रविवार, 11 मई 2025

वैष्णव वर्ण -

वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति। ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति।
तथा पञ्चमः वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा  भवन्ति।

अनुवाद:-वेदों में लिखित पञ्चजन पाँच वर्णों के प्रतिनिधि पाँच -वर्ण ही हैं। चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं। और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों की वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित है

जिसकी पुष्टि-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।

"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। 
जो स्वराट विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

जो  सभी वर्णों में श्रेष्ठ भी है इस बात की पुष्टि - पद्म पुराण के उत्तराखण्ड के अध्याय (६८) श्लोक संख्या १-२-३ से भी होती है जिसमें भगवान शिव नारद से कहते हैं।

                    "महेश्वर उवाच-
शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।             
तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२।                                                   
विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते ।३।   
अनुवाद:-
१-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं।१।
                    
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।     
                            
३-चूँकि वह स्वराट विष्णु (श्रीकृष्ण) से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाते है; और सभी वर्णों मे वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता हैं।३।        

यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में विष्णु से ही वैष्णव शब्द की  व्यत्पत्ति बताई गई है-

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

अर्थात् विष्णु  से सम्बन्धित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द बना है जो- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- विष्णु से वैष्णव पद ( विभक्ति युक्त शब्द ) और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है, जिसे पञ्चमवर्ण के नाम से भी जाना जाता है। 

जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं।

अब हमलोग इसी क्रम में जानेंगे कि ब्रह्माजी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई ?

वैष्णव शब्द में "अण्" प्रत्यय जोड़ा जाता है, जो संबद्धता, उत्पत्ति, या गुण को दर्शाता है। इस प्रकार, विष्णु + अण् = वैष्णव का अर्थ है "विष्णु से संबंधित", "विष्णु का अनुयायी", या "विष्णु से उत्पन्न"। यह व्युत्पत्ति वैष्णव की आध्यात्मिक स्थिति को भी रेखांकित करती है, जो विष्णु भक्ति में निहित है।

आध्यात्मिक अर्थ- वैष्णव वह है जो विष्णु के गुणों—करुणा, रक्षा, और भक्ति—को धारण करता है। यह अर्थ नारायणीय उपनिषद् के मंत्र में भी परिलक्षित होता है।
"नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।"
(अनुवाद- हम नारायण को जानें, वासुदेव का ध्यान करें, और विष्णु हमें प्रेरित करें।)
इस प्रकार, वैष्णव शब्द न केवल एक शब्द है, बल्कि विष्णु के प्रति समर्पण और भक्ति का प्रतीक है।
2. शास्त्रीय संदर्भ और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति-
वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति और श्रेष्ठता को शास्त्रों में स्पष्ट रूप से वर्णित किया गया है। निम्नलिखित श्लोक इसकी महत्ता को दर्शाते हैं:
(i) ब्रह्मवैवर्त पुराण (ब्रह्मखण्ड, अध्याय 11, श्लोक 43)
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।"
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र—ये चार जातियाँ हैं। इनके अतिरिक्त इस विश्व में एक स्वतंत्र जाति( वर्ण) है, जिसे वैष्णव कहा जाता है।
व्याख्या- यह श्लोक वैष्णव वर्ण को चार पारंपरिक वर्णों से अलग और स्वतंत्र बताता है। वैष्णव वर्ण का आधार सामाजिक व्यवस्था नहीं, बल्कि भगवान विष्णु (या श्रीकृष्ण) से सीधा सम्बन्ध है। शास्त्रों में इसे विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न गोप-जाति के रूप में वर्णित किया गया है,

 जो भक्ति और प्रेम का प्रतीक है। यह स्वतंत्रता वैष्णव की आध्यात्मिक स्थिति को दर्शाती है, जो सामाजिक सीमाओं से सर्वथा परे है।

इस संदर्भ में, विष्णु सहस्रनाम का मंत्र उपयुक्त है:
"वासुदेवः सर्वं विश्वं विश्वाधारो विश्वभुक्।"
(अनुवाद- वासुदेव ही सब कुछ हैं, विश्व के आधार और भोक्ता हैं।)
वैष्णव वर्ण वासुदेव के प्रति समर्पण का प्रतीक है, जो विश्व के आधार हैं।

(ii) पद्म पुराण (उत्तरखण्ड, अध्याय 68, श्लोक 1-3)
"महेश्वर उवाच-
शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात्।।१।

तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत्। तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि साम्प्रतम्।।२।

विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते।।३।

अनुवाद- भगवान शिव कहते हैं:  
हे नारद, सुनो, मैं वैष्णवों के लक्षण बताता हूँ, जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्महत्या जैसे पापों से मुक्त हो जाते हैं।  
वैष्णवों के लक्षण और स्वरूप जैसे हैं, उन्हें मैं बताता हूँ, हे मुनिश्रेष्ठ, ध्यान से सुनो।  
चूँकि वे विष्णु से उत्पन्न हैं, इसलिए वैष्णव कहलाते हैं, और सभी वर्णों में वैष्णव को श्रेष्ठ कहा जाता है।
व्याख्या- यहाँ भगवान शिव स्वयं वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता की पुष्टि करते हैं। वैष्णव की उत्पत्ति विष्णु से होने के कारण उनकी आध्यात्मिक स्थिति सर्वोच्च है। यह श्लोक वैष्णव को केवल एक वर्ण या जाति के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसी आध्यात्मिक अवस्था के रूप में प्रस्तुत करता है, जो भक्ति और समर्पण पर आधारित है।
इस संदर्भ में, श्रीमद्भगवद्गीता (18.66) का मंत्र उपयुक्त है।
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।"
(अनुवाद- सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर।)
यह मंत्र वैष्णव की उस भक्ति को दर्शाता है, जो विष्णु (श्रीकृष्ण) की शरण में पूर्ण समर्पण है।

3. वैष्णव वर्ण की विशेषताएँ और आध्यात्मिक श्रेष्ठता
वैष्णव वर्ण की विशेषताएँ और इसकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता को निम्नलिखित बिंदुओं और शास्त्रीय संदर्भों से समझा जा सकता है।
विष्णु से उत्पत्ति और भक्ति का प्रतीक-
वैष्णव वर्ण को स्वराट - विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न बताया गया है, जो उनकी दिव्यता और निकटता को दर्शाता है। यह रूपक भक्ति और प्रेम का प्रतीक है, जैसा कि श्रीमद्भागवत पुराण (10.14.8) में श्रीकृष्ण के प्रति गोप-गोपियों की भक्ति में देखा जाता है।
"तत् ते अनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम्।"
(अनुवाद: मैं तेरी कृपा का स्मरण करता हूँ, जो मेरे कर्मों के फल को भोगते हुए भी मुझे मुक्ति देती है।)
गोप-जाति, जो वैष्णव वर्ण का प्रतीक है, श्रीकृष्ण के प्रति निश्छल प्रेम और भक्ति का उदाहरण है।
स्वतंत्रता और सामाजिक सीमाओं से परे होते हुए भी सभी ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के गुण कर्मों से समन्वित वैष्णव सबसे श्रेष्ठ वर्ण है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में वैष्णव को चार वर्णों से अलग एक स्वतंत्र जाति या वर्ण कहा गया है। यह स्वतंत्रता उनकी आध्यात्मिक और भौतिक स्थिति को भी दर्शाती है।

 
पद्म पुराण में वैष्णव को सभी वर्णों में श्रेष्ठ कहा गया है, और उनके लक्षण सुनने से ब्रह्महत्या जैसे पापों से मुक्ति मिलती है।

 
गोप-जाति वैष्णव वर्ण का प्रतीक है, जो भक्ति मार्ग की सर्वोच्चता को दर्शाता है।
4. वैष्णव वर्ण का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व व सार्वभौमिकता- वैष्णव वर्ण की अवधारणा सभी वर्णों और जातियों को समाहित करती है। श्रीमद्भगवद्गीता (9.32) में श्रीकृष्ण कहते हैं:
"मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।"
(अनुवाद- हे पार्थ, जो मेरी शरण में आते हैं, चाहे वे पापयोनि, स्त्री, वैश्य, या शूद्र हों, वे भी परम गति प्राप्त करते हैं।)

आध्यात्मिक मुक्ति: वैष्णव की भक्ति उन्हें सभी पापों से मुक्त करती है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है। विष्णु सहस्रनाम का मंत्र इस भाव को व्यक्त करता है:
"नमो नमस्ते अखिलकारणाय नमो नमस्ते जगदेकनाथाय।"
(अनुवाद: सभी कारणों के कारण और विश्व के एकमात्र स्वामी को नमस्कार।)


निष्कर्ष-✓
वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति विष्णु से होती है, जो व्याकरणिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भक्ति और समर्पण का प्रतीक है। ब्रह्मवैवर्त पुराण और पद्म पुराण वैष्णव वर्ण को चार वर्णों से स्वतंत्र और सर्वश्रेष्ठ बताते हैं, क्योंकि यह विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न और भक्ति पर आधारित है। गोप-जाति के रूप में वैष्णव वर्ण श्रीकृष्ण के प्रति निश्छल प्रेम का प्रतीक है।



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