रविवार, 27 मई 2018

कुछ राजपूत जातियाँ खुद को यादव वंश से जोड़ने का प्रयास कर रही हैं ।


कुछ राजपूत जातियाँ खुद को यादव वंश से जोड़ने का प्रयास कर रही है। और अहीरों को नकली यादव बताती हैं ; परन्तु वस्तु -स्थिति ठीक इसके विपरीत है
राजपूत विदेशी है ; जो हूण, कुषाण अथवा तुषार सीथियन (Scythian ) मंगोलियन तथा ईरानी मूल के पठानों से तालुकात रखते हैं ।
सेल्जुक तुर्क अपने जमीदारी खिताबो के रूप में तक्वुर( ठक्कुर) शब्द का प्रयोग करते थे ।
और कुछ तो फारसी मूल के हैं -जैसे अफगानिस्तान के जादौन पठान  ---जो छठी सदी में तक्वुर उपाधि से  ख़ुद को नवाजते थे ।
राजस्थान इनका पहला पढ़ाब हुआ ।
ये तक्वुर ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर हो गया
जिनका पाँचवी शताब्दी के पहले का कोई इतिहास नहीं है।
कुछ राजपूत जन-जातियाँ स्वयं को यादव घोषित करने की असफल कुचेष्टा कर रही हैं ।
क्योंकि वे अहीरों से द्वेष रखते हैं ।
और वे नहीं चाहते की अहीरों की प्रतिष्ठा उनसे अधिक हो ।
राजस्थान के भाटी, जडेजा और भी दुसरे राजपूत जैसे जादौन  आदि
यादवों में शामिल होने के लिए तड़पते हैं ।
और यादव टाइटल अपने नाम के साथ लगाने के लिए लालायित  हैं।
हाँ जादौन तो यहूदी होने से यदुवंशी ही हैं
क्योंकि भारतीय जन-जातियाें में बंजारा वृत्ति (व्यवसाय) करने वाले यहूदीयों का कबीला जूडान अथवा गादून कहलाती था । राजस्थानी पिंगल डिंगल उपभाषाओं को बोलने वाले बन्जारे (तत्सम शुद्ध रूप पण्यचारि ) थे । पठानों में मणिकार (मनिहार) भी स्वयम् को पठान रहते हैं ।वह भी जादौन पठान।
इसकी सम्भावना पाश्चात्य इतिहास कारों ने भी दर्शायी हैं ।
यही बन्जारे ---जो  ब्राह्मणों ने आबू पर्वत पर क्षत्रिय अथवा राजपूत है दिए ।
अब  ये राजपूत अहीरों को प्रभास क्षेत्र में गोपिकाओं सहित अर्जुन को परास्त कर लूटने वाला लुटेरा बताते हैं ।
और उन्हें यदुवंशी नहीं मानते हैं ।
परन्तु  अहीरों ने अर्जुन को क्यों लूटा था ?
इसकी पृष्ठ-भूमि को ब्राह्मणों ने मूल ग्रन्थ से ही विकास दिया केवल कहीं कहीं पृष्ठ-भूमि का संकेत मिलता
जैसे ...
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जब अर्जुन और दुर्योधन दौनों विपक्षी यौद्धा ;
कृष्ण के पास युद्ध में लिए सहायता माँगने के लिए गये तो ;
श्री कृष्ण ने प्रस्तावित किया कि आप दौनों मेरे लिए समान रूप में हो !
आपकी युद्धीय स्तर पर सहायता के लिए :-
एक ओर तो मेरी गोपों (यादवों )की नारायणी सेना होगी !
और दूसरी और ---मैं स्वयं नि:शस्त्र रहुँगा !
दौनों विकल्पों में जो अच्छा लगे उसका चयन कर लो !
तब स्थूल बुद्धि दुर्योधन ने कृष्ण की नारायणी गोप - सेना को चयन किया !
और अर्जुन ने स्वयं कृष्ण को !
गोप अर्थात् अहीर निर्भीक यदुवंशी यौद्धा तो थे ही इसमें कोई सन्देह नहीं !
इसी लिए दुर्योधन ने उनका ही चुनाव किया !
और समस्त यादव यौद्धा तो अर्जुन से तो पहले से ही क्रुद्ध थे !
क्योंकि यादवों की वीरता को धता बता कर अर्जुन ने दोखे से बलराम की बहिन सुभद्रा का अपहरण कर लिया था ।
कहते हैं कि इस अपहरण कृष्ण की सहमति थी ... परन्तु ये तो यादवों अथवा समस्त गोपों के पौरुष को ललकारना ही था
और गोप अथवा यादव इसे यदु वंश का अपमान समझ रहे थे ।
यही कारण था कि ; गोपों (अहीरों)ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था ।
क्योंकि नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन के पक्ष में थे
और यादव अथवा अहीर स्वयं ही ईश्वरीय शक्तियों (देवों) के अंश थे ।
तब प्रभास क्षेत्र में अर्जुन इनका मुकाबला कैसे करता ?
यादव किसी के साथ विश्वास घात कभी नहीं करते थे ।
क्यों कि यह क्षात्र-धर्म के विरुद्ध भी था ।
                    (यदु का इतिहास वैदिक सन्दर्भों में)

गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60,41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की कथा सुनने और गायन करने से मनुष्यों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं ;
एेसा वर्णन है ।
महाभारत के मूसल पर्व में आभीर शब्द के द्वारा जो अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना वर्णित की गयी है ।
निश्चित रूप से मूल भाव से मेल नहीं खाती है ।
क्योंकि यहाँ अर्जुन और यादवों (गोपों) के युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं हैं ।
और अहीरों को अशुभ-दर्शी तथा पापकर्म करनेवाला लोभी के रूप में वर्णन करना महाभारत कार की अहीरों के प्रति विकृतिपूर्ण मानसिकता की अभिव्यक्ति मात्र है
इतना ही नहीं भागवतपुराण पुराण कार ने भी आभीर के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा गोपों को दुष्ट विशेषण से अभिव्यक्ति किया है ।
अहीरों अथवा गोपों ने अर्जुन सहित कृष्ण की 16000 गोपिकाओं के रूप में पत्नियों को लूटा था ।
पुराणों में एेसा वर्णन काल्पनिक व मनगढ़न्त है ।
निश्चित रूप से गोपों द्वारा अर्जुन को परास्त करने की घटना तो सत्य है ।
परन्तु प्रस्तुति करण गलत है । -जैसे  बीच में से ही कोई बात कह दी हो !
गोपों और अर्जुन को युद्ध की सम्पूर्ण पृष्ठ-भूमि गायब है

कुछ मूर्ख रूढ़ि वादी ब्राह्मणों ने यादवों के प्रति द्वेष स्वरूप ही इस घटना को गलत रूप में प्रस्तुत किया है।
क्योंकि अर्जुन और यादवों (गोपों)के मध्य पूर्व युद्ध की पृष्ठ-भूमि को वर्णित ही नहीं किया है ।
यादवों की किसी कन्या का अपहरण उस समय उनकी प्रतिष्ठा का विषय था ।
जब अर्जुन ने यदुवंश के स्वाभिमान को ललकारते हुए सुभद्रा का हरण कर लिया  था ।
कृष्ण की मृत्यु के बाद गोपों ने अर्जुन को परास्त कर उसके साथ चलने वाली हजारों गोपिकाओं को यह कह कर अपने साथ चलने को कहा कि कुरुवंश का कोई यौद्धा यदुवंशी स्त्रीयों को हमारी आँखों के सामने ले जाने का साहस कर रहा है ।
कुछ यदुवंशी स्त्रीयाँ स्वेच्छा से गोपों को साथ मथुरा नगरी को आ गयीं तथा कुछ ---जो  अर्जुन को ही साथ जाने की जिद कर कहीं थीं उन्हीं को गोपों ने बल-पूर्वक अपने साथ चलने को कहा --
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अब गोपों ने भी एक स्त्री के अपहरण में अर्जुन के साथ चलने वाली हजारों स्त्रीयों का अपहरण किया ! और वे स्त्रीयाँ वृष्णि वंशी गोपों की पत्नी रूप में गोपिकाऐं ही थीं ।
परन्तु ये अपहरण कर्ता नारायणी सेना के गोप यौद्धा ही थे । ---जो दुर्योधन के पक्ष में थे ।
स्वयं बलराम दुर्योधन के पक्ष में नारायणी सेना के साथ थे ।
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और इसी लिए कुछ मूर्खों को अहीरों के विषय में यह कहने का अवसर मिल जाता है कि
" अहीरों ने गोपिकाओं सहित प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था ।
परन्तु जिसे द्वेष वश कुछ रूढ़ि वादीयों ने गलत रूप में  इस घटना को बीच से ही प्रस्तुत कर दिया है ।
प्रस्तुत किया है । वे इतिहास को विकृत करने के दोषी हैं
कि जैसे अहीरों ने अर्जुन सहित यदुवंशी गोपिकाओं को लूट लिया था।

और राज पूत इस बात को अहीरों के यादव न होने के रूप में प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं ।
कभी यूट्यूब चैनल के माध्यम से तो कभी मैसेंजर के माध्यम से और मूर्ख स्वयं को यदुवंशी होने की दलील देते हैं।
महाभारत के विक्षिप्त (नकली )मूसल पर्व के अष्टम् अध्याय का वही श्लोक यह है 😃और जिसका प्रस्तुति करण ही गलत है ।
जिसे राज-पूत लोग उद्धृत करते हैं ।
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ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।

अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशी गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को लूट लिया था ।47। (मूसल पर्व अष्टम् अध्याय )

क्यूँ कि आज भारतवर्ष में एक यादव वंश ही ऐसा है जिसका प्रमाण कई धार्मिक पुस्तकों में है।
...गीता और हरिवंश पुराण तो शुद्ध रूप से यादवो का इतिहास है ।
परन्तु ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में यदु का तुर्वसु को साथ वर्णन है ।
यथा -- उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे !
( ऋग्वेद १० /६२/ १०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक ---जो दास (दाहिस्तान Dagestan के वासी) हैं ।जो सौभाग्य शाली और गायों का पालन करने वाले गायों से घिरे हुए हैं ।
हम उनका वर्णन करते हैं ।।
  हरिवंश पुराण ---जो महाभारत का खिल-भाग है ; उसमें तो  यथावत् यादवों को गोपों के रूप में ईश्वरीय शक्तियों का स्वरुप माना गया है ।
....अब इतना सम्मान व गौरव  कौन नहीं चाहेगा ? इसलिए ये लोग यदुवंश से  जुड़ने का तो प्रयास करते हैं
परन्तु अहीरों को गालियाँ देते हैं परोक्ष रूप से ।
'राजपूत' हूण , कुषाण जाति के है ।
.जिनका 5 वीं 6 वीं  शताब्दी के पूर्व का कोई इतिहास और प्रमाण ही नहीं है।
....यहाँ तक की कुछ बौद्ध धर्म की पुस्तकों में इन्हें विदेशी , लुटेरा बताया गया है जो 5th शताब्दी के आस-पास भारत खण्ड आये थे ।
   ब्राह्मण राज पूतों से पहले आगये थे । अत: अपने संरक्षक के रूप में इन्होंने इन विदेशीयों को अपने साथ लेकर इनका राजपूतीकरण किया !
राज पूतों के भारत में आगमन काल से सम्बद्ध एैतिहासिक पुस्तकें तिब्बत से चीन तक पढाई जाती है

भाटी, जडेजा और जादौन वंश की नीव ही चौथी शताब्दी में पड़ी फिर कैसे ये यादव वंश में शामिल करने के लायक है..जबकि हम यादव तो सनातन है..युगों से यादवों का अस्तित्व है । सम्पूर्ण पच्छिमी एशिया में
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भाटों की कलम से ये बताया गया है की आबू पर्वत पर ब्राह्मणों ने एक यज्ञ किया जिसके फलस्वरूप -चोेैहान , सोंलकी(चालुक्य) , परमार , प्रतिहार आदि चार राजपूत  हवन कुण्ड से पैदा हुए i
अब आप खुद ही अन्दाज़ा लगा सकते हैं की ब्राह्मणों के द्वारा बनाये हुए ये कौन से क्षत्रिय हैं i यहाँ तक की द्वापर युग में हुए कुरुक्षेत्र के युद्ध के समय तो इस नाम का कोई अस्तित्व ही नहीं था
मुग़ल काल में भी अकबर से लेकर अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक , हर मुग़ल शासक के हर्य्म (आराम)में राजपूत कन्यायें होती थी ! और अकबर के बाद तक़रीबन सारे बादशाह राजपूत कन्याओ से ही पैदा हुए ।
- जहाँगीर , शाहजहाँ , औरंगजेब आदि i मुस्लिम काल में हजारों राजपूतो ने इस्लाम स्वीकार किया - जैसे-
कायमखानी , खानजादे , मेव ,रांघड , चीता , मेहरात , राजस्थान के रावत जो फिर हिन्दू बन गए आदि सब राजपूत मुस्लमान ही तो है।
और जादौन अफगानिस्तान मूल के ईरानी यहूदीयों का कबीला था ।
---जो सातवीं सदी के आसपास कुछ मुसलमान हो गये
मणिकार अथवा पण्यचारी का व्यवसाय करने वाले मनिहार तथा बंजारे भी थे ।
---जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी
अत: राजस्थान के बंजारा समाज में जादौन कबीला भी है । जिनका ऐैतिहासिक विवरण निम्न है👇
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As Follows
(1) Dharawat (2)ghuglot
(3)Badawat (4) Boda (5)Malod (6)Ajmera (7) Padya (8)Lakhavat (9) Nulawat...

All the above Come under the jadon (jadhav) Sub-Group of the Charan Banjara also called as Gormati in the area.
  from the same area among the Labhana banjara the following clan are reported :
1- kesharot 2-dhirbashi 3- Gurga 4- Rusawat  5- Meghawat 6- khachkad  7-Pachoriya 8 Alwat 9- khasawat 10 bhokan 11- katakwal 12- Dhobda 13 Machlya 14 -khaseriya 15-Gozal 16-
borya 17- Ramawat 18 Bhutiya 19 Bambholya 20 Rethiyo 21-Majawat

the Rathor and jadon are Charan banjara  are more  common in the area
Among the sonar Banjara clan names like medran are found but the type is rare.
      A Sub-Group by name Banjara (the drum -beater are also found in the pusad area having topical clan names like (1) Hivarle, ( 2) karkya (3)Failed (4) Shelar (5) kamble (6) Deopate (7) Dhawale.
These clan names unlike the other given above Do not sound akin to Rajput clan names and are similar to those among the pardhan or other lower castes in the area who are traditionally enged in drum- beating at the time  marriage or other ceremonies. it is likely that these lower castes were assimilated in the Banjara community as there drum-beater or the lowest in ranks among the Banjara adopted  the function along   with the clan names/surnames of the local lower castes engaged in the function.

Rathod  is also used as a clan name among the Gormati Banjaras
which is very common another common surname is jadhav which sound akin the Maratha surname in Maharashtra.

madren is a clan name reported from the Sonar Banjara....

हिन्दी अनुवाद:---निम्नलिखित के अनुसार
 (1) धारवत (2) घुह्लोट
(3) बदावत (4) बोडा (5) मालोड (6) अजमेरा (7) पद्या (8) लखवत (9) नुलावत ...

उपरोक्त सभी चरन बंजारा के जादौन (जाधव) उप-समूह के तहत आते हैं ।
जिन्हें क्षेत्र में गोर्मती भी कहा जाता है।
  लैबाना (लभाना) बंजारा के बीच एक ही क्षेत्र से निम्नलिखित कबीलों की सूचना दी गई है:
1- केशारोट 2-धीरबाशी 3- गुड़गा 4- रसवत 5- मेघावत 6- खचकड़ 7-पचोरिया 8 अलवत 9- खसावत 10 भोकन 11- कटकवाल 12- ढोबा 13 मच्छिया 14-चेकेसरिया 15-गोज़ल (गोयल) 16-
बोर्य 17- रामावत 18 भूटिया 1 9 बंबोल्या 20 रेथियो 21-माजावत आदि..

राठौर और जादौन क्षेत्र में चारन बंजारा अधिक आम हैं
 सोनार बंजारा कबीले के नाम जैसे मेद्रान में पाए जाते हैं लेकिन यह प्रकार दुर्लभ है।
      बंजारा नाम से एक उप-समूह (ड्रम -बीटर  नगाड़ा बजाने वाला ) पुसाड क्षेत्र में भी पाए जाते हैं ;
जिसमें सामयिक कबीलों के नाम होते हैं (1) हिवरले, (2) करका (3) असफल (4) शेलर (शिलार) (5) कॉम्बले (6) द्योपेत ( 7) धवले।
ऊपर दिए गए दूसरे के विपरीत ये कबीले नाम राजपूत कबीले के नामों की तरह नहीं लगते हैं और वे उस क्षेत्र में क्षमा या अन्य निचली जातियों के समान हैं जो पारम्परिक रूप से शादी या अन्य समारोहों में ड्रम को  पीटते हैं। 
यह सम्भावना है कि बंजारा समुदाय में इन निचली जातियों को समेकित (समायोजित) किया गया था ।
क्योंकि बंजारा के बीच ड्रम-बीटर या सबसे कम रैंक समारोह में लगे स्थानीय निचली जातियों के कबीलों के नामों / उपनामों के साथ समारोह को अपनाया था।

 राठोड और जादौन गोर्मती  के बीच एक कबीले नाम के रूप में भी प्रयोग किया जाता है
जो कि आम बात है, एक आमनाम जाधव है ।
जो महाराष्ट्र में मराठा उपनाम जैसा लगता है।
      जादौन पठान---जो अफगानिस्तानी मूल के  उनमें मणिकार अथवा मनिहार भी बंजारा वृत्ति से जीवन यापन करते थे । पश्चिमीय एशिया के यहूदीयों के ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ों में  यहूदीयों को सोने - चाँदी तथा हीरे जवाहरात का सफल व्यापारी भी बताया गया है
 मदर सोनार बंजारा से एक कबीले का नाम है जादौन ।
   मिश्र में कॉप्ट Copt यहूदीयों की सोने -चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है।
जो भारतीय गुप्ता वार्ष्णेय गोयल आदि यदुवंशी वैश्य शाखा से साम्य परिलक्षित करती है।
मनिहार--

मनिहार (अंग्रेजी: Manihar) हिन्दुस्तान में पायी जाने वाली एक मुस्लिम बिरादरी की जाति है।
इस जाति के लोगों का मुख्य पेशा चूड़ी बेचना है। इसलिये इन्हें कहीं-कहीं चूड़ीहार भी कहा जाता है। मुख्यतः यह जाति उत्तरी भारत और पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में पायी जाती है। यूँ तो नेपाल की तराई क्षेत्र में भी मनिहारों के वंशज मिलते हैं।
ये लोग अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द के रूप में  अब प्राय: सिद्दीकी ही लगाते हैं।
मुसलमान होने से..
मणिकार अथवा पण्यचारि दौनों शब्द कालान्तरण में मनिहार तथा बंजारा रूप में परिवर्तित हुए ।

उत्पत्ति का इतिहास--
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इन जातियों की उत्पत्ति के विषय में दो सिद्धान्त हैं ;
एक भारतीय, दूसरा मध्य एशियाई।
भारतीय सिद्धान्त के अनुसार ये मूलत: राजपूत थे जो सत्ता को त्याग कर मुसलमान बने। इसका प्रमाण यह है कि इनकी उपजातियों क़े नाम राजपूत उपजातियों से काफी कुछ मिलते हैं जैसे-भट्टी, सोलंकी, चौहान, बैसवारा, जादौन  आदि।
इसीलिये इनके रीति रिवाज़ हिन्दुओं से मिलते हैं;
दूसरी ओर मध्य एशियाई सिद्धान्त के अनुसार ये वो लोग है जिनका गजनी में शासकों के यहाँ घरेलू काम करना था और इनकी महिलायें हरम की देखभाल करती थी जो 1000 ई० में महमूद गज़नवी क़े साथ भारत आये और फिरोजाबाद के आस-पास  नारखी बछिगाँव आदि के क्षेत्रों में बस गये।

इन पठानों की कुछ उपजातियाँ ---

(1)शेख़ (2) इसहानी, (3) कछानी, (4) लोहानी, (5) शेख़ावत, (6) ग़ोरी, (7) कसाउली, (8) भनोट, (9) चौहान, (10) पाण्ड्या, (11) मुग़ल, (12) सैय्यद, (13) खोखर, (14) बैसवारा और (15) राठी (16) गादौन अथवा जादौन ।
पश्चिमीय पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के पठानों में जादौन पठानों की एक शाखा है । ---जो पश्तो भाषा बोलते हैं -जैसे राजस्थानी पिंगल डिंगल उपभाषाओं के सादृश्य-
पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा--
पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा (Theory of Pashtun descent from Israelites) १९वीं सदी के बाद से बहुत पश्चिमी इतिहासकारों में एक विवाद का विषय बनी हुई है। पश्तून  लोक मान्यता के अनुसार यह समुदाय इस्राएल के उन दस क़बीलों का वंशज है; जिन्हें लगभग २,८०० साल पहले असीरियाई साम्राज्य के काल में देश-निकाला मिला था।
सम्भवत वैदिक सन्दर्भों में दाशराज्ञ वर्णन इसकी संकेत है ।
ऐैतिहासिक विवरण के सन्दर्भों में -
पख़्तूनों के बनी इस्राएल होने की बात सोलहवीं सदी ईस्वी में जहाँगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है।

अंग्रेज़ लेखक अलेक्ज़ेंडर बर्न ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् १८३५ में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है।

यद्यपि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं।
अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः १८३७ में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था ; कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है इसमें सन्देह नहीं लेकिन इसमें भी सन्देह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करेंगे।
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विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी १८१९ व १८२५ के बीच भारत, पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है।
यहूदी होने से ये स्वयं को जूडान अथवा जादौन पठान कहते हैं ।
इधर भारतीय जादौन समुदाय भी स्वयं को यदुवंशी कहता है ।
जे बी फ्रेज़र ने अपनी १८३४ की
'फ़ारस और अफ़्ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त' नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था।
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जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने सन् 1858 ईस्वी में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया ;जब उसे यह जानकारी मिली कि
नादिरशाह भारत-विजय से पहले जब पेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ाई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा  (हिब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये।
इन्हें उसके ख़ेमे में मौजूद यहूदियों ने तुरंत पहचान लिया।

जार्ज मूरे द्वारा इस्राएल की दस खोई हुई जातियों के बारे में जो शोधपत्र 1861 में प्रकाशित किया गया है, उसमे भी उसने स्पष्ट लिखा है कि बनी इस्राएल की दस खोई हुई जातियों को अफ़ग़ानिस्तान व भारत के अन्य हिस्सों में खोजा जा सकता है ।
वह लिखता है कि उनके अफ़्गानिस्तान में होने के पर्याप्त सबूत मिलते हैं। वह लिखता है कि पख्तून की सभ्यता संस्कृति, उनका व उनके ज़िलों ,गावों आदि का नामकरण सभी कुछ बनी इस्राएल जैसा ही है।
हिब्रू भाषा में --
सन्दर्भित तालिकाऐं----👇

[George Moore,The Lost Tribes]इसके अलावा सर जान मेक़मुन, Sir George Macmunn (Afghanistan from Darius to Amanullah, 215), कर्नल जे बी माल्लेसोन (The History of Afghanistan from the Earliest Period to the outbreak of the War of 1878, 39), कर्नल फ़ैलसोन (History of Afghanistan, 49), जार्ज बेल (Tribes of Afghanistan, 15), ई बलफ़ोर (Encyclopedia of India, article on Afghanistan), सर हेनरी यूल Sir Henry Yule (Encyclopædia Britannica, article on Afghanistan), व सर जार्ज रोज़ (Rose, The Afghans, the Ten Tribes and the Kings of the East, 26).भी इसी नतीजे पर पहुंचे हैं हालांकि उनमे से किसी को भी एक दूसरे के लेखों की जानकारी नहीं थी। मेजर ए व्ही बेलो (Major H. W. Bellew,) कन्दाहार राजनीतिक अभियान पर गया था, इस अभियान के बारे में Journal of a Mission to Kandahar, 1857-8. में फिर दोबारा 1879 में अपनी किताब Afghanistan and Afghans. में एवं 1880 में अपने दो लेक्चरों में जो the United Services Institute at Simla: "A New Afghan Question, or "Are the Afghans Israelites?" विषय पर कहता है एवं The Races of Afghanistan. नामक किताब में भी यही बात लिखता है फिर सारी बातें An Enquiry into the Ethnography of Afghanistan, जो 1891 में प्रकाशित हुई, यही सब बातें लिखता है। I
इस किताब में वह क़िला यहूदी का वर्णन करता है।
("Fort of the Jews") (H.W. Bellew, An Enquiry into the Ethnography of Afghanistan, 34), जो कि उनके देश की पूर्वी सीमा का नाम थे ।
वह दश्त ए यहूदी का भी वर्णन करता है। Dasht-i-Yahoodi ("Jewish plain") (ibid., 4),
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विद्वान् लेखक  इस नतीजे पर पहुँचा कि अफ़ग़ानों का याक़ूब, इसाइयाह ,मूसा एक्षोडस इस्राएली युद्धों फ़िलिस्तीन विजय आर्च ओफ़ कोवीनेंट साऊल का राज्याभिषेक आदि आदि के बारे में बताया जाना व सबूत मिलना आश्चर्य जनक है  जो कि केवल बाईबिल में ही मिल सकते थे ।
"अफगान जनजातियों, जिनमें से यहूदियों पीढ़ियों के लिए जी रहे हैं, वे लोग हैं जो आज तक दस जनजातियों से अपने वंश के बारे में उनकी अद्भुत परम्परा को बरकरार रखते हैं।
यह एक प्राचीन परम्परा है, और कुछ ऐतिहासिक व्यवहार्यता के बिना नहीं।

खोजकर्ता, यहूदी और गैर-यहूदी, जो समय-समय पर अफगानिस्तान गए थे, और साहित्यिक स्रोतों की जांच करने वाले अफगान मामलों के शोधार्थीयों ने इस परम्परा को संदर्भित किया है, जिस पर यूरोपीय भाषाओं में कई विश्वकोशों में भी चर्चा की गई थी।
तथ्य यह है कि यह परम्परा, और कोई अन्य, इन जनजातियों में से एक है जो खुद ही एक भारी विचार के रूप प्रस्तुत करते हैं।
राष्ट्र आम तौर पर पीढ़ी से पीढ़ी तक मुंह के शब्द द्वारा पारित जीवित यादें संजोए रखते हैं, और उनका अधिकांश इतिहास लिखित अभिलेखों पर आधारित नहीं होता है बल्कि मौखिक परम्परा पर आधारित होता है।
यह विशेष रूप से ऐसा ही था राष्ट्रों और Levant के समुदायों के मामले में।
अरब प्रायद्वीप के लोग, उदाहरण के लिए, एक मूल मूर्तिपूजा पंथ के अपने सभी ज्ञान व्युत्पन्न, जो वे एक इस्लाम के पक्ष में इस तरह की मौखिक परम्परा से बंधे।
तो ईरान के लोग, पहले जोरोस्टर के धर्म के उपासक थे; जिनमें  तुर्की  , पठान और मंगोल जनजातियाँ सुमार की जाती हैं ।
, पूर्व में बुद्धिस्ट और शमनवादियों; और उन अरामियों जिन्होंने इस्लाम के पक्ष में ईसाई धर्म को त्याग दिया।
इसलिए, यदि अफगान जनजाति लगातार इस परम्परा का पालन करती हैं कि वे एक बार इब्रानी थे और समय के दौरान इस्लाम को गले लगा लिया गया था, और उनके बीच एक वैकल्पिक परम्परा भी मौजूद नहीं है, तो वे निश्चित रूप से यहूदी हैं।

भारतीय ऐैतिहासिक विवरणों के मुताबिक राजपूत विदेशी थे ।
---जो ठाकुर या क्षत्रिय टाइटल परम्पराओं से लगाते आ रहे हैं और ठाकुर (तक्वुर) उपाधि भी मूलत: तुर्की सामन्तों की थी
राजपूतो ने मुगलों को अपनी बेटियाँ-बहने ब्याही.....और राजपूत राजाओं ने अंग्रेजो को अपना सर्वेसर्वा माना । और इनके सांस्कृतिक व वैवाहिक सम्बन्ध विनिमय हुए ।
अत: ये जमीदार और ऊँचे औहदों पर आसीन हुए । इन्होने मुगलों की पराधीनता स्वीकार की और
अंग्रेजो के  टुकड़ों पर पलते रहे ।

जो लोग ठाकुर अथवा क्षत्रिय उपाधि से विभूषित किये गये थे ।
जिसमे अधिकतर अफ़्ग़ानिस्तान के जादौन पठान भी थे, जो ईरानी मूल के यहूदीयों से सम्बद्ध थे।
वे राजस्थान की जैसल मेर जागीर को संजोए हुए हैं ।
यद्यपि पाश्चात्य इतिहास विदों के अनुसार यहुदह् ही यदु: शब्द का रूप है ।
एेसा वर्णन ईरानी इतिहास में भी मिलता है ।
संस्कृत और फारसी भाषाओं का मूलत: एक ही श्रोत है
दौनों भाषाओं में अद्भुत साम्य परिलक्षित होता है ।
जादौन पठानों की भाषा प्राचीन अवेस्ता ए झन्द से निकली भाषा पश्तो , पहलवी तथा कशमीरी आदि थी ,
जो भारत में राजस्थानी पिंगल डिंगल के रूप में विकसित हुई है।
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क्योंकि संस्कृत भाषा का ही परिवर्तित निम्न रूप फ़ारसी है ।
अत: फारसी अथवा ईरानी भाषाओं में प्रचलित सभी शब्द संस्कृत भाषा के ही शब्द हैं ।
इस्लाम धर्म तो बहुत बाद में सातवीं सताब्दी में पश्चिमीय एशिया में आया ; इस्लामीय शरीयत का नुमाइन्दा बन कर ईरान होता हुआ मौहम्मद बिन-काशिम लगभग 712 ई०सन् में भारत आया

यहूदी वस्तुतः फलस्तीन के यादव ही थे ।
ऐसा विवरण हिब्रू बाइबिल के कुछ अंशों से ध्वनित होता है । यद्यपि बाइबिल की कथाओं में भी भारतीय पुराणों के समान मनगढ़न्त व काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं
परन्तु कुछ चिन्ह हैं  इतिहास के
क्योंकि ईस्वी सन् 571 में तो इस्लाम मज़हब के प्रवर्तक सलल्लाहू अलैहि वसल्लम शरवर ए आलम मौहम्मद साहिब का जन्म हुआ है ।
इजराइल में अबीर (Abeer)इन यहूदीयों की ही एक युद्ध -प्रिय शाखा है ।
जिसका मिलान भारतीय अहीरों से है ।
भारतीय जादौन समुदाय अहीरों को अपने समुदाय में भले ही नहीं मानता हो , परन्तु भारतीय पुराणों विशेषत: हरिवंश पुराण तथा पद्मपुराण में अहीरों को गोपालन वृत्ति (कार्य) के कारण गोप रूप में वर्णित किया है।

तथा गोप उपाधि यादवों की वंश- परम्परागत उपाधि है
ईसा मसीह को भी एक चरावाह के रूप में
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हिब्रू बाइबिल में वर्णित किया गया है ।
""Chapter. 8: The meaning of names in the Bible ... Abir -derived from the Hebrew, which means “strong.” Abiri -derived ... In the Bible (l Kings 5:15), a leader of the tribe of Gaderiya sub clain of Yehudah "...
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हिब्रू बाइबिल भी अहीरों की वीरता का वर्णन करती है
क्योंकि विश्व के प्राचीनत्तम ग्रन्थ ऋग्वेद के दशम् मण्डल के सूक्त संख्या बासठ (62) के दशमी ऋचा में
यदु और तुर्वसु को दास अथवा शूद्र के रूप में गोप रूप में वर्णित किया है ।
देखें--- उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास---जो गायों से घिरे हुए हैं हम उनका वर्णन करते हैं (ऋ०10/62/10)
जो यहूदीयों को पश्चिमीय एशिया में जूडान (Joodan ) भी कहते हैं।
जादौन स्वयं को ठाकुर कहते हैं और इस समुदाय का सबसे अधिक जोर भी ठाकुर उपाधि पर है !
तो यह ठाकुर तुर्की ईरानी तथा आरमेनियन भाषाओं से निकला है छठी सदी में जब बौद्धों से युद्धीय स्तर पर मुकाबला करने के लिए तुर्की ईरानी तथा आरमेनियन मूल के हूण पख्तों मूल के गादौन अथवा जादौन पठानों को भी सहायक बना कर उनका क्षत्रिय- करण किया ।
विदित हो की ईरानी भाषा में किसी जागीर या भू-खण्ड के मालिक को तक्वुर (ठक्कुर) खिताबो से नवाज़ा जाने की रवायते पुश्तैनी थीं ।
अत: ठाकुर उपाधि धारक ईरानी अथवा मगोलिया मूल के हैं ।
क्योंकि ठाकुर संस्कृत भाषा का शब्द नहीं है ।
और इसको संस्कृत भाषा में खोजना केवल रूढ़िवादी शौच ( विचार) ही है ।
तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर )परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी । यहाँ पर ही इसका जन्म हुआ । ________________________________________ अब तक्वुर ठक्कुर (खिताब) के सन्दर्भों में कुछ समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का उल्लेख भी विचारणीय है, कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर खिताब से सन्तनत की जानिब से नवाज़े जाते थे वे ही तक्वुर (ठक्कुर)कहलाते थे ।
अत: यह शब्द भी विदेशी और इसके धारक भी विदेशी _________________________________________ जादौन पठान जब सिन्धु और अफगानिस्तान आबाद थे।
तब निस्संदेह इस्लाम धर्म का आगमन भारत तथा पश्चिमीय एशिया तथा मध्य एशिया में भी नहीं हो पाया था ।
वहाँ उस समय सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित थी , केवल छोटे ईसाई राजा होते थे ।
ये स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक ही होते थे ;
तब तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर) उपाधि से नवाज़ा जाता जाता था !
उस समय एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही
इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी।
    नीचे ठाकुर शब्द का तुर्की विवरण प्रस्तुत है👇 ________________________________________ Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace. ______________________________________ Origin and meaning -
(व्युत्पत्ति- और अर्थ )--
The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign ( स्थान या भी खण्ड का मालिक)" 
from the Persian word meaning "Wearer of the Crown". It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople.
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This latest research series is unsolicited.   ( By Yadav Yogesh Kumar 'Rohi
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(व्युत्पत्ति- और अर्थ) -
तुर्की का नाम, टेकफुर सराय का अर्थ है "
प्रभु का महल (स्थान या भी खण्ड का मालिक)"
फारसी शब्द से " मुकुटधारक " का अर्थ है।
यह कॉन्स्टेंटिनोपल में बीजान्टिन घरेलू वास्तुकला का एकमात्र अच्छी तरह से संरक्षित उदाहरण है।
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सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से तुर्कों की कई शाखाएँ यहाँ भारत में आकर बसीं।

इससे पहले यहाँ से पश्चिम में आर्य (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का पढ़ाब रहा था।

तुर्की में ईसा के लगभग 7500 वर्ष पहले मानवीय आवास के प्रमाण भी मिले हैं। तुर्की के वॉगाजकॉई में
हिट्टी साम्राज्य की स्थापना 1900-1300) ईसा पूर्व में हुई थी।
ये भारोपीय वर्ग की भाषा बोलते थे ।
इन्द्र , वरुण नासत्य तथा
अश्वनी द्वय इनकी देवसूची में थे ।
1250 ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूद (नष्ट) कर दिया और आसपास के क्षेत्रों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।
और1200 ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन आरम्भ हो गया।
तथा छठी सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस (कुरुष) ने अनातोलिया पर अपना अधिकार कर लिया। इसके करीब 200 वर्षों के पश्चात  334 ई० पूर्व में ठक्कुर शब्द का प्रचलन एक सामन्तीय खिताब के तौर पर होने लगा । ________________________________________
सिकन्दर ने फ़ारसियों को हराकर इस पर अपना अधिकार किया।
....बस  ठक्कुर अथवा ठाकुर शब्द का इतिहास भारतीय संस्कृति में यहीं से प्रारम्भ होकर आज तक है।
कालान्तरण में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था। तब तुर्की और ईरानी सामन्त तक्वुर उपाधि( title) लगाने लग गये थे ।
यहीं से भारत में राजपूतों ने इसे ग्रहण किया।
क्योंकि इनके वंशज पहले से ही तक्वुर tekvur खिताब के  धारक थे ।
ईसापूर्व 130 ईसवी सन् में अनातोलिया (एशिया माइनर अथवा तुर्की ) रोमन साम्राज्य का अंग बन गया था । ईसा के पचास वर्ष बाद सन्त पॉल ने ईसाई धर्म का प्रचार किया और सन् 313 ईस्वी में रोमन साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया।
इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई। संस्कृत में सन्त शब्द का प्रचलन भी इसी समय में हुआ सन्त शब्द भारोपीय मूल से सम्बद्ध है । यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान (Saint) इसका प्रति रूप है ।
रोमन इतिहास में सन्त की उपाधि उस मिसनरी missionary' को दी जाती है ।
जिसने कोई आध्यात्मिक चमत्कार कर दिया हो । छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था पर 100 वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया।
बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।
1288 सन्  में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ ,और सन्  1453 में कस्तुनतुनिया का पतन।
इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। _______________________________________ वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे।
जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए।
लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे।
दाहिस्तान( Dagestan )में दाह्यु अथवा दाहे जन-जाति से सम्बद्ध थे  यदु और तुर्वसु ऋग्वेद को दशम् मण्डल को सूक्त संख्या 62की ऋचा संख्या दश में । नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व में बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई।
ये सल्जूक़ तुर्क ही जिनकी उपाधि title तेगॉर थी और ईरानियों में भी तेगुँर उपाधि प्रचलित थी ।
इसके साथ ही इसी शाखा को कुछ लोग कैस्पियन सागर के पश्चिम में वे मध्य तुर्की के कोन्या में स्थापित हो गए।
यह समय ( सन् 1071) के लगभग है ।
इस समय में उन लोगों ने बिजेंटाइनों को परास्त कर एशिया माइनर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। _________________________________________ मध्य टर्की में कोन्या को राजधानी बनाकर तुर्कों ने इस्लामी संस्कृति को अपनाया।
ये लगभग ग्यारह वीं सदी की घटना है ।
और तुर्कों के जागीरदार सरदार तक्वुर कहलाते थे
तक्वुर लकब (उपाधि)  कितने का सूचक था ।
विदित हो कि  इससे पहले तुर्क ईरानी असुर की संस्कृति के अनुयायी थे ।
जुरथुस्त्र के अनुयायी -असुर-महत् के उपासक,
ईरानी भाषा में असुर शब्द अहुर हो गया असुर का अर्थ असु राति इति असुर: कथ्यते अर्थात् जो असु जीवन अथवा प्राण दे का है ,वह असुर है ।
असुर महत् ही ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता ए जैन्द में अहुर-मज्दा है ।
असीरियन संस्कृति असुरों से सम्बद्ध थी ।
वैदिक सन्दर्भों में ..  इसी रूप में यदु और तुर्वसु को साथ-साथ वर्णित किया हैं ।
देखें---ऋग्वेद का दशम् मण्डल का ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा :--- " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।१०/६२/१०ऋग्वेद। _____________________________________
असुर अथवा दास ईरानी आर्यों से सम्बद्ध थे ।
आज भी दौनों शब्दों का उच्च अर्थ विद्यमान है ।
अहुर मज्दा और दय्यु तथा दाहे रूप में -- और दएव (देव) शब्द का अर्थ पश्तो तथा ईरानी भाषा में दुष्ट अथवा धूर्त है ।
पुराणों में यदु और तुर्वसु को शूद्र ही वर्णित किया है । तुर्वसु ने तुर्किस्तान को आबाद किया । तुर्कों ने ईरानी संस्कृति के अपनाया अब हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड Genesis में यहूदीयों के पूर्व-पिता यहुदह् तथा तुरबजु का वर्णन है । हिब्रू लेखक आब्दी - हाइबा के एक पत्र से उद्धृत अंश __________________________________________ देखें---, तुर्जाजु (तुरवसु)को मार दिया गया है जिला के द्वार में, फिर भी राजा स्वयं को वापस ले लेता है देखिए, लकिसी के ज़िम्रिडा - नौकर, जो हबीरु के साथ जुड़ गए हैं, ने उसे मारा है।
(अब्दी-हाइबा के पत्र, यरूशलेम के राजा के पास फिरौन - एल अमरना पत्र को बताएँ - नंबर 4)
... See, Turazuju has been killed In the gate of the district, the king still withdraws himself Look, Lizzie's Zimrida - Servant, Who has joined Habiru, has killed him. (Letters from Abdi-Haiba, near the King of Jerusalem Pharaoh - Tell El Ararna Letter - Number 4)...
तथा तुर्बाजु (फिलीस्तीन कबीले) का नाम तुवरजु (इंडो-हिब्रू जनजाति)
भारतीय वेदों में वर्णित तुर्वसु के वंशज । And Turbabu (Palestinian tribe) name Tuvarju (Indo-Hebrew tribe) descendants of Tervasa described in the Indian Vedas. __________________________________________ प्राचीन होने से कथाओं में मान्यताओं के व्यतिक्रम से भेद भी सम्भव है , और यह हुआ भी अतः इतिहास के चिन्ह ही शेष रह गये हैं ।
मध्य टर्की के कन्या से सम्बद्ध साम्राज्य को 'रुम सल्तनत' भी कहते रहे हैं । क्योकि इस इलाके़ में पहले इस्तांबुल के रोमन शासकों का अधिकार था ।
जिसके नाम पर इस इलाक़े को जलालुद्दीन ने रुमी ही कहा था । यह वही समय था , जब तुर्की के मध्य (और धीरे-धीरे उत्तर) भाग में ईसाई रोमनों (और ग्रीकों) का प्रभाव घटता जा रहा था ।
इसी क्रम में यूरोपीयों का उनके पवित्र ईसाई भूमि, अर्थात् येरुशलम और आसपास के क्षेत्रों से सम्पर्क टूट गया था । क्योकि अब यहाँ ईसाइयों के बदले मुस्लिम शासकों का राज हो गया था। अपने ईसाई तीर्थ स्थानों की यात्रा का मार्ग सुनिश्चित करने और कई अन्य कारणों की वजह से यूरोप में पोप ने धर्म युद्धों का आह्वान किया। _______________________________________ यूरोप से आए धर्म योद्धाओं ने यहाँ पूर्वी तुर्की पर अधिकार बनाए रखा पर पश्चिमी भाग में सल्जूक़ों का साम्राज्य बना रहा ये सेल्जुक तक्वुर सामन्त (knight) होते थे ।
लेकिन इनके दरबार में फ़ारसी (ईरानी) भाषा और संस्कृति को बहुत महत्व दिया गया। अपने समानान्तर के पूर्वी सम्राटों, गज़नी के शासकों की तरह, इन्होंने भी तुर्क शासन में फ़ारसी भाषा को दरबार की भाषा बनाया। भारतीय इतिहास में मध्य-काल अर्थात् सोलह वीं सदी मेैं तुर्की ईरानी मूल के मंगोल से आये हुए तुर्कों ने अरब़ी की अपेक्षा सल्तनत की भाषा फारसी को चुना  सल्जूक़ दरबार में ही सबसे बड़े सूफ़ी कवि रूमी (जन्म 1215) को आश्रय मिला और उस दौरान लिखी शाइरी को सूफ़ीवाद की श्रेष्ठ रचना माना जाता है। सन् 1220 के दशक से मंगोलों ने अपना ध्यान इधर की तरफ़ लगाया। कई मंगोलों के आक्रमण से उनके संगठन को बहुत क्षति पहुँची और 1243 में साम्राज्य को मंगोलों ने जीत लिया। यद्यपि इसके शासक 1308 तक शासन करते रहे पर साम्राज्य बिखर गया। ये शासक अपने लिए तक्वुर (ठक्कुर) उपाधि ही लगाते थे । अतः हिन्दू शब्द के समान ठाकुर शब्द भी फारसी मूल का है । इसी शब्द के वंशज शब्दों को भी देखें--- भारतीय भाषाओं में ठाकुर शब्द का आग़ाज( प्रारम्भ) तुर्कों के द्वारा हुआ। '________________________________________   The Tsakhur (or Caxur) (Russian: цахурский) people are an ethnic group of northern Azerbaijan and southern Dagestan (Russia). They number about 30,000 and call themselves yiqy (pl. yiqby), but are generally known by the name Tsakhur, which derives from the name of a Dagestani village, where they make up the majority. History Tsakhurs are first mentioned in the 7th-century Armenian and Georgian sources where they are named Tsakhaik. After the conquest of Caucasian Albania by the Arabs, Tsakhurs formed a semi-independent state (later a sultanate) of Tsuketi and southwestern Dagestan. By the 11th century, Tsakhurs who had mostly been Christian, converted to Islam. From the 15th century some began moving south across the mountains to what is now the Zaqatala District of Azerbaijan. In the 18th century the capital of the state moved south from Tsakhur in Dagestan to İlisu and came to be called the Elisu Sultanate. West of the Sultanate Tsakhurs formed the Djaro-Belokani free communities. The sultanate was in the sphere of influence of the Shaki Khanate. It became part of the Russian Empire by the beginning of the 19th century. Geography Tsakhurs live in Azerbaijan's Zaqatala region, where they make up 14% of the population, and in Gakh, where they constitute less than 2%. In Dagestan, they live in the mountainous parts of the Rutulsky district. According to Wolfgang Schulze, there are 9 villages in Azerbaijan, where Tsakhurs make up the majority of the population, all of them in Zaqatala. 13 more villages in Zaqatala and Gakh have a significant Tsakhur minority.[3] Language ---( भाषा ) Most Tsakhurs speak the Tsakhur language as their native language. The rate of bilingualism in Tsakhur and Azeri is high. Other languages popular among Tsakhurs include Russian and Lezgian. References Russian Census 2010: Population by ethnicity (in Russian) State statistics committee of Ukraine - National composition of population, 2001 census (Ukrainian) The Sociolinguistic Situation of the Tsakhur in Azerbaijan by John M. Clifton et al. SIL International, 2005 External links http://geo.ya.com/travelimages/az-tsakhur.html Shakasana (site maintained by Tsakhur about their language, culture, history, et.c Tsakhur (also spelled Tsaxur or Caxur ; Azerbaijani : Saxur dili ; Russian : Цахурский , Tsakhurskiy) is a language spoken by the Tsakhurs in northern Azerbaijan and southwestern Dagestan ( Russia ). It is spoken by about...
हिन्दी भाषा में अनुवाद निम्न देखें---👇 ________________________________________  देखें --- एक विवेचना: - कहीं भी त्सेकुर शब्द भी रूसी भाषा में मौजूद है ये लोग रूसी ईरानी क्षेत्र दाहिस्तान (डागेस्टान) में आबाद हो रहे थे , और इनके वंशज आज भी हैं । यह रूस का उत्तर अज़रवेज़न और दक्षिणी दहिस्तान है। दास जन-जाति का आवास होने से यह दहिस्तान है। दास शब्द का  गुलाम अर्थ तो भारतीय संस्कृति में बहुत बाद में रूढ़ हुआ क्योंकि वेदों में दास शब्द असुरों का वाचक है । इसी दास शब्द के समानांतर दस्यु और दक्ष (कुशल ) शब्द भी हैं _________________________________________ सेखुर (या कक्सूर) (रूसी: цахурский) ये लोग उत्तरी अजरबेजान और दक्षिणी दाहिस्तान (रूस) के एक जातीय समूह हैं। वे 30,000 के लगभग  हैं और खुद को यिक़ी (प्लयिक्वे) कहते हैं, लेकिन आम तौर पर नाम से जाना जाता है, सखुर, जो एक दाहिस्तानी गांव के नाम से प्राप्त होता है, जहां वे बहुमत को बनाते हैं। ऐतिहासिक रूप में  7 वीं शताब्दी के आर्मीनियाई और जॉर्जियाई स्रोतों में इनका सबसे पहले उल्लेख किया गया है । जहाँ उनका नाम तशाखिक है। अरबों द्वारा कोकेशियान अल्बानिया की विजय के बाद, तख्खुरों  ने एक अर्ध-स्वतंत्र राज्य (बाद में एक सल्तनत) का गठन किया । जो सुकुती और दक्षिण-पश्चिमी दाहिस्तान  था।
इन पश्चिमीय एशिया तथा एशिया माइनर( तुर्की) में आबाद दास( दाहे) के सुल्तानों तथा छोटे राजाओं को भी तक्वुर कहा जाता था ।
11 वीं शताब्दी तक, जो ज्यादातर ईसाई थे, वे इस्लाम में परिवर्तित हुए तथा 15 वीं शताब्दी से कुछ लोग दक्षिण की ओर पहाड़ के पार चले गए, जो अब अज़रबैजान के जक्कताला जिले हैं । दाहिस्तान Dagestan की भाषाओं में दाहे शब्द का अर्थ अब पहाड़ या पर्वत हो गया है । 18 वीं शताब्दी में राज्य की राजधानी दाहिस्तान से लेकर इलिसु तक सखुर से दक्षिण चले गए और इसे एलिसू सल्तनत कहा जाने लगा। सल्तनत सख्खुस के पश्चिम ने डर्जो-बलोकोनी मुक्त समुदायों का गठन किया। सल्तनत शाकी खानते के प्रभाव के क्षेत्र में था। यह 1 9वीं शताब्दी की शुरुआत से रूसी साम्राज्य का हिस्सा बन गया। भूगोल Tsakhurs अज़रबैजान के जकातला क्षेत्र में रहते हैं, जहां वे 14% आबादी बनाते हैं, और गख में, जहां वे 2% से कम का गठन करते हैं। दाहिस्तान में, कुछ रूटलस्की जिले के पहाड़ी इलाकों में रहते हैं। वोल्फगैंग स्कुलज़ के मुताबिक, अजरबैजान के 9 गांव हैं, जहां सैकुरस जनसंख्या में अधिकतर हैं, उनमें से सभी जक्कलला में हैं। जकातला और गख के 13 और गांव में एक महत्वपूर्ण सैकुर अल्पसंख्यक हैं। भाषा --- (भाषा) सबसे अधिक (Tsakhurs )अपनी मूल भाषा के रूप में सखुर भाषा बोलते हैं। सेखुर और अजेरी में द्विभाषावाद की दर उच्च है साख़ख़्स में लोकप्रिय अन्य भाषाएं रूसी और लेज़िअन में शामिल हैं संदर्भ रूसी जनगणना 2010: जातीयता द्वारा जनसंख्या (रूसी में) यूक्रेन की राज्य सांख्यिकी समिति - आबादी की राष्ट्रीय रचना, 2001 की जनगणना (यूक्रेनी) जॉन एम। क्लिफटन एट अल द्वारा अज़रबैजान में सखाखोरी की सामाजिक आबादी की स्थिति एसआईएल इंटरनेशनल, 2005 बाहरी कड़ियाँ http://geo.ya.com/travelimages/az-tsakhur.html शकना (साइट को उनकी भाषा, संस्कृति, इतिहास, एट सेखुर (अस्ज़ानी: सक्षुर डीली; रूसी: Цахурский, सेखुरस्की) एक भाषा है जो उत्तरी अज़रबैजान और दक्षिण-पश्चिमी डैगेस्टान (रूस) में तख्खुर द्वारा बोली जाने वाली एक भाषा है।
इसके बारे में बात की जाती है ... अत: ठाकुर शब्द कोई जन-जाति विशेष का वाचक नहीं हैं । सायद किसी को कुछ अटपटा भी लगे कि हिन्दुस्तान की भाषाओं में प्रचलित जादौन, जाधव ,जाट्ट जादौं, तथा जाटव ( जटिया जन समुदाय) तथा यादव शब्द भी हिब्रू भाषा के यहुदह् शब्द के सहोदर हैं । जादौन पठान स्वयं को बनी इज़राएल अर्थात् यहुदह् की सन्तानें यहूदीयों को रूप में ही मानते हैं ।परन्तु विचार धारा से इस्लामीय शरीयत के नक्श ए क़दम पर चलते हैं । _________________________________________ मराठी शब्द जाधव भी इसी से विकसित हुआ तथा इससे (जाटव शब्द बना , यह घटना सन् १९२२ समकक्ष की है ।
साहू जी महाराज का वंश जादव (जाटव) था । ये शिवाजी महाराज के पौत्र तथा शम्भु जी महाराज के पुत्र थे ।
निश्चित रूप से इनमें से मगध के पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायीे ब्राह्मणों ने कुछ को शूद्र तथा कुछ को क्षत्रिय बना दिया , जो उनके संरक्षक बन गये , वे क्षत्रिय बना दिये गये । और जो विद्रोही बन गये , वे शूद्र बना दिये -- संस्कृत भाषा में बुद्ध के परवर्ती काल में ठक्कुर: शब्द का प्रयोग द्विज उपाधि रूप में था । जो ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग का वाचक था । परन्तु ब्राह्मणों ने इस शब्द का प्रयोग द्विज उपाधि के रूप में स्वयं के लिए किया ।
जैसे संस्कृत भाषा के ब्राह्मण कवि गोविन्द ठक्कुर: --- काव्य प्रदीप के रचयिता । वाचस्पत्यम् संस्कृत भाषा कोश में देव प्रतिमा जिसका प्राण प्रतिष्ठा की गयी हो , उसको ठाकुर कहा जाता है ।
ध्यान रखना चाहिए कि पुराणों में ठाकुर शब्द प्रयोग कहीं नहीं है । हरिवंश पुराण में वसुदेव और नन्द दौनों के लिए केवल गोप शब्द का प्रयोग है । _________________________________________ इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत गवां कारणत्वज्ञ :सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति __________________________________________ अर्थात् वरुण ने कश्यप को पृथ्वी पर वसुदेव गोप के रूप में जन्म लेने का शाप दे दिया -- कृष्ण के लिए ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग प्रथम वार वैष्णव पुष्टी-मार्गीय सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य वल्लभाचार्य के अनुयायी ब्राह्मण समाज ने किया था श्री नाथ जी के विशेष निग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है ; और पुष्टी-मार्गीय सम्प्रदाय द्वारा कृष्ण जी के निग्रह को ठाकुर जी कहा जाता है ।
स्था--उकञ् ।
१ स्थितिशीले २एकग्रामाधिकृते पुल्लिंग विशेषण शब्द (अमरकोशः) स्थावर: शब्द से ठाकरे शब्द विकसित हुआ । ठाकुर शब्द की यह ऐैतिहासिक गवेषणा पूर्ण रूपेण प्रबल प्रमाणों के दायरे में है । जिसमें सन्देह की कोई गुँजायश नहीं है । _________________________________________ यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट कर दें !
कि इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता है , बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक तथ्य होता है ।
छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं, तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है , और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है अत: केवल प्रलाप करने से कोई विद्वान् अथवा विशेषज्ञ नहीं हो जाता है ।
शब्द स्वयं अपना इतिहास कहते है । _____________________________________
   
यादव योगेश कुमार 'रोहि'
के द्वारा यह नवीनत्तम शोध श्रृंखला अनूसन्धानित है ।

9 टिप्‍पणियां:

  1. Re ahir bhensh chaap tera baap rajput hi h...isliye tu log singh lagata he or yadav tu log 1942 me lagana suru kr diya tha .pahle tu ahir se yadav kaise bana beta agar Sach me tu yadav he toh raja q nhi bana or mughal se q nhi yudh kiya

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    1. तेरी मा चोदने के लिए साले कुत्ते तू कहां से राजपूत आया जब कृष्ण के समय राजपूत शब्द था ही नहीं और अहीर शब्द तो सनातन है जो ख़ुद भगवान् विष्णु द्वारा कथित तौर पर सच्चाई का प्रतीक हैं

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    2. Gawar sirf ahir nahi bahut sare yaduvanshi samuday aj bhi hai lekin wo tut chuke hai . Jadeja Jason bhati chudasama koi bhi praker se yaduvanshi nahi hai inka koi ullekh nahi hai .
      Dwarika ke samapan ke bad jaydatar yaudvnashi nast ho chuke the wur kuch log gay bhes ke sath dwarika chhod chuke the . Me dhodiya samuday se hu .
      Dhodoya patels samuday south gujarat aur thane ( maharaserta ) me hai .
      Dhana aur rupa nam ke do yaduvanshiyo ko shree Krishna ji ne south gujarat me chale jane ko kaha tha . Yaha pe hum cattle ( dhor ) ke sath the isliye dhodiya nam mila hai. Hum log unhi do yaduvanshiyo ke vansaj hai . Hummare aj ke kul prachin ancinet time ke jadav ( yadav ) kul same hi hai jaydatar .
      Jay bhawani ( kul devi ) jay shree Krishna Jay bharam dev

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  2. Aap hamari tulna ahiro se kyo karte ho bo nice bard se hai ham Jab bhi chhatriya the ab bhi chhatriya fir ye ahirahchhatriya kyo nahi juta

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    1. तू मुगलों की औलाद है तो यादव/अहीर काहा से आएगा तू नकली राजपूत है भगवान कृष्ण के समय राजपूत शब्द का जिक्र कहीं भी नहीं था लेकिन अहीर शब्द भगवान विष्णु के समय से ही विदित है और अहीर का मतलब होता है निडर और साहसी जो कि महाराज यदु थे जो कभी डरते नहीं थे

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  3. असल में भारत में 6 शताब्दी se पहले राजपूतों क्षत्रिय कहा गया है राजपूत्र yani राजा का पुत्र भारत में दो क्षत्रिय वंश है सूर्यवंशी क्षत्रिय चंद्रवंशी क्षत्रिय

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    1. अजी लौड़ा मेरा।
      पुराणों में राजपूत का अर्थ राजा की नाजायज औलाद बोला गया है भोसडी के! झांट भर का ज्ञान नहीं बकचोडी दुनिया भर की।

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  4. मुगलों को अपनी बहन सौंपने वाले आज यादव बन रहे हैं

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