गुरुवार, 27 मार्च 2025

श्रीकृष्ण साराङ्गिणी अध्याय एक से षष्ठम-

आत्मानन्द जी:
जय श्रीकृष्ण....✍

श्रीकृष्ण साराङ्गिणी


                ★प्राक्कथन★

पुस्तक "श्रीकृष्ण साराङ्गिणी" को लिखने का मुख्य उद्देश्य भक्त और भक्ति की यथार्थता तथा परंप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा सृष्टि रचना और उसके विस्तार को बताते हुए सर्वव्यापी श्रीकृष्ण के गुणातीत व निर्विकल्प स्वरूपों और उनके लौकिक व पारलौकिक यथार्थ जीवन के गूँढ़ रहस्यों को बताना है। इसके साथ ही भूतल पर उनकी अद्भुत लीलाओं का वर्णन करना है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण तथा उनके गोपों का गोलोक से भूतल पर आगमन और प्रस्थान की वास्तविक घटनां क्रम का वर्णन, भूतल पर गोपेश्वर श्रीकृष्ण सहित गोपों की जाति विषयक- वंश, वर्ण एवं कुल की वास्तविक जानकारी देना ही है।
इसका सम्पूरक उद्देश्य श्रीकृष्ण जीवन के लौकिक व पारलौकिक चरित्र विषयक वार्तालाप के उपरान्त उत्पन्न हुए कुछ प्रश्नों तथा कुछ भ्रान्ति मूलक मिथक टिप्पणियों का शास्त्रीय विधि से उत्तर देकर सम्यक समाधान करना है। इस हेतु यह पुस्तक अपने बहुआयामी उद्देश्यों की प्राप्ति में एक सफल प्रयास है।
यह "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" पुस्तक वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण का शास्त्रीय कलेवर (शरीर) ही है। अत: इस भाव को मन में रखकर भक्त-गण इसे भगवान् श्रीकृष्ण के पूजा-स्थल पर रखकर उनकी उपस्थिति का आभास भी कर सकते हैं। क्योंकि इस पुस्तक में श्रीकृष्ण के जीवन के अद्भुत पहलुओं का सचित्र वर्णन किया गया है, जो अपने बारह अध्यायों में श्रीकृष्ण के अतीव सार-गर्भित चरित्रों के साथ अपने नाम को सार्थक करती हुई उन परमेश्वर श्रीकृष्ण के ही चरणों में समर्पित है।
इस पुस्तक के लेखन कार्य से लेकर श्रीकृष्ण जीवन के सारगर्भित चरित्रों के चित्रों का शब्दांकन करने तक प्रेरणा श्रोत बनकर परम श्रद्धेय, सन्त हृदय गोपाचार्य हँस श्रीआत्मानन्द जी महाराज भूमिकात्मक रूप में सदैव उपस्थित रहे हैं। एतदर्थ उनका साधुवाद।


निर्देशक एवं मार्गदर्शक- गोपाचार्य हंस श्रीआत्मानन्द जी महाराज
        
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लेखक- गोपाचार्य हंस- माताप्रसाद

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गोपाचार्य हंस- योगेश कुमार रोहि-
       
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              ✴️ श्रीकृष्ण- स्तुति ✴️
            praise of shri krishna

वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयम् सर्व लोकै रभिनन्दनीयम्।    कर्मस्यफल इतितेनियम कर्मेच्छा सङ्कल्पोवयम्।।१               
भक्त-भाव सुरञ्जनम् राग-रङ्ग त्वं सञ्जनम्।
बोधशोध मनमञ्जनम् नमस्कार खलभञ्जनम्।। २

मयूर पक्ष तव मस्तकम् मुरलि मञ्जु शुभ हस्तकम्।
ज्ञानरश्मि त्वंप्रभाकरम् गुणातीत गुरुगुणाकरम्।। ३  

नमामि याम: त्वमष्टकम् हरि शोक अति कष्टकम्।
भवबन्ध मम मोचनम् सर्व भक्तगण रोचनम् ।। ४   
  
कृष्ण श्याम त्वं मेघनम् लभेमहि जीवन धनम्।
रोमैभ्यो गोपा: सर्जकम् सकलसिद्धी: त्वमर्जकम्।। ५
    
कृपासिन्धु गुरुधर्मकम् नमामि प्रभु उरुकर्मकम् ।   
इन्द्रयजन त्वंनिवारणम् पशुहिंसा तस्याकारणम् ।। ६

स्नातकं प्रभु- सुगोरजम् सदा विराजसे त्वं व्रजम्।
दधान ग्रीवायां मालकम् नमामि आभीर बालकम्।। ७

कृषि कर्मणेषु प्रवीणम् ते आपीड केकीपणम् । 
कृषाणु शाण हल कर्पणम् वन्दे कृष्णसंकर्षणम्।। ८  

गोप-गोपयो रधिनायकम् वैष्णवधर्मस्यविधायकम्।
  व्रजरज ते प्रभु भूषणम् नमामि कोटिश: पूषणम्।। ९  

निष्काम कर्मं निर्णायकम् सुतान वेणुलयगायकम्।  दीनबन्धो: त्वंसहायकम् नमामि यादवविनायकम्।१०              
किशोर वय- सुव्यञ्जितम् राग रङ्ग शोभित नितम्।
नमस्कार प्रभु सद्व्रतम पेय ज्ञान गीतामृतम् ।। ११
   
वन्यमाल कण्ठे धारिणम् नमामि  व्रज विहारिणम्।
वैजयन्ती लालित्यहारिणं लीलाविलोल विस्तारिणं।१२

"अनुवाद:- १-१२
वृन्दावन के लोगों के लिए वन्दनीय और सभी लोगों के द्वारा अभिनन्दन (स्वागत) करने योग्य भगवान श्रीकृष्ण ही कर्म सिद्धान्त के नियामक हैं। उन्होंने ही सृष्टि के प्रारम्भ में अहं समुच्चय (वयं) से संकल्प और संकल्प से इच्छा उत्पन्न करके संसार में कर्म का अस्तित्व निश्चित किया। १

अनुवाद:- भक्तों के भावों में समर्पण के रंग भरने वाले, राग और रंग के समष्टि रूप, मन को भक्ति में स्नान कराकर उसे शुद्ध करके ज्ञान का प्रकाश भरने वाले, खलों (दुष्टों) को दण्डित करने वाले सुदर्शनधारी प्रभु श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं। २

अनुवाद:- हे प्रभु ! मयूर के पंख से निर्मित मुकुट तेरे मस्तक पर और हाथों में सुन्दर और शुभ मुरली है। हे मन मोहन ! तू ज्ञान की किरणें विकीर्ण करने वाला प्रभाकर (सूर्य) है। तू आत्मा का ज्ञान देने वाला गुरु, प्रकृति के तीन गुणों से परे होने पर भी कल्याणकारी गुणों का भण्डार हो।३

अनुवाद:- हे गिरधारी ! मैं आठो पहर तुमको नमन करूँ ! तुम अत्यधिक शोक और कष्टों को हरने वाले हो साक्षात् हरि हो। संसार के द्वन्द्व मयी बन्धनों से मुझे मुक्त करने वाले और सब भक्तों को प्रिय हे गोविन्द ! मैं तुझे नमन करता हूँ। ४

अनुवाद:- हे कृष्ण ! तुम्हारी कान्ति काले बादलों के समान है। हम जीवन के धन रूप आपको प्राप्त करें। तुमने गोलोक में ही पूर्वकाल में सभी गोपों की सृष्टि अपने ही रोम कूपों से की थी। तुम सभी सिद्धियों को स्वयं ही प्राप्त हो। ५

अनुवाद:- कृपा के सागर, धर्म का यथार्थ बोध कराने वाले गुरु और महान कर्मों के कर्ता प्रभु गोविन्द को हम नमस्कार करते हैं। तूने इन्द्र का यजन (पूजा) बन्द कराये, जो निर्दोष पशुओं की हिंसा का  कारण था। ६

अनुवाद:- गाय के निवास स्थान की सुन्दर रज (मिट्टी) से स्नान करने वाले, सदैव व्रज (गायों का बाड़ा) में विराजने वाले, गले में वन माला धारण करने वाले, अहीर बालक के रूप में रहने वाले हे प्रभु ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। ७

अनुवाद:- हे कृष्ण ! तुम गोप और गोपियों के अधिनायक
(मार्गदर्शन करने वाले), वैष्णव वर्ण और धर्म का संसार में विधान करने वाले, तथा भक्तों का पोषण करने वाले हो। प्रभु तुम्हें हम कोटि-कोटि नमस्कार करते हैं। ९

अनुवाद:-  संसार को निष्काम कर्म का उपदेश देने वाले ,बाँसुरी पर सुन्दर तान के द्वारा लय से गायन करने वाले, दीन दु:खीयों की सहायता करने वाले यादवों के विशेष नेता तुमको हम नमस्कार करते हैं। १०

अनुवाद:-  गोलोक में सदैव किशोर अवस्था में विद्यमान, राग-रंग से सुशोभित, रासधारी, सत्य व्रतों का पालन करने वाले हे गोपेश्वर श्रीकृष्ण ! तुम्हारा गीता का अमृतरूपी ज्ञान सेवन करने  योग्य है। ११

अनुवाद:- वनों की सुन्दर माला कण्ठ में धारण करने वाले और सम्पूर्ण व्रज में भ्रमण करने वाले, सुन्दर लीलाओं का विस्तार करने वाले, सुन्दर वैजयन्ती माला धारण करने वाले भगवान केशव को हम नमस्कार करते हैं।१२।

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             श्रीकृष्ण- वन्दना


अग्रं पृष्ठञ्च सर्वतोमुखं सच्चिदानन्दं सर्वतोखं।
नमोऽस्तु य: विनष्यति दारिद्रवं दुर्दीर्घदु:खं।।१।।

अनुवाद:- आगे-पीछे और सब ओर विराजमान सत चिद् और आनन्द स्वरूप वाले सर्वत्र गमन शील प्रभु को नमस्कार है। जो भय, ताप, और दीर्घ दु:खों को नष्ट करता है।१।

जडजङ्गम चेतन स्थावरम् आद्यन्ताश्च न्यूनञ्च पुरुम्।
अमूनि सर्वाणि तवेव ह त्वमेव सहर्षेण स्वीकुरु।।२।।

अनुवाद :- हे परमेश्वर श्रीकृष्ण ! जड़-चेतन, चल-अचल, आदि-अन्त, कम और अधिक, सब कुछ तुम्हारा ही है। उसे  सहर्ष स्वीकार करो।

ज्ञानपुञ्जं  प्रवासिकुञ्जम् मुरलीमधुरं तत्र कदम्ब द्रुम।
गीतां पुनीतां सुवक्तारम् अहं वन्दे कृष्णं जगद्गुरुम्।।३।।

अनुवाद :- ज्ञान के समुच्चय तथा कुञ्जों में रहने वाले, और कदम्ब-वृक्ष के तले मधुर मुरली बजाने वाले, कुरुक्षेत्र में पवित्र गीता का वाचन करने वाले जगद्गुरु भगवान्- श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।३।

सर्वेचराचरेषु व्याप्नोसि ते सत्ता निर्गुणसगुणयोरुभयोर्रूपयोर्।।
जानान्ति रहस्यं केशवस्य भक्ता: अन्वेषयति तु कर्मकाण्डेषु घोर:।।४।

अनुवाद :- हे केशव ! आप की सत्ता समस्त चराचर (जड़-चेतन) संसार के सभी प्राणियों में निर्गुण और सगुण दोनों रूप में व्याप्त हैं। आपके इस रहस्य को भक्त भली-भाँति जानते हैं। किन्तु बकवादी और मूढ़मति व्यक्ति आपको कर्मकाण्डों में खोजते हैं।४।

जले तरङ्गैव नवनीता पुनीता प्रसूयते दुग्धैव च।
इदं जगद् हिमवद् वाष्परूपाय प्रभवे नुम:।।५।

अनुवाद- जल में तरङ्गों के समान दुग्ध में नवनीत (मक्खन) के समान और वाष्प से हिम के समान जिस परमेश्वर से यह संसार उत्पन्न हुआ है हम उसे नमस्कार करते हैं।५।



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✴️ परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना व ध्यान कैसे करें ✴️
  How to worship and meditate on Lord          Krishna.
 


परमेश्वर की भक्ति में वन्दना और ध्यान एक ही उद्देश्य के दो साधन हैं। जिसमें वन्दना भक्ति की प्रथम सीढ़ी या कहें वह पाठशाला है जहाँ भक्त विविध क्रियाओं से परमेश्वर को साकार मानकर अपना तन, मन, धन, सबकुछ अर्पित करता है। इन क्रियाओं से भक्त के अन्दर समर्पण और प्रेम का भाव जागृत होता है, और यही भाव जब पराकाष्ठा को पहुँच जाता है तब भक्त परमेश्वर को अपने ध्यान में लेने का प्रयास करता है। यह भगवत् प्राप्ति का दूसरा व अन्तिम साधन है, जो साधना में परिवर्तित हो जाता है। जिसमें भक्त गोपाचार्य गुरुओं की सहायता से परमेश्वर श्रीकृष्ण को ध्यान में लेने का अभ्यास करते हुए अन्ततोगत्वा श्रीकृष्ण को प्राप्त कर ही लेते हैं।

क्योंकि ध्यान ही परमेश्वर श्रीकृष्ण को पाने का अन्तिम विकल्प है। पूजा-पाठ, वन्दना, स्तुतियाँ इत्यादि ध्यान के प्ररम्भिक व सहयोगी साधन हैं। इससे निश्चय ही परमेश्वर श्रीकृष्ण प्रति भक्ति और समर्पण की भावना का उदय होता है। इसलिए प्रारम्भिक स्तर पर ये सब करना भी चाहिए।
किन्तु ध्यान रहे ये सब करते समय किसी तरह का आडम्बर या भौकाल नहीं होना चाहिये। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण- भाव के ग्राही हैं क्रिया ग्राही नहीं। अर्थात् आप क्या कर रहें हैं कैसे कर रहें हैं उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। सत्य तो यह है कि- भक्त के द्वारा निःस्वार्थ भाव से- येन -केन प्रकारेण कुछ भी चढ़ाया गया पदार्थ वे सहर्ष स्वीकार कर ही लेते हैं किन्तु बिना भाव व प्रेम के चढ़ाया गया कुछ भी नहीं स्वीकार करते।
इसीलिए कहा जाता है कि श्रीकृष्ण की भक्ति अत्यन्त सहज और स्वाभाविक है। इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक -(२६) में स्वयं कहे हैं कि -
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६।।

अर्थात् - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, इत्यादि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझ में तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात् स्वीकार कर ही लेता हूँ।२६।

कुल मिलाकर परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति को पाने की   प्रथम अनिवार्यता हृदय की भावनाओं और मन के विचारों की पवित्रता ही है। इसके लिए निस्वार्थ व शुद्ध मन से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करके निम्नलिखित तीन मन्त्रों का बार-बार उच्चारण करना चाहिए।


               🔆 श्रीकृष्ण मन्त्र 🔆


(१)- प्राप्तवानस्मि भवतोऽऽश्रयम्,परित्यज्य कामानानि
  सर्वाणि।
  मह्यम दत्वा चरणेषु स्थानम्, अनुग्रहाण मयि हे चक्रपाणि ।।

(२)- सर्वज्ञं सर्वरूपं  सर्वकार्य-कारणम्।
      शरणं प्रपद्ये हरे ! तापत्रयं  हारणम् ।।

(३)- यदुपुङ्गवं केशवं, गोलोके  विराजितम्।।
       विधायकं नायकं शरणं प्रपद्ये मार्जितम्।


अनुवाद:- १,२,३
(१)- हे चक्रधारी ! मैंने सभी सांसारिक कामानाओं को त्याग कर आपकी शरण ली है; मुझे अपने चरणो में स्थान देकर अनुग्रहीत करें।

(२)- सबकुछ जानने वाले, सभी रूपों में व्याप्त, सम्पूर्ण कार्य और कारण में विद्यमान, तीन तापों का हरण करने वाले सर्वरूपमयी हरि नाम वाले भगवान श्रीकृष्ण की मैं शरण में जाता हूँ।

(३)- गोलोक में विराजमान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन और विधान करने वाले, भक्तों का मार्गदर्शन करने वाले।यादव श्रेष्ठ विशुद्धत्तम भगवान श्रीकृष्ण की हम शरण लेते हैं।


✴️  यदि कोई भक्त संस्कृत श्लोक नहीं पढ़ सकता है; तो वह मन्त्रों के हिन्दी अनुवाद को ही भक्तिभाव से पढ़कर श्रीकृष्ण का ध्यान कर सकता है। ऐसा करने से उस पर कोई दोषारोपित नहीं होगा।
किन्तु ध्यान रहे उपर्युक्त तीनों मन्त्रों या उसके अनुवादों
को किसी दूसरे से न पढ़वायें और ना ही उनसे कुछ करवायें क्योंकि इन मन्त्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं।
[इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है ; जानकारी प्राप्त कर पाठकगण वहाँ से अपने संशय का निवारण कर सकते हैं।]
ऐसा करने से एक दिन श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव जागृत होगा। उसी दिन से वह श्रीकृष्ण का सच्चा ज्ञानी भक्त हो जाएगा। तब उसके लिए चढ़ावा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहेगा।
वह दिन-रात मस्त मगन होकर परमेश्वर श्रीकृष्ण का सुमिरन यों ही करता रहेगा। क्योंकि अब तो उसे परमेश्वर श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है कि -
ईश्वर: पादौ विना गच्छति, कर्णौ विना श्रृणोति, हस्ताभ्यां न कृत्वा अपि, सः विविधं कार्याणि करोति।
अर्थात् कार्यं अत्र किमपि कारणं विना क्रियते।
"वह परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कान के सुनता है, हाथ न होते हुए भी विभिन्न तरह के कार्य करता है अर्थात यहाँ बिना किसी कारण के ही कार्य होता है।
यही परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति की वास्तविकता और भक्त की वास्तविक स्थिति है।

                  जय श्रीकृष्ण

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विषय सूची

अध्याय-
(१)- पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं            को सुनने व कहने के दुष्परिणामों का वर्णन।
     [क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
     [ख] -तैंतीस (३३) कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
     [ग] - श्रीकृष्ण पूजा के लाभ।            
     [घ] - शिव पूजा के लाभ।    
     [ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
     [च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
     [छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
     [ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
     [झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणामों का
           वर्णन।
     [ञ] - सच्चे गुरु की पहचान।

(२)- श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन।

(३)- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या
        परमशक्ति नही है।

(४)- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा         आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।

(५)- भगवान श्रीकृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल           में उनका अवतरण।

(६)- गोप-कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक           व्यक्तियों का परिचय।
     भाग-(१) गोपेश्वर श्रीकृष्ण का परिचय।
     भाग-(२) श्रीराधा का परिचय।
     भाग-(३) पुरुरवा और उर्वशी का परिचय।
     भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय।

(७)- गोप कुल के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख            सदस्यपतियों का परिचय।
      भाग- (१) महाराज यदु का परिचय।
      भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
      भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज।

(८)- यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक               गमन।
     भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता            एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
     भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।

(९)- यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्र।
     भाग- (१) जातियों की मौलिकता (Originality)                       एवं आभीर जाति की उत्पत्ति।

   भाग- (२) भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।
       [क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
       [ख]- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
       [ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-
       [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
       [२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
       [३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।      
  भाग- (३) यादवों का वंश।
  भाग- (४) यादवों का कुल।
  भाग- (५) यादवों का गोत्र।

(१०)- यादवों का वास्तविक गोत्र कार्ष्ण है या अत्रि ?

(११)- वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व।
     भाग- [१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञ) कर्म-
        (क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं।
        (ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
         (ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी                       स्वाहा और स्वधा का परिचय।
         (घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का
                 परिचय।
      भाग-[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
      भाग-[३] गोपों का वैश्य कर्म।
      भाग-[४] गोपों का शूद्र कर्म।

(१२)- वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा          एवं सांस्कृतिक विरासत।
       भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।

       भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
          (क)-हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य।
          (ख)-गोपों की देन "पञ्चम वर्ण"।
          (ग)-किसान और कृषि शब्द कृष्ण सहित गोपों की
            देन है। 
          (घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं।
          (ङ)-आभीर छन्द और आभीर राग।


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अध्याय- प्रथम (१)

पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं को  सुनने व कहने के दुष्परिणामों का वर्णन।

इस अध्याय के सम्पूर्ण प्रसंगों को क्रमबद्ध पद्धति से जानने व समझने के लिए निम्नलिखित- (दस) प्रमुख शीर्षकों में विभाजित किया गया है -

[क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
[ख] - तैंतीस (३३) कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
[ग] - श्रीकृष्ण पूजा के लाभ।            
[घ] - शिव पूजा के लाभ।    
[ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
[च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
[ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणामों का वर्णन।
[ञ] - सच्चे गुरु की पहचान।

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  ✴️ परमेश्वर की सार्थकता व पहचान ✴️      
                           
आध्यात्मिक जीवन में कुछ पाने की अपेक्षा उसी से करनी चाहिए जो सक्षम और सामर्थ्यवान हो। अब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जगत में कौन ऐसा सामर्थ्यवान है जिससे सबकुछ प्राप्त हो सकता ? तो इसका सम्यक उत्तर है सर्वशक्तिमान परिपूर्णतम परंब्रह्म, क्योंकि इनके अतिरिक्त और किसी से कुछ पानें की अपेक्षा करना व्यर्थ है। तब पुनः प्रश्न उठता है कि परिपूर्णतम "परंब्रह्म" कौन है ?
                   
तो इस प्रश्न का सही जबाब पाना असम्भव तो नहीं किन्तु कठिन अवश्य है। क्योंकि शास्त्रों से लेकर जितने भी धर्मगुरु या धर्म प्रवर्तक हुए सभी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से उस परमात्मा परिपूर्णतम "परंब्रह्म" की विशेषताऐं और परिभाषाऐं निर्धारित की हैं। जैसे -
१- कोई उसे नूर कहता है तो कोई उसे हुजूर कहता है।
२- कोई उसे निर्गुण मानता है, तो कोई उसे सगुण मानता है।
३- कोई उसे निराकार मानता है, तो कोई उसे साकार            मानता है।
४- कोई उसे साकार और निराकार दोनों ही  में मानता है।
५- तो कोई उसे निर्गुण और सगुण दोनों ही मानता है।

इन उपर्युक्त बातों पर यदि विचार किया जाय तो ये सभी बातें परमेश्वर को एक निश्चित दायरे (वृत्त) में परिबद्ध करके कही गईं हैं कि- परमेश्वर निर्गुण हैं, सगुण है या दोनों है। किन्तु परमेश्वर तो सीमाओं से परे अनन्त गुणों वाले हैं। जिनका कोई आदि (प्रारम्भ) है न अन्त है। वे स्थूल से भी स्थूलतम और सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम है। उनके लिए सगुण, निर्गुण, निराकार, साकार, निर्विकल्प सविकल्प, निर्लिप्त, लिप्त, प्रारम्भ, अन्त, अनन्त, शून्य, सर्वज्ञ, और सर्वव्यापी इत्यादि जितने भी विशेषण पद हैं  वे सभी अपूर्णार्थी व बहुत ही कम है।
शास्त्रों का अनुशीलन (गहन अध्ययन) करने के पश्चात निष्कर्षत: भगवान श्रीकृष्ण में ये परिपूर्णताऐं परिलक्षित होती हैं।
            
तब प्रश्न उठता है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण ही सब-कुछ हैं तो इस माया नगरी में जहाँ अनेकों छद्म- वेषधारी अपनी कथाओं के माध्यम से तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देवों को पूजने को कहते हों, और स्वयं को भी अपने भक्तों से पुजवाते हों। तो ऐसी विकट-आडम्बरपूर्ण एवं भ्रान्त स्थिति में अनन्त गुणों वाले परमात्मा को कैसे पहचाना जाय कि यही परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं ?
             
✳️ तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसी ग्रन्थ के अध्याय-(दो) और (तीन) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि- परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण ही हैं। उनके अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है। वहाँ से इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
               
फिर भी यहाँ पर उससे सम्बन्धित कुछ जानकारी अवश्य दी गई है कि- वास्तव में श्रीकृष्ण ही परम प्रभु परमेश्वर हैं। उनको किसी एक गुण से नहीं जाना जा सकता। फिर भी यदि गुणों के आधार पर देखा जाए तो उनके अनन्त गुण हैं; और उसमें भी देखा जाए तो वे साकार, निराकार, निर्गुण, सगुण इत्यादि सबकुछ हैं।
                      
जहाँ तक उनको साकार और निराकार होने का प्रश्न है, तो वे ही परमेश्वर प्रलय काल में निराकार रूप में रहते हैं किन्तु जब वे सृष्टि का सृजन करतें हैं तो साकार रूप में हो जाते हैं। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-(४) के श्लोक संख्या- (७) में होती है- जब परमेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। ७।

अनुवाद:- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ। अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ।७।
                
इसी तरह से परमेश्वर को सगुण और निर्गुण इत्यादि होने के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (१२) में भी लिखा गया है। जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति कहते हैं कि-

परंब्रह्म  परंधाम  पवित्रंपरमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।
            
अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
               
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म, सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि पद-रूपों में तत्वज्ञानी लोग परमेश्वर श्रीकृष्ण को जानते हैं।              
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७) और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को अपने विषय में बताते हुए कहते हैं कि-

"अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।१६।

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्। १८।
         
अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं ही हूँ। जानने योग्य पवित्र ॐकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ। (१६-१७-१८)

इसी तरह से श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (४२) में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-

अथवा बहुनैतेन  किं ज्ञातेन  तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२।

अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है ? मैं अपने किसी एक अंश से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
             
इस प्रकार से देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण ही सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। बाकी- तैंतीस (33) कोटि देवी-देव सभी उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंश-भूत शक्तियाँ, कला और कलांश हैं। इन सभी बातों की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या- (१७-१८)और (१९) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।१७।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम्।१८।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।१९।
                                    
अनुवाद- १७-१८-१९
• द्विभुजधारी, किशोरवय, गोपवेषधारी, और जिनके हाथ में मुरली है, वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही  शरीर धारण करते हैं।१७।
• परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनिगणों के साथ करते हैं।१८।
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षी रूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा हास्य (हंसी) और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाला है।१९।                
▪️कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गईं हैं जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण को ही परमेश्वर कहा गया है।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।४३।     
     
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता और साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ।४३।
                  
▪️कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - (३०) के श्लोक संख्या- (६ ) से (८) में भगवान श्रीकृष्ण को परंप्रभु परमेश्वर के रूप में बतायी गयी हैं। जिसमें मुनि नारायण, नारद को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट-विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं। देखें निम्नलिखित श्लोक-

"चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम् ।६।

यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।७।

सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम्।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः।८।
                
अनुवाद - जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर कौन समर्थ है ? तुम भी श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के चरणार्विन्द का अत्यन्त आदर पूर्वक चिन्तन करो।६।

• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान (श्रीकृष्ण) की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष हैं और विराट- विष्णु और छुद्र विष्णु भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।

• सहस्र शिरों वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण करते हैं। वो भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठा हो। वे भगवान कूर्म भी श्रीकृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।
                   
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण- के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (६६) के श्लोक - (५६) में भी लिखी गई हैं। जो श्रीकृष्ण और राधा संवाद के रूप में है। जिसमें श्रीकृष्ण राधा जी से अपने विषय में कहते हैं कि-

"अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।
                     
अनुवाद -उस विराट-विष्णु के रोम-कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवगण, मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।
                      
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से स्पष्ट होता है कि- परिपूर्णतम परंब्रह्म श्रीकृष्ण ही हैं। बाकी तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देव उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंशभूत शक्तियाँ हैं। उसमें भी जो तीन प्रमुख देव- ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं, वो भी श्रीकृष्ण से उत्पन्न उन्हीं के कला और कलांश हैं।

[ख] -तैंतीस कोटि देवों में किसकी पूजा करें ?  

तब पुनः प्रश्न उठता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण जो परिपूर्णतम परंब्रह्म हैं तथा सर्व सामर्थ्यवान हैं। तो उनको छोड़कर मनुष्य (३३) करोड़ देव- देवीयों की पूजा क्यों करता है ? तो इसका उत्तर है "अज्ञानता"। क्योंकि मनुष्य इस माया नगरी में पाखण्डवाद के भ्रमजाल में फँसकर यह भेद नहीं कर पाता कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की पूजा करें या उनसे उत्पन्न तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देवों की।
इसके साथ ही वह यह भी नहीं जान पाता है कि- किस देवी-अथवा देव की पूजा करने से कौन सा लाभ और पद प्राप्त होता है। और जो मनुष्य इस रहस्य को जान लिया समझो वह परमेश्वर को भी पहचान कर सहज ही मोक्ष को प्राप्त कर लिया। इसलिए परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए। इस बात को प्रमुख देवों ने भी स्वीकार किया। जैसे -

शिवजी पार्वती को श्रीकृष्ण की ही आराधना करने को कहते हैं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक संख्या- (४८) और (४९) में मिलता है। जो शिव-पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि -

"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।४८।

परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम्।४९।

अनुवाद-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।
• केवल त्रिगुणातीत परं-ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं। अत: हे पार्वती तुम उन्हीं की आराधना करो।४९।

इस प्रकार  यहाँ उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो शिव जी स्वयं पार्वती को श्रीकृष्ण की आराधना करने को कहते हैं। क्या इससे भी बड़ी और कोई देव वाणी ब्रह्माण्ड में हो सकती है जो भगवान श्रीकृष्ण को परिपूर्णतम होने को प्रतिपादित करे? तो एक ही उत्तर होगा नहीं।
         
इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक संख्या- (४३) में भी लिखी गई है। जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।।४३।
            
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे, निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता के साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ४३।

परन्तु प्रश्न यह है कि क्यों श्रीकृष्ण का ही ध्यान व आराधना करनी चाहिए ? क्या तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देवों और उसमें भी शिव, विष्णु इत्यादि प्रमुख देवों के ध्यान व आराधना से कोई लाभ नहीं ? तो इसका भी सम्यक उत्तर है कि - लाभ अवश्य है, किन्तु वह लाभ सीमित व क्षणिक ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि देवों को

पूजने वाले देवों को प्राप्त होंगे तथा भूतों को पूजनें वाले भूतों और प्रेतों को पूजने वाले प्रेतों को ही प्राप्त होंगे और जो परमेश्वर को पूजेगा वह निश्चय ही परंब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को ही प्राप्त होगा। इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय- (७) के श्लोकसंख्या - (२३) में स्वयं कहा हैं कि -

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३।

अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवों की आराधना का फल भी अन्त वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवों का पूजन करने वाले देवों को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।

ऐसी ही बात श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में भी लिखी गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।

अनुवाद - देवों का पूजन करने वाले देवों को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२५।
      
पुनः भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय नवम (९) के श्लोक-संख्या -३४ में कहते हैं कि -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। ३४।।

अनुवाद - हे अर्जुन ! तुम मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (मुझको समर्पित) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।३४।

और इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१८) के श्लोक संख्या (६५) और (६६) में भी कहा है कि-

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे। ६५।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। ६६।

• तू मेरा भक्त होजा, मुझ में मनवाला होजा, तू मेरा पूजन करने वाला होजा, और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा। यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।६५।
• सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर।६६।
     
और सबसे उचित बात है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में कहते हैं कि -

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।२६।

अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ।२६।

व्याख्या - देवों की पूजा- अर्चना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परन्तु भगवान (श्रीकृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम (भक्ति) की, और अपनेपन की प्रधानता है, किसी विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भावग्राही है क्रियाग्राही नहीं।

अन्ततोगत्वा श्रीमद्भगवद्गीता के उपर्युक्त श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही भक्ति, आराधना व ध्यान करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव है। इधर-उधर भटकने से नहीं।
तब ऐसे में यह जानना और आवश्यक हो जाता है कि भक्तों के लिए पूजा व आराधना का फल- परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित अन्य देवताओं का कितना होता है ? तो इसका विस्तार पूर्वक वर्णन- श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) में मिलता है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित छोटे-बड़े सभी देव-देवीयों की पूजा अर्चना के लाभ व फलों को बड़े ही सारगर्भित ढंग से बताया गया है।
         
जिसमें सबसे पहले हम लोग श्रीकृष्ण पूजा के लाभों को जानेंगे उसके बाद अन्य देवों से मिलने वाले लाभों को भी जानेंगे।

[ ग ]- श्रीकृष्ण की पूजा के लाभ- 
श्रीकृष्ण भक्तों को उनकी पूजा से जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उसका वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ६९ से ७०) और ( ८५ से ८९) में मिलता है। जिसमें श्रीकृष्ण भक्तों के विषय में बताया गया है कि -

"करोति भारते यो हि कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् ।
शतजन्मकृतं पापं मुच्यते नात्र संशयः॥६९।

वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य कृष्णे भक्तिंलभेद्‌ ध्रुवम्॥७०।

अनुवाद - भारतवर्ष में जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह अपने सौ जन्मों में किये गये पापों से छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। और जब तक चौदहों इन्द्रों की स्थिति बनी रहती है, तब-तब वह वैकुण्ठ लोक में आनन्द का भोग करता है। इसके बाद वह पुनः उत्तम योनि में जन्म लेकर निश्चित रूप से भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करता है।६९-७०।

यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से सम्बन्धित उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत के उपरान्त पापों से मुक्त होकर दीर्घकाल के लिए वैकुण्ठधाम को तो प्राप्त कर लेतें हैं। किन्तु वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि वे दीर्घकाल के पश्चात पुनः मृत्युलोक में जन्म लेते हैं।
अर्थात् वह अभी भी आवागमन से मुक्त नहीं हो सकतें है। तब प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण भक्त आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को कैसे प्राप्त करेगा ? तो इसका उत्तर इसके अगले श्लोक- (८५ से ८९) में दिया गया है, जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण भक्तों को कैसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।

'कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्‍भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥ ८६।

गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्‌दृढाम्॥८७।

क्रमेण सुदृढांभक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।*
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥ ८८।

ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।*
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।

अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा (बुढ़ापा) तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।
              
यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से सम्बन्धित उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्तों के लिए मोक्ष हेतु सबसे उत्तम साधन- "कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा करना ही है। यदि श्रीकृष्ण भक्त ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से वे भक्त, श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होंगे इसमें सन्देह नहीं है।

✳️- ज्ञात हो मान्यता है कि श्रीकृष्ण भक्तों द्वारा जहाँ भी रास का आयोजन किया जाता है वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा किसी न किसी रूप में अवश्य ही उपस्थित रहते हैं। इसलिए रास को मोक्षप्राप्ति का सबसे आसान और उत्तम साधन माना गया हैं। इसके बारे में विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (११) के भाग- दो में दी गई है।
          
किन्तु देवी-देवों को पूजने वाले कभी नहीं मोक्ष को प्राप्त होते। क्यों नहीं होते ? तो इसको अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ प्रमुख देवी-देवों के पूजन विधि और उसके लाभ को जानना होगा जैसे -     
  
[घ] -शिव पूजा के लाभ-            
शिव भक्तों को जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उन सभी का वर्णन श्रीमद्देवीभागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ७१ से ७५ ) में मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -

इहैव भारते वर्षे शिवरात्रिं करोति यः।
मोदते शिवलोके स सप्तमन्वन्तरावधि ॥७१।

शिवाय शिवरात्रौ च बिल्वपत्रं ददाति यः।
पत्रमानयुगं तत्र मोदते शिवमन्दिरे ॥७२।

पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य शिवभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
विद्यावान्पुत्रवाञ्छ्रीमान् प्रजावान्भूमिमान्भवेत् ॥७३।

चैत्रमासेऽथवा माघे शङ्‌करं योऽर्चयेद्‌व्रती ।
करोति नर्तनं भक्त्या वेत्रपाणिर्दिवानिशम् ॥ ७४।

मासं वाप्यर्धमासं वा दश सप्त दिनानि च ।
दिनमानयुगं सोऽपि शिवलोके महीयते ॥७५।

शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्‌गं च पार्थिवम्।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥११०।

मृदो रेणुप्रमाणाब्दं शिवलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत्॥१११।
              
अनुवाद - ७१-७५ और ११०- १११ तक
• इस भारतवर्ष में जो मनुष्य शिवरात्रि का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों के काल तक शिवलोक में आनन्द से रहता है।७१।
• जो मनुष्य शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकर को बिल्वपत्र (बेलपत्थर) अर्पण करता है, वह बिल्वपत्रों की जितनी संख्या है उतने वर्षों तक उस शिवलोक में आनन्द भोगता है। पुनः श्रेष्ठ योनि प्राप्त करके वह निश्चय ही शिवभक्ति प्राप्त करता है, और विद्या, पुत्र, श्री, प्रजा तथा भूमि- इन सबसे सदा सम्पन्न रहता है।७२-७३।

• जो व्रती चैत्र अथवा माघ में पूरे मासभर, आधे मास, दस दिन अथवा सात दिन तक भगवान् शंकर की पूजा करता है और हाथ में बेंत लेकर भक्तिपूर्वक उनके सम्मुख नर्तन करता है, वह उपासना के दिनों की संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। ७४-७५।

• जो मनुष्य प्रतिदिन पार्थिव (मिट्टी) का लिंग बनाकर शिव की पूजा करता है और जीवन पर्यन्त इस नियमका पालन करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वह पार्थिव लिंग में विद्यमान रजकणों की संख्या के बराबर वर्षों तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहाँ से पुनः भारतवर्ष में जन्म लेकर वह महान् राजा होता है। ११०- १११।
        
उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाय तो शिव भक्त निश्चित रूप से शिवलोक को प्राप्त होता हैं। किन्तु वह उस लोक तक नहीं पहुँच पाता जो शिवलोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। जिसका नाम है "गोलोक" जो नित्य एवं चिरस्थाई है। वहाँ जाने के बाद मनुष्य आवागमन से मुक्त अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। किन्तु शिव भक्त शिवलोक तक ही रह जातें हैं और पुनः मृत्यु लोक में आकर जन्म लेते हैं- (कौन सा लोक कहाँ स्थापित हैं इसकी विस्तृत जानकारी अध्याय- (दो) में दी गई है)।

[ङ]-विष्णु पूजा के लाभ-
 
श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय-(३०) के श्लोक- (१०५) और (१०६) में बताया गया है कि विष्णु की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौनसा स्थान व पद प्राप्त होता है ?

विद्वान्सुचिरजीवी च श्रीमानतुलविक्रमः।
यो वक्ति वा ददात्येव हरेर्नामानि भारते॥१०५।

युगं नाम प्रमाणं च विष्णुलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य स सुखी धनवान्भवेत् ॥१०६।
               
अनुवाद- भारतवर्ष में जो मनुष्य भगवान श्रीहरि (छुद्र विष्णु) के नाम का स्वयं कीर्तन करता है अथवा इसके लिए दूसरों को प्रेरणा देता है वह जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है, और वहाँ से पुनः इस लोक (मृत्युलोक) में आकर वह सुखी तथा धनवान होता है।१०५-१०६।
              
विष्णु भक्तों से समन्धित उपर्युक्त श्लोकों पर विचार किया जाए तो विष्णु भक्त भी निश्चित रूप से विष्णुलोक को प्राप्त होते हैं और वे विष्णु के जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में निवास भी करते हैं। इसके बाद जब उसके जपे हुए नाम की संख्या पूरी हो जाती है तब उन्हें पुनः मृत्यु लोक में आना पड़ता है। अर्थात वह विष्णु लोक को प्राप्त होने के बाद भी मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकते हैं।

✳️-"यहाँ पर कुछ लोगों को संशय हो सकता है कि विष्णु और श्रीकृष्ण एक ही हैं। किन्तु ऐसी बात नहीं है। देखा जाए तो गुण विशेष के आधार पर विष्णु के तीन रुप हैं या कहें तीन प्रकार के विष्णु हैं-

(१)- स्वराट विष्णु (परिपूर्णतम् विष्णु)- जो गोलोक में श्रीकृष्ण नाम से अपने परिपूर्णतम् अंशों के साथ विराजमान हैं। उन्हें ही परिपूर्णतम् परंब्रह्म या स्वराट विष्णु कहा गया है।
परमेश्वर श्रीकृष्ण को स्वराट अर्थात् परिपूर्णतम् परंब्रह्म होने की पुष्टि- भागवत पुराण- (७/१५/५३-५४) से होती है।

ॐकारं बिन्दौ नादे तं तं तु प्राणे महत्यमुम्।। ५३ (उत्तरार्द्ध)
अग्निः सूर्यो दिवा प्राह्णः शुक्लो राकोत्तरं स्वराट्।
विश्वोऽथ तैजसः प्राज्ञस्तुर्य आत्मा समन्वयात् ।।५४।

अनुवाद- वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायङ्काल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायणके अभिमानी देवताओंके पास जाकर गोलोक में स्वराट्-विष्णु अर्थात् परमेश्वर श्रीकृष्ण के लोकमें पहुँचता है और वहाँ के भोग समाप्त होने पर वह स्थूलोपाधिक 'विश्व' अपनी स्थूल उपाधिको सूक्ष्ममें लीन करके सूक्ष्मो पाधिक 'तेजस' हो जाता है। फिर सूक्ष्म उपाधिको कारण में लय करके कारणोपाधिक 'प्राज्ञ' रूपसे स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूप से सर्वत्र अनुगत होने के कारण साक्षी के ही स्वरूपमें कारणोपाधिका लय करके 'तुरीय' रूप से स्थित होता है। इस प्रकार दृश्यों का लय हो जानेपर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है ॥ ५४


इसी तरह से परमेश्वर श्रीकृष्ण को स्वराट अर्थात् परिपूर्णतम् परंब्रह्म होने की पुष्टि- श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध का प्रथम अध्याय (मंगलाचरण) के प्रथम श्लोक से भी होती है।

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ते यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि।।१

अनुवाद:- स्वराट् जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं- क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत    (समाया हुआ है) और असत् पदार्थों से पृथक् है। वह जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वतन्त्र (परिपूर्णत्तम) है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें भी अपने संकल्प से ही जिसने  वेदज्ञान का दान किया है; जिसके सम्बन्ध में

बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्र सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयं की ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्य से पूर्णतः मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परंब्रह्म का हम ध्यान करते हैं ॥१॥  
(सम्पूर्ण सृष्टि का सञ्चालन सैद्धान्तिक है और यह सिद्धान्त कर्म-फल आधारित है। और कर्म का अस्तित्व भी अहं, संकल्प और इच्छाओं की दृढ़ता पर अवलम्बित है । अहं से संकल्प और संकल्प से इच्छाओं का उदय चेतना के स्रोत चित्त के धरातल पर ही हुआ है। इस लिए चित्त ही जीवन का निर्माता तत्व है।)

स्वराट् शब्द का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ–

"स्वरेषु अटति इति स्वराट्- जो स्वरों में अर्थात् ॐकार में स्थित है। वही परंब्रह्म का वाचक है।
अथवा जो स्वयं को ही प्राप्त है। वह परमेश्वर का वाचक स्वराट् है। अथवा एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार-" स्वमेव राजयति इति स्वराज्-स्वराट्।


(२)- विराट विष्णु (परिपूर्ण विष्णु)- इन्हें गर्भोदकशायी विष्णु भी कहा जाता है क्योंकि ये परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश से उत्पन्न हुए हैं। ये स्थूल से भी स्थूलतम् हैं। इसीलिए इन्हें विराट पुरुष या विराट विष्णु कहा गया। इनकी विशाल शरीर के अनन्त रोमकूपों में उतने ही ब्रह्माण्ड स्थिति हैं। फिर भी ये गर्भोदकशायी विष्णु अनन्त अंश वाले परमेश्वर श्रीकृष्ण यानी स्वराट विष्णु के सोलहवें अंश के बराबर हैं।

✴️ विराट विष्णु और छुद्र विराट् विष्णु में प्रमुख अन्तरों के
बारे में गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने श्रीराधा जी को ब्रह्मवैवर्त-पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६६) के श्लोक संख्या (५५ और ५६) में कुछ इस तरह से बताएं हैं-
भेदः कदाऽपि न भवेन्निश्चितं च तथाऽऽवयोः।
अहं महान्विराट् सृष्टौ विश्वानि यस्य लोमसु। ५५।

अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।।

अर्थात्- वह महाविराट् ही मेरा (सोलहवां) अँश है और तुम (राधा) अपने (सोलहवें अंश) से "महतीलक्ष्मी" के रुप में उसकी पत्नी (कामिनी) भी हो। जो समिष्टी (समूह) में है वही व्यष्टि (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह छुद्र विराट् विष्णु भी हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।५५।
छुद्र विराट् विष्णु के रोमकूपों में मेरा आंशिक (एक वंश) से निवास है। तुम्हीं अपने एकांश से वहाँ अर्थात् क्षीरसागर
में (लक्ष्मी) रूप से उसकी पत्नी हो।५६।।

(३)- छुद्र विष्णु (पूर्ण विष्णु)- गर्भोदकशायी विष्णु यानी विराट विष्णु के अनन्त रोमकूपों में जितने ब्रह्माण्ड स्थिति हैं उनमें उतने ही क्षुद्र विष्णु यानी पूर्ण विष्णु- परमेश्वर श्रीकृष्ण के एक-एक अंश को धारण किए हुए रहते हैं जो परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। इनकी संख्या अनन्त है।

✴️ ज्ञात हो- तीन प्रकार के विष्णु के भेद और उसी क्रम में उनकी तीन पत्नियाँ- परमा लक्ष्मी (राधा), महतीलक्ष्मी तथा लक्ष्मी। के बारे में अधिकांश लोगों को पता नहीं हैं। यही कारण है कि सौरमण्डल के अधिकांश पृथ्वीवासी विशेषकर ऐसे अज्ञानी कथावाचक श्रीकृष्ण यानी स्वराट विष्णु को छुद्र विष्णु से उत्पन्न बताकर ज्ञान की उल्टी धारा बहाते हैं।

उपर्युक्त तीनों प्रकार के विष्णु की तुलनात्मक स्थिति तथा कौन देवता कब, कैसे और कितने अंशों से उत्पन्न हुआ है, इत्यादि की विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय-
(३ और ४) में दी गई है। वहाँ से पाठक गण अपने समस्त संशयों को दूर कर सकते हैं।


[च]-श्रीराम पूजा के लाभ- 

"श्रीराम" भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (७६) और (७७) में बताया गया है कि श्रीराम की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?

श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे॥७६ ॥

पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत्॥७७॥

अनुवाद - जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीरामनवमी का व्रत सम्पन्न करता है, वह विष्णुके धाम में सात मन्वन्तर तक आनन्द करता है। पुनः उत्तम योनि में जन्म पाकर वह निश्चय ही रामकी भक्ति प्राप्त करता है और जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ तथा महान् धनी होता है। ७६- ७७।

अब यहाँ पर श्रीराम भक्तों पर विचार किया जाए तो श्रीराम भक्त भी निश्चित रूप से विष्णु लोक यानी छुद्र विष्णु के लोक
को प्राप्त होता है। किन्तु वह पुनः मृत्युलोक में उत्तम योनि में जन्म लेता है और महाधनी होता है। श्रीराम भक्तों के बारे में ऐसा ही श्लोक में लिखा गया है। किन्तु यहाँ पर यदि विचार किया जाए तो रामभक्त विष्णु लोक पहुँच कर भी आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है जब मनुष्य परम धाम गोलोक को प्राप्त होता है जहाँ परिपूर्णतम् परंब्रह्म श्रीकृष्ण यानी स्वराट विष्णु रहते हैं। जो सभी लोकों से उपर है। वहाँ जाने के बाद मनुष्य को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।   
 
✳️ ज्ञात हो उपर्युक्त श्रीराम भक्तों के श्लोकों से सिद्ध होता है कि श्रीराम और छुद्र विष्णु यानी पूर्ण विष्णु में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी हिसाब से रामभक्त विष्णु लोक तक जाता है। जैसे अन्य देवताओं के भक्त उनके ही लोक तक जातें हैं। जैसे शिव भक्त- शिव लोक को, तथा श्रीकृष्ण भक्त गोलोक को प्राप्त होते हैं। यहीं श्रीकृष्ण और अन्य देवों की भक्ति में अन्तर है इसको जानना चाहिए।
इसी अन्तर को ध्यान में रखकर भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में अर्जुन को अपने और देवताओं की भक्ति में भेद को बताते हुए कहते हैं कि -

"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। २५।।

अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२५।

और इस बात को अधिकांश लोग नहीं जानते हैं कि परमेश्वर श्रीकृष्ण कौन से विष्णु हैं। और इसी अज्ञानता वश कहा करते हैं कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही कृष्ण हैं। इसी अज्ञानता वश कभी-कभी श्रीकृष्ण को छुद्र विष्णु से उत्पन्न करा देते हैं।
इस तरह के समस्त संशयों का सम्पूर्ण समाधान इस पुस्तक के अध्याय- (२)- (३) और (४) का अध्ययन करने से हो जाएगा।

अब हमलोग इसी क्रम में कुछ देवियों के पूजा अर्चना से होने वाले लाभों को जानेंगे-

[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ-

"देवी सावित्री और सरस्वती" जो दोनों ही ब्रह्माजी की पत्नियाँ मानीं जाती हैं। जिनकी उत्पत्ति गोलोक में पूर्व काल में श्रीराधा से ही हुई है। जिनका मुख्य स्थान ब्रह्मलोक है। उनके भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (९७ से ९९) में बताया गया है कि- देवी सावित्री और सरस्वती की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?

"भारतं पुनरागत्य चारोगी श्रीयुतो भवेत् ।
ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीं यो हि पूजयेत्॥९६।

महीयते ब्रह्मलोके सप्तमन्वन्तरावधि ।
पुनर्महीं समागत्य श्रीमानतुलविक्रमः ॥९७।

चिरजीवी भवेत्सोऽपि ज्ञानवान्सम्पदा युतः ।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां पूजयेद्यः सरस्वतीम् ॥९८।

संयतो भक्तितो दत्त्वा चोपचाराणि षोडश ।
महीयते मणिद्वीपे यावद्ब्रह्म दिवानिशम् ॥९९।
                
अनुवाद - ९६-९९ • जो मनुष्य ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवती सावित्री का पूजन करता है, वह सात मन्वन्तरों की अवधि तक ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। पुनः पृथ्वी पर लौटकर वह श्रीमान अतुल पराक्रमी, चिरंजीवी, ज्ञानवान तथा सम्पदा सम्पन्न हो जाता है। ९६-९७।

• जो मनुष्य माघ महीने के शुक्लपक्ष की पञ्चमी तिथि को भक्तिपूर्वक सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों को अर्पण कर सरस्वती की पूजा करता है, वह ब्रह्मा के आयुपर्यन्त मणिद्वीप में दिन-रात प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और पुनः जन्म ग्रहण कर महान् कवि तथा पण्डित होता है।९८-९९।
           
उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो ब्रह्माजी की दोनों पत्नियों के भक्त- ब्रह्माजी के लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को अवश्य प्राप्त होते हैं जो शिवलोक और वैकुण्ठलोक से बहुत नीचे है। किन्तु इन दोनों देवियों के भक्त मृत्युलोक में पुनः जन्म ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से इन देवियों के भक्त भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते। ऐसा ही उपरोक्त श्लोकों में लिखा गया है।

अतः पूजा अर्चना के उपरोक्त सभी श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- देवी- देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही होता है और उनके भक्त उन्हीं को प्राप्त होते हैं और अल्प समय तक उन्हीं के लोक में रहकर पुनः अपने लोक (भूलोक) में वापस आ जाते हैं। अर्थात वे मोक्ष को प्राप्त नहीं होते।

किन्तु परमेश्वर श्रीकृष्ण को पूजने वाला श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति को प्राप्त कर गोलोक वासी हो जाता है। तब वह श्रीकृष्ण के ही रूप व स्वरूप में विलीन हो जाता है, और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा जाता है। 


[ज]- श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?

तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि जब देवी-देवों को पूजने का परिणाम अल्प ही है, तो मनुष्य परिपूर्णतम परंब्रह्म श्रीकृष्ण के अतिररिक्त (३३) तैतीस करोड़ देवी-देवताओं को क्यों पूजते हैं ? तो इसका जबाब है- अज्ञानता। इसके साथ ही कुछ कथावाचकों का परंब्रह्म श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान का होना ही है। यह बात बिल्कुल सत्य है।
क्योंकि श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम परंब्रह्म हैं, इस गूढ़ रहस्य का सम्पूर्ण ज्ञान केवल चार लोगों को ही है- पहला पञ्चमुखी शिव, दूसरा- श्रीराधा और तीसरा-  गोलोकवासी और  चौथे गोप- गोपियाँ।
बाकी तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देवों सहित बड़े-बड़े तपस्वियों को श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अल्प ज्ञान ही है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।।         
                                  
अनुवाद - ८२-८३
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा, गोलोकवासी और गोप-गोपियाँ ही जानतीं हैं।

✴️ प्रस्तुत श्लोक में 'च' अव्यय पद का प्रयोग और अथवा ( and) के अर्थ में पदों के समाहार के लिए हुआ है। इस लिए (च) का अर्थ- "और" होता है। गोपी-गोप और गोलोकवासी " ही कृष्ण की भक्ति तत्व को जानते हैं।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि गोपी और गोप के अतिरिक्त गोलोक वासी कौन हैं ?
तो इसका समुचित उत्तर होगा कि गोलोक वासी से तात्पर्य उन तपस्वियों से है जो अपने तपोबल से गोलोक में  पहुँचते हैं। किन्तु गोप और गोपियाँ - श्रीकृष्ण और श्रीराधा से उत्पन्न होने के कारण पहले से ही गोलोक वासी हैं। और भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों के साथ सदैव गोप भेष में रहते भी हैं और इन्हीं गोपियों को लेकर भगवान श्रीकृष्ण भूतल पर आते-जाते हैं।

• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।  
              
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -ब्रह्मखण्ड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -

गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किञ्चन स्फुटम्।
न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्ममुख्यम् ।९।

अनुवाद:- गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। अर्थात् कमल-मुखवाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमलमुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो।९।
             
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गुणों एवं रहस्यों को बड़े-बड़े ऋषि मुनि नहीं जान सके , पुराणों में अल्प वर्णन है, तथा ब्रह्मा और सनत कुमार भी परमात्मा श्रीकृष्ण को अल्प ही जानते है। तो श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कौन बता सकता है ? या कहें कि श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी कौन हो सकता है ?
                     
तो इसका समुचित समाधान है- जो सदैव श्रीकृष्ण के सान्निध्य (पास) में रहता हो, जो श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को जानता हो, वही इस समस्या का पूर्णतया समाधान कर सकता है। इस प्रकार ऊपर के श्लोकों में स्पष्ट रूप से बताया जा चुका है कि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को केवल चार लोग- (१)- शिव जी (२)- श्रीराधा (३)-गोलोकवासी और (४)गोप- गोपियाँ ही जानते हैं।
           
अब इन सब में देखा जाए तो प्रथम क्रम पर भगवान शिवजी आते हैं, जो श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों एवं गूढ़ रहस्यों को सम्यक रूप से जानते हैं। तो क्या शिवजी भू-तल पर आकर सार्वजनिक रूप से श्रीकृष्ण कथा कहेंगे ? इसका जबाब होगा नहीं। क्योंकि उनको भूतल पर श्रीकृष्ण कथा कहते हुए कभी नहीं देखा गया और ना ही शास्त्रों में ऐसा लिखा हुआ मिलता है कि- शिव ने भक्तों को कृष्ण कथा सुनायी है। फिर भी भगवान शिव, परमात्मा श्रीकृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को केवल पार्वती जी को बताते हैं। वह भी श्रीकृष्ण की अनुमति मिलने पर। इस बात की पुष्टि - ब्रह्मवैवर्तपुराण के

अध्याय - (४८) के निम्नलिखित प्रमुख श्लोकों में मिलती है। जो पार्वती -शिव संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें पार्वती जी शिवजी से कहतीं हैं कि -

तदुत्पतिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम्।
पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम्।१४।

आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम्।
साम्प्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल।१५।

कथं न कथितं पूर्वमागमाख्यानकालतः।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः।१६।

पञ्चवक्त्रश्च भगवाञ्छुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
स्वसत्यभङ्गभीतश्च मौनीभूय विचिन्तयन् ।१७।

सस्मार कृष्णं ध्यानेनाभीष्टदेवं कृपानिधिम् ।
तदनुज्ञां च सम्प्राप्य स्वार्द्धाङ्गां तामुवाच सः।१८।

निषिद्धोऽहं भगवता कृष्णेन परमात्मना।
आगमारम्भसमये राधाख्यानप्रसंगतः।१९।

मदर्द्धांगस्वरूपा त्वं न मद्भिन्ना स्वरूपतः।
अतोऽनुज्ञां ददौ कृष्णो मह्यं वक्तुं महेश्वरि। २०।

मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति ।
अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम्।२१।

जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् ।
यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ।२२।
              
अनुवाद - आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम- महात्म्य, उत्तम पूजा - विधान, चरित्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, आराधना विधि तथा अभीष्ट पूजा -पद्धति का इस समय वर्णन कीजिए। भक्तवत्सल ! मैं आपकी भक्ता (भक्तिनी) हूँ अतः मुझे यह सब बातें अवश्य बताऐं। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालिए कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था ? (१४-१५-१६)

• पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर भगवान पञ्चमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से वे मौन हो गए और चिन्ता में पड़ गए।१७।

•  तब उस समय उन्होंने अपने इष्ट देव करुणा निधान भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपनी अर्धांगस्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले- देवी ! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था।१८-१९।

• परन्तु माहेश्वरी ! तुम तो मेरा आधा अंग हो, अतः स्वरूपतः मुझसे भिन्न नहीं हो। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है।२०-२१।

• अतः इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूँ। दुर्गे ! यह परम अद्भुत रहस्य है मैं इसका कुछ वर्णन करता हूँ सुनो।२२।

✳️ पार्वती को भगवान शिव ने राधाख्यान में क्या बताया उसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के अध्याय- (दो) में किया गया है। वहाँ से राधाख्यान की कुछ सामान्य जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं।
               
अतः इस उपर्युक्त प्रसंग से तो यही सिद्ध होता है कि-गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को बताने के लिए शिव को भी श्रीकृष्ण से अनुमति लेनी पड़ी थी। तो ऐसे में भगवान शिव भूतल पर सार्वजनिक रूप से श्रीकृष्ण कथा कैसे कह सकते हैं ?

अब रही बात श्रीराधा जी की। क्योंकि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण रहस्यों एवं चरित्रों को श्रीराधा भी जानती हैं। तो क्या श्रीराधा जी इस भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहेंगी ? ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि श्रीकृष्ण और श्रीराधा में कोई भेद नहीं है। सांसारिक प्रक्रिया के मूल द्वन्द्वात्मक रूप से परे होने पर दोनों मूलत: एक ही परंब्रह्म रूप हैं। तो ऐसे में वह अपनी ही कथा स्वयं कैसे कहेंगी। दूसरी बात यह कि आज तक ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कोई अपनी कथा स्वयं कहता हो। अर्थात् भूतल पर श्रीकृष्ण कथा कहते हुए श्रीराधा को कभी नहीं देखा गया।

अब रही बात तीसरे क्रम पर गोलोक वासियों की।  तो आज तक कभी ऐसा नहीं सुना गया कि गोपों के अतिरिक्त और कोई गोलोक वासी भी कभी भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहें हों। और यह सम्भव भी नहीं है क्योंकि गोलोक वासी श्रीकृष्ण के गोलोक में अपने तपोबल और ज्ञानबल से ही पहुँचते हैं। और वे श्रीकृष्ण के मर्म को जानते भी हैं। किन्तु वे भूतल पर श्रीकृष्ण के साथ कभी नहीं आते है। केवल गोप और गोपियाँ ही श्रीकृष्ण के लीलासहचर बनकर भूतल पर आते हैं। इसके विषय में आगे यथास्थान बताया गया है।
          
अब रही बात चतुर्थ क्रम पर गोप और गोपियों की। क्योंकि गोप और गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्र एवं गूढ़ रहस्यों को भली-भाँति जानते हैं। क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से ही हुई हैं। ऐसे में भला ये गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे नहीं जान सकते ? और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रीकृष्ण की लीला का सहचर बनकर ये गोप और गोपियाँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसी तरह से विद्यमान हैं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। और भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों को लेकर अपनी लीलाऐं किया करते हैं।

(गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा से कैसे और कब हुई ? इस विषय पर सम्पूर्ण जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (४) में दी गई है वहाँ से इसकी जानकारी प्राप्त की सकती हैं।
             
अतः उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि - "श्रीकृष्ण कथा" को केवल गोप और गोपियाँ ही भावपूर्ण विधि से कह सकते हैं, जो मानवीय रूप में भूतल पर बहुतायत संख्या में विद्यमान हैं। अतः सम्यक तर्कों से सिद्ध होता है कि- "श्रीकृष्ण कथा कहने के लिए केवल गोप [आभीर] विद्वान ही पात्र हो सकते हैं।

क्योंकि उनके मन- मस्तिष्क में जन्म जन्मान्तर से श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण चरित्र एवं गुणों का ज्ञान सुषुप्तावस्था में विद्यमान है। बस आवश्यकता है- उन्हें श्रीकृष्ण का ध्यान व योग से उस सुषुप्त ज्ञान को अपने अन्त:करण में प्रकाशित करने की। और जिस क्षण वह ज्ञान, गोप और गोपियों में प्रकाशित होगा, उसी क्षण वह श्रीकृष्ण कथा कहने के लिए पात्र हो जाएंगे। चाहे वह गोप हो या गोपी। इनके अतिरिक्त भू-तल पर सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा कोई नहीं कह सकता भले ही वह कितना ही बड़ा कथावाचक क्यों न हो जाए। क्योंकि इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४) के श्लोक-(८२)और (८३) में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि -

"कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।८३।
                        
अनुवाद - ८२-८३
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा, गोलोकवासी और गोप-गोपियाँ ही जानतीं हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कृष्ण भक्ति का कुछ ही ज्ञान है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८२-८३। 

✳️ किन्तु प्रश्न यह है कि गोलोक के ये गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा की इतनी सारी विशेषताओं को लिए हुए भूतल पर कैसे आये ? क्या वास्तव में गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप हैं ? क्या गोलोकवासी गोप ही भूतल के गोप,आभीर और यादव हैं ? गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा क्यों नहीं कह पाता ? ऐसे ही बहुत सारे प्रश्न और विचार मन में अवश्य उठ रहे होंगे। अतः इन सभी का समाधान किए बिना यह प्रसंग अधूरा रहेगा।

तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले गोप और गोपियों की उत्पत्ति और उनके वास्तविक स्वरूप एवं स्थिति इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (४) में दी गई है, किन्तु उसे संक्षेप में यहाँ भी बताना आवश्यक है।

गोपों की उत्पत्ति या जन्म के बारे में स्पष्ट रूप से वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या-( ४० और ४२) में वर्णन मिलता है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः।
आविर्बभूव  रूपेण वेशेनैव  च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।

अनुवाद - ४० से ४२
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप-गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

✳️ ज्ञात हो यह बात गोलोक की है, जहाँ सर्वप्रथम गोप और गोपियों की उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोमकूपों अर्थात् उनकी सूक्ष्मतम इकाई कोशिकाओं से क्लोन विधि ( समरूपण विधि ) से हुई। इसलिए सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूपणी उत्पन्न हुईं।
इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि-समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समान रूप वाला होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है। इसके साथ ही उसके गुण, ज्ञान और व्यवहार भी उसी के अनुरूप होते हैं। यह ध्रुव सत्य है।
कालान्तरण में जलवायु और तापमान के न्यूनाधिक अनुपातीय प्रभाव से स्थान परिवर्तन होने से गोप गोपियों की अर्वाचीन सन्तानें बाह्य शारीरिक रूप से परस्पर भिन्न हो गयी हैं परन्तु उनकी प्रवृत्तियाँ अब भी समान व प्राचीनतर हैं।

किन्तु सवाल यह है कि-  गोलोक के ये गोप और गोपियाँ भूतल पर कैसे और क्यों आये?

तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि भगवान श्रीकृष्ण गोलोक से जब भी भू-तल पर भूमि भार हरण के लिए अवतरित होते हैं, तो वे अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ ही गोपकुल में गोपों के यहाँ ही अवतरित होते हैं।

  इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवों के निवेदन पर गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण अपने समस्त गोप-गोपियों को बुलाकर कहते हैं-

जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले।।
गोपानामुत्तमानां च मन्दिरे मन्दिरे शुभे।६९।।

अनुवाद - भगवान श्रीकृष्ण ने कहा -गोप और गोपियों ! तुम सब भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो ।

तब श्रीकृष्ण का आदेश पाकर सभी गोप-गोपियाँ भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ-शुभ घरों में अवतरित हुए। इसकी पुष्टि- उस समय होती है, जब समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भू-तल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के एक दुष्ट राजा से यादवों का भयानक युद्ध हुआ। उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(११ ) के श्लोक संख्या-(२१ और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहते हैं कि -

"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।

अनुवाद-
नन्दराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक के गोपालगण (आभीर) जो साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियाँ जो श्रीराधा के रोमकूप से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहाँ (भूतल के ) व्रज में उतर आईं हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाऐं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्ण को प्राप्त हुईं हैं।२१-२२।

इसी तरह से समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी श्रीकृष्ण के अँश से गोलोक में उत्पन्न हुए थे उन सभी को भू-तल पर गोपकुल के यादव वंश में भगवान श्रीकृष्ण के ही अँश रूप में अवतरित या जन्म लेने की पुष्टि- गर्गसंहिता के विश्वजित्खण्ड के अध्याय (२) के श्लोक- ७ से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण यादवों के विश्वजीत युद्ध होने से पहले उग्रसेन से कहते हैं-

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।

अतः उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ कि समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण के रोमकूपों (कोशिकाओं) से या कहें उनके अँश से उत्पन्न हुए थे, वे सभी भूतल पर गोपजाति के यादव वंश में श्रीकृष्ण के ही अँश से यदुवंश के एक सौ एक कुलों में प्रकट हुए हैं। ऐसी बात भगवान श्रीकृष्ण ने उपरोक्त श्लोकों में स्वयं कही हैं कि "समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं"।

इतने प्रमाणों के बाद अब कोई यह नहीं कहेगा कि गोलोकवासी" गोप-गोपियाँ- भूतल की गोप-गोपियाँ नहीं हैं।

किन्तु एक बात अभी भी कुछ लोग कह सकते हैं कि- क्या प्रमाण है कि भूतल के गोप-गोपियों को श्रीकृष्ण भक्ति का पूर्णरूपेण ज्ञान है और वे ही लोग श्रीकृष्ण कथा कहने के पात्र हैं?

तो इसका सीधा जवाब है कि जो गोप-गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के अँश से या कहें उनके रोम कूपों अर्थात् उनके क्लोन से उत्पन्न हुए हों और उनका सहचर बनकर सदैव सन्निकट रहते हों, तथा उनके ही साथ भूतल पर आते-जाते हों और उनके प्रत्येक कार्यों में एक साथ मिलकर हाथ बँटाते हों, तो ये गोप-गोपियाँ श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गुणों और रहस्यों को नहीं जानेंगे, तो क्या ब्रह्माजी के मानस पुत्र, देव और देवियाँ या ब्रह्मा जी के- मुख, हाथ, पेट और पैर से

उत्पन्न चातुर्वर्ण्य के लोग जानेंगे ?
निश्चित रूप से इसका जवाब होगा- नहीं। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि जितना एक पुत्र अपनी माता-पिता के जितने गुणों को लेकर जन्म धारण करता है, और उनके अनुरूप ही व्यवहार करते हुए अपने माता-पिता के गुण, ज्ञान और व्यवहार के बारे में जानता है, शायद ही दूसरा कोई  जानता होगा। इसी को विज्ञान की भाषा में आनुवांशिक गुण कहा जाता है जो माता-पिता से स्वाभाविक और पैतृक रूप से  प्राप्त होते हैं।

शायद इन्हीं सब कारणों से ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय- (९४ ) के श्लोक-( ८२) और (८३) में लिखा गया है कि-

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।।        
                                  
अनुवाद - ८२-८३
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप- गोपियाँ ही जानती हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।  

ज्ञात हो उपरोक्त श्लोक -८२ में गोपों के बारे में जो बात लिखी गई है कि- श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियाँ ही जानती हैं। वह बिल्कुल वैज्ञानिक आधार पर ही लिखी गई है क्योंकि सभी गोप-गोपियाँ श्रीकृष्ण की कोशिकाओं (रोमकूपों) अर्थात् उनके क्लोन यानी समरूपण से उत्पन्न हुए हैं। जिसको ऊपर बताया जा चुका है।

श्रीकृष्ण और श्रीराधा के द्वारा समरूपण विधि से उत्पन्न होने से ही सभी गोप-गोपियाँ रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समान हुए थे। परन्तु आज उनमें अनेक संक्रमणों से विकृतियाँ हुईं हैं। फिर भी  वे गोप अल्प मनस्-साधनाओं के द्वारा श्रीकृष्ण कथा की पात्रता प्राप्त कर सकते हैं।

इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या- ४० और ४२ के आधार पर उपर बताया गया है। इसी गुण विशेष के कारण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२ में यह बात लिखी गई है कि-"श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियाँ ही जानतीं हैं। जो वैज्ञानिक आधार पर ध्रुव सत्य है।
इस ध्रुव सत्य के कारण श्रीकृष्ण कथा के वास्तविक अधिकारी केवल गोप और गोपियाँ हैं।

किन्तु इसका मतलब यह नहीं हुआ कि श्रीकृष्ण कथा के लिए सभी गोप-गोपियाँ पात्र हैं। इसका मतलब यह हुआ कि श्रीकृष्ण कथा कहने के केवल वहीं गोप और गोपियाँ पात्र हो सकतीं हैं, जिन्होंने भक्ति, तप और योग साधना से भगवान श्रीकृष्ण के जनेटिक गुणों को अपने अन्दर जागृत कर श्रीकृष्ण का तत्व ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो उनके अन्दर पहले से ही आनुवाँशिक रूप से विद्यमान है। क्योंकि सभी गोप श्रीकृष्ण के क्लोन से उत्पन्न हुए हैं इस लिए उनके अन्दर श्रीकृष्ण का तत्व गुण पहले से ही आनुवंशिक रूप में सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहता है, बस उसे जगाने की जरूरत है।
✳️ किन्तु ध्यान रहे- धूर्त, अज्ञानी, पाखण्डी और छद्मवेषधारी, श्रीकृष्ण गुणों से रहित "गोप-गोपियाँ" कभी भी श्रीकृष्ण कथा के अधिकारी नहीं हो सकते हैं। यानी
श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी केवल श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोप और गोपियाँ ही हो सकतें हैं, अज्ञानी गोप नहीं।
            
तब पुनः प्रश्न उठता है कि क्या श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोपों के अतिरिक्त और कोई श्रीकृष्ण कथा नहीं कह सकता ? तो इसका जवाब है अवश्य कह सकता हैं किन्तु वह श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों का वर्णन नहीं कर पाएगा क्योंकि वह जब भी श्रीकृष्ण कथा कहेगा तो वह अल्प ज्ञान से ही कथा कहते हुए कभी भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारें जाने की बात कहेगा, तो कभी गान्धारी और ऋषियों द्वारा श्रीकृष्ण को शापित होने की बात बताएगा। इसके अतिरिक्त वह यह भी बताएगा कि- श्रीकृष्ण की उत्पत्ति छुद्र विष्णु से हुई है। या वह यह कहेगा कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही श्रीकृष्ण हैं। क्योंकि उसे विष्णु और श्रीकृष्ण में भेद का ज्ञान ही नहीं है किस विष्णु को श्रीकृष्ण कहा जाता है। इसके अतिरिक्त वह परंप्रभु श्रीकृष्ण के अतिरिक्त तरह-तरह के देव-देवियों को पूजने की बात कहेगा। क्योंकि हमने आजतक जिस किसी कथावाचक की कथा सुनी हैं, सभी ने उपर्युक्त बातों को ही बताया है। इससे अधिक वे कुछ नहीं बता पाये।
उनकी कथाओं में हमने कभी भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के बारे में नहीं सुना। जिसे हमने इस पुस्तक के अध्याय- २-३ और ४ में विस्तार पूर्वक बताया है। ऐसे में जो कथावाचक अपनी कथाओं में आधी-अधूरी और अल्प ज्ञान से आवेशित होकर श्रीकृष्ण कथा कहते हैं। उनका अन्ततोगत्वा क्या परिणाम होता है ? इसके लिए अगला प्रसंग देखें।


[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणामों का वर्णन-

शास्त्रों में यह विधान किया गया है कि गलत कथा या आधी अधूरी कथा कहने वाले नरक के भागी होते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- के अध्याय -(८५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो नन्द बाबा और श्रीकृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा के पूछे जाने पर, गलत कर्म करने वाले एवं धूर्त कथावाचकों के विषय में कहते हैं कि-
                                    
'कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु।
असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु।१९२।  
                                         
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु।
जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका।१९३।                                            
ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा।
कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः।१९४।  
               
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः।१९५।      
ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि।
मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो भवेद् ध्रुवम्।१९६।
                    
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः ।
पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः।१९७।                           
ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु।
महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८।
                   
अनुवाद- (१९२-१९८)
• विद्वानों के कवित्व (विद्वत्ता) पर प्रहार करने वाला सात जन्मों तक मेंढक होता है। और जो झूठे ही अपने को विद्वान कहकर गाँवों की पुरोहितायी और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला होता है। १९२।
• और वह एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है, फिर एक जन्म में बर्रे (ततैया) होने के बाद वह वृक्ष की चींटी (माटा / दींमक) होता है।१९३।
•  उसके बाद क्रमश: शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण बनता है, और इन चारो वर्णों मे कन्या बेचने वाला तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला ब्राह्मण (विप्र) भी कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता- यह ध्रुव सत्य है।१९४।
•  तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला (मेरे नाम पर धन्धा चलाने वाला) कथावाचक (पुरोहित) शीघ्र ही तामिस्र नरक में जाता है और तब-तक रहता है जब तक सूर्य तथा चन्द्रमा रहते है। उसके बाद मांस बेचने वाला बहेलिया बनता है।१९३।
• फिर उसे पूर्व जन्म के कर्म- संस्कारों के कारण बीमारी घेरती है। और मेरे नाम को बेचने वाले (मेरे नाम पर धन्धा चलाने वाले) पुरोहितों (कथावाचकों ) की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव सत्य है।१९६।
• मृत्युलोक में जिसके ध्यान में मेरा नाम (श्रीकृष्ण) आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गाय का बछड़ा बनकर जन्म लेता है।१९७।
• इसके बाद बकरा, फिर मेढ़ा और सात जन्मों तक भैंसा होता है। इस प्रकार बहुत से चक्कर लगाते (महाचक्री) हुए वह जो षड्यन्त्र रचने में बहुत प्रवीण हो, कुटिल धर्म से हीन मानव बनता है।१९८।

अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो अपने आप ही विद्वान समझकर स्वार्थ व धनार्जन के लिए अल्पज्ञान से भगवान श्रीकृष्ण की ग़लत व झूठी कथा कहता है, वह अन्ततोगत्वा नरकगामी होता है। ऐसी बात शास्त्रों में लिखी गयी है।


[ञ]-सच्चे गुरु की पहचान-  

इसीलिए किसी ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो तत्व ज्ञानी हो, श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव उत्पन्न करने वाला हो, गुरुमन्त्र नहीं बल्कि कृष्णमन्त्र देने वाला हो। जो शिष्यों से स्वयं को न पुजवाकर परमेश्वर को पूजने की बात कहता हो, यदि ऐसा गुरु मिल जाए तो उसे गुरु मानकर ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। सच्चे गुरु, भाई, बन्धु , माता-पिता की कुछ ऐसी ही विशेषताऐं देवीभागवतपुराण-स्कन्धः (९) अध्याय (४८)- के अध्याय -(४६) में बताईं गई है। जो इस प्रकार है-

यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः।
सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी॥६५।

दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी।
विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः॥६६।

गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम्।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम्॥६७।

आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः।
वेदजं यज्ञजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम्॥६८।

तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम्।
दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः॥६९।

ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः।
विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः॥७०।

स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ।
जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा॥७१।

न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः।
परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम्॥७२।
            
अनुवाद- ६५-७२
भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमन (गर्भवास) से मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता है। वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यम के त्रास (भय) से छुटकारा दिला दे।  गुरु वही है, जो  श्रीकृष्ण का मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति उत्पन्न करने वाला हो।६५-६६।

• ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन कराने वाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृण से लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत (उत्पन्न) होकर पुनः विनष्ट होने वाला है, तो फिर अन्य वस्तु से ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञ से जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरि की सेवा ही है।६७-६८।
• यही हरिसेवा समस्त तत्त्वों का सारस्वरूप है, भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बना है। मेरे द्वारा जो ज्ञान तुमको  दिया गया है। ज्ञानदाता स्वामी वही है जो ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त कर देता है वही बन्धु है। और जो बन्धन में डालता है, वह शत्रु है। जो भगवान् विष्णु (स्वराट विष्णु) अर्थात् मेरे में भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नही देता वह गुरु भी शत्रु ही है।६९-७०।
• वह गुरु शत्रु और शिष्यघाती ही है जो बन्धन से मुक्त नहीं करता है। जो जननी के गर्भजनित कष्ट तथा यम-यातना से मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ? जो बन्धन से मुक्त नहीं करे, और जो भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता हो।७१-७२।
            
उपर्युक्त श्लोकों में जो गुरु की विशेषताऐं बताईं गई हैं- (वह गुरु शिष्य घाती है जो अपने ज्ञान से शिष्यों को मोह-माया के बन्धनमुक्त नहीं करता तथा परमानन्द स्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता।) वह बिल्कुल सत्य है। उसी के हिसाब से मनुष्य को गुरु का चयन करना चाहिए। पाखण्डी और छद्मवेषधारी गुरुओं को तुरन्त त्याग देना चाहिए। इसी में भलाई है नहीं तो फिर जग हँसाई है।

और यादव लोग तो वैसे भी पाखण्ड से सदैव दूर रहते हैं। इस बात की पुष्टि हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- (२२) के श्लोक (१४) से उस समय होती है जब कंस अपने समस्त यादवों को राज दरबार में बुलाकर कुछ  इस प्रकार कहता है-

अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः ।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।

अनुवाद- आप (यादव) सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मन्त्रों को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण कथा कहने का पात्र केवल ज्ञानी गोप और गोपियाँ ही है। इनके अतिरिक्त और किसी के द्वारा श्रीकृष्ण कथा कहने का मतलब श्रीकृष्ण की अधूरी जानकारी देना है। यही कारण है कि गोपों के अतिरिक्त वर्तमान समय में जितने भी कथावाचक हैं, श्रीकृष्ण कथा कहते समय श्रीकृष्ण के साथ गोप और गोलोक की चर्चा नहीं कर पाते हैं। इसलिए उनके द्वारा की गई श्रीकृष्ण कथा अधुरी मानी जाती है। और इस सम्बन्ध में ऊपर बताया गया है कि कैसे आधी अधूरी श्रीकृष्ण कथा कहने वाले नरकगामी होते हैं।

इस प्रकार से परमप्रभु परमेश्वर कौन हैं ? पूजा-अर्चना के वास्तविक विधि-विधान क्या है ? वास्तव में किसकी पूजा करनी चाहिए किसकी नहीं ? कथावाचकों द्वारा गलत कथा कहने के दुष्परिणाम तथा सही गुरु का चयन कैसे किया जाए ? इन सभी की जानकारीयों के साथ यह अध्याय समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय- (दो) में जानकारी दी गई है कि- "श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक धाम कैसा है और कहाँ स्थापित है"?।

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अध्याय (२) 👇🏽

अध्याय द्वितीय (२)

"श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन।

यह अध्याय श्रीकृष्ण भक्तों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की चर्चा तो करते हैं, किन्तु वे उनके वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक की सूक्ष्म एवं स्थूल स्थिति की चर्चा नहीं करते हैं।

इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला यह कि या तो उन्हें श्रीकृष्ण और उनके गोलोक का ज्ञान नहीं है, तथा दूसरा यह कि वे लोग अपनी कथाओं में यदि श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक के बारे में बतानें लगेंगे तो उन्हें अपने तैंतीस (३३) करोड़ देवताओं को पीछे करके श्रीकृष्ण तथा उनके गोपों को आगे करना होगा। किन्तु वे लोग ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि इन्हीं तैतीस (३३) करोड़ देवताओं के भ्रमजाल से अपनी कथाओं में कभी इस देव को पूजवाते हैं तो कभी उस देव को पूजवाते हुए नाना प्रकार के चमत्कार से अपने आप स्वयं भटकतेे हुए दूसरों को भी भटकाते हैं। ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण भक्तों को श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप एवं उनके गोलोक की शूक्ष्म  एवं स्थूल स्थितियों को जानना आवश्यक हो जाता है।

गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय २- के क्रमशः (४ से २१) तक के श्लोकों में कुछ इस तरह से बताया गया है -

"ज्योतिः समूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज।
सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम्।४॥

स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत्।
ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम्।५॥

तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज।
त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति।६॥

तेजःस्वरूपं   सुमहद्रत्नभूमिमयं  परम्।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।७॥

आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम्।८॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण-ब्रह्मखण्डःअध्यायः(२) के आठवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)

सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम्।।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम्।९।

तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् ।।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम्।१०।

गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।१३।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण -ब्रह्मखण्डः अध्यायः२ के तेरहवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)

परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम्।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा।१४।

तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम्।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम्।१५।

नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम्।
शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम्।१६।

कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम्।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।१७।

रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम्।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम्।२०।

स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।२१।

अनुवाद- ४-२१
• पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति-पुञ्ज प्रकाशित था। जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी। वही नित्य व शाश्वत ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है।४।

• वह स्वेच्छामयी,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।५।

• और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभी ओर से मण्डलाकार है। ६।

• और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न में भी दिखाई देने योग्य नहीं है। वह केवल वैष्णवों (श्रीकृष्ण भक्तों) के लिए ही दृश्य और गम्य (पहुँचने योग्य) है।७।

• वहाँ आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) जरा (बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है।८।

• रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्रीकृष्ण ही मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वह लोक गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है।९।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक-९ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं। अथवा जानते ही नहीं हैं। ]

• और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम-भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।१०।

• गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है।१३।

• जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४।

• ज्योति के भीतर जो अत्यन्त परम मनोहर रूप है। वही  निराकार व परात्पर ब्रह्म है; उसका रूप उस ज्योति के भीतर अत्यन्त सुशोभित होता है । १५।

• जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है जिसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। जिनका निर्मल मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है।१६।

• यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उनकी दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है,और उपरोष्ठ एवं अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है, जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। १७।

• वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन हैं और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वनमाला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं।२०।

•  वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।   

✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक (२१) की बात नहीं बाताना चाहतें हैं।]

भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक का स्वरूप तथा उनके गोप गोपियों- के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२८) के कुछ प्रमुख श्लोकों में भी बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। जिसका हम निम्नलिखित श्लोकों में प्रस्तुतिकरण करते हैं।

तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।
नित्यं स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च।।४०।।

लक्षकोट्या योजनानां चतुरस्रं मनोहरम्।
रत्नेन्द्रसारनिर्माणैर्गोपीभिश्चावृतं सदा।।४१।।

सुदृश्यं वर्तुलाकारं यथा चन्द्रस्य मण्डलम्।
नानारत्नैश्च खचितं निराधारं तदिच्छया।।४२।

ऊर्ध्वं च नित्यवैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम्।
गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम्।।४३।

अनुवाद ( ४०- ४३)      
• करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान जो मण्डलाकार तेज पुञ्ज है, उसके भीतर नित्य धाम छुपा हुआ है जिसका नाम गोलोक है।४०।

• वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्ष्य कोटि योजन विस्तृत है। सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्न के सारतत्वों से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपांगनाओं से वह लोक सदा भरा हुआ है।४१।

• चन्द्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है। रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है। ४२।

• उस नित्य लोक की स्थिति वैकुण्ठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। वहाँ गायें, गोप और गोपियाँ निवास करती हैं। वहाँ कल्पवृक्ष के वन हैं।४३।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक (४३) की बात नहीं बाताते हैं।]

वृन्दावनवनाच्छत्रं विरजावेष्टितं मुने।४४।।

शतशृङ्गं शातकुम्भैः सुदीप्तं श्रीमदीप्सितम्।।
लक्षकोट्या परिमितैराश्रमैः सुमनोहरैः।४५।।

शतमन्दिरसंयुक्तमाश्रमं सुमनोहरम्।।
प्राकारपरिखायुक्तं पारिजातवनान्वितम्।४६।

कौस्तुभेन्द्रेण मणिना राजितं परमोज्ज्वलम्।
हीरसारसुसंक्लृप्तसोपानैश्चातिसुन्दरैः।४७।।

मणीन्द्रसाररचितैः कपाटैर्दर्पणान्वितैः।
नानाचित्रविचित्राढ्यैराश्रमं च सुसंस्कृतम्।४८।।

षोडशद्वारसंयुक्तं सुदीप्तं रत्नदीपकैः।
रत्नसिंहासने रम्ये महार्घमणिनिर्मिते।४९।

नानाचित्रविचित्राढ्ये वसन्तं वरमीश्वरम्।
नवीननीरदश्यामं किशोरवयसं शिशुम्।५०।

शरन्मध्याह्नमार्त्तण्डप्रभामोचकलोचनम्।
शरत्पार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम्।५१।

कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितमन्मथम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टं पुष्टं श्रीयुक्तविग्रहम्।५२।

सस्मितं मुरलीहस्तं सुप्रशस्तं सुमङ्गलम् ।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम्।५३।

वीक्षितं गोपिकाभिश्च वेष्टिताभिस्समन्ततः।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम्। ५४।

अनुवाद- (४४-५४)
• मुने ! वह वृन्दावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है। वहाँ सैकड़ो शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। स्वर्ण निर्मित लक्ष्य कोटि के मनोहर आश्रम हैं।४४-४५।

• जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यन्त दीप्तिमान एवं श्रीसम्पन्न दिखाई देता है। उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है जो अकेला ही सौ मन्दिरों से संयुक्त है। वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है।४६।

• उस आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभ मणि से हुआ है। इसलिए वह उत्तम ज्योति पुञ्ज से जाज्वल्यमान रहते हैं।

उन भवनों में जो सीढ़ियाँ हैं वे दिव्य हीरे के सारतत्व से बनी हुई है। उनसे उन भवनों का सौन्दर्य बहुत बढ़ गया है।४७।

• मणीन्द्रसार से निर्मित वहाँ के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं। नाना प्रकार के चित्र -विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली भाँति सुसज्जित हैं।४८।

• उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यन्त उद्भासित होता है। वह बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित है।४९।

• तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अंककान्ति नवीन मेघमाला के समान श्याम है वे किशोर अवस्था के बालक हैं। ५०।

• उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।५१।

• उनका मुखमण्डल शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा की शोभा को ढ़क देता है। उनका सौन्दर्य कोटि कामदेव को लावण्य लीला को तिरस्कृत कर रहा है। उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ो चन्द्रमाओं की प्रभा से सेवित है।५२।

• उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपांगनाऐं उन्हें सदा सादर निहारती रहती हैं।५३।

• वे गोपांगनाऐं भी सुस्थिर यौवन से युक्त मन्द मुस्कान से सुशोभित तथा उत्तम रत्न के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं।५४।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक -५२-५३ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं। अथवा जानते ही नहीं हैं ]

भूषिताभिश्च सद्रत्ननिर्मितैर्भूषणैः परम्।
एवंरूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः।६१॥

सततं ध्येयमस्माकं परमात्मानमीश्वरम्।।
अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम्।६२।।

स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम्।।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च।६३।।

सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वसिद्धिकरं प्रदम्।।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम्।६४।

गोपवेषश्च गोपालैः पार्षदैः परिवेष्टितः।।
परिपूर्णतमः श्रीमान् श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः।६५।

अनुवाद -६१-६५-
• मुने ! वैष्णवजन उन निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं। वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है।६१-६२।

• वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान हैं। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ,सर्वस्वरुप है।६३।।

• सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा सम्पूर्ण सिद्धियों को हाथ में देने वाले हैं। वे आदि पुरुष भगवान स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं।६४।

•उनकी वेशभूषा भी ग्वालों (अहीरों) के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों (गोपों) से घिरे रहते हैं। उन परिपूर्णतम भगवान को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे सदा श्रीजी (श्रीराधा) के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं।६५।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोकों (६५) की बात भी नहीं बाताना चाहतें हैं।]

इसके अलावा ऋग्वेद मण्डल (१) के सूक्त- (१५४) की ऋचा (६) में भी गोलोक का वर्णन मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि- गोलोक में भूरिश्रृंगा गायें रहती हैं। इसीलिए उस परमधाम को गोलोक अर्थात्  गायों का लोक कहा जाता है।

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
पदों के अर्थ व अन्वय:-
जिसमें "पदों का अर्थ है:-(यत्र)= जहाँ (अयासः)= प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)= स्वर्ण युक्त सींगों वाली  (गावः)= गायें हैं (ता)= उन ।(वास्तूनि)= स्थानों को (वाम्)= तुम को  (गमध्यै)= जाने को लिए (उश्मसि)= इच्छा करते हो।  (उरुगायस्य)= बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)= सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का (परमम्)= उत्कृष्ट (पदम्)= स्थान  (भूरिः)= अत्यन्त (अव भाति) =उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्)= उसको (अत्राह)= यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६।

अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि श्रीकृष्ण का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त  सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु (श्रीकृष्ण) वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यही स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं। क्योंकि इस सम्बन्ध में ऐसा ही लिखा गया है कि -
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
(ऋग्वेद १/२२/१८)
इस ऋचा के पद-भेद से स्पष्ट होता है कि -
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को  (धारयन्)= धारण करता हुआ ।  (गोपाः)= गोपालक रूप, (विष्णुः)= संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि)= क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही  (धर्माणि)= धर्मों को ।18॥

अर्थात् यह बात वेदों से भी सुनिश्चित है कि - परमेश्वर श्रीकृष्ण का सनातन निवास गोलोक है, जहाँ वे गोप-वेष में अपनी गायों तथा गोपों के साथ रहते हैं और गोप-वेष में ही रहकर धर्म की स्थापना बारम्बार करते हैं।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में ऋग्वेद की ऋचा १/२२/१८ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं।]

पुराणों में वर्णन है कि गोलोक सुरभि आदि गायों का भी लोक है। भागवत पुराण में भी दशम स्कन्ध  के सत्ताईसवें अध्याय में गोवर्द्धन पर्वत के पूजन प्रकरण में गोलोक से सुरभि गाय के पृथ्वी पर आने का वर्णन है।

श्रीशुक उवाच -
        ( अनुष्टुप् वार्णिक छन्द )
गोवर्धने धृते शैले आसाराद् रक्षिते व्रजे ।
गोलोकादाव्रजत् कृष्णं सुरभिः शक्र एव च॥१॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- हे परीक्षित् ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण कर मूसलाधार वर्षा से व्रज की रक्षा की तब गोलोक धाम से सुरभि गाय तथा स्वर्ग से इन्द्र बधाई देने के लिए आये।१।

इस प्रकार से यह अध्याय- (दो) भगवान श्रीकृष्ण का सनातन स्वरूप और उनके गोलोक धाम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय -(३) में जानकारी दी गई कि- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई परम शक्ति या परमेश्वर नहीं है।

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अध्याय तृतीय- (३)  

श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।

इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य परमेश्वर श्रीकृष्ण की परंप्रभुता को बताना है कि श्रीकृष्ण ही एकमात्र परंप्रभु या परमेश्वर हैं।

श्रीकृष्ण ही एकमात्र परंप्रभु या परमेश्वर है। इस बात की पुष्टि सर्वप्रथम ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (३०) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है।
जिसमें नारायण मुनि नारद जी को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराटविष्णु, छूद्र विष्णु इत्यादि दैवीय सत्ताऐं श्रीकृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं - जैसा कि निम्नलिखित श्लोकों में दर्शाया गया है।

"चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम्।।६।
 
यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।। ७।  
   
सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः ।।८।

गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किञ्चन स्फुटम्।
न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्ममुख्यम् ।।९।


अनुवाद -
• जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर किसकी सामर्थ्य है ? हे नारद ! तुम भी श्रीहरि के चरणारविन्द का अत्यन्त आदर पूर्वक चिन्तन करो।६।

• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष (गर्भोदकशायी विष्णु) भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।

•सहस्र शिरो वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण अथवा स्थापित करते है। वे भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्रीकृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।

• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में वेद और पुराणों में भी बहुत कुछ स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं है। श्रीकृष्ण की महिमा बताने में ब्रह्मा आदि देवता भी समर्थ नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का ही मुख्यरुप से भजन करो।९।
           
भगवान श्रीकृष्ण को सर्वेश्वर एवं ऐश्वर्यशाली होने की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- २१ के श्लोक संख्या- (४३) से भी होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ।।४३।
अनुवाद -
• वह परमेश्वर  सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही उस परम- सत्ता के प्रतिनिधि हैं (जिसका न कोई आदि है और नाहीं अन्त है)। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए ।४३।

और ऐसा ही वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या (१७) से (१८)और (१९) में भी मिलता है -

"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम्।।१७।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम्।।१८।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम्।।१९।

अनुवाद:-
• द्विभुजधारी, किशोरवय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है; वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।

परम् ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनिगणों के साथ करते हैं।१८।

• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षीरूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा मुस्कान और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।

उपर्युक्त श्लोकों के अतिरिक्त ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६७) के श्लोक संख्या - (४९) से भी कृष्ण की सर्वोपरिता स्वत: सिद्ध होती है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं राधा से कहते हैं कि-

"आधारश्चाहमाधेयं कार्य च कारणं विना ।
अये सर्वाणि द्रव्याणि नश्वराणि च सुन्दरि।४९।

अनुवाद-  हे राधे !  मैं आधार और आधेय ,कारण और कार्य दोंनो ही रूपों में हूँ । सभी द्रव्य परिवर्तन शील होने से नाशवान है। श्रीकृष्ण सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति हैं, वे इसी सत्य को राधा जी से कहते हैं।"

▪️इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-( ११ ) के श्लोक संख्या- (१६) में भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का तुलनात्मक वर्णन मिलता है जो "शौनक और सूत संवाद के रूप में  है। जिसमें सूत जी शौनक जी कहते है कि-

"नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः।
न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।।१६।
अनुवाद:-
गङ्गा के समान कोई तीर्थ नहीं है। श्रीकृष्ण से बड़ा कोई देव अथवा ईश्वर नहीं है। और शंकर (शिव) से बड़ा कोई वैष्णव नहीं और पृथ्वी से बढ़कर कोई सहनशील इस भू-मण्डल में नहीं है।१६।           
  
▪️इसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण -श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (6) के श्लोक संख्या- (४२- ४३- ४४ -४५-४६ -४७) और (४८) में अपनी विभूतियों के विषय में स्वयं गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक में पधारे देवताओं से कहते हैं कि-

"देवाः कालस्य कालोऽहं विधाता धातुरेव च।
संहारकर्तुः संहर्ता पातुः पाता परात्परः।।४२।

"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
त्वं विश्वसृट् सृष्टिहेतोः पाता धर्मस्य रक्षणात्।। ४३।

"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
स्वकर्मफलदाताऽहं कर्मनिर्मूलकारकः।।४४।

"अहं यान्संहरिष्यामि कस्तेषामपि रक्षिता ।
यानहं पालयिष्यामि तेषां हन्ता न कोऽपि वा। ४५।

"सर्वेषामपि संहर्ता स्रष्टा पाताऽहमेव च ।
नाहं शक्तश्च भक्तानां संहारे नित्यदेहिनाम् ।।४६।

"भक्ता ममानुगा नित्यं मत्पादार्चनतत्पराः।
अहं भक्तान्तिके शाश्वत्तेषां रक्षणहेतव ।४७।

"सर्वे नश्यन्ति ब्रह्माण्डानां प्रभवन्ति पुनःपुनः।
न मे भक्ताः प्रणश्यन्ति निःशंकाश्च निरापदः।४८।

अनुवाद:-
• हे देवो ! मैं काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ। संहारकारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक मैं ही परात्पर परमेश्वर हूँ। ४२।

• और मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इसलिए वे विश्व- स्रष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं। ४३।

• ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ। मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ।४४।

• और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ; उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ; उसका विनाश करने वाला कोई नहीं है ।४५।
• मूलत: मैं ही सबका सर्जक ,पालक और संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ।४६।

• भक्त मेरे अनुयायी (मेरे पीछे-पीछे चलने वाले) हैं; वे सदैव मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं। इसलिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ।४७।

• सभी ब्रह्माण्ड नष्ट होते और पुन: पुन: बनते हैं। परन्तु मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते वे सदैव नि:शंक (डर और शंका रहित) और सभी आपत्तियों से परे रहते हैं। और मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ क्योंकि भक्त मेरे अनुयायी हैं।४८।
                      
▪️ब्रह्मवैवर्तपुराण के समान ही भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ इसी प्रकार की बातें श्रीमद्भागवत पुराण के नवम-स्कन्ध के चतुर्थ-अध्याय-श्लोक संख्या-(६३-६४) में भी लिखी गई हैं कि- सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करने वाले परमेश्वर केवल अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-

"अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज।    साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।६३।
                        
"नाहं आत्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना। श्रियंचात्यन्तिकीं ब्रह्मन् ! येषां गति: अहं परा।६४।
अनुवाद-
• मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उन भक्तों को प्रिय हूँ।६३।

•ब्राह्मण ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ। इसलिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न ही अपनी अर्धांगिनी राधा को।६४।
                 
▪️इसी प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय-(२१) के श्लोक संख्या -(४१ और ४२) में लिखा गया है कि -

स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम्। भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम्।४१।

ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम्।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम्।४२।

अनुवाद-
• स्थिर यौवन युक्त चारों तरफ आभूषणों से सुसज्जित वे श्रीकृष्ण श्रीराधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं।४१।

• ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवों द्वारा निरन्तर पूजित, वन्दित और जिनकी स्तुति की गयी हो; वे राधा जी के प्रिय श्रीकृष्ण जिनकी अवस्था किशोर है। जो शान्त स्वरूप और परात्पर ब्रह्म हैं।४२।

▪️इसके अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता उस समय सिद्ध होती है। जब भगवान श्रीकृष्ण एक समय राधा जी को अपने विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताईं थीं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त-पुराण के श्री कृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय -(६६) के श्लोक संख्या -(५० से ५९) तक के श्लोकों में मिलता है।
जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं कि

"आविर्भावाधिकाः कुत्र कुत्रचिन्न्यूनमेव च।
ममांशाः केऽपि देवाश्च केचिद्देवाःकलास्तथा। ५०।

केचित्कलाः कलांशांशास्तदंशांशाश्च केचन ।
मदंशा प्रकृतिः सूक्ष्मा साच मूर्त्याच पञ्चधा।५१।

सरस्वती च कमला दुर्गा त्वं चापि वेदसूः।
सर्वे देवाः प्राकृतिका यावन्तो मूर्तिधारिणः।५२।

अहमात्मा नित्यदेही भक्तध्यानानुरोधतः ।
ये ये प्रकृतिका राधे ते नष्टाः प्राकृते लये।५३।

अहमेवाऽऽसमेवाग्रे पश्चादप्यहमेव च।
यथाऽहं च तथा त्वं च यथा धावल्यदुग्धयोः।५४‌।

भेदः कदाऽपि न भवेन्निश्चितं च तथाऽऽवयोः।
अहं महान्विराट् सृष्टौ विश्वानि यस्य लोमसु। ५५।

अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।।

अयं विष्णोर्लोमकूपे वासो मे चाञ्शतः सति ।
तस्य स्त्री त्वं च बृहती स्वाञ्शेन सुभगा तथा । ५७।

तस्य विश्वे च प्रत्येकं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
ब्रह्मविष्णुशिवा अंशाश्चान्ये चापि च मत्कलाः ।५८।

मत्कलांशांशकलया सर्वे देवि चराचराः।
वैकुण्ठे त्वं महालक्ष्मीरहं तत्र चतुर्भुजः।५९।।

अनुवाद -
• कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में। कुछ देवता मेरे अंश हैं, कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति  सूक्ष्मरूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियाँ हैं ।५०-५१।

• प्रधान मूर्ति तुम राधा, वेदमाता गायत्री, दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जितने भी मूर्तिधारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं उन सबका आत्मा हूँ।५२।।

• और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ। हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देहधारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के समय नष्ट हो जाते हैं।

• सबसे पहले मैं वही था और सबके अन्त में भी मैं ही रहुँगा। हे राधे ! जिस प्रकार मैं हूँ ; उसी प्रकार तुम भी हो ! जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता (सफेदी) में भेद नहीं हैं।५४।

• प्राकृतिक सृष्टि में मैं (स्वराज विष्णु) ही वह महान विराट (गर्भोदकशायी विष्णु) हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है।५५।

• वह महाविराट् ही मेरा (सोलहवां) अँश है और तुम (राधा) अपने (सोलहवें अंश) से "महाविराट लक्ष्मी" के रुप में उसकी पत्नी (कामिनी) भी हो। जो समिष्टी (समूह) में है वही व्यष्टि (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह छुद्र विराट् विष्णु भी हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।५५।

• छुद्र विराट् विष्णु के रोमकूपों में मेरा आंशिक (एक वंश) से निवास है। तुम्हीं अपने (एक) अंश से वहाँ (लक्ष्मी) रूप से उसकी पत्नी हो।५६।।

• उस विराट विष्णु के रोमकूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवता मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।

• हे देवि ! मेरे कला और अंश के द्वारा सम्पूर्ण स्थावर- जंगम (चराचर) जगत में विद्यमान है। वैकुण्ठ में तुम अपने अंश से महालक्ष्मी और मैं चतुर्भुज विष्णु रूप में हूँ।५९।  

▪️इन सबके अतिरिक्त गोपेश्वर श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का पता उस समय भी चलता है, जब भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में सृष्टि-सर्जन का कार्य करते हैं। उस समय जो-जो देवता या श्रीकृष्ण की अंशभूत शक्तियाँ, उनके  जिस-जिस भाग व अंश से उत्पन्न होते हैं, वे सभी प्रलय काल में उसी क्रम से श्रीकृष्ण के उसी भाग और अंश में विलीन हो जाते हैं।
       
इस बात की पुष्टि-ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(३४) के श्लोक संख्या-(५७) (५- ५९) और (६०) से होती है। जो राधा-कृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं -

"चक्षुर्निमीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः।
प्रलये प्राकृताः सर्वे देवाद्याश्च चराचराः।५७।।

"लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः।५८।

"रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः।
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने।५९।

"ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः।
तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।६०।

"तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्व शक्तयः।६१।

सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता।
नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च।६२।

श्रीकृष्णांशश्च तद्बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः।
पद्मांशभूता पद्मायां सा राधायां च सुव्रते।६३।

गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वा वै देवयोषितः।
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु सा स्थिता ।६४।

सावित्री च सरस्वत्यां वेदशास्त्राणि यानि च ।
स्थिता वाणी च जिह्वायां तस्यैव परमात्मनः।६५।

गोलोकस्थस्य गोपाश्च विलीनास्तस्य लोमसु।
तत्प्राणेषु च सर्वेषां प्राणा वाता हुताशनः।६६।

अनुवाद:- (५७ - ६६)
• उस परम्-ब्रह्म परमात्मा के नेत्र -निमीलन (आँखें बन्द करने पर) प्राकृतिक प्रलय हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण चराचर जगत के प्राणी तथा देवादि गण पहले  ब्रह्मा में विलय होते या समा जाते हैं।५७।

•और ब्रह्मा श्रीकृष्ण के अंश रूप क्षुद्रविष्णु के नाभि- कमल में विलय हो जाते हैं। और क्षुद्र-विष्णु भी विराट-विष्णु में और विराट-विष्णु सर्वोच्चत्तम व परिपूर्णत्तम सत्ता स्वराट्-विष्णु (श्रीकृष्ण) में विलय हो जाते हैं। अर्थात्- इसी क्रम में क्षीरोदकशायी विष्णु-नारायण और वैकुण्ठ निवासी चतुर्भुज विष्णु  गोपेश्वर श्रीकृष्ण के वामपार्श्व (बाई बगल) में समा जाते हैं।५८।

•  रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं।५९।

• और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा शिव उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।६०।

• सम्पूर्ण शक्तियाँ विष्णु माया दुर्गा में तिरोहित हो जाती है।६१।

• विष्णु माया दुर्गा भगवान श्रीकृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती है, क्योंकि वे उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री की देवी है। नारायण के अंश स्वामि कार्तिकेय उनके वक्षःस्थल में लीन हो जाते हैं।६२।

• सुव्रते ! गणों के स्वामी देवेश्वर गणेश को भगवान श्रीकृष्ण का अंश माना गया है। वे उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी की अंशभूता देवियाँ लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी श्रीराधा में लीन हो जाती हैं।६३।

• गोपियाँ तथा सम्पूर्ण देवपत्नियाँ भी श्रीराधा में ही लीन हो जाती हैं। भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं।६४।

• सावित्री, वेद एवं सम्पूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं। और सरस्वती परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती है।६५।

• गोलोक के सम्पूर्ण गोप भगवान श्रीकृष्ण के रोमकूपों लीन हो जाते हैं। और उन प्रभु के प्राणों में सम्पूर्ण प्राणियों की प्राण स्वरूप वायु का तथा उनकी जठराग्नि में समस्त अग्नियों का विलय हो जाता है।६६।

इसी क्रम में श्रीराम तथा उनके चारो भाइयों सहित सीताजी को भी श्रीकृष्ण के विग्रह में विलीन हो जाने की पुष्टि- गर्गसंहिता के गोलक खण्ड के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (६-७),और (८) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"तदैव चागतः साक्षाद्‌रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः॥६॥

*दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे।
असंख्यवानरेन्द्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने॥७॥

"लक्षध्वजे लक्षहये शातकौम्भे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह॥८॥

अनुवाद - ६-८ • वे पूर्ण स्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ (गोलोक) में पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में सीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे।५-६।
• उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था उस पर निरन्तर चम्बर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानरयूथपति उनकी रक्षा के कार्यों में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी। उसपर लाख ध्वजाऐं फहर रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ स्वर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वह भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में विलीन हो गए।७-८।

अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के आदि (प्रारम्भ) और अन्त भी हैं। और यहीं श्रीकृष्ण अपने परात्पर स्वरूप में अनन्त भी हैं। क्योंकि सृष्टि काल में वे ही प्रभु अपने विग्रह (शरीर) से जिस तरह से सृष्टि का निर्माण करते हैं, और समय के अनुरूप वे ही प्रभु पुन: प्रलय काल में सम्पूर्ण सृष्टि का अपने विग्रह (शरीर) में विलय भी उसी तरह से करते हैं।
जैसे मकड़ी अपने शरीर की आन्तरिक रेशम ग्रन्थियों से  जाले का निर्माण करती है। और फिर कुछ समय पश्चात अपनी इच्छा अनुसार वही मकड़ी उस जाले को निगल कर अपने शरीर में पुनः समेट लेती है।
यथा लोके प्रसिद्धम् - ऊर्णनाभिर्लूताकीटः किञ्चित्कारणान्तरमनपेक्ष्य स्वयमेव सृजते स्वशरीराव्यतिरिक्तानेव तन्तून्बहिप्रसारयति पुनस्तानेव गृह्यते च गृह्णाति स्वात्मभावमेवापादयति।
(मुण्डकोपनिषद-1.1.7।।)
अनुवाद:-
ऊर्णनाभि (मकड़ी) किसी अन्य उपकरण की अपेक्षा ( इच्छा) न कर स्वयं ही अपने शरीर के अभिन्न तन्तुओं (धागों) को रचती अर्थात उन्हें बाहर फैलाती है। और फिर आवश्यकता समाप्त होने पर उसे ग्रहीत (घरी) भी कर लेती है। यानि अपने शरीर में समाविष्ट कर लेती है। वैसे ही वह परंब्रह्म संसार का निर्माण और विनाश करता है। यही
परमात्मा श्रीकृष्ण का शाश्वत स्वरूप है जो साकार और निराकार के साथ-साथ आदि, अन्त और अनन्त तथा सनातन भी है। वे ही सनातन भगवान श्रीकृष्ण- सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, और संहारकर्ता भी है।

क्योंकि यह सृष्टि-जगत परमात्मा श्रीकृष्ण का ही शाश्वत स्वरूप है। और इन सभी बातों की पुष्टि भगवान शिव ने ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय- (४८) के श्लोक संख्या-(४८) और (४९) में स्वयं कहकर की हैं - जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं-

"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।४८।

परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम्।४९।

अनुवाद:-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।

• केवल त्रिगुणातीत परम- ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो।४९।

पुनः भगवान शिव-ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्डः अध्याय-(१७ के श्लोक संख्या-६३) में कहते हैं -

"भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।
सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानन्तमीश्वरम।६३।     
  
अनुवाद:- केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य है ; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो।६३।
           
इस प्रकार से भगवान शिव और पार्वती संवाद से भी सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण ही परंप्रभु हैं, और उनकी ही आराधना करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव हो सकता है। क्योंकि वास्तव में यदि देखा जाए तो परमेश्वर अर्थात् श्रीकृष्ण अपने आप में सबकुछ है। उनमें परस्पर सभी विरोधी रूप सम-भाव में स्थापित हैं। उनकी परस्पर प्रतिक्रिया स्वरूप विषमता होने पर ही सृष्टि रचना प्रारम्भ होती है। इसलिए वे ही  प्रथम सर्जन कर्ता, हर्ता और भर्ता भी हैं। इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के अध्याय- (३) का यह महत्वपूर्ण श्लोक बारहवाँ दर्शाता है कि-

"निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम्।
सर्वं सर्वेश्वरं सर्वं बीजरूपमनुत्तमम् तस्मै प्रभवे नम:।१२।।

अनुवाद -
जो परमात्मा श्रीकृष्ण कामनाओं से रहित अर्थात (निष्काम) और कामदेव के रूप भी हैं। और जो काम -भाव के कारक उसके जन्म दाता भी हैं। सबके ईश्वर , सबके बीज (मूल) और  सब-कुछ हैं और वे उत्तम से भी उत्तम हैं, उस प्रभु के लिए हम नमस्कार करते हैं।१२।

ध्यान रहे उपर्युक्त श्लोक में "अनुत्तमम्"- विशेषण पद से सामान्य जन भ्रमित न हों क्योंकि उसकी व्याकरण सम्मत. विवेचना इस प्रकार से की गई है -
अनुत्तमम्= न उत्तमोयस्मात् अत्युत्कृष्टे = जिससे उत्तम नहीं है कोई अर्थात् अत्युकृष्ट ( वाचस्पत्यम्कोश ) इसके अलावा अमरकोश में भी अनुत्तमम् शब्द का अर्थ है - "नहीं है उत्तम  जिससे कुछ भी" अर्थात अत्युत्तम। अर्थ हुआ है।

नास्ति उत्तमः उत्कृष्टो यस्मात् सः - यह अर्थ बहुव्रीहि समास के द्वारा निर्धारित होता है।
ऐसे ही मनुस्मृति कार ने भी अनुत्तमम् पद  का एक अर्थ यही किया है।- नहीं है उत्तम जिससे कुछ भी-

‘"इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्।’
(स्रोत - मनुस्मृति अध्याय- (२) श्लोक संख्या-९)
 
अनुवाद:- दान करने वाला मनुष्य इस लोक में कीर्ति और परलोक में उत्तम से भी उत्तम सुख  प्राप्त करता है।९।

इन सबके अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने बारे में बहुत कुछ कहते हैं  और अर्जुन भी श्रीकृष्ण के बारे में बहुत कुछ कहते हैं- जिसे श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद के रूप में जाना जाता है जैसे- श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (१२ और ४२ ) में अर्जुन- श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-

"परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।।

अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म,
सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि रूपों में तत्वज्ञानी परमेश्वर श्रीकृष्ण को ही जानते हैं।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२।।

अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में है।४२।

परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को बताते हैं कि-

"अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।

"पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।

"गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। १८।

अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं ही हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।१६-१७-१८।
              
अतः उपर्क्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि  भगवान श्री कृष्ण ही परम प्रभु हैं, उनके अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।

✳️ श्रीकृष्ण की भगवत्ता लोक प्रमाणित है- कृष्ण की भगवत्ता को निरूपित करने के लिए हम भक्त-भक्ति और  भगवान की सम्पूरकता पर भी अपेक्षित विमर्श करते हैं।
"भक्त-भक्ति" और भगवान तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व है।
भक्त का आध्यात्मिक अभिधेयार्थ (मूल- अर्थ) निष्काम और समर्पण भाव से सेवा करने वाला है।
क्योंकि संस्कृत वैदिक भाषा में भज् धातु का प्रमुख अर्थ- सेवा करना ही होता है।
इसी भज्- प्रत्य धातु से क्त प्रत्यय करने पर भक्त शब्द बनता है। अतः भक्त और भक्ति एक दूसरे के सम्पूरक हैं।

अब प्रश्न उठता है कि इस संसार में सेवा किसकी की जाए ? और किस भावना से की जाए ? यह सब कारण ही भक्ति के मानकोंं को निर्धारित करते हैं। क्योंकि भक्ति सांसारिक सेवा से पूर्णत: भिन्न सेवा है और दोनों का वेग समान होते हुए भी धारा विपरीत ही है। जिसमें सेवा भक्ति की प्रथम सीढ़ी है। क्योंकि जब सेवा ईश्वर परक अथवा भगवान के प्रति आध्यात्मिक भावना युक्त हो जाती है तब वह भक्ति कहलाती है।
भगवान-  भक्त- और भक्ति इन सभी के मूल में भज् धातु- ही विद्यमान है। जैसे - भज्- सेवायां + (घ) प्रत्यय करने पर = भग शब्द बनता है। और भग से सम्पन्न व्यक्ति भगवान पद का अधिकारी है।
यदि इसको व्याकरणिक दृष्टि से देखा जाए तो
भग शब्द  में + वतुप् प्रत्यय करने पर = भगवान्‌  शब्द बनता है। अतः भक्त और भगवान में सन्निकट का सम्बन्ध है क्योंकि भज् धातु में + (क्त) प्रत्यय करने पर भक्त  शब्द (पद) बनता है। और भगवत् शब्द का ही प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप भगवान् है।

अत: मूल शब्द भगवत् ही व्यवहारिक रूप से भगवन् अथवा भगवान् के रूप मेंं सम्बोधित किया जाता है। और जो भगवद् भक्ति में तल्लीन है वही भागवत है।

✳️ ज्ञात हो - भगवत् शब्द उस परमेश्वर का गुणवाची विशेषण है। जिस परमेश्वर में सभी प्रमुख गुण समाहित होते हैं। जो प्रारम्भ और अन्त की सीमाओं से भी परे है। वही ईश्वरीय सत्ता साकार होने पर भगवान विशेषण से अभिहित होती है। 

शब्दकोश गन्थों तथा व्याकरण में भग शब्द के निम्नलिखित प्रमुख अर्थ वर्णित हैं-
१-धन २- ज्ञान. ३- बल- ४-महात्म्य ( बड़प्पन) और ५- सौन्दर्य (कान्ति) अथवा श्री जो सभी भगवान के ही विशेषण हैं। 
भगवान की निष्काम और समर्पण भाव से सायुज्य प्राप्त करने हेतु जो व्यक्ति सेवा करता है। वही सच्चे अर्थ में भक्त अथवा भागवत कहलाता है जो सदैव निष्काम अर्थात् कामना एवं वासना से रहित, निर्लिप्त होता है।

दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति इन सभी भगवद्गुणों  को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है । तब वह भक्त कहलाता है। शास्त्रों में भी भगवान शब्द की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की गयी है।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।७४
(विष्णुपुराण /षष्टांशः/अध्यायः ५)

"भगवान छः अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी है- अनन्त शक्ति,  अनन्तज्ञान,  अनन्तसौंदर्य,  कीर्ति, ऐश्वर्य और वैराग्य"।
(भक्त अन्त:करण शुद्ध होने पर प्रभु के इन सभी स्वरूपों का अनुभव करता है।)

शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्दयते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
अनुवाद व अर्थ-
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित "ब्रह्म" शब्द से भी जाना जाता है, जो अनन्त वृद्धि वाला है। वह सब कारणों का भी कारण है।  इस सम्पूर्ण जगत व ब्रह्माण्डों के सर्वेसर्वा होने के कारण  वह भगवान परब्रह्म कहलाते हैं।

एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥
श्रीविष्णु पुराण-, ६/५/७६
हे मैत्रेय यह महान शब्द भगवान परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेव (श्रीकृष्ण) का ही वाचक है। किसी अन्य का नहीं।

✳️ ज्ञात हो कि - वही परंब्रह्म अपने एक रूप में साकार होकर लीला हेतु शरीर धारण करता है। अर्थात संसार में अवतार लेता है।
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेदों में ही प्रमाण रूप में तथ्य आते हैं। जैसे- यजुर्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस ऋचा में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है। अर्थात् वह परमात्मा अजन्मा होकर भी लीला हेतु शरीर धारण करता है।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते। तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भवनानि विश्वा ।। (यजुर्वेद ३१ / १९)

भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।
अर्थात प्रजाओं के पालक भगवान गर्भ के भीतर भी विचरते हैं. अर्थात वे तो स्वयं जन्मरहित हैं, किन्तु़ अनेक प्रकार से अवतरित होकर जन्म ग्रहण करते रहते हैं।

विद्वान पुरुष ही उनके उद्भव स्थान को देखते एवं समझते हैं। जिस समय वह आविर्भूत (अवतरित) होते हैं, उस समय सम्पूर्ण लोक उन्हीं के आधार पर अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता बनकर लोकों को चलाते रहते हैं।

पदों के अन्वय मूलक अर्थ-
जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर है। वह  ( गर्भे ) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता जन्म लेता (तस्य) उस प्रजापति के जिस (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) निश्चय (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं ॥१९ ॥

इस प्रकार से परंप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण की सार्वभौम सत्ता व उनकी सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय- (तृतीय) समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (चतुर्थ) में जानकारी दी गई कि -
गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ ?

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अध्याय -४ 👇🏽

अध्याय - चतुर्थ (४)

    गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।


यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्माजी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा भी कहा जाता है। किन्तु प्रश्न यह है कि-  सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना है ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियाँ भी हैं ? क्या  ब्रह्माजी के चार वर्णों के अलावा कोई पाँचवाँ वर्ण भी इस भू-मण्डल पर है ? इन अनेक प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के गूढ़ रहस्यों को जान पाना भी सम्भव नहीं है।

तो इन समग्र प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त अर्थात् - परिवर्तन मयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का वर्णन करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना का वर्णन करते हैं जो  ब्रह्माजी द्वारा की गई है। यहीं कारण है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है। इस पुराण में सृष्टि की प्रारम्भिक उत्पत्ति के बारे में ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के निम्नलिखित श्लोकों में लिखा गया है कि-

"दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम्।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ।।१।

आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः।३।

आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः।४।

ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः।५।

आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः।६।

शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः।।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः।७।

आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः।। १८।

आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः।३०।

शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः।३१।

अनुवाद- १- से ३१ तक-
• प्रलय काल के उपरान्त भगवान ने देखा की सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव जन्तु नहीं है। १।

• तब जगत को इस शून्य अवस्था में देख मन ही मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एक मात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि रचना आरम्भ की।२-३।

• सबसे पहले उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणपार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्व, अहंकार, पाँच तन्मात्राऐं तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, और शब्द-ये पाँच विषय क्रमशः प्रकट हुए।४-५।

• तदनन्तर श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ जिनकी अंग-कान्ति श्याम थी वे नित्य तरुण पीताम्बर धारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनकी चार भुजाऐं थीं, उन्होंने अपने हाथ में क्रमशः शञ्ख, चक्र, गदा, और पद्म धारण कर रखे थे।६-७।

• तत्पश्चात परमात्मा श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंककान्ति शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल एवं उज्जवल थी। उनके पाँच मुख थे और दिशाऐं ही उनके लिए वस्त्र थीं अर्थात् वे निर्वस्त्र थे।१८।

• तत्पश्चात श्री कृष्ण के नाभि कमल से बड़े- बूढ़े महातपस्वी ब्रह्माजी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु लिया था। उनके वस्त्र, दाँत और केश सभी श्वेत (सफेद) थे। और उनके चार मुख थे। ३०-३१।
  
✳️ इन उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ है कि सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भिक चरण में भगवान श्रीकृष्ण के लोक - गोलोक में परमप्रभु श्रीकृष्ण  द्वारा नारायण, शिव और ब्रह्माजी की भी उत्पत्ति हुई है। जिसमें ब्रह्माजी, श्रीकृष्ण के आदेश पर अन्य लोकों में अपनी सामर्थ्य से सृष्टि करते हैं। इसलिए ब्रह्माजी को द्वितीयक सृष्टि- कर्ता कहा जाता है। किन्तु मूल सृष्टि परमात्मा श्रीकृष्ण (स्वराट-विष्णु) के द्वारा ही होती है। इसीलिए श्रीकृष्ण को प्रथम सृष्टि कर्ता कहा जाता है। क्योंकि सब कुछ उन्हीं से उत्पन्न होता है और अन्त में उन्हीं में विलीन हो जाता है।
                 
फिर सृष्टि- सर्जन के उसी क्रम में ब्रह्मा, शिव नारायण आदि की उत्पत्ति के समय ही गोपों (आभीरों) की भी उत्पत्ति हुई। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(5) के श्लोक संख्या- २५, (४० और ४२) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -

"आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।
धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे।२५।

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद -
गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के वाम-पार्श्व से वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के ही समान किशोर-वय थी।२५।
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप-गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

इसी प्रकार से गोपों की उत्पत्ति के बारे में श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध अध्याय-(२) के श्लोक- ६०-६१ में लिखा गया है कि -
अथगोलोकनाथस्य लोमनां विवरतो मुने।
भूताश्चासंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः।। ६०

रुपेण च गुणेनैव बलेन विक्रमेण च।
प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे भभूवः पार्षदा विभोः।। ६१

अनुवाद- ६०-६१
हे मुने ! गोलोकनाथ श्रीकृष्ण के रोमकूपों (कोशिकाओं) से असंख्य गोपगण प्रकट हुए, जो वय, तेज, रुप, गुण, बल तथा पराक्रम में उन्हीं के समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्ण के प्राणों के समान प्रिय पार्षद बन गये।

✳️ ज्ञात हो कि- गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप इसलिए थे, क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्रीराधा की सूक्ष्मतम इकाई (कोशिका) अर्थात उनके क्लोन से हुई हैं। इसलिए सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूप उत्पन्न हुईं।
इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि- समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समरूप होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है।
और विज्ञान के इस समरूपण सिद्धान्त से परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा ने पूर्व काल में ही अपनी सूक्ष्मतम इकाइयों से समरूपण विधि द्वारा गोलोक में गोप-गोपियों की उत्पत्ति कीं थीं।

इस प्रकार से सिद्ध होता है कि गोपों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से तथा गोपियों की उत्पत्ति श्रीराधा से हुई है। इस बात को प्रमुख देवों सहित परमात्मा श्रीकृष्ण ने भी स्वीकार किया है। जैसे-
गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में भगवान शिव ने पूर्व काल में पार्वती को भी ऐसा ही दृष्टान्त सुनाया था। जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया गया। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक संख्या- (४३) में मिलता है। जिसमें शिवजी पार्वती से कहते हैं कि-

"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।
अनुवाद -• श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोमकूपों से सम्पूर्ण गोपों (आभीरों) का प्रादुर्भाव हुआ है।

▪️इस प्रकार से देखा जाए तो शिवजी के कथन से भी यह सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से प्रारम्भिक रूप से गोलोक में ही हुई है।
▪️इसी तरह से गोप-गोपियों की उत्पत्ति को लेकर परम प्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित कर देती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश से उत्पन्न गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक संख्या -(६२) में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।
अनुवाद:-
हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

और ऐसी ही बात भगवान श्रीकृष्ण उस समय भी कहते हैं- जब वे स्वयं भूतल पर गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरित होते हैं।, और कुछ समय पश्चात कंस का वध करके मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त करते हैं। और इसके कुछ समय पश्चात उग्रसेन भगवान श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श करते हैं।। उसी प्रसंग के क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि- "सभी यादव मेरे अंश हैं"। श्रीकृष्ण के इस कथन की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजितखण्ड के अध्याय (२) के श्लोक संख्या- (५-६ और- ७) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि-

"सम्यग्व्यवसितं राजन् भवता यादवेश्वर।
यज्ञेन ते जगत्कीर्तिस्त्रिलोक्यां सम्भविष्यति॥५॥

आहूय यादवान्साक्षात्सभां कृत्वथ सर्वतः।
ताम्बूलबीटिकां धृत्वा प्रतिज्ञां कारय प्रभो ॥६॥

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- ५,६,७
• तब श्रीकृष्ण ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी।
• प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाईये कि-
• समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।

▪️ इसके अतिरिक्त गोपों की उत्पत्ति के विषय में कुछ ऐसा ही वर्णन उस समय भी मिलता है, जब समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के एक दुष्ट राजा से यादवों का भयानक युद्ध हुआ। उसी समय श्रीकृष्ण  के पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-( 11 ) के श्लोक संख्या-(२१ और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा-

"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः। गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।
अनुवाद- २१-२२।
नन्दराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक में जो गोपालगण (आभीर) हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियों श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाऐं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्ण को प्राप्त हुईं हैं।
                
▪️इस प्रकार से इन अनेक पौराणिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है प्रथम सृष्टिकर्ता परमेश्वर श्रीकृष्ण ही है। उन्होंने अपनी  प्रथम सृष्टि रचना में नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति की है। जिसमें से भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों को तो अपनी लीला का सहचर बनाकर अपने साथ ही रहने दिया, और जब भी भूमि का भार हरण करने के लिए उन्हें भूतल पर आना होता हैं, तो वे अपने गोपों के साथ ही आते हैं, और भूमि का भार-हरण करके पुनः गोप-गोपियों सहित अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
           
गोलोक में जब भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा, नारायण, शिव तथा देवों की उत्पत्ति कर लेते हैं तब उसके पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्माजी को बुलाकर उनके कर्म- एवं दायित्वों को निश्चित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के अध्याय-(६ ) के श्लोक संख्या-(७१) और-(७२) में कहते हैं-

"मदीयं च तपः कृत्वा दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।
सृष्टिं कुरु महाभाग विधे नानाविधां पराम् ।७१।

इत्युक्त्वा ब्रह्मणे कृष्णो ददौ मालां मनोरमाम्।
जगाम सार्द्धं गोपीभिर्गोपैर्वृन्दावनं वनम् ।७२।

अनुवाद-
• महाभाग विधे ! अर्थात ब्रह्माजी ! तुम सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिए तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो।
• ऐसा कह कर श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी को एक मनोरमा माला दी। फिर गोप- गोपियों के साथ वे नित्य नूतन दिव्य वृन्दावन में चले गए।
(ध्यान रहे गोलोक में भी वृन्दावन है। यहाँ उसी वृन्दावन का वर्णन है )
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण का आदेश पाकर ब्रह्माजी विविध प्रकार की उत्तम सृष्टि रचना का कार्य प्रारम्भ करते हैं।
इसलिए ब्रह्माजी को द्वितीयक सृष्टि रचनाकार भी कहा जाता है, जिसमें ब्रह्माजी अपनी मर्यादा में रहकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। जिसमें वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अनन्त लोकों की रचना करते हुए उनमें जड़, जीव, जगत इत्यादि की सुन्दर रचना करते हैं। उसी क्रम में उन्होंने मानवीय सृष्टि के चातुर्यवर्णों की भी रचना की है। जिसमे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों  की सामाजिक स्थितियाँ बनी है।
      
किन्तु ब्रह्माजी सबसे ऊपर वाले गोलोक और उससे क्रमशः नीचे स्थित शिव लोक और वैकुण्ठ लोक तथा गोप और गोपियों की सृष्टि रचना नहीं करते हैं। यहीं कारण है कि गोपों को ब्रह्माजी की सृष्टि रचना का भाग नहीं माना जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-५ के श्लोक -१२ से १७ में  भी होती है
जो इस प्रकार है-

"ब्राह्मवाराहपाद्माश्च त्रयः कल्पा निरूपिताः।
कल्पत्रये यथा सृष्टिः कथयामि निशामय।१२।

"ब्राह्मे च मेदिनीं सृष्ट्वा स्रष्टा सृष्टिं चकार सः।
मधुकैटभयोश्चैव मेदसा चाज्ञया प्रभोः।१३।

"वाराहे तां समुद्धृत्य लुप्तां मग्नां रसातलात् ।
विष्णोर्वराहरूपस्य द्वारा चातिप्रयत्नतः।१४।

"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे ।
त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना।१५।

'एतत्तु कालसंख्यानमुक्तं सृष्टिनिरूपणे।
किंचिन्निरूपणं सृष्टे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।१६।

"अतः परं किं चकार भगवान्सात्वतांपतिः।
एतान्सृष्ट्वा किं चकार तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ।१७।
  
अनुवाद -( १२ से १७ ) तक-
ब्रह्मकल्प में मधु-कैटभ के मेद (चर्बी) से मेदिनी (पृथ्वी) की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि रचना की थी। फिर वाराहकल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गई थी, तब वाराहरूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि रचना की।
तत्पश्चात पाद्मकल्प में सृष्टि- कर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि- कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी (तीन लोक) हैं  उसकी  रचना की। किन्तु उसके ऊपर जो नित्य तीन लोक (शिवलोक, वैकुण्ठलोक, और उससे भी ऊपर गोलोक है ) उसकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।    
कुल मिलाकर ब्रह्मा जी सभी की सृष्टि करते हैं किन्तु उनकी भी कुछ मर्यादाऐं हैं- जैसे वे सत्य सनातन एवं चिर-स्थाई- वैकुण्ठ लोक, शिवलोक, और सबसे ऊपर गोलोक और उसमें रहने वाले गोप और गोपियों की सृष्टि नहीं करते।

क्योंकि गोप और गोपियों की उत्पत्ति तो भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम-कूपों से उसी समय हो जाती है जिस समय नारायण, शिव और ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। तो ऐसे में ब्रह्माजी, गोपों की उत्पत्ति दुबारा (पुनः) कैसे कर सकते हैं ?
तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- जब गोप, ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है तो स्पष्ट सी बात है कि वे ब्रह्माजी की चातुर्वर्ण्य से भी अलग हुए होगें। तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब गोप ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के भाग नहीं हैं तो इनका वर्ण क्या है ? अर्थात् ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र  इत्यादि में से क्या हैं ? तो इन सभी प्रश्नों का समाधान अध्याय- १०,११ और १२ में किया गया है। वहाँ से इस विषय पर सम्पूर्ण जानकारी मिलेगी।
      इस प्रकार से यह अध्याय इस दुर्लभ जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं जिनसे सर्वप्रथम गोलोक में नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति हुई जो ब्रह्माजी के चातुर्वण्य से अलग हैं।
   अब इसके अगले अध्याय- (५) भगवान श्रीकृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके जन्म इत्यादि के बारे में बताया गया है।

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अध्याय- पञ्चम (५)

भगवान श्रीकृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण।

इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य भगवान श्रीकृष्ण को धराधाम पर गोपों के यहाँ अवतरित होने तथा उनकी प्रमुख लीलाओं की जानकारी देना है।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।
             (श्रीमद्भागवत गीता अध्याय- ४/७)
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- "जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ"।
       
इसी सत्य को चरितार्थ करने के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण अपने गोलोक से धरा-धाम पर गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।     
इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।।२२।

अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
इसी तरह से श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें  स्कन्ध के अध्याय-(६) के श्लोक संख्या -(२३) और (२५) में ब्रह्मा जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि-
अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।। २३।
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पंचविंशाधिकं प्रभो।।२५।       
    
अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत् के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएँ कीं ।२३।
• पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये "एक सौ पचीस वर्ष" बीत गए हैं।२५।
       
▪️इसी तरह से हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के अध्याय- (५५) के श्लोक-१७ में गोपेश्वर श्रीकृष्ण, ब्रह्माजी से पूछा कि- आप मुझे यह बताएं कि मैं किस प्रदेश में कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि में संहार करूँगा ? इस पर ब्रह्माजी श्लोक संख्या- (१८ से २०) में कहा -
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रृणु मे विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।। १८।

यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।

ताश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मननो  महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।।२०।

अनुवाद - सर्वव्यापी नारायण ! आप मेरे इस उपाय को सुनिए, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। हे महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे,जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूँ सुनिए।१८-१९-२०।
▪️इसी तरह से गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की पुष्टि- गर्ग संहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (१४) के श्लोक संख्या- (४१) से होती है। जिसमें त्रेता-युग के रावण का भाई विभीषण जो अमर होकर लंका का राजा द्वापर युग तक जीवित था। उसी समय यादव अपनी विशाल सेना के साथ विश्वजीत युद्ध के लिए निकले थे। उसी समय दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने विभीषण को बताया कि-
असंख्यब्राह्मण्डपतिर्गोलोकेश: परात्पर:।
जातस्तयोर्वधाथार्य यदुवंशे हरि: स्वयंम्।।४१।
यादवेन्द्रो भूरिलीलो द्वारकायां विराजते। ४२/२

अनुवाद - असंख्य ब्रह्माण्डपति परात्पर गोलोकनाथ श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेंद्र बहुत सी लीलाएँ करते हुए इस समय द्वारिका में विराजमान है।४१-४२/२।       
यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के समय मुनि वामदेव ने राजा गुणाकर को भी भगवान श्रीकृष्ण को यादव कुल में उत्पन्न होने की बात बहुत ही अच्छे ढंग से बताया है। जिसका वर्णन गर्ग संहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (२८) के श्लोक संख्या (४५) व (४६) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।।४५।

भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।।४६।

अनुवाद - राजन ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्रीहरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतरने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्रीकृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए सम्पूर्ण जगत को जीतने के निमित्त

अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।४५- ४६।

▪️यादवों के उसी विश्वजित् युद्ध के समय जब श्रीकृष्ण के द्वारा महान बलशाली दैत्यराज शकुनि मारा गया तब उसकी पत्नी मदालसा ने हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से जो कुछ कहा उससे भी सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण गोप जाति के यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे। जिसका वर्णन गर्गसंगीता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (४२) के श्लोक संख्या- (६) और (७) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-

भारावताराय भुवि प्रभो त्वं जातो यदूनां कुल आदिदेव।
ग्रसिष्यसे पासि भवं निधाय गुणैर्न लिप्तोऽसि नमामितुभ्यम्।। ६।
मदात्मजं पालय भीत-भीतममुष्य हस्तं कुरु शीर्षि्ण देव।
भर्त्रा कृते में किल तेऽपराधं क्षमस्व देवेश जगन्निवास।। ७।
  
अनुवाद- (६-७)
प्रभो आदि देव ! आप भूतल का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतरित हुए हैं। आप ही संसार के स्रष्टा एवं पालक है, और प्रलयकाल आनेपर आप ही इसका संहार भी करते हैं। किन्तु आप कभी भी गुणों में लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिए आपके चरणों को प्रणाम करती हूँ। मेरा पुत्र बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिए। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिए। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने जो अपराध किया है उसे क्षमा कीजिए।

▪️इसी तरह से जब सभी देव मिलकर ब्रह्माजी का विवाह अहीर कन्या गायत्री से भगवान् विष्णु के निर्देशन में कराते हैं, तब ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री क्रोध से तिलमिलाकर अहीर कन्या गायत्री सहित देवताओं को शापित करती हैं। उसी समय वहाँ उपस्थित विष्णु को भी सावित्री शाप दे देती हैं। उसी शाप के विधान से भी गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेना पड़ता। इस बात की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या-(१६१) से होती है। जिसमें सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-

यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१६१।

अनुवाद - हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगें। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बनकर लम्बे समय तक इधर-उधर भ्रमण करोगे।१६१।
▪️इसी तरह से बलरामजी को भी यदुकुल में उत्पन्न होने की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के श्लोक संख्या -(१३) और (१४) से होती है। जिसमें बलराम जी स्वयं अपने पार्षदों से कहते हैं कि -
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।। १३
भो वर्म त्वमपि चाविर्भव। हे मुनयः पाणिन्यादयो हे व्यासादयो हे कुमुदादयो हे कोटिशो रुद्रा हे भवानीनाथ हे एकादश रुद्रा हे गन्धर्वा, हे वासुक्यादिनागेन्द्रा, हे निवातकवचा हे वरुण, हे कामधेनो मूम्यां भारतखण्डे यदुकुलेऽवतरन्तं मां यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत।।१४।

अनुवाद - हे हल और मुसल! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूँ, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।
हे कवच ! तुम भी वैसे ही प्रकट हो जाना। हे पाणिनि, व्यास  तथा कुमुद आदि मुनियों ! हे कोटि-कोटि रूद्रों ! गिरिजापति शंकर जी ! ग्यारह रुद्रों ! गन्धर्वों ! वासुकि आदि नागराजों ! निवातकवच आदि दैत्यों ! हे वरूण और कामधेनु! मैं भूमण्डल पर भारतवर्ष में यदुकुल में अवतार लूँगा। तुम सब वहाँ आकर सदा सर्वदा मेरा दर्शन करना।१३-१४।

✳️ अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण  गोप अथवा आभीर जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में हुआ है। किन्तु इस सम्बन्ध में ज्ञात हो कि- यदुवंश - वैष्णव वर्ण के गोपजाति का ही प्रमुख वंश  है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को जब वंश में जन्म लेने की बात कही जाती है तब उनके लिए यदुवंश का नाम लिया जाता है। किन्तु जब भगवान श्रीकृष्ण को जाति में जन्म लेने की बात कही जाती है तो उनके लिए गोपजाति या आभीर (आहिर) जाति का नाम लिया जाता है। इसमें दोनों तरह से बात एक ही है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण को अनेक बार यदुवंश के साथ-साथ गोपजाति में भी जन्म लेने की बात कही गई है। जैसे-
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपजाति में जन्म लेने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है ; और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।

▪️भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल में अवतीर्ण होने की बात गायत्री संग ब्रह्माजी के विवाह के समय तब होती है जब इन्द्र गोप कन्या गायत्री को लेकर ब्रह्माजी से विवाह हेतु यज्ञ स्थल पर ले गए थे। तब सभी गोप अपना मुख्य शस्त्र लकुटि- दण्ड (लाठी- डण्डा) के साथ अपनी कन्या गायत्री को खोजते हुए ब्रह्मा के यज्ञ स्थल में पहुँचे। वहाँ पहुँच कर गायत्री के माता-पिता ने पूछा कि- मेरी कन्या को कौन

यहाँ लाया है ? तब उनकी यह बात सुनकर तथा उनके क्रोध का अन्दाजा लगाकर वहाँ उपस्थित सभी देवता और ऋषि मुनि भयभीत हो गए। तभी वहाँ उपस्थित विष्णु भगवान्  गोपों के सामने उपस्थित हो गए और उस अवसर पर जो कुछ गोपों से कहा उसका वर्णन पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या -(१६) से (२०) में मिलता है। जिसमें भगवान्- विष्णु  यज्ञ-स्थल में सबके समक्ष गोपों से कहते हैं कि -

युष्माभिरनया आभीरकन्याया
तारितो गच्छ ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६ ।   
        
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।   
       
करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।। १८।    

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।।१९।    

न चास्याभविता  दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं  तदा विष्णोः प्रणिपत्य  ययुस्तदा ।।२०।

अनुवाद:- हे आभीरों (गोपों) इस तुम्हारी आभीर कन्या गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की  सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा।१६।
• और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी। उसी समय धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७।
• तब मैं उनके बीच रहूँगा। तुम्हारी सभी पुत्रियाँ मेरे साथ ही रहेंगी।१८।
• तब वहाँ कोई पाप, द्वेष और ईर्ष्या नहीं होगी। गोप (आभीर) लोग भी किसी को भय नहीं देंगे।१९।   
•  इस कार्य (ब्रह्मा से विवाह करने) के फलस्वरूप इस (तुम्हारी पुत्री को) कोई पाप नहीं लगेगा। विष्णु के ये वचन सुनकर वे सभी उन्हें प्रणाम करके वहाँ से चले गए।२०।  
             
किन्तु जाते समय गोपगणों ने भी विष्णु से यह वचन करवाया कि आप निश्चित रूप से गोपकुल में ही जन्म लेंगे। जिसका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक -२१ में है जिसमें गोपगण  भगवान-विष्णु से कहते हैं कि -
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे।
अवतारः कुलेऽस्माकंं  कर्तव्योधर्मसाधनः।। २१।
अनुवाद - हे देव ! यहीं हो। आपने जो वर दिया, वैसा ही हो। आप हमारे कुल में धर्मसाधन के कर्तव्य के लिए अवश्य अवतार लेंगे।२१।
तब विष्णु ने भी गोपों को ऐसा ही वचन दिया। तत्पश्चात सभी गोप प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घर चले गए।
उसी समय अहीर कन्या गायत्री ने ब्रह्माजी की प्रथम पत्नी सावित्री जो विष्णु को यह शाप दे चुकी थी कि- हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर लम्बे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। उस शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- १९३ के श्लोक -(१४) और (१५) में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -
तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥
यत्रयत्र  च वत्स्यंन्ति  मद्वं शप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥

अनुवाद -(१४-१५)
• आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- हे विष्णो ! (श्रीकृष्ण) तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे। और इनकी प्रशंसा विशेषतः देवताओं सहित सभी लोकों में होगी।
•  पुन: गायत्री विष्णु से कहती हैं- मेरे गोप वंश के लोग जहाँ भी रहेंगे वहाँ श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१५।

✳️ ज्ञात हो उपर्युक्त श्लोकों में गायत्री द्वारा जिस विष्णु को सम्बोधित किया जा रहा है वह छूद्र (छोटे) विष्णु हैं जो परमेश्वर श्रीकृष्ण के एक अंश से भूतल पर श्रीकृष्ण का ही प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। ऐसे ही अनन्त ब्रह्माण्ड में अनन्त छूद्र (छोटे) विष्णु हैं जो परमेश्वर श्रीकृष्ण के एक-एक अंश से प्रतिनिधित्व किया करते हैं। अतः गायत्री द्वारा भूलोक पर विष्णु नाम का वास्तविक सम्बोधन परमेश्वर श्रीकृष्ण के लिए ही है।
अतः उपर्युक्त सभी महत्वपूर्ण श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि-  गोपों में श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्ध है और धर्म स्थापना हेतु गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म या अवतरण, वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत गोप जाति (अहीर जाति) के यादव वंश में ही होता है जहाँ उनके रक्त सम्बन्धी हैं। अन्य किसी जाति या वंश में नहीं।
यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण, चाहे गोलोक में हों या भूलोक में हों, वे सदैव गोपवेष में गोपों के ही साथ ही रहते हैं, और सभी लीलाएँ उन्हीं के साथ ही करते हैं। इसीलिए गोपों को श्रीकृष्ण का सहचर (सहगामी) अर्थात् साथ-साथ चलने वाला भी कहा जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोपवेष में गोपों के साथ रहने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय -(३) के श्लोक -(३४) से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने  जन्म से पूर्व योग माया से कहते हैं कि-
मोहहित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत्।
अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवतः।। ३४।

अनुवाद - तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही सम्पूर्ण जगत का उपभोग करोगी। और मैं भी व्रज में गौओं के बीच में रहकर गोपों के समान ही अपना व्यवहार बनाऊँगा।

ये तो रही बात भूलोक की। किन्तु गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक में भी अपने गोपों के साथ सदैव गोपवेष में ही रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय
(२)- के श्लोक -(२१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम्।।२१।

अनुवाद- वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर) भेष में रहते हैं।२१।
अतः इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण चाहे गोलोक में हों या भूलोक, दोनों स्थानों पर वे सदैव गोपवेष में गोपों के साथ ही रहते हैं।

इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- (१००) के श्लोक - (२६) और (४१) में भगवान श्रीकृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि पौण्ड्रक-श्रीकृष्ण के समय होती है। उस युद्ध के मध्य श्रीकृष्ण से पौण्ड्रक कहता है कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।

अनुवाद - ओ यादव ! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहाँ चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूंँ।२६।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक  से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूँ,  प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूँ, तथा सम्पूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ। ४१
                     
इसी प्रकार से एक बार श्रीकृष्ण की तरह-तरह की अद्भुत लीलाओं को देखकर गोपों को संशय होने लगा कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। ये या तो कोई देव हैं या कोई ईश्वरीय शक्ति। और इस रहस्य को श्रीकृष्ण अपने गोपों से गुप्त रखना चाहते थे, ताकि मेरी बाल-लीला बाधित न हो।  इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक- (११) में अपने सजातीय गोपों से कहते हैं कि-
मन्यते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।।११।
       
अनुवाद - आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय (गोप जाति का) भाई बन्धु ही हूँ।
इस प्रकार से यह अध्याय- इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक और भू-लोक  दोनों स्थानों पर सदैव गोपवेष में अपने गोपकुल के गोपों के साथ ही रहते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- छः में गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे जानकारी दी गई है।

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अध्याय खष्टम् (६)    

गोप-कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।


इस अध्याय का मुख्य श्रीकृष्ण और श्रीराधा तथा उनके रक्त सम्बन्धी गोप जाति के कुछ अति प्राचीन महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय देना है। इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिये इस अध्याय को क्रमशः चार भागों में विभाजित किया गया है।

भाग-(१) गोपेश्वर श्रीकृष्ण का परिचय
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय
भाग-(३) पुरुरवा और उर्वशी का परिचय
भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय


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       भाग-(१) गोपेश्वर श्रीकृष्ण का परिचय
                    
ज्ञात हो - परमेश्वर श्रीकृष्ण किसी परिचय के मोहताज (अभावग्रस्त) नहीं है। परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा एक सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव भी नही है। क्योंकि-
जिनके नेत्रों की पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्मों का वर्णन करने में भू-तल पर कोई सामर्थ्य नहीं है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनकी कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।
जिनकी निर्मल प्रसिद्धि और महिमा बताने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं तथा देवता भी उस भगवान के परम स्वरूप को नहीं जानते हैं। तो उस परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा तुक्ष (अत्यन्त साधारण) प्राणी के लिए तो और भी सम्भव नहीं है। फिर भी यह असम्भव कार्य उनके द्वारा ही शौपा गया है यह मानकर ही परमेश्वर के गुणों का वर्णन कर रहा हूँ।
किन्तु ध्यान रहे परमेश्वर श्रीकृष्ण का इस अध्याय में जो परिचय बताया गया है वह भू-तल पर उनके लौकिक जीवन एवं उनकी लीलाओं से ही सम्बन्धित है। उनका आध्यात्मिक और अलौकिक परिचय अध्याय- (दो) और (तीन) में दिया जा चुका है।

सर्वविदित है कि भूलोक से गोलोक तक श्रीकृष्ण को ही गोप-कुल का प्रथम सदस्यपति माना गया हैं। उन्हें ही परमप्रभुप परमेश्वर कहा जाता हैं। वे प्रभु अपने गोलोक में गोप और गोपियों के साथ सदैव गोपभेष में रहते हैं। और वहीं पर समय-समय पर सृष्टि रचना भी किया करते हैं, और समय आने पर वे ही प्रभु समस्त सृष्टि को अपने में ही समाहित कर लेते हैं। यही उनका शाश्वत सनातन नियम और क्रिया है, और जब-जब प्रभु की सृष्टि रचना में पाप और भय अधिक बढ़ जाता है तब-तब उसको दूर करने के लिए वे ही प्रभु अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा-धाम पर अपनें ही वर्ण के- गोपकुल (अहीर-जाति) में अवतीर्ण होते हैं। भगवान के इस कार्य हेतु श्रीमद्भागवत गीता का यह श्लोक ४/७) प्रसिद्ध है -
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७
  इस कार्य हेतु भगवान श्री कृष्ण गोप कुल में ही अपने सम्पूर्ण अंशों के साथ अवतरित होते हैं। उनको गोपकुल में अवतरित होने की पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहें हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
{भगवान श्रीकृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरण इत्यादि के बारे में अध्याय-(५) में बताया जा चुका है।}

भगवान श्रीकृष्णा जब भू-तल पर अवतरित होते हैं तो उनकी सारी विशेषताएँ वही रहती हैं जो गोलोक में होती हैं। उनकी सभी विशेषताओं का एक-एक करके यहाँ वर्णन किया गया है। जैसे -


(१)- श्रीकृष्ण के लिए अष्टमी का महत्व :---

         भगवान श्रीकृष्ण के लिए भूतल पर अष्टमी का  बहुत महत्व है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भाद्रमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन भूतल पर गोपकुल में अवतरित हुए हैं। तभी से वह शुभ मुहूर्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
वही दूसरी तरफ "राधा-अष्टमी" भगवान श्रीकृष्ण की प्राणप्रिय राधारानी का जन्मोत्सव है। यह उत्सव भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है।
और भगवान श्रीकृष्ण जब (६) वर्ष की उम्र के हो गए तब
कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को शुभ मानकर उन्हें पहली बार गावें चराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस शुभ मुहूर्त को गोपाष्टमी नाम से जाना जाता है।

इस सम्बन्ध में देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण का अष्टमी से गहरा सम्बन्ध है। भाद्रमास कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, वही दूसरी तरफ भाद्र-मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को श्रीराधा रानी का जन्म हुआ।
तथा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के शुभ मुहूर्त में गोपालन कर्तव्य का सूत्रपात किया। इस बात की पुष्टि श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- १५ के श्लोक- (१) से होती जिसमें लिखा गया है कि-

ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ।
गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर् वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ।। १

अनुवाद- जब भगवान बलराम और भगवान कृष्ण पौगण्ड अवस्था में अर्थात् छठे वर्ष में प्रवेश किया, तब उन्हें गौवें चराने की स्वीकृति मिल गई। वे अपने सखा ग्वाल बालों के साथ गौवें चराते हुए वृन्दावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते। १
  
(२) कुस्ती लड़ना -:
       गोपों (अहीरों) में कुश्ती लड़ने का अनुवांशिक गुण पाया जाता है। इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्रीकृष्ण भी बचपन से ही कुश्ती लड़ा करते थे। यह कार्य गौवें चराते समय अपने बाल गोपाल के साथ करते थे। इस बात की पुष्टी - श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- १५ के श्लोक- १६ और १७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
क्वचित् पल्लवतल्पेषु नियुध्दश्रमकर्शितः।
वृक्षमूलाश्रयः    शेते    गोपोत्संगोपबर्हणः।। १६
पादसंवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः।
अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः  समवीजयन्।। १७

अनुवाद - १६-१७
• कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी ग्वाल-बालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते जब थक जाते तब किसी सुन्दर वृक्ष के नीचे कोमल पत्तों की सेज पर किसी गोप बाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते। १६
• उस समय कोई कोई पुण्य के मूर्तिमान स्वरूप ग्वाल-बाल महात्मा श्रीकृष्ण के चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अंगोछियों से पंखा झलने लगते।

(३) श्रीकृष्ण के उपनाम :-
(क)- गोपकृत - गोपेश्वर श्रीकृष्ण के (एक हजार नामों) में  गोपकृत भी है। जिसका अर्थ होता है - गोपों को उत्पन्न करने वाला।

(ख)- वन्शीधारी - भगवान श्रीकृष्ण सदैव एक हाथ में वन्शी और सिर पर मोर मुकुट धारण करते हैं। वन्शी धारण करने की वजह से ही उनको वन्शीधारी कहा गया। उनकी वन्शी का नाम- ‘भुवनमोहिनी’है। यह ‘महानन्दा’नाम से भी विख्यात है।

(ग)- मुरलीधारी — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन (पक्षियों के कलरव) को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरली का नाम ‘सरला’है। इसका बचपन में (धन्व) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था। मुरली धारण करने की वजह से श्रीकृष्ण को मुरलीधारी (मुरलीधर) भी कहा गया।

(घ)- सारङ्गधारी— श्रीकृष्ण के धनुष का नाम सारङ्ग है।जिसे सींग से बनाया गया था। तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिञ्जिनी’है। जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं। सारङ्ग धनुष के धारण करने से ही भगवान श्रीकृष्ण को  सारङ्गधारी भी कहा जाता है। युधिष्ठिर ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की प्रसन्शा उस समय की थी जब कृष्ण ने जरासंध को हराने के लिए सारङ्ग धनुष को उठाया था।

(ड)- चक्रधारी— भगवान श्रीकृष्ण जब भूमि का भार उतारने के लिए रणभूमि में अपनी नारायणी सेना के साथ उतरते हैं तब वे अपने एक हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उसके धारण करने की वजह से ही उनको चक्रधारी और सुदर्शनधारी कहा गया।

(च)- गोपभेषधारी — भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में हों या भू-लोक में, वह दोनों जगहों पर सदैव गोपों के साथ गोपभेष में ही रहते हैं। इस लिए उनको गोपभेषधारी अथवा गोप भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- २१ से होती है जिसमें श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।

अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
(छ)-  गिरधारी और गोविन्द- श्रीकृष्ण का गिरधारी और गोविन्द नाम भी है। यह दोनों नाम एक ही घटनाक्रम में उस समय पड़ा जब गोपों ने इन्द्र पूजा का बहिष्कार कर गोवर्धन पूजा को करना प्रारम्भ किया। जिसके प्रतिशोध में इन्द्र ने गोपों की सभी गौवों को मेघ वर्षा करके मारना चाहा किन्तु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन (गिर पर्वत) को धारण कर गौवों की रक्षा की। उसी समय श्रीकृष्ण का गिरधारी नाम पड़ा।
उसी समय वहांँ उपस्थित इन्द्र शरणागत होकर श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा -
अहं   किलेन्द्रो   देवानां   त्वं  गवामिन्द्रतां   गतः।
गोविंद इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम्।। ४५
                    (हरिवंश पुराण- २/१९/४५)
     अनुवाद- मैं देवताओं का इन्द्र हूँ और आप गौओं के इन्द्र हो गए ! आज से इस भूतल पर सब लोग आप सनातन प्रभु को "गोविन्द" (गौवों का इन्द्र) कहकर आपका स्तवन करेंगे। ४५
तभी से श्रीकृष्ण का एक और नाम गोविन्द हुआ।
✴️ ज्ञान हो- कभी-कभी भगवान श्रीकृष्ण को यादवेन्द्र भी कहा जाता है जिसका अर्थ है यादवों के इन्द्र अर्थात् यादवों के देवता या रक्षक।
इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण को यदुपुङ्गव भी कहा जाता है जिसका अर्थ है- यादवों में श्रेष्ठ।

(ज)- केशव- गोपेश्वर श्रीकृष्ण का एक नाम केशव भी है। यह नाम मुख्यतः गोपों द्वारा तब दिया गया जब गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने केशी नामक दैत्य का वध किया। उसी समय गोपों ने श्रीकृष्ण की स्तुति करते समय सर्वप्रथम केशव नाम से सम्बोधित किया। तभी से श्रीकृष्ण का एक नाम केशव भी हुआ।
यशमात्तयैष दुष्टात्मा हतः केशी जनार्दन।
तस्मात्केशवनाम्ना त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि।।२३
            (विष्णु पुराण- ५/१७/२३)
अनुवाद- हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशी को मारा है इसलिए आप लोकों में केशव नाम से विख्यात होंगे।

     (विशेष- केशव नाम गोपों द्वारा दिया गया है इसलिए जब भी गोप (अहीर) लोग श्रीकृष्ण की स्तुति करें केशव नाम से ही करें। क्योंकि यह नाम गोपों के लिए विकट परिस्थितियों से मुक्ति प्रदान करने वाला है)

ये तो रही श्रीकृष्ण की कुछ खास व्यक्तिगत विशेषताएँ। किन्तु उनकी कुछ सामुहिक व सामाजिक विशेषताएँ भी हैं जिनके जानें बगैर श्रीकृष्ण की विशेषताएँ अधुरी ही मानी जाएगी। जिसका वर्णन नीचे कुछ इस प्रकार से किया गया है।-

  [४] श्रीकृष्ण की सामाजिक व व्यक्तिगत विशेषताएंँ -:

(क)- श्रीकृष्ण के नित्य-सखा —"श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(A) सुहृद् सखा (B)  सखा (C) प्रिय सखा (D) प्रिय नर्मसखा।

(ख) - सुहृद् वर्ग के सखा— इस वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं। वे सदा श्रीकृष्ण के साथ रहकर उनकी रक्षा करते हैं ।
जिनके नाम हैं - विजयाक्ष, सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
जिसमें श्रीकृष्ण के इस रक्षक टीम (वर्ग) के अध्यक्ष- अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं। जो श्रीकृष्ण की सुरक्षा को लेकर सतत् चौकन्ना रहते हैं।

(ग)- सखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। ये सखा भाँति-भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु- नन्द नन्दन पर आक्रमण न कर दे।
• जिसमें समान आयु के सखा हैं—
विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप,मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि।
• श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—
   मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।

(घ)- प्रियसखा वर्ग के सदस्य— इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण, पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं। जिसमें भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं। ये सभी प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध-अभिनय की रचना करके अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं। ये सब शान्त प्रकृति के हैं। तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं।
इन सखाओं में "स्तोककृष्ण" श्रीकृष्ण के चाचा "नन्दन" के पुत्र हैं, जो देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। इसीलिए  स्तोककृष्ण को छोटा कन्हैया भी कहा जाता है। ये श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं। प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं इसके बाद शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं।

(च)-  प्रिय नर्मवर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल (श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं। ये सभी सखा ऐसे हैं जिनसे श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो।
✳️ राग— संगीत की दुनिया में कुछ प्रमुख राग गोपों (अहिरों) की ही देन (खोज) है। जैसे- गौड़ी, गुर्जरी राग, आभीर भैरव इत्यादि। जिसे भगवान श्रीकृष्ण सहित- गोप (आभीर) लोग समय-समय पर गाते हैं। आभीर भैरव नाम की राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।

•  अब हमलोग जानेगें श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों को। जिसमें कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। उनमें से कुछ के नाम नींचे विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।

• श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता— बलराम जी।
• श्रीकृष्ण के चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
 
• श्रीकृष्ण की चचेरी बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।
श्रीकृष्ण के साथ यदि श्रीराधा जी की चर्चा नहीं हो तो बात अधुरी ही रहती है। अतः श्रीराधा जी के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस अध्याय के भाग- (2) में दी गई है।

भाग-(२) श्रीराधा का परिचय
                        ____

श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं, तो राधा पराशक्ति (परमेश्वरी) हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं हैं। इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय -१५ के श्लोक -५८ से ६० में होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा से कहते हैं कि -

त्वं मे  प्राणाधिका  राधे   प्रेयसी   च   वरानने।
यथा त्वं च तथाऽहं च भेदो हि नाऽऽवयोर्ध्रुवम॥ ५८।।

यथा पृथिव्यां गन्धश्च तथाऽहं त्वयि संततम्।
विना मृदा घटं कर्तुं विना स्वर्णेन कुण्डलम्।। ५९।।

कुलालः स्वर्णकारश्च नहि शक्तः कदाचन।
तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः।।६०।।

अनुवाद- तुम मुझे मेरे स्वयं के प्राणों से भी प्रिय हो, तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है। जैसे पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार तुममें मैं नित्य व्याप्त हूँ। जैसे बिना मिट्टी के घड़ा तैयार करने और बिना सोने के कुण्डल बनाने में जैसे कुम्हार और सुनार सक्षम नहीं हो सकता उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता। ५८-६०।
              
अतः  श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण अधूरे हैं और श्रीकृष्ण के बिना श्रीराधा अधूरीं हैं। इन दोनों से बड़ा ना कोई देव है ना ही कोई देवी। श्रीराधा की सर्वोच्चता का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय- (एक) के प्रमुख श्लोकों में वर्णन मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -

पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी।
प्राणाधिकप्रियतमा  सर्वाभ्यः  सुन्दरी  परा।। ४४।
सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता।
वामाङ्‌गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसासमा॥४५।
परावरा   सारभूता   परमाद्या   सनातनी।
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता॥४६।
     
अनुवाद- जो पञ्चप्राणों की अधिष्ठात्री, पञ्च प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियों में परम सुन्दरी, परमात्मा के लिए प्राणों से भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसम्पन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्रीकृष्ण की वामांगार्धस्वरुपा और गुण- तेज में परमात्मा के समान ही हैं।  वह परावरा, परमा, आदिस्वरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी धन्य, मान्य, और पूज्य हैं। ४४-४६।

रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता॥ ४७।
रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
परमाह्लादरूपा  च  सन्तोषहर्षरूपिणी।
निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी॥ ४९।

अनुवाद - वे परमात्मा श्रीकृष्ण के रासक्रिडा की अधिष्ठात्री देवी है, रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डल से सुशोभित है, वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लाद स्वरूपा, सन्तोष तथा हर हर्षरूपा आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं। ४७-४९।
        
यदि उपर्क्त श्लोक संख्या-(४८) पर विचार किया जाय तो उसमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की समानता देखने को मिलती है। वह समानता यह है कि जिस तरह से श्रीकृष्ण सदैव गोपवेष में रहते हैं उसी तरह से श्रीराधा भी सदैव गोपी वेष में रहती हैं।
'रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
          
अनुवाद -वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली हैं। ४८।
         
और ऐसा ही वर्णन श्रीकृष्ण के लिए ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक- २१ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
'स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।
       
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (अहीर)- वेष में रहते हैं।२१।  
      
अतः दोनों ही परात्पर शक्तियाँ- गोप (अहीर) और गोपी (अहिराणी) भेष में रहते हैं।
श्रीराधा जी को भू-तल पर अहिर कन्या होने की पुष्टि -
श्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
आभीरसुभ्रुवां  श्रेष्ठा   राधा  वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।८३।
          
अनुवाद- आभीर (गोप) कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि श्रीराधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।८३।

✴️ अब हमलोग श्रीराधा के कुल एवं पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में जानेंगे-

▪️ पिता- वृषभानु, माता- कीर्तिदा
▪️ पितामह- महिभानु गोप (आभीर)
▪️ पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का 
     भी उल्लेख मिलता है।
▪️ पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु।
▪️भ्राता — श्रीदामा, कनिष्ठा भगिनी — अनंगमञ्जरी।
▪️फूफा — काश,
▪️बुआ — भानुमुद्रा,
▪️मातामह — इन्दु,
▪️मातामही — मुखरा।
▪️ मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
▪️ मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
▪️ मौसा — कुश, मौसी — कीर्तिमती।
▪️धात्री — धातकी।
▪️राधा जी की छाया (प्रतिरूपा) वृन्दा।

✴️ सखियाँ — श्रीराधाजी की आठ प्रकार की सखियाँ हैं।
इन सभी की विशेषताओं को नीचे ( ABCD ) क्रम में बताया गया हैं -

(A)- सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।
(B)- नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमञ्जरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।

(C)- प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियम्वदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।   
✳️ इस वर्ग की सभी सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।

(D)- प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मञ्जुकेशी, मञ्जुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममञ्जरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि-कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।

(E)- परमप्रेष्ठसखी वर्ग की सखियाँ-
(१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५)   चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।

(F)- सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि।

(G)- प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य

(H)- संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक, कण्ठिका, विशाखा और नाम्नी इत्यादि सखियाँ थी जो वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं। जिसमें विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर- प्रिया-प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्ययन्त्रों को बजाती हैं।

(I)- मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी शतचन्द्रानना।

वाटिका — कन्दर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)।
कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य कथनस्थली है)।

राग — मल्हार (वलहार) और धनाश्री' श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय-रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।


✳️  श्रीराधा जी का विवाह -

श्रीराधा का विवाह श्रीकृष्ण से भू-तल पर ब्रह्मा जी के मन्त्रोंचारण से भाण्डीर वन में सम्पन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

'राधे  स्मरसि  गोलोकवृत्तान्तं   सुरसंसदि।
अद्य पूर्णं करिष्यामि स्वीकृतं यत्पुरा प्रिये। ५७

अनुवाद -हे प्राणप्यारी राधे ! तुम गोलोक का वृत्तान्त याद करों। जो वहाँ पर देवसभा में घटित हुआ था, मैनें तुम को वचन दिया था, और आज वह वचन पूरा करने का समय अब आ पहुँचा है। ५७।
                 
ये कथोपकथन (सम्वाद) अभी हो ही रहा था कि वहाँ पर मुस्कराते हुए ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ आ गये।
तब ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कहा--
'कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा।
यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः। ९६।।
अनुवाद - उन्होंने श्रीकृष्णजी को प्रणाम किया और राधिका जी के चरणद्वय को अपने कमण्डल से जल लेकर धोया और फिर जल अपनी जटायों पर लगाया।९५।
                             
इसके बाद ब्रह्मा जी विवाह कार्य सम्पन्न कराने हेतु - तत्पर हुए-
'पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।

हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः। 4.15.१३०।

अनुवाद - १२-१३०
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।        
अतः उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट हुआ कि भू-तल पर श्रीराधा जी का विवाह श्रीकृष्ण से ही हुआ था अन्य किसी से नहीं।
इस प्रकार से अध्याय- (६) का भाग- (दो) श्रीराधा जी की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अब इसी क्रम में इस अध्याय के भाग -(तीन) में आपलोग जानेंगे कि भू-तल पर गोपकुल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष और सम्राट पुरूरवा कौन था ? तथा उनकी पत्नी गोपी- उर्वशी कौन थी ?

भाग-(३) पुरुरवा और उर्वशी का परिचय


इस भाग में भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों के बारे में क्रमशः भाग (क) और (ख) में बताया गया है।

                     [क] - पुरुरवा
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भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष व सम्राट पुरूरवा था। उनकी पत्नी का नाम उर्वशी था। ये दोनों ही वैष्णव वर्ण की अभीर जाति से सम्बन्धित थे। जिनका साम्राज्य भूलोक से स्वर्गलोक तक था। इन दोनों को वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) जाति से सम्बन्धित होने की पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल के (९५) वें सूक्त की ऋचा- (३) से होती है, जो पुरूरवा-उर्वशी संवाद के रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष (घोष-गोप) तथा गोपीथ हैं। नीचे सन्दर्भ देखें-

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।
(ऋग्वेद-10/95/3)
            
अर्थानुवाद: हे गोपिके ! तेरे सहयोग के बिना- तुणीर से फेंका जाने वाला बाण भी विजयश्री में समर्थ नहीं होता। (गोषाः शतसा) मैं सैकड़ो गायों का सेवक तुझ भार्या उर्वशी के सहयोग के बिना वेगवान भी नहीं हूँ। (अवीरे) हे आभीरे ! विस्तृत कर्म में या संग्राम में भी अब मेरा वेग (बल) प्रकाशित नहीं होता है। और शत्रुओं को कम्पित करने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश (वचन अथवा हुंक्कार) को नहीं मानते हैं।३।

ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा का हम नीचे संस्कृत भाष्य हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत कर रहे हैं।

भाष्य- हिन्दी अनुवाद सहित-
"अनया उर्वश्या प्रति पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं ब्रूते।
हिन्दी अर्थ- उस उर्वशी के प्रति पुरूरवा अपनी विरह जनित व्याकुलता को कहता है-
“इषुधेः। इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः = (इषुधि पद का पञ्चमी एक वचन का रूप इषुधे:= तीरकोश से )
इषु: - (वाण ) धारण करने वाला निषंग या तीरकोश। इषुधि )

ततः सकाशात् “इषुः= ( उसके पास से वाण) “असना असनायै= प्रक्षेप्तुं न भवति=( फेंकने के लिए नहीं होता)। “श्रिये = विजयार्थम्। ( विजयश्री के लिए) त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात्। (तेरे विरह से युद्ध का बोध करके भी विना निधान (सहारे) के द्वारा  तथा “रंहिः= वेगवानहं= (मैं वेगवान्/ बलवान्) नहीं होता। “गोषाः = गोसेवका:( गवां संभक्ता:) =(गायों का भक्त- सेवक) "न अभवम् - भू धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लङ् लकार परस्मैपद उत्तम पुरुष एकवचन- (मैं न हुआ)। तथा “शतसाः शतानामपरिमितानां गवां संभक्ता नाभवम् । अर्थात्- (मैं सैकड़ों गायों का सेवक सामर्थ्य वान न हो सका)। किञ्च= और तो क्या“ अवीरे = अभीरे !   हे गोपिके ! वा  हे आभीरे “क्रतौ = यज्ञे कर्मणि वा  सति “न “वि “द्विद्युतत्= न विद्योतते मत्सामर्थ्यम्। (यज्ञ या  कर्म में भी मेरी सामर्थ्य अब प्रकाशित नहीं होती।) किञ्च संग्रामे धुनयः = कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः =(और तो क्या युद्ध में शत्रुओं को कम्पायमान करने वाले मेरे सैनिक भी )  ।
मायुम् = मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः। 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण्। सिंहनादं =(मेरी (मायु) हुंक्कार“ न “चितयन्त न बुध्यन्ते वा=(नहीं समझते हैं) ‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्॥

अब हम लोग ऋग्वेद की इस रिचा में आये प्रमुख (दो) शब्दों- "गोषा:" और "अवीरे" की व्याकरणीय व्याख्या करके यह जानेंगे कि इन दोनों शब्दों का वैदिक और लौकिक संस्कृत में क्या अर्थ होता है ? जिसमें पहले "गोषा:" शब्द की व्याकरणीय व्याख्या करेंगे उसके बाद "अवीरे" की।

• गोषः शब्द की व्याकरणिक उत्पत्ति-
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् ) धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) = भक्ति करना दान करना पूजा करना  + विट् ङा। सनोतेरनः” पाणिनीय षत्वम् सूत्र ।

अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर (गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है। गो सेवक अथवा पालक। गोष: का वैदिक रूप गोषा: है।
           
उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा: शब्द गोसेवक के वाचक हैं। वैदिक संस्कृत का यही गोषः शब्द लौकिक संस्कृत में घोष हुआ जो कालान्तर में गोप, गोपाल, अहीर, और यादव का पर्यायवाची शब्द बन गया। क्योंकि ये सभी गोपालक थे।
और जग जाहिर है कि सभी पुराण लौकिक संस्कृत में लिखे गए हैं। इस हेतु पुराणों में भी देखा जाए तो वैदिक शब्द "गोषः" लौकिक संस्कृत में "घोष" गोपालक अथवा अहीर जाति के लिए ही प्रयुक्त होता है  अन्य किसी जाति के लिए नहीं। अतः घोष शब्द पुरूरवा के गोप, गोपालक और अहीर होने की पुष्टि करता है।
श्रीमद्‍भागवत महापुराण के नवम-स्कन्ध के प्रथम अध्याय के श्लोक संख्या-(४२) से भी पुष्टि होती है कि पुरूरवा  गोप (गोपालक) थे -
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२।

अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरूरवा को गो-समुदाय देकर वन को चला गया।४२।

उपर्युक्त श्लोक में गाम्- संज्ञा पद गो शब्द का ही द्वितीया कर्म कारक रूप है। यहाँ गो पद - गायों के समुदाय का वाचक है।  

अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष) शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ वैदिक और लौकिक संस्कृत में - गायों का दान करने वाला तथा गोसेवा करने वाला होता है।
अत: उपरोक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है कि भू-तल का प्रथम सम्राट पुरूरवा गो-पालक (गोप,आभीर) ही था। जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य स्थापित था।


                       [ख] -  उर्वशी
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उर्वशी पूर्व काल की एक धन्या और मान्या अहीर कन्या थी। जो कभी अपने तपोबल से स्वर्ग की अप्सराओं की अधिश्वरी हुई। इस ऐतिहासिक अहीर कन्या के धन्या एवं मान्या होने की पुष्टि उस समय होती है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण प्रमुख विभूतियों की तुलना करते हुए ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ में कहते हैं-

वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।
उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।

अनुवाद:-  मैं सभी शास्त्रों में वेद हूँ समुद्र के प्राणीयों में  वरुण हूँ। अप्सराओं में उर्वशी हूँ। समुद्रों में जलार्णव हूँ।७०।
        
वास्तव में उर्वशी एक अहीर कन्या थी इस बात की पुष्टि- ऋग्वेद की ऋचा- 10/95/3 से होती है जिसमें उसके पति पुरुरवा द्वारा उसके लिए अवीरे शब्द से सम्बोधन हुआ है।

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।

     इस ऋचा में आये सम्बोधन पद- 'अवीरे' की व्याकरणीय व्याख्या करके जानेंगे कि "अवीरे" शब्द का वैदिक और लौकिक संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा, पालि आदि भाषाओं में क्या रूप और अर्थ होता है ?

वास्तव में देखा जाए तो उपरोक्त ऋचा में उर्वशी का सम्बोधन अवीरे ! है, जो लौकिक संस्कृत के अभीरा शब्द का ही वैदिक पूर्व रूप है। लौकिक संस्कृत में अभीर तथा आभीर दो रूप परस्पर एक वचन और बहुवचन (समूह-वाची) हैं।
वैदिक भाषा का एक नियम है कि उसमें उपसर्ग कभी भी क्रियापद और संज्ञापद के साथ नहीं आते हैं। इसलिए ऋग्वेद में आया हुआ अवीरे सम्बोधन-पद मूल तद्धित विशेषण शब्द है-
(अवीर=(अवि+ईर्+अच्)= अवीर: की स्त्रीलिंग रूप अवीरा है, जो सम्बोधन काल में अवीरे ! हो जाता है।)

अत: अवीरा शब्द ही लौकिक संस्कृत में अभीरा हो गया और यही अभीर तथा समूह वाची रूप आभीर प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में अहीर तथा आहीर हो गया। यह सब कैसे हुआ ? यह नींचे सन्दर्भ देखें-
        
वैदिक अवीर शब्द की व्युत्पत्ति ( अवि = गाय, भेड़ आदि पशु + ईर:=  चराने वाला। हाँ करने वाला , निर्देशन करने वाला, के रूप में हुई है।
परन्तु यह व्युत्पत्ति एक संयोग मात्र  ही है। क्योंकि अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति ऋग्वेद में प्राप्त लौकिक अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति से अलग ही है।

वैदिक ऋचा में अवीर (अवि+ ईर:) शब्द दीर्घ सन्धि  के रूप में तद्धित पद है। जबकि लौकिक संस्कृत में अवीर (अ + वीर) के रूप में वीर के पूर्व में अ (नञ्) निषेधवाची उपसर्ग लगाने से बनता है।
वैदिक भाषा नें लौकिक संस्कृत भाषा सी व्याकरणिक प्रक्रिया अमान्य ही है।
परन्तु कुछ लोग इसी कारण इसका अर्थ- "जो वीर न हो" निकालते हैं। किन्तु यह ग़लत है क्योंकि उर्वशी के लिए इस अर्थ में अवीरा शब्द अनुपयुक्त व सिद्धान्त विहीन ही है। अत: अवीरा शब्द को अवि + ईरा के रूप में ही सही माना जाना चाहिए। क्योंकि अवीर शब्द का मूल सहचर हिब्रू भाषा का अबीर (अवीर) शब्द है। जो ईश्वर का एक नाम है। हिब्रू भाषा में अबीर अर्थ वीर ही होता है।

वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषा में अवीर तथा अभीर शब्द अहीरों की पशुपालन वृत्ति (व्यवसाय) के साथ साथ अहीरों की वीरता प्रवृत्ति को भी सूचित करता है। वीर शब्द ही सम्प्रसारित होकर आर्य बन गया। इस सम्बन्ध में विदित हो आर्य शब्द प्रारम्भिक काल में पशुपालक तथा कृषक का ही वाचक था।

यदि अवीर शब्द का विकास क्रम देखा जाए तो-
वैदिक कालीन अवीर शब्द ईसापूर्व सप्तम सदी के आस-पास गाय भेड़ बकरी पालक के रूप में प्रचलित था।
यह वीर अहीरों का वाचक था। परन्तु कालान्तर में ईसापूर्व पञ्चम सदी के समय यही अवीर शब्द अभीर रूप में प्रचलन में रहा और इसी अभीर का समूह वाची अथवा बहुवचन रूप आभीर हुआ जो अहीरों की वीरता प्रवृत्ति का सूचक रहा इसी समय के शब्दकोशकार  अमर सिंह ने आभीर शब्द की व्युत्पत्ति अपने अमरकोष में कुछ इस तरह से बतायी है।

आभीरः= पुंल्लिंग (आ समन्तात् भियं राति (आ+भी+ रा + क:) रा=दाने आत इति कः।)
अर्थात जो चारों तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय दे या भरे। आभीर- गोपः। इत्यमरःकोश - आभीर प्राकृत भाषा में आहिर हो गया है। अभीर- अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । अर्थात् जो सामने मुख करके गायें हाँकता या चराता है।

और आगे कालक्रम से यही आभीर शब्द एक हजार ईस्वी में अपभ्रष्ट पूर्व हिन्दी भाषा के विकास काल में प्राकृत भाषा के प्रभाव से आहीर हो गया। ज्ञात हो कि लौकिक संस्कृत में जो आभीर शब्द प्रयुक्त होता है उसका तद्भव रुप आहीर होता है।

दूसरी बात यह कि- ऋग्वेद में गाय चराने या हाँकने के सन्दर्भ में ईर् धातु का क्रियात्मक लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन का  रूप ' ईर्ते ' विद्यमान है। जैसे -
'रुशद्- ईर्त्ते पयो गोः ”प्रकाशित होती हुई दूध वाली गाय करती है। (ऋग्वेद-9/91/3 )

यह तो सर्वविदित है कि- "उर्वशी गाय और भेड़ें पालती थी। आभीर कन्या होने के नाते भी उसका इन पशुओं से प्रेम स्वाभाविक ही था। इस बात की भी पुष्टि- देवी भागवत पुराण  के प्रथम स्कन्ध के अध्याय- (१३) के श्लोक- संख्या-(८) से होती है कि उर्वशी के पास दो भेंड़े भी थीं।

"समयं चेदृशं कृत्वा स्थिता तत्र वराङ्गना ।
एतावुरणकौ राजन्न्यस्तौ रक्षस्व मानद ॥८।

अनुवाद -वह वरांगना इस प्रकार की शर्त रखकर वहीं रहने लगी। उसने पुरूरवा से कहा - हे राजन ! यह दोनों भेंड़ के बच्चे मैं आपके पास धरोहर के रूप में रखती हूँ।
ध्यान रहे अमरकोश - 2/9/76/2/3 - भेंड़ के पर्याय निम्नांकित बताए गए हैं। "उरण पुं। मेषः"
समानार्थक- मेढ्र,उरभ्र,उरण,ऊर्णायु,मेष,वृष्णि,एडक,अवि
अतः सिद्ध होता है कि उर्वशी के पास दो भेंड़ के बच्चे थे।
             
कुछ समय बाद उर्वशी के दोनों भेड़ के बच्चों के साथ एक घटना घटी जिसमें इन्द्र के कहने पर गन्धर्वों ने उर्वशी के दोनों भेंड़ के बच्चों को चुरा कर आकाश मार्ग से ले जाने लगे, तब दोनों भेंड़ के बच्चे जोर-जोर से चिल्लाने लगे। इस घटना का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के अध्याय- (१३) के  श्लोक - १७ से २० में कुछ इस प्रकार लिखा हुआ मिलता है।

इत्युक्तास्तेऽथ गन्धर्वा विश्वावसुपुरोगमाः।
ततो गत्वा महागाढे तमसि  प्रत्युपस्थिते॥१७।।

जह्रुस्तावुरणौ देवा रममाणं विलोक्य तम्।
चक्रन्दतुस्तदा तौ तु ह्रियमाणौ विहायसा॥१८।।

उर्वशी   तदुपाकर्ण्य  क्रन्दितं  सुतयोरिव।
कुपितोवाच राजानं समयोऽयं कृतो मया॥ १९।।

नष्टाहं  तव  विश्वासाद्धृतौ  चोरैर्ममोरणौ।
राजन्पुत्रसमावेतौ त्वं किं शेषे स्त्रिया समः॥२०।।

अनुवाद- १७-२०
• तब इन्द्र के ऐसा कहने पर विश्वावसु आदि प्रधान गन्धर्वों ने वहाँ से जाकर रात्रि के घोर अन्धकार में राजा पुरुरवा को बिहार करते देख उन दोनों भेंड़ों को चुरा लिया तब आकाश मार्ग से जाते हुए चुराए गए वे दोनों भेंड़ जोर से चिल्लाने लगे। १७-१८।
• अपने पुत्र के समान पाले हुए भेड़ों का क्रन्दन सुनते ही उर्वशी ने क्रोधित होकर राजा पुरूरवा से कहा-  हे राजन ! मैंने आपके सम्मुख जो पहली शर्त रखी थी, वह टूट गई आपके विश्वास पर मैं धोखे में पड़ी, क्योंकि पुत्र के समान मेरे प्रिय भेंड़ों को चोरों ने चुरा लिया फिर भी आप घर में स्त्री की तरह शयन कर रहे हैं।१९-२०।

अतः इन उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि पुरूरवा और उर्वशी दोनों पशुपालक अहीर जाति से सम्बन्धित थे।

उर्वशी को अहिर कन्या होने की पुष्टि- मत्स्यपुराण- के (६९) वें अध्याय के श्लोक- ६१-६२ से भी होती है। जिसमें उर्वशी के द्वारा  "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने का प्रसंग है। इसी प्रसंग में भगवान श्री कृष्ण भीम से कल्याणिनी व्रत के बारे में कहते हैं कि -

"त्वा च यामप्सरसामधीशा वैश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे॥ ६१

जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा॥६२
          
अनुवाद- ६१-६२
जन्मान्तर में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह वैश्य पुत्री अप्सराओं की अधीश्वरी हुई।  वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नाम से विख्यात है। ६१।
• इसी प्रकार इसी वैश्यकुल में उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूप में उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी। उसके अनुष्ठान काल में जो उसकी सेविका थी, वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है। ६२

         अतः वैदिक और पौराणिक सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है। कि उर्वशी अहीर कन्या थी। जिसके पति का नाम पुरुरवा था वह भी गोप (अहीर) था। उस समय उसके जैसा धर्मवत्सल राजा तीनों लोकों में नहीं था। उन्होंने बहुत काल तक अपनी पत्नी उर्वशी के साथ सुख भोगा। इन सभी बातों की पुष्टि- हरिवंश पुराण के हरिवंशपर्व के

अध्याय- (२६) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें पुरूरवा के बारे में लिखा गया है कि -

"ब्रह्मवादी  पराक्रान्तः  शत्रुभिर्युधि  दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।।२।

सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव  त्रिषु  लोकेषु  यशसाप्रतिमस्तदा।।३।

तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी।।४।

तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत।।५।

वने चैत्ररथे   रम्ये   तथा   मन्दाकिनीतटे।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे।। ६।

उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान्।
गन्धमादनपादेषु       मेरुपृष्ठे      तथोत्तरे।। ७।

एतेषु   वनमुख्येषु     सुरैराचरितेषु    च।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।। ८।

देशे   पुण्यतमे   चैव    महर्षिभिरभिष्टुते।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।। ९।


अनुवाद-  २-९
• वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये। २।
• वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन-भूख( कामवासना) पर पूरा नियंत्रण था। उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था। ३।
•  अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति  के रूप में चुना। ४।
•  राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पाँच साल तक मन्दाकिनी नदी के तट पर , पाँच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल आदि स्थानों में उर्वशी के साथ रहे।
सर्वोत्तम उद्यान नन्दन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रान्त में आठ वर्षों तक जहाँ पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गन्धमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं। ५-७।
•  देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुन्दर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया। ८।
• पृथ्वीपति पुरूरवा (उर्वशी के साथ) महर्षियों से प्रशंसित परम पवित्र देश प्रयागराज में राज्य करते थे। ९।

इस प्रकार से सिद्ध होता है कि पुरूरवा एक धर्मवत्सल तथा प्रजापालक सम्राट थे। वह अपनी पत्नी उर्वशी के साथ बहुत दिनों तक भू-तल पर सुखपूर्वक रहे
          
अब हम लोग यह जानेंगे कि पुरूरवा और उर्वशी से किस नाम के कौन-कौन से पुत्र हुए।
पुरुरवा और उर्वशी से उत्पन्न पुत्रों का वर्णन हरिवंशपुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय -२६ के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जिसमें वैशम्पायनजी जन्मेजय के पूछने पर कहते हैं कि -

"तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।

विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।

अनुवाद- उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम- आयु , धीमान , अमावसु , धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु , वनायु और शतायु थे। इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था। १०-११।

अतः हरिवंशपुराण के उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि आभीर पुरुरवा की पत्नी उर्वशी से कुल सात देवतुल्य पुत्र हुए। उन सभी का विस्तार पूर्वक वर्णन भाग- (४) में किया गया है।

इस प्रकार से अध्याय- (६) का भाग- (३) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों ही वैष्णव वर्ण के गोपकुल के अभीर जाति से सम्बन्धित हैं।
           अब इस अध्याय- के अगले भाग -(चार) में आपलोग जानेंगे कि- पुरूरवा और उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र आयु की पीढ़ी में आगे चलकर नहुष और ययाति की वैष्णव वर्ण के गोपकुल में क्या भूमिका रही ?

भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय-

इस भाग में पुरुरवा, उर्वशी, और ययाति का परिचय क्रमशः- (क), (ख) और (ग) में दिया गया है।


           ‌‌            [क] - आयुष :-

पुरूरवा के  सात पुत्रों-  (आयुष , अमावसु , विश्वायु , श्रुतायु , दृढ़ायु , वनायु और शतायु ) में ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे; जिनका सम्बन्ध गोप जाति से ही है। क्योंकि इनके पिता- पुरुरवा और माता उर्वशी गोप जातीय थे। अतः उनसे उत्पन्न पुत्र गोप ही होगें। अतः इस नियमानुसार आयुष भी गोप ही हुए। (पुरूरवा और उर्वशी को गोप होने के बारे में इसके पिछले खण्ड -(३) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है।)
         
गोप पुरूरवा एवं गोपी (अहीराणी) उर्वशी के सात पुत्रों में विशेष रूप से आयुष को ही लेकर आगे तक वर्णन किया जाएगा क्योंकि इनकी ही पीढ़ी में आगे चलकर यादव वंश का उदय हुआ जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का भी अवतरण हुआ, जिनका सम्बन्ध गोलोक के साथ ही भू-तल पर भी गोप जाति से ही रहा है।
(भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोप होने के बारे में अध्याय- (५) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है )
         
आभीर कन्या उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र- आयुष (आयु ) का विवाह स्वर्भानु (सूर्यभानु) गोप की पुत्री इन्दुमती से हुआ था। इन्दुमती का दूसरा नाम- लिंगपुराण में "प्रभा" भी मिलता है।
ज्ञात हो कि इन्दुमती के पिता स्वर्भानु गोप वहीं हैं जो भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक में सदैव तीसरे द्वार के द्वारपाल रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के चतुर्थ  श्रीकृष्णजन्म खण्ड के अध्याय-५ के श्लोक- १२ और १३ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

'द्वारे नियुक्तं ददृशुः  सूर्यभानुं  च  नारद ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं श्यामसुन्दरम् ।। १२।

मणिकुण्डलयुग्मेन कपोलस्थलराजितम् ।
रत्नदण्डकरं श्रेष्ठं  प्रेष्यं  राधेशयोः परम्।। १३।

अनुवाद - देवता लोग तीसरे उत्तम द्वार पर गए, जो दूसरे से भी अधिक सुन्दर ,विचित्र तथा मणियों के तेज से प्रकाशित था। नारद ! वहाँ द्वारा की रक्षा में नियुक्त सूर्यभानु नामक द्वारपाल दिखाई दिए, जो दो भुजाओं से युक्त मुरलीधारी, किशोर, श्याम एवं सुन्दर थे। उनके दोनों गालों पर दो मणियय कुण्डल झलमला रहे थे। रत्नकुण्डलधारी सूर्यभानु श्री राधा और श्री कृष्ण के  परम प्रिय एवं श्रेष्ठ सेवक थे। १२-१३
           
इसी सुर्यभानु गोप की पुत्री- इन्दुमती (प्रभा) का विवाह भू-तल पर गोप पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष से हुआ था। इस बात की पुष्टि लिंग पुराण के (६६ )वें अध्याय के श्लोक संख्या- ५९ और ६० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।। ५९।

अनुवाद - आयुष के पाँच वीर और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए। इन नहुष आदि पाँचो राजाओं का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानु (सूर्यभानु ) की पुत्री प्रभा की कुक्षा (उदर) से हुआ था। ५९।



                    [ख] -  नहुष :-
                   
उपर्युक्त श्लोक से ज्ञात होता है कि आयुष के पुत्र "नहुष" थे। जिनका विवाह पार्वती की पुत्री  अशोकसुन्दरी (विरजा) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में भी मिलता है।
         
✴️ ज्ञात हो- नहुष श्रीकृष्ण के अंशावतार थे। अतः इनका भी सम्बन्ध वैष्णव वर्ण के गोप कुल से ही था। जिसमें नहुष को श्रीकृष्ण का अंशावतार होने की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय संख्या -(१०३) से होती है जिसमें नहुष के पिता- आयुष (आयु ) की तपस्या से प्रसन्न होकर दत्तात्रेय ने वर दिया कि तेरे घर में विष्णु के अंश वाला पुत्र होगा। उस प्रसंग को नीचे देखें।

'देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो। १३५।
             
               'दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः।
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः।१३७।

अनुवाद- 
• सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन यदि आप मुझे वर देना चाहते हों तो वर दें। १३५।
• दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो ! तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य-कर्मा और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।
•  जो इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त-सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
         
अतः उपर्युक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि नहुष भगवान श्रीकृष्ण के ही अंशावतार थे। वहीं दूसरी तरफ नहुष की पत्नी विरजा (अशोक सुन्दरी) भी गोलोक की गोपी तथा भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी थी। इसके पहले इस विरजा और श्रीकृष्ण से गोलोक में कुल सात पुत्र उत्पन्न हुए थे।

इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता- वृन्दावनखण्ड के अध्याय-२६ के श्लोक - १७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा।
निकुञ्जं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया॥ १७।

अनुवाद - श्रीकृष्ण के तेज से विरजा के गर्भ से सात पुत्र उत्पन्न हुए। वे सातों शिशु अपनी बाल- क्रीड़ा से निकुञ्ज की शोभा बढ़ाने लगे।
      
ज्ञात हो कि श्रीकृष्ण की प्रेयसी गोलोक की विरजा कालान्तर में भू-तल पर अशोक सुन्दरी नाम से पार्वती जी के अंश से पुत्री रूप में प्रकट हुई। फिर उसका विवाह भू-तल पर किसी और से नहीं बल्कि श्रीकृष्ण के अंश नहुष से ही हुआ।

इन सभी बातों की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमिखण्ड के अध्याय संख्या -(१०२) के श्लोक संख्या - (७१ से ७४) में होती है। जिसमें पार्वती जी अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी (विरजा) को वरदान देते हुए कहती हैं कि -

"वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः।। ७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति।। ७३।

एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता।। ७४।

अनुवाद- पार्वती  ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा-  इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे ! तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी। राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इन्द्र के समान चन्द्रवंशी परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही तुम्हारे पति होंगे।७१-७४।

इस प्रकार पार्वती ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
इन श्लोकों से एक बात और निकल कर सामने आती है कि - पार्वती जी के वरदान के अनुसार अशोक सुन्दरी का विवाह चन्द्रवंशी सम्राट नहुष से होने की बात निश्चित होती है।

अतः यहाँ सिद्ध होता है कि "नहुष" गोप- कुल के चन्द्रवंशी सम्राट थे। यह बात उस समय की है कि- जब भू-तल पर अभी यादवंश का उदय नहीं हुआ था। किन्तु  श्रीकृष्ण अंश नहुष को चन्द्रवंशी होने का प्रमाण यहाँ मिलता है। और चन्द्रवंश के अंतर्गत आनेवाला यादव वंश अब बहुत दूर नहीं रहा, जल्द ही उसका भी क्रम आएगा।

अब आगे श्रीकृष्ण अंश नहुष और विरजा (अशोक सुन्दरी) से गोलोक की ही भाँति भू-तल पर भी कुल छह पुत्र हुए। जिसकी पुष्टि - भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -१८ के श्लोक (१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

'यतिर्यायातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः।
षडिमे नहुषस्यासन्निद्रयाणीव  देहिनः।।१।

अनुवाद- जैसे शरीरधारियों के छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति, और कृति। १

जिसमें ययाति सबसे छोटे थे। फिर भी नहुष ने ययाति को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और राजा बनाया।
✴️ ज्ञात हो कि ययाति अपने पिता नहुष के इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने छोटे पुत्र- पुरु को राजा बनाया था। इसका विवरण आगे दिया गया है।)


           ‌‌             [ग] -  ययाति :-

ययाति श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र थे और उनकी माता "विरजा" गोलोक की गोपी थीं। ऐसे में ययाति अपने माता-पिता के गुणों एवं ब्लड रिलेशन से गोप ही थे। इसी वजह से वे राजा होते हुए भी बड़े पैमाने पर गोपालन किया करते थे। और यज्ञ आदि के समय अधिक से अधिक गायों का भी दान किया करते थे। ययाति और उनके पिता नहुष को एक ही साथ गोपालक होने की पुष्टि- महाभारत अनुशासनपर्व के अध्याय -८१ के श्लोक संख्या-५-६ से भी होती है।

"मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।।५।

गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।। ६।

अनुवाद - युवनाश्‍व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् गोलोक को चले गये। ५-६।
अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र "ययाति" भी गोप (अहीर) थे। ययाति की तीन पत्नियाँ थीं, जिनके क्रमशः नाम हैं - देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमति। उसमें देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री थी और शर्मिष्ठा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री थी। तथा अश्रुबिन्दुमति कामदेव की पुत्री थी।  जिसमें ययाति की दो पत्नियों का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय- १८ के श्लोक- ४ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -

'चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातृन् भ्राता यवीयशः।
कृतदारो जुगोपोर्वी काव्यस्य वृषपर्वणः।। ४।

अनुवाद - ययाति अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्य राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे।४।
               
(ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमति कब ययाति की पत्नी हुईं इस बात को इसी प्रसंग में आगे बताया गया है।)
       
आगे ययाति की इन दो पत्नियों से कुल पाँच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्यु, अनु, और पुरु हुए।  किन्तु अश्रुबिन्दुमति सदा पुत्रहीन रही।
       
ज्ञात हो कि - ययाति अपनी तीनों पत्नियों में कभी सामञ्जस्य नहीं बैठा पाए। क्योंकि ये तीनों आपसी सौत होने की वजह से हमेशा एक दूसरे से (ईर्ष्या) करती थीं। विशेष रूप से अश्रुबिन्दुमति से तो देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों और अधिक ईर्ष्या करती थीं। जिसका परिणाम यह हुआ कि कलह बढ़ता ही गया, अन्ततोगत्वा ययाति ने क्रुद्ध होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बेवजह (बिनाकारण) ही शाप दे दिया। किन्तु पिता का यही शाप आगे चलकर यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ। वह शाप कैसा था और क्यों दिया गया ? इसका विस्तार वर्णन पद्मपुराण के खण्ड (२) के अध्याय- (८०) के श्लोक -३ से लेकर १४ तक  मिलता है। जिसका श्लोक और अनुवाद दोनों नीचे दिया गया है।

• यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।। ३।

• तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।। ४।

• रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
  शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।। ५।

• दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
  राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।। ६।

• अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
  शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।। ७।

• सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
  एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा।। ८।

• प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं  पितरं  प्रति   मानद ।
   नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।। ९।

• मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
  तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।। १०।

• दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत्।
  भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।। ११।

• पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
  एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।। १२।

• यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह।
  शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।।१३।

• यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि।
  मातुरंशं भजस्व त्वं  मच्छापकलुषीकृतः।।१४।

  अनुवाद- (३- से १४ तक)
• सुकर्मा ने कहा– जब वह राजा (ययाति) कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गये, तो उच्च विचार वाली देवयानी उसके साथ बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।३।

•इस कारण ययाति ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) जो देवयानी से उत्पन्न थे; उनको शाप दे दिया। और राजा ने दूत के द्वारा शर्मिष्ठा को बुलाकर ये शब्द कहे। ४।
• शर्मिष्ठा और देवयानी दोनों रूप, तेज और दान के द्वारा उस अश्रु- बिन्दुमती के साथ प्रतिस्पर्धा करती हैं। ५
• तब काम देव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती ने उन दोनों के दुष्टभाव को जाना तो उसने राजा को वह सब बातें उसी समय कह सुनायीं।६।
• तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अर्थात अपनी माता (देवयानी) को मार डालो।७।
• हे पुत्र तुम मेरा प्रिय करो यदि तुम इसे कल्याण कारी मानते हो तो। अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा। ८।

• मान्यवर ! पिता श्री ! मैं निर्दोष दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। ९।
क्योंकि- वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। इसलिए महाराज ! मैं इन दोनों माताओं का बध नहीं करुँगा। १०।

• हे राजन ! (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक पुत्री पर हजार दोष लगें हो। ११।
• तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए ! यह जानकर महाराज मैं दोनों माताओ को नहीं मारुँगा। १२।
• उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये। इसके बाद पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अपने पुत्र को शाप दे दिया। १३।
• चूंकि तुमने आज मेरे आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम सदा मातृभक्त बने रहो और अपनी माँ के अंश का ही भक्ति भजन करो।१४।

पिता की इतनी बातें सुनने के बाद यदु ने अपने पिता राजा ययाति से विनम्रता पूर्वक उस राज्य का नागरिक होने के नाते से पूछा था-

हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूँ।, फिर भी आपने मुझे क्यों शाप दिया ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।

तब यदु के इस प्रकार निवेदन करने पर ययाति नें यदु से जो कुछ कहा उसका वर्णन- पद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय- ७८ के श्लोक संख्या- ३४ में है-
                    "राजोवाच-
'महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक।
करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव।। ३४।

तब राजा ने कहा- हे पुत्र ! जब महान देवता श्रीकृष्ण (स्वराट विषषणु) अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेंगे तब तेरा कुल शुद्ध हो जाएगा। ३३-३४।

✳️ ज्ञात हो- अनन्त ब्रह्माण्ड में अनन्त छोटे विष्णु, ब्रह्मा, और महेश हैं। किन्तु स्वराट विष्णु (श्रीकृष्ण) एक हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है। जो सभी देवताओं के भी ईश्वर और महान देवता हैं। उनका निवास स्थान सभी लोकों से ऊपर है। उसका नाम है गोलोक, उसी गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) रहते है। इस बात की सम्पूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय दो और तीन को अवश्य पढें।)
   
और आगे चलकर ययाति का यहीं शाप यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ, क्योंकि ययाति के कथनानुसार कालान्तर में यदु के वंश में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। इस बात की सम्पूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय- (४-५) को पुनः देखें।

इस प्रकार से अध्याय- (६) गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों के परिचय के साथ समाप्त हुआ। जिसमें आप लोगों ने वैष्णव वर्ण के गोप राजाओं पुरुरवा, आयुष, नहुष, ययाति तथा उनकी पत्नियों व पुत्रों इत्यादि को भी जाना।
               इसी क्रम में इसके अगले अध्याय-(७) में-
"यदुवंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपत्तियों के बारे में बताया गया है। इसके साथ ही यादवों के वंश वृक्ष को विधिवत बताया गया है। उसे भी इस अध्याय के साथ जोड़ कर अवश्य पढ़ें।