बुधवार, 18 दिसंबर 2024

योगेश रोहि आत्मानन्द: अध्याय- ९ [भाग-२]गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव।


अध्याय- ९ [भाग-२]संशोधित


गोप, गोपाल, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं। तथा इनका वास्तविक गोत्र अत्रि है या वैष्णव ?
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         यादवों के अत्रि गोत्र की वास्तविकता 
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यादवों को अपना वास्तविक गोत्र जानने से पहले गोत्रों की उत्पत्ति को जानना होगा की गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं ?

        
तो इस संबन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रंथों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से चार ऋषियों से बतायी गयी है।

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तो इस संबन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रंथों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से उन चार ऋषियों से बतायी गयी है जो इन्द्रिय संयम और तप से ही वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे।

महाभारत शान्ति पर्व  में राजा जनक और पराशर का संवाद  है जिसमें  - राजा जनक पराशर ऋषि से  प्रश्न करते हैं  

 देखें  इसकी पुष्टि के लिए- महाभारत शान्ति पर्व का अध्याय- (285) के श्लोक- (17)  व (18 ) से होती है।

मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।

अनुवाद: - हे राजन् सबसे पहले मूलगोत्र केवल चार ही थे अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु।१७।

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
अनुवाद:-अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं ।18।

महाभारत के शान्ति पर्व के इसी अध्याय ( 285) के तृतीय श्लोक से भी जाति स्वरूप की सत्यता सिद्ध होती है।

            "पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।(महाभारत  — 12/.285/.3)

अनुवाद:-पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि जिससे जो जन्‍म लेता है, उसी का वह स्‍वरूप होता है तथापि तपस्‍या की न्‍यूनता के कारण लोग निकृष्‍ट जाति को प्राप्‍त हो गये हैं।३।

ऐसी दशा में प्रारम्‍भ में ब्रह्माजी से उत्‍पन्‍न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्‍म हुआ है, तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?

तब पराशरजी ने  इसी प्रसंग में पुन: राजा जनक से कहा था। हाँ- महाराज ! यह ठीक है कि 
              
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति सम्भवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।

अनुवाद:-
उत्‍तम क्षेत्र ( खेत) और उत्‍तम बीज से जो जन्‍म होता है, वह पवित्र ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्‍नकोटि ( घटिया किस्म) का हो तो उससे निम्‍न संतान की ही उत्‍पत्ति होती है ।४। 

धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।

तात ! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्‍पत्ति हुई।
(बम्बई निर्णय सागर प्रेस- संस्करण)


गोत्र का आधार मुख्य रूप से तीन प्रकार से निर्धारित होता है।
(१) पुरोहित के आधार पर -
(२) किसी मूल स्थान के आधार पर-
(३) किसी पूर्वज के आधार पर-


महाभारत - शान्तिपर्व-अध्याय- (285) में वर्णित
इन चार ऋषियों के अलावा आवश्यकतानुसार भी अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारकों में शामिल कर लिया जाता है।


और ये सभी किसी ने किसी रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए हैं अर्थात ये सभी ऋषि ब्रह्मा जी के ही प्रारम्भिक उत्पाद (product) सन्तान हैं।
        
इन ऋषि मुनियों से उत्पन्न गोत्र भी तीन प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनी जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करते हैं। 

ऐसे गोत्र को (संतान पूरक गोत्र) कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र को स्वीकार करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्र का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।

(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात उनकी उत्पत्ति किससे हुई है का पता नहीं। ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। 

यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में जो सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।

(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यंत किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
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ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त संबंध का संकेत करता है। 
 
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त संबंध नहीं होता है।
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इस तरह का गोत्र-  गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि ये गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है।

इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं।


इस संबंध में बतादें कि- संपूर्ण ब्रह्मांड में दो ही शक्तियों द्वारा ही सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई। 

इसलिए श्रीकृष्ण ( स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।  तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
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 किंतु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश  पौराणिक ग्रंथों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।

 जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हो चुकी थी।

तो फिर गोपों के बाद जन्मे ऋषि अत्रि कैसे यादवों ( गोपों) के गोत्र प्रवर्तक हुए और अचानक अपने नाम का गोत्र लेकर यादवों में कूद पड़े ?

यह विचारणीय विषय है।
इस संबंध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कहना है कि - "गोप लोग श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ऋषि अत्रि से। 

इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है। 

फिर भी "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि संपन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त संबंध नहीं है"।

सर्वप्रथम गोपों की इस परम्परा का प्रारंभ भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त  ही हुआ।

 जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मंत्रोच्चारण से संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
 

अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।

फिर आगे चलकर गोपों की इसी परम्परा को निर्वहन करते हुए भू-तल पर गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण संग श्रीराधा का विवाह भाण्डीर वन में अत्रि के पिता ब्राह्मण देवता ब्रह्मा द्वारा ही संपन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

"पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।


हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः।।१३०।

अनुवाद- १२०-१३०
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मंत्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।       

अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - गोपों का वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" केवल पूजा पाठ, यज्ञ और विवाह इत्यादि तक ही सीमित है। अत्रि गोत्र में गोपों के रक्त संबंधों को स्थापित करना उनके मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के समान होगा।

क्योंकि "गोत्र उत्पत्ति सिद्धांत के अनुसार यह मान्यता है की प्रारम्भिक काल में जिनकी उत्पत्ति जिससे होती है उसी के नाम पर उसका गोत्र निर्धारित होता है"। इस सिद्धान्त के अनुसार यादवों का "अत्रि गोत्र" तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति ऋषि अत्रि से होती।

किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रारंभिक काल में यादवों (गोप और गोपियों) की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा से उसी समय हो जाती है जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पन्न होते हैं। इस बात को विस्तार पूर्वक अध्याय- (४) में बताया गया है कि- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोपों की उत्पत्ति कैसे हुई है।

फिर भी इस संबंध में कुछ साक्ष्य यहां देना चाहेंगे कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से ही हुई है।

(१)- पहला साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-

"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।

अनुवाद -• श्रीराधा के रोम कूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।

(२)- दूसरा साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण   वेषेणैव  च  तत्समः। ४२।

अनुवाद- ४०-४२

• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-

"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।


अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

(४)- चौथा साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत होगा।
       
इस संबंध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी  का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"

इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।

मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-

विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।


दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।। २७।


अनुवाद- २६-२७
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी संपूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।

इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।

भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।। ९०।

ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो  यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।। ९१।

अनुवाद- ९०-९१
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
 
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से।
 तब ऐसे में गोपों का गोत्र "अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी संभव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किंतु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
 
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर  ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए।

ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से संबंधित है नकि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित । इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११)  से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-

               ।मत्स्य उवाच।
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।

उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।

अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः ।।३।

तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।

छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।

परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।

वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।

अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।
आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।

धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।

इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।


अनुवाद- १-११
मत्स्यभगवान ने  कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रिके वंशके उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्रकर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लैाणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दोगेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
   
( विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का रहा)
अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं-
अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियोंके अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता।
राजन्! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंशमें उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नामसंकीर्तनमात्र मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥ १-११

इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया जाता है उनका एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से संबंधित है। 

ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" पर कुठाराघात करने के ही समान है।

ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चंद्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चंद्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों वे चंद्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं।   
    
जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चंद्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।

(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है इसलिए उन्हें गर्भोधकशायी विष्णु भी कहा जाता है इन्हीं गर्भोधकशायी विष्णु के अनंत रोम कूपों से अनंत ब्रह्मांडों की उत्पत्ति हुई और उनमें उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए और उतने ही सूर्य और चंद्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्मांडों में ब्रह्मा जी उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है। 

उन्हीं की सृष्टि रचना में उनसे  दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चंद्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ? 

अर्थात यह संभव नहीं है क्योंकि ब्रह्मा की उत्पत्ति से भी बहुत पहले सूर्य और चंद्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है) कुल मिलाकर पौराणिक ग्रंथों  में ऋषि अत्रि से चंद्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मणत्व वर्णव्यवस्था में सम्मिलित  करने के  अतिरिक्त और कुछ नहीं था।

 विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चंद्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि-  श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ११ के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्मांड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -

"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।

              (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)

अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूं।१९।
  
 इसी प्रकार से विराट विष्णु से चंद्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद से भी होता है जिसमें लिखा गया है कि -

चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।


अनुवाद- महा विष्णु के मन से चंद्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।

 अतः उपरोक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चंद्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।

और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चंद्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।

 ( विशेष) - किंतु ध्यान रहे चंद्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न नहीं उत्पन्न हो सकते।)

चंद्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर पूजा करते हैं। इसी परंपरा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चंद्रवंश का उदय हुआ।*****"

और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चंद्रवंश के अंतर्गत वैष्णव वर्ण के  अभीर जाति यदुवंश आदि में  ही अवतरित होते हैं।
      
गोप कुल में अवतरित होने के संबंध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (८) में किया जा चुका है। वहां से विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।

 इन उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र और वर्ण  दोनों ही "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त संबंधों को संकेत करता है।

तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त संबंध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पूरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना है।


                                              

 
अत्रेर्वशं प्रवक्ष्यामि तृतीयस्य प्रजापतेः॥२/८/७३॥

"अनुवाद:-

मैं तीसरे प्रजापति अत्रि के वंश का वर्णन करूँगा।७३।

तस्य पत्न्यस्तु सुन्दर्यों दशैवासन्पतिव्रताः।
भद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः॥ २/८/७४॥

"अनुवाद:-

उन अत्रि की दस सुन्दर पत्नियाँ थीं जो पतिव्रता थीं। वे सभी दस दिव्य कन्या घृतासी से उत्पन्न भद्राश्व की संतान थे।७४।

भद्रा शूद्रा च मद्रा च शालभा मलदा तथा ।
बला हला च सप्तैता या च गोचपलाः स्मृताः ॥ २/८/७५॥

"अनुवाद:-

भद्रा , शूद्रा , मद्रा , शालभा , मलदा , बला और हला । ये सात (बहुत महत्वपूर्ण थीं) और उनके जैसे अन्य। गोचपला ।७५।

तथा तामरसा चैव रत्नकूटा च तादृशः ।
तत्र यो वंशकृच्चासौ तस्य नाम प्रभाकरः ॥ २/८/७६ ॥

"अनुवाद:-

ताम्रसा और रत्नकुटा भी उसी प्रकार थीं उनके वंश को कायम रखने वाले उनके पुत्रों में प्रभाकर नाम का एक वंशज था ।७६।

********
मद्रायां जनयामास सोमं पुत्रं यशस्विनम् ।
स्वर्भानुना हते सूर्ये पतमाने दिवो महीम् ॥ २/८/७७॥

"अनुवाद:-

उन प्रभाकर अत्रि ने मद्रा नामक पत्नी से प्रसिद्ध पुत्र सोम (चंद्रमा) को जन्म दिया। जब सूर्य पर स्वर्भानु ( राहु ) का प्रहार हुआ, जब वह सूर्य  स्वर्ग से पृथ्वी पर गिर रहे था।77। 

तमोऽभिभूते लोकेऽस्मिन्प्रभा येन प्रवर्त्तिता।
स्वस्ति तेस्त्विति चोक्तो वै पतन्निह दिवाकरः॥ २/८/७८॥

"अनुवाद:-

और जब यह संसार अंधकार से घिर गया, तब उन्हीं (अर्थात् अत्रि) के द्वारा ही प्रकाश(प्रभा) उत्पन्न हुआ। डूबते हुए सूरज को भी कहा गया “तुम्हारा कल्याण हो।78।

ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य न पपात दिवो महीम् ।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः॥ २/८/७९॥

"अनुवाद:-

उस ब्राह्मण ऋषि के कथन के कारण, वह (सूर्य) स्वर्ग से पृथ्वी पर नहीं गिरा।  जिनके द्वारा गोत्रों में श्रेष्ठ गोत्र अत्रि का प्रारम्भ हुआ।79।

यज्ञेष्वनिधनं चैव सुरैर्यस्य प्रवर्तितम् ।
स तासु जनयामास पुत्रानात्मसमानकान् ॥ २/८/८० ॥

"अनुवाद:-

उन्होंने ही यज्ञ के दौरान सुरों की मृत्यु का निवारण किया । उन्होंने उन (दस अप्सराओं) से अपने समान पुत्र उत्पन्न किए।८०।


दश तान्वै सुमहता तपसा भावितः प्रभुः ।
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगाः ॥ २/८/८१।।

"अनुवाद:-

महान तप से पवित्र हुए भगवान ने दस पुत्र उत्पन्न किये। वे स्वस्तित्रेय नाम से विख्यात ऋषिगण वेदों में पारंगत थे।।८१।


तेषां द्वौ ख्यातयशसौ ब्रह्मिष्ठौ सुमहौजसौ ।
दत्तो ह्यनुमतो ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुजः ॥ २/८/८२॥

"अनुवाद:-

उनमें दो बहुत प्रसिद्ध थे। वे ब्रह्म में बहुत रुचि रखते थे और महान आध्यात्मिक शक्ति वाले थे।दत्त को सबसे बड़ा माना जाता है, दुर्वासा उनके छोटे भाई थे। ८२।

यवीयसी सुता तेषामबला ब्रह्मवादिनी ।
अत्राप्युदाहरन्तीमं श्लोकं पौराणिकाः पुरा ॥ २/८/८३॥

"अनुवाद:-

सबसे छोटी एक पुत्री थी जिस महिला ने ब्रह्मज्ञान की व्याख्या की थी। इस संदर्भ में पुराणों के जानकार लोग इस श्लोक का हवाला देते हैं।८३।


अत्रेः पुत्रं महात्मानं शान्तात्मानमकल्मषम् ।
दत्तात्रेयं तनुं विष्णोः पुराणज्ञाः प्रचक्षते ॥२/८/८४॥

"अनुवाद:-

पुराणों के जानकार कहते हैं कि अत्रि के महान् पुत्र दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार हैं। वे अपने हृदय में शान्त और पापों से मुक्त हैं।८४।

तस्य गोत्रान्वयाज्जाताश्चत्वारः प्रथिता भुवि ।
श्यावाश्वा मुद्गलाश्चैव वाग्भूतकगविस्थिराः ॥ २/८/८५॥

"अनुवाद:-

उनके (अत्रि) वंशजों में चार लोग पृथ्वी पर विख्यात हैं - श्यावाश्व , मुद्गल , वाग्भूतक और गविष्ठिर ।८५।


एतेऽत्रीणां तु चत्वारः स्मृताः पक्षा महौजसः।
काश्यपो नारदश्चैव पर्वतोऽरुन्धती तथा ॥ २/८/८६॥

"अनुवाद:- 

निम्नलिखित चार भी अत्रि वंश के ही माने जाते हैं । वे बहुत शक्तिशाली हैं। वे हैं कश्यप , नारद , पर्वत और अरुंधति ।८६।

सन्दर्भ:-

श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यभागे तृतीय उपोद्धातपादे ऋषिवंशवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥

अत्रि का वंश- ब्रह्माण्ड पुराण मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद



    

                  "ऋषय ऊचुः
कथं सप्तर्षयः पूर्वमुत्पन्नाः सप्तमनसाः ।
पुत्रत्वे कल्पिताश्चैव तन्नो निगद सत्तम ॥२/१/१३॥****
                   'ऋषियों ने कहा :—
हे श्रेष्ठ सूत ! कृपया हमें यह बताइए कि किस प्रकार सप्तर्षि  जो पहले ब्रह्मा के मानसिक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे, पुनः  कैसे ब्रह्मा द्वारा उनके ही पुत्र मान लिए गये।13।


                    "सूत उवाच
पूर्वं सप्तर्षयः प्रोक्ता ये वै स्वायंभुवेऽन्तरे । 
मनोरन्तरमासाद्य पुनर्वैवस्वतं किल ॥२।२/१/१४॥
                     "सूत ने कहा :-
वे सात ऋषि ( सप्तर्षि ) जो स्वायंभुव मन्वन्तर में विद्यमान बताए गए हैं, वैवस्वत मन्वन्तर में पहुँचने पर  ।१४।


भवाभिशाप संविद्धा अप्राप्तास्ते तदा तपः ।
उपपन्ना जने लोके सकृदागमनास्तु ते ॥२/१/१५॥
भव (अर्थात शिव) के शाप से अभिभूत हो कर मृत्यु को प्राप्त गए थे। वे तपस्या की (पूर्ववर्ती) शक्ति प्राप्त करने में असमर्थ थे।
वे जनलोक पहुँचने के बाद वहीं रुक गए जहाँ से वे केवल एक बार लौट सकते थे।१५।

ऊचुः सर्वे सदान्योन्यं जनलोके महार्षयः।
एत एव महाभागा वरुणे विततेऽध्वरे ॥२/१/१६॥*****
वे महर्षि जनलोक में ही एक दूसरे से निरंतर कहने लगे - "जब चाक्षुष मन्वन्तर में वरुण का पवित्र यज्ञ पूर्णरूप से सम्पन्न होगा, तब हम सब इन महान आत्माओं के रूप में उसी में जन्म लेंगे। १६।

सर्वे वयं प्रसूयामश्चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।
पितामहात्मजाः सर्वे तन्नः श्रेयो भविष्यति॥ २/१/१७॥
हम सब पितामह (अर्थात ब्रह्मा) के पुत्रों के रूप में ही माने जाऐंगे। यह हमारे महान यश के लिए अनुकूल होगा।१७।

एवमुक्त्वा तु ते सर्वे चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।
स्वायंभुवेन्तरे प्राप्ताः सृष्ट्यर्थं ते भवेन तु॥ २/१/१८॥
**********
ऐसा कहकर, वे सप्तर्षि, जो स्वायंभुव मन्वन्तर में भव ( शिव) द्वारा शापित हुए थे, आगे की सृष्टि के लिए चाक्षुष मन्वन्तर में जन्मे।१८।

जज्ञिरे ह पुनस्ते वै जनलोकादिहागताः ।
देवस्य महतो यज्ञे वारुणीं बिभ्रतस्तनुम् ॥२/१/१९॥
****
वे जनलोक से लौटकर यहाँ पुनः जन्मे। वे उस महान् देव के यज्ञ में जन्मे, जिन्होंने वरुण का भौतिक रूप धारण किया था।१९।

हमने सुना है कि ऋषियों का दूसरा जन्म हुआ, जैसे ब्रह्मा ने सन्तान प्राप्ति की इच्छा से अपने वीर्य से ही अग्नि में होम(हवन) किया था।२०।

भृग्वङ्गिरा मरीचिश्च पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
अत्रिश्चैव वसिष्ठश्च ह्यष्टौ ते ब्रह्मणः सुताः ॥ २/१/२१ ॥
ब्रह्मा के आठ पुत्र थे—अर्थात् भृगु, अंगिरस, मरीचि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि और वशिष्ठ..।२१।

उनके इस विशाल यज्ञ में सभी देवता आये हुए थे। यज्ञ के विभिन्न सहायक साधन भी उपस्थित थे। वषट्कार वहाँ साकार रूप में उपस्थित थे। २२।

मूर्त्तिमन्ति च सामानि यजूंषि च सहस्रशः।
ऋग्वेदश्चाभवत्तत्र यश्च क्रमविभूषितः॥२/१/२३॥
साम मंत्र और हजारों यजुर् मंत्र भी साकार रूप में वहाँ उपस्थित थे। ऋग्वेद भी वहाँ क्रम से विभूषित था।२३।

यजुर्वेदश्च वृत्ताढ्य ओङ्कारवदनोज्ज्वलः।
स्थितो यज्ञार्थसम्पृक्तः सूक्तब्राह्मणमन्त्रवान्॥ २/१/२४॥

"अनुवाद:-24. यजुर्वेद अपने मुख (मुख) के रूप में ओंकार से प्रकाशित (प्रासंगिक) छन्दों से संपन्न था, जो सूक्तों , ब्राह्मणों और मंत्रों के साथ यहां स्थित था तथा यज्ञ के अर्थों (उद्देश्यों) के साथ मिश्रित था ।


*******”
सामवेदश्च वृत्ताढ्यः सर्वगेयपुरः सरः ।
विश्वावस्वादिभिः सार्द्धं गन्धर्वैः सम्भृतोऽभवत् ॥ २/१/२५ ॥
"अनुवाद:-25. सामवेद के प्रमुख , प्रासंगिक छन्दों से संपन्न तथा सभी मन्त्र -गीतों (जो गाये जा सकते थे) से युक्त , विश्वावसु तथा अन्य गन्धर्वों के साथ वहाँ उपस्थित थे

ब्रह्मवेदस्तथा घोरैः कृत्वा विधिभिरन्वितः ।
प्रत्यङ्गिरसयोगैश्च द्विशरीरशिरोऽभवत् ॥२/१/२६॥
"अनुवाद:-ब्रह्मवेद ( अथर्ववेद ) भयंकर अनुष्ठानों के साथ (वहां उपस्थित था। प्रत्यंगिरसों के साथ होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानो उसके दो शरीर और दो सिर हों। [3]
अवि में दो प्रकार के मंत्र होते हैं: शुभ मंत्र ( अथर्वण ) और भयंकर मंत्र जो शत्रुओं के नाश के लिए शाप से जुड़े होते हैं ( अंगिरस )। इसलिए अवि को दो शरीर और सिर वाला कहा जाता है।
_________

लक्षणा विस्तराः स्तोभा निरुक्तस्वर भक्तयः ।
आश्रयस्तु वषट्कारो निग्रहप्रग्रहावपि ॥२/१/२७॥
"अनुवाद:-निम्नलिखित ( वेद के पाठ के बारे में तकनीकी विवरण ) मौजूद थे (अपने शारीरिक रूपों में): लक्षणा (दूसरे के लिए एक समानार्थी शब्द का उपयोग), विस्तार (विस्तार, बढ़ाव), स्तोभ (सामन में मंत्रोच्चार), निरुक्त (व्युत्पत्ति संबंधी व्याख्या), स्वरभक्ति (ध्वन्यात्मक रूप से प्रविष्ट स्वर-ध्वनि) आश्रय , वषटकार , निग्रह और प्रग्रह ( संधि - नियमों के अधीन नहीं आने वाला स्वर )।


दीप्तिमूर्त्तिरिलादेवी दिशश्चसदिगीश्वराः ।
देवकन्याश्च पत्न्यश्च तथा मातर एव च ॥२/१/२८॥
"अनुवाद:-. (निम्नलिखित देवता वहाँ साक्षात् उपस्थित थे) तेजस्वी रूप वाली देवी इला (पृथ्वी), दिशाएँ और दिशा के स्वामी, देवकन्याएँ , देवताओं की पत्नियाँ और माताएँ।


आययुः सर्व एवैते देवस्य यजतो मखे ।
मूर्तिमन्तः सुरूपाख्या वरुणस्य वपुर्भृतः ॥ २/१/२९ ॥
जब भगवान वरुण भौतिक शरीर धारण करके यज्ञ कर रहे थे, तब ये सभी अपने सुंदर देहधारी स्वरूप में यज्ञ में पहुंचे। वे सभी सौंदर्य और तेज से संपन्न थे।२९।
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स्वयंभुवस्तु ता दृष्ट्वा रेतः समपतद्भुवि ।
ब्रह्मर्षिभाविनोऽर्थस्य विधानाच्च न संशयः ॥ २/१/३०॥
उन्हें देखते ही स्वयंभू भगवान ब्रह्मा का वीर्य भूमि पर गिर पड़ा। 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह सब  ऋषियों के जन्म के कारण ही हुआ था।३०।
भृगु, अंगिरस और अत्रि के जन्म की कहानी (बृहद देवता 97-101) पर आधारित है और इन नामों की व्युत्पत्ति उसी पाठ से मिलती है, हालांकि व्याकरणविद अलग-अलग व्युत्पत्ति प्रदान करते हैं।

________________
धृत्वा जुहाव हस्ताभ्यां स्रुवेण परिगृह्य च ।
आस्रवज्जुहुयां चक्रे मन्त्रवच्च पितामहः ॥ २/१/३१ ॥
उन ब्रह्मा ने दोनों हाथों के द्वारा श्रुवा से  वीर्य  ग्रहण करके और मंत्रों का उच्चारण करते हुए (एक साथ) होम किया।३१।

_________     ____

ततः स जनयामास भूतग्रामं प्रजापतिः ।
तस्यार्वाक्तेजसश्चैव जज्ञे लोकेषु तैजसम् ॥ २/१/३२॥
तब प्रजापति ने भूतों (जीवों या तत्त्वों) का समूह बनाया । उनके निम्न तेज से लोकों में तैजस ब्रह्म उत्पन्न हुआ ।३२।

________   






इस प्रकार से अध्याय- (९) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।

अब इसके अगले अध्याय- (१०) में गोपकुल के श्रीकृष्ण एवं राधा सहित पुरुरवा और उर्वशी, आयुष, नहुष,ययाति इत्यादि महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है।

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