रविवार, 23 अक्टूबर 2022

राम का अयोध्या आगमन-

रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में श्रीराम के अयोध्या आगमन पर भव्य स्वागत का उल्लेख मिलता है।
श्रीराम के अयोध्या लौटने की तिथि पर इतिहासकारों में मतभेद हैं, लेकिन परंपरा के अनुसार कार्तिक अमावस्या अर्थात दीपावली को भगवान श्रीराम अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या लौटे थे।
 
रावण का वध करने के बाद लंका से अयोध्या लौटते समय राम, लक्ष्मण, सीता एवं हनुमानजी पुष्पक विमान से अयोध्या के पास नंदीग्राम नामक स्थान पर उतरे थे, जहां पर राम की खड़ाऊं रखकर राजा भरत अपना राजपाट चलाते थे। 
कहते हैं कि नंदीग्राम में एक दिन रुकने के बाद वे दूसरे दिन अयोध्या पहुंचे 
यह भी उल्लेख मिलता है कि रावण वध यदि दशमी के दिन हुआ था तो उसके दूसरे दिन सीता को अग्नि परीक्षा से गुजरने के बाद अर्थात उन्हें अग्निदेव से वापस मांगने के बाद श्रीराम अयोध्या लौटे थे। मतलब यह कि वे एकादशी के दिन अयोध्‍या की ओर चले थे ।
और रास्ते में वह निषादराज गुह केवट के यहां रुके भी थे। 

 वाल्मीकि रामायण में उल्लेख मिलता है कि श्रीराम का नंदीग्राम में भव्य स्वागत किया गया था। उस दौरान अयोध्या के सभी आठों मंत्री और राजा दशरथ की तीनों रानियां हाथियों पर सवार होकर नंदीग्रम पहुंचे। 
उनके साथ अयोध्या के सभी नागरिक भी नंदीग्रम पहुंचे। 

 वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड सर्ग 127 के अनुसार सभी नागरिकों, मंत्रियों और रानियों ने देखा की श्रीराम पुष्पक विमान से धरती पर उतरे।

पूर्णे चतुर्दशे वर्षे पञ्चम्यां लक्ष्मणाग्रजः ।
भरद्वाजश्रमं प्राप्य ववन्दे नियतो मुनिम् ।। ६.१२७.१ ।।

सो ऽपृच्छदभिवाद्यैनं भरद्वाजं तपोधनम् ।
शृणोषि कच्चिद्भगवन् सुभिक्षानामयं पुरे ।
कच्चिच्च युक्तो भरतो जीवन्त्यपि च मातरः ।। ६.१२७.२ ।।

सभी ने विमान पर विराजमान श्रीराम के दर्शन किए और वे उन्हें लेकर अयोध्या गए।

श्रीराम का जन्म इंडियन गर्वनमेंट के साइंस मिनिस्ट्री से मान्यता प्राप्त 'इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च ऑन वेदाज' (आईसर्व) के शोधानुसार श्रीराम का जन्म इस शोधानुसार 5114 ईसा पूर्व हुआ था। परन्तु भारत में अथवा थाइलेण्ड में-

आईसर्व डायरेक्टर सरोज बाला के शोध अनुसार श्रीराम ने रावण का वध 4 दिसंबर 5076 ईसा पूर्व किया था। फिर वे अलग अलग जगहों पर रुकते हुए 29वें दिन 2 जनवरी 5075 ईसा पूर्व वापस अयोध्या लौटे थे।

अयोध्या लौटने के खुशी में अयोध्यावासियों ने दीपावली मनाई थी। रुकने के दिनों को छोड़कर इस सफर में उन्हें करीब 24 दिन लगे।
इस दौरान वे 8 से 9 जगहों पर रुके। यह निष्कर्ष वाल्मीकि रामायण में लिखे उस दौर के ग्रहों, नक्षत्रों, तारामंडलों की स्‍थिति के आधार पर नासा के वेद स्पेशल 'प्लेटिनम गोल्ड' सॉफ्टवेयर से निकाला गया।
 
श्रीरामजी की खड़ाऊ ले जाते समय भरतजी ने कहा था कि ।

चतुर्दशे तु संपूर्णे वर्षेऽहनि रघूत्तम।।2.112.25।।
न द्रक्ष्यामि यदि त्वां तु प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्।

 
अर्थात: हे रघुकुल श्रेष्ठ। जिस दिन चौदह वर्ष पूरे होंगे उस दिन यदि आपको अयोध्या में नहीं देखूंगा तो अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा। भरत के मुख से ऐसे प्रतिज्ञापूर्ण शब्द सुनकर राम ने भरत को आश्वस्त करते हुए कहा था- तथेति प्रतिज्ञाय- अर्थात ऐसा ही होगा।
  इसी प्राकार महर्षि वशिष्ठजी ने महाराजा दशरथ से राम के राज्याभिषेक के संदर्भ में कहा था-
__________ 
श्रीमद्वाल्मीकियरामायणे अयोध्याकाण्डे तृतीयः सर्गः ॥३॥

तेषामञ्जलिपद्मानि प्रगृहीतानि सर्वशः।
प्रतिगृह्याब्रवीद् राजा तेभ्यः प्रियहितं वचः।१॥

अहोऽस्मि परमप्रीतः प्रभावश्चातुलो मम।
यन्मे ज्येष्ठं प्रियं पुत्रं यौवराज्यस्थमिच्छथ।२॥

इति प्रत्यर्चितान् राजा ब्राह्मणानिदमब्रवीत्।
वसिष्ठं वामदेवं च तेषामेवोपशृण्वताम्॥३॥

चैत्रःश्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः।
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम् ।४।


अर्थात: जिसमें वन पुष्पित हो गए। ऐसी शोभा कांति से युक्त यह पवित्र चैत्र मास है। राम का राज्याभिषेक पुष्प नक्षत्र चैत्र शुक्ल पक्ष में करने का विचार निश्चित किया गया है। षष्ठी तिथि को पुष्य नक्षत्र था। राम लंका विजय के पश्चात अपने 14 वर्ष पूर्ण करके पंचमी तिथि को भारद्वाज ऋषि के आश्रम में उपस्थित हुए। 

वहां एक दिन ठहरे और अगले दिन उन्होंने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया उससे पहले उन्होंने अपने भाई भरत से पंचमी के दिन हनुमानजी के द्वारा कहलवाया-
 
अविघ्नम् पुष्ययोगेन श्वो रामो दृष्टिमर्हसि।
अर्थात: हे भरत! कल पुष्य नक्षत्र में आप राम को यहां देखेंगे। इस प्रकार राम चैत्र के माह में षष्ठी के दिन ही ठीक समय पर अयोध्या में पुन: लौटकर आए।
 
वाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता का हरण बसंत ऋतु में हुआ था। अपहरण के पश्चात रावण ने उन्हें बारह मास का समय देते हुए कहा कि हे सीते! यदि इस अवधि के भीतर तुमने मुझे स्वीकार नहीं किया तो मेरे याचक तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे।
 
यह बाद हनुमानजी ने जब श्रीराम से कही तो उन्होंने भली प्रकार चिंतन करके सुग्रीव को आदेश दिया कि

 उत्तरा फल्गुनी ह्यद्य श्वस्तु हस्तेन योक्ष्यते ।
अभिप्रायाम सुग्रीव ! सर्वानीकसमावृताः।। 6.4.5।।
 
 
अर्थात आज उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है। कल हस्त नक्षत्र से इसका योग होगा।

हे सुग्रीव इस समय पर सेना लेकर लंका पर चढ़ाई कर दो।
 इस प्रकार फाल्गुन मास में श्री लंका पर चढ़ाई का आदेश श्री राम ने दिया।

यह जानकर रावण ने भी अपने मंत्री से सलाह लेकर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को युद्धारंभ करके अमावस्या के दिन सेना से युक्त होकर विजय के लिए निकला और चैत्र मास की अमावस्या को रावण मारा गया। 
तब रावण की अंत्येष्टि क्रिया तथा विभीषण के राजतिलक के पश्चात रामचंद्र यथाशीघ्र अयोध्या के लिए निकल पड़े।
 तब यह सिद्ध होता है कि राम चैत्र के माह में ही अयोध्या लौटे थे। 
इसी खुशी में लोगों ने अपने अपने घरों में दीप जलाकर उनका स्वागत किया।

पद्मपुराणम् (उत्तरखण्डः) अध्यायः १२२

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              "कार्तिकेय उवाच"
दीपावलिफलं नाथ विशेषाद्ब्रूहि सांप्रतम्।
किमर्थं क्रियते सा तु तस्याः का देवता भवेत् ।।१।

किं च तत्र भवेद्देयं किं न देयं वद प्रभो
प्रहर्षः कोऽत्र निर्दिष्टः क्रीडा कात्र प्रकीर्तिता ।२।
                  "सूतउवाच"
इति स्कंदवचः श्रुत्वा भगवान्कामशोषण:।
साधूक्त्वा कार्तिकं विप्राः प्रहसन्निदमब्रवीत् ।३।
                "श्रीशिव उवाच"
कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां तु पावकेे।
यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति ।।४।


मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह
त्रयोदशीदीपदानात्सूर्यजः प्रीयतामिति। ५।

कार्तिके कृष्णपक्षे च चतुर्दश्यां विधूदये
अवश्यमेव कर्त्तव्यं स्नानं च पापभीरुभिः।६।

पूर्वविद्धा चतुर्दश्या कार्तिकस्य सितेतरे
पक्षे प्रत्यूषसमये स्नानं कुर्यादतंद्रितः। ७।

तैले लक्ष्मीर्जले गंगा दीपावल्यां चतुर्दशीम्।
प्राप्तः स्नानं हि यः कुर्याद्यमलोकं न पश्यति। ८।

अपामार्गस्तथा तुम्बी प्रपुन्नाटं च वाह्वलम्।
भ्रामयेत्स्नानमध्ये तु नरकस्य क्षयाय वै ।९।

सीतालोष्टसमायुक्त सकंटक दलान्वित
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः पुनः पुनः ।१०।

अपामार्गं प्रपुन्नाटं भ्रामयेच्छिरसोपरि
ततश्च तर्पणं कार्यं यमराजस्य नामभिः ।११।

यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चांतकाय च
वैवस्ताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ।१२।

औदुंबराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः ।१३।

नरकाय प्रदातव्यो दीपः संपूज्य देवताः
ततः प्रदोषसमये दीपान्दद्यान्मनोहरान् ।१४।

ब्रह्मविष्णुशिवादीनां भवनेषु विशेषतः
कूटागारेषु चैत्येषु सभासु च नदीषु च ।१५।

प्राकारोद्यानवापीषु प्रतोली निष्कुटेषु च
मंदुरासु विविक्तासु हस्तिशालासु चैव हि ।१६।

एवं प्रभातसमये ह्यमावास्यां तु पावकं
स्नात्वा देवान्पितॄन्भक्त्या संपूज्याथ प्रणम्य च।१७।

कृत्वा तु पार्वणं श्राद्धं दधिक्षीरघृतादिभिः
भोज्यैर्नानाविधैर्विप्रान्भोजयित्वा क्षमापयेत् ।१८।

ततोपराह्णसमये पोषयेन्नागरान्प्रिय
तेषां गोष्ठीं च मानं च कृत्वा संभाषणं नृपः ।१९।

________________________________

वक्तृणां वत्सरं यावत्प्रीतिरुत्पद्यते गुह
अप्रबुद्धे हरौ पूर्वं स्त्रीभिर्लक्ष्मीः प्रबोधयेत् ।२०।

प्रबोधसमये लक्ष्मीं बोधयित्वा तु सुस्त्रिया
पुमान्वै वत्सरं यावल्लक्ष्मीस्तं नैव मुंचति ।२१।

अभयं प्राप्य विप्रेभ्यो विष्णुभीता सुरद्विषः
सुप्तं क्षीरोदधौ ज्ञात्वा लक्ष्मीं पद्माश्रितां तथा २२

त्वं ज्योतिः श्री रविश्चंद्रो विद्युत्सौवर्णतारकः
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपज्योतिः स्थिता तु या २३।

या लक्ष्मीर्दिवसे पुण्ये दीपावल्यां च भूतले
गवां गोष्ठे तु कार्तिक्यां सा लक्ष्मीर्वरदा मम २४

शंकरश्च भवानी च क्रीडया द्यूतमास्थितौ
भवान्याभ्यर्चिता लक्ष्मीर्धेनुरूपेण संस्थिता २५

गौर्या जित्वा पुरा शंभुर्नग्नो द्यूते विसर्जितः
अतोऽयं शंकरो दुःखी गौरी नित्यं सुखेस्थिता २६

प्रथमं विजयो यस्य तस्य संवत्सरं सुखम्
एवं गते निशीथे तु जने निद्रार्धलोचने २७

तावन्नगरनारीभिस्तूर्य डिंडिमवादनैः
निष्कास्यते प्रहृष्टाभिरलक्ष्मीश्च गृहांगणात् २८

पराजये विरुद्धं स्यात्प्रतिपद्युदिते रवौ
प्रातर्गोवर्द्धनः पूज्यो द्यूतं रात्रौ समाचरेत् २९

भूषणीयास्तथा गावो वर्ज्या वहनदोहनात्
गोवर्द्धनधराधार गोकुलत्राणकारक ३०

विष्णुबाहुकृतोच्छ्राय गवां कोटिप्रदो भव
या लक्ष्मीर्लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ३१

घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु
अग्रतः संतु मे गावो गावो मे संतु पृष्ठतः
गावो मे हृदये संतु गवां मध्ये वसाम्यहम् ३२

          इतिगोवर्द्धनपूजा

सद्भावेनैव संतोष्य देवान्सत्पुरुषान्नरान्
इतरेषामन्नपानैर्वाक्यदानेन पंडितान् ३३

वस्त्रैस्तांबूलदीपैश्च पुष्पकर्पूरकुंकुमैः
भक्ष्यैरुच्चावचैर्भोज्यैरंतःपुर निवासिनः ३४

ग्रामर्षभं च दानैश्च सामंतान्नृपतिर्धनैः
पदातिजनसंघांश्च ग्रैवेयैः कटकैः शुभैः ३५।

स्वानमात्यांश्च तान्राजा तोषयेत्स्वजनान्पृथक्
यथार्थं तोषयित्वा तु ततो मल्लान्नटांस्तथा ३६

वृषभांश्च महोक्षांश्च युद्ध्य्मानान्परैः सह
राजान्यांश्चापि योधांश्च पदातीन्स समलंकृतान् ३७

मंचारूढः स्वयं पश्येन्नटनर्तकचारणान्
योधयेद्वासयेच्चैव गोमहिष्यादिकं च यत् ३८

वत्सानाकर्षयेद्गोभिरुक्तिप्रत्युक्ति वादनात्
ततोपराह्णसमये पूर्वस्यां दिशि पावके ३९

मार्गपालद्यं प्रबध्नीयाद्दुर्गस्तंभेऽथ पादपे
कुशकाशमयीं दिव्यां लंबकैर्बहुभिर्गुह ४०

__________________________________

वीक्षयित्वा गजानश्वान्मार्गपाल्यास्तले नयेत्
गावैर्वृषांश्चमहिषान्महिषीर्घंटिकोत्कटाः ४१।

कृतहोमैर्द्विजेंद्रैस्तु बध्नीयान्मार्गपालिकाम्
नमस्कारं ततः कुर्यान्मंत्रेणानेन सुव्रतः ४२

मार्गपालि नमस्तुभ्यं सर्वलोकसुखप्रदे
मार्गपालीतले स्कंद यांति गावो महावृषाः ४३

राजानो राजपुत्राश्च ब्राह्मणाश्च विशेषतः
मार्गपालद्यं समुल्लंघ्य निरुजः सुखिनो हि ते ४४

कृत्वैतत्सर्वमेवेह रात्रौ दैत्यपतेर्बलेः
पूजां कुर्यात्ततः साक्षाद्भूमौ मंडलके कृते ४५

बलिमालिख्य दैत्येंद्रं वर्णकैः पंचरंगकैः
सर्वाभरणसंपूर्णं विंध्यावलिसमन्वितम् ४६

कूष्मांडमय जंभोरु मधुदानवसंवृतम्
संपूर्णं हृष्टवदनं किरीटोत्कटकुंडलम् ४७

द्विभुजं दैत्यराजानं कारयित्वा स्वके पुनः
गृहस्य मध्ये शालायां विशालायां ततोऽर्चयेत् ४८

मातृभ्रातृजनैः सार्द्धं संतुष्टो बंधुभिः सह
कमलैः कुमुदैः पुष्पैः कल्हारै रक्तकोत्पलैः ४९

________________________________

गंधपुष्पान्ननैवेद्यैः सक्षीरैर्गुडपायसैः
मद्यमांससुरालेह्य चोष्य भक्ष्योपहारकैः 
6.122.५०


मंत्रेणानेन राजेंद्र सः मंत्री सपुरोहितः
पूजां करिष्यते यो वै सौख्यं स्यात्तस्य वत्सरम्।५१।

बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो
भविष्येंद्र सुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।५२।

एवं पूजाविधिं कृत्वा रात्रौ जागरणं ततः
कारयेद्वै क्षणं रात्रौ नटनर्तकगायकैः ।५३।

लोकैश्चापि गृहस्यांते सपर्यां शुक्लतंडुलैः
संस्थाप्य बलिराजानं फलैः पुष्पैश्च पूजयेत् ।५४।

बलिमुद्दिश्य वै तत्र कार्यं सर्वं च पावके
यानि यान्यक्षयान्याहु ऋषयस्तत्वदर्शिनः।५५।

यदत्र दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु
तदक्षयं भवेत्सर्वं विष्णोः प्रीतिकरं शुभम् ।५६।


रात्रौ ये न करिष्यंति तव पूजां बलेर्नराः
तेषामश्रोत्रियं धर्मं सर्वं त्वामुपतिष्ठतु ।५७।

विष्णुना च स्वयं वत्स तुष्टेन बलये पुनः
उपकारकरं दत्तमसुराणां महोत्सवम् ।५८।

तदा प्रभृति सेनाने प्रवृत्ता कौमुदी सदा
सर्वोपद्रवविद्रावा सर्वविघ्नविनाशिनी। ५९।

लोकशोकहरा काम्या धनपुष्टिसुखावहा
कुशब्देन मही ज्ञेया मुद हर्षे ततो द्वयम् ।६०।

धातुत्वे निगमैश्चैव तेनैषा कौमुदी स्मृता
कौमोदं ते जना यस्मान्नानाभावैः परस्परम् ।६१।

हृष्टतुष्टाः सुखापन्नास्तेनैषा कौमुदी स्मृता
कुमुदानि बलेर्यस्यां दीयंते तेन षण्मुख ।६२।

अघार्थं पार्थिवैः पुत्र तेनैषा कौमुदी स्मृता
एकमेवमहोरात्रं वर्षेवर्षे च कार्तिके ।६३।

दत्तं दानवराजस्य आदर्शमिव भूतल
यः करोति नृपो राज्ये तस्य व्याधिभयं कुतः ।६४।

सुभिक्षं क्षेममारोग्यं तस्य संपदनुत्तमा
नीरुजश्च जनाः सर्वे सर्वोपद्रववर्जिताः ।६५।

कौमुदी क्रियते तस्माद्भावं कर्तुं महीतले
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां च षण्मुख ।६६।

हर्षदुःखादिभावेन तस्य वर्षं प्रयाति हि
रुदिते रोदते वर्षं हृष्टे वर्षं प्रहर्षितम्।६७।

भुक्ते भोक्ता भवेद्वर्षं स्वस्थे स्वस्थं भविष्यति
तस्मात्प्रहृष्टैः कर्त्तव्या कौमुदी च शुभैर्नरैः ।६८।

वैष्णवी दानवी चेयं तिथिः प्रोक्ता च कार्तिके ।६९।
दीपोत्सवंजनित सर्वजनप्रसादं कुर्वंति ये शुभतया                    बलिराजपूजाम्
दानोपभोगसुखबुद्धिमतां कुलानां हर्षं प्रयाति सकलं प्रभुदं च वर्षम्। ७०।


स्कंदैतास्तिथयो नूनं द्वितीयाद्याश्च विश्रुताः
मासैश्चतुर्भिश्च ततःप्रावृट्काले शुभावहाः ।७१।

प्रथमा श्रावणे मासि तथा भाद्रपदे परा
तृतीयाश्वयुजेमासि चतुर्थी कार्तिके भवेत् ।७२।

कलुषा श्रावणे मासि तथा भाद्रपदेमला
आश्विने प्रेतसंचारा कार्तिके याम्यकामता ।७३।
                        गुह उवाच
कस्मात्सा कलुषा प्रोक्ता कस्मात्सा निर्मला मता
कस्मात्सा प्रेतसंचारा कस्माद्याम्या प्रकीर्तिता।७४।
                       सूत उवाच
इति स्कंदवचः श्रुत्वा भगवान्भूतभावनः
उवाच वचनं श्लक्ष्णं प्रहसन्वृषभध्वजः ।७५।
                       महेश उवाच
पुरा वृत्रवधे वृत्ते प्राप्ते राज्ये पुरंदरे
ब्रह्महत्यापनोदार्थमश्वमेधः प्रवर्तितः ।७६।

क्रोधादिंद्रेण वज्रेण ब्रह्महत्या निषूदिता
षड्विधा सा क्षितौ क्षिप्ता वृक्षतोयमहीतले ।७७।

नार्यां भ्रूणहणिवह्नौ संविभज्य यथाक्रमम्
तत्पापश्रवणात्पूर्वं द्वितीयाया दिनेन च ।७८।

नारीवृक्षनदीभूमिवह्निभ्रूणहनस्तथा
कलुषीभवनं जातो ह्यतोर्थं कलुषा स्मृता ।७९।

मधुकैटभयो रक्ते पुरा मग्नानु मेदिनी
अष्टांगुला पवित्रा सा नारीणां तु रजोमलम् ।८०।

नद्यः प्रावृण्मला सर्वा वह्निरूर्ध्वं मषीमलः
निर्यासमलिना वृक्षाः संगाद्भ्रूणहनो मलाः ।८१।

कलुषानि चरंत्यस्यां तेनैषा कलुषा मता
देवर्षिपितृधर्माणां निंदका नास्तिकाः शठाः ।८२।

तेषां सा वाङ्मलात्पूता द्वितीया तेन निर्मला
अनध्यायेषु शास्त्राणि पाठयंति पठंति च ।८३।

सांख्यकास्तार्किकाः श्रौतास्तेषां शब्दापशब्दजात्
मलात्पूता द्वितीयायां ततोर्थे निर्मला च सा ।८४।

कृष्णस्य जन्मना वत्स त्रैलोक्यं पावितं भवेत्
नभस्येते विनिर्दिष्टा निर्मला सा तिथिर्बुधैः ।८५।

अग्निष्वात्ता बर्हिषद आज्यपाः सोमपास्तथा
पितॄन्पितामहान्प्रेतसंचारात्प्रेतसंचरा ।८६।

प्रेतास्तु पितरः प्रोक्तास्तेषां तस्यां तु संचरः
पुत्रपौत्रेस्तुदौहित्रैः स्वधामंत्रैस्तु पूजिताः ।८७।

श्राद्धदानमखैस्तृप्ता यांत्यतः प्रेतसंचरा
महालये तु प्रेतानां संचारो भुवि दृश्यते ।८८।

तेनैषा प्रेतसंचारा कीर्तिता शिखिवाहन
यमस्य क्रियते पूजा यतोऽस्या पावके नरैः ।८९।

_________________

तेनैषा याम्यका प्रोक्ता सत्यं सत्यं मयोदितम्
एतत्कार्तिकमाहात्म्यं ये शृण्वंति नरोत्तमाः।९०।

कार्तिकस्नानजं पुण्यं तेषां भवति निश्चितम् ।९१।
कार्तिके च द्वितीयायां पूर्वाह्णे यममर्चयेत्

भानुजायां नरः स्नात्वा यमलोकं न पश्यति ।९२।
कार्तिके शुक्लपक्षे तु द्वितीयायां तु शौनक
यमो यमुनया पूर्वं भोजितः स्वगृहेऽचितः ।९३।

द्वितीयायां महोत्सर्गो नारकीयाश्च तर्पिताः
पापेभ्यो विप्रयुक्तास्ते मुक्ताः सर्वनिबंधनात् ।९४।

आशंसिताश्च संतुष्टाः स्थिताः सर्वे यदृच्छया
तेषां महोत्सवो वृत्तो यमराष्ट्रसुखावहः ।९५।

अतो यमद्वितीयेयं त्रिषुलोकेषु विश्रुता
तस्मान्निजगृहे विप्र न भोक्तव्यं ततो बुधैः ।९६।

स्नेहेन भगिनीहस्ताद्भोक्तव्यं पुष्टिवर्द्धनं
दानानि च प्रदेयानि भगिनीभ्यो विधानतः ।९७।

स्वर्णालंकारवस्त्राणि पूजासत्कारसंयुतम्
भोक्तव्यं सह जायाश्च भगिन्याहस्ततः परम् ।९८।

सर्वासु भगिनीहस्ताद्भोक्तव्यं बलवर्द्धनम्
ऊर्जे शुक्लद्वितीयायां पूजितस्तर्पितो यमः ।९९।

महिषासनमारूढो दंडमुद्गरभृत्प्रभुः
वेष्टितः किंकरैहृष्टैस्तस्मै याम्यात्मने नमः 6.122.१००।

_________________
यैर्भगिन्यः सुवासिन्यो वस्त्रदानादि तोषिताः
न तेषां वत्सरं यावत्कलहो न रिपोर्भयम् ।१०१।

धन्यं यशस्यमायुष्यं धर्मकामार्थसाधनम्
व्याख्यातं सकलं पुत्र सरहस्यं मयानघ ।१०२।

यस्यां तिथौ यमुनया यमराजदेवः संभोजितः प्रतितिथौ स्वसृसौहृदेन
तस्मात्स्वसुः करतलादिह यो भुनक्ति प्राप्नोति वित्तशुभसंपदमुत्तमां सः ।१०३।

_________________________________
इति श्रीपाद्मेमहापुराणे पंचपंचाशत्ससहस्रसंहितायामुत्तरखंडे कार्तिकमाहात्म्ये
द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।१२२।




< भविष्यपुराणम् ‎ | पर्व ४ (उत्तरपर्व)
दीपालिकोत्सववर्णनम्

               ।।श्रीकृष्ण उवाच ।। 
पुरा वामनरूपेण याचयित्वा धरामिमाम् ।।
बलियज्ञे हरिः सर्वं क्रांतवान्विक्रमैस्त्रिभिः। १ ।।

इन्द्राय दत्तवान्राज्यं बलिं पातालवासिनम् ।।
कृत्वा दैत्यपतेर्वासमहोरात्रं पुनर्नृप ।। २ ।।

एकमेव हि भोगार्थं बलिराज्येतिचिह्नितम् ।।
सरहस्यं तदेतत्ते कथयामि नरोत्तम ।। ३ ।।

कार्त्तिके कृष्णपक्षस्य पञ्चदश्यां निशागमे ।।
यथेष्टचेष्टा दैत्यानां राज्यं तेषां महीतले ।। ४ ।। 

             ।।युधिष्ठिर उवाच ।। 
निश्शेषेण हृषीकेश कौमुदीं ब्रूहि मे प्रभो ।।
किमर्थं दीयते दानं तस्यां का देवता भवेत् ।। ५ ।।

किंस्वित्तस्यै भवेद्देयं केभ्यो देवं जनार्दन ।
प्रहर्षः कोऽत्र निर्दिष्टः क्रीडा कात्र प्रकीर्तिता।।६।
                 ।।श्रीकृष्ण उवाच ।। 
कार्त्तिके कृष्णपक्षे च चतुर्दश्यां दिनोदये ।।
अवश्यमेव कर्तव्यं स्नानं नरकभीरुभिः ।। ७ ।।

अपामार्गपल्लवान्वा भ्राभयेन्मस्तकोपरि ।।
सीतालोष्टसमायुक्तसकंटकदलान्वितान् ।। ८ ।।

हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणं पुनःपुनः ।।
आपदं किल्बिषं चापि ममापहर सर्वशः ।।

अपामार्ग नमस्तेस्तु शरीरं मम शोधय ।। ९ ।       ( इत्यपामार्ग भ्रमण मन्त्रः)

ततश्च तर्पणं कार्यं धर्मराजस्य नामभिः ।।
यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चांतकाय च ।।
वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च।4.140.१०।

नरकाय प्रदातव्यो दीपः संपूज्य देवताः ।।
ततः प्रदोषसमये दीपान्दद्यान्मनोरमान् ।। ११।

ब्रह्मविष्णुशिवादीनां भवनेषु मठेषु च ।।
कूटागारेषु चैत्येषु सभासु च नदीषु च ।।१२ ।।

प्राकारोद्यानवापीषु प्रतोलीनिष्कुटेषु च ।।
सिद्धार्हबुद्धचामुंडाभैरवायतनेषु च ।।
मंदुरासु विविक्तासु हस्तिशालासु चैव हि ।।१३ ।।

एवं प्रभातसमयेऽमावास्यायां नराधिप ।
स्नात्वा देवान्पितॄन्भक्त्या संपूज्याथ प्रणम्य च । १४।

कृत्वा तु पार्वणं श्राद्धं दधिक्षीरघृतादिभिः ।।
भोज्यैर्नानाविधैर्विप्रान्भोजयित्वा क्षमाप्य च।१५।

ततोऽपराह्णसमये घोषयेन्नगरे नृपः ।।
अद्य राज्यं बलेर्लोका यथेष्टं मोद्यतामिति ।। १६ ।।

लोकश्चापि परे हृष्येत्सुधाधवलिताजिरे ।।
वृक्षचन्दनमालाढ्यैश्चर्चिते च गृहेगृहे ।। १७ ।।

द्यूतपानरतोदृप्तनरनारीमनोहरे ।।
नृत्यवादित्रसंघुष्टे सम्प्रज्वलितदीपके ।। १८ ।।

अन्योन्यप्रीतिसंहृष्टदत्तलाभेन वै जने ।।
तांबूलहृष्ट वदने कुङ्कुमक्षोदचर्चिते ।। १९ ।।

दुकूलपट्टनेपथ्ये स्वर्णमाणिक्यभूषिते ।।
अद्भुतोद्भटशृंगारप्रदर्शितकुतूहले ।।4.140.२०।

युवतीजनसंकीर्णवस्त्रोज्ज्वलविहारिणि ।।
दीपमालाकुले रम्ये विध्वस्तध्वांतसञ्चये ।।
प्रदोषे दोषरहिते शस्तदोषागमे शुभे ।। २१ ।।

शशिपूर्णमुखाभिश्च कन्याभिः क्षिप्ततण्डुलम् ।।
नीराजनं प्रकर्तव्यं वृक्षशाखासु दीपकैः ।। २२ ।।

भ्राम्यमाणो नतो मूर्घ्नि मनुजानां जनाधिपः ।।
वृक्षशाखांतदीपानां निरस्ताद्दर्शनाद्व्रजेत् ।।
नीराजनं तु तेनेह प्रोच्यते विजयप्रदम् ।। २३ ।।

तस्माज्जनेन कर्तव्यं रक्षोदोषभयापहम् ।।
यात्राविहारसञ्चारे जयजीवेति वादिना ।। २४ ।।

क्षुद्रोपसर्गरहिते राजचौरभयोज्झिते ।।
मित्रस्वजनसम्बन्धिसुहत्प्रेमानुरंजिते ।। २५ ।।

ततोऽर्द्धरात्रसमये स्वयं राजा व्रजेत्पुरम् ।।
अवलोकयितुं रम्यं पद्भ्यामेव शनैःशनैः ।। २६ ।।

महता तूर्यघोषेण ज्वलद्भिर्हस्तदीपकैः ।।
कृतशोभां पुरीं पश्येत्कृतरक्षां स्वकैर्नरैः ।। २७ ।।

तं दृष्ट्वा महदाश्चर्यमृद्धिं चैवात्मनः शुभाम् ।।
बलिराज्यप्रमोदं च ततः स्वगृहमाव्रजेत् ।। २८ ।।

एवं गते निशार्धे तु जने निद्रार्द्रलोचने ।।
तावन्नगरनारीभिः शूर्पडिंडिमवादनैः ।।
निष्क्राम्यते प्रहृष्टाभिरलक्ष्मीः स्वगृहांगणात्।२९ ।।

ततः प्रबुद्धे सकले जने जातमहोत्सवे।
माल्यदीपकहस्ते च स्नेहनिर्भरलोचने। 4.140.३०।
__________________
वेश्या विलासिनी सार्धं स्वस्ति मंगलकारिणी।
गृहाद्गृहं व्रजन्ती च पादाभ्यंगप्रदायिनी।३१।।

पिष्टकोद्वर्तनपरे गुरुशुश्रूषणाकुले ।।
द्विजाभिवादनपरे सुखराज्याभिवीक्षणे ।। ३२ ।।

सुवासिनीभ्यो दाने च दीयमाने यदृच्छया ।।
यथाप्रभातसमये राजार्हमानयेज्जनम् ।। ३३ ।।

सद्भावेनैव सन्तोष्या देवाः सत्पुरुषा द्विजाः ।।
इतरे चान्नपानेन वाक्प्रदानेन पंडिताः ।। ३४ ।।

वस्त्रैस्तांबूलदानैश्च पुष्पकर्पूरकुंकुमैः ।।
भक्ष्यैरुच्चावचैर्भोज्यैरन्तःपुरविलासिनीः ।। ३५ ।।

ग्रामैर्विषयदानैश्च सामंतनृपतीन्धनैः ।।
पदातीनङ्गसंलग्नान्ग्रैवेयकटकैः स्वकान् ।। ३६ ।।

स्वयं राजा तोषयेत्स जनान्भृत्यान्पृथक्पृथक् ।।
यथार्हं तोषयित्वा तु ततो मल्लनटान्भटान् ।।३७।।
_______________________
वृषभान्महिषांश्चैव युध्यमानान्परैः सह ।।
गजानश्वांश्च योधांश्च पदातीन्समलंकृतान् ।।।३८।।

मंचारूढः स्वयं पश्येन्नटनर्तकचारणान् ।।
क्रुद्धापयेदानयेच्च गोमहिष्यादिकं ततः ।। ३९ ।।

दिष्ट्या कार्यं पयोज्योतिरुक्तिप्रत्युक्तिका वदेत् ।।
ततोपराह्नसमये पूर्वस्यां दिशि भारत ।। 4.140.४० ।।

मार्गपालीं प्रबध्नीयात्तुंगस्तंभेऽथ पादपे ।।
कुशकाशमयीं दिव्यां संभवे बहुभिर्वृताम् ।। ४१ ।।

पूजयित्वा गजान्वाजीन्सार्धे यामत्रये गते ।।
गावो वृषाः समहिषा मंडिता घटिकोत्कटाः।४२ ।।

कृते होमे द्विजेन्द्रैस्तु गृह्णीयान्मार्गपालिकाम् ।।
राष्ट्रभोज्येन धाराभिः सहस्रेण शतेन वा ।।४३।।

स्वशक्त्यपेक्षया वापि गृह्णीयाद्वामभोजनैः ।।
मातुः कुलं पितृकुलमात्मानं सहबंधुभिः ।। ४४।।

संतारयेत्स सकलं मार्गपालीं ददाति यः ।।
नीराजनं च तत्रैव कार्यं राज्ञे जयप्रदम् ।।४५।।

मार्गपालीतलेनेत्थं हया गावो गजा वृषाः ।।
राजानो राजपुत्राश्च ब्राह्मणा शूद्रजातयः ।। ४६ ।।

मार्गपालीं समुल्लंघ्य नीरुजः स्यात्सुखी सदा ।।
कृत्वैतत्सर्वमेवेह रात्रौ दैत्यपतेर्बलेः ।। ।। ४७ ।।

पूजां कुर्यान्नरः साक्षाद्भूमौ मंडलके कृते ।।
बलिमालिख्य दैत्येन्द्रं वर्णकैः पंचरंगकैः ।। ४८ ।।

सर्वाभरणसंपूर्णं विंध्यावल्या सहासितम्।।
कूष्मांडबाणजंघोरुमुरदानवसंवृतम् ।। ४९ ।।

संपूर्णहृष्टवदनं किरीटोत्कटकुण्डलम् ।।
द्विभुजं दैत्यराजानं कारयित्वा नृपः स्वयम्।।4.140.५०।।

गृहस्य मध्ये शालायां विशालायां ततोऽर्चयेत् ।।
भ्रातृमंत्रिजनैः सार्द्धं संतुष्टो वंदिभिः स्तुतः ।५१ ।

कमलैः कुमुदैः पुष्पैः कह्लारै रक्तकोत्पलैः ।।
गन्धधूपान्ननैवेद्यैरक्षतैर्गुडपूपकैः ।।५२।।
____________________________________

मद्यमांससुरालेह्यदीपवर्त्युपहारकैः।
मंत्रेणानेन राजेन्द्र समंत्री सपुरोहितः।५३।

बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो ।।
भविष्येन्द्रसुराराते पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।। ५४ ।।

एवं पूजां नृपः कृत्वा रात्रौ जागरणं ततः ।।
कारयेत्प्रेक्षणीयादि नटक्षत्रकथानकैः ।। ५५ ।।

लोकश्चापि गृहस्यांते शय्यायां शुक्लतंडुलैः ।।
संस्थाप्य बलिराजानं फलैः पुष्पैश्च पूजयेत् ।५६।

बलिमुद्दिश्य दीयंते दानानि कुरुनन्दन ।।
यानि तान्यक्षयाण्याहुर्मयैवं संप्रदर्शितम् ।। ५७ ।।

यदस्यां दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु ।
तदक्षयं भवेत्सर्वं विष्णोः प्रीतिकरं परम् ।।५८।।

विष्णुना वसुधा लब्धा प्रीतेन बलये पुनः ।।
उपकारकरो दत्तश्चासुराणां महोत्सवः ।। ५९ ।।

ततः प्रभृति राजेन्द्र प्रवृत्ता कौमुदी पुनः ।।
सर्वोपद्रवविद्रावि सर्वविघ्नविनाशिनी ।।4.140.६०।।

लोकशोकहरी काम्या धनपुष्टिसुखावहा ।।
कुशब्देन मही ज्ञेया मुदी हर्षे ततः परम् ।। ६१।।

धातुज्ञैर्नैगमज्ञैश्च तेनैषा कौमुदी स्मृता ।।
कौ मोदन्ते जना यस्यां नानाभावैः परस्परा।६२।

हृष्टास्तुष्टाः सुखायत्तास्तेनैषा कौमुदी स्मृता ।।
कुमुदानि बलेर्यस्माद्दीयन्तेऽस्यां युधिष्ठिर ।। ६३ ।।

अर्थार्थे पार्थ भूमौ च तेनैषा कौमुदी स्मृता ।।
एकमेवमहोरात्रं वर्षे वर्षे विशांपते ।। ६४ ।।

दत्तं दानवराजस्य आदर्शमिव भूतले ।।
यः करोति नृपो राष्ट्रं तस्य व्याधिभयं कुतः।६५ ।।

कुत ईति भयं तत्र नास्ति मृत्युकृतं भयम् ।।
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं सर्वसम्पद उत्तमाः ।। ६६ ।।

नीरुजश्च जनाः सर्वे सर्वोपद्रववर्जिताः ।।
कौमुदीकरणाद्राजन्भवतीह महीतले ।। ६७ ।।

यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर ।।
हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति हि ।। ६८ ।।

रुदिते रोदिति वर्षं हृष्टो वर्षं प्रहृष्यति।
भुक्तौ भोक्ता भवेद्वर्षं स्वस्थः स्वस्थो भवेदिति।६९।

तस्मात्प्रहृष्टैस्तुष्टैश्च कर्तव्या कौमुदी नरैः।।
वैष्णवी दानवी चेयं तिथिः पैत्री युधिष्ठिर। 4.140.७०।।

उपशमितमेघनादं प्रज्वलितदशाननं रमितरामम्।
रामायणमिव सुभगं दीपदिनं हरतु वो दुरितम् । ७१।।

कूष्माण्डादानरम्यं कुवलयखण्डैश्च धातुकाभद्रम्।
शरदिव हरिगतनिद्रं दीपदिनं हरतु वो दुरितम् ।।७२।।

दीपोत्सवे जनितसर्वजनप्रमोदां कुर्वंति ये सुमनसो बलिराजपूजाम् ।।
दानोपभोगसुखवृद्धिशताकुलानां हर्षेण वर्षमिह पार्थिव याति तेषाम् ।।७३।।
__________________

इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरप र्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपालिकोत्सववर्णनं नाम चत्वारिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः ।१४० ।।


स्कन्दपुराणम्/खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)कार्तिकमासमाहात्म्यम्
–अध्यायः ०७

< स्कन्दपुराणम्‎ | खण्डः २
 (वैष्णवखण्डः)‎ | कार्तिकमासमाहात्म्यम्
           ।। नारद उवाच ।। 
भगवन्कृतकृत्योऽस्मि तव पादसमाश्रयात् ।।
श्रोतव्यं नेह भूयो मे विद्यते देवसत्तम ।। १ ।।

तथापि भगवन्किंचित्प्रष्टव्यं मे हृदि स्थितम्।।
त्वद्वाक्यामृतपीतस्य न मे तृप्तिर्हि जायते ।।२।।

दीपदानस्य माहात्म्यं श्रोतुमिच्छामि ते प्रभो ।।
येन चाऽपि पुरा दत्तस्तद्वदस्व चतुर्मुख ।।३।।
              ।। ब्रह्मोवाच ।। 
प्रातः स्नात्वा शुचिर्भूत्वा दीपं दद्यात्प्रयत्नतः ।।
तेन पापानि नश्येयुस्तमांसीव भगोदये ।।४।।

आजन्म यत्कृतं पापं स्त्रिया वा पुरुषेण च ।।
तत्सर्वं नाशमायाति कार्तिके दीपदानतः ।। ५ ।।

अत्र ते वर्णयिष्यामि इतिहासं पुरातनम् ।।
श्रवणात्सर्वपापघ्नं दीपदानफलप्रदम् ।। ६ ।।

पुरा द्रविडदेशे तु ब्राह्मणो बुद्धनामकः ।।
तस्य भार्याऽभवद्दुष्टा अनाचाररता मुने ।। ७ ।।

तस्याः संसर्गदोषेण क्षीणाऽऽयुर्मृतिमाप्तवान् ।
पत्यौ मृतेऽपि सा पत्नी अनाचारे विशेषतः।८ ।।

रताभून्न हि तस्यास्तु लज्जा लोकापवादतः ।।
सुतबंधुविहीना सा सदाभिक्षान्नभोजना ।। ९ ।।

न संस्कारान्नमल्पं वा भुक्त्वा पर्युषिताशिनी ।।
परपाकरता नित्यं तीर्थयात्रादिवर्जिता ।। ।। 2.4.7.१०।

कथायाः श्रवणं चैव न श्रुतं तु तया द्विज ।।
एकदा ब्राह्मणः कश्चित्तीर्थयात्रापरायणः ।। ११ ।।

तस्या गृहं समागच्छद्विद्वान्वै कुत्सनामकः ।।
अनाचाररतां तां तु दृष्ट्वा ब्रह्मर्षिसत्तमः ।।
कोपेन रक्तचक्षुः संस्तामुवाचाऽसतीं स्त्रियम् ।। १२ ।।
                ।। कुत्स उवाच ।।
वक्ष्यामि सांप्रतं मूढे मद्वाक्यमवधारय ।।१३।।
दुःखहेतुमिमं देहं पूयशोणितपूरितम् ।।
पंचभूतात्मकं चैव किं च पुष्णासि दूतिके ।।१४ ।।

जलबुद्बुदवद्देहो नाशमायाति निश्चितम् ।।
अनित्यं देहमाश्रित्य नित्यं त्वं मन्यसे हृदि ।१५ ।

तस्मादंतःस्थितं मोहं त्यज मूढे विचारतः ।।
स्मर सर्वोत्तमं देवं कुरु श्रवणमादरात् ।। १६ ।

कार्तिके मासि संप्राप्ते स्नानदानादिकं कुरु ।।
दामोदरस्य प्रीत्यर्थं दीपदानं तथा कुरु ।।१७ ।।

लक्षवर्त्यादिकं चैव लक्षपद्मादिकं तथा ।।
प्रदक्षिणां तु देवस्य नमस्कारं तथैव च ।। १८ ।।

धारणं पारणं चैव कुरु भक्त्या हि कार्तिके ।।
विधवानां व्रतमिदं सधवानां तथैव च ।। १९ ।।

सर्वपापप्रशमनं सर्वोपद्रवनाशनम् ।।
तत्राऽपि कार्तिके मासि दीयतां दीप उत्तमः ।। 2.4.7.२० ।।

दीपो हरेः प्रियकरः कार्तिके मासि निश्चितम् ।।
महापातककृद्वापि दीपदानात्प्रमुच्यते ।। २१ ।।

पुरा कश्चिद्द्विजवरो नाम्ना हरिकरो ह्यभूत् ।।
अधर्मविषयासक्तः शश्वद्वेश्यारतो द्विजः ।। २२ ।।

पितृवित्तक्षयकरो वंशच्छेदे कुठारकः ।।
कदाचित्तेन विधवे द्यूते पितृधनं महत् ।। २३ ।।

हारितं दुष्टसंसर्गात्ततो दुःखी स चाऽभवत् ।।
कदाचित्साधुसंसर्गात्तीर्थयात्राप्रसंगतः ।। २४ ।।

अयोध्यामागतो वत्से महापापकरो द्विजः ।।
कार्तिके मासि संप्राप्तः श्रीमद्द्विजगृहे सदा ।।२५।।

द्यूतव्याजेन तेनाऽऽशु दीपो दत्तो हरेः पुरः ।।
ततः कालांतरे विप्रो मृतो मोक्षमवाप्तवान् ।२६ ।।

महापातककृद्वाऽपि गतवानभयं हरिम् ।।
तस्मात्त्वं कार्तिके मासि दीपदानं तथा कुरु ।२७।

तथाऽन्यान्यपि दानानि कुरु भक्तिसमन्विता ।।
इत्यादिश्याथ तां कुत्सो जगामाऽन्यगृहं द्विजः ।। २८ ।।
साऽपि कुत्सवचः श्रुत्वा पश्चात्तापेन संयुता ।।
व्रतं तु कार्तिके मासि करिष्यामीति निश्चिता।२९ ।

पतंगोदयवेलायां कार्तिके स्नानमंभसि ।।
दीपदानं वत चैव मासमेकं चकार सा ।। 2.4.7.३०।

ततः कालांतरे चैव गतायुर्मृतिमागता ।।
दीपदानस्य माहात्म्यान्महापापकृदप्यसौ ।३१।

स्वर्गमार्गं गता सा स्त्री काले मोक्षमवाप ह ।।
तस्मान्नारद माहात्म्यं दीपदानस्य को वदेत् ।३२।

कार्तिके दीपदानं तु महापुण्यफलप्रदम् ।।
कार्तिकव्रतनिष्ठो यो दीपदानादिकृन्नरः ।। ३३ ।

दीपदानस्येतिहासं शृण्वन्वै मोक्षमाप्नुयात् ।३४।

दीपदानस्य माहात्म्यं वक्तुं केनेह शक्यते ।।
परदीपप्रबोधस्य माहात्म्यं शृणु नारद ।। ३५ ।।

स्वस्याऽपि शक्तिराहित्ये परस्याऽपि प्रबोधनम् ।
यः कुर्याल्लभते सोऽपि नाऽत्र कार्या विचारणा । ३६ ।

दीपार्थं वर्तिकां तैलं पात्रं वा यो ददाति हि ।।
सहायं वाऽथ कुरुते ददतां दीपमुत्तमम् ।। ३७ ।।

स तु मोक्षमवाप्नोति नाऽत्र कार्या विचारणा ।
कार्तिके दीपदानस्य माहात्म्यं को नु वर्णयेत् ।३८।

स्वस्यापि शक्तिराहित्ये परदीपं प्रबोधयेत् ।।
सोऽपि तत्फलमाप्नोति नाऽत्र कार्या विचारणा।३९।

वेश्या चेन्दुमतीनाम तस्या गेहेऽथ मूषिका ।।
परदीपप्रबोधेन मोक्षं प्राप सुदुर्लभम् ।। 2.4.7.४० ।।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन परदीपं प्रबोधयेत् ।।
तेन मोक्षमवाप्नोति मूषिकावन्न संशयः ।। ४१ ।।

परदीपप्रबबोधस्य फलमीदृग्विधं मुने ।।
साक्षाद्दीपप्रदानस्य माहात्म्यं केन वर्ण्यते ।। ४२ ।

                ।। नारद उवाच ।। ।।
कार्तिके दीपदानस्य माहात्म्यं च मया श्रुतम् ।।
परदीप प्रबोधस्य माहात्म्यमपि वै श्रुतम् ।।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि व्योमदीपस्य वैभवम् ।४३।

                   ।। ब्रह्मोवाच ।।
आकाशदीप माहात्म्यं शृणु पुत्र समाहितः ।।
यस्य श्रवणमात्रेण दीपदाने मतिर्भवेत् ।। ४४ ।।

संप्राप्ते कार्तिके मासि प्रातःस्नानपरायणः ।।
आकाशदीपं यो दद्यात्तस्य पुण्यं वदाम्यहम् ।४५।।

सर्वलोकाधिपो भूत्वा सर्वसंपत्समन्वितः ।।
इह लोके सुखं भुक्त्वा चांते मोक्षमवाप्नुयात् ।४६ ।

स्नानदानक्रियापूर्वं हरिमंदिरमस्तके ।।
आकाशदीपो दातव्यो मासमेकं तु कार्तिके ।।
कार्तिके शुद्धपूर्णायां विधिनोत्सर्जयेच्च तम्।४७।

यः करोति विधानेन कार्तिके व्योम्नि दीपकम् ।।
न तस्य पुनरावृत्तिः कल्पकोटिशतैरपि ।। ४८ ।।

अत्र ते वर्णयिष्यामि इतिहासं पुरातनम् ।।
यस्य श्रवणमात्रेण व्योमदीपफलं लभेत् ।४९।

पुरा तु निष्ठुरोनाम लुब्धको लोककंटकः ।।
यमुनातीरवासी च कालमृत्युरिवाऽपरः ।। 2.4.7.५० ।।

वने चरन्मृगान्सर्वान्हत्वा वृत्तिमकल्पयत् ।।
पथिकान्बाधते नित्यं चोरवृत्त्या धनुर्धरः।५१।

कंचिद्ग्रामं जगामाशु चौर्यार्थं कार्तिके मुने ।।
तस्मिन्विदर्भनगरे राजा सुकृतिनामकः ।। ५२ ।।

चन्द्रशर्माख्यविप्रस्य वचनात्कार्तिके सुधीः ।।
चकार व्योमदीपं तु हरिमंदिरमस्तके ।। ५३ ।।

दीपं दत्त्वा महाभक्त्या अशृणोच्च कथां निशि ।।
एतस्मिन्नेव काले तु चौर्यार्थं समुपागतः ।५४ ।।

राज्ञा दत्तं व्योमदीपं पश्यन्क्षणमतिष्ठत ।।
तदानीं दैवयोगेन गृध्रो जवसमन्वितः ।। ५५ ।।

शीघ्रमागत्य जग्राह तैलपात्रं सदीपकम् ।।
स्वमुखेनैव संगृह्य वृक्षाग्रं च समाश्रयत् ।। ५६ ।।

तत्र पीत्वा तु तैलं च दीपं स्थाप्य स पक्षिराट् ।।
वृक्षाग्रं तु समास्थाय क्षणमात्रमतिष्ठत ।। ५७ ।।

तदानीं दैवयोगेन ग्रहीतुं पक्षिसत्तमम् ।।
मार्जारोऽप्यारुहद्वृक्षं पक्षिणाऽधिष्ठितं तु तम् ।५८।

तदग्रे मुखदीपं च पश्यन्क्षणमतिष्ठत ।।
आकाशदीपमाहात्म्यं कथितं चन्द्रशर्मणा ।५९ ।
राज्ञे सुकृतिनाम्ने च तौ वै शुश्रुवतुः क्षणम् ।।
खगमार्जारकौ तत्र स्वस्वचामचल्यदोषतः ।। 2.4.7.६० ।।
मार्जारो जगृहे तत्र शाखामतरगतं खगम् ।।
दैवेन चोदितौ वृक्षाच्छिलायां पतितौ तदा ।६१।।

भग्नगात्रौ मृतौ तत्र पक्षिमार्जारकौ भुवि ।।
दिव्यदेहसमायुक्तौ यानारूढौ दिवं गतौ ।। ६२ ।।

तत्सर्वं लुब्धको दृष्ट्वा चौर्यार्थं समुपागतः ।।
निवृत्तो दुष्टभावेन कथयंतं कथां मुनिम् ।। ६३ ।।

चंद्रशर्माणमाभाष्य इदं वचनमब्रवीत् ।।
चंद्रशर्मन्मया दृष्टं चौर्यार्थं ह्यागतेन च ।।६४।।

राज्ञा सुकृतिना दत्तं व्योमदीपं मनोहरम् ।।
तदानीं दैवयोगेन खगः पात्रं प्रगृह्य च ।। ६५ ।।

तैलं पीत्वा तु तत्पात्रं सदीपं तु मनोहरम् ।।
वृक्षाग्रे स्थापयित्वा च तत्र क्षणमतिष्ठत ।। ६६ ।।

मार्जारोऽप्यागतस्तत्र ग्रहीतुं पक्षिपुंगवम् ।।
दैवेन प्रेरितौ तौ च उभे शाखे समाश्रितौ ।।६७ ।।

त्वन्मुखात्कथ्यमानां हि कथां शुश्रुवतुः क्षणम् ।।
पश्चाच्चांचल्यदोषेण मार्जारो ह्यग्रहीत्खगम् ।६८।

तौ वृक्षात्पतितौ मृत्युं प्राप्तौ च क्षणमात्रतः ।।
उभौ तौ दिव्यरूपौ च यानारूढौ दिवं गतौ ।६९ ।

तदाश्चर्यमहं दृष्ट्वा त्वां प्रष्टुं समुपागतः ।।
तौ कौ पुरा च मार्जारखगौ तद्वद भो द्विज। 2.4.7.७०।

तिर्यग्योनिसमापन्नौ मुक्तौ केन च कर्मणा ।।
इति लुब्धवचः श्रुत्वा चंद्रशर्माऽब्रवीत्तदा ।७१ ।

शृणु लुब्ध प्रवक्ष्यामि तयोर्वृत्तांतमंजसा ।।
मार्जारोऽपि पुरा पापी तथा श्रीवत्सगोत्रजः । ७२।

देवशर्मा इति प्रोक्तो देवद्रव्याऽपहारकः ।।
अहोबलनृसिंहस्य पूजाकर्तृत्वमाप सः।। ७३ ।।

तस्मिन्देवालये प्राप्तं तैलं द्रव्यादिकं तथा ।।
अपहृत्य च तेनैव कुटुंबं पोषयत्यसौ ।। ७४ ।।

आयुर्नीत्वैवमेवाऽसौ ततः पंचत्वमागतः ।।
तस्मात्पापात्कालसूत्रं महारौरवरौरवम् ।। ७५ ।।

निरुच्छ्वासं तथा प्राप्य असिपत्रवनं क्रमात् ।।
छिद्यमानो महाकायैर्यमदूतैर्भयंकरैः ।। ७६ ।।

अनुभूय च तान्सर्वान्ब्रह्मराक्षसतां गतः ।।
ततस्तु श्वानयोनौ च चंडालोऽभूत्कुकर्मतः ।७७ ।

एवं जन्मशतं प्राप्य भूमौ मार्जारतां गतः ।।
आकाशदीपमाहात्म्यं श्रुत्वेदानीं तु दैवतः ।।
निर्मुक्ताऽखिलपापस्तु अगमद्धरिमंदिरम् ।। ७८।

गृध्रोऽयं तु पुरा विप्रो मिथिले वेदपारगः ।।
शर्यातिरिति विख्यातौ नाम्ना लोके महाप्रभुः।७९।

दासीसंगं चकारासौ वेश्यासंगं तथैव च ।।
तेन दोषेण महता पंचत्वमगमत्तदा ।।2.4.7.८०।

कुंभीपाके महाघोरे स्थित्वा युगचतुष्टयम् ।।
कर्मशेषेण भूमौ च गृध्रत्वमगमत्तदा ।। ८१ ।।

दैवेन चोदितो गृध्रस्तैलपानार्थमागतः ।।८२।।

दत्त्वा चाकाशदीपं च श्रुत्वा चैव हरेः कथाम् ।।
विध्वस्ताऽखिलपापस्तु जगाम हरिमंदिरम् ।८३ ।

इत्येतत्सर्वमाख्यातं लुब्ध गच्छ यथासुखम् ।।
व्याधोऽप्यस्य वचः श्रुत्वा गत्वा चैव स्वमंदिरम् । ८४ ।

व्रतं चाकाशदीपस्य चकार विधिवन्मुने ।।
आयुःशेषं तदा नीत्वा जगाम हरिमंदिरम् ।। ८५ ।।

सुनंदोपि महाराज आश्चर्यं समुपागतः ।।
चकार विधिना मासं चंद्रशर्मोक्तमार्गतः ।। ८६ ।।

प्रातः स्नात्वा शुचिर्भूत्वा कार्तिके मासि वै नृपः ।।
कोमलैस्तुलसीपत्रैः समभ्यर्च्य जनार्दनम् ।। ८७ ।।

रात्रौ दद्याद्व्योमदीपं मंत्रेणानेन वै नृपः।। ८८ ।।

दामोदराय विश्वाय विश्वरूपधराय च ।।
नमस्कृत्वा प्रदास्यामि व्योमदीपं हरिप्रियम् ।।
निर्विघ्नं कुरु देवेश यावन्मासः समाप्यते ।। ८९ ।।

व्रतेनाऽनेन देवेश त्वयि भक्तिः प्रवर्द्धताम् ।।
इति मंत्रेण राजाऽसौ दीपदानं चकार ह ।। 2.4.7.९० ।।

ब्राह्मे मुहूर्ते च पुनर्व्योमदीपं ददाति हि ।।
विष्णोः पूजा कृता प्रातः प्रातःस्नानं चकार ह । ९१।

उत्सर्गस्य विधिं कृत्वा व्योम्नि दीपं समाप्य च ।।
ब्राह्मणान्भोजयित्वा च व्रतं विष्णोः समार्पयत् ।। ९२ ।।

तेन पुण्यप्रभावेन स राजा मुनिसत्तम ।।
शरदां शतसाहस्रमिह भोगान्मनोहरान् ।। ९३ ।।

सुपुत्रपौत्रस्वजनैर्बुभुजे सह भार्यया ।।
ततश्चांऽते द्विजवर विमानं सुमनोहरम् ।। ९४ ।।

स्त्रीभिः सह समारुह्य मोक्षमार्गं गतो मुने ।।
चतुर्भुजः पीतवासाः शंखचक्रगदाधरः ।। ९५ ।।

विष्णुलोके विष्णुरिव प्रोच्यमानः सदाऽमरैः ।।
क्रीडयामास राजाऽसौ यथाकामं महामनाः।९६ ।

तस्मात्तु कार्तिके मासि मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम् ।।
आकाशदीपो दातव्यो विधानेन हरेः प्रियः ।।९७।।

दास्यंति ये कार्तिकमासि मर्त्या व्योमप्रदीपं हरितुष्टयेऽत्र ।।
पश्यंति ते नैव कदाऽपि देवं यमं महाक्रूरमुखं मुनींद्र ।। ९८ ।।

अथाऽन्यच्च प्रवक्ष्यामि व्योमदीपस्य वैभवम् ।।
वालखिल्यैः पुरा प्रोक्तं तच्छृणुष्व द्विजोत्तम।९९।
           ।। वालखिल्या ऊचुः ।। 
कृष्णादिमासक्रमतः कार्तिकस्यादिमासतः ।।
आकाशादीपदानं तु कुर्वंतु ऋषिसत्तमाः ।। 2.4.7.१००।

तुलायां तिलतैलेन सायं संध्यासमागमे ।।
आकाशदीपं यो दयान्मासमेकं निरंतरम् ।। १ ।।

सश्रीकाय श्रीपतये श्रिया न स वियुज्यते ।।
आकाशदीपवंशस्तु विंशद्धस्तोत्तमो भवेत् ।। २ ।।

मध्यमो नवहस्तः स्यात्कनिष्ठः पंचहस्तकः ।।
यथा दूरस्थितैर्लोकैर्दृश्यते तत्तथाऽऽचरेत् ।। ३ ।।

तथाऽभ्रादिकरंडेषु दीपदानं विशिष्यते ।।
वंशस्य नवमांशेन लंबा कार्या पताकिका ।। ४ ।।

मयूरपिच्छमुष्टिं वा कलशं चोपरि न्यसेत् ।।
विष्णुप्रीतिकरो दीपः पित्रुद्धारस्य कारकः ।। ५ ।।

एकादश्यास्तुलार्काद्वा दीपदानमतोऽपि वा ।।
दामोदराय नभसि तुलायां लोलया सह ।।६।।

प्रदीपं ते प्रयच्छामि नमोऽनंताय वेधसे ।।
आकाशदीपसदृशं पितुरुद्धारकं नहि ।। ७ ।।

हेलिकस्य च द्वौ पुत्रौ तत्रैकस्तु पिशाचकः ।।
व्योमदीपपुण्यदानान्मोक्षं प्राप सुदुर्लभम् ।। ८ ।।

नमः पितृभ्यः प्रेतेभ्यो नमो धर्माय विष्णवे ।।
नमो यमाय रुद्राय कांतारपतये नमः ।। ९ ।।

मन्त्रेणाऽनेन ये मर्त्याः पितृभ्यः खे तु दीपकम् ।।
प्रयच्छंति गता ये स्युर्नरके यांति तेऽपि वै ।।
उत्तमां गतिमित्थं ते दीपदानं मयेरितम् ।। 2.4.7.११० ।।

लक्ष्मीसंततिसिद्ध्यर्थमारोग्याय प्रदीपयेत् ।११ ।।

कार्तिके कृष्णपक्षे तु द्वादश्यादिषु पंचसु ।।
तिथीषूक्तः पूर्वरात्रे नृणां नीराजनाविधिः ।। १२ ।।

ब्रह्मविष्णुशिवादीनां भवनेषु विशेषतः ।।
कूटागारेषु चैत्येषु सभासु च नदीषु च ।। १३ ।।

प्राकारोद्यानवापीषु प्रतोलीनिष्कुटेषु च ।।
मन्दुरासु विविक्तासु हस्तिशालासु चैव हि।१४ ।।

प्रदोषसमये दीपान्दद्यादेवं मनोहरान् ।।
कृतं यैः कार्तिके मासि दीपदानं विधानतः ।। १५।

दृश्यंते ये रत्नभाजस्तेऽत एव प्रकीर्तिताः ।।
दीपदानासमर्थश्चेत्परदीपं तु रक्षयेत् ।। १६ ।।

यो वेदाभ्यासिने दद्याद्दीपार्थं तैलमादरात् ।।
को वा तस्य फलं वक्तुं भुवि तिष्ठति मानवः
१७ ।।

दीपान्दद्याद्बहुविधान्कार्तिके विष्णुसंनिधौ ।।
कार्तिके मासि संप्राप्ते गगने स्वच्छताके ।।१८।।

रात्रौ लक्ष्मीः समायाति द्रष्टुं भुवनकौतुकम् ।।
यत्रयत्र च दीपान्सा पश्यत्यब्धिसमुद्भवा ।। १९ ।।

तत्रतत्र रतिं कुर्यान्नांधकारे कदाचन ।।
तस्माद्दीपः स्थापनीयः कार्तिके मासि वै सदा ।। 2.4.7.१२० ।।

लक्ष्मीरूपार्थिनां प्रोक्तं दीपदानं विशेषतः ।।
देवाऽऽलये नदीतीरे राजमार्गे विशेषतः ।। २१ ।।

निद्रास्थले दीपदाता तस्य श्रीः सर्वतोमुखी ।।
दुर्बलस्याऽऽलयं वीक्ष्य दीपशून्यं तु यो ददेत् ।। २२।
 विप्रस्य वाऽन्यवर्णस्य विष्णुलोके महीयते।।
कीटकंटकसंकीर्णे दुर्गमे विषमस्थले ।। २३ ।।

कुर्याद्यो दीपदानानि नरकं स न गच्छति ।।
दद्याद्रात्रौ पंचनदे दीपं यो विधिपूर्वकम् ।। २४ ।।

तस्य वंशे प्रजायन्ते बालकाः कुलदीपकाः ।।
पितृपक्षेऽन्नदानेन ज्येष्ठाऽऽषाढे च वारिणा ।। २५।

कार्तिके तत्फलं तेषां परदीपप्रबोधनात् ।।
बोधनात्परदीपस्य वैष्णवानां च सेवनात् ।।२६।।

कार्तिके फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः ।।
पुरा हरिकरोनाम द्विजः पापरतः सदा ।।२७ ।।

कृतं द्यूतप्रसंगेन दीपदानं हि कार्तिके ।।
तेन पुण्यप्रभावेन स्वर्गं प्राप द्विजोत्तमः ।। २८ ।।

आकाशदीपदानेन पुरा वै धर्मनन्दनः ।।
विमानवरमारुह्य विष्णुलोकं ययौ नृपः ।।२९।।

यः कुर्यात्कार्तिके विष्णोः पुरः कर्पूरदीपकम् ।।
प्रबोधिन्यां विशेषेण तस्य पुण्यं वदाम्यहम् ।।2.4.7.१३०।।

कुले तस्य प्रसूता ये पुरुषास्ते हरिप्रियाः ।।
क्रीडित्वा सुचिरं कालमन्ते मुक्तिं व्रजंति च ।३१ ।।
_________________________________
दीपको ज्वलते यस्य दिवा रात्रौ हरेर्गृहे ।।
एकादश्यां विशेषेण स याति हरिमन्दिरम्।।३२।।

लुब्धकोऽपि चतुर्दश्यां दीपं दत्त्वा शिवालये ।।
भक्त्या विना परे लिंगे शिवलोकं जगाम सः।३३।
_____________________________________
गोपः कश्चिदमावास्यां दीपं प्रज्वाल्य शार्ङ्गिणः।
मुहुर्जयजयेत्युक्त्वा स च राजेश्वरोऽभवत्।। १३४।।

किसी  गोप ने  कार्तिक अमावस्या में  दीप जलाकर  शारङ्गिण भगवान विष्णु की बार-बार जय जय बोलने के द्वारा  राजेश्वर ( सम्राट) पद को प्राप्त किया था।

___________
 राजेश्वर=राजाओं का राजा। राजेंद्र। महाराज। सम्राट ।

____________________________
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे कार्तिकमासमाहात्म्ये दीपदानमाहात्म्यवर्णनंनाम सप्तमोऽध्यायः । ७ ।

अध्याय 7 - दीपों के उपहार की विशेष प्रभावकारिता

इस अध्याय के लिए संस्कृत पाठ उपलब्ध है ]

नारद ने कहा :

1. हे प्रभु, मैं वह हूं जिसने आपके चरणों का सहारा लेकर अपने उद्देश्यों को पूरा किया है। मेरे द्वारा आगे कुछ भी नहीं सुना जाना है, हे उत्कृष्ट देव ।

2. फिर भी, हे प्रभु, मेरे हृदय में कुछ ऐसा छिपा है, जिसे पूछा जाना बाकी है। आपकी वाणी का अमृत पीकर मैं अभी पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं हूँ।

3. हे प्रभु, मैं दीपदान करने की विशेष प्रभावकारिता सुनना चाहता हूं। हे चतुर्मुखी प्रभु, मुझे बताओ कि वे कौन थे, जिनके द्वारा यह उपहार पूर्व में दिया गया था।

ब्रह्मा ने कहा :

4. एक भक्त को सुबह जल्दी स्नान करना चाहिए। तन और मन से शुद्ध रहकर उसे यत्नपूर्वक दीपक अर्पित करना चाहिए। इस प्रकार सूर्य के उदय होते ही पाप अन्धकार की नाईं नाश हो जाएंगे।

5. जन्म से ही स्त्री या पुरुष ने जो भी पाप किया है, वह कार्तिक मास में दीपदान करने से नष्ट हो जाएगा ।

6. इस संबंध में मैं आपको एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ। इसके श्रवण से समस्त पापों का नाश होता है। इससे दीपदान करने का पुण्य मिलता है।

7. पूर्व में, द्रविड़ों की भूमि में बुद्ध नाम के एक ब्राह्मण थे । उसकी पत्नी एक दुष्ट स्त्री थी जो अनैतिक आचरण में लिप्त थी, हे ऋषि।

8-12. उसके साथ उसके संपर्क के एक बुरे परिणाम के रूप में, उसका जीवन छोटा हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। पति के मर जाने के बाद भी पत्नी और भी दुष्कर्म करती रही। दुनिया में अपनी बदनामी पर भी उन्हें कभी शर्म नहीं आई। कोई पुत्र या रिश्तेदार न होने के कारण, वह अपना भोजन भिक्षा के रूप में प्राप्त करती थी। उसे कभी भी पवित्र भोजन लेने का अवसर नहीं मिला। वह नियमित रूप से बासी खाना खाती थी। वह दूसरों के द्वारा पकाए गए भोजन की आदी थी। उसने कभी तीर्थयात्रा आदि नहीं की। उसने पवित्र कथाओं और किंवदंतियों को कभी नहीं सुना, हे ब्राह्मण।

एक बार, कौत्स नाम का एक विद्वान ब्राह्मण, जो पवित्र स्थानों की तीर्थ यात्रा में लगा हुआ था, उसके घर आया। उस अपवित्र स्त्री को अनुचित आचरण में लिप्त देखकर, उत्कृष्ट ब्राह्मण ऋषि क्रोधित हो गए। अपनी आँखों से लाल (गुस्से से) उसने उससे कहा:

कुत्सा ने कहा :

13-15. हे मूर्ख औरत, मैं अब तुम्हें कुछ बताने जा रहा हूँ। मेरी बातों को ध्यान से सुनो। हे महिला जो काम चला रही है! आप इस (अपने) शरीर का पोषण क्यों करते हैं जो पांच तत्वों से बना है, जो दूषित रक्त से भरा है और दुख का कारण है? यह शरीर पानी के बुलबुले की तरह है। यह निश्चित रूप से नष्ट हो जाएगा। इस क्षणिक शरीर के आधार पर आप इसे अपने हृदय में स्थायी मानते हैं।

16. इसलिए, हे मूर्ख महिला, अपने आंतरिक भ्रम से दूर रहो और सोचना शुरू करो। प्रभु को याद करो जो सबसे श्रेष्ठ है। पवित्र पुस्तकों को सम्मानपूर्वक सुनें।

17. कार्तिक मास आने पर पवित्र स्नान, दान आदि का संस्कार करें। दामोदर को प्रसन्न करने के लिए दीपों का दान करें।

18-20. तुम्हारे पास एक लाख बत्ती आदि और एक लाख कमल आदि तैयार होने चाहिए। कार्तिक मास में भगवान की परिक्रमा करें और उन्हें प्रणाम करें।

व्रत का पालन और संचालन भक्ति के साथ करें। यह व्रत पति या पत्नी के बिना सभी महिलाओं के लिए है।

यह सभी पापों का शमन करता है। यह सभी विपदाओं का नाश करता है। वहाँ कार्तिक मास में उत्तम दीप दान करें।

21. कार्तिक मास में दीपक हरि के लिए प्रसन्नता का कारण होता है। यहां तक ​​​​कि एक व्यक्ति जिसने महान पाप किए हैं, वह दीपक (या दीपक जलाने) के उपहार से मुक्त हो जाता है।

22-28. पहले हरिकरा नाम का एक अच्छा ब्राह्मण था। वह ब्राह्मण पापी हो गया और कामुक वस्तुओं से जुड़ गया। वह हमेशा वेश्याओं के पास जाता था। उसने अपने पिता की संपत्ति को बर्बाद कर दिया। वह एक कुल्हाड़ी था क्योंकि यह अपने ही परिवार को काटने में था। एक बार, हे विधवा, दुष्ट लोगों के साथ अपने संबंध के कारण उसके पिता की बहुत सारी संपत्ति जुए में चली गई थी। इसलिए वह दु:खी हो गया।

एक बार वह कुछ साधु लोगों के संपर्क में आया जो पवित्र स्थानों की तीर्थ यात्रा में लगे हुए थे। तीर्थ यात्रा के दौरान, हे प्रिय, वह अत्यधिक पापी ब्राह्मण अयोध्या आया था ।

कार्तिक के महीने में वह एक बहुत समृद्ध ब्राह्मण के घर पहुंचा। हमेशा जुए (?) के बहाने हरि के सामने तुरंत एक दीया जलाया जाता था। तत्पश्चात, ब्राह्मण, समय के साथ, मृत हो गया और मोक्ष प्राप्त कर लिया।

यद्यपि वह महान पापों का अपराधी था, उसने हरि की तलाश की और शरण ली। इसलिए आप भी कार्तिक मास में दीप और दीपक का दान करें। इसी प्रकार अन्य दान भी बड़ी भक्ति से करें।

उसे इस प्रकार आज्ञा देने के बाद, कुत्सा , ब्राह्मण, दूसरे घर में चला गया।

29. उस (स्त्री) ने कुटसा की बात सुनकर पश्चाताप किया। उसने कार्तिक के महीने में पवित्र संस्कार करने का संकल्प लिया।

30. कार्तिक के पूरे महीने में, उसने सूर्योदय के समय (ठंडे) पानी में स्नान किया और दीपक जलाने का व्रत भी रखा।

31-32. जब उसका जीवन काल समाप्त हो गया, तो कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गई। यद्यपि उसने बहुत बड़े पाप किए थे, लेकिन दीयों की रोशनी की महान प्रभावकारिता के कारण वह महिला स्वर्ग के मार्ग पर चली गई। समय आने पर उसे मोक्ष भी प्राप्त हो गया। इसलिए, हे नारद , कौन (पर्याप्त रूप से) दीपक चढ़ाने की प्रभावकारिता का वर्णन कर सकता है?

33-35. कार्तिक मास में दीपों का दान और दीप जलाने से अत्यधिक पुण्य फल की प्राप्ति होती है।

जो कार्तिकाव्रत का कड़ाई से पालन करता है, जो दीपक जलाता है, वह दीपक जलाने की इस पौराणिक कथा को सुनकर मोक्ष प्राप्त करेगा।

कौन (पर्याप्त रूप से) दीयों की रोशनी की प्रभावशीलता को बता सकता है?

अब, हे नारद, अन्य लोगों के दीपक जलाने की क्षमता को सुनो । [1]

36-38. यदि किसी के पास (दीपक जलाने की) क्षमता नहीं है, तो वह दूसरे लोगों के दीये जला सकता है। ऐसा करने वाले को भी लाभ मिलता है। इसमें कोई शक नहीं है।

जो दीयों के लिए बत्ती, तेल, बर्तन आदि चढ़ाता है या जो (भौतिक रूप से) उत्कृष्ट दीपक चढ़ाने वालों की मदद करता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है। इसमें कोई शक नहीं है। कार्तिक में दीप जलाने की प्रभावशीलता का (पर्याप्त रूप से) वर्णन कौन कर सकता है।

39. यदि स्वयं में कोई क्षमता नहीं है तो व्यक्ति को दूसरों के दीपक जलाना चाहिए। उसका लाभ भी उसे ही मिलता है। इसमें तो कोई शक ही नहीं है।

40. इंदुमती नाम की एक तवायफ थी । [2] अपने घर में दूसरों का दीया जलाकर एक चूहे ने मोक्ष प्राप्त करना मुश्किल से प्राप्त किया।

41. इसलिए हर हाल में दूसरों का दीया जलाना चाहिए। जिससे निःसन्देह मूषक (सज्जा के घर में) के समान मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।

42. हे ऋषि, यदि अन्य लोगों के दीये जलाने का लाभ इस प्रकार है, तो सीधे दीपदान करने की महानता किसके द्वारा वर्णित की जा सकती है?

नारद ने कहा :

43. कार्तिक में दीप चढ़ाने का बड़ा प्रभाव मैंने सुना है। दूसरों के दीये जलाने की महानता भी सुनी गई है। अब, मैं व्योमदीप की महानता के बारे में सुनना चाहता हूं [3] (ध्रुवों पर प्रकाशस्तंभ )।

ब्रह्मा ने कहा :

44. सुनो, हे पुत्र, बत्ती की महानता को ध्यान से सुनो। इसके श्रवण मात्र से ही दीपदान करने की इच्छा होगी।

45. मैं उस व्यक्ति की योग्यता का वर्णन करूंगा जो कार्तिक मास के आगमन पर सुबह जल्दी स्नान करने के लिए समर्पित है और जो डंडे पर रोशनी करता है।

46. ​​वह सारे जगत का अधिपति होगा, और सब प्रकार के धन से सम्पन्न होगा। वह इस संसार में सुख भोगेगा और अंत में मोक्ष प्राप्त करेगा।

47. पवित्र स्नान और (अर्पण) दान और अन्य संस्कारों के बाद, कार्तिक के पूरे महीने के लिए हरि के मंदिर के शीर्ष पर बत्ती जलाई जानी चाहिए। कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन आज्ञा के अनुसार विधिपूर्वक इसका निर्वहन करना चाहिए।

48. वह जो रोक वापस कभी नहीं होगा (करने के लिए के अनुसार Kārttika के महीने में बीकन रोशनी संसार ) यहां तक कि सैकड़ों और रुपये के पाठ्यक्रम में कलपस ।

49. इस संबंध में मैं आपको एक प्राचीन कथा का वर्णन करूंगा, जिसके सुनने मात्र से ही बत्ती जलाने का लाभ मिलेगा।

50-51. पूर्व में निशुरा नाम का एक पक्षी था । वह दुनिया के लिए कांटा था। वह मृत्यु के दूसरे देवता के समान था। वह यमुना के तट पर रहता था । वह जंगलों में भटकता था, सभी जानवरों को मारता था और अपना भरण-पोषण करता था। धनुष लेकर वह राहगीरों को लूट कर परेशान करता था।

52-53. कार्तिक मास में एक बार, हे ऋषि, मुर्गी चोरी करने के उद्देश्य से एक निश्चित गाँव में गई थी। उस समय विदर्भ शहर में राजा नाम से सुकति था । ब्राह्मण नामित के कहने पर कैंड्रा सरमा , बुद्धिमान राजा हरि के मंदिर के शीर्ष पर एक बीकन रोशन।

54-56। राजा ने दीप प्रज्ज्वलित करने के बाद रात में बड़ी भक्ति के साथ पवित्र कथा सुनी। उस समय स्वयं (मुर्गा) चोरी करने के उद्देश्य से वहाँ आया था। वह एक क्षण के लिए राजा द्वारा दिए गए प्रकाशस्तंभ को देखता रहा।

उसी समय वहाँ एक गिद्ध आया, उसने दीपक सहित तेल का घड़ा झट से छीन लिया, उसे अपनी चोंच में ले गया और फिर एक पेड़ की चोटी पर बैठ गया।

57. उस राजसी चिड़िया ने तेल पी लिया और दीपक को पेड़ की चोटी पर रखकर कुछ देर वहीं विश्राम किया।

58. उस समय संयोग से एक बिल्ली वहां आ गई। उत्कृष्ट पक्षी को पकड़ने के लिए, वह उस पेड़ पर चढ़ गया जहाँ पक्षी बैठा था।

59-62. दीपक को अपने सामने देखकर बिल्ली कुछ देर रुकी। उस समय चन्द्र शर्मा सुकीति नाम के राजा को बत्ती के प्रभाव की व्याख्या कर रहे थे। चिड़िया और बिल्ली ने ये शब्द सुने। तब बिल्ली ने उस पक्षी को पकड़ने की कोशिश की जो दूसरी शाखा पर बैठा था। (स्वाभाविक रूप से) अस्थिर होने के दोष के कारण वे दोनों एक पेड़ से चट्टान पर गिर गए जैसे कि भाग्य द्वारा आग्रह किया गया हो। चिड़िया और बिल्ली ने अपने शरीर को जमीन पर पटक दिया और दोनों की मौत हो गई। उन्हें दिव्य शरीर मिला। वे हवाई रथ पर सवार होकर स्वर्ग को गए।

63-70 ए। चोरी करने आए फाउलर ने सब कुछ देख लिया। अपने दुराचारी इरादे के गायब होने के साथ, वह उस ऋषि के पास गया जो कथा की व्याख्या कर रहा था। चंद्रा सरमन को संबोधित करते हुए उन्होंने ये शब्द कहे:

"हे चंद्र सरमन, राजा सुकृति द्वारा दिया गया आकर्षक प्रकाशस्तंभ मैंने देखा है जो कुछ चोरी करने के उद्देश्य से यहां आए थे।

उसी समय, संयोग से, एक पक्षी ने मटके को उतार दिया और तेल पी गया। तत्पश्चात, उसने उस आकर्षक बर्तन को दीपक के साथ एक पेड़ की चोटी पर रख दिया और थोड़ी देर वहीं रुक गया।

एक बिल्ली बड़ी चिड़िया को पकड़ने के लिए वहां आई। भाग्य से प्रेरित होकर, उन्होंने दो (अलग-अलग) शाखाओं का सहारा लिया।

उन्होंने एक पल के लिए वह कहानी सुनी जो आप सुना रहे थे। बाद में, अपनी ही चंचलता के दोष के कारण, बिल्ली ने पक्षी को पकड़ लिया।

दोनों नीचे गिर पड़े और उनकी मौके पर ही मौत हो गई। दोनों ने दिव्य रूप धारण किया और एक हवाई रथ में बैठकर स्वर्ग को चले गए। इस अद्भुत चीज को देखकर मैं यहां आपसे पूछने आया हूं:

70बी-78ए। वे कौन थे, पहले बिल्ली और पक्षी? हे ब्राह्मण,

बोलिए। वे निम्न जानवरों के रूप में कैसे पैदा हुए? उन्हें किस पवित्र कार्य से मुक्त किया गया था?”

फाउलर के इन शब्दों को सुनकर, चंद्र शर्मा ने कहा:

"सुनो, फाउलर, मैं अभी विस्तार से बोलूंगा। यह बिल्ली पहले एक ब्राह्मण थी, जो श्रीवत्स गोत्र से पैदा हुई थी । उन्हें देवशर्मा कहा जाता था । वह मंदिर की संपत्तियों की चोरी करता था। उन्हें अहोबाला नृसिंह के पुजारी का पद मिला । [4]

वह मंदिर में आने वाले तेल, धन और सामग्री को चुरा लेता था और उसके द्वारा अपने परिवार का भरण-पोषण करता था।

उन्होंने अपना पूरा जीवन इस प्रकार बिताया और अंततः उनकी मृत्यु के साथ मुलाकात हुई। उस महान पाप के कारण वह एक-एक करके निम्नलिखित नरकों में गिर गया: महारौरव , राउरव , निरुचवास और असिपत्रवन । वह यम के विशाल शरीर वाले भयानक दूतों द्वारा काट दिया गया था । इन सभी यातनाओं का अनुभव करने के बाद, वह ब्रह्मराक्षस बन गया । फिर वह एक कुत्ते के रूप में पैदा हुआ था। उसके बाद, अपने बुरे कर्मों के कारण , वह एक चांडल बन गया । ऐसे सौ जन्म लेने के बाद वह धरती पर बिल्ली बन गया।

78बी. अब एक भाग्यशाली संयोग से, उन्होंने बीकन रोशनी की प्रभावशीलता को सुन लिया है। वह सभी पापों से मुक्त हो गया है और वह हरि के स्थान पर चला गया है।

79-83. यह गिद्ध पहले मिथिला में एक ब्राह्मण था , जो वेदों में पारंगत था । वे विश्व में शर्यति के नाम से प्रसिद्ध थे। वह एक महान स्वामी थे।

उनका महिला नौकरों और दरबारियों के साथ संबंध था। उस महान पाप के कारण, जब वह मर गया, तो वह अत्यंत भयानक नरक कुंभपाक में गिर गया और वहाँ चार युगों तक रहा । अपने कर्मों के अवशेष के साथ, वह एक गिद्ध के रूप में पैदा हुआ था।

अपने भाग्य के आग्रह पर गिद्ध यहां तेल पीने के लिए आया था। एक बत्ती (?) की पेशकश करने के बाद और हरि की कहानी सुनने के बाद, वह भी अपने सभी पापों से मुक्त हो गया और हरि के स्थान पर चला गया।

84-85. इस प्रकार, हे फाउलर, आपको सब कुछ बता दिया गया है। खुशी से लौट आओ।"

उसकी बातें सुनकर शिकारी वापस अपने घर चला गया। उन्होंने कहा AKASA दीपा रोक हे ऋषि के अनुसार Vrata। उन्होंने अपने जीवन का शेष भाग वहीं बिताया और हरि के धाम चले गए।

86. महान राजा सुनंदा ( एस ukṛti) आश्चर्य मारा बन गया। निषेधाज्ञा के अनुसार, उन्होंने चंद्र शर्मा के मार्गदर्शन में एक महीने तक सब कुछ किया।

87-92. कार्तिक मास में राजा ने प्रात:काल स्नान किया। शरीर और मन की पवित्रता के साथ, वह पूजा की जनार्दन निविदा के साथ तुलसी की पत्तियां। रात में राजा ने इस मंत्र के साथ प्रकाशस्तंभ की रोशनी की : "सार्वभौमिक और ब्रह्मांडीय भगवान दामोदर को प्रणाम करने के बाद, मैं प्रकाशस्तंभ की पेशकश करता हूं जिसे बहुत पसंद था। हे देवों के भगवान , इसे (इस व्रत को) महीने के अंत तक बाधाओं से रहित करें। हे देवों के भगवान, इस व्रत के प्रदर्शन से मेरी भक्ति आपके प्रति बढ़ जाए। ”

इस मन्त्र के द्वारा राजा ने ज्योति को अर्पण किया। ब्रह्म मुहूर्त (भोर से एक घंटे पहले) में उन्होंने फिर से प्रकाश डाला । विष्णु की पूजा की गई, हे प्रिय, और उन्होंने सुबह जल्दी स्नान किया।

उत्सर्ग ( व्रत का समापन संस्कार) के लिए संस्कार करने के बाद उन्होंने फिर से एक बीकन की पेशकश की। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद , उन्होंने विष्णु को व्रत समर्पित किया।

93-96. हे महान ऋषि, उस योग्यता के बल से राजा ने अपने रिश्तेदारों, पुत्रों, पौत्रों और अपनी पत्नी के साथ एक लाख वर्षों तक आकर्षक सुखों का आनंद लिया।

अंत में, हे उत्कृष्ट ब्राह्मण । हे ऋषि, वह अपनी महिलाओं के साथ एक आकर्षक हवाई रथ में सवार हो गया और मोक्ष के मार्ग पर चल पड़ा।

विष्णु की दुनिया में, उन्होंने चार भुजाओं वाले विष्णु का रूप धारण किया। उसके पास पीले वस्त्र थे। उन्होंने शंख, चक्र और लौह क्लब धारण किया। अमर लोगों द्वारा उन्हें हमेशा विष्णु कहा जाता था। वहाँ पर उदात्त राजा ने प्रसन्न होकर खेल खेला।

97. अत: मानव जन्म प्राप्त करने के बाद, जो कि शायद ही कभी प्राप्त किया जा सकता है, व्यक्ति को कार्तिक के महीने में आदेश के अनुसार प्रकाशस्तंभ करना चाहिए। यह एक ऐसी चीज है जो हरि को पसंद है।

98. कार्तिक मास में जो पुरुष हरि की प्रसन्नता के लिए दीप प्रज्ज्वलित करते हैं, हे प्रख्यात ऋषि, कभी भी भगवान यम को अत्यधिक क्रूर चेहरे वाले नहीं देखते हैं।

99. अब से, मैं एक और (उदाहरण के लिए) बीकन प्रकाश की प्रभावकारिता का वर्णन करूंगा। यह पूर्व में वलाखिल्य द्वारा सुनाया गया था । वह सुन, हे उत्कृष्ट ब्राह्मण ।

वलाखिल्य [5] ने कहा :

100-102ए। ( दोषपूर्ण पाठ ) श्रेष्ठ ऋषि मुनियों का प्रदर्शन करें

आकाशदीप (एक ध्रुव के शीर्ष पर बीकन प्रकाश) का संस्कार या तो वैशाख के महीने में या कार्तिक में कैलेंडर के अनुसार होता है, जो महीने की शुरुआत अंधेरे आधे ( पूर्णिमांता - मास कैलेंडर) से होती है, जो पिछले महीने की शुरुआत से कार्तिक तक होती है। यानी vina ( यानी vina की पूर्णिमा के दिन से)।

तुला मास में संध्या के समय साधक को डंडे पर गिंगली तेल से दीपक जलाना चाहिए। जो व्यक्ति इसे लगातार एक महीने तक श्री भगवान को श्री के साथ अर्पित करता है, वह कभी भी वैभव और समृद्धि से अलग नहीं होता है।

102बी-103. बीस हस्तों का एक खंभा (लंबाई यानी ऊंचाई में) बीकन प्रकाश के लिए उत्कृष्ट है, [6] नौ हस्तों में से एक बीच वाला है और पांच हस्तों में से एक सबसे निचला है। यह इस प्रकार पक्का किया जाएगा कि दूर खड़े लोगों को प्रकाश दिखाई दे।

104-105. अभ्रक या कांच के लालटेन में प्रकाश की पेशकश की विशेष रूप से सिफारिश की जाती है। एक झंडा होना चाहिए, जिसकी लंबाई ध्रुव के नौवें हिस्से के बराबर हो।

इसके ऊपर मोर पंख का गुच्छा या बर्तन रखना चाहिए। यह दीपक विष्णु को प्रसन्न करता है। यह पिट्स का उत्थान करता है ।

106-107. सूर्य के तुला राशि में होने पर ग्यारहवें दिन या पूर्णिमा के दिन दीपक अर्पित करना चाहिए। दामोदर को श्रावण में दीपक चढ़ाया जाता है । तुला के महीने में, दीपक (विष्णु को) लक्ष्मी के साथ चढ़ाया जाता है : "मैं तुम्हें प्रकाश की पेशकश कर रहा हूं। श्रद्धा के लिए अनंत , को Vedhas । "

पितरों को ऊपर उठाने और छुड़ाने वाले ध्रुव पर बत्ती के समान और कुछ नहीं है।

108. हेलिका [7] के दो बेटे थे। उनमें से एक भूत बन गया। लेकिन एक बत्ती चढ़ाने के गुण के कारण उन्होंने मोक्ष प्राप्त करना मुश्किल से प्राप्त किया।

109-111. निम्नलिखित मंत्र का जाप करना चाहिए:

अयाल, भूतों को। के लिए धनुष धर्म , विष्णु करने के लिए। यम को नमस्कार, रुद्र को । वन के स्वामी को प्रणाम।”

जो पुरुष इस मंत्र का जप करते हैं और मणियों को आसनों पर प्रकाश डालते हैं, वे उत्कृष्ट लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। जो लोग नरक में गए हैं वे भी इस उत्कृष्ट लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

इस प्रकार आपको प्रकाश की भेंट का वर्णन किया गया है।

भाग्य और अच्छी संतान की प्राप्ति के लिए दीपक जलाना चाहिए।

112-116. यह नृजनविधि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में बारहवें दिन से प्रारम्भ होकर रात्रि के पूर्वार्ध में पाँच दिनों तक करनी है।

ब्रह्मा , विष्णु, शिव आदि के मंदिरों और निम्नलिखित स्थानों में रोशनी के लिए विशेष व्यवस्था होनी चाहिए : अनाज भंडार के शीर्ष, मंडप (बलि के उद्देश्य के लिए), सभाएं, नदी के किनारे, प्राचीर की दीवारें, उद्यान, तालाब , उपमार्ग गाँव, घर-उद्यान, अस्तबल, सुनसान स्थान, हाथी यार्ड आदि। रात की शुरुआत में दीपक अर्पित करना चाहिए। वे आकर्षक होना चाहिए।

जो संसार में रत्नों और रत्नों का उपयोग करते हुए देखे जाते हैं और महिमामंडित होते हैं, वे हैं जिन्होंने (अपने पिछले जन्मों में) कार्तिक के महीने में निषेधाज्ञा के अनुसार दीपक अर्पित किए थे।

यदि कोई दीपक चढ़ाने में असमर्थ है, तो उसे दूसरों द्वारा दिए गए दीपकों की रक्षा और संरक्षण करना चाहिए।

117. क्या दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति है जो वेदों के छात्रों (और पढ़ने वालों) के दीपों के लिए सम्मानपूर्वक तेल चढ़ाने वाले व्यक्ति की योग्यता का वर्णन करने के लिए तैयार है?

118-120। कार्तिक मास में भक्त को विष्णु की उपस्थिति में विभिन्न प्रकार के दीपक अर्पित करने चाहिए।

कार्तिक मास के आगमन के बाद, जब आकाश साफ और असंख्य तारों से चमकीला होता है, रात में लक्ष्मी ब्रह्मांडीय तमाशा देखने आती हैं।

समुद्र में जन्मी देवी (लक्ष्मी) जहां भी दीपक देखती हैं, वह बहुत प्रसन्न होती हैं, लेकिन अंधेरे में ऐसा कभी नहीं होता। अत: कार्तिक मास में दीपों को सदैव (प्रमुख रूप से) लगाना चाहिए।

121. यह घोषित किया गया है कि जो लोग भाग्य और सुंदरता की तलाश करते हैं उन्हें चाहिए

विशेष रूप से मंदिरों, नदी तटों और विशेष रूप से राजमार्गों पर दीपक अर्पित करें।

122-124ए. सोने के स्थान पर प्रकाश देने वाले की महिमा सर्वव्यापी है। जो (आर्थिक रूप से) कमजोर व्यक्ति का निवास देखता है, चाहे वह ब्राह्मण हो या किसी अन्य जाति का, बिना किसी दीपक के, और फिर दीपक अर्पित करता है, विष्णु की दुनिया में सम्मानित होता है।

जो दुर्गम और ऊबड़-खाबड़ जगह या कीड़ों और कांटों से ग्रसित अगम्य स्थान में रोशनी रखता है, वह किसी नरक में नहीं जाएगा।

124बी-128. यदि कोई व्यक्ति निषेधाज्ञा के अनुसार रात में पंचनद में दीपक अर्पित करता है , तो उसके परिवार में पैदा हुए लड़के जाति के प्रदीपक होंगे।

कार्तिक मास में किसी व्यक्ति का दीपक जलाकर जलाने से वही लाभ प्राप्त होता है, जो पितृपक्ष ( माने से संबंधित भाद्रपद का काला पखवाड़ा) में दान करने से या ज्येष्ठ और स्थापना के महीनों में जल देने से प्राप्त होता है ।

अन्य लोगों के दीपक जलना तक और की सेवा के द्वारा Vaisnavas Kārttika के महीने में, एक का फल प्राप्त कर लेता है राजसूय और घोड़े बलिदान।

पूर्व में एक ब्राह्मण था [8] हरिकरा जो हमेशा पाप कर्मों में लगा रहता था। जुए के लिए, कार्तिक के महीने में उनके द्वारा दीये जलाए गए थे। उस पुण्य कर्म की शक्ति के कारण वह एक उत्कृष्ट ब्राह्मण बन गया और स्वर्ग प्राप्त किया।

129. Formerly King Dharmanandana got into an excellent aerial chariot and went to the world of Viṣṇu as a result of offering beacon lights.

130. I shall recount the merit of that person who offers camphor-light in front of Viṣṇu in the month of Kārttika and particularly on the day of awakening called Prabodhinī (Ekādaśī) (eleventh day in the bright half of Kārttika).

131. Men born in his family will be favourites of Hari. After sporting about for a long time, they attain salvation in the end.

132. A person who keeps lights burning day and night in the abode of Hari, particularly on the eleventh lunar day, goes to the place of Hari.

133-134. Even a fowler offered lamp on the fourteenth lunar day (in the dark half of Māgha) in the temple of Śiva and on the great Liṅga and went to the world of Śiva even without any special devotion.

A certain cowherd kindled the lamp of the Śārṅga-bearing Lord on the new-moon day and repeated “Be victorious, be victorious” frequently. He became king of kings.

FOOTNOTES AND REFERENCES:

[1]:

VV 35 ff describe the efficacy of brightening other people’s lamps in Kārttika.

[2]:

Sāroddhāra tells us how a female mouse happened to brighten the lamp in Indumatī’s house while the mouse drank up the oil in the lamp and happened to circumambulate the god unintentionally and thereby got salvation.

[3] :

VV 44ff व्योमदीप (ध्रुवों पर प्रकाशस्तंभ ) के महत्व का वर्णन करता है ।

[4] :

कर्णूल जिले (तमिलनाडु) में सिरवेल तालुका में कडप्पा के पूर्व में नृसिंह का एक प्रसिद्ध पवित्र स्थान। मंदिर एक पहाड़ी पर है। यह शंकराचार्य और चैतन्य महाप्रभु द्वारा दौरा किया गया था। (डी 3)

[5] :

वलाखिल्य : सूर्य के रथ में भाग लेने वाले (60,000) अंगूठे के आकार के ऋषियों का एक वर्ग। वे भगवान ब्रह्मा के पुत्र क्रतु से पैदा हुए थे। (एमबीएच, ईडीआई 66.4-9; अनुषासन 141.99-102; 142.33 एफएफ)

[6] :

वीवी 102-105 बीकन प्रकाश के विवरण का वर्णन ( अंक-दीप )।

[7] :

एसकेएस इस कहानी का निम्नलिखित विवरण देता है: विंध्य पर्वत में एक ब्राह्मण हेलिका के दो पुत्र थे- चित्राभानु और मनोजव। वे शातिर हो गए और अंततः जंगल का सहारा लिया। नानानी नाम की एक भील लड़की ने उन्हें अपने घर में रखा, जहाँ उन्होंने देखा कि नानानी अपने मृत पिता के लिए आकाश-दीप की पेशकश करती हैं । मनोजव की मृत्यु हो गई, लेकिन तामिश्र नरक में उनकी सजा को आकाश-दीप में उनकी मदद के कारण बरी कर दिया गया और वह एक पिटक बन गए। उसके पास नानानी थी, लेकिन चित्रभानु उसे वाराणसी ले गया, जहां आकाश-दीपा-दान के कारण , मनोजव दोषमुक्त हो गए और उनका जन्म नानानी के पुत्र के रूप में हुआ। तीनों वाराणसी में रहे और मोक्ष प्राप्त किया।

[8] :

वीवी 127 एफएफ कार्तिक में आकाशदीप की प्रभावकारिता को दर्शाने वाले कुछ उदाहरण देते हैं। इनमें से वीव 133-134 एक शिव मंदिर में दीपक चढ़ाने वाले फाउलर की कहानी देते हैं।


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