गोप- आभीर जाति का ही एक गोपालन वृत्ति ( व्यवसाय) मूलक विशेषण है। इसी आभीर( आहीर) जाति के
अन्य पर्यायवाची निम्न लिखित हैं।(अमरकोश द्वितीय काण्ड)
संस्कृत के प्राचीन बोपपालितकोश में यादवों की सम्पत्ति और धन गायों को बताया गया है। गाय भैंस आदि यादवों का (वित्त) धन है।
(बोपपालितकोश)-
गोपों के यादव होने के सन्दर्भ कई पुराणों में स्पष्ट रूप से प्राप्त होते हैं।
अनुवाद:-
अतएव मर्यादा की रक्षाके लिये ब्रह्माजी ने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया ।१५।
कि तुम अपने अंश से पृथ्वी पर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियों के साथ गोपालन का कार्य करोगे ।१६।
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः।२।
तथा श्री मद्देवी भागवत पुराण के इसी चतुर्थ स्कन्ध के तृतीय पाठ में आगे भी यादवों के गोपालन का वर्णन है।
(दित्या अदित्यै शापदानम्)
"व्यास उवाच
"कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥
वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥२॥
एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥३॥
वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माकिंणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः॥४॥
करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥
अनुवाद:-व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णु के विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओं के भी अंशावतार ग्रहण करने के बहुतसे कारण हैं ॥1॥
अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूप से सुनिये ॥2॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥3॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेव ने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥4॥
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनि में जन्म लेकर तुम गोपाल(अहीर) हो जाओ ।5॥
(देवीभागवतपुराण /स्कन्धः ४/अध्यायः ३)
ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥१५॥
"व्यास उवाच
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥१७ ॥
तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥
अनुवाद:- अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया ।15।
कि तुम अपने अंशसे पृथ्वी पर यदुवंश में जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालन का कार्य करोगे ।।16।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारने के लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यप को शाप दे दिया था ॥17॥
उधर कश्यपकी भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँ ॥18॥
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इस प्रकार शाप और वरदान के माध्यम से भी यदुवंश की गाथाओं का आख्यानों में समायोजित किया गया।
गोपालक (पुरूरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण भी यही सिद्ध करता है कि अधिकतर ईश्वरीय शक्तियों का अवतरण अहीर जाति में ही हुआ। जो कला और ज्ञान के अद्भुत समन्वयी रूप थे।
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं।
इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है।
गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया।
संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम गोविल है जो गोलोक से अवतरित होकर आनर्त (गुजरात) देश में निवास करते थे क्योंकि यह देश उस समय गायों के निवास करने का ही स्थान था।
गायत्री के पिता और माता का गोविल- और गोविला- नाम उनके गायों से सम्बन्धित गौलौकीय अवधारणा को पुष्ट करता हैं। यह हम पूर्व में ही बता चुके हैं कि -
अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन भी प्राप्त है।
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।
गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का एक प्रसंग है जिसमें वह कहती हैं।
"मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।
"अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् ( पहले जैसा) कर दुँगी।।७।।
किसी के द्वारा दिए गये शाप को
समाप्त कर उसे समान्य करना और समान्य
को फिर वरदान में बदल देना अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना
यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा
ही सम्भव हो सका ।
अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन कभी नहीं कर सकता है।
ब्रह्मा ने अपनी सृष्टि रचना के पश्चात यह अपना प्रथम यज्ञ सत्र प्रारम्भ किया था।
जिसमें अपने द्वारा उत्पन्न चारों वर्णो के लोगों, ,देवगण, सप्तर्षि
आदि को आमन्त्रित किया था।
परन्तु ब्रह्मा के इस यज्ञ समारोह में गोपगण उपस्थित नहीं थे।
क्योंकि गोप ब्रह्मा की सृष्टि का अंग नहीं थे । ये मनुष्य गण गोलोक में ही स्वराट विष्णु ( द्विभुज धारी) कृष्ण के लोम(रोम) कूपों से उत्पन्न हैं।
विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे।
स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया था।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया।
विष्णु सनातन गोप हैं , वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
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हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोकों की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताया और तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी थी।
ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।
पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोकइस सन्दर्भ में विचारणीय है।
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"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
"
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ, धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)।
और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती रहती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवश्य अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) भी होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धर्मवत्सल,सदाचारी और सुव्रतज्ञ (अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।
गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं-
ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
"विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा, गायत्री आदि।
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अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ( वर्ण) जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति (वर्ण )भी इस संसार में है ।४३।
वैष्णव वर्ण ब्रह्मा के द्वारा निर्मित चार वर्णों से श्रेष्ठ व पृथक इसलिए है । वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत गोप लोगों का व्यवसाय गोपालन और कृषि के अतिरिक्त १-युद्ध करना - २-ज्ञान देना और ३- दीन और वञ्चितों की सेवा करना भी है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में स्वयं गोपों के नायक श्रीकृष्ण ने भोजन के उपरान्त पत्तले भी उठाईं थी और आगन्तुकों के चरणों को भी पखारा या धोया था।
अर्थात ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के सभी वर्णों के काम अकेले गोपों ने ही कर दिया था।
यदि गोप ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत होते तो गो पालक होने से नारायणीयम् सेना के योद्धा कभी नहीं होते ! क्योंकि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण के व्यक्ति के व्यवसाय ( कार्य)को कभी नहीं कर सकता है। वैष्णव वर्ण इसी कारण सभी वर्णों से श्रेष्ठ है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) के उस अविनाशी परमधाम गोलोक का सूर (ज्ञानी जन) निरन्तर दर्शन करते रहते हैं। आकाश में सूर्य के सदृश वे (भगवान्) परम व्योम में चतुर्दिक् संव्याप्त एवं प्रकाशस्वरूप विद्यमान हैं ।।१९।
पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुम्भवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।२०।
पीले वस्त्र के द्वारा कृष्ण के लिए श्वेत वस्त्र के द्वारा शूलिन ( शिव) के लिए और कौसुम्भ वस्त्र के द्वारा गौरी को लक्ष्य करके दीप- का अर्पण( दान) करना चाहिए । 4.130.२०।।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५।
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि।६।
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) स्वर्ण मण्डित सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम (गमध्यै) जाने के लिए (उश्मसि) चाहते हो। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्) उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अव भाति) प्रकाशित होता है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६॥
______
किसान शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के
शब्द कृषाण से हुई है। कृष्ण और संकर्षण कृषि संस्कृति के जनक थे। कृष्ण से ही कृषाण शब्द विकसित हुआ है।
वाचस्पत्यम् के अनुसार :
कृषाण- त्रि० कृष—वा० आनक्– कर्षके कृषिशब्दे -
आप्ते के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार :
कृषाण कृष्-आनक्-किकन् वा
(जो कृषि से सम्बन्धित कार्य करे वह किसान है)।
कृष्ण शब्द का धातुमूलक अर्थ - कृषक भी है।
स्वयं कृष्ण कहते हैं कि हम सब कृषक हैं।
श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ।२६।
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श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
हरिपरीक्षणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
भगवान ने कहा: हम गोप किसान हैं। हम सभी प्रकार के बीज बोते हैं। मैंने खेतों में कुछ मोती बोए हैं।२६।
गर्गसंहिता के इसी गिरिराज खण्ड में नन्द को भी कृषक कहा गया है।
जब एक बार कुछ गोप लोग वषभानु के दरबार में उपस्थित होकर नन्द और वृषभानु के वैभव की तुलना करते हैं- तो वे नन्द के विषय में कहते हैं।
त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥७॥
यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः ।
सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो।।८।
अनुवाद:-
यहाँ तक कि राजा नन्द के घर में भी तुम्हारे समान धन और ऐश्वर्य नहीं है।
अनेक गायों के स्वामी कृषक राजा नन्द तुम्हारी तुलना में दीन-हीन हैं।७।
हे स्वामी, यदि नन्द का पुत्र वास्तव में भगवान है, तो कृपया उसकी परीक्षा लीजिए, जिससे हम सब देखते हुए उसकी दिव्यता प्रकट हो जाएगी।८
गर्गसंहिता-खण्डः (३) (गिरिराजखण्डः)अध्यायः (६)
"श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ॥
वैदिक शब्द कृषि जो कृषि धान मूलक है उसके लिए भारोपीय परिवार में (केलस्ति) परिकल्पित है।
यह एक भारोपीय मूल का शब्द है। इसका मूल शब्द *kʷéls-e-ti (खीँचना, घसीटना)
अवेस्तन : 𐬐𐬀𐬭𐬱𐬀𐬌𐬙𐬌 (कर्शति)
फ़ारसी : کشیدن (केशिदान)
आर्मेनियन : քարշ (कर्श)
सन्दर्भ :—
आप्ते का संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष
विक्शनरी
वाचस्पत्यम्
कृषि की रोमन देवी कौन है ?
सेरेस कृषि की रोमन देवी हैं। वह उर्वरता, गेहूं और मातृ प्रेम की देवी भी हैं। उसका ग्रीक समकक्ष डेमेटर है।
सेरेस नाम का अर्थ क्या है ? फसल की रोमन देवी का नाम प्रोटो-इटैलिक शब्द, (keres) केरेस( कृषि) मूलक से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'अनाज के साथ'। यह उर्वरता, फसल, गेहूं और कृषि की देवी के रूप में उनकी भूमिका से जुड़ा है।
उसके नाम से, हमें 'अनाज' शब्द मिलता है। अंग्रेजी में, जिसका उपयोग अभी भी गेहूं और अनाज आधारित नाश्ते के भोजन का वर्णन करने के लिए दैनिक रूप से किया जाता है।
The name Cerēs stems from Proto-Italic *kerēs it's mean ('with grain, Ceres'; cf.
अनुवाद-
सेरेस नाम प्रोटो-इटैलिक *केरेस से निकला है, इसका मतलब है ('अनाज के साथ, सेरेस';।
आर्य शब्द भी हल और कृषि से जुड़ा है।
आर्य चरावाहे थे जिन्होंने कालान्तर में कृषि संस्कृति का विकास किया।
आर्य शब्द जुड़ा है अरि से
अरि आदि देव है।
विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्स्वाशितः पुनरस्तं जगायात् ॥१॥ ऋग्वेद -(१०/२८/१)
पदान्वय:- विश्वः । हि । अन्यः । अरिः । आऽजगाम । मम । इत् । अह । श्वशुरः । न । आ । जगाम ।जक्षीयात् । धानाः । उत । सोमम् । पपीयात् । सुऽआशितः । पुनः । अस्तम् । जगायात् ॥१.
ईश्वरोऽप्यरिः” [निरु० ५।७]
उपर्युक्त ईश्वर वाची अरि: शब्द कालान्तर में हरि हो गया-
संस्कृत भाषा में "आरा" और "आरि" शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु विद्यमान नहीं है।
सम्भव है कि पुराने जमाने में "अर्" धातु
रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो ।
अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ
"हल चलाना" हो।
यह भी सम्भव है कि "हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और आर्य शब्द 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है। ये कृदन्त पद हैं।
विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।
इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है। वैश्य शब्द वणिक सा वाचक नहीं है। अपितु वाणिज्य क्रिया को कालान्तर में वैश्य वृत्ति के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया।
पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है।
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।
फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि कार्य)ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नही।
कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं
गोप गो -चारण करते थे और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण ( बलराम)
दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे ।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
मनुस्मृति में वर्णन है कि "वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा। हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83
अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है ।
अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।
इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वादी वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है।
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क : पुनर् आर्य निवास: ?
आर्यों ( कृषकों) का निवास कहाँ है ? ग्रामो घोषो नगरं संवाह इति ।
ग्राम ( ग्रास क्षेत्र) घोष नगर आदि -( द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक पतञ्जलि महाभाष्य)
निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।
जैसा कि नृसिंह पुराण में वर्णन करते विधान निश्चित किया है।
दासवद्ब्राह्मणानां च विशेषेण समाचरेत् । अयाचितं प्रदातव्यम् कृषिं वृत्यर्थमाचरेत्।।११।
दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवा करे विना कुछ माँगे हुए और अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे ।।११।
(नृसिंह पुराण अध्याय 58 का 11वाँ श्लोक)
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परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है।
इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के
फिर भी व्यास स्मृति में वणिक और गोप को शूद्र रूप में वर्णन सिद्ध करता है कि द्वेष और रोष के आवेश में पुरोहित वर्णव्यवस्था की मर्यादा भी भूल गये अन्यथा वणिक् शब्द जो स्वयं वैश्य का पर्याय है। को शूद्र धर्मी न कहते !
सायद यही कारण है ।
किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।
और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनत्तमसंघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।
दृढ़ता और धैर्य पूर्वक वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है ।
किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद दूसरा कोई नहीं इस संसार में !
परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !और कोई मूल्य नहीं !
फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाले और अन्तत: वणिक को शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है ।
पणि: अथवा फनीशी जिसके पूर्वज थे
यह आश्चर्य ही है ।
किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान की रोटी से ही पेट भरते हैं ।
परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में यह वर्ण-व्यवस्था निराधार ही थी ।
किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।
किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।
"रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है ।
वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर ।
१-व्यवहर्त्ता २- वार्त्तिकः ३- वणिकः ४- पणिकः । इति राजनिर्घण्टः में ये वैश्य के पर्याय हैं ।
(आर्य' और 'वीर' शब्दों का विकास)
परस्पर सम्मूलक है । दौनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -
कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विशः स्मृतम् ॥शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा द्विजो यज्ञान्न हापयेत् ।96.28॥
(गरुड़ पुराण)
श्रीगारुणे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे याज्ञवल्क्योक्तश्राद्धनिरूपणं नाम षण्णवतितमोऽध्यायः ॥96॥
कुशल चरावाहों के रूप में सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करने वाले आर्य पशु पलक ही थे ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .
जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे ।
उसी प्रक्रिया के तहत बाद में ग्राम शब्द (पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक हो गया ।
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ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—(ग्रस् मन् )प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है । जिससे गृह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है ।
इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्रास है
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यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही है ।
हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ? विचार कर ले !
श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
अनुवाद:-
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवारूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।
पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।
Pracheen Bharat Ka Rajneetik Aur Sanskritik Itihas - Page 23 पर वर्णन है
'ऋ' धातु में ण्यत' प्रत्यय जोडने से 'आर्य' शब्द की उत्पत्ति होती है ऋ="जोतना', अत: आर्यों को कृषक ही माना जाता है । '
पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं।
"प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है ।
अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ आरि धारण करने वाला है ।
वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया
परन्तु फिर भी आर्य का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में रूढ़ होकर कर्मवीर और धर्मवीर आदि रूपों में परिभाषित हुआ दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही आज भी मौलिक गुण (प्रवृत्ति) है।
श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत:—स्वामी, गुरु और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस शब्द का व्यवहार होने लगा । छोटे लोग बड़े को जैसे, —स्त्री पति को, छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं ।
नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को आर्य या आर्यपुत्र कहती है ।
पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में हीरो (Hero) आर्य का ही रूपान्तरण है ।
आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और हल दोनों का श्रोत ऋ-अर्-हिंसागतियो: धातु प्रसिद्ध ही है।
पूर्व वैदिक काल के ईश्वर वाची अरि का एक रूपान्तरण हरि भी हुआ।
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