शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥


              देवीभागवतपुराणम्‎ –
      स्कन्धः ०४ अध्याय द्वितीय-(२)
  कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणम्। 

कर्म का सृष्टि के उत्पादन में योगदान विषय का निरूपण करते हुए ऋषिगण–समस्त देवताओ,  ब्रह्मा, विष्णु और महेश को भी कर्म के अधीन ही मानते हैं । यही कर्म उस परम्-ब्रह्म-परमेश्वर की लीला या उपादान रूप है ।
  • "देवीभागवत पुराण "हरिवंशपुराण" "मार्कण्डेय पुराण "स्कन्द पुराण  नारद पुराण "और  गर्गसंहिता"आदि  ग्रन्थ वसुदेव के गोप जीवन के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं ।
प्रस्तुत हैं देवी भागवत पुराण से कुछ सन्दर्भ-
                   ★ सूत उवाच★
एवं पृष्टः पुराणज्ञो व्यासः सत्यवतीसुतः ।
परीक्षितसुतं शान्तं ततो वै जनमेजयम् ॥१॥
  • सूत जी बोले – हे मुनियों  पुराणवेत्ता वाणीविशारद सत्यवतीपुत्र महर्षि व्यास ने शान्त स्वभाव वाले परीक्षित्- पुत्र जनमेजय से उनके सन्देहों को दूर करने वाले वचन बोले ।।१=१/२।।_____________________________
                     व्यास उवाच !
राजन् किमेतद्वक्तव्यं कर्मणां गहना गतिः॥२॥
दुर्ज्ञेया किल देवानां मानवानां च का कथा।
यदा समुत्थितंचैतद्ब्रह्माण्डं त्रिगुणात्मकम्।३।
  • व्यास जी बोले- हे राजन इस विषय में क्या कहा जाय !
  • कर्मों की बड़ी गहन गति होती है। 
  • कर्मों की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं ।
  • तो मानवों की तो बात ही क्या ! जब इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती चली आ रही है ।।
विशेष-★
  • शुभ अशुभ और मिश्र -इन  कर्मों से यह संसार सदैव व्याप्त रहता है। 
  • तत्वों के ज्ञाता जो विद्वान हैं उन्होंने संचित प्रारब्ध और क्रियमाण( वर्तमान में किए गये कर्म) ये तीन प्रकार के कर्म हैं। इन कर्मों का त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है।६-७।।
कामक्रोधौ च लोभश्च सर्वे देहगता गुणाः ।
दैवाधीनाश्च सर्वेषां प्रभवन्ति नराधिप ॥९॥
  • हे राजन् !–ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्म के वशीभूत होते हैं । सुख-दु:ख और वृद्धावस्था मृत्यु , हर्ष, शोक काम( स्त्रीमिलन की कामना) क्रोध लोभ आदि ये सभी शारीरिक गुण हैं। हे राजन् ! 
  • ये भाग्य के अधीन होकर सभी प्राणीयों को प्राप्त होते हैं ।८-९।।
रागद्वेषादयो भावाः स्वर्गेऽपि प्रभवन्ति हि ।
देवानां मानवानाञ्च तिरश्चां च तथा पुनः।१०।

विकाराः सर्व एवैते देहेन सह सङ्गताः ।
पूर्ववैरानुयोगेन स्नेहयोगेन वै पुनः।११।

उत्पत्तिःसर्वजन्तूनां विना कर्म न विद्यते।
कर्मणा भ्रमते सूर्यःशशाङ्कःक्षयरोगवान्।१२।
  • राग-द्वेष भाव स्वर्ग में भी होते हैं । 
  • और इस प्रकार के भाव देवों, मनुष्यों और पशु- पक्षीयों में भी विद्यमान रहते हैं ।१०।
  • पूर्वजन्म में किए गये वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार सदा ही शरीर के साथ लगे रहते हैं ।११।
  • सभी जीवों की उत्पत्ति कर्म के विना तो हो ही नहीं सकती है। कर्म से ही सूर्य नियमित रूप से परिभ्रमण करता है।
  • ( विदित हो कि सूर्य भी आकाश गंगा का परिक्रमण करता है) चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रस्त रहता है। १२।।
कपाली च तथा रुद्रः कर्मणैव न संशयः।
अनादिनिधनं चैतत्कारणं कर्म विद्यते ॥१३॥

तेनेह शाश्वतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
नित्यानित्यविचारेऽत्र निमग्ना मुनयःसदा।१४।

न जानन्ति किमेतद्वै नित्यं वानित्यमेव च।
मायायां विद्यमानायां जगन्नित्यं प्रतीयते।१५।

कार्याभावः कथं वाच्यःकारणे सति सर्वथा।
माया नित्याकारणञ्च सर्वेषां सर्वदाकिल।१६।

कर्मबीजं ततोऽनित्यं चिन्तनीयं सदा बुधैः।
भ्रमत्येव जगत्सर्वं राजन्कर्मनियन्त्रितम्।१७।
(६.२.३ ॥छान्दोग्योपनिषद्-)
  • अपने कर्मो के प्रभाव से ही रूद्र को  कपाल धारण करना पड़ता है। इसमें कोई सन्देह नहीं !!  आदि और अन्त रहित वह कर्म ही जगत् की उत्पत्ति का कारण है।१३।।
  • स्थावर( अचल) और जंगम( चलायवान्) यह सम्पूर्ण शाश्वत जगत् उसी कर्म के प्रभाव में नियन्त्रित है।
  •  सभी मुनिगण इस कर्म मय जगत कि नित्यता और अनित्यता के विचार में सदैव डूबे रहते हैं ।।
  • फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत नित्य है अथवा अनित्य। जब तक माया ( अज्ञान) विद्यमान रहती है तब तक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है।१४-१५।।
  • "कारण की सर्वथा सत्ता रहने पर  "कार्य ता अभाव कैसे कहा जा सकता है।
  • यह माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है।१६।।
  • इसलिए ही कर्म-बीज की अनित्यता पर विद्वान पुरुषों को सदैव विचार करना चाहिए!
  • हे राजन् ! सम्पूर्ण जगत कर्म के द्वारा नियन्त्रित होकर परिवर्तित होता रहता है।१७।।
नानायोनिषु राजेन्द्र नानाधर्ममयेषु च।
इच्छया च भवेञ्चन्म विष्णोरमिततेजसः॥१८॥
युगे युगेष्वनेकासु नीचयोनिषु तत्कथम् ।
त्यक्त्वा वैकुण्ठसंवासं सुखभोगाननेकशः ॥१९॥
विण्मूत्रमन्दिरे वासं संत्रस्तः कोऽभिवाञ्छति ।
पुष्पावचयलीलां च जलकेलिं सुखासनम् ॥ २०॥
त्यक्त्वा गर्भगृहे वासं कोऽभिवाच्छति बुद्धिमान्।
तूलिकांमृदुसंयुक्तां दिव्यां शय्यां विनिर्मिताम्।२१॥
त्यक्त्वाधोमुखवासं च कोऽभिवाञ्छति पण्डितः।
गीतं नृत्यञ्च वाद्यञ्च नानाभावसमन्वितम् ॥२२॥
मुक्त्वा को नरके वासं मनसापि विचिन्तयेत्।
सिन्धुजाद्‌भुतभावानांरसंत्यक्त्वासुदुस्त्वजम्।२३।
विण्मूत्ररसपानञ्ज क इच्छेन्मतिमान्नरः।
गर्भवासात्परो नास्ति नरको भुवनत्रये॥२४॥
तद्‌भीताश्च प्रकुर्वन्ति मुनयो दुस्तरं तपः।
हित्वा भोगञ्च राज्यञ्चवने यान्ति मनस्विनः।२५।
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  • हे राजन् असीमित तेज वाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से पृथ्वी पर जन्म लेने में स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार की योनियों में अनेक प्रकार के धर्म -कर्म के अनुसार युगों में तथा अनेक प्रकार की निम्न योनियों में जन्म क्यों लेते ? 
  • अनेक प्रकार के सुख-भोगों तथा वैकुण्ठपुरी का निवास त्याग कर मल मूत्र वाले स्थान ( उदर ) में भला कौन रहना चाहेगा ?
  • फूल चुनने की क्रीडा ,जल विहार और सुख -दायक आसन का त्याग कर कौन बुद्धिमान गर्भगृह में वास करना चाहेगा ? 
  • कोमल रुई से निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्या को छोड़कर गर्भ में औंधे-(ऊर्ध्व-मुख) पड़ा रहना भला कौन विद्वान पुरुष पसन्द कर सकता है ?
  • अनेक प्रकार के भावों से युक्त गीत वाद्य तथा नृत्य का परित्याग करके गर्भ रूपी नरक में रहने का मन में विचार तक भला कौन कर सकता है ? 
  • ऐसा कौन बुद्धिमान व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी के अद्भुत भावों के " अत्यंत कठिनाई से त्याग करने योग्य रस को छोड़कर मल-मूत्र का कीचड़(दूषित रस) पीने की इच्छा करेगा।
  • इसलिए तीनों लोकों में गर्भवास से बढ़कर नरक रूप अन्य कोई स्थल नहीं है।
  • गर्भ वास ( जन्म-मरण) से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या करते हैं। बड़े-बड़े मनस्वी जिस गर्भवास से डरकर राज्य और सुख का परित्याग करके वन को चले जाते थे। 
  • ऐसा कौन मूर्ख होगा ? जो इसके सेवन की इच्छा करेगा।।१८–२५=१/२।।
यद्‌भीतास्तु विमूढात्मा कस्तं सेवितुमिच्छति ।
गर्भे तुदन्ति कृमयो जठराग्निस्तपत्यधः।२६ ॥

वपासंवेष्टनं कूरं किं सुखं तत्र भूपते ।
वरं कारागृहे वासो बन्धनं निगडैर्वरम् ॥ २७ ॥

अल्पमात्रं क्षणं नैव गर्भवासः क्वचिच्छुभः ।
गर्भवासे महद्दुःखं दशमासनिवासनम् ॥ २८ ॥

तथा निःसरणे दुःखं योनियन्त्रेऽतिदारुणे।
बालभावे तदा दुःखं मूकाज्ञभावसंयुतम्।२९॥

क्षुतृष्णावेदनाशक्तः परतन्त्रोऽतिकातरः।
क्षुधिते रुदिते बाले माता चिन्तातुरा तदा।३०॥

भेषजं पातुमिच्छन्ती ज्ञात्वा व्याधिव्यथां दृढाम्।
नानाविधानि दुःखानि बालभावे भवन्ति वै॥३१॥

किं सुखं विबुधा दृष्ट्वा जन्म वाञ्छन्ति चेच्छया ।
संग्रामममरैः सार्धं सुखं त्यक्त्वा निरन्तरम्॥३२॥

कर्तुमिच्छेच्च को मूढः श्रमदं सुखनाशनम्।
सर्वथैव नृपश्रेष्ठ सर्वे ब्रह्मादयः सुराः ॥३३॥

कृतकर्मविपाकेन प्राप्नुवन्ति सुखासुखे ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
देहवद्‌भिर्नृभिर्देवैस्तिर्यग्भिश्च नृपोत्तम ॥३४॥

तपसा दानयज्ञैश्च मानवश्चेन्द्रतां व्रजेत् ।
क्षीणे पुण्येऽथ शक्रोऽपि पतत्येव न संशयः॥३५॥
  • गर्भ में कीड़े काटते हैं और नीचे से जठराग्नि तपाती है। हे राजन् ! उस समय शरीर में अत्यंत दुर्गन्धयुक्त मज्जा( Marrow) लगा रहता है तो फिर वह कौन सा सुख है ? 
  • कारागार में रहना और बेड़ीयों में बँधे रहना अच्छा है किन्तु एक क्षण के अल्पकाल तक गर्भ में रहना कभी भी शुभ नहीं होता, गर्भ वास में जीव को अत्यधिक पीड़ा होती है।‌
  • वहाँ दस महीने तक रहना पड़ता है‌। इसके अतिरिक्त अत्यंत दारुण( भयंकर) योनि -यन्त्र से बाहर आने पर  महान यातना प्राप्त होती है। 
  • तत्पश्चात्  बाल्यावस्था में अज्ञान का तथा बोल न पाने के कारण बहुत कष्ट प्राप्त होता है ।
  • दूसरे के अधीन अत्यंत भयभीत बालक  भूख-और प्यास की।
  • पीड़ा के कारण कमजोर रहता है। 
  • भूखे बालकों को रोता हुआ देखकर माता( रोने का कारण जानने के लिए) चिन्ता ग्रस्त हो उठती है।
  • और पुन: किसी बड़े रोग-जनित कष्ट का अनुभव करके उसे औषधि पिलाने की। 
  • इच्छा करती है। इस प्रकार बाल्यकाल में अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं ।
  • मनुष्य तप यज्ञ तथा दान के द्वारा इन्द्र पद को प्राप्त हो जाता है। 
  • और पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्र का  भी स्वर्ग से पतन हो जाता है । इसमें कोई सन्देह नहीं!३५।।

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एवं युगे युगे विष्णुरवताराननेकशः ।
करोति धर्मरक्षार्थं ब्रह्मणा प्रेरितो भृशम्।३७॥

पुनः पुनर्हरेरेवं नानायोनिषु पार्थिव ।
अवतारा भवन्त्यन्ये रथचक्रवदद्‌भुताः ॥३८॥

दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।
अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वाजन्म महात्मना।३९।
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"हिन्दीअनुवाद-

                      राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥४४।

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः॥४५॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः॥४६॥

स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान्॥४७॥

प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् ।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि॥४८।

कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।
सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥४९॥

दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम्।५०॥

लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१॥

स कथं भगवान्विष्णुस्त्वक्त्या सुखमनश्वरम् ।
करोति मानुषं जन्म भावैस्तैस्तैरभिद्रुतम् ॥५२॥

किं सुखं मानुषं प्राप्य भुवि जन्म मुनीश्वर।
किं निमित्तं हरिः साक्षाद्‌गर्भवासं करोति वै॥५३॥

गर्भदुःखं जन्मदुःखं बालभावे तथा पुनः ।
यौवने कामजं दुःखं गार्हस्त्येऽतिमहत्तरम् ॥ ५४ ।

दुःखान्येतान्यवाप्नोति मानुषे द्विजसत्तम ।
कथं स भगवान्विष्णुरवतारान्पुनः पुनः।५५।

प्राप्य रामावतारं हि हरिणा ब्रह्मयोनिना ।
दुःखं महत्तरं प्राप्तं वनवासेऽतिदारुणे ॥ ५६ ॥

सीताविरहजं दुःखं संग्रामश्च पुनः पुनः ।
कान्तात्यागोऽप्यनेनैवमनुभूतो महात्मना।५७।

तथा कृष्णावतारेऽपि जन्म रक्षागृहे पुनः ।
गोकुले गमनं चैव गवां चारणमित्युत ॥ ५८ ॥

कंसस्य हननं कष्टाद्‌ द्वारकागमनं पुनः।
नानासंसारदुःखानि भुक्तवान्भगवान् कथम् ॥५९॥

स्वेच्छया कः प्रतीक्षेत मुक्तो दुःखानि ज्ञानवान्।
संशयं छिन्धि सर्वज्ञ मम चित्तप्रशान्तये ॥ ६०॥
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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥
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इस प्रकार प्रत्येक युग में धर्म सी रक्षा के लिए भगवान् विष्णु ब्रह्मा जी अत्यंत प्रेरित होकर अनेक अवतार धारण करते हैं।।३७।।


महात्मा भगवान विष्णु अपने अंशांश से पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करके दैत्यों का वध रूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसलिए अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ; वे साक्षात् विष्णु ही यदुवंश में अवतरित हुए थे।३९-४०।।


राजा बोला! हे महामते! महर्षि कश्यप ने ऐसा कौनसा अपराध किया था। जिस कारण उन्हें स्त्रीयों सहित शाप मिला था। मुझे यह बताइए!४४।।

वैकुण्ठवासी अविनाशी रमापति भगवान् विष्णु को गोपकुल ( गोकुल) में क्यों अवतार लेना पड़ा?।। ४५।।

भगवान विष्णु मानव शरीर धारण करके इस हीन मनुष्य शरीर में अनेक प्रकार की। 
लीलाऐं दिखाते हुए ; और अनेक प्रपञ्च क्यों करते हैं?

काम- क्रोध, अमर्ष, शोक ,वैर, प्रेम ,दु:ख-सुख ,भय, दीनता, सरलता, पाप ,पुण्य, वचन मारण, पोषण, चलन, ताप ,विमर्श. आत्मश्लाघा लोभ, दम्भ ,मोह ,कपट, चिन्ता– ये तथा अन्य नाना प्रकार के भाव मनुष्य -जन्म में विद्यमान रहते हैं।४९-५१।।

वे भगवान विष्णु शाश्वत सुख का त्याग करके इन भावों से ग्रस्त मनुष्य जन्म धारण किस लिए करते हैं।
हे मुनीश्वर इस पृथ्वी पर मानव जन्म पाकर कौन सा अक्षय सुख प्राप्त होता है। वे साक्षात्- विष्णु किस कारण गर्भवास करते हैं ?।५२-५३।।

गर्भवास में दु:ख जन्म ग्रहण में दुःख  बाल्यावस्था में दुःख यौवनावस्था में कामवासना जनित दुःख और गृहस्थ जीवन में तो बहुत बड़ा दुःख होता है।५४।।

हे विप्र अनेक कष्ट मानव जीवन में प्राप्त होते हैं। तो वे भगवान विष्णु अवतार क्यों लेते हैं पृथ्वी पर।५५।।

ब्रह्म योनि भगवान विष्णु को रामावतार ग्रहण करते हुए अत्यंत दारुण वनवास काल में घोर कष्ट प्राप्त हुआ था।

उन्हें माता सीता वियोग से उत्पन्न महान कष्ट हुआ था। तथा अनेक बार राक्षसों से युद्ध करना पड़ा अन्त में महान आभा वाले उन श्री राम को पत्नी का त्याग की असीम वेदना भी साहनी पड़ी।।५६-५७।।

उसी प्रकार कृष्णावतार में भी बन्धीग्रह में जन्म गोकुल गमन, गोचारण, कंस वध ,और पुन: कष्ट पूर्वक द्वारिका के लिए प्रस्थान -इन अनेक विधि सांसारिक कष्टों को भगवान कृष्ण ने क्यों भोगा ?।।५८-५९।।

ऐसा कौन ज्ञानी व्यक्ति होगा जो मुक्त होता हुआ भी स्वेच्छा से इन दु:खों की प्रतीक्षा करेगा ? हे सर्वज्ञ मेरे मन की  शान्ति के लिए  इस सन्देह का निवारण कीजिए!!।।६०।।
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अब आगे इसी स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के द्वारा वैश्य वृत्ति ( कृषि और गोपालन ) का जीवन निर्वहन करने की घटना का वर्णन है‌।
  • -प्राचीन  समय की बात है यमुना नदी के सुंदर तट पर मधु  का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवण नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै॥५५।

शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६॥
  • (उसके पिता का नाम मधु ) था वह  वरदान पाकर वह पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; 
  • हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ (उसी के नाम पर )मथुरा (मधुपुरा) नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।
स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः।          निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवं गतः।५७॥
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयःपुरा।५८॥
  • उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु  और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई।_______________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥५९॥___________________________________ 

  • तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहाँ की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ  ! 
  • तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए 
  • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वेैश्य-वृति (कृषि व  गोपालन आदि कार्यों ) से गोप (आभीर रूप में ) अपना जीवन निर्वहन किया। 
  • उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य करते थे ! 
  •  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था। 
  • "उग्रसेन के पुरोहित काशी में रहने वाले "काश्य" नाम से थे। 
  • और शूरसेन के पुरोहित उसी काल में एक बार सभी शूर के सभासदों द्वारा ज्योतिष् के जानकार गर्गाचार्य नियुक्त किए गये थे।
अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥
  • अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥
  • वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥

•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र हुआ है।
  • श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥२०॥ 
  • प्रस्तुतिकरण:- यादव 
  • योगेश कुमार रोहि-
                     ऋग्वेद:-

           ऋग्वेद 1.22.18

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्॥18।।

१६७० सामवेद-॥

विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥१६७१  

पदपाठ — 
त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः। अदा॑भ्यः। अतः॑। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न्॥( ऋग्वेद-1.22.18)

देवता —       विष्णुः ;       छन्द —        पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;      
स्वर —        षड्जः;       ऋषि —         मेधातिथिः काण्वः

★-सायण भाष्य के आधार पर

18. विष्णु गायों  के पालन करने वाले गोप हैं , उनको हनन करनेवाला कोई नहीं है। उन्होंने सभी धर्मों का धारण करते हुए विश्व का तीन पैरों से परिक्रमण किया।

 (ऋषि: - मेधातिथिः)(देवता - विष्णुः)(छन्दः - गायत्री) (सूक्तम् - विष्णु सूक्त))

त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। इ॒तो धर्मा॑णि धा॒रय॑न् ॥

स्वर सहित पद पाठ-★

त्रीणि॑ । प॒दा । वि । च॒क्र॒मे॒ । विष्णु॑: । गो॒पा: । अदा॑भ्य: । इ॒त: । धर्मा॑णि । धा॒रय॑न् ॥७.२६.५॥

त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। इतो धर्माणि धारयन् ॥

 अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 5

पदार्थ -
(गोपाः) गायों का पालक  गोप-(अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा) जानने योग्य वा पाने योग्य पदार्थों [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) समर्थ [शरीरधारी] किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों वा धारण करनेवाले [पृथिवी आदि] को (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥५॥

भावार्थ - जो परमेश्वर नानाविध जगत् को रचकर धारण कर रहा है, उसी की उपासना सब मनुष्य नित्य किया करें ॥५॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।२२।१८; यजु० ३४।४३; और साम० उ० ८।२।५।



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                    !!!Mantra

विष्णु सूक्त || Vishnu Sukta

                || विष्णु सूक्त ||

इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥17॥

पदपाठ — देवनागरी
इ॒दम्। विष्णुः॑। वि। च॒क्र॒मे॒। त्रे॒धा। नि। द॒धे॒। प॒दम्। सम्ऽऊ॑ळ्हम्। अ॒स्य॒। पां॒सु॒रे॥ 1.22.17 ऋग्वेद-

17. विष्णु ने इस जगत् की परिक्रमा की, उन्होंने तीन प्रकार से, अपने पैर रखे और उनके धूलियुक्त पैर से जगत् छिप-सा गया।

परो मात्रया तन्वा वृधान न ते महित्वमन्वश्नुवन्ति ।
उभे ते विद्म रजसी पृथिव्या विष्णो देव त्वं परमस्य वित्से ॥१॥

न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप ।
उदस्तभ्ना नाकमृष्वं बृहन्तं दाधर्थ प्राचीं ककुभं पृथिव्याः ॥२॥

इरावती धेनुमती हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या।
व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ॥३॥

यह पृथ्वी सबके कल्याणार्थ अन्न और गाय से युक्त, खाद्य-पदार्थ देने वाली तथा हित के साधनों को देने वाली है। हे विष्णुदेव ! आपने इस पृथ्वी को अपनी किरणों के द्वारा सब ओर अच्छी प्रकार से धारण कर रखा है। हम आपके लिये आहुति प्रदान करते हैं।

देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतं प्राची प्रेतमध्वरं कल्पयन्ती ऊर्ध्वं यज्ञं नयतं मा जिह्वरतम् ।       स्वं गोष्ठमा वदतं देवी दुर्ये आयुर्मा निर्वादिष्टं प्रजां मा निर्वादिष्टमत्र रमेथां वर्ष्मन् पृथिव्याः ॥ ३ ॥

आप देवसभा में प्रसिद्ध विद्वानों में यह कहें :- इस यज्ञ के समर्थन में पूर्व दिशा में जाकर यज्ञ को उच्च बनायें, अध:पतित न करें। देवस्थान में रहने वाले अपनी गोशाला में निवास करें। जब तक आयु है, तब तक धनादि से सम्पन्न बनायें। संततियों पर अनुग्रह करें। इस सुखप्रद स्थान में आप सदैव निवास करें।


विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि य: अस्कभायदुत्तर सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगाय:॥ ४ ॥

जिन सर्वव्यापी भगवान् श्री हरी विष्णु ने अपने सामर्थ्य से इस पृथ्वी सहित अन्तरिक्ष, द्युलोकादि स्थानों का निर्माण किया है तथा जो तीनों लोकों में अपने पराक्रम से प्रशंसित होकर उच्चतम स्थान को शोभायमान करते हैं, उन सर्वव्यापी परमात्मा के किन-किन यशों का वर्णन करें।

दिवो वा विष्ण उत वा पृथिव्या महो वा विष्ण उरोरन्तरिक्षात् । उभा हि हस्ता वसुना पृणस्वा प्र यच्छ दक्षिणादोत सव्याद्विष्णवे त्वा ॥ ५ ॥

हे विष्णु! आप अपने अनुग्रह से समस्त जगत को सुखों से पूर्ण कीजिये और भूमि से उत्पन्न पदार्थ और अन्तरिक्ष से प्राप्त द्रव्यों से सभी सुख निश्चय ही प्रदान करें। हे सर्वान्तर्यामी प्रभु! दोनों हाथों से समस्त सुखों को प्रदान करनेवाले विष्णु! हम आपको सुपूजित करते हैं।


प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः।                                          यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥ ६ ॥

भयंकर सिंह के समान पर्वतों में विचरण करने वाले सर्वव्यापी देव विष्णु! आप अतुलित पराक्रम के कारण स्तुति-योग्य हैं। सर्वव्यापक विष्णु देव के तीनों स्थानों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं।

विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रे स्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोर्धुवोऽसि। वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ७ ॥ [शुक्ल यजुर्वेद ५ । १५-२१] 

इस विश्व में व्यापक देव विष्णु का प्रकाश निरन्तर फैल रहा है । विष्णु के द्वारा ही यह विश्व स्थिर है तथा इनसे ही इस जगत् का विस्तार हुआ है और कण-कण में ये ही प्रभु व्याप्त हैं । जगत् की उत्पत्ति करनेवाले हे प्रभु ! हम आपकी अर्चना करते हैं ॥ ७ ॥

यहाँ इस विष्णु सूक्त के अलावा भी अन्य और विष्णु सूक्त दिया जा रहा है-

                || विष्णु सूक्त(१) ||

विष्णोः नु कं वीर्याणि प्र वोचं, यः प्रार्थिवाणि विममे रजांसि ।यो अस्कभायदुत्तरं सद्यस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः ।

अर्थ- अब मै उस विष्णु के वीर कर्मो को प्रस्थापित करुगाँ , जिसने पृथ्वी सम्बन्धी स्थानों को नाप लिया है । तथा तीन प्रकार से पाद न्यास करते हुऐ विशाल गतिशील जिसने उर्ध्वस्थ सह निवास स्थान को स्थिर कर दिया है ।

प्र तद्विष्णु; स्तवते वीर्येण, मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठा । यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ।

अर्थ- विष्णु जिसके विशाल तीन कदमों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते है, अपने उन वीरतायुक्त कार्य के कारण स्तुति किया जाता है, जिस प्रकार पर्वत पर रहने वाला तथा अपनी इच्छानुकुल विचरण करने वाला भयानक पशु ।

प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित उरुगायाय वृष्ने 
य इदम् दीर्घ प्रयेत् सधस्थमेको विममे त्रिभिरित्पदेभिः ।

अर्थ- (मेरी) शक्तिशाली प्रार्थना, ऊँचे लोको में निवास करने वाले, विशाल कदमों वाले इच्छाओं की पुर्ति करने वाले, विष्णु के पास जावें, जिसने इस बड़े अतिविस्तृत (पवित्रात्माओं) के मिलन स्थान को अकेले तीन पदों से नापा था ।

यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्य अक्षीयमाना स्वधया मदन्ति । य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्याम् एको दाधार भुवनानि विश्वा ।तदस्य प्रियमपि पाथो अस्मां नरो यत्र देवयवो मदन्ति ।उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था , विष्णोः प्रदे परमे मध्व उत्स ।

अर्थ- इस विष्णु के उस प्रिय लोक को मै प्राप्त करुँ जहाँ पर देवताओं के इच्छुक मनुष्य आनन्द करते है । विशाल गतिवाले विष्णु के श्रेष्ठ लोक में मधु का एक सरोवर है । इस प्रकार निश्चित ही वह (सबका) मित्र है ।

ता वां वास्तुन्युष्मति गमध्यै यत्र गावो भूरिश्रवा अयासं ।अत्राह तदुरुगावस्य वृष्ण; , परमं पदमव भाति भूरिं ।

अर्थ– तुम दोनों को उन स्थानों पर जाने के लिये मै इच्छा करता हूँ । जहाँ पर बहुत सींग वाली (अत्यधिक प्रकाशवाली) हमेशा गतिशील रहनेवाली गायें (किरणें) है । यही पर विशाल गतिवाले इच्छाओं की पूर्ति करने वाले (विष्णु) का उस प्रकार का परमधाम नीचे (हमारी तरफ) अत्यधिक रुप से प्रकाशित हो रहा है ।

         इति श्रीविष्णुसूक्तं -१ समाप्तम् ॥

             || श्रीविष्णुसूक्तम् २ ||

युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्राछिप्रस्य बृहतोविपश्चितो-विहोत्रादधेवयुनाविदेक इन्महीदेवस्य सवितुः परिष्टुतिः स्वाहा॥ १॥

इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदं समूढमस्य पाँ सुरे स्वाहा ॥ २॥

इरावती धेनुमती हि भूतँ सूयबसिनीम सरसस्तोत्रसारसङ्ग्रहः नवेदशस्या।व्यस्कब्म्नारोदसी विष्णवे ते दाधर्थपृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा॥ ३॥

वेदश्रुतौ देवेष्वाघोषतम्प्राचीप्रेतमध्वरं कल्पयन्तीऊर्ध्वं यज्ञन्नयतम्माजिह्वरतमस्वङ्गोष्टमावदतन्देवीदुर्ये त्रायुर्म्मा निर्वादिष्टम्प्रजाम्मा निर्वादिष्टमत्ररमेथाम्वर्ष्मन्पृथिव्याः॥ ४॥

विष्णोर्न्नुकं वीर्य्याणि प्रवोचं यः पार्थिवानि विममे रजाँसि योअरकभायदुत्तरँ सधस्थं इविचक्रमाणस्स्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा॥ ५॥

दिवोवा विष्णऽ उत वापृथिव्यामहोवा विष्ण उरोरन्तरिक्षातउभाहिहस्तावसुना पृणस्वा प्रयच्छदक्षिणादोतसव्या विष्णवेत्वा ॥ ६॥

प्रतद्विष्णुः स्तवते वीर्य्येण मृगोनभीमः कुचरोगिरिष्टाःयस्योरुषु त्रिषु विक्रम्णेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥ ७॥

विष्णोरराटमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोऽर्धुवोसिवैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ८॥

देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यांआददेनार्यसीदमहँ रक्षसाङ्ग्रीवा अपिकृन्तामि बृहन्नसिबृहद्रवा बृहतीमीन्ध्रय वाचं वद ॥ ९॥

विष्णोः कर्म्याणि पश्यत यतो व्रतानि पश्यसे इन्द्रस्य युज्यस्सखा ॥ १०॥

तद्विष्णोः परमं पदँ सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीवन्वक्षुराततम् ॥ ११॥

    इति श्रीविष्णुसूक्तं २ समाप्तम् ॥

           || श्रीविष्णुसूक्तम् ||    

ऋग्वेदः सूक्तं १.१५४

← सूक्तं १.१५३ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.१५४
दीर्घतमा औचथ्यः
सूक्तं १.१५५ →
देवता. विष्णुः। छन्द-त्रिष्टुप् ।


विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि ।
यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः ॥१॥

प्र तद्विष्णु स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः ।
यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥२॥

प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित उरुगायाय वृष्णे 
य इदं दीर्घं प्रयतं सधस्थमेको विममे त्रिभिरित्पदेभिः ॥३॥

यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमाणा स्वधया मदन्ति ।
य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा ॥४॥

तदस्य प्रियमभि पाथो अश्यां नरो यत्र देवयवो मदन्ति ।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥

ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः ।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि ॥६॥

सायणभाष्यम्–★

विष्णोर्नु कम्' इति षडृचं पञ्चदशं सूक्तं दैर्घतमसं त्रैष्टुभं वैष्णवम् । अत्रानुक्रमणिका - विष्णोः षड्वैष्णवं हि ' इति । अभिप्लवषडहेषूक्थ्येषु तृतीयसवने स्तोमवृद्धावच्छावाकस्य स्तोमातिशंसनार्थम् इदमादिसूक्तद्वयं विनियुक्तम् । स्तोमे वर्धमाने' इति खण्डे सूत्रितं -

 विष्णोर्नु कमिति सूक्ते परोमात्रयेत्यच्छावाकः' (आश्व. श्रौ. ७. ९.) इति । तथा तृतीयसवने सोमातिरेके उत्तरोत्तरसंस्थोपगन्तव्या आतिरात्रात् ततोऽप्यतिरिक्ते तदर्थमेव शस्त्रमुपजनयितव्यम् । तत्रैतदेव सूक्तम् । ‘ सोमातिरेके' इति खण्डे सूत्रितं - ‘महाँ इन्द्रो नृवद्विष्णोर्नु कम्' (आश्व. श्रौ. ६. ७) इति॥ आग्निमारुतशस्त्रे आद्या विनियुक्ता ।

 अथ यथेतम्' इति खण्डे सूत्रितं - ‘ विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं तन्तुं तन्वन्रजसो भानुमन्विहि ' ( आश्व. श्रौ. ५. २० ) इति ॥


विष्णो॒र्नु कं॑ वी॒र्या॑णि॒ प्र वो॑चं॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजां॑सि ।यो अस्क॑भाय॒दुत्त॑रं स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः ॥१।

अन्वय-

विष्णोः । नु । कम् । वीर्याणि । प्र । वोचम् । यः । पार्थिवानि । विऽममे । रजांसि ।यः । अस्कभायत् । उत्ऽतरम् । सधऽस्थम् । विऽचक्रमाणः । त्रेधा । उरुऽगायः ॥१

हे नराः

"विष्णोः= व्यापनशीलस्य देवस्य

“वीर्याणि= वीरकर्माणि 

“नु "कम् =अतिशीघ्रं 

“प्र “वोचम्= प्रब्रवीमि ।

अत्र यद्यपि नु कम् इति पदद्वयं तथापि यास्केन ' नवोत्तराणि पदानि ' (नि. ३. १३ ) इत्युक्तत्वात् शाखान्तरे एकत्वेन पाठाच्च नु इत्येतस्मिन्नेवार्थे नु कम् इति पदद्वयम् । कानि तानीति तत्राह ।

"यः =विष्णुः “पार्थिवानि= पृथिवीसंबन्धीनि “रजांसि रञ्जनात्मकानि क्षित्यादिलोकत्रयाभिमानीनि अग्निवाय्वादित्यरूपाणि रजांसि। 

“विममे= विशेषेण निर्ममे । अत्र त्रयो लोका अपि पृथिवी शब्दवाच्याः । तथा च मन्त्रान्तरं -- यदिन्द्राग्नी अवमस्यां पृथिव्यां मध्यमस्यां परमस्यामुत स्थः ( ऋ. सं. १. १०८.९) इति। तैत्तिरीयेऽपि - योऽस्यां पृथिव्यामस्यायुषा' इत्युपक्रम्य ‘यो द्वितीयस्यां तृतीयस्यां पृथिव्याम्' (तै. सं. १. २. १२. १ ) इति । तस्मात् लोकत्रयस्य पृथिवीशब्दवाच्यत्वम् । किंच “यः च विष्णुः “उत्तरम् =उद्गततरमतिविस्तीर्णं 

“सधस्थं= सहस्थानं लोकत्रयाश्रयभूतमन्तरिक्षम् “अस्कभायत्= तेषामाधारत्वेन स्तम्भितवान् निर्मितवानित्यर्थः । अनेन अन्तरिक्षाश्रितं लोकत्रयमपि सृष्टवानित्युक्तं भवति । यद्वा । यो विष्णुः पार्थिवानि पृथिवीसंबन्धीनि रजांसि पृथिव्या अधस्तनसप्तलोकान् विममे =विविधं निर्मितवान् । रजःशब्दो लोकवाची, ‘ लोका रजांस्युच्यन्ते । इति यास्केनोक्तत्वात् । किंच यश्चोत्तरम् उद्गततरम् उत्तरभाविनं सधस्थं सहस्थानं पुण्यकृतां सहनिवासयोग्यं भूरादिलोकसप्तकम् अस्कभायत् =स्कम्भितवान् सृष्टवानित्यर्थः ॥ स्कम्भेः 'स्तम्भुस्तुम्भु इति विहितस्य श्नः छन्दसि शायजपि' इति व्यत्ययेन शायजादेशः॥

अथवा पार्थिवानि पृथिवीनिमित्तकानि रजांसि लोकान् विममे । भूरादिलोकत्रयमित्यर्थः । भूम्याम् उपार्जितकर्मभोगार्थत्वात् इतरलोकानां तत्कारणत्वम्। किंच यश्चोत्तरम् उत्कृष्टतरं सर्वेषां लोकानामुपरिभूतम् । अपुनरावृत्तेः तस्योत्कृष्टत्वम् । सधस्थम् उपासकानां सहस्थानं सत्यलोकमस्कभायत् स्कम्भितवान् ध्रुवं स्थापितवानित्यर्थः । किं कुर्वन् । “त्रेधा “विचक्रमाणः त्रिप्रकारं स्वसृष्टान् लोकान्विविधं क्रममाणः । विष्णोस्त्रेधा क्रमणम् इदं विष्णुर्वि चक्रमे ' ( ऋ. सं. १, २२, १७ ) इत्यादिश्रुतिषु प्रसिद्धम् । अत एव “उरुगायः उरुभिः महद्भिः गीयमानः अतिप्रभूतं गीयमानो वा । य एवं कृतवान् तादृशस्य विष्णोर्वीर्याणि प्र वोचम् ॥तृतीयसवने सोमातिरेके एव शस्त्रमुपजनयितव्यम् । तत्र ‘प्र तत्' इत्ययमनुरूपस्तृचः ।

 ‘सोमातिरेके ' इति खण्डे सूत्रितं - ‘ प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येणेति स्तोत्रियानुरूपौ' (आश्व. श्रौ. ६. ७) इति । वाजपेयेनाधिपत्यकामः' इति खण्डे सूत्रितं -‘प्र तत्ते अद्य शिपिविष्ट नाम प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण ' ( आश्व. श्रौ. ९. ९) इति ।।

प्र तद्विष्णु॑: स्तवते वी॒र्ये॑ण मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः ।यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेष्वधिक्षि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥२

अन्वय-

प्र । तत् । विष्णुः । स्तवते । वीर्येण । मृगः । न । भीमः । कुचरः । गिरिऽस्थाः ।यस्य । उरुषु । त्रिषु । विऽक्रमणेषु । अधिऽक्षियन्ति । भुवनानि । विश्वा ॥२

यस्येति वक्ष्यमाणत्वात् स इति अवगम्यते । स महानुभावः “वीर्येण= स्वकीयेन वीरकर्मणा पूर्वोक्तरूपेण "स्तवते =स्तूयते सर्वैः ॥ कर्मणि व्यत्ययेन शप् । वीर्येण स्तूयमानत्वे दृष्टान्तः । “मृगो “न सिंहादिरिव । यथा स्वविरोधिनो मृगयिता= सिंहः “भीमः= भीतिजनकः “कुचरः= कुत्सितहिंसादिकर्ता दुर्गमप्रदेशगन्ता वा “गिरिष्ठाः= पर्वताद्युन्नतप्रदेशस्थायी सर्वैः स्तूयते । अस्मिन्नर्थे निरुक्तं - मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः । मृग इव भीमः कुचरो गिरिष्ठा मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणो भीमो बिभ्यत्यस्माद्भीष्मोऽप्येतस्मादेव । कुचर इति चरतिकर्म कुत्सितमथ चेद्देवताभिधानं क्वायं न चरतीति वा । गिरिष्ठा गिरिस्थायी गिरिः पर्वतः समुद्गीर्णो भवति पर्ववान् पर्वतः पर्व पुनः पृणातेः प्रीणातेर्वा' (निरु. १, २० ) इति । तद्वदयमपि मृगोऽन्वेष्टा शत्रूणां भीमो भयानकः सर्वेषां भीत्यपादानभूतः । परमेश्वराद्भीतिः ‘भीषास्माद्वातः पवते ' ( तै. आ. ८.८. १) इत्यादिश्रुतिषु प्रसिद्धा । किंच कुचरः शत्रुवधादिकुत्सितकर्मकर्ता कुषु सर्वासु भूमिषु लोकत्रये संचारी वा तथा गिरिष्ठाः गिरिवत् उच्छ्रितलोकस्थायी । यद्वा । गिरि मन्त्रादिरूपायां वाचि सर्वदा वर्तमानः । ईडशोऽयं स्वमहिम्ना स्तूयते । किंच “यस्य विष्णोः “उरुषु विस्तीर्णेषु त्रिसंख्याकेषु “विक्रमणेषु पादप्रक्षेपेषु “विश्वा सर्वाणि “भुवनानि भूतजातानि “अधिक्षियन्ति आश्रित्य निवसन्ति स विष्णुः स्तूयते ॥

प्र विष्ण॑वे शू॒षमे॑तु॒ मन्म॑ गिरि॒क्षित॑ उरुगा॒याय॒ वृष्णे॑। य इ॒दं दी॒र्घं प्रय॑तं स॒धस्थ॒मेको॑ विम॒मे त्रि॒भिरित्प॒देभि: ॥३

प्र । विष्णवे । शूषम् । एतु । मन्म । गिरिऽक्षिते । उरुऽगायाय । वृष्णे ।यः । इदम् । दीर्घम् । प्रऽयतम् । सधऽस्थम् । एकः । विऽममे । त्रिऽभिः । इत् । पदेऽभिः ॥३

“विष्णवे= सर्वव्यापकाय “शूषम्= अस्मत्कृत्यादिजन्यं बलं महत्त्वं “मन्म मननं स्तोत्रं मननीयं शूषं बलं वा विष्णुम् “एतु प्राप्नोतु ॥ कर्मणः संप्रदानत्वात् चतुर्थी । कीदृशाय । “गिरिक्षिते वाचि गिरिवदुन्नतप्रदेशे वा तिष्ठते “उरुगायाय बहुभिर्गीयमानाय "वृष्णे वर्षित्रे कामानाम् । एवंमहानुभावं शूषं प्राप्नोतु । कोऽस्य विशेष इति उच्यते । “यः विष्णुः “इदं प्रसिद्धं दृश्यमानं “दीर्घम् अतिविस्तृतं “प्रयतं नियतं “सधस्थ सहस्थानं लोकत्रयम् “एकः “इत् एक एवाद्वितीयः सन् “त्रिभिः “पदेभिः पादैः “विममे विशेषेण निर्मितवान् ।

यस्य॒ त्री पू॒र्णा मधु॑ना प॒दान्यक्षी॑यमाणा स्व॒धया॒ मद॑न्ति । य उ॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वीमु॒त द्यामेको॑ दा॒धार॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥४

पदपाठ-

यस्य । त्री । पूर्णा । मधुना । पदानि । अक्षीयमाणा । स्वधया । मदन्ति ।यः । ऊं इति । त्रिऽधातु । पृथिवीम् । उत । द्याम् । एकः । दाधार । भुवनानि । विश्वा ॥४

“यस्य =विष्णोः “मधुना= मधुरेण दिव्येनामृतेन “पूर्णा= पूर्णानि त्रीणि "पदानि पादप्रक्षेपणानि “अक्षीयमाणा= अक्षीयमाणानि “स्वधया =अन्नेन “मदन्ति =मादयन्ति तदाश्रितजनान् । “य “उ य एव “पृथिवीं प्रख्यातां भूमिं “द्याम् “उत= द्योतनात्मकमन्तरिक्षं च “विश्वा =“भुवनानि सर्वाणि भूतजातानि चतुर्दश लोकांश्च । यद्वा । पृथिवीशब्देन अधोवर्तीनि अतलवितलादिसप्तभुवनान्युपात्तानि । द्युशब्देन तद्वान्तररूपाणि भूरादिसप्तभुवनानि । एवं चतुर्दश लोकान् विश्वा भुवनानि सर्वाण्यपि तत्रत्यानि भूतजातानि । “त्रिधातु । त्रयाणां धातूनां समाहारस्त्रिधातु । पृथिव्यप्तेजोरूपधातुत्रयविशिष्टं यथा भवति तथा “दाधार =धृतवान् ॥ तुजादित्वात् अभ्यासस्य दीर्घत्वम् ॥ उत्पादितवानित्यर्थः । छन्दोगारण्यके - ‘ तत्तेजोऽसृजत तदन्नमसृजत ता आप ऐक्षन्त ' इति भूतत्रयसृष्टिमुक्त्वा हन्ताहमिमास्तिस्रो देवतास्तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकां करवाणि ' ( छा. उ. ६. ३. २-३.) इत्यादिना त्रिवृत्करणसृष्टिरुपपादिता । यद्वा । त्रिधातु कालत्रयं गुणत्रयं वा दाधारेत्यन्वयः ॥

आतिथ्यायां तदस्य' इत्येषा प्रधानस्य याज्या । “अथातिथ्या' इति खण्डे सूत्रितम् - इदं विष्णुर्वि चक्रमे तदस्य प्रियमभि पाथो अश्याम् ' ( आश्व. श्रौ. ४. ५) इति ।

तद॑स्य प्रि॒यम॒भि पाथो॑ अश्यां॒ नरो॒ यत्र॑ देव॒यवो॒ मद॑न्ति ।उ॒रु॒क्र॒मस्य॒ स हि बन्धु॑रि॒त्था विष्णो॑ः प॒दे प॑र॒मे मध्व॒ उत्स॑: ॥५।

तत् । अस्य । प्रियम् । अभि । पाथः । अश्याम् । नरः । यत्र । देवऽयवः । मदन्ति ।उरुऽक्रमस्य । सः । हि । बन्धुः । इत्था । विष्णोः । पदे । परमे । मध्वः । उत्सः ॥५

“अस्य= महतो विष्णोः “प्रियं =प्रियभूतं “तत् सर्वैः सेव्यत्वेन प्रसिद्धं "पाथः । अन्तरिक्षनामैतत्, ‘पाथोऽन्तरिक्षं पथा व्याख्यातम्' (निरु. ६. ७) इति यास्केनोक्तत्वात्। अविनश्वरं ब्रह्मलोकमित्यर्थः। “अश्याम् व्याप्नुयाम् । तदेव विशेष्यते । “यत्र स्थाने “देवयवः देवं द्योतनस्वभावं विष्णुमात्मन इच्छन्तो यज्ञदानादिभिः प्राप्तुमिच्छन्तः “नरः “मदन्ति तृप्तिमनुभवन्ति । तदश्यामित्यन्वयः । पुनरपि तदेव विशेष्यते । “उरुक्रमस्य अत्यधिकं सर्वं जगदाक्रममाणस्य तत्तदात्मना अत एब “विष्णोः व्यापकस्य परमेश्वरस्य “परमे उत्कृष्टे निरतिशये केवलसुखात्मके “पदे स्थाने “मध्वः मधुरस्य “उत्सः निष्यन्दो वर्तते । तदश्याम् । यत्र क्षुत्तृष्णाजरामरणपुनरावृत्त्यादिभयं नास्ति संकल्पमात्रेण अमृतकुल्यादिभोगा: प्राप्यन्ते तादृशमित्यर्थः। ततोऽधिकं नास्तीत्याह । “इत्था इत्थमुक्तप्रकारेण “स “हि “बन्धुः स खलु सर्वेषां सुकृतिनां बन्धुभूतो हितकरः वा तस्य पदं प्राप्तवतां न पुनरावृत्तेः । ‘ न च पुनरावर्तते ' इति श्रुतेस्तस्य बन्धुत्वम् । हिशब्दः सर्वश्रुतिस्मृतिपुराणादिप्रसिद्धिद्योतनार्थः ॥

ता वां॒ वास्तू॑न्युश्मसि॒ गम॑ध्यै॒ यत्र॒ गावो॒ भूरि॑शृङ्गा अ॒यास॑: ।अत्राह॒ तदु॑रुगा॒यस्य॒ वृष्ण॑ः पर॒मं प॒दमव॑ भाति॒ भूरि॑ ॥६

पदपाठ-

ता । वाम् । वास्तूनि । उश्मसि । गमध्यै । यत्र । गावः । भूरिऽशृङ्गाः । अयासः ।अत्र । अह । तत् । उरुऽगायस्य । वृष्णः । परमम् । पदम् । अव । भाति । भूरि ॥६

हे पत्नीयजमानौ “वां युष्मदर्थं “ता तानि गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धानि “वास्तूनि सुखनिवासयोग्यानि स्थानानि “गमध्यै युवयोः गमनाय “उश्मसि कामयामहे । तदर्थं विष्णुं प्रार्थयाम इत्यर्थः । तानीत्युक्तं कानीत्याह । “यत्र येषु वास्तुषु "गावः रश्मयः भूरिशृङ्गाः अत्यन्तोन्नत्युपेता बहुभिराश्रयणीया वा “अयासः अयना गन्तारोऽतिविस्तृताः । यद्वा । यासो गन्तारः । अतादृशाः । अत्यन्तप्रकाशयुक्ता इत्यर्थः । “अत्राह अत्र खलु वास्त्वाधारभूतं द्युलोके “उरुगायस्य बहुभिर्महात्मभिर्गातव्यस्य स्तुत्यस्य “वृष्णः कामानां वर्षितुर्विष्णोस्तत्तादृशं सर्वत्र पुराणादिषु गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धं परमं निरतिशयं “पदं स्थानं “भूरि अतिप्रभूतम् “अव “भाति स्वमहिम्ना स्फुरति । अयं मन्त्रो यास्केन गोशब्दो रश्मिवाचक इति व्याचक्षणेन व्याख्यातः - तानि वां वास्तूनि कामयामहे गमनाय यत्र गावो भूरिशृङ्गा बहुशृङ्गा भूरीति बहुनो नामधेयं प्रभवतीति सतः शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शम्नातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वायासोऽयनाः । तत्र तदुरुगायस्य विष्णोर्महागतेः परमं पदं परार्ध्यस्थमवभाति भूरि । पादः पद्यतेः' (निरु. २. ७) इति ॥ ॥ २४ ॥


विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा॥19।

19. विष्णु के कर्मों के बल ही यजमान अपने व्रतों का अनुष्ठान करते हैं। उनके कर्मों को देखो। वे इन्द्र के उपयुक्त सखा हैं।


तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥

20, आकाश में चारों ओर विचरण करनेवाली आंखें जिस प्रकारदृष्टि रखती हैं, उसी प्रकार विद्वान् भी सदा विष्णु के उस परम पद पर दृष्टि रखते हैं।


तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत्परमं पदम्॥२१।

21. स्तुतिवादी और मेधावी मनुष्य विष्णु के उस परम पद से अपने हृदय को प्रकाशित करते हैं।


विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि। यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः ॥

ऋग्वेद 1.154.1

संस्कृत पाठ [उच्चारण, सादा, लिप्यंतरित]:

विष्णोर्नु कं॑ वीर्यणि॒ प्र वो॑चं॒ यः पार्थिवनी विम॒मे रजां॑सि। यो अस्क॑भय॒दुत्तिरं स॒धस्थं॑ विचक्र्मा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः
विष्णोर्नु कं वीर्यणि प्र वोचं यः पार्थिवनि विम्मे रजांशी। यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः
विशोर नु कां वीर्यानि प्रा वोकां यां पार्थिवनि विममे राजंसी | यो अस्कभयद उत्तरम साधस्थां विक्रमांस त्रेधोरुगय: ||

पदार्थ-
विष्णोः = सर्वत्र व्याप्तस्य देवस्य​,
वीर्याणि = वीरकर्माणि,
 नु कम् = अञ्जसा
प्र वोचम् = वदामि । 
यः = विष्णुः,
पार्थिवानि = भूसम्बद्धानि
रजांसि = अग्नि-वाय्वादीनि तत्त्वानि
विममे = निर्मितवान् । 
यः = विष्णुः
उत्तरम् = अतिविस्तीर्णं,
सधस्थम् = अन्तरिक्षं
अस्कभायत् = निर्मितवान् । 
त्रेधा = प्रकारत्रयेण​
विचक्रमाणः = विविधरूपेण क्रममाणः
उरुगायः = महद्भिः गीयमानः (वर्तते)॥

तात्पर्यम्-
सर्वत्र व्यापनशीलस्य विष्णोः वीरकर्माणि शीघ्रं वदामि । यः पृथिवीसम्बद्धानि अग्निवाय्वादीनि निर्मितवान् । यः अतिविस्तीर्णम् अन्तरिक्षं च निर्मितवान् आधाररूपेण । भूमिं विविधरूपेण क्रममाणः सः महद्भिः प्रभूतं गीयते । तादृशस्य विष्णोः वीरकर्माणि वदामि इत्यर्थः ॥

हिन्दी-
सभी जगह पर व्याप्त विष्णु जी के वीर कार्य को बताता हूं । जो भूमि से सम्बद्ध अग्नि वायु आदि तत्त्वों का सर्जन किया । इन के आधार के रूप में जो बहुत बडा अन्तरिक्ष का भी निर्माण किया । जो भूमि को विविध रूप से क्रममाण हैं ऐसे विष्णु महान लोगों के द्वारा गीयमान हैं ॥

______________


प्र तद्विष्णु: स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥

(यस्य) जिसका-  (उरुषु) विस्तीर्ण (त्रिषु)   तीनों में (विक्रमणेषु)  गतियों में (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (अधिक्षियन्ति) आधाररूप से निवास करते हैं (तत्) वह (विष्णुः)  (वीर्येण) पराक्रम के द्वार  (कुचरः) कुटिलगामी अर्थात् ऊँचे-नीचे नाना प्रकार विषम स्थलों में चलने वाले (गिरिष्ठाः) पर्वत कन्दराओ में स्थिर होनेवाले (मृगः) हरिण के (न) समान (भीमः) भयङ्कर है।  (प्रस्तवते) प्रशंसित करता है ॥ २ ॥


प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित उरुगायाय वृष्णे। य इदं दीर्घं प्रयतं सधस्थमेको विममे त्रिभिरित्पदेभि: ॥


यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमाणा स्वधया मदन्ति। य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा ॥


प्र व: पान्तमन्धसो धियायते महे शूराय विष्णवे चार्चत। या सानुनि पर्वतानामदाभ्या महस्तस्थतुरर्वतेव साधुना ॥


त्वेषमित्था समरणं शिमीवतोरिन्द्राविष्णू सुतपा वामुरुष्यति। या मर्त्याय प्रतिधीयमानमित्कृशानोरस्तुरसनामुरुष्यथ: ॥


ता ईं वर्धन्ति मह्यस्य पौंस्यं नि मातरा नयति रेतसे भुजे। दधाति पुत्रोऽवरं परं पितुर्नाम तृतीयमधि रोचने दिवः ॥


तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसीनस्य त्रातुरवृकस्य मीळ्हुष:। यः पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे ॥


चतुर्भि: साकं नवतिं च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतीँरवीविपत्। बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्वभिर्युवाकुमार: प्रत्येत्याहवम् ॥


भवा मित्रो न शेव्यो घृतासुतिर्विभूतद्युम्न एवया उ सप्रथा:। अधा ते विष्णो विदुषा चिदर्ध्य: स्तोमो यज्ञश्च राध्यो हविष्मता ॥


यः पूर्व्याय वेधसे नवीयसे सुमज्जानये विष्णवे ददाशति। यो जातमस्य महतो महि ब्रवत्सेदु श्रवोभिर्युज्यं चिदभ्यसत् ॥


तमु स्तोतारः पूर्व्यं यथा विद ऋतस्य गर्भं जनुषा पिपर्तन। आस्य जानन्तो नाम चिद्विवक्तन महस्ते विष्णो सुमतिं भजामहे ॥


आ यो विवाय सचथाय दैव्य इन्द्राय विष्णु: सुकृते सुकृत्तरः। वेधा अजिन्वत्त्रिषधस्थ आर्यमृतस्य भागे यजमानमाभजत् ॥


वषट् ते विष्णवास आ कृणोमि तन्मे जुषस्व शिपिविष्ट हव्यम् । वर्धन्तु त्वा सुष्टुतयो गिरो मे यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥


त्वं विष्णो सुमतिं विश्वजन्यामप्रयुतामेवयावो मतिं दा: । पर्चो यथा नः सुवितस्य भूरेरश्वावतः पुरुश्चन्द्रस्य रायः ॥


वषट् ते विष्णवास आ कृणोमि तन्मे जुषस्व शिपिविष्ट हव्यम् । वर्धन्तु त्वा सुष्टुतयो गिरो मे यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥


पदार्थ -
(शिपिविष्ट) हे तेजोमय परमात्मन् ! (हव्यं) हमारी प्रार्थनाओं को (जुषस्व) स्वीकार करें जो (वषट्) बड़ी नम्रतापूर्वक की गई हैं, (विष्णो) हे व्यापक परमात्मन् ! (ते) तुम्हारे (आस) समक्ष प्रार्थनाएँ (आ, कृणोमि) हैं और (मे) मेरी (गिरः) ये वाणियें (सुष्टुतयः) जिनमें भले प्रकार से आपका वर्णन किया गया है, (त्वां) आपके यश को (वर्धन्तु) बढ़ाएँ और (यूयं) आप (सदा) सदैव (स्वस्तिभिः) मङ्गलकार्यों से (पात) हमारी रक्षा करें ॥७॥
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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/
खण्डः१ (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः ५
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वेदव्यासः
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             ।। शौनक उवाच ।। 
 'गोगोपगोप्यो गोलोके किं नित्याः किंनु कल्पिताः।।
मम संदेहभेदार्थं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ।।१।। 

                 ।। सौतिरुवाच ।।
सर्वादिसृष्टौ ताः क्लृप्ताः प्रलये प्रलये स्थिताः ।।
सर्वादिसृष्टिकथनं यन्मया कथितं द्विज ।। २।।

सर्वादिसृष्टौ क्लृप्तौ च नारायणमहेश्वरौ ।।
प्रलये प्रलये व्यक्तौ स्थितौ तौ प्रकृतिश्च सा।।३।।

सर्वादौ ब्रह्मकल्पस्य चरितं कथितं द्विज ।।
वाराहपाद्मकल्पौ द्वौ कथयिष्यामि श्रोष्यसि ।४ ।।

ब्राह्मवाराहपाद्माश्च कल्पाश्च त्रिविधा मुने ।।
यथायुगानि चत्वारि क्रमेण कथितानि च ।। ५ ।।

सत्यं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।।
त्रिशतैश्च षष्ट्यधिकैर्युगैर्दिव्यं युगं स्मृतम् ।। ६ ।।

मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः ।।
चतुर्दशेषु मनुषु गतेषु ब्रह्मणो दिनम् ।। ७ ।।

त्रिशतैश्च षष्ट्यधिकैर्दिनैर्वर्षं च ब्रह्मणः ।।
अष्टोत्तरं वर्षशतं विधेरायुर्निरूपितम् ।। ८ ।।

एतन्निमेषकालस्तु कृष्णस्य परमात्मनः ।।
ब्रह्मणश्चायुषा कल्पः कालविद्भिर्निरूपितः ।। ९ ।।

क्षुद्रकल्पा बहुतरास्ते संवर्तादयः स्मृताः ।।
सप्तकल्पांतजीवी स मार्कण्डेयश्च तन्मतः।1.5.१०।

ब्रह्मणश्च दिनेनैव स कल्पः परिकीर्तितः।।
विधेश्च सप्तदिवसे मुनेरायुर्निरूपितम् ।।११।।

ब्राह्मवाराहपाद्माश्च त्रयः कल्पा निरूपिताः ।।
कल्पत्रये यथा सृष्टिः कथयामि निशामय ।। १२ ।।

ब्राह्मे च मेदिनीं सृष्ट्वा स्रष्टा सृष्टिं चकार सः ।।
मधुकैटभयोश्चैव मेदसा चाज्ञया प्रभोः ।।१३।।

वाराहे तां समुद्धृत्य लुप्तां मग्नां रसातलात् ।।
विष्णोर्वराहरूपस्य द्वारा चातिप्रयत्नतः ।। १४ ।।

पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे ।।
त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना।१५।।

एतत्तु कालसंख्यानमुक्तं सृष्टिनिरूपणे ।।
किंचिन्निरूपणं सृष्टे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।१६ ।।
                 ।। शौनक उवाच ।। 

" भगवान कृष्ण को सात्वतपति कहने का तात्पर्य है कि ये सात्वत धर्म के संस्थापक थे  परन्तु मनुस्मृतिकार सात्वतों को वर्णसंकर लिखकर यादवों के प्रति अपनी घृणात्मक चित्तवृति का परिचय ही दिया है।  


सात्वत यादवों का भागवत धर्म -

मनुस्मृति  यदि मनु की रचना है तो इसमें सात्त्वतों और उन्ही की शाखा आभीर को वर्णसंकर और शूद्र धर्मी क्यों लिखा है ? क्रोष्टा वंश की वृष्णि कुल के ये आभीर गोप यादव आदि विशेषणों से अभिहित हैं ।

_______________________________

अर्थ- वैश्य वर्ण की स्त्री के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।

वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न व्रात्य  पुत्र को सुधन्वाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।

परन्तु मनुस्मृति के उपर्युक्त श्लोक प्रक्षिप्त तथा नकली है ।

 क्योंकि सात्वत जाति प्राचीन काल में शूरसेन (आधुनिक ब्रज प्रदेश) में बसने वाली यादव जाति थी । 

सात्वत लोग, जो  मगध के राजा जरासंध द्वारा आक्रान्ता होने के कारण कुरुपांचाल के शूरसेन प्रदेश से पश्चिमी सीमान्त प्रदेश की ओर भी चले गये थे।

वेदोत्तर ग्रन्थ 'ऐतरेय ब्राह्मण' में दक्षिण के सात्वतों द्वारा इन्द्र के अभिषेक का उल्लेख मिलता है परन्तु यह भ्रान्ति ही है ये नवीन भक्ति मूलक भागवत धर्म के प्रवर्तक थे। यह मालूम होता है कि सात्वतों का दक्षिणगमन उससे पहले हो चुका था। 

वे अपने साथ अपनी धार्मिक परम्पराएँ भी अवश्य लेते गये होंगे।  हरिवंश पुराण में सात्त्वतों का वर्णन-

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 36-40
 👇
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।

बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।

सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।
येन भैमा:सुसंवृत्ता:सत्त्वतात् सात्त्वता:स्मृता:।38।।

राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।

तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।

इस प्रकार यह यदुवंश इक्ष्वाकु वंश से निकला है। फि‍र यदु के चार छोटे पुत्रों द्वारा यह चार अन्य शाखाओं में विभक्त हुआ है। 
________________
वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये।
माधव का पराक्रमी पुत्र सत्त्व नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्वसत राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे।
सत्त्व के पुत्र महान राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये।
सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गया है।
जब राजा भीम आनर्त देश के राज्य पर प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे।

उनके राज्यकाल में शत्रुघ्न ने मधुपुत्र लवण को मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला।

उसी मधुवन के स्थान में सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले प्रभावशाली शत्रुघ्न ने इस मथुरापुरी को बसाया था। 

जब श्रीराम के अवतार का उपसंहार हुआ और श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न सभी परमधाम को पधारे, तब भीम ने इस वैष्णव स्थान (मथुरा) को प्राप्त किया; क्योंकि (लवण के) मारे जाने पर अब उस राज्य, से उन्हीं का लगाव रह गया था।

 (वे ही उत्तराधिकारी होने योग्य थे) भीम ने इस पुरी को अपने वश में किया और वे स्वयं भी यहीं आकर रहने लगे।
सात्वतों की नगरी मथुरा ही थी ।
_________
 तदनन्तर जब अयोध्या के राज्य पर कुश प्रतिष्ठित हुए और लव युवराज बन गये, तब मथुरा में भीम के पुत्र अन्धक राज्य करने लगे।
_______________
अन्धक के पुत्र राजा रेवत हुए इस प्रकार उनसे रैवत (ऋक्ष) की उत्पत्ति हुई। उस समय समुद्र के तट की भूमि पर जो विशाल भूधर था, वह उसी रैवत के नाम पर रैवत पर्वत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

✍✍✍✍
तब मधुपुरी–मथुरा पर भीम ने अधिकार कर लिया। अयोध्या में जब कुश राजा थे–मथुरा सिंहासन पर भीम के पुत्र अंधक का अभिषेक हुआ।
ये अन्धक के पिता भीम यादव थे ।
अन्धको नाम भीमस्ये सुतो राज्यवमकारयत्।।43।।
___
अन्धकस्या सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिव:।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जयज्ञे रम्येन पर्वतमूर्धनि।।44।।

ततो रैवत उत्पकन्नय: पर्वत: सागरान्तिके।
नाम्नाव रैवतको नाम भूमौ भूमिधर: स्मृत:।।45।।
अन्धक के पुत्र रैवत थे। 
इनकी पत्नी ने पुत्र ऋक्ष को पर्वत शिखर पर जन्म दिया था। 

               ।। सौतिरुवाच ।।
अतः परं तु गोलोके गोलोकेशो महान्प्रभुः ।।
एतान्सृष्ट्वा जगामासौ सुरम्यं रासमण्डलम् ।।
एतैः समेतैर्भगवानतीव कमनीयकम् ।। १८ ।।

रम्याणां कल्पवृक्षाणां मध्येऽतीव मनोहरम् ।।
सुविस्तीर्णं च सुसमं सुस्निग्धं मण्डलीकृतम्।१९।

चन्दनागुरुकस्तूरीकुङ्कुमैश्च सुसंस्कृतम् ।।
दधिलाजसक्तुधान्यदूर्वापर्णपरिप्लुतम् ।।1.5.२०।

पट्टसूत्रग्रन्थियुक्तं नवचन्दनपल्लवैः ।।
संयुक्तरम्भास्तम्भानां समूहैः परिवेष्टितम् ।।२१।।

सद्रत्नसारनिर्माणमण्डपानां त्रिकोटिभिः ।।
रत्नप्रदीपज्वलितैः पुष्पधूपादिवासितैः।।२२।।

श्रृँगारार्हभोगवस्तुसमूहपरिवेष्टितम्।।
अतीव ललिताकल्पतल्पयुक्तैः सुशोभितम् ।२३।।

तत्र गत्वा च तैः सार्धं समुवास जगत्पतिः ।।
दृष्ट्वा रासं विस्मितास्ते बभूवुर्मुनिसत्तम ।। २४ ।।

___________________________________

"आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे। २५।

रासे संभूय गोलोके सा दधाव हरेः पुरः।तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्द्विजोत्तम ।२६।

 प्राणाधिष्ठातृदेवी सा कृष्णस्य परमात्मनः।आविर्बभूव प्राणेभ्यः प्राणेभ्योऽपि गरीयसी। २७।।  

देवी षोडशवर्षीया नवयौवनसंयुता ।।
वह्निशुद्धांशुकाधाना सस्मिता सुमनोहरा ।।२८।।

सुकोमलांगी ललिता सुन्दरीषु च सुन्दरी ।।
बृहन्नितम्बभारार्त्ता पीनश्रोणिपयोधरा ।। २९ ।।

बन्धुजीवजिता रक्तसुन्दरोष्ठा धरावरा ।।
मुक्तापङ्क्तिजिता चारुदन्तपंक्तिर्मनोहरा ।। 1.5.३० ।।

शरत्पार्वणकोटीन्दुशोभामृष्टशुभानना ।।
चारुसीमन्तिनीचारुशरत्पङ्कजलोचना।। ३१।।

खगेन्द्रचञ्चुविजितचारुनासा मनोहरा ।।
स्वर्णगण्डूकविजिते गण्डयुग्मे च बिभ्रती ।। ३२।।

दधती चारुकर्णे च रत्नाभरणभूषिते ।।
चन्दनागुरुकस्तूरीयुक्तकुंकुमबिन्दुभिः ।। ३३।।

सिन्दूरबिन्दुसंयुक्तसुकपोला मनोहरा ।।
सुसंस्कृतं केशपाशं मालतीमाल्यभूषितम् ।३४।

सुगन्धकबरीभारं सुन्दरं दधती सती ।।
स्थलपद्मप्रभामुष्टं पादयुग्मं च बिभ्रती ।।३५।।

गमनं कुर्वती सा च हंसखञ्जनगञ्जनम् ।।
सद्रत्नसारनिर्माणां वनमाली मनोहराम्।।३६।।

हारं हीरकनिर्माणं रत्नकेयूरकङ्कणम् ।।
सद्रत्नसारनिर्माणं पाशकं सुमनोहरम् ।। ३७ ।।

अमूल्यरत्ननिर्माणं क्वणन्मञ्जीररञ्जितम् ।।
नानाप्रकारचित्राढ्यं सुन्दरं परिबिभ्रती ।। ३८ ।।

सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे ।।
उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम् ।। ३९।।

"तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः ।।      आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।1.5.४०।

लक्षकोटीपरिमितः शश्वत्सुस्थिरयौवनः।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो गोलोके गोपिकागणः। ४१।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने ।।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः ।।
।४२।

 त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ। ४३।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।।
नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।

बलीवर्दाः सुरभ्यश्च वत्सा नानाविधाः शुभाः ।।
अतीव ललिताः श्यामा बह्व्यो वै कामधेनवः ।। ४५। 

तेषामेकं बलीवर्दं कोटिसिंहसमं बले ।।
शिवाय प्रददौ कृष्णो वाहनाय मनोहरम्।४६ ।

कृष्णांघ्रिनखरन्धेभ्यो हंसपङ्क्तिर्मनोहरा ।।
आविर्बभूवसहसा स्त्रीपुंवत्ससमन्विता।४७। 

तेषामेकं राजहंसं महाबलपराक्रमम् ।।
वाहनाय ददौ कृष्णो ब्रह्मणे च तपस्विने । ४८ ।

वामकर्णस्य विवरात्कृष्णस्य परमात्मनः।
गणः श्वेततुरङ्गाणामाविर्भूतो मनोहरः ।४९।

तेषामेकं च श्वेताश्वं धर्मार्थं वाहनाय च ।।
ददौ गोपाङ्गनेशश्च संप्रीत्या सुरसंसदि ।1.5.५०।

दास्यो नियुक्ता दसाश्चैवार्घ्यमादाय यत्नतः।
आविर्भूता वैष्णवाश्च सर्वे कृष्णपरायणाः।६८।

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इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५ ।


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