६.३.१०९ पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्
पृषोदरादीनि S-1-3
यथोपदिष्टम् S-0-0
पृषोदरादीनि शब्दरूपाणि येषु लोपागमवर्णविकाराः शास्त्रेण न विहिता दृश्यन्ते च तानि यथोपदिष्टानि साधूनि भवन्ति ॥
पृषोदर शब्द के रूप वे हैं जिनमें लोप + आगम+वर्ण-विकार। वर्ण विपर्यय आदि की क्रियाएँ शास्त्रों के द्वारा विहित दिखाई न देते हुए भी होती रहती हैं।
अर्थात् शब्दों में अक्षरों का लोप , वृद्धि(आगम) और परिवर्तन देखा जाता है। जिसका व्याकरणिक विधान नहीं होता है।
उदाहरण:-
कारिका- वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ । धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ॥.
पृषोदर में अक्षरों का लोप , वृद्धि( आगम) और परिवर्तन अक्षरों में देखा जाता है। निरुक्त में यह पाँच प्रकार से घटित होता है।
पृषदुदरं = पृषोदरम्।
अत्र तकारलोपो भवति।
वारिवाहकः =बलाहकः।
पूर्वशब्दस्य बशब्द आदेशः, उत्तरपदादेश्च लत्वम्। जीवनस्य मूतः= जीमूतः।
शवानां शयनम् =श्मशानम्।
शवशब्दस्य श्मादेशः, शयनशब्दस्य अपि शानशब्द आदेशः।
ऊर्ध्वं खमस्य इति उलूखलम्।
ऊर्ध्वखशब्दयोः उलू खल इत्येतावादेशौ भवतः। पिशिताशः =पिशाचः।
पिशिताश शब्दयोर्यथायोगं पिशाचशब्दौ आदेशौ। ब्रुवन्तोऽस्यां सीदन्तीति बृसी।
किसी संत सहात्मा का आसन। ऋषि का आसन [को०]। विशेष— संस्कृत में इसी अर्थ में वृषिका, वृसिका, वृशी और वृषी रूप भी प्राप्त होते हैं।
मह्यां रौतीति मयूरः। रौतेरचि टिलोपः। महीशब्दस्य मयूभावः।
एवमन्येऽपि अश्वत्थकपित्थप्रभृतयो यथायोगमनुगन्तव्याः।
वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ। धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्।
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