सामान्यत: पैसा उधार देने वालों अथवा व्यापार करने वाले भारतीय जन-जाति,
मुख्यत: उत्तरी और पश्चिमी भारत में पाई जाती हैं, हालाकि संकीर्ण अर्थ में कई व्यापारी समुदाय बनिए नहीं हैं और विलोमत: कुछ बनिए व्यापारी नहीं हैं।
भारतीय समाज की चतुष्वर्णीय व्यवस्था में असंख्य बनिया उपजातियों, जैसे अग्रवाल, अग्रहरि, लोहिया आदि को वैश्य वर्ण का सदस्य माना जाता है।
धार्मिक अर्थों में वे सामान्यत: वैष्णव या जैन होते हैं और पूर्णत: शाकाहारी, मद्यत्यागी और आनुष्ठानिक पवित्रता के पालन में रूढ़िवादी होते हैं।
उत्तर वैदिककाल के उल्लेखों में पण, पण्य, पणि जैसे शब्द आए हैं।
ग्रावाण: सोम ने हि कं सरिवत्ववना वावशु ।
जहि न्यत्रिणं पणिं वृको हीष: ------ऋग्वेद६/६१/१
अर्थात् हे सोम तुम पणियों को मारो अभिषव करने वाले हम तुम्हारा कामना करते हैं ।
ऋग्वेद में ही अन्यत्र देखें---
इयं ददाद्रभस मृण च्युतं दिवो दासं वध्रयश्वाय दाशुषे
चखा दावसं पणिं ताते दात्राणि तषि सरस्वती ।।
ऋग्वेद-६/६१/
और भी देखें---शतैर्षद्रन पणय इन्द्रात्र ।
दशोणये कवयेsर्क सातौ ।।
अर्थात्- हे इन्द्र युद्ध में बहुत धन देने वाले तुम्हारे सहायक कुत्स से डर कर , सौ बल (सेना) वाले पणि भाग गये ।
ऋग्वेद में एक स्थान पर पणियों के देव बल तथा
आर्यों के सहायक अंगिराओं का प्रतिद्वन्द्वी रूप में वर्णन किया है ।
उद्गार आजत अंगिरोभ्य आविष्कृण्व,
गुहासती: अर्वाणच् नुनेद बलम् ।।
अर्थात् गुफाओं में अंगिराओं के लिए दास खोजते हुए ,
इन्द्र ने वहाँ से गायों को बाहर प्रेरित किया ।
वेदों में फॉनिशियन लोग असुरों के सहायक अथवा सानिध्य में रहने वाले बताएें गये हैं ।
बल असीरी (असुर) तथा फॉनिशियन (पणि)लोगों का शक्ति और धन का अधिष्ठात्री देवता था ।
मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में यहूदी फॉनिशियन तथा असीरियन संस्कृतियाँ सदीयों से सहवर्ती रहीं हैं ।
भारतीय पुराणों में भी प्राय: यदु को दास ,
तथा असुर से सम्बद्ध बताया है
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोकाँश---
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं।
गायों से सम्पन्न हैं अत: हम उनकी सराहना करते हैं ।
पुराणों में यादवों को मधु नामक असुर से सम्बद्ध बता कर यादवों को (मधु+अण्)--माधव भी बना दिया ।
प्राय: गुप्त काल में कृष्ण दर्शन की अधिक प्रतिष्ठा हुई।
और और गुप्त कालीन राजा कृष्ण को अपना पूर्वज मानते थे ।
आज भी वैश्य वर्ग में वार्ष्णेय वणिक लोग कृष्ण के गोत्र वृष्णि से सम्बद्ध मानते हैं।
विश्व इतिहास साक्षी है ,कि मिश्र में रहने वाले ईसाई मतावलम्बी कॉप्ट (Copt)
भी स्वयं को यहूदी ही बताते है ।
यूनानी नील नदी के क्षेत्र को एगिप्टॉस (egiptos)
टैल ए अमर्ना के कीलाक्षर लिपि में हिकुप्ताह Hicuptah
मिश्र में प्ताह (Ptah)के मन्दिर को हिकुप्ताह कहा जाता था ..कुछ इतिहास कारो के अनुसार केमित Kemet मिश्र का पुरातन नाम है
जिसका अर्थ होता है काला -देश ।
अर्थात् कालीमिट्टी से युक्त भूमि इस लिए यह एगिप्टॉस /अथवा एजिप्टॉस हुआ ।
परन्तु यह अनुमान मात्र है
कॉप्ट (Copt) शब्द ग्रीक भाषा में संस्कृत भाषा के रूप गुप्त / गुप्ता का तद्भव है ।
अरब़ी संस्कृति में इस देश को मिज़र अथवा मिश्र कहा है ।
क्योंकि हिब्रू बाइबिल में हेम का पुत्र मिज़रैम (Migraime)था ।
संस्कृत पुराणों में यम का पुत्र मित्र:
संस्कृत भाषा में सूर्य को भी मित्रों कहा गया है ।
पण या पण्य का अर्थ हुआ वस्तु, सामग्री, सम्पत्ति। बाद में पण का प्रयोग मुद्रा के रूप में भी हुआ।
अंगेजी रूप( pine)
मिश्र के कॉप्ट (Copt) यहूदीयों की एक शाखा थी जो सोने - चाँदी का व्यवसाय करते थे ।
ये लोग कपट या ठगी जैसी क्रियाऐं भी करते थे ।
अत: कर्पट(Crypto) कपट तथा कॉपी जैसे शब्द भारोपीय भाषा परिवार में आये ।
वैसे भी इस्लामीय इतिहास कारों ने क़ुरान शरीफ़ के हवाले से यहूदीयों को सूद-खोर व्यापारी के रूप में वर्णन किया है ।
यद्यपि कुछ सीमा तक ये एैसे होगें और कुछ द्वेष वश भी इनके विषय में वर्णित किया गया है।
इनके विषय में ,
पणि से तात्पर्य व्यापारी समाज के लिए भी था।
पणि उस दौर के महान व्यापारिक बुद्धिवाले लोग थे।
यहूदी लोग जौहरी का काम करने वाली एक सेमेटिक जन-जाति थी ।
ग्रीक इतिहास कारों
के अनुसार फॉनिशी लोग यहूदीयों के ही सहवर्ती थे ।
रोमन इतिहास कारो ने इन्हें प्यूनिक कहा है ।
वेदों में इन्हें पणि (पणिक) कहा है ।
कायस्थ शब्द भी कॉर्थेज शब्द से व्युत्पन्न हुआ है।
परन्तु पुराणों पन्थीयों ने इसकी काल्पनिक उत्पत्ति जो ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होकर स्थित हुआ , ऐसी
कर दी है ।
और जिन्हें शूद्रों के भी नीचे पञ्चम् वर्ण में पहँचा दिया है ।
जो पूर्ण रूप से अवैज्ञानिक ही है ।
पणियों की रिश्तेदारी आज के बनिया शब्द से है।
पणि (फिनीशियन) आर्यावर्त में व्यापार करते थे।
सुमेरियन से लेकर सिन्धु नदी के तटों तक ये व्यापारी करते थे ।
उनके बड़े-बड़े पोत चलते थे।
वे ब्याजभोजी थे,आज का 'बनिया' शब्द वणिक का अपभ्रंश ज़रूर है मगर इसके जन्मसूत्र पणि में ही छुपे हुए हैं।
दास बनाने वाले ब्याजभोजियों के प्रति आर्यों की घृणा स्वाभाविक थी।
आर्य कृषि करते थे और पणियों का प्रधान व्यवसाय व्यापार और लेन-देन था।
पणिक या फणिक शब्द से ही वणिक भी जन्मा है। आर्यों ने पणियों का उल्लेख अलग अलग संदर्भों में किया है मगर हर बार उनके व्यापार पटु होने का संकेत ज़रूर मिलता है।
हिन्दी में व्यापार के लिए वाणिज्य शब्द भी प्रचलित है। वाणिज्य की व्युत्पत्ति भी पण से ही मानी जाती है।
यह बना है वणिज् से जिसका अर्थ है सौदागर, व्यापारी अथवा तुलाराशि।
गौरतलब है कि व्यापारी हर काम तौल कर ही करता है।
इससे ही बना है “वाणिज्य” और “वणिक” जो कारोबारी, व्यापारी अथवा वैश्य समुदाय के लिए खूब इस्तेमाल होता है।
पणिक की वणिक से साम्यता पर गौर करें।
बोलचाल की हिन्दी में वणिक के लिए बनिया शब्द कहीं ज्यादा लोकप्रिय है जो वणिक का ही अपभ्रंश है ,
इसका क्रम कुछ यूं रहा- वणिक, बणिक, बनिआ, बनिया।
संसार को वर्ण-माला- प्रदान करने वाले ये ही लोग थे ।
ये द्रविडों के समानान्तर समद्रीय यात्रा द्वारा व्यापार करते थे ।
वैश्य शब्द का उत्स भी भारोपीय भाषा परिवार का विस पुरानी-अंग्रेजी - (Wicca---जादू या तन्त्र-मन्त्र करने वाला ।
इसी से विकसित शब्द विच witch तथा नॉर्स माइथॉलॉजी में विक्कड(Wicked)--
समुद्रीय डॉकुओं का वाचक रहा ।
संस्कृत भाषा में विश् धातु है जिससे वैश्य शब्द बना है
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