मंगलवार, 1 अक्टूबर 2019

यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में आत्मा शब्द अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान है।

यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत:
जर्मनिक भाषाओं में आत्मा शब्द अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान है।

👇 जैसे -
1-पुरानी अंगेजी में--Aedm

2-डच( Dutch) भाषा में Adem रूप

3-प्राचीन उच्च जर्मन में Atum = breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस--

4-डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप (Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना परन्तु Auto शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है ।
जो की Hotos रूप में था ; जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है ।

श्री मद् भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को👇
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न च एनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।।

कृष्ण का यह विचार ड्रयूड Druids अथवा द्रविड दर्शन से प्रेरित है ।

आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है;  आत्मा में मूलत: अनन्त ज्ञान अनन्त शक्ति अौर यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है।
क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है ।
ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है । __________________________________________

ज्ञा धातु जन् धातु का ही विपर्यय अथवा सम्प्रसारण रूप है ।
संस्कृत भाषा में "गा" धातु भी जनन अर्थ को प्रकट करती है ।

देखें लट्लकार में रूप
एकवचनम्  द्विवचनम् बहुवचनम्

प्रथमपुरुषः  जिगाति जिगीतः जिगति

मध्यमपुरुषः जिगासि जिगीथः जिगीथ

उत्तमपुरुषः जिगामि जिगाव  जिगाम

तथा जनँ धातु का लट्लकार में रूप भी देखें 🌷

एकवचनम्  द्विवचनम् बहुवचनम्

प्रथमपुरुषः जजन्ति जजातः जज्ञति

मध्यमपुरुषः जजंसि  जजाथः  जजाथ

उत्तमपुरुषः जजन्मि जजन्वः जजन्मः

यूरोपीय भाषाओं में जन क्रिया अनेक रूपान्तरणों मे है
देखें---

*genə-, also *gen-, Proto-Indo-European root meaning "give birth, beget,"

with derivatives referring to procreation and familial and tribal groups.

It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by:

1-Sanskrit janati  "begets, bears," janah "offspring, child, person," janman- "birth, origin," jatah "born;"

2-Avestan zizanenti "they bear;"

3- Greek gignesthai "to become, happen," genos "race, kind," gonos "birth, offspring, stock;"

4- latin gignere "to beget," gnasci "to be born," genus  (genitive generis) "
race, stock, kind; family, birth, descent, origin," genius "procreative divinity, inborn tutelary spirit, innate quality,"

ingenium "inborn character," possibly germen "shoot, bud, embryo, germ;"

5-Lithuanian gentis "kinsmen;"

6-Gothic kuni  "race;"

7-Old English cennan "beget,  create," gecynd "kind, nature, race;"

8-Old High German kind "child;"

9- Old Irish ro-genar "I was born;"

10-Welsh geni "to be born;"

11-Armenian cnanim "I bear, I am born."

Gen , यह क्रिया भी प्रोटो-इंडो-यूरोपियन भाषा में है जिसकी मूल अर्थ "जन्म देते हैं,"

जन्म सम्बन्ध पारिवारिक और जनजातीय समूहों के संदर्भ में जेन शब्द प्रयुक्त है।

यह इसके अस्तित्व के लिए / सबूत का अवधारणा मूलक स्रोत है:

संस्कृत भाषा  जजन्ति जन्म देता है,"
जना "संतान, बच्चा, व्यक्ति," जाति (ज्ञाति) मूल, "जन्म;"

Avestan zizanenti जिजान्ति" वे जन्म देते हैं;"

ग्रीक भाषा में गिन्नेस्थाई ( gignesthai)"बनने, होने," जीनोस "जाति ," गोनोस "जन्म, संतान,

लैटिन गिगनेयर " gignere " को जन्म देने के लिए," गैनसी "को जन्म देने के लिए," जीनस (जीनियस ,जेनिस) "जाति ,परिवार, जन्म, वंश, उत्पत्ति," जीनियस "उपादेय देवता, जन्मजात टूटी-फूटी आत्मा, जन्मजात गुणवत्ता," इंगेनियम "

जन्मजात चरित्र, "संभवतः जर्मेन"  कली, भ्रूण, रोगाणु; "

लिथुआनियाई जेंटिस gentis "किंसमेन;" जाति

गॉथिक कुनी जाति (ज्ञाति)

पुरानी अंग्रेजी सेनन cennan "जन्म-देना, बनाएँ," gecynd "प्रकार, प्रकृति, नस्ल;"

पुरानी उच्च जर्मन तरह का "बच्चा;"

पुराने आयरिश रो-जीनर (ro-gena) "मैं पैदा हुआ था?"

वेल्श जीन (geni)"पैदा होने के लिए;"

अर्मेनियाई cyanim " मैं जन्म-देना हूँ, मैं पैदा हुआ हूं।"

वस्तुत जान ही ज्ञान है ।
क्योंकि लोक जीवन ज्ञान से ही व्यक्ति की शक्ति का मापन होता है ।

सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं।

जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं मकरन्द (पुष्प -रस )है ;

आत्मा सत्य है ।

क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है ।

एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ; ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं ।

परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म लीला रत है ;यह संसार लीला है ।

और अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है ।
अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ;

उसका स्वभाव है यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है।

क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है।

अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं यही द्वन्द्व सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है।

स्त्री स्वभाव से ही वस्तुत: कहना चाहिए प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ;

और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है।

इसके परोक्ष में सृष्टा सृष्टा का एक सिद्धान्त निहित है ।
वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है । अन्यथा नहीं ,

वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है।

..और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है ।

---आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है।

जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है ।

ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों भी प्रकट हो जा है ।

परन्तु इन सब के मूल में आवेश

अथवा इच्छा ही होती है ।
और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है ! जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है ।
कपरन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञाति नहीं :-
*******************************************

ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न ! 

      श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न ।

पर खोज अभी तक जारी है ।

अपने स्वरूप से मिलने की ।
    हम सबकी अपनी तैयारी है ।

आशा के पढ़ाबों से दूर निकर
संसार में किसी पर मोह न कर

ये हार का हार स्वीकार न कर
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है ।

शोक मोह में तू क्यों खिन्न है ।
कुछ पल के रिश्ते सब भिन्न है ।
'रोहि' मतलब की दुनियाँ सारी है ।

****************************************** शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है ।

जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है ।
परन्तु परछाँईयों में ,परन्तु सबकी समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा साक्षात्कार ही है ।

और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है ।
और एक संकीर्ण वृत्त (दायरा)भी ।

यह एक बिन्दुत्व का भाव ( बूँद होने का भाव )है । जबकि स्व: मे अात्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है ; यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है ।

व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है ।

परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है। इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है । _________________________________________ अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर , इनकी कार्य शैली में यही बड़ा अन्तर है।

संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द के अनेक प्रासंगिक अर्थ भी हैं जैसे :---- १--वायु २--अग्नि ३---सूर्य ४--- व्यक्ति --स्त्री पुरुष दौनो का सम्यक् (पूर्ण) रूप ५---ब्रह्म जो कि द्वन्द्व से सर्वथा परे है।

मिश्र की प्राचीन संस्कृति में आत्मा एटुम (Atum )के रूप में सृष्टि का सृजन करने वाले प्रथम देवता के रूप में मान्य है ।

कालान्तरण में मिश्र की संस्कृति में यह रूप "Aten" या "Aton"के रूप में सूर्य देव को दे दिया गया , प्राचीन मिश्र के लोग भारतीयों के समान सूर्य को विश्व की आत्मा मानते थे ।

मिश्र की संस्कृति में अातुम Atum का स्वरूप स्त्री और पुरुष दौनो के समान रूप में था । 👇

और यही (एतुम )वास्तव में सुमेर और बैबीलॉन की संस्कृतियों में आदम के रूप उदित हुआ , जो स्त्री और पुरुष दौनो का वाचक है- और यही से आदम शब्द हिब्रू परम्पराओं में उदय हुआ जिसका समायोजन कुछ अल्पान्तरण के साथ यहूदी.ईसाई तथा इस्लामी शरीयत ने किया है ।

मिश्र वालों की अवधारणा थी; की आतुम( Atum) पूर्ण तथा अनादि देव है ।
जिसने समग्र सृष्टि का सृजन कर दिया है ।

इसी सन्दर्भ में भारतीय उपनिषदों ने कहा है आत्मा के विषय में जो ब्रह्म के अर्थ में है-- _______________________________________________
पूर्णम् अदः पूर्णम् इदम् पूर्णात् पूर्णम् उद्च्यते । .

पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् इव अवशिष्यते .।। ________________________________________

..ईशावास्योपनिषदअर्थात् यह आत्मा पूर्ण है और इस पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही अवशेष बचता है । ..इधर श्रीमद भगवद् गीता उद्घोष करती है..

🌷🌷🌷 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः | नैनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुतः || ..

भारतीयों की धारणा के समान जर्मन देव संस्कृतियों के अनुयायीयों  की अवधारणा भी यही थी।

..जर्मन वर्ग की प्राचीन भाषाओं में आज भी आत्मा को एटुम (Atum) कहते हैं ।

पुरानी उच्च जर्मन O.H.G. भाषा में (Atum) शब्द प्रेत एवम् प्राण का वाचक है ।

अर्थात् (Breath & Ghost )यही आत्मा शब्द मध्य उच्च जर्मन M.H.G. भाषा में "Atem" शब्द के रूप में हुआ । जर्मन आर्यों की सांस्कृतिक भाषा डच में यह शब्द (Adem )के रूप में प्रतिष्ठित है ।

और पुरानी अंग्रेजी (ऐंग्लो-सेक्शन)में यह शब्द ईड्म (Aedm) कहीं कहीं यही आत्मा शब्द आल्मा "Alma" के रूप में भी परवर्तित हुआ है ।

"Atum" (संस्कृत आत्मा शब्द से साम्य परिलक्षित है) प्राचीन मिश्र में आत्मा की अवधारणा एक देवता के रूप में की गयी ---जो स्त्री और पुरुष दौनों रूपों में था ।

परम (संस्कृत आत्मा शब्द से साम्य परिलक्षित है) अतूम (जिसे टेम या तेमू के नाम से भी जाना जाता है) पहली और सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन मिस्र के देवता, जिनकी उपासना आयनू (हेलिपोलिस, लोअर मिस्र) में हुई थी, हालांकि बाद के दिनों में रा शहर में महत्व बढ़ गया और उसे कुछ हद तक ग्रहण किया।

वह पूर्वी डेल्टा में पिथॉम में प्रति-मंदिर ("अतत का घर") का मुख्य देवता था।

हालांकि वह लोअर मिस्र के पुराने राज्य में अपने सबसे लोकप्रिय में था, लेकिन वह अक्सर मिस्र में फिरौन के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है।

नई साम्राज्य के दौरान, अट्टम और थबर्न देव मोंटू (मोंटजू) को राजा के साथ कर्नाक में अमीन के मंदिर में दर्शाया गया है।

स्वर्गीय काल में, भगवान के चिन्ह के रूप में छिपकलियों के ताबीज पहनाए जाते थे।

द्वित्तीय-चरण की प्रस्तुति ...

यादव योगेश कुमार रोहि - 8077160219

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