शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

देवीभागवतपुराणम्‎ – स्कन्धः ०४ अध्याय द्वितीय-(२)कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणम्।


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                     सूत उवाच
एवं पृष्टः पुराणज्ञो व्यासः सत्यवतीसुतः ।
परीक्षितसुतं शान्तं ततो वै जनमेजयम् ॥१॥

सूत जी बोले – हे मुनियों  पुराणवेत्ता वाणीविशारद सत्यवतीपुत्र महर्षि व्यास ने शान्त स्वभाव वाले परीक्षित्- पुत्र जनमेजय से उनके सन्देहों को दूर करने वाले वचन बोले ।।१=१/२।।

उवाच संशयच्छेत्तृ वाक्यं वाक्यविशारदः ।
                     व्यास उवाच !
राजन् किमेतद्वक्तव्यं कर्मणां गहना गतिः ॥२॥

दुर्ज्ञेया किल देवानां मानवानां च का कथा।
यदा समुत्थितं चैतद्ब्रह्माण्डं त्रिगुणात्मकम् ॥३॥

कर्मणैव समुत्पत्तिः सर्वेषां नात्र संशयः ।
अनादिनिधना जीवाः कर्मबीजसमुद्‌भवाः ॥ ४॥

नानायोनिषु जायन्ते म्रियन्ते च पुनः पुनः ।
कर्मणा रहितो देहसंयोगो न कदाचन ॥ ५ ॥

व्यास जी बोले- हे राजन इस विषय में क्या कहा जाय ! कर्मों की बड़ी गहन गति होती है। कर्मों की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं । तो मानवों की तो बात ही क्या! जब इस त्रि गुणात्मक ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती चली आ रही है ।।
विशेष-★
( एक बार सबको एक  समान स्थिति बिन्दु से गुजरना होता है - इस के पश्चात जो अपनी स्वाभिकता रूपी प्रवृत्तियों दमन कर संयम से आचरण करता उसको सद्गति और दुराचरण करता है उसको दुर्गति मिलती है।)  इस विषय में कोई सन्देह नहीं है।  आदि-(प्रारम्भ) और अन्त से रहित होते हुए भी समस्त जीव कर्म रूपी बीज से संसार में जनमते- मरते हैं । वे प्राणी अनेक प्रकार की योनियों( शरीरों) में बार+बार पैंदा होते  और मरते हैं । कर्म से रहित जीव या देह संयोग कभी भी सम्भव नहीं है।।२-५।।


शुभाशुभैस्तथा मिश्रैः कर्मभिर्वेष्टितं त्विदम् ।
त्रिविधानि हि तान्याहुर्बुधास्तत्त्वविदश्च ये ॥ ६ ॥

सञ्चितानि भविष्यन्ति प्रारब्धानि तथा पुनः।
वर्तमानानि देहेऽस्मिंस्त्रैविध्यं कर्मणां किल ॥ ७॥

शुभ अशुभ और मिश्र - इन  कर्मों से यह संसार सदैव व्याप्त रहता है। तत्वों के ज्ञाता जो विद्वान हैं उन्होंने संचित प्रारब्ध और क्रियमाण( वर्तमान में किए गये कर्म) ये तीन प्रकार के कर्म हैं। इन कर्मों का त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है।६-७।।


ब्रह्मादीनां च सर्वेषां तद्वशत्वं नराधिप ।
सुखं दुःखं जरामृत्युहर्षशोकादयस्तथा ॥ ८ ॥

कामक्रोधौ च लोभश्च सर्वे देहगता गुणाः ।
दैवाधीनाश्च सर्वेषां प्रभवन्ति नराधिप ॥ ९ ॥

हे राजन् ! –ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्म के वशवती होते हैं । सुख-दु:ख और वृद्धावस्था मृत्यु हर्ष शोक काम( स्त्री मिलन की कामना) क्रोध लोभ आदि ये सभी शारीरिक गुण हैं। हे राजन् ! ये भाग्य के अधीन होकर सभी प्राणीयों को प्राप्त होते हैं ।८-९।।


रागद्वेषादयो भावाः स्वर्गेऽपि प्रभवन्ति हि ।
देवानां मानवानाञ्च तिरश्चां च तथा पुनः ॥१०॥

विकाराः सर्व एवैते देहेन सह सङ्गताः ।
पूर्ववैरानुयोगेन स्नेहयोगेन वै पुनः ॥ ११॥

उत्पत्तिः सर्वजन्तूनां विना कर्म न विद्यते।
कर्मणा भ्रमते सूर्यः शशाङ्कः क्षयरोगवान्॥१२॥

राग-द्वेष भाव स्वर्ग में भी होते हैं । 
और इस प्रकार के भाव देवों मनुष्यों और पशु- पक्षीयों में भी विद्यमान रहते हैं ।१०।


पूर्वजन्म में किए गये वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार सदा ही शरीर के साथ लगे रहते हैं ।११।

सभी जीवों की उत्पत्ति कर्म के विना तो हो ही नहीं सकती है। कर्म से ही सूर्य नियमित रूप से परिभ्रमण करता है।( विदित हो कि सूर्य भी आकाश गंगा का परिक्रमण करता है) चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रस्त रहता है। १२।।


कपाली च तथा रुद्रः कर्मणैव न संशयः ।
अनादिनिधनं चैतत्कारणं कर्म विद्यते ॥१३॥

तेनेह शाश्वतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
नित्यानित्यविचारेऽत्र निमग्ना मुनयः सदा ॥१४॥

न जानन्ति किमेतद्वै नित्यं वानित्यमेव च ।
मायायां विद्यमानायां जगन्नित्यं प्रतीयते ॥१५॥

कार्याभावः कथं वाच्यः कारणे सति सर्वथा।
माया नित्या कारणञ्च सर्वेषां सर्वदा किल ॥१६॥

कर्मबीजं ततोऽनित्यं चिन्तनीयं सदा बुधैः।
भ्रमत्येव जगत्सर्वं राजन्कर्मनियन्त्रितम् ॥१७॥

एकोहं बहुस्याम: तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत तत्तेज ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तदपोऽसृजत । तस्माद्यत्र क्वच शोचति स्वेदते वा पुरुषस्तेजस एव तदध्यापो जायन्ते ॥
( ६.२.३ ॥छान्दोग्योपनिषद्-)

मैं एक अनेक रूप में हो जाऊँ  उस एक परब्रह्म ने यह संकल्प किया-। 
इस पृथक करण काल अपने अस्तित्व का बोध अहंकार के रूप में उसे हुआ -( अहंकार से संकल्प उत्पन्न हुआ और  इस संकल्प से इच्छा उत्पन्न हुई और यह इच्छा ही कर्म की जननी है।) संसार में सकाम( इच्छा समन्वित कर्म ही ) फल दायक होता है। 
अपने कर्मो के प्रभाव से ही रूद्र को नरमुण्डों की माला धारण करनी पड़ती है। इसमें कोई सन्देह नहीं !! आदि अन्त रहित वह कर्म ही जगत की उत्पत्ति का कारण है।१३।।

स्थावर( अचल) और जंगम( चलायवान्) यह सम्पूर्ण शाश्वत जगत् उसी कर्म के प्रभाव में नियन्त्रित है। सभी मुनिगण इस कर्म मय जगत कि नित्यता और अनित्यता के विचार में सदैव डूबे रहते हैं ।।
 फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत नित्य है अथवा अनित्य। जब तक माया ( अज्ञान) विद्यमान रहती है तब तक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है।१४-१५।।

"कारण की सर्वथा सत्ता रहने पर  "कार्य या अभाव कैसे कहा जा सकता है।
यह माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है।१६।।

इसलिए ही कर्म-बीज की अनित्यता पर विद्वान पुरुषों को सदैव विचार करना चाहिए!
 हे राजन्! सम्पूर्ण जगत कर्म के द्वारा नियन्त्रित होकर परिवर्तित होता रहता है।१७।।


नानायोनिषु राजेन्द्र नानाधर्ममयेषु च।
इच्छया च भवेञ्चन्म विष्णोरमिततेजसः ॥१८॥

युगे युगेष्वनेकासु नीचयोनिषु तत्कथम् ।
त्यक्त्वा वैकुण्ठसंवासं सुखभोगाननेकशः ॥१९॥

विण्मूत्रमन्दिरे वासं संत्रस्तः कोऽभिवाञ्छति ।
पुष्पावचयलीलां च जलकेलिं सुखासनम् ॥ २०॥

त्यक्त्वा गर्भगृहे वासं कोऽभिवाच्छति बुद्धिमान्।
तूलिकांमृदुसंयुक्तां दिव्यां शय्यां विनिर्मिताम्।२१॥

त्यक्त्वाधोमुखवासं च कोऽभिवाञ्छति पण्डितः।
गीतं नृत्यञ्च वाद्यञ्च नानाभावसमन्वितम् ॥२२॥

मुक्त्वा को नरके वासं मनसापि विचिन्तयेत्।
सिन्धुजाद्‌भुतभावानांरसंत्यक्त्वासुदुस्त्वजम्।२३।

विण्मूत्ररसपानञ्ज क इच्छेन्मतिमान्नरः ।
गर्भवासात्परो नास्ति नरको भुवनत्रये ॥ २४ ॥

तद्‌भीताश्च प्रकुर्वन्ति मुनयो दुस्तरं तपः ।
हित्वा भोगञ्च राज्यञ्चवने यान्ति मनस्विनः।२५।

विशेष-★
विदित हो कि समय परिवर्तन का कारण  है और परिवर्तन का घनीभूत व स्थूल रूप कर्म है।)
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हे राजन् असीमित तेज वाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से पृथ्वी पर जन्म लेने में स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार सी योनियों मेंअनेक प्रकार धर्म कर्म के अनुसार युगों में तथा अनेक प्रकार की। निम्न योनियों में जन्म क्यों लेते ? अनेक प्रकार के सुखभोगों तथा वैकुण्ठपुरी का  निवास त्याग कर मल मूत्र वाले स्थान ( उदर ) में भला कौन रहना चाहेगा? फूल चुनने की। क्रीडा जल विहार और सुख -दायक आसन का त्याग कर कौन बुद्धिमान गर्भगृह में वास करना चाहेगा ? कोमल रुई से निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्या को छोड़कर गर्भ में औंधे-(ऊर्ध्व-मुख) पड़ा रहना भला कौन विद्वान पुरुष पसन्द कर सकता है ? अनेक प्रकार के भावों से युक्त गीत वाद्य तथा नृत्य या परित्याग करके गर्भ रूपी नरक में रहने का मन में विचार तक भला कौन कर सकता है ? ऐसा कौन बुद्धिमान व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी के अद्भुत भावों के " अत्यंत कठिनाई से त्याग करने योग्य रस को छोड़कर मलमूत्र का कीचड़ ( दूषित रस) पीने की। इच्छा करेगा।इसलिए तीनों लोकों में गर्भवास से बढ़कर नरक रूप अन्य कोई स्थल नहीं है। गर्भ वास ( जन्ममरण) से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या करते हैं। बड़े-बड़े मनस्वी जिस गर्भवास से डरकर राज्य और सुख कि परित्याग करके वन को चले जाते थे। ऐसा कौन मूर्ख होगा ? जो इसके सेवन की। इच्छा करेगा।।१८–२५=१/२।।


यद्‌भीतास्तु विमूढात्मा कस्तं सेवितुमिच्छति ।
गर्भे तुदन्ति कृमयो जठराग्निस्तपत्यधः ॥ २६ ॥

वपासंवेष्टनं कूरं किं सुखं तत्र भूपते ।
वरं कारागृहे वासो बन्धनं निगडैर्वरम् ॥ २७ ॥

अल्पमात्रं क्षणं नैव गर्भवासः क्वचिच्छुभः ।
गर्भवासे महद्दुःखं दशमासनिवासनम् ॥ २८ ॥

तथा निःसरणे दुःखं योनियन्त्रेऽतिदारुणे ।
बालभावे तदा दुःखं मूकाज्ञभावसंयुतम् ॥ २९ ॥

क्षुतृष्णावेदनाशक्तः परतन्त्रोऽतिकातरः ।
क्षुधिते रुदिते बाले माता चिन्तातुरा तदा ॥ ३० ॥

भेषजं पातुमिच्छन्ती ज्ञात्वा व्याधिव्यथां दृढाम् ।
नानाविधानि दुःखानि बालभावे भवन्ति वै ॥३१॥

किं सुखं विबुधा दृष्ट्वा जन्म वाञ्छन्ति चेच्छया ।
संग्रामममरैः सार्धं सुखं त्यक्त्वा निरन्तरम् ॥३२॥

कर्तुमिच्छेच्च को मूढः श्रमदं सुखनाशनम् ।
सर्वथैव नृपश्रेष्ठ सर्वे ब्रह्मादयः सुराः ॥३३॥

कृतकर्मविपाकेन प्राप्नुवन्ति सुखासुखे ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
देहवद्‌भिर्नृभिर्देवैस्तिर्यग्भिश्च नृपोत्तम ॥३४॥

तपसा दानयज्ञैश्च मानवश्चेन्द्रतां व्रजेत् ।
क्षीणे पुण्येऽथ शक्रोऽपि पतत्येव न संशयः॥३५॥


गर्भ में कीड़े काटते हैं और नीचे से जठराग्नि कराती है। हे राजन् ! उस समय शरीर में अत्यंत दुर्गन्धयुक्त मज्जा( Marrow) लगा रहता है तो फिर वह कौनसा सुख है? कारागार में रहना और बेड़ीयों में बँधे रहना अच्छा है किन्तु एक क्षण के अल्पकाल तक गर्भ में रहना कभी भी शुभ नहीं होता गर्भ वास में जीव को अत्यधिक पीड़ा होती है।‌वहाँ दस महीने तक रहना पड़ता है‌। इसके अतिरिक्त अत्यंत दारुण( भयंकर) योनियन्त्र से बाहर आने पर  महान यातना प्राप्त होती है। तत्पश्चात्  बाल्यावस्था में अज्ञान का तथा बोल न पाने के कारण बहुत कष्ट प्राप्त होता है । दूसरे के  अधीन अत्यंत भयभीत बालक  भूख-और प्यास की। पीड़ा के कारण बालक कमजोर रहता है। भूखे बालकों को रोता हुआ देखकर माता ( रोने काम कारण जानने के लिए) चिन्ता ग्रस्त हो उठती है।और पुन: किसी बड़े रोगजनित कष्ट कि अनुभव करके उसे औषधि पिलाने की। इच्छा करती है। इस प्रकार बाल्यकाल में अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं ।तब विवेकी पुरुष किस दु:ख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा करते हैं।२६-३१=१/२।।
कौन ऐसा मूर्ख होगा जो देवताओं के साथ रहते हुए सुख भोग का त्याग करके श्रमपूर्ण तथा सुखनाशक युद्ध करने कि इच्छा करेगा। हे श्रेष्ठ राजन्! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी अपने किए हुए कर्मों के परिणाम स्वरूप दु:ख-सुख प्राप्त करते हैं। हे श्रेष्ठ राजन्! सभी देहधारी जीव चाहें वे मनुष्य देवता अथवा पशु पक्षी अपने अपने कर्मों का शुभ-अशुभ पाते हैं।।३२-३४।।
मनुष्य तप यज्ञ तथा दान के द्वारा इन्द्र पद को प्राप्त हो जाता है। और पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्र कि भी स्वर्ग से पतन हो जाता है । इसमें कोई सन्देह नहीं!३५।।

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पुनः पुनर्हरेरेवं नानायोनिषु पार्थिव ।
अवतारा भवन्त्यन्ये रथचक्रवदद्‌भुताः ॥३८॥

दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।
अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥३९॥


तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम्।
स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥४०॥

कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥

कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२॥

देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ।४३॥ "

                       राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥४४।

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥४५॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६॥

स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥४७॥

प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् ।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि॥४८।

कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।
सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥४९॥

दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम्।५०॥

लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१॥

स कथं भगवान्विष्णुस्त्वक्त्या सुखमनश्वरम् ।
करोति मानुषं जन्म भावैस्तैस्तैरभिद्रुतम् ॥५२॥

किं सुखं मानुषं प्राप्य भुवि जन्म मुनीश्वर ।
किं निमित्तं हरिः साक्षाद्‌गर्भवासं करोति वै ॥५३॥

गर्भदुःखं जन्मदुःखं बालभावे तथा पुनः ।
यौवने कामजं दुःखं गार्हस्त्येऽतिमहत्तरम् ॥ ५४ ।

दुःखान्येतान्यवाप्नोति मानुषे द्विजसत्तम ।
कथं स भगवान्विष्णुरवतारान्पुनः पुनः।५५।

प्राप्य रामावतारं हि हरिणा ब्रह्मयोनिना ।
दुःखं महत्तरं प्राप्तं वनवासेऽतिदारुणे ॥ ५६ ॥

सीताविरहजं दुःखं संग्रामश्च पुनः पुनः ।
कान्तात्यागोऽप्यनेनैवमनुभूतो महात्मना।५७।

तथा कृष्णावतारेऽपि जन्म रक्षागृहे पुनः ।
गोकुले गमनं चैव गवां चारणमित्युत ॥ ५८ ॥

कंसस्य हननं कष्टाद्‌ द्वारकागमनं पुनः ।
नानासंसारदुःखानि भुक्तवान्भगवान् कथम् ॥५९॥

स्वेच्छया कः प्रतीक्षेत मुक्तो दुःखानि ज्ञानवान्।
संशयं छिन्धि सर्वज्ञ मम चित्तप्रशान्तये ॥ ६०

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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥



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रामावतार के समय देवता कर्म बन्धन के कारण  वानर. बन्दर/ वन के नर बने और कृष्णावतार में कृष्ण की सहायता के लिए देवता यादव बने थे।★३६।।
इस प्रकार प्रत्येक युग में धर्म सी रक्षा के लिए भगवान् विष्णु ब्रह्मा जी अत्यंत प्रेरित होकर अनेक अवतार धारण करते हैं।।३७।।

हे राजन् ! इस प्रकार रथ चक्र की भाँति विविध प्रकार की योनियों में भगवान् विष्णु के अद्भुत अवतार बार-बार होते रहते हैं।३८।।
महात्मा भगवान विष्णु अपने अंशांश से पृथ्वी पक अवतार ग्रहण करके दैत्यों या वध रूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसलिए अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म कि पवित्र कथा मैं कह रहा हूँ; वे साक्षात् विष्णु ही यदुवंश में अवतरित हुए थे।३९-४०।।

हे राजन् ! कश्यप जी के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने  पूर्वजन्म के शापवश इस जन्म में गोप बनकर गोपालन का कार्य किया।४१।।★-
हे राजन् हे पृथ्वीपति ! उन्हीं कश्यप मुनि की दो पत्नियाँ  अदित और सुरसा ने भी शाप वश पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया । हे भरत श्रेष्ठ! उन दौनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहिनों के रूप में जन्म लिया। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने ही उन्हें यह शाप दिया था।।४२-४३।।

राजा बोला! हे महामते! महर्षि कश्यप ने ऐसा कौनसा अपराध किया था। जिस कारण उन्हें स्त्रीयों सहित शाप मिला था।मुझे यह बताइए!४४।।

वैकुण्ठवासी अविनाशी रमापति भगवान् विष्णु को गोपकुल ( गोकुल) में क्यों अवतार लेना पड़ा?।। ४५।।
भगवान विष्णु मानव शरीर धारण करके इस हीन मनुष्य शरीर में अनेक प्रकार की। लीलाऐं दिखाते हुए। और अनेक प्रपञ्च क्यों करते हैं?

काम- क्रोध अमर्ष शोक वैर प्रेम दु:ख-सुख भय दीनता सरलता पाप पुण्य वचन मारण पोषण चलन ताप विमर्श ताप आत्मश्लाघा लोभ दम्भ मोह कपट चिन्ता– ये तथा अन्य नाना प्रकार के भाव मनुष्य -जन्म में विद्यमान रहते हैं।४९-५१।।

वे  भगवान विष्णु शाश्वत सुख या त्याग करके इन भावों से ग्रस्त मनुष्य जन्म धारण किस लिए करते हैं।
हे मुनीश्वर इस पृथ्वी पर मानव जन्म पाकर कौन सा अक्षय सुख प्राप्त होता है। वे साक्षात् - विष्णु किस कारण गर्भवास करते हैं ?।५२-५३।।

गर्भवास में दु:ख जन्म ग्रहण में दुःख  बाल्यावस्था में दुःख यौवनावस्था में कामवासना जनित दुःख और गृहस्थ जीवन में तो बहुत बड़ा दुःख होता है।५४।।
हे विप्र अनेक कष्ट मानव जीवन में प्राप्त होते हैं। तो वे भगवान विष्णु अवतार क्यों लेते हैं पृथ्वी पर।५५।।

ब्रह्म योनि भगवान विष्णु को रामावतार ग्रहण करते हुए अत्यंत दारुण वनवास काल में घोर कष्ट प्राप्त हुआ था। उन्हें माता सीता वियोग से उत्पन्न महान कष्ट हुआ था। तथा अनेक बार राक्षसों से युद्ध करना पड़ा अन्त में महान आभा वाले उन श्री राम को पत्नी आ त्याग कि असीम वेदना भी साहनी पड़ी।।५६-५७।।

उसी प्रकार कृष्णावतार में भी बन्धीग्रह में जन्म गोकुल गमन गोचारण कंस वध और पुन: कष्ट पूर्वक द्वारिका के लिए प्रस्थान -इन अनेक विधि सांसारिक कष्टों को भगवान कृष्ण ने क्यों भोगा ?।।५८-५९।।

ऐसा कौन ज्ञानी व्यक्ति होगा जो मुक्त होता हुआ भी स्वेच्छा से इन दु:खों की प्रतीक्षा करेगा? हे सर्वज्ञ मेरे मन की। शान्ति के लिए  इस सन्देह का निवारण कीजिए!!।।६०।।
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पुराणों में यादवों का गोप और आभीर पर्याय वाची  रूपों में वर्णन मिलता है। पद्म-पुराण के सृष्टि-खण्ड , अग्नि पुराण  "लक्ष्मीनारायण संहिता"  नान्दीपुराण स्कन्दपुराण आदि ग्रन्थों में प्राचीन वर्णन है। 




गोपों अथवा अहीरों के साथ परवर्ती  भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान किए गये ।

कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र कहा गया है । यह सब परिवर्तन क्रमोत्तर रूप से होता हुआ आज तक विद्यमान है। यद्यपि ये सब बातें अस्तित्व हीन ही हैं। 

और अस्तित्व हीन बातों को उद्धृत करना शास्त्रीय विद्वित्ता नहीं है।
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नन्द जी को तो कथावाचक और भागवत आदि पुराण "गोप" कहते हैं। परन्तु  
कृष्ण और वसुदेव को भी प्राचीन पुराणों में "गोप" ही कहा गया है। , देवीभागवत पुराण तथा हरिवशं पुराण  गर्गसंहिता आदि  में  वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है।
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 (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 

अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। 
हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १८२ 
हरिवंशपुराणम्/पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः ४०

< हरिवंशपुराणम्‎ | पर्व १ (हरिवंशपर्व)
हरिवंशपुराणम्
अध्यायः ४०

जनमेजयेन भगवतः वराह, नृसिंह, परशुराम, श्रीकृष्णादीनां अवताराणां रहस्यस्य पृच्छा
चत्वारिंशोऽध्यायः


26. (ऐसा कैसे है ?) भगवान विष्णु, गोपों के घर जन्म लेने वाले होकर जो पूरे विश्व में सार्वभौमिक सुरक्षा प्रदान करते हैं,वह कैसे भगवान् विष्णु हैं  जिन्होंने प्रभासक्षेत्र का आसरा ले लिया ?
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देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । 
भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।

•–और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।


•–तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए  जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे  वह सब बताता हूँ सुनिए !
–२०

•– विष्णो ! पहले की बात है  महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे । 
जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।

•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने  वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात्‌ उनकी नीयत खराब हो गयी।।२२।

•–तब वरुण मेरे पास आये और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन्  ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।

•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।

•– मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं। तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।


•–हे  देव !  जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।

•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो  यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं
क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।

•–लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले  शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो  जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।

•–इस कार्य का जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए तभी मैं समुद्र को  जाऊँगा ।।२९।

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या आत्मदेवता गावोया:गाव:सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणंस्मृतम्।३०।

•–इन गोऔं के देवता साक्षात् परब्रह्म( विष्णु) परमात्मा हैं तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं 
आपसे प्रकट हुए जो जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में दो और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण एक समान माने गये हैं ।३०।

त्रातव्या:प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मण परित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।

•–पहले गोओं की रक्षा करव़नी चाहिए  फिर सुरक्षित हुईं गोऐं ब्राह्मणों की रक्षा करती हैं 
गोऔं और ब्राह्मणों( ब्रह्मज्ञानीयों) की रक्षा हो जाने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है ।३१।

•– ब्रह्मा जी बोले ! हे  विष्णो : ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गोऔं के कारण तत्व को जानने वाले मैंने कश्यप को शाप देते हुए कहा ।३२।


•–महर्षि कश्यप 'ने अपनेे जिस अंश से  वरुण की गोऔं का अपहरण किया है ;उस अंश से वे पृथ्वी पर जाकर गोप होंगे ।३३।

•–वे जो सुरभि नाम वाली देवी हैं ;तथा देव रूपी अग्नि के प्रकट करने वाली अरणी के समान जो अदिति देवी हैं वे दौनों पत्नियाँ कश्यप के साथ ही भू-लोक पर जाऐंगी ।।३४।

★-"ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।•–गोप(अहीर) के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।




•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो
गोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेंगे जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।

•–जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ।
अदिति और सुरभि नाम की उनकी दो पत्नीयाँ होंगी ।३७।
•–बुद्धिमान वसुदेव की देवकी  और रोहिणी 
दो भार्याऐं होंगी । उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।

•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये । ठीक जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बढ़कर विराट् हो गये थे ।३९।

•–मधुसूदन योग माया के द्वारा स्वयं ही अपनेे स्वरूप को आच्छादित करके आप लोक हित के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।

•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।
आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।

•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।
साथ ही यथासमय गोप कन्याओं को आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।

•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे तो वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।
•–महाबाहो विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर गोप-(अहीर) बालक के रूप में व्रज में निवास करेंगे ; उस समय सब लोगो आपके बाल- रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे और बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे।४४।
•–कमल नयन ! आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्त गणों वहाँ  गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे ।४५।

•–जब  आप वन में गायें चराते होंगे और व्रज में इधर-उधर दोड़ते होंगे  ,तथा यमुना जी के जल में गोते लगाते होंगे ; उन सभी अवसरों पर भक्तजन आपका दर्शन करके आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।


•–वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा , जो आपके द्वारा "तात" कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र कहकर बोलेगें ।४७।

•–हे विष्णो ! अथवा आप कश्यप के सिवा किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ।४८।

•-मधुसूदन आप अपनेे स्वाभाविक योगबल से असुरों पर विजय पाने के लिए यहांँ से प्रस्थान कीजिए , हम लोगो भी अपने अपने स्थान को जा रहे हैं।।४९।
         

•-वैशम्पायन बोले –जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर  क्षीर सागर से (उत्तर दिशा )में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।




•–वहाँ मेरु-पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध  एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।


•–उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।


(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व' में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।
 
          गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण

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स्वयं कई बार कृष्ण ने अपने आप को गोप कहा-

इसी सन्दर्भ में हरिवशं पुराण में एक आख्यानक है ⬇

एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;

तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।

वर्तमान में भूटान (भूतस्थान) ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।

क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?

'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।

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•– दूसरों को मान देने वाले आप मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से -आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
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•-मैं क्षात्रवृत्ति या अनुष्ठान करने से क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं मैं यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।

लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।


•-मैं तीनों लोगों का पालक 
तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11

इसी पुराण में एक स्थान पर कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि 
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       "गोप- कृष्ण"

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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण "भविष्यपर्व" सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
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हरिवशं पुराण में ही 'भविष्य पर्व' के सौंवे अध्याय में पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर  !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
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अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक श्री कृष्ण से कहता है अलं ( बस करो'  ठहरो !)  ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे । 26। 
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)
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गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह  अर्थ देने वाले गोप पद अलं अव्यय से युक्त है ।
और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है 
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है 
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अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं । 
निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥



 

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