पश्तून, पख़्तून (पश्तो: پښتانه, पश्ताना) या पठान (उर्दू:پٹھان) दक्षिण एशिया में बसने वाली एक लोक-जाति है।
वे मुख्य रूप में अफ़्ग़ानिस्तान में हिन्दु कुश पर्वतों और पाकिस्तान में सिन्धु नदी के दरमियानी क्षेत्र में रहते हैं।
स्कन्द से मुकाबला करने वाले ये प्रस्थ / प्रस्थान नाम से सिन्धु नदी पर ब्राह्मण जाति के रक्षक बन गये थे ।
यह घटनाऐं ई०पू० ३२२ के समकक्ष है ।
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प्रारम्भिक रूप में यहूदीयों के मूल श्रोत से प्रादुर्भूत।
पठान ईरानी आर्यों के सानिध्य में रहते थे ।
पश्तो भाषा स्वयं ईरानी भाषा की पुत्र है ।
यद्यपि वेदों में पृक्त शब्द यौद्धा जाति के रूप में आया है ।
जो फ़ारसी में पुख़्ता अथवा पख़्तून बन गया । पश्तून समुदाय अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के अन्य क्षेत्रों में भी रहते हैं।
इन्हीं से
भारत में जादौन राजपूत छठी सदी में बन गये ।
ब्राह्मणों द्वारा राजपूत के रूप में इन जादौन पठान जाति का क्षत्रिय करण था ।
और ये बाद में ठाकुर उपाधि धारण करने लगे .. जो पहले गुजरात, बँगाल आदि में ब्राह्मण समुदाय की उपाधि थी ।
गुजरात में ब्राह्मण समुदाय आज भी स्वयं को ठाकुर ही लिखते हैं । ....
अफगानिस्तान में जादौन / गादौन यहूदीयों के वंशज पठानों की जातिगत उपाधि है ।
भारत में यहूदीयों का असली कब़ीला अबीर (Abeer)...अहीर अथवा संस्कृत साहित्य में अभीर अथवा आभीर कहलाए ...यहूदीयों का यह वर्ग--- अपनी वीरता और निर्भीकता के लिए इज़राएल और भारतीय धरा पर आज भी प्रसिद्ध है ।
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अहीर पुर्तगाल तथा स्पेन के मध्यवर्ती जॉर्जिया( गुर्जिस्तान ) में जिसे आयबेरिया भी कहते हैं ।अावासित थे ।
इतिहास - कार गुर्जर जन-जाति को काकेसस कबींले से सम्बन्ध मानते हैं ।
वहाँ से ये लोग गुर्जर अथवा अहीरों के रूप में भारत में बहुतायत पहले आगये थे । जो गायों के कुशल चरावाहे थे ।गौश्चर: शब्द ही गुर्जर हो गया ...
जादौन जो भारत में स्वयं को ठाकुर उपाधि से सम्बोधित करते हैं ।
वस्तुत: वे जादौन पठान ही हैं ।
मुसलमान तो ये सातवीं सदी के आसपास बनें
इन्हीं का एक रैेला उत्तरीय भारत में ठाकुर अथवा राजपूत कहलाने लगा ...
पश्तूनों की पहचान में पश्तो भाषा, पश्तूनवाली मर्यादा का पालन और किसी ज्ञात पश्तून क़बीले की सदस्यता शामिल हैं।
पठान जाति की जड़े कहाँ थी इस बात का इतिहासकारों को ज्ञान नहीं लेकिन संस्कृत और यूनानी स्रोतों के अनुसार उनके वर्तमान इलाक़ों में कभी पृक्ता नामक जाति रहा करती थी जो संभवतः पठानों के पूर्वज रहें हों।
सन् १९७९ के बाद अफ़्ग़ानिस्तान में असुरक्षा के कारण जनगणना नहीं हो पाई है लेकिन ऍथनोलॉग के अनुसार पश्तून की जनसँख्या ५ करोड़ के आसपास अनुमानित की गई है।
पश्तून क़बीलों और ख़ानदानों का भी शुमार करने की कोशिश की गई है और अनुमान लगाया जाता है कि विश्व में लगभग ३५० से ४०० पठान क़बीले और उपक़बीले हैं।
पश्तून जाति अफ़्ग़ानिस्तान का सबसे बड़ा समुदाय है। पश्तून इतिहास ५ हज़ार साल से भी पुराना है ।
और यह अलिखित तरिके से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है।
पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यह जाति 'बनी इस्राएल' यानी यहूदी वंश की है।
इस कथा के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग २,८०० साल पहले बनी इस्राएल के दस कबीलों को देश निकाला दे दिया गया था ।
इस सन्दर्भ में यह भी विवेचनीय है कि पुराणों में वर्णित असुर यहूदीयों के सहवर्ती असीरी ही थे ही थे।
अत: पुराणों में यादवों को मधु नामक असुर से भी सम्बन्ध किया गया इसलिए यादव और माधव पर्याय हैं।
ये लोग पुख़्ता तो थे ही
और यही कबीले पख़्तून कहलाए ।
ॠग्वेद के चौथे खंड के ४४वे श्लोक में भी पख़्तूनों का वर्णन 'पृक्त्याकय' / पृक्तकाय नाम से मिलता है।
इसी तरह तीसरे खंड का ९१वाँ श्लोक आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र 'आपर्यतय' के नाम से करता है।
आभीर रूप से यही शब्द बाद में अबीर अथवा अहीर होगया ...
पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा पख़्तूनों के बनी इस्राएल (अर्थ - इस्रायल की संतान) होने की बात सत्रहवीं सदी ईसवी में जहांगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है।
अंग्रेज़ लेखक और यात्री अलेक्ज़ेंडर बर्न्स ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् १८३५ में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है।
हालांकि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं।
अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः १८३७ में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है इसमें संदेह नहीं लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करेंगे।
विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी १८१९ व १८२५ के बीच भारत, पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है।
जे बी फ्रेज़र ने अपनी १८३४ की 'फ़ारस और अफ़्ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त' नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था
जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने १८५८ में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बेनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया जब उसे यह जानकारी मिली कि नादिरशाह भारत-विजय से पहले जब पेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा (हिब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये।
इन्हें उसके ख़ेमे मे मौजूद यहूदियों ने तुरंत पहचान लिया।
यहूदीयों को वेदों में वर्णित यदु कबींले से तादात्म्य स्थापित हो गया है ।
यदु और तुर्वसु को हिब्रू बाइबिल में यहुदह् और तुरबजु के रूप में बाइबिल के सृष्टि-खण्ड ( Genesis ) में आँशिक रूप से वर्णित किया गया है ।
भारत में पुराणों का लेखन बौद्ध काल के बाद में हुआ ।
महाभारत और वाल्मीकि रामायण भी इसी काल की रचनाऐं हैं ।
इनका लेखन की कथा- वस्तु तो परम्परागत जन- श्रुतियों पर आधारित थी ।
परन्तु द्वेष और पूर्व- दुराग्रह से ग्रसित होकर अनेक परस्पर विरोधी कथाओं का वर्णन कर दिया गया । पुराणों के नाम पर ..
एक उदहारण वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक प्रमाण के रूप में--
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यथा हि चौर स: तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि ।।
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विचारणीय तथ्य है कि राम के समय महात्मा बुद्ध कहाँ से आ टपके बुद्ध का समय ई०पू० ५६३ वर्ष है ।
और राम का सात हजार वर्ष ...
फिर यह असमानता क्यों ...
आभीर जन-जाति का सबसे बडा़ विरोधाभासी रूप महाभारत के मूसल पर्व में है ।
जहाँ रामायण के शम्बूक वध की काल्पनिक कथा की तरह ... अहीर और अर्जुन के विषय में लिखा की.. कृष्ण के शरीरान्त पश्चात प्रभास - क्षेत्र में गोपियों सहित अर्जुन को भील अथवा आभीरों ने लूट लिया ...
वस्तुत: यह महाभारत का प्रक्षिप्त अंश है ।...
क्योंकि अहीरों को .....शक्ति-सामन्त तन्त्र में आहुक नामक यादव के वंशज बता।
अमर कोश में गोप ही आभीर कहलाए ..
इस सन्दर्भ में नन्द और वसुदेव भी गोप ही थे ..
हरिवंश पुराण में देखें
वसुदेव और नन्द दौनों ही देवमीढ़ के पौत्र तथा
क्रमश पर्जन्य और शूरसेन के पुत्र थे...
यादव जाति के विषय में सबसे प्रमाण
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२ सूक्त वें श्लोकाँश में है।
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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----
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अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दास गायों से घिरे हुए हैं ।
जिनकी हम प्रशंसनीय करते हैं ।
विदित हो कि दास शब्द ईरानी आर्यों की भाषा में दाहे के रूप में श्रेष्ठ और उच्च अर्थों को ध्वनित करता है ! सम्भवत दास शब्द का मूल रूप दक्ष था ।
जिससे दान का भाव है ...दास से ही बहुवचन रूप में दस्यु: शब्द विकसित हुआ ।
परन्तु यादवों ने दासता स्वीकार नहीं की अपितु
आततायी समाज के प्रति विद्रोही अथवा दस्यु बन गये
भारत देश में इन्हें इसी रूप में जाना गया ...
प्राचीन काल में फॉनिशीयों के समानान्तर
यहूदी लोग जौहरी का काम भी करते थे ।
मिश्र में ये आज भी गुप्त अथवा कॉप्ट Copt कहलाते हैं
इनको विषय में कहा जाता है कि ये प्राचीन काल में फॉनिशीयों के समानान्तर इज़राएल से आये हुए थे ।
वर्तमान में ये ईसाई धर्म के अनुयायी है
भारत में भी गुप्ता -- वार्ष्णेय वृष्णि नामक यादव के के वंशज हैं ...
गुप्ता काल में कृष्ण मन्दिरों का बहुतायत से निर्माण हुआ गुप्ता सम्राटों के द्वारा...
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पठानो क़ी एक़ नस्ल मनिहार क़े नाम से जानी जाती है जो चूड़ियॉ व बिसातख़ाने क़ा सामान बेचने अफग़ानिस्तान से भारत जाया क़रते थे।
धीरे-धीरे ये वही बस ग़ये मुग़ल क़ाल मे ये तोपख़ाने मे भर्ती क़िये ग़ये इनक़ी वीरता से ख़ुश होक़र बादशाहो ने इन्हे जमीदार तालुक़ेदार बनाया ये अपने नाम क़े आग़े मिर्जा बेग़ सिद्दीकी आदि लग़ाते है।
पश्तून लोक-मान्यताओं के अनुसार सारे पश्तून चार गुटों में विभाजित हैं: सरबानी (سربانی, Sarbani), बैतानी (بتانی, Baitani), ग़रग़श्ती (غرغوشتی, Gharghashti) और करलानी (کرلانی, Karlani)। मौखिक परंपरा के अनुसार यह क़ैस अब्दुल रशीद जो समस्त पख्तूनो के मूल पिता माने जाते हैं उनके चार बेटों के नाम से यह चार क़बीले बने थे। इन गुटों में बहुत से क़बीले और उपक़बीले आते हैं और माना जाता है कि कुल मिलाकर पश्तूनों के ३५० से ४०० क़बीले हैं।
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योगेश कुमार रोहि ग्राम आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---के सौजन्य से....
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