उसने अपने विचार ,भावनाओं एवं अनुभुतियों को अभिव्यक्त करने के लिए जिन माध्यमों को चुना वही भाषा हैं ।
मनुष्य कभी शब्दों से तो कभी संकेतों द्वारा संप्रेषणीयता (Communication) का कार्य सदीयों से करता रहा है।
अर्थात् अपने मन्तव्य को दूसरों तक पहुँचाता रहा है ।
किन्तु भाषा उसे ही कहते हैं ,जो बोली और सुनी जाती हो,और बोलने का तात्पर्य मूक मनुष्यों या पशु -पक्षियों का नही ,बल्कि बोल सकने वाले मनुष्यों से लिया जाता है।
इस प्रकार - "भाषा वह साधन है" जिसके माध्यम से हम अपने विचारों को वाणी देते हैं ।
या सोचते हैं तथा अपने भावों को व्यक्त करते है। 👇
"
मनुष्य ,अपने भावों तथा विचारों को प्राय: तीन प्रकार से ही प्रकट करता है-
१-बोलकर (मौखिक ) २-लिखकर (लिखित) तथा ३-संकेत (इशारों )के द्वारा सांकेतिक।
१.मौखिक भाषा :- मौखिक भाषा में मनुष्य अपने विचारों या मनोभावों को मुख से बोलकर प्रकट करते हैं।
मौखिक भाषा का प्रयोग तभी होता है,जब श्रोता और वक्ता आमने-सामने हों।
इस माध्यम का प्रयोग फ़िल्म,नाटक,संवाद एवं भाषण आदि में अधिक सम्यक् रूप से होता है ।
२.लिखित भाषा:-भाषा के लिखित रूप में लिखकर या पढ़कर विचारों एवं मनोभावों का आदान-प्रदान किया जाता है।
लिखित रूप भाषा का स्थायी माध्यम होता है।
पुस्तकें इसी माध्यम में लिखी जाती है।
३.सांकेतिक भाषा :- सांकेतिक भाषा यद्यपि
भावार्थ वा विचारों की अभिव्यक्ति का स्पष्ट माध्यम तो नहीं है ;
परन्तु यह भाषा का आदि प्रारूप अवश्य है ।
स्थूल भाव अभिव्यक्ति के लिए इसका प्रयोग अवश्य ही सम्यक् होता है ।
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भाषा और बोली (Language and Dialect)
:-भाषा ,जब किसी बड़े भू-भाग में बोली जाने लगती है,तो उससे क्षेत्रीय भाषा विकसित होने लगती है।
भाषा के इसी क्षेत्रीय रूप को बोली कहते है।
कोई भी बोली विकसित होकर साहित्य की भाषा बन जाती है।
जब कोई भाषा परिनिष्ठित होकर साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन होती है,तो उसके साथ ही लोकभाषा या विभाषा की उपस्थिति अनिवार्य होती है।
कालान्तरण में ,यही लोकभाषा परिनिष्ठित एवं उन्नत होकर साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण कर लेती है।
👇
दूसरे शब्दों में भाषा और बोली को क्रमश: प्रकाश और चमक के अन्तर से जान सकते हैं ।
भाषा हमारे सभा या समितीय विचार-विमर्शण की संवादीय अभिव्यक्ति है ।
जबकि बोली उपभाषा के रूप में हमारे दैनिक गृह-सम्बन्धी आवश्यकता मूलक व्यवहारों की सम्पादिका है।
जो व्याकरण के नियमों में परिबद्ध नहीं होती है ।
आज जो हिन्दी हम बोलते हैं या लिखते हैं ,वह खड़ी बोली है, इसके पूर्व रूप "ब्रज ,शौरसेनी, प्राकृत, अवधी,और मैथिली आदि बोलियाँ भी साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन हो चुकी हैं।
हिन्दी तथा अन्य भाषाएँ :- संसार में अनेक भाषाएँ बोली जाती है।
जैसे -अंग्रेजी,रूसी,जापानी,चीनी,अरबी,हिन्दी ,उर्दू आदि।
हमारे भारत में भी अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं ।
जैसे -बंगला,गुजराती,मराठी,उड़िया ,तमिल,तेलगु आदि।
हिन्दी भारत में सबसे अधिक बोली और समझी जाती है।
हिन्दी भाषा को संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया है।
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लिपि (Script):- लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है - लेपन या लीपना पोतना आदि अर्थात् जिस प्रकार चित्रों को बनाने के लिए उनको लीप-पोत कर सम्यक् रूप दिया जाता है ।
उसी प्रकार विचारों को साकार रूप लिपिबद्ध कर भाषायी रूप में दिया जाता है।
लिखित या चित्रित करना ।
ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है,वही लिपि कहलाती हैं।
प्रत्येक भाषा की अपनी -अलग लिपि होती है।
हिन्दी की लिपि देवनागरी है।
हिन्दी के अलावा -संस्कृत ,मराठी,कोंकणी,नेपाली आदि भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती है।
व्याकरण ( Grammar):- व्याकरण वह विधा है; जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना या लिखना व पढ़ना जाना जाता है।
व्याकरण भाषा की व्यवस्था को बनाये रखने का काम करते हैं। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं अशुद्ध प्रयोगों पर ध्यान देता है।
इस प्रकार ,हम कह सकते है कि प्रत्येक भाषा के अपने नियम होते है,उस भाषा का व्याकरण भाषा को शुद्ध लिखना व बोलना सिखाता है।
यह भाषा के नियमों का विवेचन शास्त्र है ।
व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-
१.वर्ण -विचार( Orthography) :- इसमे वर्णों के उच्चारण ,रूप ,आकार,भेद,आदि के सम्बन्ध में अध्ययन होता है।
वर्ण -विचार
१. वर्ण विचार👇
(Vowels) - स्वराः Sanskrit
(Consonants) - व्यंजनानि (३३)
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ (१३)
अयोगवाह : अनुस्वार (Nasal) (अं) और विसर्गः (Colon) ( अः) अनुनासिक (Semi-Nasal) चन्द्र-बिन्दु:-(ँ)
इसका उच्चारण वाक्य और मुख दौंनो के सहयोग से होता है ।
Dependent (मात्रा)- ा, ि, ी, ु, ू, ृ, ॄ, े, ै, ो, ौ
Simple- अ, इ, उ, ऋ, ऌ
Dipthongs:- ए , ऐ , ओ , औ
ह्रस्वाः- अ , इ , उ , ऋ , ऌ ,
दीर्घाः- आ , ई , ऊ , ॠ , ए , ऐ , ओ , औ
स्पर्श – खर मृदु
अनुनासिकाः
Gutturals:कण्ठय क् ख् ग् घ् ड•
Palatals:तालव्य च्
छ् ज् झ् ञ्
Cerebrals:मूर्धन्य ट् ठ् ड् ढ् ण्
Dentals:दन्त्य त् थ् द् ध् न्
Labials:ओष्ठय प् फ् ब् भ् म्
_______________________________________
(ऊष्म-वर्ण )
Sibilant Consonants:-(श् ष् स् )
य् व् र् ल् (Sami Vowels- अर्द्ध स्वर )
संयुक्त व्यञ्जन =द्य, त्र , क्ष , ज्ञ. श्र.
व्याख्या – सम्यक् कृतम् इति संस्कृतम्।
सम् उपसर्ग के पश्चात् कृ धातु के मध्य सेट् आगम हुआ तब शब्द बना संस्कार भूतकालिक कर्मणि कृदन्त में हुआ ।
संस्कृतम्
भाषा :– संस्कृत और लिपि देवनागरी।
उच्चारण -स्थान ह्रस्व Short– दीर्घ long– प्लुत longer – (स्वर) विचार:-
कण्ठः – (अ‚ क्‚ ख्‚ ग्‚ घ्‚ ं‚ ह्‚ : = विसर्गः )
(Mute Consonants)
स्पर्श व्यञ्जन
तालुः – (इ‚ च्‚ छ्‚ ज्‚ झ्‚ञ् य्‚ श् )
मूर्धा – (ऋ‚ ट्‚ ठ्‚ ड्‚ ढ्‚ ण्‚ र्‚ ष्)
दन्तः (लृ‚ त्‚ थ्‚ द्‚ ध्‚ न्‚ ल्‚ स्)
ओष्ठः – (उ‚ प्‚ फ्‚ ब्‚ भ्‚ म्‚ उपध्मानीय प्‚ फ्)
नासिका – (म्‚ ‚ण्‚ न् )
कण्ठतालुः – (ए‚ ऐ )
कण्ठोष्ठम् – (ओ‚ औ)
दन्तोष्ठम् – (व)
जिह्वामूलम् – (जिह्वामूलीय क् ख्)
नासिका – (ांअनुस्वारः)
संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएँ पद्यमय हैं अर्थात् छन्दबद्ध और गेय हैं।
इस लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि इन रचनाओं को पढते या बोलते वक्त किन अक्षरों या वर्णों पर ज्यादा भार देना और किन पर कम।
उच्चारण की इस न्यूनाधिकता को ‘मात्रा’ द्वारा दर्शाया जाता है।
🌸↔ जिन वर्णों पर कम भार दिया जाता है, वे हृस्व कहलाते हैं, और उनकी मात्रा १ होती है।
अ, इ, उ, लृ, और ऋ ये ह्रस्व स्वर हैं।
🌸↔ जिन वर्णों पर अधिक जोर दिया जाता है, वे दीर्घ कहलाते हैं, और उनकी मात्रा २ होती है। आ, ई, ऊ, ॡ, ॠ ये दीर्घ स्वर हैं।
🌸↔ प्लुत वर्णों का उच्चारण अतिदीर्घ होता है, और उनकी मात्रा ३ होती है जैसे कि, “नाऽस्ति” इस शब्द में ‘नाऽस्’ की ३ मात्रा होगी।
वैसे हि ‘वाक्पटु’ इस शब्द में ‘वाक्’ की ३ मात्रा होती है।
वेदों में जहाँ 3 संख्या लिखी होती है , उसके पूर्व का स्वर प्लुत बोला जाता है। जैसे ओ३म्
🌸↔ संयुक्त वर्णों का उच्चारण उसके पूर्व आये हुए स्वर के साथ करना चाहिए।
पूर्व आया हुआ स्वर यदि ह्रस्व हो, तो आगे संयुक्त वर्ण होने से उसकी २ मात्रा हो जाती है; और पूर्व वर्ण यदि दीर्घ वर्ण हो, तो उसकी ३ मात्रा हो जाती है और वह प्लुत कहलाता है।
🌸↔ अनुस्वार और विसर्ग – ये स्वराश्रित होने से, जिन स्वरों से वे जुडते हैं उनकी २ मात्रा होती है।
परन्तु, ये अगर दीर्घ स्वरों से जुडे, तो उनकी मात्रा में कोई फर्क नहीं पडता।
🌸↔ ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘।‘ है, और दीर्घ मात्रा का ‘ऽ‘।
🌸↔ पद्य रचनाओं में, छन्दों के चरण का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरू मान लिया जाता है।
समझने के लिए कहा जाय तो, जितना समय ह्रस्व के लिए लगता है, उससे दुगुना दीर्घ के लिए तथा तीन गुना प्लुत के लिए लगता है।
नीचे दिये गये उदाहरण देखिए :
राम = रा (२) + म (१) = ३ अर्थात् “राम” शब्द की मात्रा ३ हुई।
वनम् = व (१) + न (१) + म् (०) = २
वर्ण विन्यास – १. राम = र् +आ + म् + अ , २. सीता = स् + ई +त् +आ, ३. कृष्ण = क् +ऋ + ष् + ण् +अ ।
माहेश्वर सूत्र को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है।
पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात् (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द , आख्यात(क्रिया), उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।
अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभाजित हैं।
व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में किया है।
जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।
तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में ही हुआ ।
तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी ।
यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई।
व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
पुनः विवेचन का अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।
जो हिन्दी वर्ण माला का आधार है ।
माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति-----माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है।
जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है ।
रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया।
👇 नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद
ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान्
एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥
अर्थात्:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।
इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।
" डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।
इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है।
वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का ओ३म स्वरूप भी है।
उमा शिव की ही शक्ति का रूप है , उमा शब्द की व्युत्पत्ति (उ भो मा तपस्यां कुरुवति ।
यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” ।
इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)।
यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव ।
उं शिवं माति मिमीते वा । आतोऽनुपसर्गेति कः ।
अजादित्वात् टाप् । अवति ऊयते वा उङ् शब्दे
“विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् )
दुर्गा का विशेषण ।
परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण है।
परन्तु इन सूत्रों में भी अभी और संशोधन- अपेक्षित है। यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर ए,ऐ,ओ,औ का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण य,व,र,ल भी न होते !
क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण से व्युत्पन्न स्वर ही हैं।
इनकी संरचना के विषय में नीचे विश्लेषण है । ________________________________________
पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇 __________________________________________
१. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है।
फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं।
माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।
प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है।
संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है।
अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।
प्रत्याहार की अवधारणा :--- प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।
यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।
अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह। उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है।
इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है ।
अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है। ________________________________
अइउ ऋलृ मूल स्वर ।
ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ और ये संयुक्त ही हैं ।
जैसे क्रमश: अ इ = ए तथा अ उ = ओ संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं ।
अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।
👇 । अ इ उ । और ये परवर्ती इ तथा उ स्वर भी केवल अ स्वर के उदात्त( ऊर्ध्वगामी ) उ ।
तथा (निम्न गामी) इ के रूप में हैं ।
ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है।
जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य
( दन्तमूलीय रूप ) है ।
अब 'ह' वर्ण महाप्राण है ।
जिसका उच्चारण स्थान काकल है ।
👉👆👇 मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतुर्षष्ठी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है।
अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।
वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 _________________________________________
1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।
2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :-
(क.) नासा ग्रसनी (nasopharynx),
(ख.) ग्रसनी (pharynx), ग. मुख (mouth),
(घ.) स्वरयंत्र (larynx),
(च.) श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus)
(छ.) फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs),
(ज.) वक्षगुहा (thoracic cavity)।
3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :
(क.) जिह्वा (tongue), (ख.) दाँत (teeth), (ग.) ओठ (lips), (घ.) कोमल तालु (soft palate), (च.) कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)। __________________________________________
स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :-
जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है, तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है, जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।
ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।
इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि करते हैं।
इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।
स्वरयंत्र--- अवटु (thyroid) उपास्थि वलथ (Cricoid) उपास्थि स्वर रज्जुऐं ये संख्या में चार होती हैं जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं।
यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।
देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है।
इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।
इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।
इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।
स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)---- श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।
श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है।
बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।
जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है। __________________________________________
स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लम्बाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है।
स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।
इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर अाधारित है और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर अाधारित है। _________________________________________
स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त -- उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है।
यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है।
ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है ।
स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है :👇 ________________________________________
1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।
2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।
3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है; और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।
"अ" स्वर का उच्चारण तथा ह स्वर का उच्चारण श्रोत समान है ।
कण्ठ तथा काकल । _________________________________________
नि: सन्देह 'काकल' 'कण्ठ' का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं।
जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है कहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा ।
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है ।
_________________________________________
२.शब्द -विचार (Morphology) :- इसमे शब्दों के भेद ,रूप,प्रयोगों तथा उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है।
वर्णों के सार्थक समूह को शब्द कहते हैं हिंदी भाषा में शब्दों के भेद निम्नलिखित चार आधारों पर किए जा सकते हैं :-
1- उत्पत्ति के आधार पर 2- अर्थ के आधार पर नंबर 3- प्रयोग के आधार पर और नंबर 4- बनावट के आधार पर.
🌸↔उत्पत्ति के आधार पर( Based on Origin )
उत्पत्ति के आधार पर शब्दों के पाँच भेद निर्धारित किये जैसे हैं ।
(क) ~ तत्सम शब्द Original Words :- संस्कृत भाषा के मूलक शब्द जो हिन्दी में यथावत् प्रयोग किये जाते हैं । मुखसेविका । म्रक्षण । लावणी ।
अग्नि, क्षेत्र, वायु, ऊपर, रात्रि, सूर्य आदि।
(ख) ~ तद्भव शब्द Modified Words:-जो शब्द संस्कृत भाषा के मूलक रूप से परिवर्तित हो गये हैं
मुसीका ।माखन ।लौनी । जैसे-आग (अग्नि), खेत (क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य) आदि।
(ग) ~ देशज शब्द Native Words :- जो शब्द लौकिक ध्वनि-अनुकरण मूलक अथवा भाव मूलक हों जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं।
जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि।
'झाड़ू' 'लोटा' ,हुक्का, आदि ।
(घ) ~ विदेशी शब्द Foreign Words:-जो शब्द विदेशी भाषाओं से आये हुए हैं ।
विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं।
ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं।
जैसे-स्कूल, अनार, आम, कैंची, अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि।
ऐसे कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है।
अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल , फोटो, डाक्टर स्कूल आदि।
फारसी- अनार, चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि।
अरबी- औलाद, अमीर, कत्ल, कलम, कानून, खत, फकीर,रिश्वत,औरत,कैदी,मालिक, गरीब आदि।
तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर
आदि।
पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि।
फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि।
चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि।
यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि।
जापानी- रिक्शा आदि।
डच-बम आदि।
(ग)~ संकर शब्द mixed words :- जो शब्द अंग्रेजी
और हिन्दी आदि भाषाओं के योग से बने हों ।
(रेल + गाड़ी ) (लाठी+चार्ज) आदि ...
🌸↔अर्थात् के आधार पर (Based on meaning)
(क) सार्थक शब्द (meaningful Words) :-
इनके भी चार भेद हैं :- 1- एकार्थी 2- अनेकार्थी 3- पर्यायवाची 4- विलोम शब्द ।
(ख) निरर्थक शब्द (meaningless Words):-
ये शब्द मनुष्य की गेयता-मूलक तुकान्त प्रवृत्ति के द्योतक हैं ।
जैसे:- चाय-वाय ।पानी-वानी इत्यादि
🌸↔(प्रयोग के आधार पर Based on usage)
(क ) अविकारी शब्द lndeclinableWords:-
क्रिया-विशेषण, सम्बन्ध बोधक , समुच्यबोधक, और विस्मयादिबोधक ।
अविकारी शब्द : जिन शब्दों के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है वे अविकारी शब्द कहलाते हैं।
जैसे-यहाँ, किन्तु, नित्य और, हे अरे आदि।
इनमें क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक आदि हैं।
🌸↔ विकारी शब्द (Declinable words) :-
संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, और क्रिया' ।
विकारी शब्द :- जिन शब्दों का रूप-परिवर्तन होता रहता है वे विकारी शब्द कहलाते हैं।
जैसे-कुत्ता, कुत्ते, कुत्तों, मैं मुझे, हमें अच्छा, अच्छे खाता है, खाती है, खाते हैं।
इनमें संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं।
_____________________________________
बनावट के आधार पर ( Based on Construction ):-
(क) रूढ़ शब्द :- Traditional words
(ख) यौगिक शब्द :-Compound Words
(ग) योगरूढ़ शब्द:-(CompoundTraditionalWords)
व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द के निम्नलिखित भेद हैं- रूढ़, यौगिक तथा योगरूढ़।
- रूढ़-जो शब्द किन्हीं अन्य शब्दों के योग से न बने हों और किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हों तथा जिनके टुकड़ों का कोई अर्थ नहीं होता, वे रूढ़ कहलाते हैं।
जैसे-कल, पर।
- यौगिक-जो शब्द कई सार्थक शब्दों के मेल से बने हों, वे यौगिक कहलाते हैं। जैसे-देवालय=देव+आलय, राजपुरुष=राज+पुरुष, हिमालय=हिम+आलय, देवदूत=देव+दूत आदि।
ये सभी शब्द दो सार्थक शब्दों के मेल से बने हैं।
-योगरूढ़-
वे शब्द, जो यौगिक तो हैं, किन्तु सामान्य अर्थ को न प्रकट कर किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं, योगरूढ़ कहलाते हैं।
जैसे-पंकज, दशानन आदि। पंकज=पंक+ज (कीचड़ में उत्पन्न होने वाला) सामान्य अर्थ में प्रचलित न होकर कमल के अर्थ में रूढ़ हो गया है।
अतः पंकज शब्द योगरूढ़ है।
इसी प्रकार दश (दस) आनन (मुख) वाला रावण के अर्थ में प्रसिद्ध है।
बच्चा समाज में सामाजिक व्यवहार में आ रहे शब्दों के अर्थ कैसे ग्रहण करता है, इसका अध्ययन भारतीय भाषा चिन्तन में गहराई से हुआ है और अर्थग्रहण की प्रक्रिया को शक्ति के नाम से कहा गया है।
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च।
वाक्यस्य शेषाद् विवृत्तेर्वदन्ति सान्निध ।।
इस प्रकरण में केवल वाक्य विचार पर विशद् विवेचन किया जाता है।
३.वाक्य -विचार(Syntax):- इसमें वाक्य निर्माण ,उनके प्रकार,उनके भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार किया जाता है।
वाक्य विचार(Syntax) की परिभाषा:-
वह शब्द समूह जिससे पूरी बात समझ में आ जाये, 'वाक्य' कहलाता हैै।
दूसरे शब्दों में- विचार को पूर्णता से प्रकट करनेवाली एक क्रिया से युक्त पद-समूह को 'वाक्य' कहते हैं।
सरल शब्दों में- सार्थक शब्दों का व्यवस्थित समूह जिससे अपेक्षित अर्थ प्रकट हो, वाक्य कहलाता है।
जैसे- विजय खेल रहा है, बालिका नाच रही हैैै।
वाक्य के भाग:-
वाक्य के दो भाग होते है-
(1)उद्देश्य (Subject)
(2)विधेय(Predicate)
(1) उद्देश्य (Subject):-वाक्य में जिसके विषय में कुछ कहा जाये उसे उद्देश्य कहते हैं।
इसके अन्तर्गत कर्ता और संज्ञाओं का समावेश होता है।
सरल शब्दों में- जिसके बारे में कुछ बताया जाता है, उसे उद्देश्य कहते हैं।
जैसे-:
सौम्या पाठ पढ़ती है।
मोहन दौड़ता है।
इस वाक्य में सौम्या और मोहन के विषय में बताया गया है। अतः ये उद्देश्य है।
इसके अन्तर्गत कर्ता और कर्ता का विस्तार आता है।
जैसे- 'परिश्रम करने वाला व्यक्ति' सदा सफल होता है।
इस वाक्य में कर्ता (व्यक्ति) का विस्तार 'परिश्रम करने वाला' है।
उद्देश्य के भाग- (parts of Subject)
उद्देश्य के दो भाग होते है-
(i) कर्ता (Subject)
(ii) कर्ता का विशेषण या कर्ता से संबंधित शब्द।
(2) विधेय (Predicate):- उद्देश्य के विषय में जो कुछ कहा जाता है, उसे विधेय कहते है।
जैसे- सौम्या पाठ पढ़ती है।
इस वाक्य में 'पाठ पढ़ती' है विधेय है; क्योंकि यह बात सौम्या (उद्देश्य )के विषय में कही गयी है।
दूसरे शब्दों में- वाक्य के कर्ता (उद्देश्य) को अलग करने के बाद वाक्य में जो कुछ भी शेष रह जाता है, वह विधेय कहलाता है।
इसके अन्तर्गत विधेय का विस्तार आता है।
जैसे:-
'नीली नीली आँखों वाली लड़की 'अभी-अभी एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर गई' ।
इस वाक्य में विधेय (गई) का विस्तार 'अभी-अभी' एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर' है।
विशेष:-आज्ञासूचक वाक्यों में विधेय तो होता है किन्तु उद्देश्य छिपा होता है।
जैसे- वहाँ जाओ।
खड़े हो जाओ।
इन दोनों वाक्यों में जिसके लिए आज्ञा दी गयी है;
वह उद्देश्य अर्थात् 'वहाँ न जाने वाला '(तुम) और 'खड़े हो जाओ' (तुम या आप) अर्थात् उद्देश्य दिखाई नहीं पड़ता वरन् छिपा हुआ है।
विधेय के भाग- (Parts of Predicate)
विधेय के छः भाग होते हैं:-
(i) क्रिया verb
(ii) क्रिया के विशेषण Adverb
(iii) कर्म Object
(iv) कर्म के विशेषण या कर्म से संबंधित शब्द
(v) पूरक Complement
(vi)पूरक के विशेषण।
नीचे की तालिका से उद्देश्य तथा विधेय सरलता से समझा जा सकता है-
वाक्य.
१-उद्देश्य + विधेय.
गाय + घास खाती है-
सफेद गाय हरी घास खाती है।
सफेद -कर्ता विशेषण
गाय -कर्ता [उद्देश्य]
हरी - विशेषण कर्म
घास -कर्म [विधेय]
खाती है- क्रिया [विधेय]
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वाक्य के भेद:-
वाक्य के भेद- रचना के आधार पर
रचना के आधार पर.
वाक्य के तीन भेद होते हैं-
There are three kinds of Sentences. Based on Structure.
(i)साधरण वाक्य (Simple Sentence)
(ii)मिश्रित वाक्य (Complex Sentence)
(iii)संयुक्त वाक्य (Compound Sentence)
👇(i)साधरण वाक्य या सरल वाक्य:-जिन वाक्य में एक ही "समापिका क्रिया" होती है, और एक कर्ता होता है, वे साधारण वाक्य कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- जिन वाक्यों में केवल एक ही उद्देश्य और एक ही विधेय होता है, उन्हें साधारण वाक्य या सरल वाक्य कहते हैं।
इसमें एक 'उद्देश्य' और एक 'विधेय' रहते हैं।
जैसे:- सूर्य चमकता है', 'पानी बरसता है।
इन वाक्यों में एक-एक उद्देश्य, अर्थात कर्ता और विधेय, अर्थात् क्रिया हैं।
अतः, ये साधारण या सरल वाक्य हैं।
(ii)मिश्रित वाक्य:-जिस वाक्य में एक से अधिक वाक्य मिले हों किन्तु एक "प्रधान उपवाक्य" (Priceple Clouse ) तथा शेष "आश्रित उपवाक्य" (Sub-OrdinateClouse) हों, वह मिश्रित वाक्य कहलाता है।
दूसरे शब्दों में- जिस वाक्य में मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक या अधिक समापिका क्रियाएँ हों, उसे 'मिश्रित वाक्य' कहते हैं।
जैसे:- 'वह कौन-सा मनुष्य है,(जिसने)महाप्रतापी राजा चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम न सुना हो ।
दूसरे शब्दों मेें- जिन वाक्यों में एक प्रधान (मुख्य) उपवाक्य हो और अन्य आश्रित (गौण) उपवाक्य हो तथा जो आपस में 'कि'; 'जो'; 'क्योंकि'; 'जितना'; 'उतना'; 'जैसा'; 'वैसा'; 'जब'; 'तब'; 'जहाँ'; 'वहाँ'; 'जिधर'; 'उधर'; 'अगर/यदि'; 'तो'; 'यद्यपि'; 'तथापि'; आदि से मिश्रित (मिले-जुले) हों उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं।
इनमे एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अतिरिक्त एक से अधिक "समापिका क्रियाएँ " होती हैं।
जैसे:- मैं जनता हूँ "कि" तुम्हारे वाक्य अच्छे नहीं बनते।
"जो" लड़का कमरे में बैठा है वह मेरा भाई है।
यदि परिश्रम करोगे "तो" उत्तीर्ण हो जाओगे।
'मिश्र वाक्य' के 'मुख्य उद्देश्य' और 'मुख्य विधेय' से जो वाक्य बनता है, उसे 'मुख्य उपवाक्य' और दूसरे वाक्यों को आश्रित उपवाक्य' कहते हैं।
पहले को 'मुख्य वाक्य' और दूसरे को 'सहायक वाक्य' भी कहते हैं।
सहायक वाक्य अपने में पूर्ण या सार्थक नहीं होते, परन्तु मुख्य वाक्य के साथ आने पर उनका अर्थ पूर्ण रूप से निकलता हैं।
ऊपर जो उदाहरण दिया गया है, उसमें 'वह कौन-सा मनुष्य है' मुख्य वाक्य है और शेष 'सहायक वाक्य'; क्योंकि वह मुख्य वाक्य पर आश्रित है।
(iii)संयुक्त वाक्य :- जिस वाक्य में दो या दो से अधिक उपवाक्य मिले हों, परन्तु सभी वाक्य प्रधान हो तो ऐसे वाक्य को संयुक्त वाक्य कहते हैं।
दूसरे शब्दो में- जिन वाक्यों में दो या दो से अधिक सरल वाक्य योजकों (और, एवं, तथा, या, अथवा, इसलिए, अतः, फिर भी, तो, नहीं तो, किन्तु, परन्तु, लेकिन, पर आदि) से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है।
सरल शब्दों में- जिस वाक्य में साधारण अथवा मिश्र वाक्यों का मेल "संयोजक अवयवों "द्वारा होता है, उसे संयुक्त वाक्य कहते हैं।
जैसे:- 'वह सुबह गया और 'शाम को लौट आया।
प्रिय बोलो 'परन्तु 'असत्य नहीं।
उसने बहुत परिश्रम किया 'किन्तु' सफलता नहीं मिली।
संयुक्त वाक्य उस वाक्य-समूह को कहते हैं, जिसमें दो या दो से अधिक सरल वाक्य अथवा मिश्र वाक्य अव्ययों द्वारा संयुक्त हों ।
इस प्रकार के वाक्य लम्बे और आपस में उलझे होते हैं।
👇 जैसे:-'मैं ज्यों ही रोटी खाकर लेटा कि पेट में दर्द होने लगा, और दर्द इतना बढ़ा कि तुरन्त डॉक्टर को बुलाना पड़ा।'
इस लम्बे वाक्य में संयोजक 'और' है, जिसके द्वारा दो मिश्र वाक्यों को मिलाकर संयुक्त वाक्य बनाया गया।
इसी प्रकार 'मैं आया और वह गया' इस वाक्य में दो सरल वाक्यों को जोड़नेवाला संयोजक 'और' है।
यहाँ यह याद रखने की बात है कि संयुक्त वाक्यों में प्रत्येक वाक्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखता है, वह एक-दूसरे पर आश्रित नहीं होता, केवल संयोजक अव्यय उन स्वतन्त्र वाक्यों को मिलाते हैं।
इन मुख्य और स्वतन्त्र वाक्यों को व्याकरण में 'समानाधिकरण' उपवाक्य "भी कहते हैं।
_________________________________________
वाक्य के भेद- अर्थ के आधार पर ।
Kinds of Sentences -based on meaning
अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते हैं:-👇
1- स्वीकारात्मक वाक्य (Affirmative Sentence)
2-निषेधात्मक वाक्य (Negative Sentence)
3- प्रश्नवाचक वाक्य (Interrogative Sentence)
4-आज्ञावाचक वाक्य (Imperative Sentence)
5-संकेतवाचक वाक्य (Conditional Sentence)
6-विस्मयादिबोधक वाक्य
(Exclamatory Sentence)
7-विधानवाचक वाक्य (Assertive Sentence)
8- इच्छावाचक वाक्य ( ILLative Sentence)
(i)सरल वाक्य :-वे वाक्य जिनमे कोई बात साधरण ढंग से कही जाती है, सरल वाक्य कहलाते है।
जैसे:- राम ने रावण को मारा।
सीता खाना बना रही है।
(ii) निषेधात्मक वाक्य:-जिन वाक्यों में किसी काम के न होने या न करने का बोध हो उन्हें निषेधात्मक वाक्य कहते है।
जैसे:- आज वर्षा नही होगी।
मैं आज घर नहीं जाऊँगा।
(iii)प्रश्नवाचक वाक्य:-वे वाक्य जिनमें प्रश्न पूछने का भाव प्रकट हो, प्रश्नवाचक वाक्य कहलाते हैं।
जैसे:- राम ने रावण को क्यों मारा ?
तुम कहाँ रहते हो ?
(iv) आज्ञावाचक वाक्य :-जिन वाक्यों से आज्ञा प्रार्थना, उपदेश आदि का ज्ञान होता है, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते है।
जैसे:- । परिश्रम करो। बड़ों का सम्मान करो।
(v) संकेतवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से शर्त (संकेत) का बोध होता है , अर्थात् एक क्रिया का होना दूसरी क्रिया पर निर्भर होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं।
जैसे:- यदि तुम परिश्रम करोगे तो अवश्य सफल होगे।
पिताजी अभी आते तो अच्छा होता।
अगर वर्षा होगी तो फसल भी होगी।
(vi)विस्मयादि-बोधक वाक्य:-जिन वाक्यों में आश्चर्य, शोक, घृणा आदि का भाव ज्ञात हो उन्हें विस्मयादि-बोधक वाक्य कहते हैं।
जैसे- (१)वाह ! तुम आ गये। (२)हाय ! मैं लूट गया।
(vii) विधानवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों में क्रिया के करने या होने की सूचना मिले, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते है।
जैसे- मैंने दूध पिया। वर्षा हो रही है। राम पढ़ रहा है।
(viii) इच्छावाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से इच्छा, आशीष एवं शुभकामना आदि का भाव होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
जैसे-
(१)तुम्हारा कल्याण हो।
(२)आज तो मैं केवल फल खाऊँगा।
(३)भगवान तुम्हें लम्बी आयु दे।
वाक्य के अनिवार्य "तत्व " दार्शनिकों के मतानुसार-
वाक्य में निम्नलिखित छ: तत्व अनिवार्य है-
_______________________________________
(1)Significance
(2) Eligibility
(3) Aspiration
(4) Proximity
(5) Grade
(6) Unrequited
________________________
(1) सार्थकता
(2) योग्यता
(3) आकांक्षा
(4) निकटता
(5) पदक्रम
(6) अन्वय
(1) सार्थकता- वाक्य में सार्थक पदों का प्रयोग होना चाहिए निरर्थक शब्दों के प्रयोग से भावाभिव्यक्ति नहीं हो पाती है।
बावजूद इसके कभी-कभी निरर्थक से लगने वाले पद भी भाव अभिव्यक्ति करने के कारण वाक्यों का गठन कर बैठते है।
जैसे-
तुम बहुत बक-बक कर रहे हो।
चुप भी रहोगे या नहीं ?
इस वाक्य में 'बक-बक' निरर्थक-सा लगता है; परन्तु अगले वाक्य से अर्थ समझ में आ जाता है कि क्या कहा जा रहा है।
(2) योग्यता - वाक्यों की पूर्णता के लिए उसके पदों, पात्रों, घटनाओं आदि का उनके अनुकूल ही होना चाहिए। अर्थात् वाक्य लिखते या बोलते समय निम्नलिखित बातों पर निश्चित रूप से ध्यान देना चाहिए-
👇
(a) पद प्रकृति-विरुद्ध नहीं हो : हर एक पद की अपनी प्रकृति (स्वभाव/धर्म) होती है।
यदि कोई कहे मैं आग खाता हूँ। हाथी ने दौड़ में घोड़े को पछाड़ दिया।
उक्त वाक्यों में पदों की "प्रकृतिगत योग्यता" की कमी है। आग खायी नहीं जाती।
हाथी घोड़े से तेज नहीं दौड़ सकता।
इसी जगह पर यदि कहा जाय-
मैं आम खाता हूँ।
घोड़े ने दौड़ में हाथी को पछाड़ दिया।
तो दोनों वाक्यों में 'योग्यता' आ जाती है।
(b) बात- समाज, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि के विरुद्ध न हो : वाक्य की बातें समाज, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि सम्मत होनी चाहिए; ऐसा नहीं कि जो बात हम कह रहे हैं, वह इतिहास आदि के विरुद्ध है।
जैसे-
दानवीर कर्ण द्वारका के राजा थे।
महाभारत 25 दिन तक चला।
भारत के उत्तर में श्रीलंका है।
ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के परमाणु परस्पर मिलकर कार्बनडाई ऑक्साइड बनाते हैं।
(3) आकांक्षा- आकांक्षा का अर्थ है- इच्छा। एक पद को सुनने के बाद दूसरे पद को जानने की इच्छा ही 'आकांक्षा' है। यदि वाक्य में आकांक्षा शेष रह जाती है तो उसे अधूरा वाक्य माना जाता है; क्योंकि उससे अर्थ पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं हो पाता है।
जैसे- यदि कहा जाय।
'खाता है' तो स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि क्या कहा जा रहा है- किसी के भोजन करने की बात कही जा रही है या बैंक (Bank) के खाते के बारे में ?
(4) निकटता- बोलते तथा लिखते समय वाक्य के शब्दों में परस्पर निकटता का होना बहुत आवश्यक है, रूक-रूक कर बोले या लिखे गए शब्द वाक्य नहीं बनाते।
अतः वाक्य के पद निरन्तर प्रवाह में पास-पास बोले या लिखे जाने चाहिए
वाक्य को स्वाभाविक एवं आवश्यक बलाघात आदि के साथ बोलना पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है।
(5) पदक्रम - वाक्य में पदों का एक निश्चित क्रम होना चाहिए। 'सुहावनी है रात होती चाँदनी' इसमें पदों का क्रम व्यवस्थित न होने से इसे वाक्य नहीं मानेंगे।
इसे इस प्रकार होना चाहिए- 'चाँदनी रात सुहावनी होती है'।
(6) अन्वय - अन्वय का अर्थ है- मेल।
वाक्य में लिंग, वचन, पुरुष, काल, कारक आदि का क्रिया के साथ ठीक-ठीक मेल होना चाहिए; जैसे- 'बालक और बालिकाएँ गई', इसमें कर्ता और क्रिया का अन्वय ठीक नहीं है।
अतः शुद्ध वाक्य होगा 'बालक और बालिकाएँ गए'।
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वाक्य-विग्रह (Analysis)👇
वाक्य-विग्रह (Analysis)- वाक्य के विभिन्न अंगों को अलग-अलग किये जाने की प्रक्रिया को वाक्य-विग्रह कहते हैं।
इसे 'वाक्य-विभाजन' या 'वाक्य-विश्लेषण' भी कहा जाता है।
सरल वाक्य का विग्रह करने पर एक उद्देश्य और एक विधेय बनते है।
👇
संयुक्त वाक्य में से योजक को हटाने पर दो स्वतन्त्र उपवाक्य (यानी दो सरल वाक्य) बनते हैं।
मिश्र वाक्य में से योजक को हटाने पर दो अपूर्ण उपवाक्य बनते है।
👇
सरल वाक्य= 1 उद्देश्य + 1 विधेय
संयुक्त वाक्य= सरल वाक्य + सरल वाक्य
मिश्र वाक्य= प्रधान उपवाक्य + आश्रित उपवाक्य
1:-Simple Sentence =
1 Objective + 1 Remarkable
2:-Joint (Compound) sentence =
simple sentence + simple sentence
3:-Mixed (Complexs)entence =
principal clause + dependent clause
_________________________________________
वाक्य का रूपान्तरण--
(Transformation of Sentences)
किसी वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में, बिना अर्थ बदले, परिवर्तित करने की प्रकिया को 'वाक्यपरिवर्तन' कहते हैं।
हम किसी भी वाक्य को भिन्न-भिन्न वाक्य-प्रकारों में परिवर्तित कर सकते हैं और उनके मूल अर्थ में तनिक विकार या परिवर्तन नहीं आयेगा।
हम चाहें तो एक सरल वाक्य को मिश्र या संयुक्त वाक्य में बदल सकते हैं।
👇
सरल वाक्य:- हर तरह के संकटो से घिरा रहने पर भी वह निराश नहीं हुआ।
संयुक्त वाक्य:- संकटों ने उसे हर तरह से घेरा, (किन्तु) वह निराश नहीं हुआ।
मिश्र वाक्य:- यद्यपि वह हर तरह के संकटों से घिरा था, (तथापि) निराश नहीं हुआ।
वाक्य परिवर्तन करते समय एक बात विशेषत: ध्यान में रखनी चाहिए कि वाक्य का मूल अर्थ किसी भी हालत में विकृत ( परिवर्तित )न हो जाय।
यहाँ कुछ और उदाहरण देकर विषय को स्पष्ट किया जाता है-
👇
(क) सरल वाक्य से मिश्र वाक्य <>👇
1-सरल वाक्य- उसने अपने मित्र का मकान खरीदा।
मिश्र वाक्य- उसने उस मकान को खरीदा, जो उसके मित्र का था।
2-सरल वाक्य- अच्छे लड़के परिश्रमी होते हैं।
मिश्र वाक्य- जो लड़के अच्छे होते है, वे परिश्रमी होते हैं।
3-सरल वाक्य- लोकप्रिय विद्वानों का सम्मान सभी करते हैं।
मिश्र वाक्य- जो विद्वान लोकप्रिय होते हैं, उसका सम्मान सभी करते हैं।
(ख) सरल वाक्य से संयुक्त वाक्य<>
👇
1- सरल वाक्य- अस्वस्थ रहने के कारण वह परीक्षा में सफल न हो सका।
संयुक्त वाक्य- वह अस्वस्थ था और इसलिए परीक्षा में सफल न हो सका।
2-सरल वाक्य- सूर्योदय होने पर कुहासा जाता रहा।
संयुक्त वाक्य- सूर्योदय हुआ और कुहासा जाता रहा।
3-सरल वाक्य- गरीब को लूटने के अतिरिक्त उसने उसकी हत्या भी कर दी।
संयुक्त वाक्य- उसने न केवल गरीब को लूटा, बल्कि उसकी हत्या भी कर दी।
(ग) मिश्र वाक्य से सरल वाक्य<>
👇
1-मिश्र वाक्य- उसने कहा कि मैं निर्दोष हूँ।
सरल वाक्य- उसने अपने को निर्दोष घोषित किया।
2-मिश्र वाक्य- मुझे बताओ कि तुम्हारा जन्म कब और कहाँ हुआ था।
सरल वाक्य- तुम मुझे अपने जन्म का समय और स्थान बताओ।
3-मिश्र वाक्य- जो छात्र परिश्रम करेंगे, उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी।
सरल वाक्य- परिश्रमी छात्र अवश्य सफल होंगे।
(घ) कर्तृवाचक से कर्मवाचक वाक्य–><
👇
कर्तृवाचक वाक्य- लड़का रोटी खाता है।
कर्मवाचक वाक्य- लड़के से रोटी खाई जाती है।
कर्तृवाचक वाक्य- तुम व्याकरण पढ़ाते हो।
जैसे कर्मवाचक वाक्य- तुमसे व्याकरण पढ़ाया जाता है।
कर्तृवाचक वाक्य- मोहन गीत गाता है।
कर्मवाचक वाक्य- मोहन से गीत गाया जाता है।
(ड़) विधिवाचक से निषेधवाचक वाक्य👇
विधिवाचक वाक्य- वह मुझसे बड़ा है।
निषेधवाचक- मैं उससे बड़ा नहीं हूँ।
विधिवाचक वाक्य- अपने देश के लिए हर एक भारतीय अपनी जान देगा।
निषेधवाचक वाक्य- अपने देश के लिए कौन भारतीय अपनी जान न देगा ?
वाक्य रचना के कुछ सामान्य नियम
👇
''व्याकरण-सिद्ध पदों को मेल के अनुसार " यथाक्रम" रखने को ही 'वाक्य-रचना' कहते है।''
वाक्य का एक पद दूसरे से लिंग, वचन, पुरुष, काल आदि का जो संबंध रखता है, उसे ही 'मेल' कहते हैं। जब वाक्य में दो पद एक ही लिंग-वचन-पुरुष-काल और नियम के हों तब वे आपस में (मेल, समानता या सादृश्य) रखने वाले कहे जाते हैं।
निर्दोष वाक्य लिखने के कुछ नियम हैं।
👇
इनकी सहायता से शुद्ध वाक्य लिखने का प्रयास किया जा सकता है।
सुन्दर वाक्यों की रचना के लिए निर्देश:-
👇
(क) क्रम (order), (ख) अन्वय (co-ordination) और (ग) प्रयोग (using) से सम्बद्ध कुछ सामान्य नियमों का ज्ञान आवश्यक है।
(क) क्रम:-👇
किसी वाक्य के सार्थक शब्दों को यथास्थान रखने की क्रिया को 'क्रम' अथवा 'पदक्रम' कहते हैं।
इसके कुछ सामान्य नियम इस प्रकार हैं-
(i) हिंदी वाक्य के आरम्भ में 'कर्ता, मध्य में 'कर्म' और अन्त में 'क्रिया' होनी चाहिए। जैसे- मोहन ने भोजन किया।
यहाँ कर्ता 'मोहन', कर्म 'भोजन' और अन्त में किया 'क्रिया' है।
(ii) उद्देश्य या कर्ता के विस्तार को कर्ता के पहले और विधेय या क्रिया के विस्तार को विधेय के पहले रखना चाहिए।
👇
जैसे-अच्छे लड़के धीरे-धीरे पढ़ते हैं।
(iii) कर्ता और कर्म के बीच अधिकरण, अपादान, सम्प्रदान और करण कारक क्रमशः आते हैं।
जैसे-
मोहन ने घर में (अधिकरण) आलमारी से (अपादान) राम के लिए (सम्प्रदान) हाथ से (करण) पुस्तक निकाली।
(iv) सम्बोधन आरम्भ में आता है।
जैसे-
हे प्रभु, मुझ पर दया करें।
(v) विशेषण विशेष्य या संज्ञा के पहले आता है।
जैसे-
मेरी नीली कमीज कहीं खो गयी।
(vi) क्रियाविशेषण क्रिया के पहले आता है। जैसे-
वह तेज दौड़ता है।
(vii) प्रश्रवाचक पद या शब्द उसी संज्ञा के पहले रखा जाता है, जिसके बारे में कुछ पूछा जाय।
जैसे-
क्या बालक सो रहा है ?
टिप्पणी- यदि संस्कृत की तरह हिन्दी में वाक्य रचना के साधारण क्रम का पालन न किया जाय, तो इससे कोई क्षति अथवा अशुद्धि नहीं होती।
फिर भी, उसमें विचारों का एक तार्किक क्रम ऐसा होता है, जो एक विशेष रीति के अनुसार एक-दूसरे के पीछे आता है।
(ख) अन्वय (मेल)
'अन्वय' में लिंग, वचन, पुरुष और काल के अनुसार वाक्य के विभित्र पदों (शब्दों) का एक-दूसरे से सम्बन्ध या मेल दिखाया जाता है।
यह मेल कर्ता और क्रिया का, कर्म और क्रिया का तथा संज्ञा और सर्वनाम का होता हैं।
कर्ता और क्रिया का मेल
(i) यदि कर्तृवाचक वाक्य में कर्ता विभक्ति रहित है, तो उसकी क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होंगे। जैसे-
करीम किताब पढ़ता है। सोहन मिठाई खाता है। रीता घर जाती है।👇
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⬇☣⬇🌸
(ii) यदि वाक्य में एक ही लिंग, वचन और पुरुष के अनेक विभक्ति रहित कर्ता हों और अन्तिम कर्ता के पहले 'और' संयोजक आया हो, तो इन कर्ताओं की क्रिया उसी लिंग के बहुवचन में होगी जैसे-👇
मोहन और सोहन सोते हैं। आशा, उषा और पूर्णिमा स्कूल जाती हैं।
(iii) यदि वाक्य में दो भिन्न लिंगों के कर्ता हों और दोनों द्वन्द्वसमास के अनुसार प्रयुक्त हों तो उनकी क्रिया पुल्लिंग बहुवचन में होगी।
जैसे-
नर-नारी गये। राजा-रानी आये। स्त्री-पुरुष मिले। माता-पिता बैठे हैं।
(iv) यदि वाक्य में दो भिन्न-भिन्न विभक्ति रहित एकवचन कर्ता हों और दोनों के बीच 'और' संयोजक आये, तो उनकी क्रिया पुल्लिंग और बहुवचन में होगी। जैसे:-
राधा और कृष्ण रास रचते हैं।
बाघ और बकरी एक घाट पानी पीते हैं।
(v) यदि वाक्य में दोनों लिंगों और वचनों के अनेक कर्ता हों, तो क्रिया बहुवचन में होगी और उनका लिंग अन्तिम कर्ता के अनुसार होगा। जैसे-👇
१-एक लड़का, दो बूढ़े और अनेक लड़कियाँ आती हैं।
२-एक बकरी, दो गायें और बहुत-से बैल मैदान में चरते हैं।
(vi) यदि वाक्य में अनेक कर्ताओं के बीच विभाजक समुच्चयबोधक अव्यय 'या' अथवा 'वा' रहे तो क्रिया अन्तिम कर्ता के लिंग और वचन के अनुसार होगी। जैसे-
३-घनश्याम की पाँच दरियाँ वा एक कम्बल बिकेगा।
४-हरि का एक कम्बल या पाँच दरियाँ बिकेंगी।
५-मोहन का बैल या सोहन की गायें बिकेंगी।
(vii) यदि उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष और अन्यपुरुष एक वाक्य में कर्ता बनकर आयें तो क्रिया उत्तमपुरुष के अनुसार होगी। जैसे-👇
१-वह और हम जायेंगे।
२-हरि, तुम और हम सिनेमा देखने चलेंगे।
३-वह, आप और मैं चलूँगा।
🌸↔विद्वानों का मत है कि वाक्य में पहले मध्यमपुरुष प्रयुक्त होता है, उसके बाद अन्यपुरुष और अन्त में उत्तमपुरुष; जैसे- तुम, वह और मैं जाऊँगा।
कर्म और क्रिया का मेल
(i) यदि वाक्य में कर्ता 'ने' विभक्ति से युक्त हो और कर्म की 'को' विभक्ति न हो, तो उसकी क्रिया कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार ही होगी।
जैसे-
पिपासा ने पुस्तक पढ़ी। हमने लड़ाई जीती। उसने गाली दी। मैंने रूपये दिये। तुमने क्षमा माँगी।
(ii) यदि कर्ता और कर्म दोनों विभक्ति चिह्नों से युक्त हों, तो क्रिया सदा एकवचन पुल्लिंग और अन्यपुरुष में होगी। जैसे-
मैंने कृष्ण को बुलाया। तुमने उसे देखा। स्त्रियों ने पुरुषों को ध्यान से देखा।
(iii) यदि कर्ता 'को' प्रत्यय से युक्त हो और कर्म के स्थान पर कोई क्रियार्थक संज्ञा आए तो क्रिया सदा पुल्लिंग, एकवचन और अन्यपुरुष में होगी।
जैसे-
तुम्हें (तुमको) पुस्तक पढ़ना नहीं आता। अलिका को रसोई बनाना नहीं आता।
उसे (उसको) समझ कर बात करना नहीं आता।
(iv) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक विभक्ति रहित कर्म एक साथ आएँ, तो क्रिया उसी लिंग में बहुवचन में होगी। जैसे-
👇
श्याम ने बैल और घोड़ा मोल लिए।
तुमने गाय और भैंस मोल ली।
(v) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक-अप्राणिवाचक अप्रत्यय कर्म एक साथ एकवचन में आयें, तो क्रिया भी एकवचन में होगी।
जैसे-
मैंने एक गाय और एक भैंस खरीदी।
सोहन ने एक पुस्तक और एक कलम खरीदी।
मोहन ने एक घोड़ा और एक हाथी बेचा।
(vi) यदि वाक्य में भित्र-भित्र लिंग के अनेक प्रत्यय कर्म आयें और वे 'और' से जुड़े हों, तो क्रिया अन्तिम कर्म के लिंग और वचन में होगी। जैसे-
👇
मैंने मिठाई और पापड़ खाये।
उसने दूध और रोटी खिलाई।
संज्ञा और सर्वनाम का मेल-
(i) सर्वनाम में उसी संज्ञा के लिंग और वचन होते हैं, जिसके बदले वह आता है; परन्तु कारकों में भेद रहता है।
जैसे-
शेखर ने कहा कि मैं जाऊँगा।
शीला ने कहा कि मैं यहीं रूकूँगी।
(ii) सम्पादक, ग्रन्थ कार, किसी सभा का प्रतिनिधि और बड़े-बड़े अधिकारी अपने लिए 'मैं' की जगह 'हम' का प्रयोग करते हैं।
जैसे-
हमने पहले अंक में ऐसा कहा था।
हम अपने राज्य की सड़कों को स्वच्छ रखेंगे।
(iii) एक प्रसंग में किसी एक संज्ञा के बदले पहली बार जिस वचन में सर्वनाम का प्रयोग करे, आगे के लिए भी वही वचन रखना उचित है।
जैसे-
🌸↔अंकित ने संजय से कहा कि मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूँगा। तुमने हमारी पुस्तक लौटा दी हैं।
मैं तुमसे बहुत नाराज नहीं हूँ।
(अशुद्ध वाक्य है।)
पहली बार अंकित के लिए 'मैं' का और संजय के लिए 'तू' का प्रयोग हुआ है तो अगली बार भी 'तुमने' की जगह 'तूने', 'हमारी' की जगह 'मेरी' और 'तुमसे' की जगह 'तुझसे' का प्रयोग होना चाहिए :
👇
🌸↔अंकित ने संजय से कहा कि मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूँगा। तूने मेरी पुस्तक लौटा दी है।
मैं तुझसे बहुत नाराज नहीं हूँ।
(शुद्ध वाक्य)
(iv) संज्ञाओं के बदले का एक सर्वनाम वही लिंग और वचन लगेंगे जो उनके समूह से समझे जाएँगे।
जैसे-
शरद और संदीप खेलने गए हैं; परन्तु वे शीघ्र ही आएँगे।
श्रोताओं ने जो उत्साह और आनंद प्रकट किया उसका वर्णन नहीं हो सकता।
(v) 'तू' का प्रयोग अनादर और प्यार के लिए भी होता है।
जैसे-👇
रे नृप बालक, कालबस बोलत तोहि न संभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु विदित सकल संसार।।
(गोस्वामी तुलसीदास)
तोहि- तुझसे
अरे मूर्ख ! तू यह क्या कर रहा है ?(अनादर के लिए)
अरे बेटा, तू मुझसे क्यों रूठा है ? (प्यार के लिए)
तू धार है नदिया की, मैं तेरा किनारा हूँ।
(vi) मध्यम पुरुष में सार्वनामिक शब्द की अपेक्षा अधिक आदर सूचित करने लिए किसी संज्ञा के बदले ये प्रयुक्त होते हैं-
👇 (a) पुरुषों के लिए : महाशय, महोदय, श्रीमान्, महानुभाव, हुजूर, हुजुरेवाला, साहब, जनाब इत्यादि।
(b) स्त्रियों के लिए : श्रीमती, महाशया, महोदया, देवी, बीबीजी मुसम्मात सुश्री आदि।
(vii) आदरार्थ अन्य पुरुष में 'आप' के बदले ये शब्द आते हैं-
(a) पुरुषों के लिए : श्रीमान्, मान्यवर, हुजूर आदि।
(b) स्त्रियों के लिए : श्रीमती, देवी आदि।
संबंध और संबंधी में मेल
(1) संबंध के चिह्न में वही लिंग-वचन होते हैं, जो संबंधी के। जैसे-
रामू का घर
श्यामू की बकरी
(2) यदि संबंधी में कई संज्ञाएँ बिना समास के आए तो संबंध का चिह्न उस संज्ञा के अनुसार होगा, जिसके पहले वह रहेगा।
जैसे-
मेरी माता और पिता जीवित हैं। (बिना समास के)
मेरे माता-पिता जीवित है। (समास होने पर)
क्रम-संबंधी कुछ अन्य बातें
(1) प्रश्नवाचक शब्द को उसी के पहले रखना चाहिए, जिसके विषय में मुख्यतः प्रश्न किया जाता है।
जैसे-
वह कौन व्यक्ति है ?
वह क्या बनाता है ?
(2) यदि पूरा वाक्य ही प्रश्नवाचक हो तो ऐसे शब्द (प्रश्नसूचक) वाक्यारंभ में रखना चाहिए। जैसे-
क्या आपको यही बनना था ?
(3) यदि 'न' का प्रयोग आदर के लिए आए तो प्रश्नवाचक का चिह्न नहीं आएगा और 'न' का प्रयोग वाक्य में अन्त में होगा। जैसे-
आप बैठिए न।
आप मेरे यहाँ पधारिए न।
(4) यदि 'न' क्या का अर्थ व्यक्त करे तो अन्त में प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए और 'न' वाक्यान्त में होगा।
जैसे-👇
वह आज-कल स्वस्थ है न ?
आप वहाँ जाते हैं न ?
(5) पूर्वकालिक क्रिया मुख्य क्रिया के पहले आती है। जैसे-
👇
वह खाकर विद्यालय जाता है।
शिक्षक पढ़ाकर घर जाते हैं।
(6) विस्मयादिबोधक शब्द प्रायः वाक्यारम्भ में आता है। जैसे-
वाह ! आपने भी खूब कहा है।
ओह ! यह दर्द सहा नहीं जा रहा है।
(ग) वाक्यगत प्रयोग-
वाक्य का सारा सौन्दर्य पदों अथवा शब्दों के समुचित प्रयोग पर आश्रित है।
पदों के स्वरूप और औचित्य पर ध्यान रखे बिना शिष्ट और सुन्दर वाक्यों की रचना नहीं होती।
प्रयोग-सम्बन्धी कुछ आवश्यक निर्देश निम्नलिखित हैं-
👇
कुछ आवश्यक निर्देश:–
(i) एक वाक्य से एक ही भाव प्रकट हो।
(ii) शब्दों का प्रयोग करते समय व्याकरण-सम्बन्धी नियमों का पालन हो।
(iii) वाक्यरचना में अधूरे वाक्यों को नहीं रखा जाये।
(iv) वाक्य-योजना में स्पष्टता और प्रयुक्त शब्दों में शैली-सम्बन्धी शिष्टता हो।
(v) वाक्य में शब्दों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हो। तात्पर्य यह कि वाक्य में सभी शब्दों का प्रयोग एक ही काल में, एक ही स्थान में और एक ही साथ होना चाहिए।
(vi) वाक्य में ध्वनि और अर्थ की संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(vii) वाक्य में व्यर्थ शब्द न आने पायें।
(viii) वाक्य-योजना में आवश्यकतानुसार जहाँ-तहाँ मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग हो।
(ix) वाक्य में एक ही व्यक्ति या वस्तु के लिए कहीं 'यह' और कहीं 'वह', कहीं 'आप' और कहीं 'तुम', कहीं 'इसे' और कहीं 'इन्हें', कहीं 'उसे' और कहीं 'उन्हें', कहीं 'उसका' और कहीं 'उनका', कहीं 'इनका' और कहीं 'इसका' प्रयोग नहीं होना चाहिए।
(x) वाक्य में पुनरुक्तिदोष नहीं होना चाहिए। शब्दों के प्रयोग में औचित्य पर ध्यान देना चाहिए।
(xi) वाक्य में अप्रचलित शब्दों का व्यवहार नहीं होना चाहिए।
__________________________________________
(xii) परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है।
परन्तु फिर भी इसका प्रयोग कर सकते है ।
यह वाक्य अशुद्ध है- उसने कहा कि उसे कोई आपत्ति नहीं है। इसमें 'उसे' के स्थान पर 'मुझे' होना चाहिए।
अन्य ध्यातव्य बातें
(1) 'प्रत्येक', 'किसी', 'कोई' का प्रयोग- ये सदा एकवचन में प्रयुक्त होते है, बहुवचन में प्रयोग अशुद्ध है।
जैसे-
प्रत्येक- प्रत्येक व्यक्ति जीना चाहता है।
प्रत्येक पुरुष से मेरा निवेदन है।
कोई- मैंने अब तक कोई काम नहीं किया।
कोई ऐसा भी कह सकता है।
किसी- किसी व्यक्ति का वश नहीं चलता।
किसी-किसी का ऐसा कहना है।
किसी ने कहा था।
टिप्पणी- 'कोई' और 'किसी' के साथ 'भी' अव्यय का प्रयोग अशुद्ध है। जैसे- कोई भी होगा, तब काम चल जायेगा। यहाँ 'भी' अनावश्यक है।
कोई संस्कृत 'कोऽपि' का तद्भव है। '
कोई' और 'किसी' में 'भी' का भाव वर्तमान है।
(2) 'द्वारा' का प्रयोग- किसी व्यक्ति के माध्यम (through) से जब कोई काम होता है, तब संज्ञा के बाद 'द्वारा' का प्रयोग होता है;
वस्तु (संज्ञा) के बाद 'से' लगता है।
जैसे-
सुरेश द्वारा यह कार्य सम्पत्र हुआ। युद्ध से देश पर संकट छाता है।
(3) 'सब' और 'लोग' का प्रयोग- सामान्यतः दोनों बहुवचन हैं। पर कभी-कभी 'सब' का समुच्चय-रूप में एकवचन में भी प्रयोग होता है।
जैसे-
तुम्हारा सब काम गलत होता है।
यदि काम की अधिकता का बोध हो तो 'सब' का प्रयोग बहुवचन में होगा। जैसे-
सब यही कहते हैं।
हिंदी में 'सब' समुच्चय और संख्या- दोनों का बोध कराता है।
👇
'लोग' सदा बहुवचन में प्रयुक्त होता है। जैसे-
लोग अन्धे नहीं हैं। लोग ठीक ही कहते हैं।
कभी-कभी 'सब लोग' का प्रयोग बहुवचन में होता है।
'लोग' कहने से कुछ व्यक्तियों का और 'सब लोग' कहने से अनगिनत और अधिक व्यक्तियों का बोध होता है।
जैसे-
सब लोगों का ऐसा विचार है। सब लोग कहते है कि गाँधीजी महापुरुष थे।
(4) व्यक्तिवाचक संज्ञा और क्रिया का मेल- यदि व्यक्तिवाचक संज्ञा कर्ता है, तो उसके लिंग और वचन के अनुसार क्रिया के लिंग और वचन होंगे।
जैसे-
काशी सदा भारतीय संस्कृति का केन्द्र रही है।
यहाँ कर्ता (काशी) स्त्रीलिंग है।
पहले कलकत्ता भारत की राजधानी था।
यहाँ कर्ता (कलकत्ता) पुल्लिंग है।
उसका ज्ञान ही उसकी पूँजी था।
यहाँ कर्ता पुल्लिंग है।
(5) समयसूचक समुच्चय का प्रयोग- ''तीन बजे हैं। आठ बजे हैं।'' इन वाक्यों में तीन और आठ बजने का बोध समुच्चय में हुआ है।
(6) 'पर' और 'ऊपर' का प्रयोग- 'ऊपर' और 'पर' व्यक्ति और वस्तु दोनों के साथ प्रयुक्त होते हैं।
किन्तु 'पर' सामान्य ऊँचाई का और 'ऊपर' विशेष ऊँचाई का बोधक है। जैसे-
पहाड़ के ऊपर एक मन्दिर है।
इस विभाग में मैं सबसे ऊपर हूँ।
हिंदी में 'ऊपर' की अपेक्षा 'पर' का व्यवहार अधिक होता है। जैसे-
मुझ पर कृपा करो। छत पर लोग बैठे हैं। गोपाल पर अभियोग है। मुझ पर तुम्हारे एहसान हैं।
(7) 'बाद' और 'पीछे' का प्रयोग- यदि काल का अन्तर बताना हो, तो 'बाद' का और यदि स्थान का अन्तर सूचित करना हो, तो 'पीछे' का प्रयोग होता है।
जैसे-
उसके बाद वह आया- काल का अन्तर।
मेरे बाद इसका नम्बर आया- काल का अन्तर।
गाड़ी पीछे रह गयी- स्थान का अन्तर।
मैं उससे बहुत पीछे हूँ- स्थान का अन्तर।
(क) नए, नये, नई, नयी का शुद्ध प्रयोग- जिस शब्द का अन्तिम वर्ण 'या' है उसका बहुवचन 'ये' होगा। 'नया' मूल शब्द है, इसका बहुवचन 'नये' और स्त्रीलिंग 'नयी' होगा।
(ख) गए, गई, गये, गयी का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'गया' है।
उपरिलिखित नियम के अनुसार 'गया' का बहुवचन 'गये' और स्त्रीलिंग 'गयी' होगा।
(ग) हुये, हुए, हुयी, हुई का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'हुआ' है, एकवचन में। इसका बहुवचन होगा 'हुए'; '
हुये' नहीं 'हुए' का स्त्रीलिंग 'हुई' होगा; 'हुयी' नहीं।
(घ) किए, किये, का शुद्ध प्रयोग- 'किया' मूल शब्द है; इसका बहुवचन 'किये' होगा।
(ड़) लिए, लिये, का शुद्ध प्रयोग- दोनों शुद्ध रूप हैं।
किन्तु जहाँ अव्यय व्यवहृत होगा वहाँ 'लिए' आयेगा; जैसे- मेरे लिए उसने जान दी।
क्रिया के अर्थ में 'लिये' का प्रयोग होगा; क्योंकि इसका मूल शब्द 'लिया' है।
(च) चाहिये, चाहिए का शुद्ध प्रयोग- 'चाहिए' अव्यय है।
अव्यय विकृत नहीं होता। इसलिए 'चाहिए' का प्रयोग शुद्ध है; 'चाहिये' का नहीं। 'इसलिए' के साथ भी ऐसी ही बात है।
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