प्रस्तोता -- योगेश कुमार "रोहि "
ग्राम - आजादपुर पत्रालय
पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़ उ०प्र०.....📝📝📝📝📝📝📝📝📝 ➖➖➖➖➖➖➖➖➖ पेरियार ललई सिंह यादव जिन्होने सुप्रीम कोर्ट तक सच्ची रामायण के लिए अपनी क्षमता अकाट्य तर्कशील से विजय पञ्जीकृत करायी थी !
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श्री राजेन्द्र यादव जिनके हंस को न पढ़ पाने वाला हिन्दी का मूर्धन्य विद्वान भी कुछ खोया महसूस करता हो को कौन अस्तित्वविहीन साबित करने की क्षमता रखता है।
अंग्रेजी के एक विद्वान की लाईन कि---
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‘‘It is better to reign hell than to be slave in heaven’’
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अर्थात स्वर्ग में गुलाम बनकर रहने की अपेक्षा नरक में शासक बनकर रहना बेहतर है".. पूरी दुनिया दास प्रथा के विरुद्ध लड़ रही है।
1942 का स्वतंत्रता अन्दोलन अंग्रेजी दासता से मुक्ति का आंदोलन था |
परन्तु जब हम समाज में सदीयों से व्याप्त मानवीय असमानताओं से मुक्त होगें ..तब वास्तविक स्वतन्त्र माने जाएगे .. ऐसे में यदि तुलसीदास जी लिखतें हों कि निरमल मन अहीर निज दासा और हम इस पर गर्व करें ! "तो हम्हें इस कपटपूर्ण नीति से युक्त प्रशंसा को समझने की महती आवश्यकता है ।
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.. भला तुलसी दास "निरमल मन भगवान का दास अहीर को क्यों लिखते हैं... क्या उन्हें दास का मतलब नहीं पता था ?
उन्हें जब ब्राह्मण को भुसूर बनाना था। तब उन्होंने लिख दिया --
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”पूजिय विप्र सकल गुणहीना“
विप्र न पूजिए ज्ञान प्रवीणा !!
( अरण्यकाण्ड राम चरित मानस)
जल तुलसी को अहीर का मन निर्मल ही लिखना था तो वे दास क्यों बनायें ?
वे जानते थे कि दासता का पट्टा कुत्ते के गले में ही रह सकता है।
लोमड़ी या भेडि़यें के गले में नहीं।
तुलसी दास जी ने श्री कृष्ण के वंशजों को लिखा है कि आभीर, यवन, किरात, खल स्वपचादि अति अधरूपजे।
इसमें अहीर को नीच, अन्त्यज, पापी बताया है जिस अहीर की कन्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी गायत्री है (नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या थी )...
पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में देखे विस्तार से ...
और वाल्मीकि के नाम पर बौद्धकाल के बाद में लिपिबद्ध ग्रन्थ वाल्मीकीय रामायण बुद्ध भगवान् को चोर कहा गया है और बुद्ध के प्रथम सम्प्रदाय पाषण्डः का विरोध किया गया है ।
अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग ३४ वाँ श्लोक प्रमाण रूप में देखें---
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" यथा ही चोर:स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि ।।
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ये बाते राम और जावालि ऋषि के सम्वाद रूप में है ।
राम बुद्ध को चोर और नास्तिक बताते है ।
क्या ये बाते कल्पना व की परिचायक नहीं हैं ।
.. प्रारम्भ में पाषण्डः शब्द बुद्ध का वह पवित्र अनुयायीयों का समुदाय था जिसने तत्कालीन कुछ ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित वैदिक यज्ञों के नाम पर हिंसात्मक तथा व्यभिचार पूर्ण पृथाओं का खण्डन किया था ..जो समाज में पाश या बन्धन के समान थे पाषण्डः= अर्थात् पाषण् पाषम् षण्डयति इति पाषण्डः कथ्यते " वाल्मीकीय रामायण में ही युद्धकांड के 22वें सर्ग में स्पष्ट लिखा है कि जब राम ने लंका जाने हेतु सागर को समाप्त करने के लिए अपनी प्रत्यञ्चा पर वाण चढ़ा लिया तो सागर प्रकट होकर अपने भगवान राम को सनातन मार्ग न छोड़ने की सीख देते हुए वाण न छोड़ने का आग्रह करता है।
जिस पर राम कहते हैं कि
"तमब्रवीत् तदा रामः श्रणु में वरुणालय।
अमोघोSयं महाबाणः कस्मिन् देशे निपात्यताम्।।30।। वरुणालय! मेरी बात सुनों। मेरा यह विशाल बाण अमोघ है। बताओं, इसे किस स्थान पर छोड़ा जाय" राम के इस सवाल पर महासागर ने कहा।
क्रमश
तब जड़ समुद्र भी राम से अपने अमोघ वाण को उत्तर दिशा मे छोड़ने की प्रथना।
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