गोपालकन्या नित्यं या शूद्री त्वशुद्धजातिका।।६२।।
इस ब्रह्मा की यज्ञ को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शूद्र और अशुद्ध जाति की है।६२।
स्थापिताऽत्र नु सा शुद्धा विप्रोऽहं पावनो न किम् ।
तावत् तत्र समायातो ब्राह्मणो वृद्धरूपवान्।।६३।।
स्थापित यहाँ वह शुद्धा है और हम विप्र पवित्र क्यों नहीं हैं। तब तक वहाँ एक बृद्ध रूपवान् ब्राह्मण आ गया ६३।
श्रीकृष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म नैषाऽस्ति शूद्राणी ब्राह्मणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।
श्रीकृष्ण ने उसको कहा ! उत्तर देते हुए सुन प्रिये छिपी हुई नही है ये शूद्राणी ये जाति से निश्चय ही ब्राह्मणी है।६४।
शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्यतद्विदः।
पुरा सृष्टे समारम्भे श्रीकृष्णेन परात्मना ।।६५।।
सुन जानाता हूँ वह वृत कोई अन्य नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा।
स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता ।
अथ द्वितीया कन्या च पतिव्रताऽभिधा कृता ।।६६।।
अपने ही अंश से सावित्री को प्रकट किया गया
और दूसरी कन्या गायत्री नाम से भी पतिव्रता हुई।
कुमारश्च कृतः पत्नीव्रताख्यो ब्राह्मणस्ततः ।
ब्रह्मा वैराजदेहाच्च कृतस्तस्मै समर्पिता ।।६७।।
सनत्कुर द्वारा उनके पत्नी व्रत का व्याख्या ब्राह्मण को वह थी । ब्रह्मा विराट विष्णु के शरीर से उत्पन्न हए जे उनको समर्पित हो गये।६७।
सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
अथ यज्ञप्रवाहार्थं ब्रह्मा यज्ञं करिष्यति ।।६८।।
सावित्री श्री हरि के द्वारा गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में रहीं।६८।
पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता भविष्यति ।।६९।।
पृथ्वी पर मनुष्य रूप में हाँ मानव शरीर में यज्ञ की पत्नी यज्ञ कार्य के लिए अपेक्षित होगी।६९।
हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह ।।1.509.७०।।
उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री के द्वारा आज्ञापिता तब दे वित्तीय स्वरूप में तुम्हें जाना चाहिए है गायत्री!७०।
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प्रागेव भूतले कन्यारूपेण ब्रह्मणः कृते ।
सावित्री श्रीकृष्णमाह कौ तत्र पितरौ मम ।।७१।।
पहले ही भूलोक पर कन्या रूप में ब्रह्मा के द्वारा किये गये संगति में मेरे माता- पिता कौन होंगे? सावित्री ने यह बात कृष्ण से कही-।७१।
श्रीकृष्णस्तां तदा सन्दर्शयामास शुभौ तु तौ ।
इमौ पत्नीव्रतो विप्रो विप्राणी च पतिव्रता ।।७२।।
इमौ पत्नीव्रतो विप्रो विप्राणी च पतिव्रता ।।७२।।
श्रीकृष्ण ने तब वे दोनों शुभ पत्नी और पतिव्रता ब्राह्मण ब्राह्मणी दिखाए-।७१।
मदंशौ मत्स्वरूपौ चाऽयोनिजौ दिव्यविग्रहौ।
पृथ्व्यां कुंकुमवाप्यां वै क्षेत्रेऽश्वपट्टसारसे ।।७३ ।।
कृष्ण ने कहा - मेरे अंश से मेरे स्वरूप अयौनिज-( मनुष्य रूप में दिव्य शरीर धारी पृथ्वी पर कंकुम प्राप्त करके अश्वपट्टसारस में ।
सृष्ट्यारम्भे विप्ररूपौ वर्तिष्येतेऽतिपावनौ ।
वैश्वदेवादियज्ञादिहव्याद्यर्थं गवान्वितौ ।।७४।।
सृष्टि के प्रारम्भ में विप्र रूप अति पावन रूप में उपस्थित होंगे वैश्वदेव की यज्ञ आदि के लिए गायों से युक्त।
सौराष्ट्रे च यदा ब्रह्मा यज्ञार्थं संगमिष्यति ।
तत्पूर्वं तौ गोभिलश्च गोभिला चेति संज्ञिता ।।७२।।
गुजरात के सूरत ( सौराष्ट्र) में जब ब्रह्मा यज्ञ के लिये जायेंगे। उससे पूर्व वे दोनों गोभिल और गोभिला नाम से ।
गवा प्रपालकौ भूत्वाऽऽनर्तदेशे गमिष्यतः ।
यत्राऽऽभीरा निवसन्ति तत्समौ वेषकर्मभिः ।।७६।।
गवा प्रपालकौ भूत्वाऽऽनर्तदेशे गमिष्यतः ।
यत्राऽऽभीरा निवसन्ति तत्समौ वेषकर्मभिः ।।७६।।
गायों के पालने वाले गोप होकर आवर्त देश में जाऐंगे। वहाँ आभीर लोग निवास करते हैं। उन्ही के समान वेष भूषा से ।
दैत्यकृतार्दनं तेन प्रच्छन्नयोर्न वै भवेत् ।
इतिःहेतोर्यज्ञपूर्वं दैत्यक्लेशभिया तु तौ ।।७७।।
दैत्यों द्वारा किए गये जो प्रच्छन्न नहीं होंगे इससे पूर्व दैत्यों के क्लेश भय के द्वारा वे दोनों
श्रीहरेराज्ञयाऽऽनर्ते जातावाभीररूपिणौ ।
गवां वै पालकौ विप्रौ पितरौ च त्वया हि तौ ।।७८।।
श्री हरि की आज्ञा से आवर्त देश आभीर जाति मेंआभीर रूप में गायों के पालक रूप में तुम्हारे माता पिता ब्राह्मण होंगे।७८।
कर्तव्यौ गोपवेषौ वै वस्तुतो ब्राह्मणावुभौ ।
मदंशौ तत्र सावित्रि ! त्वया द्वितीयरूपतः।।७९।।
गोप वेष में कर्म करते हुए भी वे दोनों ब्राह्मण ही रहेंगे। मेरे अंश से वहाँ सावित्री तुम्हारा दूसरा रूप होगा।७९।
अयोनिजतया पुत्र्या भाव्यं वै दिव्ययोषिता ।
दधिदुग्धादिविक्रेत्र्या गन्तव्यं तत्स्थले तदा ।।1.509.८०।।
अयोनिज पुत्री के द्वारा वे दिव्य नारी दधि दूध आदि विक्री द्वारा वहाँ तब पहुँचने योग्य होगी।८०।
यदा यज्ञो भवेत् तत्र तदा स्मृत्वा सुयोगतः ।
मानुष्या तु त्वया नूत्नवध्वा क्रतुं करिष्यति ।।८१।।
जब यज्ञ ब्रह्मा वहाँ करेंगे
तब तुम उस यज्ञ में नयी बधू के रूप में उपस्थित होगीं।
सहभावं गतो ब्रह्मा गायत्री त्वं भविष्यसि ।
ब्राह्मणयोः सुता गूढा गोपमध्यनिवासिनोः।।८२।।
ब्रह्मा के साथ सह भाव में गायत्री तुम हीं होंगी।
ब्राह्मण माता पिता की पुत्री गोपों के मध्य गुप्त रूप में निवास करोगीं।८२।
ब्रह्माणी च ततो भूत्वा सत्यलोकं गमिष्यसि ।
ब्राह्मणास्त्वां जपिष्यन्ति मर्त्यलोकगतास्ततः ।।८३।।
ब्राह्मणी होकर ब्रह्मा के साथ सत्य लोक को पहुँच हगी।
सभी ब्राह्मण जो मृत्यु लोग में स्थित हैं तुम्हारा जाप करते रहेंगे ।८३।
इत्येवं जायमानैषा गायत्री ब्राह्मणी सुता ।
वर्तते गोपवेषीया नाऽशुद्धा जातितो हि सा ।।८४।।
इस प्रकार गायत्री ब्राह्मण सुता है।
( ब्रह्मा की सन्तान ब्राह्मण और गायत्री यदि ब्राह्मणी होती है तो ब्रह्मा अपनी ही सृष्टि के साथ विवाह कैसे कर सकते हैं।
गायत्री गोपवेष से ही गोप है जाति से नहीं अत: यह अशुद्धा नहीं है।
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एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा ।
तावत् तत्र समायातौ गोभिलागोभिलौ मुदा ।।८५।।
एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा ।
तावत् तत्र समायातौ गोभिलागोभिलौ मुदा ।।८५।।
इस प्रकार गुप्त रूप से उन कृष्ण के द्वारा उसे उत्तर दिया गया। तब तक वहाँ गोभिला और गोभिल प्रसन्नता की अवस्था में आये।८५।
अस्मत्पुत्र्या महद्भाग्यं ब्रह्मणा या विवाहिता ।
आवयोस्तु महद्भाग्यं दैत्यकष्टं निवार्यते ।।८६।।
आवयोस्तु महद्भाग्यं दैत्यकष्टं निवार्यते ।।८६।।
हमारी पुत्री के द्वारा ब्रह्मा के साथ विवाह किया जाएगा ,हमारे तो बड़े अहो भाग्य हैं। अब दैत्यों के द्वारा दिया गया कष्ट दूर हो जाएगा।८६।
यज्ञद्वारेण देवानां ब्राह्मणानां सतां तथा ।
इत्युक्त्वा तौ गोपवेषौ त्यक्त्वा ब्राह्मणरूपिणौ ।।८७।।
इत्युक्त्वा तौ गोपवेषौ त्यक्त्वा ब्राह्मणरूपिणौ ।।८७।।
यज्ञ द्वार पर सत देवों के और ब्राह्मणों के मध्य इस प्रकार कहकर उन दोनों ने गोप वेष त्यागकर ब्राह्मण रूप में।
पितामहौ हि विप्राणां परिचितौ महात्मनाम् ।
सर्वेषां पूर्वजौ तत्र जातौ दिव्यौ च भूसुरौ ।।८८।।
पितामहों वि प्रेम का परिचितों महात्माओं काो तथा सभी पूर्वजों को वहाँ दिव्य वि प्रेम को
ब्रह्माद्याश्च तदा नेमुश्चक्रुः सत्कारमादरात् ।
यज्ञे च स्थापयामासुः सर्वं हृष्टाः सुरादयः ।।८९।।
ब्रह्मा आदि को वहाँ नमस्कार किया। सत्कार और आदर से यज्ञ में सभी देवता हर्षित होकर उपस्थित हुए।८९।
ब्रह्माणं मालया कुङ्कुमाक्षतैः कुसुमादिभिः ।
वर्धयित्वा सुतां तत्र ददतुर्यज्ञमण्डपे ।। 1.509.९०।।
ब्रह्मा को माला के द्वारा कुंकुम अक्षत के द्वारा फूल आदि के द्वारा वर्धन करके पुत्री को उस यज्ञ मण्डप में दे दिया।
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वृद्धो वै ब्राह्मणस्तत्र कृष्णरूपं दधार ह ।
सर्वैश्च वन्दितः साधु साध्वित्याहुः सुरादयः।।९१ ।।
वृद्ध ब्राह्मण का वहाँ कृष्ण ने रूप धारण कर निश्चय ही सर्वे वन्दित सभी देवताओं ने साधु साधु कह कर सराहना की।९१।
जाल्मः कृष्णं हरिं दृष्ट्वा गायत्रीपितरौ तथा ।
दृष्ट्वा ननाम भावेन प्राह भिक्षां प्रदेहि मे ।।९२।।
गुप्त रूप में ब्राह्मण वेष धारी कृष्ण को देखकर गायत्री के माता- पिता दोनों ने उन्हे नमन किया और भावुक होकर कृष्ण ने कहा मुझे हे विप्र भिक्षा दो!
बुभुक्षितोऽस्मि विप्रेन्द्रा गर्हयन्तु न मां द्विजाः ।
दीनान्धैः कृपणैः सर्वैस्तर्पितैरिष्टिरुच्यते ।। ९३ ।।
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं बहुत भूखा हूँ, कृपया मेरी निन्दा न करें।
इससे गरीब, अंधे और दुखी सभी संतुष्ट हो जाते हैं और इसे यज्ञ कहा जाता है। 93॥
इससे गरीब, अंधे और दुखी सभी संतुष्ट हो जाते हैं और इसे यज्ञ कहा जाता है। 93॥
याज्ञिकं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।
श्रीकृष्णश्च तदा प्राह जाल्मे ददतु भोजनम् ।।९५।।
दान के बिना यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है
तब भगवान कृष्ण ने जलमा से कहा, "कृपया मुझे खाने के लिए कुछ दो।" 95।
विप्राः प्राहुः खप्परं ते त्वशुद्धं विद्यते ततः ।
बहिर्निःसर दास्यामो भिक्षां पार्श्वमहानसे ।।९६।।
ब्राह्मणों ने कहा कि तलवार इसलिए अशुद्ध है।
चलो बाहर चलें और किनारे के महान व्यक्ति को भिक्षा दें। 96॥
चलो बाहर चलें और किनारे के महान व्यक्ति को भिक्षा दें। 96॥
एतस्यामन्नशालायां भुञ्जन्ति यत्र तापसाः ।
दीनान्धाः कृपणाश्चैव तथा क्षुत्क्षामका द्विजाः ।।९७।।
अशुद्धं ते कपालं वै यज्ञभूमेर्बहिर्नय ।
गृहाणाऽन्यच्छुद्धपात्रं दूरं प्रक्षिप्य खप्परम् ।।९८।।
एवमुक्तश्च जाल्मः स रोषाच्चिक्षेप खप्परम् ।
यज्ञमण्डपमध्ये च स्वयं त्वदृश्यतां गतः ।।९९।।
सर्वेप्याश्चर्यमापन्ना विप्रा दण्डेन खप्परम् ।
चिक्षिपुस्तद्बहिस्तावद् द्वितीयं समपद्यत।। 1.509.१००।।
तस्मिन्नपि परिक्षिप्ते तृतीयं समपद्यत ।
एवं शतसहस्राणि समपद्यन्त वै तदा ।। १०१ ।।
परिश्रान्ता ब्राह्मणाश्च यज्ञवाटः सखप्परः ।
समन्ततस्तदा जातो हाहाकरो हि सर्वतः ।। १ ०२।।
ब्रह्मा वै प्रार्थयामास सन्नत्वा तां दिशं मुहुः ।
किमिदं युज्यते देव यज्ञेऽस्मिन् कर्मणः क्षतिः।। १०३ ।।
तस्मात् संहर सर्वाणि कपालानि महेश्वर ।
यज्ञकर्मविलोपोऽयं मा भूत् त्वयि समागते।।१ ०४।।
ततः शब्दोऽभवद् व्योम्नः पात्रं मे मेध्यमस्ति वै ।
भुक्तिपात्रं मम त्वेते कथं निन्दन्ति भूसुराः ।।१ ०५।।
तथा न मां समुद्दिश्य जुहुवुर्जातवेदसि ।
यथाऽन्या देवतास्तद्वन्मन्त्रपूतं हविर्विधे ।। १ ०६।।
अतोऽत्र मां समुद्दिश्य विशेषाज्जातवेदसि ।
होतव्यं हविरेवात्र समाप्तिं यास्यति क्रतुः ।। १०७।।
ब्रह्मा प्राह तदा प्रत्युत्तरं व्योम्नि च तं प्रति ।
तव रूपाणि वै योगिन्नसंख्यानि भवन्ति हि ।। १ ०८।।
कपालं मण्डपे यावद् वर्तते तावदेव च ।
नात्र चमसकर्म स्यात् खप्परं पात्रमेव न ।।१०९।।
यज्ञपात्रं न तत्प्रोक्तं यतोऽशुद्धं सदा हि तत् ।
यद्रूपं यादृशं पात्रं यादृशं कर्मणः स्थलम् ।। 1.509.११०।।
तादृशं तत्र योक्तव्यं नैतत्पात्रस्य योजनम् ।
मृन्मयेषु कपालेषु हविः पाच्यं क्रतौ मतम् ।।१११।।
तस्मात् कपालं दूरं वै नीयतां यत् क्रतुर्भवेत् ।
त्वया रूपं कपालिन् वै यादृशं चात्र दर्शितम् ।। १ १२।।
तस्य रूपस्य यज्ञेऽस्मिन् पुरोडाशेऽधिकारिता ।
भवत्वेव च भिक्षां संगृहाण तृप्तिमाप्नुहि ।। ११ ३।।
अद्यप्रभृति यज्ञेषु पुरोडाशात्मकं द्विजैः ।
तवोद्देशेन देवेश होतव्यं शतरुद्रिकम् ।। ११४।।
विशेषात् सर्वयज्ञेषु जप्यं चैव विशेषतः ।
अत्र यज्ञं समारभ्य यस्त्वा प्राक् पूजयिष्यति।।१ १५।।
अविघ्नेन क्रतुस्तस्य समाप्तिं प्रव्रजिष्यति ।
एवमुक्ते तदाश्चर्यं जातं शृणु तु पद्मजे ।।११६।।
यान्यासँश्च कपालानि तानि सर्वाणि तत्क्षणम् ।
रुद्राण्यश्चान्नपूर्णा वै देव्यो जाताः सहस्रशः ।।१ १७।।
सर्वास्ताः पार्वतीरूपा अन्नपूर्णात्मिकाः स्त्रियः ।
भिक्षादात्र्यो विना याभिर्भिक्षा नैवोपपद्यते ।। १ १८।।
तावच्छ्रीशंकरश्चापि प्रहृष्टः पञ्चमस्तकः ।
यज्ञमण्डपमासाद्य संस्थितो वेदिसन्निधौ ।।११९।।
ब्राह्मणा मुनयो देवा नमश्चक्रुर्हरं तथा ।
रुद्राणीः पूजयामासुरारेभिरे क्रतुक्रियाम् ।। 1.509.१२०।।
सहस्रशः क्रतौ देव्यो निषेदुः शिवयोषितः ।
शिवेन सहिताश्चान्याः कोटिशो देवयोषितः ।। १२१ ।।
एवं शंभुः क्रतौ भागं स्थापयामास सर्वदा ।
पठनाच्छ्रवणाच्चास्य यज्ञस्य फलमाप्नुयात् ।। १२२।।
इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने ब्रह्मणा यज्ञार्थं हाटकेश्वरक्षेत्रे नागवत्यास्तीरे देवादिद्वारा ससामग्रीमण्डपादिरचना कारिता, जाल्मरूपेण शंकरागमनम्, गायत्र्या ब्राह्मणीजातीयतावृत्तान्तः, कपालानां अन्नपूर्णादेव्यात्मकत्वं, शंकरस्य यज्ञे स्थानं, चेत्यादिनिरूपणनामा नवाऽधिकपञ्चशततमोऽध्यायः।।५०९।।
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