रविवार, 13 अक्टूबर 2019

चौहान शब्द चीनी- मंगोली भाषाओं के चाउ-हून का रूपान्तरण है।

चौहान शब्द चीनी- मंगोली भाषाओं के चाउ-हून का रूपान्तरण है।
_________________________________________
चौहान शब्द मूलत चाउ-हून का हिन्दुस्तानी रूपान्तरण है ।
चौथी शताब्दी ईस्वी में श्वेत-हूण जिन्हें (यूरोपीय इतिहास में चॉहल्स (चार्ल्स) चोलक्स) के रूप में वर्णन किया गया है ।
ये वस्तुत जॉर्जिया /आयबेरिया और अजरबैजान (अवेस्ता में (एर्य्यनऐबीजो) वैदिक सन्दर्भों में(आर्य्यन -आवास ) के क्षेत्रों के "अवर या हूणों के कबीलाई रूप थे ।

इनके कुछ वंशज, कैस्पियन समुद्र के पूर्व में बस गए थे।
यही वह अवधि थी जब चाहल गजनी क्षेत्र में ज़बुलिस्तान पर कब्जा कर रहे थे।

चाउ-हून वंश मध्य एशियाई है और मूल निवासी के साथ अंतःक्रिया के कारण यह भारतीय, ईरानी और तुर्की भी हो गया है।

इस उपनाम के बारे में और अन्य देशों की संस्कृतियों में पढ़ें  चौहान उपनाम का वितरण + - 25% पत्रक |
जनसंख्या डेटा © Forebears घटनाओं से पूर्ण स्क्रीन 2014 क्षेत्र में घटना आवृत्ति रैंक रखें

भारत 1,592,334 1: 482 53

इंग्लैंड 9150 1: 6076 861

संयुक्त राज्य अमेरिका 3,730 1: 96,850 10,829

संयुक्त अरब अमीरात 2,679 1: 3,425 428

सऊदी अरब 2,0 9 2 1: 14,751 2,0 9 5

पाकिस्तान 1,719 1: 101,474 3310

कनाडा 1,677 1: 21,943 3006

ओमान 1,549 1: 2,547 505

केन्या 1,349 1: 34,128 4126

फिजी 943 1: 948 108

बहुत कुछ राष्ट्रों में  चौहान उपनाम अर्थ $ 100 वंशावली डी.एन.ए परीक्षण जानने की संभावना के लिए इस उपनाम पर जानकारी प्राप्त करें ।

डी.एन.ए परीक्षण जानकारी उपयोगकर्ता द्वारा प्रस्तुत सन्दर्भ  चौथी शताब्दी ईस्वी में श्वेत-हूण, चॉहल्स  (यूरोपीय इतिहास की) ये जॉर्जियायीयों के वंशज, कैस्पियन समुद्र के पूर्व में बस गए थे।

यही वह अवधि थी जब चाहल (चालुक्य) गजनी क्षेत्र में ज़बुलिस्तान पर कब्जा कर रहे थे।

यह वंश मध्य एशियाई है और मूल निवासीयों के साथ अन्तःक्रिया के कारण यह भारतीय, ईरानी और तुर्की भी है।

हालांकि, नाम चॉहल (चालुक्य)को एक और कबीले द्वारा साझा किया जाता है और इसका अंतर मिश्रण होता है; इसलिए यह एक  मिश्रित है।

चाहल (चालुक्य)- सौलंकी  नाम लेबनान, इज़राइल और मध्य एशियाई देशों के मूल निवासीयो के रूप पाया जा सकता है।

- hsingh1861
ध्वन्यात्मक रूप से समान नाम उपनाम समानता घटना Prevalency Chaouhan 93 307 /

Chauahan 93 253 /

Chauhaan 93 243 /

Chauhana 93 94 /

Chauhanu 93 60 /

Chauehan 93 46 /

Chauohan 93 35 /

Chauhann 93 21 /

Chaauhan 93 18 /

Chauhani 93 15 / सभी समान सरनाम देखें

चौहान उपनाम लिप्यांतरण घटनाओं का  आईसीयू

लैटिन प्रतिशत बंगाली में चौहान চৌহান

cauhana - हिंदी में चौहान

cauhana 98.92 सभी अनुवाद दिखाएं मराठी में चौहान  cauhana 77.03

चौहाण cauhana 16.16

छगन chagana 1.99

चोहान cohana 1.23

सभी अनुवाद दिखाएं तिब्बती में चौहान ཅུ་ ཝཱན ་. chuwen 66.67 ཅུ་ ཧན ་.

chuhen 33.33 उडिया में चौहान େଚୗହାନ

ecahana 60.75 େଚୗହାନ୍

14.52 ecahan ଚଉହାନ

ca'uhana 6.99 େଚୖହାନ

ecahana 4.84 େଚୖାହାନ

ecaahana 3.23 େଚୗହାଣ

ecahana 2.15 େଚୗହନ ecahana

2.15 େଚୗାନ ecaana 2.15

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अरबी में चौहान شوهان shwhan -

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Chauhan Surname User-submission:

Descandants of White Huns, the Chahals (Chols of European history)

in the fourth century AD, were settled on the east of Caspian sea.

This was the period when Chahals were occupying Zabulistan in the Ghazni area. Ancestry is Central Asian and due to interbreeding with natives it is Indian, Iranian, and Turkish.

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England9,1501:6,076861

United States3,7301:96,85010,829

United Arab Emirates2,6791:3,425428

Saudi Arabia2,0921:14,7512,095

Pakistan1,7191:101,4743,310

Canada1,6771:21,9433,006

Oman1,5491:2,547505

Kenya1,3491:34,1284,126

Fiji9431:948108

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the Chahals (Chols of European history) in the fourth century AD, were settled on the east of Caspian sea.

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Descandants of White Huns, the Chahals (Chols of European history) in the fourth century AD, were settled on the east of Caspian sea.

This was the period when Chahals were occupying Zabulistan in the Ghazni area.
Ancestry is Central Asian and due to interbreeding with natives it is Indian, Iranian, and Turkish.

However, the name Chahal is shared by another clan and inter mixing has occurred; so ancestry is mixed.

The name Chahal can be found native to Lebanon, Israel and Central Asian countries.

- hsingh1861
Phonetically Similar Names
SurnameSimilarityIncidencePrevalency

Chaouhan93307/

Chauahan93253/

Chauhaan93243/

Chauhana9394/

Chauhanu9360/

Chauehan9346/

Chauohan9335/

Chauhann9321/

Chaauhan9318/

Chauhani9315/

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Chauhan in Bengali

চৌহানcauhana-

Chauhan in Hindi

चौहानcauhana98.92

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Chauhan in Marathi

चौहानcauhana77.03

चौहाण cauhana16.16

चागान chagana1.99

चोहानcohana1.23

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Chauhan in Tibetan

ཅུ་ཝཱན།chuwen66.67

ཅུ་ཧན།chuhen33.33

Chauhan in Oriya

େଚୗହାନecahana60.75

େଚୗହାନ୍ecahan14.52

ଚଉହାନca'uhana6.99

େଚୖହାନecahana4.84

େଚୖାହାନecaahana3.23

େଚୗହାଣecahana2.15

େଚୗହନecahana2.15

େଚୗାନecaana2.15

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Chauhan in Arabic
شوهانshwhan-शौहान 

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भारतीय पुरोहितों ने चौहानों की काल्पनिक व्युत्पत्ति भी की है उसे भी देखें 👇

चह्वान (चतुर्भुज)
अग्निवंश के सम्मेलन कर्ता ऋषि
१.वत्सम ऋषि,२.भार्गव ऋषि,३.अत्रि ऋषि,४.विश्वामित्र,५.चमन ऋषि ये पाँच हैं ।

विभिन्न ऋषियों ने प्रकट होकर अग्नि में आहुति दी तो विभिन्न चार वंशों की उत्पत्ति हुयी जो इस इस प्रकार से है-
१.पाराशर ऋषि ने प्रकट होकर आहुति दी तो परिहार की उत्पत्ति हुयी (पाराशर गोत्र)

२.वशिष्ठ ऋषि की आहुति से परमार की उत्पत्ति हुयी (वशिष्ठ गोत्र)

३.भारद्वाज ऋषि ने आहुति दी तो सोलंकी की उत्पत्ति हुयी (भारद्वाज गोत्र)

४.वत्स ऋषि ने आहुति दी तो चतुर्भुज चौहान की उत्पत्ति हुयी (वत्स गोत्र)
चौहानों की उत्पत्ति आबू शिखर में हुयी
सत्य पूछा जाय तो यह गुर्ज्जरः जन-जाति की शाखा चाउ-हून का रूपान्तरण है।

पृथ्वीराज चौहान  गुर्जर–चौहान वंश के प्रथम पराक्रमी राजा थे ;
जो उत्तरी भारत में 12 वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान अजमेर और दिल्ली पर राज्य करते थे।
वह गुर्जर के चौहान राजवंश का प्रसिद्ध राजा थे।

पृथ्वीराज चौहान का जन्म राजस्थानी क्षेत्र अजमेर (अजमीढ़) राज्य के वीर गुर्ज्जरः शासक सोमश्वर के पुत्र के रूप में हुआ था।
उनकी माता का नाम कर्पूरी देवी था  ।
जिन्हें बारह वर्ष के बाद पुत्र -रत्न कि प्राप्ति हुई थी।

पृथ्वीराज चौहान जो बचपन से ही तीर और तलवारबाजी के शौकिन थे।

उन्होमने बाल अव्सथा मेँ ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फार डाला।

पृथ्वी के जन्म के वक्तही महाराजा को एक अनाथ बालक मिला जिसका नाम चन्दबरदाई रखा गया। जिन्हेँ आगे चलकर कविताओँ का शौक हो गया।

चन्दबरदाई और पृथ्वीराज चौहान बचपन से ही अच्छे मित्र थे।

वह तंवर (तौमर)वंश के राजा अनंगपाल तंवर गुर्जर का दौहित्र  था और उसके बाद दिल्ली का राजा हुआ। उसके अधिकार में दिल्ली से लेकर अजमेर तक का विस्तृत भूभाग था।

पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया।

तोमर नरेश ने एक गढ़ के निर्माण का शुभारंभ किया था, जिसे पृथ्वीराज ने सबसे पहले इसे विशाल रूप देकर पूर्ण किया।

हूण अवर और कज्जर लोग थे जिनका मूल स्थान वोल्गा के पूर्व में था।

वे ३७० ई में यूरोप में पहुँचे और वहाँ विशाल हूण साम्राज्य खड़ा किया।

हूण वास्तव में चीन के पास रहने वाली एक जाति थी। इन्हें चीनी लोग "ह्यून -यू" अथवा "हून -यू" कहते थे।

कालान्तरण में इसकी दो शाखाएँ बन गईं जिसमें से एक वोल्गा नदी के पास बस गई तथा दूसरी शाखा ने ईरान पर आक्रमण किया और वहाँ के सासानी वंश के शासक फिरोज़ को मार कर अपना राज्य स्थापित कर लिया।

बदलते समय के साथ-साथ कालान्तरण में इसी शाखा ने भारत पर आक्रमण किया इसकी पश्चिमी शाखा ने यूरोप के महान रोमन साम्राज्य का पतन कर दिया।

यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों का नेता अट्टिला था।

भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों को श्वेत- हूण तथा यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों को अश्वेत -हूण कहा गया भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों के नेता क्रमशः तोरमाण व मिहिरकुल थे ।

तोरमाण ने स्कन्दगुप्त को शासन काल में भारत पर आक्रमण किया

एक प्राचीन मंगोल जाति जो पहले चीन की पूरबी सीमा पर अपना आधपत्य किया करती थी, पर पीछे वही अत्यंत प्रबल होकर एशिया और यूरोप के  देशों पर आक्रमण करती हुई फैली।

विशेष—हूणों का इतना भारी दल चलता था कि उस समय के बड़े बड़े सभ्य साम्राज्य उनका उवरोध नहीं कर सकते थे।

चीन की ओर से हटाए गए हूण लोग तुर्किस्तान पर अधिकार करके सन् ४०० ई० से पहले वंक्षु नद (आवसस नदी) के किनारे आ बसे।

यहाँ से उनकी एक शाखा ने तो योरप के रोम साम्राज्य की जड़ हिलाई और शेष पारस साम्राज्य में घुसकर लूटपाट करने लगे।
पारस वाले इन्हें 'हैताल' कहते थे।
कालिदास के समय में हूण वंक्षु के ही किनारे तक आए थे, भारतवर्ष के भीतर नहीं घुसे थे; क्योंकि रघु के दिग्विजय के वर्णन में कालिदास ने हूणों का उल्लेख वहीं पर किया है।

कुछ आधुनिक प्रतियों में 'वंक्षु' के स्थान पर 'सिंधु' पाठ कर दिया गया है, पर वह ठीक नहीं।

प्राचीन मिली हुई रघुवंश की प्रतियों में 'वंक्षु' ही पाठ पाया जाता है।

वंक्षु नद के किनारे से जब हूण लोग फारस में बहुत अपद्रव करने लगे, तब फारस के प्रसिद्ध बादशाह बहराम गोर ने सन् ४२५ ई० में उन्हें पूर्ण रूप से परास्त करके वंक्षु नद के उस पार भगा दिया।

पर बहराम गोर के पौत्र फीरोज के समय में हूणों का प्रभाव फारस में बढ़ा।

वे धीरे धीरे फारसी सभ्यता ग्रहण कर चुके थे और अपने नाम आदि फारसी ढंग के रखने लगे थे।

फीरोज को हरानेवाले हूण बादशाह का नाम खुशनेवाज था।
जब फारस में हूण साम्राज्य स्थापित न हो सका, तब हूणों ने भारतवर्ष की ओर रुख किया।

पहले उन्होंने सीमांत प्रदेश कपिश और गांधार पर अधिकार किया, फिर मध्यदेश की ओर चढ़ाई पर चढ़ाई करने लगे।
गुप्त सम्राट् कुमारगुप्त इन्हीं चढ़ाइयों में मारा गया।

इन चढ़ाइयों से तत्कालीन गुप्त साम्राज्य निर्बल पड़ने लगा।

कुमारगुप्त के पुत्र महाराज स्कंदगुप्त बड़ी योग्यता और वीरता से जीवन भर हूणों से लड़ते रहे।

सन् ४५७ ई० तक अंतर्वेद, मगध आदि पर स्कंदगुप्त का अधिकार बराबर पाया जाता है।
सन् ४६५ के उपरांत हुण प्रबल पड़ने लगे और अंत में स्कंदगुप्त हूणों के साथ युध्द करने में मारे गए।

सन् ४९९ ई० में हूणों के प्रतापी राजा तुरमान शाह (सं० तोरमाण) ने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर पूर्ण अधिकार कर लिया।

इस प्रकार गांधार, काश्मीर, पंजाब, राजपूताना, मालवा और काठियावाड़ उसके शासन में आए।
तुरमान शाह या तोरमाण का पुत्र मिहिरगुल
(सं० मिहिरकुल) बड़ा ही वीर और यौद्धा था और वह बौद्ध था, पर पीछे कट्टर शैव हुआ।

गुप्तवंशीय नरसिंहगुप्त और मालव के राजा यशोधर्मन् से उसने सन् ५३२ ई० मे गहरी हार खाई और अपना इधर का सारा राज्य छोड़कर वह काश्मीर भाग गया। हूणों में ये ही दो सम्राट् उल्लेख योग्य हुए।

कहने की आवश्यकता नहीं कि हूण लोग कुछ और प्राचीन जातियों के समान धीरे धीरे भारतीय सभ्यता में मिल गए।
गुर्जर जन-जाति में एक शाखा हूण भी है।

संस्कृत भाषाओं में हूण का अर्थ :-
२. एक स्वर्णमुद्रा। दे० 'हुन' (को०)।
३. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम जहाँ हूण रहते थे।—बृहत्०, पृ० ८६।

चौहान गुर्जर के चेची कबीले से मूल निकाले जाते हैं। बंबई गजेटियर के अनुसार चेची गुर्जर ने अजमेर पर 700 साल राज किया।

इससे पहले मध्य एशिया में तारिम बेसिन (झिंजियांग प्रांत) के रूप में जाना जाता है; ये उस क्षेत्र में रहते थे।
Chu-चाउ+ han हान
(200 ईसा पूर्व), "चाउ" राजवंश और चीन के "हूण (हान)" राजवंश के बीच वर्चस्व की लड़ाई जिसमे yuechis / Gujars भी इस विवाद का हिस्सा थे। गुर्जर जब भारत मे अरब बलों से लड़ते थे ।
-यद्यपि चाउ- भी हूण कबीलाई था ।

"चाउ-हान" शीर्षक अपने बहादुर सैनिकों को सम्मानित करने के लिए प्रयोग किया जाता था।

1178 ईस्वी में मोहम्मद गोरी ने गुजरात पर आक्रमण किया और गुर्जरेश्वर भीमदेव शोलंकी ने अच्छी तरह से हरा दिया और गुजरात से वापस भगा दिया ।
इसी वर्ष पृथ्वीराज चौहान अजमेर और दिल्ली के सिंहासन पर चढ़े थे ।

पृथ्वी ने तारेन (1191 ईस्वी) में गोरी के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।
जिसमे गुर्जर कुल खोखर, घामा, भडाना, सौलंकी, प्रतिहार और रावत ने भाग लिया।

खांडेराव धामा (पृथ्वी की पहली पत्नी का भाई) के आदेश के तहत गुर्जरो और खोखर के संयुक्त बलों ने मुश्लिम को बुरी तरह हराया और सीमा तक उनका पीछा किया।

गोरी बुरी तरह घायल हो गया था और उसकी घुड़सवार द्वारा युद्ध के मैदान से दूर ले जाया गया था। )

"पृथ्वी विजय" और "पृथ्वीराज रासो" में कहा कि उन्हें पृथ्वी द्वारा कब्जा कर लिया गया था बल्कि वह भाग खडा हुआ और एक साल (1192 ईस्वी) के बाद गोरी दोगुने बलों के साथ लौट आया इस समय तक खोखार गुर्जर से चला गया , सोलंकी और चौहान के मध्य एक विरोधी करण शुरू हो गया।

यह पृथ्वी की एकल बलों की हार थी ।
और घामा को तार्रेन युद्ध के पहले दिन में मौत की सजा दे दी गई । पृथ्वी को भी गौरी के दास द्वारा हार का नेत्र्तव करना पडा ।
कुतुब-उद-दीन-ऐबक नाम दिया है।
जिसको बाद मे दिल्ली की गद्दी इनाम के रूप मे दी गई पृथ्वीराज अपनी मौत से मिलने के लिए स्पष्ट रूप से अपनी अदालत में गोरी को मारता है और कैसे यह है।
पृथ्वीराज चौहान की कब्र गोरी की कब्र के बगल में आज तक मौजूद है।

और 1200 के आसपास चौहान की हार के बाद राजस्थान का एक हिस्सा मुस्लिम शासकों के अधीन आ गया।

शक्तियों का प्रमुख केन्द्रों नागौर और अजमेर थे। पृथ्वी भी 1195 ईस्वी में हार के बाद गुर्जरेश्वर का ताज अजमेर के हमीर सिंह चौहान ( पृथ्वी का भाई) ने लिया इसके बाद कन्नौज (1193 ईस्वी), अजमेर (1195), अयोघ्या, बिहार (1194), ग्वालियर (1196), अनहीलवाडा (1197), चंदेल (1201 ईस्वी) पर मुसलमानों द्वारा कब्जा कर लिया गया और "गुर्जर मंडल" उस के बाद समाप्त हो गया।यह केवल 1400 ई के बाद एक नए नाम के साथ इतिहास में दिखा । 1398 ईस्वी में हिंदू योद्धाओं को लैंग की 'आमिर तैमूर' द्वारा 'राजपूत' के रूप में संबोधित कर रहे थे।

राजपूत, राजा का पुत्र या बेटे से मतलब नहीं है।
राजपूत"राज्य-पुत्र" जिसका मतलब "राज्य के बेटे" से है। और आक्रमणकारियों से अपने राज्य वापस पाने के लिए आयोजित किया जाता था राजपूत संघ (मारवाड़ क्षेत्र में) 13 वीं सदी के दौरान मुस्लिम आक्रमणकारियों से लड़ने के लिए बनाई गई थी।

यह प्रसिद्ध गुर्जर कुलों यानी (प्रतिहार, पंवार, चालुक्य, चौहान, गुहीलोट, गेहडवाल, चंदेल, तोमर/तंवर, छावडा, घामा) आदि जैसलमेर और देवगिरि प्लस दहिया और खोखरस तरह कुछ चयनित योद्धा जाट जनजातियों के यादवों के साथ द्वारा बनाई गई थी। गुर्जर जाति के चौहान पश्चिमी उत्तर प्रदेश (कलश्यान चौहान), मैनपुरी उत्तर प्रदेश में और राजस्थान के नीमराना अलवर जिले में हैं, यहां के चौहान मुख्यतः हिंदू हैं ।
लेकिन पंजाब में वे सिख हैं।
पाकिस्तान में चौहानों मुख्य रूप से मुसलमान हैं। अनंगपाल तंवर और पृथ्वीराज चौहान गुर्जर थे।

13 गांव गुर्जर तंवरों के महरौली में है , दक्षिण दिल्ली में 40 से अधिक गांव गुर्जर तंवरों (मुस्लिम) के गुड़गांव में हैं।
दुर्भाग्य ये रहा कि  जो राजपूत स्वयं को तक्वुर ठक्कुर अथवा क्षत्रिय कहते हैं ।
वे राजा की वैध सन्तान नहीं हैं।

पृथ्वीराज विजय महाकाव्यम " उनकी के दरबारी कवि श्री "जयानक" द्वारा रचित है जिसकी प्रचीन पांडुलिपियो की खोज यूरोपीय विद्वान डा. जी. बूहलर ने करी थी  ।
इस ग्रंथ मे पहली बार गुर्जर शब्द पंचम सर्ग मे 51 वे श्लोक मे आया है -

त्यक्तं तपस्विना स्वच्छं यशौंशुकमितीव य: ।
गुर्जरं मूलराजाख्यं कथा दुर्गम् आविविशत् ।।51।।

इस श्लोक मे राजा विग्रहराज का गुर्जर  राजा मूलराज को हराकर उसे " कंथा " नामक दुर्ग तक सिमीत कर दिया था का वर्णन है
दूसरी बार गुर्जर शब्द का प्रयोग इसी सर्ग के श्लोक 78 में है ।  -

जिगाय गूर्जरं कर्णे तमश्वं प्राप्य मालव: ।
लब्ध्वानूरूस्सूर्यरथं करोति व्योमलड्•घनम् ।।78।।

इस श्लोक मे मालवराज उदयादित्य को राजा  विग्रहराज ने अपना सारंग नामक अश्व दिया था जिसके बल पर उसमे कर्ण नाम के गुर्जर राज को जीत लिया था ।

यहँं गुर्जराज से गुर्जर राजा का होना है  ,

यह मत श्लोक पष्ठ सर्ग के 29वे श्लोक से सिद्ध होता हैं -

"अवीचिभागो मरूभूमिनामा , खण्डो द्युलोकस्य च गूर्जराख्य: ।
परीक्षणायेव दिशी प्रतीच्यामेकीक्रतौ पाशधरेण
यौ दौ  ।।29।।

इस श्लोक मे राजा अर्णोरीज जी के विवाह का जिग्र है जो बताता है कि ' जो अवीचिभाग अर्थात जल की लहरो से रहित भाग है , वह मारूभूमि से प्रसिद्ध है और जो गूर्जर नाम वाला है  ,वह स्वर्ग का खंड है  ।

चतुर्थ बार गुर्जर शब्द सप्तम सर्ग के श्लोक 11 में है -

" अथ गूर्जरराजमूर्जितानां
मुकुटालकरणं कुमारपाल: ।10
अधिगत्य सुतासुतं तदीयं परिरक्षन्नभिवद्दथार्थनाना  ।।11।।

इसमे भी गूर्जर राजा का प्रयोग हुआ हैै ।
पांचवी बार यह शब्द दशम सर्ग के 50 वे श्लोक मे है -

" कारागाराधिकारहितरणरणरकै:
प्रेतनाथस्य यावत्तैर्दुर्गे गूर्जराणां न्रतनुभिरसुरैर्नड्वलाख्ये निमग्नम् ।

प्रथ्वीराजस्यतावन्निखिलदिग्भयारम्भसंरम्भसीमाभीमा भ्रू भड्गभड्गी विरचनसमयं कार्मुकस्याचचक्षे ।।50।।

अर्थ:- है कि गोरी की सेना ने गूर्जरो के नवल नामक दुर्ग मे प्रवेश किया , जिस कारण पृथ्वीराज चौहान  कि भ्रुकुटी तनी और योद्धाऔ को युद्ध की तैयारी करने की आज्ञा दी ।

गूजरों के देश गुजरात पर गोरी ने आक्रमण किया था जिस कारण प्रथ्वीराज क्रोधित हुए क्यों की यह समाचार उन्हें गुर्जर-मण्डल(गुजरात) से आए एक पुरूष ने दिया और गूर्जरों द्वारा सबसे पहले किए गोरी को घोर अपमान प्राप्त होने की बात भी कहीं ।
यह बात एकादश सर्ग के श्लोक 7 और 9 मे है ।
पृथ्वीराज चौहान गुर्जर थे
यह तथ्य प्रमाणित ही है ।

" ह्रद्यमान्तमिवानन्दं विकस्वरमुखौ वमन् ।
लेखहस्त: पुमान्प्राप्तो देव गूर्जरमण्डात्  ।।7।। "

मुखे प्रसादसंवादसंमतैस्स मितै: पदै: ।
गूर्जरोपड्यमाचख्यौं घौरं गोरिपराभवम्  ।।9।।

पृथ्वीराज चौहान  गुर्जर–चौहान वंश के प्रथम पराक्रमी राजा थे ;
जो उत्तरी भारत में 12 वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान अजमेर और दिल्ली पर राज्य करते थे।
वह गुर्जर के चौहान राजवंश का प्रसिद्ध राजा थे।

पृथ्वीराज चौहान का जन्म राजस्थानी क्षेत्र अजमेर (अजमीढ़) राज्य के वीर गुर्ज्जरः शासक सोमश्वर के पुत्र के रूप में हुआ था।

उनकी माता का नाम कर्पूरी देवी था  ।
जिन्हें बारह वर्ष के बाद पुत्र -रत्न कि प्राप्ति हुई थी।
🏃
जैसे जादौन (जिसे जादोैं के रूप में भी जाना जाता है) राजपूतों के एक कबीले (गोत्र) से सम्बद्ध हैं।

जादौन मूलतः बंजारा समुदाय रहा है ।
एक खानाबदोश समुदाय, माली (माली) जाति का एक समूह और भारत में यह जादौं कुर्मी जाति की एक उपजाति को भी सन्दर्भित करता है।

पहले हम नीचे भारत के प्रसिद्ध समाजशास्त्री व
लेखक  एस.जी. देवगांवकर (S.G.DeoGaonkar) और उनकी सहायिका शैलजा एस. देवगांवकर के द्वारा लिखी बंजारा जन-जाति के गहन सर्वेक्षण पर आधारित पुस्तक "
"भारत की बंजारा जाति और जनजाति - भाग 3"
से अंश उद्धृत करते हैं ।👇
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💐Sociologist Deu Gaonkar and his assistant Shelaja Gaonkar
Wrote in his book.
- which publishes books and lives on history.👇

"Mathurias ,Labhans and Dharias are The Charans Banjara ,
Who are more in numbers and important Among The Banjara are Divided into Five main class viz.
Rathod, Panwar, Chauhan, puri and Jadon or Burthia.
Each Class Sept is Divided into a Number of Sub-Septs  Among Rathods The important Sub-sept of Bhurkiya called After The Bhika,
Rathod Which is Again sub-divided into four groups viz Merji, Mulaysi, Dheda and Khamdar( The Groups based on the four son of Bhika Rathod ) ⛑

The Mathuriya Banjara already referred to Aabove derive their name from mathura and are supposed to be bramins Whith The secred thread ceremony monj.

They are who called Ahiwasi.
The third Devision the Labhans Probably  Derived  Their from Labana i.e.

Salt Which they used to Carry from place to place Another etymology relate the Lava The son of Lord Rama chandra connecting lineage to him .

The Dharis( Dhadis) are The bards of the caste who get the lowest rank According to their story, their ancestor was a disple  of Guru Nanak (The Sikh guru) Whith whom The Attended a feast given by mughal Emperor humanyun .

There he ete cow flesh and conseguently become a muhmmedan and and was circumcised .
He worked as a musicians at mughal court .his son joined at the Charans and became the Bards of the banjaras.
the Dharias are musicians and mendicants .
they worship sarswati and their marriage offer a he-got to Gagi and Gandha.

The two sons of original bhat who become Muhammedan.
    From the used tahsil of Yeotmal District.

where both he  sub-Groups of Rathods viz.
the bada Rathod and The chhota Rathod are present the following clans are reported

Bada -Rathod :
(1-khola 2-Ralot 3- Khatrot 4- Gedawat 5- Raslinaya 6- Didawat .

Chhota- Bajara (1-Meghawat 2- Gheghawat 3-Ralsot 4- Ramavat 5-Khelkhawat 6- Manlot 7-Haravat 8-Tolawat 9-Dhudhwat 10- Sangawat 11- Patolot ..

These two types are from the Charans banjara Alternativly are called "Gormati" in the area Another set of reported from the area are ..

"The Banjara caste and tribe of India -3 " 
writer S.G.DeoGaonkar
Shailja S. Deogaonkar .
इसी का हिन्दी रूपान्तरण निम्न है 👇
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भारत की बंजारा जाति और जनजाति - भाग 3"
लेखक  एस .जी.देवगॉनकर (S.G.DeoGaonkar)
और शैलजा एस. देवगांवकर
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अध्याय द्वितीय पृष्ठ संख्या- 18-👇

--जो लोग राजपूत हैं उन्हीं के कुछ समुदाय बंजारे भी हैं

-जैसे मथुरिया ,लाभान और धारीस ये चारण (भाट) हैं
जो संख्या में अधिक हैं ;
और बंजारों के बीच  बंजारे रूप में ही महत्वपूर्ण पाँच मुख्य वर्गों में विभाजित हैं।

१-राठौड़, २-पंवार, ३-चौहान, ४-पुरी और ५-जादौन या बुर्थिया।

भाटी ये भी मूलतः चारण बंजारे हैं --जो अब स्वयं को यदुवंशी या जादौनों से सम्बद्ध करते हैं ।
वस्तुत वे भाट या चारण ही हैं ।
भाट शब्द संस्कृत भरत ( नट- वंशावलि गायक) शब्द का तद्भव रूप है।
और व्रात्य का रूपान्तरण भी भाट या  भट्टा हुआ ।
अंग्रेज़ी में बरड(Bard) शब्द भरत का रूपान्तरण है।
क्यों कि दौनों रूपों से भाट या भट्टा शब्द ही विकसित होता है ।

मध्यकालीन हिन्दी कोशों में जादौं का अर्थ  नीच कुल में उत्पन्न / नीच जाति का ।
✍✍
👇 प्रोफेसर मदन मोहन झा द्वारा सम्पादित हिन्दी शब्द कोश में जादौं का एक अर्थ नीचजाति या नीच कुल में उत्पन्न लिखा है ।
प्रोफेसर, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, मानित विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से सम्बद्ध हैं ।

यद्यपि जादौन शब्द राजस्थानी भाषा में जादव का रूपान्तरण है ।
कुछ जादौन राजपूत स्वयं को करौली के यदुवंशी पाल ( आभीर) राजाओं का तो वंशज मानते हैं ;
परन्तु अहीरों से पीढ़ी दर पीढ़ी घृणा करते रहते हैं ।
दर असल मुगल काल में ये लोग मुगलों से जागीरें मिलने के कारण ठाकुर उपाधि धारण करने लगे ।

और ब्राह्मणों ने इनका राजपूती करण करके इन्हे मूँज के जनेऊ पहनायी और इन्हें तभी क्षत्रिय प्रमाण पत्र दे दिया।
तब से अधिकतर बंजारे क्षत्रिय हो गये
और ब्राह्मण धर्म का पालन करने लगे ।

ठाकुर शब्द भी तुर्को के माध्यम से ईसा की नवम शताब्दी में प्रचलित होता है ।
यह मूलत: तेक्वुर (tekvur) रूप में है।
--जो संस्कृत कोश कारों ने ठक्कुर के रूप स्वीकार कर लिया।
विदित हो कि बाद में प्रत्येक वर्ग को राठौड़ बंजारों के बीच कई उप-वर्गों में विभाजित किया गया है।
अब राठौर और राठौड़ --जो अलग अलग रूपों में दो जातियाँ बन गयी हैं ।
वे भी मूलत: एक ही थे एक राजपूत के रूप में हैं तो दूसरी बंजारे के रूप में।
आज भी हैं ।

ऐसे ही जादौनों का हाल हुआ है-।
जादौन --जो बंजारे थे वे मुगलों के प्रभाव में ठक्कुर हो गये ।
इसी प्रकार गौड और गौड़ जन-जातियों के भेद
इतना ही नहीं अहीरों की शाखा गुज्जर और राजपूतों की गुर्ज्जरः दो हैं
'वह भी इसी प्रकार हुआ एक अपने को रघुवंश से सम्बद्ध मानते रहे हैं तो दूसरे नन्द या वृषभानु गोप अथवा अहीरों से सम्बद्ध मानते रहे हैं।
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क्यों कि राधा और वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री को अपने गुज्जर कबीले की मानने वाले अहीरों से सम्बद्ध हैं।
गुज्जर गायत्री और राधा को चैंची गोत्र की कन्या बताते हैं परन्तु पुराणों में इन्हें आभीर कन्या बताया गया

यद्यपि  पाश्चात्य इतिहास कार दोनों गुज्जर और गुर्ज्जरः को जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) से भी सम्बद्ध मानते हैं।
इसी प्रकार जाट और जट्ट दो रूप हैं ।
जट्ट गुरूमुखी होकर गुरूनानक के अनुयायी हैं
और जाट मुसलमान और हिन्दु रूप में भी हैं ।
दर -असल  महाभारत के कर्ण पर्व में बल्ख अफगानिस्तान में तथा ईरान में रहने वाले जर्तिका जन -जाति-के रूप में हैं --जो पंजाब के अहीरों से सम्बद्ध हैं

वास्तव में जर्तिका शब्द पूर्व रूप में संस्कृत चारतिका का रूपान्तरण है
क्यों कि ये चरावाहों का समुदाय था ।
जिसे पाश्चात्य इतिहास विदों ने आर्य्य कहा ।
गुर्ज्जरः तो गौश्चर का परवर्ती रूपान्तरण है ही ।
अब बात करते हैं कि जादौन शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई👇
यद्यपि ये जादौन यदुवंशी की अफगानिस्तान के जादौन पठानों से निकल् हुई शाखा है ।
जो स्वयं को वनी- इज़राएल अर्थात्‌ यहूदियों के वंशज मानते हैं । 🐂
इस लिए ये भी यदुवंश की ही एक यायावर शाखा थी ।
कालान्तरण में इन्होंने करौली रियासत के पाल उपाधि धारक यदुवंशी शासकों को अपनाया।

पाल केवल अहीरों का गो-पालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है।
धेनुकर धनगर इन्हें की शाखा है ।
अन्यत्र भी पश्चिमीय एशिया के संस्कृतियों में पॉल और गेडेरी शब्द चरावाहों के लिए रूढ़ हैं ।

हिब्रू बाइबिल में पॉल ईसाई मिशनरीयों की उपाधि रही है --जो वपतिस्मा या उपनयन संस्कार करते थे ।
--जो मूलतः ये ईसाई भी  यहूदियों से सम्बद्ध थे ।
भारतीय चारण या भाट बंजारों में

जादौनों के बाद के भूरिया नामक महत्वपूर्ण उप-वर्ग, राठौड़ों में है;
जिसे फिर से चार समूहों में उप-विभाजित किया गया है , मुलसेई ,खेड़ा और खामदार और भीका ये राठौड़ के चार पुत्रों पर आधारित समूह) है ।
राजस्थान का भीकानगर ही बीकानेर हो गया ।

मथुरिया बंजारों का पहले ही ऊपर  उल्लेख किया है जो उनका नाम मथुरा से सम्बद्ध होता है और माना जाता है कि वे धार्मिकों  के रूप में थे।

ब्राह्मणों ने इन्हें मूँज का यज्ञोपवीत पहनाया।
ये ही कालान्तरण में ब्राह्मण धर्म के संरक्षक हुए
ये ही लोग अपने को करौली से जोड़ने लगे ।
तीसरा विभाजन  लावनांस👴

लबना (लवण)यानि साल्ट से सम्बद्ध है जो लवण (नमक)एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए इस्तेमाल किया था!

ये लोग फिर लव से स्वयं को  सम्बद्ध मानने लगे ।
लव भगवान राम के पुत्र हैं , जो लावांस को इस लव के वंश से जोड़ते हैं।
धारीस (धादी) जाति के गोत्र हैं।
सबसे निचली रैंक( श्रेणि) प्राप्त करें उनकी कहानी के अनुसार, उनके पूर्वज गुरु नानक (सिख गुरु) के एक शिष्य थे !

जिनका साथ मुगल सम्राट हुमायूं ने दी था।

वहाँ वह गाय का मांस खाता है और शंकुधारी होकर मुसलमान बन जाते हैं और उसका खतना कर दिया जाता है।
फिर उन्होंने मुगल दरबार में एक संगीतकार के रूप में काम किया।
यह भाट चारणों में शामिल होकर अन्त में बंजारों का आश्रय बन गये।

वे धारी संगीतकार अथवा गायक हैं।
वे सरस्वती की पूजा करते हैं और उनके विवाह की एक भेंट बकरा ,गगी और गन्ध से होती है।🚶🐂
मूलभाव के दो पुत्र जो भाट थे मुसलमान बने।
ये ओतमल जिले की प्रयुक्त तहसील से सम्बद्ध हैं ।
जहाँ दोनों ने राठौड़ों के उप-समूह मे स्वयं को समायोजित किया हैै
-जिन्हें इतिहास कारों ने १- बड़ा राठौड़ और २- छोटा राठौड़ रूपों में प्रस्तुत किया है।
इनके निम्नलिखित कबीले बताए गए हैं👇
बाड़ा-राठौड़:
(1-  खोला 2-रालोट 3- खटरोट 4- गेडावत 5- रसलिनया 6- डिडावत।

छोटा- राठौड़-बंजारा (१-मेघावत २- घेघावत ३-रालसोत ४- रामावत ५-खलखावत ६- मनलोत--हारावत ।
-तोलावत ९-धुधावत १०संगावत ११- पटोलोट ।।

ये दो प्रकार के हैं चारण बंजारा वैकल्पिक रूप से क्षेत्र में गोरमती कहा जाता है।
वास्तव आज  बंजारों का रूपान्तरण राजपूतों के रूप में है।
ये प्राय: कुछ भूबड़िया के रूप में भी हैं ।
--जो चीमटा फूकनी आदि बनाये हैं।
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उद्धृत अंश भारत की बंजारा जाति और जनजाति -3"
लेखक S.G.DeoGaonkar
शैलजा एस. देवगांवकर पृष्ठ संख्या- (18)चैप्टर द्वितीय...
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Originally there were only one.
As a Rajput, then in the form of the second Banjara.
There has been a similar situation - -

After Bhuria, the important sub-class Bhuria is in Rathore;
Which is again subdivided into four groups, Mulsei Kheda and Khamdar (a group based on the four sons of Bhika Rathod).
Bhiknagar too became Bikaner.

Mathuria Bazar has already mentioned above that his name is associated with Mathura and it is believed that he was in the form of a religious.
These people started connecting themselves with Karauli.
Third partition lavanasanaSalt (salt) i.e. salt which they used to take from one place to another,
These people again believed to be associated with love.
Love is the son of Rama, who connects the lineage to the lineage.
Dharis (Dhari) are the tribes of caste.
Get the lowest rank according to his story, his ancestor was a disciple of Guru Nanak (Sikh Guru)
, With whom the Mughal emperor Humayun gave.

There he eats the flesh of the cow and becomes a conch, becomes a Muslim and is circumcised.
Then he worked as a musician in the Mughal court. This bhawan joined the barns and became a shelter for the buyers.

He is a striker composer and singer. They worship Saraswati and a gift from her marriage comes from herbs and smell.
Two sons of origin who became Muslims.
These are from the Tahsil used in Othamal district.
Where the two are the sub-groups of Rathodas - the history cars
1- Big Rathore and 2-small Rathore are presented,
The following clan has been described 👇
Bada-Rathod:
(1-Opened 2-Ralot 3- Khatrot 4- Gedavat 5- Russellia-6-
Chhote-Rathod-Banjara (1-Meghavat 2-Ghaghav 3-Resolutions 4- Ramavat 5-Khalkhawat-6-Manlot-Harawat
-Returning 9-stunned 10-sympathetic 11-footolote ..

These are of two types: Charan Banjara is alternatively called Gormati in the area.
Today the conversion of Banjars is in the form of Rajputs.
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The excerpted portion of India's Banjara caste and tribe-3 "
Author S.G.DeOGaonkar
Shelaja S. Devgaonkar page no- (18) chapter II ...



पृथ्वीराज रासो इतिहास या चारण कथा-

चंदवरदाई लिखित" रासो " एक प्रसिद्ध पुस्तक है। यह गद्य रूप में नही पद्य में रचा गया ग्रन्थ है।

इसके मुताबिक अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान और कन्नौज के शासक की बेटी संयोगिता में प्रेम- सम्बन्ध था। 

संयोगिता को उसके पिता की मर्ज़ी के खिलाफ  पृथ्वीराज जबरन भगा लाया और शादी कर ली।

इसके बाद पृथ्वीराज और शहाबुद्दीन गौरी व पृथ्वीराज के बीच युद्ध हुआ पृथ्वीराज बंदी बना कर गज़नी ले जाया गया।

फिर रासो का लेखक चंदबरदाई जो स्वयं को पृथ्वीराज का मित्र बताता है।

अचानक गज़नी पहुचता है और व पृथ्वीराज को एक दोहे   "चार बांस चौबीस गज" के माध्यम गौरी के सिंहासन का संकेत देता है।

जिसके आधार पर शब्दभेदी वाण चलाकर पृथ्वीराज गौरी की हत्या कर देता है। तत्पश्चात पृथ्वीराज और चंदबरदाई एक दूसरे को तलवार से मार देते हैं।

रासो नामक यह महाकाव्य सन (1820) के दशक में तब चर्चा में आया, जब राजस्थान में उस समय ब्रिटिश अफसर रहे कर्नल जेम्स टॉड ( जो कि वास्इतव में इतिहासकार नहीं थे) ने राजस्थान पर पुस्तक लिखते समय रासों की इस कथा को प्रमुख स्थान दिया।

 फिर उसे इतिहास का हिस्सा मानकर किताबों में भी जगह दी जाने लगी।

चूंकि उस काल के प्रमुख खासकर विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकरण पर कुछ विशेष न लिखा था, इसलिए यह कहानी इतिहास का हिस्सा बन गयी।

1875 के आसपास जब एक अंग्रेज मिस्टर (बुलर) भारतीय इतिहास पर तहकीकात कर रहे थे तो उन्हे कश्मीर में संस्कृत में लिखी (पृथ्वीराज विजय) नामक पांडुलिपि मिली जिसे जयानक ने लिखी थी।

इस पुस्तक में अनेक घटनाएँ ऐसी थी जो रासो के विपरीत थी।

यही नही वे 12 वीं-13वीं सदी के लेखकों की बातों का समर्थन करती थीं। उदाहरण के लिए तत्कालीन लेखक (मिन्हाजुस सीराज) ने तबकाते नासिरी में पृथ्वीराज का 1192 के युद्ध मे मारा जाना लिखा था ।

तो पृथ्वीराज विजय में   पृथ्वीराज के अजमेर  में मारे जाने का उल्लेख था। उसी दौरान उत्खनन में पृथ्वीराज के शासन के अंतिम दिनों के ढलवाये सिक्के भी मिल गए, जिसके एक तरफ पृथ्वीराजदेव और दूसरी तरफ मोइजुद्दीन बिन साम" लिखा था।

मोइजुद्दीन शहाबुद्दीन गौरी  का ही शासकीय नाम था। इसके बाद के शोधों में ये निष्कर्ष निकला कि तराइन में हारकर भागते वक्त पृथ्वीराज सिरसा में पकड़ा गया और उसने गौरी की अधीनता स्वीकार कर ली।

फलस्वरूप उसे अजमेर में अधीनस्थ शासक बने रहने दिया गया। इसके बाद इतिहासकार लिखते है कि जल्द ही पृथ्वीराज ने विद्रोह की योजना बनाई, मगर भेद खुल गया और गौरी ने पृथ्वी की हत्या कर दी।

 इस सिद्धांत को महान इतिहासकार गौरीचन्द, हीराचन्द ओझा, गोपीनाथ शर्मा, एस पी त्रिपाठी, पणिक्कर,  अली सईद रिज़वी आदि मान्यता देते हैं।

 सतीश चन्द्र, इरफान हबीब, आदि तो वामपंथी हैं इसलिए उनका नाम लेना ही नही है।  इतिहासकार दशरथ शर्मा जैसे कुछ लोग अपवाद स्वरूप इससे सहमत नही हैं।

 निरन्तर शोधों के बाद रासो को इतिहास के बजाए चारण कथा माना जाने लगा। 

सबसे पहले इसे कथा बताने वाले हिंदी साहित्य के पितामह और भाषाविद आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं कि रासो के छंद दोहे  अलग अलग काल के हैं।

जबकि ये पुस्तक यदि 12वीं सदी की होती तो उसकी भाषा उसी काल की होती।

अनेक विद्वानों का कहना है  कि इसमें तैमूर का भी प्रसंग है। भला कोई लेखक कवि अपनी मौत के 150 साल बाद की घटना कैसे लिख सकता है ?

 श्री शुक्ल ने रासो को 16 वीं सदी में लिखे जाने की आशंका बताते हुए लिखा है कि पृथ्वीराज की मौत उनके वंशजों के राजपूताना चले जाने का ज़िक्र है।

संभव है कि उज़के किसी वंशज ने किसी भाट चारण से ये लिखवाया हो।

श्रीशुक्ल ने लिखा है कि रासो में पृथ्वीराज की माता का नाम कमलादेवी लिखा है, जबकि पृथ्वीराज ने हांसी के अपने शिलालेख में अपनी मॉ का नाम कर्पूर देवी अंकित कराया है। इसके अलावा घटनाओं में 90 साल का अंतर लिखाहै। जैसे रासो में तराइन युद्ध का समय संवत 1115 यानी ज़ह 1080 लिखा है, जबकि शिलालेखों और फारसी इतिहासकारों के अनुसार तराइन का पहला युध्द सन 11 91 में हुआ था। 

रासो को सत्य बताने वाले मुख्य रूप  से केवल एक साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी मिलते है।उन्होंने रासो को इतिहास तो माना लेकिन कोई ठोस तर्क नहीं दे पाये, लेकिन उन्हीं के शिष्य और भाषा विज्ञानी विश्वनाथ त्रिपाठी अपने ही गुरु की बातों  का  खंडन करते हुए लिखते हैं कि कविता की भाषा और तथ्यों में भयानक गलतियां इसके कपोल कल्पित होने का प्रमाण हैं। 

इसमें तैमूर, मंगोल, का ज़िक्र तो इसकी कलई उतार देता है।


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