ऋग्वेद की ऋचाओं का प्रणयन ईसा० पूर्व सप्तम सदी तक होता रहा ।
ऋग्वेद पश्चिमी एशिया की प्राचीनत्तम जनजातियाँ का एक सांस्कृतिक ,सामाजिक एवं व्यवहारों का मान्यता परक जीवन्त दस्तावेज है।
संस्कृतियों का विकास जीवन शैली के सुधारात्मक अनवरत उपक्रमों होता है ।
ऋग्वेद की बहुतायत ऋचाओं में देव-संस्कृति के अधिनायक इन्द्र का स्तुति-परक विवरण है ।
यद्यपि इन्द्र का वर्णन पश्चिमी एशिया तथा यूरोपीय मिथकों में भी है; जैसे एशिया माइनर के "बोगाजकाई , इन्द्र, वरुण ,मित्र आदि देवों का साक्ष्य मितन्नी स्रोतों से मिलता है ।
बोगाजकोई एशिया माइनर में स्थित एक ऐतिहासिक स्थान है, जहाँ से महत्त्वपूर्ण पुरातत्त्व सम्बन्धी अवशेष प्राप्त हुए हैं।
वहाँ के शिलालेखों में जो चौदहवीं शताब्दी ई. पू. के बताये जाते हैं, इन्द्र, दशरथ और आर्त्ततम आदि नामधारी राजाओं का उल्लेख है तथा इन्द्र, वरुण और नासत्य आदि देवताओं से सन्धियों का साक्षी होने की प्रार्थना की गयी है।
इस प्रकार बोगाजकोई से आर्यों के निष्क्रमण मार्गों का संकेत मिलता है।
सन 1907 ई. में प्राचीन हिट्टाइट राज्य की राजधानी बोगाजकोई में पाई गयी मिट्टी की पट्टिकाओं में वैदिक देवता मित्र वरुण इंद्र नासत्यस का उल्लेख है।
ईरान और भारतवर्ष को छोड़कर प्राचीन काल में सुर शब्द अनातोलिया की हित्ती भाषा में हुर्रीयन /हुर्री रूप में पाया जाता है।
अनातोलिया के निकट बोगाजकोइ से, जो हित्ती राजाओं की राजधानी थी, कीलाक्षर इष्टिकाओं में सुरक्षित कुछ अभिलेख मिले हैं।
हिन्द-यूरोपीय भारोपीय भाषाओं में यह प्राचीनतम लिखित सामग्री है।
इनका समय 1400 ई. पू. माना गया है।
इसी के आधार पर भारत में देव-संस्कृति के अनुयायीयों का आगमन माना जाता है ।
यह माना जाता है कि देव संस्कृति के लोगों की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता हिन्द-यूरोपीय भाषा है।
बोगाजकोइ से प्राप्त अभिलेखों में तथाकथित ऋग्वैदिक देवताओं को हित्ती-मितन्नी राजाओं के संधि-साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
कभी यह नहीं बताया गया है कि ऋग्वेद में बोगाजकोई से आये देवताओं की उपस्थिति है, जबकि संभावना इसी की है।
बोगाजकोई में 'अग्नि' साक्षी नहीं है।
अग्नि तो अवेस्तावादियों के देवता थे, जिनका प्रभाव चंद्रगुप्त मौर्य के राजदरबार में था।
बाद के मौर्य सम्राटों ने ईरानी प्रभाव को उतार फेंकने की कोशिश की, जिसका नतीजा बृहद्रथ हत्याकांड के रूप में सामने आया।
वैदिक कालीन समाज की मनोवृत्तियों में देवों से यौनिक अथवा कामुक वृत्तियों की तृप्तियों के लिए प्रार्थना की गयी है ।
क्यों कि उस काल मेंजनसंख्या भी निम्न स्तर पर विद्यमान था ।
जैसे
इन सूक्तों में ऋग्वैदिक काल 1500-1000 BC के सामाजिक घटनाओं का वर्णन है।
ऋषियों द्वारा यज्ञ का आयोजन, इन्द्रादि देवताओं का आह्वान, सोमपान, युद्ध की तैयारी, तथा युद्ध में लूटी गई सम्पत्ति का बंटवारा, धार्मिक, सांस्कृतिक अनुष्ठान आदि का उल्लेख किया गया है।
आर्य्य शब्द यौद्धा अथवा वीर का अर्थ देते देते
वर्ण व्यवस्था में जन-जाति गत हो जाता है।
यज्ञ विधियों में पशु बलियों का विधान भी था ।
इन्द्र के लिए उक्षन् ( Oxen ) _ बैल का माँस प्रिय था ।
★–उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥
अर्थ- "इन्द्राणि द्वारा प्रेरित याज्ञिक मेरे लिए पन्द्रह या बीस बैल पकाते हैं, उन्हें खाकर मैं मोटा बनता हूँ. याज्ञिक लोग मेरी दोनों कोखें सोमरस से भर देते हैं. इन्द्र सबसे श्रेष्ठ हैं."
शब्दार्थ:- (उक्ष--कनिन् )
१ वृषे, २ ऋषभौषधौ च । “विदलित- महाकूलामुक्ष्णां विषाणविघट्टनैः” माघः ।
“उक्षेव यूथा- परियन्नरावीत्” ऋ० ९, ७१, ९ ।
“उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवः” ऋ० ९, ६९, ४ ।
उक्ष का प्रारम्भिक व मूल अर्थ बैल है
कालान्तरण में औषधि के अर्थ में विकसित हुआ।
'परन्तु -बैल ही मौलिक अर्थ है।
क्यों की वैदिक भाषा की सजातीय यूरोपीय भाषाओं में यह शब्द
इन रूपों में है ।
_________
1-Middle English oxe,
2-Old English oxa,
3- Proto-Germanic *uhsô 4- West Frisian okse,
5-Dutch os,
6- German Ochse),
7- Proto-Indo-European *uksḗn.
8- Welsh ych (“ox”),
9-Tocharian (A) ops, Tocharian (B) okso (“draft-ox”),
10-Avestan (uxšan, “bull”),
11-Sanskrit उक्षन् (ukṣán).
♪यह शब्द जब अनेक भाषाओं में बैल का ही वाचक है तो इसके अन्य अर्थ बादल या औषधि ही क्यों करे
साकम्:-सह अकति अक--अमु सादेशः । १ साहित्ये २ सहार्थे अमरः । तद्योगे गौणक्रियान्वयिनि तृतीया ।
पञ्चदश:-पन्द्रह ।
विंशतिम् :-द्वे दशती (निरुक्ति) । १ द्विदशकसंख्यायां, तत्सङ्ख्यात च नित्यैकव० ।
सङ्ख्याविशेषार्थ, तु द्वि० ब० द्व० । द्वे विंशती त्रिम्नो विंशतयः इति ।
पीवन् :-स्थौल्ये भ्वा० पर० अक० सेट् । पीवति अपीवीत् पिपीव ।
अद् :- अद्मि 'मैं खाता हूँ।
यूरोपीय भाषाओं में अद् धातू का रूप From Middle English eten, from Old English etan (“to eat”), from Proto-Germanic *etaną (“to eat”), from Proto-Indo-European *h₁édti, from h₁ed- (“to eat”).
इदि क्विप् वा० नलोपः । इत् इत्यस्यार्थे एवकारार्थे इच्छब्दे उ० ।
______
वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् ।
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥
अर्थ- इन्द्राणि ने कहा- "हे इन्द्र! तीखे सींगों वाला बैल जिस प्रकार गर्जन करता हुआ गायों में रमण करता है, उसी प्रकार तुम मेरे साथ रमण करो. इन्द्र सबसे श्रेष्ठ हैं."
न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत् ।
सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥
अर्थ- "वह व्यक्ति मैथुन करने में समर्थ नहीं हो सकता जिसकी पुरुषेंद्रिय जाँघों के बीच लटकती है.
वह व्यक्ति मैथुन करने में समर्थ हो सकता है जिसकी बालों से युक्त पुरुषेंद्रिय सोते समय विस्तृत होती है.
इंद्र सबसे श्रेष्ठ हैं."
न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥
अर्थ- इंद्र ने कहा- "वह पुरुष मैथुन करने में समर्थ नहीं हो सकता जिसकी बालों वाली पुरुषेंद्रिय उसके सोते समय विस्तृत होती है. वही व्यक्ति मैथुन करने में समर्थ हो सकता है जिसकी पुरुषेंद्रिय जाँघों के बीच लटकती है. इंद्र सबसे श्रेष्ठ हैं."
💥 वैदिक काल में अन्तरंग और यौनिक वार्तालाप को इस तरह सार्वजनिक कर दिया जाता था..?
क्यों कि यह कार्य जीवन का अनिवार्य अंग होने से त्याज्य व घृणित कदापि नहीं था ।
अपितु यह ज्ञान और उत्कण्ठा का भी विषय होता था
वाल्मीकि-रामायण में वर्णित किया गया है, कि देवता सुरा पान करने के कारण सुर कहलाए ,
और जो सुरा पान नहीं करते वे असुर कहलाते थे ।
__________
बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये
"सुरा प्रति ग्रहाद् देवा: सुरा इति अभिविश्रुता ।
अप्रति ग्रहणात् तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता ।।
वस्तुत देव अथवा सुर जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध हैं । स्वीडन के स्वीअर (Sviar)लोग ही भारतीय पुराणों में सुर देवों के रूप में सम्बद्ध हैं ।
यूरोपीय संस्कृतियों में सुरा एक सीरप (syrup)
के समान है ।
वहाँ की शीत प्रधान जल-वायु के दुष्प्रभाव के कारण यूरोपीय लोग शराब पीना शुभ और स्वास्थ्य प्रद समझते हैं।
यह उनकी संस्कृति के लिए स्वास्थ्य प्रद परम्परा है।कारण वहाँ की शीतित जल-वायु के प्रभाव से बचने के लिए शराब औषधि तुल्य है ।
फ्रॉञ्च भाषा में शराब को सीरप (syrup) ही कहते हैं ।
अत: वाल्मीकि-रामायण कार ने सुर शब्द की यह अानुमानिक व्युत्पत्ति- की है ।
-सूर अन्न के अभाव में माँस खाते !
परन्तु सुर शब्द का विकास जर्मनिक जन-जाति "स्वीअर" (Sviar) रूप से हुआ है ।
1. अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्। पचन्ति ते वृषभाँ अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः।। (ऋ. 10.28.3)
अर्थात् हे इन्द्र! अन्न की कामना से तुम्हारे लिए जिस समय हवन किया जाता है, उस समय यजमान पत्थर के टुकड़ों पर शीघ्रतिशीघ्र सोमरस तैयार करते हैं, उसे तुम पीते हो, यजमान बैल पकाते है और उसे तुम खाते हो।
विशेष :- सोम शब्द सुरा का वाचक समझना चाहिए
क्यों की लौकिक ग्रन्थों वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड में है ।
🌸 सायण, महीधर आदि के वेद भाष्यों में ऐसे भाष्य हैं
जो सत्य परक होते हुए भी समाज में आदर्शोन्मुख नही
है ।
_________________
देखें उपर्युक्त ऋचा का सायण भाष्य-👇
1. अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्। पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः।। (ऋ. 10.28.3)
हे इन्द्र ते त्वदर्थं मंदिनो मादयितं स्तूयानविलं वितान्सोमानद्रिणाभिषवग्राव्णा सुन्वंति।
यजमाना अभिषुवन्ति।
एषामत्मदादियजमानानां संबंधिनः सोमांस्त्वं पिबसि। किंच त्वदर्थं वृषभान्पशून्ये च यजमानाः पचंति तेषां संबंधिनो हविर्भूतान्पशूनत्सि।
भक्षयसि।
हे मघवन्धनवन्निंद्र त्वं यदा पृक्षेण हविर्भूतेनान्नेन निमित्तेन हूयमानः यजमानैर्हूयसे तदेति पूर्वेण संबंधः।।
_______
इस दूसरी ऋचा का भाष्य
2. उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम्। उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।। (ऋ.10.86.14)
अथेंद्रो ब्रवीति।
मे मदर्थं पंचदश पंचदशसंख्याकान् विंशतिं विंशतिसंख्याकांश्चोक्ष्णो वृषभान् साकं सह मम भार्ययेंद्रण्या प्रेरिता यष्टारः पचंति।
उतापि चाहमद्मि।
तान्भक्षयामि।
जग्ध्वा चाहं पीव इत् स्थूल एव भवामीति शेषः। किंच मे ममोभोभौ कुक्षो पृणंति।
सोमेन पूरयंति यष्टारः।
सोऽहमिंद्रः सर्वस्मादुत्तरः।।
इन दोनों ही भाष्यों में वही मांसभक्षण व हिंसा परक अर्थ विद्यमान है, ।
आर्य समाजी मुनि परिव्राजक कृत भाष्य-
जिसमें यौगिक अर्थ के माध्यम अर्थ का अनर्थ ही हो गया ह
1. अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्। पचन्ति ते वृषभाँ अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः।। (ऋ. 10.28.3)
संस्कृतान्वयार्थः- (इन्द्र) हे आत्मन्! राजन्! वा (ते) तुभ्यम् (अद्रिणा) श्लोककृता प्रशंसकेन वैद्येन पुरोहितेन वा प्रेरिता ‘‘अद्रिरसि श्लोककृत्’’ ,(काठ. 1/5) (मन्दिनः) तव हर्षयितारः पारिवारिका जना राजकर्मचारिणो वा (तूयान् सोमान् सुन्वन्ति) जलमयान् रसमयान् ‘‘तूयम् उदकनाम’’ (निघं. 1/6)सोमरसान् सम्पादयन्ति (तेषां पिबसि) तान् त्वं पिबेः ‘‘लिङर्थें लेट्’’ (अष्टा 3/4/7) अथ (ते) तुभ्यम् (वृषभान् पचन्ति) सुखरसवर्षकान् ‘‘वृषभः-यो वर्षति सुखानि सः’’ (ऋ. 1/31/5 दयानन्दः) ‘‘वृषभः-वर्षिताऽपाम्’’ {निरु. 4/8} सम्पादयन्ति (मघवन्) पृक्षेण हूयमानः।
हे आत्मन् राजन् वा स्नेहसम्पर्केणाहूयमानो निमन्त्रयमाणः (तेषाम्-‘अत्सि) तान् त्वं भुङ्क्ष्व-भुङ्क्षे।। 3 ।।
भाषान्वयार्थ- (इन्द्र) हे आत्मन् या राजन्। (ते) तेरे लिये (अद्रिणा) प्रशंसक वैद्या या पुरोहित से प्रेरित (मन्दिनः) तेरे प्रसन्न करने वाले पारिवारिक जन या राजकर्मचारी (तूयान् सोमान् सुन्वन्ति) रसमय सोमों को तय्यार करते हैं (तेषां पिबसि) उनको तू पी और (ते) तेरे लिए (वृषभान् पचन्ति) सुख बरसाने वाले भोगों को तय्यार करते हैं (मघवन् पृक्षेण हूयमानः) हे आत्मन्! या राजन्! स्नेह सम्पर्क से निमन्त्रित किया जाता हुआ (तेषाम्-अत्सि) उन्हें तू भोग।। 3 ।।
भावार्थ- आत्मा जब शरीर में आता है, तब उसे अनुमोदित करने वाले वैद्य और प्रसन्न करने वाले पारिवारिक जन अनेक रसों और योग्य पदार्थों को उसके लिये तैयार करते हैं ।
और स्नेह से खिलाते पिलाते हैं, जिससे कि शरीर पुष्ट होता चला जावे तथा राजा राजपद पर विराजमान होता है, तब उसके प्रशंसक पुरोहित और प्रसन्न करने वाले राजकर्मचारी सोमादि औषधियों के रस और भोगों को तैयार करते है, वह स्नेह से आदर पाया हुआ उनका सेवन करता है।। 3 ।।
2. उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम्। उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।। (ऋ.10.86.14)
भाषान्वयार्थ- (मे हि पञ्चदश साकं विंशतिम्) मेरे लिये ही पन्द्रह और साथ बीस अर्थात् पैंतीस (उक्ष्णः पचन्ति) ग्रहों को प्राकृतिक नियम सम्पन्न करते हैं (उत-अहम्-अद्मि) हाँ मैं उन्हें खगोल में ग्रहण करता हूँ (पीवः) इसलिये मैं प्रवृद्ध हो गया हूँ (मे-उभा कुक्षी-इत् पृणन्ति) मेरे दोनों बगल उत्तर गोलार्ध दक्षिण गोलार्धों को उन ग्रह उपग्रहों से प्राकृतिक नियम भर देते हैं।।
आर्य समाजी आचार्य वैधनाथ शास्त्री कृत भाष्य- भी देखें 👇
1. अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्। पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः।। (ऋ. 10.28.3)
पदार्थ- (इन्द्र) हे राजन्!(ते) तेरे लिए (मन्दिनः) हर्षदायक (तूयान्) शीघ्र पचने वाले (सोमान्) सोम आदि औषधियों को (अद्रिणा) पाषाण आदि के साधनों से (सुन्वन्ति) वैद्यजन तैयार करते हैं, (एषाम्) इन सोम आदिकों को (त्वम्) तू (पिबसि) पीता है, हे धन के स्वामिन्! (पृक्षेण) स्नेह से (हूयमानः) बुलाये गए आप (ते) वे वैद्यजन (वृषभान्) वृषभ नाम की बलदायक औषधियों को (पचन्ति) पकाते हैं (तेषाम्) उनकी इन औषधियों को (अत्सि) खाते हो।
भावार्थ- हे राजन्! प्रेम से बुलाये गए आप वैद्य जनों द्वारा तैयार किये गये सोम आदि औषध और उनके द्वारा पकाये गये बलदायक ‘वृषभ’ नामक औषध को पीते और खाते हो।। 3 ।।
2. उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम्। उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।। (ऋ.10.86.14)
पदार्थ- (पंचदश) दश प्राण और पंचभूत ये पन्द्रह पदार्थ, (मे) मेरे द्वारा बनाये गये (उक्ष्णः) सुखों के वर्षक शरीरों के (विंशतिम्) 20 अंगों को (साकम् हि) साथ ही (पचन्ति) पका कर पुष्ट करते हैं (उत) और (मे) मेरे द्वारा प्रदत्त शरीर के (उभाकुक्षी) दोनों पाश्र्वों को (पृणन्ति) पूर्ण करते हैं। (अहम्) मैं (पीव इत्) सर्वदा परिपुष्ट इस सबको प्रलयकाल में (अद्मि) अपने अन्दर समा लेता हूँ, (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् प्रभु (विश्वस्मात्) सब पदार्थों से सूक्ष्म और उत्कृष्ट है।
भावार्थ- दश प्राण और पंचभूत परमेश्वर द्वारा बनाए गए शरीरों के बीस अंगों को साथ ही परिपक्व करके पुष्ट करते हैं और मेरे द्वारा प्रदत्त दोनों पाश्र्वों को भी परिपूर्ण करते हैं।
मैं सर्वदा परिपुष्ट इन्द्र = परमेश्वर इन सबको प्रलयकाल में अपने अन्दर समेट लेता हूँ।
परमैश्ववर्यवान् प्रभू सब पदार्थों से सूक्ष्म और उत्कृष्ट है।। 14 ।।
चतुर्वेदभाष्यकार पं. जयदेव शर्मा ‘मीमांसातीर्थ’ का भाष्यकार कृत भाष्य-
1. अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिबसि त्वमेषाम्। पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः।। (ऋ.10.28.3)
भाष्य- हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान्! (मन्दिनः) स्तुतिशील (ते) तेरे लिए (अद्रिणा) विदीर्ण न होने वाले दृढ़ क्षात्र बल से (तूयान्) आशुगामी (सोमान्) वीर पुरुषों का (सुन्वन्ति) अभिषेक करते हैं। (त्वम् एषाम्) तू इनका (पिबसि) पालन करता है। (ते) तेरे लिए वे (वृषभान्) बलवान् पुरुषों को (पचन्ति) दृढ़ करते हैं, हे (मघवन्) ऐश्वर्यवान्! तू (हूयमानः) आदरपूर्वक प्रार्थना किया जाकर (तेषाम पृक्षेण) उनके स्नेह से (अत्सि) ऐश्वर्य का भोग करता है।
2. उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम्। उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ।। (ऋ.10.86.14)
भाष्य- (मे) मेरे (पंचदश उक्ष्णः) 15 प्राणों को, (पंचदश) और हाथ पैर की 20 अंगुलियों के समान शरीर के भीतर 20 अंगों को विद्वान् लोग (साकं पचन्ति) एक साथ परिपाक, ज्ञान और अभ्यास से दृढ़ करते हैं। (उत्) और मे (पीवः) परिपुष्ट होकर (अद्मि) उन सब का भोग करता हूँ। वे प्राण (मे) मेरे (कुक्षी) दोनों पार्श्वों (पृणन्ति) देह के दायें बायें ओर अपने 2 स्थान पर अंग-प्रत्यंग में व्यापते हैं। वह (इन्द्रः) अद्भुत शक्तिशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) सबसे ऊपर है। उसकी देेह-रचना का कौशल अविज्ञेय है।
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान्पिसि त्वमेषाम्।
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः।। (ऋ.10.28.3)
इस ऋचा का ऋषि वसुक्रः है। (वसुक्रः = ब्रह्म वै वसुक्रः) (ऐ. आ. 1.2.2), ब्रह्म = प्राणा-पानौ ब्रह्म (गो. पू. 2.11)
इसका तात्पर्य यह है कि इस छन्द रश्मि की उत्पत्ति प्राण व अपान के मिथुन से होती है।
इसका देवता इन्द्र होने से इसके दैवत प्रभाव से इन्द्र तत्व अर्थात् तीक्ष्ण विद्युत् तरंगें समृद्ध होती हैं।
इसका छन्द आर्षी निचृत् त्रिष्टुप् है। इसके छान्दस प्रभाव से इन्द्र तत्व तीक्ष्ण तेज व बल से युक्त होता है।
इस ऋचा का ऋषि वसुक्रः है। (वसुक्रः = ब्रह्म वै वसुक्रः) (ऐ. आ. 1.2.2), ब्रह्म = प्राणा-पानौ ब्रह्म (गो. पू. 2.11)
इसका तात्पर्य यह है कि इस छन्द रश्मि की उत्पत्ति प्राण व अपान के मिथुन से होती है।
इसका देवता इन्द्र होने से इसके दैवत प्रभाव से इन्द्र तत्व अर्थात् तीक्ष्ण विद्युत् तरंगें समृद्ध होती हैं।
इसका छन्द आर्षी निचृत् त्रिष्टुप् है।
इसके छान्दस प्रभाव से इन्द्र तत्व तीक्ष्ण तेज व बल से युक्त होता है।
आधिदैविक भाष्य- यहाँ संवाद की शैली में सृष्टि विद्या को समझाया गया है।
यहाँ छन्द रश्मि का ऋषिरूप प्राण-अपान युग्म इन्द्र तत्व अर्थात् तीक्ष्ण विद्युत् आवेशित तरंगों से कहता है- (इन्द्र) हे इन्द्र तत्व अर्थात् तीक्ष्ण विद्युत् तरंगो! (ते) तुम्हारे लिए (अद्रिणा) (आद्रिः = अद्रिरसि श्लोककृत् (का.1.5), मेघनाम (निघं. 1.10), यो अत्ति अदन्ति यत्रेति वा स अद्रिः (उ.को. 4.66) (श्लोकः = वाङ्नाम) (निघं. 1.11)( काॅस्मिक मेघों के अन्दर (यहाँ सप्तमी अर्थ में तृतीया का प्रयोग है।)
विभिन्न वाग् रश्मियों को उत्पन्न करने वाली सूक्ष्म प्राणादि रश्मियों से प्रेरित किंवा उनके सहयोग से (मन्दिनः) नाना प्रकार की कमनीय छन्द रश्मियां (तूयान् सोमान्) {तूयम् क्षिप्रनाम (निघं. 2.15), उदकनाम (निघं. 1.12)} शीघ्र गमन करने वाली तथा सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ को सिचत् करने वाली सोम रश्मियों को (सुन्वन्ति) उत्पन्न करती हैं किंवा उस काॅस्मिक मेघस्थ पदार्थ को सम्पीडित करके मानो उससे सूक्ष्म सोम रश्मियों को निचोड़ती हैं।
(त्वं, तेषां पिबसि) हे इन्द्र तत्व अर्थात् बलवती तीक्ष्ण विद्युदावेशित तरंगो! तुम उन सोम रश्मियों को पीओ अर्थात् अवशोषित करो। (ते) तुम्हारे लिए (वृषभान्) {वृषभः = स एव (आदित्यः) सप्तरश्मिर्वृषभस्तुुुविष्मान् (जै. उ. 1.28.2) (तुविरिति बलनाम - निघं. 3.1)} उस काॅस्मिक मेघ में अनेकों प्रकार के बहु आकर्षण बलयुक्त आदित्यलोकों अर्थात् विशालतारों को (पचन्ति) परिपक्व करते हैं अर्थात् सोम रश्मि से समृद्ध इन्द्र तत्व अर्थात् तीक्ष्ण विद्युदावेशित तंरगें उन विशाल तारों को उत्पन्न व परिपक्व करती हैं। (मघवन्) {मघवान् = स उ एव मखः स विष्णुः। ततः इन्द्रो मखवान् अभवत् मखवान् है वै तं मघवान मित्याचक्षते परोक्षम् (श. 14.1.1.13) (मखः = यज्ञनाम) (निघं. 3.17), यज्ञो वै मखः (तै. ब्रा. 3.2.8.3) एष वै मखो य एष (सूर्यः) तपति (श. 14.1.3.5)} विभिन्न प्रकार की संयोग-वियोगादि क्रियाओं एवं नाना प्रकार की प्रकाश तरंगों से परिपूर्ण सूर्यादि तारा (पृक्षेण) { पृक्ष = अन्ननाम (निघं. 2.7) संयोज्य कणों की असंख्य धाराओं के द्वारा (हूयमानः) अनेक प्रकार के संघर्षण एवं तज्जन्य नाना उच्च ध्वनियों को उत्पन्न करता हुआ वह विशाल काॅस्मिक मेघ (तेषाम्-अत्सि) उन सूर्यादि तारों को अपने अन्दर निगले रहते हैं अर्थात् अपने गर्भ में समाए रहते हैं।
____
भावार्थ- जब विशाल काॅस्मिक मेघ के अन्दर विद्यमान् सूक्ष्म प्राण रश्मियों से प्रेरित होकर विभिन्न छन्द रश्मियों के द्वारा उस काॅस्मिक मेघ का सम्पीडन होना प्रारम्भ होता है, उस समय उस विशाल मेघ रूप पदार्थ में उन छन्द व प्राण रूप रश्मियों से सोम अर्थात् सूक्ष्म मरुद् रश्मियां उत्पन्न होने लगती हैं।
जब उस काॅस्मिक मेघ में व्याप्त विद्युदावेशित तरंगें उन सोम रश्मियों को अवशोषित करती हैं, तब वे तीव्र बल व ऊर्जा से सम्पन्न होने लगती हैं।
इसके पश्चात् उस काॅस्मिक मेघ में नाना प्रकार से सम्पीडन क्रिया प्रारम्भ होकर सम्पीडन के अनेक केन्द्रों की उत्पत्ति होने लगती है। इसके साथ उन केन्द्रों के आस-पास विभिन्न प्रकार के आयन्स की धाराएं बहने लगती हैं। इससे सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ में नाना प्रकार के गम्भीर उच्च घोष उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार उस सम्पूर्ण मेघ रूप पदार्थ में अनेंकों सूर्यों का गर्भ पल रहा होता है।
इस ऋचा (छन्द रश्मि) का सृष्टि प्रक्रिया पर प्रभाव- इसके प्रभाव से काॅस्मिक मेघ में विद्युदावेशित कणों की अनेकों धाराएं बहने लगती हैं, जो वहाँ विद्यमान् सूक्ष्म छन्द वा मरुद् रश्मियों को अवशोषित करके तीव्रतर रूप को प्राप्त होती हैं।
इन धाराओं से युक्त काॅस्मिक मेघ अपने गुरुत्व बल एवं नाना छन्द व प्राण रश्मियों के प्रभाव से सम्पीडत होने लगता है और इस सम्पीडन क्रिया के समय ही उस विशाल मेघ के अन्दर विभिन्न तारों के केन्द्रों का निर्माण होकर उनका गर्भ पलने लगता है।
आधिदैविक भाष्य- (मे हि पञ्चदश साकं विंशतिम्) मेरे अर्थात् पूर्वोक्त विशेष सूत्रात्मा वायु के द्वारा {तृतीयार्थ में चतुर्थी का प्रयोग है।
ही पन्द्रह अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त एवं धनंजय ये दस प्राथमिक प्राण तथा सूत्रात्मा वायु, भूः, भुवः, स्वः एवं हिम् अथवा पंच महाभूत ये पांच मिलाकर पन्द्रह प्राथमिक सूक्ष्म रश्मि आदि पदार्थों के साथ- साथ बीस अर्थात् 12 मास, 6 ऋतु रश्मियां, मनस्तत्व एवं ओम् रश्मि अथवा 12 मास एवं गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती के अतिरिक्त अतिच्छन्द रश्मियां, ये 20 प्रकार की रश्मियां, इस प्रकार कुल 35 प्रकार के रश्मि आदि पदार्थ (उक्ष्णः) {उक्षा = उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः उक्षन्त्युदकेनेति वा (निघं. 12.9)} वर्षा आदि के द्वारा सींचने में समर्थ अथवा प्रकाशादि किरणों के द्वारा विभिन्न लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ विशाल सूर्यादि लोकों को (पचन्ति) परिपक्व वा पुष्ट करते हैं अर्थात् उपर्युक्त पैंतीस प्रकार के रश्मि आदि पदार्थों के द्वारा ही विशाल काॅस्मिक मेघों में विभिन्न तारों का निमार्ण होता है। (उत) और (अहम्) मैं अर्थात् इस छन्द रश्मि के ऋषिरूप सूत्रात्मा वायु का विशेष स्वरूप (अद्मि) इन सभी पैंतीस रश्मि आदि पदार्थों का भक्षण करता है अर्थात् सबको एकसूत्र में बांधकर सूर्य लोकादि विभिन्न लोकों को भी अपने अन्दर समाहित कर लेता है।
(पीवः) इस प्रक्रिया के समय वह सूत्रात्मा वायु अति विस्तृत रूप धारण करके सम्पूर्ण सौरमण्डल, गैलेक्सी आदि में व्याप्त हो जाता है। (मे) मेरे अर्थात् उस विशेष सूत्रात्मा वायु के (उभा) दोनों रूप अर्थात् सम्पूर्ण लोकों को आच्छादित करने वाले तथा विभिन्न सूक्ष्म कणों व रश्मियों को ढकने वाले दोनों रूप सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ, गैलेक्सी, सौरमण्डल आदि के अन्दर व बाहर सर्वत्र व्याप्त हो जाते हैं।
(इन्द्रः) वह इन्द्र अर्थात् विद्युत चुम्बकीय तंरगें, विद्युदावेशित तरंगें तथा सूर्यादि लोक अन्य लोकों से उत्कृष्ट स्वरूप को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ- जब किसी काॅस्मिक मेघ के अन्दर दस प्राथमिक प्राण, पंच महाभूत अथवा सूत्रात्मा , हिम् , भूः, भुवः व स्वः, ये सब पन्द्रह पदार्थों के साथ 8 प्रकार की छन्द व 12 प्रकार की मास रश्मियां मिल कर अर्थात् कुल 35 प्रकार के रश्मि आदि पदार्थ विशेष सक्रिय होते हैं, उस समय उस विशाल मेघ के अन्दर नाना प्रकार के तारों का जन्म होने लगता है।
उस समय सूत्रात्मा वायु अति विस्तृत होकर सभी पदार्थों के साथ-2 सम्पूर्ण काॅस्मिक मेघ को अपने अन्दर व्याप्त कर लेता है।
इन सभी लोकों में सूत्रात्मा वायु रश्मियों के दोनों रूप अर्थात् एक वह रूप, जो सूक्ष्म रश्मियों वा कणों को परस्पर जोड़ने में सहायक होता है और दूसरा, जो विभिन्न लोकों के गुरुत्वाकर्षण बल का एक महत्वपूर्ण भाग बनकर उन्हें थामे व जोड़े रखता है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सक्रिय होते हैं।
इससे विभिन्न प्रकार के विकिरण व लोकों को उत्कृष्ट स्वरूप प्राप्त होता है।
आधिभौतिक भाष्य- (मे हि पंचदश साकं विंशतिम्) मैं अर्थात् राजा अपने पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियों व पांच कर्मेन्द्रियों को वश में करके दश कामज व्यसन { अक्ष अर्थात् चैपड़ खेलना, जुवा खेलना, दिन में सोना, कामकथा वा दूसरे की निन्दा किया करना, स्त्रियों का अति संग, मादकद्रव्य अर्थात् मद्य, अफीम, भाँग, गाँजा, चरस आदि का सेवन, गाना बजाना, नाचना व नाच कराना, सुनना और देखना, वृथा इधर-उधर घूमते रहना।- मनुस्मृति- सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठ समुल्लास से उद्घृत} व आठ क्रोधज व्यसन { पैशुन्यम् अर्थात् चुगली करना, बिना विचारे बलात्कार से किसी की स्त्री से बुरा काम करना, द्रोह रखना, ईष्र्या अर्थात् दूसरे की बड़ाई वा उन्नति देख कर जला करना, असूया दोषों में गुण, गुणों में दोषारोपण करना, अर्थदूषण अर्थात् अधर्मयुक्त बुरे कामों में धनादि का व्यय करना, कठोर वचन बोलना और बिना अपराध कड़ा वचन वा विशेष दण्ड देना।- मनुस्मृति- सत्यार्थ प्रकाश के षष्ठ समुल्लास से उद्घृत} अविद्या व प्रमाद, इन बीस दुव्र्यसनों को जीत कर (उक्ष्णः) प्रजा के लिए अपने सुख व पराक्रम वर्षक स्वरूप को (पचन्ति) परिपक्व करता है {यहाँ बहुवचन प्रयोग व्यत्यय से हुआ है।} (उत) और (अहम्) मैं सुखवर्षक राजा (अद्मि) सम्पूर्ण राष्ट्र के दुःख, अविद्या, दरिद्रता, अशान्ति एवं असुरक्षा आदि को नष्ट करता हूँ, (पीवः) ऐसा करके मैं अपने राष्ट्र का विकास करता हूँ, (मे) मेेरे (उभा कुक्षी) सज्जन प्रजाजन हेतु स्नेह व दुर्जनों हेतु उचित दण्ड, ये दोनों स्वरूप वा व्यवहार (इत् पृणन्ति) सम्पूर्ण राष्ट्र को सुख व शान्ति से समृद्ध करते हैं।
भावार्थ- जो अपने प्राणों व इन्द्रियों को वश करके अविद्या, प्रमाद व सभी कामज तथा क्रोधज दोषों को जीत लेेता है, वह सम्पूर्ण राष्ट्र को नाना प्रकार के सुख-ऐश्वर्यों से भर देेेता है। ऐसा राजा सज्जनों को संरक्षण व दुष्टोें को उचित दण्ड के द्वारा अपने राष्ट्र को सर्वविध संरक्षित व सुखी करता है।
आध्यात्मिक भाष्य- (मे हि) मैं योग साधक (पंचदश साकं विंशतिम्) मोक्ष के चार साधन, जिनमें प्रथम विवेेक के बारह प्रकार अर्थात् शरीर के अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय कोष, तीन अवस्था-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, चार शरीर-स्थूल, सूक्ष्म, कारण एवं तुरीय वा स्वाभाविक को यथावत् जानना, ये बारह प्रकार के विवेक, द्वितीय वैराग्य अर्थात् ज्ञान की पराकाष्ठा, तृतीय षट्क सम्पत्ति (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा व समाधान), चैथा मुमुक्षुत्व अर्थात् मुक्ति की तीव्र इच्छा, ये कुल मिलाकर मुक्ति के बीस साधनों के साथ यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि, इन आठों योगांगों से प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, इन तीन प्रमाण, विपर्पय, विकल्प, निद्रा व स्मृति, इन सात प्रकार की वृत्तियों का निरोध करके अर्थात् कुल पैंतीस प्रकार के साधनोपसाधनों के द्वारा (उक्ष्णः पचन्ति) सुख व आनन्द की वृष्टि करने हारे परब्रह्म परमात्मा को साक्षात् करने की प्रक्रिया को परिपक्व करता हूँ।
(उत) और (अहम्) मैं योगमार्ग का पथिक (अद्मि) उस परमानन्द व पावनी शान्ति का भक्षण करता हूँ अर्थात् उसका आस्वादन अनुभव करता हूँ और ऐसा करके (पीवः) अपने आत्मिक बल व पवित्रता को समृद्ध करता हूँ। (मे) मेरे (उभा कुक्षी) लौकिक व परलौकिक दोनों ही सुख (इत्, पृणन्ति) मुझे पूर्ण तत्व करते हैं।
भावार्थ- कोई भी योगी जब विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व के साथ अष्टांग योग की साधना करता है, उस समय वह सृष्टि के सम्पूर्ण विज्ञान के साथ-2 परब्रह्म परमेश्वर एवं स्वयं के यथार्थ स्वरूप को जानकर परमानंद को प्राप्त करता है।
इसके साथ वह इस लोक में भी सभी सुखों को प्राप्त करने में समर्थ होता है।
यह उपर्युक्त भाष्य- महर्षि दयान्द की यौगिक अर्थ समन्वित शैली पर आधारित है ।
जिसमें यथार्थ की अपेक्षा आदर्शोन्मुख सत्य परक भाष्य-किया है ।
____________
विदेशी विद्वान वेद के जिन मन्त्रों में अश्लीलता का वर्णन करते हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
ऋग्वेद 1/126/6-7
ऋग्वेद 1/164/33 और ऋग्वेद 3/31/1
यजुर्वेद 23-22,23
अथर्ववेद 1//11/ 3-6
अथर्ववेद 4//4/ 3-8
अथर्ववेद 6//72/ 1-3
अथर्ववेद 6/101/1-3
अथर्ववेद 6/138/4-5
अथर्ववेद 7/35/2-3
अथर्ववेद 7/90/ 3
अथर्ववेद 20/126/16-17
अथर्ववेद कांड 20 सूक्त 136 मंत्र 1-
- वेदों में अश्लीलता होने के कारण है?
संस्कृत भाषा में यौगिक , रूढ़ि एवं योगरूढ़ तीन प्रकार के शब्द होते हैं।
महर्षि दयान्द ने वेदों की व्याख्या यौगिक शब्द अर्थ शैल में की है ।
वेदिक काल में अनेक ऐसे शब्द प्रचलित थे जिन्हे सर्वदा श्लील (शालीन) माना जाता था और उनका संपर्क कुत्सित भावों से करने की प्रवृति न थी।
ये शब्द हैं जैसे लिंग, शिश्न, योनि, गर्भ, रेत, मिथुन आदि।
आजकल भी इन शब्दों को हम सामान्य भाव से ग्रहण करते हैं जैसे लिंग का प्रयोग पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग में किया जाता हैं।
योनि का प्रयोग मनुष्य योनि एवं पशु योनि में भेद करने के लिए प्रयुक्त होता हैं, गर्भ शब्द का प्रयोग पृथ्वी के गर्भ एवं हिरण्यगर्भ के लिए प्रयुक्त होता हैं।
इस प्रकार से अनेक शब्दों के उदहारण लौकिक और वैदिक साहित्य से दिए जा सकते है जिनमें सभ्य व्यक्ति अश्लीलता नहीं देखते।
श्लीलता एवं अश्लीलता में केवल मनोवृति का अंतर हैं। ऊपर में जिस प्रकार शब्दों के रूढ़ि अर्थों का ग्रहण किया गया हैं उसी प्रकार से कुछ स्थानों पर शब्दों के यौगिक अर्थों का भी ग्रहण होता हैं।
जैसे 'माता की रज को सिर में धारण करो' का तात्पर्य पग धूलि हैं न की माता के 'रजस्वला' भाव से प्रार्थना की गई हैं।
इस प्रकार से शब्दों के अर्थों के अनुकूल एवं उचित प्रयोग करने से ही तथ्य का सही भाव ज्ञात होता हैं अन्यथा यह केवल अश्लीलता रूपी भ्रान्ति को बढ़ावा देने के समान है।
इस भ्रान्ति का एक कारण कुछ मन्त्रों में अर्थों का अस्वाभाविक एवं पक्षपातपूर्ण प्रयोग करके उनमें व्यभिचार अथवा अश्लीलता को दर्शाना है।
एक कारण तथ्य को गलत परिपेक्ष में समझना है। एक उदहारण लीजिये की जिस प्रकार से चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकों में मानव गुप्तेन्द्रियों के चित्र को देखकर कोई यह नहीं कहता की यह अश्लीलता है क्यूंकि उनका प्रयोजन शिक्षा है उसी प्रकार से वेद ईश्वरीय प्रदत ज्ञान पुस्तक है इसलिए उसमें जो जो बातें हैं वे शिक्षा देने के लिए लिखी गई हैं।
इसलिए उनमें अश्लीलता को मानना भ्रान्ति है।
, सायण,महीधर आदि ने वेदों की यथावत व्याख्या की भाष्यकारों और उनका अनुसरण करने वाले पश्चिमी और कुछ भारतीय लेखक हैं।
'परन्तु यह व्याख्या समय के सापेक्ष
नही थी ।
'परन्तु यास्काचार्य की पद्धति से शब्दों के अर्थ अादर्श मूलक थे ।
ऋग्वेद 1/126 के छठे और सातवें मंत्र का सायणाचार्य, स्कंदस्वामी आदि ने राजा भावयव्य और उनकी पत्नी रोमशा के मध्य संभोग की इच्छा को लेकर अत्यंत अश्लील संवाद का वर्णन मिलता है।
ऋग्वेद 1/164/33 और ऋग्वेद 3/3/11 में प्रजापति का अपनी दुहिता (पुत्री) उषा और प्रकाश से सम्भोग की इच्छा करना बताया गया हैं जिसे रूद्र ने विफल कर दिया जिससे की प्रजापति का वीर्य धरती पर गिर कर नाश हो गया ऐसे अश्लील अर्थो को दिखाकर विधर्मी लोग वेदों में पिता-पुत्री के अनैतिक संबंधो पर आक्षेप करते हैं।
जिस प्रकार दो सेना आमने सामने होती हैं उसी प्रकार सूर्य और पृथ्वी आमने सामने हैं और प्रजापति पिता सूर्य मेघ रूपी वीर्य से पृथ्वी माता पर गर्भ स्थापना करता है जिससे अनेक औषिधिया आदि उत्पन्न होते हैं जिससे जगत का पालन होता है।
महर्षि दयान्द के अनुसार हाँ रूपक अलंकार है जिसके वास्तविक अर्थ को न समझ कर प्रजापति की अपनी पुत्रियो से अनैतिक सम्बन्ध की कहानी बना दी गई।
इन्द्र अहिल्या की कथा का उल्लेख ब्राह्मण ,रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रंथो में मिलता हैं जिसमें कहा गया हैं की स्वर्ग का राजा इन्द्र गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या पर आसक्त होकर उससे सम्भोग कर बैठता हैं।
उन दोनों को एकांत में गौतम ऋषि देख लेते हैं और शाप देकर इन्द्र को हज़ार नेत्रों वाला और अहिल्या को पत्थर में बदल देते है।
अपनी गलती मानकर अहिल्या गौतम ऋषि से शाप की निवृति के लिया प्रार्थना करती है तो वे कहते है की जब श्री राम अपने पैर तुमसे लगायेगे तब तुम शाप से मुक्त हो जायोगी।
यद्यपि ये महर्षि दयान्द में सुव
इस कथा का अलंकारिक अर्थ इस प्रकार है। यहाँ इन्द्र सूर्य हैं, अहिल्या रात्रि हैं और गौतम चंद्रमा है। चंद्रमा रूपी गौतम रात्रि अहिल्या के साथ मिलकर प्राणियो को सुख पहुचातें हैं।
इन्द्र यानि सूर्य के प्रकाश से रात्रि निवृत हो जाती हैं अर्थात गौतम और अहिल्या का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है।
यजुर्वेद के 23/19-31 मन्त्रों में अश्वमेध यज्ञ परक अर्थों में महीधर के अश्लील अर्थ को देखकर अत्यंत अप्रीति होती है।
इन मन्त्रों में यजमान राजा कि पत्नी द्वारा अश्व का लिंग पकड़ कर उसे योनि में डालने, पुरोहित द्वारा राजा की पत्नियों के संग अश्लील उपहास करने का अश्लील वर्णन हैं।
पाठक सम्बंधित भाष्यकार के भाष्य में देख सकते है। स्वामी दयानंद ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में इन मन्त्रों का पवित्र अर्थ इस प्रकार से किया है। राजा प्रजा हम दोनों मिल के धर्म, अर्थ।
काम और मोक्ष की सिद्धि के प्रचार करने में सदा प्रवृत रहें। किस प्रयोजन के लिए?
कि दोनों की अत्यंत सुखस्वरूप स्वर्गलोक में प्रिया आनंद की स्थिति के लिए, जिससे हम दोनों परस्पर तथा सब प्राणियों को सुख से परिपूर्ण कर देवें।
जिस राज्य में मनुष्य लोग अच्छी प्रकार ईश्वर को जानते है, वही देश सुखयुक्त होता है। इससे राजा और प्रजा परस्पर सुख के लिए सद्गुणों के उपदेशक पुरुष की सदा सेवा करें और विद्या तथा बल को सदा बढ़ावें।
ऋग्वेद 7/33/11 के आधार पर एक कथा प्रचलित कर दी गयी की मित्र-वरुण का उर्वशी अप्सरा को देख कर वीर्य स्खलित हो गया।
वह घड़े में जा गिरा जिससे वसिष्ठ ऋषि पैदा हुए।
ऐसी अश्लील कथा से पढ़ने वाले की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है।
इस मंत्र का उचित अर्थ इस प्रकार है।
अथर्व वेद 5/19/15 के आधार पर मित्र और वरुण वर्षा के अधिपति यानि वायु माने गए है , ऋग्वेद 5/41/18 के अनुसार उर्वशी बिजली हैं और वसिष्ठ वर्षा का जल है।
यानि जब आकाश में ठंडी- गर्म हवाओं (मित्र-वरुण) का मेल होता हैं तो आकाश में बिजली (उर्वशी) चमकती हैं और वर्षा (वसिष्ठ) की उत्पत्ति होती है।
इस मंत्र का सत्य अर्थ पूर्ण रूप से अस्त्य है ।
देव संस्कृति कालान्तरण में आर्य संस्कृति के अर्थ में रूढ़ हो जाना था अन्यथा आपको ,विदित हो की देव संस्कृति के घोर विरोधी ईरानी भी स्वयं को आर्य्य अर्थात् वीर कहते थे।
आर्य्य शब्द इण्डो-यूरोपियन भाषाओं में विद्यमान है जिस
सम्बन्ध असुरों की संस्कृति के अनुयायी आर्य अर्थात् वीर थे भी और आपको ये भी पता होगा कि "दएव" शब्द का अर्थ ईरानी ग्रन्थ अवेस्ता ए जैन्द में दुष्ट तथा अधर्मी है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें