ऋग्वेद-- में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था । और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे$धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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ऋग्वेद कहता है -----" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सैना
तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है ।
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एक स्थान पर ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में है " कि
यदु जो कृष्ण के आदि पूर्वज हैं ।
उनको तुर्वशु के साथ दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया गया है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
ऋग्वेद-१०/ ६२ /१०
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असुर शब्द दास का पर्याय वाची है ।
क्योंकि ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के २/३/६ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर वर्णित किया गया है ।
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उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-२ /३ /६
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असुर संस्कृति में दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ तथा कुशल होता है ।
ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण दाहे के रूप में किया है ।
इसी प्रकार असुर शब्द को अहुर के रूप में वर्णित किया है।
असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर
वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य के विशेषण रूप में हुआ है ।
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पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु (प्राण-तत्व)
से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है ।
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परन्तु ये लोग असीरियन ही थे । जो
सुमेरियन , बैबीलॉनियन, से सम्बद्ध थे ।
मिश्र की पुरातन संस्कृति से भी असुर (असीरियन ) प्रभावित रहे हैं ।
दास अथवा दस्यु तथा दक्ष जैसे शब्द परस्पर एक ही मूल से व्युत्पन्न हैं ।
ईरानी असुर संस्कृति के उपासक थे ।
और यहूदीयों के ये सहवर्ती थे ।
यहूदी जन-जाति प्राचीन पश्चिमीय एशिया की
एक महान जन-जाति रही है ।
कृष्ट (Christ) अर्थात् यीशु मसीह का जन्म भी यहूदीयों की जन-जाति में हुआ था ।
अनेक स्तरों पर कृष्ट और कृष्ण के आध्यात्मिक चरित्र में साम्य परिलक्षित होता है ।
जैसे दौनों का जन्म गोपालक परिवार में गायों के सानिध्य में होना ...
यीशु मसीह को एञ्जिल (Angelus) फ़रिश्ता द्वारा ईश्वरीय ज्ञान प्रदान करना ।
तथा कृष्ण के गुरु घोर-आंगीरस हैं ।
आंगीरस तथा एञ्जिल (Angelus)
मूलत:एक ही शब्द के रूपान्तरण हैं ।
यहुदह् और तुरबजु के रूप में वर्णित बाइबिल में पुरुष पात्र ...
निश्चित रूप से यदु: और तुर्वसु नामक वैदिक पात्र है।
यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति यद् जिसका अर्थ है --धन्यवाद देना संस्कृत भाषा में भी यदु शब्द यज् धातु से है ।
जिसका अर्थ है --यज्ञ करना --+
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अवेस्ता ए जेन्द़ में असुर का अर्थ = श्रेष्ठ तथा देव का अर्थ = दुष्ट है ।
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ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में प्रस्तुत है ।
कि कृष्ण असुर अथवा दास वंश से सम्बद्ध थे ।
अत: अत: परोक्ष रूप से कृष्ण को शूद्र ही माना गया है।
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। ऋग्वेद-१० /६२/१०
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गोओं से घिरे हुए मुस्कराहठ से पूर्ण दृष्टि वाले यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास प्रशंसा के पात्र हैं अर्थात् हम उनकी प्रशंसा करते हैं।
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यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
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" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ते$प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत:
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अर्थात् हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ....
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गोप शब्द का पर्याय वाची आभीर शब्द है ।
जो प्राकृत भाषा में अहीर हो गया है ।
संस्कृत भाषा के ग्रन्थ "शक्ति संगम तन्त्र " में गोपों का आभीर नाम आहुक वंश से प्रचलन में आया है ,
" आहुक वंशात् समुद्भूता आभीरा: प्रकीर्तता (शक्ति संगम तन्त्र पृष्ठ संख्या 164 ..सात्वत के पुत्र अन्धक के पुत्र पुनर्वसु
और पुनर्वसु के पुत्र थे ,आहुक के देवक और शूरसेन हुए ।
यद्यपि आभीर गौश्चर गोप गोपाल गुप्त सभी यादवों (यदुवंशीयों ) के विशेषण थे ।
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आभीर विशेषण अहीरों की निर्भीकता के कारण हुआ ।
ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था के प्रति विद्रोही स्वर में मुखरित हो दास न बनकर दस्यु बनना उचित समझा ।
और इतिहास कारों ने आभीरों अथवा यादवों को दस्यु रूप में वर्णित किया है ।
पुष्य-मित्र सुंग ई०पू०१८५ के समकक्ष निर्मित स्मृति-ग्रन्थों में गोप जन-जाति को शूद्र ही माना है ।
व्यास-स्मृति के अध्याय प्रथम के श्लोक ११-१२ में गोप जन-जाति को शूद्र ही माना गया है।
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"वर्द्धिकी नापितो गोप: आशाप : कुम्भकारको ।
वणिक: किरात: कायस्थो मालाकार: कुटुम्बिन:।
एते चान्ये च बहव: शूद्रा: भिन्न स्वकर्मभि: ।
चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: ।
वरटो मेद चाण्डालदास श्वपच कोलका: ।।११।।
एते$न्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना :
एषां सम्भाषणात् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
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अर्थात् बढ़ई ,नाई , गोप , आशाप ,कम्हार , बनिया , किरात , कायस्थ ,माली , कुटुम्बिन,ये सभी शूद्र
अपने भिन्न कर्मों के द्वारा हैं ।
चमार , भाट ,भील, धोवी , पुष्करो ,नट,वरट,(भरत)
मेद , चाण्डाल ,दास, श्वपच, कोरी ,आदि तथा गोमास खाने वाले ,अन्त्ज माने गये हैं ।
इन से बात करने के वाद स्नान करके सूर्य दर्शन करना चाहिए ...
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कृष्ण सम्बन्धी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के ज़िलाने का श्रेय दिया गया है(ऋग्वेद 1।116।7,23)। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है (ऋग्वेद 8।86।1-5)।
ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता अश्विनीकुमारों से प्रार्थना की थी। कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का इन्द्र ने वध किया था (ऋग्वेद 1।101।1) ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता।
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छान्दोग्य उपनिषद में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर आंगिरस का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी
_____’___२€जिसकी दक्षिणा, तप, दान, आर्जव, अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शान्त हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)।
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"तद्वैतद् घोर आंगीरस:कृष्णाय: देवकी पुत्रायो क्वतोवाचा पिपासा एवं स बभूव - सो$न्त वेलायामे तत्त्रयं प्रतिपद्येतक्षितमस्य च्युतमसि प्राणसँ शितमसीति तत्रैते देने ऋचौभवत: ।16।
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कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मण में भी मिलता है (30।9)। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है। बौद्ध साहित्य बौद्ध साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत जातक में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है। अनेक वृत्तान्त निपुण बलवान योद्धा महाभारत में कृष्ण सम्बन्धी अनेक वृत्तान्त मिलते हैं।
भारत युद्ध में उनके पराक्रम, ऐश्वर्य और नीतिनैपुण्य के साथ उनके देवत्व का भी समन्वय पाया जाता है। सभापर्व में भीष्म द्वारा उनकी प्रशंसा समस्त वेद-वेदान्त के ज्ञाता तथा राजनीति में निपुण बलवान योद्धा के रूप में की गयी है।
उद्योग पर्व में कहा गया है कि अर्जुन वज्रपाणि इन्द्र की अपेक्षा कृष्ण को अधिक पराक्रमी समझकर उन्हें युद्ध में अपनी ओर मिलाने में अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी स्थल पर कृष्ण के पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दस्युओं के संहार, दुर्धर्ष राजाओं के विनाश, रुक्मिणी के हरण, नगजित के पुत्रों की पराजय, सुदर्शनराजा की मुक्ति, पाण्डय के संहार, काशी नगरी के उद्धार, निषादों के राजा एकलव्य के वध, उग्रसेन के पुत्र सुनाम की मृत्यु आदि कार्यो का वर्णन किया गया है। देवताओं के द्वारा उन्हें अवध्यता का वरदान मिला था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही इन्द्र के घोड़े उच्चै:श्रवा के समान बली, यमुना के वन में रहने वाले हयराज को मार डाला था तथा वृष प्रलंब, नरग, जृम्भ, मुर, कंस आदि का संहार किया था, जल देवता वरुण को पराजित किया था तथा पाताल वासी पंचजन को मारकर पान्चजन्य प्राप्त किया था। अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा की प्रसन्नता के लिए वे अमरावती से पारिजात लाये थे। वासुदेव महाभारत में प्राप्त कृष्ण सम्बन्धी इन सन्दर्भों से उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की सूचना मिलती है और ज्ञात होता है कि वे वृष्णि वंशीय सात्वत जाति के पूज्य पुरुष थे। यह भी संकेत मिलता है कि महाभारत और पुराणों में वर्णित कृष्ण के चरित्र और किन्हीं ऐतिहासिक वासुदेव कृष्ण सम्बन्धी कथा में कुछ अन्तर अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाभारत और पुराणों में अनेक स्थलों पर इस बात पर बल दिया गया है कि यही कृष्ण वास्तविक वासुदेव हैं, यही द्वितीय वासुदेव हैं। द्वितीय वासुदेव कहने का अभिप्राय यह था कि कुछ अन्य राजा भी अपने को द्वितीय वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध करने का यत्न करते थे।
पौण्ड्र राजा पुरुषोत्तम और करवीरपुर के राजा श्रृगाल इसी प्रकार के व्यक्ति थे, जिन्हें मारकर कृष्ण ने सिद्ध किया कि उनका वासुदेवत्व मिथ्या है तथा वे ही स्चयं एकमात्र वासुदेव हैं। पुराणों में कृष्ण विष्णु पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ महाभारत, हरिवंश पुराण तथा विष्णु पुराण, वायु पुराण, वामन पुराण, भागवत पुराण आदि पुराणों में कृष्ण की तुलना में इन्द्र की हीनता सिद्ध करने के लिए अनेक कथाएँ दी गयी हैं; परन्तु फिर भी गोवर्धन धारण के प्रसंग में उनके इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने और 'उपेन्द्र' नाम से स्वीकृत होने का उल्लेख हुआ है। पुराणों में विविध कथाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर कृष्ण की महत्ता और उसी अनुपात में इन्द्र की हीनता प्रमाणित की गयी है। महाभारत में कृष्ण के ऐश्वर्य और देवत्व का प्रचुर वर्णन है परन्तु उनके लालित्य और माधुर्य का कोई संकेत नहीं मिलता। महाभारत उनके गोप जीवन और गोपी प्रेम के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है। सभा पर्व के उस प्रसंग में भी, जिसे प्रक्षिप्त कहा जाता है और जिसमें शिशुपाल कृष्ण की निन्दा करते हुए उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वत्सासुर और कंस के वध तथा गोवर्द्धन धारण किये जाने का उल्लेख करता है, गोपियों से उनके प्रेम का कोई संकेत नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि गोपाल कृष्ण का ललित और मधुर चरित मूलत: महाभारत के कृष्ण के चरित से भिन्न था। पुराणों में वर्णित कृष्ण सम्बन्धी ललित कथाएँ उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गयी हैं। उदाहरण के लिए हरिवंश में जिसे 'वास्तव में महाभारत का परिशिष्ट कहा जाता है, उनके गोपाल रूप सम्बन्धी सन्दर्भ अतयन्त संक्षिप्त है। उनकी तुलना में उनके ऐश्वर्य रूप की भोग-विलास सम्बन्धी अनेक कथाएँ कहीं अधिक विस्तार से वर्णित हैं। विष्णु पुराण में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। किन्तु भागवत, पद्म पुराण , ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा कुछ अन्य पुराणों में, जिन्हें परवर्ती कहा जा सकता है, गोपालकृष्ण सम्बन्धी कथन अधिक विस्तृत होने लगे हैं। पुराणों के भोग-ऐश्वर्य सम्बन्धी आख्यानों और गोप-गोपी लीला सम्बन्धी मधुर कथाओं में वातावरण का बहुत अन्तर पाया जाता है। यदि एक में घोर भौतिकता, विलासिता और नग्न ऐन्द्रियता है तो दूसरे में भावात्मक कोमलता, हार्दिक उत्फुल्लता, सूक्ष्म अनुभूति और अलौकिकता की ओर उन्मुख उदात्तता है। शूरसेन प्रदेश शूरसेन महाजनपद Shursen Great Realm अनुमान है कि गोपाल कृष्ण मूलत: शूरसेन प्रदेश के सात्वत वृष्णिवंशी पशुपालक क्षत्रियों के कुल देवता थे और उनके क्रीड़ा कौतुक की मनोरंजक कथाएँ मौखिक रूप में लोक-प्रचलित थीं। इन कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण कुछ पाषाण मूर्तियों और शिलापट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों में मिले है। मथुरा में प्राप्त एक खण्डित शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को एक सूप में सिर पर रखकर यमुना पार करते हुए दिखाये गये हैं। 5वीं शताब्दी ईसवी के एक दूसरे खण्डित शिलापट्ट में कालिय-दमन का दृश्य दिखाया गया है। यह छठी शताब्दी ईस्वी की अनुमान की गयी है। बंगाल के पहाड़पुर नामक स्थान में छठी शताब्दी की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें धेनुकासुर वध, यमलार्जुन उद्धार तथा मृष्टिक चाणूर के साथ मल्ल-युद्ध के दृश्य दिखाये गये हैं। यहीं पर एक अन्य मूर्ति मिली है जिसमें कृष्ण को किसी गोपी के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। अनुमान किया गया है कि यह गोपी सम्भवत: राधा का सबसे प्राचीन मूर्तिगत प्रमाण प्रस्तुत करती है। राजस्थान के मण्डोर तथा बीकानेर के पास सूरतगढ़ में क्रमश: द्वारपाटों पर उत्कीर्ण गोवर्द्धन –धारण, नवनीत-चौर्य, शकटभंजन और कालिय-दमन के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं तथा गोवर्द्धन-धारण और दान-लीला का दृश्यांकन प्रस्तुत करने वाले कुछ सुन्दर मिट्टी के खिलौने प्राप्त हुए हैं। मण्डोर के चित्र चौथी-पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अनुमान किये गये हैं। दक्षिण भारत के बादामी के पहाड़ी क़िले पर कृष्ण-जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, कंस-वध आदि के अनेक दृश्य गुफ़ाओं में उत्कीर्ण मिले हैं। जो छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं[1]। काव्य में कृष्ण काव्य में गोपाल कृष्ण की लीला का पहला सन्दर्भ प्रथम शताब्दी ईसवी में रचित अश्वघोष के बुद्धिचरित' (1-5) में मिलता है। अनुमानत: प्रथम शताब्दी ईस्वी में हाल सातवाहन द्वारा संगृहीत 'गाहासत्तसई' (गाथा सप्तशती) में कई गाथाएँ कृष्ण, राधा, गोपी, यशोदा आदि से सम्बद्ध मिलती हैं [2]। इन गाथाओं में कृष्ण द्वारा नारियों के गौरवहरण, मुखमारूत से राधिका के गोरज के अपनयन आदि के उल्लेख हुए हैं। इन उल्लेखों से सूचित होता है कि कृष्ण के गोपी-प्रेमसम्बन्धी प्रसंग कम से कम पहली शताब्दी ईस्वी के पहले से ही लोक-प्रचलित थे। यह अवश्य द्रष्टव्य है कि'गाहासत्तसई' में भक्ति भावना का कोई संकेत नहीं मिलता, उसका वातावरण सर्वथा लौकिक श्रृंगार का ही है परन्तु इससे भिन्न दक्षिण के आलवार सन्तों द्वारा रचित गीत पूर्णतया भक्ति भावना से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। इन सन्तों का समय पाँचवीं से नवीं शताब्दी ईसवी अनुमान किया गया है। आलवार सन्तों के इन गीतों में विष्णु , नारायण अथवा वासुदेव तथा उनके अवतारों-राम और कृष्ण के प्रति अपूर्व भक्ति –भाव प्रकट किया गया है। इनमें गोपाल-कृष्ण की ललित लीला के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जो उत्तर भारत के मध्यकालीन कृष्ण भक्ति- काव्य के प्रिय विषय रहे हैं। इन गीतों में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से सम्बद्ध एक नाप्पित्राय नामक गोपी का प्रमुख रूप समें वर्णन है। उसे कृष्ण की प्रियतमा और विष्णु की अर्द्धागिनी लक्ष्मी का अवतार कहा गया है। अनुमान है कि यह गोपी उत्तर भारत की कृष्णकथा में प्रयुक्त राधा ही है। राधाकृष्ण कथा की प्राचीनता की दृष्टि से तमिल साहित्य का यह प्रमाण महत्त्वपूर्ण है। राधा के प्रेम सन्दर्भ राधा-कृष्ण आठवीं शंताब्दी में रचित भट्टानारायण के 'वेणीसंहार' नामक-नाटक में नांदीश्लोक में तथा वाकपति राज द्वारा लिखित प्राकृत महाकाव्य 'गउडवहो' के मंगलाचरण में कृष्ण की स्तुति उनके राधा और गोपी-प्रेम तथा यशोदा के वात्सल्यभाजन होने की स्पष्ट सूचना देती है। 'गउडवहो' में उन्हें 'विष्णुस्वरूप' और 'लक्ष्मीपति' भी कहा गया है। नवीं शताब्दी ईसवी के 'ध्वन्यालोक' में उद्धृत दो श्लोकों में कृष्ण और राधा के मधुर प्रेम के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दसवीं शताब्दी के त्रिविक्रम भट्ट रचित 'नलचम्पू' के एक श्लोक में परम पुरुष कृष्ण के साथ राधा के अनुराग का संकेत प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी की ही बल्लभदेव द्वारा रचित 'शिशुपालवध' की टीका तथा सोमदेवपूरि के 'यशस्यतिलकचम्पू' में भी राधा के प्रिय कृष्ण का जिस रूप में उल्लेख मिलता है उससे कृष्ण के गोपीवल्लभ रूप की सूचना प्राप्त होती है। प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ 'कवीन्द्रवचन समुच्चय' नामक कवितासंग्रह भी दसवीं शताब्दी का माना गया है। इसमें संकलित अनेक श्लोकों में कृष्ण की गोपी और राधा सम्बन्धी प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ मिलता है जिनसे कृष्ण के यशोदा के वात्सल्य-भाजन, गोपियों के कान्त, गोपों के सृहृद् तथा राधा के अनन्य प्रेमभाजन व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। इन सभी सन्दर्भो में कृष्ण के दक्षिण और धृष्ट नायकत्व के भी स्पष्ट संकेत हैं। दशवीं शताब्दी तक राधा और कृष्ण के प्रति पूज्यभाव भी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण मालवाधीश वाक्पति मुंजपरमार के एक अभिलेख से भी मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका विष्णु रूप में वर्णन है और साथ ही उन्हे राधा के विरह में पीड़ित कहा गया है। दशवीं शताब्दी के आसपास रचित श्रीमद्भागवत में कृष्णचरित का व्यापक वर्णन है इसमें उनके सभी स्वरूपों का वर्णन और संकेत है। कृष्ण के व्यक्तित्व के लालित्य और माधुर्य के साथ उनके दैवत रूप की प्रतिष्ठा 12 वीं शताब्दी तक और अधिक दृढ़ता के साथ हो गयी थी। इसका प्रमाण लीलाशुक द्वारा रचित 'कृष्णकर्णामृतस्तोत्र' ईश्वरपुरी द्वारा रचित 'श्रीकृष्णलीलामृत ' का श्रृगांर रस निश्चित रूप से माधुर्य भक्ति है। इसी प्रकार 'गीतगोविन्द' में राधा-माधव के जिस उद्दाम श्रृंगार का वर्णन किया गया है, उसकी मूल प्रेरणा भी धार्मिक है। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस प्रकार जिस लोकरंजनकारी लालित्य का उदात्तीकरण वैष्णव भक्ति के विकास में होता गया उसी की चरम परिणति हम परवर्ती साहित्य में पाते हैं। असंख्य कथा प्रसंग बारहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-काव्य मृक्तकों के अतिरिक्त प्रबन्धों के रूप में भी प्राप्त होता है। 'सदुक्तिकर्णामृत' नामक एक मुक्तक संग्रह 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ का हैं। जिसमें गोपाल कृष्ण की लीला से सम्बद्ध साठ श्लोक हैं। इन श्लोकों में गोपाल कृष्ण के शैशव, कैशोर और यौवन की ललित लीलाओं का ही वर्णन मिलता है। 13वी-14वी शताब्दी में रचित बोपदेव की 'हरिलीला' तथा वेदान्तदेशिककी 'यादवाभ्युदय' नामक रचनाएँ तथा पन्द्रहवीं शताब्दी की 'ब्रजबिहारी' (श्रीधरस्वामी), 'गोपलीला' (रामचन्द्र भट्ट), ' हरिचरित'-काव्य (चतुर्भुज), 'हरिविलास'-काव्य (ब्रजलोलिम्बराज), 'गोपालचरित' (पद्मनाभ), 'मुरारिविजय'- नाटक (कृष्ण भट्ट) और 'कंस-निधन' महाकाव्य (श्रीराम) आदि अनेक काव्य और नाटक गोपालकृष्ण के मधुर, ललित और पूज्य चरित का चित्रण करते हैं। 16वीं शताब्दी से कृष्णभक्ति आन्दोलन सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्याप्त हो गया और कृष्ण-काव्य आधुनिक भाषाओं में रचा जाने लगा। इस काव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत था, परन्तु साथ ही कवियों ने लोक में प्रचलित कृष्णसम्बन्धी उन असंख्य कथा प्रसंगों का भरपूर उपयोग किया जिनमें कृष्ण का चरित वात्सल्य, सख्य और माधुर्यव्यंजक लीलाओं से समन्वित रहा है।
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वाग्युद्ध में प्रमाण ही ढाल है ,
तथा सटीक तर्क तीर है ! अत: दौनों का होना आवश्यक है ।
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