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भारतीय समाज व संस्कृति में-विवाह-विधि में विवाहार्थी वर अथवा कन्या को मुख्य रूप से तीन बातों पर ध्यान देना चाहिए-

 (1)  गोत्र   (2) प्रवर तथा  (3) पिण्ड ये सन्निकट रक्त सम्बन्धित श्रृंखला है।


गोत्र :  शब्द से तात्पर्य किसी पूर्व पुरुष के आधार पर परिचय- अथवा सूचना देना ही गोत्र का कार्य भरत मुनि ने गोत्र शब्द की व्युत्पन्न इस प्रकार की है- 
गोत्रम्- गवते शब्दयति पूर्व्व पुरुषान् यतिति-  भरतः मुनि॥

जिसके द्वारा अपने पूर्व पुरुष का आह्वान किया जाए वह गोत्र है।

यहाँ 'गोत्र' का सान्दर्भिक अर्थ कुल अथवा कुल का प्रतिनिधित्व करने वाला पूर्व पुरुष है।

अमरकोश में गोत्र कुल का पर्याय है। गोत्र की अवधारणा तीन प्रकार से की गयी है। १-जननगोत्र- २ गुरु गोत्र और ३ विवाहगोत्र।

मूलत: गोत्र शब्द जनन गोत्र अथवा कुल के अर्थ के अधिक निकट है। पूर्व पुरुष के आधार पर गोत्र से तात्पर्य पूर्वजों के मूलस्थान अथवा किसी सातवीं पीढी के पूर्वज से है। 

गुरु गोत्र कुल पुरोहित के आधार पर सुनिश्चित होता है।

विवाह गोत्र - जो पिता की सातवीं पीढ़ी पर समाप्त होता है। समान गोत्र नें विवाह वर्जित है। क्योंकि वे परस्पर भाई बहिन समझे जाएंगे। भाई बहिन में विवाह निषेध यम के पश्चात चरितार्थ ( लागू) हुआ। विवाह में समान गोत्र का प्रतिरोध यम ने किया अत: विवाह को उपयम की संज्ञा प्राप्त हुई। विवाह पद्धति पर आगे यथाक्रम विचार करेगे-

अभी हम कुल के सन्दर्भ में विचार करते हैं। 

उत्तर-वैदिक काल आते-आते गोत्र का विकास पूरी तरह हो चुका था। इसी काल में सगोत्र विवाह को वर्जित ठहराया गया। बौद्ध काल में विवाह के लिए ब्राह्मण समाज में गोत्र का महत्व बढ़ चुका था। 

क्योंकि  समगोत्री की संख्या कम होने से सपिण्ड होने का खतरा भी उत्पन्न हो गया। तब सगोत्री विवाह को निषेध करार देने के अतिरिक्त उनके पास कोई दुसरा उपाय नहीं रह गया था I 

यह परम्परा आज भी उनमें स्थिर है। इसका प्रमाण बौद्ध ग्रन्थ 'मज्झिम निकाय' में मिलता है । इसके अनुसार, यदि कोई पुरुष किसी युवती से विवाह करता है तो उसका गोत्र जान लेना चाहिए; क्योंकि उससे विवाह करना ही पड़े तो समगोत्र का दोष न लगे। दूसरे शब्दों में, विषमगोत्री कन्या से ही विवाह करने की अनुमति थी। 


धर्मशास्त्रकारों ने व्यवस्था दी कि सगोत्र कन्या से मातृ-भगिनीवत्  व्यवहार करना चाहिए। 

यदि जाने-अनजाने ऐसा विवाह हो जाए तो प्रायश्चितस्वरूप 'चान्द्रायण व्रत' करना चाहिए। अपरार्क, आपस्तम्ब प्रभृति स्मृतियों तथा गृह्यसूत्रों ने समान गोत्र और प्रवर वाली कन्या से विवाह करने वाले ब्राह्मण की संतान को चाण्डाल तथा पिता को नरकगामी बताया। 

इस कठोर प्रतिबंध के बावजूद राजपरिवारों में सगोत्र और सपिण्ड विवाह होते रहे हैं। पिता की  सातवीं पीढ़ी पर और माता की पाँचवीं पीढ़ियों के अन्तर्गत आने वाले वर और कन्या के विवाह की पूरी मनाही थी; क्योंकि वे न केवल गोत्र, बल्कि पिण्ड (रक्त सम्बन्ध) के समीकरण से एक माने जाते थे। 

सपिण्ड विवाह उत्तर भारत में कम से कम आज भी वार्जित है।

कुछ लोगों ने बौधायन धर्मसूत्र का दृष्टान्त देकर ममेरी बहन से विवाह को उचित ठहराया।  अब गोत्र के समान्तरण  हम प्रवर पर विचार करते हैं।

यद्यपि बौधायनधर्मसूत्र में सपिण्ड की परिभाषा निम्नलिखित श्लोक में है।

"अपि च प्रपितामहः पितामहः पिता स्वयं सोदर्या भ्रातरः सवर्णायाः पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रस् तत्पुत्रवर्जं तेषां च पुत्रपौत्रम् अविभक्तदायम् सपिण्डान् आचक्षते ॥१।५।११।९ 

(बौधायनधर्मसूत्र)


प्रवर :
प्र (उपसर्ग)+वृ (धातु)+ अप् (प्रत्यय)= प्रवर (विशेषण) शब्द नानार्थक है; जैसे- प्रधान, सर्वश्रेष्ठ, पूज्य, वंश-परंपरा, गोत्र-प्रवर्तक ऋषि। भारतीय -विवाहों में  प्रवर का भी ध्यान रखा जाता है, अर्थात् समान प्रवर वालों में भी विवाह वर्जित है। देखिए गौतम, नारद तथा आपस्तम्ब के वचन-
" समान एकः प्रवरो येषां तैः सह न विवाहः।" (1.23.12)



बन्धुभ्यः पितृमातृतः' का वाक्य में प्रयोग इस तरह किया जा सकता है: 
"सप्तमात्पञ्चमादूर्ध्वं पितृतो मातृतस्तथा"संस्काररत्नमाला (भागः १)/द्वादशं प्रकरणम्
  • 'आ सप्तमात् पञ्चमाच्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः। अविवाह्या सगोत्रा च समानप्रवरा तथा'.
  • 'पञ्चमे सप्तमे वापि येषां वैवाहिकी क्रिया । ते च सन्तानिनः सर्वे पतिताः शूद्रतां गताः'.

  • 'त्पञ्चमाञ्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः । 


"समानगोत्रप्रवराम् कन्यामृदोपगम्य च।
तस्यामुत्पाद्य चाण्डालं ब्रह्मण्यादेव हीयते।।(आपस्तम्ब श्रौत्र०सू्त्र, पृ०-116)


 प्रारंभ में 'प्रवर' का अर्थ याज्ञिक कार्य से सम्बद्ध अग्नि का आवाहन करने वाले ऋषि से था। वरणीय/ प्रार्थनीय/ आवाहनीय श्रेष्ठ ऋषि 'प्रवर' कहलाते थे। ये ऋषि उद्गाता भी कहे जाते थे। याज्ञिक अनुष्ठान में पुरोहित अपने सर्वश्रेष्ठ पूर्वज ऋषि का नाम-स्मरण करते थे, जो उनके समुदाय या समाज के प्रतीक थे। कालांतर में ये ऋषि अपने वंशजों की सामाजिक, सांस्कारिक तथा आध्यात्मिक व्यवस्था से जुड़ते चले गए। ये ही ऋषि आगे चलकर प्रवर-प्रवर्तक हुए।

 


पिण्ड : हिंदू-समाज में सपिण्ड-विवाह की वर्जना की गई है। सपिण्ड का अर्थ होता है एक ही पिण्ड अथवा शरीर से उत्पन्न सन्तानें। दूसरे शब्दों में, समान रक्तकण को सपिण्ड कहा गया है। पुत्र का पिता के साथ सपिण्ड संबंध होता है; क्योंकि दोनों में एक ही शरीर के अंश या रक्तकण होते हैं । पितामह, प्रपितामह, वृद्ध प्रपितामह प्रभृति से उसका सपिण्ड संबंध माना गया है। 

इसी तरह माता, मातामह (नाना), मामा, मौसी प्रभृति से भी व्यक्ति का सपिण्ड संबंध होता है।

यही कारण है कि समान पिण्ड वालों में विवाह को निषिद्ध बताया गया है। लेकिन, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य-स्मृति, व्यास-स्मृति, शंख-स्मृति इत्यादि धर्मग्रंथों में इसका वैकल्पिक मार्ग भी सुझाया गया है।

सभी धर्मशास्त्रकारों ने एकमत से पिता की सात और माता की पाँच पीढ़ियों के बाद जन्म लेने वाले वर-कन्या के बीच विवाह की अनुमति दी है। 

दूसरे शब्दों में, विवाह्य वर-कन्या को पिण्ड-दोष नहीं लगता।  चिकित्साशास्त्रीय दृष्टि से भी रक्तजन्य-दोष ( क्रमशः 7( पिता) और 5 (माता) पीढ़ियों के बाद) समाप्त हो जाता है। इन ऋषियों के आप्त वचन।


मनुस्मृति - " असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।"

असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः ।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ॥ १ ॥

याज्ञवल्क्य- "पञ्चमात् सप्तमादूर्ध्वं मातृतः पितृस्तथा। ( माता की 5 तथा पिता की 7 पीढ़ियों के बाद सपिण्डता का दोष नहीं लगता। )


वेदव्यास- " सवर्णा समानार्षाम् मातृपितृ गोत्रजाम्।


शंखस्मृति - "विन्देत्  विधिवद्भार्यामगोत्रजाम्।"
                

सारांश यह कि पिता की सात और माता की पाँच पीढ़ियों के बाद न तो सगोत्रता का दोष लगता है और न ही सपिण्डता का।

मनुस्मृति के अनुसार,  माता की 4 पीढ़ियों तक ही दोष लगता है। इन्होंने विवाह का मार्ग थोड़ा और प्रशस्त कर  दिया है ।  भारत की कुछ खास जातियों में सबका एक ही गोत्र 'कश्यप' होने के कारण सगोत्र विवाह की बाध्यता है।

 ऐसी स्थिति में लड़का-लड़की के सपिण्ड.को ध्यान में रखा जाता है,अर्थात् दोनों का एक सपिण्ड नहीं होना चाहिए। 
             

चचेरी, ममेरी, फुफेरी, मौसेरी या फुआ, मौसी आदि  के साथ विवाह को लेकर पश्‍चिम के देशों में शोध किए गए हैं।  


अध्ययन में पाया गया कि अन्य समुदायों की अपेक्षा पाकिस्तानी और बांग्लादेशी समुदायों में शिशु-मृत्युदर 12.5 (साढे बारह) प्रतिशत से अधिक थी। अन्य समुदायों में यह दर मात्र 1% पाई गई। पता चला कि नवजात शिशु 'रिसेसिव जाइनेटिक डिसऑर्डर' नामक बीमारी से ग्रस्त थे।

 इसके लिए सगोत्र या सपिण्ड विवाह को उत्तरदायी ठहराया गया। संसार के कई देशों में शाही परिवार  रक्त की शुद्धता रखने के लिए कुछ अपवादों को छोड़ आपस में ही विवाह करते रहे हैं; जैस- रूस का जार-परिवार, ब्रिटेन, जापान, स्पेन तथा  मिश्र इत्यादि के राजन्य परिवार।  

फलस्वरूप, जार-वंशजों में 'हिमोफीलिया' नामक रक्तजन्य विकार या रतिज रोग आ गया।भारत में भी सिकगिंग नामक रोग का प्रमुख कारण यहीं हैं। जिससे लाखों लोग ग्रसित हैं।

हमारे धर्मशास्त्रकारों के साथ-साथ चिकित्सकों ने भी बहिर्गोत्र, बहिर्प्रवर और बहिर्पिण्ड विवाह का परामर्श दिया है। यदि सगोत्र, सप्रवर अथवा सपिण्ड विवाह की कोई बाध्यता हो तो माता की पांच और पिता की सात पीढ़ियों के बाद उत्पन्न लड़की या लड़के से विवाह करना चाहिए। 

ऐसा करना न केवल नैतिक एंव चिकित्सकीय दृष्टि से उचित है।


एक जाति में अनेक वंश होते हैं । और एक वंश में भी अनेक कुल होते हैं। जैसे महाभारत काल में यदुवंश में भी एक सौ से अधिक कुल थे।
नीचे हम कुलों का पौराणिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।

कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।३४.२५५।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः। ३४.२५६।
अनुवाद:-
यादवों के एक सौ एक वैष्णव कुल हैं। उन सभी में स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) विद्यमान हैं।२५५।

•विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।२५६।
सन्दर्भ:-
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। ३४। 

तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले ।
अवतीर्णाः कुलशतं तेषां एकाधिकं नृप॥४४॥
अनुवाद :- उन दैत्यों का निग्रह करने के लिए ही यादव वंश के कुलों में हरि के कहने पर देवों ने अवतार लिया।४४।
सन्दर्भ-
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श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १० उत्तरार्द्ध/अध्यायः (९०)

कुलानां शतमेकं च यादवानां महात्मनाम् ।
सर्वमेतत्कुलं यावद्वर्तते वैष्णवे कुले।28।

विष्णुस्तेषां प्रणेता च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिनस्तस्य कथ्यन्ते सर्वयादवाः।29।
सन्दर्भ-
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मत्स्यपुराण अध्यायः (४७)

देवासुरे हता ये तु दैतेयास्मुमहाबलाः।      उत्पन्नास्ते मनुष्येषु जनोपद्रवकारिणः॥४७।

तेषामुत्सादनार्थाय  भुविदेवा यदो: कुले।
अवतीर्णा: कुलशतं यत्रैकाभ्यधिकं द्विज:।४८।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।निदेश्षस्थायिनस्तस्य ववृधुस्सर्वयादवाः॥४९।

सन्दर्भ-
विष्णु पुराण चतुर्थांश पञ्चदश(पन्द्रह)वाँ अध्याय।
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अनुवाद:-
देवासुर संग्राम में महाबली दैत्यगण मारे गये थे।
वे मनुष्य लोक में उपद्रव करने वाले राजालोग बनकर उत्पन्न हुए।४७।

उनका नाश करने के लिए उनका नाश करने के लिए देवों ने यदुवंश में जन्म लिया उस यदुवंश में एक सौ एक कुल थे।४८।

विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।४९।
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अमर कोश मे गोत्र वर्ण का भी वाचक है।
अत: वर्ण - जाति-  गोत्र  - वंश - कुल - परिवार  और अन्तिम इकाई व्यक्ति  ही ये परस्पर रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखला है। ।
इस लिए यादवों का वर्ण और गोत्र दोनो ही वैष्णव है।
आभीर जाति में यदुवंश का उदय हुआ  यह सम्पूर्ण जाति स्वराट् विष्णु से उत्पन्न है। अत: इसका वर्ण और पूर्वज  गोत्र भी वैष्णव ही है।
यादव वंश में एक सौ एक कुल महाभारत काल में थे ।

ऐसे में गोत्र और वर्ण कैसे एक हो सकता है?
इसे हम पारिभाषिक रूप में स्पष्ट करते हैं।

वर्ण
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वर्णः, पुं, (व्रियते इति । वृ + “कॄवृजॄषिद्रुगुपन्य- निस्वपिभ्यो नित् ।” उणा० ३ । १० । इति नः । स च नित् ।) जातिः वर्ण के अन्तर्गत जन्म से प्राप्त प्रवृत्तियों के अनुसार व्यवसाय के वरण (चुनाव से है। । 

 
वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं, जबकि जातियों की संख्या हज़ारों में है।

वर्ण का आधार व्यक्ति के कर्म और गुण और स्वभाव होते हैं, जबकि जाति का आधार व्यक्ति का जन्म या वंश  होता है. 

वर्ण व्यवस्था के तहत, व्यवसाय का चुनाव भी किया जाता था. 
जाति व्यवस्था के तहत ,वंश परम्परागत व्यवसाय को ही अनिवार्य रूप में करना पड़ता है। लोगों को उनके जन्म के आधार पर समूहों में बांटा जाता था।

            ( जाति-) 

*** व्यक्ति समूहों की प्रवृति मूलक पहचान है। जैसे मनुष्य समूहों के समाज में अलग अलग देखी जाती -जैसे वणिक( समाज) उनकी वृत्ति ( व्यवसाय) होता है खरीद-फरोख्त करना  और उसी अनुसार उनकी (स्वभाव गत गहराई)   लोलुपता और मितव्यता यही उनकी जातिगत पहचान है।

इसी तरह से जैसे अहीर जाति की वृत्ति कृषि और पशु पालन यह वृत्ति उन्ही लोगों में हो सकती है जो निडर ( निर्भीक) और साहसी  हो । इनकी वृत्ति के अनुसार ही इनकी निर्भीक प्रवृति का विकास जन्म से हुआ यह निडर प्रवृत्ति ही इनकी जाति सूचक पहचान है। इसी लिए इनको आभीर कहा जाता है। 

सबसे पहले जाति की बात करते हैं ।
जो एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की प्रवृतियों से निर्धारित हुआ। और प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियो ( व्यवसायों) से  ।
वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित व्यययी( कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों( व्यवसायी) वाले समान परिवेश (माहौल) कोर्ट कचहरी दिवानी आदि में पहल करने वाले होते हैं। लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित होते ही हैं। सीमा पर सैनिक तैनात होते हैं उनकी समान प्रवृति होती है।
प्रवृत्ति स्वभाव की गहराई का दूसरा नाम है 
जो जन्म से ही सुनिश्चित होती है।
स्वभाव और  प्रवृत्ति में वही अन्तर है जो अनुभव और अनुभूति में है।


यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
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            ( वंश-) 

व्यक्ति के आनुवांशिक (patrimonial ) रक्त प्रवाह से समन्वित जैविक श्रृंखला ही वंश है। यह पीढियों की सीढियों में प्रवाहित होता।

 आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) का प्रयोग करके प्रायः जीवों का डी० एन० ए० परखा जाता है और इस आधार पर उन जीवों को एक जाति का घोषित किया जाता है जिनकी डी•एन•ए छाप एक दूसरे से मिलती हो और दूसरे जीवों से अलग हो।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं ।

इसलिए जाति रूपी समुद्र में वंश रूपी अनेक वँश  रूपी नदियाँ निकलती हैं। 
एक जाति में अनेक वंश होते है।
वंश भी रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखला है। जिसमें अपने पूर्वजों का स्वभाव आनुवंशिक रूप से नदी रूप में  प्रवाहित होता है।

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            ( कुल-) 

तथा इन वंश रूपी नदियों  से गोत्र रूपी धाराऐ निकलती हैं। और वंश में अनेक कुल रूपी कुल्याऐं( नालीयाँ ) निकलकर  परिवारों का समूह का निर्माण करती है।

एक जाति में अनेक वंश होते हैं । और एक वंश में भी अनेक कुल होते हैं। जैसे महाभारत काल में यदुवंश में एक सौ  कुल थे।


"कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।३४.२५५।

अनुवाद:-यादवों( यदुवंश)के एक सौ एक कुल हैं। और वे सब कुल विष्णु के कुल ( वैष्णव कुल )  स्वराट् विष्णु सबमें विद्यमान हैं। 
२५५।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।। ३४.२५६ ।।
अनुवाद:- विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध(बन्धे हुए) हैं।२५६।


इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३४ ।। 

अमर कोश मे गोत्र वर्ण का भी वाचक है।
अत:१- वर्ण - २-जाति-  -३- वंश -४-गोत्र  ५-कुल - ६-परिवार  और अन्तिम इकाई ५-व्यक्ति  ही होता है।

 ये सभी उत्तरोत्तर  परस्पर जुड़ी हुई रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखलाऐं हैं। ।


इस लिए यादवों का वर्ण और गोत्र दोनो ही वैष्णव है।


आभीर जाति में यदुवंश का उदय हुआ  यह सम्पूर्ण जाति स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न है। अत: इसका वर्ण और पूर्वज गोत्र( जनन गोत्र) भी वैष्णव ही है।


यादव वंश में एक सौ एक कुल महाभारत काल में थे ।


ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में गोत्र मूलत: चार ही थे।

महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के श्लोक- (१७) से होती है। जिसमें  - राजा जनक पराशर ऋषि  का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है।-

"मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।

अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।

अनुवाद:
अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। 
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं।१८।

                   "जनक उवाच।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥

अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्‍पन्‍न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।

यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः ।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥

अनुवाद:-
आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्‍पन्‍न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्‍मदाता पिता ही नूतन जन्‍म धारण करता है।
ऐसी दशा में प्रारम्‍भ में ब्रह्माजी से उत्‍पन्‍न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्‍म हुआ है।२।

तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि 
              "पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।

सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।


अनुवाद:-
जिससे जो जन्‍म लेता है, उसी का वह स्‍वरूप होता है तथापि तपस्‍या की न्‍यूनता के कारण लोग निकृष्‍ट जाति को प्राप्‍त हो गये हैं।३।

उत्‍तम क्षेत्र( खेत) और उत्‍तम बीज से जो जन्‍म होता है, वह पवित्र (उत्तम) ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्‍नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्‍न संतान की ही उत्‍पत्ति होती है।४। 

वक्त्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः॥५

धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।५।

मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः॥६॥
अनुवाद:-
तात ! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्‍पत्ति हुई।

इनसे भिन्‍न जो दूसरे-दूसरे मनुष्‍य हैं, वे इन्‍हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्‍पन्‍न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं।  इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्‍ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्‍म दिया है, तब मनुष्‍यों के भिन्‍न-भिन्‍न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्‍यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
*****

                   "जनक ने पूछा-
ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्‍म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्‍पन्‍न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्‍व को कैसे प्राप्‍त हुए ? ।११।

               पराशर जी ने कहा 

राजन ! तपस्‍या से जिनके अन्‍त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्‍मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्‍पत्ति होती है, अथवा वे स्‍वेच्‍छा से जहाँ-कहीं भी जन्‍म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि (जातीय शरीर) से निकृष्‍ट होने पर भी उसे उत्‍कृष्‍ट ही मानना चाहिये ।१२।

नरेश्‍वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्‍पन्‍न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया।१३।

उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था। 

उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु  से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी

रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धान्त बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
        
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं। 

ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र ( पूर्वज गोत्र)कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि काक संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।

(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।

(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है। 
 
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र-  गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
(गुरु गोत्र)

इस सम्बन्ध में बतादें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई। 

इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।  तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।

किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।

जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।

इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी आदि विचारकों का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि  से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण भी यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
विदित हो कि वर्ण और गोत्र दोनों ही शब्द मनुष्य की उत्पत्ति मूलक सम्बन्धों को सूचित करते हैं।
ईसापूर्व पञ्चम सदी के संस्कृत कोश अमर कोश में गोत्र शब्द एक एक पर्याय वर्ण भी है।

गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद , योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।

गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।

उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न  कराने का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।

अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।

तो आज इसी तरह के समस्त संशयों का समाधान इस अध्याय में किया गया है कि कैसे यादवों का गोत्र और वर्ण दोनों ही वैष्णव है। किन्तु इसके पहले मेरे उस वीडियो को आपको देखना होगा जिसमें बताया गया है कि यादवों का मुख्य गोत्र- वैष्णव गोत्र है। नहीं तो आपका संशय यो ही बना रहेगा। दूसरी बात यह कि यादवों के गोत्र, जाति और वर्ण को जानने से पहले ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र, वर्ण, और जाति व्यवस्था को जानना होगा। क्योंकि यादव ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के भाग नहीं हैं। यह बात भी इस वीडियो में स्वतः सिद्ध हो जायेगा। जिसमें सबसे पहले आप लोगों ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के‌ गोत्र,चातुर्वर्ण्य तथा जाति व्यवस्था को जानते हुए उसी क्रम में यादवों के वैष्णव वर्ण की उन समस्त विशेषताओं को भी जान पाएंगे जिनकी जानकारी न होने से यादव समाज आज तक भ्रम की स्थिति में जी रहा है।
तो चलिए श्रीकृष्ण का नाम लेकर बिना देर किए इन सभी महत्वपूर्ण जानकारियों को प्रारंभ करते हैं।

तो इस सम्बन्ध में बता दें कि किसी भी व्यक्ति का गोत्र मुख्यतः तीन प्रकार का होता है-
(१)- मूल गोत्र
(२)- स्थानमूलक गोत्र
(३)- गुरू गोत्र


अब हमलोग क्रमवार इन तीनों प्रकार के गोत्रों की उत्पत्ति और विशेषताओं को जानेंगे-

(१)- जिसमें पहले नम्बर पर "मूल गोत्र" का नाम आता है। यह गोत्र किसी व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है की किस व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति किससे हुई है। इस मूल गोत्र में व्यक्ति का रक्त संबंध होता है। जैसे गोपों (यादवों) का मूल गोत्र वैष्णव है। क्योंकि यादवों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है। इसके बारे में आगे बताया गया है।
इसी तरह से जो लोग अपने को ब्रह्मा जी की संतान मानते हैं उन सभी का मूल गोत्र- "ब्राह्मी गोत्र" है। जैसे- ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न कुछ ब्राह्मण इत्यादि।

अब आप लोगों यहां पर यह सोच रहे होंगे कि कुछ ही ब्राह्मण क्यों सभी ब्राह्मण क्यों नहीं ? क्या सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हैं? तो इसका जवाब है जी हां सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हुए हैं। क्योंकि कुछ पौराणिक ग्रंथों में ब्राह्मणों के जन्म को अन्य तरह से भी बताया गया है। किन्तु यहां पर ब्राह्मणों की उत्पत्ति को बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि कोई यह बात जानना ही चाहता है तो वह स्कन्द पुराण का खण्ड- (३) के अध्याय- (३९) के प्रसंगों को पढ़कर यह जानकारी ले सकता है कि अधिकांश ब्राह्मणों कि जन्म दूसरे तरीके से किस प्रकार बताई गई है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि मूल गोत्र व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है कि व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति जिससे हुई है, उसीके नामानुसार उस व्यक्ति का मूल गोत्र निर्धारित होता है। जैसे- ब्राह्मी गोत्र, वैष्णव गोत्र इत्यादि। जिसमें वैष्णव गोत्र के बारे में आगे विस्तार से बताया हूं।


(२)-दूसरा गोत्र स्थान या स्थानीय गोत्र के नाम से जाना जाता है, जो किसी व्यक्ति के भौगोलिक स्थिति को दर्शाते हुए स्थान विशेष की पहचान कराता है। इस तरह के गोत्र की उत्पत्ति तब होती है जब एक ही जाति वर्ण और वंश के लोग जब किसी परिस्थिति विशेष के कारण अपने मूल निवास स्थान से (Migrate) कर जाते हैं, अर्थात वे अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर अपने समूह सहित अन्यत्र जाकर बस जातें हैं। तब उनके मूल स्थान के नाम पर उनकी पहचान हेतु एक उपगोत्र बन जाता हैं। इस तरह का

स्थानीय गोत्र अधिकांशतः गोपों अर्थात यादवों में देखने को मिलता है। यहीं कारण है कि यादवों में इस तरह के गोत्र बहुतायत पाए जाते हैं। देखा जाए तो भारत के हर प्रांतों में यादवों की पहचान अलग-अलग गोत्रों से होती है। किन्तु उनका मूलगोत्र, जाति एवं वंश पूर्ववत बना रहता है।

यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। पूर्व काल में कंस के अत्याचारों से बहुत से यादव मथुरा छोड़कर यत्र-तत्र सर्वत्र बस गए। इसी तरह से केशी राक्षस के भय से नन्द बाबा के पिता पर्जन्य मथुरा छोड़कर परिवार सहित गोकुल में जा बसे। किन्तु वहां पर पशुओं के लिए अच्छा चारागाह न होने के कारण नन्द बाबा गोकुल को भी छोड़कर श्रीकृष्ण सहित समस्त गोपों के साथ ब्रज के बृंदावन में रहने लगे। इसके अतिरिक्त जब श्रीकृष्ण कंस का वध करके मथुरा में रहने लगे तब वहां पर जरासंध के बार बार आक्रमण से तंग आकर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोपों के साथ मथुरा को छोड़कर द्वारका नगरी में रहने लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। जिसके परिणामस्वरूप उनके स्थान विशेष के नाम पर अनेकों गोत्रों का उदय हुआ। आज वर्तमान समय में यादव हर प्रांतों में अलग-अलग गोत्रों के नाम से जाने जाते हैं। किन्तु उनका मूलगोत्र वैष्णव गोत्र ही। जैसे- ढ़़ढ़ोर, ग्वाल, कृष्नौत, मझरौट, मथुरौट, नारायणी, घोसी, घोष, गोल्ला, गवली, मरट्ठा, मथुवंशी, इत्यादि बहुत से स्थानीय उपगोत्र है उन सभी को बता पाना इतना आसान नहीं है जितना आप सोच रहे होंगे। इसके अतिरिक्त भारत से सटे राज्य नेपाल में भी यादवों के बहुत स्थानीय उपगोत्र है जैसे - सिराहा, धनुषा, सप्तरी, बारा, रौतहट, सरलाही, परसा, महोत्तरी, बांके, सुनहरी इत्यादि। ये सभी यादवों के ही स्थानी उपगोत्र हैं।

अब आते हैं तीसरे प्रकार के गोत्र - गुरु गोत्र पर

(३)- गुरु गोत्र - गोपों के तीसरे प्रकार के उपगोत्र का नाम है। इस प्रकार के गोत्र में व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी ऋषि या अपने पसंद के विश्वासनीय सतनामी गुरु या किसी ऋषि मुनि से- दीक्षा, गुरुमंत्र या गुरूमुख होकर अपने उपगोत्र या वैकल्पिक गोत्र का निर्धारण करते हैं। इसलिए इस प्रकार के गोत्र को "गुरुगोत्र " कहा जाता है, जिसमे गोत्र कर्ता (ऋषि )और उसके अनुयायियों में किसी प्रकार का रक्त संबंध नहीं होता है। इस तरह के गोत्र का मुख्य उद्देश्य- दीक्षा, शिक्षा, पूजा-पाठ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने तक ही सीमित होता है।
गोपों के इस वैकल्पिक "गुरूगोत्र" अत्रि नाम की परम्परा का प्रारंभ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही प्रचलन में आया। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मंत्रोच्चारण से संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को संपन्न का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक
गुरु गोत्र बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को संपन्न कराना था। अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
वर्ण-
जाति

वंश 
कुल खान)
गोत्र ( वैवाहिक विभाजन के लिए ताकि एक ही गोत्र मे विवाह न हो सके) 

सबसे पहले जाति की बात करें तो जातियाँ
एक समुद्र के समान हैं। जिनसे वंश रूपी नदियाँ निकलकर अन्ततोगत्वा कुल रूपी कुल्याओं (कुलावों) में विभाजित हो जाती हैं।

जातियों का निर्माण मनुष्यों की चिर-पुरातन  प्रवृतियों से निर्धारित होता है। उन प्रवृतियों से जो जन्म से ही उत्पन्न होते हुए भी सम्पूर्ण जीवन निर्माण और जीवन सञ्चालन में सहायक होती हैं।

जाति की अवधारणा जन्म मूलक है। शब्द कल्पद्रुम में जाति शब्द जन्- प्रादुर्भावे  उत्पन्न होने ) के अर्थ में है।
जातिः---स्त्रीलिंग, (जायतेऽस्यामिति । जन् + अधि- करणे क्तिन् ) -जिसमें जन्म हो । (जन + भावे क्तिन् ।) जन्म। इसी शब्द अमरकोश जाति: शब्द गोत्र के अर्थ में भी है। वस्तुत: जाति और गोत्र जन्म मूलक ही हैं।

संस्कृत के प्राचीन शब्द कोश ( अमर कोश) में भी जाति के पर्याय निम्नलिखित रूप में है।
जाति स्त्री।
जननम्
समानार्थक:जनुस्,जनन,जन्मन्,जनि,उत्पत्ति,
उद्भव,जाति,भव,भाव
3।3।68।1।2।
___________________________________
जातियों के मूल में उनकी जन्मगत प्रवृतियाँ व स्थितियाँ  सदैव से चित्त में विद्यमान रहती हैं। यह एक सूक्ष्म विवेचना है। साधारण जन इस ज्ञान से वञ्चित हा होते हैं।
संसार में अनेक प्राणी विद्यमान हैं। सबकी प्रवृत्तियाँ और गतियाँ भी भिन्न भिन्न हैं। आगामी जन्म का निर्धारण भी व्यक्ति की प्रवृत्तियों के अनुरूप ही होता है।
एक ही परिवार में माता - पिता और परिवेश भी समान होने पर सन्तानों के स्वभाव में भेद होना प्रवृत्ति मूलक प्रारब्ध ही है।

भारतीय समाज में जातियों की अवधारणा प्रवृत्तियों से सम्बन्धित न होकर वृत्तियों से सम्बन्धित की गयी है। जो पूर्णत: सिद्धान्त के विपरीत है। 

वृत्तियों से वर्ण का निर्धारण  होना तो सही है।परन्तु इन वृत्तियों से जाति का निर्धारण होना ही गलत है। और भारतीय वर्ण-व्यवस्था में यह गलती जब से हुई है समाज टूटा है।  जिसका खामियाजा वह आज तक भुगत रहा है। 
वृत्ति  आवृत्ति और प्रवृत्ति दर्शन शास्त्र के ये तीन शब्द हमारी व्यावहारिकता की तीन अमूर्त अवस्थाओं को स्थापित करती हैं।

 वृत्ति-  हमारे उस आचरण का रूपान्तरण है। जिसके द्वारा हम जीविका उपार्जन करते हैं।

- आवृत्ति- हमारे आचरण की अभ्यस्तता (अथवा आदत का रूपान्तरण है। यह स्थापित प्रवृत्ति है। जो मनुष्य द्वारा दोहराए जाने वाले व्यवहार के ढ़ग को प्रदर्शित करती है जो तन्त्रिका मार्गों में अंकित हो जाने से  अवचेतन मन से ही स्वत: सञ्चालित होती रहती हैं । 
मानसिक क्रिया का कोई भी क्रम जो बार-बार दोहराया जाता है। आवृत्ति अथवा आदत कहलाता है।

प्रवृत्ति - प्रवृत्ति से तात्पर्य  मन का एक सहज झुकाव जो कभी-कभी एक प्रेरक बल के बराबर होता है। प्रवृत्तियाँ हमारे अचेतन मन (चित्त) में सञ्चित जैविक प्रेरणाओं का रूपान्तरण है। प्रवृत्ति स्वभाव की गहराईयों के रूप में  होती है।

ये तीनों  एक दूसरे के सापेक्ष अवश्य हैं। परन्तु सबका अस्तित्व पृथक पृथक  हैं।

यद्यपि प्रवृतियाँ  मनुष्यों की वृत्तियों (व्यवसायों व नित्य- नैमित्तिक कर्मों ) को प्रकाशित करती हैं। उसी प्रकार मनुष्य की वृत्तियाँ भी  प्रवृत्तियों पर परावर्तित होकर उसे सदैव व्यक्ति के आचरण अथवा कारनामों को प्रभावित करती रहती हैं ।

प्रवृत्ति-
सामान्य अर्थ में प्रवृति किसी जाति के चित्त में संचित जातीय  संस्कार है।  जो सांसारिक वस्तुओं के प्रति उस व्यक्ति के आग्रह (झुकाव) को निर्देशित करती हैं। 
जबकि वृत्ति उसके जीविका उपार्जन के लिए किये गये क्रिया-कलाप को रूपान्तरण करती  है।

भारतीय समाज में जातियाँ आनुवांशिक लक्षणों से सुनिश्चित होती हैं। जो किसी जाति में पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित जन्मगत श्रृंखला  हैं। सभी जातियों का अपना एक विभिन्न परिवेश होता है। भारतीय समाज की सभी जातियाँ अपने अपने परिवेश में बँधी हुई होकर अपनी विशेष वृत्तियों से जीवन निर्वाह करती हुई देखी जाती हैं।

मनुष्य की वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर कभी कभी जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर  बड़े मित- व्यययी (कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों ( व्यवसायी) वाले वाणी-कुशल व  वाचालता से परिपूर्ण होते ही हैं।
समान परिवेश (माहौल) में  जैसे कोर्ट -कचहरी दिवानी आदि में अधिक बोलकर मुवक्किल के पक्ष में पहल करने वाले  वकील बोलने के अभ्यस्त हो होते हैं। 
और जैसे लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित वृत्ति वाले होते ही हैं।
वैसे ही डॉक्टर आदि की भी वृत्ति उनके परिवेश से प्रेरित होती हैं। 

"यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
और प्रत्येक प्राणी अपनी जाति मूलक अस्तित्व से ही संसार में पहचाना जाता है।  जैसे पुष्प की पहिचान उसकी सुगन्ध से होती है। वैसे ही जाति की पहचान उसकी प्रवृत्ति से होती है।

ईश्वर ने यही वर्गीकरण करके प्राणीयों को इस संसार में क्रमानुगत रूप से उत्पादित किया है। 

मानवीय जातियों के उत्तम और अनुत्तम होने का मानक तो प्रकृति के तीन गुण सत' रज और तम का आनुपातिक योग से निश्चित होते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता में भी व्यक्ति के कर्म और गुणों के आधार पर ही वर्णों की बात की गयी है। जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण  नहीं किया सकता है -जैसे-  एक प्रसंग में ब्रह्मा के चातुर्वर्ण्य का निर्देश भगवान कृष्ण ने करते हुए कहते हैं।

 
सत्त्व रज तम इन तीनों गुणों के विभाग से तथा कर्मों के विभाग से यह चारों वर्ण मुझ ईश्वर के निर्देश से ब्रह्मा द्वारा रचे गये  हैं। 
क्योंकि वह परमात्मा ही सबकी रचना करने पर भी कर्तापन से रहित  रहता है।

ब्रह्मवैवर्तपुराण तथा देवी भागवत आदि पुराणों में ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु के नाभिकमल से ही बतायी गयी है। और उसी ब्रह्मा को प्रभु ने चारों वर्णों की सृष्टि करने का निर्देश किया।

श्रीभगवानुवाच-
सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्‍भवो भव । महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ।४८।

अर्थ:- श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे ! वत्स ब्रह्मा ! सृष्टि रचना करने के लिए  महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।

सन्दर्भ:-ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः)/अध्याय(6) तथा इसी बात को 
 
नीचे 
देवीभागवतपुराण- स्कन्धः (9)अध्यायः (3) - में भी बताया गया है।

                 "श्रीभगवानुवाच
"सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्‍भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु॥४८॥

अर्थ:-श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए  महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।

उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अन्ततक नहीं जा सके,  हे नारद !तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।53-54॥
ब्रह्मा ने चातुर्वर्ण्य सृष्टि कृष्ण जी के निर्देश पर ही की परन्तु भगवान कृष्ण ने अपने रोमकूपो ( कोशिकाओं ) से  गोपों की सृष्टि पञ्चं वर्ण के रूप में की।

श्रीमद्भगवद्गीता में एक स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण नें प्रकृति के तीनों गुणों का धर्म (प्रभाव) को बताया है। जो संसार की मानव जातियों को सांस्कृतिक रूप से सात्विक राजसिक और तामसिक गुणों के अनुपात से प्रभावित करती रहता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णन  र्है।

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्‌॥(५)

अनुवाद : हे महाबाहु अर्जुन ! सात्विक गुण, राजसिक गुण और तामसिक गुण यह तीनों गुण  प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों के कारण ही अविनाशी जीवात्मा शरीर में बँध जाती हैं। (५)

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्‌ ।सुखसङ्‍गेन बध्नाति ज्ञानसङ्‍गेन चानघ ॥ (६)

अनुवाद:-  हे निष्पाप अर्जुन ! वहाँ सतोगुण निर्मलता-प्रकाश- और निरोगता का कारण है। यह सुख और ज्ञान के साथ जीव को बाँधता है।
(६)

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्‍गसमुद्भवम्‌ ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्‍गेन देहिनम्‌ ॥ (७)

अनुवाद:- : हे कुन्तीपुत्र ! रजोगुण को रागात्मक समझो!  जिससे कामनाओं ( इच्छाओं) का जन्म होता है। जो कर्म के बन्धनों में जीवात्मा को बाँधता है । (७)

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌ ।प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ (८)

अनुवाद:- : हे भरतवंशी ! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य - किसी कार्य को करने में ढ़ीलापन) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)

मनुष्य के सभी कार्य प्रकृति के इन्हीं तीनों गुणों से प्रेरित होते हैं। इन्हीं अनुपात में व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ बनती हैं। 

योगशास्त्र में वर्णन है कि:– सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगः २.१३ ॥ अर्थात "पूर्व कर्म के अनुसार प्राणियों को जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं।" 

ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ २.१४।
जो सुख- दु:ख और पाप पण्य
का कारण होते हैं।२/१४। अर्थात
पुण्य और पाप के कारण ये (जन्म, आयु और भोग) सुखदायक और दुःखदायक अनुभव उत्पन्न करते हैं।

भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, 

"जो मनुष्य धर्मात्माओं के लोकों को प्राप्त होकर तथा वहाँ चिरकाल तक निवास करके योग से च्युत हो गया था, वह पुनः पवित्र और धनवानों के घर में जन्म लेता है।"

अलग-अलग लोग अलग-अलग परिस्थितियों में जन्म लेते हैं, जैसे कि कुछ निर्धन होते हैं, कुछ धनवान होते हैं, कुछ सुंदर होते हैं, कुछ बदसूरत होते हैं। यह भेदभाव क्यों किया जाता है और इसका निर्णय कौन करता है? 

 कर्म के नियम के अनुसार , आपका सञ्चित कर्म (जो सभी कर्मों का भण्डार है ) तय करता है कि आप कहाँ पैदा होंगे, आपका लिंग क्या होगा, आपका जीवनकाल और आपके जीवन में आपका प्रारब्ध क्या होगा। 

कर्म प्रवृत्तियों और इच्छाओं के परिणाम हैं।

(5) जन्म के लिए जिम्मेदार कर्म जीवन की अवधि और आयु सुख-दुख के अनुभव को भी निर्धारित करते हैं।

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जीवन की शूक्ष्मताऐं  अन्त:करण में समाहित हैं।
अंतःकरण चतुष्टय का मतलब है- मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार. यह वेदान्त दर्शन की एक अवधारणा है।

आत्मा और प्रकृति के मिलन से चित- उत्पन्न होता है। चित्त ही चेतना का कारण बनता है।
मन इस चित्त की ही तीन क्रमिक अवस्थाऐं है
चित्त स्मृतियों व पूर्व जन्म के अनेक जन्मों के संस्कारों का सञ्चय है।

मन के तीन स्तर होते हैं चेतन ( जाग्रत) अव- चेतन ( स्वप्न) और सुषुप्ति ( निद्रा) मन का अचेतन रूप है।
मन की जाग्रत अवस्था को जब अपने अस्तित्व का बोध व आभास होता है तब वह बोध अहंकार कहलाता है।

मन के इस जाग्रत रूप से अहंकार का जन्म होता है और मन इसी अहम् से युक्त होकर 
संकल्प और विकल्प करता  है।

इन संकल्पों से इच्छाओं का और विकल्पों से निर्णय शक्ति के रूप मे बुद्धि का जन्म होता है। 
प्रवृत्तियों का सञ्चय हमारे चित्त में ही होता है।

अतः प्रत्येक प्राणी  जन्म से किसी न किसी जाति का होता है। यहाँ यह अन्तर ध्यान देने योग्य ही है।
मनुष्य की सभी जातियाँ सामान्यतः प्रसव आकृति और बाह्य अंग -रंग आदि से तो समान ही दिखती  हैं।

 परन्तु उनके चित्त में निहित प्रवृत्तियों से ही उनकी जातिय पृथकता सुनिश्चित होती है ।जो सभी मानव समुदायों ( समाजों) की भिन्न भिन्न है।

किसी भी धार्मिक शास्त्र में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि प्रत्येक प्राणी जन्म से किसी न किसी वर्ण का होता है,- 
वर्ण का सम्बन्ध व्यक्ति के प्रवृत्तिगत चुनाव ( वरण) से होता है।

वर्ण  का सम्बन्ध जन्म से  नहीं होता अपितु वृत्ति पर आधारित होता है तथा वृत्ति का चयन प्रवृत्ति के अनुरूप ही  होना कल्याणकारी है।
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अब शास्त्रोक्त अर्थ में जाति है क्या ? इसका उत्तर न्यायशास्त्र में गौतम ऋषि ने भी दिया है:– समानप्रसवात्मिका जाति अर्थात "जिसका समान प्रसव (जन्म) हो वह सजाति है।" 

समान प्रसव वह है जिनके संयोग से सन्तान का उत्पन्न होना सम्भव है। उदाहरण स्वरूप बैल, गाय एक जाति के हैं परंतु घोड़ा और कुत्ता भिन्न जाति के हैं क्योंकि इनके परस्पर  मेल से प्रसव धारण सम्भव नहीं है। एक जाति में भी भिन्न भिन्न स्वरूप एवं लक्षण के जीव हो सकते हैं। ये जातिमूलक प्रवृत्तियाँ  उनके आनुवांशिक गुणों की संवाहक हैं।

यह मानव जाति की बात है। जिसमें  जातियाँ समानाकृति (species)  की तो हैं।
उनकी मनस् प्रवृत्तियों में समानता नहीं है।

परन्तु पशुओं में भी दो  भिन्न जातियों के मिश्रण से नयी जाति बनाती है।
जिनकी शारीरिक और प्रवृत्ति मूलक भिन्नता होती है। जैसे 

सिंह और बाघ के संयोग से लाइगर, घोड़े–गधे के संयोग से खच्चर इत्यादि मिश्र लक्षण युक्त जीव उत्पन्न होते हैं ।

लाइगर, नर शेर और मादा बाघिन के संकर बच्चे होते हैं. लाइगर, बिल्ली परिवार के सबसे बड़े जानवरों में से एक हैं. ये शेरों की ताकत और बाघों की फुर्ती का मिश्रण होते है।
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व्यक्ति के स्वभाव और प्रवृत्तियों से जातियाँ गुण निर्धारित होते हैं। 

एक कुत्ता का जो स्वभाव और प्रवृत्ति होती है ।
वह सहज परिवर्तित नहीं होती है नीतिकारों ने  कुता के विषय में बताया-
 
शुनकः स्वर्णपरिष्कृतगात्रो नृपपीठे विनिवेशित एव ।
अभिषिक्तश्च जलैः सुमुहूर्ते न जहात्येव गुणं खलु पूर्वम् ॥३७९।
(मुक्तिसूक्तवलि- शुनक:पद्धति -- जल्हणकृत )
          '
अनुवाद:-  कुत्ते को स्वर्ण अलंकारों से विभूषित करके राजसिंहासन पर बैठा कर अच्छे मुहुर्त में जल से अभिषेक करने पर भी कुत्ता 
 जातिगुण नहीं छोड़ता। अर्थात उसकी प्रवृति उसके परिवेशीय गुणों से समझौता नहीं करती है।
         
संसार में परिभ्रमण करते हुए लाखों-करोड़ों बार जन्म लेकर असंख्य बार प्राप्त हुई नीच, ऊँच और मध्यम अवस्थाओं को  जानकर भी कौन बुद्धिमान जातीय निर्धारण नहीं करेगा ? कर्मवश संसारी प्राणी इन्द्रियों की रचना से उत्पन्न होने वाली विभिन्न जातियों में जन्म लेता रहता है। यह भी उसकी प्रवृत्ति सुनिश्चित करती है।
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अब हम आभीर जाति की बात करते हैं।
अभीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।

अपनी जीवन यात्रा के कई पढावों पर अपने विकास क्रम में कई रूपों को धारण करने वाला शब्द है अहीर -

अहीर आहीर ये दोनों शब्द  क्रमशः अभीर और आभीर शब्दों के ही प्राकृतिक रूप है।

विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर शब्द का समूह वाची "रूप है।

जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुआ है।

यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।

अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।

"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति के  सूत्रधार थे।  अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।

अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका में  अफर" के रूप में थी जिसका प्रारम्भिक निवास मध्य अफ्रीका के जिम्बाब्वे मेें था।

"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में थे और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे।
ये सभी मूलत: एक स्थान से ही अन्यत्र गये।

 सभी अहीर  पशुपालक अथवा चरावाहे थे।
भारतीय संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में  अभीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं। 
परन्तु यथार्थ में ऐसा कदापि नहीं है।

अभीर शब्द  का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।
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परवर्ती शब्द कोशकारों ने दोनों शब्दों को पृथक- पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही की है।

ईसा पूर्व पञ्चम सदी में कोशकार  अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में  अहीरों की प्रवृत्ति वीरता ( निडरता). को केन्द्रित करके की आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की ।

 दूसरे कोशकार  तारानाथ वाचस्पति  ने  (1885) के समय में अहीर जाति की वृत्ति ( व्यवसाय) गोपालन को केन्द्रित करके अभीर शब्द की व्युत्पत्ति की-

 देखें नीचे क्रमश: दोनों व्युत्पत्तियों का  विवरण-
अमरसिंह की व्युत्पत्ति-

१- आ=समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु =  जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।
- यह उपर्युक्त उत्पत्ति अमरसिंह के शब्द कोश अमरकोश में उद्धृत है।

अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने भी अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।

"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर  गायें चराता है उन्हें घेरता है। 

वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।

जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय) ( profation) को अभिव्यक्त करती है ।

और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति ( व्यवसाय-) से निर्मित होती है।

"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है।
प्रवृत्तिाँ स्वभाव की गहरीइयों में मन के अचेतन तल पर संचित जातिगत जैविक आधार है। सभी जातियों क धार प्रवृत्ति है।

और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का व्यक्तिगत प्रभाव-" जिसका सम्बन्ध व्यक्ति के पूर्व जन्म के कर्म संस्कारों से सम्बन्धित है। स्वभाव जन्म के साथ ही उत्पन्न होता है। सभी जातियों में व्यक्ति के स्वभाव भिन्न होते है। प्रवृत्तियों के सोने पर भी जैसे निडरता अहीर जाति की प्रवृत्ति है।
और उसके अनुरूप कृषि और पशुपालन अहीरों की वृत्ति है।

कम्प्यूटर में सिस्टम सॉफ्टवेयर प्रवृत्ति है। और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर स्वभाव है। जैसे ब्लूटुठ और शेयरइट का अन्तर ।

वृत्ति- 
  • वृत्ति का अर्थ है, व्यवहारों का एक समूह  जो किसी पर्यावरणीय( परिवेशीय) संकेत या आंतरिक प्रेरणा के अनुरूप जीविका -उपार्जन  होता है.  कोई कामधन्धा-

आवृत्ति( आदत)- ( पुन: पुन:अभ्यास)अथवा आदत का मतलब है, कोई ऐसा व्यवहार जो बिना ज़्यादा सोच के बार-बार दोहराया जाए. आदतें जन्मजात नहीं होतीं, बल्कि सीखी जाती हैं.आदतों का स्वरूप परिवेश, देश और काल स प्रभावित होता है।
मनोविज्ञान में, आदत को किसी भी नियमित रूप से दोहराए जाने वाले व्यवहार के तौर पर परिभाषित किया गया है।

आवृत्ति (आदत) का सम्बन्ध हमारे अवचेतन मन से जुड़ा होता हैं. अवचेतन मन, हमारे सीखे गए व्यवहारों का भण्डार होता है. यह हमारे कार्यों को सचेत जागरूकता के विना  भी  यथा क्रम संचालित करता है.  

एक उदाहरण से समझे उड़ना सभी पक्षियों की प्रवृति है। परन्तु उनके उड़ने के तरीके अलग हैं। यह उनका   प्रवृति मूलक अन्तर है। सभी 


मानव का वैज्ञानिक संघ कॉर्डेटा (Chordatae) है. मानव का वैज्ञानिक वर्ग स्तनधारी (Mammalia) है और वैज्ञानिक जाति होमो सेपियंस (Homo sapiens) है. मानव को वैज्ञानिक रूप से वर्गीकृत करने के लिए, ये वर्गीकरण भी इस्तेमाल किए जाते हैं: जीववैज्ञानिक वंश - होमो (Homo), जीववैज्ञानिक कुल - होमिनिडाए (Hominidae), जीववैज्ञानिक गण - प्राइमेट (Primate). 
मानव को वर्गीकृत करने के लिए इस्तेमाल होने वाले कुछ और वैज्ञानिक वर्गीकरण: 
  • ऐनिमेलिया (Animalia) - जंतु
  • कोरडेटाए (Chordatae) - रज्जुकी
  • वर्टेब्रेटा (उपसंघ)
  • टेट्रापोड़ा (महावर्ग)
  • थीरिया (उपवर्ग)
  • प्राइमेट्स (गण)
  • होमिनिडे (अधिकुल)
मानव जाति विज्ञान, मानव शास्त्र की एक शाखा है. यह मानवों के सजातीय, नस्ली, और/या राष्ट्रीय वर्गों के उद्गमों, वितरण, तकनीकी, धर्म, भाषा, और सामाजिक संरचना का अध्ययन करती है. 

परन्तु भारतीय जातियाँ शारीरिक संरचना में समानताऐं  होते हुए भी प्रवृत्ति अथव मनसिक स्तर  भिन्न भिन्न हैं। इनकी संस्कृति सभ्यता और जनरीतियाँ इनके व्यवसाय ही इनका जातियाँ विभाजन करते हैं।

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जाति, वंश, और कुल ये सभी परिवार से जुड़े शब्द हैं. इनमें स्थूल अन्तर निम्नलिखित प्रकार से  है: 
  • सामान्य तौर पर जाति: एक ही धर्म और संस्कृति वाले लोगों का वह समूह है.जिसकी उत्पत्ति किसी एक आदि पुरुष  से  हुई हो तथा वह समान प्रवृत्ति हो - जाति में कई वंश परिवार  शामिल होते हैं.                                                      
  • वंश: पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला परिवार.जिसमें  लोग किसी एक व्यक्ति  या पूर्वज के नाम के आधार अपनी पहचान सुनिश्चित करता है.                        
  • कुल: एक बड़ा परिवार या रक्तसंबंधी लोगों का समूह. कुल में माता-पिता, पुत्र, दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ-  वगैरह शामिल होते हैं। एक वंश में कई कुल होते हैं। 
  • कुल ऐसा समूह होता है जिसके सदस्यों में रक्तसम्बन्ध सन्निकट हो. 
  • एक वंश के सभी वंशज मूल रूप से एक ही पूर्वज से संबंधित होते हैं। जबकि एक ही वंश में कई कुल होते हैं। और एक जाति में कई वंश हो सकत हैं।


[इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य जातियों की मौलिकता (Originality ) एवं इसकी उत्पत्तिमूलक सिद्धान्त को बताते हुए यादवों के  वंश, वर्ण, कुल एवं गोत्रों की जानकारी भी देना है।
इन सभी बातों को क्रमबद्ध विधि से बताने के लिए इस अध्याय को निम्नलिखित- (६) उपशीर्षकों में विभाजित किया गया है।

 (१)- जातियों की मौलिकता (Originality) एवं उत्पत्ति।(२)- यादवों की जाति।
(३)- यादवों का वर्ण।(४)- यादवों का वंश।
(५)- यादवों के कुल।
(६) - यादवों का गोत्र।


जातियों का निर्धारण मनुष्य की आनुवांशिक प्रवृत्तियों से होता है। उन प्रवृत्तियों से जो जन्मजात होती हैं जो परम्परागत रूप से व्यक्ति की पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्ति समूहों में संचारित होती रहती है। इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के अनुरूप ही व्यक्ति का स्वभाव और गुण भी विकसित होता है, जो उस जाति समूह को उसी के अनुरूप कार्य करने को भी प्रेरित करता है। इसी गुण विशेष के आधार पर  समाज में जाति का निर्धारण व एक अलग पहचान होती है। 

अर्थात् जन्मजात प्रवृत्ति मूलक आचरण अथवा व्यवहार के आधार पर ही किसी व्यक्ति की जाति का निर्धारण होता है और इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के कारण समाज में अलग-अलग जातियों के भिन्न-भिन्न स्वभाव और गुण देखें जातें हैं जो उनके वर्ण का निश्चय करते हैं।। 

इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जाति व्यक्ति समूहों की प्रवृत्ति मूलक पहचान है जो मनुष्य समूहों में अलग-अलग देखी जाती है। जैसे वणिक जाति का वर्ण "वैश्य" है जिनका वृत्ति (व्यवसाय) क्रय- विक्रय  (खरीद-फरोख्त) करना है। और उसी के अनुसार उनकी स्वभावगत गहराई-(प्रवृत्ति) लोलुपता और मितव्यता दृष्टिगोचर होती है। इसी लोलपता के कारण वणिक का एक विशेषण( लाला) भी है। वैसे संस्कृत भाषा में  लाला या लालायित शब्द भी है जो लालसा युक्त व्यक्ति को सूचित करता है।
तमिल शब्दावली में लाला शब्द विद्यमान है।
स्रोत : डीडीएसए: मद्रास विश्वविद्यालय: तमिल लेक्सिकॉन

हिन्दू व्यापारियों की एक जाति जो उत्तरी भारत से तमिल देश में आकर बसी थी; एक हिन्दू व्यापारी जो उत्तर से तमिलनाडु में आकर बसा था।  उसके लिए लाला का सम्बोधन होता था।
वणिक जाति में लालसा( लोभ ) अधिक होने से भी उनका यह लाला विशेषण है।
 यही उनकी जातिगत और वर्णगत पहचान है।

कुल मिलाकर कोई भी जाति अपने समूह की सबसे बड़ी इकाई अथवा समष्टि रूप होती है। और यह ऐसे ही नहीं बनती है। इसके लिए जाति को प्रमुख इकाईयों के बहुत से विकास क्रमों से गुजरना होता है। जैसे - किसी भी जाति की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है, फिर कई व्यक्तियों के मिलने से एक परिवार बनता है, और कई परिवारों के मिलने से अनेक कुलों या गोत्रों का निर्माण होता है। पुनः कई कुलों के संयोग से उस जाति का एक वंश और वर्ण बनता है। 
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अब यह सब कैसे संभव होता है। इसको अच्छी तरह समझने के लिए क्रमशः जाति, वर्ण, वंश, कुल और गोत्र को विस्तार से जानना होगा तभी पूरी बात समझ में आयेगी। 

हमलोग जानेंगे किस आधार पर यादवों की जाति " अहीर अथवा आभीर" हुई़ ?, जिसे- आभीर को गोप, गोपाल, ग्वाल, घोष, वल्लभ, इत्यादि नामों से क्यों जाना जाता है ?


(२)- यादवों की जाति।


तो इस संबंध में बता दें कि- अहीर जाति की वृत्ति यानी व्यवसाय पूर्व कल से ही कृषि और पशु पालन रहा है। यह वृत्ति उन्ही प्रवृत्ति वालों में हो सकती है जो निर्भीक और साहसी हो। 

चुँकि गोपालक अहीर अपने पशुओं को जंगलों, तपती धूप, आंधी तूफान, ठंड और बारिश की तमाम प्राकृतिक झंझावातों को निर्भीकता पूर्वक चलाते हुए  पशुओं के बीच रहते हैं। इन्हीं परिस्थितियों इनमें अनेक साहसिक गुणों का विकास होता है। इसी जन्मजात निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही इनको आभीर / अभीर(अहीर) कहा गया, तथा वृत्ति (व्यवसाय) गोपालन के कारण  से इन्हें - गोप, गोपाल(ग्वाल) घोष और वल्लभ कहा गया जो इनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान हैं। 

कुल मिलाकर मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियां ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है।

उसके व्यवसायों के वरण करने से ही उसका वर्ण निर्धारित होता है। व्यवसायों के वरण के आधार पर ही ब्रह्मा मानव जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है। 

(इसके बारे में आगे बताया है कि किस आधार पर आभीरों का वर्ण "वैष्णव" है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य से  अलग है?)

आभीर जाति को यदि शब्द ब्युत्पत्ति के हिसाब से देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है। अर्थात् आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन है। 

'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं। जैसे-

ईसा पूर्व पञ्चम सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता (निडरता) को केन्द्रित करके आभीर शब्द की व्युत्पत्ति करते है नीचे देखें।

"आ=समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु =  जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।

किंतु वहीं पर अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ नें अपने ग्रन्थ वाचस्पत्यम् में अभीर- जाति की शब्द व्युत्पत्ति को उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय के आधार पर गोपालन को केन्द्रित करके की है। नीचे देखें।

"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर  गायें चराता है या उन्हें घेरता है। 

अगर देखा जाय तो उपरोक्त दोनों शब्दकोश में जो अभीर शब्द की ब्युत्पत्ति को बताया गया है उनमें बहुत अन्तर नही है। क्योंकि एक में अहीरों की वीरता मूलक प्रवृत्ति (aptitude ) को आधार मानकर शब्द ब्युत्पत्ति को दर्शाया है तो वहीं दूसरे ग्रन्थ में अहीर जाति को गोपालन वृत्ति अथवा (व्यवसाय) (profation) को आधार मानकर शब्द ब्युत्पत्ति को दर्शाया है।
           
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अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप अहीर होता है। अब यहां पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना भी आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में अहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।

किंतु यहां पर हमें अहीर और आभीर, और शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिंदी और संस्कृत ग्रंथों में कब कहां और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है। 
तो इस संबंध में सबसे पहले अहीर शब्द को के बारे में जानेंगे कि हिंदी ग्रंथों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ।  इसके बाद संस्कृत ग्रंथों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहां-कहां प्रयुक्त हुआ।

अहीर शब्द का प्रयोग हिंदी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रूप से किया गया है। जैसे-
अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं। जैसे- 

"ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।।

 इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रंथ  "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था। 

नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।।५८।

अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण (सर्जक) हो, मैं चारण आप श्री हरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर (समुद्र) जल से भरा हुआ है।५८।

                  
और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर के दशम स्कन्ध में लिखा है-

"सखी री काके मीत अहीर।
काहे को भरि-भरि ढारति हो इन नैन राहके नीर।।

आपुन पियतपियावत दुहिदुहिं इन धेनुन के क्षीर। निशिवासर छिन नहिं विसरत है जो यमुना के तीर।। ॥ 

मेरे हियरे दौं लागति है जारत तनु की चीर । सूरदास प्रभु दुखित जानि कै छाँडि गए वे पीर।।८२॥ 
अथ श्यामरंग को तरक वदति ॥ मलार ॥✍️

ये उपरोक्त सभी लोक- उदाहरण कृष्ण के अहीर होने के हैं जो हिन्दी साहित्यिक ग्रंथों प्रयुक्त हुए हैं। अब हमलोग आभीर शब्द को जानेंगे जो अहीर का तद्भव रूप है, वह संस्कृत ग्रंथों में कहां-कहां प्रयुक्त हुआ हैं। इसके साथ ही आभीर (अहीर) शब्द के पर्यायवाची शब्द - गोप, गोपाल और यादव को भी जानेंगे कि पौराणिक ग्रंथों में अभीर के ही अर्थ में कैसे प्रयुक्त हुए हैं।

सबसे पहले हम गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय (७) के श्लोक संख्या- (१४) को लेते हैं जिसमें में भगवान श्री कृष्ण और नंदबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय किया जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी शिशुपाल के यहां गए। किंतु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहा कि-

आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।।१४।

प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।।१६।

 अनुवाद -
• वह (श्रीकृष्ण) पहले नन्द नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। १४।
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमंडल को यादवों से शून्य कर देने के लिए  कुशस्थली पर चढ़ाई करूंगा। १६।
        
इन उपर्युक्त दोनो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण सहित संपूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।

       
इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- २० के श्लोक - ६ और ७ में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे।    
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्। 
कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६। ।  
यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।।७।
             
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक। ६
        
 •  अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के अभीर (अहीर) दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।

 इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-

"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।16।

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा । 17।

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। 18। 
                      
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं। १७-१७।
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८

▪️ इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों  के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

 अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों (आभीरों) की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
            
 इसी तरह से जब भगवान श्री कृष्ण  इंद्र की पूजा बंद करवा दी, तब इसकी सूचना जब इंद्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्री कृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय -२५ के श्लोक - ३ से ५ में मिलता है। जिसमें इंद्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम् 
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।। ३

वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ।। ५
                      
अनुवाद - ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमंड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३
 •   कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५
          
 इन उपरोक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
                        
इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- ६२ के श्लोक ३५ में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम जी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४।
              
अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले गोपाल (ग्वाले) ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
            
 इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए गर्ग संगीता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में रखा।
  
इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सभी लोगों ने श्री कृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना। किंतु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्री कृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से संबोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय 74 के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है - 
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।। १८।
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।। १९।
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः। २०।
                              
अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
•  यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं। १९
•  यह सारा विश्व श्री कृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्री कृष्णा ही अग्नि, आहुति और मंत्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
                
भगवान श्री कृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४
             
अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४ ।

 इस श्लोक के अनुसार यदि शिशुपाल के इस कथन पर  विचार किया जाए तो वह श्री कृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहां तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्री कृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है- 
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
           
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।          
अतः शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कहा। किंतु वह भगवान श्री कृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
 इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-

स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।

अनुवाद-  राजा पौंड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहां चले गए थे? २६
• तब भगवान श्री कृष्ण ने पौंड्रक से कहा - राजन ! मैं सर्वदा गोप हूं , अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूं , संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं।

 देखा जाए तो इन उपयुक्त दो श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है। 
• पहला यह कि- राजा पौंड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव और गोप दोनों शब्दों से संबोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप एक ही होते हैं।
• दूसरा यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने को गोप कहते हुए यह सिद्ध करते हैं कि मैं गोप हूं।
• तीसरा यह कि- गोप ही एक ऐसी जाती है जो संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
     
✳️  ज्ञात हो - अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द का ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें,  ग्वाला कहें,  यादव कहें ,सब एक ही बात है।
     
जैसे भगवान श्री कृष्ण को तो सभी लोग जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया जो उनकी वंश मूलक पहचान है। तथा उनको गोप जाति में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया जो उनके जाति रूपी पहचान है। इसी क्रम में उन्हें गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया जो उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान है। इसी तरह से उनकी जाति मूलक पहचान के लिए उन्हें अभीर या अहीर कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।

भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल के साथ यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय - (७) में बताया जा चुका है।
फिर भी इनके वंश मूलक पहचान को इस अध्याय में भी संक्षेप में आगे बताया गया है।




: (ख)- यादवों का वर्ण।

जैसा कि हम इस बात को पहले ही बता चुका हूं कि- मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियां ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उनका "वर्ण" निर्धारित होता है। अर्थात् व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है। 
उसी सिद्धांत के अनुसार यादवों का भी वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ है जिसे पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है।
यादवों का वर्ण किस आधार पर "वैष्णव" है ? ये ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य से कैसे अलग होकर स्वतंत्र रूप से चातुर्वर्ण्य के सभी कर्मों को निर्वाध करते हैं? चातुर्वर्ण्य और वैष्णव वर्ण में क्या अन्तर है? 
इन सभी बातों को इस पुस्तक के अध्याय (पांच और छः) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है। उन्हीं बातों को यहां दुबारा बताना उचित नहीं है। वहां से पाठक गण उपरोक्त सभी जानकारी ले सकते हैं।

अब हमलोग इसी क्रम यादवों के "वंश" के बारे में जानेंगे।


(४)- यादवों का वंश।

जैसा कि जाति के विकास क्रम में इस बात को। हम पहले ही बता चुका हूं कि- किसी भी जाति की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है, फिर कई व्यक्तियों के मिलने से एक परिवार बनता है, और कई परिवारों के मिलने से अनेक कुलों या गोत्रों का निर्माण होता है। पुनः कई कुलों के संयोग से उस जाति का एक वंश और वर्ण बनता है। अर्थात् वंश, वर्ण, कुल, गोत्र और परिवार के सामूहिक रूप को जाति कहा जाता है। अर्थात् जब एक ही प्रवृत्ति वाले जाति के लोग अपने किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम से अपने वंश का निर्धारण करते हैं तव उसी के नाम पर उस जाति का एक वंश बनता है। इस तरह के वंश को द्वितीयक वंश कहा जाता है। जिसमें उस जाति का ब्लड रिलेशन होता है।
वहीं दूसरी तरफ उस जाति का एक आध्यात्मिक वंश होता है जो किसी तारे, ग्रह या उपग्रह के नाम से होता है। इस तरह के वंश को प्राथमिक वंश कहा जाता है, जिसमें उस जाति का किसी भी तरह से ब्लड रिलेशन नहीं होता है।जैसे चंद्रवंश और सूर्यवंश। 

हो सकता है कि जो लोग अपने को सूर्यवंशी मानते हों उनका सूर्य से ब्लड रिलेशन होता होगा किंतु जितने चंद्रवंशी हैं उनका चंद्रमा से ब्लड रिलेशन नहीं है। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि तारे और ग्रहों से पुत्र इत्यादि पैदा करके किसी जाति की जन्मगत वंशावली बताकर उनमें ब्लड रिलेशन स्थापित करना महामूर्खता ही होगी। ऐसा वंश केवल आस्था और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही स्वीकार्य किये जा सकतें हैं। इसी आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यादवों का प्रथम वंश "चंद्रवंश है। किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि सभी यादव चंद्रमा से उत्पन्न हुए हैं और उनमें चंद्रमा का ब्लड रिलेशन है। 

चंद्रमा से यादवों का चंद्रवंश और यदु से यादव वंश कैसे स्थापित हुआ इसके बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय (११) में दी गई है जहां आपको यादवों के आदि पुरुष महाराज यदु का जीवन परिचय एवं यादव वंश की क्रमिक जानकारी मिलेगी। 

दूसरी बात यह कि जाति और वंश में बस इतना ही अन्तर है कि जाति एक सामूहिक नाम है और वंश एक व्यक्तिगत नाम है। वंश के लिए कोई जरुरी नहीं है कि वह विशेष व्यक्ति जिसके नाम पर वंश बना है, वह राजा ही हो। क्योंकि ऐसे बहुत से वंश हैं जो किसी ऋषि-मुनि के नाम से ही बनें हैं। जैसे ब्राह्मण जाति में जो वंश बनें हैं वे सभी किसी न किसी ऋषि मुनि के नाम से ही हैं।

जाति के इसी विकास क्रम में यादवों का भी वंश स्थापित हुआ जिसका नाम है यादव वंश जो अभीर जाति का द्वितीयक वंश है तथा इनका प्राथमिक वंश चंद्रवंश है। इस बात की पुष्टि उस समय होती है जब भगवान श्रीकृष्ण मूचुकुन्द को अपना परिचय बताते हुए विष्णु पुराण के पञ्चम अंश के अध्याय-२३ के श्लोक सं- २४ में कहते हैं कि- 
कस्त्वमित्याह सोऽप्याह जातोऽहं शशिनः कुले।
वसुदेवस्य    तनयो  यदोर्वंशसमुद्भवः।।२४।

अनुवाद - मैं चंद्रवंश के अंतर्गत यदुकुल में वसुदेव जी के पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ हूँ।

• जिस तरह से भगवान श्रीकृष्ण को चंद्रवंश में अवतरित होने की पुष्टि होती है उसी तरह से उनको यादव वंश में भी अवतरित होने की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-

भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।।२२।

अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।




भाग- (ख) यादवों का वास्तविक गोत्र वैष्णव है या अत्रि ?
   
                ________________

यादवों को अपना वास्तविक गोत्र जानने से पहले गोत्रों की उत्पत्ति को जानना होगा की गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं ?

तो इस सम्बन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रन्थों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से उन चार ऋषियों से बतायी गयी है जो इन्द्रिय संयम और तप से ही  वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे। इसकी पुष्टि- महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के श्लोक- (१७) से होती है। जिसमें  - राजा जनक पराशर ऋषि  का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है।-

"मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।

अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
अनुवाद:
अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। 
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं।१८।

                   "जनक उवाच।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥

अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्‍पन्‍न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।

यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः ।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
अनुवाद:-
आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्‍पन्‍न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्‍मदाता पिता ही नूतन जन्‍म धारण करता है।
ऐसी दशा में प्रारम्‍भ में ब्रह्माजी से उत्‍पन्‍न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्‍म हुआ है।२।

तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि 
              "पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।

सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।


अनुवाद:-
जिससे जो जन्‍म लेता है, उसी का वह स्‍वरूप होता है तथापि तपस्‍या की न्‍यूनता के कारण लोग निकृष्‍ट जाति को प्राप्‍त हो गये हैं।३।

उत्‍तम क्षेत्र( खेत) और उत्‍तम बीज से जो जन्‍म होता है, वह पवित्र (उत्तम) ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्‍नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्‍न संतान की ही उत्‍पत्ति होती है।४। 

वक्त्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः॥५

धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।५।

मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः॥६॥
अनुवाद:-
तात ! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्‍पत्ति हुई।

इनसे भिन्‍न जो दूसरे-दूसरे मनुष्‍य हैं, वे इन्‍हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्‍पन्‍न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं।  इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्‍ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्‍म दिया है, तब मनुष्‍यों के भिन्‍न-भिन्‍न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्‍यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
*************

                    "जनक ने पूछा-
ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्‍म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्‍पन्‍न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्‍व को कैसे प्राप्‍त हुए ? ।११।

               पराशर जी ने कहा 

राजन ! तपस्‍या से जिनके अन्‍त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्‍मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्‍पत्ति होती है, अथवा वे स्‍वेच्‍छा से जहाँ-कहीं भी जन्‍म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि (जातीय शरीर) से निकृष्‍ट होने पर भी उसे उत्‍कृष्‍ट ही मानना चाहिये ।१२।

नरेश्‍वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्‍पन्‍न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया।१३।

उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था। 

उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु  से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धान्त बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
        
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं। 

ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।

(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।

(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है। 
 
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र-  गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।

इस सम्बन्ध में बता दें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई। 

इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।  तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।

किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।

जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।

इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि  से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"

गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद  योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।

गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।

उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न  कराने का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।

अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।

फिर आगे चलकर गोपों की इसी परम्परा को निर्वहन करते हुए भू-तल पर गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण संग श्रीराधा का विवाह भाण्डीर वन में अत्रि के पिता ब्राह्मण देवता ब्रह्मा द्वारा ही संपन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

"पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।


हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः।।१३०।


अनुवाद- (१२०-१३०)
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।       

अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - गोपों का वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" केवल पूजा पाठ, यज्ञ और विवाह इत्यादि तक ही सीमित है। अत्रि- गोत्र में गोपों के रक्त सम्बन्धों को स्थापित करना उनके मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के समान होगा।

क्योंकि "गोत्र उत्पत्ति सिद्धान्त के अनुसार यह मान्यता है की प्रारम्भिक काल में जिनकी उत्पत्ति जिससे होती है उसी के नाम पर उसका गोत्र निर्धारित होता है"। इस सिद्धान्त के अनुसार गोप यादवों का "अत्रि गोत्र" तब माना जाता जब इन गोप यादवों की उत्पत्ति ऋषि अत्रि से हुई होती।

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महाभारतम् १३.४ असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा

Bhavishya Purana Brahma Parva, Adhyaya 7



आपस्तस्वधर्मसूत्र [(प.५.)क.११. (१) अविप्लुतब्रह्मचयों लक्षण्या स्त्रियमुखहेत् । अनन्यपूर्विका कान्तामसपिण्ड यधीयसीम् । अरोगिणी भ्रातृमतीमसमानार्षगांत्रजाम् । पञ्चमात्सप्तमा मातृतः पितृतस्तथा ।' विष्णु:--

 (२) असगोत्राभलमानप्रवरा भार्या विन्देत मातृतः पञ्चमात् पितृत- सप्तमात्। नारद:--

 (३)आसप्तमात्पशमाञ्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः। अविवाशास्सगोत्रास्स्स्समानप्रवरास्तथा। 3 शातातप:- (४) परिणीय सगोत्रां तु समानप्रवरा तथा । कृत्वा तस्यास्लमुत्सर्गमतिकृच्छ्रो विशोधनम् ।। मातुलस्य सुतामूरा मातृगोत्रां तथैव च । समानभवरां चैव द्विजधान्द्रायणं चरेत् ॥ (५)पैतृष्वसेयों भगिनीं स्वस्नीयां मातुरेव च । मातुश्च भ्रातुस्तनयां गत्वा चान्द्रायणं चरेत ॥ पतास्तिनस्तु भार्यार्थ नोपयच्छेत्तु बुद्धिमान् । शातित्वेनाऽनुपेयास्ताः पतति झुपयनधः । बौधायन:- (६) सगोत्रां चेदमस्योपयच्छेत मातृवदेनां विभृयात्' । (७) सगोत्रां गत्वा चान्द्रायणमुपदिशेत् । व्रते परिनिष्ठिते ब्राह्मणी न त्यजेत् मातृवद्भगिनीवदर्भो न दुध्यतीति काश्यप इति विज्ञायते । अथ सामिपात अविवाहः सदाध्यायं वर्जयेत् । बोधायमस्य १. या. स्म. १.५९,५३. २. मुद्रितश्लोकात्मकविष्णुस्मृतौ नेदं वचनमुपलभ्यते परन्तु प्रन्थान्तरेष्वस्या विष्णु- स्मृतित्वमुक्तम् । ३. नार. स्मृ. व्यवहा. १२. श्लो... ४. मुद्रितशातातपस्मृतौ लघुशतातपस्मृतौ वृद्धशातातपस्मृतौ वा नेदं वचनमुपलभ्यते। ५. म. स्मृ. ११ १७१, १७२. ६. बौध, २.१.३८. ५. महाप्रवरे समाप्तिसूत्रकाण्डे । बौ. सू. (प्रवर) १३.५५,



कात्यायनः ।।
परिणीय सगोत्रा तु समानप्रवरां तथा ।।
त्यागं कृत्वा द्विजस्तस्यास्ततश्चांद्रायणं चरेत् ।। १० ।।
उत्सृज्य तां ततो भार्यां मातृवत्परिपालयेत् ।। ११ ।।
याज्ञवल्क्यः ।।
अरोगिणीं भ्रातृमतीमसमानार्षगोत्रजाम् ।।
पंचमात्सप्तमार्दूर्ध्वं मातृतः पितृत स्तथा ।। १२ ।।

असमानप्रवरैर्विवाह इति गौतमः ।।
यद्येकं प्रवरं भिन्नं मातृगोत्रवरस्य च ।।
तत्रोद्वाहो न कर्तव्यः सा कन्या भगिनी भवेत् ।। १३ ।।

दाराग्निहोत्रसंयोगं कुरुते योऽग्रजे स्थिते ।।
परिवेत्ता स विज्ञेयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः ।। १४

श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां तृतीये ब्रह्मखण्डे पूर्वभागे धर्मारण्य माहात्म्ये श्रीमाताकथित नामगोत्रप्रवरकृतदेव्यवटंककथननामैकविंशोऽध्यायः ।। २१ ।।



सबसे पहले जाति की बात करते हैं ।
जो एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की प्रवृतियों से निर्धारित हुआ।  उन प्रवृतियों से जो जन्म से ही उत्पन्न होती हैं। 

प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियों ( व्यवसायों) से अनुप्रेरित आनुवांशिक लक्षणों से-  वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित- व्यययी (कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों( व्यवसायी) वाले समान परिवेश (माहौल) कोर्ट कचहरी दिवानी आदि में अधिक बोलकर पहल करने वाले होते हैं। और जैसे लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित वृत्ति वाले होते ही हैं।

"यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।

इसलिए जाति रूपी समुद्र में वंश रूपी अनेक  नदियाँ  प्रवाहित होकर कुल  गोत्र  रूपी धाराओं दृष्टिगोचर होती हैं। इन वंश में अनेक कुल रूपी कुल्याऐं (नालीयाँ) प्रवाहित होती हैं। सही अर्थों में कुल परिवारों का समूह है।