इसके पिछले भाग में बताया जा चुका है कि गोपों को संपूर्ण ब्रह्मांड में कोई पराजित नहीं कर सकता था और ना ही उनका कोई वध कर सकता था। उनको अपने साथ गोलोक मे ले जाने के लिए प्रभु ने उन्हें आपस में ही लड़ाकर उनकी आत्माओं को ले लिया और बाकी बचे हुए गोप और गोपियों की आत्माओं को लेने के लिए जो भी कुछ किया उसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्री कृष्णजन्म खंड के अध्याय (१२७) और (१२८) में मिलता है। जिसको संक्षेप में नीचे उद्धृत किया गया है।
श्लोक ✍️
"नारायण उवाच
श्रीकृष्णश्च समाह्वानं गोपांश्चापि चकार सः।
भाण्डीरे वटमूले च तत्र स्वयमुवास ह ।।१।।
पुराऽन्नं च ददौ तस्मै यत्रैव ब्राह्मणीगणः।
उवास राधिका देवी वामपार्श्वे हरेरपि ।।२।।
दक्षिणे नन्दगोपश्च यशोदासहितस्तथा ।
तद्दक्षिणो वृषभानस्तद्वामे सा कलावती ।।३।।
अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं समयोचितम्।।४।।
श्रीकृष्णश्च समाह्वानं गोपांश्चापि चकार सः।
भाण्डीरे वटमूले च तत्र स्वयमुवास ह ।।१।।
पुराऽन्नं च ददौ तस्मै यत्रैव ब्राह्मणीगणः।
उवास राधिका देवी वामपार्श्वे हरेरपि ।।२।।
दक्षिणे नन्दगोपश्च यशोदासहितस्तथा ।
तद्दक्षिणो वृषभानस्तद्वामे सा कलावती ।।३।।
अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं समयोचितम्।।४।।
अनुवाद - श्री नारायण कहते हैं- नारद ! जहां पहले ब्राह्मण पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था उस भाण्डीर वट की छाया में श्री कृष्णा स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलावा भेजा। श्रीहरि के बामभाग में राधिका देवी, दक्षिणभाग में यशोदा सहित नन्द, नंद के दाहिने वृषभानु और वृषभान के बाएं कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपी भाई- बंधु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविंद ने उन सब से समयोचित यथार्थ वचन कहा ।
एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।
शुद्धस्फटिकसंकाशं रत्नेन्द्रसारनिर्मितम्।
अम्लानपारिजातानां मालाजालविराजितम्।।३८।।
मणीनां कौस्तुभानां च भूषणेन विभूषितम् ।
अमूल्यरत्नकलशं हीरहारविलम्बितम् ।।३९।।
मनोहरैः परिष्वक्तं सहस्रकोटिमन्दिरैः ।
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।।४०।।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।
कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसंभवा।।४२।।
गोलोकाद गता गोप्यश्चायोनिसंभवाश्च ताः ।
श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।
सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः।।४४।
ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।
नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।
सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।
रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा ।।४८ ।।
अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च ।।४९ ।।
चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।
शुद्धस्फटिकसंकाशं रत्नेन्द्रसारनिर्मितम्।
अम्लानपारिजातानां मालाजालविराजितम्।।३८।।
मणीनां कौस्तुभानां च भूषणेन विभूषितम् ।
अमूल्यरत्नकलशं हीरहारविलम्बितम् ।।३९।।
मनोहरैः परिष्वक्तं सहस्रकोटिमन्दिरैः ।
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।।४०।।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।
कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसंभवा।।४२।।
गोलोकाद गता गोप्यश्चायोनिसंभवाश्च ताः ।
श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।
सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः।।४४।
ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।
नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।
सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।
रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा ।।४८ ।।
अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च ।।४९ ।।
• इसी बीच वहां ब्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आए हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पांच योजन ऊंचा था, बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था।
• उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उसपर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से सामवृत था।
• नारद! राधा और धन्यवाद की पत्र कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहां तक की गोलक से जितनी भी गोपियां आई थीं, वह सभी आयोनिजा थीं। उनके रूप में श्रुति पत्नियां ही अपने शरीर से प्रकट हुई थी। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उसे रथपर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गई। साथ ही राधा भी गोकुल वासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुई।
इसके बाद की घटना का वर्णन इसी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय- (१२८) में उसी क्रम में लिखा गया है। उसको भी नीचे उदधृत किया गया।
श्लोक ✍️
"नारायण उवाच
श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतमः प्रभुः ।
दृष्ट्वा सारोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम् ।। १।।
उवास पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके ।
ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा ।। २ ।।
श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतमः प्रभुः ।
दृष्ट्वा सारोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम् ।। १।।
उवास पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके ।
ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा ।। २ ।।
अनुवाद -
• नारद! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहां तत्काल ही गोकुल वासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीर वन में बट वृक्ष के नीचे पांच गोपों के साथ ठहर गए। वहां उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो- समुदाय व्याकुल है।
रक्षकों के न रहने से वृंदावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है। तब उन कृपा सागर को दया आ गई। फिर तो उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृंदावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से परिपूर्ण कर दिया। साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बंधाया। तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले-
श्री भगवानुवाच
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।। ६ ।।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ७ ।।
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।। ६ ।।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ७ ।।
अनुना
• हे गोपगण ! हे बान्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शांतिपूर्वक यहां वास करो, क्योंकि प्रिया के साथ बिहार सुरम्य रासमण्डल और वृंदावन नामक पूण्यवन में श्रीकृष्ण का निरंतर निवास तब तक रहेगा जब तक सूर्य और चंद्रमा की स्थिति रहेगी।
पार्वत्युवाच
एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले ।
रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो ।। ८६ ।।
गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् ।
परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता ।। ८७ ।।
एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले ।
रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो ।। ८६ ।।
गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् ।
परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता ।। ८७ ।।
• पार्वती ने कहा- प्रभो ! गोलोकस्थित रासमण्डलमें मैं ही अपने एक राधिका रूप से रहती हूं। इस समय गोलोक रासशून्य हो गया है, अतः आप मुक्ता और माणिक्य से विभूषित रथ पर अरुण हो वहां जाइए और उसे परिपूर्ण कीजिए।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः ।
रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। ९८ ।।
रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। ९८ ।।
• नारद ! पार्वती के वचन सुनकर रसिकेश्वर श्रीकृष्ण हंसे और रननिर्मित विमानपर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गए।
_________________ ▪️ _________________
भगवान श्री कृष्ण के साथ समस्त गोप और गोपियों को गोलोक जाने का वर्णन गर्गसंहिता के अश्वमेधखंड के अध्याय- ६० में भी मिलता है। जिसको जाने बिना भगवान श्रीकृष्ण के गोलक का प्रसंग अधूरा ही रह जाएगा। इसलिए उसको भी जानना आवश्यक है।
श्लोक ✍️
बलः शरीरं मानुष्यं त्यक्त्वा धाम जगाम ह ।
देवाँस्तत्रागतान्दृष्ट्वा हरिरंतरधीयत ॥ १३ ॥
व्रजे गत्वा हरिर्नंदं यशोदां राधिकां तथा ।
गोपान्गोपीर्मिलित्वाऽऽह प्रेम्णा प्रेमी प्रियान्स्वकान् ॥ १४ ॥
देवाँस्तत्रागतान्दृष्ट्वा हरिरंतरधीयत ॥ १३ ॥
व्रजे गत्वा हरिर्नंदं यशोदां राधिकां तथा ।
गोपान्गोपीर्मिलित्वाऽऽह प्रेम्णा प्रेमी प्रियान्स्वकान् ॥ १४ ॥
अनुवाद -
• बलराम जी मानव शरीर को छोड़कर अपने धाम को चले गए। वहां देवताओं को आया देख श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गए। ब्रज में जाकर श्रीहरि नन्द, यशोदा, राधिका तथा गोपियों सहित गोपों से मिले और उन प्रेमी भगवान ने अपने प्रिय जनों से प्रेम पूर्वक इस प्रकार कहा। १३-१४
श्रीकृष्ण उवाच -
गच्छ नंद यशोदे त्वं पुत्रबुद्धिं विहाय च ।
गोलोकं परमं धाम सार्धं गोकुलवासिभिः ॥ १५ ॥
अग्रे कलियुगो घोरश्चागमिष्यति दुःखदः ।
यस्मिन्वै पापिनो मर्त्या भविष्यंति न संशयः।१६
स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति वर्णानां च तथैव च ।
तस्माद्गच्छाशु मद्धाम जरामृत्युहरं परम् ॥१७ ॥
इति ब्रुवति श्रीकृष्णे रथं च परमाद्भुतम् ।
पञ्चयोजनविस्तीर्णं पञ्चयोजनमूर्ध्वगम् ॥ १८ ॥
वज्रनिर्मलसंकाशं मुक्तारत्नविभूषितम् ।
मन्दिरैर्नवलक्षैश्च दीपैर्मणिमयैर्युतम् ॥ १९ ॥
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च सखीकोटिभिरावृतम् ॥ २० ॥
गच्छ नंद यशोदे त्वं पुत्रबुद्धिं विहाय च ।
गोलोकं परमं धाम सार्धं गोकुलवासिभिः ॥ १५ ॥
अग्रे कलियुगो घोरश्चागमिष्यति दुःखदः ।
यस्मिन्वै पापिनो मर्त्या भविष्यंति न संशयः।१६
स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति वर्णानां च तथैव च ।
तस्माद्गच्छाशु मद्धाम जरामृत्युहरं परम् ॥१७ ॥
इति ब्रुवति श्रीकृष्णे रथं च परमाद्भुतम् ।
पञ्चयोजनविस्तीर्णं पञ्चयोजनमूर्ध्वगम् ॥ १८ ॥
वज्रनिर्मलसंकाशं मुक्तारत्नविभूषितम् ।
मन्दिरैर्नवलक्षैश्च दीपैर्मणिमयैर्युतम् ॥ १९ ॥
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च सखीकोटिभिरावृतम् ॥ २० ॥
• श्री कृष्ण बोले - नंद और यशोदे ! अब तुम मुझमें पुत्र बुद्धि छोड़कर समस्त गोकुल वासियों के साथ मेरे परमधाम गोलोक को जाओ। अब आगे सबको दुख देने वाला घोर कलयुग आएगा, जिसमें मनुष्य प्राय: पापी हो जाएंगे इसमें संशय नहीं है। १५-१६
• श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि गोलोक से एक परम अद्भुत रथ उतर आया जिसे गोपों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ देखा। उसका विस्तार पांच आयोजन का था और ऊंचाई भी उतनी ही थी। वह बज्रमणि (हीरे) के समान निर्मित और मुक्ता - रत्नों से विभूषित था। उसमें नौ लाख मंदिर थे और उन घरों में मणिमय दीप जल रहे थे। उस रथ में दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े जुते हुए थे। उस रथपर महीन वस्त्र का पर्दा पड़ा था। करोड़ों सखियां उसे घेरे हुए थीं। १८- २०' १/२
• इसी प्रकार नारायण रूपधारी भगवान श्रीकृष्ण हरि महालक्ष्मी के साथ गरुण पर बैठकर वैकुंठ धाम को चले गए।
शंखचक्रधरः श्रीमाँल्लक्ष्म्या सार्धं जगत्पतिः ॥ २२ ॥
क्षीरोदं प्रययौ शीघ्रं रथमारुह्य सुंदरम् ।
तथा च विष्णुरूपेण श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥ २३ ॥
लक्ष्म्या गरुडमारुह्य वैकुण्ठं प्रययौ नृप ।
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी ॥ २४ ॥
क्षीरोदं प्रययौ शीघ्रं रथमारुह्य सुंदरम् ।
तथा च विष्णुरूपेण श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥ २३ ॥
लक्ष्म्या गरुडमारुह्य वैकुण्ठं प्रययौ नृप ।
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी ॥ २४ ॥
नरेश्वर ! इसके बाद श्री कृष्ण हरि नर और नारायण दो ऋषियों के रूप में भक्त हो मानव के कल्याण अर्थ बद्री का आश्रम को चले गए तदनंतर साक्षात परिपूर्तम जगतपति भगवान श्री कृष्णा श्री राधा के साथ गोलोक से आए हुए रथ पर आरूढ़ हुए। २३-२५. १/२
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी ॥ २४ ॥
कल्याणार्थं नराणां च प्रययौ बद्रिकाश्रमम् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो राधया युतः ॥ २५ ॥
गोलोकादागतं यानमारुरोह जगत्पतिः ।
सर्वे गोपाश्च नन्दाद्या यशोदाद्या व्रजस्त्रियः ॥ २६।
त्यक्त्वा तत्र शरीराणि दिव्यदेहाश्च तेऽभवन् ।
कल्याणार्थं नराणां च प्रययौ बद्रिकाश्रमम् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो राधया युतः ॥ २५ ॥
गोलोकादागतं यानमारुरोह जगत्पतिः ।
सर्वे गोपाश्च नन्दाद्या यशोदाद्या व्रजस्त्रियः ॥ २६।
त्यक्त्वा तत्र शरीराणि दिव्यदेहाश्च तेऽभवन् ।
• नंद आदि समस्त गोप तथा यशोदा आदि व्रजांगनाएं सब के - सब वहां भौतिक शरीरों का त्याग करके दिव्यदेहधारी हो गए। तब गोपाल भगवान श्रीहरि नन्द आदि को उस दिव्य रथपर बिठाकर गोकुल के साथ ही शीघ्र गोलोक धाम को चले गए। ब्रह्मांडों से बाहर जाकर उन सब ने बिरज नदी को देखा साथ ही शेषनाग की गोद में महालोक गोलोक दृष्टिगोचर हुआ, जो दुखों का नाशक तथा परम सुखदायक है। २६- २८. १/२
दृष्ट्वा रथात्समुत्तीर्य सार्धं गोकुलवासिभिः ॥ २९ ॥
विवेश राधया कृष्णः पश्यन्न्यग्रोधमक्षयम् ।
शतशृङ्गं गिरिवरं तथा श्रीरासमण्डलम् ॥ ३० ॥
ततो ययौ कियद्दूरं श्रीमद्वृन्दावनं वनम् ।
वनैर्द्वादशभिर्युक्तं द्रुमैः कामदुघैर्वृतम् ॥ ३१ ॥
नद्या यमुनया युक्तं वसंतानिलमंडितम् ।
पुष्पकुञ्जनिकुञ्जं च गोपीगोपजनैर्वृतम् ॥ ३२ ॥
तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह ।
शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते ॥ ३३ ॥
ततश्च यदुपत्न्यश्च चितामारुह्य दुःखतः ।
पतिलोकं ययुः सर्वा देवक्याद्याश्च योषितः ॥ ३४ ॥
बंधूनां नष्टगोत्राणां चकार सांपरायिकम् ।
गीताज्ञानेन स्वात्मानं शांतयित्वा स दुःखतः ॥ ३५ ॥
अर्जुनः स्वपुरं गत्वा तमुवाच युधिष्ठिरम् ।
स राजा भ्रातृभिः सार्धं ययौ स्वर्गं च भार्यया ॥ ३६ ॥
प्लावयद्द्वारकां सिन्धू रैवतेन समन्विताम् ।
विहाय नृपशार्दूल गेहं श्रीरुक्मणीपतेः ॥ ३७ ॥
अद्यापि श्रूयते घोषो द्वार्वत्यामर्णवे हरेः ।
अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो मामकी तनुः ॥ ३८।
विवेश राधया कृष्णः पश्यन्न्यग्रोधमक्षयम् ।
शतशृङ्गं गिरिवरं तथा श्रीरासमण्डलम् ॥ ३० ॥
ततो ययौ कियद्दूरं श्रीमद्वृन्दावनं वनम् ।
वनैर्द्वादशभिर्युक्तं द्रुमैः कामदुघैर्वृतम् ॥ ३१ ॥
नद्या यमुनया युक्तं वसंतानिलमंडितम् ।
पुष्पकुञ्जनिकुञ्जं च गोपीगोपजनैर्वृतम् ॥ ३२ ॥
तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह ।
शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते ॥ ३३ ॥
ततश्च यदुपत्न्यश्च चितामारुह्य दुःखतः ।
पतिलोकं ययुः सर्वा देवक्याद्याश्च योषितः ॥ ३४ ॥
बंधूनां नष्टगोत्राणां चकार सांपरायिकम् ।
गीताज्ञानेन स्वात्मानं शांतयित्वा स दुःखतः ॥ ३५ ॥
अर्जुनः स्वपुरं गत्वा तमुवाच युधिष्ठिरम् ।
स राजा भ्रातृभिः सार्धं ययौ स्वर्गं च भार्यया ॥ ३६ ॥
प्लावयद्द्वारकां सिन्धू रैवतेन समन्विताम् ।
विहाय नृपशार्दूल गेहं श्रीरुक्मणीपतेः ॥ ३७ ॥
अद्यापि श्रूयते घोषो द्वार्वत्यामर्णवे हरेः ।
अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो मामकी तनुः ॥ ३८।
ट
• उसे देखकर गोकुल वासियों सहित श्रीकृष्ण उस रथ से उतर पड़े और श्रीराधा के साथ अक्षयवट का दर्शन करते हुए उस परमधाम में प्रविष्ट हुए। गिरिवर सतश्रृंग तथा
श्रीरासमंडल को देखते हुए वह कुछ दूर स्थित श्रीवृंदावन में गए, जो बारह वनों से संयुक्त तथा कामपूरक वर्षों से भरा हुआ था। २९-४१।
पुष्पकुञ्जनिकुञ्जं च गोपीगोपजनैर्वृतम् ॥ ३२ ॥
तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह ।
शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते ॥ ३३।
तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह ।
शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते ॥ ३३।
॥ नद्या यमुनया युक्तं वसंतानिलमंडितम् ।
• यमुना नदी उसे छूकर
[ज्ञात हो कि- भगवान श्री कृष्ण के चले जाने के बाद]-
और
• कलयुग के प्रारंभिक काल में श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के
अंशावतार विष्णु स्वामी महासागर में जाकर श्री हरि की प्रतिमा को प्राप्त करेंगे और द्वारिका में उनकी स्थापना कर देंगे। नृपेश्वर ! कलयुग में उन द्वारिका नाथ का जो मनुष्य वहां जाकर दर्शन करते हैं, वह सब कृतार्थ हो जाते हैं। ९-४०।
यः शृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः ।
मुक्तिं यदूनां गोपानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४१ ॥
मुक्तिं यदूनां गोपानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४१ ॥
और जो श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा यादव गोपों की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। ४१,।
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