★-"इतिहास के बिखरे हुए पन्ने"-★

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2023

कृष्ण का अस्तित्व भाग २-


सत्य तो यही है कि कृष्ण को ऋग्वेद
में अदेवी: कहा है जिसका अर्थ होता है "देवों की सत्ता और शक्ति को न स्वीकार करने वाला ।
--- कृष्ण जो यमुना की तलहटी में इन्द्र से युद्ध करते हैं। यद्यपि युद्ध में विजय तो कृष्ण को ही प्राप्त होती है । परन्तु इन्द्रोपासक यह स्वीकार नहीं करने वाले हैं इसलिए वेदों में इन्द्र की प्रशंसा में कोताही( कमी) न रह जाए इसलिए भी इन्द्र को विजेता के रूप में वर्णन किया जाता है। प्रशंसकों की यही नीति रीति और सदियों पुरानी है।

एक बार भगवान श्रीकृष्ण अपने सखाओं और गोप-ग्वालों के साथ गाय चराते हुए गोवर्धन पर्वत पर पहुँचे तो देखा कि वहाँ गोपियाँ छप्पन प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही हैं। श्रीकृष्ण के पूछने पर उन्होंने बताया कि आज के दिन वृत्रासुर को मारने वाले तथा मेघों व देवों के स्वामी इन्द्र का पूजन होता है। 

इसे 'इन्द्रोज यज्ञ' कहते हैं। इससे प्रसन्न होकर इन्द्र ब्रज में वर्षा करते हैं और जिससे प्रचुर अन्न पैदा होता है।

श्रीकृष्ण ने कहा कि इन्द्र में क्या शक्ति है ? उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसके कारण वर्षा होती है। अत: हमें इन्द्र से भी बलवान गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। बहुत विवाद के बाद श्रीकृष्ण की यह बात मानी गई तथा ब्रज में इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा की तैयारियाँ शुरू हो गईं। सभी अहीर लोग - अपने-अपने घरों से पकवान लाकर गोवर्धन की तराई में श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि से पूजन करने लगे। श्रीकृष्ण द्वारा सभी पकवान चखने पर ब्रजवासी खुद को धन्य समझने लगे। नारद मुनि भी यहाँ 'इन्द्रोज यज्ञ' देखने पहुँच गए थे। इन्द्रोज बंद करके बलवान गोवर्धन की पूजा ब्रजवासी कर रहे हैं, यह बात इन्द्र तक नारद मुनि द्वारा पहुँचा दी गई और इन्द्र को नारद मुनि ने यह कहकर और भी डरा दिया कि उनके राज्य पर आक्रमण करके इन्द्रासन पर भी अधिकार शायद श्रीकृष्ण कर लें।

इन्द्र गुस्से में लाल-पीले होने लगे। उन्होंने मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में जाकर प्रलय पैदा कर दें। ब्रजभूमि में मूसलाधार बरसात होने लगी। बाल-ग्वाल भयभीत हो उठे। श्रीकृष्ण की शरण में पहुँचते ही उन्होंने सभी को गोवर्धन पर्वत की शरण में चलने को कहा। वही सबकी रक्षा करेंगे। जब सब गोवर्धन पर्वत की तराई मे पहुँचे तो श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठाकर छाता-सा तान दिया और सभी को मूसलाधार हो रही वृष्टि से बचाया। सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर एक बूँद भी जल नहीं गिरा। यह चमत्कार देखकर इन्द्रदेव को अपनी की हुई गलती पर पश्चाताप हुआ और वे श्रीकृष्ण से क्षमा याचना करने लगे। सात दिन बाद श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत नीचे रखा और ब्रजवासियों को प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा और अन्नकूट का पर्व मनाने को कहा। तभी से यह पर्व के रूप में प्रचलित है।

श्रीमद्भागवतपुराण /स्कन्धः १०पूर्वाद्ध:/अध्यायः (२४)

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श्रीमद्भागवतपुराण /स्कन्धः १०/पूर्वार्द्ध/अध्यायः (२४) इन्द्रमखभङ्ग - श्रीशुक उवाच (अनुष्टुप्)

  1. "भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः। अपश्यत् निवसन् गोपान् इन्द्रयागकृतोद्यमान् ॥१॥
  2. तदभिज्ञोऽपि भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः। प्रश्रयावनतोऽपृच्छत् वृद्धान् नन्दपुरोगमान् ॥२॥
  3. कथ्यतां मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः। किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः ॥३॥
  4. एतद्‍ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः । न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ॥४॥
  5. अस्त्यस्व-परदृष्टीनां अमित्रोदास्तविद्विषाम् ।उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते ॥५॥
  6. ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति ।विदुषः कर्मसिद्धिःस्यात् तथा नाविदुषो भवेत्॥६॥
  7. तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारितः । अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम्॥७॥
  8. "श्रीनन्द उवाच -
    पर्जन्यो भगवान् इन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः ।तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः ॥८॥
  9. तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम् । द्रव्यैस्तद् रेतसा सिद्धैः यजन्ते क्रतुभिर्नराः॥९॥
  10. तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे । पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः ॥१०॥
  11. य एनं विसृजेत् धर्मं परम्पर्यागतं नरः।कामाल्लोभात् भयाद् द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम् ॥११॥
  12. "श्रीशुक उवाच" -
    वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम् ।इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशवः ॥१२॥

  13. "श्रीभगवानुवाच -
    कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते। सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥१३॥
  14. अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः॥१४॥
  15. किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम् ।अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम्॥१५॥
  16. स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते ।स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥१६॥
  17. देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत् सृजति कर्मणा।शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः ॥१७॥
  18. तस्मात् संपूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत् ।अञ्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम् ॥१८॥
  19. आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति। न तस्माद् विन्दते क्षेमं जारान्नार्यसती यथा ॥१९॥ (दशम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः(पूर्वार्द्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद-

श्री शुकदेव जी कहते हैं - हे परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँ के सब अहीर लोग इन्द्र-यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों से पूछा - ‘पिताजी! आप लोगों के सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है ? इसका फल क्या है ? किस उद्देश्य से, कौन लोग, किन साधनों के द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं?

पिताजी! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये। आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें सुनने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी! जो संत पुरुष सबकी अपनी आत्मा मानते हैं, जिनकी दृष्टि में अपने और पराये का भेद नहीं है, जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीन - उनके पास छिपाने की तो कोई वस्तु होती ही नहीं। परन्तु यदि ऐसी स्थिति न हो तो रहस्य की बात शत्रु की भाँति उदासीन से भी नहीं करनी चाहिये। मित्र तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी नहीं जाती। यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। 

उनमें से समझ-बुझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं। अतः इस समय आप लोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारित-शास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही है - मैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्ट रूप से बतलाइये।'

तब नन्दबाबा ने कहा - बेटा ! भगवान इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान करने वाले है वे जल बरसाते हैं। मेरे प्यारे पुत्र ! हम और दूसरे अन्य लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान इन्द्र की यज्ञों द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियों से यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जल से ही उत्पन्न होती हैं। उनका यज्ञ करने के बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्न से हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग की सिद्धि के लिये अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। 

मनुष्यों के खेती आदि प्रयत्नों के फल देने वाले इन्द्र ही हैं। यह धर्म हमारी कुल परम्परा से चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्म को छोड़ देता है, उसका कभी मंगल नहीं होता।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! ब्रह्मा, शंकर आदि के भी शासन करने वाले केशव भगवान ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियों की बात सुनकर इन्द्र को क्रोध दिलाने के लिये अपने पिता नन्दबाबा से कहा।

श्री भगवान ने कहा - पिताजी ! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता होता और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के कारणों की प्राप्ति होती है।

यदि कर्मों को ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवों के कर्म का फल देने वाला ईश्वर माना भी जाय तो वह कर्म करने वालों को ही उनके कर्म के अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करने वालों पर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती।

(दशम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः  (पूर्वाद्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद:-

जब सब प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है ? पिताजी ! जब वे पूर्वसंस्कार के अनुसार प्राप्त होने वाले मनुष्यों के कर्म-फल को बदल ही नहीं सकते - तब उनसे प्रयोजन ? मनुष्य अपने स्वभाव के अधीन है। वह उसी का अनुसरण करता है। यहाँ तक कि देवता, असुर, मनुष्य आदि को लिये हुए यह सारा जगत स्वभाव में ही स्थित है। जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मों के अनुसार ही ‘यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’ - ऐसा व्यवहार करता है।

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दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, श्रीकृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है, उसका पारंपरिक हथियार 'चक्र', जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे।

यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था;

परंतु मिर्ज़ापुर ज़िले के एक गुफ़ाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर  आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू., जबकि मोटे तौर पर वाराणसी में पहली बस्ती की नींव पड़ी। ये रथारोही देव उपासक रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लौह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफ़ाचित्र बनाए गए हैं।

चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही दूसरी ओर ऋग्वेद में कृष्ण को अदेवी: और इन्द्र का शत्रु बताया गया है और उनका नाम श्यामवर्ण देवपूर्व लोगों का द्योतक है।

कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और 'यदु' कबीले का नर-देवता, परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है।

"यदि वैदिक साहित्य में  इन्द्र विजेता है तो पौराणिक एवं लौकिक साहित्य में कृष्ण विजेता हैं।

मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई खोज के अनुसार पुरातत्व वेत्ता अर्नेस्त मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है।
जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बालक का चित्र बना हुआ था ।
जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।
पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। 

भागवत पुराण के स्कन्द-10 के उसके अध्याय 10 में - कृष्ण बालक द्वारा अर्जुन के पेड़ों को उखाड़ना तथा- नलकूबर और मणिग्रीव की मुक्तिका प्रसंग-

पुराणों का सृजन बुद्ध के परवर्ती काल में हुआ । और कृष्ण की कथाऐं इससे भी ---पुरानी हैं जिनके सन्दर्भ वेदों में देखे जा सकते हैं।।

अथर्ववेद-(20/137/7)

ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् । सूक्तम् -(१३७)

  • "अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
  • (इयानः) चलता हुआ (अंशुमतीम्) यमुना नदी को। (अव अतिष्ठत्) ठहरा है। (नृमणाः) नरों के समान मनवाले अथवा धनों का (इन्द्रः) इन्द्र ने (तम् धमन्तम्) उस हुकारते हुए को (शच्या) शचि के साथ (आवत्)- युद्ध किया।
  • लङ्(अनद्यतन भूत)
  • एकवचनम्
  • द्विवचनम्
  • बहुवचनम्
  • प्रथमपुरुषः
  • आवत्=युद्ध किया
  • युद्ध किया और (स्नेहितीः) भिगो दिया (अप अधत्त) नीचे छोड़ दिया ॥७॥
  • टिप्पणी:-
  • (धमन्तम्) हुङ्कृतम्कुुर्वन्तम् । (स्नेहितीः) स्नेहतिः क्लेदयते।क्लिद आर्द्रीभावे
    (क्लिद्यति(नृमणाः) नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) दूरे धारितवान् ॥

ऋग्वेद प्रथम एवम् अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन सायण भाष्य सहित-

ऋग्वेदः सूक्तं १.१०१

कुत्स आङ्गिरसः

देव. इन्द्रः( १- गर्भस्राविण्युपनिषद्)। जगती, ८-११ त्रिष्टुप्

  • "प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना। अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥
  • यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्। इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥
  • यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः । यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥
  • सामवेदः -कौथुमीया/संहिता -ग्रामगेयः-प्रपाठकः १०-वैरूपम्सामवेदः‎ - कौथुमीया‎ - संहिता‎ - ग्रामगेयः‎ - प्रपाठकः १०
  • :32 वैरूपम्.
  • प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हुवेमहि ।। ३८० ।। तथा ऋग्वेद १/१०१/१
  • ________
  • यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः। वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥
  • ___________
  • यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् । इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥
  • यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः ।इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥
  • रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥
  • यद्वा मरुत्वःपरमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥
  • त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः। अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥
  • मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र विष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने । आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥
  • मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥
  • {सायण-भास्यम्}

प्र मन्दिने' इति एकादशर्चमष्टमं सूक्तमाङ्गिरसस्य कुत्सस्यार्षम् । अष्टम्याद्याश्चतस्रस्त्रिष्टुभः शिष्टाः सप्त जगत्यः । इन्द्रो देवता । तथा चानुक्रान्तं - ' प्रमन्दिन एकादश कुत्स आद्या गर्भस्राविण्युपनिषच्चतुस्त्रिष्टुबन्तम्' इति । दशरात्रस्य नवमेऽहनि मरुत्वतीये एतत्सूक्तम् । विश्वजितः' इति खण्डे सूत्रितं- ‘प्र मन्दिन इमा उ त्वेति मरुत्वतीयम्' (आश्व. श्रौ. ८.७.) इति ॥____________________

  • प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना। अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥

अर्थ-अच्छी प्रकार से इन्द्र और उसके सखा राजा ऋजिश्वन् की स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए ऐसे वचनों के साथ स्तुति करें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिता उनकी पत्नीयों का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्तिशाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं

  • विशेष=असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद न होकर अदेवी: पद है ।
  • यद्यपि वैदिक काल के पूर्वार्द्ध में असुर शब्द शक्तिशाली( प्राणवन्त) और प्रज्ञावान्। का विशेषण था। असुर लोगों की सभ्यता का जीवन्त रूप प्राचीन-ईराक-ईरान(मेसोपोटामिया) का असीरिया देश साक्षी है।

अशुर एक प्रमुख प्राचीन मेसोपोटामिया सभ्यता थी जो 21वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 14वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक एक नगर-राज्य के रूप में अस्तित्व में था,

फिर एक क्षेत्रीय राज्य, और अंततः 14वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक एक साम्राज्य के रूप में अस्तित्व में रही ____

  • १०९-११५ ) 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैर्गोपेभि: सुरैः “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोगोपालक: "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या=सह इन्द्रण्या 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं हुंकृतम् कुरुवन्तम्वा “तं =कृष्णं “इन्द्रः मरुद्भिः सह = इन्द्र मरुतों के साथ- 5-“आवत् = युद्धं अकरोत् । । “नृमणाः -नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः आर्द्रीकर्मसु । “अप “अधत्त । 6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् गोपान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् इत्यर्थे-॥________________
  • द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः । नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥१४
  • तुरीयपादो मारुतः । मरुतः प्रति यद्वाक्यमिन्द्र उवाच तदत्र कीर्त्यते । हे मरुतः “द्रप्सं द्रव्यं“अपश्यम् =अदर्शम् । कुत्र वर्तमानम् ।“विषुणे= विष्वगञ्चने सर्वतो विस्तृते देशे । यद्वा । विषुणो विषमः । विषमे परैरदृश्ये गुहारूपे देशे। “चरन्तं =परितो गच्छन्तम् ग्रासं चरन्तम् । किंच “अंशुमत्याः एतन्नामिकायाः “नद्यः =नद्याः “उपह्वरे= अत्यन्तं गूढे स्थाने “नभो “न नभसि यथादित्यो दीप्यते तद्वत्तत्र दीप्यमानम् “अवतस्थिवांसम् उदकस्यान्तरवस्थितं “कृष्णम् एतन्नामकमसुरमपश्यम् । तस्मिन् दृष्टे सति हे
  • वृषणः कामानामुदकानां वा सेक्तारो मरुतः “वः युष्मान् युद्धार्थम् “इष्यामि अहमिच्छामि । ततो यूयं तमिमं कृष्णम् "आजौ । अजन्ति गच्छन्त्यत्र योद्धार आयुधानि प्रक्षेपयन्तीति वाजिः संग्रामः । तस्मिन् "युध्यत संहरत । वाक्यभेदादनिघातः । केचित् इष्यामि वो मरुतः इति पठन्ति । तत्र हे मरुतः वो युष्मानिच्छामीत्यर्थो भवति ॥
  • अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः।विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र: ससाहे ॥१५।
  • अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः ।
  • विशः। अदेवीः ।अभि। आऽचरन्तीः ।बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५।
  • 1-“अध= अथ 2-“द्रप्सः =द्रुतगामी कृष्णः 3-“अंशुमत्याः= नद्याः 4-“उपस्थे =समीपे 5-“तित्विषाणः= दीप्यमानः सन् 6-“तन्वम् =आत्मीयं शरीरम् 7-“अधारयत् । =परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन 8-“युजा= सहायेन 9-“अदेवीः =अद्योतमानाः । कृष्णरूपा इत्यर्थः । यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । 10-“आचरन्तीः= आगच्छन्तीः 11-“विशः= गोपगण "अभि 12-"ससहे =जघान । तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ३४ ॥
  • त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒ः शत्रु॑रिन्द्र ।
  • गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥१६
  • पद पाठ:-
  • त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र ।
  • गूळ्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभुमत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥१६
  • हे “इन्द्र “त्वं खलु “त्यत् तत् कर्म कृतवानसि। किं तत् उच्यते । "जायमानः त्वं प्रादुर्भवन्नेव । “अशत्रुभ्यः स्तुरहितेभ्यः “सप्तभ्यः कृष्णवृत्रनमुचिशम्बरादिसप्तभ्यो बलवद्भ्यः शत्रुभ्यः तदर्थं “शत्रुः “अभवः । यद्वा । सप्तभ्यः । ससैवाङ्गिरसः । सप्तभ्योङ्गिरोभ्यो गवानयनार्थं प्रादुर्भवन्नेवाशत्रुभ्यो बलवद्भ्यः पणिभ्यः शत्रुरभवः । किंच हे इन्द्र त्वं “गूळ्हे तमसा गूढे संवृते “द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ सूर्यात्मना ते प्रकाश्यानुक्रमेण "अविन्दः अलभथाः । तथा “विभुमद्भ्यः महत्त्वयुक्तेभ्यः "भुवनेभ्यः लोकेभ्यः "रणं रमणं “धाः धारयसि । विदधासीत्यर्थः ॥
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  • द्रप शब्द की भारोपीय व्युत्पत्ति-से भी द्रप शब्द जल बिन्दु का अर्थ बोधक सिद है।
  • drip (v.)
  • c. 1300, drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.
  • drip (n.)
  • mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).


विषुण-अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।


  • अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
  • आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
  • द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
  • नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
  • अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
  • विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
  • _______________________________________
  • क्रमशः उपर्युक्त तीनों ऋचाओं का पदपाठ-
  • "अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
  • आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
  • पद का अन्वय= अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।
  • शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण- १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर मध्यम पुरुष एकवचन।
  • २-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में ।
  • ३- अंशुमतीम् = यमुनाम् –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
  • ४-अवतिष्ठत् = अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश लङ्लकार रूप) स्थित हुए।
  • ५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
  • ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं हुंकुर्वन्तं वा। कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को अथवा हुंकारते हुए को। (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है ।
  • ७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
  • ८-नृमणां( धनानां)
  • ९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्य पुरुषएकवचने)
  • विशेषटिप्पणी-
  • १०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान १८-वृद्धिषु।
  • ११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
  • प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
  • आवत् =प्राप्त किया ।
  • हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप धन दिया।
  • भाष्य-
  • कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै: परिवृत: सन् अँशुमतीनामधेयाया नद्या: यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।
  • "हिन्दी-अनुवाद:- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं । इन्द्र ने अञ्शुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।
  • ________________________________
  • द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
  • नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
  • पद का अन्वय= द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।
  • नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।
  • इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं चाहूगा । अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़ कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं चाहूँगा। जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो
  • (अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
  • _______________
  • शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण:- यादव योगेश कुमार "रोहि" द्वारा-
  • १-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया। अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________
२- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
“सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
"हिन्दी-अनुवाद :-
(षत्व विधान सन्धि :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" पाणिनीय सूत्र से :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•)  'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है । ):- 

शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु। हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

विषुण-विभिन्न रूपी।
३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
५-अ॒व॒ = उपसर्ग
६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
१०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
११-आजौ= युद्ध में ।
१२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
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"अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
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अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे । चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की  सहायता से दमन किया ।
पदपाठ-विच्छेदन :-
। द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
“अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दु: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(  त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः । 
यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः=गोपालका: "अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार (अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) । शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
 सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे 
अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे 

हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
 
तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

१-तस्मिन् -उसमें ।
२-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते थे। परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  

वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
(वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।

परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों से है ।
इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।
स्त्रियों के साथ दिन में रमण (संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है । जो सरासर कृष्ण चरित्र की धज्जीयाँ पीटना है
कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
और करोड़ो देवों की पूजा करना। धर्म के नाम पर सुरापान करना  कृष्ण ने नहीं किया।
______
जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
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वेदों में कृष्ण और इन्द्र के युद्ध सम्बन्धी तथ्य-

भारतीय भाषाओं में इन्द्र" नाम की कोई निश्चित व्युत्पत्ति नहीं है। सबसे प्रशंसनीय रूप से यह एक प्रोटो-इण्डो-यूरोपियन मूल का शब्द है।

यूरोपीय भाषाओं में एण्डरो-(andró) शब्द ग्रीक भाषा के Aner से विकसित हुआ है। Aner का सम्बन्ध कारक रूप एण्डरो- है। मूल भरोपीय भाषाओं में (H- Ner) हनर- जैसे हिन्दी लोक भाषा में वानर- से बन्दर- सुनर- वैदिक शब्द से परवर्ती शब्द सुन्दर- आदि ।

ओस्कैन में  (ner)- "पुरुषों का"), अल्बानियाई में  नजेरी "आदमी, मानव," वेल्स- नर । मितन्नी में  इन-द-र- शब्द है। यद्यपि अवेस्ता में इन्द्र एक दुष्ट शक्ति है। क्योंकि देव शब्द ही अवेस्ता में दुष्ट का वाचक है। पारसी मिथ को के सम्बन्ध में इन्द्र और देव शब्द पर आगे यथा क्रम विचार किया जाएगा ।

संस्कृत(Sanskrit) एक वैदिक भाषा परिनिष्ठित व संशोधित रूपान्तरण है. कुछ लोगों का मानना है कि ये दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है, जो लगभग 5000 साल पुरानी है. ऋग्वेद जिस भाषा में लिखा गया है वो इसका यानी संस्कृत का प्रथम स्वरूप है, लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि संस्कृत ऋग्वेद से भी पहले इस्तेमाल होती थी. इस भाषा का इस्तेमाल आज से लगभग 3500 साल पहले सीरिया का एक राजवंश किया करता था. आज हम उसी राजवंश के बारे में आपको आगे यथाक्रम बताएंगे.

भारतीय वेदों में इन्द्र की सबसे अधिक स्तुति वैदिक ब्राह्मणों ने की है। और इन्द्र को वेदों में सबसे वड़ा देव घोषित किया गया है ।

परन्तु वैदिक पुरोहित भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र आदि देवताओं का योजन( यज्ञ) आदि किया करते थे। देवताओं की उपासना से आध्यात्मिक ज्ञान अथवा मोक्ष तो मिन नहीं सकता और न ही यज्ञों के सम्पादन से न ईश्वर की अनुभूति हो सकती है और नहीं आत्मज्ञान प्राप्त होता है।

यज्ञ केवल देवों की प्रसन्नता के लिए किए जाते थे और ये यज्ञ भी निर्दोष पशुओं पक्षीयों की हत्या के बिना सम्पन्न नहीं माने जाते थे। इन्द्र स्वयं यज्ञ में पशुमेध का समर्थक था।

वेदों में तथा पुराणों में इन्द्र का चरित्र पूर्णतया राजसिक है । वह पुराणों में तो अपनी कामुक प्रवृत्ति के लिए जाना जाता है। वेदों वनो  भी उसका विलासी चरित्र उभर कर आता है। उसमें सत्व गण का कोई भाव नहीं है। भोग विलास में निरन्तर लगा हुआ इन्द्र आध्यात्मिक ज्ञान से विमुख और परे है।

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महाभारत के आदि पर्व में इन्द्र का यज्ञ भूमि में सोम पीकर उन्मत्त होने का वर्णन है।

सोम एक नशीला पदार्थ था जिसे पारसी धर्म ग्रन्थों में होम कहा गया है क्योंकि फारसी में प्राय: वैदिक भाषा के " स" वर्ण का उच्चारण "ह"वर्ण के रूप में होता है"

प्राचीन भारत में सुर, सुरा, सोम और मदिरा आदि का बहुत प्रचलन था। कहते हैं कि इंद्र की सभा में सुंदरियों के नृत्य के बीच सुरों के साथ सुरापान होता था। 
सोम रस : सभी देवता लोग सोमरस का सेवन करते थे। प्रमाण- 'यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्रदेव को प्राप्त हो।-

सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये ।
सोमासो दध्याशिरः ॥५॥

सुतऽपाव्ने । सुताः । इमे । शुचयः । यन्ति । वीतये।सोमासः । दधिऽआशिरः ॥५।

सायणभाष्य:-

“इमे "सोमासः अस्मिन् कर्मणि संपादिताः सोमाः "सुतपाव्ने= अभिषुतस्य सोमस्य पानकर्त्रे । षष्ठ्यर्थे चतुर्थी । तस्य पातुः =“वीतये भक्षणार्थं "यन्ति तमेव प्राप्नुवन्ति । कीदृशाः सोमाः । "सुता:= अभिषुताः । “शुचयः = दशापवित्रेण शोधितत्वात् शुद्धाः । "दध्याशिरः =अवनीयमानं दधि आशीर्दोषघातकं येषां सोमानां ते दध्याशिरः ।। सुतपाव्ने । सुतं पिबतीति सुतपावा । वनिप: पित्त्वात् धातुस्वर एव शिष्यते । समासे द्वितीयापूर्वपदप्रकृतिस्वरं बाधित्वा कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् । शुचयः । शुच दीप्तौ'। ‘इन्' इत्यनुवृत्तौ ‘इगुपधात्कित्' (उ. सू. ४. ५५९) इति इन् । कित्त्वाल्लघूपधगुणाभावः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । वीतये । ‘ वि गतिप्रजनकान्त्यशनखादनेषु' इत्यस्मात् ' मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः ' ( पा. सू. ३, ३. ९६ ) इति क्तिन् उदात्तः । सोमासः । ‘ षुञ् अभिषवे'। ‘ अर्तिस्तुसुहुसृधृक्षि° ' ( उ. सू. १. १३७ ) इत्यादिना मन् । नित्त्वादाद्युदात्तः । ‘ आज्जसेरसुक्' (पा. सू. ७. १. ५० } इत्यसुगागमः । दध्याशिरः । दधाति पुष्णातीति दधि । ‘डुधाञ् धारणपोषणयोः । ‘ आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च ' ( पा. सू. ३. २. १७१ ) इति किन् । लिङ्वद्भावात् द्विर्भावः । कित्त्वादाकारलोपः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् ।शॄ ‘हिंसायाम् ' । शृणाति हिनस्ति सोमेऽवनीयमानं सत् सोमस्य स्वाभाविकं रसम् ऋजीषत्वप्रयुक्तं नीरसं दोषं वा इत्याशीः । क्विपि ‘ ऋत इद्धातोः ' ( पा. सू. ७, १. १०० ) इति इत्वं रपरत्वं च । दध्येव आशीर्येषां सोमानां ते दध्याशिरः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ।९ ॥ (ऋग्वेद-1/5/5).

तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे ।
वायो तान्प्रस्थितान्पिब ॥१॥

"शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।। 

(ऋग्वेद-1/23/1).. 

शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् ।
एदु निम्नं न रीयते ॥२॥

(ऋग्वेद-1/30/2) 

इन्द्रा य गाव आशिरं दुदुह्रे वज्रिणे मधु” (ऋग्वेद- ८/, ५८,/ ६ )

इमे त इन्द्र सोमास्तीव्रा अस्मे सुतासः ।
शुक्रा आशिरं याचन्ते ॥१०॥

ताँ आशिरं पुरोळाशमिन्द्रेमं सोमं श्रीणीहि ।
रेवन्तं हि त्वा शृणोमि ॥११॥

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥

सुरापान : प्राचीन काल में सुरा एक प्रकार से शराब ही थी कहते हैं कि सुरों द्वारा ग्रहण की जाने वाली हृष्ट (बलवर्धक) प्रमुदित (उल्लासमयी) वारुणी (पेय) इसीलिए सुरा कहलाई। कुछ देवता सुरापान करते थे। 

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥ (ऋग्वेदः सूक्तं 8/2/12)

अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,प्रसंग समुद्र मंथन.

विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ....
असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः 
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये 
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को   ग्रहण करने से देवतालोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"ुंिंि

धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं।
धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, असु राति अर्थात् जो प्राण देता है, के रूप में चित्रित किया गया है
'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है । और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)
और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक भी  है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।

परन्तु लौकिक संस्कृत में सुर के विपरीत असुर हैं।

वाल्मीकि रामायण को बाल काण्ड नें सुरा पीने वाले को सुर" ( देव) कहा है ।

वाल्मीकि रामायण-
बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
 सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- 
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
"सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥ ३८।
(वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड)
उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. 
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। 

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,
प्रसंग ( समुद्र मंथन.) विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं ।
और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे में बताते हुए कहते हैं ।

"असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः। (३८)
 ('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई. 

वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी" के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिन्द्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है.।
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ये तो सर्वविदित ही है कि इन्द्र सुरा और सुन्दरियों के रूपरस का  पान करता रहता था। 
इन्द्र एक व्यभिचारी देव था। कृष्ण ने सर्वप्रथम इन्द्र के इस कुत्सित कर्म को दृष्टिगत करते हुए उसकी पूजा पर रोक लगाई।
तो इन्द्रोपासक पुरोहितों ने षड्यन्त्र पूर्वक कृष्ण के चरित्र को इन्द्र से भी अधिक दूषित करके चित्रित किया गया। और जो देवसंस्कृति के समर्थन में कृष्ण ने काम नहीं किया उसे भी कृष्ण के नाम पर जोड़कर कृष्ण के विचारों के साथ भी षड्यन्त्र कर दिया।

इन्द्र सुरापान करके उन्मत्त रहता था । और सुरापान करने वाला ही कामुक और उन्मत्त होकर व्यवहार करता है।

अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् । ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥(ऋग्वेद -8/2./12)

पदान्वय:-सुरायाम्- पीतासो= सुरा पीने वाले।दुर्मदासो= बुरी तरह उन्मत्त होकर। नग्ना हृत्सु:- नंगे होकर छाती या हृदय में स्थित । ऊध: - स्तनो को  । जरन्ते - जारके समान मसलते या जीर्ण करते हैं।

(न ) जिस प्रकार- (दुर्मदास:- दूषित मद से उन्मत्त लोग। युध्यन्ते-युद्ध करते हैं। हृत्सु- हृदयों में। सुरायाम्- पीतास:- सुरा पीने वाले लोग। नग्ना: - नंगे लोग।ऊध:-स्तन या छाती। जरन्ते- जारों की तरह मसलते रहते हैं। जीर्ण करते रहते हैं।

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इन्द्र भी इसी प्रकार का चरित्र व्यवहार करता है।

"व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः ।पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोर्वंशविवर्धनः ।७।

तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महात्मनि।उपागमंस्ततो देवाः सेन्द्राः सह महर्षिभिः।८।

अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः।९।(महाभारत आदिपर्व- (1/120/ 7-8-9-10)

  "अनुवाद :-एक समय वे महाबाहु धर्मात्‍मा नरेश व्युषिताश्व जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्‍द्र आदि देवता देवर्षियों के साथ उस यज्ञ में पधारे थे। उसमें देवराज इन्‍द्र सोमपान करके उन्‍मत्त हो उठे !थे तथा ब्राह्मण लोग पर्याप्त दक्षिणा पाकर हर्ष से फूल उठे थे।

इन्द्रोपासक पुरोहित भी केवल भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए इन्द्र की स्तुति करते हैं। इन्द्र के उपासक केवल स्वर्ग" सुन्दर स्त्री और भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र की उपासना करते है।

इन्द्र बहुत से बैलों( उक्षण) को खाने वाला और अपनी यज्ञों में पशु बलि माँगता है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त-(86) जो वृषाकपि के नाम से है   उसकी समस्त ऋचाऐं इन्द्र के विलासी चरित्र का दिग्दर्शन करती हैं।

ऋग्वेदः सूक्तं १०/८६/

                " वृषाकपिसूक्तम्

"तैइस ऋचाओं का यह वृषाकपि सूक्त है जिसमें  वृषाकपि नामक इन्द्र अन्य पत्नू से उत्पन्न एक पुत्र था इन्द्र और इन्द्राणी( शचि) का परस्पर संवाद है।

वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥१॥ 

"सोम-अभिषव करने के लिए यज्ञ में मुझ इन्द्र द्वारा आज्ञा दिए हुए स्तोताओं ने वृषाकपि का पूजन किया। वहाँ उपस्थित दैदीप्मीन मुझ  इन्द्र की मेरे द्वारा प्रेरित होकर भी उन स्तोताओं ने स्तुति नहीं की किन्तु मेरे पुत्र वृषाकपि की ही स्तुति की जिस सोम से बढ़े हुए यज्ञो में स्वामी वृषाकपि मेरा पुत्र और मेरा मित्र होकर सोमपान में हालांकि हर्षित हुआ। तो भी उन यज्ञों में मैं इन्द्र सम्पूर्ण जगत में श्रेष्ठतर हूँ। आचार्य माधव भट्ट के अनुयायी इस ऋचा को इन्द्राणी का वचन मानते हैं। उनका कहना है कि इन्द्राणी के लिए अर्पित हवि को वृषाकपि के स्थान में विद्यमान किसी अन्य मृग ( पशु ) ने दूषित कर दिया है। वहाँ इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। उस पक्ष में तो इस ऋचा का यह अर्थ है।)सोमाभिषव करने के लिए आज्ञा दिए गये  यजमान सोनाभिषव की प्रक्रिया से अलग हो गये और मेरे पति इन्द्रदेव की   स्तोता उस जनपद में स्तुति नहीं करते हैं। जिस जनपद में बढ़े हुए धनों  में स्वामी वृषाकपि  हर्षित होता है। मेरे मित्र और मेरे प्रिय इन्द्र देव सब जगत् में श्रेष्ठतर हैं।१।

परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः। नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥२॥

  "अनुवाद :- हे इन्द्र तुम अत्यन्त चलकर वृषाकपि के पास जाते हो। अर्थात् अन्यत्र सोम पीने के लिए नहीं जाते हो। वही इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर है।२।

किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः। यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्रप उत्तरः ॥३॥

  "अनुवाद :-  हे इन्द्र हरित वर्ण वाले वृषाकपि ने तुम्हारा क्या प्रिय कार्य किया ? क्यों कि वृषाकपि मृग पशु) जाति का है। जिस वृषा कपि के तुम इन्द्र उदार होकर पुष्टिकर धन शीघ्र न करते हो। जो इन्द्र समस्त जगति में श्रेष्ठतर है।३।

यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि । श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥

  "अनुवाद :-  हे इन्द्र तुम जिस अभिलाषित   वृषाकपि का पालन करते हो उस वृषाकपि को सूकर  खाने की इच्छाकरने वाला कुत्ता शीघ्र भक्षण करे।और उसके कान को पकड़े । क्योंकि कुत्ता सूअर को खाना चाहता है। इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठतर है।४।

प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् ।शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥

  "अनुवाद :-  मुझ इन्द्राणी के लिए यजमानों द्रारा अर्पितप्रिय और  विशेषरूप से घृतयुक्त  हवियोंं को वृषाकपि के स्थान में विद्यमान किसी कपि ने दूषित कर दिया। तत्पश्चात् मेरी इच्छा गै कि उस कि स्वामी वृषाकपि का शिर शीघ्र काट दूँ। मैं इस दुष्ट कर्म करने वाले वृषाकपि के लिए सुखकर न होऊँ। इस मुझ इन्द्राणी के पति इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर हैं।५।

"न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् ।न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥६॥

  "अनुवाद :-

मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।

"यह बहुत रज वाली रमणी मुझ स्वनय राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में लीन अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्टतर हैं।६।

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वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।

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इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 

इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 

उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति ।भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥

 "अनुवाद :-"इस प्रकार इन्द्राणी द्रारा बुरा भला कहा हुआ वृषाकपि कहता है कि हे माता ! सुन्दर लाभभ मे जिस प्रकार से तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाये । तुम्हारे इस प्रेम करने को स्वीकार करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिए तुम्हारी यौनि उपयुक्त हो ।और मेरे पिता के लिए तुम्हीरी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता इन्द्र को आपका शिर प्रेमालाप करने में कोयल आदि पक्षी  की तरह हर्षिकत करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।७।

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों में ही जीवन का आनन्द खोजता है । इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-

किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥

 "अनुवाद :- इन्द्र  क्रोधित इन्द्राणी को शान्त करते हुए कहता है कि हे सुन्दर भुजाओं वाली ,सुन्दर अंगुरियों वाली बड़े बालों वाली चौड़ी जाँघो वाली  तथा वीर पत्नी इन्द्राणी! तुम हमारे पुत्र वृषाकपि पर क्यो क्रोध कर रही हो।जिसका पिता मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।८।


अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥९॥

संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥

इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।नह्यस्या अपरं चन साकं मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥

नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेरृते ।यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥

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वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे । घसत्ते इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥

 "अनुवाद :-

मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी सौभाग्य शाली नहीं  है । कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल)को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।

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उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥

 "अनुवाद :-इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।

"वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥

 "अनुवाद :- इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।

न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत् । सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥

 "अनुवाद :- 

हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग जम्हाई लेता हो । इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।

शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।

अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमों  वाला अङ्ग लिंग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग लम्बा होता है, वह ही स्त्रीयों पर अधिकार कर पाता है॥१७॥

अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत् ।असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥

१८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं=संगृहीतं "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

बैल पकाने का जिक्र-

अनुवाद :-

सायण- भाष्य-−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य- कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः)- पकाने के लिये ईंधन के भरे अन:-छकड़े को (इन हत्या के साधनों को) चयनित कर लिया ॥१८॥


अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् । पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥

अनुवाद :-तत्पश्चात इन्द्र कहता है। मैं इन्द्र यजमानों को देखता हुआ। दास और आर्य को अलग करता हुआ यज्ञ में जाता हूँ।तथा हवि पकाने वाले औरसोम अभिषव करने वाले यजमान का  परिपक्व मन से सोम अभिषव करने वाले यजमान का सोम पीता हूँ। तथा बुद्धि मान यजमान को मैं इन्द्र देखता हूँ। जो मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१९।

धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहाँ उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥

अनुवाद :-जल शून्य और जल विहीन देश धन्व होता है। काटने योग्य वन कृन्तत्र होता है।जो जल शून्य और वन विहीन देश होता है। ऐसा वन मृगों के निर्वासन वाला होता है। किन्तु सघन जल नहीं होता है उस शत्रु गृह और हमारे घर के बीच कितने योजनों की दूरी है। अर्थात वह हमारा घर अत्यन्त दूर नहीं हैं।अत: निकटवर्ती शत्रुगगृह से ही हे वृषाकपि ! तुम हमारे घर में विशेष रूप में चले आओ और आकर यज्ञ गृहों के समीप जाओ । क्योंकि मैं इन्द्र सबसे अधिक श्रेष्ठ हूँ।२०।


पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै । य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥

अनुवाद :-आकर वापिस गये हुए वृषाकपि से इन्द्र कहते हैं। हे वृषाकपि तुम फिर हमारी ओर आओ!और तुम्हारे आने पर तुम्हारे चित को प्रसन्न करने वाले कर्मों को इन्द्राणी और मैं इन्द्र हम दोनों  विचार कर पूर्ण करें ! उदय होकर सब प्राणियों की नींद के नाशक जो सूर्य हैं जैसे वे अस्त होते हैं वैसे ही तुम मार्ग में अपने आवास को जाते हो। क्योंकि मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२१।


यदुदञ्चो वृषाकपे ! गृहमिन्द्राजगन्तन । क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥

अनुवाद :-जाकर फिर आये हुए वृषाकपि से इन्द्र पूछते हैं। हे परम ऐश्वर्य शाली वृषाकपि ! तुम सीधे खड़े़ होकर मेरे घर में आओ ! एक वृषाकप् के लिए बहुवचन पद पूजा-( सम्मान) के लिए प्रयुक्त है। हे वृषाकपि वहाँ आप से सम्बन्धित बहुत से पाथिक( मार्गसम्बन्धी) रसों का उपभोक्ता वह मृग कहाँ रह गया अथवा मनुष्यों को हर्षित करने वाला मृग किस देश को चला गया। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२२।

"पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् । भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥

अनुवाद :-इन्द्र के द्वारा छोड़े जाते हुए वाण से  इस मन्त्र के द्वारा वषाकपि आश करते हैं। कि हे इन्द्र द्वारा छोड़े हुए वाण पर्शु नाम की मृगी थी इस मनु पुत्री पर्ष़शु ने एक साथ बीस पुत्रों को जन्म दिया उसका उदर गर्भ में स्थित बीस पुत्रों से पुष्ट हो गया था। उस पर्शु का कल्याण हो मेरे पिता इन्द्र जगत में सबसे श्रेष्ठ हैं।२३।

सायणभाष्यम्: - मूल संस्कृत रूप-

"यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थमहेश्वरम् ॥

अष्टमाष्टकस्य चतुर्थोऽध्याय आरभ्यते । तत्र ‘वि हि ' इति त्रयोविंशत्यृचं द्वितीयं सूक्तम् ।

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वृषाकपिर्नामेन्द्रस्य पुत्रः । स चेन्द्राणीन्द्रश्चैते त्रयः संहताः संविवादं कृतवन्तः । तत्र ‘वि हि सोतोरसृक्षत ' : किं सुबाहो स्वङ्गुरे ' ‘ इन्द्राणीमासु नारिषु ' इति द्वे ‘ उक्ष्णो हि मे ' ' अयमेमि' इति चतस्र इत्येता नवर्च इन्द्रवाक्यानि । अतस्तासामिन्द्र ऋषिः । ‘ पराहीन्द्र ' इति पञ्च ‘ अवीराम् ' इति द्वे ' वृषभो न तिग्मशृङ्गः' इत्याद्याश्चतस्र इत्येकादशर्चं इन्द्राण्या वाक्यानि । अतस्तासामिन्द्राण्यृषिः । ‘ उवे अम्ब ' ‘ वृषाकपायि रेवति ' • पशुर्ह नाम ' इति तिस्रो वृषाकपेर्वाक्यानि । अतस्तासां वृषाकपिर्ऋषिः । सर्वं सूक्तमैन्द्रं पञ्चपदापङ्क्तिच्छन्दस्कम् । तथा चानुक्रान्तं -- वि हि त्र्यधिकैन्द्रो वृषाकपिरिन्द्राणीन्द्रश्च समूदिरे पाङ्तम् ' इति । षष्ठेऽहनि ब्राह्मणाच्छंसिन उक्थ्यशस्त्र एतत्सूक्तम् । सूत्रितं च ---- ‘ अथ वृषाकपिं शंसेद्यथा होताज्याद्यां चतुर्थे ' ( आश्व. श्रौ. ८. ३) इति । यदि षष्ठे:हन्युक्थ्यस्तोत्राणि द्विपदासु न स्तुवीरन् सामगा यदि वेदमहरग्निष्टोमः स्यात्तदानीं ब्राह्मणाच्छंसी माध्यंदिने सवन आरम्भणीयाभ्यः ऊर्ध्वमेतत्सूक्तं शंसेद्विश्वजित्यपि । तथा च सूत्रितं -- सुकीर्तिं ब्राह्मणाच्छंसी वृषाकपिं च पङ्क्तिशंसम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ४) इति ।। 

"अनुवादभाष्य :- ॥१।।सोतोः =सोमाभिषवं कर्तुं "वि "असृक्षत । यागं प्रति मया विसृष्टा अनुज्ञाताः स्तोतारो= वृषाकपेर्यष्टारः । “हि= इति पूरणः । तत्र "देवं= द्योतमानम् "इन्द्रं मां “न “अमंसत । मया प्रेरिताः सन्तोऽपि ते स्तोतारो न स्तुतवन्तः । किंतु मम पुत्रं वृषाकपिमेव स्तुतवन्तः । "यत्र येषु “पुष्टेषु सोमेन प्रवृद्धेषु यागेषु "अर्यः= स्वामी “वृषाकपिः मम पुत्रः मत्सखा मम सखिभूतः सन् “अमदत् सोमपानेन हृष्टोऽभूत् । यद्यप्येवं तथापि “इन्द्रः अहं "विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगतः "उत्तरः =उत्कृष्टतरः। माधवभट्टास्तु वि हि सोतोरित्येषर्गिन्द्राण्या वाक्यमिति मन्यन्ते। तथा च तद्वचनम् । इन्द्राण्यै कल्पितं हविः कश्चिन्मृगोऽदूदुषदिन्द्रपुत्रस्य वृषाकपेर्विषये वर्तमानः । तत्रेन्द्रमिन्द्राणी वदति । तस्मिन्पक्षे त्वस्या ऋचोऽयमर्थः । सोतोः= सोमाभिषवं कर्तुं वि ह्यसृक्षत। उपरतसोमाभिषवा आसन् यजमाना इत्यर्थः । किंच मम पतिमिन्द्रं देवं नामंसत स्तोतारो न स्तुवन्ति । कुत्रेति अत्राह । यत्र यस्मिन् जनपदे पुष्टेषु प्रवृद्धेषु धनेष्वर्यः स्वामी वृषाकपिरमदत् । मत्सखा मत्प्रियश्चेन्द्रो विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगत उत्तरः उत्कृष्टतरः ।।

"अनुवाद भाष्य :-॥२।हे “इन्द्र त्वम् "अति {अत्यन्तं “व्यथिः= चलितः "वृषाकपेः =वृषाकपिं “परा “धावसि= प्रतिगच्छसि । "अन्यत्र "सोमपीतये सोमपानाय “नो "अह नैव च “प्र “विन्दसि प्रगच्छसीत्यर्थः । सोऽयम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ।

"अनुवाद भाष्य :-॥३।हे इन्द्र “त्वां प्रति "हरितः= हरितवर्णः "मृगः= मृगभूतः "अयं वृषाकपिः। मृगजातिर्हि =वृषाकपि। "किं प्रियं "चकार अकार्षीत् । "यस्मै वृषाकपये "पुष्टिमत्= पोषयुक्तं "वसु= धनम् "अर्यो “वा उदार इव स त्वं "नु क्षिप्रम् “इरस्यसीत् प्रयच्छस्येव । यः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

"अनुवाद भाष्य :-५=“मे मह्यमिन्द्राण्यै “तष्टानि यजमानैः कल्पितानि “प्रिया प्रियाणि “व्यक्ता व्यक्तान्याज्यैर्विशेषेणाक्तानि हवींषि कश्चित् वृषाकपेर्विषये वर्तमानः "कपिः “व्यदूदुषत्= दूषयामास । ततोऽहम् “अस्य तत्कपिस्वामिनो वृषाकपेः “शिरो “नु क्षिप्रं "राविषं लुनीयाम् । "दुष्कृते दुष्टस्य कर्मणः कर्त्रे वृषाकपयेऽस्मै {"सुगं= सुखं} न "भुवम् अहं न भवेयम् । अस्मै सुखप्रदात्री न भवामीत्यर्थः । अस्या मम पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१।

"अनुवाद :-भाष्य 6-“मत् मत्तोऽन्या "स्त्री नारी "सुभसत्तरा अतिशयेन सुभगा "न "भुवत् न भवति । नास्तीत्यर्थः । किंच मत्तोऽन्या स्त्री "सुयाशुतरा अतिशयेन सुसुखातिशयेन सुपुत्रा वा "न भवति । तथा च मन्त्रान्तरं -- ददाति मह्यं यादुरी =याशूनां =भोज्या शता' (ऋ. सं. १. १२६. ६) इति । किंच “मत् मत्तोऽन्या “प्रतिच्यवीयसी पुमांसं प्रति शरीरस्यात्यन्तं च्यावयित्री “न अस्ति । किंच मत्तोऽन्या स्त्री “सक्थ्युद्यमीयसी संभोगेऽत्यन्तमुत्क्षेप्त्री “न अस्ति । न मत्तोऽन्या काचिदपि नारी मैथुनेऽनुगुणं!

अयं शरारु:) यह घातक  (माम्) मुझको (अवीराम् इव) अबला की भाँति (अभि मन्यते) मानता है ।(वीरिणी अस्मि) वीराङ्गना हूँ (इन्द्रपत्नी) मैं इन्द्र की पत्नी हूँ (मरुत् सखा)  मरुत जिनके मित्र है। (इन्द्रः)  (विश्वस्मात् उत्तर:) संसार में सबसे श्रेष्ठ है।

"अनुवाद :- मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।

"यह बहुत रज वाली रमणी मुझ सुना राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्ट हैं।६।

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वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।

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"इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है!

इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 

इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-

"नाहमिन्द्राणि शरण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते।‘‘

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ब्याज पर उधार में दिए जाने वाली वस्तुओं में स्वर्ण, अन्न और गायों के साथ स्त्रियों का भी उल्लेख आता है। 

सम्भवतः इसी कारण पी0वी0 काणे जी लिखते हैं, ‘‘ऋग्वेद (1.109.12) गलत सन्दर्भ), मैत्रायाणी संहिता (1.10.1), निरूक्त (6.9,1.3) तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.7,10) आदि के अवलोकन से यह विदित होता है कि प्राचीन काल में विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था।‘‘ 

अथर्ववेदः/ काण्डं २०/सूक्तम् १२६-


अथर्ववेदः - काण्डं २०
सूक्तं २०.१२६
वृषाकपिरिन्द्राणी च।

दे. इन्द्रः। छ. पङ्क्तिः
वृषाकपिसूक्तम्

          (अथर्ववेद  20/126)
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१॥

परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२॥

किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥३॥

यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥

प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्।
शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥

न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत्।
न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥६॥

उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्गं भविष्यति ।
भसन् मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥

किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥

अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥९॥

संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥

इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥

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नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते ।
यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥

वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥

उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंसतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥

वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्।
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥

न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्।
सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत्।
असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥

अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन् दासमार्यम् ।
पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥

धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहामुप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥

पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥

यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगं जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥

पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥

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॥७-एवमिन्द्राण्या शप्तो वृषाकपिर्ब्रवीति । “उवे इति संबोधनार्थो निपातः । हे "अम्ब= मातः “सुलाभिके= शोभनलाभे त्वया "यथैव येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव तत् "अङ्ग क्षिप्रं "भविष्यति भवतु । किमनेन त्वदनुप्रीतिकारिणा ग्रहेण मम प्रयोजनम् । किंच "मे मम पितुः त्वदीयो “भसत् भग उपयुज्यताम्। किंच मम पितुस्त्वदीयं "सक्थि चोपयुज्यताम् । किंच "मे मम पितरमिन्द्रं त्वदीयं "शिरः च प्रियालापेन “वीव यथा कोकिलादिः पक्षी तद्वत् “हृष्यति हर्षयतु । मम पिता “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः ॥

"अनुवाद :-इस प्रकार इन्द्राणी के द्वारा बुरा भला कहा गया वृषाकपि कहता है। हे माता ! सुन्दर लाभ में जिस प्रकार तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाए तुम्हारे इस प्रेम करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिये तुम्हारी यौनि  उपयुक्त हो। और मेरे पिता के लिए तुम्हारी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता को तुम्हारा सिर प्रेमालाप से कोयल आदि पक्षीयों की भाँति  हर्षित करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में उत्तम है।७।

 ।८-क्रुद्धामिन्द्र उपशमयति । हे “सुबाहो हे =शोभनबाहो{ "स्वङ्गुरे= शोभनाङ्गुलिके} “पृथुष्टो पृथुकेशसंघाते “पृथुजघने विस्तीर्णजघने "शूरपत्नि वीरभार्ये हे इन्द्राणि “त्वं "नः अस्मदीयं “वृषाकपिं “किं किमर्थम् "अभ्यमीषि अभिक्रुध्यसि । एकः किंशब्दः पूरणः । यस्य पिता “इन्द्रः अहं “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

"अनुवाद :-

॥९-पुनरिन्द्रमिन्द्राणी ब्रवीति ।“शरारुः= घातुको मृगः “अयं वृषाकपिः “माम् इन्द्राणीम् “अवीरामिव "अभि "मन्यते विजानाति । "उत अपि च “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्या "अहम् इन्द्राणी “वीरिणी पुत्रवती " *मरुत्सखा मरुद्भिर्युक्ता च "अस्मि भवामि ।*

अंग्रेजी अनुवाद:

“[ इंद्राणी बोलती है]: यह क्रूर पशु ( वृशाकापि ) मुझे एक ऐसे स्त्री के रूप में तुच्छ जानता है जिसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं , मरुतों की मित्र  ; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।”

सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य (ऋग्वेद 10/86/9)

[इंद्राणी बोलती है]: यह जंगली जानवर (वृषाकपि) मुझे ऐसे तुच्छ समझता है जैसे कि उसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं, मरुतों की मित्र हूं; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।

"अनुवाद :-

१०-नारी= स्त्री “ऋतस्य= सत्यस्य "वेधाः= विधात्री “वीरिणी= पुत्रवती “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्येन्द्राणी “संहोत्रं स्म समीचीनं यज्ञं खलु “समनं= संग्रामं “वा। समितिः समनम्' इति संग्रामनामसु पाठात् । "अव प्रति “पुरा “गच्छति । “महीयते स्तोतृभिः स्तूयते च । तस्या मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ २ ॥

"अनुवाद :-

 ॥११-अथेन्द्राणीमिन्द्रः स्तौति । "आसु सौभाग्यवत्तया प्रसिद्धासु "नारिषु स्त्रीषु स्त्रीणां मध्ये “इन्द्राणीं “सुभगां सौभाग्यवतीम् "अहम् इन्द्रः “अश्रवम् अश्रौषम्। किंच “अस्याः इन्द्राण्याः “पतिः पालकः "विश्वस्मात् "उत्तरः उत्कृष्टतरः "इन्द्रः “अपरं “चन अन्यद्भूतजातमिव "जरसा =वयोहान्या ("नहि "मरते न खलु म्रियते )

। यद्वा । इदं वृषाकपेर्वाक्यम् । तस्मिन् पक्षे त्वहमिति शब्दो वृषाकपिपरतया योज्यः । अन्यत्समानम् ॥

"अनुवाद :-

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१३-हे वृषाकपायि । कामानां वर्षकत्वादभीष्टदेशगमनाच्चेन्द्रो वृषाकपिः । तस्य पत्नि । यद्वा । वृषाकपेर्मम मातरित्यर्थः । “रेवति धनवति "सुपुत्रे शोभनपुत्रे "सुस्नुषे शोभनस्नुषे हे इन्द्राणि "ते तवायम्

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"इन्द्रः {"उक्षणः= Oxen सेचन समर्थान् “आदु= अद् भक्षणे) अनन्तरमेव । शीघ्रमेवेत्यर्थः । पशून्- “घसत्= प्राश्नातु । किंच “काचित्करम् । कं= सुखम् । तस्याचित् संघः । तस्करं हविः "प्रियम् इष्टं कुर्विति शेषः । किंच ते पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् “उतरः । तथा च यास्कः - ‘ वृषाकपायि रेवति सुपुत्रे मध्यमेन {सुस्नुषे}  पुत्रवधू-

माध्यमिकया वाचा । स्नुषा साधुसादिनीति वा साधुसानिनीति वा । प्रियं कुरुष्व सुखाचयकरं हविः सर्वस्माद्य इन्द्र उत्तरः' (निरु. १२, ९) इति

"अनुवाद :-कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल) को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।

॥१४-अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे =मदर्थं “पञ्चदश पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं= विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः= वृषभान् "साकं= सह मम भार्ययेन्द्राण्या। प्रेरिता यष्टारः "पचन्ति =। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव =“इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा= उभौ “कुक्षी “पृणन्ति= सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः ॥

इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।

१५-अथेन्द्राणी ब्रवीति ।"{तिग्मशृङ्गः =तीक्ष्णशृङ्गः शेप: वा} "वृषभो "न यथा वृषभः "यूथेषु गोसंघेषु “अन्तः =मध्ये “रोरुवत्= शब्दं कुर्वन् गा अभिरमयति- (मैथुन करोति) तथा हे इन्द्र त्वं मामभिरमय इति शेषः । किंच “हे इन्द्र "ते =तव "हृदे हृदयाय "मन्थः =दध्नो मथनवेलायां शब्दं कुर्वन् “शं शंकरो भवत्विति शेषः । किंच "ते तुभ्यं "यं सोमं “भावयुः भावमिच्छन्तीन्द्राणी “सुनीति अभिषुणोति सोऽपि शंकरो भववित्यर्थः । मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१५ ॥

"अनुवाद :-

इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।

१६- हे इन्द्र "सः जनः “न “ईशे मैथुनं कर्तुं नेष्टे न शक्नोति "यस्य जनस्य “कपृत् =शेपः “सक्थ्या= सक्थिनी “अन्तरा "रम्बते= लम्बते । "सेत् स एव स्त्रीजने “ईशे =मैथुनं कर्तुं शक्नोति “यस्य जनस्य “निषेदुषः शयानस्य "रोमशम् उपस्थं "=विज़म्भते विवृतं भवति । यस्य च पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् “उत्तरः ॥

अश्लील अर्थ-

"अनुवाद :-हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग विस्तृत हो जाता है। इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

(अथर्ववेद में भी  - काण्ड » 20; सूक्त » 126; ऋचा » 16 है।

सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) लिंग (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जंघाओं के बीच (रम्बते) नीचे लटकता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए  हुए]पुरुष का (रोमशम्) रोमवाला लिंग।(विजृम्भते) जम्हाई लेता है फैलता है, (इन्द्रः) इन्द्र (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१६॥

सक्थि= उरु( जाँघ) (सज्यते इति । सन्ज सङ्गे + “ असिसञ्जिभ्यां क्थिन् ।  “ उणा० ३ । १५४ । क्थिन् । )  ऊरुः ।  इत्यमरः कोश ॥  (यथा   मार्कण्डेये ।  १८ ।  ४९ । “ नृणां पदे स्थिता लक्ष्मीर्निलयं संप्रयच्छति । सक्थ्नोश्च संस्थिता वस्त्रं तथा नानाविधं वसु ॥ ) शकटावयवविशेषः । इत्युणादिकोषः ॥

सक्थि शब्द यूरोपीय तथा ईरानी ईराकी भाषाओं में भी है।

Etymology-

From Proto-Indo-Iranian *sáktʰiš,(सक्थि) from Proto-Indo-European *sokʷHt-i-s (“thigh”). Cognate with Avestan 𐬵𐬀𐬑𐬙𐬌‎ (haxti, “thigh”), Old Armenian ազդր (azdr), Middle Persian [script needed] (h(ʾ)ht' /⁠haxt⁠/, “thigh”), Ossetian агъд (aǧd), Hittite [Term?] (/⁠šakuttai⁠/).

Noun-

सक्थि • (sákthi) n

  1. the thigh, thigh-bone quotations 
  2. the pole or shafts of a cart
  3. (euphemistic, in the dual) the female genitals quotations 

Declension-

Neuter i-stem declension of सक्थि (sákthi)

Further reading

  • Monier Williams (1899), “सक्थि”, in A Sanskrit–English Dictionary, […], new edition, Oxford: At the Clarendon Press, →OCLC, page 1124.
कपृत्- लिंग![संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "लिंग।"
 < रोमश[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, नपुंसकलिंग"वल्व =गर्भे (उल्व- यौनि भग)
"अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।

शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।

अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग विजृम्भित होता है, वह ही स्त्रीयोंपर अधिकार कर पाता  है ॥१७॥

शृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः । उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः शृङ्गार इष्यते ॥

शृङ्ग= न॰ शॄ--गन् पृषो॰ मुम् ह्रस्वश्च।
१ पर्वतोपरिभागेसातौ अमरः कोश।
२ प्रभुत्वे
३ चिह्ने
४ जलक्रीडार्थयन्त्रभेदे(पिचकारी) लिङ्गे च। यूरोपीय  रूप सिरञ्ज- syringe से साम्य-
५ पश्वादीनां विषाणे (शृङ्गा)
६ उत्कर्षे चमेदि॰।
७ ऊर्ये
८ तीक्ष्णे
९ पद्मे च शब्दर॰
१० महिष- शृङ्गनिर्मितवाद्यभेदे (शिङ्ग)
११ कामोद्रेके साहित्यदर्पण- शृङ्गार शब्दे दृश्यम्।
१२ कूर्चशीर्षकवृक्षे पु॰ मेदिनीकोश।

syringe (noun) (latin-suringa)  (Greek-syringa,)

सिरिंज (संज्ञा) संकीर्ण ट्यूब," जो"तरल  धारा इंजेक्ट करने के लिए 15-वीं सदी की शुरुआत में.प्रयोग होता था (पहले यह  सुरिंगा, 14वीं सदी के अंत में था), जो लेट लैटिन के (सिरिंज,)(श्रृंगा-) से ग्रीक के  (सिरिंज,) सिरिंक्स से आया।

"ट्यूब, होल, चैनल, शेफर्ड पाइप," सिरिजिन से संबंधित "पाइप, सीटी, फुसफुसाहट के लिए" ,'' श्रृँग - सींग -से सम्बन्धित हैं।

१८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं पूर्णम् "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

बैल पकाने का जिक्र-

−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः) जलाने के लिये ईंधन के भरे शकट-छकड़े को इन हत्या के साधनों को अपने अधीन कर लिया, ॥१८॥

______________________

"अनुवाद : भाष्य-

 ॥१९-अथेन्द्रो ब्रवीति । "विचाकशत् पश्यन् यजमानान् “दासम्= उपक्षपयितारम् {सुरम्= "आर्यम् }अपि च "विचिन्वन् = पृथक्कुर्वन् "अयम् अहमिन्द्रः “एमि= यज्ञं प्रति गच्छामि। यज्ञं गत्वा च “पाकसुत्वनः । पचतीति =पाकः । सुनोतीति =सुत्वा । हविषां पक्तुः सोमस्याभिषोतुर्यजमानस्य पाकेन विपक्वेन मनसा सोमस्याभिषोतुर्वा यजमानस्य संबन्धिनं सोमं "पिबामि । तथा “धीरं धीमन्तं यजमानम् "अभि "अचाकशम्= अभिपश्यामि । योऽहम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः॥

"अनुवाद :-भाष्य-

॥२०"धन्व निरुदकोऽरण्यरहितो देशः । "कृन्तत्रं कर्तनीयमरण्यम् । "यत् यत् "च “धन्व "च कृन्तत्रं च भवति । मृगोद्वासमरण्यमेवंविधं भवति न त्वत्यन्तविपिनम् । तस्य शत्रुनिलयस्यास्मदीयगृहस्य च मध्ये "कति "स्वित् “ता तानि “योजना योजनानि स्थितानि । नात्यन्तदूरे तद्भवतीत्यर्थः । अतः "नेदीयसः अतिशयेन समीपस्थाच्छत्रुनिलयात् हे "वृषाकपे त्वम् "अस्तम् अस्माकं गृहं “वि “एहि विशेषेणागच्छ । आगत्य च "गृहान् यज्ञगृहान् "उप गच्छ । यतोऽहम् "इन्द्रः सर्वस्मादुत्कृष्टः ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।

एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः-- ‘यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या

 "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.


Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.

Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.

Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.

Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.

Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.

Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.

Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


२१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।

एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः---- ‘ यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या

 "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.


Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.

Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.

Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.

Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.

Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.

Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.

Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


 
 हित्ती पौराणिक कथा - , हुर्रियन और हित्ती प्रभावों का मिश्रण है । मेसोपोटामिया( ईरान ईराॐ और कनानी प्रभाव हुर्रियन पौराणिक कथाओं के माध्यम से अनातोलिया की पौराणिक कथाओं में प्रवेश करता हैं। हित्ती निर्माण मिथक क्या रहा होगा, इसका कोई ज्ञात विवरण नहीं है, लेकिन विद्वानों का अनुमान है कि हिट्टियन मातृ देवी, जिसे नवपाषाण स्थल कैटालहोयुक से ज्ञात "महान देवी" अवधारणा से जुड़ा माना जाता है , अनातोलियन तूफान की पत्नी हो सकती है। भगवान (जो थोर , इंद्र और ज़ीउस जैसी अन्य परंपराओं के तुलनीय देवताओं से संबंधित माना जाता है )।

यूरोपीय पुरातन कथाओं में इन्द्र को "एण्ड्रीज" (Andreas) के रूप में वर्णन किया गया है । जिसका अर्थ होता है शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ।

  🌅⛵ 

Andreas - son of the river god peneus and founder of orchomenos in Boeotia।

Andreas Ancient Greek - German was the son of river god peneus in Thessaly from whom the district About orchomenos in Boeotia was called Andreas in Another passage pousanias speaks of Andreas( it is , however uncertain whether he means the same man as the former) as The person who colonized the island of Andros .... 

अर्थात् इन्द्र थेसिली में एक नदी देव पेनियस का पुत्र था । जिससे एण्ड्रस नामक द्वीप नामित हुआ 

पेनिस - लिंगेन्द्रीय का वाचक है। _____________________________

"डायोडॉरस के अनुसार .." ग्रीक पुरातन कथाओं के अनुसार एण्ड्रीज (Andreas) रॉधामेण्टिस (Rhadamanthys) से सम्बद्ध था । रॉधमेण्टिस ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र और मिनॉस (मनु) का भाई था । 

ग्रीक पुरातन कथाओं में किन्हीं विद्वानों के अनुसार एनियस (Anius) का पुत्र एण्ड्रस( Andrus) के नाम से एण्ड्रीज प्रायद्वीप का नामकरण करता है।

जो अपॉलो का पुजारी था  परन्तु पूर्व कथन सत्य है । ग्रीक भाषा में इन्द्र शब्द का अर्थ शक्ति-शाली पुरुष है । जिसकी व्युत्पत्ति- ग्रीक भाषा के ए-नर (Aner) शब्द से हुई है ।

जिससे एनर्जी (energy) शब्द विकसित हुआ है। संस्कृत भाषा में{ अन् =श्वसने प्राणेषु च }के रूप में  वैदिक कालीन धातु विद्यमान है ।

जिससे प्राण तथा अणु जैसे शब्दों का विकास हुआ है।

कालान्तरण में वैदिक  भाषा में नर शब्द भी इसी रूप से व्युत्पन्न हुआ .... वेल्स भाषा में भी नर व्यक्ति का वाचक है । फ़ारसी मे नर शब्द तो है ।

परन्तु इन्द्र शब्द नहीं है  इनदर है। वेदों में इन्द्र को वृत्र का शत्रु बताया है।यह सर्व विदित है।

वृत्र को केल्टिक माइथॉलॉजी मे (ए-बरटा) ( Abarta ) कहा है । जो वहाँ दनु और त्वष्टा परिवार का सदस्य है । 

इन्द्रस् देवों का नायक अथवा यौद्धा था ।

भारतीय पुरातन कथाओं में त्वष्टा को इन्द्र का पिता बताया है।

 शम्बर को ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के सूक्त १४ / १९ में कोलितर कहा है पुराणों में इसे दनु का पुत्र कहा है । जिसे इन्द्र मारता है । ऋग्वेद में इन्द्र पर आधारित २५० सूक्त हैं । यद्यपि कालान्तरण में सुरों के नायक को ही इन्द्र उपाधि प्राप्त हुई ।

अत: कालान्तरण में भी जब देवोपासक  भू- मध्य रेखीय भारत भूमि में आये ... जहाँ भरत अथवा वृत्र की अनुयायी व्रात्य ( वारत्र )नामक जन जाति पूर्वोत्तरीय स्थलों पर निवास कर रही थी।

 भारत में भी यूरोप से आगत सुरों की सांस्कृतिक मान्यताओं में भी स्वर्ग उत्तर में है । और नरक दक्षिण में है ।

स्मृति रूप में अवशिष्ट रहीं ... और विशेष तथ्य यहाँ यह है कि नरक के स्वामी यम हैं यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई ।

नॉर्स माइथॉलॉजी के ग्रन्थ प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है। 

यमीर यम ही यूरोपीय रूपान्तरण है । हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim) शब्द हिम के लिए आज भी यथावत है। 

नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir) Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river earth from his flesh and from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair the trees from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives" _______________________________

 (Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है। यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए .. ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी । वहाँ यम को यम रूप में ही नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है। 

जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी 

बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाऐं करते रहे .

पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था । आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ।

मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् (Mannus) कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे ! मेन्नुस mannus( थौथा) (त्वष्टा)--(Thautha ) की प्रथम सन्तान थे ! 

मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस (tacitus) के अनुसार---- Tacitus wrote that mannus was the son of tuisto and The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones .... ____________________________________ in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations- Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-__and that those names are genuine and Ancient Germania ____________________________________________

Chapter 2 ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था । जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch) था । जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव ही है ।

 टेकिटिस लिखता है , कि Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples...... ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto--- The Core meaning -- double अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में  मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth) अथवा tehoti ,Djeheuty कहा गया जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था । ____________________________________

आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l जो देवता (सुर ) जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे । यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए 

इन्हीं की उपशाखाऐं  वेल्स (wels) केल्ट (celt )तथा ब्रिटॉन (Briton )के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र  का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है। जो थौथा (thuatha) (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .

Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी ।

 वस्तुतःशुट्र फ्राँस के मूल निवासी गॉलों का ही वर्ग था , जिनका तादात्म्य भारत में शूद्रों से प्रस्तावित है , ये कोल( कोरी) और शूद्रों के रूप में है ।

जो मूलत: एक ही जन जाति के विशेषण हैं एक तथ्य यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में जर्मन आर्यों और गॉलों में केवल सांस्कृतिक भेद ही था जातीय भेद कदापि नहीं ।

 क्योंकि आर्य शब्द का अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है । यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में इसका यही अर्थ है । 

बाल्टिक सागर से दक्षिणी रूस के पॉलेण्ड त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर बॉल्गा नदी के द्वारा कैस्पियन सागर होते हुए भारत ईरान आदि स्थानों पर इनका आगमन हुआ । 

आर्यों के ही कुछ क़बीले इसी समय हंगरी में दानव नदी के तट पर परस्पर सांस्कृतिक युद्धों में रत थे ।

भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है। 

और भारत देश के नाम करण कारण यही भरत जन जाति थी ।भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के ऐंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात् इंग्लेण्ड कर दिया था और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।

इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे। जिसके नाम से भारत शब्द बना।

इस लिए द्रविड और शूद्र शब्द भी यूरोपीय मूल के हैं।

आर्य द्रविड और शूद्र थ्योरी सत्यनिष्ठ नहीं है।

दिया. इसलिए अधिकतर लोग संस्कृत भाषा बोलने लगे.

संस्कृत बोलने वाले सीरिया के इस साम्राज्य के बारे में पहले जानते थे।

इंडो-आर्यन परम्परा में . इन्द्र नाम की सबसे पुरानी तारीख़ी घटना 14-वीं सदी ईसापूर्व की बोगाज़कोय की प्रसिद्ध हित्ती-मितानी संधि में है। जहां मितन्नी( मितज्ञु) दैवीय गवाहों के रूप में मित्र-वरुण, इंद्र और नासत्य का आह्वान करते हैं 

यह सन्देश कीलाक्षर लिपि में है। जो उस समय सुमेर की लिपि थी।

मितन्नी "एमोराइट-(मरुत) तथा हित्ती ये सुमेरियन जातियाँ थी।

यदु और तुर्वसु को जब पुरोहितों ने नहीं छोड़ा तो उनके वंशज कृष्ण को कैसे छोड़ के।

वेदों में यदु और तुर्वसु का नकारात्मक वर्णन-
स॒त्यं तत्तु॒र्वशे॒ यदौ॒ विदा॑नो अह्नवा॒य्यं ।  व्या॑नट् तु॒र्वणे॒ शमि॑ ॥२७।
(ऋग्वेद 8/45/27) 
(पद-पाठ)
स॒त्यम् । तत् । तु॒र्वशे॑ । यदौ॑ । विदा॑नः । अ॒ह्न॒वा॒य्यम् ।
वि । आ॒न॒ट् । तु॒र्वणे॑ । शमि॑ ॥२७।।
(सायण-भाष्य)
“तुर्वशे राज्ञि “यदौ च यदुनामके च राज्ञि “तत् प्रसिद्धं यागादिलक्षणं “शमि कर्म  शची शमी' इति कर्मनामसु पाठात् । "सत्यं परमार्थं "विदानः जानंस्तयोः प्रीत्यर्थम् अह्नवाय्यम् अह्नवाय्यनामकं तयोः शत्रुं 
“तुर्वणे= संग्रामे “व्यानट्= व्याप्तवान् ।।
(पद का अर्थान्वय)
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अग्निना । तुर्वशम् । यदुम् । पराऽवतः । उग्रऽदेवम् । हवामहे ।   अग्निः । नयत् । नवऽवास्त्वम् । बृहत्ऽरथम् । तुर्वीतिम् । दस्यवे । सहः ॥१८।।
(सायण-भाष्य)
“अग्निना सहावस्थितान् तुर्वशनामकं यदुनामकम् उग्रदेवनामकं च राजर्षीन् "परावतः =दूरदेशात् "हवामहे =आह्वयामः ।                                  स च "अग्निः नववास्तुनामकं बृहद्रथनामकं तुर्वीतिनामकं च राजर्षीन् "नयत्= इहानयतु । कीदृशोऽग्निः ।                                       "दस्यवे "सहः अस्मदुपद्रवहेतोश्चोरस्याभिभविता ॥{ नयत् । ‘णीञ् प्रापणे'। लेटि अडागमः  इतश्च लोपः' इति इकारलोपः  } नववास्त्वम् । नवं वास्तु यस्यासौ नववास्तुः । ‘ वा छन्दसि' इत्यनुवृत्तेः अमि पूर्वत्वाभावे यणादेशः । बृहद्रथम् । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥
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प्रियासः । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । मदेम । शरणे । सखायः । नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥८।
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
 हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण  करने वाले उनका नाश करने  बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 
(ऋग्वेद-7/19 /8)

हे "मघवन्= धनवन्निन्द्र “ते =तव "अभिष्टौ =अभ्येषणे "नरः =स्तोत्राणां नेतारो वयं "सखायः समानख्यातयः “प्रियासः =प्रियाश्च सन्तः “शरणे ="इत् गृह एव “मदेम= मोदेम ।                    किञ्च “अतिथिग्वाय । पूजयातिथीन् गच्छतीत्यतिथिग्वः । 

तस्मै सुदासे दिवोदासाय= वास्मदीयाय राज्ञे “शंस्यं= शंसनीयं सुखं "करिष्यन् =कुर्वन् 
"तुर्वशं राजानं "नि "शिशीहि =वशं कुरु । "याद्वं च राजानं “नि शिशीहीत्यर्थः ॥

सायण-भाष्यम् :-
तृतीयेऽनुवाके सप्त सूक्तानि । तत्र ‘अया वीती' इति त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अमहीयुर्नामाङ्गिरस ऋषिः । गायत्री छन्दः । पवमानः सोमो देवता । तथा चानुक्रान्तम्- अया वीती त्रिंशदमहीयुः' इति । उक्तो विनियोगः ॥

अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इंदो॒ मदे॒ष्वा ।अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ॥१।।
पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
(ऋग्वेद9/61/1-2)

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।

शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।
पदपाठ-
अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ ।
अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥१।।

(सायण-भाष्य)
हे “इन्दो= सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते= तव “यः रसः “मदेषु= संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन =जघान  अमुं सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥

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पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।

पुरः॑ । स॒द्यः । इ॒त्थाऽधि॑ये । दिवः॑ऽदासाय । शम्ब॑रम् ।
अध॑ । त्यम् । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् ॥२।
(पद का अर्थान्वय)
 (इत्थाधिये दिवोदासाय) दिवोदास के लिए(शम्बरम्) शम्बर को (त्यम् तुर्वशम् यदुम्) और यदु और तुर्वसु को (अध) (पुरः) पुर को ध्वंसन करो ॥२॥

(ऋग्वेद9/61/1-2)

“सद्यः एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम् "अध अथ =“त्यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च । 

अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।  वह भी गोपों के रूप में सम्भवत: वैदिक सन्दर्भ में दास - दाता का वाचक रहा परन्तु लोकिक संस्कृत में दास पराधीन और गुलाम का वाचक रहा जो शूद्र वर्ण में सम्मिलित किए गये।

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी   " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 

(ऋग्वेद १०/६२/१०)

यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।

प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ   नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि   अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा

सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७

हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन (शमन) कर डाला ।

अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।

“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है 

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/

हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । 
तुम मुझे क्षीण न करो 

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शतमहं तिरिन्दिरे सहस्रं पर्शावा ददे ।
राधांसि याद्वानाम् ॥४६॥(ऋग्वेद ८/६/४६)

(सायण-भाष्य)
इदमादिकेन तृचेन तिरिन्दिरस्य राज्ञो दानं स्तूयते । “पर्शौ परशुनाम्नः पुत्रे । उपचारज्जन्ये जनकशब्दः । “तिरिन्दिरे एतत्संज्ञे राजनि “याद्वानाम् । यदुरिति मनुष्यनाम । यदव एव याद्वाः । स्वार्थिकस्तद्धितः । तेषां मध्ये “अहं “शतं शतसंख्याकानि “सहस्रं सहस्रसंख्याकानि च “राधांसि धनानि “आ “ददे स्वीकरोमि । यद्वा । याद्वानां यदुकुलजानामन्येषां राज्ञां स्वभूतानि राधांसि बलादपहृतानि तिरिन्दिरे वर्तमानान्यहं प्राप्नोमि ।।

त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ।
ददुष्पज्राय साम्ने ॥४७॥ऋग्वेद ८/६/
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त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ।
द॒दुष्प॒ज्राय॒ साम्ने॑ ॥४७।।

सायण-भाष्य-
पूर्वस्यामृचि स्वसंप्रदानकं दानमुक्तम् । अधुनान्येभ्योऽप्यृषिभ्यस्तिरिन्दिरो बहु धनं दत्तवानित्याह । 

“अर्वतां गन्तॄणामश्वानां “त्रीणि "शतानि "गोनां गवां “दश दशगुणितानि "सहस्रा सहस्राणि च "पज्राय स्तुतीनां प्रार्जकाय “साम्ने एतत्संज्ञायर्षये । यद्वा । साम्ने । साम स्तोत्रम् । तद्वते पज्राय पज्रकुलजाताय कक्षीवते । “ददुः तिरिन्दिराख्या राजानो दत्तवन्तः ।।

उदानट् ककुहो दिवमुष्ट्राञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ॥४८॥(ऋग्वेद ८/६/४८)

उत् । आ॒न॒ट् । क॒कु॒हः । दिव॑म् । उष्ट्रा॑न् । च॒तुः॒ऽयुजः॑ । दद॑त् ।
श्रव॑सा । याद्व॑म् । जन॑म् ॥४८।।
सायण-भाष्य-
अयं राजा “ककुहः उच्छ्रितः सन् “श्रवसा कीर्त्या “दिवं स्वर्गम् "उदानट् उत्कृष्टतरं व्याप्नोत् । किं कुर्वन् । "चतुर्युजः चतुर्भिः स्वर्णभारैर्युक्तान् “उष्ट्रान् “ददत् प्रयच्छन् । तथा “याद्वं “जनं च द्रासत्वेन प्रयच्छन् ॥ ॥ १७ ॥
__________   

यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
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त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीरृ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः ।
प्र यत्स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥१२।।

पदपाठ-
त्वम् । धुनिः । इन्द्र । धुनिऽमतीः । ऋणोः । अपः । सीराः । न । स्रवन्तीः ।
प्र । यत् । समुद्रम् । अति । शूर । पर्षि । पारय । तुर्वशम् । यदुम् । स्वस्ति ॥१२

हे "इन्द्र “धुनिः शत्रूणां कम्पयिता “त्वं “धुनिमतीः धुनिर्नामासुरो यासु निरोधकतया विद्यते ताः “अपः उदकानि "सीरा “न नदीरिव “स्रवन्तीः प्रवहन्तीः “ऋणोः अगमयः ।
धुनिं हत्वा तेन निरोधितान्युदकानि प्रवाहयतीत्यर्थः ।
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 हे “शूर वीरेन्द्र “यत् यदा “समुद्रम् “अति अतिक्रम्य “प्र “पर्षि प्रतीर्णो भवसि तदा समुद्रपारे तिष्ठन्तौ “तुर्वशं “यदुं च "स्वस्ति क्षेमेण “पारय अपारयः । समुद्रमतारयः ।।
अनुवाद:-
हमारे कल्याण के लिए यदु और तुर्वसु को समुद्र के दूसरी पार करते हो। अर्थात्  क्यों पुरोहितों को आशंका है कि ये दौंनों कहीं आँखों के सामने न रहें।

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"य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम् ।
इन्द्रः स नो युवा सखा ॥१॥

 (ऋग्वेद-6/45/1)
इन्द्रः॑। सः। नः॒ । युवा॑। सखा॑ ॥१
यः । आ । अनयत् । पराऽवतः । सुऽनीती । तुर्वशम् । यदुम् ।
यः इन्द्रः "तुर्वशं “यदुं चैतत्संज्ञौ राजानौ शत्रुभिर्दूरदेशे प्रक्षिप्तौ “सुनीती सुनीत्या शोभनेन नयनेन “परावतः तस्माद्दूरदेशात् “आनयत् अनीतवान् “युवा तरुणः “सः “इन्द्रः “नः अस्माकं “सखा भवतु ।।

पदों का अर्थ:-(यः) जो (युवा) जवानी युक्त (इन्द्रः) इन्द्र देव (सुनीती) सुन्दर न्याय से (परावतः)- दूरदेशात्  दूर देश से भी  -परा+अव--वा० अति । १ दूरदेशे निघण्टुः (तुर्वशम्)  तुर्वसु को  (यदुम्) यदु को (आ) सब प्रकार से (अनयत्) लङ्(अनद्यतन भूत) वह इन्द्र ले गया । (सः) वह (नः) हम लोगों का (सखा) मित्र हो ॥१॥

ऋग्वेद 6.45.1 व्याकरण का अंग्रेजी विश्लेषण]

य < यः < यद्[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"
अनयत ्<  < √ नी [क्रिया], एकवचन, अपूर्ण" वापस करना; निकालना; निकालना।"

परावतः < परवत्[संज्ञा], विभक्ति, एकवचन, स्त्रीलिंग"दूरी; ।"
सुनीति < सुनीति [संज्ञा], अच्छी नीति, एकवचन, स्त्रीलिंग“सुनीति।”
तुर्वश< तुर्वशुम्< 

[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

यदुम् < यदु

[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

“यदु; यदु।” इंद्रः < इंद्र

[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

सा < तद् [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

"यह; वह, वह, यह (निरर्थक सर्वनाम); संबंधित(ए); वह; कर्तावाचक; तब; विशेष(ए); संबंधकारक; वाद्य; आरोपवाचक; वहाँ; बालक [शब्द]; संप्रदान कारक; एक बार; वही।"

नहीं < नः <हमको

[संज्ञा], संबंधवाचक, बहुवचन"मैं; मेरा।"

युवा < युवान[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "युवा; युवा।”
सखा < सखी

[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग; साथी; सखी [शब्द]।”

"उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः ।
इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥
हे इन्द्र ! उन दौंनों यदु और तुर्वसु को तुमने बन्धी बनाया और दूर समुद्र पार कर दिया। विद्वान इसे जानते हैं।१७।
पदों के अर्थ:-
उत अपि च "अस्नातारा= अस्नातारौ।  इन्द्रेण परिबद्धौ "त्या =त्यौ तौ= तौ द्वे । “तुर्वशायदू तुर्वशनामानं यदुनामकं च राजानौ “शचीपतिः= शचीन्द्रस्य भार्या । 
तस्याः पतिर्भर्ता "विद्वान् -सकलमपि जानन् “इन्द्रः "अपारयत्=  पारे दूरे अकरोत् - पार दूर कर दिया।
____________________
ऋग्वेदः सूक्तं ४,/३०/१७

ष्णै- धातु के रूप द्विवचन वैदिक रूप अस्ना तारा- दौंनों  को बाँध दिया।
जबकि ष्ना- स्ना धातु का भी यही समान  अनद्यतन भूत काल का रूप  सेना धातु का वैदिक है।
अत: अनुवादक भ्रमित हैं कि स्नातारा- स्नान अर्थ में है। जबकि ष्णै- बन्धने वेष्टने वा। वेष्टन= घेरने या लपेटने की क्रिया या भाव है।

क्यों कि पूर्वी ऋचाओं में यदु और तुर्वसु को अपने वश में करने लिए ब्राह्मण पुरोहित इन्द्र से निरन्तर प्रार्थना करते हैं ।
फिर इन्द्र कि द्वारा यदु और तुर्वशु में एक का ही राज्याभिषेक होना चाहिए । परन्तु यहाँ यदु-तुर्वसु दौंनों का राज्याभिषेक कैसे हो सकता है ? अत: अस्नातारा= ष्णै = वैष्टने धातु का  लङ्(अनद्यतन भूत)का वैदिक द्विवचन रूप है। जिसका अर्थ है दौंनों को बाँध लिया लपेट लिया।

लुट्(अनद्यतन भविष्यत् ष्णै=बन्धने वेष्टने वा" )
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

दोनों धातुओं के समान रूप होने से अर्थ भ्रान्ति होना स्वाभाविक ही है।
लुट्(अनद्यतन भविष्यत् - ष्ना= शुचौ स्नाने वा" )
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

कृष्ण की अवधारणा भारत है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के मोहन -जोदारो में कृष्ण की बाल लीला सम्बन्धी भित्ति चित्र है।

वेदों में इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णित है।

अथर्ववेद-(20/137/7)
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् । सूक्तम् - (१३७)
"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
(इयानः) =चलता हुआ (अंशुमतीम्)=  यमुना नदी को । अव अतिष्ठत्= ठहरा है। (नृमणाः= नर  के समान मन वाले (इन्द्रः) इन्द्र  ने (तम् धमन्तम्) उस हाँफते हुए को (शच्या) शचि के साथ  (आवत्)-युद्ध किया ।
लङ्(अनद्यतन भूत)
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःआवत्=युद्ध किया 
(स्नेहितीः) स्नेहयुक्त (अप अधत्त) हटा लिया है ॥७॥
टिप्पणी:-
(धमन्तम्) =उच्छ्वसन्तम्।  पराभवेन दीर्घंश्वसन्तम्- उसास लेते हुए को।  (स्नेहितीः) स्नेहतिः स्नेहतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। स्वकीया मारणशीलाः सेनाः (नृमणाः) नेता के समान मन वाले- नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) -दूर हटा दिया-दूरे धारितवान् -निवर्तितवान् ॥

ऋग्वेद प्रथम एवम् अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन सायण भाष्य सहित-

ऋग्वेदः सूक्तं १.१०१
कुत्स आङ्गिरसः
देवता- इन्द्रः( १ गर्भस्राविण्युपनिषद्)। जगती, ८-११ त्रिष्टुप्

"प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥(ऋ०१/१०१/१)
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सायण का अर्थ-
हे ऋत्विजो ! स्तुति योग्य उन इन्द्र के लिए हवि रूप अन्न से युक्त स्तुति रूप वचन का उत्कृष्टता से उच्चारण करो !  जिन इन्द्र ने ऋजिश्वा नामक मित्र राजा के साथ कृष्ण नानक असुर के द्वारा गर्भवती उसकी स्त्रीयों का वध  किया था। अर्थात् कृष्ण नामक असुर को मारकर  उसके पुत्रों का जन्म न होने देने के लिए ही उसकी गर्भवती स्त्रियों का भी इन्द्र ने बध कर दिया था । रक्षा पाने के इच्छुक हम कामनाओं की वर्षा करने वाले और वज्र युक्त दक्षिण हाथ वाले मरुतों से युक्त उन इन्द्र का मित्रता के लिए आह्वान करते हैं।यहाँ मूल ऋचा में कृष्ण के लिए असुर शब्द नहीं है परन्तु सायण ने असुर विशेषण अपनी तरफ से जोड़ दिया है।

आंध्र " को " इंद्र " से लिया जाना चाहिए, जैसा कि फ़्रेंच में " आंद्रेई " है।
वह वज्र के नाम से जाना जाने वाला बिजली का वज्र धारण करता है और ऐरावत नामक सफेद हाथी पर सवार होता है। इंद्र सर्वोच्च देवता हैं और अग्नि के जुड़वां भाई हैं और उनका उल्लेख अदिति के पुत्र आदित्य के रूप में भी किया गया है। उनका घर स्वर्ग में मेरु पर्वत पर स्थित है।

इंद्र पारसी धर्म में एक देवता के नाम के रूप में प्रकट होता है । उन्हें बर्मीज़ में ðadʑá mɪ́ɴ , थाई में พระอินทร์ (Phra In), मलय में Indera, तेलुगु में ఇంద్రుడు (Indrudu), तमिल में இந்தி के नाम से जाना जाता है। ரன் (इंथिरन), चीनी में 帝释天 (दिशितिआन), और में जापानी के रूप में 帝釈天 (ताईशाकुटेन)।
वह वज्रपाणि से जुड़े हैं - मुख्य धर्मपाल या बुद्ध, धर्म और संघ के रक्षक और रक्षक जो पांच ध्यानी बुद्ध की शक्ति का प्रतीक हैं।

एक देवता के रूप में इंद्र अन्य इंडो-यूरोपीय देवताओं के सजातीय हैं; वे या तो थोर, पेरुन और ज़ीउस जैसे गरजने वाले देवता हैं, या डायोनिसस जैसे नशीले पेय के देवता हैं। मितन्नी के देवताओं में इंद्र (इंदारा) के नाम का भी उल्लेख किया गया है, जो एक हुरियन-भाषी लोग थे जिन्होंने लगभग 1500BC-1300BC तक उत्तरी सीरिया पर शासन किया था।

ऋग्वेद संहिता की ऋचाएँ वैदिक साहित्य के सबसे पुराने और जटिल साहित्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। 
(ऋग्वेद 1.101.1)

"प्र मंदिने पितुमद अर्चता वाको यः कृष्णगर्भा निर्हन्न ऋषिस्वना | अवस्यावो विष्वाणं वज्रदक्षिणं मारुतवन्तं सख्यय हवामहे। (ऋग्वेद १/१०१/१)
अनुवाद:-
“जो प्रसन्न है (प्रशंसा के साथ), उसे आहुतियों के साथ प्रणाम करो, जिसने ऋषिस्वन के साथ, कृष्ण की मूर्ति को नष्ट कर दिया ; सुरक्षा की इच्छा से, हम अपने मित्र बनने के लिए उसकी मांग करते हैं, जो (लाभों का) दाता है, जो अपने दाहिने हाथ में वज्र रखता है , उसकी देखभाल मारुति करता है।

सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य-
ऋजिश्वान एक राजा और इंद्र का मित्र था ; कृष्ण एक असुर थे, जिनमें उनके स्त्रियों की भी हत्या कर दी गई थी, ताकि उनका कोई भी संतान जीवित न रह सके। 

व्याकरणिक टिप्पणी:-
 प्र=
[विशेषक्रिया]
"की ओर; आगे।"
मंदिने=
[संज्ञा], मूलवाचक, एकवचन, पुल्लिंग
“नशीला पदार्थ; ताज़ा करने वाला।”

पितुमद < पितुमत्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग
"आहार।"

अर्चता= अर्च्-स्तुतौ-
[क्रिया], बहुवचन, वर्तमान अनिवार्यता

"गाओ; पूजा करना; सम्मान; प्रशंसा; स्वागत।"

वचो < वाचः < वचस्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

"कथन; आज्ञा; भाषण; शब्द; सलाह; शब्द; आवाज़।"

यः < यद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग
"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"

कृष्ण < कृष्ण
[संज्ञा]

कृष्णगर्भ < गर्भः < गर्भ
[संज्ञा], कर्मवाचक, बहुवचन, स्त्रीलिंग

“भ्रूण; गर्भ; अंदर; गुला; भ्रूण; गर्भ; बच्चा; ; गर्भाद्रुति; उत्तर; गर्भावस्था; यार; पेट; निशेचन; अंदर; उधेड़; बच्चा; द्रवपुंज; बीच" स्त्री

निर्हन्न < निर्हन्न < निर्हन्न < √हन्
[क्रिया], एकवचन, मूल सिद्धांतकार (इंड.)

ऋजिस्वान < ऋजिस्वान
[संज्ञा], वाद्य, एकवचन, पुल्लिंग

“ऋजिस्वान्।”

अवस्यावो < अवस्यावः < अवस्यु
[संज्ञा], कर्तावाचक, बहुवचन, पुल्लिंग

“सुरक्षा की मांग करना; मजबूरन

विश्णम् < विश्णम् < विश्णम्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

"साँड़; इंद्र; घोड़ा; विश्णु; आदमी।"

वज्रदक्षिणम् < वज्र
[संज्ञा], पुल्लिंग

“वज्र; वज्र; वज्र; वज्र; बिजली चमकाना; अभ्र; वज्रमुषा; हीरा; वज्र [शब्द]; वज्रकपात; वज्र; वैक्रान्त।"

वज्रदक्षिणम् < दक्षिणम् < दक्षिणा
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

“दक्षिणी; सही; दक्षिण; दक्षिण दिशा में; दक्षिणा [शब्द]; ईमानदार; दक्षिणवर्त; चतुर्।"

मरुतवंतं < मरुतवंतम् < मारुतवंत
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

“इंद्र; मेरुवंत [शब्द]।"

साख्य < साख्य
[संज्ञा], संपुष्टकारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

"दोस्ती; सहायता; कंपनी।"

हवामहे < ह्वा
[क्रिया], बहुवचन, वर्तमान सूचक
"उठाना; अपील करना; बुलाना; बुलाओ।"

यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्।                                        इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥

यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः ।                                              यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥
सामवेदः -कौथुमीया/संहिता -ग्रामगेयः-प्रपाठकः १०-वैरूपम्

सामवेदः‎ - कौथुमीया‎ - संहिता‎ - ग्रामगेयः‎ - प्रपाठकः १०
:32 वैरूपम्.-
प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना ।
अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हुवेमहि ।। ३८० ।। तथा  ऋग्वेद १/१०१/१

(३८०।१) ।। वैरूपम् । विरूपो जगतीन्द्रो मरुत्त्वान्।
प्रमंदाऽ२३४इने ।। पितुमदाऽ३र्च्चाऽ३तावचः । यःकाऽ३ओऽ२३४वा ।
कृष्णगर्भानिरहन्नृजिश्वनाऽ३ । अवस्याऽ२३४वाः। वृषणंवा । ज्रादक्षाऽ२३४इणाम् ।
मारौवाओऽ२३४वा ।। त्वन्तꣳसख्यायहुवाऽ५इमहाउ ।। वा ।।
( दी ३ । प० १० । मा० ९ )२३ ( णो । ६५१)

द्र. पञ्चनिधनं वैरूपम्
वैरूपोपरि वैदिकसंदर्भाः

अस्मिन् जगति अस्माकं इन्द्रियाणि यत्किंचित् संवेदनं प्राप्नुवन्ति, तत् सर्वं असत्यं तु नैवास्ति, किन्तु विरूपितं अवश्यमस्ति। यदा वयं वैराजपदं प्राप्नुवन्ति, तदा अस्माकं दृष्टिः सत्यस्य दर्शने समर्था भवति।"
________
यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः।                        वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥
___________

यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् ।  इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥

यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः ।                                                इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥

रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः ।                                                इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥

यद्वा मरुत्वःपरमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥

त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः।                                                अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥

मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र विष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने ।                                              आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥

मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् ।                                                  तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥

{सायण-भास्यम्}
प्र मन्दिने' इति एकादशर्चमष्टमं सूक्तमाङ्गिरसस्य कुत्सस्यार्षम् । अष्टम्याद्याश्चतस्रस्त्रिष्टुभः शिष्टाः सप्त जगत्यः । इन्द्रो देवता । तथा चानुक्रान्तं - ' प्रमन्दिन एकादश कुत्स आद्या गर्भस्राविण्युपनिषच्चतुस्त्रिष्टुबन्तम्' इति । दशरात्रस्य नवमेऽहनि मरुत्वतीये एतत्सूक्तम् । विश्वजितः' इति खण्डे सूत्रितं- ‘प्र मन्दिन इमा उ त्वेति मरुत्वतीयम्' (आश्व. श्रौ. ८.७.) इति ॥
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प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥
अर्थ-
अच्छी प्रकार से  इन्द्र और उसके सखा राजा   ऋजिश्वन् की  स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए  ऐसे वचनों से कहें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिताओं का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्ति शाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । 

विशेष=असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद नहीं  होकर अदेव पद है ।
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  . १०९-११५ ) । एतदनार्षत्वेनानादरणीयं भवति । एषोऽर्थः क्रमेणर्क्षु वक्ष्यते । तथा चास्या ऋचोsयमर्थः । 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैरसुरैः “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोऽसुरः "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या= कर्मणा प्रज्ञानेन वा 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं यद्वा जगद्भीतिकरं शब्दं कुर्वन्तं “तं =कृष्णमसुरम् “इन्द्रः मरुद्भिः सह 5-“आवत् =प्राप्नोत् । पश्चात्तं कृष्णमसुरं तस्यानुचरांश्च हतवानिति वदति । “नृमणाः नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः । स्नेहतिर्वधकर्मसु पठितः । सर्वस्य हिंसित्रीस्तस्य सेनाः “अप “अधत्त ।6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् ॥
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"द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो॑ अंशुमत्या:।
नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥१४
द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः ।
नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥१४

तुरीयपादो मारुतः । मरुतः प्रति यद्वाक्यमिन्द्र उवाच तदत्र कीर्त्यते । हे मरुतः “द्रप्सं द्रुतगामिनं कृष्णमहम् “अपश्यम् =अदर्शम् । कुत्र वर्तमानम् । “विषुणे= विष्वगञ्चने सर्वतो विस्तृते देशे । यद्वा । विषुणो विषमः । विषमे परैरदृश्ये गुहारूपे देशे। “चरन्तं =परितो गच्छन्तम् । किंच “अंशुमत्याः एतन्नामिकायाः “नद्यः =नद्याः “उपह्वरे= अत्यन्तं गूढे स्थाने “नभो “न नभसि यथादित्यो दीप्यते तद्वत्तत्र दीप्यमानम् “अवतस्थिवांसम् उदकस्यान्तरवस्थितं “कृष्णम् एतन्नामकमसुरमपश्यम् । तस्मिन् दृष्टे सति हे “वृषणः कामानामुदकानां वा सेक्तारो मरुतः “वः युष्मान् युद्धार्थम् “इष्यामि अहमिच्छामि । ततो यूयं तमिमं कृष्णम् "आजौ । अजन्ति गच्छन्त्यत्र योद्धार आयुधानि प्रक्षेपयन्तीति वाजिः संग्रामः । तस्मिन् "युध्यत संहरत । वाक्यभेदादनिघातः । केचित् इष्यामि वो मरुतः इति पठन्ति । तत्र हे मरुतः वो युष्मानिच्छामीत्यर्थो भवति ॥

अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः।विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र: ससाहे ॥१५।अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः ।
विशः। अदेवीः ।अभि। आऽचरन्तीः ।बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५।

1-“अध= अथ 2-“द्रप्सः =द्रुतगामी कृष्णः 3-“अंशुमत्याः= नद्याः 4-“उपस्थे =समीपे 5-“तित्विषाणः= दीप्यमानः सन् 6-“तन्वम् =आत्मीयं शरीरम् 7-“अधारयत् । =परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन 8-“युजा= सहायेन 9-“अदेवीः =अद्योतमानाः । कृष्णरूपा इत्यर्थः । यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । 10-“आचरन्तीः= आगच्छन्तीः 11-“विशः= असुरसेनाः "अभि 12-"ससहे =जघान । तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ३४ ॥ 

त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒ः शत्रु॑रिन्द्र ।
गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥१६
पद पाठ:-
त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र ।
गूळ्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभुमत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥१६

हे “इन्द्र “त्वं खलु “त्यत् तत् कर्म कृतवानसि। किं तत् उच्यते । "जायमानः त्वं प्रादुर्भवन्नेव । “अशत्रुभ्यः स्तुरहितेभ्यः “सप्तभ्यः कृष्णवृत्रनमुचिशम्बरादिसप्तभ्यो बलवद्भ्यः शत्रुभ्यः तदर्थं “शत्रुः “अभवः । यद्वा । सप्तभ्यः । ससैवाङ्गिरसः । सप्तभ्योङ्गिरोभ्यो गवानयनार्थं प्रादुर्भवन्नेवाशत्रुभ्यो बलवद्भ्यः पणिभ्यः शत्रुरभवः । किंच हे इन्द्र त्वं “गूळ्हे तमसा गूढे संवृते “द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ सूर्यात्मना ते प्रकाश्यानुक्रमेण "अविन्दः अलभथाः । तथा “विभुमद्भ्यः महत्त्वयुक्तेभ्यः "भुवनेभ्यः लोकेभ्यः "रणं रमणं “धाः धारयसि । विदधासीत्यर्थः ॥
_________________________

drip (v.)
c. 1300, drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.

drip (n.)
mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).

विषुण-अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।

अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
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क्रमशः उपर्युक्त तीनों ऋचाओं का पदपाठ-

"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

पद का अन्वय= अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।
२-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।
३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।
५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
 ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।
७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
८-नृमणां( धनानां) 
९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 
विशेषटिप्पणी-
१०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
आवत् =प्राप्त किया । 
हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।
भाष्य-
कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै:परिवृत: सन्  अँशुमतीनामधेयाया नद्या:  यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं  तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये   स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य  जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।

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द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

पद का अन्वय= द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।
नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।

हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं देखना चाहूँगा । अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़  कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं देखना चाहूँगा। जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो ऐसे स्थान पर-
(अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
_______________    
शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-
१-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________

२- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
“सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
षत्व विधान सन्धि :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•)     'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु। हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

विषुण-विभिन्न रूपी।
३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
५-अ॒व॒ = उपसर्ग
६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
१०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
११-आजौ= युद्ध में ।
१२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
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"अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
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अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे ।  चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की  सहायता से दमन किया ।
पदपाठ-विच्छेदन :-
। द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
“अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दु: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(  त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः । 
यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः= गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
 सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे 
अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
 
तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

१-तस्मिन् -उसमें ।
 २-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते रहे होंगे । परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  

वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
(वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।

परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।
इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव"  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।
स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है ।
कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
और करोड़ो देवों की पूजा करना। ये कृष्ण ने नहीं किया।
______
जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
_______________
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
__________
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
 कृष्ण के सन्दर्भ में कुछ तथाकथित नव बौद्ध कहते हैं कि कृष्ण शब्द संस्कृत का है और पाली भाषा में नहीं है।

परन्तु उनको पता होना चाहिए कि( र) वर्ण पाली भाषा में है।
जो कि (ऋ+ अ = र) का सन्ध्यक्षर संक्रमण का नवीन रूप है।
इन्द्रोपासक पुरोहित मूढ़ प्रवृति के थे।

वे कहते हैं कि 
"यदि इन्द्र ने पर्वतों के पँख न काटे होते तो वो आज भी आसमान में उड़ते हुए विचरण कर रहे होते ?

लंका जा रहे हनुमान को विश्राम देने आए मैनाक पर्वत ने सुनाया प्रसंग !

"कथाऐं जब  बिना किसी   दार्शिनिक सिद्धान्त के आधार पर  शास्त्रों में समायोजित हो जाऐं तो समझना चाहिए मनुष्य की मनन शीलता का लोप और मूढता का प्रकोप ही हो चला है। 
कालान्तर में मूढताऐं धर्म में इस कदर शामिल हुई कि समाज में अन्ध विश्वास फैलाने वाले पुरोहित अपनी वासना और लोलुप प्रवृति की तुष्टि हेतु समाज का हर स्तर पर दोहन कर रहे थे। 

("वाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड-सर्ग-अध्याय-श्लोक- 1/108/122)

"पूर्व कृतयुगे तात ! पर्वताः पक्षिणोऽभवन् ।
तेऽपि जग्मुर्दिशः सर्वा गरुडा इव वेगिनः।१२२।
अनुवाद:-
'तात ! पूर्वकालके सत्ययुग की बात है। उन दिनों पर्वतों के भी पंख होते थे। वे भी गरुड़के समान वेगशाली होकर सम्पूर्ण दिशाओं में उड़ते फिरते थे।

ततस्तेषु प्रयातेषु देवसङ्घाः सहर्षिभिः ।
भूतानि च भयं जग्मुस्तेषां पतनशङ्कया ।१२३।
अनुवाद:-
'उनके इस तरह वेगपूर्वक उड़ने और आने-जाने पर देवता, ऋषि और समस्त प्राणियों को उनके गिरने की आशङ्का से बड़ा भय होने लगा।१२३।

ततः क्रुद्धः सहस्राक्षः पर्वतानां शतक्रतुः।
पक्षांश्चिच्छेद वज्रेण ततः शतसहस्रशः ।। १२४ ।।
अनुवाद:-
'इससे सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र कुपित हो उठे और उन्होंने अपने वज्र से लाखों पर्वतों के पंख काट डाले ।। १२४ ।।

स मामुपगतः क्रुद्धो वज्रमुद्यम्य देवराट् । ततोऽहं सहसा क्षिप्तः श्वसनेन महात्मना ।१२५।
अनुवाद:-
'उस समय कुपित हुए देवराज इन्द्र वज्र उठाये मेरी ओर भी आये, किन्तु महात्मा वायु ने सहसा मुझे इस समुद्र में गिरा दिया ॥ १२५ ॥

"अस्मिल्लवणतोये च प्रक्षिप्तः प्लवंगोत्तम । गुप्तपक्षः समग्रश्च तव पित्राभिरक्षितः ।१२६ ।
अनुवाद:-
'वानरश्रेष्ठ ! इस क्षार समुद्र में गिराकर आपके पिता ने मेरे पंखों की रक्षा कर ली और मैं अपने सम्पूर्ण अंश से सुरक्षित बच गया ।। १२६ ॥
ऋग्वेद में भी इसी प्रकार का वर्णन है ।

"यः पृथिवीं व्यथमानामदृंहद्यः पर्वतान्प्रकुपिताँ अरम्णात् 
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात्स जनास इन्द्रः ॥२॥

अनुवाद:-“जिसने,जिसने चलती हुई पृथ्वी को स्थिर किया; जिसने क्रोधित पर्वतों को शान्त किया; जिसने विशाल आकाश फैलाया; जिसने स्वर्ग को स्तम्भित किया; मनुष्यो वह, इंद्र है।
सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य
जिसने क्रोधित पर्वतों को शांत किया: =यः पर्वतान् प्रकुप्तान् अरम्णात् = जब तक उनके पंख थे, तब तक वे इधर-उधर जाते रहे, इंद्र ने उन्हें काट कर पर्वतों को शांत किया।

विवरण:
ऋषि (ऋषि/द्रष्टा): गृत्समदः शौनकः [ गृत्समद शौनक ] ;
देवता (देवता/विषय-वस्तु): इंद्र: ;
"छन्द- : त्रिष्टुप ;

ऋग्वेद की बहुस्तरीय व्याख्या
[ऋग्वेद 2.12.2 व्याकरण का विश्लेषण]

१-यः < यद्[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग" जो; यत् [सर्वनाम]।"

पृथ्वीं < पृथ्वी को [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, स्त्रीलिंग
व्यथमानम् < व्यथ्= कम्पने ।
+ शानच् [क्रिया संज्ञा], कर्मवाचक, एकवचन

हिलत -जुलते हुए को 

अध्रहद < अध्रहत् < दृह्
[क्रिया], एकवचन, अपूर्ण

“ठीक करो; को मजबूत।"

यः < यद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"

पर्वतान् < पर्वता
[संज्ञा], कर्मवाचक, बहुवचन, पुल्लिंग

"पर्वत; पर्वत; पर्वत [शब्द]; पर्वत; पर्वत; चट्टान; ऊंचाई।"

प्रकुपितां < प्रकुप < √कुप
[क्रिया संज्ञा], कर्मवाचक, बहुवचन

“कूप; प्रकुप; गुस्सा; फैलना।"

अरामनात् < राम
[क्रिया], एकवचन, अपूर्ण

; आनन्दित किया; शांत किया; ।"

यो < यः < यद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"

अन्तरिक्षम् < अन्तरिक्षम् < अन्तरिक्ष
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

"आकाश; वायुमंडल; वायु; अभ्र।”

विमामे < विमा < √मा मापने निर्माणे च
[क्रिया], एकवचन, उत्तम सूचक

वारियो < वारियः < वारियस्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

"चौड़ा; आगे।"

यो < यः < यद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग; जो- यत् [सर्वनाम]।"

द्यम् < दिव्य
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

"आकाश; स्वर्ग; 

अस्तभनात <  ष्कभि( ष्कम्भ-प्रतिबन्धे
 - स्तम्भते ।[क्रिया], एकवचन, अपूर्ण
“; रुकना; 

सा < तद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग वह, "

जनसा < जनसाः < जना: वैदिक रूप
[संज्ञा], वाचिक, बहुवचन, पुल्लिंग"लोगो!; 

इन्द्रः < [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग “इन्द्र; 
हे (जनासः) लोगो ! (यः) जो (व्यथमानाम्) चलती हुई (पृथिवीम्) पृथिवी को (अदृंहत्)अदर्हत्वृद्धौ = विस्तार किया। (यः) जो (प्रकुपितान्) कोपयुक्तों को  समान (पर्वतान्) पर्वतों को (अरम्णात्)रमु क्रीडायाम्- स्थिर किया (यः) जो (वरीयः) अत्यन्त बहुत विस्तारवाले (अन्तरिक्षम्) को (विममे) विममे विशेषेण निर्ममे  विशेषता निर्माण किया  (यः) जो (द्याम्) स्वर्ग को (अस्तभ्नात्) धारण करता है (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र है॥२॥

अनुवाद:-१-हे जनाः य इन्द्रो व्यथमानां =चलन्तीं पृथिवीमदृंहत । हे लोगो जिसने हिलती हुई पृथ्वी को रोक दिया।

२-शर्करादिभिर्दृढामकरोत् ॥ दृह दृहि वृद्धौ दृह् दृहि वा वृद्धौ क्तः “स्थूलबलयोः” इडभावः इदितोऽपि नि० नलोपः । १ स्थूले २ अशिथिले प्रगाढे ३ वलवति च मेदिनी कोष   ॥ यश्च प्रकुपितान् =शर्करा आदि के द्वारा दृढ़ कर दिया। जो इधर उधर चलते थे। पंखयुक्त पर्वतों को स्थिर कर दिया। अर्थात अपने अपने स्थान पर स्थापित कर दिया।
इतस्ततश्चलितान्पक्षयुक्तान्पर्वतानरम्णात्। नियमितवान्। स्वे स्वे स्थाने स्थापितवान्। अरम्णात् रमु क्रीडायां। अंतर्भावितण्यर्थस्य व्यत्ययेन श्नाप्रत्ययः। यश्च वरीय उरुतममंतरिक्षं विममे। निर्ममे। विस्तीर्णं चकारेत्यर्थः । यश्च द्यां दिवमस्तभ्नात् । स्तंभनिरुद्धामकरोत ॥ स्तंभु रोधन इति सौत्रो धातुः ॥ स ऐवेंद्रो नाहमिति ॥२।

___________    

यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम - आज़ादपुर-पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र० दूरभाष 807716029

प्रस्तुतकर्ता ★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-★ पर 10:04 am
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