सन्धि- प्रकरण
ऊकालो ऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः॥ पाणिनि १/२/२७॥
संस्कृत विवृत्ति:-उश्च ऊश्च ऊ३श्च वः॑ वां काल इव कालो यस्य सो ऽच् क्रमाद् ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात्।
स प्रत्येकमुदात्तादि भेदेन त्रिधा।
व्याख्यायित:- १-(उ) २-(ऊ) ३-(ऊ उ/ (उ३) यह तीनों उकारें व: कहलाती है !
इन तीनों के उच्चारण में जितना समय लगता है उसके समान ही उपचारण काल वाले स्वरों की क्रमश हृस्व , दीर्घ और प्लुत संज्ञा होती है।
ये इस हृस्व ,दीर्घ , तथा प्लुत संज्ञा उदात्त ,अनुदात्त ,और स्वरित भेद से तीन प्रकार की होती हैं ।
फिर अनुनासिक और निरानुनासिक
दो और भेद होते हैं ।
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अब विचार करते हैं वर्णों की मात्राओं पर👇
एकमात्रो भवेध्रस्व: द्विमात्रो दीर्घ उच्यते ।
त्रिमात्रक: प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनाञ्चार्धमात्रक।।
अर्थात् एकमात्रा वाला ह्रस्व स्वर होता है ;
और दीर्घ मात्रा वाला स्वर दीर्घ तथा तीन मात्रा वाला स्वर प्लुत समझना चाहिए परन्तु व्यंजन तो अर्थ मात्रा का होता है ।
उच्चारण स्थान की दृष्टि से भेद 👇
अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः ।
इचुयशानां तालु:।
ऋटुरषाणां मूर्धा ।
लृतुलसानां दन्ताः ।
उपूपध्मानायानामोष्ठौ ।
ञमङणनानां नासिका च ।
एदैतोः कण्ठ -तालु ।
ओदौतोः कण्ठोष्ठं ।
वकारस्य दन्तोष्ठं ।
जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलं ।
नासिकानुस्वारस्य ।
कण्ठ, तालु , मूर्धा , दन्त , ओष्ठ और नासिका - ये
मुख्य उच्चारण स्थान हैं ।
यदि हम पाणिनी की व्याकरण (अष्टाध्यायी ) के ये
सूत्र याद कर लें तो इनका स्वरूप व स्थान
कभी भूलेंगे नहीं ।
ये छोटे सूत्र ये हैं :
अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः - अ , आ , ' क' वर्ग के
अक्षर ( क-ख-ग-घ- ङ ) , ह और विसर्ग (:)
इनका उच्चारण स्थान कंठ होता है ।
इचुयशानां तालु - इ , ई , ' च ' वर्ग के अक्षर (च -छ -ज -
झ -ञ ), य और श - इनका उच्चारण स्थान तालु
होता है ।
ऋटुरषाणां मूर्धा - ऋ, ' ट' वर्ग के अक्षर ( ट- ठ- ड -
ढ- ण) र और ष - ये मूर्धा से बोले जाते हैं ।
ॡतुलसानां दन्ताः - ॡ , 'त ' वर्ग के अक्षर (त - थ-
द-ध - न) और स - ये दान्तों से उच्चारित होते हैं -
जब तक हमारी जीभ दांतों को नहीं छूती , ये
नहीं बोले जा सकते ।
उपूपध्मानायानामोष्ठौ - उ, ऊ 'प ' वर्ग के
अक्षर ( प-फ - ब -भ -म ) और सीटी ( ध्मा)
की आवाज - ये सब ओठों से उच्चारित होते हैं।
ञमङणनानां नासिका च - ङ , ञ , ण, न, म - ये
अपने - अपने वर्ग के अतिरिक्त
नासिका द्वारा भी उच्चारित होते हैं ।
यदि अपने नाक को हम उंगलियों से दबा कर ये
अक्षर बोलें तो ध्वनि नहीं निकलेगी ।
वकारस्य कण्ठोष्ठं - ' व' शब्द कंठ और ओंठों से
बोला जाता है ।
हमारी जीभ उच्चारण में विशेष योग देती है,
फिर भी ’ जिह्वा’ या जीभ
को महर्षि पाणिनि ने कोई जगह
नहीं दी क्योंकि अकेली जीभ कोई शब्द
नहीं निकाल सकती ! ..
.....
ध्वनि भाषा की लघुतम और
अनिवार्य इकाई है । इसके वर्गीकरण का विशेष
महत्व बनता है -
तेषां विभागः पञ्चधा स्मृतः ।
स्वरतः कालतः स्थानात् प्रयत्न अनुदात्तुदानतः ।💐↔
(अष्टाध्यायी - 9.10)
वर्णों के भेद तीन प्रकार के होते हैं –
1-कालकृत -2-उच्चारण-स्थानकृत 3-नासिका कृत ।
जिन वर्णों के उच्चारण स्थान और प्रयत्न समान हों वही सवर्ण या सजातीय होते हैं ।
जिनमें तीन प्रमुख है-
1)स्थान
2) प्रयत्न
3) करण
(1) स्थान के आधार पर ध्वनियों का वर्गी करण-
1) काकल- ह, ।
2) कण्ठ्य - अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः ।(अ, ह,
कवर्ग)
3) तालव्य - इचुयशानां तालु । (इ, य, श, चवर्ग)
4) मूर्धन्य - ऋटुरषाणां मूर्धा । (ऋ, ष, टवर्ग)
5) दन्त्य - लृतुलसानां दन्ताः । (ल, स, तवर्ग)
6) ओष्ठ्य - उपुपमाध्मीयानामौष्ठौ ।
(उ,पवर्ग)
1- दन्त्योष्ठ्य - वकारस्य दन्त्योष्ठम् ।
2-उभयोष्ठ्य - घ़, ब़, भ़, म़, व़ ।
7) जिह्वामूलीय - जिह्वामूलीयस्य
जिह्वामूलम् ।
2) प्रयत्न के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण
-
प्रकृष्टो यत्नः प्रयत्नः
यत्नो द्विविधा - आभ्यान्तरो बाह्यश्च ।
(क) आभ्यान्तर प्रयत्न -
1) स्पृष्ट (स्पर्श्य) - क से म तक । (25 वर्ण)
2) ईषत्स्पृष्ट (अन्तस्थ) - यणोSन्तस्थाम् । (य, व,
र, ल ।)
3) विवृत (स्वर) - अच स्वराः । ( स्वर)
4) ईषत्विवृत (उष्म) - शल उष्मणः । (श, ष, स, ह ।)
5) संवृत - ह्रस्व अ वर्ण ।
(ख) बाह्य प्रयत्न -
1) विवार -
खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।
( वर्ग के
प्रधम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )
2) श्वास -
खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।
( वर्ग के
प्रधम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )
💐↔3) अघोष -
खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।
( वर्ग के
प्रधम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )
4) संवार - हशः संवारा नादा घोषाश्च ।
(वर्ग के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र,
ल, व)
💐↔5) नाद - हशः संवारा नादा घोषाश्च । (वर्ग
के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र, ल, व)
वर्णों के उच्चारण में एक प्रयत्न जिसमें कंठ न तो बहुत फैलाकर न संकुचित करके वायु निकालनी पड़ती है। ४. अनुस्वार के समान उच्चारित होनेवाला वर्ण। सानुनासिक स्वर।
6) घोष - हशः संवारा नादा घोषाश्च
(वर्ग
के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र, ल, व)
शब्दों के उच्चारण में ११ बाह्य प्रयत्नों में से एक । इस प्रयत्न से वर्ण बोले जाते हैं—ग, घ, ज, झ, ल, ढ द, ध, ब, भ, ङ, ञ ण, न म, य, र, ल, व, और ह ।
7) अल्पप्राण - वर्गानां प्रथम तृतीय पञ्चम
यणश्चाल्पप्राणाः । (वर्ग के प्रथम, तृतीय,
पञ्चम वर्ण तथा य, र, ल, व)
8) महाप्राण- वर्गानाम द्वितीय
चतिर्थौ शलश्च महाप्राणाः । (वर्ग के
द्वितीय चतुर्थ वर्ण तथा श, ष, स)
9) उदात्त - स्वर
10) अनुदात्त - स्वर
11) स्वरित - स्वर
कण्ठ ,-तालु और मूर्धा आदि वर्णों के उच्चारण-स्थान के ऊर्ध्व अथवा ऊपरी भाग से जो शब्द या स्वर उच्चरित होते हैं उनकी उदात्त संज्ञा होती है।
जैसे 'इ' का उच्चारण-स्थान -तालु है- और जब 'इ' स्वर का उच्चारण -तालु के ऊपरी भाग से होगा तो 'इ' स्वर उदात्त संज्ञक होगा । और यदि इस 'इ' स्वर का उच्चारण-तालु के नीच्चिले भाग से होगा तो'इ'स्वर अनुदात्त संज्ञक होगा।
वास्तव में जैसे हारमॉनियम में स्वरों का दबता -उछरता क्रम जिन्हें कोमल और शुद्ध रूप भी कहते हैं।
और यदि ये दोनौं मध्यम स्थिति में हों तो स्वरित संज्ञक होते हैं ।
यह कहे गये स्वर नौ प्रकार के होते हैं ; क्योंकि कि प्रत्येक स्वर पहले हृस्व दीर्घ तथा प्लुत के भेद से तीन प्रकार का होता है- ।
तत्पश्चात् स्थान के आधार पर इन तीनों के तीन तीन भेद और होते हैं
उदात्त , अनुदात्त और स्वरित इस प्रकार स्वर के नौ प्रकार हुए ।
इसके भी पश्चात पुन: नौं स्वरों में प्रत्येक के मुख के साथ नासिका के संयोजन वियोजन भेद से अनुनासिक तथा अननुनासिक (निरानुनासिक)दो भे और हो जाने से अठारह भेद होते हैं ।
इन स्वरों में " लृ " स्वर के बारह भेद ही होते हैं क्योंकि कि इनका दीर्घ नहीं होता ।इसी प्रकार एच् ( एऐओऔ)
सन्धि स्वर भी बारह प्रकार के होते हैं । क्योंकि इनमें हृस्व स्वर नहीं होते हैं ।
3) करण के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण -
मुखगह्वर में स्थित इन्द्रियाँ ही करण हैं ।
स्थान और करण का भेद मूलतः जङ़ता और
गतिशीलता है ।
यद्यपि स्थान और करण
दोनों ही वागेन्द्रियाँ हैं, किन्तु भेद चल और
अचल का है ।
स्थान स्थिर होता है और करण
अस्थिर एवं गतिशील ।
करण में निम्न
इन्द्रियों का समावेश होता है - अधरोष्ठ,
जिह्वा, कोमल तालु, स्वर तंत्री ।...
______________________
क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है। एक बार बोल कर देखिये |
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।
एक बार बोल कर देखिये |
😀
त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ दांतों से
💐↔ अनचि च 8|4|47
वृत्ति–
अच् परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्व।
अर्थ–अच् से परे यर् प्रत्याहार का विकल्प से द्वित्व हो जाता है
सूत्रच्छेदःअनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)
अनुवृत्तिःवा 8|4|45 (अव्ययम्) , यरः 8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे 8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः 8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)
अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम् 8|2|1> संहितायाम् 8|2|108
सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
सूत्रार्थः
अचः परस्य यरः अनचि परे विकल्पेन द्वित्वं भवति ।
"अनच्" इत्युक्ते "न अच्" । स्वरात् परस्य यर्-वर्णस्य अग्रे स्वरः नास्ति चेत् विकल्पेन द्वित्वं भवति इत्यर्थः । यथा -👇
वृत्ति:-अच: परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्वम्।
अर्थ:- अच् से परे
यर्( य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है- परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।
1) "कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।
2) "मति + अत्र" अस्मिन् यण्-सन्धौ इकारस्य यणादेशे कृते "मत्य् + अत्र" इति स्थिते अनेन सूत्रेण तकारस्य विकल्पेन द्वित्वं कृत्वा "मत्यत्र, मत्त्यत्र" एते द्वे रूपे सिद्ध्यतः ।
अत्र वार्त्तिकत्रयम् ज्ञातव्यम् -
यणो मयो द्वे वाच्ये । अस्य वार्त्तिकस्य अर्थद्वयम् भवति -
अ) (यणः इति पञ्चमी, मयः इति षष्ठी इति स्वीकृत्य) - यण्-वर्णात् परस्य मय्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - उल्क्का, वाल्म्मिकी ।
ब) (यणः इति षष्ठी , मयः इति पञ्चमी इति स्वीकृत्य) - मय्-वर्णात् परस्य यण्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - दध्य्यत्र, मध्व्वत्र ।
2) शरः खयः द्वे वाच्ये । अस्यापि वार्त्तिकस्य अर्थद्वयम् भवति -
अ) (शरः इति पञ्चमी, खयः इति षष्ठी इति स्वीकृत्य) - शर्-वर्णात् परस्य खय्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - स्थ्थाली, स्थ्थाता ।
ब) (शरः इति षष्ठी , खयः इति पञ्चमी इति स्वीकृत्य) - खय्-वर्णात् परस्य शर्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - क्ष्षीरम्, अप्स्सरा ।
अवसाने च - अवसाने परे हल्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वम् भवति । यथा - रामात्, रामात्त् ।
ज्ञातव्यम् -
1. अस्मिन् सूत्रे निर्दिष्टः स्थानी "यर्" वर्णः अस्ति । यर्-प्रत्याहारे हकारम् विहाय अन्यानि सर्वाणि व्यञ्जनानि समावेश्यन्ते । अतः हकारस्य अनेन सूत्रेण द्वित्वं न विधीयते ।
2. यर्-प्रत्याहारे वस्तुतः रेफः समाविष्टः अस्ति, परन्तु अचो रहाभ्यां द्वे 8|4|46 अचः परः रेफः आगच्छति चेत् तस्मात् परस्य यर्-वर्णस्य द्वित्वं भवति । अतः अचः परस्य रेफस्य अपि अनेन सूत्रेण द्वित्वं न विधीयते ।
3. एकस्य वर्णस्य स्थाने यदा वर्णद्वयं विधीयते, तदा द्वित्वं भवति इति उच्यते । तत्र कोऽपि वर्णः "पूर्ववर्णः" तथा कोऽपि वर्णः "अनन्तरम् आगतः" नास्ति । अतः द्वित्वे कृते "नूतनरूपेण प्रवर्तितः वर्णः कः" तथा "पूर्वं विद्यमानः वर्णः कः" इति प्रश्नः एव अयुक्तः अस्ति । द्वित्व
4. "कृष्ष्ण" इत्यत्र पुनः अनचि च 8|4|47 इत्यनेन षकारस्य द्वित्वं कर्तुम् शक्यते वा? एवं कुर्मश्चेत् अनन्तकालयावत् द्वित्त्वमेव भवेत् इति दोषः उद्भवति । अस्य परिहारार्थम् लक्ष्ये लक्षं सकृदेव प्रवर्तते
अस्याः परिभाषायाः प्रयोगः क्रियते । "लक्ष्य" इत्युक्ते स्थानी । "लक्ष" इत्युक्ते सूत्रम् । "सकृतम्" इत्युक्ते एकवारम् । अतः अनया परिभाषया एतत् ज्ञायते, यत् एकस्मिन् स्थले (इत्युक्ते एकस्य स्थानिनः विषये) कस्यचन सूत्रस्य एकवारमेव प्रयोगः भवितुम् अर्हति । अतःअनचि च 8|4|47 इत्यनेन एकवारं द्वित्वं भवति चेत् पुनः तस्मिन् एव स्थानिनि अनेन सूत्रेण द्वित्वं न भवति ।
काशिकावृत्तिः
अचः इति वर्तते, यरः इति च। अनच्परस्य अच उत्तरस्य यरो द्वे वा भवतः। दद्ध्यत्र। मद्ध्वत्र। अचः इत्येव, स्मितम्। ध्मातम्।
यणो मयो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। केचिदत्र यणः इति पञ्चमी, मयः इति षष्ठी इति व्याचक्षते। तेषाम् उल्क्का, वल्म्मीकः इत्युदाहरणम्। अपरे तु मयः इति पञ्चमी, यणः इति षष्ठी इति। तेषाम् दध्य्यत्र, मध्व्वत्र इत्युदाहरणम्। शरः खयो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। अत्र अपि यदि शरः इति पञ्चमी, खयः इति षष्ठी, तदा स्त्थाली, स्त्थाता इति उदाहरणम्। अथवा खय उत्तरस्य शरो द्वे भवतः। वत्स्सः। इक्ष्षुः। क्ष्षीरम्। अप्स्सराः। अवसाने च यरो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। वाक्क, वाक्। त्वक्क्, त्वक्। षट्ट्, षट्। तत्त्, तत्।
अचः परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्वेन सुध्ध्य् उपास्य इति जाते॥
महाभाष्यम्
अनचि च ।। द्विर्वचने यणो मयः।। द्विर्वचने यणो मय इति वक्तव्यम्।। किमुदाहरणम्?।। यदि यण इति पञ्चमी मय इति षष्ठी उल्क्का वल्म्मीकमित्युदाहरणम्।। अथ मय इति पञ्चमी यण इति षष्ठी दध्य्यत्र मध्व्यत्रेत्युदाहरणम्?।।शरःखयः।। शरःखय इति वक्तव्यम्।। किमुदाहरणम्?।। यदिशर इति पञ्जमीखयःथ्द्य;ति षष्ठी स्थ्थाली स्थ्थाता इत्युदाहरणम्। अथ खय इति पञ्जमी शर इति षष्ठी स्थ्थाली स्थ्थाता इत्युदाहरणम्। अथ खय इति पञ्चमी शर इति षष्ठी, वत्स्स(र)ः क्ष्षीरम् अपस्सरा इत्युदाहरणम्। ।। अवसाने च।। अवसाने च द्वे भवत इति वक्तव्यम्। वाक्क्। वाक्। त्वक्क् त्वक्। स्रुक्क्स्रुक्।। तत्तर्हि वक्तव्यम्?।। न वक्तव्यम्
नायं प्रसज्यप्रतिषेधः-अचि नेति।। किं तर्हि?।। पर्युदासोऽयं यदन्यदच इति।।
सूत्रच्छेदःवान्तः (प्रथमैकवचनम्) , यि (सप्तम्येकवचनम्) , प्रत्यये (सप्तम्येकवचनम्)
अनुवृत्तिःएचः 6|1|78 (षष्ठ्येकवचनम्)
अधिकारःसंहितायाम् 6|1|72
💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचो८यवायावो वान्तो यि प्रत्यय"
सम्पूर्णसूत्रम् एचो८यवायावो यि-प्रत्यये वान्तः
संहियाताम्
वृत्ति:-यकारादौ प्रत्यये परे ओदौतोरव् आव् एतौ स्त:। गत्यम् ।नाव्यम् ।
अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर ओ औ के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है ।
जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्
सूत्रार्थः-
ओकार-औकारयोः यकारादि-प्रत्यये परे क्रमेण अव्/आव् आदेशाः भवन्ति ।
अस्मिन् सूत्रे यद्यपि "एच्" इत्यस्य अनुवृत्तिः क्रियते, तथापि आदेशः "वान्तः" (= वकारान्तः) अस्ति, अतः केवलं ओकार-औकारयोः विषये एव अस्य सूत्रस्य प्रयोगः भवति ।
यदि ओकारात् / औकारात् परः यकारादि-प्रत्ययः आगच्छति, तर्हि ओकारस्य स्थाने अव्-आदेशः तथा औकारस्य स्थाने आव्-आदेशः विधीयते । यथा -
1) गो + यत् [गोपसोर्यत् 4|3|160 इत्यनेन यत्-प्रत्ययः]
→ गव् + य [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति ओकारस्य अव्-आदेशः]
→ गव्य
2) नौ + यत् [नौवयोधर्मविषमूल... 4|4|91 इति यत्-प्रत्ययः]
→ नाव् + यत् [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति औकारस्य आव्-आदेशः]
→ नाव्य
3) बभ्रु + यञ् [मधुबभ्र्वोर्ब्राह्मणकौशिकयोः 4|1|106 इति यञ्-प्रत्ययः]
→ बाभ्रु + यञ् [तद्धितेष्वचामादेः 7|2|117 इति आदिवृद्धिः ]
→ बाभ्रो + यञ् [ओर्गुणः 6|4|146 इत्यनेन गुणः]
→ बाभ्रव् + य [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति ओकारस्य अव्-आदेशः]
→ बाभ्रव्य
अत्र वार्तिकद्वयं ज्ञातव्यम् । एतौ द्वौ अपि वार्तिकौ "यूति" शब्दस्य विषये वदतः । "यूति" इति शब्दः ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च 3|3|97 अनेन सूत्रेण निपात्यते । यद्यपि अयं शब्दः प्रत्ययः नास्ति, "गो + यूति" इत्यत्र कासुचन स्थितिषु गो-शब्दस्य ओकारस्य अवादेशं कृत्वा "गव्यूति" इति रूपं सिद्ध्यति । अस्यैव विषये एते द्वे वार्तिके वदतः -
1. गोर्यूतौ छन्दस्युपसङ्ख्यानम् । इत्युक्ते, वेदेषु "यूति"-शब्दे परे गो-शब्दस्य ओकारस्य स्थाने अव्-इति वान्तादेशः भवति । यथा - "आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम्" (ऋग्वेदः - 3.62.16) - अत्र "गव्यूति" इति शब्दः प्रयुक्तः अस्ति । अत्र गव्यूति इत्युक्ते गावः यस्मिन् भूमौ चरन्ति सा ।
2. अध्वपरिमाणे च । इत्युक्ते, मार्गपरिमाणम् (= अन्तरस्य गणना) दर्शयितुम् "गो + युति" इत्यस्य लौकिकसंस्कते अपि वान्तादेशः क्रियते । यथा - "गव्यूतिमात्रम् अध्वानं गतः" (सः केवलं "एकगव्युति" अन्तरं गतवान् - इत्यर्थः । अद्यतनपरिमाणे 4 गव्युतिः = 1 योजनम् = 9.09 miles = 14.6 Km).
ज्ञातव्यम् - "गो + युति" इत्यत्र ओकारस्य अव्-आदेशे कृते लोपः शाकल्यस्य 8|3|19 इत्यनेन प्राप्तः वैकल्पिकः यकारलोपः न भवति । (अस्मिन् विषये भाष्ये किमपि उक्तम् नास्ति । कौमुद्यां दीक्षितः प्रश्लेषस्य आधारं स्वीकृत्य अस्य स्पष्टीकरणं दातुम् प्रयतते । परन्तु अस्मिन् विषये शास्त्रे भिन्नानि मतानि सन्ति ।)
One-line meaning in English
An ओकार and an औकार are respectively converted to अव् and आव् when followed by a यकारादि प्रत्यय.
काशिकावृत्तिः
अक्षादूहिन्यामुपसंख्यानम् ।। वार्तिक अक्षौहिणी सैना –
अक्ष शब्द के अन्तिम "अ वर्ण से ऊहिनी शब्द का आदि ऊकार परे होने पर पूर्व तथा पर के स्थान पर वृद्धि का आदेश हो जाता है- ।
तब रूप बनेगा अक्ष+ ऊहिनी =अक्षौहिणी ।
💐↔"एचो८यवायावो८चि वान्तो यि प्रत्यय"
अर्थात्:- यकारादि प्रत्यय परे होने पर 'ओ' औ' के स्थान पर क्रमश:अव् और आव् हो जाता है।
नो + यम् =नाव्यम् । इस स्थिति में नो के ओकार को यकारादि "वान्तो यि प्रत्यये " सूत्र से यम् यकारादि प्रत्यय परे होने से अव् आदेश हुआ।
न्+ ओ+ यम् = परस्पर संयोजन के पश्चात "नव्यम्" रूप बना।
इसी प्रकार नौ + यम् इस स्थिति में नौ के औकार को "वान्तो यि प्रत्यये "सूत्र से यम् यकारादि प्रत्यय परेे होने से आव् आदेश हुआ । परस्पर संयोजन के पश्चात "नाव्यम्" रूप बना।
काशिका-वृत्तिः
अचो रहाभ्यां द्वे ८।४।४६
यरः इति वर्तते। अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ ताभ्याम् उत्तरस्य यरो द्वे भवतः। अर्क्कः मर्क्कः। ब्रह्म्मा। अपह्न्नुते। अचः इति किम्? किन् ह्नुते। किम् ह्मलयति।
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
अचो रहाभ्यां द्वे ६०, ८।४।४५
अचः पराभ्यां रेफहकाराभ्यां परस्य यरो द्वे वा स्तः। गौर्य्यौ। (न समासे)। वाप्यश्वः॥
सिद्धान्त-कौमुदी
अचो रहाभ्यां द्वे २६९, ८।४।४५
अचः पराभ्यां रेफहकाराभ्यां परस्य यरो द्वे वा स्तः । हर्य्यनुभवः । नह्य्यस्ति ॥
न्यासः
अचो रहाभ्यां द्वे। , ८।४।४५
"अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ" इति। एतेनाच इति रहोर्विशेषणमिति दर्शयति। "आन्यामुत्तरस्य यरः" इति। अनेनापि रहौ यर्विशेषणमिति। "बर्क्कः" इति। "अर्च पूजायाम्()" (धा।प।२०४),धञ्(), "चजोः कुधिण्णयतोः" ७।३।५२ इति कुत्वम्()। "मर्क्कः" इति। मर्चिः सौत्रो दातुः, तस्मात्? इण्()भीकापाशस्यर्तिमर्चिभ्यः कन्()" (द।उ।३।२१) इति कन्(), "चोः कुः" ८।२।३० इति कुत्वम्()। अत्राकारादुत्तरो रेफः, तस्मादपि परः ककारो यरिति। "ब्राहृआ" इति। अत्राप्यकारादेवाच्च उत्तरो हकारः, तस्मादपि परो मकारो यरिति। "अपह्तुते" इति। अत्राप्यकारादुत्तरो हकारः, पूर्ववच्छपो लुक्(), तस्मात्? परस्य नकारस्य द्विर्वचनम्()। "किन्()ह्नुते" इति। अत्राच उत्तरो हकारो न भवतति नकारो न द्विरुच्यते। "किम्()ह्रलयति" इति। "ह्वल ह्रल सञ्चलने" (धा।पा।८०५,८०६), हेतुमण्णिच। "ज्वलह्वलह्रलनमामनुपसर्गाद्वा" ["ज्वलह्नलह्वल"--प्रांउ।पाठः] (धा।पा।८१७ अनन्तरम्()) इति मित्त्वम्(), "मितां ह्यस्वः" ६।४।९२ इति ह्यस्वत्वम्()॥
बाल-मनोरमा
अचो रहाभ्यां द्वे ६०, ८।४।४५
अचो रहाभ्यां द्वे। यरोऽनुनासिक इत्यतो यर इति षष्ठ()न्तं वेति चानुवर्तते। अच इति दिग्योगे पञ्चमी। "पराभ्या"मिति शेषः। रहाभ्यामित्यपि पञ्चमी। "परस्ये"ति शेषः। तदाह--अचः पराभ्यामित्यादिना। हय्र्यनुभव इति। हरेरनुभव इति विग्रहः। हरि-अनुभव इति स्थिते रेफादिकारस्य यण्। तस्य द्वित्वम्। अथ हकारात्परस्योदाहरति--न ह्य्यस्तीति। नहि--अस्तीति स्थिते हकारादिकारस्य यण्। तस्य द्वित्वम्। इहोभयत्र यकारस्य अचः परत्वाऽभावादच्परकत्वाच्च द्वित्वमप्राप्तं विधीयते। अत्राऽनचि चेति रेफहकारयोर्द्वित्वं न भवति। द्वित्वप्रकरणे रहाभ्यामिति रेफत्वेन हकारत्वेन च साक्षाच्छ()तेन निमित्तभावेन तयोर्यर्शब्दबोधितकार्यभाक्त्वबाधात्, "श्रुतानुमितयोः श्रुतं बलीय" इति न्यायात्। हर्? य्? य् अनुभवः, नह् य् य् अस्ति इति स्थिते।
तत्त्व-बोधिनी
अचो रहाभ्यां द्वे ।।, ८।४।४५
वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।
अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है- यथा -
गौर्य्यौ–गौर + यो =गौर्यौ । इस विग्रह दशा में गौर की गौ में औ अच् है- ।तथा इससे परे रेफ(र्) है- उससे परे यकार है- ।अत: यकार का विकल्प से द्वित्व होगा।
द्वित्व पक्ष में गौर् +य + र्यौ =गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।
सूत्रच्छेदःएति-एधति-ऊठ्सु (सप्तमीबहुवचनम्)
अनुवृत्तिःआत् 6|1|87 (पञ्चम्येकवचनम्) , एचि 6|1|88 (सप्तम्येकवचनम्) , वृद्धिः 6|1|88 (प्रथमैकवचनम्)
अधिकारःसंहितायाम् 6|1|72> एकः पूर्वपरयोः 6|1|84
सम्पूर्णसूत्रम् आत् एचि एति-एधति-ऊठ्सु एकः पूर्वपरयोः वृद्धिः
सूत्रार्थः
अवर्णात् परस्य इण्-धातोः एध्-धातोः एच्-वर्णे परे तथा ऊठ्-शब्दे परे पूर्वपरयोः एकः वृद्धि-आदेशः भवति ।
यदि अकारात् / आकारात् परः -
1) इण्-धातोः एकारादि /ऐकारादि / ओकारादि /औकारादि रूपम् आगच्छति, अथवा
2) एध्-धातोः एकारादि /ऐकारादि / ओकारादि /औकारादि रूपम् आगच्छति, अथवा
3) "ऊठ्" अयम् शब्दः आगच्छति, तर्हि -
पूर्वपरयोः स्थाने एकः वृद्धि-एकादेशः भवति ।
उदाहरणानि -
1) उप + एति → उपैति ।
एत्येधत्यूठ्सु।।6/1/87।।–वृद्धि: एचि एति एधते ' ऊठसु"
वृत्ति-अवर्णादेजाधोरेत्येधत्योरूठि च परे वृद्धिरेकादेश:स्यात्।पररूप गुणापवाद: उपैति।उपैधते।प्रष्ठौह:।।एजाद्यो: किम्?उपेत: ।मा भवान् प्रेदिधत्।
अर्थ-अ वर्ण से परे यदि एच् प्रत्याहार आदि में वाली 'इण्' तथा एड्• धातु हो अथवा ऊठ हो तो पूर्व एवं पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है ।यथा उपैति।उपैधते प्रष्ठौह:।
उपैति –उप+ एति इस विग्रह दशा में अ के पश्चात एजादि 'ए' परे है अत: एडि्•पररूपम् से पर रूप होता है परन्तु उसका अपवाद करके ' एत्येधत्यूठसु' इस सूत्र से पूर्व 'अ और 'ए के स्थान पर 'ऐ वृद्धि होगयी तत्पश्चात परस्पर संयोजन के बाद उपैति सन्धि-का का पद सिद्ध होता है ।
उपैधते–उप+एधते ,इस अवस्थाओं में अ' के पश्चात ए' परे होने के कारण प्राप्त था।
किन्तु उसका बाधन कर 'एत्येधत्यूठसु' सूत्र द्वारा अ+ए के स्थान पर ऐ वृद्धि एकादेश होता है उप–अ+ए+धते=उप +ऐ+धते ।उपैधते ।संयोजन के उपरीन्त हुआ।
प्रष्ठौह–प्रष्ठ+ऊह: इस विग्रह दशा में प्रष्ठ में अन्तिम वर्ण अकार है उससे परे ऊह का ऊकार है । अत: इस स्थान पर अ+ ऊ के स्थान पर आद्गुण: प्राप्त था परन्तु उसे बाध कर एत्येधत्यूठसु' सूत्र से अ+ ऊ के स्थान पर औ वृद्धि एकादेश होता है।प्रष्ठ+अ+ऊ+ह: = प्रष्ठ् +औ+ह: परस्पर संयोजन करने पर प्रष्ठौह: सन्धि-का रूप हुआ।
उपसर्गाद् ऋति धातौ।।6/1/91। अर्थात् उपसर्गाद् ऋति परे वृद्धि: एकादेश ।
वृत्ति–अवर्णान्तादुपसर्गाद् ऋकारादौ धातौ परे वृद्धिरेकादेश: स्यात् । प्रार्च्छति । उपार्च्छति
प्रार्च्छति – प्र+ ऋच्छति विग्रह पद में प्र' उपसर्ग में अ' अन्त में है ।उससे परे ऋ है ।
अत: उपसर्गाद् ऋति परे ऋति धातौ' सूत्र से परे (अ+ऋ+ च्छति ) इस स्थिति में पूर्व एवं पर अ+ऋ=आर् वृद्धि हुई। प् +र् +आर्+ च्छति संयोजन करने पर प्रार्च्छति सन्धि पद सिद्ध होगा ।
अक्षादूहिन्यामुपसंख्यानम्।। वार्तिक
अक्षौहिणी सेना।
अर्थ:-अक्ष शब्द के अन्तिम अ वर्ण से ऊहिनी शब्द का आदि ऊकार परे होने पर पूर्व तथा पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है।
(27)अचो८न्तयादि टि ।। 1/1/64 ।
वृत्ति:- अचां मध्ये यो ८न्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।
अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है ।यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।
(28) शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम् ।।वार्तिक।
वृत्ति:- तच्च टे शकन्धु: ।कर्कन्धु: । कुलटा। मनीषा ।आकृतिगणो८यम् ।मार्तण्ड:।
अर्थ:-शकन्धु आदि शब्दों में ( उनकी सिद्धि के अनुरूप) पररूप कहना चाहिए वह पररूप टि ' और अच् ' के स्थान पर समझना चाहिए । यथा
शकन्धु:-शक +अन्धु: । इस विग्रह दशा में शक् शब्द के अन्तिम क में अ' स्वर वर्ण है वह टि' है तथा अन्धु: का अकार परे है । यहाँ (अ+अ)=अ पररूप प्रस्तुत वार्तिक से हुआ। परस्पर संयोजन करने पर
(शक्+ अ+अ+न्धु: ) शकन्धु: सन्धि पद बनेगा इसी प्रकार कर्कन्धु: बनेगा ।यह दीर्घ स्वर सन्धि का अपवाद है।
मनीषा:- मनस् +ईषा इस अवस्था में ' अचो८न्यादि टि ' सूत्र से मनस् की मन् +(अस् ) टि को ईषा के ई के स्थान पर' शकन्ध्वादिषु पररूप वाच्यम् ' वार्तिक से ई पररूप एकादेश होता है ।( मन् + अस् + ई+ई +षा ) परस्पर संयोजन करने पर मनीषा पद बना ।
ओम् च आङ् च ओमाङौ, तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः॥
अर्थः॥
ओमि आङि च परतः अवर्णात् पूर्वपरयोः स्थाने पररूपमेकादेशः भवति, संहितायां विषये॥
उदाहरणम्॥
कन्या + ओम् = कन्योम् इत्यवोचत्। आ + ऊढा = ओढा, अद्य + ओढा = अद्योढा, कदोढा, तदोढा॥
काशिका-वृत्तिः
ओमाङोश् च ६।१।९५
आतित्येव। अवर्णान्तातोमि आङि च परतः पूर्वपरयोः स्थाने पररूपम् एकादेशो भवति। का ओम् इत्यवोचत्, कोम् इत्यवोचत्। योम् इत्यवोचत्। आगि खल्वपि आ ऊढा ओढा। अद्य ओढा अद्योढा। कदा ओढा कदोढा। तदा ओढा तदोढा। वृद्धिरेचि ६।१।८५ इत्यस्य पवादः। इह तु आ ऋश्यातर्श्यात्, अद्य अर्श्यातद्यर्श्यातिति अकः सवर्णे दीर्घत्वं बाधते।
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
ओमाङोश्च ४०, ६।१।९२
ओमि आङि चात्परे पररूपमेकादेशः स्यात्। शिवायोंं नमः। शिव एहि॥
सिद्धान्त-कौमुदी
ओमाङोश्च ४०, ६।१।९२
ओमि आङि चात्परे पररूपमेकादेशः स्यात् । शिवायों नमः । शिव एहि । शिवेहि ॥
___________________ ______________________
अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।।
👇वृत्ति–अच् पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।
👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है।
यथा :-गौर+ यो इस विग्रह दशा में -गौर की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।
द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।
💐↔
अचः किम्? "ह्लुते" इत्यादौ नकारस्य माभूत्।
AboutFeedback8|4|44 शात्
8|4|44 SK 112 शात्
सूत्रच्छेदःशात् (पञ्चम्येकवचनम्)
अनुवृत्तिःश्चुः 8|4|40 (प्रथमैकवचनम्) , न 8|4|42 (अव्ययम्) , तोः 8|4|43 (षष्ठ्येकवचनम्)
अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम् 8|2|1> संहितायाम् 8|2|108
सम्पूर्णसूत्रम्शात् तोः श्चुः न
सूत्रार्थः
शकारात् परस्य तवर्गीयवर्णस्य श्चुत्वम् न भवति ।
शकारात् परः तवर्गीयवर्णः आगच्छति चेत् स्तोः श्चुना श्चुः 8|4|41 इत्यनेन निर्दिष्टस्य श्चुत्वस्य अनेन सूत्रेण निषेधः उच्यते ।
यथा - प्रच्छँ (ज्ञीप्सायाम्) धातोः यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ् 3|3|90 अनेन नङ्-प्रत्ययः भवति -
प्रच्छ् + नङ्
→ प्रश् + न [च्छ्वोः शूडनुनासिके च 6|4|19 इति च्छ्-इत्यस्य नकारादेशः]
→ प्रश्न । श्चुना
यह श्चुत्व सन्धि-का अपवाद है- ।
अयोगवाह
अक्षरसमाम्नायसूत्रेषु “अइउण्” इत्यादिषु चतुर्दशसु नास्ति योगः इति अयोग पाठादिरूपः संबन्धो येषां ते तथापि वाहयन्ति षत्वणत्वादिकार्य्यादिकं निष्पादयन्ति वाहेः अच् कर्म्मधारय अयोगवाह ।
“अनुस्वारो विसर्गश्च + कँपौ चैव पराश्रितौ । अयोगवाहाविज्ञेया” इति शिक्षाकृदुपदिष्टेषु अनुस्वारविसर्गादिषु ...
वह वर्ण जिनका पाठ अक्षरसमाम्नाय सूत्र में नहीं है । विशेषत:—ये किसी किसी के मत से अनुस्वार, विसर्ग जिह्वामूलीयस्य :क :ख :प :फ ये छै: वर्ण हैं ।
अनुस्वार विसर्ग के अतिरिक्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय भी अयोगवाह है ।
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