सोमवार, 12 अक्टूबर 2020

धर्म का विकास और सम्प्रदायों की विभेदक रेखा...

                        (प्रथम अध्याय)


सभ्यता के विकास क्रम में धर्म की आवश्यकता तब हुई जब मनुष्य मन को सन्तुष्ट करके भी सन्तुष्ट नहीं कर पाया ! 

वह भौतिक सुखों का भोग करके भी सुखी नहीं हो पाया ,उसे लगा कि संसार रूपी महानदी में इच्छाओं के अथाह जल में स्वाभाविकताओं के वेग से प्रेरित अहंकार  की जो लहरें हैं ;

उन्हीं लहरों के आगोश में अपराध या पाप के बुलबुले उत्पन्न होकर मनुष्य को अनेक शरीरों की प्राप्ति कराते रहते हैं !

शरीरों की प्राप्ति प्राणी को उसके संस्कारों के अनुरूप ही मिलती है ; ये  संस्कार उसके मनोयोग से किए गये कर्मों द्वारा निश्चित होते हैं 

  जिनके  प्रभाव से निजात पाना जीवन-कल्याण के लिए आवश्यक है और यह उपाय धर्म ही है 

और इसी आवश्कता की पूर्ति के लिए आचरण मूलक व्रत किये गये 

वही धर्म के प्रारम्भिक प्रारूप थे. 

मनुष्य का जीवन स्वभाविकता के प्रवाह में वहता रहता है ! 

यह स्वाभाविकता प्रवृत्तियों में उसी प्रकार समायोजित है जैसे प्रकाश में चमक अथवा

पवित्रता में स्वच्छता  समाहित है |

स्वभाव जन्म से उत्पन्न गुण है जो मनुष्य के प्रारब्ध की गन्ध ही है और प्रवृत्तियाँ मनुष्य की योनि या जाति शरीर के अनुरूप ही होती हैं 

जाति शरीर का तात्पर्य है जैसे स्त्री जाति, गोजाति महिषी जाति, कुत्ता जाति अर्थात् समान प्रसवात्मिका प्राणी ही सजातीय हैं 

प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार  मस्तिष्क के सी▪पी▪ यू▪ में  (सिश्तम - साॅफ्तवेयर) के समान स्थाई  हैं

आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है 

आदत केवल (एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई  हैं  |

और यही  स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है  उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है 


आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है 

क्यों कि आदत मनुष्य स्वयं बनाता है जबकि स्वभाव स्वयं ही प्रारब्ध से बनता है !


आदत केवल (एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई  हैं  |

आदतें बनायी और बिगाड़ी जा सकती हैं परन्तु स्वभाव बनाया नहीं जा सकता है !

और यही  स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है  उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है !

मनुष्य के पापों का कारण केवल अहंकार  ही है 

अहंकार मनुष्य को एक एहसाश कराता है कि वह किस बिन्दु पर अपूर्ण या जरूरत मन्द है 

उसकी अपूर्णता ही उसे आवश्यकता  मूलक दृष्टि कोण प्रदान करती है 


सौन्दर्य भी केवल आवश्यकता मूलक दृष्टिकोण ही है 

महिलाओं की कोमलता पुरुष को सौन्दर्य बोध कराती 

क्यों कि पुरुष में कोमलता का अभाव और कठोरता का भाव होता है !


और इस अपूर्णता की पूर्ति के लिए जो भाव उत्पन्न होता है वह काम है काम आवेशमयी कामना आपूर्ति का प्रवाह है यहीं से पाप एक पेप ( जोश ) के रूप में उत्पन्न होकर 

ज्ञान को आच्छादित कर देता है 

संसार ज्ञानी और योगी भी सौन्दर्य विमोहित होकर पतित हो जाते है क्यों उनमें ईश्वर के प्रति समर्पण भाव अर्थात् भक्ति नहीं होती जबकि भक्त सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देता है कि क्या उसके लिए उचित है और क्या अनुचित 

तब उसका भटकना ते ईश्वर का भटकना ही है 


और ईश्वर तो कभी भटक ही नहीं सकता है 

और भक्ति वस्तुत: ज्ञान और कर्म का ही सम्यक् रूपानतरण है "


आपने पुराणों में ऋषियों के सुन्दरियों को देखकर स्खलित  अथवा कामपीड़ित होने के भी दृष्टान्त सुने होंगे परन्तु किसी निष्काम भक्त के विचलित होने प्रसंग नहीं सुने होंगे ! 


कृष्ण जी ने भगवत गीता को भागवत धर्म के प्रतिनिधि रूप में प्रकाशित किया जिसमें भक्ति योग का ही प्राधान्य है ..


दुनिया में केवल पाँच ही व्यक्ति सम्मान या प्रतिष्ठा के पात्र हैं   -१ धनी - २सुन्दर -३बलवान-४ वृद्ध इन्सान ५-ज्ञानी 

छठा व्यक्ति कौन हो सकता है 

भक्त जो सबसे श्रेष्ठ है उसका सम्मान दुनियाँ में नहीं होता  

और वह दुनियाँ के सम्मान का तलबदार भी नहीं है 

भक्त तो भगवान को भी वश में कर लेता है 

अहंकार ही  संसार है

संसार का स्वरूप अन्धकार है क्यों कि अन्धकार का कोई श्रोत नजर नहीं आता जबकि प्रकाश किसी न किसी श्रोत से उत्पन्न होता है |

सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकारो उन्मुख 

इसी स्वाभाविकता के  दौरान वह मनुष्य भी कभी मोह के भँवरों में लोभ के गोते खाता रहता है  और अन्त में डूब भी जाता है ...

स्वाभाविकता से प्रेरित मनुष्य पुण्य और पाप , सुख और दु:ख को भी क्रमश: पाता रहता है !

स्वाभाविकताओं का दमन ही संयम था और यही यम धर्म का अधिष्ठात्री देवता हुआ |

 जबकि अज्ञात शक्ति के प्रति विश्वास पूर्ण भावना आस्था या श्रृद्धा है जिसमें सात्विक अनुभतियों की महती भूमिका है 

यदि आस्था में  मनन या ज्ञान न हो तो वह आस्था अन्धी  है 

परन्तु आस्था जब हृदय की सात्विक अनुभूतियों का प्रतिफलन होती तभी वह ज्ञान की उद्भासिका होती है 

श्रृद्धा,  धर्म,  ज्ञान और भक्ति सभी तत्व सम्पूरक रूप में परस्पर निबद्ध हैं 

जैसे धर्म, अध्यात्म दर्शन आदि सभी का समन्वित रूप अध्यात्म है .🌻🌻

श्रृद्धा धर्म का यह प्रारम्भिक चरण है धर्म में केवल आत्मोत्थान  के लिए सदाचरण का भाव प्रमुख हो जाता है .

श्रृद्धा और धर्म हृदय- स्पन्दन और श्वाँस के समान परस्पर सम्पूरक हैं 

जैसे पुष्प में सुगन्ध और पराग होती ठीक वैसे ही श्रृद्धा से उत्पन्न जो ज्ञान होता है उसी से भक्ति उत्पन्न होती है 

भक्ति साधन नहीं साध्य है  क्यों कि यही ईश्वरीय सत्ता  की अनन्त अनुभूति कराती यह अनन्त अनुभूति विशाल से शूक्ष्मता के प्रति  अग्रसर अनुभूति है अहंकार की शून्यता  जहाँ अनिवार्य है 

स्व की व्यापकता और अनन्त के प्रति विलय अथवा आत्म समर्पण ही भक्ति है स्वाभिमान व अभिमान जैसे भाव भी इसमें नहीं होते हैं !

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क्यों कि अहं कर्म रूपी वृक्ष का आधार स्थल (थाँमला) है ।

क्यों कि अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है ।

और संकल्प से इच्छा और इच्छा कर्म की जननी है 

स्व का भाव ही वास्तविक आत्मा का सनातन रूप है जिसे स्वरूप कह सकते हैं ।

और अहं ही जीवन की पृथक सत्ता का द्योतक रूप है ।

जैसे-  संकल्प ज्ञान पूर्वक लिया गयी निर्णीत बौद्धिक दृढ़ता और हठ अज्ञानता पूर्वक लिया गयी मानसिक दृढ़ता है ।

परन्तु संकल्प अज्ञानता के कारण ही हठ में परिवर्तित हो जाता है ।

और इसी संकल्प का प्रवाह रूप इच्छा में रूपान्तरित हो कर्म के लिए प्रेरित करती है ।

और यह इच्छा ही प्रेरक शक्ति है कर्म की 

और कर्म ही इस प्रकार  जीवन और संसार का सृष्टा है।

महापुरुष बोले कि ये इच्छा क्यों उत्पन्न होती है ।

जब हमने थोड़ा से मनन किया तो हम्हें लगा कि इच्छा

संसार का सार है  संसार में मुझे द्वन्द्व ( दो परस्पर विपरीत किन्तु समान अनुपाती  स्थितियाँ के रूप में अनुभव हुईं

मुझे लगा कि "समासिकस्य द्वन्द्व च" 

ये श्रीमद्भगवत् गीता का यह श्लोकाँश पेश कर दो इन विद्वानों के समक्ष ।

मैंने कह दिया कि जैसे- नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनता है ।

उसी प्रकार ऋणात्मक और धनात्मक आवेश 

ऊर्जा उत्पन्न करते हैं ।

और इच्छा का भौतिक रूपान्तरण ही ऊर्जा है या शक्ति है 

मुझे लगा कि  अब हम सत्य के समीप आ चुके हैं 

मैने फिर कह दिया की काम कामना का रूपान्तरण है

पुरुष को स्त्रीयों की कोमलता में सौन्दर्य अनुभूति होती तो उनके हृदय में काम जाग्रत होता है ।

जो उन्हें आवेशित करता है 

और स्त्रीयों को पुरुषों की कठोरता में सौन्दर्य अनुभूति होती है।

जो उन्हें आवेशित करती है 

क्यों कि कोमलता का अभाव पुरुष में होने से 'वह कोमलता को सुन्दर मानते हैं ।

और स्त्रीयों में कठोरता का अभाव होने से ही वे मजबूत व कठोर लोगो को सुन्दर मानती हैं ।

और केवल जिस वस्तु की हम्हें जितनी जरूरत होती है ; 

वही वस्तु हमारे लिए उतनी ही उसी अनुपात में  ख़ूबसूरत होती है।

वस्तुत : यहाँं भी द्वन्द्व से काम या कामना  का जन्म हुआ है ।

 और कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है 

कर्म भारतीय सनातन संस्कृति की वह अवधारणा है ! जो

उन्हें  दुनियाँ के  आदिम द्रव- वेता  द्रविडो से व्याख्यायित रूप में  एक प्रतिक्रियात्मक प्रणाली के के माध्यम से कार्य-कारण के सिद्धांत की व्याख्या करती हुई प्राप्त हुई है, !!

जहां पिछले हितकर कार्यों का हितकर प्रभाव और हानिकर कार्यों का हानिकर प्रभाव प्राप्त होता है, जो पुनर्जन्म का एक चक्र बनाते हुए आत्मा के जीवन में पुन: अवतरण या पुनर्जन्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक प्रणाली की रचना करती है। ..

.....

कहा जाता है कि कार्य-कारण सिद्धांत न केवल भौतिक दुनिया में लागू होता है, बल्कि हमारे विचारों, शब्दों, कार्यों और उन कार्यों पर भी लागू होता है जो हमारे निर्देशों पर दूसरे किया करते हैं। 

जब पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है, तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है, या संसार से मुक्ति मिलती है।

चेतना के क्रमिक विकास का स्तर ही विभिन्न प्रकार की यौनियों का निर्धारक है .

कर्म व्युत्पत्ति का आधार मन का संकल्प- प्रवाह है संकल्प की गन्ध और इच्छाऔं का पराग से ही कर्म पुष्प का स्वरूप है जो भोग के फल का कारक है

किये गए कृत्यों के निर्णायक प्रतिफल के सन्दर्भ में आत्मा के देहांतरण या पुनर्जन्म का सिद्धांत ऋग्वेद में नहीं मिलता है।

 कर्म की अवधारणा सर्वप्रथम भगवद गीता

 (पञ्चम सदी ) में सशक्त शब्दों में प्रकट हुई।

काल परिवर्तन और कर्म क्रमशः वाष्प जल और हिम के सदृश्य विका - क्रम की श्रृंखला हैं ..

"कर्म" का शाब्दिक अर्थ है "काम" या "क्रिया" और भी मोटे तौर पर यह निमित्त और परिणाम तथा क्रिया और प्रतिक्रिया कहलाता है, जिसके बारे में प्रचीन भारतीयों का मानना है -------

जीवन एक पुष्प है प्रवृत्ति उसकी गन्ध ,तथा स्वभाव पराग के सदृश्य है 

इन्हीं गन्ध और पराग के द्वारा 

प्रारब्ध के फल का निर्माण होता है 

विचार - विश्लेषण ---- यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़..8077160219----सम्पर्क - सूत्र

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आस्था हृदय की आस्तिक अनुभूतियों से उत्पन्न सात्विक बुद्धि का प्रकाश ही है 

जिससे ईश्वर की अनन्त सत्ता का आभास होता है

जब अन्त: करण रूपी दर्पण  स्वच्छ हो जाता है 

तब ही ईश्वरीय ज्ञान बुद्धि पर परावर्तित होता है

और अन्त: करण सदाचरण से भी शनै: शनै: स्वच्छ हो जाता है तब भी यही होता है ! 

ये अहंकार ही व्यक्ति को सीमित करता है 

तब व्यक्ति समुद्र से बिन्दु बन जाता है !

आचरण में जब सात्विक भाव होता है तब 'वह सदाचरण होता है 

जबकि सभ्यता मानव आचरण का वह केवल भौतिक सामूहिक पक्ष है 

जो संस्कृति की कर्म समष्टि मूलक व्याख्या है 

जैसे व्यक्ति का व्यवहार उसके विचारों की व्याख्या है 

सभ्यता में अध्यात्म की अनिवार्यता नहीं है 

परन्तु नैतिकता सभ्यता का प्राण है 

क्यों कि जब आचरण में सद का भाव समाहित होता है तब 'वह धर्म रूप धारण करता है 

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परन्तु  आस्था अथवा श्रृद्धा का जन्म तो तभी हुआ जब मनुष्य अज्ञात शक्तियों के  चमत्कार के  प्रति  विश्वास पूर्ण भावना से नत- मस्तक हुआ और अपने अनिष्ट निवारण के प्रति उस अज्ञात शक्ति  से अनुनय -विनय करने के लिए क्रियाओं के रूप  में हुआ उद्यत हुआ ...

उसके अन्त:करण की अनुभूतियों ने उसकी आस्था को पुष्ट किया 

वाकई जिसके लिए कोई शब्द नहीं थे 

और धर्म का विकास अध्यात्म की उन साधाना मूलक क्रियाओं के रूप में हुआ है जिसके द्वारा व्यक्ति ने अपने मन के नियमन के लिए जिस सदाचरण को आधार बनाया ...

संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के नैतिक पूर्ण ढंग के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है।

अथवा कहें संस्कृति समाज के सामूहिक परम्परा गत रूप से आयात वैचारिक पक्ष ही है 

जबकि सभ्यता मानव का आचरण पक्ष है वह भी परम्परा गत ही है !

अंग्रेजी में संस्कृति के लिये (Culture)  'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है; जो यूरोपीय लैटिन भाषा के ‘कल्ट (Cult)  क्रिया से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। 

यूरोप में सोलहवीं सदी में इस शब्द का प्रयोग हुआ 

in 1610  Centuries , "worship, homage" (a sense now obsolete); 

1670 s, "a particular form or system of worship;" from French culte (17 century.),

 from Latin cultus "care, labor; cultivation, culture; worship, reverence," originally

 "tended, cultivated," past participle of colere "to till" (see colony).

The word was rare after 17c., 

but it was revived mid-19c. (sometimes in French form culte) with reference to ancient or primitive systems of religious belief and worship, especially the rites and ceremonies employed in such worship.

 Extended meaning "devoted attention to a particular person or thing" is from 1829.

Cult. An organized group of people, religious or not, with whom you disagree. 

[Hugh Rawson, "Wicked Words," 1993]

Cult is a term which, as we value exactness, we can ill do without, seeing how completely religion has lost its original signification. Fitzedward Hall, "Modern English," 1873]

1610 ईस्वी सन् में, "पूजा, श्रद्धांजलि"  आदि के अर्थ में  कल्चर शब्द का  प्रयोग हुआ (अब यह अप्रचलित अर्थ है )

1670, में "एक विशेष रूप या पूजा पद्धति; "के लिए फ्रेंच कल्टी (17 वीं सदी ) ।

 लैटिन कल्टस से "देखभाल, श्रम, साधना, संस्कृति, पूजा, श्रद्धा," मूल रूप से

 "झुके हुए , जुते हुए " colere के कृदंत" से कल्चर  ( हल चलाना) से निर्मित है कोलोनी शब्द भी कोलेयर से बना है  

यह शब्द 17 वीं सदी के बाद  दुर्लभ था।

लेकिन यह 19वी सदी में पुन: के मध्ययूरोप  में पुनर्जीवित किया गया था।

 ( जिसे कभी-कभी फ्रांसीसी रूप में सुसंस्कृत) धार्मिक विश्वास और पूजा की प्राचीन या आदिम प्रणालियों के संदर्भ में में कल्चर शब्द का प्रयोग  , विशेष रूप से ऐसे पूजा में नियोजित संस्कार और समारोह का समन्वित रूप संस्कृति कहते थे ।

 विस्तारित अर्थ "किसी विशेष व्यक्ति या चीज के लिए समर्पित ध्यान" यह अर्थ सन् 1829 से सन्दर्भित हुआ है 

(पंथ)कल्ट लोगों का एक संगठित समूह, धार्मिक या नहीं, जिनसे आप असहमत हैं।

"ह्यूग रॉसन, ने अपने कोश में इसे "दुष्ट शब्द, के रूप में प्रयोग किया जो इसके अर्थ पतन काक कारण है " 1993] 

पंथ एक शब्द है, जिसे हम सटीकता के रूप में महत्व देते हैं, हम बिना बीमार पड़े  नहीं रह सकते हैं, यह देखकर कि पूरी तरह से धर्म ने अपने मूल हस्ताक्षर को कैसे खो दिया है। 

फिट्जवर्ड हॉल, के अनुसार "आधुनिक अंग्रेजी, में" 1873]

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में कल्चर के अर्थ  धूमिल हो गये है 

अर्थात् मस्तिष्क रूपी क्षेत्र( खेत) की फसल या उपज है

विचारों का समष्टि रूप ही संस्कृति है ...

संस्कृत या वैदिक भाषा में कर्ष ( कृष् ) का अर्थ है जोतना ही है 

अन्य धातु कुल् भी है 
कुल् = संस्त्याने,बन्धुषु  च सन्ताने च

संस्त्यानं संघात

मस्तिष्क रूपी क्षेत्र की फसल या उपज है 

संस्कृति  का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है।
अत: 'वह अपने सुधार के प्रति अग्रसर रहा 

 यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है यही उसकी संस्कृति है । 

ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है। 

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विचारों का ही स्थूल रूप कर्म होता है

उसी प्रकार संस्कृति का स्थूल रूप सभ्यता है 

सभ्यता संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के शारीरिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। 

मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता।

 वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और हृदय भी है।

 भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और हृदय  तो अतृप्त ही बने रहते हैं 

इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे ही संस्कृति कहते हैं। 

मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए  वह आनन्द की अनुभूति करता है ...

आनन्द से उत्पन्न आनन्द उसकी आवश्यकता  है 

क्यों कि सौन्दर्य भी आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है 

और वह सौन्दर्य अनुभूति के लिए संगीतसाहित्यमूर्तिचित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। 

सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है।

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 इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। 

इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं के वैचारिक पक्ष का समावेश होता है।

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संस्कृति की अवधारणा

Etymology
From Latin colōnia (“colony”), 
from colōnus (“farmer; colonist”),
 from colō ( “till, cultivate, worship”)
, from earlier * quelō, from Proto-Indo-European -
 *kʷel- (“to move; to turn (around)”)
गृह ,देह ,श्रेष्ठ ,वंश त्रि० मेदिनी कोश ।
ऋग्वेद में कुलम् शब्द का प्रयोग मनुष्य निवास और वंशों के समन्वित रूप में हुआ
कुल
संस्त्याने,बन्धुषु च
संस्त्यानं संघात
.शब्द-साधन (व्युत्पत्ति)
लैटिन कोलोनिया ("कॉलोनी") से,
कोलोनस से ("किसान; उपनिवेशवादी"),
 कॉलो से ("जब तक, खेती, पूजा")
प्रोटो-इंडो-यूरोपियन से पहले के क्वाइलो से
 * kel- ("स्थानांतरित करने के लिए; मोड़ने के लिए (चारों ओर)")। 
संस्कृत केल्- चलने अर्थ में क्रिया देखें

संस्कृति जीवन जीने की विधि है।

 जो भोजन हम खाते हैं, जो कपड़े पहनते हैं, जो भाषा बोलते हैं और जिस भगवान की पूजा करते हैं, ये सभी सभ्यता कहलाते हैं; 

तथापि इनसे संस्कृति भी सूचित होती है। 

क्यों कर्म पहले मन से विचारों के रूप में उत्पन्न होता है 

सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं;

 और कार्य करते हैं।

 इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं।

 एक समाज वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। 

तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं।

इस प्रकार संस्कृति मानव जनित मानसिक पर्यावरण से सम्बंध रखती है जिसमें सभी अभौतिक उत्पाद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्रदान किये जाते हैं।

समाज-वैज्ञानिकों में एक सामान्य सहमति है कि संस्कृति में मनुष्यों द्वारा प्राप्त सभी आन्तरिक और बाह्य व्यवहारों के तरीके समाहित हैं। 

ये चिह्नों द्वारा भी स्थानान्तरित किए जा सकते हैं;

 जिनमें मानवसमूहों की विशिष्ट उपलब्धियाँ भी समाहित हैं। 

इन्हें शिल्पकलाकृतियों द्वारा मूर्त रूप प्रदान किया जाता है।

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 (वस्तुतः, संस्कृति का मूल केन्द्र-बिन्दु उन सूक्ष्म विचारों में निहित है जो एक समूह में ऐतिहासिक रूप से उनसे सम्बद्ध मूल्यों सहित विवेचित होते रहे हैं)। 

संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैं, जिनके माध्यम से लोग परस्पर सम्प्रेषण करते हैं, विचार करते हैं और जीवन के विषय में अपनी अभिवृत्तियों और ज्ञान को दिशा देते हैं।

संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि में हमारी अन्तःस्थ प्रकृति की अभिव्यक्त है। 

(संस्कृति और सभ्यता )

संस्कृति और सभ्यता दोनों शब्द प्रायः पर्याय के रूप में प्रयुक्त कर दिये जाते हैं।

 फिर भी दोनों में मौलिक भिन्नता है; और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं।

 संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज में निहित संस्कारों से है; और उसका निवास उसके मानस पटल में होता है। 

दूसरी ओर, सभ्यता का क्षेत्र व्यक्ति और समाज के बाह्य स्वरूप से है।

 जो शरीर पर व्यवहार रूप में प्रकट होता है 

 'सभ्य' का शाब्दिक अर्थ है, 'जो सभा में सम्मिलित होने योग्य हो'। 

इसलिए, सभ्यता ऐसे सभ्य व्यक्ति और समाज के सामूहिक आचरणगत स्वरूप को आकार देती है।

 सभ्यता को अंग्रेजी में 'सिविलाइज़ेशन' (civilization) कहते है; और कल्चर (culture) से उसका अन्तर स्पष्ट ही है। 

संस्कृति और सभ्यता में भी वही भेद है।

जो आत्मा और शरीर में अथवा सुगन्ध और पराग में  जो समाञ्जस्य है 

प्रारम्भ में मनुष्य आँधी-पानी, सर्दी-गर्मी सब कुछ सहता हुआ जंगलों में रहता था, शनैः-शनैः उसने इन प्राकृतिक विपदाओं से अपनी रक्षा के लिए पहले गुफाओं और फिर क्रमशः लकड़ी, ईंट या पत्थर के मकानों की शरण ली। 

अब वह अयस और सीमेन्ट की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण करने लगा है।

 प्राचीन काल में यातायात का साधन सिर्फ मानव के दो पैर ही थे।

 फिर उसने घोड़े, ऊँट, हाथी, रथ का आश्रय लिया। 

अब मोटर और रेलगाड़ी के द्वारा थोड़े समय में बहुत लम्बे फासले तय करता है, हवाई जहाज द्वारा आकाश में भी उड़ने लगा है। 

पहले मनुष्य जंगल के कन्द, मूल और फल तथा आखेट से अपना निर्वाह करता था। 

बाद में उसने पशु-पालन और कृषि के आविष्कार द्वारा आजीविका के साधनों में उन्नति की। 

पहले वह अपने सब कार्यों को शारीरिक शक्ति से करता था। 

पीछे उसने पशुओं को पालतू बनाकर और सधाकर उनकी शक्ति का हल, गाड़ी आदि में उपयोग करना सीखा।

 अन्त में उसने हवा पानी, वाष्प, बिजली और अणु की भौतिक शक्तियों का विश्लेषण   करके ऐसे यन्त्र आविष्कार किये , जिनसे उसके भौतिक जीवन में काया-पलट हो गई। 

मनुष्य की यह सारी प्रगति सभ्यता कहलाती है।

‘सभ्यता’ का अर्थ है जीने के बेहतर तरीके है 

 इसके अन्तर्गत समाजों को राजनैतिक रूप से परिभाषित वर्गों में संगठित करना भी सम्मिलित है जो भोजन, वस्त्र, संप्रेषण आदि के विषय में जीवन स्तर को सुधारने का प्रयत्न करते रहते हैं। 

इस प्रकार कुछ वर्ग अपने आप को अधिक सभ्य समझते हैं, और दूसरों को हेय दृष्टि से देखते और असभ्य समझते हैं।

 कुछ वर्गों की इस मनोवृत्ति ने कई बार संघर्षों को भी जन्म दिया है जिनका परिणाम मनुष्य के विनाशकारी विध्वंस के रूप में हुआ है।

सभ्यता का अर्थ अब आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियो का मानक है ...

इसके विपरीत, संस्कृति आन्तरिक अनुभूति से सम्बद्ध वैचारिक पक्ष है जिसमें मन और हृदय की पवित्रता निहित है। 

परन्तु अब पवित्रता नहीं स्वच्छता  विद्वता नहीं अपितु चालाकी है |

इसमें कला, विज्ञान, संगीत और नृत्य और मानव जीवन की उच्चतर उपलब्धियाँ सम्मिलित हैं जिन्हें 'सांस्कृतिक गतिविधियाँ' कहा जाता है।

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 एक व्यक्ति जो निर्धन है, सस्ते वस्त्र पहने है, वह असभ्य तो कहा जा सकता है परन्तु वह सबसे अधिक सुसंस्कृत व्यक्ति भी कहा जा सकता है। 

एक व्यक्ति जिसके पास बहुत धन है वह सभ्य तो हो सकता है पर आवश्यक नहीं कि वह सुसंस्कृत भी हो। 

अत: संस्कृति और सभ्यता अब बिखर कर रह गये हैं

अतः जब हम संस्कृति के विषय में विचार करते हैं तो हमें यह समझना चाहिए कि यह सभ्यता से अलग है। 

संस्कृति मानव के अन्तर्मन का उच्चतम वैचारिक स्तर है।

 जबकि सभ्यता  शरीर से सम्बद्ध  भौतिक सुविधा का मानक है परन्तु मानव केवल शरीरमात्र नहीं हैं।

 वे तीन स्तरों पर जीते हैं और व्यवहार करते हैं - भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक। 

शरीर मन और आत्मा 

जबकि सामाजिक और राजनैतिक रूप से जीवन जीने के उत्तरोत्तर उत्तम तरीकों को तथा चारों ओर की प्रकृति का बेहतर उपयोग ‘सभ्यता’ कहा जा सकता है परन्तु सुसंस्कृत होने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। 

जब एक व्यक्ति की बुद्धि और अन्तरात्मा के गहन स्तरों की अभिव्यक्ति होती है तब हम उसे ‘संस्कृत’ कह सकते हैं।

आज की सभ्यता केवल फर्जी मुखौटों के दौर में गुम हो गयी है 

विचार और भावों के अनुरूप आचरण आज व्यक्ति कभी करता नहीं ! 

जब वह अक्सर मंच या सामाजिक रूप में मुखातिब होता हैं तब आदमी मुखौटा ही लगाता है|

 उसकी फर्जी मुस्कराहटों और फर्जी आहटों से अपनी औपचारिक प्रस्तुति दर्ज कराता है  ;उसकी कृत्रिम नम्रता आदि सभी उसके सभ्य होने के प्रतिमान हैं ..

योग एक आध्यात्मिक प्रकिया है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (संयुक करने ) का काम होता है।

 यह शब्द -धैर्य  प्रक्रिया और धारणा की स्थिरता ये सम्बद्ध है -  ये ध्यान प्रक्रिया से सम्बन्धित है। 

योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत में लोग इससे परिचित 

 भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, सन्यासयोग, कर्मयोग। 

वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। 

जो मनोनियन्त्रण के बल पूर्वक किये गये उपक्रम थे

‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।

 इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।

 वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा।

जो धर्म के सन्निकट है 

गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योगः कर्मसु कौशलम्‌' ( कर्मों में कुशलता ही योग है।)

 पतञ्जलि ने योगसूत्र में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', 

चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। 

इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

प्रवृत्तियों के निर्देशन में मन  इन्द्रियों के विभिन्न कार्यों के लिए प्रेरित कराता है 

और काम प्रवृत्ति सबसे प्रबल है स्वाभाविकता की. धारा में प्रवृत्तियों के वेग का निरोध कर इसके विपरीत चलने का उपक्रम योग या धर्म है।

 योगस्थः कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

(१) पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृतिनिरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

(२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्

मन के विकारों की प्रतिक्रिया स्वरूप धर्म का विकास 

मनो नियमन की क्रियाओं से हुआ  था 

यम को धर्म का अधिष्ठात्री देवतावत माना गाया है 

भारती स्मृतियों (धर्म शास्त्रों ) में आहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, अकल्कता और अस्तेय ये पाँच यम कहे हैं। 

परन्तु  पारस्कर गृह्यसूत्र में तथा और भी अन्य  ग्रंथों में इनकी संख्या दस कही गई है और नाम इस प्रकार दिए हैं।

— ब्रह्मचर्य, दया, क्षांति, ध्यान, सत्य, अकल्कता, आहिंसा, अस्तेय, माधुर्य और मय।

 'यम' योग के आठ अंगों में से पहला अंग है।

चित्त की वृत्तियो या प्रवृत्तियों  का निरोध योग है और यम योग के प्रमुख चरण में से एक  है 

धर्म में भी व्यक्ति तप रूपी सदाचरण का पालन स्वाभाविकता का दमन करके ही करता है ..

स्वाभाविकता को दबाकर ही हम दूसरों के समाने

सभ्य दिखाने के लिए आचरण करते हैं 

जैसे हम कहीं घर से बाहर जाते हैं तब 

यम के अन्तर्गत 

पांच सामाजिक नैतिकता हैं

(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना

(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना

(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना

(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं-

चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना

(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना

नियम

पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि

(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना

(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना

(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना

(ड़) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए

संसार की दरिया को पापर करने के लिए तैरना हीह पड़ेगा तैरना में स्वाभाविकता के वेगों का दमन करके ही तो  हम तैर पाऐंगे जिसमें 

संसार की दरिया में लोभ के गोतों और मोह के अथाह भँवर देखे 

मन को स्वाभाविकता से प्रेरित जानकर साधक ने मन के विरुद्ध भी विद्रोह कर दिया !

उपनिषदों में यही निर्देश है कि मन को बुद्धि या योग से वश में करें 🌻

ये यम ,नियम और संयम ही धर्म के आधार स्तम्भ हैं 

धर्म वस्तुत: स्वाभविकता के दमन या संयम की ही प्रक्रिया है ; क्यों कि जिसने स्वाभाविक धाराओं के विपरीत तैरने की कोशिश की है वही पार हुआ है और धर्म स्वाभाविकताओ का दमन का ही नाम है 

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फिर कालान्तरण में पुरोहितों ने स्वभाव को ही धर्म माना परिणाम यह हुआ कि समाज का घोर नैतिक पतन हुआ कृष्ण ने धर्म को एक नदी की धाराओं के विरुद्ध प्लावन या तैरने की क्रिया कहा जो कि सत्य ही है !

 कृष्ण का और बुद्ध तथा महावीर का भी धर्म मार्ग स्वाभाविकता का दमन ही था 

जिसे उन्होंने तप या  योग कहा

न कि स्वाभाविकता को धर्म माना

भारतीय पुराणों में अनेक स्थलों पर धर्म को किसी ऐसे देव याय शक्ति  के रूप में दर्शाया गया है जो न्याय और प्राकृतिक व्यवस्था की प्रतिमूर्ति है जिसे यम नाम दिया गया ...

 इसी प्रकार, यम को 'धर्मराज' कहा जाता है क्योंकि वे मनुष्यों को उनके कर्म के अनुसार निर्णय करके गति देते हैं।

संयम के भाव के कारण ये यम हैं 

  तत्व-वेत्ताओं ने  उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, 
और उसके शरीर के मध्य का संबंध को स्पष्ट करते हुए कहा है ।

 देखें संबंधित आख्यान में यम देवता के अवलम्बन से निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन की सार्थक: उपमा अथवा रूपक के सूचक हैं ! 
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  आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
 बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।३

 (कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
 (आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)

 इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो । 
(लगाम – 
इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु, 
अगले मंत्र में उल्लेख 
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 इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। ४

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४) 
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)

 मनीषियों, या विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
 इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीर रूपी रथ का भोग करने वाला बताया है
प्राचीन समय में रथ यातायात के साथन के रूप में मान्य था  चरत् शब्द रूप से रथ का विकास हुआ 🌻🌺

  प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है । 
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा  किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें ।

क्यों ये आत्मा को स्थाई तुष्टि देने वाला नहीं था 
और उन साधकों की जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही ।
 
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं । 
 उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं ।
जो वस्तुत: मन के ही विकल्प हैं आत्मा के नहीं
 मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है । 
सांख्य दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः 
पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात्  जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्या करता है, 
जो सुख या दुःख के तौर पर । 

इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।

 किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के उन पर हुए नियंत्रण पर निर्भर रहता है ।

 इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से चिन्तन रहा है ।
 उक्त मंत्रों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है ।
इस लिए मन को ज्ञान से जीतना चाहिए

 इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा 
बुद्धि रूपी सारथी नियंत्रण रखता है !
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स्वभाव भी मानव प्रवृत्तियों के अनुरूप उन्हीं का परिणाम है स्व भाव प्रवृत्तियों का अनुगामी है 

ये मनुष्य को जन्म से प्राप्त शरीर तथा प्राणी की जाति गत निर्धारक तत्व है जैसे सभी कुत्ते चरणोत्थान कर मूत्र विसर्जन क्रिया सम्पन्न करते हैं सभी वानर आँख दिखाकर घुडंकी लगाते हैं 

ऐसे ही सभी कौए प्रात: पूरब दिशा से पश्चिम की और या सूर्य की विपरीत दिशा में भोजन की तलाश में दूर तक जाते हैं ये इनकी प्रवृत्तियाँ ही हैं 🌻💂

जिन्हें हम इनका (सिस्तत साॅफ्टटवेयर) मान भी  सकते हैं __________

वास्तव नें धर्म को स्वभाव जन्य क्रिया के रूप में परिभाषित करना लोगों का चरित्र पतन करना सिद्ध हुआ 

परन्तु जब समय के अन्तराल से पुरोहितों ने धर्म को स्वभाव तक ही परिभाषित किया 

प्रवृत्ति , देश काल और परस्थितियों के अनुरूप धर्म की व्याख्याऐं भी होती रही हैं कृष्ण के युग से लेकर बुद्ध

के युग तक पुरोहितों ने धर्म की विवेचनाऐं स्वभाव मूलक की हैं पुरोहितों ने स्वभाव जन्य कर्मों को ही धर्म माना 

अधिकतर रूपों में धर्म को एक स्वभाव जन्य सत्ता के रूप में पुरोहितों द्वारा मान्य किया गया जैसे👇

वर्ण- व्यवस्था काल में धर्म का अर्ध बदल गया 

किसी वस्तु या व्यक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो वही उसका धर्म है । 

जैसे सुगन्ध या दुर्गन्ध पुष्प का धर्म है 

इन अर्थों में  प्रकृति, स्वभाव, नित्य प्रवृत्तियाँ ही धर्म हैं  । 

जैसे, नेत्र का धर्म देखना, शरीर का धर्म भोजन द्वारा पोषण और तो और  सर्प का धर्म काटना , दुष्ट का धर्म दुःख देना । 

इन अर्थों में भी धर्म परिभाषित हुआ 

विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । देखें निम्न ऋचा

त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। 

अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥

पद पाठ

त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः।

 अदा॑भ्यः। अतः॑। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न्॥

धर्मों को धारण करते हुए वह तीन पदों से गोप रूप में विचरण करते हैं 

ऋग्वेद » मण्डल:1»  /सूक्त:22»/ ऋचा 18 .

यदि (अद् = बन्धने )धातु से अदाभ्य: क्रिया पद ग्रहण किया जाए तो अर्थ होगा जो धर्म में बाँध कर सबको धारण करता है |

अर्थात् प्राणी प्रवृत्तियों के अनुरूप व्यवहार करता रहता है

पदार्थान्वयभाषाः -जिस कारण यह दम्भ:(अदाभ्यः) जिस मारा न जा सके ...या संसार को धर्म में बाँधने वाला 
(गोपाः) और गायों की रक्षा करनेवाला, सब जगत् को (धारयन्) धारण करनेवाला (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन प्रकार के (पदानि) चरणों से  (विचक्रमे) गमन करता है,
 (धर्माणि) धर्मों को धारण कर सकते हैं॥१८॥

वामन अवतार के विष्णु का यही ऋचा आधार है
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दम्भ ण्यत् नलोपोपधावृद्धी नञ् तत्पुरुष  ।
 अहिंस्ये । 
“यत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृवीति यजुर्वेद ७/ २, हे सोम ! ते त्वदीयमहिसितं जागृवि जागरणशीलमिति वेददीपः ।
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यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।

समय के सापेक्ष धर्म की अर्थवत्ता के आयामों का विस्तार भी हुआ 

अलंकार शास्त्र में वह गुण या वृत्ति जो उपमेय और उपमान में समान रूप से हो धर्म है  ।

 वह एक सी बात जिसके कारण एक वस्तु की उपमा दूसरी से दी जाती है ।

 जैसे, कमल के ऐसे कोमल और लाल चरण, इस उदाहरण में कोमल चरण और ललाई साधारण धर्म है ।

 किसी मान्य ग्रन्थ, आचार्य या ऋषि द्वारा  निर्दिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्ति  के अर्थ में किया जाय ।

 वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो ।

 जैसे, अग्निहोत्र । यज्ञ, व्रत, होम इत्यादि ।

 शुभ दृष्टि ।

 विशेष—मीमांसा के अनुसार वेद विहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान ही धर्म है । 

जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है ।

 संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है ।

 कर्मकांड़ का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे ।

 यद्यपि  श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड ही की ओर था । 

वह कर्म जिसका करना किसी संबंध, स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो । 

वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो ।

जैसे वर्णाश्रम धर्म 

 वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिए करना चाहिए । 

किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार । 

कर्तव्य अथवा फर्ज ही धर्म है  जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि ।

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पुष्य मित्र सुँग काल में निर्मित ग्रन्थों में

 विशेषत:—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिए पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद्र के लिये तीनों वणों की सेवा करना ही धर्म है । 

जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्वारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद् धर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार किसी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है,

 जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय—वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का आपत्काल में भी निषेध है ।

 इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यासी इनके धर्मो का भी अलग अलग निरूपण किया गया है । जैसे ब्रह्मचारी के लिये स्वाध्याय, भिक्षा माँगकर भोजन, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना, गुरु की सेवा करना इत्यादि ।

 गृहस्थ के लिये पंच महायज्ञ, बलि अतियियों को भोजन और भिक्षुक, संन्यासियों आदि को भिक्षा देना इत्यादि । वानप्रस्थ के लिये सामग्री सहित गृह अग्नि को लेकर वन में वास करना, जटा, लक्ष श्मश्रु आदि रखना भूगि पर सोना, शीत- ताप सहना, धग्निहोत्र दर्शपौर्ण मास बलिकर्म आदि करना इत्यादि । 

संन्यासी के लिए सब वस्तुओं को त्याग अग्नि और गृह से रहित होकर भिक्षा द्वारा  निर्वाह करना, नख आदि को कटाए और दड कमंडलु लिए रहना । 

यह तो वर्ण और आश्रम के अलग अलग धर्म हुए । इन दोनों के संयुक्त धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं । 

जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचारी का पलाशदंड़ धारण करना ।

 जो धर्म किसी गुण या विशेषता के कारण हो उसे गुणधर्म कहते हैं—

जैसे जिसका शास्त्रोक्त रीति से अभिषेक हुआ हो, उस राजा का प्रजापालन करना ।

 निमित्त धर्म वह है जो किसी निमित से किया जाय ।

 जैसे शास्त्रोक्त कर्म न करने वा शास्त्रविरुद्ध  करने पर प्रायश्चित करना । 

इसी प्रकार के विशेष धर्म कुलधर्म, जातिधर्म आदि है ।

धर्म  वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो ।

 वह आचार जिससे समाज की रक्षा और सुख शांति का वृद्धि हो तथा परलोक में भा उत्तम गति मिले ।

 कल्याण कर्म । सुकृत । सदाचार । श्रेय । पुण्य । सत्कर्म आदि धर्म हैं ।

 विशेष—स्मृतिकारौ ने वर्ण, आश्रम, गुण और निमित्त धर्म के अतिरिक्त साधारण धर्म भी कहा है जिसका मानना । 

ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक के लिये समान रूप से आवश्यक है ।

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 मनु स्मृति  में  वेद, स्मृति, साधुओं के आचार और अपनी आत्मा की तुष्टि को धर्म का साक्षात् लक्षण बताकर साधारण धर्म में दस बातें कहीं हैं—धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच इंद्रिय-निग्रह, धी, विधा, सत्य और अक्रोध । 

मनुष्य मात्र के लिये जो सामान्य धर्म निरूपित किया गया है ।

 वही समाज को धारण करनेवाला है, उसके बिना समाज की रक्षा नहीं हो सकती ।

 मनुस्मृति में  कहा है कि रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है ।

 अतः प्रत्येक सभ्य देश के जनसमुदाय के बीच श्रद्बा भक्ति, दया प्रेम, आदि चित्त की उदात्त मनो- वृतियों से संबंध रखनेवाले परोपकार धर्म की स्थापना हुई है, 

 उन्होंने इस धर्म का लक्षण यह बताया है कि जिस, कर्म से अधिक मनुष्यों की अधिक सुख मिले वह धर्म है ।

बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म को शील कहा गया है 

शील स्वभाव का वाचक है । 

जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है ।

  किसी आचार्य या महात्मा द्वारा प्रवर्तित ईश्वर, परलोक आदि के संबंध में विशेष रूप का विश्वास ओर आराधना की विशेष प्रणाली । 

उपासनाभेद । मत । संप्रदाय । पंथ । मजहब । 

 विशेष—इस अर्थ मे इस शब्द का प्रयोग प्राचीन नहीं है । . परस्पर व्यवहार संबंधी नियम जिसका पालन राजा, आचार्य या मध्यस्थ द्वारा ।  

दायविभाग, सीमाविवाद, ऋणादान, दंडयोग्य अपराध आदि सब विषय अर्थात् दीवानी और फौजदारी के सब मामलें व्यवहार के अंतर्गत हैं ।

 राजसभामें या धर्माध्यक्ष के सामनें इन सब व्यवहारों (मुक- दमों) का निर्णय होता था । 

 उचित अनुचित का विचार करनेवाली चित्तवृत्ति । न्याय- बुद्धि । विवेक । ईमान ।

 धर्मराज । यमराज ।

अन्य अर्थों का विकास 

.1- धनुष । कमान ।

. 2-सोमपायी । 

. 3-वर्तमान अवसर्पिणी के १५ वें अर्हत् का नाम (जैन) । 

. 4-जन्मलग्न से नवें स्थान का नाम जिसके द्वारा यह विचार किया जाता है कि बालक कहाँ तक भाग्यवान् और धार्मिक होगा ।

 . 5-युधिष्ठिर । धर्मराज (को०) । 

. 6-सत्संग (को०)। १६. प्रकृति । स्वभाव । तरीका । ढंग । 

. 7-आचार (को०) । १८. अहिंसा (को०) । 

. 8-एक उपनिषद् (को०) । 

. 9-आत्मा (को०) ।

 . 10-निष्पक्ष होने का भाव या स्थिति (को०) । 

 11-समाज में किसी जाति, कुल, वर्ग आदि के लिए उचित ठहराया हुआ व्यवसाय, कर्त्तव्य;

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 यूरोपीय भाषाओं में धर्म शब्द कई रूपों मे दृष्टि गोचर- हुआ 👇

in 1550 Senturies, "goal, end, final point," from Latin terminus (plural termini) 

"an end, a limit, boundary line," from PIE *ter-men- "peg, post," from root *ter-, base of words meaning "peg, post; boundary, marker, goal"

 (source also of Sanskrit tarati "passes over, crosses over," tarantah "sea;"

संस्कृत में धार तार तारण आदि भावों का द्योतक धर्म है 

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 Hittite (tarma-) "peg, nail," tarmaizzi 

"he limits;" 

हित्ती भाषा में धर्म तर्मा केक रूप में है जो मर्यादा का वाचक है 

Greek  (Terma)"boundary, end-point, limit," (termon) "border;" 

ग्रीक भाषा में (टर्मा) के रूप में मर्यादा याय सीमा का वाचक है 

Gothic þairh (थेरह), 

Old English þurh (दुरह) "through;" 

Old English þyrel थिरेल  "hole;" 

Old Norse þrömr थ्रोमर "edge, chip, splinter").

 "The Hittite noun and the usage in Latin suggest that the PIE word denoted a concrete object which came to refer to a boundary-stone." [de Vaan]

हित्ती संज्ञा और लैटिन में उपयोग से पता चलता है कि पीआईई (प्रोटो इण्डो यूरोपीयन)शब्द  है जो एक ठोस वस्तु को निरूपित करता था जो एक सीमा-पत्थर का उल्लेख करने के लिए आया था। "[दे वान]

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In ancient Rome, Terminus was the name of the deity who presided over boundaries and landmarks, focus of the important Roman festival of Terminalia 

(held Feb. 23, the end of the old Roman year). 

The meaning "either end of a transportation line" is first recorded 1836.

प्राचीन रोम में, टर्मिनस और टर्मिनल के रूप में महत्वपूर्ण रोमन त्योहार का ध्यान केंद्रित करने वाले सीमाओं और स्थलों की अध्यक्षता करने वाले देवता के रूप नामित था

( जिसका 23 फरवरी को, पुराने रोमन वर्ष का अंत हुआ था )।

 टर्मिनल के रूप "परिवहन लाइन के दोनों छोर" का अर्थ पहली बार 1836 दर्ज किया गया है।🌻

through (preposition , adv.)

late 14c., metathesis of Old English þurh, (दुरह )from Proto-Germanic *thurx (source also of Old Saxon thuru, 

Old Frisian thruch

Middle Dutch dore

Dutch door

Old High German thuruh

German durch

Gothic þairh "through"), 

from PIE root *tere- (2) "to cross over, pass through, overcome." 

Not clearly differentiated from thorough until early Modern English. 

Spelling thro was common 15c.-18c. Reformed spelling thru (1839) is mainly American English

के माध्यम से (प्रस्ताव, adv।)

14 सदी में । देर से, प्रोटो-जर्मेनिक * थर्क्स (ओल्ड सेक्सन थुरु, 

ओल्ड वेस्टर्न थ्रूच, 

मिडल डच डोर, 

डच डोर, 

ओल्ड हाई जर्मन थोरुह, 

जर्मन डर्क, गोथिक þ(thorn) थएयरह "के माध्यम से")) PIE रूट से * (tere- (2) "को पार करने के लिए, पार करना, पार करना।" स्पष्ट रूप से आधुनिक अंग्रेजी तक पूरी तरह से अलग नहीं है। स्पेलिंग थ्रो आम 15c.-18c था।

 रिफॉर्म्ड स्पेलिंग थ्रू (1839) मुख्य रूप से अमेरिकी अंग्रेजी है।

सन् 1550 में, "लक्ष्य, अंत, अंतिम बिंदु," लैटिन टर्मिनस (बहुवचन टर्मिनी) से सम्बद्ध है

"एक छोर, एक सीमा, सीमा रेखा," पाई (धातु ) * टेर-मेन से - "खूंटी, पद," जड़ * स्थ- से, शब्दों का आधार "खूंटी, पद, सीमा, मार्कर, लक्ष्य" आदिआद आदिरूपों में धर्म शब्द ही है 

 (संस्कृत तारति का भी यही स्रोत है "ऊपर से होकर गुजरता है,  

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 हित्ती सुसमेरियन भाषा में  तर्मा- "खूंटी, कील," तर्मज़ी "वह सीमित करता है;" आदि अर्थों में

ग्रीक शब्द टर्म  "सीमा, अंत-बिंदु, सीमा," 

गॉथिक othair, पुरानी अंग्रेज़ी "urh "के माध्यम से;"

पुरानी अंग्रेज़ी Englishyrel "छेद;"

ओल्ड नॉर्स mrömr "एज, चिप, स्प्लिन्टर")।

पुरानी फारसी में दार, दारा जैसे शब्द धर्म के रूप है 

 "हित्त संज्ञा और लैटिन में उपयोग का सुझाव है कि पीआईई शब्द ने एक ठोस वस्तु को निरूपित किया जो एक सीमा-पत्थर का उल्लेख करने के लिए आया था।" [दे वान]

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(द्वित्तीय अध्याय)

यह लेख आधुनिक नए धार्मिक आंदोलन के बारे में है।

सेल्टिक धर्म के लौह युग के पुजारियों के लिए, ड्र्यूड देखें 

(Druidry) , जिसे कभी-कभी Druidism भी कहा जाता है , एक आधुनिक आध्यात्मिक या धार्मिक आंदोलन है जो आम तौर पर प्राकृतिक दुनिया के लिए सद्भाव, संबंध और श्रद्धा को बढ़ावा देता है। यह आमतौर पर पर्यावरण सहित सभी प्राणियों के सम्मान को शामिल करने के लिए बढ़ाया जाता है।

आधुनिक Druidry के कई रूप आधुनिक Pagan धर्म हैं, हालाँकि अधिकांश आधुनिक Druids ईसाई के रूप में पहचाने जाते हैं ।

 18 वीं शताब्दी के दौरान ब्रिटेन में उत्पन्न, ड्रुइड्री मूल रूप से एक सांस्कृतिक आंदोलन था, जो केवल 19 वीं शताब्दी में धार्मिक या आध्यात्मिक अर्थ प्राप्त कर रहा था।

पर Druids के एक समूह ने स्टोनहेंज में विल्टशायर , इंग्लैंड

ब्रिटनी के ग्रैंड ड्र्यूड ग्वेनसहलान ले स्कोयेज़ेक वेल्स के Archdruid और कॉर्नवाल के महान Bardess से घिरा केंद्र में खड़ा है, के सौवें वर्षगांठ के समारोह में ब्रिटनी के Gorseth में Hanvec , वर्ष 1999।


Druidry का मुख्य सिद्धांत प्रकृति का सम्मान और वंदना है, और जैसे कि इसमें अक्सर पर्यावरण आंदोलन में भागीदारी शामिल होती है । 

आधुनिक ड्र्यूड्स के बीच एक और प्रमुख विश्वास पूर्वजों, विशेष रूप से जो प्रागैतिहासिक समाजों के थे की वंदना है।

ब्रिटेन में 18 वीं शताब्दी के रोमांटिकतावादी आंदोलन से उत्पन्न , जिसने लौह युग के प्राचीन सेल्टिक लोगों को गौरवान्वित किया , प्रारंभिक नव-ड्र्यूड्स का उद्देश्य लौह युग के पुजारियों की नकल करना था जिन्हें ड्र्यूड के रूप में भी जाना जाता था ।

उस समय, इन प्राचीन पुजारियों के बारे में बहुत कम सटीक जानकारी थी, और कुछ आधुनिक ड्र्यूड्स द्वारा किए गए विपरीत दावों के बावजूद, आधुनिक ड्र्यूडिक आंदोलन का उनसे कोई सीधा संबंध नहीं है।

18 वीं सदी में, आधुनिक Druids पर मॉडलिंग भाईचारे संगठनों विकसित फ़्रीमासोंरी कि ब्रिटिश और Druids के रोमांटिक चरित्र कार्यरत Bards के स्वदेशी आध्यात्मिकता के प्रतीक के रूप में प्रागैतिहासिक ब्रिटेन

 इन समूहों में से कुछ विशुद्ध रूप से भ्रातृ और सांस्कृतिक थे, जैसे कि सबसे पुराना जो अवशेष है, 1781 में स्थापित प्राचीन ऑर्डर ऑफ ड्राइड्स , ब्रिटेन की राष्ट्रीय कल्पना से परंपराओं का निर्माण करता है। 

20 वीं शताब्दी की शुरुआत में अन्य, भौतिक संस्कृति आंदोलन और अतिवाद जैसे समकालीन आंदोलनों में विलीन हो गए ।


1980 के दशक के बाद से, कुछ आधुनिक ड्र्यूड समूहों ने सेल्टिक रिकंस्ट्रक्शनिस्ट बुतपरस्ती के समान तरीकों को अपनाया हैअधिक ऐतिहासिक रूप से सटीक अभ्यास बनाने के प्रयास में।


हालाँकि, इस पर अभी भी विवाद है कि आधुनिक द्रुमवाद कितना समानता वाला है या आयरन एज ड्र्यूड्स का हो सकता है।

परिभाषा

आधुनिक ड्र्यूड्री ने अपना नाम लौह युग के विभिन्न ग्रीको-रोमन स्रोतों से संदर्भित किया है, जैसा कि उन्नीसवीं शताब्दी के चित्रण में यहां दर्शाया गया है।

आधुनिक ड्र्यूड्री का नाम लौह युग पश्चिमी यूरोप के मजिको-धार्मिक विशेषज्ञों से लिया गया है, जिन्हें ड्र्यूड्स के रूप में जाना जाता था । 

 लौह युग यूरोप और आधुनिक ड्र्यूड्स के बीच कोई वास्तविक ऐतिहासिक निरंतरता नहीं है।

हालाँकि, कुछ ड्रूड्स आधुनिक ड्र्यूड्री को लौह युग के ड्रूड की वास्तविक निरंतरता के रूप में मानते हैं।

18 वीं शताब्दी के कुछ स्रोतों जैसे कि इओलो मोर्गनवग ने जो दावा किया था वह शुरुआती वेल्श साहित्यिक स्रोत और परंपराएं थीं, जिन्हें प्रागैतिहासिक ड्राइड्स के लिए माना जाता था।

Gorsedd , 18 वीं सदी परंपराओं कि Morganwg द्वारा स्थापित किया गया में से एक 12 वीं सदी का हिस्सा बन गया Eisteddfod त्योहार।
आधुनिक ड्रुइड्री की चिंताओं में - जिसमें ग्रह को ठीक करना और प्राकृतिक दुनिया के साथ संबंध बनाना शामिल है - संभवतः उन लौह युग के समाजों से अलग हैं जिनमें मूल ड्र्यूड रहते थे।


 जेम्स मैकफर्सन द्वारा प्रकाशित अन्य १ 6 वीं सदी के निर्माण जैसे कि प्राचीन कविता के अंश1760 और 1763 के बीच।
कविताएँ बेहद लोकप्रिय थीं; वे वोल्टायर , नेपोलियन और थॉमस जेफरसन सहित अवधि के कई उल्लेखनीय आंकड़ों द्वारा पढ़े गए और कविता की गुणवत्ता ने होमर के साथ समकालीन तुलनाओं को प्रेरित किया । 


यद्यपि प्राचीन अर्ध-पौराणिक कवि ओस्सियन के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है , लेकिन यह माना जाता है कि इन कृतियों को स्कॉटलैंड की मौखिक परंपराओं को फिर से बनाने की कोशिश करने वाले एक कुशल मैकफर्सन द्वारा रचित किया गया है।

वर्तमान में लौह युग ड्र्यूड्स के बारे में सब कुछ पुरातात्विक साक्ष्य और ग्रीको-रोमन पाठ्य स्रोतों से प्राप्त होता है, न कि इन ड्र्यूड द्वारा निर्मित सामग्री के बजाय। 

लौह युग ड्र्यूड्स के बारे में ज्ञान की कमी के कारण, उनके विश्वास प्रणाली का सही पुनर्निर्माण नहीं किया जा सकता है।

 कुछ ड्रूड्स में उन सभी चीजों को शामिल किया गया है जो उनके व्यवहार में लौह युग के ड्रूड्स के बारे में जाना जाता है।
हालाँकि, जैसा कि धर्म के विद्वान जेनी बटलर ने उल्लेख किया है, लौह युग धर्म की ऐतिहासिक वास्तविकताओं को अक्सर ड्रूयड्स द्वारा "एक अत्यधिक रोमांटिक संस्करण" के पक्ष में अनदेखा किया जाता है।

कई ड्र्यूड्स का मानना ​​है कि वर्तमान युग की जरूरतों को पूरा करने के लिए लौह युग ड्र्यूड्स की प्रथाओं को अभी तक संशोधित किया जाना चाहिए। 

 आयरलैंड में, कुछ ड्र्यूड्स ने दावा किया है कि क्योंकि इस द्वीप पर कभी रोमन साम्राज्य की जीत नहीं हुई थी , यहां लौह युग के ड्रूइड बच गए और उनकी शिक्षाओं को आधुनिक समय तक आनुवंशिक रूप से नीचे पारित किया गया, जिस पर आधुनिक ड्र्यूड्स उन्हें पुनः प्राप्त कर सकते हैं। 

 कुछ ड्रूड्स का दावा है कि वे आयरन एज ड्र्यूड्स के बारे में जानकारी चैनल कर सकते हैं । 

Druidry को एक धर्म, एक नया धार्मिक आंदोलन , iएक "आध्यात्मिक आंदोलन", और एक प्रकृति धर्म के रूप में वर्णित किया गया है । 

इसे समकालीन बुतपरस्ती के रूप में वर्णित किया गया है, और समकालीनता बुतपरस्त स्पेक्ट्रमवाद और पुनर्निर्माण के बीच के रूप में, ड्र्यूड्री बाद के अंत में बैठता है। 

 विभिन्न ड्र्यूडिक समूह भी नई आयु और नव-शर्मनाक प्रभाव प्रदर्शित करते हैं।

द्रुइदिक समुदाय को नव-जनजाति के रूप में चित्रित किया गया है , क्योंकि इसे प्रचारित किया गया है और इसकी सदस्यता वैकल्पिक है।

 ड्रुइड्री को सेल्टिक आध्यात्मिकता के रूप में वर्णित किया गया है ,  या "सेल्टिक-आधारित आध्यात्मिकता"। धर्म के विद्वान मैरियन बोमन ने ड्रुड्री को "सेल्टिक आध्यात्मिकता" के रूप में उत्कृष्ट बताया ।

 कुछ चिकित्सक द्रुइद्री को "मूल आध्यात्मिकता" के रूप में मानते हैं, और यह लोक धर्मों के साथ संबंध प्रदर्शित करता है । 

 ड्रूडीरी को "मूल आध्यात्मिकता" के रूप में परिभाषित करने के लिए, कुछ ड्र्यूड्स अन्य मूल धर्मों से तत्वों को आकर्षित करना चाहते हैं , जैसे कि ऑस्ट्रेलियाई आदिवासी और मूल अमेरिकी समुदायों की विश्वास प्रणाली। 

अभ्यासकर्ता औपचारिकता और गंभीरता के स्तरों में भिन्न होते हैं जो वे अपने पालन में लाते हैं। 

 कुछ समूह पुरुष और महिला चिकित्सकों दोनों के लिए Druid शब्द का उपयोग करते हैं , महिला अनुयायियों के लिए Druidess शब्द से बचते हैं । 


2010 के स्प्रिंग इक्विनॉक्स पर टॉवर हिल, लंदन में ड्रुइड ऑर्डर समारोह


ड्र्यूड फिलिप कैर-गोम द्वारा तैयार की गई शर्तों के बाद , "सांस्कृतिक" ड्र्यूड्स के बीच एक अंतर खींचा गया है, जो अपने वेल्श और कोर्निश सांस्कृतिक गतिविधियों के हिस्से के रूप में इस शब्द को अपनाते हैं, और "गूढ़" ड्र्यूड जो धर्म के रूप में आंदोलन को आगे बढ़ाते हैं। 

धर्म के विद्वान मैरियन बोमन ने "विश्वास" को "गूढ़" के वैकल्पिक शब्द के रूप में सुझाया। ऐसे व्यक्ति भी हैं जो इन दो श्रेणियों को पार करते हैं, खुद को सांस्कृतिक ड्र्यूडिक घटनाओं में शामिल करते हैं जबकि आधुनिक बुतपरस्त मान्यताओं को भी मानते हैं। 

कुछ सांस्कृतिक ड्र्यूड फिर भी अपने गूढ़ और बुतपरस्त समकक्ष से खुद को अलग करने के प्रयासों में जाते हैं;

कुछ ड्र्यूड्स मूर्तिपूजक के रूप में पहचानते हैं, अन्य ईसाई के रूप में।

कुछ व्यवसायी अपने व्यक्तिगत अभ्यास में पगन और ईसाई तत्वों को मिलाते हैं, कम से कम एक मामले में "क्रिस्टोड्रिड" के रूप में पहचान करते हैं। [२ers] अन्य चिकित्सक अतिरिक्त तत्वों को अपनाते हैं; उदाहरण के लिए स्व-वर्णित " ज़ेन ड्र्यूड्स" और " हसीदिक ड्र्यूड्स" हैं। बरेंगिया ऑर्डर ऑफ ड्र्यूड्स ने स्टार ट्रेक और बेबीलोन जैसे विज्ञान कथा टेलीविजन शो के तत्वों पर आकर्षित किया । 

शुरुआती आधुनिक ड्र्यूड्स ने खुद को ईसाई धर्म के साथ जोड़ दिया।  विलियम स्टुकले जैसे कुछ लेखकों ने लौह युग के द्रुवों को प्रोटो-ईसाई के रूप में माना, जो एकेश्वरवादी ईसाई भगवान की पूजा कर रहे थे।  एक समान नस में, कुछ आधुनिक ड्र्यूड का मानना ​​है कि प्राचीन ड्र्यूडिक ज्ञान को एक विशिष्ट सेल्टिक ईसाई धर्म के माध्यम से संरक्षित किया गया था । बीसवीं सदी के दौरान और विशेष रूप से १ ९ ६० के दशक के प्रारंभ से, ड्र्यूड्री तेजी से आधुनिक बुतपरस्त आंदोलन से जुड़ा हुआ आया। 

मान्यताएं

Awen का प्रतीक इयओलो मोर्गनग ।


ड्र्यूडिक विश्वासों में व्यापक रूप से भिन्नता है, और सभी अनुयायियों द्वारा निर्धारित कोई हठधर्मिता या विश्वास प्रणाली नहीं है। 

Druidry भी राजा आर्थर के आसपास की किंवदंतियों पर आकर्षित करता है । आर्थरियाना और ड्रुइड्री के बीच सबसे स्पष्ट लिंक में से एक, लिओल आर्थुरियन वारबैंड के माध्यम से है , एक ड्र्यूडिक समूह है जो अपने पर्यावरण अभियानों के तहत आर्थरियन प्रतीकवाद को नियुक्त करता है।

प्रकृति-केंद्रित आध्यात्मिकता


Druidry को एक प्रकृति वंदनीय आंदोलन के रूप में वर्णित किया गया है। 

द्रुविद्री प्राकृतिक दुनिया को आत्मा के रूप में माना जाता है, और इस प्रकार इसे जीवित और गतिशील मानता है।

 क्योंकि वे प्राकृतिक दुनिया को पवित्र मानते हैं, कई ड्रूइड पर्यावरणवाद में शामिल हैं , जिससे प्राकृतिक परिदृश्य के उन क्षेत्रों की रक्षा करने के लिए कार्य किया जा रहा है जो विकास या प्रदूषण से खतरे में हैं।

ड्र्यूड्स आम तौर पर मुख्यधारा के समाज के महत्वपूर्ण होते हैं, इसे "उपभोक्तावाद, पर्यावरण शोषण और प्रौद्योगिकी की सर्वोच्चता" द्वारा शासित किया जाता है। इसके विपरीत, ड्र्यूड्स जीवन जीने का एक तरीका स्थापित करना चाहते हैं जिसे वे अधिक "प्राकृतिक" मानते हैं।

 प्रकृति के साथ संबंध बनाने के माध्यम से, ड्रूड्स "कॉस्मिक संबंधित" की भावना का पीछा करते हैं। [38]

धर्मशास्र


"हे देवी, तुम्हारी रक्षा


और संरक्षण, शक्ति


और शक्ति, समझ


और समझ, ज्ञान


और ज्ञान में, न्याय


का ज्ञान और न्याय के ज्ञान में, इसका प्यार और इसके


प्यार में, प्यार सभी अस्तित्वों


और सभी अस्तित्वों के प्रेम में, देवी का प्रेम और सभी अच्छाई "


"द ड्र्यूड की प्रार्थना", Iolo Morganwg के बाद। [33]


19 वीं शताब्दी के अंत तक, ड्रुड्री को "एकेश्वरवादी दार्शनिक परंपरा" के रूप में वर्णित किया गया था। 

अब ड्र्यूड्री को अक्सर बहुदेववादी के रूप में वर्णित किया जाता है ,  हालांकि देवताओं का कोई सेट पैनथियन नहीं है जिसमें सभी ड्र्यूड का पालन होता है। जोर इस विचार पर रखा गया है कि ये देवता ईसाई धर्म से संबंधित हैं। 

इन देवताओं को आमतौर पर पारलौकिक के बजाय आसन्न माना जाता है। कुछ व्यवसायी इस विचार को व्यक्त करते हैं कि इन देवताओं का वास्तविक अस्तित्व उनके लिए उस प्रभाव से कम महत्वपूर्ण नहीं है जो उनके जीवन पर विश्वास है। 

बहुदेववादी ड्रुइड्री में वृद्धि के साथ, और देवी की पूजा की व्यापक स्वीकृति, "द ड्र्यूड की प्रार्थना", जो मूल रूप से 18 वीं शताब्दी में ड्र्यूड इलो मोर्गनवग द्वारा लिखी गई थी और सर्वोच्च देवता की एकता पर जोर दिया गया था, "भगवान" शब्द की जगह था। आम उपयोग में "देवी" के साथ।

कुछ ड्र्यूड्स अनुष्ठान के दौरान विभिन्न आत्माओं के साथ संवाद करना संभव मानते हैं। 

आयरलैंड में कुछ ड्र्यूड्स ने Sí में अपनाए गए विश्वास को अपनाया है , आयरिश लोककथाओं की आत्माएं, अपने ड्र्यूडिक सिस्टम में, उन्हें तत्व के रूप में व्याख्या करती हैं । उन्होंने लोककथाओं को माना है कि ऐसी आत्माओं को लोहे से पाला जाता है और इस प्रकार वे अपने संस्कारों के लिए लोहे को लाने से बचते हैं, ताकि आत्माओं को डराने से बचें।

Awen

मुख्य लेख: अवन

अवेन दुरिड्री में आत्मा या दिव्यता की एक अवधारणा है, जो कविता और कला को प्रेरित करती है, और माना जाता है कि यह "बहने वाली आत्मा" है जिसे देवता ने दिया था, जिसे ड्र्यूड द्वारा आमंत्रित किया जा सकता है। कई ड्र्यूडिक अनुष्ठानों में, शामिल प्रतिभागियों की चेतना को स्थानांतरित करने के लिए, तीन बार "एवेन" या "एआईओ" शब्द का उच्चारण करके एवेन को आमंत्रित किया जाता है।

 "अवेन" शब्द "प्रेरणा" के लिए वेल्श और कोर्निश शब्दों से लिया गया है। [26]

पूर्वज वंदना


ड्र्यूड्री में पूर्वजों के साथ एक संबंध महत्वपूर्ण है।

कुछ रिकॉर्ड किए गए उदाहरणों में, ड्राइड्स "पूर्वजों" को एक नामित समूह के बजाय एक अनाकार समूह के रूप में मानते हैं। 

 कुछ हीथेन समूहों द्वारा पूजित "रक्त के पूर्वजों" के बजाय पूर्वजों की ड्र्यूडिक अवधारणा "भूमि के पूर्वजों" की है; वे एक आध्यात्मिक संबंध को एक आनुवंशिक एक के बजाय महत्वपूर्ण मानते हैं।

पूर्वजों पर जोर देने से चिकित्सकों को एक पहचान का एहसास होता है जो कई शताब्दियों के दौरान अतीत से गुजर चुका है।

पूर्वज मन्नत कई लोगों को पुरातात्विक खुदाई के अवशेष और संग्रहालयों में उनके बाद के प्रदर्शन की ओर ले जाती है। कई ने अपने विद्रोह के लिए अभियान चलाए हैं उदाहरण के लिए, 2006 में, एक नव-ड्र्यूड पॉल डेविस अनुरोध किया है कि अलेक्जेंडर कीलर संग्रहालय में कहा जाता Avebury , विल्टशायर उनके मानव अवशेष rebury, और भंडारण और उन्हें प्रदर्शित "अनैतिक और अनुचित" था। 

इस दृष्टिकोण की आलोचना पुरातात्विक समुदाय से हुई है, "किसी एक आधुनिक जातीय समूह या पंथ जैसे बयानों को हमारे पूर्वजों को अपने स्वयं के एजेंडों के लिए उपयुक्त करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। यह अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय के लिए इस तरह के अवशेषों पर अंकुश लगाने के लिए है।"

संस्कार और प्रथा


Druidic समूहों को आम तौर पर कहा जाता है के पेड़ों । ऐसा शब्द पेड़ों के साथ आंदोलन के जुड़ाव को दर्शाता है, और इस विचार का संदर्भ देते हैं कि आयरन एज ड्र्यूड्स ने पेड़ों के पेड़ों के भीतर अपने अनुष्ठान किए।  लार्ज ड्र्यूडिक संगठनों को आमतौर पर आदेश कहा जाता है , और जो लोग उनका नेतृत्व करते हैं उन्हें अक्सर चुने हुए प्रमुख कहा जाता है ।

कुछ ब्रिटिश ड्र्यूड के आदेशों ने सदस्यता को तीन ग्रेडों में विभाजित किया, जिसे "बार्ड्स", "ओवेट्स" और फिर "डेडिड्स" कहा जाता है। यह त्रिस्तरीय प्रणाली ब्रिटिश ट्रेडिशनल विक्का में पाए जाने वाले तीन डिग्री को दर्शाती है । अन्य समूहों ने किसी भी विभाजन को बार्ड, ओवेट और ड्र्यूड में तब्दील कर दिया।  ओबीओडी मुख्य रूप से पत्राचार पाठ्यक्रम के माध्यम से अपने सदस्यों को ड्रूड्री के रूप में शिक्षित करता है। 

समारोह

गर्मियों के संक्रांति की सुबह स्टोनहेंज में सूर्योदय का स्वागत करने के तुरंत बाद, सूरज की सुबह की चमक में ओड्स एंड ड्रूइड्स के ऑर्डर के ड्र्यूड्स का एक समूह।


प्रत्येक ड्र्यूडिक ग्रोव अपने अनुष्ठानों और समारोहों को एक अनोखे तरीके से आयोजित करता है।

ड्र्यूडिक अनुष्ठानों को उनके प्रतिभागियों को प्रकृति की आत्मा के साथ संरेखित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।  मानवविज्ञानी थोरस्टेन गेसर के अनुसार, ड्र्यूडिक अनुष्ठानों को औपचारिक क्रियाओं के एक सेट के रूप में नहीं देखा जाता है, लेकिन "एक रुख, एक दृष्टिकोण, एक विशेष अनुभव और अनुभूति के रूप में जो एक जा रहा है की भावना को जन्म देता है।
-वर्ल्ड, नेचर का हिस्सा होने के नाते। ” [३५] आधुनिक ड्र्यूड्स की प्रथा आम तौर पर दिन के उजाले में होती है, जिसे "सूर्य की आंख" के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका अर्थ है दोपहर के आसपास।  

कुछ मामलों में, वे अपने संस्कार घर के अंदर, या रात के दौरान करते हैं।ड्र्यूडिक अनुष्ठान आमतौर पर वर्ष के समय और ऋतुओं के बदलते समय को दर्शाता है।

ड्र्यूडिक अनुष्ठानों में अक्सर प्रतिभागियों को एक सर्कल में खड़ा होता है और "क्वार्टर की कॉलिंग" के साथ शुरू होता है, जिसमें एक प्रतिभागी उत्तर, दक्षिण, पूर्व, और पश्चिम में ओलावृष्टि करने के लिए हवा में एक चक्र खींचता है, जिससे बाहर अंकन होता है। अंतरिक्ष जिसमें समारोह होगा। 

लिबास को जमीन पर डाला जा सकता है, जबकि पेय का एक टुकड़ा इकट्ठे प्रतिभागियों के चारों ओर पारित किया जाता है, फिर से एक डीओसिल दिशा में। भोजन, अक्सर ब्रेड या केक के रूप में, ड्र्यूड के आसपास भी दिया जाता है और इसका सेवन किया जाता है।

यह उन इकट्ठे लोगों के बीच ध्यान की अवधि के बाद हो सकता है।  पृथ्वी ऊर्जा का एक रूप तब कल्पना में होता है, जिसमें प्रतिभागियों को विश्वास होता है कि यह एक निर्दिष्ट उपचार उद्देश्य के लिए भेजा गया है।

यह एक विशेष घटना के पीड़ितों की मदद करने के लिए डिज़ाइन किया जा सकता है, जैसे कि युद्ध या महामारी, या यह समूह में जाने वाले व्यक्तियों की सहायता के लिए निर्देशित किया जा सकता है जो बीमार हैं या भावनात्मक समर्थन की आवश्यकता है।

 समारोह के अंत के बाद, ड्रूड्स भोजन में भाग लेने के लिए एक साथ रह सकते हैं,या पास के पब में जाएँ । 

ड्र्यूडिक आंदोलन के भीतर अनुष्ठान के लिए कोई विशिष्ट ड्रेस कोड नहीं है; कुछ प्रतिभागी साधारण कपड़े पहनते हैं, दूसरे लोग वस्त्र पहनते हैं। 

 कुछ समूह पृथ्वी के रंग के वस्त्र का पक्ष लेते हैं, उनका मानना ​​है कि यह उन्हें प्राकृतिक दुनिया से जोड़ता है और यह रात में यात्रा के दौरान उन्हें किसी यात्रा में जाने की अनुमति नहीं देता है।

"सेल्टिश" भाषा को अक्सर समारोहों के दौरान नियोजित किया जाता है,

जैसा कि कारमिना गादिका के उद्धरण और सामग्री हैं । ज्यादातर मॉर्गनवग की गोर्शेड प्रार्थना के कुछ रूप का उपयोग करते हैं। 

कुछ ड्र्यूड्स खुद को स्पेल-कास्टिंग में शामिल करते हैं, हालांकि यह आमतौर पर उनकी प्रथाओं के बीच एक माध्यमिक विशेषता के रूप में माना जाता है।

अनुष्ठान के लिए स्थान

अनुष्ठान आमतौर पर प्राकृतिक परिदृश्य में या प्रागैतिहासिक स्थलों पर होते हैं, उनमें नवपाषाण और कांस्य युग के महापाषाण काल या लौह युग के भूकंप शामिल हैं। 

 ड्र्यूड्स अक्सर मानते हैं कि, भले ही आयरन एज ड्र्यूड्स ने इन स्मारकों का निर्माण नहीं किया है, लेकिन उन्होंने उन्हें अपने संस्कारों के लिए इस्तेमाल किया। 

उक्त साइटों पर अनुष्ठान करने से कई ड्र्यूड्स को यह महसूस करने की अनुमति मिलती है कि वे अपने पूर्वजों के करीब हो रहे हैं। 

 ड्राइड्स ने उन्हें मान्यता के रूप में भाग में पवित्र स्थलों के रूप में माना है कि प्रागैतिहासिक समाजों ने ऐसा ही किया होगा। [

आयरलैंड और ब्रिटेन के विभिन्न हिस्सों में ड्र्यूड्स ने ऐसी साइटों को "स्पिरिट ऑफ द प्लेस" के रूप में घर दिया कई ड्र्यूड का यह भी मानना ​​है कि इस तरह की साइटें पृथ्वी की ऊर्जा का केंद्र हैं और परिदृश्य में लेई लाइनों के साथ स्थित हैं।

ये ऐसे विचार हैं जो जॉन मिचेल जैसे पृथ्वी के रहस्यों लेखकों से अपनाए गए हैं ।


दक्षिणी इंग्लैंड के विल्टशायर के स्टोनहेंज में ड्र्यूडिक अनुष्ठान


लोकप्रिय कल्पना में, ड्राइड्स को दक्षिणी इंग्लैंड के विल्टशायर में स्टोनहेंज -एन नियोलिथिक और कांस्य युग साइट के साथ निकटता से जोड़ा गया है ।

हालांकि स्टोनहेंज लौह युग से पहले का है और इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि इसका उपयोग कभी लौह युग के ड्र्यूड्स द्वारा किया गया था, कई आधुनिक ड्र्यूड का मानना ​​है कि उनके प्राचीन नाम वास्तव में उनके समारोहों के लिए इसका इस्तेमाल करते थे। 

Druids को भी अपने अनुष्ठानों के लिए रिक्त स्थान, सहित कई अन्य प्रागैतिहासिक साइटों का उपयोग पत्थर हलकों कि कम से की तरह Avebury विल्टशायर में। [कुछ ड्र्यूड्स ने अपने स्वयं के, आधुनिक पत्थर के घेरे बनाए हैं, जिसमें उनके समारोह किए जाते हैं। 

 Druidic प्रथाओं भी आरंभिक नियोलिथिक पर जगह ले लिया है लंबे barrows खानों वाला जैसे वेलैंड की लोहार का काम में ऑक्सफोर्डशायर ,और Coldrum लांग बैरो में केंट । 

आयरलैंड में, ड्राइड्स द्वीप के सबसे प्रसिद्ध प्रागैतिहासिक स्थलों में से एक, हिल ऑफ तारा में समारोह करते हैं । [,५] २००० में, धर्म के विद्वान एमी हेल ​​ने कहा कि इस तरह के प्रागैतिहासिक स्थलों पर ड्र्यूडिक अनुष्ठान "तेजी से अधिक सामान्य" थे। [ The६ ] उन्होंने स्टोन सर्कल को "ड्रुयड्स और गोर्सथ वार्ड्स" द्वारा साझा "एक कल्पित सेल्टिक अतीत का प्रतीक" माना। [34]साइटों पर समूह अनुष्ठान करने के साथ-साथ ड्र्यूड्स अकेले उनका ध्यान करने, प्रार्थना करने और प्रसाद प्रदान करने के लिए भी जाते हैं। [[[] सब्त के रिवाजों के अलावा, केंट के चेस्टनट्स लॉन्ग बैरो में ड्रूइडीक बेबी-नामकरण समारोह जैसे स्थलों पर यात्रा के संस्कार भी हो सकते हैं । [78]

भूमि और पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण ड्र्यूडिक विश्व-दृष्टिकोण के लिए महत्वपूर्ण हैं। [ , ९ ] २००३ में, ड्रूड्स ने तारा के पहाड़ी पर एक अनुष्ठान किया ताकि आस-पास के परिदृश्य में सड़क निर्माण के बाद स्थान को ठीक किया जा सके। [ Carried५ ] अन्य लोगों ने कोल्ड्रम लॉन्ग बैरो में लैंडस्केप में फ्रैकिंग का विरोध करने के लिए अनुष्ठान किया । [Ids०] ड्रूड्स ने वृक्षारोपण परियोजनाओं में भी खुद को शामिल किया है। [81]

1990 के दशक और 2000 के दशक के प्रारंभ में, आयरलैंड और यूके में कुछ नियो-ड्र्यूड्स के बीच स्वेट लॉज पर आधारित एक अनुष्ठान का उपयोग तेजी से लोकप्रिय हो गया [82] कुछ ड्र्यूड इन पसीने के आवेशों को "सम्मान के लिए स्वयं को पुन: समर्पित करने के लिए पहल और पुनर्योजी अवसर" के रूप में मानते हैं। पृथ्वी और जीवन का समुदाय। ” [Is३] इस प्रथा को अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग माना जाता है। कुछ चिकित्सक इसे वास्तविक पूर्व-ईसाई ड्र्यूडिक प्रथाओं के "पुनरुद्धार" के रूप में मानते हैं, अन्य इसे एक "देशी आध्यात्मिकता" से रचनात्मक और सम्मानजनक उधार लेते हैं, और विचार का एक तीसरा स्कूल इसे सांस्कृतिक चोरी के रूप में मानता है। [21]अपने समुदायों के लिए पसीना लॉज समारोहों को संरक्षित करने वाले अमेरिकी मूल-निवासियों ने गैर-मूल निवासियों द्वारा समारोह के विनियोग का विरोध किया है, [84] अब तेजी से लोग घायल हो गए हैं, और कुछ की मृत्यु हो गई है , गैर-मूल निवासियों द्वारा किए गए धोखेबाज़ लॉज सेरेमनी में । [ [४] [ ]५ ] [ ]६] [] ] ] []]]

कला और कविता

आर्थर उथेर पेंड्रैगन स्टोनहेंज में 2010 के ग्रीष्मकालीन संक्रांति समारोह में भाग लेते हैं।


Druidry में, एक विशिष्ट समारोह एक Eisteddfod के रूप में जाना जाता है , जो कविता और संगीत कार्यक्रमों के पाठ के लिए समर्पित है। [ D ९] ड्र्यूडिक समुदाय के भीतर, वे व्यवसायी जो अपने कविता पाठ या संगीत के प्रदर्शन में विशेष रूप से कुशल होते हैं उन्हें बार्ड्स कहा जाता है। [44] bardism भी इस तरह के रूप में अन्य बुतपरस्त परंपराओं में पाया जा सकता है हालांकि पर्यावरण के बुतपरस्ती , यह Druidry भीतर विशेष महत्व का है। [९ ०] बोर्ड विभिन्न अवसरों पर एफ़ेडेफोड में प्रदर्शन करते हैं , औपचारिक अनुष्ठानों से लेकर पब गेट-सीहेरर्स और समर कैंप और पर्यावरण विरोध तक। [91]ड्र्यूडिक समुदाय के बीच, यह अक्सर माना जाता है कि उनके काम के निर्माण में बोर्डों को दैवीय रूप से प्रेरित होना चाहिए। [92]

ड्र्यूड्री के भीतर कहानी सुनाना महत्वपूर्ण है, [93] अक्सर चुनी गई कहानियों के साथ, जो भाषाई रूप से सेल्टिक देशों के अलौकिक साहित्य या अर्थुरियन कथा से आती है। [९ ०] संगीत प्रदर्शन आमतौर पर आयरलैंड , स्कॉटलैंड , इंग्लैंड , फ्रांस और ब्रिटनी की लोक संगीत परंपराओं से आते हैं । [९ ०] आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों में लैप हार्प , मैंडोलिन , सीटी , बैग पाइप और गिटार शामिल हैं । [90]धनुष, "t'was", "थेंस", और "कर्म" जैसे पुरातन शब्दों का उपयोग करते हैं, जबकि एक भव्य तरीके से बोलते हैं। [९ ०] धर्म और बार्ड एंडी लेचर के विद्वान के अनुसार, बर्डिज्म का सामान्य उद्देश्य, "एक कैथोलिक आहिस्ता-आहिस्ता अतीत" का "माहौल" बनाना है; । [90] उपकरण सामान्यतः Druidic Bards द्वारा इस्तेमाल किया गिटार और तरह ध्वनिक सारंगियां शामिल clarsach , साथ ही bodhran, बैगपाइप, खड़खड़ाहट, बांसुरी और सीटी। धर्म के विद्वान ग्राहम हार्वे का मानना ​​था कि ये विशिष्ट उपकरण आधुनिक ड्र्यूड्स द्वारा पसंद किए गए थे क्योंकि उनमें से कई मूल में आयरिश थे, और इसलिए एक "केल्टिक स्वाद दिया, प्रतीत होता है कि लौह युग का आह्वान किया", वह अवधि जिसके दौरान प्राचीन ग्रुइड रहते थे। [91]

ब्रिटिश ड्र्यूड ऑर्डर जैसे समूहों ने अपने गोरसडाउ की स्थापना की । [५ ९] वेल्श सांस्कृतिक गोरसेडाउ के विपरीत, ये ड्र्यूडिक घटनाएँ अक्सर किसी को भी बार्ड के रूप में प्रदर्शन करने की अनुमति देती हैं यदि वे ऐसा करने के लिए प्रेरित हों। [59]

ड्र्यूड्स ने अन्य संगीत शैलियों में और अधिक तकनीकी उपकरणों के साथ भाग लिया है, जिसमें ब्लूज़ और रेव संगीत शामिल हैं, और एक ब्रिटिश क्लब, मेगेट्रिपोलिस, एक ड्र्यूडिक अनुष्ठान के प्रदर्शन के साथ खोला गया। [94]

अन्य प्रथाओं

स्टोनहेंज में एक ड्र्यूड


कई ड्र्यूड्स के बीच, पेड़ की विद्या की एक प्रणाली है, जिसके माध्यम से विभिन्न संघों को पेड़ की विभिन्न प्रजातियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, जिसमें विशेष मूड, क्रियाएं, जीवन के चरण, देवताओं और पूर्वजों शामिल हैं। [९ ५] पेड़ों की विभिन्न प्रजातियां अक्सर ओगहम वर्णमाला से जुड़ी होती हैं , जो ड्र्यूड्स द्वारा अटकल में लगाई जाती हैं। [९ ५] ओघम के बजाय, कुछ चिकित्सक इओल मोर्गनग द्वारा -उनके दिव्य अभ्यासों के कारण कोलब्रेन - एक वर्णमाला के पक्षधर हैं । [96]

कई ड्र्यूड्स चिकित्सा उपचारों की एक श्रेणी में शामिल हैं, दोनों हर्बलिज्म और होम्योपैथी के साथ ड्रूडिक समुदाय के भीतर लोकप्रिय हैं। [96]

Druids अक्सर अपने प्रथाओं पर उपयोग के लिए पुराने लोक रीति-रिवाजों को पुनर्जीवित करते हैं। [97] उदाहरण के लिए Druids द इंग्लैंड आधारित सेकुलर आदेश एक अधिकारी शौक घोड़ा में प्रयोग किया जाता है कि के आधार पर 'Obby' Oss त्योहार की पैडस्टो , कॉर्नवाल । [98]

समारोह


ड्र्यूड्स आम तौर पर सालाना आठ आध्यात्मिक त्योहारों का पालन करते हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से व्हील ऑफ द ईयर के रूप में जाना जाता है । [९९] ये वही त्यौहार हैं जो आमतौर पर विस्कॉन्स द्वारा मनाए जाते हैं। [१००] कुछ मामलों में समूह लोककथाओं के यूरोपीय त्योहारों और उनके साथ की परंपराओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हैं। [ ९ [] अन्य मामलों में संस्कार आधुनिक आविष्कार हैं, जो "जो वे मानते हैं कि पूर्व-रोमन ब्रिटेन की धार्मिक प्रथा थी" की भावना से प्रेरित है। [१०१] व्यावहारिकता के कारणों के लिए, इस तरह के समारोह हमेशा त्योहार की विशिष्ट तिथि पर ही आयोजित नहीं किए जाते हैं, बल्कि निकटतम सप्ताहांत में, इस प्रकार उन प्रतिभागियों की संख्या को अधिकतम किया जाता है जो भाग ले सकते हैं। [59]

इनमें से चार सौर त्यौहार हैं, जिन्हें संक्रांति और विषुव पर स्थित किया जा रहा है; ये काफी हद तक जर्मनिक बुतपरस्ती से प्रेरित हैं । अन्य चार " सेल्टिक " त्यौहार हैं, प्राचीन सेल्टिक बहुदेववाद की आधुनिक व्याख्याओं से प्रेरित क्रॉसक्वार्टर दिन । 1964 में रॉस निकोल्स द्वारा द व्हील ऑफ द ईयर के विचार को पेश किया गया था , जिसने 1964 में ऑर्डर ऑफ बार्ड्स, ओवेट्स और ड्रूड्स की स्थापना की थी, और उन्हें यह विचार अपने मित्र गेराल्ड गार्डनर से प्राप्त हुआ था , जिन्होंने इसे अपने ब्रिक वुड के करार में लागू किया था की Gardnerian चुड़ैलों 1958 में [ प्रशस्ति पत्र की जरूरत ]

त्यौहार उत्तरी गोलार्द्ध दक्षिणी गोलार्द्ध ऐतिहासिक मूल संघों


Samhain , Calan Gaeaf ३१ अक्टूबर 30 अप्रैल, या 1 मई सेल्टिक बहुदेववाद ( सेल्ट भी देखें ) सर्दी की शुरुआत।


शीतकालीन संक्रांति , अल्बान अर्थन 21 या 22 दिसंबर 21 जून जर्मनिक बुतपरस्ती शीतकालीन संक्रांति और सूर्य का पुनर्जन्म ।


Imbolc 1 या 2 फरवरी 1 अगस्त सेल्टिक बहुदेववाद वसंत के पहले संकेत।


वसंत विषुव , अल्बान इलिर 20 या 21 मार्च 21 या 22 सितंबर जर्मनिक बुतपरस्ती वसंत विषुव और वसंत की शुरुआत।


बेलताइन , कैलन माई 30 अप्रैल या 1 मई 1 नवंबर सेल्टिक बहुदेववाद गर्मियों की शुरुआत।


ग्रीष्मकालीन संक्रांति , अल्बान हेफ़िन 21 या 22 जून 21 दिसंबर संभवतः नवपाषाण काल ग्रीष्मकालीन संक्रांति ।


Lughnasadh 1 या 2 अगस्त 1 फरवरी सेल्टिक बहुदेववाद हार्वेस्ट सीजन की शुरुआत


शरद विषुव , अल्बान एल्फेड 21 या 22 सितंबर 20 मार्च कोई ऐतिहासिक बुतपरस्त नहीं। शरद विषुव । फल की कटाई और कटाई।


इतिहास


मूल

विलियम स्टुक्ली का एक चित्रण। Druidry के विकास में प्राथमिक आंकड़ों में से एक, वह आधुनिक पुरातत्व पर भी एक महत्वपूर्ण प्रभाव था ।


ड्र्यूडिक आंदोलन की उत्पत्ति 17 वीं और 18 वीं शताब्दी में विकसित होने वाले प्राचीन ड्र्यूड्स के स्वच्छंदतावादी विचारों के बीच हुई थी। जबकि कई प्रारंभिक मीडियावेदक लेखकों ने, विशेष रूप से आयरलैंड में, प्राचीन ड्र्यूडों को बर्बर लोगों के रूप में प्रदर्शित किया था, जिन्होंने मानव बलिदान का अभ्यास किया था और ईसाई धर्म के आगमन को दबाने की कोशिश की थी, कुछ लेट मीडियावैल्ट लेखकों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि वे मानते हैं कि ड्र्यूड्स के गुण थे, और उन्हें विशेष रूप से जर्मनी, फ्रांस और स्कॉटलैंड में राष्ट्रीय नायकों के रूप में सुदृढ़ किया। यह इस अवधि के दौरान भी था कि कॉनराड केल्टिस ने सफेद दाढ़ी वाले बुद्धिमान बूढ़े, दाढ़ी वाले लोगों की छवि को प्रचारित करना शुरू कर दिया था, कुछ ऐसा जो भविष्य की सदियों में अत्यधिक प्रभावशाली साबित होगा। [102]

राष्ट्रीय नायकों के रूप में लौह युग की ड्र्यूड्स की छवि बाद में इंग्लैंड में प्रारंभिक आधुनिक काल के दौरान उभरना शुरू हो जाएगी, जिसमें प्राचीन और एंग्लिकन विक्टर विलियम स्टुक्ली (1687-1765) ने खुद को "ड्र्यूड" घोषित किया और कई लोकप्रिय लेखन किए। ऐसी पुस्तकें जिनमें उन्होंने दावा किया था कि प्रागैतिहासिक मेगालिथ जैसे स्टोनहेंज और एवेबरी ड्र्यूड्स द्वारा निर्मित मंदिर थे, अब कुछ गलत होने का पता चला है। खुद स्टुक्ली, एक धर्मनिष्ठ लेकिन अपरंपरागत ईसाई होने के नाते, महसूस किया कि प्राचीन ड्र्यूड एक एकेश्वरवादी के अनुयायी थेविश्वास ईसाई धर्म के समान है, एक बिंदु पर यह भी कहा कि प्राचीन ड्रूयड्री "ईसाई धर्म की तरह अत्यंत थी, कि वास्तव में, यह केवल इस से अलग था; वे एक मसीहा में विश्वास करते हैं जो दुनिया में आना था, जैसा कि हम मानते हैं; वह जो आया है ”। [103]

जल्द ही प्रकाशन और स्तुकेले के लेखन के प्रसार के बाद, अन्य लोगों को भी शुरू कर दिया खुद को "पुरोहित" और फार्म समाजों के रूप में स्वयं का वर्णन: इन के जल्द से जल्द Druidic सोसायटी, के वेल्श द्वीप पर स्थापित किया गया था आंग्लेसी में 1772 मोटे तौर पर चारों ओर घूमने सुनिश्चित द्वीप पर व्यापार की निरंतर वित्तीय सफलता, इसने इसमें कई एंग्लिसी के धनी निवासियों को आकर्षित किया, और इसकी अधिकांश आय को दान में दे दिया, लेकिन 1844 में इसे भंग कर दिया गया। [104] इसी तरह का एक वेल्श समूह कार्डिगन के सोसाइटी ऑफ ड्राइड्स का था। की स्थापना की, लगभग 1779 में, बड़े पैमाने पर दोस्तों के एक समूह द्वारा जो "साहित्यिक पिकनिक" में शामिल होना चाहते थे। [१०५] अपने आप को ड्रुडिक कहने वाला तीसरा ब्रिटिश समूह वेल्श के बजाय अंग्रेजी था, और इसे के रूप में जाना जाता थाDruids के प्राचीन आदेश । 1781 में स्थापित और Freemasonry से प्रभावित , इसकी उत्पत्ति कुछ अज्ञात बनी हुई है, लेकिन बाद में यह ब्रिटेन के अधिकांश हिस्सों और विदेशों में भी लंदन में अपने आधार से लोकप्रियता में फैल गया, नए लॉज की स्थापना की गई, जो सभी केंद्रीय के नियंत्रण में थे। लंदन में ग्रैंड लॉज। आदेश संरचना में धार्मिक नहीं था, और इसके बजाय कुछ सामाजिक क्लब के रूप में कार्य किया, विशेष रूप से संगीत में एक सामान्य रुचि वाले पुरुषों के लिए। 1833 में इसे एक पत्रकारिता का सामना करना पड़ा, बड़ी संख्या में असंतुष्ट लॉज के रूप में, ऑर्डर के प्रबंधन से नाखुश, यूनाइटेड प्राचीन ऑर्डर ऑफ ड्र्यूड्स का गठन किया , और दोनों समूह शेष शताब्दी में लोकप्रियता में वृद्धि करेंगे। [106]

धार्मिक ड्रुयड्री का विकास


शुरुआती आधुनिक ड्र्यूडिक समूहों में से कोई भी संरचना में धार्मिक नहीं था; हालाँकि, यह 18 वीं शताब्दी के अंत में बदलना था, मुख्य रूप से एक वेल्शमैन के काम के कारण जिन्होंने इओलो मोर्गनग (1747-1826) का नाम लिया था । एडवर्ड विलियम्स के रूप में जन्मे, वह वेल्श राष्ट्रवाद का कारण बनेंगे , और ब्रिटिश राजशाही का गहरा विरोध किया था, जो फ्रांसीसी क्रांति के कई आदर्शों का समर्थन करता था, जो 1789 में हुआ था। आखिरकार लंदन जाने के बाद, उन्होंने दावा करना शुरू कर दिया। वह वास्तव में ड्र्यूड्स के एक जीवित समूह के अंतिम पहलकर्ताओं में से एक थे, जो आयरन आयु में पाए गए उन लोगों में से उतरे थे, जो उनके गृह काउंटी ग्लैमरगन में केंद्रित थे । उन्होंने बाद में नियो-ड्र्यूडिक अनुष्ठानों के प्रदर्शन का आयोजन कियाप्रिम्रोस हिल अपने कुछ अनुयायियों के साथ, जिन्हें उन्होंने या तो बर्ड्स या ओवेट्स के रूप में वर्गीकृत किया था, साथ ही वे वास्तव में केवल ड्र्यूड के रूप में वर्गीकृत किए गए थे। वह खुद को धर्म का एक रूप मानते थे जिसका मानना ​​था कि प्राचीन ड्र्यूड्स थे, जिसमें एक एकल एकेश्वरवादी देवता की पूजा के साथ-साथ पुनर्जन्म की स्वीकृति भी शामिल थी । [१० D] वेल्स में, ड्रुड्री ने १ .४० के दशक में स्पष्ट रूप से धार्मिक गठन लिया था। [108]


वेल्श समाजवादी और राष्ट्रवादी डॉ। विलियम प्राइस , एक प्रमुख आधुनिक ड्र्यूड।


Morganwg's example was taken up by other Welshmen in the 19th century, who continued to promote religious forms of Druidry. The most prominent figure in this was William Price (1800–1893), a physician who held to ideas such as vegetarianism and the political Chartist movement. His promotion of cremation and open practice of it led to his arrest and trial, but he was acquitted, achieving a level of fame throughout Britain. He would declare himself to be a Druid, and would do much to promote the return of what he believed was an ancient religion in his country.[109]

1874 में, रॉबर्ट वेनवर्थ लिटिल , एक फ्रीमेसन, जिन्होंने गुप्त सोसाइटीज रोजिकृसियाना के पहले सुप्रीम मैगस के रूप में कुख्यातता हासिल की , ने कथित तौर पर प्राचीन और पुरातात्विक आदेश ड्र्यूड्स की स्थापना की , जो सोसाइटस रोजिकृसियाना की तरह एक गूढ़ संगठन था। [११०] इस बीच, २० वीं सदी की शुरुआत में, ड्रूडिक समूहों ने इंग्लैंड के विल्टशायर में स्टोनहेंज के महान महापाषाण स्मारक पर अपने समारोह आयोजित करना शुरू किया : इतिहासकार रोनाल्ड हटनबाद में टिप्पणी करेंगे कि "यह एक महान, और संभावित रूप से असुविधाजनक, विडंबना थी कि आधुनिक ड्राइड्स स्टोनहेंज में आ गए थे, जैसा कि पुरातत्वविद् प्राचीन ड्र्यूड्स को इससे निकाल रहे थे" जैसा कि उन्होंने महसूस किया कि संरचना नवपाषाण और प्रारंभिक कांस्य युग , सदियों से पहले की थी लौह युग, जब ड्रूइड पहली बार ऐतिहासिक रिकॉर्ड में दिखाई देते हैं। [111]

प्राचीन ऑर्डर ऑफ ड्र्यूड्स का एक सदस्य इंग्लिश गेराल्ड गार्डनर था , जिसने बाद में गार्डनरियन विक्का की स्थापना की । [112]

यूरोप में बुतपरस्त Druidry


ब्रिटेन में नियोगन डेरीड्री के उदय के लिए सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा रॉस निकोल्स था । द ड्रुइड ऑर्डर के एक सदस्य , 1964 में उन्होंने ऑर्डर ऑफ बार्ड्स, ओवेट्स और ड्रूड्स (OBOD) को विभाजित किया। 1988 में फिलिप कैर-गोम को ऑर्डर का नेतृत्व करने के लिए कहा गया था।

निकोलस ने पृथ्वी रहस्यों के आंदोलन के विचारों को आकर्षित किया , जिसमें ग्लास्टोनबरी के बारे में अपने कई विचारों को शामिल करते हुए ड्र्यूड्री की व्याख्या की गई। [113]

1985 और 1988 के बीच, ड्र्यूड टिम सेबस्टियन ने स्टोनहेंज के लिए धार्मिक पहुंच के लिए अभियान चलाया, जिससे उसके चारों ओर सेकुलर ऑर्डर ऑफ ड्रॉयड्स (एसओडी) का गठन हुआ। [११४] १ ९ s० के दशक के उत्तरार्ध में, एसओडी के अभियान को स्टोनहेंज एक्सेस पर केंद्रित एक अन्य समूह ने शामिल किया, जिसके नेतृत्व में एक ड्र्यूड ने खुद को किंग आर्थर पेंड्रैगन कहा; 1993 तक, उनके समूह ने लॉयल आर्थरियन वॉरबैंड के रूप में औपचारिक रूप दिया था। [११५] १ ९,, में रोलो मॉफफ्लिंग के नेतृत्व में समरसेट के ग्लास्टनबरी में एक ड्राइड ऑर्डर भी स्थापित किया गया था । [११६] १ ९ s० के दशक के उत्तरार्ध में, पूर्व अलेक्जेंड्रियन विक्कन उच्च पुजारी फिलिप शैलक्रस ने ब्रिटिश ब्रूइड ऑर्डर की स्थापना की(बीडीओ) ड्र्यूड्री का अधिक स्पष्ट रूप से बुतपरस्त रूप बनाने के लिए। 1990 के दशक के मध्य में फेलो ड्र्यूड एम्मा रेस्टॉल ओर समूह के सह-नेता बन गए। [११ system ] २००२ में आदेश की व्यवस्था को भी सीमित करते हुए, ओर्र ने द ड्रिड नेटवर्क बनाया , जिसे आधिकारिक तौर पर २००३ में लॉन्च किया गया था। [११ in ]

1990 के दशक के आरंभिक इतिहासकार रोनाल्ड हट्टन के अनुसार - ब्रिटिश ड्र्यूड्री के लिए "बूम ईयर" थे। [११ ९ ] १ ९, ९ में, ब्रिटिश ड्र्यूड ऑर्डर की परिषद को राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न ड्र्यूड समूहों की गतिविधियों के समन्वय के लिए स्थापित किया गया था। [११ ९] आगे एकता की इस भावना को दर्शाते हुए, १ ९९ २ में लंदन के प्रिम्रोस हिल पर एक संस्कार हुआ जिसमें विभिन्न ड्र्यूड आदेशों ने भाग लिया। [119] उस वर्ष, दो नए Druidic पत्रिकाओं प्रकाशन Shallcrass 'शुरू किया ड्र्यूड की आवाज और स्टीव विल्सन Aisling । [११ ९] हालांकि, विभिन्न समूहों के बीच बहस जारी रही और १ ९९ ६ में AOD, [१२०]OBOD, और BDO ब्रिटिश ड्र्यूड ऑर्डर की परिषद से हट गए। [१२१] १ ९९ ० के दशक के उत्तरार्ध में, इंग्लिश हेरिटेज दबाव से संबंधित हो गया और डुरिडिक और स्टोनहेंज तक अधिक सार्वजनिक पहुंच की अनुमति देने के लिए सहमत हो गया। [१२२] १ ९९ ० के दशक के दौरान, पगन ड्र्यूडिक समूह भी इटली में स्थापित किए गए थे, जिसमें ब्रिटिश ड्र्यूड्स जैसे कैर-गोम देश में पगान समुदाय से बातचीत करने के लिए गए थे। [123]

यूरोप में अन्य कई अच्छी तरह से स्थापित ड्रूडिक समूह संचालित होते हैं। उदाहरण के लिए, सेल्टिक ड्र्यूड मंदिर (आयरलैंड), Assembleia दा Tradição Druídica Lusitana ( पुर्तगाल ), Orden Druida Fintan ( केटलोनिआ ) या Irmandade Druídica Galaica ( Galicia और उत्तरी पुर्तगाल) कानूनी तौर पर अपने-अपने देशों में पंजीकृत हैं, इसलिए Druidry एक आधिकारिक तौर पर पहचाना जा रहा उन प्रदेशों में धर्म। [१२४] [१२५] [१२६] [ १२] ] [१२] ] [१२ ९ ] [१२ ९] ओडीएफ, आईडीजी और एटीडीएल जैसे समूह अन्य ड्र्यूडिक आदेशों से भिन्न होते हैं क्योंकि वे ड्रूडीरी के लिए अपने दृष्टिकोण में हठधर्मिता और सख्त मूल सिद्धांतों का पालन करते हैं। [130][१३१] [१३२]

उत्तरी अमेरिका में Druidry


प्रारंभिक अमेरिकी ड्र्यूड संगठन संयुक्त प्राचीन आदेश जैसे ड्र्यूड्स और अमेरिकन ऑर्डर ऑफ ड्राइड्स जैसे भ्रातृ आदेश थे । पूर्व एक ब्रिटिश संगठन की एक शाखा थी जो प्राचीन ऑर्डर ऑफ ड्र्यूड्स से अलग हो गई थी , जबकि बाद को 1888 में मैसाचुसेट्स में स्थापित किया गया था। दोनों धार्मिक या नव-मूर्तिपूजक समूहों के बजाय भ्रातृ लाभकारी समाजों के रूप थे। [133]

1963 में, उत्तरी अमेरिका के सुधार Druids (rDNA) के छात्रों के द्वारा स्थापित किया गया था Carleton कॉलेज , Northfield, मिनेसोटा , एक उदार कला महाविद्यालय है कि उसके सदस्यों धार्मिक सेवाओं के कुछ फार्म में भाग लेने की आवश्यकता है। इस नियम के खिलाफ मज़ाकिया विरोध के रूप में, छात्रों के एक समूह, जिसमें ईसाई, यहूदी और उनके रैंक के भीतर अज्ञेय शामिल थे, ने अपना स्वयं का, गैर-गंभीर धार्मिक समूह बनाने का फैसला किया। उनका विरोध सफल रहा, और आवश्यकता को 1964 में समाप्त कर दिया गया। फिर भी, समूह ने सेवाओं को जारी रखा, जिन्हें अधिकांश सदस्यों द्वारा नियोगन नहीं माना जाता था, बल्कि उन्होंने एक अंतर-धार्मिक प्रकृति के बारे में सोचा था। अपनी शुरुआत से, आरडीएनए प्राकृतिक दुनिया की वंदना के इर्द-गिर्द घूमता रहा, जिसे धरती माता कहा गया, कि धार्मिक सत्य को प्रकृति के माध्यम से पाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, उन्होंने अपनी प्रथाओं में नियोपागनिज़्म के अन्य तत्वों को भी अपनाया था, उदाहरण के लिए व्हील ऑफ द ईयर के त्यौहारों को मनाने के लिए , जो उन्होंने विक्का के नियोप्गन धर्म से उधार लिया था । [१३४] [१३५]

जबकि RDNA एक सफलता बन गई थी, नई शाखाओं या "ग्रोव्स" की स्थापना संयुक्त राज्य अमेरिका के आसपास हुई, RDNA के कई Neopagan तत्व अंततः प्रमुखता की ओर बढ़ गए, जिससे कई ग्रोव सक्रिय रूप से खुद को Neopagan बताने लगे। इस समूह में के संस्थापकों, जो वह अपने अंतर-धार्मिक मूल बनाए रखने के लिए करना चाहता था के कई ने विरोध किया था, और कुछ पेड़ों वास्तव में अन्य धर्मों के प्रति अपनी कनेक्शन पर जोर दिया: के एक समूह था ज़ेन ओलंपिया और में Druids Hassidic Druids उदाहरण के लिए सेंट लुइस में । संगठन के भीतर नियोपैगनिज्म के प्रति इस परिवर्तन के लिए जिम्मेदार लोगों में इसहाक बोनेविट्स और रॉबर्ट लार्सन थे, जो बर्कले, कैलिफोर्निया में स्थित एक ग्रोव में काम करते थे।। यह मानते हुए कि सुधारित ड्रूडिक आंदोलन को यह स्वीकार करना होगा कि यह अनिवार्य रूप से प्रकृति में नियोगन था, बॉनविट्स ने एक विभाजन-बंद समूह को उत्तरी अमेरिका (एनआरडीएनए) के न्यू रिफॉर्म्ड ड्राइड्स के रूप में जाना जाने का फैसला किया, जिसे उन्होंने "इक्लेक्टिक रिकंस्ट्रक्शनिस्ट नियो" के रूप में परिभाषित किया पगन प्रीस्टक्राफ्ट, मुख्य रूप से गॉलिश और सेल्टिक स्रोतों पर आधारित है ”। [136]

बोनविट को अभी भी लगा कि आरडीएनए में कई लोग उसके प्रति शत्रुतापूर्ण थे, यह मानते हुए कि उसने अपने समूह में घुसपैठ की थी, और इसलिए 1985 में उसने एक नया, स्पष्ट रूप से नियोपगान ड्र्यूडिक समूह, nr nDraíochor Féin (हमारा अपना धर्मवाद उर्फ एडीएफ) स्थापित किया और एक प्रकाशन शुरू किया; जर्नल, द ड्र्यूड प्रोग्रेस । यह तर्क देते हुए कि इसे पैन-यूरोपीय स्रोतों से आकर्षित करना चाहिए, न कि केवल उन लोगों के बजाय जिन्हें "सेल्टिक" माना जाता था, उन्होंने शैक्षणिक और विद्वानों की सटीकता पर जोर दिया, जो कि कई नियोपागन्स के प्रचलित छद्म-ऐतिहासिक विचारों के रूप में माना जाता था। पुरोहित। [137] 1986 में, Dr nDraíocht Féin के कई सदस्यों ने अपने पैन-यूरोपीय दृष्टिकोण के लिए खुले तौर पर बोनीविट्स की आलोचना की, आधुनिक ड्रुतिवाद को केल्टिक स्रोतों से प्रेरित होने की कामना करते हुए, और इसलिए वे हेलींग ऑफ केल्ट्रिया नामक एक समूह बनाने के लिए छिटक गए । [138]

वर्तमान में अमेरिका में प्राचीन ड्रग ऑफ ड्रॉयड्स (Aoda), जिसका नेतृत्व वर्तमान में मूर्तिपूजक लेखक और ड्र्यूड जॉन माइकल ग्रीर ने किया था, 1912 में अमेरिका के बोस्टन में मेसोनिक ड्र्यूड्स के प्राचीन आदेश के रूप में स्थापित किया गया था, मास। संस्थापक, जेम्स मैनचेस्टर ने एक चार्टर प्राप्त किया था। इंग्लैंड के मेसोनिक ड्र्यूड्स (AOMD) का प्राचीन क्रम। एओएमडी की शुरुआत 1874 में एंग्लिया ( एसआरआईए) में सोसाइटस रोजिकृसियाना के संस्थापक रॉबर्ट वेंटवर्थ लिटिल द्वारा प्राचीन पुरातात्विक आदेश ड्र्यूड्स (एएओडी) के रूप में हुई थी । एसआरआईए, हर्मेटिक ऑर्डर ऑफ़ द गोल्डन डॉन का तत्काल पूर्ववर्ती संगठन है(HOGD)। 1972 में, अमेरिका में प्राचीन ऑर्डर ऑफ मेसोनिक ड्रॉयड्स ने इसका नाम बदलकर प्राचीन नाम ऑर्डर ऑफ ड्र्यूड्स इन अमेरिका कर दिया और महिलाओं को शुरू करना शुरू कर दिया, जो कि अपने मेसोनिक मूल के कारण ऐसा पहले नहीं किया था। यह इस समय भी था कि एओएमडी ने कभी एओएमडीए को मान्यता देने से इनकार किया था और उस समय ऐसा करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। [139]

जनसांख्यिकी

2005 की गर्मियों की संक्रांति की सुबह स्टोनहेंज में तीन ड्र्यूडेसेस।


इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में, ड्र्यूड्स अधिकांश यूरोपीय देशों और बड़े यूरोपीय-अवरोही समुदायों वाले देशों में पाए जा सकते थे। [१४०] ड्र्यूड हर किसी को ड्रूड्री में बदलने की कोशिश नहीं करता है। [98]

के अनुसार अमेरिकी धार्मिक पहचान सर्वेक्षण (ऐरिस) , वहाँ लगभग रहे हैं संयुक्त राज्य अमेरिका में 30,000 Druids। [१४१] अगस्त २०० 141 में, एडीएफ ने ११, सदस्यों का दावा किया, जो ६१ खांचों में फैला हुआ था। [१४२] धर्म के विद्वान माइकल टी। कूपर ने पाया कि ५F एडीएफ के सदस्यों में से ३ previously% पहले ईसाई थे, [१४३] और समूह में प्रतिभागियों के बीच एक आम विषय ईसाई धर्म से मोहभंग था, जिसे वे एक धर्म मानते हैं दमनकारी बल जिसने महिलाओं को अधीन कर दिया और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया। [144]

हेगन ए। बर्जर , इवान ए। लीच, और लेघ एस। शेफ़र की अगुवाई वाली पगान जनगणना परियोजना ने इन उत्तरदाताओं के यूएस में ड्र्यूड्स से प्रतिक्रियाएं प्राप्त कीं, 49.7% पुरुष थे और 48.2% महिला (2%) ने जवाब नहीं दिया, जो परिलक्षित हुआ संपूर्ण रूप से अमेरिकी बुतपरस्त समुदाय की तुलना में पुरुषों का अधिक अनुपात, जिसमें एक महिला बहुमत थी। [१४५] themselves३.६% ड्र्यूड उत्तरदाताओं ने खुद को विषमलैंगिक बताया, १६.२% उभयलिंगी के रूप में, ३% समलैंगिक पुरुषों के रूप में और १.५% समलैंगिक के रूप में। यह व्यापक अमेरिकी पागन समुदाय की तुलना में विषमलैंगिकों के अधिक अनुपात को दर्शाता है। [१४५] इन ड्रूड्स की औसत आय २०,००० डॉलर से ३०,००० डॉलर के बीच थी, जो कि पगानों के लिए औसत से कम थी। [146]परियोजना से पता चला कि ड्र्यूड उत्तरदाताओं का 83.8% वोट करने के लिए पंजीकृत किया गया था, जो कि व्यापक पैगन समुदाय (87.8%) के अनुपात से कम था। [१४ru] इन ड्रूड्स में, ३५.५% पंजीकृत निर्दलीय, ३१% डेमोक्रेट , ५.१% लिबर्टेरियन , ४.६% रिपब्लिकन और ३.६% ग्रीन्स थे । [148]

इतिहासकार रोनाल्ड हटन ने अनुमान लगाया कि, 1996 में, इंग्लैंड में ड्र्यूड समूहों के लगभग 6000 सदस्य थे, जिनमें से दो-तिहाई ओबीओडी सदस्य थे। [149] 2001 ब्रिटेन की जनगणना , 30,569 व्यक्तियों "Druids" और 508 "सेल्टिक Druids" के रूप में के रूप में खुद का वर्णन किया। [१५०] [१५१] सितंबर २०१० में, इंग्लैंड और वेल्स के चैरिटी कमीशन ने द ड्रिड नेटवर्क को एक धर्मार्थ के रूप में पंजीकृत करने के लिए सहमति व्यक्त की , जिससे इसे आधिकारिक रूप से एक धर्म के रूप में आधिकारिक मान्यता मिल गई। [१५२] [१५३] यूके स्थित ऑर्डर ऑफ बार्ड्स, ओवेट्स और ड्रॉयड्स के 75 सदस्यों के एक अध्ययन में पाया गया कि "एक्सट्रैसिवेशन (61%) पर इंट्रोवर्शन (39%) के लिए एक स्पष्ट वरीयता, सेंसिंग (36%) से अधिक अंतर्ज्ञान (64%) के लिए एक स्पष्ट वरीयता। , (४४%) सोच (४४%) पर महसूस करने के लिए एक स्पष्ट वरीयता, और (३२%) से अधिक विचार करने के लिए न्याय करने (६ preference%) के लिए एक स्पष्ट वरीयता। " [154]

यह सभी देखें


केल्टिक नियोप्निज्म


ड्र्यूड और नव-ड्रूड की सूची


संदर्भ


फुटनोट


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पौराणिक कथा


निर्माण, ब्रह्मांड विज्ञान, और ब्रह्मांड विज्ञान

सृष्टि के बीच सबसे व्यापक खाता है

 फिनो-उग्रिक लोग पृथ्वी-गोताखोर मिथक हैं।

 उत्तर में यह पूर्वी फ़िनलैंड से ओब नदी तक फैले एक क्षेत्र में जाना जाता है, और दक्षिण में यह पाया जाता है,

 उदाहरण के लिए, मोर्डविन्स के बीच। यह मिथक, जो उत्तरी अमेरिका और साइबेरिया में प्रसिद्ध है, फिनो-उग्रिक लोगों के बीच काफी स्थिर है।

 मोर्डविन संस्करण में, भगवान प्रवाल समुद्र के बीच में एक चट्टान पर बैठते हैं और पानी में थूकते हैं;

 लार बढ़ने लगती है और ईश्वर उसे एक कर्मचारी के साथ मारता है, जिससे शैतान उसमें से निकल जाता है (कभी-कभी हंस के रूप में)।

 भगवान नीचे से पृथ्वी के लिए समुद्र में गोता लगाने के लिए शैतान का आदेश देता है;

तीसरे प्रयास में, वह सफल हो जाता है लेकिन पृथ्वी के कुछ को अपने मुंह में छिपाने की कोशिश करता है।

 जबकि भगवान रेत को घिसते हैं, पृथ्वी बढ़ने लगती है और शैतान का छल बेपर्दा हो जाता है, और उसके गाल में पाई जाने वाली पृथ्वी पहाड़ और पहाड़ बन जाती है।

 पूर्वी फिनिश मिथक में एक दिलचस्प विवरण है:


__________ 🌺


भगवान एक स्वर्ण प्रतिमा के शीर्ष पर खड़े हैं और पानी पर अपना प्रतिबिंब उठने का आदेश देते हैं, और यह शैतान बन जाता है।


बुनियादी मिथक के एटियलॉजिकल (व्याख्यात्मक और विस्तार) निरंतरता आम हैं।

डेविल खुद के लिए एक छड़ी के अंत के आकार का एक टुकड़ा मांगता है, और उस छेद से जिसके परिणामस्वरूप (वर्मिन) निकलते हैं - चूहे, पिस्सू, मच्छर, मक्खियों, और अन्य ऐसी जीवित चीजें।

 भारत-ईरानी प्रभाव को मिथक में (द्वैतवाद) देखा गया है - ईश्वर को शैतान के खिलाफ स्थापित करना - चूंकि धार्मिक द्वैतवाद भारत-ईरानी धर्म में सबसे महत्वपूर्ण है।

एक जल पक्षी शैतान से भी पुराना हो सकता है।

हालांकि, यह द्वंद्वात्मक जोर के बिना भी होता है।

 इस प्रकार, येनिसे खांटी, महामानव (मानसिक क्षमताओं से ओत-प्रोत) एक व्यक्ति के खाते में, पानी के पक्षियों के बीच प्रवल समुद्र के ऊपर दोह ग्लाइड करता है, लाल गले वाले लू को समुद्र के तल से पृथ्वी पर गोता लगाने के लिए कहता है, पृथ्वी के साथ एक द्वीप बनाता है।

मानसी के बीच एक दुर्लभ, लेकिन स्पष्ट रूप से प्राचीन, मिथक पाया जाता है:


_____________


आकाश का देवता पृथ्वी को स्वर्ग से नीचे आने देता है और इसे महान प्रतापी समुद्र की सतह पर रखता है।

_____________


अंडे से बनी दुनिया भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में सबसे प्रसिद्ध एक मिथक है,

हालांकि इसके वितरण के सबसे अधिक अंक फिनलैंड और एस्टोनिया में हैं।

एक जल पक्षी या एक चील हवा के कुंवारी देवी, इल्मातार के घुटने पर अपना घोंसला बनाता है, जो पानी में तैर रहा है।


________


 यह एक अंडा देता है, जो पानी में लुढ़कता है, और इसके टुकड़े पृथ्वी, आकाश, चंद्रमा और तारे बन जाते हैं।


_________________


मनुष्य के निर्माण से संबंधित मिथक उत्तर में मानसी और दक्षिण में वोल्गा फिन्स में पाए जाते हैं।


__________


इस तरह के मिथकों के बीच आम तत्व यह है कि आदमी, पूर्णता प्राप्त करने के कगार पर था, उसके बालों को शैतान द्वारा कुत्ते को स्थानांतरित कर दिया गया था,

जिसके थूक ने मनुष्य को भयभीत कर दिया और उसे रोग और मृत्यु के अधीन कर दिया।

 फ़िनलैंड में अभी तक एक और मानवविज्ञानी (मनुष्य की उत्पत्ति) के प्रकार पाए गए हैं:

समुद्र से एक कुदाल उठती है, एक पेड़ से टकराता है, जो खुलता है, और पहला मानव युगल आगे बढ़ता है।

___________


Finno-Ugric cosmographic (विश्व-वर्णन) अवधारणाओं में निम्नलिखित प्रसिद्ध पौराणिक विषय शामिल हैं: एक धारा या समुद्र जो गोल दुनिया को घेरे हुए है; आकाश की एक छतरी, जिसका केंद्रीय बिंदु उत्तर सितारा है


 (एक प्रकार का नाखून जिस पर आकाश घूमता है);

 आकाश का समर्थन करने वाला एक विश्व ध्रुव; एक विश्व पर्वत और पृथ्वी के बीच में एक विश्व वृक्ष उगता है; पृथ्वी पर ले जाने वाले जानवर; और पृथ्वी का नब और समुद्र का नग (जहाज को निगलने वाला एक रसातल)।

इन और अन्य सामग्रियों से, विभिन्न स्थानों में कमोबेश सुसंगत ब्रह्माण्डों का निर्माण हुआ है; केंद्रीय घटक आकाश, पृथ्वी और अंडरवर्ल्ड हैं।


__________________________


 ओब यूग्रीन्स और नेनेट्स के बीच सात या नौ मंजिला स्वर्ग का मिथक पाया जाता है।

कॉस्मोगोनिक (दुनिया की उत्पत्ति के विषय में) और ब्रह्मांड संबंधी मिथकों में महत्वपूर्ण अनुष्ठान कार्य होते हैं और उन्होंने कॉस्मोलॉजी (दुनिया के आदेश) के लिए आधार प्रदान किया है।

 जब, विसंगतियों और प्रार्थनाओं में, कई प्राकृतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक घटनाएं इन बुनियादी मिथकों से निकलती हैं, तो यह स्पष्टीकरण देने की बात नहीं है, लेकिन निर्णायक प्राइम घटनाओं के साथ संबंध खोजने के लिए जिसने दुनिया को अपना स्थायी आदेश दिया।

विश्व ध्रुव का प्रतिनिधित्व करने वाले एक स्तंभ की पूजा सामी और ओब यूग्रीन्स द्वारा की गई है, विशेष रूप से विश्व व्यवस्था के प्रतीक के रूप में।

_______________


उच्च देवता


अर्थ तत्व "आकाश" और "आकाश के देवता" को फ़ीनो-उग्रिक लोगों की कुछ शब्दावली में इतना करीब पाया जाता है

(उदाहरण के लिए, चेरेमीस जुमो, फिनिश जुमला, उमरदर्ट इनमार, कोमी जेन, नेनेट्स न्यूम) कि एसोसिएशन हाल की घटना नहीं हो सकती है।

आकाश के देवता की परंपरा कई-स्तरित है, और एकेश्वरवाद का प्रभाव, विशेष रूप से ईसाई धर्म और इस्लाम का, व्यापक रूप से प्रदर्शित होता है।

यह प्रभाव प्राचीन दक्षिणी उच्च संस्कृतियों से स्पष्ट रूप से पहले था।

इस प्रकार, चेरेमिस जुमो का अपने स्वर्ग में सेवकों के साथ एक वास्तविक न्यायालय है, और ये सेवक मनुष्यों और आकाश के देवता के बीच मध्यस्थ के रूप में कार्य करते हैं।

यह एक तुर्को-तातार प्रभाव को इंगित करता है, जिसे यूडीमर्ट इनमार में भी देखा जा सकता है।

हालाँकि, ईसाई तत्व भी पाए जाते हैं (इनमार की माँ वर्जिन मैरी से संबंधित है)।

 "महान", इनमार और जुमो के लिए सबसे आम एपिसोड, अल्लाह में से एक की याद दिलाता है।

 आकाश के मोर्डविन भगवान (Šकज, "निर्माता" या "जन्म दाता", मोक्ष लोगों के बीच, और kišké-pas, "महान गर्भाधान भगवान") देवताओं के प्रमुख हैं,

 सभी जानने वाले और देखने वाले, जो तुच्छ चीजों के लिए संपर्क नहीं करते हैं। वह, हालांकि, वसंत की जुताई की शुरुआत से जुड़े त्योहार में बहुत सम्‍मिलित है।

 इस त्यौहार में एक बूढ़ा व्यक्ति आकाश के देवता का प्रतिनिधित्व करता है और एक अटारी या एक पेड़ से उन लोगों के सवालों का जवाब देता है जो स्वास्थ्य, अनाज की फसल, मौसम और अन्य मामलों के बारे में प्रार्थना करते हैं।


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 आर्कटिक फिनो-उग्रिक लोगों के आकाश के देवता


(नेनेट्स न्यु; खंटी न्यू-ट्रॉम और सेंजके; मानसी न्यू-ट्रॉम; सामी तिरेम्स, होरागैलेस, और रेडियन) शिकार और खानाबदोश संस्कृतियों के उच्च देवता हैं,

जो कभी-कभी मिथकों में निर्माता देवताओं और संस्कृति नायकों के रूप में दिखाई देते हैं (अक्सर देई ओटियोसी, या "निष्क्रिय देवता," बिना पंथ के) और

 कभी-कभी अर्थव्यवस्था के पूज्य देवता के रूप में (मछली पकड़ने, शिकार करने वाले और हिरन पालन के प्रवर्तकों के रूप में), विशेष रूप से मौसम देवताओं के रूप में।

मूल रूप से, फिनो-उग्रिक लोगों को संभवतः अपने सिर पर एक सर्वोच्च देवता के साथ देवताओं के पदानुक्रमित परिवार की कोई अवधारणा नहीं थी; कई स्थानों में पाया जाने वाला गुण, "बुलंद" या "उच्च", जिसका अर्थ केवल "ऊपर" होना है-यह कहना है, आकाश में दिखाई देने वाला देवता।

दक्षिणी कृषि संस्कृतियों में एक भयावह आकाश की अवधारणा पर बल दिया जाता है, जिसमें पृथ्वी माता के बढ़ते महत्व को देखा जा सकता है - अब केवल एक स्थानीय क्षेत्र की भावना नहीं है, बल्कि एक महान जन्म देने वाले की भूमिका में है।

मोर्डविन्स कहते हैं, "आकाश के देवता हमारे पिता हैं, और पृथ्वी माता हमारी माता है।"

पृथ्वी माता का कार्य केवल क्षेत्र बलिदानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें बच्चे देना भी शामिल है; वह एक बेहतरीन समानता है।


आत्माओं की प्रणाली


उच्च देवताओं को आमतौर पर एक संस्कार के संबंध में सामना करना पड़ता है; वे दूर, अदृश्य हैं, और आश्चर्य की यात्रा नहीं करते हैं।

 अभिभावक आत्माओं के साथ, हालांकि, मामले अलग हैं।

वे सबसे पहले और सबसे असाधारण प्राणी हैं जो निश्चित दृष्टि, श्रवण अनुभव और ऐसी अन्य घटनाओं में दिखाई देते हैं।

 वे विशेष रूप से तब प्रकट होते हैं जब एक अभिभावक-आत्मा की मंजूरी से जुड़े सामाजिक आदर्श टूट जाते हैं। मृतकों की आत्माओं के साथ-साथ अभिभावक की भावनाएं, दैनिक व्यवहार में कारकों को विनियमित करने के रूप में महत्वपूर्ण हैं और आमतौर पर एकान्त स्थानीय आत्माएं हैं, जिन्हें "शासन" और "एक विशेष क्षेत्र" माना जाता है-

एक सांस्कृतिक इलाके (जैसे, घरेलू आत्माएं), एक प्राकृतिक क्षेत्र (जैसे, जंगल या पानी की संरक्षक आत्मा), या एक प्राकृतिक तत्व या घटना (जैसे, अग्नि आत्मा या पवन आत्माएं)।

वहाँ भी विशेष अभिभावक (आदमी या खजाने के) और विभिन्न राक्षसी प्राणी हैं - हालांकि अभिभावक आत्माओं के समान हैं - जिनकी पूजा नहीं की जाती है।


अभिभावक आत्माओं के नाम आम तौर पर शब्दों के यौगिक होते हैं, जिनमें से पहला तत्व कार्रवाई के क्षेत्र को इंगित करता है और दूसरा "मैन" या "मास्टर", जैसे कि उर्मर्ट कोरका-मर्ट ("हाउस-मैन") में एक नाम है या वु-मर्ट ("वाटर-मैन"); "बूढ़ा आदमी" या "बूढ़ी औरत", जैसा कि चेरेमिस पोर्ट-कुगूजा ("घर का पुराना आदमी") या पोआर्ट-कुवा ("घर की पुरानी महिला"); या "पिता" या "मां", जैसा कि मोर्डविन जर्ट-एट या जर्ट-एवा में है।

अभिभावक आत्माओं की प्रणाली से सामाजिक मूल्यों की प्रणाली का पता चलता है: घर की भावना घर के भाग्य की रक्षा करती है; मवेशी की आत्मा सर्दियों के दौरान मवेशियों पर नज़र रखती है (गर्मियों में मवेशी जंगल की आत्मा में आते हैं);

और खलिहान की आत्मा भाग्य को थर्राती है। इन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करने में, भावना कई भूमिकाओं में दिखाई दे सकती है।


 इस प्रकार, Ingrian घर की भावना "मालिक" के रूप में प्रकट होती है, उस भूखंड के मूल मालिक जिस पर एक घर बनाया गया है; "नैतिकतावादी," मानदंडों के खिलाफ अपराधों का दंडक जो घर की किस्मत को खतरे में डाल सकता है; और "सहानुभूति रखने वाला", जो घर या परिवार को धमकी देने वाली आपदाओं से पहले चेतावनी देता है। कुछ लोगों के साथ- मोर्डविंस, उदाहरण के लिए- अभिभावक भावना प्रणाली बहुत विशिष्ट है, और बहुत बड़ी संख्या में आत्माएं हैं; दूसरों के साथ, जैसे कि सामी, नेनेट्स और ओब यूग्रीन्स, उनमें से कम हैं, और हेर डेर टियर ("मास्टर ऑफ एनिमल्स") खेल आत्माएं प्रबल हैं।




 



Mythology


Creation, cosmography, and cosmology


The most widespread account of the creation among the Finno-Ugric peoples is the earth-diver myth. In the north it is known in an area extending from eastern Finland to the Ob River, and in the south it is found, for example, among the Mordvins.

 This myth, which is well known in North America and Siberia, is fairly constant in form among the Finno-Ugric peoples. 

In the Mordvin variant, God sits on a rock in the middle of the primeval sea and spits into the water;

 the saliva begins to grow and God strikes it with a staff, whereupon the Devil comes out of it (sometimes in the form of a goose). God orders the Devil to dive into the sea for earth from the bottom; at the third attempt, he succeeds but tries to hide some of the earth in his mouth.

 While God scatters sand, the earth begins to grow and the Devil’s deceit is unmasked, and the earth found in his cheek becomes mountains and hills.


 The eastern Finnish myth contains an interesting detail: God stands on the top of a golden statue and orders his reflection on the water to rise, and this becomes the Devil.


Etiological (explanatory and expanding) continuations of the basic myth are common. 

The Devil demands for himself a piece of earth the size of the end of a stick, and from the hole that results vermin emerge—mice, fleas, mosquitoes, flies, and other such living things. 

Indo-Iranian influence has been seen in the dualism of the myth—setting God against the Devil—since religious dualism is most significant in Indo-Iranian religion. 

A water bird may be older than the Devil. It also occurs, however, without the dualistic emphasis. Thus, in an account by the Yenisey Khanty, the great shaman (a medicine man with psychic abilities) Doh glides above the primeval sea among the water birds, asks the red-throated loon to dive for earth from the bottom of the sea, and with the earth makes an island.

 A rarer, but apparently ancient, myth is found among the Mansi: 


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the god of the skies lets earth come down from heaven and places it on the surface of the great primeval sea.

The world made from an egg is a myth best known in equatorial regions, though the most northerly points of its distribution are in Finland and Estonia. 

A water bird or an eagle makes its nest on the knee of Ilmatar, the virgin goddess of the air, who is floating in the water.

 It lays an egg, which rolls into the water, and pieces of it become the earth, the sky, the moon, and the stars. 


Myths concerning the creation of man are found in the north among the Mansi and in the south among the Volga Finns.

 The common element among all such myths is that man, on the brink of achieving perfection, had his hairy covering transferred to the dog by the Devil, whose spit blighted man and made him subject to disease and death.

 In Finland the variant of yet another anthropogonic (origin of man) myth has been found: a hummock rises from the sea, a tree stump thereon splits open, and the first human couple steps forth.


Finno-Ugric cosmographic (world-describing) concepts include the following well-known mythological themes: a stream or sea encircling the round world; a canopy of the heavens, the central point of which is the North Star (a kind of nail on which the sky rotates); a world pole supporting the sky; a world mountain and a world tree rising in the middle of the earth; animals carrying the earth; and the nub of the earth and the nub of the sea (an abyss that swallows ships). 

From these and from other materials, more or less coherent cosmographies have been formed in different places;


 the central components are the sky, the earth, and the underworld. 

Among the Ob Ugrians and the Nenets is found a myth of the seven- or nine-storied heaven.

The cosmogonic (concerning the origin of the world) and cosmographic myths have had important ritual functions and have provided the basis for cosmology (the ordering of the world).

 When, in incantations and prayers, numerous natural, cultural, and social phenomena derive from these basic myths, it is not a matter of giving an explanation but of finding the connection with the decisive primeval events that gave the world its lasting order. 

A pillar representing the world pole has been worshipped by the Sami and the Ob Ugrians, especially as a symbol of the world order.


High gods


The semantic elements “sky” and “god of the sky” are found to be so close in the terminology of certain of the Finno-Ugric peoples (for example, Cheremis Jumo, Finnish Jumala, Udmurt Inmar, Komi Jen, Nenets Num) that the association cannot be a recent phenomenon. The tradition of the god of the sky is many-layered, and the influence of monotheism, especially of Christianity and Islam, is widely exhibited. 

This influence was evidently preceded by that of ancient southern high cultures.

 Thus, the Cheremis Jumo has a real court with servants in his heaven, and these servants act as intermediaries between humans and the god of the sky.

 This indicates a Turko-Tatar influence, which can also be seen in the Udmurt Inmar. 

Christian elements, however, are also found (Inmar’s mother is related to the Virgin Mary).

 “Great,” the most common epithet for Inmar and Jumo, reminds one of Allah. The Mordvin god of the sky (Škaj, “creator” or “birth giver,” among the Moksha people, and also Ńišké-pas, “the great inseminating god”) is the chief of the gods, all-knowing and all-seeing,

 who is not approached for trivial things. 

He appears, however, very concretely in a festival connected with the beginning of the spring plowing. In this festival an old man represents the god of the sky and from an attic or a tree answers questions put to him by people who pray about health, the grain harvest, the weather, and other matters.


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 The gods of the sky of the Arctic Finno-Ugric peoples


 (Nenets Num; Khanty Num-Turom and Sängke; Mansi Num-Tarom; Sami Tiermes, Horagalles, and Radien) are the high gods of hunting and nomadic cultures, 

who sometimes appear in myths as creator gods and culture heroes (often as dei otiosi, or “inactive gods,” 


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without a cult) and sometimes as venerated gods of the economy (as the promoters of fishing, hunting, and reindeer herding), especially as weather gods.


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 Originally, the Finno-Ugric peoples probably had no concept of a hierarchic family of gods with a supreme god at its head; 

the attribute found in many places, “lofty” or “high,” merely means “being above”—that is to say, a god appearing in the sky._

पौराणिक कथा


निर्माण, ब्रह्मांड विज्ञान, और ब्रह्मांड विज्ञान


फिनो-उग्रिक लोगों के बीच निर्माण का सबसे व्यापक खाता पृथ्वी-गोताखोर मिथक है। उत्तर में यह पूर्वी फ़िनलैंड से ओब नदी तक फैले एक क्षेत्र में जाना जाता है, और दक्षिण में यह पाया जाता है, उदाहरण के लिए, मॉर्डविंस के बीच।

 यह मिथक, जो उत्तरी अमेरिका और साइबेरिया में प्रसिद्ध है, फिनो-उग्रिक लोगों के बीच काफी स्थिर है।

मोर्डविन संस्करण में, भगवान प्रवाल समुद्र के बीच में एक चट्टान पर बैठते हैं और पानी में थूकते हैं;

 लार बढ़ने लगती है और ईश्वर उसे एक कर्मचारी के साथ मारता है, जिससे शैतान उसमें से निकल जाता है (कभी-कभी हंस के रूप में)। भगवान नीचे से पृथ्वी के लिए समुद्र में गोता लगाने के लिए शैतान का आदेश देता है; तीसरे प्रयास में, वह सफल हो जाता है लेकिन पृथ्वी के कुछ को अपने मुंह में छिपाने की कोशिश करता है।

 जबकि भगवान रेत को घिसते हैं, पृथ्वी बढ़ने लगती है और शैतान का छल बेपर्दा हो जाता है, और उसके गाल में पाई जाने वाली पृथ्वी पहाड़ और पहाड़ बन जाती है।


 पूर्वी फ़िनिश मिथक में एक दिलचस्प विवरण है: भगवान एक स्वर्ण प्रतिमा के शीर्ष पर खड़ा है और पानी पर अपने प्रतिबिंब को बढ़ने का आदेश देता है, और यह शैतान बन जाता है।


बुनियादी मिथक के एटियलॉजिकल (व्याख्यात्मक और विस्तार) निरंतरता आम हैं।

डेविल खुद के लिए एक छड़ी के अंत के आकार का एक टुकड़ा मांगता है, और उस छेद से जिसके परिणामस्वरूप सिंदूर निकलता है - चूहे, पिस्सू, मच्छर, मक्खियों, और ऐसी अन्य जीवित चीजें।

भारत-ईरानी प्रभाव को मिथक के द्वंद्ववाद में देखा गया है - ईश्वर को शैतान के खिलाफ स्थापित करना - चूंकि धार्मिक द्वैतवाद भारत-ईरानी धर्म में सबसे महत्वपूर्ण है।

एक जल पक्षी शैतान से भी पुराना हो सकता है। हालांकि, यह द्वंद्वात्मक जोर के बिना भी होता है। इस प्रकार, येनिसे खांटी, महामानव (मानसिक क्षमताओं से ओत-प्रोत) एक व्यक्ति के खाते में, पानी के पक्षियों के बीच प्रवल समुद्र के ऊपर दोह ग्लाइड करता है, लाल गले वाले लू को समुद्र के तल से पृथ्वी पर गोता लगाने के लिए कहता है, पृथ्वी के साथ एक द्वीप बनाता है।

 मानसी के बीच एक दुर्लभ, लेकिन स्पष्ट रूप से प्राचीन, मिथक पाया जाता है:


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आकाश का देवता पृथ्वी को स्वर्ग से नीचे आने देता है और इसे महान प्रतापी समुद्र की सतह पर रखता है।

अंडे से बनी दुनिया भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में सबसे प्रसिद्ध एक मिथक है, हालांकि इसके वितरण के सबसे अधिक अंक फिनलैंड और एस्टोनिया में हैं।

एक जल पक्षी या एक चील हवा के कुंवारी देवी, इल्मातार के घुटने पर अपना घोंसला बनाता है, जो पानी में तैर रहा है।

 यह एक अंडा देता है, जो पानी में लुढ़कता है, और इसके टुकड़े पृथ्वी, आकाश, चंद्रमा और तारे बन जाते हैं।


मनुष्य के निर्माण से संबंधित मिथक उत्तर में मानसी और दक्षिण में वोल्गा फिन्स में पाए जाते हैं।

 इस तरह के मिथकों के बीच आम तत्व यह है कि आदमी, पूर्णता प्राप्त करने के कगार पर था, उसके बालों को शैतान द्वारा कुत्ते को स्थानांतरित कर दिया गया था, जिसके थूक ने आदमी को भयभीत कर दिया और उसे बीमारी और मृत्यु के अधीन कर दिया।

 फ़िनलैंड में अभी तक एक और मानवविज्ञानी (मनुष्य की उत्पत्ति) मिथक का प्रकार पाया गया है: समुद्र से एक झोंपड़ी निकलती है, एक पेड़ से टकराता है और वहां से पहला मानव युगल आगे बढ़ता है।


Finno-Ugric cosmographic (विश्व-वर्णन) अवधारणाओं में निम्नलिखित प्रसिद्ध पौराणिक विषय शामिल हैं: एक धारा या समुद्र जो गोल दुनिया को घेरे हुए है; आकाश की एक छतरियां, जिसका केंद्रीय बिंदु उत्तर सितारा (एक प्रकार का नाखून, जिस पर आकाश घूमता है) है; आकाश का समर्थन करने वाला एक विश्व ध्रुव; एक विश्व पर्वत और पृथ्वी के बीच में एक विश्व वृक्ष उगता है; पृथ्वी पर ले जाने वाले जानवर; और पृथ्वी का नब और समुद्र का नग (जहाज को निगलने वाला एक रसातल)।

इन और अन्य सामग्रियों से, विभिन्न स्थानों में कमोबेश सुसंगत ब्रह्माण्डों का निर्माण हुआ है;


 केंद्रीय घटक आकाश, पृथ्वी और अंडरवर्ल्ड हैं।

ओब यूग्रीन्स और नेनेट्स के बीच सात या नौ मंजिला स्वर्ग का मिथक पाया जाता है।

कॉस्मोगोनिक (दुनिया की उत्पत्ति के विषय में) और ब्रह्मांड संबंधी मिथकों में महत्वपूर्ण अनुष्ठान कार्य होते हैं और उन्होंने कॉस्मोलॉजी (दुनिया के आदेश) के लिए आधार प्रदान किया है।

 जब, विसंगतियों और प्रार्थनाओं में, कई प्राकृतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक घटनाएं इन बुनियादी मिथकों से निकलती हैं, तो यह स्पष्टीकरण देने की बात नहीं है, लेकिन निर्णायक प्राइम घटनाओं के साथ संबंध खोजने के लिए जिसने दुनिया को अपना स्थायी आदेश दिया।

विश्व ध्रुव का प्रतिनिधित्व करने वाले एक स्तंभ की पूजा सामी और ओब यूग्रीन्स द्वारा की गई है, विशेष रूप से विश्व व्यवस्था के प्रतीक के रूप में।


उच्च देवता


अर्थ तत्व "आकाश" और "आकाश के देवता" फिनो-यूरिक लोगों की कुछ शब्दावली में इतने करीब पाए जाते हैं (उदाहरण के लिए, चेरेमीस जुमो, फिनिश जुमला, उम्मेदर्ट इनमार, कोमी जेन, नेनेट्स न्यूम) एसोसिएशन हाल की घटना नहीं हो सकती। आकाश के देवता की परंपरा कई-स्तरित है, और एकेश्वरवाद का प्रभाव, विशेष रूप से ईसाई धर्म और इस्लाम का, व्यापक रूप से प्रदर्शित होता है।

यह प्रभाव प्राचीन दक्षिणी उच्च संस्कृतियों से स्पष्ट रूप से पहले था।

 इस प्रकार, चेरेमिस जुमो का अपने स्वर्ग में सेवकों के साथ एक वास्तविक न्यायालय है, और ये सेवक मनुष्यों और आकाश के देवता के बीच मध्यस्थ के रूप में कार्य करते हैं।

 यह एक तुर्को-तातार प्रभाव को इंगित करता है, जिसे यूडीमर्ट इनमार में भी देखा जा सकता है।

हालाँकि, ईसाई तत्व भी पाए जाते हैं (इनमार की माँ वर्जिन मैरी से संबंधित है)।

 "महान", इनमार और जुमो के लिए सबसे आम एपिसोड, अल्लाह में से एक की याद दिलाता है। आकाश के मोर्डविन भगवान (Šकज, "निर्माता" या "जन्म दाता", मोक्ष लोगों के बीच, और kišké-pas, "महान गर्भाधान करने वाले देव") देवताओं के प्रमुख, सभी-जानने वाले और सभी-देखने वाले हैं ,

 जो तुच्छ चीजों के लिए संपर्क नहीं किया जाता है।

वह, हालांकि, वसंत की जुताई की शुरुआत से जुड़े त्योहार में बहुत सम्‍मिलित है। इस त्यौहार में एक बूढ़ा व्यक्ति आकाश के देवता का प्रतिनिधित्व करता है और एक अटारी या एक पेड़ से उन लोगों के सवालों का जवाब देता है जो स्वास्थ्य, अनाज की फसल, मौसम और अन्य मामलों के बारे में प्रार्थना करते हैं।


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 आर्कटिक फिनो-उग्रिक लोगों के आकाश के देवता


 (नेनेट्स न्यु; खंटी न्यू-ट्रॉम और सेंजके; मानसी न्यू-ट्रॉम; सामी तिरेम्स, होरागैलेस, और रेडियन) शिकार और खानाबदोश संस्कृतियों के उच्च देवता हैं,

जो कभी-कभी निर्माता देवताओं और संस्कृति नायकों के रूप में मिथकों में दिखाई देते हैं (अक्सर देई ओटियोसी, या "निष्क्रिय देवताओं" के रूप में)


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एक पंथ के बिना) और कभी-कभी अर्थव्यवस्था के आदरणीय देवताओं के रूप में (मछली पकड़ने, शिकार करने और हिरन का पालन करने वाले के प्रवर्तक के रूप में), विशेष रूप से मौसम देवताओं के रूप में।


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 मूल रूप से, फिनो-उग्रिक लोगों को संभवतः अपने सिर पर एक सर्वोच्च देवता के साथ देवताओं के पदानुक्रमित परिवार की कोई अवधारणा नहीं थी;

कई स्थानों में पाया जाने वाला गुण, "उदात्त" या "उच्च," का अर्थ केवल "ऊपर होना" है - यह कहना है, आकाश में प्रकट होने वाला देवता ।_1550s, "goal, end, final point," from Latin terminus (plural termini) 

"an end, a limit, boundary line," from PIE *ter-men- "peg, post," from root *ter-, base of words meaning "peg, post; boundary, marker, goal"

 (source also of Sanskrit tarati "passes over, crosses over," tarantah "sea;"


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 Hittite tarma- "peg, nail," tarmaizzi "he limits;" 

Greek terma "boundary, end-point, limit," termon "border;" 

Gothic þairh, Old English þurh "through;" 

Old English þyrel "hole;" 

Old Norse þrömr "edge, chip, splinter").

 "The Hittite noun and the usage in Latin suggest that the PIE word denoted a concrete object which came to refer to a boundary-stone." [de Vaan]

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In ancient Rome, Terminus was the name of the deity who presided over boundaries and landmarks, focus of the important Roman festival of Terminalia 

(held Feb. 23, the end of the old Roman year). 

The meaning "either end of a transportation line" is first recorded 1836.

1550, "लक्ष्य, अंत, अंतिम बिंदु," लैटिन टर्मिनस (बहुवचन टर्मिनी) से

"एक छोर, एक सीमा, सीमा रेखा," पाई * टेर-मेन से - "खूंटी, पद," जड़ * स्थ- से, शब्दों का आधार "खूंटी, पद, सीमा, मार्कर, लक्ष्य"

 (संस्कृत तारति का भी स्रोत "ऊपर से होकर गुजरता है, पार करता है," तरन्त "समुद्र;"


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 हित्ती तर्मा- "खूंटी, कील," तर्मज़ी "वह सीमित करता है;"

ग्रीक शब्द "सीमा, अंत-बिंदु, सीमा," सीमा "सीमा;"

गॉथिक othair, पुरानी अंग्रेज़ी "urh "के माध्यम से;"

पुरानी अंग्रेज़ी Englishyrel "छेद;"

ओल्ड नॉर्स mrömr "एज, चिप, स्प्लिन्टर")।

 "हित्त संज्ञा और लैटिन में उपयोग का सुझाव है कि पीआईई शब्द ने एक ठोस वस्तु को निरूपित किया जो एक सीमा-पत्थर का उल्लेख करने के लिए आया था।" [दे वान]

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प्राचीन रोम में, टर्मिनस टर्मिनल के महत्वपूर्ण रोमन त्योहार का ध्यान केंद्रित करने वाले सीमाओं और स्थलों की अध्यक्षता करने वाले देवता का नाम था

(23 फरवरी को, पुराने रोमन वर्ष का अंत हुआ)।

"परिवहन लाइन के दोनों छोर" का अर्थ पहली बार 1836 दर्ज किया गया है।

''आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देव: कृणुते स्वाय धर्मणे। (ऋग्वेद - 4.5.3.3) 


''धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेते असुरस्य मायया। (ऋग्वेद - 5.63.7)

यहाँ पर 'धर्म का अर्थ निश्चित नियम (व्यवस्था या सिद्धांत) या आचार नियम है। 

2. अभयं सत्वसशुद्धिज्ञार्नयोगव्यवस्थिति:। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाधायायस्तप आर्जवम्।।

अहिंसा सत्यमक्रोधत्याग: शांतिर पैशुनम्। दया भूतष्य लोलुप्तवं मार्दवं ह्रीरचापलम्।। 

3. तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। (गीता : 16/1, 2, 3)

यानि भय रहित मन की निर्मलता, दृढ़ मानसिकता, स्वार्थरहित दान, इंद्रियों पर नियंत्रण, देवता और गुरुजनों की पूजा, यश जैसे उत्तम कार्य, वेद शास्त्रों का अभ्यास, भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना, सरल, व्यक्तित्व, मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट न देना, सच्ची और प्रिय वाणी, किसी भी स्थिति में क्रोध न करना, अभिमान का त्याग, मन पर नियंत्रण, निंदा न करना, सबके प्रति दया, कोमलता, समाज और शास्त्रों के अनुरूप-आचरण, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, शत्रुभाव नहीं रखना - यह सब धर्म सम्मत गुण व्यक्तित्व को देवता बना देते हैं।धर्म का मर्म और उसकी व्यापकता को स्पष्ट करते हुए गंगापुत्र भीष्म कहते हैं -

4. सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्यफलं तप:।बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया।। (महाभारत शांतिपर्व - 174/2)

यानि धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। जब हम धर्ममय आचरण करते हैं, तो चाहे हमें उसका फल तत्काल दिखाई नहीं दे, किंतु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने (तप) का फल, मरण के पूर्व (ज्ञान रूप में) मिलता है। जब हम धर्म आचरण करते हैं तो कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है।किंतु ये कठिनाइयाँ हमारे ज्ञान और समझ को बढ़ाती हैं। धर्म के कई द्वार हैं। जिनसे वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। धर्ममय आचरण करने पर धर्म का स्वरूप हमें समझ में आने लगता है, तब हम अपने कर्मों को ध्यान से देखते हैं और अधर्म से बचते हैं। धर्म की कोई भी क्रिया विफल नहीं होती, धर्म का कोई भी अनुष्ठान व्यर्थ नहीं जाता। महाभारत के इस उपदेश पर हमेशा विश्वास करना चाहिए और सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए।

5. यस्मिंस्तु सर्वे स्यरसंनिविष्टा धर्मो यत: स्यात् तदुपरक्रमेता। 

द्वेष्यो भवत्यर्थपरो हि लोके कामत्मता खल्वपि न प्रशस्ता।। (वाल्मीकि रामायण 2/21/58)

यानि जिस कर्म में धर्म आदि पुरुषार्थ शामिल न हो उसको नहीं करना चाहिए। जिससे धर्म की सिद्धि होती हो, वही कार्य करें। जो केवल धन कमाने के लिए कार्य करता है, वह संसार में सबके द्वेष का पात्र बन जाता है। धर्म विरुद्ध कार्य करना प्रशंसा नहीं निंदा की बात है।

Eusebeia (Greek: εὐσέβεια from εὐσεβής "pious" from εὖ eu meaning "well", 

and σέβας sebas meaning "reverence",

 itself formed from seb- meaning sacred awe and reverence especially in actions) is a Greek word abundantly used in Greek philosophy as well as in the New Testament, meaning to perform the actions appropriate to the gods. The root seb- (σέβ-) is connected to danger and flight, and thus the sense of reverence originally described fear of the gods.[1][2]

Classical Greek usage Edit

The word was used in Classical Greece where it meant behaving as tradition dictates in one's social relationships and towards the gods. One demonstrates eusebeia to the gods by performing the customary acts of respect (festivals, prayers, sacrifices, public devotions). By extension one honors the gods by showing proper respect to elders, masters, rulers and everything under the protection of the gods.[3]

For Platonists, "Eusebeia" meant "right conduct in regard to the gods". For the Stoics, "knowledge of how God should be worshiped".[4]

In ancient Greek religion and myth the concept of Eusebeia is anthropomorphized as the daimon of piety, loyalty, duty and filial respect.

 According to one source, her husband is Nomos (Law), and their daughter is Dike, goddess of justice and fair judgment.

 In other tellings, Dike is the daughter of the god Zeus and/or the goddess Themis (Order).

[5] The Roman equivalent is Pietas.

The opposite of Eusebeia is Asebeia, which was considered a crime in Athens. 

The punishment could have been death or being exiled.

 Some philosophers, such as Anaxagoras, Protagoras and Socrates were accused and trialed by the Heliaia.

In ancient India Edit

The Indian emperor Ashoka in his 250 BCE Edicts used the word "eusebeia" as a Greek translation for the central Buddhist and Hindu concept of "dharma" in the Kandahar Bilingual Rock Inscription.[6]

New Testament usage Edit

"Eusebeia" enters the New Testament in later writings, where it is typically translated as "godliness," a vague translation that reflects uncertainty about its relevant meaning in the New Testament. For example, "Divine power has granted to us everything pertaining to life and godliness (eusébeia), through the true (full, personal, experiential) knowledge of Him Who called us by His own glory and excellence" (2 Pet 1:3) Peter. As the following quotation from Bullinger demonstrates, interpreters erroneously adapt the meaning of eusebeia to fit their idea of what is appropriate to Christian practice (and not on philological grounds):

The word εὐσέβεια as it is used in the Greek New Testament carries the meaning of "godliness", and is distinct from θρησκεία (thrēskeia), "religion". 

Eusebeia relates to real, true, vital, and spiritual relation with God, while thrēskeia relates to the outward acts of religious observances or ceremonies, which can be performed by the flesh. The English word "religion" was never used in the sense of true godliness. It always meant the outward forms of worship.

 In 1Ti 3:16, the Mystery, or secret connected with true Christianity as distinct from religion, it is the Genitive of relation.

 (This specific meaning occurs only in Act 3:12.)] This word arises in the Greek New Testament in 1 Tim 2:2, 1 Tim 3:16, 1 Tim 4:7, 1 Tim 4:8, 1 Tim 6:3, 1 Tim 6:5, 1 Tim 6:6, 1 Tim 6:11, 2 Tim 3:5, Tit 1:1, 2 Pt 1:3, 2 Pt 1:6, 2 Pt 1:7, 2 Pt 3:11.[7]eusebeia (ग्रीक: αια εὐσεβής "pious" से "eu अर्थ" वेल ",

और enceα "sebas का अर्थ है" श्रद्धा ",

 स्वयं seb- जिसका अर्थ है पवित्र विस्मय और विशेष रूप से कार्यों में श्रद्धा) एक ग्रीक शब्द है जिसका उपयोग ग्रीक दर्शन के साथ-साथ नए नियम में बहुतायत में किया जाता है, जिसका अर्थ है देवताओं के लिए उचित कार्य करना। जड़ seb- (σέβ-) खतरे और उड़ान से जुड़ा हुआ है, और इस प्रकार श्रद्धा की भावना मूल रूप से देवताओं से डर का वर्णन करती है। [१] [२]

शास्त्रीय यूनानी उपयोग संपादित करें

इस शब्द का उपयोग शास्त्रीय ग्रीस में किया गया था, जहां इसका मतलब था कि परंपरा किसी के सामाजिक रिश्तों में और देवताओं के प्रति व्यवहार करती है। एक सम्मान (त्योहारों, प्रार्थना, बलिदान, सार्वजनिक भक्ति) के प्रथागत कृत्यों को करके देवताओं को यूज़ेबीया प्रदर्शित करता है। विस्तार से, देवताओं के संरक्षण में बड़ों, आकाओं, शासकों और सब कुछ के लिए उचित सम्मान दिखाकर देवताओं का सम्मान किया जाता है। [३]

प्लैटोनिस्टों के लिए, "यूसेबिया" का अर्थ था "देवताओं के संबंध में सही आचरण"। स्टॉइक के लिए, "भगवान की पूजा कैसे की जानी चाहिए" इसका ज्ञान है। [४]

प्राचीन यूनानी धर्म और मिथक में यूसेबे की अवधारणा धार्मिकता, निष्ठा, कर्तव्य और फिल्मी सम्मान के देवता के रूप में है।

 एक सूत्र के अनुसार, उनके पति नोमोस (कानून) हैं, और उनकी बेटी डाइक, न्याय की देवी और निष्पक्ष न्याय है।

 अन्य विवरणों में, डाइक ज़ीउस और / या देवी थेमिस (ऑर्डर) के देवता की बेटी है।

[५] रोमन समकक्ष पीटस है।

Eusebeia के विपरीत Asebeia है, जिसे एथेंस में एक अपराध माना जाता था।

सजा मौत या निर्वासित किया जा सकता था।

 कुछ दार्शनिकों, जैसे कि अनएक्सगोरस, प्रोटागोरस और सुकरात को हेलिया द्वारा अभियुक्त और परीक्षण किया गया था।

प्राचीन भारत में संपादित करें

भारतीय सम्राट अशोक ने अपने 250 ई.पू. एडिकट्स में कंधार द्विभाषी रॉक शिलालेख में "धर्मा" की केंद्रीय बौद्ध और हिंदू अवधारणा के लिए ग्रीक अनुवाद के रूप में "यूसेबिया" शब्द का इस्तेमाल किया था। [6]

नया नियम उपयोग

"यूसेबिया" बाद के लेखन में नए नियम में प्रवेश करता है, जहां यह आमतौर पर "ईश्वरत्व" के रूप में अनुवादित होता है, एक अस्पष्ट अनुवाद जो नए नियम में इसके प्रासंगिक अर्थ के बारे में अनिश्चितता को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, "ईश्वरीय शक्ति ने हमें जीवन और ईश्वरत्व (ईसाइबीया) से संबंधित सब कुछ प्रदान किया है, जो कि उनके स्वयं के गौरव और उत्कृष्टता द्वारा हमें पुकारा गया है, जो उनके सच्चे (पूर्ण, व्यक्तिगत, अनुभवात्मक) ज्ञान के माध्यम से" (2 पेट 1: 3) पीटर। जैसा कि बुलिंगर के निम्नलिखित उद्धरण में दर्शाया गया है, दुभाषियों ने गलती से यूज़ेबिया के अर्थ को अपने विचार के अनुकूल करने के लिए अनुकूलित किया जो कि ईसाई अभ्यास के लिए उपयुक्त है (और दार्शनिक आधार पर नहीं):

ग्रीक न्यू टेस्टामेंट में प्रयुक्त होने वाले शब्द αια का अर्थ "ईश्वरत्व" है, और यह θρ fromα (थ्रेशिया), "धर्म" से अलग है।

यूसेबिया भगवान के साथ वास्तविक, सच्चे, महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक संबंध से संबंधित है, जबकि थ्रेशिया धार्मिक पर्यवेक्षणों या समारोहों के बाहरी कार्यों से संबंधित है, जो मांस द्वारा किया जा सकता है। अंग्रेजी शब्द "धर्म" का उपयोग कभी भी सच्चे ईश्वरवाद के अर्थ में नहीं किया गया था। यह हमेशा पूजा के बाहरी रूपों का मतलब था।

 1Ti 3:16 में, रहस्य, या धर्म से अलग के रूप में सच्ची ईसाइयत से जुड़ा रहस्य, यह रिश्ते की उत्पत्ति है।

 (यह विशिष्ट अर्थ केवल अधिनियम 3:12 में होता है।)] यह शब्द ग्रीक नए नियम में 1 टिम 2: 2, 1 टिम 3:16, 1 टिम 4: 7, 1 टिम 4: 8, 1 टिम 6 में उत्पन्न होता है। : ३, १ टिम ६: ५, १ टिम ६: ६, १ टिम ६:११, २ टिम ३: ५, तैसा १: १, २ पं। १: ३, २ पं। १: ६, २ पं। १: 6। 2 पं। 3:11। [7]



मौखिक संज्ञा और जगह की संज्ञा क्रिया से ذهب ( ḏahaba , " करने के लिए जाना " ) , जड़ से ذ ه ب ( D-एचबी ) ।

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See also: مذہب

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Etymology

Verbal noun and noun of place from the verb ذَهَبَ‎ (ḏahaba, “to go”), from the root ذ ه ب‎ (ḏ-h-b).

Noun

مَذْهَب  (maḏhab) m (plural مَذَاهِب‎ (maḏāhib))

verbal noun of ذَهَبَ‎ (ḏahaba) (form I)


goingleavingdeparture


way out, escape


procedurepolicymanner


doctrineteachingbeliefideologyopinionview


faithdenomination


religioncreed


courseschool


waymovementorientation


Declension

show ▼Declension of noun مَذْهَب (maḏhab)

Etymology 2

Derived from the passive participle of the verb ذَهَّبَ‎ (ḏahhaba, “to gild”), denominal verb from ذَهَب‎ (ḏahab, “gold”).

Adjective

مُذَهَّب  (muḏahhab) (feminine مُذَهَّبَة‎ (muḏahhaba), masculine plural مُذَهَّبُون‎ (muḏahhabūn), feminine plural مُذَهَّبَات‎ (muḏahhabāt))

gilded


Declension

show ▼Declension of adjective مُذَهَّب (muḏahhab)

Etymology 3

Derived from the passive participle of the verb أَذْهَبَ‎ (ʾaḏhaba, “to gild”), denominal verb from ذَهَب‎ (ḏahab, “gold”).

Adjective

مُذْهَب  (muḏhab) (feminine مُذْهَبَة‎ (muḏhaba), masculine plural مُذْهَبُون‎ (muḏhabūn), feminine plural مُذْهَبَات‎ (muḏhabāt))

gilded


Declension

show ▼Declension of adjective مُذْهَب (muḏhab)

Etymology 4

Denominal verb from مَذْهَب‎ (maḏhab, “sect”).

Verb

مَذْهَبَ  (maḏhaba) Iqnon-past يُمَذْهِبُ‎‎ (yumaḏhibu)

to cause to split into sects


Conjugation

show ▼Conjugation of 

مَذْهَبَ

 (form-Iq sound)

Pashto

Etymology

From Arabic مَذْهَب‎ (maḏhab)

Pronunciation

IPA(key): /maˈzab/


IPA(key): /mazˈhab/


Noun

مذهب  (mazhab) m

religion


PersianEdit

EtymologyEdit

From Arabic مَذْهَب‎ (maḏhab)

PronunciationEdit

(Iranian PersianIPA(key): [mæzˈhæb]


NounEdit

Dari PersianمذهبIranian PersianTajikмазҳаб (mazhab)

مذهب  (mazhab) (plural مذاهب‎ (mazâheb) or مذهب‌ها‎ (mazhab-hâ))

religion


faith


SynonymsEdit

(religion): دین‎ (din)


(faith): ایمان‎ (imân)


Derived termsEdit

مذهبی‎ (mazhabi)


مذهب  ( Madhab )  मीटर ( बहुवचन مذاهب ( maḏāhib ) )

मौखिक संज्ञा की ذهب ( ḏahaba )  ( मैं फार्म )


जा रहा है , जा रहा है , प्रस्थान


बाहर जाना, बच जाना


प्रक्रिया , नीति , ढंग


सिद्धांत , शिक्षण , विश्वास , विचारधारा , राय , दृष्टिकोण


विश्वास , संप्रदाय


धर्म , पंथ


बेशक , स्कूल


रास्ता , आंदोलन , अभिविन्यास


अवनतिसंपादित करें

शो ▼संज्ञा की अस्वीकृति مَذْهَب ( ma ) hab )

व्युत्पत्ति २

से व्युत्पन्न निष्क्रिय कृदंत क्रिया के ذهب ( ḏahhaba , " करने के लिए सोने का मुलम्मा करना " ) से, denominal क्रिया ذهب ( डोहाब , " सोना " ) ।

विशेषण

مذهب  ( muḏahhab ) ( संज्ञा مذهبة ( muḏahhaba ) , मर्दाना बहुवचन مذهبون ( muḏahhabūn ) , संज्ञा बहुवचन مذهبات ( muḏahhabāt ) )

मुलम्मे से


अवनति

शो ▼विशेषण की गिरावट مُذَهَ ( ب ( muhabahhab )

व्युत्पत्ति ३

से व्युत्पन्न निष्क्रिय कृदंत क्रिया के أذهب ( 'aḏhaba , " करने के लिए सोने का मुलम्मा करना " ) से, denominal क्रिया ذهب ( डोहाब , " सोना " ) ।

विशेषण

مذهب  ( muḏhab ) ( संज्ञा مذهبة ( muḏhaba ) , मर्दाना बहुवचन مذهبون ( muḏhabūn ) , संज्ञा बहुवचन مذهبات ( muḏhabāt ) )

मुलम्मे से


अवनति

शो ▼विशेषण की गिरावट مُذْهَب ( mu ) hab )

व्युत्पत्ति ४

से Denominal क्रिया مذهب ( Madhab , " संप्रदाय " ) ।

क्रिया

مذهب  ( Madhaba ) बुद्धि , गैर अतीत يمذهب (yumaḏhibu)

संप्रदायों में विभाजित होने का कारण


विकार

शो ▼का संयुग्मन 

مذهب

 (

मौखिक संज्ञा और जगह की संज्ञा क्रिया से ذهب ( ḏahaba , " करने के लिए जाना " ) , जड़ से ذ ه ب ( D-एचबी ) ।

संज्ञा

مذهب  ( Madhab )  मीटर ( बहुवचन مذاهب ( maḏāhib ) )

मौखिक संज्ञा की ذهب ( ḏahaba )  ( मैं फार्म )


जा रहा है , जा रहा है , प्रस्थान


बाहर जाना, बच जाना


प्रक्रिया , नीति , ढंग


सिद्धांत , शिक्षण , विश्वास , विचारधारा , राय , दृष्टिकोण


विश्वास , संप्रदाय


धर्म , पंथ


बेशक , स्कूल


रास्ता , आंदोलन , अभिविन्यास


अवनति

शो ▼संज्ञा की अस्वीकृति مَذْهَب ( ma ) hab )

व्युत्पत्ति २

से व्युत्पन्न निष्क्रिय कृदंत क्रिया के ذهب ( ḏahhaba , " करने के लिए सोने का मुलम्मा करना " ) से, denominal क्रिया ذهب ( डोहाब , " सोना " ) ।

विशेषण

مذهب  ( muḏahhab ) ( संज्ञा مذهبة ( muḏahhaba ) , मर्दाना बहुवचन مذهبون ( muḏahhabūn ) , संज्ञा बहुवचन مذهبات ( muḏahhabāt ) )

मुलम्मे से


अवनति

शो ▼विशेषण की गिरावट مُذَهَ ( ب ( muhabahhab )

व्युत्पत्ति ३

से व्युत्पन्न निष्क्रिय कृदंत क्रिया के أذهب ( 'aḏhaba , " करने के लिए सोने का मुलम्मा करना " ) से, denominal क्रिया ذهب ( डोहाब , " सोना " ) ।

विशेषण

مذهب  ( muḏhab ) ( संज्ञा مذهبة ( muḏhaba ) , मर्दाना बहुवचन مذهبون ( muḏhabūn ) , संज्ञा बहुवचन مذهبات ( muḏhabāt ) )

मुलम्मे से


अवनति

शो ▼विशेषण की गिरावट مُذْهَب ( mu ) hab )

व्युत्पत्ति ४

से Denominal क्रिया مذهب ( Madhab , " संप्रदाय " ) ।

क्रिया

مذهب  ( Madhaba ) बुद्धि , गैर अतीत يمذهب (yumaḏhibu)

संप्रदायों में विभाजित होने का कारण

ये घोर कलियुग है यहाँ सन्त साधकों का उपहास भी होगा वह भी विदुषीयों के द्वारा ...

यह समय की ही पावन विडम्बना है

गुरू जी से जब हमने यह बात की  आपका उपहास अधिक हो रहा है 

तो उनका बहुत सुन्दर जबाब था वह इस प्रकार है 

"  हमारे प्रति किया गया उपहास हमारे विरोधीयों का उनकी बिना इच्छा के दिया गया है अर्थात्  यह उपहार न चाहते हुए भी  विरोधीयों द्वारा दिया गया प्रोत्साहन ही है 

यद्यपि 

उपहास में भी अहंकार की  दुर्गन्ध और उपहास्य के प्रति हीनता की भावना ही व्याप्त होती है

इसी का स्पष्टीकरण करते हुए 

आगे गुरू जी कहते हैं कि  अपने इष्टो और अनिष्टों या दुष्टों की पहचान भी उस काल में होती है जब हम को वे किसी उच्च स्थिति में देखते हैं 

उन्हें हमारी उच्चता कदापि सहन नहीं होती है 

वास्तव में यह एक प्रयोग भी है अपने पन को परखने का

परन्तु विरोधीयों के द्वेष से उनके अन्तस् में जमी गन्दगी ही प्रकट होती है 

जिन्हें समाज भक्त समझता है उनका असली रूप भी इस व्यवहार काल में  प्रकट हो जाता है 

 क्यों भक्ति एक अध्यात्म पर प्रतिष्ठित वह भावना हैं जिसमें किसी की उन्नति से द्वेष या विकार नहीं होता है 

 भक्ति- योग तो  केवल आत्म समर्पण का वह तर्कहीन मार्ग है जहाँ  अभिमान और स्वाभिमान  जैसी कोई बात ही नहीं 

क्यों कि स्वाभिमान में भी अपनी अस्मिता और मान मर्यादाओं का अभिमान होता समाहित होता है 

ध्यान रहे स्वत्व अहम् से  भिन्ना ही है जैसे एकान्त और अकेलापन  

चिन्तन और चिन्ता भी मान सकते हो और भी इसके समानान्तरण उदाहरण है जैसे मितव्यता और कृपणता ( कँजूसी)

नवनीत और घृत अस्तु !

अत: हम्हें किसी के प्रति  उपहास और अभिमान में तटस्थ ही रहना है ....

  क्यों कि स्वत्व का भाव अहम् नहीं उसी प्रकार स्व का अभिमान ही स्वाभिमान और जब स्वयं को अभिमान में बाँधना ही है   क्यों कि 'वह स्वयं को अभिमान में बाँध कर  सीमित कर देता है बिल्कुल एकल  अत: स्वाभिमान भी भक्ति का गुण नहीं है ...

भक्त और भक्ति की परिभाषा समझना आसान नहीं 







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भागवत धर्म और ब्राह्मण धर्म का पारस्परिक विरोध निरूपण-संशोधित संस्करण -
__________________________________________

भागवत धर्म –


इस भागवत धर्म का विकास मौर्योत्तर काल में हुआ। 


इस धर्म के विषय में प्रारंभिक जानकारी उपनिषदों में मिलती है।


इस धर्म के संस्थापक वासुदेव कृष्ण थे जो आभीर जनजाति के सोमात्मक ( सोम वंशी) जो वृष्णि कुल यादवों के नायक थे।
ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में यमुना की तलहटी में गाय चराते हुए मिलता है ...


और वासुदेव की पूजा का सर्वप्रथम उल्लेख भक्ति के रूप में पाणिनि के समय ई. पू. 5 वी. शती में ही मिलता है।


छान्दोग्य उपनिषद में श्री कृष्ण का उल्लेख सर्वप्रथम तत्वदर्शी रूप में  मिलता है। 


उसमें कृष्ण को देवकी का पुत्र व ऋषि घोर आँगिरस का शिष्य बताया गया है।


ब्राह्मण धर्म के जटिल कर्मकाण्ड एवं यज्ञीय व्यवस्था के विरूद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप उदय होने वाला पहला सम्प्रदाय भागवत सम्प्रदाय था।


वासुदेव कृष्ण को वैदिक देव विष्णु का अवतार माना गया है।


बाद में इनका समीकरण नारायण से किया गया।
●नारायण के  उपासक पांचरात्रिक कहलाए।


भागवत धर्म सूर्य पूजा से भी संबंधित था।


भागवत धर्म का सिद्धांत भगवदगीता में निहित परन्तु पञ्म सदी में इस ग्रन्थ में कुछ ब्राह्मण वाद के प्रक्षिप्त अंश भी हैं ।


वासुदेव – कृष्ण सम्प्रदाय सांख्य योग से संबंधित था।
इसमें वेदांत, सांख्य तथा योग की विचारधाराओं के दार्शनिक तत्वों को मिलाया गया है।
कृष्ण योग के तत्व को जानने वाले तत्व दर्शी भी थे


जैन धर्म  ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र में वासुदेव जिन्हें केशव नाम से भी पुकारा गया है को 22 वें  तीर्थंकर अरिष्टनेमि का समकालीन बताया गया है।

भागवत सम्प्रदाय के मुख्य तत्व हैं – भक्ति एवं अहिंसा।


भगवतगीता में प्रतिपादित अवतार सिद्धांत भागवत धर्म की महत्त्वपूर्ण विशेष  थे 


प्रतिहारों के शासक मिहिर भोज ने विष्णु को निर्गुण तथा सगुण दोनों रूपों में माना है तथा विष्णु को ऋषिकेश कहा है।


केरल का संत राजा कुलशेखर विष्णु का भक्त था।


वामन की उपासना अलवारों में चिरकाल तक होती रही। वे वाराह की भी उपासना करते थे।


भागवत सम्प्रदाय के नायकों का विवरण वायु पुराण में निम्नलिखित उपास्यों के रूप में मिलता है।

ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता के रूप में किया गया है।


भगवान विष्णु को अपना इष्टदेव मानने वाले भक्त वैष्णव कहलाए तथा तत्संबंधी धर्म वैष्णव धर्म कहलाया। 


भागवत से वैष्णव धर्म की स्थापना विकास के क्रम की एक धारा है। 


वैष्णव धर्म नाम का प्रचलन 5 वी. शता. ई. पू. के मध्य हुआ।

विष्णु के अधिकतम अवतारों की संख्या 24 है पर मत्स्यपुराण में 10 अवतारों का उल्लेख मिलता है। 


इन अवतारों में कृष्ण का नाम नहीं है,क्योंकि कृष्ण स्वयं भगवान के साक्षात् स्वरूप हैं।


 प्रमुख 10 अवतार निम्न हैं –


मत्स्य, कूर्म (कच्छप ), वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, बलराम, बुद्ध तथा कल्कि (कलि)।

विष्णु के अवतारों में वराह – अवतार सर्वाधिक लोकप्रिय था। 


वराह का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में है।


नारायण, सिंह एवं वामन दैवीय अवतार माने जाते हैं तथा शेष सात मानवीय अवतार।
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अवतार वाद भागवत धर्म की अवधारणा है
--जो यहूदियों के नवीवाद का एक रूपान्तरण है ।
आपको विदित हो कि वेदों में किसी अवतार वाद का वर्णन नहीं है ।
जैनियों में तीर्थकर आदि सब का श्रोत नवीवाद है जिसका जन्म सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों में ई०पू० तृत्तीय सहस्राब्दी में हो गया था ।
वैसे भी यहूदी और यादव एक ही आभीर ( अबीर) नस्ल के  दो दूर देशीय रूपान्तरण मात्र हैं
अबीर हिब्रू भाषा में बीर /बर से व्युत्पन्न शब्द है हिब्रू भाषा में अबीर ईश्वर का वाचक है

विदित हो कि भरोपीय शब्द वीर और आर्य परस्पर सम्प्रसारित रूप ही हैं भारतीय संस्कृति ने सुमेरियन संस्कृति को उपजीव्य मान कर स्वयं को विकसित किया !

सुमेरियन भाषाओं में नवी का अर्थ नेता और आँख दौनों  है ।
नाविक जैसे शब्द भी नेता या मार्ग दर्शक के भाव को समाहित किए हुए हैं
क्यों की भव-सागर का पर कराने वाला गुरु एक नेता और नाविक भी है !
सुमेरियन मिथको में दवता
नाबु (कभी-कभी तूतू के नाम से भी जाना जाता है)
यह  बुद्धि, शिक्षा, भविष्यवाणी, लेखकों और लेखन का बेबीलोनियाई देवता है । 
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सात्विक (जिसे तस्मतू भी कहा जाता है) और बाद में, नानाय अर्थात्‌ वैदिक रूप (नना) जो मूलतः सुमेरियन ईश्वर मुआती की दिव्य पत्नी सीतायु नाबु के साथ समरूप हो गए थी ।

नना का सुमेरियन , बैबीलॉनियन संस्कृतियों में रूप इनन्ना और ईस्तर है ।
वैदिक ऋचाओं में नना और स्त्री इन्ही के प्रतिरूप हैं ।

नाबु  को पहले सुमेरियन देव और लेखों से विशेष रूप  में प्रमाणित किया गया है।

सुमेरियन भजन और अन्य रचनाओं तथा जो अनुष्ठान  नाबु से वाक्यांशों के साथ संपन्न हुई
"स्तुति होना निसाबा हो!"

बाद में यह बेबीलोनियाई कार्यों के लिए प्रतिमान बन गया,
और स्तुत्य भी जैसे "नाबु को स्तुति करो!"

इन शुरुआती सुमेरियन मूल से, नाबु पुराने बेबीलोन अवधि (2000-1600 ईसा पूर्व) और विशेषकर, राजा हम्मुराबी
(179  17-17 -50 ईसा पूर्व) के समय की हैं। 🌻

मेसोपोटामिया में  पुराने देवी की कुछ मिथकों में, निसाबा  
नाबु की पत्नी और दैवीय सहायिका है,

अभिलेखों को रखने और देवताओं की लाइब्रेरी बनाए रखने के लिए (बहुत ही इसी तरह के रूप में देवी सेशात ने मिस्र में थॉथ के साथ काम किया था)।
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मूल रूप से केसाईट काल (शताब्दी 15 95 ईसा पूर्व)
के बाद, भगवान मर्दुक के वजीर  और लेखक के रूप में नाबु को माना जाता था, नाबु को नियमित रूप से मर्दुक के पुत्र के रूप में भी दर्शाया गया था ।

और सत्ता में उनके समान लगभग बराबर था।
वैदिक सन्दर्भों में मृडीक शिव का नामान्तरण है ।

लेकिन उसे शाही परिधान में एक दाढ़ी वाले आदमी के रूप में चित्रित किया गया था, 
एक स्टाइलस में पकड़े हुए, एक साँप-ड्रैगन (जिसे मशशु के नाम से जाना जाता है।
ड्रैगन, मर्दुक और अन्य देवताओं से जुड़े एक शक्तिशाली सुरक्षात्मक भावना और ईश्तर द्वार पर छवियों में शामिल) हैं।

हम्बूरावी की विधि संहिताओं में तथा गिलगमेश के महाकाव्य में 
नाबु को मर्दुक के बेटे, देवताओं के राजा और बाबुल के संरक्षक के रूप में सम्मानित किया गया था।

और यह ज्ञान के देवता (एना के नाम से भी जाना जाता है) ये एनकी के पोते माडस्क के बाद, नाबु बैवीलॉनियनों का सबसे महत्वपूर्ण परमेश्वर था।

उनकी कई महत्वपूर्ण कर्तव्यों में बोरीपीपा से बेबीलोन को न्यू यॉर्क की शुरुआत में अकीता उत्सव के दौरान अपने पिता का दौरा करने के लिए यात्रा की गई थी।
ध्यान रहे

मर्दुक के बाद, नाबु बाबुलियों का सबसे महत्वपूर्ण देवता था ।

और इतना लोकप्रिय हो गया कि वह अश्शूरियों (असुरों) द्वारा अपनाया गया था ।
_____________________________________________
और उनके देवता अश्शुर के पुत्र के रूप में जाना जाता है।
612 ईसा पूर्व में अश्शूरी साम्राज्य के पतन के बाद भी, नाबु - अन्य असीरियाई देवताओं के विपरीत - कम से कम दो शताब्दी तक रहा और बैबीलॉनियन संस्कृतियों में इसकी पूजा की जाती रही।

उनके पंथ का केंद्र बाबुल के निकट बोरिप्पा में था, और उनके कई महत्वपूर्ण कर्तव्यों में नए साल की शुरुआत के रूप में अकुत् महोत्सव के दौरान अपने पिता की यात्रा के लिए बाद के शहर में यात्रा करता  था।

नाबु सुमेरियों द्वारा देवी निसाबा और मिस्रियों के देवता थॉथ, यूनानियों द्वारा अपोलो और रोमन लोगों द्वारा बुध के साथ जुड़े थे।

उन्हें बाइबिल में नबो के रूप में जाना जाता है, जहां उनका उल्लेख यर्दयाह 46: 1-2 में मर्दुक ("बेल" कहा जाता है) के साथ भी हुआ है।

पर्वत  नबो, जिस स्थान से मूसा ने वादा किया हुआ भूमि पर ध्यान किया था और जहां किंवदंती के अनुसार, उसे दफन किया जाता है, उसका नाम नाबु से होता है
मेसोपोटामिया के कई देवताओं में से, नाबु सबसे प्रतिष्ठित, निष्कासन बन गया, यहां तक ​​कि लोगों की याद में महान मर्दुक भी नाबु में विलीन हो गया !

नाबु( NABU ) की शक्ति के सुमेरियन तथा मेसोपोटामिया में लेखन का आविष्कार किया गया था ।

3500-3000 ईसा पूर्व, में क्यूनिफॉर्म के रूप में नाबु को जाना जाता है, और गीले मिट्टी में बने पच्चर के आकार वाले अंक होते थे !

जो तब सूखने के लिए सेट होते थे। 
यद्यपि यह लेखन प्रणाली व्यापार की वजह से विकसित हुई है, और लंबी दूरी पर संदेश भेजने की आवश्यकता की सार्थकता भी सिद्ध हुई ।

माना तो यह भी  जाता है (जैसा कि यह मिस्र में था) देवताओं का एक उपहार था और मुख्यतः,
नाबु को ज्ञान का देवता कहते है ।

विद्वान "ई० ए० वालिस बुगेस" लिखते हैं: कि
वह नाबु महान ज्ञान के साथ अपने पिता की तरह संपन्न था; और उन्होंने देवताओं के रूप में काम करने वाला वर्णन किया; उनके पास देवताओं के भाग्य का टैबलेट था

और पुरुषों के दिनों को लम्बा करने की शक्ति थी।

मिस्र के थॉट (त्वष्टा )की तरह, उसकी आंखें ही उसकी सार्थकता थी
कालान्तरण में नबी की मान्यताऐं यहूदियों में विकसित हुईं ।

नवीवाद ही कालान्तरण में आभीर जन-जातियों में अवतार वाद के रूप में उदित हुआ।
भागवत जिसका जीता जागता उदाहरण है
ये नवी वाद का ही रूपान्तरण है
_____________________________________

अवतारवाद का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख भगवदगीता में ही मिलता है।


परंपरानुसार शूरसेन जनपद के अंधक, वृष्णि संघ में कृष्ण का जन्म हुआ था तथा वे अंधक, वृष्णि संघ के प्रमुख भी थे।


कालांतर में 5 वृष्णि नायकों (वीरों), संकर्षण (बलदेव), वासुदेव कृष्ण, साम्ब, अनिरुद्ध की पूजा की जाती थी।

वासुदेव कृष्ण सहित चार वृष्णि वीरों की पूजा की चतुर्व्यूह के रूप में कल्पना की गई है।

चतुर्व्यूह पूजा का सर्वप्रथम उल्लेख विष्णु संहिता में मिलता है।


चतुर्व्यूह के चार प्रमुख देवता-

संकर्षण


कृष्ण


अनिरुद्ध


सांब


मेगस्थनीज ने कृष्ण को हेराक्लीज कहा है।


दक्षिण भारत में भागवत धर्म के उपासक अलवार कहे जाते थे। 


अलवार अनुयायियों की विष्णु  या फिर नारायण के प्रति अपूर्व निष्ठा तथा आस्था थी।

वैष्णव धर्म का गढ दक्षिण भारत में तमिल प्रदेश में था। 9 वी. तथा 10वी. शताब्दी  अंतिम चरण अलवारों के धार्मिक पुनरुत्थान का उत्कर्ष काल था। 


इन भक्ति आंदोलनों में तिरुमंगाई, पेरिय अलवार, स्री संत अण्डाल तथा नाम्मालवार के नाम विशेष हैं। 


नारायण का प्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है।
_________________________________


भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में वर्णन हरिवंशपुराण में वर्णन है ।

👇

यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं ।

दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२।

तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल

 में प्रवेश करके दिव्य (भागवत) मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२।

गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् ।

श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् ।

सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३।

वे गुह्य (गोपनीय )स्वरूप भागवत देवता हैं । 

सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं ।

 उनका मस्तक कान्तिवान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है  वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देवसहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 

'मैं उन्हें प्रणाम करुँगा ।४३।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है ।

यद्यपि स्वयं श्री कृष्ण ही अधिष्ठात्री देवता हैं 

सुमेरियन मिथकों में विष्णु को  विष-नु 🌺

 कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे ।

अत: कृष्ण ने यह श्रेय बलराम को दिया...

ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध समाज में वर्ण व्यवस्था रहित ,लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म के स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया ।

यह श्लोक गुप्त काल की धर्म अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है ।

_______

सामवेद की महत्ता को लेकर श्रीमद्भगवद् गीता और मनुःस्मृति का पारस्परिक विरोध सिद्ध करता है कि;
या तो  मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है ।

या फिर  श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का पूर्ण उपदेश नहीं ।
इसमें भी ब्राह्मण वाद की बू ( गन्ध) कर दी है

परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव संस्कृति के  विद्रोही  पुरुष थे । 

इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों  में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇

इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव 
( देवों को न मानने वाला ) कहकर सम्बोधित किया गया है ।

श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं कि कृष्ण की 
देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं ।

श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।

यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका
अवश्य है । 

परन्तु वर्ण-व्यवस्था और याज्ञिक कर्म-काण्ड कृष्ण का सिद्धान्त नहीं है 
अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैं 

मनुःस्मृति उसका विरोध ही करती है ।
-जैसे👇

मनुःस्मृति में वर्णन है कि 👇
" सामवेद: स्मृत: पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनि: 
अर्थात्‌ सामवेद का अधिष्ठात्री पितर देवता है । 
इस कारण इस साम वेद की ध्वनि 
अपवित्र व अश्रव्य है ।

( मनुःस्मृति चतुर्थ अध्याय 4/124 वाँ श्लोक )

मनुःस्मृति में सामवेद को हेय 
और ऋग्वेद को उपादेय माना । 
जबकि  श्रीमद्भगवत् गीता में सामवेद को उपादेय
माना है - "वेदानां सामवेदोsस्मि"

वस्तुत अब यह मानना पड़ेगा कि श्रीमद्भगवद् गीता और वेद या मनुःस्मृति एक ही ईश्वर की वाणी नहीं हैं ।
अथवा इनका प्रतिपाद्य विषय एक नहीं ।

क्यों कि श्रीमद्भगवद् गीता के दशवें अध्याय के बाइसवें श्लोक (10/22) में कृष्ण के मुखार-बिन्दु से नि:सृत वाणी है।👇

  " वेदानां सामवेदोsस्मि = वेदों में सामवेद मैं हूँ" और इसके विरुद्ध  मनुःस्मृति में तो यहाँं तक वर्णन है कि "
👇

सामध्वनावृग्ययजुषी नाधीयीत कदाचन" मनुःस्मृति(4/123)

सामवेद की ध्वनि सुनायी पड़ने पर ऋग्वेद और यजुर्वेद का अध्ययन कभी न करें !

अब तात्पर्य यह कि यहाँं अन्य तीनों वेदों को हेय और केवल सामवेद को उपादेय माना।

वैसे भी सामवेद संगीत का आदि रूप है । 
यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित साँग (Song) शब्द भी साम शब्द से व्युपन्न है ।

    पता होना चाहिए कि कृष्ण मुरली को बजाने  वाले और सबको नाच नचाने वाले श्रेष्ठ संगीतकार थे ।

परन्तु इनकी संगीत भी आध्यात्मिक नाद -ब्रह्म का गायन था । 👇

नहि अंग नृतो त्दन्यं विन्दामि राधस् पते: राये धुम्नाय शवसे च गिर्वण: (ऋग्वेद 8/24/12)

  हे सबको नचाने वाले राधा के पति 'मैं बल ,धन और  ज्योति प्राप्त करने के लिए  तुम्हारे अतिरिक्त किसी को नहीं पाता।

     वास्तव में ऐसी अनेक ऋचाऐं हैं जिनमें राधा , कृष्ण तथा वृषभानु गोप के वर्णन की अभिव्यञ्जना होती है ।
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राधा शब्द की व्युत्पत्ति व उद्भव :-

राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र, यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है ।

अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं|

कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं।
आराधिका और राधिका शब्द मूलतः एक हैं ।
राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में  वृषभानु गोप के घर हुआ ।

यादव प्रारम्भ से ही गोपालक रहे हैं । 
अत: इसी वृत्ति गत विशेषण से समन्वित यादव गोप कहे गए हैं । 
बात अहीर शब्द  की है तो अभीर
अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । 
गोपे जातिवाचकादन्तशब्दत्वेन ततः स्त्रियां ङीप् प्रत्यय से गोपी शब्द सिद्ध हता है ।

अहीर को गुप्त कालीन अमर कोश तथा  तारानाथ वाचस्पत्यम् कोश में गोप का पर्याय वाची बताया ।
स्वयं यदु एक चरावाहे अथवा गोप के रूप में ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में वर्णित हैं।👇

शैली गत स्थित में विश्लेषण किया जाय तो वेदों का समय ई०पू० 1200 के समकक्ष है ।

गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है।

वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था में शूद्र श्रेणि में परिगणित करने की -परोक्ष चेष्टा की गयी । 
परन्तु यादवों ने रूढ़िवादी पुरोहितों की किसी भी वर्ण व्यवस्था को नहीं माना ।

अहीरों को तो पुराणों और स्मृतियों में बहुतायत से शूद्र या दस्यु घोषित कर ही  दिया गया है।

केवल पद्म-पुराण और हरिवंश पुराण ही गोपोंं को यादव रूप में  सकारात्मक रूप में वर्णन करते हैं ।

यादवों के आदिम पूूर्वज यदु को गोप के रूप वर्णन ऋग्वेद में है 👇

यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।
देखें---निम्न पक्ति में👇

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी 
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (ऋ०10/62/10)

अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/)

विशेष:-  इस ऋचा का व्याकरणीय विश्लेषण -
उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है।

क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है।

परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त (घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।

गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों  से घिरा हुआ
वस्तुत यहाँं प्रकृति भाव सन्धि व षष्ठी तत्पुरुष समास का भाव  है ।

यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप

मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय  बहुवचन रूप  ।
अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं।
देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !

दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाहे" शब्द के रूप में विकसित है ।
---जो  एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है ।
---जो वर्तमान में दाहिस्तान "Dagestan" को आबाद करने वाले हैं ।
दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा

तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
दास अथवा दाहे जन-जाति सेमेटिक शाखा की असीरियन (असुर) जन जातियों से निकली हुईं हैं ।
वास्तव में इस ऐैतिहासिक समायोजन में कोई पूर्व दुराग्रह नहीं अपितु यह निश्पक्ष तथ्य है ।

यहूदी और असीरियन दौनों 
सेमेटिक शाखा से सम्बद्ध हैं । 
दास जन-जाति के विषय में ऐतिहासिक
विवरण निम्न है ।👇

The Dahae (दाहे) , also known as the Daae, Dahas(दहास) or Dahaeans 
(Latin: Dahae; 
Ancient Greek: Δάοι, Δάαι, Δαι, Δάσαι Dáoi, Dáai, Dai, Dasai; Sanskrit: Dasa; Chinese Dayi  大益) 
were a people of ancient Central Asia.

A confederation of three tribes 
the Parni पणि , Xanthii जन्थी and Pissuri पिसूरी

– the Dahae lived in an area now comprising much of modern Turkmenistan तुर्कमेनिस्तान .

The area has consequently been known as Dahestan, Dahistan and Dihistan.
दाहेस्तान ,दाहिस्तान , दिहिस्तान ।

present-day Turkmenistan
Branches
Parni, Xanthii and Pissuri
Relatively little is known about their way of life. For example, according to the Iranologist 
A. D. H. Bivar, the capital of "the ancient Dahae (if indeed they possessed one) is quite unknown."

The Dahae dissolved, apparently, 
some time before the beginning of the 1st millennium. One of the three tribes of the Dahae confederation, the Parni, emigrated to Parthia
(पार्थियन -जो आधुनिक समय में उत्तर पूर्वीईरान है ।)  
(present-day north-eastern Iran), 
where they founded the Arsacid dynasty.

अब आश्चर्य इस बात का है ; कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता ;
केवल भागवत महात्म्य में राधा का वर्णन है ।
भागवतपुराण बारहवीं सदी की रचना है ।
--जो दक्षिणात्य के ब्राह्मणों ने लिखा ।

दर असल भागवत धर्म के सूत्रधार आभीर लोग ही थे ।
परन्तु वर्तमान में उपलब्ध भागवत पुराण को कालान्तरण में प्रक्षिप्त कर दिया गया ।
विदित हो कि सरस्वती के तट पर रहने वाले आभीर जो वंशगत रूप में यादव थे । 
वही मधुपुरी के सहवर्ती क्षेत्रों  में बस गये और उन्हीं के द्वारा भागवत धर्म की स्थापना हुई ।
इस घटना का समय ईसा पूर्व तृतीय सदी के समकक्ष है।
परन्तु बारहवीं सदी के समकक्ष लिखे गये ग्रन्थ भागवत-पुराण में दशम स्कन्ध कृष्ण चरित्र का हनन करने वाला है ।

भागवत पुराण का दशम स्कन्ध कृष्ण के चरित्र को पतित करने के लिए सम्पादित किया गया।
और महाभारत की बारहवीं सदी से पूर्व की कोई कृति आज उपलब्ध नहीं ।

यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य है। राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बन्धनों का उल्लंघन किया या नहीं किया ये तथ्य विवादास्पद हैं ।

कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई।

दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नन्द, राधा आदि गए थे।

वैसे भी जिस रास लीला का अधिकरण करके राधा और कृष्ण को नायक-नायिका के रूप में प्रस्तुति-करण किया गया ।

'वह रास शब्द यूनानी पुरा-कथाओं के  इरॉस ( यूनानी प्रेम का देवता) से विकसित है ।
इरॉस-रॉस - फिर रास-
आभीर जन-जाति अपने सांस्कृतिक उत्सवों में हल्लीषम् नृत्य का आयोजन स्त्री और पुरुष दौनों समवेत रूप में करते थे ।

जिसे ही कवियों ने बड़ा-चढ़ाकर रास लीला बना दिया ।
नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक है हल्लीषम्।

विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है।
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं यह मण्डल (घेरा)बनाकर होनेवाला एक प्रकार का नाच है ;जिसमें एक पुरुष के निर्देश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं। 
जैसा कि विद्वानों ने परिभाषित किया -

मण्डलेन तु यन्नृत्यं स्त्रीणां हल्लीषकन्तु तत्” 
(हेमचन्द्र कोश )
रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् ।
आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी” हरिवंश पुराण पर टी० नीलकण्ठः की टीका !💥

क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं ।

राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमद्भागवत में स्पष्ट नहीं मिलता ....
परन्तु वेद-उपनिषद में भी राधा का उल्लेख  है।

...राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है ।--जो सातवीं सदी की रचना है।

वेदों में राधा शब्द सर्व-प्रथम ऋग्वेद के भाग-१ /मण्डल १,२ ...में ...राधस् शब्द का प्रयोग हुआ है।

....जिसे वैभव के अर्थ में प्रयोग किया गया है....
ऋग्वेद के २ मण्डल के सूक्त ३-४-५ में ..सुराधा ...शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है...सभी देवों से उनकी अपनी संरक्षक शक्ति का उपयोग करके धनों की प्राप्ति व प्राकृतिक साधनों के उचित प्रयोग की प्रार्थना की गयी है |

पुराणों में राधा धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी है ।
ऋग्वेद-५/५२/९४..में -- राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं।

“ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो 
गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”

अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है | 

“गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव: नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |
   " इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण (ऋग्वेद ३/५ १/ १ ०)

--ओ राधापति वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं।

उनके द्वारा सोमरस पान करो।

" विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस :
सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ /२ २/७):- ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो हमारी आराधना सुनें हमारी रक्षा करो।

त्वं नृचक्सम वृषभानुपूर्वी : कृष्नास्वग्ने अरुषोविभाही ...(ऋग्वेद )

इस मन्त्र में श्री राधा के पिता वृषभानु का उल्लेख किया गया है जो अन्य किसी भी प्रकार के सन्देह को मिटा देता है ,क्योंकि वही तो राधा के पिता हैं।

यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : ---(अथर्ववेदीय राधिकोपनिषद ) 
राधा वह व्यक्तित्व है जिसके कमलवत् चरणों की रज श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक अपने माथे पे लगाते हैं।

तमिलनाडू की गाथा के अनुसार --दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह, उत्तर के यादवों के समकक्ष हैं |

एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे |

उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया  श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था |

तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्तीरीय संहिता के अनुसार ---विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति –दिशाओं की देवी भी कहते हैं |

नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं –अदिति ।

श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी---नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है ।
जो दक्षिण की राधा है |

एक कथा के अनुसार राधा के कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी |

ब्रह्मा जी ने वसुदेव कृष्ण को सर्वप्रथम देवता स्वीकार करके उनकी प्रिय शक्ति श्रीराधा को सर्वश्रेष्ठ शक्ति कहा है।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा आराधित होने के कारण उनका नाम 'राधिका' पड़ा।

इस उपनिषद में उसी राधा की महिमामयी शक्तियों को उल्लेख है। 
उसके चिन्तन-मनन से मोक्ष-प्राप्ति की बात कही गयी है।
सनकादि ऋषियों द्वारा पूछ जाने पर ब्रह्मा जी उन्हें बताते हैं कि वृन्दावन अधीश्वर श्री कृष्ण ही एकमात्र सर्वेश्वर हैं। 
वे समस्त जगत् के आधार हैं।

वे प्रकृति से परे और नित्य हैं। 
उस सर्वेश्वर श्री कृष्ण की आह्लादिनी, सन्धिनी, ज्ञान इच्छा, क्रिया आदि अनेक शक्तियां हैं।

उनमें आह्लादिनी सबसे प्रमुख है।
वह श्री कृष्ण की अंतरंगभूता 'श्री राधा' के नाम से जानी जाती हैं।

श्री राधा जी की कृपा जिस पर होती हैं, उसे सहज ही परम धाम प्राप्त हो जाता है।

श्री राधा जी को जाने बिना श्री कृष्ण की उपासना करना, महामूढ़ता का परिचय देना है।
श्रीराधाजी के 28 नाम
श्री राधा जी के जिन 28 नामों से उनका गुणगान किया जाता है वे इस प्रकार हैं-

1-राधा,
2-रासेश्वरी,
3-रम्या,
4-कृष्णमत्राधिदेवता,
5-सर्वाद्या,
6-सर्ववन्द्या,
7-वृन्दावनविहारिणी,
8-वृन्दाराधा,
9-रमा,
10-अशेषगोपीमण्डलपूजिता,
11-सत्या,
1सत्यपरा,
12-श्रीकृष्णवल्लभा,
13-वृषभानुसुता,
14-गोपी,
15-मूल प्रकृति,
16-ईश्वरी,
17-गान्धर्वा,
18-राधिका,
19-रम्या,
20-रुक्मिणी,
21-परमेश्वरी,
22-परात्परतरा,
23-पूर्णा,
24-पूर्णचन्द्रविमानना,
25-भुक्ति-मुक्तिप्रदा और
26-भवव्याधि-विनाशिनी।
यहाँ 'रम्या' नाम दो बार प्रयुक्त हुआ है।

ब्रह्माजी का कहना है कि राधा के इन मनोहारिणी स्वरूप की स्तुति वेदों ने भी गायी है। 
जो उनके इन नामों से स्तुति करता है,
वह जीवन मुक्त हो जाता है।

यह शक्ति जगत् की कारणभूता सत, रज, तम के रूप में बहिरंग होने के कारण जड़ कही जाती है।

अविद्या के रूप में जीव को बन्धन में डालने वाली 'माया' कही गयी है।

इसलिए इस शक्ति को भगवान की क्रिया शक्ति होने के कारण 'लीलाशक्ति' के नाम से पुकारा जाता है।

इस उपनिषद का पाठ करने वाले श्रीकृष्ण और श्रीराधा के परम प्रिय हो जाते हैं और पुण्य के भागीदार बनते हैं।
वर्तमान कतिपय विद्वान् 'राधा' का अर्थ 'कृषि' से भी लगाते हैं, किन्तु यह उपनिषद का विषय नहीं है।

फिर कृष्ण का कृषक करने में क्या असंगति है ।

प्रेम के लिए अंग्रेजी भाषा में प्रचलित शब्द (love) का प्रयोग हमारी संस्कृति में असंगत व यथार्थ भाव का बोधक नहीं है।

यद्यपि साहित्य मनीषीयों ने ईश्वर विषयक रति को भक्ति और सन्तान विषयक रति को वात्सल्य तथा प्रेमी विषयक रति को ही श्रृँगार या स्थायी भाव काम कहा है 
यूरोपीय भाषाओं में

(love)लव तो केवल लोभः और वासना का विशेषण है 
उसमें प्रेम के जैसी आध्यात्मिक आत्मीय भावना कहाँ ! इसी विषय पर हमारा एक अल्प प्रयास । 
....
लव केवल यह पाश्चात्य संस्कृति का वासनामयी प्रदूषण ही है, जिसके आवेश में धूमिल-विचारक किशोर- वय विद्या की अरथी को वहन करने वाला विद्यार्थी होकर भी दिग्भ्रमित है।

यूरोपीय लव में त्याग और समर्पण का भाव ही नहीं हैं । परन्तु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में 
पाश्चात्य संस्कृति में "प्रेम - लोभ व वासना का अभिव्यञ्जक हो गया है ।

तैरहवीं शताब्दी में कबीर सदृश महान आध्यात्मिक सन्त भी " कहते हैं कि "

पोथी पढ़ पढ़ जग मरा भया न पण्डित कोय । 
ढ़ाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय"

कबीर का प्रेम वासना का वाचक नहीं है। 
वह तो भक्ति का अभिभासक है ।

वास्तव में भारोपीय भाषा परिवार का लव ( Love) शब्द संस्कृत भाषा में लुभःअथवा लोभः के रूप में प्रस्तावित है।

क्योंकि संस्कृत भाषा भारोपीय भाषा परिवार की शतम् वर्ग की भाषा होने से ग्रीक और लैटिन भाषा की बड़ी बहिन है । 
संस्कृत भाषा में लगभग 80℅ अस्सी प्रतिशत मूल तथा सांस्कृतिक शब्द यूरोपीय भाषाओं के सदृश हैं ।

लव शब्द जो कि लैटिन में लिबेट( Libet )तथा लुबेट (Lubet) के रूप में विद्यमान है । ..जिसका संस्कृत में रूप है :-- लुब्ध ( लुभ् क्त ) भूतकालिक कर्मणि कृदन्त रूप व्युत्पन्न होता है। 
संस्कृत भाषा में लुभः / लोभः का अभिधा मूलक अर्थ है :- (काम की तीव्रता अथवा वासना की उत्तेजना) .
. वस्तुतः लोभः में प्रत्यक्ष तो लाभ दिखाई देता है ,
परन्तु परोक्षतः व्याज सहित हानि ही है ।

अंग्रेजी भाषा में यह शब्द (Love ) 
लव शब्द के रूप में है ।
तथा जर्मन में लीव (Lieve) है , तो ऐंग्लो -सैक्शन अथवा पुरानी अंग्रेजी में (Lufu ) 
लूफु के रूप में है  ।
यह तो सर्व विदित है कि यूरोपीय संस्कृति में प्रेम के नाम पर वासना का उन्मुक्त ताण्डव है ।

वहाँ प्रेम के नाम पर इन्द्रिय-सुख मात्र है । 
जबकि प्रेम निःस्वार्थ रूप से आत्म समर्पण का भाव है, प्रेम तो भक्ति है ।

जबकि भारतीय संस्कृति एक समय खण्ड में संयम मूलक व चित्त की प्राकृतिक वृत्तियों का विरोध करने वाली रही है , यही उपनिषद काल था ।

इन्हीं सन्दर्भों में राधा और कृष्ण का जीवन चरित हमारी विवेचना का विषय है । 
सर्व-प्रथम राधा जी के विषय में -

जय देव के नक्शेक़दम पर मैथिली कवि विद्यापति 'ने राधाऔर कृष्ण को आधार बनााकर घोर श्रृँगार परक काव्य की रचना की वैष्णव कवियों सगुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि बल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय से सम्बद्ध -सूर दास ने भी  विद्यापति को आदर्श माना और भक्ति को श्रृंँगार समन्वित कर दिया 'परन्तु इनका श्रृँगार हाल श्रृंँगार था नायक नायिका परक श्रृँगार नहीं ।

राधा यद्यपि वैदिक देवता है ।परन्तु लौकिक ग्रन्थों में भक्ति की अधष्ठात्री देवी राधा है ।

भागवत महात्म्य में राधा वर्णन है और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राधा वर्णन है ।

भागवत पुराण के दशम् स्कन्द तीसवें अध्याय में कृष्ण की आराधिका गोपी का वर्णन है ।

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अनया८ राधितो नूनं  भगवान् हरिरीश्वर: ।

यन्तो विहाम गोविन्द: प्रीतो यामन पद रह: ।।

इसी आधार पर कई विद्वानों'ने राधा शब्द की उत्पत्ति का अनुमान किया है ।

डॉ० भण्डारकर के अनुसार राधा सीरिया से आया अहीरों की देवी है ।

एक विद्वान कुमारस्वामी 'ने आभीर शब्द दक्षिणी द्रविड़ों की भाषा से सम्बद्ध है ; जिसका अर्थ है गोपाल या गोप । विदित हो कि वैष्णव धारा के सन्त अधिकतर दक्षिणी हैं

राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी । यह शब्द वेदों में भी आया है ।👇

व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा:- स्त्रीलिंग(राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् अच् । टाप् ):- अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है वह राधा है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है ।👇 
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते | 
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।। (ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो।

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विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ /२ २/७) _______________________________________

सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा स्वरूप ! जो राधा को गोपियों में से ले गए वह सवितारं (सबको जन्म देने वाले) प्रभु हमारी रक्षा करें
हम उनका आह्वान करते है।
__________________________________

त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) _____________________________________
अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें।

जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो । 
त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि । वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) _____________________________________ अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में कृष्ण "अग्नि" के सदृश् गमन करने वाले हैं। 
ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे !

उपर्युक्त इन दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया है ।
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श्रीमद्भगवद् गीता वेदों की अनोपयोगिता विषय में स्पष्ट उद्घोष करती है ।👇

"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)  
यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके . 
तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45)
श्रीमद्भगवद् गीता (2/46)  
----हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं ।

अर्थात्‌ इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर  तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो !

जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53)

जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है।
समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ;

उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च  तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है ।

अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं  कभी नहीं  वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।

बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मषु कौशलम्"  तथ्य से पूर्ण रूपेण है ।

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय!
सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा 
समत्वं योग उच्यते।।

ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग 
( मध्य मार्ग)
महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं।

इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।

जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं 
एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा

अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ; 
उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं।

महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे ।
इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।

इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।

प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153) देखें---

अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस। 
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’

महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा। 
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ।

श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।

दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।

वहाँ उन्होंने कहा है–भिक्षुओं ! 
कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है ;
जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है—

“मैं इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करने वाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था।
सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ। 
वहां भी मैं इस नाम का था। सो मैं वहां मरकर यहां उत्पन्न हुआ।“ इत्यादि।

अगला तीसरा प्रमाण धम्मपद के उपर्युक्त वर्णित श्लोक का अगला श्लोक है जिसमें गृहकारक के रूप में आत्मा का निर्देश किया गया है। 
श्लोक है-👇

’गह कारक दिट्ठोऽसि पुन गेहं न काहसि। 
सब्वा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं। 
विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा।।‘

इस श्लोक के अनुवाद में इसका अर्थ दिया गया है कि हे गृह के निर्माण करनेवाले!
मैंने तुम्हें देख लिया है, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कडि़यां सब टूट गईं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्कार रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया।

इस पर टिप्पणी करते हुए पं. धर्मदेव जी कहते हैं कि यह मुक्ति अथवा निर्वाण के योग्य अवस्था का वर्णन है। 
जब तक ऐसी अवस्था नहीं हो जाती तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है।

इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध परलोक, पुनर्जन्म आदि में विश्वास करने के कारण आस्तिक थे।
स्वर्ग नरक यद्यपि मन के उन विकल्पों के  काल्पनिक प्रतिरूप है ।

जो जड़ता और चेतना के संवाहक होते हैं ।
भौगौलिक रूप से उत्तरीय ध्रुव का हेमर पास्त के समीप वर्ती स्वीडन ही स्वर्ग है ।

और नहीं की दक्षिणा वर्ती नेरके नारको आदि नरक हैं ।
धीरे धीरे जब देव-संस्कृति के लोग भूमध्य रेखीय स्थलों पर आये तो तब भी दक्षिणा वर्ती या दक्षिणीय ध्रुव को नरक नाम दे दिया ।

महात्मा बुद्ध के आस्तिक होने से संबंधित अगला प्रश्न यह है कि क्या वह अनीश्वरवादी अर्थात ईश्वर में विश्वास न रखने वाले थे? 
यदि वे पूर्ण रूपेण परम् सत्ता को स्वीकार नहीं करते तो वे नैतिक मूल्यों को प्रतिपादित नहीं करते ।

क्यों कि जब कुछ है ही नहीं तो पाप करने में डर किसका ?

महात्मा बुद्ध ने जीवन पर्यन्त मन के शुद्धिकरण
के लिए तपश्चर्या की यदि ईश्वरीय तथा आत्मीय सत्ता को बुद्ध अस्वीकार करते तो क्या वे नैतिक पाठ अपने शिष्यों के पढ़ाते ?

सायद कदापि नहीं !

यदि आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं है ,
तो क्यों बुद्ध ने सत्याचरण को जीवन का आधार बनाया ?

बुद्ध ने जीवन का स्वरूप इच्छाओं को स्वीकार किया ।

इच्छा स्वरूप ही संसार और जीवन का कारक है ।

वस्तुत: प्रेरणा भी एक इच्छात्मक रूप ही है ।
जो आत्मा का स्वभाव है ।

संसार ब्रह्म रूपी जल पर इच्छा रूपी लहरें हैं ।

अन्त में हम अपने भावोद्गारो को इन पक्तियों मे अभिव्यक्त करते हैं ।👇

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ये शरीर केवल एक रथ है ।
      आत्मा "रोहि "जिसमें रथी है ।

इन्द्रियाँ ये बेसलहे घोड़े ।
        बुद्धि भटका हुआ सारथी है ।

मन की लगाम बड़ी ढ़ीली ।
        घोड़ों की मौहरी कहाँ नथी है ?

लुभावने पथ भोग - लिप्सा के ।
         यहाँ मञ्जिलों से पहले ही दुर्गति है ।।
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अर्थात् आध्यात्म बुद्धि के द्वारा ही मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है !

मन फिर इन्द्रीयों को नियन्त्रित करेगा ,
केवल ज्ञान और योग अभ्यास के द्वारा मन नियन्त्रण में होता है !

अन्यथा इसके नियन्त्रण का कोई उपाय नहीं है !!

अध्यात्म वह पुष्प है ,जिनमें ज्ञान और योग के रूप में सुगन्ध और पराग के सदृश्य परस्पर सम्पूरक तत्व हैं ।

जो जीवन को सुवासित और व्यक्ति को एकाग्र-चित करते हैं ।

अन्तः करण चतुष्टय के चारों भागों को, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि को, जब सात्विकता के शान्तिमय पथ पर अग्रसर किया जाता है ;

तो हमारी चेतना शक्ति का दिन-दिन विकास होता है। 
यह मानसिक विकास अनेक सफलताओं और सम्पत्तियों का कारक है।

मनोबल से बड़ी और कोई सम्पत्ति इस संसार में नहीं है।

मनैव मनुष्य: मन ही मनुष्य है;मन ही अनन्त प्राकृतिक शक्तियों का केन्द्र है ।

मानसिक दृष्टि से जो जितना बड़ा है ; उसी अनुपात से संसार में उसका गौरव होता है ;
अन्यथा शरीर की दृष्टि से तो प्रायः सभी मनुष्य लगभग समान होते हैं। 
उन्नति के इच्छुकों को अपने अन्तः करण चतुष्टय का विकास करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए।

क्योंकि इस विकास में ही साँसारिक और आत्मिक कल्याण सन्निहित है।
________________________________

सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत है ।

जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है ।

विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है ।
और आत्मा प्राणी जीवन की ,

इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं! 
🌞 
सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान है।
और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होना भी चाहिए ।

क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है।

..मैं योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ,

जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप 
प्राप्त किए हैं।

...इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषिदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ

श्री-मद्भगवद् गीता तथा कुछ उपनिषदों के श्लोकों को उद्धृत किया है। 
यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही  एक अंग है ।

जिसे महाभारत में पाँचवीं सदी में 
सम्पृक्त किया गया है

परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा रचा गया।
कोई भी प्रति महाभारत की दसवीं सदी से पूर्व की नहीं है । 
महाभारत के आदिपर्व में महात्मा बुद्ध का वर्णन है ।

गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।
वह कृष्ण के मत के  बहुतायत से अनुमोदक अवश्य है ; परन्तु कुछ वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदकों ने कुछ प्रक्षिप्त श्लोक संलग्न कर दिए हैं ।

श्रीमद्भगवद् गीता का निर्माण पाँचवीं सदी में रची

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ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः । 
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥
(श्रीमद्भगवद् गीता 17/23 )

भावार्थ : सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। (२३)
परन्तु शंकराचार्य के गीता भाष्य को देखिए👇

ओ३म् ,तत् सत् यह तीन प्रकार का -ब्रह्म का निर्देश ( संकेत) है । 
उस ब्रह्मा ने ब्राह्मण , वेद और यज्ञ पैंदा किए ( विहिता: निर्मिता इति शंकर:)

इस का भावार्थ यही है कि ब्राह्मण सृष्टि के आरम्भ में  वेदों और यज्ञों के साथ बनाए अब -परोक्ष व्यञ्जनात्मक शैली में  यही अर्थ प्रकट है ।
कि ब्राह्मण जन्म से होता है ।

श्रीमद्भगवत् गीता का निम्न श्लोक भी प्रक्षिप्त है ।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ 35

भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। 
अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है 
और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥

व्याख्या : तृतीयोध्याय कर्मयोग में श्री भगवान ने गुण, स्वभाव और अपने धर्म की चर्चा की है।

आपका जो गुण, स्वभाव और धर्म है उसी में जीना और मरना श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म में मरना भयावह है। 
जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है।

कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है।

इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है। 
सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है।

ऐसा करना इसलिए भयावह नहीं है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो।

इस श्लोक को बड़ी चतुराई से वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने  धर्म के नाश का भय बता कर साधारण जनता को ब्राह्मणों के अनुसार रहने की हिदायत दी है ।

रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने यह श्लोक कृष्ण के सिद्धान्तों के नाम पर समायोजित किया है।

अब विचारणीय तथ्य यह है कि  यह बौद्ध कालीन स्थितियों को इंगित करता है ।

यद्यपि धर्म शब्द यूनानी तथा रोमन संस्कृतियों में क्रमश तर्म और तरमिनस् (Term )(Terminus ) के रूप में विद्यमान है । 
टर्मीनस् रोमन संस्कृतियों में मर्यादा का अधिष्ठात्री देवता है ।

प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस (Terminus) की पूजा सबीन जन-जाति के मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के ई० पू० 753 परम्परागत शासनकाल) के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए करते हैं ।

संस्कृत साहित्य में सन्दर्भित गुप्त कालीन 
अमरकोश में धर्म शब्द का अर्थ प्रासंगिक है ।
धर्म पुंल्लिंग और नपुंसकलिङ्ग रूप ।

धर्मः 
समानार्थक:धर्म,पुण्य,श्रेयस्,सुकृत,वृष,उपनिषद्,उष्ण

1।4।24।1।1

स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः।
मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसम्मदाः॥ 
आचारः

समानार्थक:धर्म,समय Time / Term

3।3।139।1।1

धर्म पुंल्लिंग वैदिक भाषा में धर्म शब्द है ।
कर्मकाण्डीय नियम, भा.श्रौ.सू. 7.6.7 
(ये उपभृतो धर्मा.....पृषदाज्यधान्यामपि क्रियेरन्); देखें-7.6.9 में ‘स्रुवधर्म’, ‘पयोधर्म’।

ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।
धर :- पहाड़, धरा ।

धर्म की परिभाषा :-  किसी वस्तु या व्याक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । प्रकृति । स्वभाव, नित्य नियम ।
जैसे, आँख का धर्म देखना,  सर्प का धर्म काटना, दुष्ट का धर्म दुःख देना ।

विशेष—ऋग्वेद में (१ । २२ । १८)  में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है ।
यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।

किसी मान्य ग्रन्थ में, आचार्य़ या ऋषि द्बारा निदिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्ति के अर्थ किया जाय ।

वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो ।
जैसे, अग्निहोत्र । यज्ञ, व्रत, होम इत्यादि ।

विशेष—मीमांसा के अनुसार वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है । 
जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है । 
संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है । 
वस्तुत कर्मकाण्ड का विधिपूर्वक अनुष्ठान करने वाले ही धार्मिक कहे जाते थे । 
यद्यपि श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड ही की ओर था । 
वह कर्म जिसका करना किसी सम्बन्ध स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो । वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो ।

वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिय़े करना चाहिए ।

किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार । 
अर्थात्‌ वर्ण-व्यवस्था मूलक समाज की कार्य-प्रणाली या आचरण रूढ़िवादी ब्राह्मणों की दृष्टि में धर्म है ।

जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि ।
विशेष—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिए  पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद के लिये तीनों वणों की सेवा करना ।



पुल्लिंग
समाज में किसी जाति, कुल, वर्ग आदि के लिए उचित ठहराया हुआ व्यवसाय, कर्त्तव्य;
पुंलिंग
मज़हब (रिलिजन)।

तर्मन् नपुं।

यूपाग्रम्

समानार्थक:यूपाग्र,तर्मन्

2।7।19।1।2

यूपाग्रं तर्म निर्मन्थ्यदारुणि त्वरणिर्द्वयोः। दक्षिणाग्निर्गार्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः॥

अवयव : यूपकटकः

पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, अचलनिर्जीवः, अचलनिर्जीववस्तु

शब्दसागरः

तर्मन्¦ n. (-र्म) The top or term of the sacrificial post. E. तॄ to pass up, and मनिन् aff.

Apte

तर्मन् [tarman], n. The top of the sacrificial post.

Monier-Williams

तर्मन् n. " passage "See. सु-तर्मन्

तर्मन् m. n. the top of the sacrificial post( cf. Lat. terminus) L.

तर्मन् तर्य See. p. 439 , col. 2.

(तरतीति । तॄ + “सर्व्वधातुभ्यो मनिन् ।” उणां ४ । १४४ । इति मनिन् ।) यूपाग्रम् । इत्यमरः । २ । ७ । १९ ॥

तर्मन् a. good for crossing over; सुतर्माणमधिनावं रुहेम Ait. Br.1.13; 
(cf. also यज्ञो वै सुतर्मा)..

ययाऽति विश्वा दुरिता तरेम सुतर्माणमधि नावं रुहेमेति यज्ञो वै सुतर्मा नौः कृष्णाजिनं वै सुतर्मा ...
अंग्रेज़ी में Term के अनेक अर्थ हैं ।👇
अवधि
पद
समय
शर्त
सत्र
परिभाषा
ढांचा
सीमाएं
बेला
मेहनताना
फ़ीस
मित्रता
प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस की पूजा सबीन मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी (रोमन शासन के 753-17 परम्परागत शासनकाल) के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए करते हैं

जिन लेखकों ने नुमा को श्रेय दिया, उन्होंने अपनी प्रेरणा को संपत्ति पर हिंसक विवादों की रोकथाम के रूप में समझाया।

प्लूटार्क आगे बताता है कि, मोर के गारंटर के रूप में टर्मिनस के चरित्र को ध्यान में रखते हुए

गीता कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं। 
कृष्ण द्रविड संस्कृति के नायक थे ।
यह तथ्य अटपटा अवश्य लग सकता है परन्तु यही सत्य है;जिन्हें चतुर ब्राह्मणों ने कृष्ण के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें अपने -ग्रन्थों में युग-- पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित किया ।

और ब्राह्मण हित मूलक मत कृष्ण पर आरोपित करके इस प्रकार वर्णित किए हैं; कि उसमें कुछ भी कृत्रिम अनुभव न हो ।

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कृष्ण चमत्कारी पुरुष थे ,और इनका जन्म गोप अथवा आभीर जाति में हुआ था ।
--जो यादवों के क्रमश वृत्ति गत और प्रवृत्ति-गत विशेषण थे । 
ब्राह्मणों ने कालान्तरण में यादवों को केवल व्यवसाय गत विशेषणों से ही सम्बोधित किया ।
परन्तु स्वयं को वंशगत विशेषणों से ही सम्बोधित किया

अब आप समझिए कि एक चतुर्वेदी ब्राह्मण का बेटा 
किसी भी वेद की मण्डल या सूक्त तो दूर की बात ऋचा भी न जानता हो फिर भी रूढ़िवादी अन्ध-भक्त उन जाहिलों को  पण्डित जी , चौबे जी या चतुर्वेदी ही कहते हैं ।

क्यों कि ब्राह्मण तो जन्म से ही पैदा होते हैं ।

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             पद्म-पुराण स्वर्ग खण्ड :-👇
                  26 वाँ अध्याय :-
              तस्य माहात्म्यादि यथा :- 
“सर्वेषामेव वर्णानां ब्राह्मणः परमो गुरुः। 
तस्मै दानानिदेयानि भक्तिश्रद्धासमन्वितैः। 
ब्राह्मण सभी वर्णों का परम गुरु है । अत: उसे भक्ति और श्रृद्धा पूर्वक दान देना चाहिए !

सर्वदेवाग्रजो विप्रःप्रत्यक्षत्रिदशो भुवि। 
    स तारयति दातारं तस्तरेविश्वसागरे।

सबसे पहले जन्म लेना वाला यह ब्राह्मण पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देव है । 
वही यजमान को संसार रूपी सागर से पार करता है ।

                👈  हरिशर्मोवाच। 👉
सर्ववर्णगुरुर्विप्रस्त्वयाप्रोक्तः सुरोत्तम!
तेषां मध्ये च कः श्रेष्ठः कस्मै दानंप्रदीयते।

ब्राह्मण सभी वर्णों का परम गुरु कहा  हे  देवों उत्तम

                     👈 ब्रह्मोवाच। 👉

सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाःपूजनीयाः सदैव हि। 
अविद्या वा सविद्या वा नात्रकार्य्या विचारणा।

ब्रह्माजी कहते हैं कि सभी ब्राह्मण सदैव श्रेष्ठ व पूजनीय हैं । 
चाहे 'वह विद्वान हो या फिर मूर्ख  इस विषय में ज्यादा विचार नहीं करना चाहिए ।

स्तेयादिदोषलिप्ता ये ब्राह्मणाब्राह्मणोत्तम!
आत्मभ्यो द्वेषिणस्तेऽपि परेम्यो नकदाचन।

ब्राह्मण चाहें चोरी में लगा हो चाहें उसमें -ब्रह्म ज्ञान हो या न हो 

अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जितेन्द्रियाः। अभ्यक्ष्यमक्षंका गावः कोलाः सुमतयो न च।
माहात्म्यं भूमिदेवानां विशेषादुच्यते मया।
तव स्नेहाद्द्विजश्रेष्ठ! निशामय समाहितः।

ब्राह्मण चाहें व्यभिचारी ही क्यों हो 'वह पूज्य ही है 
और शूद्र चाहे जितेन्द्रीय ही क्यों न हो 'वह  'वह कभी भी सम्मान के योग्य नहीं है ।

इस प्रकार पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों की विशेषताऐं सुनकर  सभी विप्र गण स्नेह से सुनकर सावधान हो गये 
    
सीधी सी बात है कि  धर्म को अपने स्वार्थों की सिद्धि करने वाले लोभी ब्राह्मणों ने सब प्रकार से समाज में अपने हित शास्त्र मर्यादा के नाम पर सुरक्षित रखे ।

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विश्व की प्राचीन संस्कृतियों से भी कुछ मुख्य तथ्य उद्धृत किए हैं ;जो समीचीन और प्राचीन भी हैं ।

विशेषत: ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों से तथा यूनानी संस्कृति से प्राचीन दार्शनिकों के मत विदित हो !

कि कैल्टिक संस्कृति के सूत्रधार ड्रयूड (Druids) समुदाय की एक शाखा भारतीय धरा पर द्रविड कहलाती है ।
आत्म तत्व के विश्लेषण में कृष्ण का दर्शन अद्भुत है ।
आत्मा शाश्वत तत्व है ..श्रीमद्भगवत् गीता तथा कठोपोनिषद कुछ साम्य के साथ यह उद्घोष हैं
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न जायते म्रियते वा कदाचित् न 
अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः | 
अजो नित्यः शाश्वतोSयम् पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे || 
------------------------------------------------------------- (श्रीमद्भागवत् गीता .)..
वास्तव में सृष्टि का 1/4भाग ही दृश्यमान् 3/4 पौन भाग तो अदृश्य है ।
परिवर्तन शरीर और मन के स्तर पर निरन्तर होते रहते हैं, परन्तु आत्मा सर्व -व्यापक व अपरिवर्तनीय है ।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || 
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अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है ।

.ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करता है ।
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न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।

मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है ,और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है 


"योग आत्म-साक्षात्कार की कुञ्जिका " यादव योगेश कुमार "रोहि"

31 मार्च 2019   |  Yadav Yogesh kumar -Rohi-   (222 बार पढ़ा जा चुका है)

आत्मा को वैदिक सन्दर्भों में स्वर् अथवा स्व: कह कर वर्णित किया है ।
परवर्ती तद्भव रूप में श्वस् धातु भी स्वर् का ही रूप है ।
आद्य-जर्मनिक भाषाओं:- swḗsa( स्वेसा )तथा
swījēn( स्वजेन) शब्द आत्म बोधक हैं ।
अर्थात् own, relation
प्राचीनत्तम जर्मन- गोथिक में: 1-swēs (a) 2-`own'; swēs n. (b) `property'
2- पुरानी नॉर्स (Old Norse): svās-s `lieb, traut'
3-Old Danish: Run. dat. sg. suasum
4-Old English: swǟs `lieb, eigen'
5-Old Frisian: swēs `verwandt'; sīa `Verwandter'
6-Old Saxon: swās `lieb'
7-Old High German: { swās `
8-Middle High German: swās Indo-European Proto- indo European se-, *sow[e] *swe- स्व
9-Old Indian: poss. svá-
10-Avestan: hva-हवा xva- जवा 'eigen, suus', hava- hvāvōya, xvāi Other Iranian:
11-OldPersian huva- 'eigen, suus'
12-Armenian: in-khn, gen. in-khean 'selbst', iur 'sui, sibi'
13-Latin: sibī, sē; sovos
(OldLat), suus
14-Proto-Baltic: *sei-, *saw-, *seb- Meaning: self Indo-European etymology
15- Old Lithuanian: sawi, sau.
संस्कृत भाषाओं में तथा वैदिक भाषाओं में स्व: शब्द आत्म बोधक है।
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स्वेन स्वभावेन सुखेन, वा तिष्ठति स्था धातु विसर्गलोपः ।
स्वभावस्थे अर्थात्‌ स्व आत्मनि तिष्ठति स्थायते इति स्वस्थ:


अर्थात्‌ --जो स्वयं मे स्थित है 'वह सच्चे अर्थों में स्वस्थ है ।।
योग स्वास्थ्य का साधक है ।
पञ्चम् सदी में रचित श्रीमद्भगवत् गीता मे योग की उत्तम परिभाषा बताया है ।

भगवद्गीता के अनुसार योग :–👇
"सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा निष्काम कुरु कर्माणि
समत्वं योग उच्चते ।।
श्रीमद्भगवत् गीता(2/48)
अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्व भावों में सर्वत्र सम होकर निष्काम कर्म कर !
क्यों कि समता ही योग है।
समता में ही समग्र सृष्टि के विकास और ह्रास की व्याख्या निहित है.

भगवद्गीता के अनुसार -👇
" तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् "
अर्थात् इसलिए योग से जुड़ यह योग ही कर्मों में कुशलता है ।

कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्म करना चाहिए इस प्रकार का कर्म करने का कौशल ही योग है। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है 👇
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बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।। बुद्धि(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है।
तब यह समता योग है । अतः तू योग(समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 🌸

पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं।
--जो जन्म- जन्म का संस्कार बनती हैं ।
मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँची-ऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा।

यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है। जैसे चक्र के दो अरे होतें हैं । जिनके क्रमश: ऊपर आने और जाने से ही चक्र घूर्णन करता है । और मन ही इस द्वन्द्व रूपी अरों वाले संसार चक्र में घुमाता है ।
संसार या संसृति चक्र है तो द्वन्द्व रूपी अरे दु :ख -सुख हैं।
योग शब्द यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: रोम की प्राचीनत्त भाषाओं लैटिन में यूज (use) के रूप में है ।
इसमें भी युति( युत्) इसका मूल रूप है --जो पुरानी लैटिन में उति (oeti) है ।👇
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use," frequentative form of past participle stem of Latin uti "make use of, profit by, take advantage of, enjoy, apply, consume,"

पुरानी लैटिन में युति क्रिया है ।
जिससे यूज शब्द का विकास हुआ; परन्तु अंग्रेज़ी का यूज (Use) संस्कृत की युज् धातु के अत्यधिक समीप है । जिससे (युज् घञ् ) इन धातु प्रत्यय के योग से योग शब्द बनता है । _______________________________________________ योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है ।
👇 योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय है । योग’ शब्द ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।


इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध। और चित्त की वृत्ति क्या हैं मन की चञ्चलता --जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है।

योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं 👇
१-क्षिप्त, २-मूढ़ ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध।

चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) जो स्वभाव जन्य हैं
साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है ।
--जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन) की शक्ति देता है । साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।
स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं— 👇
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ।
१- संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं ।

२-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि ( -जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है।
और वही बुद्धि है और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं ।

ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं ।
योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते । वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं।

उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती।
🌸🌸🌸
योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—१:- प्रमाण, २-विपर्यय,३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण; ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं । चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं ।
नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं ।


१- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है २-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना – विकल्प है ३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है ४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है यह जाग्रति का बोध है ।

पच-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है। परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में माना है जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्रस्थान है ।

खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है । वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारी होते हैं ।
ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं ।
भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है।

जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमशःबढ़ता जाता है इस व्यापार का प्राणरस/ जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य सम्बन्ध है।
जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं ।

मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।👂👇👂👂

पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रि, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।
यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है।
यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन का रूप है।

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इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं।

उपस्थिति


मानव में पीनियल ग्रंथी लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।
यह अधिचेतक भाग का अवयव है।

पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है।

पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन भी कहा जाता है ।
--जो चेतनामय क्रियाओं की सञ्चालक है ।


वस्तुत चित्त ही जीवात्मा का सञ्चालक रूप है ; और चित्त ही स्व है और स्व का अपने मूल रूप में स्थित होने का भाव ही स्वास्थ्य है । और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है ।
योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है ।

और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है ।
और ज्ञान ही जान है । अस्तित्व की पहिचान है ।
कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है ।👇 ________________________________________________ आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।।

इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।।

( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ )

अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है । अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है। --जो स्वयं चालक नहीं है ।
यह शरीर रथ है ।
बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह
इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े ।
और आगे तो आप समझ ही गये होंगे ।
एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता को रूप में स्वीकार किया जा सकती है ।
--जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है ।

भारोपीय भाषाओं में प्रचलित है । (प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है।
आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है।
और प्रेरणा कोई कर्म-- नहीं !
अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया ।

परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से प्रेस का अर्थ ही बदल गया !
इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए।

प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे ।
कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में भी था ।
परन्तु उसे हटा दिया गया ।

यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है ।
वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है ।

रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है ।

और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि जानलें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या लगाम है।
अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है। जिसका नियन्त्रण बुद्धिके हाथों में मन का नियन्त्रण होता है ।
विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं ।
और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास आदि ।

वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है ।
जब ऩसमे अहं का भाव हो जाय ।

परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है ।
क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं । जो परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं ।

परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है ।
आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात्‌ सच्चिदानन्द।

अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे मिलता है ।

और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है । यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में पीसता है ।
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पाँचवीं सदी में कृष्ण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों की संग्राहिका उपनिषद् श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है ।

वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना पड़ेगा ।
क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।👇

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।।

मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।। अर्थात्‌ ये मेरी विभूतियाँ हैं ।

भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ"।
अ स्वर का ही उदात्त ऊर्ध्वगामी रूप "उ" तथा अनुदात्त निम्न गामी "इ" रूप है ।
और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए ।
"अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ ।
दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान है ।
"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण केरूप मे गुम्फित है ।
और "अ" आत्मा के रूप में ।

अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है।
हिब्रू संस्कृतियों तथा फोएनशियन आदि सैमेटिक भाषाओं अलेफ है ।


मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात्‌ द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है ।
संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है।
द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है?
जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है।

अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता?
-जैसे माया और ईश्वर ।
परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद।
मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ।
वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ? जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है।
अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है। अत मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ।मैं धाता हूँ श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है।
द्वन्द्व को समझने का माध्यम योग है ।

उस तराजू को योग करते हैं जिसको दौनों पलड़े बराबर हों । _________________________________________________


--------------------------------------------------------------------- अत: मन को ही आत्मा जब बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करती है । तब ही स्व की स्थति स्वास्थ्य है ।
परन्तु कालान्तरण में -जब लोग अल्पज्ञानी हो गये तब अन्त्र (आँत) को ही आत्मा और उसकी क्रिया-विधि के सकारात्मक रूप को स्वास्थ्य कहने लगे ।
यानि शरीर की नीरोग अवस्था । परन्तु आधुनिक योग शास्त्र के अनुसार तन ,मन और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता मूलक स्तर पर जो सन्तुष्ट है ; 'वह स्वस्थ है । _________________________________________________

आध्यात्मिक स्तर पर स्वास्थ्य से तात्पर्य है । आत्मा की मूल स्वाभाविक स्थिति" बौद्धमतावलंबी भी जो पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों के द्वारा व्याख्यायित ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, परन्तु योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। क्यों कि योग द्रविड़ो की आध्यात्मिक साधना-पद्धति है ।

अत: योग पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं । बौद्ध ,जैनों आदि सबने योग को स्वीकार किया ।
यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पतञ्जलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं:
चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

परन्तु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना।
यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध (फलित भाग्य) दहन हो गया होगा।
निरोध यदि सम्भव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ? योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। क्यों जीवन ही कर्म मय है ।

👇 न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।
कोई भी मनुष्य कभी किसी भी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों द्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं। यहाँ सभी प्राणीके साथ अज्ञानी विशेषण ( शब्द )जोड़ना चाहिये क्योंकि आगे के प्रकरण में जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है ।

अतः अज्ञानियोंके लिये ही कर्मयोग है ज्ञानियों के लिये नहीं। क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित या मोहित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रियाका अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। केवल लीला सदृश्य वे निष्काम कर्म करते हैं ;
लोक हित के लिए । परन्तु जब आत्मा से संयुक्त होकर कर्म और प्रारब्ध ही करते हैं जीवन की व्याख्या तब व्यक्ति संसार के चक्र में घूर्णन करता रहता है ।

कालान्तरण में जब बुद्ध के सिद्धान्तों को समझने वाले बुद्धत्व से हीन हुए दो बुद्ध का मार्ग दो रूपों में विभाजित हुआ ।

बौद्ध धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय बन गये। हीनयान, थेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान, परन्तु बौद्ध धर्म एक ही था एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त को तो मानते परन्तु व्याख्या अपने स्वार्थों के अनुकूल करने लगे।

हीनयान अथवा 'स्थविरवाद' रूढिवादी बौद्ध परम्पराओं का पालन करने वाला एक सम्प्रदाय बन गया ।

परिचय
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प्रथम बौद्ध धर्म की दो ही शाखाएं थीं, हीनयान निम्न वर्ग(गरीबी) और महायान उच्च वर्ग (अमीरी), हीनयान एक व्‍यक्त वादी धर्म था इसका शाब्दिक अर्थ है निम्‍न मार्ग।
यह मार्ग केवल भिुक्षुओं के ही लिए ही सम्भव था।
हीनयान सम्प्रदाय के लोग परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे।

यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्‍यों त्‍यों बनाए रखना चाहते थे। हीनयान सम्प्रदाय के सभी ग्रन्थ पाली भाषा मे लिखे गए हैं। हीनयान बुद्ध की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्ध को केवल महापुरुष मानते थे।
हीनयान की साधना अत्‍यंत कठोर थी तथा वे भिक्षुु जीवन के हिमायती थे।
हीनयान सम्प्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है। बाद मे यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- १-वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक।
इनका वर्णन वादरायण के ब्रह्-सूत्र में है ।

वैभाषिक मत की उत्‍पत्ति कश्‍मीर में हुई थी तथा सौतान्त्रिक तन्त्र-मन्त्र से संबंधित था। सौतांत्रिक संप्रदाय का सिद्धांत मंजूश्रीमूलकल्‍प एवं गुहा सामाज नामक ग्रंथ मे मिलता है।


थेरवाद' शब्द का अर्थ है 'बड़े-बुज़ुर्गों का कहना'। बौद्ध धर्म की इस शाखा में पालि भाषा में लिखे हुए प्राचीन त्रिपिटक धार्मिक ग्रन्थों का पालन करने पर बल दिया जाता है।
थेरवाद अनुयायियों का कहना है कि इस से वे बौद्ध धर्म को उसके मूल रूप में मानते हैं। इनके लिए गौतम बुद्ध एक गुरू एवं महापुरुष अवश्य हैं लेकिन कोई अवतार या ईश्वर नहीं।
वे उन्हें पूजते नहीं और न ही उनके धार्मिक समारोहों में बुद्ध-पूजा होती है।
जहाँ महायान बौद्ध परम्पराओं में देवी-देवताओं जैसे बहुत से दिव्य जीवों को माना जाता है वहाँ थेरवाद बौद्ध परम्पराओं में ऐसी किसी हस्ती को नहीं पूजा जाता।
थेरवादियों का मानना है कि हर मनुष्य को स्वयं ही निर्वाण का मार्ग ढूंढना होता है। इन समुदायों में युवकों के भिक्षु बनने को बहुत शुभ माना जाता है ;
और यहाँ यह प्रथा भी है कि युवक कुछ दिनों के लिए भिक्षु बनकर फिर गृहस्थ में लौट जाता है।
थेरवाद शाखा दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों में प्रचलित है, जैसे की श्रीलंका, बर्मा, कम्बोडिया, म्यान्मार, थाईलैंड और लाओस
पहले ज़माने में 'थेरवाद' को 'हीनयान शाखा' कहा जाता था।
बौद्ध धर्म का सबसे विकृत रूप वज्रयान के रूप में वर्णित हुआ ।

वज्रयान को तांत्रिक बौद्ध धर्म, तंत्रयान मंत्रयान, गुप्त मंत्र, गूढ़ बौद्ध धर्म और विषमकोण शैली या वज्र रास्ता भी कहा जाता है।
वज्रयान बौद्ध दर्शन और अभ्यास की एक जटिल और बहुमुखी प्रणाली है जिसका विकास कई सदियों में हुआ।


वज्रयान संस्कृत शब्द, अर्थात हीरा या तड़ित का वाहन है, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है तथा भारत व पड़ोसी देशों में[3], विशेषकर तिब्बत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विकास समझा जाता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिये किया गया है।

‘वज्र’ शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा स्वयं अपने व अपनी प्रकृति के बारे में की गई कल्पनाओं के विपरीत मनुष्य में निहित वास्तविक एवं अविनाशी स्वरूप के लिये किया जाता है।

यान( रास्ता)
‘यान’ वास्तव में अंतिम मोक्ष और अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा है।
वज्रयानी ही कालान्तरण में सिद्ध कहलाए यह समय लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी है ।



सिद्धों की परम्परा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे।
इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था।

सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं। इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है।

एक और परिचय सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं।
उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है।
एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है।
उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्रधन प्रदेश में होने का अनुमान किया है।

अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है।
उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं।

वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे।
उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे।
ये बुद्ध को मार्ग से पूर्ण रूपेण पृथक हो गये ।
योग को इन्होंने भोग का माध्यम बना लिया ।


दुनिया के करीब २ अरब (२९%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गये किंतु, अमेरिका के प्यु रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग ५४ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का 7% हिस्सा है।
प्यु रिसर्च ने चीन, जापान व वियतनाम देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं, हालांकि यह देश सर्वाधिक बौद्ध आबादी वाले शीर्ष के तीन देश हैं।
दुनिया के 200 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं।
किंतु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' धर्म है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध अनुयायी हैं।
योग को बुद्ध ने जाना इससे पूर्व कृष्ण ने योग को जाना
जैनियों के त्रेसठ शलाका पुरुषों में कृष्ण और बलराम का भी वर्णन है । बुद्ध परम्परा में भी कृष्ण को माना ।
योग सृष्टि के रहस्य को जानने रा सम्यक् विज्ञान है ।
योग आत्म-साक्षात्कार की कुञ्जी है । _________________________________________________

यही सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत कारण है।
जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है। विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है ।

और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं!

सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें !
तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में सदीयों से किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान रहा है।
और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होनी भी चाहिए ।
क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है।
..मैं यादव योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ।

जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्राप्त किए हैं।

...इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा अन्य उपनिषदों को उद्धृत किया गया है।
यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही अंग है । परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा समायोजित किया गया। गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।
वह कृष्ण के मत के अनुमोदक अवश्य है ; कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं।
वस्तुत वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के बाद की रचना है । जिसमें -परोक्षत: -ब्रह्म-सूत्रपद के आश्रय से बौद्ध कालीन है । श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की रचना है ।👇 _________________________________________________ दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है। जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :-
१-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया । -ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई । द्वन्द्व से मुक्त होने को श्रीमद्भगवत् गीता मे योग कहा ।

और प्रकृति द्वन्द्व मयी है ।👇
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"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)
यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके .
तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45)

----हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात्‌ इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो !
जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है।
समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा !
आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ; उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है ।
अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।

बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन

"समता योग उच्यते योग: कर्मसुु कौशलम्"
तथ्य से पूर्ण रूपेण है । योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय। सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
योग: कर्मसुु कौशलम्"
ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं।
विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।

जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ; उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे ।

इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।
इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है। प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153) देखें--- अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।’
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है। दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है;
जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।
कृष्ण द्रविड संस्कृति के नायक थे ।
यह तथ्य अटपटा अवश्य लग सकता है परन्तु यही सत्य है; जिन्हें चतुर ब्राह्मणों ने कृष्ण के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें अपने -ग्रन्थों में युग-- पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित किया ।
और ब्राह्मण हिल मूलक मत कृष्ण पर आरोपित करके इस प्रकार वर्णित किए हैं; कि उसमें कुछ भी कृत्रिम अनुभव न हो । कृष्ण चमत्कारी पुरुष थे और इनका जन्म गोप अथवा आभीर जाति में हुआ था । जैसा कि हरिवंश पुराण कहता है ; जो महाभारत का खिल-भाग है । ________________________________________________

गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् । स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९। _________________________________________________

अर्थात्:-जो भगवान् विष्णु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ।९। __________________________________________

हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ ( संस्कृति संस्थान ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .. तथा गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ और चालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12) निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। आभीर जन-जाति का सम्बन्ध द्रविडों से है। जो पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल में द्रुज़ (Druze) हैं ।

द्रुज़ जन-जाति का सम्बन्ध यहूदीयों से है । जिनमें कृष्ट Christ अर्थात् ईसा मसीह का जन्म हुआ।

विश्व की प्राचीन संस्कृतियों से भी कुछ मुख्य तथ्य उद्धृत किए हैं ;जो समीचीन और प्राचीन भी हैं ।
विशेषत: ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों से तथा यूनानी संस्कृति से प्राचीन दार्शनिकों के मत विदित हो कि कैल्टिक संस्कृति के सूत्रधार ड्रयूड (Druids) समुदाय की एक शाखा भारतीय धरा पर द्रविड कहलाती है । आत्म तत्व के विश्लेषण में कृष्ण का दर्शन अद्भुत है । आत्मा शाश्वत तत्व है ..श्रीमद्भगवत् गीता तथा कठोपोनिषद कुछ साम्य के साथ यह उद्घोष हैं ________________________________________

न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः | अजो नित्यः शाश्वतोSयम् पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे || -------------------------------------------------------------

(श्रीमद्भागवत् गीता .).. वास्तव में सृष्टि का 1/4भाग ही दृश्यमान् 3/4 पौन भाग तो अदृश्य है ।
परिवर्तन शरीर और मन के स्तर पर निरन्तर होते रहते हैं, परन्तु आत्मा सर्व - व्यापक व अपरिवर्तनीय है ।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || _______________________________________________

अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है । .ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करता है । ________________________________________________ न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।
मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है ,और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है |

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
नि:सन्देह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |

प्राणी की श्वाँसों का चलना हृदय का धड़कना एक सतत् कर्मों का रूप ही तो है ।________________________________________________

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।

जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक
ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |

यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |

-------------------------------------------------------------------- आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं । जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।
-------------------------------------------------------------------- प्राचीन ग्रीक के आर्य दार्शनिकों की ई०पू०1200 के समकक्ष यह प्रबल अवधारणा थी कि आत्मा अविनाशी और शाश्वत् सत्ता है। विशेषत होमर ई०पू० 800 के समकालिक महाकाव्यों इलियड और ऑडेसी में वर्णित तथ्यों में ; और आज भी भौतिकी की सैद्धान्तिक कषौटी पर यह तथ्य प्रमाणित भी हो गया है, कि परमाणु अविनाशी है ,और संसार की निर्माण इकाई है परमाणु सृष्टि की पूर्ण इकाई अर्थात् व्यष्टि रूप है।
संस्कृत साहित्य में अणु शब्द जीव का वाचक है।
अन् धातु से व्युत्पन्न है। "अण्यते येन असौ अणु कथ्यते " अण् :- शब्दे प्राणने च आत्मने पदीय क्रिया रूप (अण--उन् ) क्षुद्रे, सूक्ष्मपरिमाणवति, द्रव्ये, लेशे च । (चिना, काङनी, श्यामा) प्रभृति सूक्ष्मधान्ये पुल्लिङ्गः।
“अनणुषु दशमांशोऽणुष्वथैकादशांश” इति लीलावती । अणुशब्दोहि परिमाणविशेषवाची । ग्रीक भाषा में भी ऐटम {Atom}शब्द का अभिधेय अर्थ है----×----अकाट्य तत्व ---अर्थात् जिसे काटा नहीं जा सकता है वही ऐटम है ----- ✳⛔. Atom--a particle of matter so small that so far as the older chemistry goes..Cannot be Cut (Temnein) or divided... अर्थात् पदार्थ का सबसे शूक्ष्मत्तम कण जिसे और काटा नहीं जा सकता है , वही एटम atom है। संस्कृत भाषा में ऐटम शब्द का भाषान्तरण परमाणु शब्द के रूप में किया है, परमाणु शब्द का संस्कृत भाषा में अभिधात्मक अर्थ होता है। .. सबसे शूक्ष्म जीव (अणुः) ...ऐटम शब्द A नकारात्मक उपसर्ग तथा Tomos क्रियात्मक विशेषण से बना हुआ रूप है ..Tomos का भी धातु रूप (क्रिया का मूल रूप) Temnein =to cut अर्थात् काटना है । ....Atoms -A priv.and tomos----Verbal adjective form of Temnein Rootword ...A=-privation of tomos..A tomos ...
इस शब्द के अतिरिक्त ग्रीक भाषा में सत्तावान् तत्व का वाचक ऐटिमॉन Etymon..शब्द भी है, जिसका मूल रूप (Etymos) है ..इसी सन्दर्भ में हम यह भी स्पष्ट कर दें की ग्रीक भाषा में ऐटमॉस (Atmos) शब्द का मूल अर्थ वायु तथा बाष्प और शूक्ष्म तत्व भी है।
और तो अॉटोस् (Autos) शब्द भी आत्मा का वाचक है ।
जिसका तादात्म्य संस्कृत स्वत: शब्द से प्रस्तावित है । ________________________________________________

अवेस्ता ए झन्द में संस्कृत शब्द स्वयं ( स्वत:) ख़ुद बन गया और इसी से आगेे चल कर ख़ुदा शब्द का भी विकास हुआ है।
... अब हम यह प्रतिपादित करेंगे कि आत्मा और एटम वास्तव में क्या है? (सबसे छोटा आत्मा ) सृष्टि की हर वस्तु की निर्माण की शूक्षत्त्तम इकाई परमाणु है।
जो काटा नहीं जा सकता है - संस्कृत भाषा में प्राचीन काल से आत्मा का वाचक प्रेत शब्द है।

जो भारोपीय भाषा परिवार से सम्बद्ध है।

(Etymology and meaning) "Ātman" (Atma, आत्मा, आत्मन्) is a Sanskrit word which means "essence, breath, soul."It is related to the PIE *etmen (a root meaning "breath";
cognates: Dutch adem, Old High German atum "breath," Modern German atmen "to breathe" and Atem "respiration, breath",
Old English eþian). _______________________________________________
Ātman, sometimes spelled without a diacritic as atman in scholarly literature, means "real self" of the individual,"innermost essence"and soul. Atman, in Hinduism, is considered as eternal, imperishable,
beyond time, states Roshen Dalal, "not the same as body or mind or consciousness, but is something beyond which permeates all these" Atman is a metaphysical and spiritual concept for the Hindus, often discussed in their scriptures with the concept of Brahman. Development of the concept Schools of thought Influence of Atman theory on Hindu Ethics Atman – the difference between Hinduism and Buddhism... _________________________________________________

अर्थात् (व्युत्पत्ति और अर्थ) "Ātman" (आत्मा, आत्म, आत्मन्) एक संस्कृत शब्द है । जिसका अर्थ है "सार, श्वाँस, आत्मा। " यह मूल भारोपीय एटमेन से संबंधित है (जिसका मूल अर्थ है "श्वाँस"; cognates: Dutch adem , पुरानी उच्च जर्मन एटम "सांस," आधुनिक जर्मन एटमेन "साँस लेने" और एटेम "श्वसन, सांस", पुरानी अंग्रेज़ी एडियन)। ________________________________________________

Ātman, कभी-कभी विद्वानों के साहित्य में एटमन के रूप में एक डाइकाट्रिक के बिना वर्तनी, का अर्थ "वास्तविक स्व" है। "सबसे सरल तत्व" और आत्मा।
आत्मा, हिन्दू धर्म में, अनन्त, अविनाशी, समय से परे, कहलाता है। "शरीर या मन या चेतना के समान नहीं है, परन्तु कुछ भी परे जो इन सब में व्याप्त है"आत्मा है ।
आत्मा हिन्दूओं के लिए एक आध्यात्मिक और दार्शिनिक अवधारणा है, जिन्हें अक्सर ब्राह्मणों की अवधारणा के साथ अपने धर्मग्रंथों में चर्चा की जाती है। श्रीमद्भगवद् गीता का यह श्लोक प्रमाण रूप में है 👇

नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक ।
चैनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।।
अर्थात् शस्त्राणि जिसे काट नहीं सकता , अग्नि जला नहीं सकती और जल भिगोय नहीं सकता, और न वायु जिसे सुखा सकती है , वह आत्मा है । ________________________________________________


यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल Neutral है।
परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा बीटा गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध है। भौतिक शास्त्री लेप्टॉन क्वार्क तथा गेज बोसॉन नामक मूल कणों को भी परमाणु के ही मूल में भी स्वीकार करते हैं ।
परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं; केवल उसके अवयव रूप हैं परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक Nucleusभी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं , जैसे सत्य का समायोजन ब्रह्म से हो। .क्यों कि ब्रह्म द्वन्द्व भाव से सर्वथा परे है। परन्तु उसका साक्षात्कार सत्याचरण से ही सम्भव है ।
अत: सत्य और ब्रह्म का इतना सम्बन्ध अवश्य है । विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित कण है और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन हैं। जो कक्षाओं में चक्कर काटते रहते हैं ।
इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है ।
अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है इलेक्ट्रॉन ही वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी है। ----------------------------------------------------------------------
परमाणु के द्रव्यमान का 99.94% से अधिक भाग नाभिक में होता है । प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है । तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक आवेश होता है ।
और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओरआकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।
एैसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है । परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है _______________________________________________
यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में आत्मा शब्द अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान है 👇 जैसे - 1-पुरानी अंगेजी में--Aedm 2-डच( Dutch) भाषा में Adem रूप 3-प्राचीन उच्च जर्मन में Atum = breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस-- 4-डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप (Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना परन्तु Auto शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है । जो की Hotos रूप में था । जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है । श्री मद् भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को👇 नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: । न च एनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।। कृष्ण का यह विचार ड्रयूड Druids अथवा द्रविड दर्शन से प्रेरित है । आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है आत्मा में मूलत: अनन्त ज्ञान अनन्त शक्ति अौर यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है। क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है । ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है । __________________________________________ ज्ञा धातु जन् धातु का ही विपर्यय अथवा सम्प्रसारण रूप है । सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं। जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं मकरन्द (पुष्प -रस )है ; आत्मा सत्य है । क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है । एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ; ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं । परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म लीला रत है ;यह संसार लीला है । और अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है । अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ; उसका स्वभाव है यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है। क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है। अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं यही द्वन्द्व सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है। स्त्री स्वभाव से ही वस्तुत: कहना चाहिए प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ; और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है। इसके परोक्ष में सृष्टा सृष्टा का एक सिद्धान्त निहित है । वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है । अन्यथा नहीं , वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है। ..और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है । ---आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है। जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है । ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों भी प्रकट हो जा है । परन्तु इन सब के मूल में आवेश अथवा इच्छा ही होती है । और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है ! जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है । परन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञाति नहीं :- ******************************************* ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न ! श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न । पर खोज अभी तक जारी है । अपने स्वरूप से मिलने की । हम सबकी अपनी तैयारी है । आशा के पढ़ाबों से दूर निकर संसार में किसी पर मोह न कर ये हार का हार स्वीकार न कर मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है । शोक मोह में तू क्यों खिन्न है । कुछ पल के रिश्ते सब भिन्न है । 'रोहि' मतलब की दुनियाँ सारी है । ****************************************** शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है । जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है । परन्तु परछाँईयों में ,परन्तु सबकी समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा साक्षात्कार ही है । और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है । और एक संकीर्ण वृत्त (दायरा)भी । यह एक बिन्दुत्व का भाव ( बूँद होने का भाव )है । जबकि स्व: मे अात्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है ; यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है । व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है । परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है। इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है । _________________________________________ अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर , इनकी कार्य शैली में यही बड़ा अन्तर है। संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द के अनेक प्रासंगिक अर्थ भी हैं जैसे :---- १--वायु २--अग्नि ३---सूर्य ४--- व्यक्ति --स्त्री पुरुष दौनो का सम्यक् (पूर्ण) रूप ५---ब्रह्म जो कि द्वन्द्व से सर्वथा परे है। मिश्र की प्राचीन संस्कृति में आत्मा एटुम (Atum )के रूप में सृष्टि का सृजन करने वाले प्रथम देवता के रूप में मान्य है । कालान्तरण में मिश्र की संस्कृति में यह रूप "Aten" या "Aton"के रूप में सूर्य देव को दे दिया गया , प्राचीन मिश्र के लोग भारतीयों के समान सूर्य को विश्व की आत्मा मानते थे । मिश्र की संस्कृति में अातुम Atum का स्वरूप स्त्री और पुरुष दौनो के समान रूप में था । 👇 और यही (एतुम )वास्तव में सुमेर और बैबीलॉन की संस्कृतियों में आदम के रूप उदित हुआ , जो स्त्री और पुरुष दौनो का वाचक है- और यही से आदम शब्द हिब्रू परम्पराओं में उदय हुआ जिसका समायोजन कुछ अल्पान्तरण के साथ यहूदी.ईसाई तथा इस्लामी शरीयत ने किया है । मिश्र वालों की अवधारणा थी; की आतुम( Atum) पूर्ण तथा अनादि देव है । जिसने समग्र सृष्टि का सृजन कर दिया है । इसी सन्दर्भ में भारतीय उपनिषदों ने कहा है आत्मा के विषय में जो ब्रह्म के अर्थ में है-- _______________________________________________ पूर्णम् अदः पूर्णम् इदम् पूर्णात् पूर्णम् उद्च्यते । . पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् इव अवशिष्यते .।। ________________________________________ ..ईशावास्योपनिषदअर्थात् यह आत्मा पूर्ण है और इस पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही अवशेष बचता है ।
..इधर श्रीमद भगवद् गीता उद्घोष करती है.. 🌷🌷🌷

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
नैनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुतः ||

.. भारतीयों की धारणा के समान जर्मन देव संस्कृतियों के अनुयायीयों की अवधारणा भी यही थी। ..जर्मन वर्ग की प्राचीन भाषाओं में आज भी आत्मा को एटुम (Atum) कहते हैं ।

पुरानी उच्च जर्मन O.H.G. भाषा में (Atum) शब्द प्रेत एवम् प्राण का वाचक है । अर्थात् (Breath & Ghost )यही आत्मा शब्द मध्य उच्च जर्मन M.H.G. भाषा में Atem शब्द के रूप में हुआ । जर्मन आर्यों की सांस्कृतिक भाषा डच में यह शब्द (Adem )के रूप में प्रतिष्ठित है ।

और पुरानी अंग्रेजी (ऐंग्लो-सेक्शन)में यह शब्द ईड्म (Aedm) कहीं कहीं यही आत्मा शब्द आल्मा Alma के रूप में भी परवर्तित हुआ है । Atum (संस्कृत आत्मा शब्द से साम्य परिलक्षित है) प्राचीन मिश्र में आत्मा की अवधारणा एक देवता के रूप में की गयी ---जो स्त्री और पुरुष दौनों रूपों में था ।

परम (संस्कृत आत्मा शब्द से साम्य परिलक्षित है) अतूम (जिसे टेम या तेमू के नाम से भी जाना जाता है) पहली और सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन मिस्र के देवता, जिनकी उपासना आयनू (हेलिपोलिस, लोअर मिस्र) में हुई थी, हालांकि बाद के दिनों में रा शहर में महत्व बढ़ गया और उसे कुछ हद तक ग्रहण किया।

वह पूर्वी डेल्टा में पिथॉम में प्रति-मंदिर ("अतात का घर") का मुख्य देवता था। हालांकि वह लोअर मिस्र के पुराने राज्य में अपने सबसे लोकप्रिय में था, लेकिन वह अक्सर मिस्र में फिरौन के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है।

नई साम्राज्य के दौरान, अट्टम और थबर्न देव मोंटू (मोंटजू) को राजा के साथ कर्नाक में अमीन के मंदिर में दर्शाया गया है। स्वर्गीय काल में, भगवान के चिन्ह के रूप में छिपकलियों के ताबीज पहनाए जाते थे।
ओतम हेलीओपॉलिटन एननेड में क्रिएटर देवता था। Atum का सबसे पहला रिकॉर्ड पिरामिड ग्रंथों (राजवंश के पांचों और छह के फायरोउस के कुछ पिरामिड में लिखा गया है) और कॉफ़ीन ग्रन्थ (अभिरुचि के कब्रों के लिए शीघ्र ही बनाया गया)।

शुरुआत में कुछ भी नहीं था ।

(नन)। धरती का एक टहनी नून से बढ़ी और उस पर अतूम ने खुद को बनाया। वह अपने मुंह से शू (वायु) और टेफनट (नमी) को फैलता है अतूम के दो संतान उसके से अलग हो गये और अंधेरे में कोई कमी नहीं हुई, अतुल ने "आंख" को भेजा ("रा के आँख" के पूर्ववर्ती, विभिन्न समय में कई देवताओं को दिया गया एक उपन्यास)।
जब वे पाए गए, उन्होंने शू को "जीवन" और टेफनट को "आदेश" के रूप में रखा और उन्हें एक साथ जोड़ दिया। अतूल थके हुए थे और आराम करने की जगह चाहते थे, इसलिए उसने अपने दागुदर टेफनट को चूमा, और नून के जल से उगने के लिए पहली बाघ (ऊनु) बनाया।
शू और टेफनट ने पृथ्वी (गेब) और आकाश (अखरोट) को जन्म दिया, जो बदले में ओसीरिस, आईिस, सेट, नेफथिस और हॉरस को बड़े जन्म देते हैं।

मिथक के बाद के संस्करणों में, अत्तुम शू और टेफनट को हस्तमैथुन के द्वारा पैदा करता है और गीब और नट का विभाजन करता है क्योंकि वह अपने निरन्तर सम्भोग से ईर्ष्या करते हैं।
हालांकि, उनकी रचनात्मक प्रकृति के दो पक्ष हैं मृतक की किताब में, ओतम ओसीरिस को बताता है कि अंततः वह दुनिया को नष्ट कर देगा, सबकुछ सब कुछ जलमग्न (नन) में वापस कर देगा, जो कि समय की शुरुआत में मौजूद थे। इस अस्तित्व में, एटम और ओसीरिस साँप के रूप में जीवित रहेंगे।
ओतम, रा, होरखटी और खेपी ने सूर्य के विभिन्न पहलुओं को बना दिया।
अतूम सेटिंग सूर्य था जो हर रात अंडरवर्ल्ड के माध्यम से यात्रा करता था वह सौर धर्मशास्त्र के साथ भी जुड़ा हुआ था, जैसे स्वयं-विकासशील स्कार्ब जो नव निर्मित सूरज का प्रतिनिधित्व करता था।
नतीजतन, वह रे (उगते सूरज) के साथ दोनों पिरामिड और कॉफ़ीन ग्रंथों में रे-अतातम के रूप में मिला है जो "पूर्वी क्षितिज से उभर आता है" और "पश्चिमी क्षितिज में टिकी हुई है"।
दूसरे शब्दों में री-अतातम के रूप में वे सुबह रात को खुद को पुनर्जन्म करने से पहले हर रात शाम को मर गए देवताओं के शासक के साथ संयुक्त इस रूप में, अट्टम ने सूरज की स्थापना और अंडरवर्ल्ड के माध्यम से अपनी यात्रा को पूर्व में बढ़ते हुए चिन्हित किया।
अातुम देवताओं का पिता था, पहला दैवीय युगल, शू और टेफनट, जिससे अन्य सभी देवताओं का वंशज है, पैदा करता है। उन्हें फिरौन के पिता के रूप में भी माना जाता था।
राजा के साथ आतुम का घनिष्ठ संबंध कई पंथीय अनुष्ठानों में और राज्याभिषेक संस्कार में देखा जाता है।

स्वर्गीय काल से डेटिंग एक पपीरस से पता चलता है कि ईश्वर नए साल के त्यौहार के लिए केंद्रीय महत्व का था जिसमें राजा की भूमिका को पुन: पुष्टि किया गया था। नए साम्राज्य के बाद से, उन्होंने अक्सर पवित्र छत के पेड़ की पत्तियों पर शाही नामों का विवरण प्रस्तुत किया और कुछ निचले मिस्र के शिलालेखों में आदम को फिरौन (उदाहरण के लिए पिथौम में रामेसेस द्वितीय के मंदिर) पर मुकुट दिखाया गया।
थेब्स के पास किंग की घाटी की नई किंगडम कब्रों में ग्रंथों में वृद्ध व्यक्ति के रूप में आदम को वृद्ध व्यक्ति के रूप में दर्शाया गया है जो दुष्टों की सजा और सूर्य देवता के दुश्मनों की निगरानी करता है।

वह नेदरहॉर्ल्ड में कुछ बुरी ताकतों को भी पीछे हटाना है जैसे साहेप नेहेबु-काऊ और एपीपी (अपोफिस)आदि - आत्म तत्व के विषय कृष्ण की व्याख्याऐं समीचीन और प्राचीनत्तम हैं। आत्मा शाश्वत तत्व है ..श्रीमद्भगवत् गीता तथा कठोपोनिषद कुछ साम्य के साथ यह उद्घोष है _______________________________________________

न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः | अजो नित्यः शाश्वतोSयम् पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे || ------------------------------------------------------------------

आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ... इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।
आत्मा के विषय में ही इसी तरह की मान्यता प्राचीन वेल्स और कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं जिन लोगों को वेल्स लोग डरविद और रोमन ड्राइड (ड्रूड्स) कहा था।
जो ज्यूडिओं के सहवर्ती द्रुज और भारतीय द्रविड ही थे।
यूनानी और रोमन इतिहास कार लिखते हैं, कि ड्रेयड पुरोहित ही आत्मा के अमरत्व और पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे।
पश्चिमी एशिया में और यूरोप में भी ... इतिहास कारों के कुछ एसी ही मान्यताएं हैं ------------------------------------------------------------------ अलेक्जेंडर कुरनेलियस पॉलिहाइस्टर के द्वारा ड्रयूडों (Druids) को दार्शनिक के रूप में सन्दर्भित किया जाता है और आत्मा और पुनर्जन्म या मेटाफिकोसिस की अमरता के सिद्धान्तों को "पायथागोरियन" कहा जाता है । ________________________________________________

पथ्यागोरियन सिद्धान्तके अन्तर्गत प्रचलित है कि पुरुषों की आत्माएं अमर हैं , और एक निश्चित वर्ष संख्या के बाद वे एक और नवीन शरीर में प्रवेश करेंगीं " ज्युलियस सीज़र आगे लिखता है, -------------------------------------------------------------------
जूलियस सीज़र, डी बेल्लो ग्लॉलिक, Vl 13 .. _______________________________________________
कि ड्रयूड पुरोहितों की सिद्धान्तों का मुख्य बिंदु है, कि आत्मा मरती नहीं है । (आत्मा के बारे में द्रुज़ अथवा द्रविडों का दर्शन) अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रुड्स को दार्शनिकों के रूप में सन्दर्भित किया और आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म या मेटाम्प्सीकोसिस को "पायथागोरस" कहा।
प्राचीन फ्रॉन्स के निवासी "गौल्स (कौल) जन-जाति के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं। " सीज़र टिप्पणी: "उनके सिद्धांत का मुख्य बिंदु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है" (देखिए मेटेमस्पर्शिसिस)।
सीज़र ने लिखा: है । अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशिता में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है। जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है ;
जैसे एक मकान दूसरे मकान में; केवल इस तरह के सिद्धान्त द्वारा, वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों को विशेषत मृत्यु के भय को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित कर सकता है ।
इस मुख्य सिद्धान्त की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यानों और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, विशेषत: खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं।
- जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, ,, Vl 13 देखें--- अंग्रेज़ी मूल रूप -- Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean " _______________________________________________

The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal , and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है , ------------------------------------------------------------------- Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. _______________________________________________

कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । ( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 ________________________________________________ इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ जन-जाति भी एकैश्वरवादी (Monotheistic) और कर्म के आधार पर पुनर्जन्म में विश्वास करते थे ।
ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है । परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी ईश्वर को एक मानते थे । तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है ।
और आत्मा दूसरे शरीरे नये शरीरों मे जाती है ऐसी इनकी मान्यताऐं थीं ।
सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत .. -----------------------------------------------------------------

सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है । हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि ज्ञान और वाणी का संवाहक है, हमारी चेतना जितनी प्रखर होगी ,हमारा ज्ञान वाणी और दृष्टि उतनी ही उन्नत होगी स्त्री और पुरुष का जो भेद है, वह केवल मन के स्तर पर ही है । आत्मा के स्तर पर कदापि नहीं है जन्म-जन्मातरण तक यह मन ही हमारे जीवन का दिशा -निर्देशन करता है
। सुषुप्ति ,जाग्रति और स्वप्न ये मन की ही त्रिगुणात्मक अवस्थाऐं हैं , आत्मा की नहीं है प्राणी जीवन का संचालन मन में समायोजित प्रवृत्तियों के द्वारा होता है । जैसे कम्प्यूटर का संचालन सी.पी.यू.-(केन्द्रिय प्रक्रिया इकाई) के द्वारा होता है ।
जिसमें सॉफ्टवेयर इन्सटॉल्ड (installed)होते हैं , उसी प्रकार प्रवृत्तियों के (System Software ) तथा (Application Software )हमारे मन /चित्त के सी. पी.यू. में समायोजित हैं.। जिन्हें हम क्रमश: प्रवृत्ति और स्वभाव कहते हैं । वास्तव में प्रवृत्तियाँ प्राणी की जाति(ज्ञाति)से सम्बद्ध होती हैं । और स्वभाव पूर्व-जन्म के कर्म-गत संस्कारों से होता है , जैसे सभी स्त्री और पुरुषों की प्रवृत्तियाँ तो समान होती परन्तु स्वभाव भिन्न भिन्न जिन्हें हम क्रमश: सिष्टम सॉफ्टवेयर और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर कह सकते है । जो अंगेजी में स्प्रिट (Spirit) है । पुरानी फ्रेंच भाषा में लैटिन प्रभाव से "espirit" शब्द है जिसका अर्थ होता है --श्वाँस लेना (Breathing) अथवा inspiration----जिसका सम्बन्ध लैटिन क्रिया ।
Spirare---to breathe से है भाषा वैज्ञानिक इस शब्द का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्पस् (s)peis से निर्धारित करते हैं । spirit (v.) 1590s, "to make more active or energetic" (of blood, alcohol, etc.), from spirit (n.). The meaning "carry off or away secretly" (as though by supernatural agency) is first recorded 1660s. Related: Spirited; spiriting. spirit (n.) mid-13c., "animating or vital principle in man and animals,
" from Anglo-French spirit, Old French espirit "spirit, soul" (12c., Modern French esprit) and directly from Latin spiritus "a breathing (respiration, and of the wind), breath; breath of a god," hence "inspiration; breath of life," hence "life;" also "disposition, character; high spirit, vigor, courage; pride, arrogance," related to spirare "to breathe," perhaps from PIE (s)peis- "to blow" (source also of Old Church Slavonic pisto "to play on the flute"). But de Vaan says "Possibly an onomatopoeic formation imitating the sound of breathing. There are no direct cognates." _________________________________________________

According to Barnhart and OED, originally in English mainly from passages in Vulgate, where the Latin word translates Greek pneuma and Hebrew ruah. Distinction between "soul" and "spirit" (as "seat of emotions") became current in Christian terminology (such as Greek psykhe vs. pneuma, Latin anima vs. spiritus) but "is without significance for earlier periods" [Buck]. Latin spiritus, usually in classical Latin "breath," replaces animus in the sense "spirit" in the imperial period and appears in Christian writings as the usual equivalent of Greek pneuma. Spirit-rapping is from 1852 Ifrit 1590 ... के दशक में "अधिक सक्रिय या ऊर्जावान बनाने के लिए विशेषत: रक्त में उत्तेजना उत्पादक के रूप में शराब, आदि), ता कहीं कहीं आत्मा का अर्थक" (अलौकिक जैवीय प्रतिनिधि के रूप में यद्यपि) पहले 1660 के दशक में दर्ज किया गया था।
समबन्धित अर्थ : उत्साह; spiriting। तथा आत्मा मध्यकाल 13 वीं सदी में , एंजेलो-फ्रांसीसी आत्मा से "मानव और पशुओं में महत्वपूर्ण या विशेष सिद्धांत", पुरानी फ्रांसीसी एस्पिरिट espirit। सॉल और स्प्रिट "
(12वीम सदी में ) आधुनिक फ्रेंच एस्प्रिट) और सीधे लैटिन आत्मा से "एक श्वास (श्वसन, और हवा का), सांस; एक देवता की सांस, "इसलिए" प्रेरणा, जीवन की सांस, "इसलिए" जीवन; " कदाचित मूल भारोपीय धातु *(s)peis- "to blow"* "उड़ाने" (पुराने चर्च स्लावोनिक पिस्टो का स्रोत भी खेलने के लिए) "श्वास करने के लिए" spirare "to breathe,"से संबंधित "स्वभाव, चरित्र, उच्च भावना, उत्साह, साहस, अभिमान, अहंकार" बांसुरी पर ") लेकिन डी वान कहते हैं, "हो सकता है कि श्वास लेने की आवाज़ की नकल करने के लिए संभवतः एक अपरम्परागत गठन होता है। ________________________________________________

अर्थ "अलौकिक अथाह प्राणी; दूत, दानव; एक भक्ति, एक हवादार प्रकृति का अदृश्य भौतिक अस्तित्व" मध्य -14 वीं सदी में सत्यापित अर्थ व्यञ्जनाऐं है । 14वीं सदी के अन्त से "भूत" के अर्थ में रूढ़ शब्द। 14 वीं सदी के अंत से ही कीमिया में "वाष्पशील पदार्थ; डिस्टिलेट;" के अर्थ में रूढ़ स्प्रिट । तथा 15 वीं सदी में "दार्शनिक के पत्थर के स्थिर और अस्थिर तत्वों को एकजुट करने में सक्षम पदार्थ" के रूप में । इसलिए आत्माओं "वाष्पशील पदार्थ;" भावना 1670 के दशक तक " जोशीली शराब के अर्थ में संकुचित हो गई। यह भावना स्तर (1768) में भी भावना है।

मध्य काल -14 वीं सदी के अर्थ रूपों में "चरित्र, स्वभाव, सोच और भावना के तरीके, मन की स्थिति, मानव इच्छा का स्रोत;" मध्य अंग्रेजी में आत्मा की स्वतंत्रता का मतलब था "पसंद की स्वतंत्रता। 14 वीं सदी के अंत से "दिव्य पदार्थ, दिव्य मन, भगवान;" "मसीह" या उसके दिव्य प्रकृति; "पवित्र आत्मा; दिव्य शक्ति;" "मनुष्य की दिव्य शक्ति का विस्तार; प्रेरणा, एक करिश्माई राज्य, विशेषकर भविष्यवाणी की करिश्माई शक्ति। इसके अलावा "आवश्यक प्रकृति, आवश्यक गुणवत्ता।" 1580 से अलंकारिक अर्थों में "एनीमेशन, जीवन शक्ति को ही स्प्रिट कहा जाने लगा ।

बार्नहार्ट और ओईडी के मुताबिक मूल रूप से अंग्रेजी में वल्गेट में अंश हैं, जहां लैटिन शब्द में ग्रीक पनुमा और हिब्रू रूह का अनुवाद है। "सॉल" और स्प्रिट " ("भावनाओं का आसन " के रूप में) ईसाई शब्दावली (जैसे ग्रीक psykhe बनाम pneuma, लैटिन एनिमा बनाम भावनाकार spiritus) के रूप में भेद हो सकता है ।
लेकिन "पहले की अवधि के लिए कोई महत्व नहीं है"। आमतौर पर शास्त्रीय लैटिन "श्वाँस breath में लैटिन ईसाई को शाही काल में "आत्मा" के रूप में बदलता है और ईसाई लेखन में यूनानी पनुमा pneuma के सामान्य समकक्ष के रूप में प्रकट होता है । आत्मा का वाचक प्रेत शब्द ! हिब्रू बाइबिल तथा क़ुरान शरीफ़ आदि में आत्मा को प्रेत अथवा एफ्रित सम्बोधन दिया गया है। जो आख्यानों प्राप्त होता है । ifrit एफ्रित ----- अऱघान डिव नामक एक इफ्रित को कवच की छातीमे रखकर हमजा से लाता है समूहिंग जिन्न क्षेत्रीय मध्य पूर्व विवरण है ।
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इफ्रिट्स शैतानीय आत्माओं का एक वर्ग है, जो एक डिजिन djinn के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
और हत्यारे पर बदला लेने के लिए एक हत्या किए गए पीड़ित व्यक्ति के जीवन-शक्ति (या रक्त) के लिए तैयार की गई मौत की आत्मा होती है। साधारण जिन्दगी के साथ, एक इफ्रिट या तो एक आस्तिक या अविश्वासी, अच्छा या बुरे हो सकता है। लेकिन इसे अक्सर दुष्ट, क्रूर और बुराई के रूप में दर्शाया जाता है; एक शक्तिशाली शैतान। माना जाता है कि अंडरवर्ल्ड या सतह पर उजाड़ हुए स्थानों जैसे कि खण्डहर या गुफाएं मे ये रहते हैं ।
इस्लामिक सूत्रों के मुताबिक, अगर इफ्रित अपने मुंह से उछलते हुए आग उगने से आग लगाने की कोशिश करता है तो वह लोगों को खतरे में डाल सकता है। लेकिन अगर कोई उसके पास एक (इस्लामिक प्रार्थना) पढ़ता है तो उसे नष्ट किया जा सकता है। लोककथाओं में, वे आमतौर पर मृत्यु के समय मृतक के आकार को, या शैतान की उपस्थिति के बारे में सोचा जाते हैं। ________________________________________________

शब्द-साधन (व्युत्पत्ति-) माखन ने एक कला द्वारा गले लगाया निज़ामी की कविता हम्सा को चित्रण बुखारा, 1648 परम्परागत रूप से, अरब फिलोलॉजिस्ट्स इस शब्द को व्युत्पन्न करने के लिए عفر (afara, "धूल से रगड़ना") का पता लगाते हैं। कुछ पश्चिमी भाषाविदों, जैसे जोहान जैकब हेस और कार्ल वाल्र्स, इसे मध्य फारसी (फार्रतान) के लिए कहते हैं !
जो आधुनिक फ़ारसी अफ़्रीदीन (बनाने के लिए) इस्लामिक शास्त्र-- __________________________________________

कुरान, सुरा अन-नामल (27: 38-40) में एक प्रेत इफ्रित का उल्लेख है: [सोलोमन] ने कहा, "हे जिन्न की विधानसभा, मेरे पास आने से पहले मेरे पास [शबा की रानी की राजकुमारी को ला ] क्या मेरे सामने लाएगा?" जीन से एक आरती (सशक्त) ने कहा: "मैं तेरे स्थान से उठने से पहले तेरे पास लाऊंगा।

और वास्तव में, मैं वास्तव में मजबूत हूं, और इस काम के लिए भरोसेमंद हूँ। " जिनके पास शास्त्र के बारे में ज्ञान था, उन्होंने कहा: "मैं इसे एक आँख की झिलमिलाहट में लाऊंगा! " फिर जब सुलैमान ने उसे अपने सामने रखा, तो उसने कहा: "यह मेरे प्रभु की कृपा से है, मुझे यह परीक्षा देने के लिए कि क्या मैं कृतज्ञ हूं या कृतघ्न हूँ! और जो कोई भी आभारी है, वास्तव में, उसका कृतज्ञता उसके लिए है स्वयं; और जो कोई कृतघ्न नहीं है, (वह केवल अपने स्वयं के नुकसान के लिए कृतज्ञ नहीं है)। निश्चित रूप से, मेरे भगवान अमीर हैं (सभी ज़रूरतों से मुक्त), भरपूर।
" बुखारी से एक हदीस के मुताबिक, एक इफ्रित ने मोहम्मद की प्रार्थनाओं में बाधा डालने का प्रयास किया। मोहम्मद ने इफ्रित को ज़ोर से मार दिया और उसे एक खम्भे में जकड़ना चाहता था ताकि हर कोई सुबह उसे देख सके। फिर, उसने सुलैमान के बयान को याद किया और उन्होंने इफ्रित को खारिज कर दिया। मुहम्मद नाइट जर्नी के बारे में एक बयान के मुताबिक, एक इफ्रिट ने मोहम्मद को एक ज्वलन्त मशाल से पूछा। उससे छुटकारा पाने के लिए, उसने जिब्राइल से मदद के लिए पूछा:- जीब्राइल ने उसे सिखाया कि कैसे भगवान से शरण लेने के लिए, जहां से (Ifrit )उसे दूर हो।
एक इफ्रित, बैठक इमाम अली, विभिन्न शिया खातों में वर्णित है। शिया समुदाय के अनुसार, इमाम अली अपने अविश्वासी होने के लिए एक इफ्रित के खिलाफ गुस्से में थे।

नतीजतन, उन्होंने जेलों में इफ्रित को बाध्य किया। इफ्रित ने अपनी रिहाई के लिए आदम के बाद सभी नबियों से अपील की लेकिन कोई भी उसे मुक्त करने में सक्षम नहीं था। जब तक मुहम्मद उसे मिल गया और इफ्रित को इमाम अली ने लिया। उन्होंने इस शर्त पर उन्हें मुक्त कर दिया कि वह इस्लाम के लिए अपने विश्वास का दावा करेंगे। अरबी साहित्य से उद्धृत अंश -- एक हजार और एक नाइट्स में, "द पोर्टर एंड द यंग गर्ल्स" नामक एक कहानी में, एक राजकुमार के बारे में एक कथा है । जिसे समुद्री डाकूओं द्वारा हमला किया जाता है और लकड़ी के कारागार के साथ शरण लेता है। राजकुमार जंगल में एक भूमिगत कक्ष ढूंढता है जो एक खूबसूरत औरत के लिए अग्रणी होता है जिसे एक इफ्रित द्वारा अपहरण कर लिया गया है।
______________________________________________ ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।

जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ;उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं। अष्टाध्यायी के ‘अस्ति नास्ति दिष्टं मतिं’ इस सुप्रसिद्ध सूत्र के अनुसार जो परलोक और पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व को स्वीकार करता है वह आस्तिक है ।

और जो इन्हें नहीं मानता वह नास्तिक कहाता है। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे । इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है। प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)

‘अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’

महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है। दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है;
जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।

वहाँ उन्होंने कहा है–भिक्षुओं ! कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है ; जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है—
“मैं इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करने वाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ।

वहां भी मैं इस नाम का था। सो मैं वहां मरकर यहां उत्पन्न हुआ।“
इत्यादि। अगला तीसरा प्रमाण धम्मपद के उपर्युक्त वर्णित श्लोक का अगला श्लोक है जिसमें गृहकारक के रूप में आत्मा का निर्देश किया गया है।
श्लोक है- 👇
’गह कारक दिट्ठोऽसि पुन गेहं न काहसि।
सब्वा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं।
विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा।।

‘ इस श्लोक के अनुवाद में इसका अर्थ दिया गया है कि हे गृह के निर्माण करनेवाले! मैंने तुम्हें देख लिया है, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कडि़यां सब टूट गईं, गृह का शिखर गिर गया।
चित्त संस्कार रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया।
इस पर टिप्पणी करते हुए पं. धर्मदेव जी कहते हैं कि यह मुक्ति अथवा निर्वाण के योग्य अवस्था का वर्णन है।
जब तक ऐसी अवस्था नहीं हो जाती तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध परलोक, पुनर्जन्म आदि में विश्वास करने के कारण आस्तिक थे। महात्मा बुद्ध के आस्तिक होने से संबंधित अगला प्रश्न यह है कि क्या वह अनीश्वरवादी अर्थात ईश्वर में विश्वास न रखने वाले थे? महात्मा बुद्ध ने जीवन पर्यन्त मन के शुद्धिकरण के लिए तपश्चर्या की यदि ईश्वरीय तथा आत्मीय सत्ता को बुद्ध अस्वीकार करते तो क्या वे नैतिक पाठ अपने शिष्यों के पढ़ाते ?
सायद कदापि नहीं यदि आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं है , तो क्यों बुद्ध ने सत्याचरण को जीवन का आधार बनाया ?
बुद्ध ने जीवन का स्वरूप इच्छाओं को स्वीकार किया ।
इच्छा स्वरूप ही संसार और जीवन का कारक है ।
वस्तुत: प्रेरणा भी एक इच्छात्मक रूप ही है ।
जो आत्मा का स्वभाव है ।
संसार ब्रह्म रूपी जल पर इच्छा रूपी लहरें हैं ।
अन्त में हम अपने भावोद्गारो को इन पक्तियों मे अभिव्यक्त करते हैं । ---------------------------------------------------------------------
ये शरीर केवल एक रथ है ।

और रोहि आत्मा जिसमें रथी है ।

इन्द्रियाँ ये बेसलहे घोड़े । बुद्धि भटका हुआ सारथी है ।

मन की लगाम बड़ी ढ़ीली ।
घोड़ों की मौहरी कहाँ नथी है ?
लुभावने पथ भोग - लिप्सा के ।
यहाँ मञ्जिलों से पहले दुर्गति है ।। ---------------------------------------------------------------------
अर्थात् आध्यात्म बुद्धि के द्वारा ही मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है ! मन फिर इन्द्रीयों को नियन्त्रित करेगा , केवल ज्ञान और योग अभ्यास के द्वारा मन नियन्त्रण में होता है !
अन्यथा इसके नियन्त्रण का कोई उपाय नहीं है !!
अध्यात्म वह पुष्प है ,जिनमें ज्ञान और योग के रूप में सुगन्ध और पराग के सदृश्य परस्पर सम्पूरक तत्व हैं ।
जो जीवन को सुवासित और व्यक्ति को एकाग्र-चित करते हैं । अन्तः करण चतुष्टय के चारों भागों को, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को, जब सात्विकता के शान्तिमय पथ पर अग्रसर किया जाता है ; तो हमारी चेतना शक्ति का दिन-दिन विकास होता है।
यह मानसिक विकास अनेक सफलताओं और सम्पत्तियों का कारक है। मनोबल से बड़ी और कोई सम्पत्ति इस संसार में नहीं है। मनैव मनुष्य: मन ही मनुष्य है; मन ही अनन्त प्राकृतिक शक्तियों का केन्द्र है । मानसिक दृष्टि से जो जितना बड़ा है उसी अनुपात से संसार में उसका गौरव होता है ; अन्यथा शरीर की दृष्टि से तो प्रायः सभी मनुष्य लगभग समान होते हैं।
उन्नति के इच्छुकों को अपने अन्तः करण चतुष्टय का विकास करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि इस विकास में ही साँसारिक और आत्मिक कल्याण सन्निहित है। ________________________________________________

विचार-विश्लेषण --- यादव योगेश कुमार रोहि ग्राम आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़ दूरभाष संख्या ---8077160219.. ____________________________________________ ____________________________________________


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