मोहम्मद जाहिद की फेसबुक वॉल से साभार-
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इस देश की स्वतन्त्रता के बाद चार सबसे बड़े आन्दोलन हुए हैं, चारों का आधार झूठ था.. और झूठ साबित हुआ....
"भारत देश धर्म के नाम पर स्थापित आडम्बर और बाह्य दिखावों पर आधारित आस्थाओं का देश है। यहाँ चमत्कार भी बिना किसी कार्य- कारण सिद्धान्त के विना प्राकृतिक नियमों के विपरीत भी होते हैं।
पहला था, जेपी आंदोलन, मुख्यतः बिहार के मुसलमान मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर साहब को हटाने से शुरू हुआ और जय प्रकाश नारायण ने नारा लगाया "गाय हमारी माता है - इसको गफुरवा खाता है".. और यह सबसे बड़ा झूठ था.. !
इस आंदोलन से ही मृतप्राय और गांधी जी की हत्या का कलंक ढो रही आरएसएस और जनसंघ का एक तरह से पुनर्जन्म हुआ और संघ ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और जयप्रकाश नारायण ने भी संघ को स्थापित किया...
इस आंदोलन का मकसद जो भी था, परिणाम यह रहा कि इंदिरा गांधी दो साल के अंदर प्रचंड बहुमत से चुन कर आईं और जेपी आंदोलन के सारे उद्देश्य आज तक बने हुए हैं बल्कि स्थितियां और भी बदतर है।
मगर उस आंदोलन से देश सत्ता बदली।
दूसरा आंदोलन विश्वनाथ प्रताप सिंह के द्वारा बोफोर्स तोप और सेंट किट्स बैंक खातों को लेकर हुआ और इसी आरोप में इलाहाबाद के तत्कालीन सांसद अमिताभ बच्चन के लोकसभा से इस्तीफा देने के बाद इलाहाबाद लोकसभा उप चुनाव में मैं प्रत्यक्षदर्शी रहा कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कैसे कैसे झूठ बोले और एक जगह की सभा की भीड़ शहर के दूसरे मुहल्ले में होने वाली सभा में ट्रांसफर करने के लिए कहते थे कि उनके जेब में एक पर्ची है जिसमें राजीव गांधी के सेंट किट्स बैंक खाते और उसमें जमा ₹64 करोड़ का सारा कच्चा चिट्ठा है , वह मैं थोड़ी देर बाद फला मुहल्ले में होने वाली अपनी सभा में खुलासा करूंगा...
भीड़ एक सभा से दूसरी सभा में ट्रांसफर हो जाती, बहुत छोटी उम्र थी इसलिए बहुत हल्की स्मृति है कि उनकी पीडी टंडन पार्क की सभा से कीडगंज में होने वाली सभा में मैं भी उत्सुकतावश गया था। मगर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कभी भी वह पर्ची अपनी जेब से नही निकाली।
उच्चतम न्यायालय ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स मामले सहित, सेंट किट्स बैंक तक के सारे आरोप को झूठा करार दिया , और कुछ भी साबित नहीं हो सका।
मगर उस आंदोलन से देश की सत्ता बदली।
इसके बाद तीसरा आंदोलन बाबरी मस्जिद - राम मंदिर को लेकर इस देश में आंदोलन हुआ, आंदोलन जिन मुद्दों और नारों पर था, उन सभी मुद्दों और नारों को बाबरी मस्जिद के बारे में दिए अंतिम फैसले में उच्चतम न्यायालय ने ही झूठा करार दिया, हालांकि अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करके बाबरी मस्जिद की ज़मीन भी उन्हीं को दे दी।
मगर 35 साल राम मंदिर का आंदोलन जिन जिन बिंदुओं और नारों पर हुआ वह सभी उच्चतम न्यायालय में झूठे साबित हुए..
मगर उस आंदोलन से देश की सत्ता बदली..
चौथा आंदोलन अन्ना हजारे द्वारा किया गया और वह भी झूठा साबित हुआ, अन्ना हजारे झूठा साबित हुआ। अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने हर मर्ज की दवा "लोकपाल" का ख़्वाब देश को दिखाया और तत्कालीन डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगाए जिसमें 2G , Caol इत्यादि शामिल थे।
उच्चतम न्यायालय में यह सारे आरोप झूठे साबित हुए, और "लोकपाल" का क्या हुआ आप खुद देख लें, खुद अरविंद केजरीवाल के दिल्ली में 10-11 साल मुख्यमंत्री रहते और पंजाब में उनकी पार्टी की सरकार रहते "लोकपाल" किस चिड़िया का नाम है किसी को नहीं पता।
मगर उस आंदोलन से देश की सत्ता बदली..
इन चारों झूठ पर आधारित आंदोलन में तीन बात बिल्कुल कामन थीं, एक तो चारों आंदोलन ने देश की सत्ता बदली और दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चारों आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और तीसरा यह कि चारों आंदोलन का आधार झूठ था....
यह सब राजा हरिश्चंद्र, धर्मराज युधिष्ठिर , मर्यादा पुरुषोत्तम राम, कृष्ण और दुनिया को "सत्य अहिंसा और प्रेम" का सूत्र देने वाले महात्मा गांधी के उस देश में हुआ जहां के राष्ट्रीय चिह्न में "सत्यमेव जयते" लिखा हुआ है।
कहने का अर्थ यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ "झूठ" के आधार पर भी इस देश में बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा करके सत्ता पलट सकती है मगर स्वतंत्रता आंदोलन करने का इतिहास रखने वाली कांग्रेस में वह करंट नहीं कि सच के आधार पर एक वैसा आंदोलन खड़ा कर सके...
"वोटचोरी" वही सच है ...
आप कहेंगे कि "वोटचोरी" मुद्दा बिहार चुनाव में नहीं चला, तो आपको बता दूं कि वह दौर और था जब झूठ पर चार आंदोलन होकर सत्ता पलट दिया जाता था। अब तो नोटबंदी में लाखों बर्बाद करने लाठियां खाने। कोविड में हर घर में दो चार के मरने और अपने परिजनों की लाशों को बालू में गाड़ने , उन्हें कुत्तों द्वारा नोचने के दृश्य पर भी लोग गुस्सा नहीं होते , यह चुनाव में मुद्दा नहीं बनता...
कोई और देश होता तो उलट पलट हो जाता।
जनता मुर्दा हो चुकी है, वह सिर्फ इस्लाम, मुगल और मुसलमान नाम और चेहरा देखकर डरती है और उसमें जान आती है। कब्र में आराम कर रहे शहाबुद्दीन से डरती है , 500-600 साल मर खप गये औरंगज़ेब और बाबर से डरती है।
इन्हें झिंझोड़ना होगा।
राहुल गांधी ने वोट चोरी को लेकर तीन प्रेस कॉन्फ्रेंस की , आप उन्हें पप्पू गप्पू जो भी कहें पर उनके रखे सबूतों को नकार नहीं सकते, मगर यह मुद्दा चुनाव में नहीं है। कोई और देश होता तो नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश बन चुका होता....
*सड़क पर उतरना ही होगा , देशव्यापी आंदोलन करना ही होगा* , क्योंकि यह उनके राजनैतिक जीवन का अंतिम अवसर है और बिहार चुनाव का एक बहुत डरावना परिणाम उनके सामने है...
••••कल चुनाव आयोग को बचाने के लिए संघ के बुद्धिजीवी मंच विवेकानंद फाउंडेशन ने 272 रिटायर्ड अंकिल लोगों को आगे कर दिया है, यह लोग भारत में इससे पहले कभी किसी विषय पर इतना मुखर नहीं हुए•••
•••इनके पत्र जिसमें सिर्फ राजनीति और राहुल गांधी पर घटिया आरोप है वह भी विवेकानंद फाउंडेशन द्वारा लिखा ही प्रतीत होता है..
•••इन सब रिटायर्ड अंकिलों का लोकेशन ट्रैक करिए , सब आपको वहीं जाते दिखाई देंगे.. विवेकानंद फाउंडेशन ..जो रिटायर्ड ब्युरोक्रेट्स , रिटायर्ड जज , रिटायर्ड सैन्य अधिकारी, रिटायर्ड पत्रकार , रिटायर्ड बैंकर्स इत्यादि इत्यादि का अड्डा है जिनके संबंधों के ज़रिए वह देश की सभी व्यवस्था में घुसने का काम करती है।••••
••••समझिए कि ज्ञानेश गुप्ता को कौन बचा रहा है।•••
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश गुप्ता अपने पद पर अगले चार साल अर्थात 2029 तक बने रहेंगे और तब तक देश में 32 विधानसभा और 1 लोकसभा का चुनाव होना है...
*यह नहीं रुका तो आपके अधिकार ख़त्म हो जाएंगे.... लोकतंत्र खत्म हो जाएगा, संविधान खत्म हो जाएगा क्योंकि जो दिख रहा है उसमें यदि यह सफ़ल हो गये तो भारतीय लोकतंत्र का चीन, रूस और उत्तर कोरिया होना तय है...
*राहुल गांधी जी के पास "अनिश्चितकालीन आमरण अनशन" ही अंतिम विकल्प है, डेडलाइन देकर बैठ जाएं , एक सुत्रीय मुद्दा सिर्फ यह हो कि "ज्ञानेश गुप्ता" को हटाया जाए और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पैनल में पुनः शामिल करके नया निष्पक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जाए....
रामलीला मैदान की प्रस्तावित रैली में ही इसकी घोषणा कर दें , सत्य को जिता दें , सत्यमेव जयते को सिद्ध कर दें, नहीं तो पश्चिम बंगाल और आसाम भी गया... अगले 32 भी जाएंगे....
क्योंकि वोट चोरों का लक्ष्य वही है , चीन , उत्तर कोरिया और रूस...
रामलीला मैदान में कांग्रेस की प्रस्तावित रैली को हम सब को लोकतंत्र बचाए रखने के लिए एक सच्चे आंदोलन में बदलना होगा -
देश के आंदोलनों का इतिहास जितना बाहर से भीड़ का शोर है, उतना ही अंदर से सत्ता की कथा भी है। यह विशेष बात है कि जिन चार आंदोलनों ने इस गणराज्य की दिशा मोड़ी, वे सभी उन क्षणों में उठे जब जनता को सच नहीं, एक सरल और भावनात्मक कहानी चाहिए थी। यही वह बिंदु है जहाँ लोकतंत्र अपनी सबसे बड़ी कमजोरी दिखाता है—वह सत्य की अपेक्षा कथा पर जल्दी विश्वास करता है।
मसला केवल यह नहीं कि चारों आंदोलनों का आधार झूठ साबित हुआ। मसला यह है कि झूठ ने हर बार सत्य को हराया, और जनता ने हर बार उसी झूठ को अपने उद्धारकर्ता की तरह अपनाया। यह राजनीतिक विफलता नहीं, सामूहिक मनोवैज्ञानिक विफलता है।
भारत में सत्ता बदलने वाले आंदोलनों ने जनता को कभी यह नहीं सिखाया कि गलतियों से कैसे सीखें; उन्होंने सिर्फ यह सिखाया कि भावनाएँ तथ्यों से बड़ी होती हैं। और यही वह दरार है जहाँ से संघ ने अपने लिए स्थायी रास्ता बना लिया: जब भी देश का सच बोझिल लगे, उसे बदल दो; जब भी इतिहास कठिन लगे, उसे हल्का कर दो; जब भी यथार्थ में असफलता दिखे, एक नया दुश्मन खोज लो।
हमारा लोकतंत्र तब-तब कमजोर हुआ जब उसने तर्क को त्यागकर आस्था में शरण ली—और यह आस्था किसी देवता की नहीं, राजनीतिक मिथकों की थी।
आज की स्थिति और अधिक खतरनाक इसलिए है कि झूठ अब आंदोलन की शुरुआत नहीं, शासन का ढांचा बन चुका है। पहले झूठ सत्ता पाने के लिए बोला जाता था; अब उसे सत्ता टिकाने के लिए संस्थागत बनाया जा रहा है।
वोट चोरी का मुद्दा सिर्फ चुनावी गड़बड़ी का प्रश्न नहीं है। यह वही निर्णायक मोड़ है जहाँ जनता तय करती है कि क्या वह नागरिक रहना चाहती है या सिर्फ भीड़ बनकर जीना चाहती है। जो देश अपने वोट की रक्षा नहीं करता, वह अपनी भविष्य की रक्षा भी नहीं कर सकेगा।
सत्ता बदलने वाले झूठ कोई संयोग नहीं थे। वे एक सामाजिक प्रयोग थे, यह समझने के कि कितनी दूर तक जनमानस को कथा से संचालित किया जा सकता है। और आज की स्थिति दिखाती है कि यह प्रयोग अपने सबसे सफल चरण में प्रवेश कर चुका है।
इसलिए असली सवाल यह नहीं कि कांग्रेस क्या करेगी। असली सवाल यह है कि देश आखिर कब यह समझेगा कि अगर सत्य की हिफाजत न की जाए, तो लोकतंत्र की हिफाजत किसी अदालत या संविधान के बस में नहीं रहती।
यह सिर्फ राजनीतिक संघर्ष नहीं, यह सामूहिक आत्मा की परीक्षा है।
और इतिहास गवाही देता है—समाज उतना ही टिकता है जितना सत्य को बचाने का उसका साहस।
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