1800 ईसा पूर्व के बाद छोटी-छोटी टोलियों में आर्यों ने भारतवर्ष में प्रवेश किया। ऋग्वेद और अवेस्ता दोनों प्राचीनतम ग्रंथों में आर्य शब्द पाया जाता है। ईरान शब्द का संबंध आर्य शब्द से है।
ऋग्वैदिक काल में इंद्र की पूजा करने वाले आर्य देव उपासक कहलाते थे।
ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार आर्यों की अपनी अलग प्रजाति हैं ।
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जिन लोगों से वे लड़ते थे उनको काले रंग का बतया गया है।
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आर्यों का आगमन शीत प्रदेशों से हुआ ।
जहाँ की शीत जल-वायु के प्रभाव से मनुष्यों की त्वचा का रंग श्वेत हो जाता है ।
आर्यों का रंग प्राय: श्वेत ही था ।
परन्तु भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में आने पर उस में गैंहूँआ पन भी आ गया ।
यज्ञ-अनुष्ठान आर्यों का अनिवार्य एक सांस्कृतिक अंग था ।
यह वस्तुतः शीत-प्रकोप से रक्षा का ही दैनिक साधन था
जो कालान्तरण में यज्ञरूप में धर्म का अंग बन गया ।
और जिसकी अनिवार्यता आर्य-संस्कृति का द्योतक बन गयी ...
आर्यों की भी दो परस्पर विरोधी सांस्कृतिक रूप से शाखाऐं हुई..
असुर संस्कृति में आस्था रखने बाले आर्य..
जो असीरियन कहलाए.. ईरानी आर्यों ने इसी संस्कृति का अनु सरण किया ।
दूसरी शाखा देव-संस्कृति की उपासक थी
जिन्हें ही कालान्तरण में आर्य होने का प्रचार अधिक मिला ......
आर्य शब्द का मूल अर्थ अरि का उपासक..
वस्तुत ये वीर का रूपान्तरण ही है ..
यूरोपीय भाषा परिवार में आर्यों के वीर शब्द अधिक प्रचलित है ।
क्योंकि अरि आर्यों का युद्ध में सहायता करने वाला देवता था ।
जिसका अर्थ होता है सर्व-शक्ति सम्पन्न"
यह हिब्रू तथा फॉनिशियन और असीरियन संस्कृतियों में एल /अलि तथा इलु रूप में परिणति हुआ...
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आर्य शब्द का अर्थ --यौद्धा अथवा वीर होता है ।
और स्वयं वीर शब्द आर्य शब्द का हा रूपान्तरण है
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हीरो( hero) शब्द आर्य शब्द का इतर रूप है ।
प्रॉटो इण्डो -ईरानी भाषा में-💐 *Wiras
तथा प्रॉटो इण्डो-यूरोपीयन भाषा में --. 👌* wihros
अवेस्ता ए जेन्द़ में वीरा
तथा लैटिन भाषा में (vir )
लिथुअॉनियन भाषा जो बाल्टिक सागर के तटवर्ती क्षेत्रों की प्राचीन त्तम भाषा है ।
लिथुअॉनियन भाषा में विरास् (vyas)
पुरानी आयरिश भाषा में फ़र (Fer)
पुरानी नॉर्स में (Verr ). तथा गॉथिक (Wair ) और पुरानी अंग्रेज़ी में ( wer ) आधुनिक अंग्रेज़ी में
(Were)
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अरि और वैरिन् जैसे शत्रु वाची अर्थ भी प्रकट करने लगे ..
वीर शब्द आर्य शब्द का ही इतर विकसित रूप है
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"अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्तु तु अस्माँ उ देवी अवता हवेषु "
आर्यों को मानुषी प्रजा कहा गया है जो अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे ।
और कभी-कभी काले लोगों के घरों में आग लगा देते थे।
आर्यों के देवता सोम के विषय में सर्वत्र वर्णन है ।
कि वह काले लोगों की हत्या करता था।
उत्तर-वैदिक और वैदिकोत्तर साहित्य में आर्य से उन तीन वर्णों का बोध होता था ,जो द्विज कहलाते थे।
शूद्रों को आर्य की कोटि में नहीं अपितु पृथक रखा जाता जाता था।
आर्य को स्वतंत्र समझा जाता था और शूद्र को परतंत्र।''
अायरिश भाषा में भी आयर् का अर्थ है -स्वतन्त्र ।
आयर आर्य शब्द का ही वर्ण-विपर्य रूप है ।
इन्द्र देव संस्कृति के उपासक आर्यों का प्रधान देव है इसके 10,552 श्लोकों में से 3,500 अर्थात् ठीक एक-तिहाई इंद्र से संबंधित हैं।
इन्द्र और कृष्ण का वैचारिक मत भेद
पुराणों में वर्णित है ।
इंद्र और कृष्ण मतांतर एवं युद्ध सर्वविदित है।
प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में वेदव्यास ने कृष्ण को विजेता बताया है तथा इंद्र का पराजित होना दर्शाया है। इंद्र और कृष्ण का यह युद्ध आमने-सामने लड़ा गया युद्ध नहीं है।
वस्तुत पुराणों तथा महाभारत आदि ग्रन्थों को व्यास का नाम देकर लिखा गया है ।
कृष्ण यदुवंशी थे ।
और भारतीय संस्कृति के प्राचीनत्तम ग्रन्थ ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में वर्णित किया गया है ---
कि यदु दास तथा असुरों के सम्बन्धि थे ---
देखें---उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----
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अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं ।
अत: हम उनकी प्रशंसा करते हैं
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उपर्युक्त श्लोक मे दास शब्द यदु और तुर्वसु के लिए प्रयुक्त है ।
असुर संस्कृति के उपासक ईरानी आर्यों ने असुर शब्द तथा दास के रूप अहुर तथा दाहे स्वीकार किये हैं क्योंकि ईरानी भाषा में "स" वर्ण का उच्चारण "ह" के रूप में होता है ।
दास और असुर शब्दों का अर्थ ---ईरानी में पूज्य तथा श्रेष्ठ है ।
तथा देव शब्द का अर्थ दुष्ट है ।
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यदु को इज़राएल की संस्कृति में यहुदह् कहा गया है
हिब्रू बाइबिल में यहुदह् और तुरबजु के रूप में वस्तुत यदु और तुर्वसु नामक गोपालकों का ही वर्णन है ।
अब जब ऋग्वेद में यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया गया है ।
तो कृष्ण के द्वारा श्रीमद्भगवद् गीता में "चातुर्यवर्णं मया सृष्टं"
कहलवाया जाना पूर्ण रूपेण मिथ्या व विरोधाभासी ही है ।
कृष्ण यदुवंशी थे , जो यादव विशेषण से विभूषित किये गये ,
फिर वे दास अथवा असुर अथवा शूद्र थे ।
क्योंकि यदु को दास अथवा असुर ऋग्वेद में कहा गया है ।
जैसा कि स्मृति-ग्रन्थों में अहीरों को भी शूद्र ही माना गया है ।
तो कृष्ण के द्वारा कहलवाया गया वर्ण-व्यवस्था का स्वरूप समर्थन में , तथ्य कहाँ तक संगत है ।
ये भी विचारणीय है-
ये बाते निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज द्वारा प्रायोजित षड्यन्त्र है ।
पुराणों की संपूर्ण घटनाक्रम में कहीं भी कृष्ण और इन्द्र का युद्ध आमने-सामने नहीं होता है ।
लेकिन अन्य हिंदू धर्मग्रंथों, विशेषकर ऋग्वेद में इस युद्ध के दौरान जघन्य हिंसा का जिक्र है।
तथा इंद्र को विजेता दिखाया गया है।
ऋग्वेद मंडल-1 सूक्त 130 के 8वें श्लोक में कहा गया है कि - ''हे इंद्र! युद्ध में आर्य यजमान की रक्षा करते हैं। अपने भक्तों की अनेक प्रकार से रक्षा करने वाले इंद्र उसे समस्त युद्धों में बचाते हैं एवं सुखकारी संग्रामों में उसकी रक्षा करते हैं।
इंद्र ने अपने भक्तों के कल्याण के निमित्त यज्ञद्वेषियों की हिंसा की थी।
इंद्र ने कृष्ण नामक असुर की काली खाल उतारकर उसे अंशुमती नदी के किनारे मारा और भस्म कर दिया।
इंद्र ने सभी हिंसक मनुष्यों को नष्ट कर डाला।
'' ऋग्वेद के मंडल-1 के सूक्त 101 के पहले श्लोक में लिखा है कि: ''गमत्विजों, जिस इंद्र ने राजा ऋजिश्वा की मित्रता के कारण कृष्ण असुरही परन्तु की पप की गर्भिणी पत्नियों को मारा था, उन्हीं के स्तुतिपात्र इंद्र के उद्देश्य से हवि रूप अन्न के साथ-साथ स्तुति वचन बोला।
वे कामवर्णी दाएं हाथ में बज्र धारण करते हैं।
रक्षा के इच्छुक हम उन्हीं इंद्र का मरुतों सहित आह्वान करते हैं।
'' इंद्र और कृष्ण की शत्रुता की भी ऋणता को समझने के लिए ऋग्वेद के मंडल 8 सूक्त 96 के श्लोक 13,14,15 और 17 को भी देखना चाहिए (मूल संस्कृत श्लोक देखें शांति कुंज प्रकाशन, गायत्री परिवार, हरिद्वार द्वारा प्रकाशित वेद में)
ऋगवेद के श्लोक 13: शीघ्र गतिवाला एवं दस हजार सेनाओं को साथ लेकर चलने वाला कृष्ण नामक असुर अंशुमती नदी के किनारे रहता था।
इंद्र ने उस चिल्लाने वाले असुर को अपनी बुद्धि से खोजा एवं मानव हित के लिए वधकारिणी सेनाओं का नाश किया। श्लोक 14: इंद्र ने कहा-मैंने अंशुमती नदी के किनारे गुफा में घूमने वाले कृष्ण असुर को देखा है, वह दीप्तिशाली सूर्य के समान जल में स्थित है।
हे अभिलाषापूरक मरुतो, मैं युद्ध के लिए तुम्हें चाहता हूं। तुम यु़द्ध में उसे मारो।
श्लोक 15: तेज चलने वाला कृष्ण असुर अंशुमती नदी के किनारे दीप्तिशाली बनकर रहता था।
इंद्र ने बृहस्पति की सहायता से काली एवं आक्रमण हेतु आती हुई सेनाओं का वध किया।
श्लोक 17: हे बज्रधारी इंद्र! तुमने वह कार्य किया है। तुमने अद्वितीय योद्धा बनकर अपने बज्र से कृष्ण का बल नष्ट किया।
तुमने अपने आयुधों से कुत्स के कल्याण के लिए कृष्ण असुर को नीचे की ओर मुंह करके मारा था तथा अपनी शक्ति से शत्रुओं की गाएं प्राप्त की थीं।
( अनुवाद-वेद, विश्व बुक्स, दिल्ली प्रेस, नई दिल्ली) क्या कृष्ण और यादव असुर थे? ऋग्वेद के इन श्लोकों पर कृष्णवंशीय लोगों का ध्यान शायद नहीं गया होगा।
यदि गया होता तो बहुत पहले ही तर्क-वितर्क शुरू हो गया होता।
वेद में उल्लेखित असुर कृष्ण को यदुवंश शिरोमणि कृष्ण कहने पर कुछ लोग शंका व्यक्त करेंगे कि हो सकता है कि दोनों अलग-अलग व्यक्ति हों, लेकिन जब हम सम्पूर्ण प्रकरण की गहन समीक्षा करेंगे तो यह शंका निर्मूल सिद्ध हो जाएगी, क्योंकि यदुकुलश्रेष्ठ का रंग काला था, वे गायवाले थे और यमुना तट के पास उनकी सेनाएं भी थीं।
वेद के असुर कृष्ण के पास भी सेनाएं थीं।
अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के पास उनका निवास था और वह भी काले रंग एवं गाय वाला था।
उसका गोर्वधन गुफा में बसेरा था।
यदुवंशी कृष्ण एवं असुर कृष्ण दोनों का इंद्र से विरोध था।
दोनों यज्ञ एवं इंद्र की पूजा के विरुद्ध थे।
वेद में कृष्ण एवं इंद्र का यमुना के तीरे युद्ध होना, कृष्ण की गर्भिणी पत्नियों की हत्या, सम्पूर्ण सेना की हत्या, कृष्ण की काली छाल नोचकर उल्टा करके मारने और जलाने, उनकी गायों को लेने की घटना इस देश के आर्य-अनार्य युद्ध का ठीक उसी प्रकार से एक हिस्सा है, जिस तरह से महिषासुर, रावण, हिरण्यकष्यप, राजा बलि, बाणासुर, शम्बूक, बृहद्रथ के साथ छलपूर्वक युद्ध करके उन्हें मारने की घटना को महिमामंडित किया जाना।
पुराणों में बहुत सी काल्पनिक कथाओं का सृजन किया गया .. जैसे वाल्मीकि- रामायण के उत्तर काण्ड में राम द्वारा शम्बूक वध की तथा
महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित आभीरों (आभीलों)
द्वारा प्रभास क्षेत्र में अर्जुन के साथ गोपिकाओं के लूटने का वर्णन"
जबकि गोप शब्द आभीर शब्द का ही विशेषण है ।
तथा वाल्मीकि-रामायण के अयोध्या काण्ड सर्ग (१०९) के श्लोक (३४ )में राम द्वारा महात्मा बुद्ध को चोर तथा नास्तिक कहा जाना "
" यथा ही चोर स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि"
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अर्थात् जैसे चोर होता है वैसे ही तथागत बुद्ध को चोर तथा नास्तिक समझो...
जावालि ऋषि के नास्तिक का से पूर्ण वचन सुनकर उग्रतेज बाले श्री राम उन वचनों को सहन नहीं कर सके
और उनके वचनों की निन्दा करते हुए जावालि ऋषि से बोले :- निन्दाम्यहं कर्म पितु: कृतं , तद्धयास्तवामगृह्वाद्विप मस्तबुद्धिम् ।
बुद्धयाsनयैवंविधया चरन्त ,
सुनास्तिकं धर्मपथातपेतम् ।।
वाल्मीकि-रामायण अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३३ वें श्लोक---
अर्थात् हे जावालि मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ ।
कि तुम्हारे जैसे वेद मार्ग से भ्रष्ट-बुद्धि धर्म-च्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है ।
क्योंकि बुद्ध जैसे नास्तिक मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते घूमा फिरा करते हैं ।
वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं अपितु धर्म -मार्ग से पतित भी हैं ।
राम बुद्ध के विषय में कहते हैं ।
"यथा ही चोर: स, तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि तस्माद्धिय: शक्यतम:
प्रजानानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्ध: स्यातम्
-----------. अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक प्रमाण रूप में----
अर्थात् जैसे चोर दण्ड का पात्र होता है
उसी प्रकार बुद्ध और उनके नास्तिक अनुयायी भी दण्डनीय हैं ।
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विचारणीय तथ्य है
कि बुद्ध के समकालिक राम कब थे ।
जबकि दक्षिण-अमेरिका में माया संस्कृति के अनुयायी लोग राम-सितवा के रूप में राम और सीता का उत्सव हजारों वर्षों से बुद्ध से भी पूर्व काल से मानते आरहे हैं ।
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इस देश के मूल निवासियों को गुमराह करने वाले
पुराणों को ब्राह्मणों ने इतिहास की संज्ञा देकर प्रचारित किया। इसी भ्रामक प्रचार का प्रतिफल है कि बहुजनों से उनके पुरखों को बुरा कहते हुए उनकी छल कर हत्या करने वालों की पूजा करवाई जा रही है। यदुवंशी कृष्ण के असुर नायक या इस देश के अनार्य होने के अनेक प्रमाण आर्यों द्वारा लिखित इतिहास में दर्ज है। आर्यों ने अपने पुराण, स्मृति आदि लिखकर अपने वैदिक या ब्राह्मण धर्म को मजबूत बनाने का प्रयत्न किया है। पद्म पुराण में कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध एवं राजा बलि की पौत्री उषा के विवाह का प्रकरण पढ़ने को मिलता है। कृष्ण के पौत्र की पत्नी उषा के पिता का नाम बाणासुर था। बाणासुर के पूर्वज कुछ यूं थे-असुर राजा दिति के पुत्र हिरण्यकश्यप के पुत्र विरोचन के पुत्र बलि के पुत्र बाणासुर थे।
उषा का यदुकुल श्रेष्ठ कृष्ण एवं रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध से प्रेम हो गया। अनिरुद्ध अपनी प्रेमिका उषा से मिलने बाणासुर के महल में चले गए।
बाणासुर द्वारा अनिरुद्ध के अपने महल में मिलने की सूचना पर अनिरुद्ध को पकड़कर बांधकर पीटा गया।
इस बात की जानकारी होने पर अनिरुद्ध के पिता प्रद्युम्न और वाणासुर में घमासान हुआ। जब बाणासुर को पता चला कि उनकी पुत्री उषा और अनिरुद्ध आपस में प्रेम करते हैं तो उन्होंने युद्ध बंद कर दोनों की शादी करा दी।
इस तरह से कृष्ण और असुर राज बलि एवं बाणासुर और कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न आपस में समधी हुए। अब सवाल उठता है कि यदि कृष्ण असुर कुल यानी इस देश के मूल निवासी नहीं होते तो उनके कुल की बहू असुर कुल की कैसे बनती? श्रीकृष्ण और राजा बलि दोनों के दुश्मन इंद्र और उपेंद्र आर्य थे।
कृष्ण ने इंद्र से लड़ाई लड़ी तो बालि ने वामन रूपधार उपेंद्र (विष्णु) बलि से।
राजा बलि के संदर्भ में आर्यों ने जो किस्सा गढ़ा है वह यह है कि राजा बलि बड़े प्रतापी, वीर किंतु दानी राजा थे। आर्य नायक विष्णु आदि राजा बलि को आमने-सामने के युद्ध में परास्त नहीं कर पा रहे थे, सो विष्णु ने छल करके राजा बलि की हत्या की योजना बनाई। विष्णु वामन का रूप धारण कर राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी। महादानी एवं महाप्रतापी राजा बलि राजी हो गए। पुराण कथा के मुताबिक वामन वेशधारी विष्णु ने एक पग में धरती, एक पग में आकाश तथा एक पग में बलि का शरीर नापकर उन्हें अपना दास बनाकर मार डाला।
कुछ विद्वान कहते हैं कि वामन ने राजा बलि के सिंहासन को दो पग में मापकर कहा कि सिंहासन ही राजसत्ता का प्रतीक है इसलिए हमने तुम्हारा सिंहासन मापकर संपूर्ण राजसत्ता ले ली है।
एक पग जो अभी बाकी है उससे तुम्हारे शरीर को मापकर तुम्हारा शरीर लूंगा। महादानी राजा बलि ने वचन हार जाने के कारण अपनी राजसत्ता वामन विष्णु को बिना युद्ध किए सौंप दी तथा अपना शरीर भी समर्पित कर दिया।
वामन वेशधारी विष्णु ने एक लाल धागे से हाथ बांधकर राजा बलि को अपने शिविर में लाकर मार डाला।
इस लाल धागे से हाथ बांधते वक्त विष्णु ने बलि से कहा था कि तुम बहुत बलवान हो, तुम्हारे लिए यह धागा प्रतीक है कि तुम हमारे बंधक हो।
तुम्हें अपने वचन के निर्वाह हेतु इस धागा को हाथ में बांधे रखना है। हजारों वर्ष बाद भी इस लाल धागे को इस देश केमूल निवासियों के हाथ में बांधने का प्रचलन है जिसे रक्षासूत्र या कलावा कहते हैं।
इस रक्षासूत्र या कलावा को बांधते वक्त पुरोहित उस हजार वर्ष पुरानी कथा को श्लोक में कहता है कि : 'येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वामि प्रतिबद्धामि रक्षे मा चल मा चल।' (अर्थात् जिस तरह हमने दानवों के महाशक्तिशाली राजा बलि को बांधा है उसी तरह हम तुम्हें भी बांधते हैं।
स्थिर रह, स्थिर रह।) पुराणों के प्रमाण दरअसल, इन पौराणिक किस्सों से यही प्रमाणित होता है कि कृष्ण, राजा बलि, राजा महिषासुर, राजा हिरण्यकश्यप आदि से विष्णु ने विभिन्न रूप धरकर इस देश के मूल निवासियों पर अपनी आर्य संस्कृति थोपने के लिए संग्राम किया था।
इंद्र एवं विष्णु आर्य संस्कृति की धुरी हैं तो कृष्ण और बलि अनार्य संस्कृति की।
बहरहाल, कृष्ण को क्षत्रिय या आर्य मानने वाले लोगों को कृष्ण काल से पूर्व राम-रावण काल में भी अपनी स्थिति देखनी चाहिए।
महाकाव्यकार वाल्मीकि ने रामायण में भी यादवों को पापी और लुटेरा बताया है ।
आभीर रूप में---
विदित हो कि आभीर ही यादवों का वास्तविक विशेषण है ।
आज भी इज़राएल में यहूदीयों की एक शाखा जो परम्परागत रूप से युद्ध प्रिय तथा युद्ध कला में पारंगत होती है ।
अबीर अथवा अहीर कहलाती है ।
हिब्रू बाइबिल में अबीर शब्द ईश्वरीय सत्ता का वाचक है।
तथा अबीर का सामाजिक रूढ़ अर्थ -- वीर अथवा यौद्धा अथवा सामन्त (knight)होता है ।
ऐसा ही अर्थ संस्कृत भाषा में भी है ।
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तथा वाल्मीकि-रामायण में राम द्वारा किए गए यादव राज्य दु्रमकुल्य के विनाश को दर्शाया है।
जो सम्बूक वध की तरह काल्पनिक ही है ।
दुनियाँ में ३००से अधिक रामायण लिखी जा चुकी हैं
माया संस्कृति में राम और सीता का उत्सव हजारों वर्षों से आज भी रामसितवा के रूप में मनाया जाता है ।
राम का चरित्र उज्ज्वल ही है ।
परन्तु उनपर आरोपित करके तत्कालीन ब्राह्मण समाज ने अपने मतों को परिपुुष्ट करने का प्रयास ही किया है ।
वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड के 22वें अध्याय में राम एवं समुद्र का संवाद है।
यह सम्बाद पूर्ण रूपेण मिथ्या व अवैज्ञानिक ही है जो
जो राम के ऊपर आरोपित किया गया है।
देखें---
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" राम लंका जाने हेतु समुद्र से कहते हैं कि तुम सूख जाओ, जिससे मैं समुद्र पार कर लंका चला जाऊं। समुद्र राम को अपनी विवशता बताता है कि मैं सूख नहीं सकता तो राम कुपित होकर प्रत्यंचा पर वाण चढ़ा लेते हैं। समुद्र राम के समक्ष उपस्थित होकर उन्हें नल-नील द्वारा पुल बनाने की राय देता है। राम समुद्र की राय पर कहते हैं कि वरुणालय मेरी बात सुनो। मेरा यह यह वाण अमोध है। बताओ इसे किस स्थान पर छोड़ा जाए। राम की बात सुनकर समुद्र कहता है कि 'प्रभो! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवं पुण्यात्मा हैं, उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर दु्रमकुल्य नाम से विख्यात एक बड़ा पवित्र देश है, वहां आभीर आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं। उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं सह नहीं सकता, श्रीराम! आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए। महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के बताए अनुसार उसी देश में वह अत्यंत प्रज्जवलित वाण छोड़ दिया। वह वाण जिस स्थान पर गिरा था वह स्थान उस वाण के कारण ही पृथ्वी में दुर्गम मरुभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।' राम-रावण काल में यादवों के राज्य दु्रमकुल्य को समुद्र द्वारा पवित्र बताने तथा वहां निवास करने वाले यादवों को पापी एवं भयानक कर्म वाला लुटेरा कहने से सिद्ध हो जाता है कि यादव न आर्य हैं और न क्षत्रिय, अन्यथा वाल्मीकि और समुद्र इन्हें पापी नहीं कहते। जिस तरह से इस देश में दलितों को तालाब, कुओं आदि से पानी पीने नहीं दिया जाता था और डॉ. आम्बेडकर को महाड़ तालाब आंदोलन करना पड़ा, क्या उससे भी अधिक वीभत्स घटना यादवों के दु्रमकुल्य राज्य के साथ घटित नहीं हुई है? रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है कि आभीर यवन, किरात खस, स्वचादि अति अधरुपजे। अर्थात् अहीर, मुसलमान, बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयोनि हैं। इसी प्रकार व्यास स्मृति का रचयिता एक श्लोक में कहता है कि 'बढ़ई, नाई, ग्वाला, चमार, कुम्भकार, बनिया, चिड़ीमार, कायस्थ, माली, कुर्मी, भंगी, कोल और चांडाल ये सभी अपवित्र हैं। इनमें से एक पर भी दृष्टि पड़ जाए ता सूर्य दर्शन करने चाहिए तब द्धिज जाति अर्थात् बड़ी जातियों का एक व्यक्ति पवित्र होता है।'
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सहमत हैं इतिहासविद् इसी कारण महान इतिहासकार डीडी कौशाम्बी ने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता' में लिखा है-'ऋग्वेद में कृष्ण को दानव और इंद्र का शत्रु बताया गया है और उसका नाम श्याम, आर्य पूर्व लोगों का द्योतक है।
कृष्णाख्यान का मूल आधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का देवता था।
परंतु सूक्तकारों ने पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है।
कृष्ण शाश्वत भी हैं और मामा कंस से बचाने के लिए उसे गोकुल में पाला गया था।
इस स्थानांतरण ने उसे उन अहीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे और जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। कृष्ण गोरक्षक था, जिन यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी, उनमें कृष्ण का कभी आह्वान नहीं हुआ है, जबकि इंद्र, वरुण तथा अन्य वैदिक देवताओं का सदैव आह्वान हुआ है। ये लोग अपने पैतृक कुलदेवता को चाहे जिस चीज की बलि भेंट करते रहे हों पर दूसरे कबीलों द्वारा उनकी इस प्रथा को अपनाने का कोई कारण नहीं था। दूसरी तरफ जो पशुचर लोग कृषि जीवन को अपना रहे थे, उन्हें इंद्र की बजाय कृष्ण को स्वीकार करने में निश्चित ही लाभ था।
सीमा प्रदेश के उच्च वर्ग के लोग गौरवर्ण के थे।
उनका मत था कि काला आदमी बाजार में लगाए गए काले बीजों के ढेर की भांति है और उसे शायद ही कोई ब्राह्मण समझने की भूल कर सकता है।
कन्या का मूल्य देकर विवाह करने का पश्चिमोत्तर में जो रिवाज था, वह भी पूर्ववासियों को विकृत प्रतीत होता था।
कन्या हरण की प्रथा थी, जिसका महाभारत के अनुसार कृष्ण के कबीले में प्रचलन था और ऐतिहासिक अहीरों ने भी जिसे चालू रखा और जो पूर्ववासियों को विकृत लगती थी।
अंततोगत्वा ब्राह्मण धर्मग्रंथों ने इन दोनों प्रकार के विवाहों को अनार्य प्रथा में कहकर निषिद्ध घोषित कर दिया।
' डीडी कौशाम्बी अपनी पुस्तक में स्पष्ट करते हैं कि कृष्ण आर्यों की पशु बलि के सख्त विरोधी थे यानी गोरक्षक थे।
कृष्ण की बहन सुभद्रा से अर्जुन द्वारा भगाकर शादी करने का उल्लेख् मिलता है।
इस प्रकार कौशाम्बी ने भी कृष्ण को अनार्य अर्थात् असुर माना है।
विदित हो कि असीरियन (असुर)लोगों की संस्कृति तथा यहूदीयों की संस्कृति समान थी ।
विधवा भावज का विवाह देवर से हो जाता है ।
इस प्रथा को लेवीरेट (leverate)
कहा गया
जो संस्कृत देवरायत का रूप है ।
-----यास्क निरुक्त में द्वितीयो वर इति देवर के रूप में व्याख्या करते हैं ।
इतिहासकार भगवतशरण उपाध्याय ने अपनी ऐतिहासिक पुस्तक 'खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर' में लिखा है कि 'क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के देवता इंद्र और ब्राह्मणों के साधक यज्ञानुष्ठानों के शत्रु कृष्ण को देवोत्तर स्थान दिया।
उन्होंने उसे जो क्षत्रिय भी न था, यद्यपि क्षत्रिय बनने का प्रयत्न कर रहा था ।
को विष्णु का अवतार माना और अधिकतर क्षत्रिय ही उस देव दुर्लभ पद के उपयुक्त समझे गए।
' उपाध्याय ने इसे भी स्पष्ट कर दिया है कि कृष्ण ब्राह्मणों के देवता इंद्र और उनके यज्ञानुष्ठानों के प्रबल विरोधी थे जबकि वे क्षत्रिय नहीं थे।
कृष्ण के बारे में उपाध्याय ने लिखा है कि वे क्षत्रिय बनने का प्रयत्न कर रहे थे।
अब तक जो भी प्रमाण मिले हैं वे यही सिद्ध करते हैं कि अहीर और कृष्ण आर्यजन नहीं थे।
कृष्ण और अहीर इस देश के मूलनिवासी काले लोग थे। इनका आर्यों से संघर्ष चला है।
ऋग्वेद कहता है कि 'निचुड़े हुए, गतिशील, तेज चलने वाले व दीप्तिशाली सोम काले चमड़े वाले लोगों को मारते हुए घूमते हैं, तुम उनकी स्तुति करो।
' (मंडल 1 सूक्त 43) इस आशय के अनेक श्लोक ऋग्वेद में हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि आर्य लोग भारत के मूल निवासियों से किस हद तक नफरत करते थे तथा उन्होंने चमड़ी के रंग के आधार पर इनकी हत्याएं की हैं।
यादवश्रेष्ठ कृष्ण काली चमड़ी वाले थे।
इंद्र और यज्ञ विरोधी होने के लिहाज से ऋग्वेद के अनुसार उनका संघर्ष अग्नि, सोम, इंद्र आदि से होना स्वाभाविक है।
जिनसे जीत नहीं सकते उन्हें अपने में मिला लो ऋग्वेद से लेकर तमाम शास्त्रों में अहीर व अहीर नायक कृष्ण अनार्य कहे गए हैं !
लेकिन इसके बावजूद जब इस देश के मूल निवासियों में कृष्ण का प्रभाव कायम रहा तो इन आर्यों ने कृष्ण के साथ नृशंसता बरतने के बावजूद उन्हें भगवान बना दिया और कृष्णवंशीय बहादुर जाति को अपने सनातन पंथ का हिस्सा बनाने में कामयाबी हासिल कर ली।
जब कृष्ण अनार्य थे तो गीतोपदेश का सवाल उठना लाजिमी है।
गीतोपदेश में कृष्ण ने खुद भगवान होने, ब्राह्मण श्रेष्ठता, वर्ण व्यवस्था बनाने जैसे अनेक गले न उतरने वाली बातें कही हैं।
ऋग्वेद स्वयं ही गीता में उल्लेखित बातों का खंडन करता है।
जब कृष्ण खुद वेद के अनुसार असुर और इंद्रद्रोही थे तो वे वर्ण व्यवस्था को बनाने की बात कैसे कर सकते हैं।
गीता में ब्राह्मणवाद को मजबूत बनाने वाली जो भी बातें कृष्ण के मुंह से कहलवाई गई हैं वे सत्य से परे हैं।
काले, अवर्ण असुर कृष्ण कभी भी वर्ण-व्यवस्था के समर्थक नहीं हो सकते।
भारत के मूल निवासियों में अमिट छाप रखने वाले कृष्ण का आभामंडल इतना विस्तृत था कि आर्यों को मजबूरी में कृष्ण को अपने भगवानों में सम्मिलित करना पड़ा।
यह कार्य ठीक उसी तरह से किया गया जिस तरह से ब्राह्मणवाद के खात्मा हेतु प्रयत्नशील रहे गौतम बुद्ध को ब्राह्मणों ने गरुड़ पुराण में कृष्ण का अवतार घोषित कर खुद में समाहित करने की चेष्टा की।
जिस तरह से असुर कृष्ण की भारतीय संस्कृति आर्यों ने उदरस्थ कर ली उसी तरह बुद्ध की वैज्ञानिक बातों ने हिन्दू धर्म के अवैज्ञानिक कर्मकांडों के समक्ष दम तोड़ दिया।
डॉ. आम्बेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद अब भारत में कुछ बौद्ध नज़र आ रहे हैं, वरना इन आर्यों ने बुद्ध को कृष्ण का अवतार और कृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित कर कृष्ण एवं बुद्ध को निगल लिया था। कैसी विडंबना है कि विष्णु का अवतार जिस कृष्ण को बताया गया है, वह कृष्ण लगातार वेद से लेकर महाभारत ग्रंथ में इंद्र से लड़ रहा है।
एक सवाल उठेगा कि यदि कृष्ण आर्य या क्षत्रिय नहीं थे तो श्रीमद्भागवद गीता में क्यों लिखा है कि 'यदुवंश का नाम सुनने मात्र से सारे पाप दूर हो जाते हैं।'
(स्कंध-9. अध्याय. 23, लोक.19) मैं इस संदर्भ में यही कहूंगा कि असुर कृष्ण अति लोकप्रिय थे।
वे लोकनायक थे।
उनकी लोकप्रियता इस देश के मूल निवासियों में इतनी प्रबल थी कि आर्य उन्हें उनके मन से निकाल पाने में सफल नहीं थे ।
यही कारण है कि कृष्ण के चरित्र को दूषित करने के लिए रास लीला जैसे रूपक रचे गये ।
जिनका नायक भी कृष्ण को बनाया गया ।
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Cimmerian invasions of Colchis, Urartu and Assyria 715–713 BC Sir Henry Layard's discoveries in the royal archives at Nineveh and Calah included Assyrian primary records of the Cimmerian invasion.[9] These records appear to place the Cimmerian homeland, Gamir, south rather than north of the Black Sea.[10][11][12] The first record of the Cimmerians appears in Assyrian annals in the year 714 BC. These describe how a people termed the Gimirri helped the forces of Sargon II to defeat the kingdom of Urartu. Their original homeland, called Gamir or Uishdish, seems to have been located within the buffer state of Mannae. The later geographer Ptolemy placed the Cimmerian city of Gomara in this region. The Assyrians recorded the migrations of the Cimmerians, as the former people's king Sargon II was killed in battle against them while driving them from Persia in 705 BC. The Cimmerians were subsequently recorded as having conquered Phrygia in 696–695 BC, prompting the Phrygian king Midas to take poison rather than face capture. In 679 BC, during the reign of Esarhaddon of Assyria (r. 681–669 BC), they attacked the Assyrian colonies Cilicia and Tabal under their new ruler Teushpa. Esarhaddon defeated them near Hubushna (Hupisna), and they also met defeat at the hands of his successor Ashurbanipal. Greek tradition Legacy
फिनीशियों ने जहां बसेरा किया वह फिनीशिया कहलाया।
वेदों मे इन्हें पणि कहा है ।
ये लोग सीरियनों के समकालिक तथा असीरियनों के मित्र जाति के थे ।
फ़रात के समीप वर्ती आधुनिक लेवनान मे निवास करते थे ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के १०८ वें सूक्त में
एक से लेकर ग्यारह छन्दों तक ..
वर्णन है ।
कि इन्द्र की दूतिका देव शुनी सरमा दजला - फरात के जल प्रदेशों में पणि-असुरों को खोजती हुई पहुँचती है ।
तथा पणियों को इन्द्र की महान शक्ति वर्णन करके
भयाक्रान्त करने के उद्देश्य से बहुत सी गायों को देने के लिए बाध्य करती है ।
यह एक काव्यात्मक वर्णन है ।
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जो ध्वनित करता है कि देव संस्कृति के उपासक ब्राह्मण समाज के लोग पणियों से अपेक्षा करते थे कि वे उन्हें दान के रूप में गायें तथा धन दें ..
और पणि (फिनीशियन) लोग उन्हें दान देते नहीं थे ।
इसी लिए भारतीय पुराणों आदि में पणियों को हेय माना गया है ।
वेदों में वस्तुत: सुमेरियन बैवीलॉनियन एवम् असीरियन तथा फॉनिशियन जन-जातियाँ का वर्णन स्पष्टत: है ।
वेदों में वर्णन है कि पणि लोग अंगिराओं अर्थात् द्यौस(ज्यूस) के अनुयायीयों की गायें चुराते थे ।
यद्यपि ये बाते पणियों के विरोधियों ने द्वेष वश ही वर्णित 'की हों ?
सम्भवत: ये पणि वैश्य वर्ग का पूर्व रूप है ।
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में विक्ड( wicked)
अथवा wiking तथा vice जैसे शब्द है ।जो समुद्रीय
यात्रा करने वाले लुटेरों या व्यापारीयों का वाचक है।
यूरोपीय तथा पश्चिमीय एशिया की संस्कृतियों में अंगिरस् ही एञ्जिलस् (Angelus).
बन गया ..
जो फरिश्ता को कहते हैं ।
जर्मनिक जन-जातियाँ की एक शाखा भी स्वयं को एेंजीलस( Angeles) कहती है जो पुर्तगाल की भाषा में अंग्रेज हो गया इस कबीले के लोग पाँचवीं सदी ईसवी में ब्रिटेन के विजेता हुए ।
वैदिक द्यौस वहाँ ज्यूस (Zues)
हो गया...
वल पणियों का इष्ट तथा अंगिराओं का प्रतिद्वन्द्वी है ।
जिसे यूरोपीय पुरातन संस्कृति में ए-विल( Evil).कह गया हिब्रू बाइबिल तथा क़ुरान शरीफ़ में इब़लीस् के रूप में अवतरित हुआ ।
वेदों में अंगिराओं का वर्णन है
"उद्गा आजत अंगिरोभ्य आविष्कृण्वत गुहासती अर्वाणच् नुनेद बलम् ।।. ( ऋग्वेद)
अर्थात् गुफाओं में अंगिराओं के लिए गायें खोजते हुए
इन्द्र ने उन गायों को बाहर प्रेरित किया , तथा बल को दमन कर दिया ।।
मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों से सम्बद्ध ऐसे अनेक सन्दर्भ वेदों में खोजे जा सकते हैं
बल को जिनमें कहीं इष्टकारक तथा कहीं अनिष्ट कारक कहा है ।
बल असीरी अर्थात् असुर तथा फॉनिशियन अर्थात् पणि या आधुनिक वणिक जन-जाति का इष्ट देव माना गया है ।
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ग्रावाण सोम ने हि कं सरिवत्ववना वावशु।
जहि , न्यत्रिणं पणिं वृको हीष ।।
अर्थात् हे सोम तुम पणियों को मारो अभिषव करने वाले हम तुम्हारा कामना करते हैं।
ऋग्वेद-- ६/६१/१
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वेदों में इस प्रकार के अनेक सन्दर्भ हैं
पणियों के क्षेत्र को
आज के लेबनान के रूप में पहचाना जा सकता है। फिनीशी सभ्यता का प्रभाव फलस्तीन, इस्राइल,कार्थेज (उत्तरीय अफ्रीका का ट्यूनिशिया ),सीरिया (शाम)और जॉर्डन में भी रहा।
जिस तरह से वनस्पतियों के प्रसार के लिए परागण की विधियाँ सहायक होती हैं ,उसी तरह भाषा के विस्तार और विकास में भी कई कारक सहायक होते हैं ।
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जिनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं व्यापार-व्यवसाय।
ईसा से भी कई सदियों पहले से भारत के पश्चिमी दुनियाँ से खासतौर पर दक्षिण-पूर्वी यूरोप से कारोबारी रिश्ते थे।
इन्हीं रिश्तों की बदौलत विशाल क्षेत्र की भाषा संस्कृति भी समृद्ध होती चली गई।
पश्चिमी एशिया में एक भूमध्यसागरीय इलाका जिसे आज लेबनान कहा जाता है
भी फिनीशिया कहलाता था।
इस क्षेत्र के फिनीशिया नामकरण के पीछे भी वैदिक काल का एक शब्द पणि या पण अवलोकन कर रहा है।
और आज भी हिन्दी में यह पणि अपने बहुरूप में उपस्थित है।
प्राचीन भारत(ईसापूर्व)२००० से १५०० के अवान्तर काल में प्रचलित कार्षापण मुद्रा में भी पण ही झांक रहा है।
कर्ष शब्द का अर्थ होता है अंकन करना, उत्कीर्ण करना।
संस्कृत भाषा की कृष् धातु से ..
पण का उल्लेख वैदिक साहित्य में कारोबार, सामग्री, हिसाब-किताब, व्यापार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के अर्थ में आता है।
कार्षापण का इस तरह अर्थ हुआ उत्कीर्ण मुद्रा।
इससे साफ है कि उत्तर वैदिक काल से लेकर कार्षापण का चलन होने तक पण ही लेन-देन के भुगतान का जरिया थी मगर पण नामक मुद्रा टंकित नहीं थी।
धातु के अनघड़ टुकड़ों को ही तब पण कहा जाता रहा होगा।
पण से ही निकला पण्य शब्द जिसका अर्थ होता है व्यापारिक सामग्री।
हिन्दी-उर्दू में प्रचलित छोटे व्यापारी या दुकानदार के लिए पंसारी शब्द के पीछे भी यही पण्य शब्द है जो बना है पण्य+शाल >पन्नशाल>पंसार के क्रम में।
पण्यचारी से शब्द बना बंजारा.
क्रय-विक्रय के अर्थ में विपणन शब्द खूब प्रचलित है गौर करें इसमें झांक रहे पण् शब्द पर।
मुंबई के पास पनवेल नामक जगह है जो समुद्र तट पर है।
स्पष्ट है किसी ज़माने में यह सामुद्रिक व्यापार का केन्द्र रहा होगा।
द्रविड परिवार की संस्कृतियों के समानान्तर ये फिनीशियन लोग भी समुद्रीय यात्राऐं करते थे ।
पण्य+वेला अर्थात क्रय-विक्रय की जगह के तौर पर इसका नाम पण्यवेला रहा होगा जो घिसते-घिसते पनवेल हो गया।
संस्कृत वैदिक सन्दर्भों में प्रयुक्त मण अथवा मन हिब्रू मनेह का रूपान्तरण है ।जो आज चालीस किलो की एक तोल इकाई है ।
ईसा से पांच-छह सदी पहले भारतीय उपमहाद्वीप में पण नाम की ताम्बे की मुद्रा प्रचलित थी।
पण का रिश्ता वैदिक पणि से जुड़ता है।
पणि शब्द वैदिक ग्रंथों में कई बार इस्तेमाल हुआ है जिसका अर्थव्यापारी, कारोबारी के रूप में बताया गया है। किसी ज़माने में पणि समुदाय भारतवर्ष से लेकर पश्चिमी एशिया तक फैला हुआ था।
पणि अर्थात व्यापारी, वाणिज्य व्यवसाय करनेवाले लोगों का समूह किस काल में था इसका अनुमान भी वैदिक कालनिर्धारण से ही होता है क्योंकि इस शब्द का उल्लेख वेदों से ही शुरू हुआ है।
जर्मन विद्वान विंटरनिट्ज ईसापूर्व 7000 से लेकर 2500 के बीच वैदिक काल मानते हैं मगर ज्यादातर विद्वान इसे 2500-1500 ईपू के बीच ही ऱखते हैं।
जो अधिक सही है ।
विद्वानों का मानना है कि पणियों और आर्यों के बीच महासंग्राम हुआ था ,जिसके चलते वे भारत के उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों से खदेड़े गए।
परन्तु यह सांस्कृतिक मत भेद तो दजला - फरात के दुआवों ही उत्पन्न हो गया था ।
परास्त पणियों के बड़े जत्थों ने पश्चिम की राह पकड़ी, कुछ बड़े जत्थे दक्षिणापथ की ओर कूच कर गए।
शेष समूह इधर-उधर छितरा गए।
पश्चिम की ओर बढ़ते जत्थों नें ईरान होते हुए अरब में प्रवेश किया और आज जहां लेबनान है वहां क़याम किया।
अनेक भारतीय-पाश्चात्य विद्वानों ने पणियों की पहचान फीनिशियों के रूप में की है।
ग्रीक-यूनानी संदर्भों में भी फिनीशियाई लोगों की जबर्दस्त व्यापारिक बुद्धि की खूब चर्चा है।
पणि या फिनीशी लोग समुद्रपारीय यात्राओं में पारंगत तो थे ही वे महान नाविक भी थे।
गणित ज्योतिष आदि में भी उन्हें दक्षता हासिल थी।
इन्होंने ही लिपि का आविष्कार किया फॉनिशियन लिपि से ही ब्राह्मी तथा देवनागरी जैसी भारतीय लिपियों का जन्म हुआ...
किसी ज़माने में भूमध्यसागरीय व्यापार करीब करीब उन्हीं के कब्जे में था।
कई सदियों बाद अरब के सौदागरों नें जहाजरानी में अपना दबदबा कायम किया वह दरअसल फिनीशियों की परंपरा पर चल कर ही सीखा।
लेबनान, फलस्तीन और इस्राइल का क्षेत्र मानव शास्त्रीय दृष्टि से कनान अथवा कैननाइट्स संस्कृति से सम्बद्ध था।
यहूदियों के पुरखे भी कनॉन ही कहलाते हैं।
यहूदी लोग वेदों में वर्णित यदु: अथवा यदव: जन-जाति के लोग हैं ।
क्योंकि यदु और तुर्वसु का नाम वेदों में प्रायश:
साथ-साथ आता है ।
और इन्हें भी पणियों का सहवर्ती तथा दास या असुर के रूप में परिगणित किया है ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण है---
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----
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समूची दुनियाँ में यहूदी भी महान सौदागर कौम के तौर पर ही विख्यात हैं।
क़ुरान शरीफ़ के हवाले से यहूदी सोने चाँदी तथा जवाहरात का व्यापार करते थे।
मिश्र में रहने वाले ईसाई समुदाय के सोने - चाँदी व जवाहरात का व्यापार करने वाले कॉप्ट( Copt)
जो भारतीय गुप्त/गुप्ता से सम्बद्ध हैं ।
यहूदी ही है ।
फिर बारहसैनी बनिया तो स्वयं को यादवों की वृष्णि शाखा से सम्बद्ध मानते हैं।
और वार्ष्णेय सरनेम लिखते हैं ।
अक्रूर को अपना पूर्वज मानते हैं ।
ये बनिया तो हैं ही और भारतीय ब्राह्मण समाज ने इन्हें कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा ...
इतिहास को उठाकर देख लो ..
ये फॉनिशियन जन-जातियाँ के लोग
असुर संस्कृति में आस्था रखते थे ।
भारतीय पुराणों में यादवों को मधु नामक असुर से सम्बद्ध मानकर तथा वैश्य वर्ग में वर्गीकृत किया है ।
जिसके नाम पर मधुपर: अथवा मधुरा /मथुरानामकरण हुआ आभीर के रूप में यादवों को कहीं शूद्र माना .
वस्तुतः इन भारतीय पुराणों में वर्णित कथाओं का आधार सुमेरियन संस्कृति ही है,
परन्तु कथाओं को लिखने वाले अपने अपने पूर्व -दुराग्रहों से ग्रसित भी थे ।
जिसके मन में जैसा आया लिखा ..
और व्यास के नाम की मौहर लगा दी ..
महाभारत तथा रामायण जैसे ग्रन्थ बौद्ध काल के बाद तक लिखे जाते रहे ... क्योंकि महाभारत में भी बुद्ध का वर्णन है और रामायण के अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक प्रमाण ।
जिसमें राम जावालि ऋषि के साथ सम्वाद करते हुए राम बुद्ध को चोर तथा नास्तिक कह कर सम्बोधित कर रहे हैं । जो बिल्कुल असम्भव है ।
राम और बुद्ध के समय में भी बहुत भेद है ।
यथा ही चोर स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि"---
आभीर जन-जाति का विरोधाभासी वर्णन महाभारत के मूसल पर्व में भी कर दिया है ।
जो काल्पनिक ही है ।
पणि या फिनीशी लोग समुद्र -पारीय यात्राओं में पारंगत तो थे ही वे महान नाविक भी थे।
गणित ज्योतिष आदि में भी उन्हें दक्षता हासिल थी। किसी ज़माने में भूमध्यसागरीय व्यापार करीब करीब उन्हीं के कब्जे में था।
सम्भव है सिन्धु घाटी की सभ्यता के नष्ट होने के पीछे जिस आर्य आक्रमण का उल्लेख किया जाता है ।
वह आर्यों और पणियों के महासंग्राम की शक्ल में सामने आया हो।
ये द्रविडों के समानान्तर तथा उन्हीं की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
द्रुज़ जन-जाति का पूर्व रूप ड्रयूड( Druids)
है।
जो भारत में द्रविड है ।
द्रविड परिवार के लोग ही विश्व इतिहास में वैज्ञानिक तथा दार्शिनिक गतिविधियों के प्रथम सूत्र धार थे ।
सिंधु घाटी की सभ्यता व्यापार-व्यवसाय में खूब उन्नत थी।
सुदूर सुमेरी सभ्यता से भी उसके रिश्तों के प्रमाण मिले हैं।
कई विद्वान उसे द्रविड़ सभ्यता भी मानते हैं।
दक्षिण पूर्वी अफ़गानिस्तान के एक हिस्से में ब्राहुई भाषा का द्रविड़ भाषाओं से साम्य यह साबित करता है , कि कभी सुदूर उत्तर पश्चिमी भारत में द्रविड़ बस्तिया फल फूल रही थीं।
पणि शब्द चाहे हिन्दी में विद्यमान नहीं है ।
परन्तु वणिक शब्द तो है ।
परन्तु संस्कृत भाषा में पण् धातु का अर्थ :-----भ्वा० आत्मने पदीय रूप -- पणते पणित ----१-- स्तुति करना २-- व्यापार करना ३ शर्त लगाना ।
संस्कृत भाषा में पण् शब्द का प्रयोग धन सम्पत्ति आदि के अर्थ में भी होता रहा है ।
इधर द्रविड़ वर्ग की भाषाओं में मुद्रा, धन के अर्थ में फणम्(fanam), पणम् जैसे शब्दों की उपस्थिति से यह पता चलता है , कि भारत के उत्तर पश्चिम में पणियों का निवास था।
बनिया शब्द का मूल पणि शब्द है जो फॉनिशियन जन-जातियाँ का वाचक है ।
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विचार-विश्लेण-- यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम:- आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर
जनपद अलीगढ़- उ०प्र०.
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तुमने वैदो का सही अध्यन किया होता तो ना भगवान कृष्ण को शुदृ बताता और न यादवो को
जवाब देंहटाएंमुन्ना वेदों में ही कृष्ण को भला बुरा कहा गया।
हटाएंसम्मान तो केवल पुराणों में वर्णित है। परन्तु वह लेखनकार भी अपनी स्वार्थ सिद्ध करने के
भारत के दुर्बुद्धी समाज ने एक नया रिसर्च किया है। मालूम पड़ता है कि किसी दुनिया से विरक्त हो चुके अंबेडकरवादी ने कहा है कि वाल्मीकि कृत रामायण अयोध्या कांड सर्ग 109 श्लोक 33 व श्लोक 34 से पता चलता है कि रावण और लंकावासी बौद्ध धर्म के अनुयाई थे। 😂 आइए इस मूर्खता का विश्लेषण करे
जवाब देंहटाएंयह वो श्लोक है जो इस वक़्त "शोध-अध्ययन" का विषय बना हुआ है। 😂 'यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात् ।।'
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि। तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात् ।।' इसकी शुरुवात गीता प्रेस के एक अनुवाद से हुई जिसका वर्णन कुछ और है पर दुर्बुद्धी कैसे समझे 😂
इस प्रकरण की शुरुआत गीता प्रेस की वाल्मीकि रामायण से हुआ जहां आज के मॉडर्न समाज को वेदविरोधी का मतलब समझने के लिए किसी Dank अनुवादक ने इस प्रकार दिया है- जिस प्रकार चोर दंडनीय होता है उसी प्रकार वेदविरोधी बुद्ध [anti-VedDharm intellect
अब सही भावार्थ ये है: जाबालि को भगवान् श्रीराम ने श्लोक 33 में उसके नास्तिक विचारों के कारण विषमस्थबुद्धिम् एवं अनय बुद्धया शब्दों से वाचित किया है। विषमस्थबुद्धिम् माने वेद मार्ग से भ्रष्ट नास्तिक बुद्धि एवं अनय बुद्धया (अ-नय) माने कुत्सित बुद्धि। श्लोक 33 का अन्वय ऐसा होगा:
श्लोक 34 में बुद्धस्तथागतं में विसर्ग सन्धि है जिसका विच्छेद करने पर बुद्धः + तथागतः एवं इसके बाद शब्द आया है नास्तिकमत्र जिसमें दो शब्द हैं नास्तिकम् + अत्र, इसके बाद आया है विद्धि।
यहा पूछा जाए कि बुद्धिजीवी को चोर समान क्यों बताया है? तो इसका उत्तर है कि अर्थ यथा प्रकरण अनुसार विचार करना चाहिए | यहा नास्तिक बुद्धिजीवी के लिए है न कि सभी बुद्धिजीवो के लिए। आज भी हमारे देश को देखे तो इन्हीं नास्तिक- बुद्धिजीवियों ने इसका यह बुरा हाल कर रखा है।
कल को ये लोग यह भी कहेंगे की हनुमान चालीसा के अनुसार भी रावण मुसलमान था और मुहम्मद ने स्वयं लंकावासियों को अज़ान देना सिखाया था और रावण तो स्वयं अजान करता था, "रावण जुद्ध अजान कियो तब" ऐसे दुरबुद्धि लोगो की मती की जितनी प्रशंसा की जाए कम है लगती है। 😂😂
Yogendra Singh,
जवाब देंहटाएंDistrict Agra Uttar Pradesh
Spread right knowledge, not confusion
जवाब देंहटाएंRead veda deeply.
yogendra.singh085@gmail.com
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