परन्तु ययाति ने ज्येष्ठ पुत्र यदु को यौवन न देने के कारण कुपित होकर राजपद के उत्तराधिकार से वञ्चित कर दिया था ।
जब राजा ने देवयानी के पुत्रों के समक्ष यह यौवन - स्वा प्रत्यारोपण प्रस्ताव रखा तो बड़े पुत्र यदु ने इसे पाप और अनैतिक मानकर अस्वीकार कर दिया
क्योंकि पुत्र के यौवन से पिता पुत्र की माता के साथ ही विषय-भोग करेंगे
और यह पुत्र द्वारा ही किया गया अपनी माता के साथ व्यभिचार है ।
अर्थात् ययाति अपने जिस जिस पुत्र पर यौवन न देने के कारण क्रुद्ध हुए उसी उसी पुत्र के ये विरुद्ध भी हुए ।
परन्तु शर्मिष्ठा के कनिष्ठ (छोटे ) पुत्र द्वारा ययाति को यौवन देने के कारण उसे ही राज पद का अधिकारी घोषित कर दिया ।
यद्यपि तत्कालीन कुछ ऋषियों ने ययाति की इस परम्परा से विस्थापित राजतन्त्र -व्यवस्था का विरोध भी किया ।
परन्तु ययाति क्रोधवश अपनी बात पर अडिग रहे
ययाति के द्वारा यदु और तुरवसु के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने के कारण में पुराणों में यह प्रसंग था ________________________________________
महाभारत के आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भवपर्व के बयासीवें अध्याय में भी यह आख्यान है
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हरिवंश पुराण में भी यह वर्णन इस प्रकार से है !
स एवम् उक्तो यदुना राजा कोपसमन्वित:उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्।27।
•-यदु के ऐसा कहने पर ( अर्थात् यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।27।।
क आश्रयस्तवान्योऽस्ति को वा धर्मो विधीयते ।मामन आदृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक: ।।28।
•-दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है।
मैं तो तेरा (देशिक)गुरु हूँ ( फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।28।
किंतु महाराज ययाति ने भी परंपरा के विरुद्ध जाकर अपने बड़े पुत्र यदु को राजा न बनाकर अपने सबसे छोटे पुरु को राजा बना दिया।
और अन्त नें ज्येष्ठ पुत्र यदु को दक्षिण दिशा में जाकर रहने और राज्य हीन होने का ययाति द्वारा शाप
दे दिया गया जैसा कि आगामी श्लोक वर्णन करता है
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एवमुक्त्वा यदुं तात शशापैनं स मन्युमान्।अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ।।२९।
•-तात ! अपने पुत्र यदु से ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययाति 'ने उसे शाप दिया– मूढ ! नराधम तेरी सन्तानें सदा राज्य से वञ्चित रहेगी ।।२९।
अधिकतर पुराणों में ययाति द्वारा यदु को दिए गये शाप का वर्णन है ।
पहले तो ययाति का यह प्रस्ताव ही अनुचित था ।
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क्यों कि शाप भी वही दे सकता है
जो पीड़ित है और उसकेे द्वारा शाप उसी को दिया जा सकता है
जो वस्तुत: पीड़क है !
परन्तु अनुचित कर्म करने वाला राजा ययाति ही दोषी है ; जो अपने पुत्र के यौवन से ही पुत्र की माता का उपभोग करना चाहता है और बात करता है।
धर्म कि अत: राजा ययाति का यौवन प्रस्ताव पुत्र की दृष्टि में धर्म विरुद्ध ही था ।
परन्तु मिथकों में ययाति की बात सत्य बताकर शाप देने और पाने के पात्र होने के सिद्धान्त की भी हवा निकाल दी ..
जब ययाति का यौवन विनिमय -प्रस्ताव ही पूर्णत: अनैतिक था
तो यदु उन्हें यौवन क्यों देते
जब पिता ने ज्येष्ठ पुत्र यदु को राज्य से वञ्चित किया तो
कालान्तरण में यदुवंशीयों 'ने राजा की व्यवस्था को ही बदलकर लोक तन्त्र की व्यवस्था की समाज में स्थापना की तभी से वर्ण व्यवस्था आदि ब्राह्मणीय अव्यवस्थाओं को यादवों ने स्वीकार नहीं किया।
ये ही कालान्तर में आभीर रूप में इतिहास में उदय हुए .________________________________________
वेदों के पुरोहितों का यदु और तुरवसु को अपने अधीन करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना ...
प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः।नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् l8l
अन्वय:- प्रि॒यासः॑। इत्। ते॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒भिष्टौ॑। नरः॑। म॒दे॒म॒। श॒र॒णे। सखा॑यः। नि। तु॒र्वश॑म्। नि। याद्व॑म्। शि॒शी॒हि॒। अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑। शंस्य॑म्। क॒रि॒ष्यन् ॥८॥
ऋग्वेद -(मण्डल:-सूक्त: ऋचा : 7/19/8)
पदों का हिन्दी अन्वयार्थ -(मघवन्) बहुत धन देनेवाले इन्द्र (सखा मित्र होते हुए (प्रियासः) प्रीतिमान् वा प्रसन्न हुए (नरः) नायक मनुष्य हम लोग (ते) आपके लिए (अभिष्टौ) सब ओर से प्रिय सङ्गति में (शरणे) शरणागत में (मदेम) आनन्दित हों।
आप (तुर्वशम्). तुरवसु को (नि, शिशीहि) निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (याद्वम्) यादवों को भी (नि) (शिशीहि )निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (अतिथिग्वाय) अतिथिगु के लिए
(शंस्यम्) प्रशंसनीय को (इत्) ही (करिष्यन्) करते हुए बनिए ॥८॥
यही ऋचा अथर्ववेद में भी
(काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७ पर है
प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य ने इसका अर्थ सायण सम्मत इस प्रकार किया है ।
हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
अथर्ववेद में भी
(काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७ पर है ।
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और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना यदु और तुरसु के प्रति
आज ही नहीं अपितु वैदिक काल मैं भी थी यह इस आगामी ऋचा में देखे देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो
मदेष्वा , अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल में कुछ ऋचाऐं हैं ..
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सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्।व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४५/२७
हे इन्द्र ! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्”
(ऋ० ८, ४५, २७ )
यदु को दास अथवा असुर कहना भी सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
क्योंकि असुर और दास जैसे शब्द देवों से भिन्न संस्कृतियों के उपासकों के वाहक थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सैमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
अब इसी लिए देव उपासक पुरोहितों ने यदु और तुरवसु के विरोध में और इनके वंश को विश्रृंखल करने के लिए अनेक काल्पनिक प्रसंग जोड़ दिये जैसे
भारतीय पुराणों में वर्णित यदु को ही वेदों में गोप और गोपालक के रूप में वर्णन किया है ।
कालान्तरण इतिहास में ये आभीर गोप अथवा गोपालकों के रूप में दृष्टिगोचर हुए ।
गायों का चारण और वन-विहारण और दुर्व्यवस्थाओं के पोषकों से निर्भीकता से रण !
इन आभीर वीरों के संकल्प में समाहित थे ..
जिन लोगों पुरोहितों के समाज विरोधी कार्यों का विरोध किया वे विद्रोही कहलाए जिन्हें वर्ण व्यवस्था के के निर्धारण में निम्न पायदान पर रखा गया
ऐसा ही यदु और तुर्वसु के साथ भी हुआ ।
जब यदु को ही वेदों में दास कहा है ।
और फिर कालान्तरण में जब दास शब्द का दाता और दानी से पतित होते हुए गुलाम अर्थ हुआ तो शूद्रों को दास विशेषण का अधिकारी बना दिया ।
परन्तु यह दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाह" शब्द के रूप में उच्च अर्थों का ही द्योतक है !
'परन्तु यह सब द्वेष की पराकाष्ठा या चरम-सीमा ही है ।
कि अर्थ का अनर्थ कर कर दिया जाय...
ऋग्वेद में यदु के गोप होने के विषय में लिखा है कि
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी।गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;
गो-पालक ही गोप होते हैं
उपरोक्त ऋचा में यदु और तुरवसु के लिए
(मह्- पूजायाम् ) धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।
वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव- संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
परन्तु सम्भवतः दास का एक अर्थ दाता भी था वैदिक निघण्टु में यह निर्देश है ।
परन्तु ऋग्वेद की प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है।
दास शब्द का यहांँ उच्चतम अर्थ दाता अथवा उदार भी है
अथवा नहीं परन्तु तत्कालीन समाज में असुरों के अर्थ मे ही दास और दस्यु समानार्थी शब्दों का प्रयोग था ।
इसी लिए प्रशंसा करने में मामहे आत्मनेपदीय क्रिया पद लट्लकार वर्तमान काल उत्तम पुरुष
बहुवचनमें प्रयुक्त है !
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करनेो वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ ।
वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वश में करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।
जिनको हम प्रकरण के अनुरूप उद्धृत कर चुके हैं
यदु का इतिहास यद्यपि इजराएल से लेकर सुमेर
( मैसोपाटामिया) तक न सीमित होकर भारतीय देव संस्कृति के अनुयायीयों के वैदिक ग्रन्थो में भी आयात हुआ है ...
हिब्रु बाइबिल के जैनेसिस खण्ड में
अबीर शब्द ईश्वर का वाचक है
वैदिक यदु को बाइबिल में "यहुदह् " के रूप में वर्णित किया ।
यहुदह् के पिता याकूव जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है और बाइबिल में
इसी याकूव को अबीर और इजराएल कहा गया है !
अबीर का अर्थ शक्तिशाली है ।
परन्तु कालान्तरण में फलिस्तीन में ही यहूदीयों का एक लडाकू कबीला ही अबीर हुआ ..
जो भारतीय सन्दर्भ में आभीर (अहीर ) हैं ...
अनुवाद :-
हिब्रू बाइबिल में अहीर के अर्थ
אָבִיר विशेषण मजबूत ; हमेशा = भगवान (कविता) के लिए मजबूत , पुराना नाम; केवल निर्माण ַ
constructִִיר י in עֹקesisב उत्पत्ति 49:24 में और भजन संहिता 132: 2 ; भजन १३२: ५ ; यशायाह 49:26 ; यशायाह 60:16 ; יִשְׂרָאֵל ' א यशायाह 01:24
उत्पत्ति 49:24
HEB: יָדָ֑יו מִידֵי֙ אֲבִ֣יר יַעֲקֹ֔ב מִשָּׁ֥ם
NAS: हाथ से ताकतवर एक की याकूब की
KJV: हाथ से ताकतवर याकूब की [भगवान];
INT: हाथ वहाँ याकूब के ताकतवर के हाथ
भजन १३२: २
HEB: לmיהו ה נ ר לַאֲבַיר יִ֥ע קֹֽב׃
NAS: और पराक्रमी में से एक याकूब,
KJV: [और] ने याकूब के पराक्रमी [भगवान] की कसम खाई;
INT: यहोवा के पास गया औरयाकूब की ताकत की कसम खाई
भजन १३२: ५
HEB: לm יהוִ֝שְׁכָּה מ֗נֹו 132 ת ל ארב יר יַעֲקֹֽב׃
NAS: जैकब के शक्तिशाली एक के लिए एक निवास स्थान।
केजेवी: जैकब के शक्तिशाली [भगवान] के लिए एक बस्ती।
INT: प्रभु एक में रहने वाली ताकतवर याकूब की
यशायाह 1:24
HEB: יְהוצְה ָב֔אֹוֲת אֲבִ֖יר יֵ֑ר אֵ֑ל ה֚וֹי
NAS: मेजबानों का, पराक्रमी एक इज़राइल,
KJV मेजबान के लिए, शक्तिशाली इजरायल में से एक ,
INT: मेजबानइसराइल के ताकतवर आह
यशायाह 49:26
HEB: מֽו 49 יעְגֹ וֲאֲלֲ אֲבִ֥יר יֹֽע קַב׃
: NAS: और आपका उद्धारक,जेकब का पराक्रमी ।
KJV: और तेरा उद्धारक,याकूब का पराक्रमी ।
INT: आपका उद्धारकर्ता औरयाकूब का पराक्रमी आपका उद्धारक हूँ
यशायाह 60:16
HEB: מֽו 60 יעְגֹ וֲאֵ֖ךְלֲ אֲבִ֥יר יֹֽע קַב׃
NAS: औरयाकूब का पराक्रमी आपका उद्धारक।
KJV: और तेरा उद्धारक,याकूब का पराक्रमी ।
INT: आपका उद्धारकर्ता औरयाकूब का पराक्रमी आपका उद्धारक हूँ_
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समय के अन्तराल में अनुचित व्यवहार का विरोध करने वाले अथवा अपने मान्य अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने वालों को समाज के रूढ़िवादी लोगों ने कहीं विद्रोही तो ; कहीं क्रान्तिकारी, तो कहीं आन्दोलन -कारी तो कहीं कहीं आतंकवादी या दस्यु डकैत भी कहा है ।
क्योंकि जिन्होंने रूढ़िवादी लोगों दासता को स्वीकार नहीं किया वही विद्रोही दस्यु कहलाए थे
वैदिक काल में दस और दस्यु समानार्थी ही थे
और इनके अर्थ आज के गुलाम के अर्थो में नहीं थे 👇_________________________________________
यादवों से घृणा रूढ़ि वादी ब्राह्मण समाज की अर्वाचीन (आजकल की ही सोच या दृष्टिकोण ही नहीं अपितु चिर-प्रचीन है।
वैदिक ऋचाओं में इसके साक्ष्य विद्यमान हैं देखें-
ययाति पुत्र यदु को ही सूर्यवंशी इक्ष्वाकु पुत्र राजा हर्यश्व की पत्नी मधुमती में योग बल से पुन:जन्म देने कि प्रकरण ..
परन्तु लिंग पुराण के पूर्व भाग में शिव भक्त पुरुरवा को यमुना के तटवर्ती प्रयाग के समीप प्रतिष्ठान पुर(झूँसी )
का राजा बताया है ;जिसके सात पुत्र थे
आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य:ये सात पुत्र थे ।
आयुष् के पाँच पुत्र थे नहुष इनका ज्येष्ठ पुत्र था
नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति (विजाति)और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली-विक्रमशाली पुत्र उत्पन्न हुए ।
(लिंग पुराण के अनुसार यदुवंश के पूर्वजों से लेकर यदु तक का वर्णन है इस प्रकार है ) 👇
एलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान् ॥
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं पुण्यतमे देशे ॥५५॥
तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः ॥
गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः ॥५७॥
आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान् ॥
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः ॥५८॥
आयुषस्तनया वीराः पंचैवासन्महौजसः ॥
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः ॥५९॥
नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः ॥
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः ॥६०॥
उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः ॥
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पंचमोऽन्धकः ॥६१॥
विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः ॥
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः ॥६२॥
ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः ॥
तेषां ययातिः पंचानां महाबलपराक्रमः ॥६३॥
देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः ॥
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः ॥६४॥
______
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ॥
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ ॥६५॥
________________________________________
उपर्युक्त रूप नें लिंग पुराण के पूर्व भाग के छ्यासठवें अध्याय में भी यही बात है )
इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥६६॥
______________________________
इस प्रकार अत्रि से सोम, सोम से बुध, बुध से पुरुरवा, और पुरुरवा से आयुस् आयुस् से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली- पुत्र उत्पन्न हुए ।
पुराणों में नहुष का वर्णन सूर्य और चन्द्र दौनों वंशों के अन्तर्गत है ।
नहुषः के विषय में पुराणों तथा वाल्मीकि-रामायण में दो भिन्न प्रकार से वर्णन है ।________________________________________
(पुराणों में नहुषः पुरुरवा के पुत्र आयुष् का पुत्र होने से सोम वंशी ( चन्द्र वंशी) हैं )।
तो वाल्मीकि-रामायण में नहुषः सूर्यवंशी
( हैमेटिक) प्रशुश्रक के पुत्र राजा अम्बरीष के पुत्र होने से सूर्यवंशी हैं।
इस प्रकार नहुष अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा थे (प्रशुश्रक के पुत्र अंबरीष का पुत्र का नाम नहुष और नहुष का पुत्र ययाति था) ।
वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि 👇
शीघ्रगस्त्वग्रिवर्णस्य शीघ्रगस्य मरु: सुत: ।
मरो:प्रशुश्रुकस्त्वासीद् अम्बरीष: प्रशुश्रुकात्।।४१।।
अम्बरीषस्य पुत्रोऽभूत् नहुषश्च महीपति:
नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययाति:।।४२।
नाभागस्य बभूव अज अजाद् दशरथोऽभवत् ।अस्माद् दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।।४३।
(वाल्मकि रामायण बाल-काण्ड के सत्तर वें सर्ग में श्लोक संख्या ४१-४२-४३ पर देखें )
__________________________________________
अनुवाद :-- अग्निवर्ण ये शीघ्रग हुए ,शीघ्रग को मरु हुए और मरु को प्रशुश्रक से अम्बरीष उत्पन्न हुए ।
और अम्बरीष के पुत्र का नाम ही नहुष था।
नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था।
अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के ये राम और लक्ष्मण पुत्र हैं।
यदु नाम से यादवों के आदि पुरुष यदु को भी दो अवतरणों में स्थापित करने की चेष्टा की ।
क्यों कि यदुवंश उस समय विश्व में बहुत प्रभाव शाली था यदुवंश में ईश्वरीय सत्ता के अवतरण से ही तत्कालीन पुरोहित वर्ग की प्रतिष्ठा और वर्चस्व धूमिल होने लगा था
कृष्ण से लेकर जीजस कृीष्ट तक के लोग धर्म के नवीन संशोधित रूपों की व्याख्या करने के लिए प्रमाण पुरुष के रूप में आप्त पुरुष की भूमिका में प्रतिष्ठित हो गये थे।
इसी लिए पुरोहितों ने इनके इतिहास के सम्पादन में घाल- मेल कर डाला ।
यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ इस लिए उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है
दीर्घ काल से द्वेषवादी विकृतीकरण की दशा में पीढी दर पीढ़ी निरन्तर सक्रिय रहे ।
विश्व इतिहास में यदु द्वारा स्थापित संस्कृति तत्कालीन राजतन्त्र और वर्ण-व्यवस्था मूलक सामाजिक ढाँचे से पूर्णत: पृथक (अलग) लोकतन्त्र और वर्ण व्यवस्था रहित ही थी ।
द्वापर युग में कृष्ण ने कभी सूत बनकर शूद्र की भूमिका का निर्वहन किया जैसा कि शास्त्रों में सूत को शूद्र धर्मी बताया गया है ।
तो गोपाल रूप में वैश्य तथा क्षत्रिय वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया और श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भुमिका का निर्वहन किया ।
शास्त्रों में सूत को शूद्र-वर्ण कहा है
क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः” । “सूतानामश्वसारथ्यमम्यष्ठानां चिकित्सितम्” ।
सूतानां अश्वसारथ्यं अम्बष्ठानां चिकित्सनम् ।वैदेहकानां स्त्रीकार्यं मागधानां वणिक्पथः।10/47
अर्थात् सूत अश्व और सारथि का कर्म करें अम्बष्ठ चिकित्सा का कार्य करें और वैदहक स्त्रियों के श्रृंगार (प्रसाधन का कार्य करें और मागध वाणिज्य का कार्य करें )
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कृष्ण ने लोगों की उच्छिष्ठ पत्तल उठा कर भी एक सफाई कर्मचारी का कार्य किया
यह भी शूद्र की भूमिका थी ।_______________________________________
जिसके वंशजों ने कभी भी वर्ण व्यवस्था का पालन नहीं किया जैसे कि
कृष्ण ने भी स्वयं सारथी (सूत ) की भूमिका से शूद्र वर्ण की भूमिका कि पालन किया तो गोपालन से वैश्य वर्ण का परन्तु नारायणी सेना में भी गोप रूप में क्षत्रिय वर्ण का पालन किया ।
और श्रीमद् भगवद् गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया ...
______________________________________
क्योंकि वर्ण- व्यवस्था पालन तो जीवन पर्यन्त एक ही वर्ण में रहकर उसके अन्तर्गत विधान किये हुए कर्मों को ही करना है ।
परन्तु कृष्ण ने इस वर्ण-व्यवस्था परक विधान का पालन नहीं किया।
परन्तु श्रीमद भगवद् गीता के चतुर्थ अध्याय का यह तैरहवाँ श्लोक प्रक्षेप ही है
'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः,तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
चारों वर्ण मेरे द्वारा गुण कर्म के विभाग से सृजित किए हुए हैं;उसमें मैं अकर्ता के रूप में अव्यय हूं ऐसा मुझको जान (4/13)
वस्तुत: यहाँ इस श्लोक का मन्तव्य वर्ग या व्यवसाय व्यवस्था से ही है नकि जन्मजात मूलक वर्णन व्यवस्था से
अन्यथा गोप यदि वैश्य होते तो नारायणी सेना के योद्धा क्यों हुए ? क्योंकि वैश्य का युद्ध करना तथा शस्त्र लेना भी शास्त्र- विरुद्ध ही है
जैसा कि पुराणों में वर्णन है:- राजा ना भाग के वैश्य होने के विषय में (विशेष नाभाग सूर्यवंशी राजा थे)
अम्बरीषस्य पुत्रोऽभूत् नहुषश्च महीपति:नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययाति:।।४२।
(वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड सत्तर वें सर्ग में)
___________________________________
मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए
वर्णित है अर्थात्
( परिव्राट् मुनि ने कहा ) हे राजन् आपका पुत्र ( राजा दिष्ट का पुत्र नाभाग ) धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है ।
और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।
_______________________________________
त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मन् |
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्म वन्नृप ||30||
उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है
उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता ।
तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे वे वैश्य कहाँ हुए ?
यदि कृष्ण शास्त्रों को आधार मानकर चलते तो गोपो की
नारायणी सेना क्यों बनाते ?
महाभारत के द्रोण पर्व उन्नीसवें अध्याय में वर्णन है
नारायणी सेना के( शूरसेन वंशी आभीर ) और शूरसेन राज्य अन्य यादव योद्धा अर्जुन के विरुद्ध लड़ रहे थे ।
महाभारत के द्रोण पर्व के संशप्तक वध नामक उप पर्व के उन्नीस वें अध्याय तथा बीस वे अथवा में
गोपों की नारायणी सेना के योद्धा गोपों को अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए वर्णन किया है
अथ नारायणा: क्रुद्धा: विविधा आयुध पाणय:
क्षोदयन्त: शरव्रातेै: परिवव्रुर्धनञ्जयम् ।।७।।
अर्थ:-
तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के योद्धा गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने वाण समूहों से आच्छादित करते हुए चारों ओर से घेर लिया ।।७।।
अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ।कृष्णेन सहितं युद्धे कुन्ती पुत्रं धनञ्जय ।।८।।
अर्थ:-भरत श्रेष्ठ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।।
और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छै: और सात पर
नारायणी सेना के अन्य सैनिक आभीर वीर आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोण द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है
जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्च वीर्यवान् ।कलिङ्गाः सिंहलाः पराच्याः शूर आभीरा दशेरकाः।६।।
शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपथाश्च ये।ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः।७।।गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिता:।।
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल पराच्य (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।।
शक यवन ,काम्बोज, ,
हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।।६-७
(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)
महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और १९ पर
गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है।
मत्सहननंतुल्यानां ,गोपानामर्बुदं महत् ।
नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन: ।१८।
मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
ये सभी शास्त्रीय बातें गोलों के क्षत्रियत्व को प्रमाणित भी करती हैं ।
प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा भ्रान्त -मति राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने के लिए
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से
यह श्लोक उद्धृत करते हैं ।
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ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।
अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७।
अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध पन्द्रह वें अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है
इसे भी देखें---
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"सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्याप्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोेऽस्मि ।२०।
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हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
(भागवत पुराण१/१५/२०)
( श्रीमद्भगवद् पुराण प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह वाँ श्लोक संख्या २०(पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है।
अहीर आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धाओं की सेना थी ।
और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के समान था।
इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग पर्व में वर्णित है ।👇
क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता का पुनर्सम्पादन पाँचवी सदी में हुआ ।
जिसमें ब्राह्मणों ने कृष्ण के मुख से वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादक सिद्ध करने का मिथ्या प्रयास किया है।
यदु की व्यवस्था समाजवाद मूलक और वन संरक्षण व चरावाह परक कृषि संस्कृति मूलक ही थी
क्यों कि यदु ने अपने पिता के विपरीत लोक तन्त्र को स्थापन किया जिसे रूढ़िवादियों ने ययाति का शाप का रूप देकर परिहार करने की निरर्थक चेष्टा की
यादवों ने कभी वर्ण -व्यवस्था को नहीं माना ।
कारण वह राजतंत्र की व्यवस्था का अंग थी
और ये किसी के द्वारा परास्त नहीं हुए।
क्योंकि इनकी गोपों'की नारायणी सेना अजेय थी ।
उन्हे इसी नवीन भागवत धर्म की अवधारणा का भी जन्म हुआ था ।
अहीरों ने जब वर्ण व्यवस्था के नियमों का पालन नहीं किया तो तत्कालीन पुरोहित वर्ग ने (धर्म शास्त्रों) स्मृति ग्रंथों में इन्हें शूद्र और वर्णसंकर बनाने की असफल चेष्टा की और इसलिए ब्राह्मणों ने द्वेष वश अहीरों या यादवों को शूद्र वर्ण में निर्धारित करने की असफल चेष्टा की ।
ब्राह्मण अहीरों को इसलिए शूद्र मानते हैं ।
क्योंकि उनका वर्चस्व तत्कालीन पुरोहितों से अधिक था
द्वेष वश उन्होंने उनका वर्चस्व समाप्त करने के विधान बनाए ।
और उन्हें शूद्र मान लिया ताकि उनका वर्चस्व ही मिट जाय !
वस्तुत: --जो जन-जाति वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करती हो उसे आप न तो क्षत्रिय मान सकते हैं और नाहीं शूद्र ।
क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
जिसमें यदु और और तुर्वसु का समानान्तरण गोप अथवा गोपालकों के रूप में वर्णन है ...
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान
वेदों के ही अनुगामी हैं।
---जो बात वेद में है ;
उसी का विस्तार पुराणों में है।
अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
'परन्तु इन्द्र उपासक पुरोहितों ने इन्द्र से यदु और तुर्वशु को अपने वश में या अधीन करने लिए ही प्रार्थना की हैं ।
'परन्तु फिर भी वह कभी उन्हें अपने वश में नही कर पाए
सायद इतनी सामर्थ्य तो इन्द्र की भी नहीं थी ।
विदित हो कि वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण को दास अथवा शूद्र अथवा असुर (अदेव) आदि इन समानार्थक विशेषणों से भी ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में सम्बोधित किया गया है ।
परन्तु दास शब्द पूर्व -वैदिक काल में दाता और दानी कि वाचक था ।
ईरानी भाषा में दाहे के रूप में यह अब भी विद्यमान है ।
और यमुना की तलहटी में चरावाहे रूप में इन्द्र से कृष्ण का युद्ध भी हुआ यह भी वर्णन है ।
सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं ।
यादव उस समय कहीं अबीर तो कहीं अवर तथा कहीं अफर के रूप में सम्पूर्ण एशिया में महान जन-जाति थी ।
हम आपको बता चुके हैं कि दास शब्द वेदों में उन अर्थों में नहीं जिन अर्थों में लौकिक या आज के साहित्य में है ।__________________________________
यद्यपि कृष्ण और पाण्डवों के प्रतिद्वन्द्वीयों में समाहित रहने वाले यौद्धा जरासन्ध, और दमघोष आदि राजा एक ही कुल हैहयवंश के ही यादव ही थे
परन्तु उन्हें यादव कहकर पुराणकारों द्वारा कितनी बार सम्बोधित किया गया ?
सायद नहीं के बरावर ...
यह भी विचारणीय तथ्य है । इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है हरिवंश-पुराण से यह विश्लेषण
और किस प्रकार कालान्तरण में परवर्ती पुराण कारों 'ने यदु को ही एक रहस्यमय विधि से सूर्य वंश में घसीटने की भी कोशिश की ...
जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं ।
नहुष ययाति और यदु क्रमशः वर्णन वाल्मीकि रामायण में सूर्यवंश के अन्तर्गत भी है ।___________________
दरअसल भारतीय पुरोहित वर्ग 'ने यदु की कथाऐं सैमेटिक जनजातियों यहूदियों और असीरीयों से ग्रहण की और श्रुत्यान्तरण से उसमें व्युत्क्रम होना भी स्वाभाविक ही था।
विदित हो की यहूदी और असीरीयों ( असुर) दौनों' जनजातियाँ ही सैमेटिक लोग थे ।
भारतीय पुराणों में भी इसके संकेत हैं ।
ये असुर लोग ईरान और ईराक प्राचीन (मैसोपॉटामिया) दजला और फरात नदी के मुहाने में रहते थे ।
ईसापूर्व 2000 सालों में ये असीरियन लोग ही भारतीय पुराणों में असुर हैं ये साम के वंशज थे ।
जिन्हें भारतीय पुराणों ने सोमवंश कहा ..
'परन्तु जब ईसा० पूर्व की कुछ सदीयों में भारतीय मिथकों में यदु और तुर्वशु की कथाऐं समाविष्ट हुईं ।
तो पूर्वाग्रह 'ने कथाओं का स्वरूप ही बदल दिया।
हरिवंशपुराण हो या भागवत पुराण सभी में एक कृत्रिम विधि से कुछ बातें जोड़ी और तोड़ी गयी तो परिणाम स्वरूप विरोधाभास और एक क्षेपक उत्पन्न होने लगा ।
क्योंकि ये कथाएँ अनेक व्यक्तियों द्वारा लिखी गयीं थीं ______________________
किस प्रकार यादवों के आदि पुरुष यदु के वंशजों को ही एक शाखा को यादव तो दूसरी को भोज तीसरी को अन्धक तो चौथी को वृष्णि भी कहा गया 'परन्तु थे सभी यादव ही 'परन्तु भोज या अन्धक या भैम को क्यों यादव नहीं कहा गया ?
'परन्तु आभीर जो यदु के पूर्वज ययाति की भी उपाधि थी वह भी प्रवृत्ति मूलक विशेषण रूप में कालान्तरण में गोप अर्थ में समाहित हो गयी ।
आभीर यादवों का भी विशेषण रहा
जबकि ये भी यदु के वंशजों में सुमार थे ।🌸______________________________________
यादव शब्द ही कालान्तरण में केवल कुछ यदुवंशीयों के लिए रूढ़ हो गया था क्या ?
जैसा कि हरिवंश पुराण के निम्नलिखित श्लोक में भी यदुवंश में ही यादव अलग से एक कुल बताया गया है ।
जो पुरोहित वर्ग की मूर्खता पूर्ण अभिव्यक्ति ही है ।
जिसके विषय में हमने पूर्व संकेत किया ।👇
यह भविष्य वाणी नागराज धूम्रवर्ण करता है ; जो हर्यश्व- पुत्र यदु को अपनी पाँच कन्याऐं पत्नी रूप देता है।
देखें निम्न श्लोकों में ।
_____________________
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक ६५वें में यह उपरोक्त वर्णन देखें नीचे श्लोक रूप में ______________________
भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।_________________
अर्थ:- जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक ,दाशार्ह ,भैम, यादव, और वृष्णि नाम सात वंश वाले शाखा में प्रसिद्ध होंगे
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय
_____________________________________
अब हद तो तब हो गयी जब यदु को सैमेटिक या सोमवंश से हाइजैक कर हैम या सूर्य वंश में स्थापित करने की दुष्चेष्टा की गयी
दरअसल भारतीय पुराणों में यदु के विषय में जो कथाऐं आलेखित की गयीं हैं ; वे यहूदियों के आख्यानकों से ली गयीं हैं !
ऋग्वेद में उद्गाता पुरोहित यदु और तुर्वशु को परास्त करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं ।
इस बात को भी कम 'लोग'जानते हैं ।
क्योंकि जो यहूदियों के आख्यानकों में इश्हाक है वही पात्र पुराणों में इक्ष्वाकु है ।
कहीं सैमेटिक तो कहीं हैमेटिक रूप में इसे माना गया
भारतीय पुराणों में भी सोम का रूपान्तरण चन्द्र में कर के चन्द्र वंश की कल्पना कर ली गयी ।
जैसे हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सप्तत्रिंशोऽध्याय:
में वर्णित है कि वैवस्वत मनु के वंश में इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व राजा हुए ।
जो प्रजा का रञ्जन करते थे इसी राजा कहलाये ।
मधु असुर की पुत्री मधुवती ये हर्यश्व का विवाह हुआ ।_____
यह मधुवन गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है यहांँ आभीर या गोप जाति ही बहुतायत से रहती था इस प्रकार का वर्णन भी हरिवंशपुराण में है।
देखें निम्नलिखित श्लोक इस विषय में तथा हिन्दी अनुवाद विस्तृत रूप में_____
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 16-20 में हर्यश्व और मधुमती के विषय में वर्णित है 👇
हर्यश्व को राज्य देकर मधु तप करने वन में चला गया। ययाति पुत्र महाराज यदु योगबल से पुन: मधुमती के गर्भ में आए।
इनके वंश में ही मथुरा के सभी यादव हैं। जो आभीर रूप में पहले रहते हैं ।
प्राचीन प्रतियों में गोपों अथवा यादवों का विशेषण ही अधिकतर था परन्तु पुराणों के प्रकाशन के समय आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द आरोपित किया गया है ।
यादवों को गो पालक होनो से ही गोप कहा गया है | भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय प्रथम के श्लोक संख्या बासठ ( 10/1/62) पर स्पष्ट वर्णित है|
ये आभीर या गोप यादवों की शाखा नन्द बाबा आदि के लिए भी गर्गसंहिता , पद्म पुराण आदि ग्रन्थों में भी अवशिष्ट रह गया है ! 👇
नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः।
वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥ ६२ ॥
●☆• नन्द आदि यदुवंशीयों की वृष्णि की शाखा के व्रज में रहने वाले गोप और उनकी देवकी आदि स्त्रीयाँ |62|
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत |
ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्रता:।63||
हे भरत के वंशज जनमेजय ! ये सब यदुवंशी नन्द आदि गोप दौनों ही नन्द और वसुदेव सजातीय (सगे-सम्बन्धी)भाई और परस्पर सुहृदय (मित्र) हैं ! जो तुम्हारे सेवा में हैं| 63|| ( गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109)..
___________________
गर्गसंहिता में भी नीचे देखेें कि अहीरों या गोपों को यादव कहा है । 👇
_____________________
तं द्वारकेशं पश्यन्ति मनुजा ये कलौ युगे ।
सर्वे कृतार्थतां यान्ति तत्र गत्वा नृपेश्वर:| 40||
अन्वयार्थ ● हे राजन्- (नृपेश्वर)जो -(ये) मनुष्य- (मनुजा) कलियुग में -(कलौयुगे ) वहाँ जाकर- ( गत्वा) उन द्वारकेश को- (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं- (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं- (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।
हे राजन्- जो मनुष्य-कलियुग में वहाँ जाकर- उन द्वारकेश को कृष्ण को देखते हैं- वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं-।40।।
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे:।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते | 41||
अन्वयार्थ ● जो हरि के- ● यादव गोपों के-गोलोक गमन - चरित्र को- निश्चय ही- सुनता है- वह मुक्ति को पाकर- सभी पापों से- मुक्त होता है-।41
इति श्रीगर्गसंहितायाम् अश्वमेधखण्डे राधाकृष्णयोर्गोलोकरोहणं नाम षष्टितमोऽध्याय |
( इस प्रकार गर्गसंहिता में अश्वमेधखण्ड का राधाकृष्णगोलोक आरोहणं नामक साठवाँ अध्याय )
_______________________________________
और श्रीश्री राधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूपगोस्वामी 👇
ने भी अहीरों को यादव और गोप कहा जैसा कि राधा जी के सन्दर्भ में वर्णन है ⬇
_____________________________________
आभीरसुतां (सुभ्रुवां) श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |अस्या : शख्यश्च ललिता विशाखाद्या: सुविश्रुता:|83
_____________________________________
अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ; जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ हैं |83||
________________________________________
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद विश्वजित खण्ड सप्तम अध्याय ) 👇___________________________________
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४। ____________________________
कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
___________________________________
रूप गोस्वामी ने अपने मित्र "श्री सनातन गोस्वामी" के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का पुराणों से संग्रह किया
"श्रीश्री राधा कृष्णगणोद्देश्यदीपिका" के नाम से ...
परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा जिसमें परवर्ती
रूढ़िवादी यदु दोषक पुरोहितों के मान्यता का सन्दर्भित करते हुए इस पुरोहित वर्ग के गोपाल
के विषय में परवर्ती दृष्टिकोण को भी वर्णन किया है
जो स्मृतियों की मान्यता को पोषक थे ।
यद्यपि यह रूप स्वामी का अपना मत नहीं था परन्तु देव संस्कृति के इन्द्र उपासक पुरोहतों का ही मत था 👇________________________________
"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: । पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।
भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल (गोपाल), विप्र, तथा बहिष्ठ ( बाहर रहने वाले शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।
पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।
भाषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
(वणिकों में समाहित बारहसैनी बनिया भी अक्रूर यादव के वंशज हैं) ।
तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।
प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समीरिता: । अन्येऽनुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।
भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है ।
और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।
विदित हो की पर्जन्य की माता वैश्य वर्ण से सम्बद्ध थी जैसा कि (भागवतपुराण के दशम स्कन्द में
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् " श्लोकांश की व्याख्या पर श्रीधरीटीकी का भाष्य पृष्ठ संख्या 910)पर
स्पष्ट किया गया है । 👇
भ्रातरं वैश्य कन्यां शूरवैमात्रेय भ्रातुर्जात्वात् |
अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति :
गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं परं च ते यादवा एव " रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणात् इति स्कान्दे इति तोष○
अन्वयार्थ :~ यम् भ्रातरं÷ जिस भाई को |
वैश्य कन्यायां÷ चन्द्रगुप्त वणिक की पुत्री में। शूरवैमात्रेय ÷सूरसैन की विमाता ( सौतेली माँ) की सन्तान
विमात्रेय ( विमाता की सन्तान )
वि माता में ढक् प्रत्यय सन्तान बोधक है ।
जैसे
कुन्त्या:अपत्यम् ढक् । - “कौन्तेय!
विनतायाः अपत्यं ढक् "-वैनतेय
विमातृ मातृसपत्न्याम् ढक् -वैमात्रेय |
भ्रातुर्जात्वात्÷ सूर के भाई पर्जन्य के द्वारा उत्पन्न होने से |
अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति : ÷ इसीलिए ज्येष्ठ भाई इस प्रकार दुबारा कहा गया |
गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं÷ गोपां का वैश्य कन्या से उत्पन्न हने के कारण वैश्य होना रूढ़वादी पुरोहितों के द्वारा मान्य है |
परं च ते यादवा एव "÷ और ये सभी गोप परन्तु यादव ही हैं !
ऐसा भी इस श्रीधरी टीका में स्पष्ट ही है
_____________________________
पर्जन्य की माता और देवमीढ की इस पत्नी का नाम
"वरीयसी " था |
हिन्दी अनुवाद :●
शूर की विमाता (सौतेली माँ)वरीयसी के पुत्र पर्जन्य शूर के पिता की सन्तान होने से भाई ही हैं जो गोपालन के कारण वैश्य वृत्ति वाहक हुए अथवा वैश्य कन्या से उत्पन्न होने के कारण
यद्यपि दौनों तर्क पूर्वदुराग्रह पूर्ण ही हैं ।
क्यों कि माता में भी पितृ बीज की ही प्रथानता होती है जैसे खेत में बीज के आधार पर फसल का स्वरूप होता है --
दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये
"गावो विश्वस्य मातर: " महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !
और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है ...
राजा लोग गो की रक्षा और पालन का पुनीत उत्तर दायित्व सदीयों से निर्वहन करते रहे हैं राजा दिलीप नन्दनी गाय की सेवा करते हैं परन्तु वे क्षत्रिय ही हैं
परन्तु ये तर्क कोई दे कि दुग्ध विक्रय करने से यादव या गोप वैश्य हैं तो सभी किसान दुग्ध विक्रय के द्वारा अपनी आर्धिक आवश्यकताओं का निर्वहन करते हैं ...
अत: गोपाल या दुग्ध विक्रय प्रत्येक किसान करता है वे सभी वैश्य ही हुए जो अपने को क्षत्रिय या ठाकुर लिखते हैं वे भी दूध वेचते हैं वे सभी वैश्य है।
(भागवतपुराण दशम स्कन्द वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् " श्लोकांश की व्याख्या पर श्रीधरीटीकी का भाष्य पृष्ठ संख्या 910) 👇
ते वा युधि दुराधर्षा भवन्त्वेकस्य सैनिक:।अयुध्यमान: संग्रामे न्यस्त शस्त्रोऽहमकेत:।।१९।
एक ओर तो वे दुर्धर्ष योद्धा युद्ध के लिए तत्पर रहेंगे
और दूसरी और मैं अकेला ही रहुँगा ।
परन्तु मैं न तो युद्ध करुँगा और न कोई शस्त्र ही धारण करुँगा ।।१९।
आभ्यामन्यतरं पार्थ यत् ते हृद्यतरं मत मे ।यदि वृणीतां भवानग्रे प्रवार्यस्त्वं हि धर्मत:।।२०।
अर्जुन ! इन दोनों में से कोई एक वस्तु , जो तुम्हें मन को अधिक प्रिय जान पड़ती हो तुम पहले चुन लो ; क्यों कि धर्म के अनुसार तुम्हें ही अपनी मनचाही वस्तु पहले चुनने कि अधिकार है क्योंकि तुम पहले दिखाई दिये हो (और तुम आयु में दुर्योधन से छोटे भी हो) ।। २०।
नारायणममित्रघ्नं कामाज्जातमजं नृषु ।सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि ।२२।।
जो साक्षात शत्रुहन्ता नारायण हैं और अजन्मा होते हुए भी स्वेच्छा से देवता दानव तथा समस्त क्षत्रियों के सम्मुख मनुष्यों में अवतीर्ण हुए हैं ।२२।।
महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और १९ पर
_________________________________________
यह श्लोक मनुस्मृति कार के विचार का अनुमोदन है
क्योंकि स्मृतियों में गोप या अहीरों को शूद्र रूप में वर्णन किया है ।
रूपस्वामी एक रूढ़िवादी सन्त थे ।
रूप गोस्वामी ने अपनी इसी श्री कृराधा गणोद्देश्य दीपिका में आगे लिखा की 👇
चाराधेन तत्साम्याद् आभीराश्च स्मृता इमे ।। आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।। घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।
भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं ।
ये शूद्रजातीया हो जाते हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।
किञ्चिद् अभीर तो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।
भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं।
ये भी प्राय हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।
वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं ।
परन्तु गोपालन करने से ये गोपालन से ही वैश्य होने के तथ्य शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं ।
क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड तथा अग्निपुराण और इसी के रूप नान्दी -उपपुराण आदि में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या बताया हैं
देखें पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री माता को नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है ।_________________________________________
" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाढ्या ,
शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
_________________________________________
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी।
इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ?
और किस की पुत्री हो ८।
_________________________________________
इसी अध्याय में गायत्री को गोप कन्या कहा है ।
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।
वह गायत्री वैश्य या शूद्रा क्यों नहीं हुईं ?
जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या हैं ।
गायत्री वेदों की अधिष्ठात्री देवता है जब शास्त्रों में ये बात है ; तो फिर अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं फिर षड्यन्त्र के तहत किस प्रकार अहीर शूद्र और वैश्य हुए ।
वास्तव में जिन तथ्यों का अस्तित्व नहीं हो तो उनको उद्धृत करना भी महा मूढ़ता ही है ।
इस लिए अहीर यादव या गोप आदि विशेषणों से नामित यादव कभी शूद्र नहीं हो सकते हैं।
और यदि इन्हें किसी पुरोहित या ब्राह्मण का संरक्षक या सेवक माना जाए तो भी युक्ति- युक्त बात नहीं है
क्यों कि ज्वाला प्रसाद मिश्र अपने ग्रन्थ जाति-भाष्कर में आभीरों को गौड ब्राह्मण लिखते हैं ।
परन्तु नारायणी सेना के यौद्धा आभीर या गोप जो अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को पञ्चनद प्रदेश में क्षण-भर में परास्त कर देते हैं ।
क्या ये शूद्र या वैश्य माने जाऐंगे ?
जैसा कि महाभारत में गोपों को नारायणी सेना या योद्धा बताया है ।
गोपों अथवा अहीरों के साथ भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान
कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र कहा गया यह सब क्रमोत्तर रूप से हुआ ....
यद्यपि वैदिक ब्राह्मणों ने स्वीकार किया " गावो विश्वस्य मातर:" गाय विश्व की माता है ।__________________________________
दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुख:
(महाभारत अनुशासन पर्व:- 69.7)
अर्थात् 'गौएँ सभी प्राणियों की माता कहलाती हैं।
वे सभी को सुख देने वाली हैं।'
और कृषि और गोपालन करने का कार्य सदा ही राजाओं ने किया एवं ऋषियों - ब्राह्मणों ने भी गोपालन किया है |
लेकिन पुरोहितों उन्हें दास अथवा शूद्र नहीं लिखा |
__________________________________________
यद्यपि कृषि एवं गोपालन वैश्य कर्म ग्रन्थों में लिखा गया है |
लेकिन यह कर्म वैश्यों द्वारा कभी करता हुआ आज तक नहीं देखा गया है |
वैश्य या वणिक केवल वस्तुओं की खरीद-फरोख्त का व्यापार ही करते हैं ।
कृषि और चरावाहों की वृत्ति परस्पर सम्बद्ध हैं ।
क्यों कि चरावाहों से ही कालान्तरण में कृषि संस्कृति का विकास हुआ ।
दुर्भाग्य से कुछ दोष-बुद्धि पुरोहितों ने स्मृतियों ( धर्म शास्त्रों में तोपों को शूद्र तक बना डाला जो स्मृति ग्रंथ पुष्यमित्र सुंग के शासन काल में लिखे गये हैं
आर्य्य चरावाहे ही थे ;और आर्य्य शब्द इण्डो-यूरोपियन मूल का है ।
विदित हो कि यूनानी मिथकों में युद्ध का देवता अरीज् (अरि) माना गया है ।
यह अरीज् वेदों में अरि: और सैमेटिक तथा सुमेरियन संस्कृति में "एल" देवता के रूप में है ।
अत: अरि से सम्बद्ध होने से आर्य्य का अर्थ वीर अथवा यौद्धा ही है ।
ब्राह्मण युद्ध नही कर सकते थे वे केवल राजाओं की धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करते थे ।इसलिए वे आर्य्य नही कहे जा सकते हैं ।
यद्यपि गोपालन वृत्ति यादवों के पूर्वजों से आगात है ।संस्कृतियाँ सदैव से रूढ़ियों के पथ पर अग्रसर होती रहीं हैं ।
केवल कृषि और गोपालन वृत्ति या पशु पालन करने से ही किसी को वैश्य या शूद्र घोषित कर देना ।
केवल द्वेष और जहालत है ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वर्ण संकर वर्णन किया है
तासां सङ्करजातेन बभूवुर्वर्णसङ्कराः ।।१६ ।। गोपनापितभिल्लाश्च तथा मोदककूबरौ ।।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण)
परन्तु स्मृति ग्रन्थों में भी गोप शूद्र बना दिए
और उनकी व्युत्पत्ति भी वर्ण संकर के रूप में की गयी ।
व्याधांच्छाकुनिकान्” गोपान्।
“मणिवन्द्यां तन्तुवायात् गोपजातेश्च सम्भवः” मनुस्मृति
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
यह भी देखें--- व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य:सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:
----------------------------------------------------------------- अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
पाराशर स्मृति में वर्णित है कि.. __________________________________________ वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि:
चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेऽन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
-----------------------------------------------------------------
वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
____________________________
अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।
शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाऽन्न नैव दुष्यति । धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
(व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।। जिनके वंश का ज्ञान है ;ऐसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________
(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय के श्लोक ११-१२) पर भी गोपों को शूद्र कहा है
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स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में.. _________________________________________
" वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोऽभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। __________________________________________ अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
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आज के दौर में देखा जाये तो कृषि और गोपलन ब्राह्मण, क्षत्रिय सभी कर रहे हैं |
इस आधार पर सभी वैश्य माने जायेंगे | किन्तु ऐसा नहीं है |
जातियाँ जन्म आधारित हैं जो वर्ण व्यवस्था के रूप में
ग्रन्थों में विधान बद्ध हैं ।
अतः समाज की हीनता मिटाकर उनके स्वाभिमान के लिए सत्य के प्रस्तुति-करण की यह पहल हम सबको करनी चाहिए ।
वर्ण व्यवस्था को यादवों ने कभी स्वीकार नहीं किया ।
और इसी लिए एक नये "भागवत धर्म" को जन्म दिया !
क्यों की जब यदु को ही वेदों में दास कहा है ।
तो क्या होता ?
लौकिक ग्रन्थों में दास शब्द का प्रयोग शूद्र के अर्थ में किया गया है ।
जैसा की ब्राह्मणों ने स्मृतियों में लिखा की शूद्र अपने नाम के पश्चात दास लगाए वैश्य गुप्त और क्षत्रिय वर्मा तथा ब्राह्मण शर्मा शब्द को लगाए !✍
________
मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में लिखा हैं कि :
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥3।
(अध्याय 2/3 मनुस्मृति)
अब कुछ रूढ़ि वादी पूर्वदुराग्रही लोग जो न तो शास्त्रों के विधान को जानते हैं
और ना ही धर्म के विषय में जानते हैं ;
वे सत्य को कब मानते हैं ?
वे अक्सर भौंकते रहते हैं कि गोप गाय पालन करने से वैश्य हैं परन्तु मूर्खों को ज्ञान नहीं की गाय विश्व की माता है और माता का पालन और सेवा करना उच्चता का गुण है नकि तुच्छता का दुर्गुण !
दूसरी बात कि सम्राट दिलीप जैसे महापुरुष भी नन्दिनी गाय की दीर्घकाल तक सेवा करते हैं पालन करते हैं वे वैश्य नहीं हुए फिर जो गोप नारायणी सेना के यौद्धा थे |
वे वैश्य कैसे हो सकते हैं ।
वैश्य केवल व्यापार करते हैं गोपालन या कृषि कार्य नहीं करते हैं ।
नारायणी सेना के गोप जिन्हें संसार में कोई परास्त नहीं कर सकता था ।
वे कुछ कुटिल पुरोहितों के कहने मात्र से वैश्य हो गये
महाभारत में गोपों अथवा आभीरों की नारायणी सेना का युद्ध करने का वर्णन है तब एैसे में गोपों को वैश्य कहना परवर्ती पुरोहितों की दोगली विधान- नीति क्रिया है |
जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या 368 पर वर्णित है👇
अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
मत्संहननतुल्यानां गोपानामर्बुदं महत्।
नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन:।18।।
(महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7)
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर:
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)
रसखान ने भी गोपियों को आभीर ही कहा है-
""ताहि अहीर की छोहरियाँ...""
करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं
500 साल पहले कृष्णभक्त चारण इशरदास रोहडिया जी ने पिंगल डिंगल शैली में श्री कृष्ण को दोहे में अहीर लिख दिया:--
दोहा इस प्रकार है:-
"नारायण नारायणा, तारण तरण अहीर, हुँ चारण हरिगुण चवां, वो तो सागर भरियो क्षीर।"
अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(सर्जक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है।
भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत 1515 में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।
यह आजसे 500 साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दुहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर(यादव) कुल में हुआ था।
सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
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सम्पूर्ण विश्व की माता गो को पालन करने वाले वाले वैश्य या शूद्र माने जाऐंगे ?
किस मूर्ख ने ये विधान बनाया ?
हम इस आधार हीन बातों और विधानों को सिरे से खारिज करते हैं ।
इसी लिए यादवों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया ।
यादव भागवत धर्म का स्थापन करने वाले थे ।
जहाँ सारे कर्म -काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी ।
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हरिवंश पुराण में वर्णन है कि महाराज यदु एक बार अपनी पत्नियों सहित समुद्र स्नान करने गए।
वहाँ सर्पराज धूम्रवर्ण उन्हें खींच कर नाग लोक ले गए और अपनी पाँच कन्याएं उन्होंने विवाह दीं।
ये पाँचों प्रसिद्ध महाराज यौवनाश्व की बहन की संतति भानजी थीं।
नाग राज ने साथ ही वरदान दिया–तुमसे सात कुल चलेंगे।
ये वंश भैम, कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव, दाशार्ह और वृष्णि रूप में होगा ।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए।
उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए– मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।
पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे।
हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए।
________
माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।
पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।
पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।
इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
इनके पुत्र भीम।
इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा।
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे।
उसी समय श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न कुमार ने लवणासुर को मार कर मधुपुरी बसाई।
'परन्तु भागवत पुराण में यदु के पिता ययाति ही है और यदु के पुत्र चार थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।
यदो: सहस्रजित् क्रोष्टा नलो रिपु: इति श्रुता : ।।२०।
चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयेश्चेति तत्सुता: ।२१। 👇
भागवत पुराण नवम स्कन्द अध्याय चौबीस( पृष्ठ संख्या ९३...गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
___________________________
इस वंश में स्वयं भगवान् पर ब्रह्म श्रीकृष्ण 'ने नर रूप में अवतार लिया था - यदु के चार पुत्र थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु
सहस्रजित् से शतजित् का जन्म हुआ - शतजित् के तीन' पुत्र उत्पन्न हुए -महाहय, वेणुहय और हैहय ।।२०-२१।।
अब 'हरि वंश पुराण में यदु के पाँच पुत्र हैं ।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए–
मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
______________
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।
पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे।
हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए।
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माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।
पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।
पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।
इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।
युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
इनके पुत्र भीम।
इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा।
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे।
______________________________________
अब सहस्रजित् क्रोष्टा नल और रिपु का कहाँ गये उनका वंश कहाँ गया
कोई बताए ?
'परन्तु यहांँ क्षेपक है यह तथ्य कि मधुरा शत्रुघ्न ने बसाई क्यों कि उसका नामकरण मधु असुर के आधार पर है ।।
मधुवन का उच्छेद करके यह पुरी बसी।
श्री राम के परमधाम जाने पर शत्रुघ्न के पुत्र ने विरक्त होकर राज्य त्याग दिया ये बातें भी क्षेपक ही हैं ।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 36-40
👇
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।
बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।
सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।
येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।
✍✍✍✍
तब मधुपुरी–मथुरा पर भीम ने अधिकार कर लिया। अयोध्या में जब कुश राजा थे–मथुरा सिंहासन पर भीम के पुत्र अंधक का अभिषेक हुआ।
ये अन्धक के पिता भीम यादव थे ।
अन्धको नाम भीमस्ये सुतो राज्यवमकारयत्।।43।।
अन्धकस्या सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिव:।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जयज्ञे रम्येन पर्वतमूर्धनि।।44।।ततो रैवत उत्पकन्नय: पर्वत: सागरान्तिके।
नाम्नाव रैवतको नाम भूमौ भूमिधर: स्मृत:।।45।।
अन्धक के पुत्र रैवत थे।
इनकी पत्नी ने पुत्र ऋक्ष को पर्वत शिखर पर जन्म दिया था।
_______
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 46-50
रैवतस्यात्माजो राजा विश्वागर्भो महायशा:।
बभूव पृथिवीपाल: पृथिव्यां प्रथित: प्रभु:।।46।।
तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यारूपासु केशव।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालापमा: शुभा:।।47।।
वसुर्बभ्रु: सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान्।
यदुप्रवीरा: प्रख्याता लोकपाला इवापरे।।48।।
तैरये यादवो वंश: पार्थिवैर्बहुलीकृत:।
यै: साकं कृष्णर लोकेऽस्मिन् प्रजावन्त: प्रजेश्वरा:।।49।।
वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेव: सुतो विभु:।
तत: स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके।।50।।
_______
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 46-58 का हिन्दी अनुवाद--
रैवत (ऋक्ष) के महायशस्वी राजा विश्वगर्भ हुए, जो पृथ्वी पर प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली भूमिपाल थे।
केशव! उनके तीन भार्याऐं थीं।
तीनों ही दिव्य रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थीं।
उनके गर्भ से राजा के चार सुन्दर पुत्र हुए, जो लोकपालों के समान पराक्रमी थे।
उनके नाम इस प्रकार हैं- वसु, बभ्रु, सुषेण और बलवान सभाक्ष।
ये यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे।
श्रीकृष्ण ! उन राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से सम्पन्न कर दिया।
जिनके साथ इस संसार में बहुत-से संतानवान नरेश हैं। वसु से (जिनका दूसरा नाम शूर था) वसुदेव उत्पन्न हुए। ये वसुपुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं।
वसुदेव की उत्पत्ति के अनन्तर वसु ने दो कान्तिमती कन्याओं को जन्म दिया (जो पृथा (कुन्ती) और श्रुतश्रवा नाम से विख्यात हुईं) इनमें से पृथा कुन्ति देश में (राजा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री के रुप में) रहती थी।
कुन्ती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी, महाराज पाण्डु की महारानी हुईं तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशित होने वाली श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की पत्नी हुईं।
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रैवत के पुत्र विश्वगर्भ हुए जिनका दूसरा नाम देवमीढ था
इस ऋक्ष का दूसरा नाम रैवत था।
इन महाराज रैवत के पुत्र विश्वगर्भ को देवमीढ़ कहा जाता है।
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उनकी तीन रानियों से चार पुत्र हुए– वसु, वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष।
ज्येष्ठ पुत्र वसु का ही दूसरा नाम शूरसेन है।
वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष ये ही क्रमश अर्जन्य पर्जन्य और राजन्य थे ।
शूरसेन की संतान ही वसुदेव हैं।
और पर्जन्य के पुत्र नन्द थे।_________________________________________
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 26-30
ततो मधुपुरं राजा हर्यश्व: स जगाम च।
भार्यया सह कामिन्या कामी पुरुषपुंगव:।।26।।
मधुना दानवेन्द्रेण स साम्न समुदाहृत:।
स्वागतं वत्स हर्यश्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात्।।27।।
यदेतन्मम राज्यं वै सर्वं मधुवनं विना।
ददामि तव राजेन्द्र वासश्च प्रतिगृह्यताम्।।28।।
वनेऽस्मिल्लँवणश्चायं सहायस्ते भविष्यति।
अमित्रनिग्रहे चैव कर्णधारत्ववमेष्यति।।29।।
हरिवशं पुराणों में अन्य जनजातियों की उत्पत्ति भी प्रक्षिप्त ही है ।
प्रस्तुत हैं ये प्रमाण ....👇
हरिवंशपुराण हरिवशंपर्व पञ्चम अध्याय में एक स्थान पर वर्णन है कि
निषादवंशकर्तासौ बभूव वदतां वर ।
धीवरानसृजच्चाथ वेनकल्मषसम्भवान्।।१९।
•-- वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय ! वह निषादों के वंश को चलाने वाला हुआ और उसने धीवरों को जन्म दिया वे निषाद , धीवर वेन के पाप से उत्पन्न हुए थे ।१९।
( क्या यह सत्य कथन है ?)
ये चान्ये विन्ध्यनिलय तुषार तुम्बरास्तथा ।
अधर्म रुचयो ये च विद्धि तान् वेनसम्भवान् ।२०।
धीवरों के अतिरिक्त तुषार (तोखारी)
•--तुम्बर ( तोमर) तथा अधर्म से प्रेम करने वाले वन वासी ( गोण्ड- कोल आदि )हैं इन सबको तुम वेन के पाप से उत्पन्न हुआ समझो !
( तोमर जन-जाति राजपूत संघ गुर्जर संघ और जाट संघ में भी समायोजित है ।
'परन्तु हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में ये वनवासी के रूप में हैं ।
हरिवंशपुराण हरिवशं पर्व इकतालीसवाँ अध्याय में श्रीमद्भगवदगीता के एक श्लोक का पूर्वार्द्ध हरिवंशपुराण में भी यथावत है ।👇
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
धर्म संस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभु ।।१७।
यह श्लोक श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक से साम्य रखता है
भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में वर्णन हरिवंशपुराण में है ।
इतनी ही नहीं ...
भागवत धर्म के विषय में ही एक श्लोक है ।👇
जिसके उद्गाता अक्रूर नामक यादव हैं
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अक्रूर ने श्रीकृष्ण से कहा- 'भैया! रथ को यहीं खड़ा रखो और घोड़ों को काबू में रखने का प्रयत्न करो। तात!
घोड़ों को दाना-घास देकर, इनके पात्र और रथ की विशेष यत्नपूर्वक देखभाल करते हुए एक क्षण तक मेरी प्रतीक्षा करो।
तब तक मैं यमुना जी के इस कुण्ड में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ।
वे गुहरास्वरूप भागवत देवता हैं, सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक एवं उन्नायक हैं।
उनका मस्तिक कान्तिमान स्वस्तिक चिह्न से अलंकृत है। वे सर्प-विग्रहधारी भगवान अनन्त देव सहस्र सिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्र धारण करने वाले हैं। मैं उन्हें प्रणाम करूँगा।
यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं ।
दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२।
तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल
में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२।
गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् ।
श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् ।
सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३।
वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं ।
सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं ।
उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देव सहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं ।
'मैं उन्हें प्रणाम करुँगा ।४३।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है ।
कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे ।
ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया ।
'परन्तु इसका तथ्य को पुराणों में दबाया- गया ।..
यह श्लोक गुप्त काल की धर्म मूलक अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है ।
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यहीं तीसवें श्लोक में आभीर वर्णन है ।👇
पालयैनं शुभं राष्ट्रं समुद्रानूपभूषितम्।
गोसमृद्धं श्रिया जुष्टम् आभीर प्रायमानुषम्।।30।।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में सैंतीसवाँ अध्याय श्लोक संख्या ३० पर वर्णन है
वस्तुतः ये ययाति पुत्र यदु के वंशजों में सुमार आभीर हैं जिन्होंने ही व्रज क्षेत्र की प्रतिष्ठा की
यह आभीर नामक यादव जाति का ही वर्णन है ।
तीसवें श्लोक का अर्थ है 👇
अर्थात् तुम समुद्र के जलप्राय प्रदेश से विभूषित इस सुराष्ट्र (सूरत ) का पालन करो ! यह गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है तथा यहीं अधिकतर अहीर ( आभीर ) निवास करते हैं।३०।
गुजरात नामकरण आभीर की उपशाखा गौश्चर गौज्जर गूर्जर से है ।
हरिवंशपुराण के इसी अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में वर्णन है कि
ययातमपि वंशस्ते समेष्यति च यादववम्।अनुवंशं च वंशस्ते सोमस्य भविता किल ।।३४।
•--अर्थात् तुम्हारा यह वंश ययाति पुत्र यदु के वंश में मिल जाएगा । जो सोम वंश का रूप है ।३४।
विदित हो कि हर्यश्व का राज्य आनर्त (गुजरात)था ।
वहीं सुराष्ट्र( सूरत )है ।
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•--सर्पराज 'ने कहा कि तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇 " भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव:
दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )
जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव ,दाशार्ह ,भैम और वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे ।
अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे ?
यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से आगया ।
सरे आम बकवास है ये तो !आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि
इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा
राजा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।
राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।
माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
सत्वत्त के पुत्र भीम हुए ।
इनके वंशज भैम कहलाये
जब राजा भीम आनर्त देश पर राज्य करते थे और तब अयोध्या मे राम का शासन था ।
तब इसके समय पर ही मधु के पुत्र लवण को शत्रुघ्न 'ने मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला था।३९।
और उसी मधुवन के स्थान पर शत्रुघ्न' ने मधुपुरी को बसाया ।।४०।
तस्मिन् मधुवन स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन: ।।४०।।
'परन्तु प्रश्न यहांँ भी है कि मधु के नाम पर ही मधु पुर या मधुपुरी( मथुरा) शत्रुघ्न'ने क्यों बसाई अपने पूर्वजों के नाम ये अपने नाम से क्यों नहीं?
____________
'परन्तु जब शत्रुघ्न परलोक पधारे तो पुन: यादव राजा भीम ने इस वैष्णव स्थान मथुरा को पुन: प्राप्त किया ।क्यों कि यह भी उनके नाना मधु की नगरी थी ।
कालान्तरण भीम के पुत्र अन्धक मथुरा के राजा हुए और अन्धक के पुत्र रैवत ( ऋक्ष) के पुत्र विश्वगर्भ ( देवमीढ) हुए मथुरा के राजा हुए ।
विश्वगर्भ का नामान्तरण ही देवमीढ है ।
________
ये देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पूर्वजों में थे ।
पर्जन्य और शूरसेन के पिता देवमीढ थे ।
यद्यपि भागवत पुराण में एक प्रसंग के अनुसार जब अर्जुन को द्वारिका गये हुए कई महीने हो जाते हैं तब युधिष्ठर भीम को वहाँ यह जानने के लिए भेजते हैं कि
क्या कारण है अर्जुन को वहाँ इतना समय क्यों हो गया ?
इसी सन्दर्भ में समस्त ननिहाल के लोगों का कुशल क्षेम पूछने के लिए युधिष्ठर सबको पूछने के क्रम में सुनन्द और नन्द जो दूसरे अन्य यदुकुल के हैं उनका भी कुशल क्षेम पूछते हैं।
अब प्रश्न यह बनता है कि ये सुनन्द और नन्द कौन दूसरे अन्य यदुकुल 'लोग' हैं ?
वास्तव में ये नौ नन्द ही हैं
धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद,नन्द,सुनंद अभिनंद, ., कर्मानन्द , धर्मानंद , और वल्लभ।
नन्द से नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ।
श्रीमद्भागवत पुराण में प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह में ही श्लोक संख्या ३२ पर वर्णन है |
तथैवानुचरा: शौरे: श्रुतदेवोद्धवाय: सुनन्द नन्द शीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभा: ।।३२।
अर्थ- भगवान् कृष्ण के सेवक श्रुतदेव ,उद्धव , तथा दूसरे अन्य सुनन्द नन्द आदि शीर्ष यदुकुल के कृष्ण और बलराम के बाहुबल से संरक्षित हैं ।
सब के सब सकुशल हैं 'न?
हमसे अत्यंत प्रेमकरने वाले वे 'लोग' कभी हमारा कुशल-मंगल पूछते हैं ?३२-३३
नन्द उपनन्द कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
'परन्तु सुनन्द और नन्द और उपनन्द ये पर्जन्य के पुत्रों में समविष्ट थे ।
नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजा:।
कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्।।४८।
अर्थ:- नन्द ,उपनन्द, कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
और वसुदेव की कौसल्या नामकी पत्नी 'ने एक ही वंश- उजागर पुत्र उत्पन्न किया उसका नाम केशी था ।४८। ( भागवत पुराण नवम् स्कन्द अध्याय चौबीस पृष्ठ संख्या १००(गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)
इसलिए उपर्युक्त श्लोक में नौ नन्द सुनन्द, नन्द और उपनन्द आदि नव गोपों' का अर्थ ग्रहण करना चाहिए ..
आनर्त देश के विषय में कतिपय जानकारी करें 👇 --+-
आनर्त प्राचीन भारत में गुजरात के उत्तर भाग को कहा जाता था।
द्वारावती आधुनिक द्वारका इसकी प्रधान नगरी थी।
महाभारत के अनुसार अर्जुन ने पश्चिम दिशा की विजय-यात्रा में आनर्तों को जीता था।
महाभारत के सभापर्व के एक अन्य वर्णन से ज्ञात होता है कि आनर्त का राजा शाल्व था, जिसकी राजधानी सौभनगर में थी।
श्री कृष्ण ने इस देश को शाल्व से जीत लिया था।
विष्णु पुराण में आनर्त की राजधानी कुशस्थली
बताई गई है-
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'आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रो जज्ञे, योऽसावनर्तविशयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास।'
इस उद्धरण से यह भी सूचित होता है कि आनर्त के राजा रेवत के पिता का नाम आनर्त था।
इसी के नाम से इस देश का नाम आनर्त हुआ होगा।
रेवत बलराम की पत्नी रेवती के पिता थे।
महाभारत से भी विदित होता है कि आनर्त नगरी, द्वारका का नाम था-
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'तमेव दिवसं चापि कौन्तेय: पांडुनंदन:,
आनर्त नगरीं रम्यां जगामाशु धनंजय:।'
गिरनार के प्रसिद्ध अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन आभीर ने 150 ई. के लगभग अपने पहलव अमात्य सुविशाख को आनर्त और सौराष्ट्र आदि जनपदों का शासक नियुक्त किया था-
'कृत्स्नानामानर्त सौराष्ट्राणां पालनार्थं
नियुक्तेन पह्लवे कुलैप पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन।'
रुद्रदामन ने आनर्त को सिंधु-सौवीर आदि जनपदों के साथ विजित किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली |
पृष्ठ संख्या= 63-64| विजयेन्द्र कुमार माथुर |
वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग |
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
( यादव योगेश कुमार'रोहि'अलीगढ़ --8077160219)
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 59 श्लोक 16-20
________
पृथ्वी पति राजा जरासन्ध 'ने चेदिराज सुनीथ के पुत्र शिशुपाल के लिए भयानक पराक्रमी भीष्मक से उनकी कन्या रुक्मणि को माँगा था ।१९।
क्योंकि जरासन्ध दमघोष का वंशज था ।
विदित हो की चेदिराज उपरिचर वसु के एक पुत्र का नाम बृहद्रथ था जिसने मगध में पहले गिरिव्रज नामक नगर का निर्माण किया था उसी के वंश में जरासन्ध उत्पन्न हुए।
उपरिचर वसु के ही वंश में उन्हीं दिनों दमघोष (सुनीथ) उत्पन्न हुए जो चेदि देश के राजा थे ।
दमघोष के पाँच पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए शिशुपाल, दशग्रीव ,रैभ्य,उपदिश,और बली ।
जरासन्ध दमघोष का वंशज या कुटुम्बी था और समान वंश में उत्पन्न हुआ इसलिए दमघोष ने अपना पुत्र शिशुपाल जरासन्ध को सौंप दिया था ।
रुक्मिणी त्वयभवद् राजन् रूपेणासदशी भूवि।
चकमे वासुदेवस्तां श्रवादेव महाद्युति:।।16।।
स तया चाभिलषित: श्रवादेव जनार्दन:।
तेजोवीर्यबलोपेत: स मे भर्ता भवेदिति।।17।।
तां ददौ न च कृष्णाय द्वेषाद् रुक्मीि महाबल:।
कंसस्यौ वधसंतापात् कृष्णाययामिततेजसे।।18।।
याचमानाय कंसस्य द्वेष्योदयमिति चिन्तययन्।
चैद्यस्याकर्थे सुनीथस्य जरासंधस्तु् भूमिप:।
वरयामास तां राजा भीष्म कं भीमव्रिकमम्।।19।।
चेदिराजस्यं तु वसोरासीत् पुत्रो बृहद्रथ:।
मगधेषु पुरा येन निर्मितोऽसौ गिरिव्रज:।।20।।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 58 श्लोक 21-25
तस्यान्वावाये जज्ञेऽसौ जरासंधो :।
वसोरेव तदा वंशे दमघोषोऽपि चेदिराट्।।21।।
दमघोष पुत्रास्तु पंच भीमपराक्रमा:।
भगिन्यां वसुदेवस्य श्रुतश्रवसि जज्ञिरे।।22।।
शिशुपालो दशग्रीवो रैभ्योयऽथोपदिशो बली।
सर्वास्त्रकुशला वीरा वीर्यवन्तो महाबला:।।23।।
निम्नलिखित श्लोक दमघोष जरासन्ध समान कुल वंशञ् समानवंशस्य सुनीथ: प्रददौ सुतम्।
जरासंधस्तु सुतवद् ददर्शैनं जुगोप च।।24।।
जरासंधं पुरस्कृत्य वृष्णिशत्रुं महाबलम्।
कृतान्यागांसि चैद्येन वृष्णीनां चाप्रियौषिणा।।25।।
__________________________💐
इसी पुराण में पृथ्वी के प्रथम राजा पृथु का वर्णन यूनानी-माइथॉलॉजी के प्रोटियस् से ग्राह्य है ।
हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोक में पृथु की पुत्री है पृथ्वी ।👇
ततऽभयुपगमाद् राज्ञ्य: पृथोर्वैन्यस्य भारत ।
दुहितृत्वमनुप्राप्ता देवी पृथ्वीति चोच्यते ।।
पृथुना प्रविभक्ता च शोधिता च वसुंधरा ।।४६।
अर्थात् भरत वंशी राजन्य ! फिर वेनपुत्र राजा पृथु के पुत्री रूप में स्वीकार करने पर यह देवी उसकी पुत्री बनगयी और पृथ्वी कहलाया ।
इस प्रकार पृथु 'ने पृथ्वी को अनेक
भागों ' विभक्त किया ।
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पुराणों में प्रक्षिप्त श्लोक
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ । यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा ।
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७। दूसरा श्लोक और देखें---
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"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: ।
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:।
यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२ अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :- यह रोहिणी का पुत्र है। इस लिए इसका नाम रौहिणेय यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा।
इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है। यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२। परन्तु भागवतपुराण में ही परस्पर विरोधाभासी श्लोक हैं देखें---
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" गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत । नन्द: कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।।१९।
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्। ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भाव नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ; तब वे नन्द ठहरे हुए थे बहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है ।
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है । ____________________________________________
वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती। तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१।
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२ ।
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
तेऽप्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले । गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। __________________________________________
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।
२१। कि हे कश्यप अपने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है । उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ
जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं २४-२७।
(उद्धृत सन्दर्भ --) यादव योगेश कुमार' रोहि' की शोध श्रृंखलाओं पर आधारित---
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण) अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है।
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४
(ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .
तथा गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है ।
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गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । _________________________________________
" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।
अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है । जैसे ब्रह्म पुराण में वर्णन है कि
" नन्द क्षत्रियो गोपालनाद् गोप :
अर्थात् नन्द क्षत्रिय गोपलन करने से ही गोप कहलाते हैं ।
( इति ब्रह्म पुराण)
और भागवतपुराण में भी यही संकेत मिलता है कि
वसुदेव उपश्रुत्वा,भ्रातरं नन्दमागतम् । पूज्य:सुखमाशीन: पृष्टवद् अनामयम् आदृत:।47।
भा०10/5/20/22 यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार अनामयं शब्द से कुशलक्षेम क्षत्रिय जाति से पूछी जाती है ।
और नन्द से वसुदेवअनामय शब्द से कुशल-क्षेम पूछते हैं
(ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं ।
वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष नि इव च।63।)
अथवा
ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं ।
वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64।
संस्कृत ग्रन्थ नन्द वंश प्रदीप में वर्णित है ;
कि नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुआ ।
" नन्दोत्पत्तिरस्ति तस्युत, यदुवंशी नृपवरं देवमीढ़ वंशजात्वात ।65।
भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध अध्याय 5 में नन्द के विषय में वर्णन है ।
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: पञ्च प्राणतुल्येषु ।
पञ्चसुतेषु मुख्यमस्य नन्द राज:। 67।
प्रसिद्ध यदु वंशी पर्जन्य गोप के प्राणों के सामान -प्रिय पाँच पुत्र थे ; जिसमें नन्द राय मुख्य थे ।
अब इस प्रकार तो गोप और यादव एक हुए ।
अब ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड राधा हृदय अध्याय 6 में वर्णित है कि
" जज्ञिरे वृष्णि कुलस्थ, महात्मनो महोजस:
नन्दाद्या वेशाद्या: श्री दामाश्च सबालक: ।68।
अर्थात् यदुवंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न नन्द आदि गोप तथा श्री दामा गोप आदि बालक उत्पन्न हुए थे ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खण्ड अ०13,38,39,में
सर्वेषां गोप पद्मानां गिरिभानुश्च भाष्कर: पत्नी पद्मावते समा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।।
तस्या: कन्या यशोदात्वं लब्धो नन्दश्च वल्लभा: ।94।
जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; तब गर्ग ने कहा कि नंद जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है और माता का नाम पद्मावती सती है तुम नन्द जी को पति रूप पाकर कृतकृत्य हो गईं हो!
भागवतपुराणकार की बातें इस आधार पर भी संगत नहीं हैं ।
यहाँ देखिए --
"एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३।
(श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय)
अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।
और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए !
"क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
अब ---मैं पूछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?
यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है।
कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।
भागवतपुराण लिखने वाला यहाँ सबको भ्रमित कर रहा है वह कहता है कि
" ययाति का शाप होने से यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। तो फिर उग्र सेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?
---जो राजसिंहासन पर बैठने के लिए उनसे श्रीकृष्ण कहते हैं
हरिवंश पुराण तथा अन्य सभी पुराणों में उग्रसेन यादव अथवा यदुवंशी हैं ।
ययाति का शाप उन पर लागू क्यों नहीं हुआ ?
देखें--- हरिवंश पुराण में कि उग्रसेन यादव हैं कि नहीं!👇
यदुवंश्ये त्रय नृपभेदे च ।
“अन्धकञ्च महाबाहुं वृष्णिञ्च यदुनन्दनम्” इत्युपक्रम्य “अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोऽलभतात्मजान् ।
कुकुरं भजमानञ्च शमं कम्बलबर्हिषम् ।
कुकुरस्य सुतोधृष्णुर्धृष्णोसु तनयस्तथा ।
कपोतरोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तनयोऽभवत् ।
जज्ञे पुनर्वसुस्तस्मादभिजिच्च पुनर्वसोः ।
तथा वै पुत्रमिथुनं बभूवाभिजितः किल ।
आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ”
इत्याहुकोत्- पत्तिमभिधाय “आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ संबमूवतुः
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देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।
नवोग्रसेनस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजः”
(हरिवंश ३८ अध्याय)
और भागवतपुराण में भी वर्णित है कि
(उग्रा सेना यस्य ) मथुरादेशस्य राजविशेषः ।
स च आहुकपुत्त्रः । कंसराजपिता च इति श्रीभागवतम पुराणम् --
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