गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

आत्मानन्द ग्रन्थावलि-:अध्याय -९[भाग-१] एवं [ भाग-२]

सभी श्लोकों को ✍️ बनाना है 




 "अहो श्रीकृष्ण ! अस्मिन्मायानागरीयां
 को गुरूरिति मम मन्तव्यः।।
 को नेति मम कर्तव्य ।।१।

"अवगमनात्परमत: सर्वं त्यक्त्वा 
अहं भवन्तं मम गुरुं मत्वा एतत् कार्यं साधयिष्यामि ।।
कृपया मां मार्गदर्शनं कुरु त्वमेव मे गुरु मे स्वामि।।२।

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२- हे गोपेश्वर ! भवद्भ्यो विहाय न मम कश्चिद् गुरुः न कश्चिदीश्वरोऽस्मिन् कार्यभूमिः। अतः मां पादयोः स्थापयित्वा नित्यं गुरुत्वेन मार्गदर्शनं कुरु

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हे गोपेश्वर: अस्मिन् कर्मभूमौ विना त्वं मम कोपिनास्ति। मम मार्गदर्शन कुरु त्वमेव मम गुरु।। अहमास्मि ते शरणे।२।
         


 3- अहो गोपेश्वर श्री कृष्ण !  मम एकमेव निवेदनं यत् यदा यदा अहं भवन्तं स्मरामि तदा तदा भवन्तः स्वप्रियश्रीराधा सह आगच्छन्तु।  यतः भवन्तौ विना मम एकं कार्यं न सिद्ध्यति।। 


४-हे गोपेश्वर श्री कृष्ण !  त्वां विहाय मम अन्यस्य भक्तेः आवश्यकता नास्ति, यतः त्वं कालस्य निर्माता अपि च कालस्य निर्माता असि ।  अतः त्वां शरणमिच्छामि भक्तिं प्रयच्छ मे ।।


५- हे देव !  जगति सर्वाणि वस्तूनि भवतः एव सन्ति।  एतत् मनसि कृत्वा सर्वं अहङ्कारं त्यक्त्वा अस्मिन् समये यत् किमपि अर्पयामि तत् हर्षेण गृहाण ।


विशेष जानकारी- (१)
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो ते भक्त्या समर्पयामि।
भक्ते: भावेन तुभ्यं नमामि।।

 वैष्यणव यज्ञ और हवन के समय - प्रत्येक मंत्रोच्चारण के उपरांत- "ॐ श्रीकृष्णाय   समर्पयामि स्वाहा"  के साथ नैवेद्य अर्पित करें। किंतु ध्यान रहे उपरोक्त पांचों मंत्रों को किसी पुरोहित से न पढ़वा जाय और ना ही उनसे कुछ करवाया जाय क्योंकि इन मंत्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं। 

[इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है वहां से अपने संशय को दूर कर सकते हैं।]

(२)- बाकी हवन-यज्ञ के अतिरिक्त सुबह-शाम श्रीकृष्ण  पूजा, आराधना, या आरती इत्यादि के समय पांचों मंत्रों से श्रीकृष्ण का बार-बार स्तुति करें। यदि कोई भक्त संस्कृत का श्लोक नहीं पढ़ सकता तो वह मंत्रों को भक्ति भाव से हिंदी अनुवाद में पढ़कर श्रीकृष्ण की आराधना कर सकता है ऐसा करने से उसे कोई दोष नहीं होगा।

आत्मानन्द जी:
अध्याय -९
[भाग-१] ✓✓


गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश, कुल और गोत्र के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र "अत्री" है या वैष्णव।
                
इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य यादवों के जाति, वंश, कुल एवं गोत्रों की वास्तविक जानकारी देना ही है। इसको क्रमबद्ध तरीके से बताने के लिए इस अध्याय को दो भागों में बांटा गया है। जिसमें प्रथम भाग में यादवों की जातिगत विशेषताओं को बताते हुए यह बताया गया है कि गोप, गोपाल, अहीर, और यादव  एक ही जाति, वंश एवं कुल के सदस्य हैं। तथा इसके दूसरे भाग में बताया गया है कि- यादवों का मुख्य गोत्र वैष्णव गोत्र है किंतु विकल्प के रूप में यादव लोग अति गोत्र को भी मानते हैं।
 
 जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा लिखा होगा तथा थोड़ा भी व्याकरण की जानकारी रखता होगा। वह इस बात को अवश्य जानता होगा कि अहीर शब्द के पर्यायवाची - आभीर, गोप, गोपाल, यादव, गोसंख्य, गोधुक, बल्लव, घोष इत्यादि होते हैं।                             
इस सम्बन्ध में अमरकोश जो गुप्त काल की रचना है। उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं, जो इस प्रकार है-
१- गोपाल २- गोसङ्ख्य ३- गोधुक,  ४- आभीर ५- वल्लव ६- गोविन्द  ७- गोप।
         
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
                                  
श्रोत - अमरकोश  2/9/57/2/5
आभीर शब्द की ब्युत्पत्ति को देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन का वाचक है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं।
          
      
अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप अहीर होता है।
अब यहां पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस संबंध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में अहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
   किंतु हमें अहीर,आभीर, और यादव शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिंदी और संस्कृत ग्रंथों में कब कहां और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस संबंध में सबसे पहले अहीर शब्द को के बारे में जानेंगे कि हिंदी ग्रंथों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ।  इसके बाद संस्कृत ग्रंथों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहां-कहां प्रयुक्त हुआ।
अहीर शब्द का प्रयोग हिंदी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रुप से किया गया है। जैसे-
                          
 अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं। जैसे-
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।।

               
 इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रंथ  "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।

नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८

                   
अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण (सर्जक) हो, मैं चारण आप श्री हरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है। ५८

                 
 और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में लिखा है-
"सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
              
 इस प्रकार से देखा जाए तो हिंदी ग्रंथों में अहीर शब्द का प्रयोग केवल यादव, गोप, घोष, और ग्वाला के लिए ही सामान्य रुप से प्रयुक्त किया जाता है, अन्य किसी के लिए नहीं।
अब यह जानना है कि संस्कृत व पौराणिक ग्रंथों में "आभीर" शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से अहीर, गोप, और यादव, के

लिए कहां-कहां किया गया है। ध्यान रहे इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि आभीर संस्कृत शब्द है, जिसका तद्भव रुप अहीर है। तो जाहिर है कि अहीर शब्द संस्कृत में प्रयुक्त नहीं होगा। उसके स्थान पर "आभीर" शब्द ही प्रयुक्त होगा।
जैसे -:  
गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय ७ के श्लोक संख्या- १४ में भगवान श्री कृष्ण और नंदबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय किया जब संधि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी
शिशुपाल के यहां गए। किंतु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहा कि-
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।। १४

प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।। १६

अनुवाद -
•  वह (श्रीकृष्ण) पहले नंद नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। १४
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमंडल को यादवों से शून्य कर देने के लिए  कुशस्थली पर चढ़ाई करूंगा। १६

        
इन उपर्युक्त दो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण सहित संपूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
       
इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- २० के श्लोक - ६ और ७ में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे।   
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।। ६  

यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।। ७
             
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक। ६
        
 •  अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।

     
इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-

"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः । 16

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा । 17

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। 18
     
                 
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं। १७-१७
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८

▪️ इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों  के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

        
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
 उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
            
ध्यान रहे ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों को क्षत्रिय होने की भी पुष्टि करती हैं।
            
 इन उपरोक्त श्लोकों से आभीर जाति का प्राचीनतम स्थिति का पता चलता है। ध्यान रहे अहीर का पर्यायवाची शब्द गोप होता है।

                   
 इसी तरह से जब भगवान श्री कृष्ण  इंद्र की पूजा बंद करवा दी, तब इसकी सूचना जब इंद्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्री कृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय -२५ के श्लोक - ३ से ५ में मिलता है। जिसमें इंद्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।। ३

वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ।। ५
                      
अनुवाद - ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमंड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३
•   कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५

इन उपरोक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
                        
इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- ६२ के
श्लोक ३५ में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम जी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४
              
अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
             
इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए गर्ग संगीता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में रखा।
     
और अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द का ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें,  ग्वाला कहें,  यादव कहें ,सब एक ही बात है।
     
जैसे भगवान श्री कृष्ण को तो सभी लोग जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया और गोप कुल में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया और गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल और यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय - (७) में बताया जा चुका है।

            
 भगवान श्री कृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सभी लोगों ने श्री कृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना। किंतु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्री कृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से संबोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय 74 के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।। १८
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।। १९
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः।। २०
             
                  
अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
•  यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं। १९
•  यह सारा विश्व श्री कृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्री कृष्णा ही अग्नि, आहुति और मंत्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
                 भगवान श्री कृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४
             अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४

इस श्लोक के अनुसार यदि शिशुपाल के इस कथन पर  विचार किया जाए तो वह श्री कृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहां तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्री कृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८
           अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
           अतः शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कहा। किंतु वह भगवान श्री कृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
                      इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में

भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-

स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१

अनुवाद-  राजा पौंड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव!ओ गोपाल ! इस समय तुम कहां चले गए थे? २६
• तब भगवान श्री कृष्ण ने पौंड्रक से कहा - राजन ! मैं सर्वदा गोप हूं , अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूं , संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं।

देखा जाए तो इन उपयुक्त दो श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है।
• पहला यह कि- राजा पौंड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव और गोप दोनों शब्दों से संबोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप एक ही होते हैं।
• दूसरा यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने को गोप कहते हुए यह सिद्ध करते हैं कि मैं गोप हूं।
• तीसरा यह कि- गोप ही एक ऐसी जाती है जो संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
    
             इस प्रकार से अध्याय- (९) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।
      अब इसके अगले अध्याय- (१०) में जानकारी दी गई है कि-

अध्याय- (९) 

[भाग- २ (|) ]✓✓

गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव ?

      
         यादवों के अत्रि गोत्र की वास्तविकता 
                 ________   ________

यादवों को अपना वास्तविक गोत्र जानने से पहले गोत्रों की उत्पत्ति को जानना होगा की गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं ?
  तो इस संबन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रंथों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से उन चार ऋषियों से बतायी गयी है जो इन्द्रिय संयम और तप से ही वे वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे। इसकी पुष्टि- महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- २९६ के श्लोक- १७ से होती है। जिसमें  - राजा जनक पराशर ऋषि से प्रश्न पूछते हैं-

मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।

अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। 
          अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। 
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं । महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।

जनक ने पूछा - वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्‍पन्‍न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ। आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्‍पन्‍न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्‍मदाता पिता ही नूतन जन्‍म धारण करता है।

ऐसी दशा में प्रारम्‍भ में ब्रह्माजी से उत्‍पन्‍न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्‍म हुआ है, तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?

तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि 
              "पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।

सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।

अनुवाद:-
जिससे जो जन्‍म लेता है, उसी का वह स्‍वरूप होता है तथापि तपस्‍या की न्‍यूनता के कारण लोग निकृष्‍ट जाति को प्राप्‍त हो गये हैं । उत्‍तम क्षेत्र( खेत) और उत्‍तम बीज से जो जन्‍म होता है, वह पवित्र ही होता है।

यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्‍नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्‍न संतान की ही उत्‍पत्ति होती है । 

धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।

तात ! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्‍पत्ति हुई।

इनसे भिन्‍न जो दूसरे-दूसरे मनुष्‍य हैं, वे इन्‍हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्‍पन्‍न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं।     इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्‍ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्‍म दिया है, तब मनुष्‍यों के भिन्‍न-भिन्‍न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्‍यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।

ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्‍म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्‍पन्‍न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्‍व को कैसे प्राप्‍त हुए ? पराशर जी ने कहा - राजन ! तपस्‍या से जिनके अन्‍त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्‍मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्‍पत्ति होती है, अथवा वे स्‍वेच्‍छा से जहाँ-कहीं भी जन्‍म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि से निकृष्‍ट होने पर भी उसे उत्‍कृष्‍ट ही मानना चाहिये । नरेश्‍वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्‍पन्‍न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया ।

      उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारंभिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था। उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अंत में आते-आते ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों- अंगिरा, कश्

यप, वसिष्ठ और भृगु  से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी ने किसी रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धांत बनाया जो तीन सिद्धांतों पर आधारित हैं।
        
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनी जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करते हैं। 

ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर संतान पूरक गोत्र कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।

(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात उनकी उत्पत्ति किससे हुई है का पता नहीं। ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।

(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यंत किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त संबंध का संकेत करता है। 
 
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त संबंध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र-  गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा जी या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।

इस संबंध में बतादें कि- संपूर्ण ब्रह्मांड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई। 

इसलिए श्रीकृष्ण ( स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।  तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
 किंतु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश  पौराणिक ग्रंथों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।

 जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्मे ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर  यादवों में कूद पड़े ? यह एक विचारणीय विषय है।

इस संबंध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कहना है कि -
"गोप लोग श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ऋषि अत्रि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"

फिर भी "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि संपन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त संबंध नहीं है"।

सर्वप्रथम गोपों की इस परम्परा का प्रारंभ भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर में अहीर कन्या

देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मंत्रोच्चारण से संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को संपन्न का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को संपन्न कराना था।

अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।

फिर आगे चलकर गोपों की इसी परम्परा को निर्वहन करते हुए भू-तल पर गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण संग श्रीराधा का विवाह भाण्डीर वन में अत्रि के पिता ब्राह्मण देवता ब्रह्मा द्वारा ही संपन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

"पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।

हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः।।१३०।

अनुवाद- १२०-१३०
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मंत्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।       

अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - गोपों का वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" केवल पूजा पाठ, यज्ञ और विवाह इत्यादि तक ही सीमित है। अत्रि- गोत्र में गोपों के रक्त संबंधों को स्थापित करना उनके मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के समान होगा।

क्योंकि "गोत्र उत्पत्ति सिद्धांत के अनुसार यह मान्यता है की प्रारम्भिक काल में जिनकी उत्पत्ति जिससे होती है उसी के नाम पर उसका गोत्र निर्धारित होता है"। इस सिद्धान्त के अनुसार यादवों का "अत्रि गोत्र" तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति ऋषि अत्रि से हुई होती।

किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रारंभिक काल में यादवों (गोप और गोपियों) की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा से उसी समय हो जाती है जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पन्न होते हैं। इस बात को विस्तार पूर्वक अध्याय- (४) में बताया गया है कि- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोपों की उत्पत्ति कैसे हुई है।

फिर भी इस संबंध में कुछ साक्ष्य यहां देना चाहेंगे कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से ही हुई है।

(१)- पहला साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-

"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।

अनुवाद -• श्रीराधा के रोम कूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।

(२)- दूसरा साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।

आविर्बभूव रूपेण   वेषेणैव  च  तत्समः। ४२।

अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-

"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।

अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

(४)- चौथा साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत होगा।
       
इस संबंध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी  का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"

इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।

मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-

विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।

दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।। २७।

अनुवाद- २६-२७
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी संपूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।

इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।

भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।। ९०।

ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो  यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।। ९१।

अनुवाद- ९०-९१
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
 
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से।
 तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी संभव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किंतु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
 
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर  ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए।

                        ‌कृ.प.उ.

अध्याय- (९)

[भाग- २ (||) ]✓✓


         ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से संबंधित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-

               । मत्स्य उवाच ।
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।

उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।

अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः ।।३।

तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।

छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।

परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।

वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।

अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।
आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।

धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।

इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।

अनुवाद- १-११
मत्स्यभगवान ने  कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रिके वंशके उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्रकर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लैाणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दोगेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
   
( विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का रहा)
अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं-
अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियोंके अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता।
राजन्! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंशमें उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नामसंकीर्तनमात्र मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥ १-११

इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया जाता है उनका एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से संबंधित है। 

ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" पर कुठाराघात करने के ही समान है।

ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चंद्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चंद्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों वे चंद्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? अर्थात् यह संभव नहीं है।
    जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चंद्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।

(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोधकशायी विष्णु भी कहा जाता है इन्हीं गर्भोधकशायी विष्णु के अनंत रोम कूपों से अनंत ब्रह्मांडों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चंद्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्मांडों में ब्रह्मा जी उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है। द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के  दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चंद्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ? 

अर्थात यह संभव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति स

े बहुत पहले सूर्य और चंद्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। कुल मिलाकर पौराणिक ग्रंथों  में ऋषि अत्रि से चंद्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।

 विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चंद्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि-  श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ११ के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्मांड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -

"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।
              (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)

अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूं।१९।
  
 इसी प्रकार से विराट विष्णु से चंद्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -

चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।

अनुवाद- महा विष्णु के मन से चंद्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।

 अतः उपरोक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चंद्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।

और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चंद्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।

 ( विशेष) - किंतु ध्यान रहे चंद्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी माहा मूर्खता होगी।

चंद्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर पूजा करते हैं। इसी परंपरा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चंद्रवंश का उदय हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चंद्रवंश के अंतर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति यदुवंश आदि में ही अवतरित होते हैं।
      
गोप कुल में अवतरित होने के संबंध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (८) में किया जा चुका है। वहां से विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।

 इन उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र और वर्ण  दोनों ही "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त संबंधों को संकेत करता है। तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त संबंध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पूरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना है।

इस प्रकार से अध्याय- (९) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।

अब इसके अगले अध्याय- (१०) में गोपकुल के श्रीकृष्ण एवं राधा सहित पुरुरवा और उर्वशी, आयुष, नहुष,ययाति इत्यादि महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है।

बलः शरीरं मानुष्यं त्यक्त्वा धाम जगाम ह ।
देवाँस्तत्रागतान्दृष्ट्वा हरिरंतरधीयत ॥ १३ ॥

व्रजे गत्वा हरिर्नंदं यशोदां राधिकां तथा ।
गोपान्गोपीर्मिलित्वाऽऽह प्रेम्णा प्रेमी प्रियान्स्वकान् ॥ १४।

अनुवाद - बलराम जी मानव शरीर को छोड़कर अपने धाम को चले गए। वहां देवताओं को आया देख श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गए। ब्रज में जाकर श्रीहरि नन्द, यशोदा, राधिका तथा गोपियों सहित गोपों से मिले और उन प्रेमी भगवान ने अपने प्रिय जनों से प्रेम पूर्वक इस प्रकार कहा। १३-१४

      किंतु भगवान श्रीकृष्ण के अगले कथन को बताने से पहले यहां कुछ बताना चाहुंगा कि- देवताओं के आने पर गोपेश्वर श्रीकृष्ण क्यों अंतर्धान हो गए ? 

तो उस समय गोपेश्वर श्रीकृष्ण तीन कारणों से देवताओं के आने पर अंतर्धान हो गए।
(१)- पहला कारण यह कि - गोलोक के आवागमन की अलौकिक घटनाक्रम में गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्मिलित नहीं हो सकता। इस लिए भगवान श्रीकृष्ण वहां से अंतर्धान हो गये।
(२)- दूसरी कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण भूमि का भार दूर करने के लिए गोलोक से अपने गोप और गोपियों के साथ आते हैं और कार्य पूर्ण हो जाने पर भगवान उन्हीं गोप और गोपियों को लेकर पुनः गोलोक को चले जाते हैं। इस घटनाक्रम से देवताओं का कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए वहां पर देवताओं के आनें पर भगवान श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गये।
(३)- तीसरी कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण सहित गोपों के इस आवागमन की धटना गुप्त एवं रहस्य पूर्ण है। इसे केवल गोप और गोपियां ही जानते हैं। और इस घटना को गोपेश्वर श्री कृष्ण सदैव गुप्त ही रखना चाहते हैं। इसीलिए गोपेश्वर श्री कृष्ण देवताओं के आने पर वहां से अंतर्धान हो गए।
      उपरोक्त तीनों कारणों से भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविकता को गोपों के अतिरिक्त पूर्ण रूप से न तो देवता और न ही ऋषि-मुनी जानते हैं। 
इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- ९४ के श्लोक- ८२ और ८३ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।                                         
अनुवाद - ८२-८३
श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। 
•  ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८३।
                   
        इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -

गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो। ९।

        यहीं कारण है कि - पुराणों में भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन के प्रसंग में श्रीकृष्ण को बहेलिए से मरवा कर गोलोक भेजनी की हास्यास्पद कथा लिखी गई है।
        
अब हम पुनः अपने मूल प्रसंग पर आते हैं- वहां उपस्थित नन्द आदि गोपों से भगवान कहे-



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