" यदुवंश में उत्पन्न सहस्रबाहु की पूजा का शास्त्रीय विधान" सहस्रबाहू का वैष्णव अंश होना तथा सहस्रबाहू अर्जुन द्वारा परशुराम का वध व रावण को दशवर्ष पर्यन्त अपने कारागार में बन्धन में रखने का पौराणिक प्रसंग-
- हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः । विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।७५-१०६।
अनुवाद:- हनुमान की भक्ति में आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना प्रारम्भ कर जैसा चाहें वैसा ही फल प्राप्त करें-।।१०६।
सन्दर्भ :- नारदपुराण पूर्वभाग- 75 वाँ अध्याय :-
जो सत्य हम कहेंगे वह कोई नहीं कहेगा-एक स्थान पर परशुराम ने स्वयं- कार्तवीर्य्य अर्जुन के द्वारा अपना वध होने से पूर्व सहस्रबाहू की भूरि- भूरि प्रशंसा करते हुए कहा-
हे राजन् ! (प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है ; और ना ही आगे होगा।
पुराणों के अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान का वर्णन करते हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड के समान ही हैं। प्रस्तुत करते हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८ ) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है।
- दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् । जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
अर्थ:-परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को भी कार्तवीर्य ने स्तम्भित(जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
- श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
अर्थ:- जब परशुराम ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा सहस्रबाहू को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) को भी परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९।
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- तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः। ददौ शूलं हि परशुरामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
अर्थ- उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म (काला-कवच) प्रदान किया।८५।
विशेष :- यदि परशुराम विष्णु का अवतरण थे ; तो विष्णु के ही अंशावतार दत्तात्रेय ने परशुराम के वध के निमित्त सहस्रबाहू को शूल और कृष्ण वर्म क्यों प्रदान किया ?
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- "जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप परशुरामकन्धरे।मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।
अर्थ:-तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत्त शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का नाम लेते हुए परशुराम मूर्छित हो गिर गये।।८६।
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये और कोहराम मच गया , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं- यदि परशुराम हरि (विष्णु) के अवतार थे तो उन्होंने मूर्च्छित होकर मरते समय विष्णु अथवा हरि का क्यों नाम लिया। यदि वे स्वयं विष्णु के अवतार थे तो इसका अर्थ यही है कि परशुराम हरि अथवा विष्णु का अवतार नही थे।
उन्हें बाद में पुरोहितों ने अवतार बना दिया वास्तव में सहस्रबाहू ने परशुराम का वध कर दिया था।
परन्तु परशुराम का वध जातिवादी पुरोहित वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाना ही था। इसीलिए इसी समस्या के निदान के लिए पुरोहितों ने ब्रह्मवैवर्त- पुराण में निम्न श्लोक बनाकर जोड़ दिया कि परशुराम को मरने बाद शिव द्वारा जीवित करना बता दिया गया ।
और इस घटना को चमत्कारिक बना दिया गया। यह ब्राह्मण युक्ति थी । परन्तु सच्चाई यही है कि मरने के व़बाद कभी कोई जिन्दा ही नहीं हुआ।
विशेष :- उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण रूप में भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सहस्रबाहू की परशुराम से युद्ध होने पर रक्षा कर रहे हैं तो सहस्रबाहू को परशुराम कैसे मार सकते हैं ।
यदि शास्त्रकार सहस्रबाहू को परशुराम द्वारा मारा जाना वर्णन करते हैं तो भी उपर्युक्त श्लोक में विष्णु को शक्तिहीन और साधारण होना ही सूचित करते हैं जोकि शास्त्रीय सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत ही है। जबकि विष्णु सर्वशक्तिमान हैं।
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जिस प्रकार पुराणों में बाद में यह आख्यान जोड़ा गया कि परशुराम ने "गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की और क्षत्रियों पत्नीयों कोतक को मार डाला। यह कृत्य करना विष्णु के अवतारी का गुण हो सकता है। ? कभी नहीं।
महाभारत शान्तिपर्व में वर्णन है कि - परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ? यह सर्वविदित ही है। इस सन्दर्भ में देखें निम्न श्लोक
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- "स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।
- "जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कान्श्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
- "त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः। दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय- ४८)
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"अर्थ-"नरेश्वर! परशुराम ने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक को शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् (स्रुवा) लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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(ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
में भी वर्णन है कि (२१) बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी ! यह आख्यान भी परशुराम को विष्णु का अवतार सिद्ध नहीं करता-
क्योंकि विष्णु कभी भी निर्दोष गर्भस्थ शिशुओं का वध नहीं करेंगे।
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- "एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् । रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३।
- "गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमं जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४।
ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपतिखण्ड अध्याय-(40)
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गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)
महाभारत: वनपर्व:सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः(117) श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद :-
रेणुका स्नान करने के लिए गंगा नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था।
उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की।
उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी। फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये। उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की।
इसी समय जमदग्नि के ज्येष्ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुषेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे। जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो',
परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया।
शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षियों के समान जड़-बुद्धि हो गये।
"महाभारत: वनपर्व: अध्याय: (११७ )वाँ श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद-
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तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये। उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापिनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला।
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कालिका पुराण में भी परशुराम और रेणुका की कथा महाभारत वन पर्व के समान ही है।
"एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।८३.८।
अनुवाद:-एक बार परशुराम की माता रेणुका स्नान के लिए गयीं तभी गंगा के जल में स्नान करते हुए चित्ररथ नामक एक राजा को देखा।८।
"भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्। ८३.९ ।।
अनुवाद:-
वह अपनी सुन्दर पत्नीयों के साथ शुभ जल क्रीडा में रत था। वह राजा सुन्दर मालाओं सुन्दर वस्त्र से युक्त युवा चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था।९।
"तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्। रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे। ८३.१० ।
अनुवाद:-
उस प्रकार राजा को देखकर वह रेणुका अत्यधिक काम से पीडित हो गयी और रेणुका ने उस वर्चस्व शाली राजा की इच्छा की।१०।
"स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदः समजायत।विचेतनाम्भसा क्लिन्ना त्रस्ता सा स्वाश्रमं ययौ। ८३.११ ।।
अनुवाद:-
राजा की इच्छा करती हुई वह रज:स्रवित हो गयी और चेतना हीन रज स्राव के जल से भीगी हुई डरी हुई अपने आश्रम को गयी।।११।
"अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा। धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः। ८३.१२ ।।
अनुवाद:-
उस रेणुका को जमदग्नि ने विकृत अवस्था में जानकर उसकी सब प्रकार से निन्दा की और उस रति पीडिता को धिक्कारा।१२।
"ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।८३.१३।
अनुवाद:-
तब क्रोधित जमदग्नि ने अपने रुषणवत् आदि चारों पुत्रों से एक एक से कहा। १३।
"छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्। ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।८३.१४।
अनुवाद:-
जल्दी ही पाप में निरत इस रेणुका को काट दोलेकिन पुत्र उनकी बात न मान कर मूक और जड़ ही बने रहे।१४।
"कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः। भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिर्गर्द्धिता:।८३.१५।
अनुवाद:-
क्रोधित जमदग्नि ने उन सबको शाप दिया की सभी जड़ बुद्धि हो जाएं । कि तुम सब सदैव के लिए घृणित जड़ गो बुद्धि को प्राप्त हो जाओ।१५।
अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान् ।। तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।८३.१६ ।।
अनुवाद:-तभी जमदग्नि के अन्तिम पुत्र शक्तिशाली परशुराम आये जमदग्नि ने परशुराम से कहा पापयुक्ता इस माता को तुम काट दो।१६।
स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्। पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत्।८३.१७ ।।
अनुवाद:-पिता के द्वारा शापित ज्ञान से शून्य अपने भाइयों को देखकर उस परशुराम ने अपनी माता रेणुका का शिर फरसा से काट दिया ।
"रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वा विक्रोधनोऽभवत्।।जमदग्निः प्रसन्नः सन्निति वाचमुवाच ह।८३.१८ ।।
अनुवाद:-परशुराम के द्वारा कटी हुई रेणुका को देखकर जमदग्नि क्रोधरहित हो गये। और जमदग्नि प्रसन्न होते हुए यह वचन बोले!।१८।
"प्रीतोऽस्मि पुत्र भद्र ते यत् त्वया मद्वचः कृतम्।। ८३.१८- १/२।
अनुवाद:-मैं प्रसन्न हूँ। पुत्र तेरा कल्याण हो ! तू मुझसे कुछ माँग ले!।१९।
"श्रीकालिकापुराणे त्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।
शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -
उनसे प्रभावित पुरोहितों नें पुराणों में कालान्तर में लेखन कार्य जोड़ दिए-
सहस्रबाहूू की कथा को विपरीत अर्थ -विधि से लिखा गया
परशुराम ने कभी भी पृथ्वी से (२१) बार क्षत्रिय हैहयवंशीयों का वध किया ही नहीं।
परन्तु इस अस्तित्व हीन बात को बड़ा- चढ़ाकर बाद में लिखा गया।
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अब प्रश्न यह भी उठता है ! कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैंकि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -
- भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि
- "तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
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"मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक
यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28
अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते।। 3/14
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महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र- पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही सिद्ध करते हैं ।
मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---
कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ?
किस सिद्धान्त की अवहेलना करके ! क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?
"प्रधानता बीज की होती है नकि खेत कीक्यों कि दृश्य जगत में फसल का निर्धारण बीज के अनुसार ही होता है नकि स्त्री रूपी खेत के अनुसार--
सहस्रबाहु की पूजा का विधान ( नारदपुराण-पूर्वाद्ध- में किया गया है।
शास्त्रों में भगवान की पूजा का विधान तो हुआ है दुष्ट या व्यभिचारी की पूजा का विधान तो नहीं हुआ है।
बुद्धिमान कार्तवीर्य अर्जुन की पूजा हनुमान की पूजा से जुड़ी हुई हैं।
विशेष रूप से देवता की पूजा करनी चाहिए और ऊपर बताए अनुसार फल प्राप्त करना चाहिए 75-106।
यह श्री बृहन्नारायण पुराण के पूर्वी भाग में बृहदुपाख्यान के तीसरे भाग का पचहत्तरवाँ अध्याय है, जिसका शीर्षक दीपक की विधि का विवरण है।।75।।
- अनेन मनुना मन्त्री ग्रहग्रस्तं प्रमार्जयेत् ।।आक्रंदंस्तं विमुच्याथ ग्रहः शीघ्रं पलायते ।। ७५-१०४।
- मनवोऽमी सदागोप्या न प्रकाश्या यतस्ततः । परीक्षिताय शिष्याय देया वा निजसूनवे । ७५-१०५ ।
- हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।। विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे दीपविधिनिरूपणं नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७५ ।।
नारदपुराणम्- पूर्वार्द्ध अध्यायः (७६)
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"नारद उवाच।
- "कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि ।जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः ।।१।।
अनुवाद:-देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। १-।
- तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः।समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम्।२।
अनुवाद:-तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है।
"सनत्कुमार उवाच"
- श्रृणु नारद वक्ष्यामि संदेहविनिवृत्तये। यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।३।
अनुवाद:-
सनत्कुमार ने कहा! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय( सेव्यमान) कहे गये हैं।३।
- "यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।। दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।४।
अनुवाद:-
ये पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।४।*******
- तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद ।।शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम् ।।५।।****
अनुवाद:-
हे नारद कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।५।
- तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् । तुभ्यं प्रकाशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।६ ।
अनुवाद:-
कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।६।
- वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशान्तियुक्।वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक् ।७।
- पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम्। रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ।८।
- मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः ।ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः।९ ।
- दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत् ।१०।
- शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः ।शान्तियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम्।११।
- इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया ।।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ।१२।
- वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः ।हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः ।े१३ ।
- दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जङ्घयोः । विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।
- ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके ।भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।।१५ ।।
- सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः ।।सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। १६ ।।
इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१६।
- उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।। दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च ।१७ ।।
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- दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम् । चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८।
अनुवाद:-
ध्यान :- इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के 500 दक्षिणी हाथों में वाण और 500 उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र( लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।१७-१८।
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- लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।।सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजत्तुतम् ।१९ ।
- षट्कोणेषु षडंगानि ततो दिक्षु विविक्षु च ।चौरमदविभञ्जनं मारीमदविभंजनम् ।२०।।
- अरिमदविभंजनं दैत्यमदविभंजनम् ।। दुष्टनाशं दुःखनाशं दुरितापद्विनाशकम् ।२१।
- दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिष्वसितप्रभाः । क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।२२।
- आयुः करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः।धनकर्यष्टमी पश्चाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः ।२३।
अनुवाद:-ध्यान के उपरांत एक लाख और जप के उपरान्त होम, तिल, चावल, तथा पायस ( खीर ) से पूजा करके विष्णु पीठ पर इनका पूजन करें । उसके बाद षट्कोण में पूजा करके दिक् विदिक् में षडंगदेवगण की पूजा करें।
इसमें चौरमद नारीमद शत्रुमद दैत्यमद का और दुष्ट का और दु:ख का तथा पाप का नाश होता है।
जिस रावण को वश में करने और परास्त करने के लिए राम ने सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया था उसी रावण को मात्र पाँच वाणो में परास्त कर बन्दी बना लिया-
- एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः। लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ४३.३७।
- निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च। ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।। ४३.३८।
- मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्। तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।। ४३.३९।
एक बार सम्राट सहस्रबाहु अपनी अनेक रानीयों के साथ भ्रमण करते हुए नर्मदा नदी में स्नान करने के लिए उतरे तो स्नान करते हुए एक पत्नी ने उनसे कहा कि क्या वे नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक सकते हैं ।
तो सहस्रबाहु ने पत्नी के कहने पर अपने हजार बाहूओं को फैलाकर नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक दिया इस से नर्मदा नदी का जल इधर उधर बहने लगा उसी कुछ ही दूरी पर रावण शंकर भगवान् की आराधना कर रहा था
उस जल के प्रवाह से उसकी पूजन सामग्री नैवेद्य आदि बह गयी क्रोधित रावण कारण का पता लगाते हुए सहस्रबाहु के पास पहुँच कर उससे युद्ध करने लगा तभी सहस्रबाहु ने अपने पाँच वाणों से ही परास्त कर रावण को बन्धी बना लिया था और दश वर्ष पर्यन्त अपने कारागार में रखा
तब रावण के पितामह विश्रवा के पिता पुलस्त्य वहाँ आये और रावण को मुक्त करने के लिए सहस्र बाहु से निवेदन किया सहस्रबाहु ने पुलस्त्य के उस निवेदन को स्वीकार करके रावण को मुक्त कर दिया।
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मत्स्यपुराण अध्याय- (43)
यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन-
- दत्तमाराधयामास कार्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।तस्मै दत्तावरास्तेन चत्वारः पुरुषोत्तम। ४३.१५।
कार्तवीर्य ने जब दतात्रेय की आराधना की तो अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय ने उनको चार वरदान दिए-१५।
- पूर्वं बाहुसहस्रन्तु स वव्रे राजसत्तमः। अधर्मं चरमाणस्य सद्भिश्चापि निवारणम्।४३.१६
पहले उसको कहने पर हजार बाहु दीं और जो संसासार में अधर्म है उसका निवारण करे का वरदान दिया।१६।
- युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणैवानुपालनम्। संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद् भवेत्। ४३.१७।
युद्ध में पृथ्वी जीतकर धर्म से उसका पालन करो और संग्राम में वर्तमान रहने पर वध तुमसे शक्ति शाली ही कर सकता है।१७।
- तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता। ४३.१८ ।
तुम्हारे द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी और सातद्वीप, पर्वतों सहित, समुद्र क्षत्रिय धर्म की विधि सबको जीत लिया जाय।१८।
- जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः। रथो ध्वजश्च सञ्जज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।४३.१९ ।
- दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा। निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः। ४३.२०।
- सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः। ४३.२१।
- सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः। ४३.२२।
- तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य स: ४३.२३।
- न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च। ४३.२४।
- स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।। ४३.२५।
- पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः। स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।४३.२६।
- स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।४३.२७।
- योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा। भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः। ४३.२८।
- एष नागं मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः।कर्कोटकसुतं जित्वा पुर्य्यां तत्र न्यवेशयत्। ४३.२९।
- एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै। क्रीड़न्नेव सुखोद्भिन्नः प्रतिस्रोतो महीपतिः।। ४३.३०।
- ललता क्रीड़ता तेन प्रतिस्रग्दाममालिनी। ऊर्मि भ्रुकुटिसन्त्रा सा चकिताभ्येति नर्म्मदा।। ४३.३१।
- एको बाहुसहस्रेण वगाहे स महार्णवः।करोत्युह्यतवेगान्तु नर्मदां प्रावृडुह्यताम्।। ४३.३२।
- तस्य बाहुसहस्रेणा क्षोभ्यमाने महोदधौ।भवन्त्यतीव निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः।। ४३.३३।
- चूर्णीकृतमहावीचि लीन मीन महातिमिम्। मारुता विद्धफेनौघ्ज्ञ मावर्त्ताक्षिप्त दुःसहम्। ४३.३४।
- करोत्यालोडयन्नेव दोः सहस्रेण सागरम्।मन्दारक्षोभचकिता ह्यमृतोत्पादशङ्किताः। ४३.३५।
- तदा निश्चलमूर्द्धानो भवन्ति च महोरगाः। सायाह्ने कदलीखण्डा निर्वात स्तिमिता इव। ४३.३६।
- एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः। लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्। ४३.३७।
- निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्। ४३.३८।
- मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्। तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।४३.३९।
अनुवाद:-और इस प्रकार धनुष पर प्रत्यञ्ज्या चढ़ाकर केवल पाँच वाणों से लंका में मोहित करके बल पूर्वक रावण को जीत कर और बंधी बनाकर महिष्मती में कारागार में डाल दिया तब जाकर पुलस्त्य ऋषि ने सहस्रबाहु को प्रसन्न कर के उस रावण को छुड़ाया-। सहस्रबाहु की हजार भुजाओं के द्वारा प्रत्यञ्चा का महान शब्द हुआ।३७-३८-३९।
विशेष :- रावण सहस्रबाहू के कारागार में दशवर्ष पर्यन्त बन्धी रहा-
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मत्स्यपुराण अध्याय (43)
यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन सहस्रार्जुन जयंती कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है। सहस्रार्जुन की कथाएं, महाभारत एवं वेदों के साथ सभी पुराणों में प्राय: पाई जाती हैं। चंद्रवंश के हैहय के कुल में हुआ। महाराज कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रार्जुन) का जन्म कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। वह भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के द्वारा जन्म कथा का वर्णन भागवत पुराण में लिखा है। अत: सभी अवतारों के भांति वह भी भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार माने गए हैं, इनके नाम से भी पुराण संग्रह में सहस्रार्जुन पुराण के तीन भाग हैं।
यह भी धारणा मानी जाती है कि इस कुल वंश ने सबसे ज्यादा 12000 से अधिक वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन किया था। श्री राज राजेश्वर सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय के दसवीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था, राजा कृतवीर्य के संतान होने के कारण ही इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय के भक्त होने के नाते उनकी तपस्या कर मांगे गए सहस्त्र बाहु भुजाओं के बल के वरदान के कारन उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहा जाता है।
पूजा विधि-
सहस्रार्जुन विष्णु के चौबीसवें अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी की सहस्रार्जुन जयंती एक पर्व और उत्सव के रूप में मनाई जाती है। हिंदू धर्म संस्कृति और पूजा-पाठ के अनुसार स्नानादि से निवृत हो कर ब्रत का संकल्प करें और दिन में उपवास अथवा फलाहार कर शाम में सहस्रार्जुन का हवन-पूजन करे तथा उनकी कथा सुनें।
पुराण में कथा-वर्णन-
श्रीमद भागवत पुराण के अनुसार चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति से श्री राज राजेश्वर सहस्रबाहु का इतिहास प्रारंभ होता है,
महाराज ययाति की दो रानियाँ देवयानी व शर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए इसमें यदु सबसे बड़े पुत्र सहस्रजित के पुत्र हैहय की शाखा में कार्तवीर्य अर्जुन का जन्म हुआ ।
नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान- और उनकी प्रशंसा-
- दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् । वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८।
- एवं संपूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम्।यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम्।८०-५९।
- पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।।
- दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः। ८०-६१ ।
- सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।। सुशीला च लसद्रम्यचित्रिताम्बरभूषणा ।८०-६२।
- ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम्। नन्दगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।
- गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपांडुरौ।८०-६४।
- दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः। धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।
अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।
"अर्जुन उवाच-
- "स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।
"अनुवाद:-
अर्जुन बोले - हे केशव ! परमात्मा में स्थित- बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं ? वह स्थित बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?
"श्री भगवानुवाच
"प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
अनुवाद:-
मूल श्लोकः"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।
दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होनेपर जिसके मन में वासना उत्पन्न नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह (मुनि)मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।2.56।
मूल श्लोकः"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।
अनुवाद
सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।2•57।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।
हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवाले का और न बिलकुल न खानेवाले का तथा न अधिक सोनेवाले का और न बिलकुल न सोनेवाले का ही सिद्ध होता है।।6.16।।
अब योगीके आहार आदिके नियम कहे जाते हैं अधिक खानेवालेका अर्थात् अपनी शक्ति का उल्लङ्घन करके शक्तिसे अधिक भोजन करनेवालाका योग सिद्ध नहीं होता और बिल्कुल न खानेवालेका भी योग सिद्ध नहीं होता क्योंकि यह श्रुति है कि जो अपने शरीरकी शक्तिके अनुसार अन्न खाया जाता है वह रक्षा करता है वह कष्ट नहीं देता ( बिगाड़ नहीं करता ) जो उससे अधिक होता है वह कष्ट देता है और जो प्रमाणसे कम होता है वह रक्षा नहीं करता। इसलिये योगीको चाहिये कि अपने लिये जितना उपयुक्त हो उससे कम या ज्यादा अन्न न खाय।
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
अनुवादबुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्थामें ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।।
"कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।2.51।।
अनुवाद
समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं।।।2.51।।
मूल श्लोकः"विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2.59।।
अनुवाद
निराहारी (इन्द्रियों को विषयों से हटानेवाले) मनुष्य के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यका तो रस भी परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे निवृत्त हो जाता है।।।2.59।।
"यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।
अनुवाद
हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।।।2.60।।
"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।
अनुवाद
विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति (लगाव) पैदा हो जाता है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना की पूर्ति न होने क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य का पतन हो जाता है।।।2.62 -- 2.63।।
"क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रञ्शाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।
अनुवाद
विषयों का चिन्तन करनेवाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।।।2.62 -- 2.63।।
"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।
अनुवाद
जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका( निर्णायिका) बुद्धि नहीं होती और निर्णायिका बुद्धि न होने से उसमें कर्तव्यपरायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है ? ।।2.66।।
मूल श्लोकः- "इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।।
अनुवाद:-अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।।।2.67।।
- "योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
अनुवाद
हे धनञ्जय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।2.48।।
"श्रीभगवानुवाच ।
- "अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥६३॥
- नाहं आत्मानमाशासे मद्भक्तैः साधुभिर्विना। श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिःअहं परा॥६४॥
(श्रीमद्भागवतम्-9.4.63-64)
अनुवाद
"भगवान श्रीकृष्ण ने कहा:-
"दुर्वासा जी ! मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उनको प्रिय हूँ।६३।
अनुवाद
हे विप्र ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ।इस लिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।
- "सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।
अनुवाद
सुख-दु:ख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ; इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा।।2.38 ।।
- "मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः। सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।14.25
अनुवाद
जो मान और अपमान में सम है; शत्रु और मित्र के पक्ष में भी सम है, ऐसा सर्वारम्भ परित्यागी पुरुष गुणातीत कहा जाता है।।
- "योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
अनुवाद
हे धनञजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।
- "दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।
अनुवाद
दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है? जिसके मन से राग? भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं? वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
- "यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।12.17।।
अनुवाद
जो न हर्षित होता है और न द्वेष करता है; न शोक करता है और न आकांक्षा; तथा जो शुभ और अशुभ को त्याग देता है, वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।।
- 'यदुवंश के सनातन विशेषण-आभीर, गोप और यादव। अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में देवमीढ के नन्द और वसुदेव दोंनो के पितामह होने के शास्त्रीय सन्दर्भ तथा मथुरा नगर का नामकरण ।
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चित्ररथ - यादव वंश के एक राजा। वे उषङ्क: के पुत्र और शूर के पिता थे। (श्लोक 29, अध्याय- 251, अनुशासन पर्व)।
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यदुस्तस्मान्महासत्वः क्रोष्टा तस्माद्भविष्यति।
क्रोष्टुश्चैव महान्पुत्रो वृजिनीवान्भविष्यति।28। (महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय-251)
वृजिनीवतश्च भविता उषङ्गुरपराजितः।
उषङ्गोर्भविता पुत्रः शूरश्चित्ररथस्तथा।
तस्य त्ववरजः पुत्रः शूरो नाम भविष्यति।29।(महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय-251)
तेषां विख्यातवीर्याणां चरित्रगुणशालिनाम्।
यज्वनां सुविशुद्धानां वंशे ब्राह्मणसम्मते।।30।
(महाभारत अनुशासन-पर्व अध्याय-251)
स शूरः क्षत्रियश्रेष्ठो महावीर्यो महायशाः।
स्ववंशविस्तरकरं जनयिष्यति मानदः।
वसुदेव इति ख्यातं पुत्रमानकदुन्दुभिम्।।31।
तस्य पुत्रश्चतुर्बाहुर्वासुदेवो भविष्यति।
दाता ब्राह्मणसत्कर्ता ब्रह्मभूतो द्विजप्रियः।32।
राज्ञो मागधसंरुद्धान्मोक्षयिष्यति यादवः।
जरासंधं तु राजानं निर्जित्य गिरिगह्वरे।33।
सर्वपार्थिवरत्नाढ्यो भविष्यति स वीर्यवान्।
पृथिव्यामप्रतिहतो वीर्येण च भविष्यति।34।
विक्रमेण च सम्पन्नः सर्वपार्थिवपार्थिवः।।
शूरसेनेषु भूत्वा स द्वारकायां वसन्प्रभुः।35।
यदु से क्रोष्टा का जन्म होगा, क्रोष्टा से महान् पुत्र वृजिनीवान् होंगे। वृजिनीवान् से विजय वीर उषंक का जन्म होगा। उषंक का पुत्र शूरवीर चित्ररथ होगा। उसका छोटा पुत्र शूर नाम से विख्यात होगा।
वे सभी यदुवंशी विख्यात पराक्रमी, सदाचार और सद्गुण से सुशोभित, यज्ञशील और विशुद्ध आचार-विचार वाले होंगे।
उनका कुल ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित होगा।
उस कुल में महापराक्रमी, महायशस्वी और दूसरों को सम्मान देने वाले क्षत्रिय-शिरोमणि शूर अपने वंश का विस्तार करने वाले वसुदेव नामक पुत्र को जन्म देंगे,
जिसका दूसरा नाम आनकदुन्दुभि होगा।
उन्हीं के पुत्र चार-भुजाधारी भगवान वासुदेव होंगे। भगवान वासुदेव दानी, ब्राह्मणों का सत्कार करने वाले, ब्रह्मभूत और ब्राह्मणप्रिय होंगे। वे यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण मगधराज जरासंध की कैद में पड़े हुए राजाओं को बन्धन से छुड़ायेंगे।
वे पराक्रमी श्रीहरि पर्वत की कन्दरा(राजगृह)- में राजा जरासंध को जीतकर समस्त राजाओं के द्वारा उपहृत रत्नों से सम्पन्न होंगे।
वे इस भूमण्डल में अपने बल-पराक्रम द्वारा अजेय होंगे। विक्रम से सम्पन्न् तथा समस्त राजाओं के भी राजा होंगे। नीतिवेत्ता भगवान श्रीकृष्ण शूरसेन देश (मथुरा-मण्डल)- में अवतीर्ण होकर वहाँ से द्वारकापुरी में जाकर रहेंगे और समस्त राजाओं को जीतकर सदा इस पृथ्वी देवी का पालन करेंगे।
"श्रीमन्महाभारत अनुशासनपर्व
दानधर्मपर्व नामक एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।251।
इसी प्रकार का वर्णन यथावत् ब्रह्म-पुराण के (226) वें अध्याय में हैं। सम्भवतः दोनों समान श्लोक एक लेखक के द्वारा लिखित हैं।
यदुस्तस्मान्महासत्त्वः क्रोष्टा तस्माद्भविष्यति।
क्रोष्टुश्चैव महान्पुत्रो वृजीनीवान्भविष्यति।। २२६.३६ ।।
वृजिनीवतश्च भविता उषङ्गरपराजितः।
उषङ्गोर्भविता पुत्रः शूरश्चित्ररथस्तथा।२२६.३७ ।
तस्य त्ववरजः पुत्रः शुरो नाम भविष्यति।
तेषां विख्यातवीर्याणां चारित्रगुणशालिनाम्। २२६.३८।
यज्विनां च विशुद्धानां वंशे ब्राह्मणसत्तमाः।
स शूरः क्षत्रियश्रेष्ठो महावीर्यो महायशाः।२२६.३९।
स्ववंशविस्तारकरं जनयिष्यति मानदम्।
वसुदेवमिति ख्यातं पुत्रमानकदुन्दुभिम्। २२६.४०।
तस्य पुत्रश्चतुर्बाहुर्वासुदेवो भविष्यति।
दाता ब्राह्मणसत्कर्ता ब्रह्मभूतो द्विजप्रियः। २२६.४१
श्री ब्रह्मपुराणे आदिब्राह्मे ऋषिमहेश्वरसंवादे षड़विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। २२६ ।।
भागवत पुराण तथा विष्णु पुराण में उषंग के स्थान पर "रुषद और "रूषेकु" नाम है वहाँ रूषद के पुत्र चित्ररथ हैं जिनसे शशबिन्दु का जन्म होता है। जैसे -
यदुनन्दन क्रोष्टा के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु क्रोष्टा वंश के अन्तर्गत थे।
रुशेकु शब्द ही कहीं "रुषदद्रु- उषदगु- रषदगु विभिन्न उच्चारणों में प्राप्त है।
भागवत पुराण नवम स्कन्ध अध्याय- (२३) में वर्णन है। ब्रह्माण्ड पुराण - अध्याय 70 में भी रुषेकु नाम है। भागवत के समान ही वंशावली है।
विष्णु पुराण में पञ्चमांश के बारहवें (12)अध्याय में रुषद्रु नाम है। और वंशावली भागवत पराण के समान ही है।
देवमीढ़ के अनेक नाम रहे होंगे । जैसे चित्ररथ , विश्वगर्भ- और स्वयं देवमीढ़ आदि परन्तु महाभारत और ब्रह्मपुराण में चित्ररथ के पुत्र शूरसेन और शूरसेन के पुत्र वसुदेव बताना पूर्णत: प्रक्षिप्त है।
महाऊ़भारत के खिलभाग हरिवंश पुराण में भी यदुवंश का विवरण भिन्न तथा क्षेपक ही है। फिर भी बहुत सी बाते सहीं भी हैं। क्षेपक और सही दोनों तथ्यों का हम तर्क व सिद्धान्त पूर्वक विवेचन करेंगे-
हरिवंश पुराण के अनुसार-नन्द और वसुदेव के पितामह देवमीढ़ का वर्णन करते हुए पुराणकार ने लिखा है कि "राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धन्वा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व -2 अध्याय -38 में यह कहा गया है कि..👇
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- ततः कुशे स्थिते राज्ये लवे तु युवराजनि ।अन्धको नाम भीमस्य सुतो राज्यमकारयत् ।४३।
- अन्धकस्य सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिवः ।ऋक्षोऽपि रेवताज्जज्ञे रम्ये पर्वतमूर्धनि ।। ४४ ।।
- ततो रैवत उत्पन्नः पर्वतः सागरान्तिके ।नाम्ना रैवतको नाम भूमौ भूमिधरः स्मृतः ।४५।
- रैवतस्यात्मजो राजा विश्वगर्भो महायशाः बभूव पृथिवीपालः पृथिव्यां प्रथितः प्रभुः ।४६।
- तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यरूपासु केशव । चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालोपमाः शुभाः । ४७ ।
- वसुर्बभ्रुः सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान् यदुप्रवीराः प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।४८।
- तैरयं यादवो वंशः पार्थिवैर्बहुलीकृतः । यैः साकं कृष्णलोकेऽस्मिन् प्रजावन्तः प्रजेश्वराः।४९।
- वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेवः सुतो विभुः। ततः स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके ।। 2.38.५० ।।
- कुन्तीं च पाण्डोर्महिषीं देवतामिव भूचरीम् । भार्यां च दमघोषस्य चेदिराजस्य सुप्रभाम् ।५१ ।
श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि विकद्रुवाक्यं नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः ।३८।
इक्ष्वाकु कुल मे हयर्श्र राजा हुए इनकी पत्नी का नाम मधुमती था ! यह मधु असुर की पुत्री थी, यह असुर मधु मथुरा के राजा थे और शिव भक्त थे।
इनका बेटा लवणासुर था, यह रावण का भाँजा था ।
हयर्श्र के बडे भाई अयोध्या के राजा थे , परन्तु किसी कारणवश हयर्श्र को उसके भाई ने अयोध्या से निकाल दिया ।
आसीद् राजा मनोर्वंशे श्रीमानिक्ष्वाकुसम्भवः । हर्यश्व इति विख्यातो महेन्द्रसमविक्रमः।१२।
तस्यासीद् दयिता भार्या मधोर्दैत्यस्य वै सुता।देवी मधुमती नाम यथेन्द्रस्य शची तथा ।१३।
सा तमिक्ष्वाकुशार्दूलं कामयामास कामिनी । स कदाचिन्नरश्रष्ठो भ्रात्रा ज्येष्ठेन माधव।१६।
राज्यान्निरस्तो विश्वस्तः सोऽयोध्यां सम्परित्यजत् । स तदाल्पपरीवारः प्रियया सहितो वने ।१७।
रेमे समेत्य कालज्ञः प्रियया कमलेक्षणः। भ्रात्रा विनिष्कृतं राज्यात् प्रोवाच कमलेक्षणा ।१८।
एह्यागच्छ नरश्रेष्ठ त्यज राज्यकृतां स्पृहाम् ।गच्छावः सहितौ वीर मधोर्मम पितुर्गृहम् ।१९।
रम्यं मधुवनं नाम कामपुष्पफलद्रुमम् । सहितौ तत्र रंस्यावो यथा दिवि गतौ तथा । 2.37.२०।
पितुर्मे दयितस्त्वं हि मातुर्मम च पार्थिव ।मत्प्रियार्थं प्रियतरो भ्रातुश्च लवणस्य वै ।२१।
रंस्यावस्तत्र सहितौ राज्यस्थाविव कामगौ ।तत्र गत्वा नरश्रेष्ठ ह्यमराविव नन्दने । भद्रं ते विहरिष्यावो यथा देवपुरे तथा।२२ ।
ततो मधुपुरं राजा हर्यश्वः स जगाम च। भार्यया सह कामिन्या कामी पुरुषपुङ्गवः ।२६।
मधुना दानवेन्द्रेण स साम्ना समुदाहृतः।स्वागतं वत्स हर्यश्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात् । २७ ।
यदेतन्मम राज्यं वै सर्वं मधुवनं विना । ददामि तव राजेन्द्र वासश्च प्रतिगृह्यताम् ।२८।
वनेऽस्मिँल्लवणश्चायं सहायस्ते भविष्यति।अमित्रनिग्रहे चैव कर्णधारत्वमेष्यति ।२९।
पालयैनं शुभं राष्ट्रं समुद्रानूपभूषितम् ।गोसमृद्धं श्रिया जुष्टमाभीरप्रायमानुषम् ।। 2.37.३० ।
● मथुरा का बडा राज्य था हयर्श्र को इसका एक भाग मिला जो सौराष्ट्र (गुजरात) कहलाया । यह नगर इसी ने बसाया , जो समृद्ध राष्ट्र था ।
हयर्श्र और मधुमती से "यदु " का जन्म हुआ , ययाति पुत्र यदु ही योगफल से हयर्श्र के पुत्र यदु रूप में प्रकट हुऐ,
यदु भी अपने भाई पुरु की तरह सम्मानित हुए तथा राजा हुऐ।
एक घटना क्रम मे यदु महासागर में स्नान के दौरान नागों के राजा के द्वारा पकडवा लिए गये और सर्पों के लोक को चले गये , इनके तेज बल देखकर नागराज ध्रूम्रवर्ण ने स्वागत कर कहा कि यदु तुम्हारे नाम से यह वंश यादव वंश होगा।
●यादवानामयं वंशस्त्वन्नाम्ना यदुपुङ्गव । पित्रा ते मङ्गलार्थाय स्थापितः पार्थिवाकरः ।६१।
●तन्ममेमाः सुताः पञ्च कुमार्यो वृत्तसम्मताः।उत्पन्ना यौवनाश्वस्य भगिन्यां नृपसत्तम ।६३।
मेरी पाँच पुत्री जो राजा यौवनाश्व के बहनें हैं , इसे पत्नी रूप मे स्वीकार करो ! बेटा मै आशीर्वाद देता हूँ कि इनसे तुम्हारे सात विख्यात कुल होंगे जो इस प्रकार प्रसिद्ध होंगे।
●1-भैम / 2- कुक्कुर, 3-भोज/ 4- अन्धक/ 5- यादव /6- दशार्ह / 7- वृष्णि
यदु की गृहस्थी बस गयी ,राज्य भी बस गया , इनके एक पत्नी से एक एक कर पाँच पुत्र हुऐ -
●1- माधव-ने आनर्त ( गुजरात) (पिता का राज्य) प्राप्त किया।
माधव के पुत्र- सत्वत से भीम हुए जिनका कुल ( कुल हुआ भैम कहलाया-)
यह अनार्त के राजा हुऐ - इन भीम के काल में ही राजा राम हुए। और लवणासुर को हराकर शत्रुघ्न ने मथुरा जीता था।
2- दूसरे पुत्र मुचकुन्द- विन्ध्य पर्वत क्षेत्र और नर्मदा नदी क्षेत्र के राजा हुऐ ! ये मध्य भारत अथवा मध्य प्रदेश के राजा हुए- !
3-पद्यवर्ण- सह्याद्रि पहाड - महाराष्ट्र के राजा हुए -
4- सारस - क्रोंचपुर वेणा नदी के दक्षिण भाग के राजा हुए -
5- हरित- पाताल लोक ( नाना के लोक ) का राजा हुआ!
● ततः कुशे स्थिते राज्ये लवे तु युवराजनि ।अन्धको नाम भीमस्य सुतो राज्यमकारयत् ।। ४३ ।।
अयोध्या में जब कुश राजा हुए तब लव युवराज थे , और मथुरा में उसी समय भीम के पुत्र अन्धक राजा हुए।
अन्धक से रैवत हुऐ इनसे विश्वगर्भ हुए विश्व गर्भ को ही देवमीढ भी कहा गया , इनके तीन पत्नीयों में चार पुत्र एक पुत्री हुई -
●वसु (शुरसेन) के पुत्र वसुदेव हुए , विश्वगर्भ के अन्य पुत्र वभ्रु, सुषेण,और सभाक्ष, आदि हुए। जिन्हें चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों द्वारा सम्पादित वैष्णव ग्रन्थों में क्रमश: पर्जन्य अर्जन्य और राजन्य भी कहा गया है ।
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हरिवंश पुराण में यदुवंश की वंशावली सभी पुराणों से भिन्न है। जिसमें स्वयं यदु को इक्ष्वाकु वंश के अन्तर्गत करना तथा यदु की संतानों का भिन्न नामों से वर्णन मिलता है। जैसे- यदु के नागकन्याओं से उत्पन्न पाँच पुत्रों के नाम- मुचुकुन्द ,पद्मवर्ण माधव, सारस और हरित नामों से है।
"वैशम्पायन उवाच"
स तासु नागकन्यासु कालेन महता नृपः।
जनयामास विक्रान्तान् पञ्च पुत्रान् कुलोद्वहान्।१।
मुचुकुन्दं महाबाहुं पद्मवर्णं तथैव च।
माधवं सारसं चैव हरितं चैव पार्थिवम्।२।
अनुवाद:-
वैशम्पायन ने कहा: - बहुत समय के बाद राजा यदु ने नागराज धूम्रवर्ण की पांच पुत्रियों से पांच बड़े भुजाधारी राजपुत्रों को जन्म दिया, जो उनके कुल के वंशज थे, जिनके नाम थे -१।
१- मुचुकुन्द , २--पद्मवर्ण , ३-माधव , ४-सारस और ५-हरित ।२।
हरिवंश पुराण में ये कथा भी प्रक्षिप्त ही है। तथा उनके पाँच पुत्रो के नाम भी भिन्न बताना जैसे
भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धकयादवाः ।
दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते।। ६५ ।।
और यदु के पुत्रों से सात कुल उत्पन्न बताना भी क्षेपक है। क्योंकि सभी कुल यादव हैं तो १-भैम२- कुकुर ३-भोज ४- अन्धक ५-दाशार्ह ६-वृष्णि । और यादव को सातवाँ कुल बताना मूर्खता है। नीचें हम प्रक्षिप्त श्लोंको को उद्धृत कर रहे हैं।
स तस्मै धूम्रवर्णो वै कन्याः कन्याव्रते स्थिताः ।
जलपूर्णेन योगेन ददाविन्द्रसमाय वै ।। ६६ ।।
धूम्रवर्ण नाग की पाँच कन्याओ को यदु की पत्नी बताना सिद्धान्त के विपरीत है। ६६।
वरं चास्मै ददौ प्रीतः स वै पन्नगपुङ्गवः ।
श्रावयन् कन्यकाः सर्वा यथाक्रममदीनवत् ।६७ ।।
हरिवंश पुराण में लिखा है कि
यदुवंश में श्रेष्ठ माधव को समयानुसार राज्य देकर सम्राट यदु ने पार्थिव शरीर त्याग दिया और देवों के नगर की ओर चल पड़े।36।
माधव के सात्वत नाम का एक शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सतोगुणी तथा सभी प्रकार की राजसी सिद्धियों से संपन्न था।37।.
सात्वत के पुत्र, अत्यंत शक्तिशाली भीम भी राजा हुए। उनके नाम पर उनके वंशज भैम कहलाए और सात्वत के वंशज सात्वत नाम से जाने गए।38।
इस राजा के शासन काल में राम ने भी अयोध्या में राज्य किया था। उस समय उन्होंने मधु के पुत्र लवण का शत्रुघ्न ने वध करके मधु वन को उजाड़ दिया था।39।
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अंधक के पुत्र राजा रेैवत थे । उनसे समुद्र के तट पर स्थित रमणीय पर्वत पर राजा ऋक्ष का जन्म हुआ। उन्हीं के नाम पर वह पर्वत संसार में रैवतक नाम से प्रसिद्ध है। 45।.
रैवत के पुत्र अत्यंत प्रतापी राजा विश्वगर्भ थे। वे बहुत शक्तिशाली थे और विश्व में प्रसिद्ध राजा थे।46।
हरिवंश में रेवत का प्रकरण देवी भागवत पुराण से भिन्न रूप में प्राप्त होता है। हम्हे हरिवंशपुराण का प्रकरण प्रक्षिप्त लगता है।
शर्यातिरपि सन्तुष्टो ह्यभवत्तेन कर्मणा ।यज्ञं समाप्य नगरे जगाम सचिवैर्वृतः ॥४३॥
"अनुवाद::-उस कर्मसे राजा शर्याति भी सन्तुष्ट हो गये और यज्ञसम्पन्न करके मन्त्रियों के साथ नगर को चले गये ॥ 43 ॥
राज्यं चकार धर्मज्ञो मनुपुत्रः प्रतापवान् ।आनर्तस्तस्य पुत्रोऽभूदानर्ताद्रेवतोऽभवत् ॥४४॥
"अनुवाद:इसके बाद धर्मज्ञ तथा प्रतापी मनुपुत्र शर्याति राज्य करने लगे। उनके पुत्र 'आनर्त' हुए और आनर्त से 'रेवत' उत्पन्न हुए।44।
सोऽन्तःसमुद्रे नगरीं विनिर्माय कुशस्थलीम् ।आस्थितोऽभुङ्क्त विषयानानर्तादीनरिन्दमः॥४५॥
"अनुवाद:शत्रुओं का दमन करने वाले वे रेवत समुद्र के मध्य कुशस्थली नामक नगरी स्थापित करके वहीं पर रहकर आनर्त आदि देशों पर शासन करने लगे ॥45।
तस्य पुत्रशतं जज्ञे ककुद्मिज्येष्ठमुत्तमम् ।पुत्री च रेवती नाम्ना सुन्दरी शुभलक्षणा ॥४६॥
"अनुवाद:उनके सौ पुत्र हुए, उनमें ककुद्मी सबसे ज्येष्ठ तथा उत्तम था। उनकी रेवती नामक एक पुत्री भी थी।46।
रैवतं नाम च गिरिमाश्रितः पृथिवीपतिः। चकार राज्यं बलवानानर्तेषु नराधिपः ॥ ४७ ॥
"अनुवाद:उस समय वे बलशाली नरेश रेवत अपने नाम से नामित 'रैवत' नामक पर्वत पर रहते हुए आनर्त आदि देशों पर राज्य कर रहे थे ॥47॥
हरिवंश पुराण कार नें देवमीढ़ को विश्वगर्भ नाम से वर्णन तो किया है । और पुत्रों नाम भी भिन्न कर दिए हैं। जैसे
तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यरूपासु केशव ।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालोपमाः शुभाः ।४७।
वसुर्बभ्रुः सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान् ।
यदुप्रवीराः प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।४८।
हे केशव ! उन्ह विश्वगर्भ ने अपनी तीन दिव्यरूप वाली पत्नीयों से चार पुत्र लोकपालों के समान १-वसु ,२- वभ्रु , ३-सुषेण और ४-सभाक्ष नामक चार शुभ पुत्र उत्पन्न किए, जो लोकपालों के ही समान विख्यात थे।47- 48।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व -(38) वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों के बाद भीम के पुत्र अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए।
जिनका विस्तार से हम आगे विवरण देंगे-जैसे-
हरिशवंश पुराण में मथुरा को भी राम से जोड़कर प्रक्षिप्त कर दिया है। जैसे निम्न श्लोकों को देखें-
राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति ।शत्रुघ्नो लवणं हत्वा चिच्छेद स मधोर्वनम् ।३९।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम् ।
निवेशयामास विभुः सुमित्रानन्दवर्धनः। 2.38.४०।
- "यदोर्वंशस्यान्तर्गते देवक्षत्रस्यमहातेजा पुत्रो मधु: तस्यनाम्ना मधोः पुर वसस्तथा। आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।४४।
(मत्स्य- पुराण अध्याय- 44 श्लोक- 44)
अनुवाद:-"मथुरा का पूर्व नाम मधुपर था। यादव राजा देवक्षत्र के पुत्र मधु के नाम पर यह नाम प्रचलित हुआ" यही वास्तविकता है। हरिवंश पुराण में मधुरा को शत्घ्न से जोड़ना क्षेपक ही है।
मत्स्य पुराण के अनुसार यादव राजा देवक्षत्र के पुत्र मधु थे । मधु ने ब्रजभूमि में यमुना नदी के दाहिने किनारे पर एक राज्य की स्थापना की, जिसका नाम उनके नाम पर मधुपुर रखा गया। बाद में इसे मथुरा के नाम से जाना गया । उनसे पुरवस नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । ये पुरवस बाद वाले पुरुद्वान के पिता थे । पुरुद्वान् का जन्तु नाम का एक पुत्र था । जंतु (अँशु) की पत्नी ऐक्ष्वाकि से सात्वत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । सात्वत मधु के पांचवें उत्तराधिकारी थे। सात्वत के उत्तराधिकारियों को भी सात्वत के नाम से ही जाना जाता था । सात्वत के पुत्र भजिन, भजमान ,दिव्य , देववृध, अन्धक , महाभोज , वृष्णि आदि थे।
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- आसीत्कुरुवशात्पुत्रः पुरुहोत्रः प्रतापवान्अंशुर्जज्ञेथ वैदर्भ्यां द्रवंत्यां पुरुहोत्रतः।२८।
28. कुरुवश से एक वीर पुत्र पुरुहोत्र का जन्म हुआ। पुरुहोत्र से वैदर्भी नामक पत्नी में अंशु नामक पुत्र हुआ।
📚:
- वेत्रकी त्वभवद्भार्या अञ्शोस्तस्यां व्यजायत७सात्वतः सत्वसम्पन्नः सात्वतान्कीर्तिवर्द्धनः।२९।
29-. अंशु की पत्नी वेत्रकी से सात्वत हुआ जो ऊर्जा से संपन्न और बढ़ती प्रसिद्धि वाला था।
- इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनःप्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।३०।
30- महाराज ज्यामघ की इन संतानों को जानकर कोई भी सन्तान वाला व्यक्ति पुत्र जोड़कर, सोम के साथ एक रूपता प्राप्त करता है।
- "सात्वतान्सत्वसंपन्ना कौसल्यां सुषुवे सुतान्तेषां सर्गाश्च चत्वारो विस्तरेणैव तान्शृणु।३१।
31-. कौशल्या में सत्व सम्पन्न सात्वत से चार पुत्रों को जन्म हुआ उन्हें विस्तार से सुनो
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- कुकुरं भजमानं च श्यामं कंबलबर्हिषम्कुकुरस्यात्मजो वृष्टिर्वृष्टेस्तु तनयो धृतिः।४५।
45- ये चार पुत्र थे (कुकुर , भजमान, श्याम और कम्बलबर्हिष) । कुकुर के पुत्र वृष्टि हुए और वृष्टि के पुत्र धृति थे।
"सात्वत वंश के यादव"
📚: सात्वत् (सात्वत्)। - यदु वंश के एक राजा और देवक्षत्र के पुत्र थे। सात्वत के सात पुत्र थे जिनमें -भज, भजी, दिव्य, वृष्णि, देववृध,अन्धक और महाभोज शामिल थे।
सात्वत:- सात्वों में से एक थे और उनके वंश में सात्वत लोगों को सात्वत कहा जाता है। (सभा पर्व, अध्याय- 2, श्लोक- 30)।
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क्रोष्टा नामक यादव के पौत्र और युधाजित के पुत्र अन्धक !
- "सात्त्वतान् सत्त्वसम्पन्नात् कौशल्यां सुषुवे सुतान् । भजिनं भजमानञ्च दिव्यं देवावृधं नृपम् ।
- अन्धकञ्च महाबाहुं, वृष्णिञ्च यदुनन्दनम् । तेषां विसर्गाश्चत्वारो विस्तरेणेह तान् शृणु
- अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोऽलभ्मतात्मजान् । कुकुरं भजमानञ्च शभं कम्बलवर्हिषम्” । इति हरिवंशे (३८)-वाँ अध्याय ।
आयु से सात्वत का जन्म हुआ। सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए-
(२-सात्वत के पुत्र वृष्णि प्रथम ( क्रोष्टा वंश के अन्तर्गत-)
निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।
(३-अनमित्र के तीसरे पुत्र वृष्णि द्वितीय (क्रोष्टा वंश के अन्तर्गत-) )
सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि।
उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ।
तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक द्वित्तीय, अन्धक द्वितीय का पुत्र दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुत्र पुनर्वसु और. पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई।
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आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन।
इन चार पुत्रों की सात बहिनें भी थीं- १-धृतदेवा, २-शान्तिदेवा,३- उपदेवा, ४-श्रीदेवा,५- देवरक्षिता, ६-सहदेवा और ७-देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक- 24-41 का हिन्दी अनुवाद:-
उग्रसेन के नौ पुत्र थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका।
इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था। चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए।
हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु,(देवमीढ़) शतधन्वा और कृतवर्मा।
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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः
विष्णु पुराण के अनुसार रुषद्रु और भागवत के अनुसार विशदगुरु के पुत्र थे शशबिन्दु - । ६. महाभारत के अनुसार ऋषदगुरु नामक राजा के एक पुत्र ।
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 147 श्लोक 20-42 - तक यदु वंश के अन्तर्गत शूरसेन के पिता देवमीढ़ का दूसरा नाम "चित्ररथ" बताया है। (महाभारत अनुशासन पर्व, अध्याय -147, श्लोक- 29)
यदु से क्रोष्टा का जन्म होगा, क्रोष्टा से महान् पुत्र वृजिनीवान् होंगे।
वृजिनीवान् से विजय वीर उषंक का जन्म होगा। उषंक का पुत्र शूरवीर चित्ररथ होगा।
उसका छोटा पुत्र शूर नाम से विख्यात होगा। वे सभी यदुवंशी विख्यात पराक्रमी, सदाचार और सद्गुण से सुशोभित, यज्ञशील और विशुद्ध आचार-विचार वाले होंगे।
उनका कुल ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित होगा। उस कुल में महापराक्रमी, महायशस्वी और दूसरों को सम्मान देने वाले क्षत्रिय-शिरोमणि शूर अपने वंश का विस्तार करने वाले वसुदेव नामक पुत्र को जन्म देंगे, जिसका दूसरा नाम आनकदुन्दुभि होगा।
देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। शूरसेन ने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।
ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं-
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी ; उन्होंने पृथा को गोद ले लिया-
(अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पितामह थे ।)
राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धन्वा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व- 2 अध्याय- 38 में भी कहा गया है कि..👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व -३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद सात्वत के पुत्र वृष्णि की शाखा में अन्धक हुए जो यादव राजा-भीम के पुत्र थे। ये सात्वत के पुत्र अन्धक से भिन्न वृष्णि वंश में उत्पन्न थे।
इन्हीं अन्धक के पुत्र के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए। ये अन्धक वृष्णि शाखा से सम्बन्धित यादव राजा भीम के पुत्र थे जो आनर्त देश (गुजरात) पर राज्य करते थे।"
देवमीढ़ नन्द और वसुदेव दोनों के पितामह( बाबा) थे।
राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ( देवबाहु), सत्धन्वा तथा कृतवर्मा थे । देवमीढ के पुत्र शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र हुए तथा दूसरे पुत्र पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं पुत्र हुए तथा देवमीढ के पुत्र जो पर्जन्य के भाई अर्जन्य थे जो देवमीढ़ की गुणवती नामक पत्नी से उत्पन्न थे। उन अर्जन्य के चन्द्रिका नामक रानी से दण्डर और कण्डर नामक दो पुत्र हुए ।👇-💐☘और पर्जन्य के तीसरे भाई राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु नामक दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र ( नाती) थे ।
📚"पर्जन्य के पुत्र "नन्द के परिवारीय जनों का परिचय-"
नन्द के अन्य नौ भाई थे -१-धरानन्द, २-ध्रुवानन्द, ३-उपनन्द, ४-अभिनन्द, .५-सुनन्द, ६-कर्मानन्द, ७-धर्मानन्द, ८-नन्द और ९- वल्लभ।
१-"नन्द के पिता पर्जन्य, माता वरीयसी, पितामाह देवमीढ और पितामही गुणवती थीं।
-२- नन्द की पत्नी-यशोदा के पिता—-सुमुख-( भानुगिरि)। माता–पाटला- और भाई १-यशोवर्धन,२- यशोधर, ३-यशोदेव, ४-सुदेव आदि नामों वाले चार थे।
नन्द के बड़े भाई — उपनन्द एवं अभिनन्द दो मुख्य थे तुंगी (उपनन्द की पत्नी),पीवरी (अभिनन्द की पत्नी) थीं।
नन्द छोटे भाई — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन थे जिनकी पत्नीयों का नाम क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), और अतुल्या (नन्दन की पत्नी) का नाम था ।
इसके अतिरिक्त नन्द की बहिनें सुनन्दा और नन्दिनी भीं थी जिनके पतियों का नाम क्रमश:-महानील एवं सुनील था।
सुनन्दा (महानील की पत्नी), और-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी) थी।
यशस्विनी नाम से यशोदा की बहिन थीं जिनके पति का नाम मल्ल नाम से था। (एक मत से मौसा का दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की छोटी बहिन थी । इसके अतिरिक्त यशोदा की अन्य बहिनें—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा) भी थीं। ये सभी यशोदा से छोटी थीं-।
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- चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य "गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन किया ।
जिसका यथावत् प्रस्तुति करण हम करते हैं ;यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।
निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य हैं।
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उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। इससे आगे का विवरण -
- "स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।
अर्थ•-पश्चात उन श्री उपनन्द जी ने भी पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृतकत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक
अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका
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