शंका समाधान
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योगेश रोहि ( वेदव्यास वर्तमान) सादर प्रणाम गुरुवर आपके असीम सहयोग से तमाम वेद, पुराण, उपनिषद, व अन्य शास्त्रों का रिसर्च करने के दौरान जो साक्ष्य सामने आया उससे गोप आभीर यादव" नामक पुस्तक की सृष्टि हुई आप का परिश्रम का प्रतिफल ही था। हम सफल हुए आपकी शंकाओं का समाधान विस्तृत पूर्वक।🙏
अहीर जाति का मूल वर्ण: वैष्णव और व्यावहारिक वर्ण: महाक्षत्रिय (वीर) -
मूल वर्ण से तात्पर्य अहीरों की मूल उत्पत्ति से है ।
ये स्वयं स्वराट् विष्णु के रोमकूपों- शरीर कोशिकाओं से उत्पन्न हुए हैं। अत: ये वैष्णव हैं
विष्णु की तीन आनुपातिक ऊर्जान्वित श्रेणियाँ हैं।
स्वराट् विष्णु अनन्त ब्रह्माण्डों की सर्वोच्च सत्ता का नाम गोलोक में स्वयं श्रीकृष्ण ही जिसका रूपान्तरण हैं।
द्वितीय श्रेणी के विराट विष्णु जिनके अनन्त रोमकूपों में अनन्त ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं।
तृतीय श्रेणी के क्षुद्र विराट विष्णु जो जिनकी नाभि कमल से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा का जन्म होता है।
गोपों की उत्पत्ति स्वराट् विष्णु ( श्रीकृष्ण) से गोलोक में होती है और -ब्रह्मा की उत्पत्ति क्षुद्र विराट विष्णु से होती है।
भारतीय समाज में प्राचीन काल में पाँच वर्णों का अस्तित्व था। एक स्वयं विष्णु से उत्पन्न वैष्णव वर्ण जो सर्वोच्चतम था। और बाकी चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न ब्राह्मण- क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र नाम से प्रसिद्ध थे।
भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही पञ्चायत और पञ्च प्रथा का अस्तित्व है।
पञ्च प्रथा का अस्तित्व पाँच वर्णों के प्रतिनिधित्व करने वाले पाँच व्यक्तियों के समूह से है जो समाज की समस्याओं का सर्वसम्मति से निर्णय करते थे।
(भारतीय संस्कृति में वर्ण व्यवस्था जन्मगत व कर्मगत अवधारणा रही है, जो समय, क्षेत्र और सामाजिक सन्दर्भों के साथ परिवर्तित होती रही है।
अहीर जाति, जिसे गोप, आभीर या यादव के रूप में भी जाना जाता है। इस ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था से पूर्णत: पृथक है। क्योंकि अहीरों अथवा गोपों की उत्पत्ति ब्रह्मा से नहीं हुई है।
अहीरों ने ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के सभी कर्मो का सम्पादन किया है।
परन्तु ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्म का शास्त्रों में विधान पारित किया गया है।
किसी एक वर्ण का व्यक्ति किसी दूसरे वर्ण के व्यक्ति या कर्म ( व्यवसाय) नहीं कर सकता है।
सामाजिक स्तर पर वर्णव्यवस्था का आधार
1 कर्म और गुण की मौलिकता है।
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं:
चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
(भागवत गीता, 4/13)
अर्थात, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर किया गया है, न कि जन्म पर। वर्ण ही जब जाति गत हो गया तो वह अपने विकृति रूप को प्राप्त हुआ।
अहीर लोग ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बँधे हुए नहीं हैं। अहीरों को स्वय भगवान ने परम धर्मवेत्ता कहा है।
पद्मपुराणम्-(सृष्टिखण्डम्)अध्यायः(१७) में अहीरों को सुव्रतज्ञ और सबसे बड़ा धार्मिक सदाचारी और धर्म वत्सल भी कहा गया है।
ये उपर्युक्त सम्बोधन भी स्वयं महान प्रतिज्ञा करने वाले भीष्म के पुलस्त्य से गायत्री प्रसंग में तथा विष्णु के अहीरों को आ आश्वासन देने के प्रसंग में हैं।
निम्नलिखित रूप से हम मूल श्लोकों को अनुवाद सहित प्रस्तुत करते हैं।
भीष्म पुलस्त्य ऋषि से कहते हैं-
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
अनुवाद:-ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी द्वारा वहाँ क्या किया गया ? और सुवृत्तज्ञ अहीरों द्वारा जानकारी करके वहाँ क्या किया गया हे मुनि ! बताऐं।२।
इसी अध्याय में अन्यत्र विष्णु आभीर जनों ( अहीरों) को आश्वासन देते हुए उन्हें धर्मवन्त सदाचारी और धर्म वत्सल कहा है।
देखें निम्नलिखित श्लोकों में-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
अनुवाद:-(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
जो गोप गायों का पालन और कृषि कार्य करने से वैश्य होते हैं वही नारायणी सेना के महान यौद्धा होने से क्षत्रिय भी हैं।
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सेवा का और परोपकार का भाव होने से इन्हें शूद्र भी माना जा सकता है।
यह सिद्धान्त अहीर जाति के वर्ण को समझने के लिए आधार प्रदान करता है। कृष्ण स्वयं अपने जीवन में इस सिद्धान्त के जीवन्त उदाहरण रहे हैं। उन्होंने गोकुल में गाय चराकर वैश्य का कार्य, अर्जुन के सारथी बनकर शूद्र का कार्य, महाभारत युद्ध में भाग लेकर क्षत्रिय का कार्य, और गीता का उपदेश देकर ब्राह्मण का कार्य किया।
यह बहुआयामी कर्म उनके अनुयायी अहीरों की वर्ण स्थिति को समझने की कुञ्जी है।
2. अहीरों का मूल वर्ण: वैष्णव
अहीर जाति की आध्यात्मिक उत्पत्ति और भक्ति परंपरा उन्हें चार पारंपरिक वर्णों से अलग एक स्वतंत्र और श्रेष्ठ वर्ण—वैष्णव—में स्थापित करती है। इसकी पुष्टि निम्नलिखित पुराणों और ग्रंथों से होती है:
ब्रह्मवैवर्त पुराण:
ब्रह्म क्षत्रिय विट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतंत्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्मखंड, अध्याय-11, श्लोक 43)
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि चार वर्णों के साथ-साथ वैष्णव नामक एक स्वतंत्र जाति विश्व में अत्यंत ख्याति प्राप्त है। वैष्णव वह है जो भगवान विष्णु या कृष्ण का अनुयायी हो और अवतारवाद में विश्वास रखता हो। अहीर समुदाय इन दोनों विशेषताओं को पूर्ण करता है।
पद्म पुराण:
सर्वेषा चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते।
(पद्म पुराण, उत्तर खंड, अध्याय 68/3)
यहाँ वैष्णव वर्ण को सभी वर्णों में श्रेष्ठ बताया गया है, जो अहीरों की आध्यात्मिक पहचान को और मजबूत करता है।
अहीरों की उत्पत्ति:
पुराणों में अहीरों (या गोपों) की उत्पत्ति भगवान कृष्ण के रोमकूपों से बताई गई है:
ब्रह्मवैवर्त पुराण:
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणों मुने। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।
(ब्रह्मखण्ड, अध्याय-5, श्लोक 42-43)
अर्थात, कृष्ण के रोमकूपों से तीस करोड़ गोप प्रकट हुए, जो रूप और वेश में उनके समान थे।
गर्ग संहिता:
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोमसमुद्भवाः।
(विश्वजीत खण्ड, अध्याय-11)
यहाँ भी गोपों को गोलोकवासी और कृष्ण के रोम से उत्पन्न बताया गया है।
देवी भागवत पुराण:
अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने। भूताश्चाऽसंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः।
(9/2/7)
यह श्लोक भी अहीरों की उत्पत्ति को कृष्ण से जोड़ता है।
इन सन्दर्भों से स्पष्ट है कि अहीरों की उत्पत्ति और भक्ति परम्परा उन्हें वैष्णव वर्ण में स्थापित करती है। उनकी कृष्ण भक्ति और गोपालन की जीवनशैली इस आध्यात्मिक पहचान का आधार है।
3. अहीरों का व्यावहारिक वर्ण: क्षत्रिय
यद्यपि अहीरों का मूल वर्ण वैष्णव है, सामाजिक और ऐतिहासिक सन्दर्भों में उनकी भूमिका प्रायः क्षत्रिय वर्ण के साथ मेल खाती है। निम्नलिखित स्रोत इसकी पुष्टि करते हैं:
ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्य:
पृथ्वीराज रासो:
चंदबरदाई ने अपनी रचना में क्षत्रियों के (36) कुलों में अहीरों को शामिल किया है:
रवि ससि जादव वंश, ककुस्थ परमार सदावर। चाहुवान चालुकय, छंद सिलार आभीर।
यह उल्लेख अहीरों की क्षत्रिय पहचान को ऐतिहासिक रूप से स्थापित करता है।
द्वयाश्रय (कुमारपालचरित):
ग्यारहवीं शताब्दी के जैन विद्वान हेमचंद्र सुरि ने लिखा:
आभीरा आभारजातिक्षत्रिया ग्राहरिप्त्रादयस्तास्तैन लक्ष्यीकृत्य...
(सर्ग 2, श्लोक 32, पेज 207)
यहाँ अहीरों को स्पष्ट रूप से क्षत्रिय कहा गया है।
कर्नल टॉड और शिवप्रसाद शास्त्री:
राजस्थान का पुरातत्व एवं इतिहास (खंड-1, पेज 88) और शिवप्रसाद शास्त्री के संस्कृत हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश (खंड-1, पेज 103) में अहीरों को व्रात्य क्षत्रिय माना गया है। व्रात्य क्षत्रिय का अर्थ है कि वे मूल रूप से क्षत्रिय थे, लेकिन कुछ सामाजिक परिवर्तनों के कारण उनकी स्थिति में बदलाव आया।
सामाजिक भूमिका:
अहीर समुदाय ने विभिन्न क्षेत्रों में योद्धा, शासक और रक्षक के रूप में कार्य किया। राजस्थान, गुजरात और उत्तर भारत में उनकी सैन्य और प्रशासनिक भूमिकाएँ उनकी क्षत्रिय प्रकृति को दर्शाती हैं। कृष्ण स्वयं एक कुशल योद्धा और रणनीतिकार थे, जिन्होंने महाभारत में क्षत्रिय धर्म का पालन किया।Ked यह भी अहीरों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा।
4. अन्य वर्णों में अहीर:
हालांकि अहीरों का मूल वर्ण वैष्णव और व्यावहारिक वर्ण क्षत्रिय है, कुछ संदर्भों में उन्हें अन्य वर्णों के साथ भी जोड़ा गया है:
ब्राह्मण: ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड (पेज 7) में अहीर ब्राह्मण का उल्लेख है, जो कुछ क्षेत्रों में उनकी विद्वत्तापूर्ण भूमिका को दर्शाता है।
वैश्य: वराह पुराण (अध्याय 138) में अहीरों को वैश्य के रूप में वर्णित किया गया है, विशेष रूप से उनके गोपालन और आर्थिक गतिविधियों के कारण।
ततः स पद्मपत्राक्षः आभीराणां जनेश्वरः।
यहाँ आभीर को वैश्य और गोपालक के स्वामी के रूप में दर्शाया गया है।
शूद्र: ब्रह्मवैवर्त पुराण (ब्रह्मखंड, अध्याय-10) में गोपों को सत् शूद्र कहा गया है:
गोपनापितभिल्लाश्च तथा मोदककूबरौ... ये सत् शूद्र हैं।
यह संभवतः उनके सेवा और उत्पादन कार्यों (जैसे गोपालन) पर आधारित है।
यह विविधता भारतीय समाज की जटिल वर्ण व्यवस्था को दर्शाती है, जहाँ एक समुदाय की पहचान संदर्भ और क्षेत्र के आधार पर बदल सकती है।
5. कृष्ण और "ठाकुर" संबोधन:
कृष्ण को "ठाकुर" के रूप में भी संबोधित किया जाता है, विशेष रूप से भक्ति परंपराओं में। "ठाकुर" शब्द का अर्थ है स्वामी, प्रभु या राजा, जो उनकी क्षत्रिय और शासक भूमिका को दर्शाता है। अहीर समुदाय, जो कृष्ण के वंशज और अनुयायी माना जाता है, इस "ठाकुर" संबोधन से गहराई से जुड़ा है। यह संबोधन उनकी वैष्णव भक्ति (कृष्ण के प्रति समर्पण) और क्षत्रिय गुणों (नेतृत्व और पराक्रम) दोनों को प्रतिबिंबित करता है। उदाहरण के लिए, राजस्थान और उत्तर भारत में अहीरों के बीच "ठाकुर" उपाधि का प्रयोग सामान्य है, जो उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और योद्धा परंपरा को दर्शाता है।
6. गोप, आभीर, और यादव: एक साझा पहचान:
अहीर, गोप और यादव शब्द ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से परस्पर जुड़े हैं:
गोप: कृष्ण के साथी और पशुपालक, जिनकी उत्पत्ति पुराणों में कृष्ण के रोमकूपों से बताई गई है।
आभीर/अहीर: गोपों से विकसित एक व्यापक समुदाय, जो उत्तर भारत, राजस्थान, गुजरात और अन्य क्षेत्रों में फैला।
यादव: अहीरों का पर्यायवाची, जो यदुवंश (कृष्ण का वंश) से अपनी पहचान जोड़ता है।
यह साझा पहचान अहीरों की समृद्ध विरासत को दर्शाती है, जो आध्यात्मिक (वैष्णव) और सामाजिक (क्षत्रिय) दोनों स्तरों पर महत्वपूर्ण है।
निष्कर्ष:
अहीर जाति का मूल वर्ण वैष्णव है, जो उनकी आध्यात्मिक उत्पत्ति (कृष्ण के रोमकूपों से) और भक्ति परंपरा (वैष्णव मार्ग) पर आधारित है। यह वर्ण चार पारंपरिक वर्णों से अलग और श्रेष्ठ माना गया है। व्यावहारिक स्तर पर, अहीरों का वर्ण क्षत्रिय है, जैसा कि ऐतिहासिक ग्रंथों (पृथ्वीराज रासो, द्वयाश्रय), विद्वानों (कर्नल टॉड, शिवप्रसाद शास्त्री), और उनकी योद्धा-शासक भूमिका से प्रमाणित होता है। कृष्ण का जीवन, जिसमें उन्होंने सभी वर्णों के कर्म किए, और उनका "ठाकुर" संबोधन, अहीरों की इस द्वैत पहचान—वैष्णव और क्षत्रिय—को और मजबूत करता है।
अहीरों की यह बहुआयामी पहचान भारतीय वर्ण व्यवस्था की लचीलापन और कर्म-आधारित प्रकृति को दर्शाती है, जैसा कि गीता में कृष्ण ने स्वयं कहा। यह समुदाय न केवल अपनी आध्यात्मिक विरासत, बल्कि सामाजिक योगदान के लिए भी गौरव का प्रतीक है।
संदर्भ ग्रंथ:
ब्रह्मवैवर्त पुराण (ब्रह्मखंड, अध्याय 5, 10, 11)
पद्म पुराण (उत्तर खंड, अध्याय 68/3)
गर्ग संहिता (विश्वजीत खंड, अध्याय 11)
देवी भागवत पुराण (9/2/7)
वराह पुराण (अध्याय 138)
पृथ्वीराज रासो - चंदबरदाई
द्वयाश्रय (कुमारपालचरित) - हेमचंद्र सुरि (सर्ग 2, श्लोक 32)
राजस्थान का पुरातत्व एवं इतिहास - कर्नल टॉड (खंड-1, पेज 88)
संस्कृत हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश - शिवप्रसाद शास्त्री (खंड-1, पेज 103)
ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड (पेज 7)
भगवद्गीता (4/13)
यह लेख अहीर जाति के वर्ण को समझने के लिए एक प्रमाणिक और संपूर्ण दस्तावेज है, जो पुराणों, ऐतिहासिक ग्रंथों और भक्ति परंपराओं पर आधारित है।
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