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भारतीय समाज व संस्कृति में-विवाह-विधि में विवाहार्थी वर अथवा कन्या को मुख्य रूप से तीन बातों पर ध्यान देना चाहिए-
(1) गोत्र (2) प्रवर तथा (3) पिण्ड ये सन्निकट रक्त सम्बन्धित श्रृंखला है।
गोत्र : शब्द से तात्पर्य किसी पूर्व पुरुष के आधार पर परिचय- अथवा सूचना देना ही गोत्र का कार्य भरत मुनि ने गोत्र शब्द की व्युत्पन्न इस प्रकार की है- गोत्रम्- गवते शब्दयति पूर्व्व पुरुषान् यतिति- भरतः मुनि॥
जिसके द्वारा अपने पूर्व पुरुष का आह्वान किया जाए वह गोत्र है।
यहाँ 'गोत्र' का सान्दर्भिक अर्थ कुल अथवा कुल का प्रतिनिधित्व करने वाला पूर्व पुरुष है।
अमरकोश में गोत्र कुल का पर्याय है। गोत्र की अवधारणा तीन प्रकार से की गयी है। १-जननगोत्र- २ गुरु गोत्र और ३ विवाहगोत्र।
मूलत: गोत्र शब्द जनन गोत्र अथवा कुल के अर्थ के अधिक निकट है। पूर्व पुरुष के आधार पर गोत्र से तात्पर्य पूर्वजों के मूलस्थान अथवा किसी सातवीं पीढी के पूर्वज से है।
गुरु गोत्र कुल पुरोहित के आधार पर सुनिश्चित होता है।
विवाह गोत्र - जो पिता की सातवीं पीढ़ी पर समाप्त होता है। समान गोत्र नें विवाह वर्जित है। क्योंकि वे परस्पर भाई बहिन समझे जाएंगे। भाई बहिन में विवाह निषेध यम के पश्चात चरितार्थ ( लागू) हुआ। विवाह में समान गोत्र का प्रतिरोध यम ने किया अत: विवाह को उपयम की संज्ञा प्राप्त हुई। विवाह पद्धति पर आगे यथाक्रम विचार करेगे-
अभी हम कुल के सन्दर्भ में विचार करते हैं।
उत्तर-वैदिक काल आते-आते गोत्र का विकास पूरी तरह हो चुका था। इसी काल में सगोत्र विवाह को वर्जित ठहराया गया। बौद्ध काल में विवाह के लिए ब्राह्मण समाज में गोत्र का महत्व बढ़ चुका था।
क्योंकि समगोत्री की संख्या कम होने से सपिण्ड होने का खतरा भी उत्पन्न हो गया। तब सगोत्री विवाह को निषेध करार देने के अतिरिक्त उनके पास कोई दुसरा उपाय नहीं रह गया था I
यह परम्परा आज भी उनमें स्थिर है। इसका प्रमाण बौद्ध ग्रन्थ 'मज्झिम निकाय' में मिलता है । इसके अनुसार, यदि कोई पुरुष किसी युवती से विवाह करता है तो उसका गोत्र जान लेना चाहिए; क्योंकि उससे विवाह करना ही पड़े तो समगोत्र का दोष न लगे। दूसरे शब्दों में, विषमगोत्री कन्या से ही विवाह करने की अनुमति थी।
धर्मशास्त्रकारों ने व्यवस्था दी कि सगोत्र कन्या से मातृ-भगिनीवत् व्यवहार करना चाहिए।
यदि जाने-अनजाने ऐसा विवाह हो जाए तो प्रायश्चितस्वरूप 'चान्द्रायण व्रत' करना चाहिए। अपरार्क, आपस्तम्ब प्रभृति स्मृतियों तथा गृह्यसूत्रों ने समान गोत्र और प्रवर वाली कन्या से विवाह करने वाले ब्राह्मण की संतान को चाण्डाल तथा पिता को नरकगामी बताया।
इस कठोर प्रतिबंध के बावजूद राजपरिवारों में सगोत्र और सपिण्ड विवाह होते रहे हैं। पिता की सातवीं पीढ़ी पर और माता की पाँचवीं पीढ़ियों के अन्तर्गत आने वाले वर और कन्या के विवाह की पूरी मनाही थी; क्योंकि वे न केवल गोत्र, बल्कि पिण्ड (रक्त सम्बन्ध) के समीकरण से एक माने जाते थे।
सपिण्ड विवाह उत्तर भारत में कम से कम आज भी वार्जित है।
कुछ लोगों ने बौधायन धर्मसूत्र का दृष्टान्त देकर ममेरी बहन से विवाह को उचित ठहराया। अब गोत्र के समान्तरण हम प्रवर पर विचार करते हैं।
यद्यपि बौधायनधर्मसूत्र में सपिण्ड की परिभाषा निम्नलिखित श्लोक में है।
"अपि च प्रपितामहः पितामहः पिता स्वयं सोदर्या भ्रातरः सवर्णायाः पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रस् तत्पुत्रवर्जं तेषां च पुत्रपौत्रम् अविभक्तदायम् सपिण्डान् आचक्षते ॥१।५।११।९
(बौधायनधर्मसूत्र)
प्रवर :
प्र (उपसर्ग)+वृ (धातु)+ अप् (प्रत्यय)= प्रवर (विशेषण) शब्द नानार्थक है; जैसे- प्रधान, सर्वश्रेष्ठ, पूज्य, वंश-परंपरा, गोत्र-प्रवर्तक ऋषि। भारतीय -विवाहों में प्रवर का भी ध्यान रखा जाता है, अर्थात् समान प्रवर वालों में भी विवाह वर्जित है। देखिए गौतम, नारद तथा आपस्तम्ब के वचन-
" समान एकः प्रवरो येषां तैः सह न विवाहः।" (1.23.12)
- 'आ सप्तमात् पञ्चमाच्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः। अविवाह्या सगोत्रा च समानप्रवरा तथा'.
- 'पञ्चमे सप्तमे वापि येषां वैवाहिकी क्रिया । ते च सन्तानिनः सर्वे पतिताः शूद्रतां गताः'.
- 'त्पञ्चमाञ्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः ।
"समानगोत्रप्रवराम् कन्यामृदोपगम्य च।
तस्यामुत्पाद्य चाण्डालं ब्रह्मण्यादेव हीयते।।(आपस्तम्ब श्रौत्र०सू्त्र, पृ०-116)
प्रारंभ में 'प्रवर' का अर्थ याज्ञिक कार्य से सम्बद्ध अग्नि का आवाहन करने वाले ऋषि से था। वरणीय/ प्रार्थनीय/ आवाहनीय श्रेष्ठ ऋषि 'प्रवर' कहलाते थे। ये ऋषि उद्गाता भी कहे जाते थे। याज्ञिक अनुष्ठान में पुरोहित अपने सर्वश्रेष्ठ पूर्वज ऋषि का नाम-स्मरण करते थे, जो उनके समुदाय या समाज के प्रतीक थे। कालांतर में ये ऋषि अपने वंशजों की सामाजिक, सांस्कारिक तथा आध्यात्मिक व्यवस्था से जुड़ते चले गए। ये ही ऋषि आगे चलकर प्रवर-प्रवर्तक हुए।
पिण्ड : हिंदू-समाज में सपिण्ड-विवाह की वर्जना की गई है। सपिण्ड का अर्थ होता है एक ही पिण्ड अथवा शरीर से उत्पन्न सन्तानें। दूसरे शब्दों में, समान रक्तकण को सपिण्ड कहा गया है। पुत्र का पिता के साथ सपिण्ड संबंध होता है; क्योंकि दोनों में एक ही शरीर के अंश या रक्तकण होते हैं । पितामह, प्रपितामह, वृद्ध प्रपितामह प्रभृति से उसका सपिण्ड संबंध माना गया है।
इसी तरह माता, मातामह (नाना), मामा, मौसी प्रभृति से भी व्यक्ति का सपिण्ड संबंध होता है।
यही कारण है कि समान पिण्ड वालों में विवाह को निषिद्ध बताया गया है। लेकिन, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य-स्मृति, व्यास-स्मृति, शंख-स्मृति इत्यादि धर्मग्रंथों में इसका वैकल्पिक मार्ग भी सुझाया गया है।
सभी धर्मशास्त्रकारों ने एकमत से पिता की सात और माता की पाँच पीढ़ियों के बाद जन्म लेने वाले वर-कन्या के बीच विवाह की अनुमति दी है।
दूसरे शब्दों में, विवाह्य वर-कन्या को पिण्ड-दोष नहीं लगता। चिकित्साशास्त्रीय दृष्टि से भी रक्तजन्य-दोष ( क्रमशः 7( पिता) और 5 (माता) पीढ़ियों के बाद) समाप्त हो जाता है। इन ऋषियों के आप्त वचन।
मनुस्मृति - " असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।"
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः ।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ॥ १ ॥
याज्ञवल्क्य- "पञ्चमात् सप्तमादूर्ध्वं मातृतः पितृस्तथा। ( माता की 5 तथा पिता की 7 पीढ़ियों के बाद सपिण्डता का दोष नहीं लगता। )
वेदव्यास- " सवर्णा समानार्षाम् मातृपितृ गोत्रजाम्।
शंखस्मृति - "विन्देत् विधिवद्भार्यामगोत्रजाम्।"
सारांश यह कि पिता की सात और माता की पाँच पीढ़ियों के बाद न तो सगोत्रता का दोष लगता है और न ही सपिण्डता का।
मनुस्मृति के अनुसार, माता की 4 पीढ़ियों तक ही दोष लगता है। इन्होंने विवाह का मार्ग थोड़ा और प्रशस्त कर दिया है । भारत की कुछ खास जातियों में सबका एक ही गोत्र 'कश्यप' होने के कारण सगोत्र विवाह की बाध्यता है।
ऐसी स्थिति में लड़का-लड़की के सपिण्ड.को ध्यान में रखा जाता है,अर्थात् दोनों का एक सपिण्ड नहीं होना चाहिए।
चचेरी, ममेरी, फुफेरी, मौसेरी या फुआ, मौसी आदि के साथ विवाह को लेकर पश्चिम के देशों में शोध किए गए हैं।
अध्ययन में पाया गया कि अन्य समुदायों की अपेक्षा पाकिस्तानी और बांग्लादेशी समुदायों में शिशु-मृत्युदर 12.5 (साढे बारह) प्रतिशत से अधिक थी। अन्य समुदायों में यह दर मात्र 1% पाई गई। पता चला कि नवजात शिशु 'रिसेसिव जाइनेटिक डिसऑर्डर' नामक बीमारी से ग्रस्त थे।
इसके लिए सगोत्र या सपिण्ड विवाह को उत्तरदायी ठहराया गया। संसार के कई देशों में शाही परिवार रक्त की शुद्धता रखने के लिए कुछ अपवादों को छोड़ आपस में ही विवाह करते रहे हैं; जैस- रूस का जार-परिवार, ब्रिटेन, जापान, स्पेन तथा मिश्र इत्यादि के राजन्य परिवार।
फलस्वरूप, जार-वंशजों में 'हिमोफीलिया' नामक रक्तजन्य विकार या रतिज रोग आ गया।भारत में भी सिकगिंग नामक रोग का प्रमुख कारण यहीं हैं। जिससे लाखों लोग ग्रसित हैं।
हमारे धर्मशास्त्रकारों के साथ-साथ चिकित्सकों ने भी बहिर्गोत्र, बहिर्प्रवर और बहिर्पिण्ड विवाह का परामर्श दिया है। यदि सगोत्र, सप्रवर अथवा सपिण्ड विवाह की कोई बाध्यता हो तो माता की पांच और पिता की सात पीढ़ियों के बाद उत्पन्न लड़की या लड़के से विवाह करना चाहिए।
ऐसा करना न केवल नैतिक एंव चिकित्सकीय दृष्टि से उचित है।
परिणीय सगोत्रा तु समानप्रवरां तथा ।।
त्यागं कृत्वा द्विजस्तस्यास्ततश्चांद्रायणं चरेत् ।। १० ।।
उत्सृज्य तां ततो भार्यां मातृवत्परिपालयेत् ।। ११ ।।
याज्ञवल्क्यः ।।
अरोगिणीं भ्रातृमतीमसमानार्षगोत्रजाम् ।।
पंचमात्सप्तमार्दूर्ध्वं मातृतः पितृत स्तथा ।। १२ ।।
असमानप्रवरैर्विवाह इति गौतमः ।।
यद्येकं प्रवरं भिन्नं मातृगोत्रवरस्य च ।।
तत्रोद्वाहो न कर्तव्यः सा कन्या भगिनी भवेत् ।। १३ ।।
दाराग्निहोत्रसंयोगं कुरुते योऽग्रजे स्थिते ।।
परिवेत्ता स विज्ञेयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः ।। १४
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