खिलाफ त्वरित कार्रवाई की है।
- विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) अभ्यास: मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाए गए हैं। कुछ विपक्षी दल, जैसे टीएमसी, ने आरोप लगाया है कि इस अभ्यास का उपयोग राजनीतिक रूप से प्रेरित तरीके से मतदाताओं के नाम हटाने के लिए किया जा रहा है। जिसमें मुसलमान यादव और कुछ दलित समाज के जो ओबीसी समुदाय से हैं।
- मतदान डेटा में विसंगतियां: 2024 के आम चुनावों के दौरान, मतदान के आंकड़ों को जारी करने में देरी और कथित विसंगतियों ने भी आयोग की पारदर्शिता पर सवाल खड़े किए।
- पारदर्शिता और विश्वसनीयता: कई राजनीतिक विश्लेषकों और गैर-लाभकारी संगठनों ने (ECI) की विश्वसनीयता में गिरावट का उल्लेख किया है, जो विभिन्न सर्वेक्षणों और जनमतों में भी परिलक्षित होता है।
- चुनाव आयोग के भीतर संरचनात्मक परिवर्तनों और उसके कार्यों के राजनीतिकरण के कारण उसकी निष्पक्षता पर लगातार सवाल उठ रहे हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें