गुरुवार, 16 जनवरी 2025

-रास प्रकरण और - कृष्ण की कृषि संस्कृति का विकास- सम्पूरक अवदान-



     
     ( गोपों की साँस्कृतिक‌  अवदान-)

भारतीय संस्कृति में गोपों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। क्योंकि समय-समय पर गोपों द्वारा कुछ न कुछ विशेष होता रहा जिसकी छाप भारतीय संस्कृति में आज भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है जैसे -
१- हल्लीसं नृत्य व 'रास' नृत्य।
२- राग अहीर भैरव आभीर छन्द।
३- किसान शब्द गोपों की देन है।
४- आर्य शब्द भी गोपों की देन है।
५- ग्राम संस्कृति के जनक भी गोप हैं।
६- भारतीय समाज में चातुर्यवर्ण्य से पृथक वैष्णव वर्ण गोपों का है।    
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मनुष्य का अभिनय उसके लौकिक जीवन में किये गये कर्मों का ही प्रतिबिम्ब है।
मनुष्य जीवन पर्यन्त नित्य  जिन व्यवहारों का  सम्पादन करता रहता है अपने उत्सवों में भी मनुष्य वही अभिनय समन्वित करके आनन्दित होता रहता है।  इसी अभिनय को नाट्य आदि रूपकों में समायोजित किया गया है।  विभिन्न उत्सवों पर वह जीवन के अनेक पक्षों का मञ्चन भी करता है। उसका अभिनय उसके जीवन का दर्शन ही है।

जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल (पड़ाव) हैं उत्सव जहाँ जीवन की अनेक भाग- दौड़ों से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब- कुछ भूलकर निश्चिन्त विश्राम करता है। और यह नृत्य उत्सव का आवर्तन ( आलोडन) है।

[१]- हल्लीसं नृत्य एवं 'रास' नृत्य :-

हल्लीसं और 'रास' नृत्य को जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि हल्लीसं क्या है ? और इसका मतलब क्या है ? और रास का क्या मतलब है? तभी हल्लीसं और 'रास' नृत्य को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
हल्लीषम् शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो -
हल्लीषम् शब्द के मूल में निहित हल्- धातु का मूल अर्थ- खेत जोतना/ हल चलाना।

हल वह यन्त्र जिससे खेत की खुदाई( जुताई) का  कृषि कार्य किया जाए और ईषा- (हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठ) अथवा(लाङ्गलदण्ड) अर्थात्  हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - ईषा
हल और ईषा इन दोनों शब्दों से मिलकर तद्धित शब्द बनता है- हल्लीषा- (हल्लीषक)। 
एक कृषक जब खेत में हलचलाता था। तो अनेक स्त्रीयाँ उसके चारो ओर बीज बोने का काम करती थीं।
कृषि पशु पालकों की ही देन है
 हल और मूसल की खोज द्वापरयुग में बलराम जी द्वारा खेतों की जुताई हल  और फसलों की मड़ाई के लिए मूसल का आविष्कार किया गया हल और मूसल ये दोंनो तथा युद्ध के समय शस्त्र के रूप मे प्रयोग किए जाते थे।

बलराम इनको धारण करते थे इसलिए उनका एक नाम हलधर हुआ जो आज हलधर चित्र और नाम दोनों ही किसानों का प्रतीक है।
बलराम जी द्वारा हल और मूसल की खोज किए जाने के बाद उस युग में कृषि क्षेत्र में क्रान्ति आई। सभी गोप किसान  हल को खुशियों और क्रांति का देवता मानकर प्रमुख त्योहारों और उत्सवों पर हल और मूसल को भूमि पर रखकर उसके ईषा (दण्ड) के समानान्तर दृश्य में मण्डलाकार आकृति में नृत्य किया करते थे। तभी से इस विशेष नृत्य का नाम हल्लीषा हुआ।
यदि ग्रीक (यूनानी) शब्द (hallucination) पर विचार किया जाए तो यह शब्द भ्रम की स्थिति  का सूचक है। सम्भवत: हल्लीषं का विकास‌ मायानृत्य के रूप में हुआ हो।



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इस प्रकार के हल्लीषं नृत्य की पुष्टि हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक- 68 से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
"जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम्।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः।६८। 
अनुवाद:-
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी।  नरदेव पार्थ ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।

उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि हल्लीसक अहीरों का सांस्कृतिक नृत्य है। जिसके जनक श्रीकृष्ण और संकर्षण हैं। 
इसके अतिरिक्त गोप किसान शादी-विवाह के शुभ अवसरों पर हल, मूसल और ओखली( उलूखल) को मण्डप में रखकर शुभ कार्य को सम्पन्न करते थे तथा विशेष आगन्तुकों के आने पर  अन्न, दही और मूसल से परीक्षण करके स्वागत करते थे। जो आज भी भारतीय संस्कृति में देखी जाती है जो गोपों की ही देन है।
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हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य में कोई विशेष अन्तर नहीं है। देखा जाए तो हल्लीसं शरीर है तो रास उसकी आत्मा है।
हल्लीसं कला  है तो रास प्रभु की लीला है। अर्थात् जब गोप और गोपियां श्रीकृष्ण को केंद्र बिंदु मानकर हल्लीसं नृत्य करते-करते श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम विभोर होकर परम रस का आनन्द लेने लगते थे तब वहीं हल्लीसं नृत्य रास रूप में बदल जाता था। कुल मिलाकर "हल्लीसं" रास का प्राथमिक स्तर है तथा उसका विस्तार "रास" है जहां पर केवल परमानन्द की अनुमति होती है।

जिसमें गोप और गोपियां कृष्ण को केंद्र बिंदु मानकर उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति में वृत्ताकार नर्तन करती हुई परमानन्द की अनुभूति करतीं थीं। इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः रास' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।
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गोपेश्वर श्रीकृष्ण इस तरह की रास लीला अपने गोप-गोपियों के साथ गोलोक और भूलोक दोनों स्थानों पर प्राय:( अक्सर) किया करते हैं। किंतु दुर्भाग्य है कि रास के इस गूढ़ रहस्य को लोग भौतिक दृष्टि से देखते हैं । जबकि इसे आध्यात्मिक दृष्टि से ही देखना चाहिए।
अत: शुद्ध अन्त:करण वाला साधक ही रास के तत्व को राधा जी की कृपा कटाक्ष से ही जान सकता है।


ज्ञात हो - श्रीकृष्ण रास क्रीड़ा का आयोजन अधिकांशतः मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को या कार्तिकी पूर्णिमा की आधी रात के समय को ही किया करते थे। इस लिए इन दोनों समयों में की जाने वाली रास लीला को ही मोक्षदायिनी माना
गया है। इसकी पुष्टि -
श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक - ८५ से ८९ से होती है। जिसमें कार्तिक पूर्णिमा की रास लीला को मोक्षदायिनी बताया गया है -

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कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्‍भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥८६।

गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्‌दृढाम्॥८७।

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥८८।

ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।

अनुवाद- (८५-८९)
जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। तथा पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। तव वह भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।
अतः उपरोक्त सन्दर्भों से ज्ञात होता है कि हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य गोपों की संस्कृति रही है। जिसकी छाप आज भी आध्यात्म से लेकर भौतिक जगत पर साधारण जनमानस तक देखी जाती है।

कृष्ण ने हल्लीषं नृत्य आयोजन नारद के समक्ष प्रस्तुत किया था।

"जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम्।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः।६८।
 
अनुवाद:-
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी।  नरदेव पार्थ ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।

हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक-68 
श्री कृष्ण और संकृष्ण (संकर्षण) दोनों ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता तो  थे ही।  कृष्ण और संकृष्ण दोनों महामानव संगीत विद्या के भी अच्छे विशारद थे। उन्होंने संगीत और अन्य ललित कलाओं में महारत हासिल की  और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार भी  किया था।

उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी नामक सुषिर वाद्य- का बाँस के वृक्ष से निर्माण करके  कृष्ण ने स्वरों को नयी दिशा दी।

कृष्ण ने संगीत को सृष्टि की आदि-विद्या और कला  दोनों रूपों में मानकर आभीर जाति के नाम पर राग आभीर भी सर्जन किया । राग आभीर का प्रचलन प्राचीन काल से है।
सम्भवत: फारसी भाषा में प्रचलित शब्द सूराख जो ( छिद्र) का वाचक है। वैदिक  सुषिर शब्द का ही तद्भव  है।

वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद  साम-वेद को ही कृष्ण ने अपनी विभूति माना और उद्घोष किया।
"वेदानां सामवेदोस्मि देवानामस्मि वासव: । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।(१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता-)
अनुवाद:-मैं वेदो में सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और  इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- (प्राणियों) में चेतना हूँ। अर्थात्- कार्य-करण के समुदायरूप शरीर में सदा प्रकाशित रहने वाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।

वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हल्लीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति पर आधारित है।  हल्लीषम्- ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है। 
"
कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ था जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के  लिए और स्वयं गोपालको के अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि को जन्म दिया । अत: ग्राम संस्कृति के जनक भी आभीर गोपालक ही थे। और स्वरग्राम= (सरगम) के जनक भी अहीर हैं।

हल्लीसक- शब्द पुराणों में विशेषत: हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय (89) में  अहीरों के सांस्कृतिक नृत्य के रूप में  वर्णित हुआ है।

हल्लीषम् शब्द के मूल में निहित हल धातु का मूल अर्थ-
हल -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से  -हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप में दृष्टिगोचर होता है। 

हलः हालः-  हल्यते कृष्यतेऽनेन  इति हल्+ घञर्थे करणे (क)। लाङ्गल ( हल) अमरः कोश।

हल वह यन्त्र जिससे कृषि कार्य किया जाए-

और ईषा -हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठे (लाङ्गलदण्डे)वा हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - हल और ईषा इन दोनों शब्दों से तद्धित शब्द बनता है। हल्लीषा- हल्लीषक ।

हल्लीषा- एक नृत्य जो हल और उसके ईषा ( दण्ड) के समानान्तर दृश्य में आकृति बनाकर  मण्डलाकार विधि से किया जाता था।

वैसे कृष्ण और संकर्षण शब्द कृषकों के विशेषण हैं। गोपों में जन्म लेने वाले ये दोनों महानायक कृषि पद्धति के जनक भी थे कृषि करने के लिए हल तथा उस धान्य को पीट कर अन्न पृथक करने के लिए मूसल- का आविष्कार भी कृष्ण के बड़े भाई संकर्षण के द्वारा ही किया गया था। 

इनकी लोक संस्कृति में भी यही आविष्कार प्रदर्शित थे उनका सांस्कृतिक नृत्य हल्लीषम्- हल और ईषा की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही था ।

जिसे पुराणकारों ने श्रृँगार रस में डुबोकर रास के नाम से काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है।संकर्षण का हलधर विशेषण भी उनके कृषक होने का प्रमाण है।
हलधर= "हलं धरति आयुधत्वं कृषिसाधनत्व वा धृ +अच् ।  बलराम,  कृषक उदाहरण “उन्मूलिता हलधरेण पदावधतैः” उद्भटः ।

इन गोपों कि हल्लीषम् नृत्य (हल्लीश, हल्लीष)= 
नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के रूप में मान्य है।
विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं  जिसे मण्डल बाँधकर  जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।

साहित्यदर्पण (।६। ५५५।) में इसका लक्षण निम्न प्रकार से है।
“हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः। वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः। मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः॥

विशेष—पौराणिक परम्परा  इस क्रीड़ा का आरम्भ कृष्ण द्वारा  कभी मार्गशीर्ष की पूर्णिमा  को तो कभी  कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय को मानती है।

तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि जुड़ गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी।
इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग बोला जाता है। जैसे  हल्लीषा-

इसमें लास्य नृत्य ( स्त्री नृत्य) की प्रधानता ही होती है इसी लिए इसे रास्य( लास्य) भी कहा जने  लगा।

भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है।
भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है।
प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।

मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति में वृत्ताकार नर्तन करती हैं। 

अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले अनेक रासगीतों की रचना की है।
रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है।
वे वृत्ताकार मण्डल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं।
जिसे भविष्य-पुराणकार ने "हल्लीषम्" अवश्य कहा-

रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् ।
आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी” 
(हरिवंश पुराण टीका नीलकण्ठः शास्त्री)
"संस्कृत में हल्लीषम् शब्द अर्थ का विश्लेषण-
एक विद्वान डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है "कि हल्लीसं शब्द यूनानी इलिशियन- नृत्यों ( इलीशियन मिस्ट्री डांस) से विकसित है। इसका विकास ईस्वी सन् के आसपास माना जाता है।
सन्दर्भ- हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन-पृष्ठ संख्या (33)-

वास्तव में हल्लीषम् और इलिशियन दोनों शब्द पृथक पृथक है।
विशेषण को तौर पर एलिसियन शब्द एक आनंदमय स्थिति का वर्णन करता है, जैसा कि अधिकांश लोग स्वर् पर आनंद लेने की उम्मीद करते हैं।
एलीसियन शब्द एलीसियन फील्ड्स नामक रमणीय यूनानी पौराणिक स्थान से आया है।
हालाँकि अब इस शब्द को अक्सर स्वर्ग के साथ समझा जाता है, ग्रीक एलीसियन फील्ड्स वास्तव में मृत्यु के बाद के जीवन में जाने के लिए एक स्वर्गीय विश्राम स्थल का नाम था।
संभवतः इस अवधारणा की कल्पना मूल रूप से युद्ध के दौरान सैनिकों में वीरता को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। 
आजकल, लोग किसी भी स्वर्गीय दृश्य का वर्णन करने के लिए एलिसियन का उपयोग करते हैं -
एलीसियम -
1590 के दशक, लैटिन एलीसियम से, ग्रीक एलीसियन (पेडियन) से "एलिसियन क्षेत्र", मृत्यु के बाद धन्य लोगों का निवास, जहां नायक और गुणी निवास करते हैं, जो अज्ञात मूल का है, शायद प्री-ग्रीक (एक गैर-आईई सब्सट्रेट भूमध्यसागरीय भाषा) से ). इसका उपयोग पूर्ण प्रसन्नता की स्थिति के लाक्षणिक रूप में भी किया जाता है।
दूसरा लैटिन शब्द इल्युशन भी है 

पुरानी फ्रांसीसी भाष से , लैटिन (illuso) से और (illūdere) से  क्रियाओं विकसित शब्द -
, में (in- में " ) + lūdere -"खेलने के लिए क्रीड़ा करना खेलना ") आदि रूपों से सम्बन्धित है।
यह क्रिया, लैटिन के साथ (ludus)"एक खेल, खेलो, ये सम्बन्धित है।" 
PIE-( proto- indo- europian) (आद्य भारोपीय)  रूट -*leid-या*loid- से सम्बंधित है जिसका अर्थ है "खेलना,"
मृगतृष्णा

लैटिन (illusio) से ही फ्रांसीसी में विकसित (illusion) भ्रम का वाचक है। इस इल्युशन शब्द के मोह माया  जादू आदि अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं। देखा जाय तो संस्कृत में भी 
१-लड्=
विलास करना /क्रीडा करना
२-लड= उपसेवायाम्
३-लड= विकाशे आदि अर्थों की वाचक धातु धातुपाठ में लिखित है।
लल= ईप्सायाम् - लालयते कुं लालयते-कुलालः भ्वादौ लड- विलासे (1250) लडति 155।

जिससे लाड- लाडो, ललन, लीला ,जैसे शब्द विकसित हुए है।
लास्य रूप में प्रचलित रास का ही मूल रूप है।

इसका विकास संस्कृत धातु -लस=
श्लेषण,क्रीडनयोः
(लसतीत्यादि विलासी) "वौ कषलस''इति तच्छीलादौ घिनुण् न लसः, (अलसः, आलस्यम्)
लस=
शिल्पयोगे च।
अत्र स्वामी शिल्पोपयोगइति पठित्त्वा केचिन्मूर्धन्यान्तं पठन्तीत्याह ( लासयति ) श्लेषणक्रीडनयोर्लसतीति शपि 193
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मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं।
कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है। 

अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।

रास शब्द रास् धातु से भी सम्बन्धित किया गया है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।

 एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे। 

इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है। 
दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आयी।
नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है। 

रासलीला में हंसोड़ पात्र ( विदूषक) भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं। इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया। 

रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।

विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं।  लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है। 
 
कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। कृष्ण चरित से इस शब्द के जुड़ा होने के पीछे की भ्रम की गुंजाइश नहीं है। 
पण्डा शब्द का सन्दर्भ पोथी-जन्त्री तक ही सीमित है। इस वर्ग का नृत्य या कलाकर्म में कोई दखल नहीं था इसलिए रास शब्द से इन्हें जोड़ना भी ठीक नहीं। 

संलापकं श्रीगदितं शिल्पकं च विलासिका ।
दुर्मल्लिका प्रकरणी हल्लीशो भाणिकेति च ।। (सूत्र ६.५ ।। साहित्य दर्पण-)

हल्लीशक महाभारत में वर्णित एक नृत्यशैली है। इसका एकमात्र विस्तृत वर्णन महाभारत के खिल्ल भाग हरिवंश (विष्णु पर्व, अध्याय- 20) में मिलता है। 
विद्वानों ने इसे रास का पूर्वज माना है साथ ही रासक्रीड़ा का पर्याय भी। आचार्य नीलकंठ ने टीका करते हुए लिखा है - हल्लीषं क्रीडनंएकस्य पुँसो बहुभि: स्त्रीभि: क्रीडनं सैव रासक्रीडा।। (हरिवंश-. 2.20.36) 'हल्लीशक' का शाब्दिक अर्थ है - 'हल का ईषा- हत्था'।

यह नृत्य स्त्रियों का है जिसमें एक ही पुरुष श्रीकृष्ण होता है। यह दो दो गोपिकाओं द्वारा मंडलाकार बना तथा श्रीकृष्ण को मध्य में रख संपादित किया जाता है। हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण वंशी, अर्जुन मृदंग, तथा अन्य अप्सराएँ अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं।

इसमें अभिनय के लिए रंभा, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा, मेनका, आदि अप्सराएँ प्रस्तुत होती हैं। सामूहिक नृत्य, सहगान आदि से मंडित यह कोमल नृत्य श्रीकृष्णलीलाओं के गान से पूर्णता पाता है। इसका वर्णन अन्य किसी पुराण में नहीं आता। 
भासकृत बालचरित्‌ में हल्लीशक का उल्लेख है। अन्यत्र संकेत नहीं मिलता।

शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में व्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मण्डल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।

इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आभीर जाति देव संस्कृति के अनुयायियों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा देव संस्कृति  से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्त्री-स्वातंत्र्य देवसंसकृति  की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और केशो की दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य परम्परा थी, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी गोप पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं। हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-

उरणवशी( उर्वशी) भी आभीर कन्या थी जिसे पुराणों में अप्सराओं की स्वामिनी पद पर प्रतिष्ठित किया गया। वह समस्त गायन, वादन और नृत्य की कलाओं पारंगत थी।

            ( रासलीलाका आरम्भ-)

दुहन्त्योऽभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः।पयोऽधिश्रित्य संयावं अनुद्वास्यापरा ययुः॥ ५ ॥

परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा पाययन्त्यः शिशून् पयः।शुश्रूषन्त्यः पतीन् काश्चिद् अश्नन्त्योऽपास्य भोजनम् ॥६॥

लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने। व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः॥ ७॥

ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिः भ्रातृबन्धुभिः।गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिताः ॥८॥

अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः।कृष्णं तद्‍भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः॥९॥

दुःसहप्रेष्ठविरह तीव्रतापधुताशुभाः।ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष निर्वृत्या क्षीणमङ्‌गलाः॥ १०॥

तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्‌गताः।जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ॥११॥

वंशीध्वनि सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थींवे अत्यन्त उत्सुकतावश दूध दुहना छोडक़र चल पड़ीं। जो चूल्हेपर दूध औंटा रही थीं वे उफनता हुआ दूध छोडक़र और जो लपसी पका रही थीं वे पकी हुई लपसी बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोडक़र चल दीं ॥ ५ ॥

 जो भोजन परस रही थीं वे परसना छोडक़रजो छोटे-छोटे बच्चोंको दूध पिला रही थीं वे दूध पिलाना छोडक़रजो पतियोंकी सेवा-शुश्रूषा कर रही थीं वे सेवा-शुश्रूषा छोडक़र और जो स्वयं भोजन कर रही थीं वे भोजन करना छोडक़र अपने कृष्णप्यारेके पास चल पड़ीं ॥ ६ ॥ 

कोई-कोई गोपी अपने शरीरमें अङ्गरागचन्दन और उबटन लगा रही थीं और कुछ आँखोंमें अंजन लगा रही थीं। वे उन्हें छोडक़र तथा उलटे-पलटे वस्त्र धारणकर श्रीकृष्णके पास पहुँचनेके लिये चल पड़ीं ॥ ७ ॥ 

पिता और पतियों नेभाई और जाति-बन्धुओं ने उन्हें रोकाउनकी मङ्गलमयी प्रेमयात्रामें विघ्र डाला। परन्तु वे इतनी मोहित हो गयी थीं कि रोकनेपर भी न रुकींन रुक सकीं। रुकतीं कैसेविश्वविमोहन श्रीकृष्णने उनके प्राणमन और आत्मा सब कुछका अपहरण जो कर लिया था ॥ ८ ॥ 

परीक्षित्‌ ! उस समय कुछ गोपियाँ घरोंके भीतर थीं। उन्हें बाहर निकलनेका मार्ग ही न मिला। तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिये और बड़ी तन्मयतासे श्रीकृष्णके सौन्दर्यमाधुर्य और लीलाओंका ध्यान करने लगीं ॥ ९ ॥ 

परीक्षित्‌ ! अपने परम प्रियतम श्रीकृष्णके असह्य विरहकी तीव्र वेदनासे उनके हृदयमें इतनी व्यथाइतनी जलन हुई कि उनमें जो कुछ अशुभ संस्कारोंका लेशमात्र अवशेष थावह भस्म हो गया। इसके बाद तुरंत ही ध्यान लग गया। ध्यानमें उनके सामने भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेमसेबड़े आवेग से उनका आलिङ्गन किया। उस समय उन्हें इतना सुखइतनी शान्ति मिली कि उनके सब-के-सब पुण्यके संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गये ॥१०॥

परीक्षित्‌ ! यद्यपि उनका उस समय श्रीकृष्णके प्रति जारभाव भी थातथापि कहीं सत्य वस्तु भी भावकी अपेक्षा रखती है उन्होंने जिनका आलिङ्गन कियाचाहे किसी भी भावसे किया होवे स्वयं परमात्मा ही तो थे। इसलिये उन्होंने पाप और पुण्यरूप कर्मके परिणामसे बने हुए गुणमय शरीरका परित्याग कर दिया। (भगवान्‌ की लीलामें सम्मिलित होनेके योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया।) इस शरीरसे भोगे जानेवाले कर्मबन्धन तो ध्यानके समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे ॥ ११ ॥


आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मण्डलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र की टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है
-
"मण्डले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्।
नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।
इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण  'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं।
द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशान्तरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-
"पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्।
तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।७।
तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:।
एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्
।८।
इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास का विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के (२३)वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही आभीर यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए रास किया जा सकता है
आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था परन्तु कामुकता नही थी । व्रज रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है-
१- मण्डल रासक, २-ताल रासक,३- दण्डक रासक या लकुट रासक। 
देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन पर रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है।
 गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।

यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । जिस प्रकार नागरिक शास्त्र राजनीति शास्त्र की शैशवावस्था है। हल्लीषम् रास की शैशवावस्था है।

 यह नृत्य छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था ।
यह गायन शैली अत्यन्त कठिन थी ।

"आधुनिक विद्वानों का मत हैं, 'रास' शब्द कृष्ण-काल में प्रचलित नहीं था ; उसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ। 'रास' शब्द के सर्वाधिक प्रचार का श्रेय श्रीमद्भागवत की 'रास-पंचाध्यायी' को है, जिसकी रचना गुप्त काल से पहिले की नहीं मानी जाती है। 
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कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं। 
इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक'  था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित नहीं रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।
                

कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति में "रास" का स्वरूप।

१-नृत्य एवं नाट्य कलाएँ / 
२-कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति

३-नृत्यनाट्य का महान ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र'
४-नाट्य मंडप
श्रीकृष्ण द्वारा प्रचलित तथाकथित 'रास' आरंभ में व्रज का एक लोक-नृत्य अथवा लोक नृत्य-नाट्य था, जो पुरातन ब्रजवासियों के मनोविनोद का साधन था। जब कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब 'रास' को भी धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया था।
उस समय लोक के साथ धर्म के क्षेत्र में भी रास का प्रवेश हो गया था। कृष्णोपासक भागवत भक्तो 
ने 'रास' के धार्मिक महत्व को स्वीकार किया था, और श्रीमद्भागवत ने उसके गौरव को बढ़ाया था।
प्राचीन "व्रज  में बुद्ध एवं महावीर द्वारा प्रवर्तित बौद्ध तथा जैन धर्मो का प्रचार हुआ, तब भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मों का प्रभाव कुछ कम हो गया था। 
फलत: कृष्णोपासना तथा 'रास' के धार्मिक महत्व में भी कमी आ गई थी। उसका एक बड़ा कारण यह था कि बौद्ध और जैन धर्म वैराग्य एंव निवृत्ति प्रधान थे; जिनकी धार्मिक मान्यता में  एवं 'रास' के लिए कोई समुचित स्थान नहीं था। 
यद्यपि कृष्ण के समत्व योग उच्यते   सिद्धान्त से प्रभावित होकर बुद्ध ने मध्यम मार्ग की स्थापना की थी।

समत्वं योग उच्यते' का अर्थ हैहर परिस्थिति में समान रहना ही योग है. यह वाक्यांश भगवद गीता के दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में है. इस श्लोक में भगवान कृष्ण अर्जुन को योग के अभ्यास में समभाव के महत्व के बारे में बता रहे हैं.इस श्लोक का मतलब है कि:
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।। (भगवद्गीता)
अनुवाद:-
 हे धनञ्जय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।

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बौद्ध-जैन धर्मों को कुछ समय पश्चात ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा था। तब उनके द्वारा नृत्य-नाट्य के धार्मिक स्वरूप को प्रश्रय प्रदान किया गया। उस परिवर्तन का प्रभाव प्राचीन ब्रज में दिखलाई देने लगा था। फलत: पौराणिक हिंदू धर्मों के मंदिर-देवालयों की भाँति बौद्ध-जैन धर्मो के उपासनालयों एवं पूजा-गृहों में भी नृत्य-नाट्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इसका प्रमाण तत्कालीन साहित्यिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक उल्लेखों और स्थापत्य की कलाकृतियों में मिलता है।जहाँ तक 'रास' का संबंध हैं, उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ कलाकृतियों में उसके रूप का आभास होता है।
यह नृत्य अहीरों में पहले से  रहा है। उर्वशी का नाम एक खूबसूरत नर्तकी के रूप में लिया जाता था और उस युग में नर्तकियों को अप्सरा कहा जाता था। 
अपस्= कला सम्पादन करना

इत्येते देवगन्धर्वाः प्राधेयाः परिकीर्तिताः।
इमं त्वप्सरसां वंशं विदितं पुण्यलक्षणम्।। 1-66-48

अरिष्टाऽसूत सुभगा देवी देवर्षितः पुरा।
अलम्बुषा मिश्रकेशी विद्युत्पर्णा तिलोत्तमा।। 1-66-49

अरुणा रक्षिता चैव रम्भा तद्वन्मनोरमा।
केशिनी च सुबाहुश्च सुरता सुरजा तथा।। 1-66-50

सुप्रिया चातिबाहुश्च विख्यातौ च हाहा हूहूः।
तुम्बुरुश्चेति चत्वारः स्मृता गन्धर्वसत्तमाः।।1-66-51

इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
सम्भवपर्वणि षट्षष्टितमोऽध्यायः।।66।।
अनुवाद-
सिद्व, पूर्ण, वर्हि, महायशस्वी पूर्णायु, ब्रह्मचारी, रतिगुण, सातवें सुपर्ण, आठवें विश्वावसु, नवे भानु ओर दसवें सुचन्द्र- ये दस देव-गन्धर्व भी प्राधा के ही पुत्र बताये गये हैं। इनके सिवा महाभाग देवी प्राधा ने पहले देवर्षि ( कश्‍यप) के समागम से इन प्रसिद्व अप्सराओं के शुभ लक्षण वाले समुदाय को उत्पन्न किया था। उनके नाम ये हैं- अलम्बुषा, मिश्रकेशी, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अरूण, रक्षिता, रम्भा, मनोरमा, केशिनी, सुबाहू, सुरता, सुरजा और सुप्रिया। अतिवाहु, सुप्रसिद्व हाहा ओर हूहू तथा तुम्बुरू- ये चार श्रेष्ठ गन्धर्व भी प्राधा के ही पुत्र माने गये हैं।



 ग्रास या घास युक्त भूमि से है। जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे ;धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और इस प्रकार कालान्तर में  ग्राम-सभ्यता का जन्म हुआ।

जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में विकसित हुईं जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ ही बहुतायत में होती हैं।

ग्रामीण जीवन का पालन करने वाले गोपों की गोप- ललनाऐं विशेष उत्सवों पर हल्लीसक नृत्य का आयोजन पुरुषों के सहयोग से करती थीं। और अनेक रागों पर गीत गाती थीं। अहीरों ने संगीत को अनेक लौकिक अवदान दिये।




"हल्लिशम नृत्य और आभीर राग अहीरों की मौलिक संगीत सर्जना का प्रमाण है।

भगवान कृष्ण का  जन्म व बाल्यकाल आभीर जाति में हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है --
"मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् । तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६।
सरस्वतीकण्ठाभरण   /परिच्छेदः (२)
सरस्वतीकण्ठाभरणम्
परिच्छेदः (२)
भोजराजः

यदाङ्गिकैकनिर्वर्त्यमुज्झितं वाचिकादिभिः ।
नर्तकैरभिधीयेत प्रेक्षणाक्ष्वेडिकादि तत्।२.१४२।

तल्लास्यं ताण्डवं चैव छलिकं संपया सह ।
हल्लीसकं च रासं च षट्‌प्रकारं प्रचक्षते ।२.१४३।
____
मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् ।
तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६ ।। (२.१४४)
अर्थ-
मण्डल ( घेरा) में जो गोपस्त्रीयों का नृत्य होता है वह हल्लीसक  कहलाता है ।
उसमें एक गोप सभी गोप- स्त्रीयों का नेतृत्व करने वाला होता है जैसे भगवान कृष्ण होते हैं ।

"अङ्गवाक्सत्वजाहार्यः सामान्यश्चित्र इत्यमी ।
षट् चित्राभिनयास्तद्वदभिनेयं वचो विदुः।।२.१५७ ।। (२.१४५)

चतस्त्रो विंशतिश्चैताः शब्दालङ्कारजातयः ।
शब्दसन्दर्भमात्रेण हृदयं हर्तुमीशते ।। २.१५८ ।। (२.१४६)
____

इति श्रीराजाधिराज भोजदेवेन विरचिते सरस्वतीकण्ठाभरण नाम्नि अलङ्कारशास्त्रेऽलङ्कारनिरूपणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।

नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है ।
विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं। 
यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।

मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का भाव  नृत्य जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
इसी को नामान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा।

यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्त्रियाँ उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था। हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब

इंद्र- विजय के उपरांत वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे।
इन्द्र- विजय के उपरान्त आभीर नारियों के साथ श्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में प्राप्त हुआ है। 
इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः रास' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।

भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों 
का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था।  गुजरात के अहीर आज तक इस परम्परा का निर्वहन करते चले आ रहे हैं। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है। 
शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी, जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी। 
उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य में प्रशिक्षित किया था। 

द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।

भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अंतर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है।इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --

१. मण्डल रासक 
२. लकुट रासक तथा 
३. ताल रासक। 

मण्डलाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था। यह रासक परंपरा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परम्परा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वाँ तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया। 

कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारम्भ होकर रास की प्राचीन परम्परा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य १५ वीं शताब्दी के अन्त तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आभीर जाति में रही , जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरन्तर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मञ्च उद्भूत हुआ। 
इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है।

भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।

अहीर भैरव एक लोकप्रिय राग है जिसमें कोमल ऋषभ और कोमल निषाद के स्वरों का संयोजन होता है। 
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अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान् ।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये ॥ १६ ॥

इस  गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं  अवश्य अवतरण करुँगा ।

(अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) भी होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले। १७।
अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा- मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)।


निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धर्मवत्सल,सदाचारी और सुव्रतज्ञ (अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।

गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं-

ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।

ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।

"विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा, गायत्री आदि।
___________________
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ( वर्ण) जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति  (वर्ण )भी इस संसार में है ।४३।

वैष्णव वर्ण ब्रह्मा के द्वारा निर्मित चार वर्णों से श्रेष्ठ व पृथक इसलिए है । वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत गोप लोगों का व्यवसाय गोपालन और कृषि के अतिरिक्त १-युद्ध करना - २-ज्ञान देना और ३- दीन और वञ्चितों की सेवा करना भी है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में स्वयं गोपों के नायक श्रीकृष्ण ने भोजन के उपरान्त पत्तले भी उठाईं थी और आगन्तुकों के चरणों को भी पखारा या धोया था।

अर्थात ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के सभी वर्णों के काम अकेले गोपों ने ही कर दिया था।
यदि गोप ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत होते तो गो पालक होने से नारायणीयम् सेना के योद्धा कभी नहीं होते ! क्योंकि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण के व्यक्ति के व्यवसाय ( कार्य)को  कभी नहीं कर सकता है। वैष्णव वर्ण इसी कारण सभी वर्णों से श्रेष्ठ है।

विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥

देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।

इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) के उस अविनाशी परमधाम गोलोक का सूर (ज्ञानी जन) निरन्तर दर्शन करते रहते हैं। आकाश में सूर्य के सदृश वे (भगवान्) परम व्योम में चतुर्दिक् संव्याप्त एवं प्रकाशस्वरूप विद्यमान हैं ।।१९।

पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुम्भवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।२०।

पीले वस्त्र के द्वारा कृष्ण के लिए श्वेत वस्त्र के द्वारा  शूलिन ( शिव) के लिए और कौसुम्भ वस्त्र के द्वारा गौरी को लक्ष्य करके दीप- का अर्पण( दान) करना चाहिए । 4.130.२०।।

इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।

उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥

अर्थानुवाद:-(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५।

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि।६।

(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) स्वर्ण मण्डित सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम   (गमध्यै) जाने के लिए  (उश्मसि) चाहते हो। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्) उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अव भाति)  प्रकाशित होता है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६॥
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[५] - कृषि और किसान शब्द गोपों सहित कृष्ण और संकर्षण की ही देन है-  
इसको यदि व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो किसान शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के कृषाण शब्द से हुई है। कृष्ण और संकर्षण कृषि संस्कृति के जनक थे। कृष्ण से ही कृषाण शब्द विकसित हुआ है।
वाचस्पत्यं संस्कृत भाषा कोश के अनुसार :
कृषाण-  (कृष्+ आनक्)–

आप्ते के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार भी 
कृषाण शब्द  कृष् धातु में -आनक्- अथवा किकन् प्रत्यय करने बनता है।  
अर्थात् जो कृषि से सम्बन्धित कार्य करे वह किसान है।
ज्ञात हो - कृष्ण शब्द का धातुमूलक अर्थ - कृषक भी है ।
कुल मिलाकर कृष्ण से "कृषाऩ" और कृषाण से किसान शब्द का विकास हुआ। 


भगवान श्रीकृष्ण का नाम भी इसी अनुरूप है क्योंकि वे एक सफल कृषक थे। सबसे पहले वे एक सफल पशु पालक( गोपालक) थे और पशु पालक  ही  कृषि संस्कृति के जनक थे।
आर्य चरावाहे थे जिन्होंने कालान्तर में कृषि संस्कृति का विकास किया।
और इस बात की पुष्टि- श्रीगर्गसंहिता, गिरिराज खण्ड के अध्याय -(६ ) से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
               "श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम्।२६।

अनुवाद- बाबा हमारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।।२६।

इसी तरह से गर्गसंहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय (६) में नन्द बाबा के उस समय भी कृषक  होने की पुष्टि होती है जब एक बार कुछ गोप लोग वषभानु के दरबार में उपस्थित होकर नन्द और वृषभानु के वैभव की तुलना करते हुए  नन्द के विषय में वृषभानु जी कहते हैं कि-

त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित्।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः॥७॥

 यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः।
 सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो।।८।

अनुवाद:-( ७-८)
• यहाँ तक कि राजा नन्द के घर में भी तुम्हारे समान धन और ऐश्वर्य नहीं है। अनेक गायों के स्वामी कृषक राजा नन्द भी तुम्हारी तुलना में दीन-हीन हैं।७।
• हे स्वामी, यदि नन्द का पुत्र वास्तव में भगवान है, तो कृपया उसकी परीक्षा अवश्य लीजिए, जिससे हम सबके देखते हुए उसकी दिव्यता प्रकट हो जाएगी।८।

ज्ञात हो - जिस तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण सदैव गोप वेष( रूप) में रहते हैं, उसी तरह से बलराम जी भी सदैव किसान वेष में ही रहते हैं। चाहे वे कृषि-क्षेत्र में हो अथवा, युद्ध-क्षेत्र में हो,  तथा उनके साथ सदैव हल और मूसल रहता।
इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक -(१३) से भी होती है। जिसमें बलराम जी भू-तल पर अवतरित होने से पहले अपने हल और मूसल को कहते हैं-
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।।१३।

अनुवाद - हे हल और मूसल ! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूं, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।१३।
 
उपर्युक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ही कृषि संस्कृति के जनक और   किसानों  के पूर्वज और प्रतीक हैं। क्योंकि अबतक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में इनके जैसा किसान तथा गोपालक भेष( रूप) वाला न तो कोई देवता न किन्नर न गन्धर्व न दैत्य और न ही कोई दानव देखा गया।

           आर्य संस्कृति और किसान-:

आर्य और किसान एक सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि आर्य शब्द भी हल और कृषि से जुड़ा हुआ है। प्रारम्भ में आर्य चरावाहे ही थे जिन्होंने कालान्तर में कृषि संस्कृति का विकास किया। क्योंकि आर्य शब्द जुड़ा है अरि से जिसमें 
अरि एक वैदिक देव है। जो सदैव अर (आरा) हाथ में लिए हुए ऋग्वेद में अरि सर्वोच्च ईश्वरीय शक्ति का वाचक है।
 जिसकी पुष्टि- ऋग्वेद -(१०/२८/१) से होती है-

"विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्स्वाशितः पुनरस्तं जगायात् ॥१॥
पदान्वय:-  विश्वः । हि । अन्यः । अरिः । आऽजगाम । मम । इत् । अह । श्वशुरः । न । आ । जगाम ।जक्षीयात् । धानाः । उत । सोमम् । पपीयात् । सुऽआशितः । पुनः । अस्तम् । जगायात् ॥१.
ईश्वरोऽप्यरिः” [ निरु० ५। ७]

उपर्युक्त  ऋचा ( श्लोक) में अरि शब्द ईश्वर वाची है। यूनानी पुराण कथाओं में इस वैदिक देव का वर्णन अरेस( Ares) के रूप में यूनानी युद्ध देवता के लिए है।

अरेस नाम की व्युत्पत्ति पारम्परिक रूप से ग्रीक शब्द ἀρή (arē) से जुड़ी हुई है, जो डोरिक भाषा के ἀρά (ara) शब्द का आयोनिक( यूनानी) रूप है, जिसका अर्थ-  विनाश"

यूरोपीय विद्वान वाल्टर बर्कर्ट का कहना है कि "अरेस स्पष्ट रूप से एक प्राचीन अमूर्त संज्ञा है जिसका अर्थ है लड़ाई,  अथवा युद्ध है। 

अरि: शब्द कालान्तर में लौकिक संस्कृत में  हरि हो गया-
संस्कृत भाषा में "आरा" और "आरि" शब्द आज भी शस्त्र वाली हैं।  परन्तु वर्तमान में लौकिक संस्कृत में "अर्" धातु विद्यमान नहीं है।
सम्भव है कि पुराने जमाने में "अर्" धातु
रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो ।
अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु का  ही  रूपान्तरण, "अर" हो  (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है)
संस्कृत व्याकरण में य्, व् र्, ल्  अन्त:स्थ वर्णों  का इ, उ, ऋ और लृ में परिवर्तन होना। सम्प्रसारण की प्रक्रिया है।
अर् अथवा ऋ धातु का अर्थ होता है-
"हल चलाना" 
यह भी सम्भव है कि "हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है। ये दोनों शब्द कृदन्त पद हैं। कृदन्त वे पद( शब्द) होते हैं जिनकी व्युत्पत्ति किसी धातु ( क्रिया मूल) से हुई हो।
विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक ही है।
इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।

"आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है। वैश्य शब्द वणिक का वाचक नहीं है।
वैश्य वृत्ति में पशुपालन और कृषि मूलक क्रियाऐं समायोजित होती है। जबकि वाणिज्य में व्यापारिक क्रियाएँ 
किसी वणिक( वनिया) को कभी खेत में हल चलाते तथा पशुओं को चराते हुए कभी नहीं देखा गया। और किसी किसान को व्यापारिक या महाजनी क्रियाएँ करते नहीं देखा गया।
दोनो वृत्ति( व्यवसाय) आपस में विरोधी हैं ।
आज व्यापारी और किसान दो विरोधी समुदाय हैं।
अपितु वाणिज्य क्रिया को कालान्तर में वैश्य वृत्ति के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया गया। जिसका पशुपालन और कृषि मूलक वृत्तियों से कोई तालमेल नहीं है।

पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का  प्रपल प्रमाण है। कि आर्य लोक वैश्य वृत्ति ( कृषि और पशु पालन ) से सम्बन्धित थे। और स्वामित्व पूर्ण स्थिति में थे।
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया गया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य- जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।

फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णों के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
हैं निस्सन्देह  इस समय तक आर्य शब्द पशुपालन और कृषि मूलक वृत्तियों से युक्त जन समुदाय का वाचक था।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि कार्य) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नही।
कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं
गोप- गोचारण करते थे और इतिहास साक्षी है कि चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण (बलराम)
दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे।
 इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे । फिर बनिया ब्राह्मण और अन्य वृत्तियों से युक्त जन समुदाय को आर्य थ्योरी में जोड़ा गया।
क्यों व्यापार अथवा वाणिज्य वृत्ति को कृषि और पशु पालन वृत्ति से जोड़ा गया।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं। कृषि करना वैश्य का काम है। यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
किसी वणिक या वन कया
 का काम नहीं -
ब्राह्मण के लिए। कृषि वृत्ति निषिद्ध ( मनाई) है।

मनुस्मृति में वर्णन है कि
"वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा। हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83।
अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है।
ब्राह्मण और क्षत्रिय न तो पशुपालन कर सकता हौनऔर न कृषि कार्य तो फिर वह व्यापार ही कर सकता है।

अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।

इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वादी वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है। 

निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है। इसकी पुष्टि - नृसिंह पुराण अध्याय 58 के 11 वें श्लोक से होती है-
दासवद्ब्राह्मणानां च विशेषेण समाचरेत् । अयाचितं प्रदातव्यम् कृषिं वृत्यर्थमाचरेत्।।११।
अनुवाद:-
 शूद्र व्यक्ति दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवा करे  और विना कुछ माँगे हुए अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे।११।

परन्तु व्यास, पराशर और वैजयन्ती कोश में एक और कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। जिन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इसी काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है जो कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के।

फिर भी व्यास स्मृति में वणिक और गोप को शूद्र रूप में वर्णन सिद्ध करता है कि द्वेष और रोष के आवेश में पुरोहित वर्णव्यवस्था की मर्यादा भी भूल गये अन्यथा वणिक् शब्द जो स्वयं वैश्य का पर्याय है। उसको शूद्र धर्मी  कभी न कहते। सायद यही कारण है कि-

किसान जो भारत के सभी समाजों के लिए अन्न का उत्पादन करता है और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनतम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है तथा 
दृढ़ता और धैर्य पूर्वक वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है। उसे कभी शूद्र तो कभी वैश्य वृत्ति से जोड़ा गया।

किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद ही कोई दूसरा इस संसार में है।
परन्तु उसके बलिदान का कोई प्रतिमान और ना कोई मूल्य है। फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के फिर दोनों विरोधी समुदायों एक ही वर्ण में क्यों जोड़ा गया।
किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत  समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य के हल न पकड़ने के विधान बना डाले और अन्ततः वणिक को शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है। 

व्याकरणिक दृष्टिकोण से ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—(ग्रस् मन् ) प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है । जिससे गृह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है ।
इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्रास है

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ज्ञात हो आर्य और 'वीर' शब्द का विकास परस्पर समानता मूलक है। दोनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -
कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विशः स्मृतम् ॥शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा द्विजो यज्ञान्न हापयेत् ।96.28॥
(गरुड़ पुराण)
श्रीगरुड महापुराण पूर्वखण्ड प्रथमांशाख्य आचारकाण्ड याज्ञवल्क्योक्तश्राद्धनिरूपणं नाम षण्णवतितमोऽध्यायः ॥96॥

भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास यह उद्घोषणा करता है। कि
कुशल चरावाहों के रूप में सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करने वाले आर्य ही कृषक  थे ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था जो अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए ये चरावाहे जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान) देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे। इनके ये पड़ाव स्थाई होते गये और  उसी प्रक्रिया के तहत बाद में कालान्तर ग्राम संस्कृति का जन्म व विकास हुआ। ग्राम शब्द (आभीर-पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक हो गया।

पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं।
"प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण( खेत जोतना- और बौना ही था। 

अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ आरि धारण करने वाला है। ज्ञात हो कि आरि ( पशुओं को विशेषत: बैलों को नियन्त्रित करने वाले शस्त्र का नाम था- 
अरि ( हल ) और आर ( पशुओं का नियन्त्रण करने वाला यन्त्र) धारण करने वाला ही आर्य था।

वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया और पशुपालन और कृषि न करने वाले व्यापारीयों को भी कृषि और पशु पालन वृत्ति में जोड़ दिया।

 आर्य शब्द का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में भी रूढ़ होकर कर्मवीर और धर्मवीर आदि का पर्याय हुआ।
 दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही समान मौलिक गुण (प्रवृत्ति) है।

श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत:—स्वामी, गुरू और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस आर्य शब्द का व्यवहार नाट्यशास्त्र में  होने लगा । छोटे लोग बड़े को सम्बोधित करते हुए आर्य का प्रयोग करते , —स्त्री पति को सम्बोधित करते हुए आर्य शब्द का प्रयोग करती, और छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं ।
नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को आर्य या आर्यपुत्र कहती है।

ज्ञात हो- पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में नायक का वाचक हीरो (Hero) आर्य शब्द का ही रूपान्तरण है।
 
आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और हल दोनों का श्रोत ऋ-अर्-हिंसागतियो: धातु प्रसिद्ध ही है।

 
इतना सबकुछ होने के बाद भी कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही बना रहा है। जबकि 
हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं इस पर भी विचार कर लेना आवश्यक है।


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भारतीय शास्त्रीय संगीत में  रागों ने  प्राय:  लोक धुनों से प्रेरणा ली है, और फिर उन्हें भारतीय राग प्रणाली के सिद्धान्तों के अनुसार औपचारिक रूप दिया है। अहीर भारत में एक प्राचीन जातीय समूह है जो मुख्य रूप से पशुपालक थे।

गायें  चराने वालों के रूप में, क्या उनके पास कोई विशिष्ट हस्ताक्षरीय लोक धुन थी ? क्या यहीं से राग अहीर की उत्पत्ति हुई है ?


राग अहीर भैरव दो रागों का मिश्रण है, अहीर और भैरव । अहीर और अहीर भैरव के स्वर एक जैसे हैं, लेकिन उनकी मधुर संरचना में अंतर है। 

आभीर एक मात्रिक छन्द का नाम भी है जिसके चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में  (११)  मात्राएँ होती है और अंत में जगण होता है । जैसे—

यमाताराजभानसलगा-

ये छंदों के वार्णिक छंद का अनुक्रम है।

किसी भी वर्णिक छन्द में वर्णों का समूह गण कहलाता है। ये प्रायः तीन वर्णों से मिलकर एक गण का निर्माण करते हैं । इन गणों के नाम इस प्रकार से हैं:-

यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण ।

इनकी मात्राओं के लिए लघु को ‘I ’ और गुरु को ‘s’ कहते हैं ।इस लघु-गुरु का के ही क्रम को याद रखने का एक विशिष्ट सूत्र स्थापित किया गया है जोकि ये है:- यमाताराजभानसलगा

इसमें किसी शब्द में जिस गण की जानकारी पता करनी हो तो उसके वर्ण के बाद इसी सूत्र से अगले दो वर्ण उनकी मात्रा समेत उसके बाद और जोड कर लिखें तो शब्द में कौन सा वार्णिक गण है ये ज्ञात हो जाएगा।

जैसे: एक शब्द "ममता" लिया।

तो सूत्र के अनुसार देखे सभी गण को

यगण – अर्थात- यमाता = ।ऽऽ
मगण – मातारा = ऽऽऽ
तगण – ताराज = ऽऽ।
रगण – राजभा = ऽ।ऽ
जगण – जभान = ।ऽ।
भगण – भानस = ऽ॥
नगण – नसल = ।॥
सगण – सलगा = ॥ऽ

ममता शब्द में वार्णिक छंद का गण "सगण" आता है क्योंकि इस ममता शब्द में प्रथम दो वर्ण लघु और अंतिम वर्ण गुरु है।

यहि बिधि श्री रघुनाथ । गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार ।

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इस प्रकार से यह अध्याय- (७) वैष्णव वर्ण के गोपकुल  के गोप और गोपियों की पुराणों में की गई भूरि-भूरि प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ता एवं भारतीय संस्कृति में इनके प्रमुख योगदानों को जाना।
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय- ८ में भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरित होने के प्रमुख कारणों को जानेंगे।



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