असली यदुवंशी कौन ? अहीर अथवा जादौन ! एक विश्लेषण --भाग प्रथम
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भारत में जादौन ठाकुर तो जादौन पठानों का छठी सदी में हुआ क्षत्रिय करण रूप है ।
क्योंकि अफगानिस्तान अथवा सिन्धु नदी के मुअाने पर बसे हुए जादौन पठानों का सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब था तक्वुर ! जो भारतीय भाषाओं में ठक्कुर , ठाकुर ,टैंगॉर तथा ठाकरे रूपों में प्रकाशित हुआ।
जमीदारी खिताबों के तौर पर भारत में इस शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए सबसे पहले हुआ।
जो तुर्की काल में जागीरों के अथवा
भू-खण्डों के मालिक थे ।
उस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय प्राय द्वीप में इस्लामीय विचार धाराओं का भी आग़ाज (प्रारम्भ) नहीं हुआ था। केवल ईसाई विचार धाराओं का प्रचार था ।
तब जादौन पठान कबीलों के रूप में ईरानी संस्कृति को आत्मसात् किये हुए थे ।
यद्यपि ये वंशगत रूप से स्वयं यहूदीयों से सम्बद्ध थे ।
उसके लगभग एक शतक बाद ई०सन् 712 में मौहम्मद बिन-काशिम अरब़ से चल कर ईरान में होता हुआ भारत में सिन्धु के मुहाने पर उपस्थित होता है।
तब भारत में इस्लामीय विचार धाराओं का प्रसार होता है । जब मौहम्मद बिन काशिम के साथ आए इस्लामीय मज़हब के नुमाइन्दों ने देखा कि यहाँ तो अादमी -आदमी को जातिवाद के तराजू में तौला जा रहा है ।
यहाँ तो गरीब व निचले स्तर के इन्सानों को शूद्रों का नाम देकर ; उनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता है ।
फिर इस्लामीय विचार धारा तो साम्य वाद पर आश्रित थी ।
इस समय छूआ-छूत एवं जातिगत भेद भावना अपनी पराकाष्ठा पर थे । ब्राह्मण हिन्दू-समाज का सर्वेसर्वा थे तथा राजपूत जो विदेशीयों का क्षत्रिय करण रूप था । वे
उन ब्राह्मणों के संरक्षक बन गया थे ।
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सरे आम जब निम्न समझी जाने वाली जन-जातियों की सुन्दर कन्याओं को अपनी हवश आपूर्ति के लिए उच्च वर्ग के लोगों द्वारा अपहरण कर लिया जाता था तब वह दृश्य मानवीय नारी सत्ता के लिए बड़े दु:खद था ।
निम्न वर्ग भूमिहीन ,व गुलाम होकर स्वाभिमान शून्य जीवन जी रहा था।
हीन भावना से ग्रसित होकर अपना दुर्भाग्य समझ कर वह निरन्तर अपमानों के कड़वे घूँट पी रहा था । निराशा वाद में श्वाँसें गिन गिन कर जी रहा था ।
इस्लामीय विचार धाराओं का उदय भारत में
ऐैसे समय पर इन लोगों को आशा की किरण बन गया ।
इन लोगों ने स्वेैच्छिक रूप से इस्लाम को स्वीकार किया।
परन्तु 15 वीं सदी में तलवार के बल पर भी बुतसिकन बन कर इस्लामीय शरीयत को मुगलों द्वारा प्रसारित किया गया ।
और कुछ गौण मान्यताओं के अनुसार तो केरल के मालावार से भी मौहम्मद बिन काशिम के एक सदी पहले ही इस्लामीय शरीयत का आग़ाज अरब सागर के व्यापारियों द्वारा हुआ ।
परन्तु 712 ई० सन् की घटना को ही ऐैतिहासिक मान्यताऐं हैं ।
इस समय विदेशीयों को यह एहशास हो गया था कि हिन्दुस्तान को जीतना आसान है ।
क्योंकि यहाँ समाज में कौम़परस्ती हावी है ।
हिन्दुस्तान को जीतने का माद्दा तो दारा प्रथम के समय ईरानीयों में भी था ।
यह घटना सिकन्दर से पहले की अर्थात् ई०पू० चतुर्थ सदी की है ।
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भारत में आने वाले प्रथम विदेशी तो हखामनी ईरानी लोग ही थे।
विदेशी भारत को जीतकर गुलाम बनाने में सफल इस लिए भी रहे ; कि उस समय जिन जन-जातियाें को शूद्रों के रूप में श्रेणि बद्ध किया गया ।
उनसे सारे अधिकार जब्त कर लिए गये ।
उन्हें न पढ़ने का अधिकार था ।
न लड़ने का और नाहीं कोई धर्म कर्म करने का
विदेशीयों से युद्ध काल में भी निम्न समझी जाने वाली जन-जातियाें के प्रति तिरस्कार व हीनता की भावना ब्राह्मणों तथा राजपूतों द्वारा होने के कारणये लोग शान्त रहते
क्योंकि विधानों के अनुसार क्षत्रिय ही लड़ सकता है ।
शूद्रों का कार्य तो केवल दौनों वर्णों की केवल सेवा करना है ।
स्मृति-ग्रन्थों का सृजन ही शूद्रों के आधिकारिक प्रतिबन्ध को दृष्टि गत कर के हुआ।
फिर जब ये लोग समाज से अलग-थलग पड़ गये; तब देश गुलाम बन गया ।
और आज भी समाज की स्थित ग्राम्य-स्तर पर इसी प्रकार की परिलक्षित होती है ।
धार्मिक रूढि वादी अनुष्ठानों की आढ़ में वस्तुतः आज भी अन्ध-विश्वास व व्यभिचार पूर्ण मान्यताओं व क्रिया कलापों का सम्पादन ग्राामीण तथा शहरी स्तर पर देखा जा सकता है ।
राजस्थान में एैसा देखने को अधिक मिलता है।
क्योंकि यहाँ राजपूतों में अभिमान पूर्वक अन्धक मान्यताओं को धर्मानुष्ठानों के रूप में बड़ी अनिवार्यता से लागू किया जाता है ।
जहाँ वस्तुतः शिक्षा नहीं होता वहाँ गरीबी तो होती ही है । वहाँ की जनता भी अन्ध-विश्वासी व रूढ़ि वादी परम्पराओं का निर्वहन करती रहती है ।
राजस्थान राजपूतों का प्रथम गढ़ है । जहाँ पाकिस्तान की कुछ सीमाऐं स्पर्श करती हैं।
विदित हो कि राजपूत विदेशीयों का वह वर्ग है।
जिसके अन्तर्गत कुषाण ,हूण , हित्ती, शक , सिथियन, जॉर्जियन तथा पठान आदि थे ।
जादौन राजपूत की एक शाखा राजस्थान में खाँनजादा
नाम से प्रसिद्ध है ।
और खान पठानों का लकब (Title)
है । नीचे कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं देखें---👇
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Autor: Source: Wikipedia
Editora: Books LLC, Wiki Series
Data de publicação: 2011-07-27
ISBN: 115546883X
Páginas: 38 pages
Tag: muslim, communities, rajasthan, khanzada, mughal, mirasi, qaimkhani, muslimrangrez, manganiar, merat, cheetah, deshwali, langha
Please note that the content of this book primarily consists of articles available from Wikipedia or other free sources online. Pages: 37. Chapters:
Khanzada, Mughal, Meo, Mirasi, Qaimkhani, MuslimRangrez, Manganiar, Merat, Cheetah, Deshwali, Langha, Silawat, Ghanchi, Sindhi-Sipahi, Rath, Pathans of Rajasthan, Pinjara, Shaikh of Rajasthan, Bhutta (भाटी ), Singiwala, Khadim, Sorgar, Kandera, Chadwa, Hiranbaz, Hela Mehtar. Excerpt:
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The Khanzada, or Khanzadah, (Urdu: ) (Hindi खान जादा) is a subdivision of Rajputs, now found mainly in the Rajasthan, Haryana and Western Uttar Pradesh of India; and Sindh, Punjab provinces of Pakistan. Khanzadahs, the royal family of Muslim Jadon (also spelt as Jadaun) Rajputs,
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accepted Islam on their association with the Sufi Saints. Khanzadah, the Persian form of the Rajputana word 'Rajput', is the title of the great representatives of the ancient Yaduvanshi royal Rajput family, descendants of Krishna and therefore of Lunar Dynasty. They are the Mewatti Chiefs of the Persian historians, who were the representatives of the ancient Lords of Mewat. Khanzada = Khan (Raj) + zada (put Son) = Rajput.
The word Khanzada or Khanzadeh in Persian means 'son of a Khan', 'Khan means king'. Or Pathan . While Khanzadi or Khanzadehi is used for daughters of Khan. Mewat -
The Kingdom of Khanzadahs, Muslim Jadu Rajput clan, Mewatpatti The ancient country of Mewat is roughly contained within a line running irregularly northwards from Dig in Bhartpur to about the latitude of Rewari,
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then westwards below Rewari to the longitude of a point six miles (10 km) west of the city of Alwar, and then south to the Barah stream in Ulwur. The line then turns east Dig,
to form the southern boundary. The Mewat country possesses several hill ranges. Those by Ulwur, and those that form the present boundary to the north-east were the most important. Tijara, lying near the latter, contended with Ulwur for the first place in Mewat.
However, it is prominently a division of Jadubansi Rajputs...
उपर्युक्त तथ्यों का हिन्दी रूपान्तरण देंखें 👇
लेखक: स्रोत: विकिपीडिया
सम्पादक: पुस्तकें एलएलसी, विकीपीडिया श्रृंखला
डेटा डी publicação: 2011-07-27
आईएसबीएन: 115546883 एक्स
Pagginas: 38 पेज....
टैग: मुस्लिम, समुदायों, राजस्थान, खानजादा, मुगल, मिरासी, कैमखानी, मुस्लिम रेंजरेज़, मंगानीर, मेरेट, चीता, देशवाली, लंगा
कृपया ध्यान दें कि इस पुस्तक की सामग्री में मुख्य रूप से विकिपीडिया या अन्य मुक्त स्रोतों से उपलब्ध लेख शामिल हैं। पृष्ठ 37. अध्याय: खानजादा, मुगल, मेयो, मिरासी,कैमखानी, मुस्लिम रंगरेज़, मंगानी, मेरत, चीता, देशवली, लंघा, सिलावत, घांची, सिंधी-सिपाही, राठ, राजस्थान के पठान, पिंजारा, राजस्थान के शेख , भूट भाटी या भुट्टो, सिंगिवाला, खादिम, सोगर, कंदरा, चाडवा, हिरणबाज, हेला मेहतर।
उद्धरण: खानजादा, या खानजादा, (उर्दू:) वस्तुत: (खान जादा) राजपूतों का एक उपविभाग है, जो मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा और भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया जाता है; और सिंध, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त भी है । मुस्लिम जादौन (जादुन के रूप में भी लिखा गया) के शाही परिवार खानजादा ने सूफी संतों के साथ अपने सहयोग पर इस्लाम को स्वीकार किया। राजपूताना शब्द 'राजपूत' का फारसी रूप खानजादा प्राचीन यदुवंशी शाही राजपूत परिवार, कृष्णा के वंशज और इसलिए सोम वंश के महान प्रतिनिधियों का खिताब है।
वस्तुत ये जादौन पठान यहूदीयों की शाखा ही है
---जो भारतीय धरातल पर जादौन राजपूत के रूप में अपने को यदुवंशी कहते हैं।
वे फारसी इतिहासकारों के मेवाट्टी चीफ हैं, जो मेवाट के प्राचीन लॉर्ड्स के प्रतिनिधि थे।
खानजादा = खान (राज) + ज़दा (उत्पन्न) = राजपूत। फारस में खानजादा या खानजादा शब्द का अर्थ है 'खान का पुत्र', 'खान का अर्थ राजा' है।
खान की बेटियों के लिए खानजादी या खानजादेही का इस्तेमाल किया जाता है। खान पठानों का लकब उपाधि है मेवाट - खानजादाह का राज्य, मुस्लिम जादौन राजपूत कबीले, मेवात्पट्टी मेवाट का प्राचीन देश भारतपुर में डिंग से अनियमित रूप से उत्तर में चलने वाली रेखा के भीतर रेवाड़ी के अक्षांश के बारे में बताया जाता है, फिर रेवाड़ी के नीचे पश्चिम की तरफ छह मील की ऊंचाई पर (10 किमी) अलवर शहर के पश्चिम में, और फिर दक्षिण में उल्वा में बरहा धारा तक की भी भाग । फिर दक्षिणी सीमा बनाने के लिए रेखा पूर्वी डिंग (दीर्घ पुर) बदल जाती है। मेवाट देश में कई पहाड़ी श्रृंखलाएं हैं।
उल्वुर के लोग, और जो उत्तर-पूर्व में वर्तमान सीमा बनाते हैं वे सबसे महत्वपूर्ण थे। तिजारा, उत्तरार्द्ध के पास झूठ बोलते हुए, उल्वा में पहली जगह मेवाट के साथ संघर्ष किया।
हालांकि, यह मुख्य रूप से जादौन राजपूतों का एक प्रभाग है ...
हम अपनी इसी ऐैतिहासिक श्रृंखला में यह लिपिबद्ध कर चुके हैं कि राजस्थान के जादौन राजपूत जादौन पठानों का छठी सदी में हुआ क्षत्रिय करण रूप है ।
ये बड़े वीर तथा यौद्धा होते थे ।
मागी अथवा बिरहमन ---जो ईरानी पुरोहित थे
इनकी संस्कृति कुछ कुछ भारतीय ब्राह्मणों से साम्य रखता है ।
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भारत में इन जादौन पठानों का मार्ग दर्शन स्वीडन ,नार्वे से चल कर सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों से परिपुुष्ट हुए इन ब्राह्मणों ने इस भारत में आगमन काल में अपने ब्राह्मण धर्म के लिए समायोजित किया ।
तब यहाँ भरत, किरात, कोल , भील आदि द्रविड जन-जातियाँ निवास कर रहीं थी ।
यहाँ के इन पूर्व वासीयों को दमन करने के लिए पुरोहित समाज ने इन विदेशीयों का समायोजन क्षत्रियों के रूप में किया।
क्योंकि बुद्ध के प्रादुर्भाव से वैदिक कर्म काण्ड परक ब्राह्मण धर्म मन्द पड़ गया था ।
अत: बौद्ध श्रमणों के विध्वंस के लिए भी एैसा हुआ।
सबने माउण्ट आबू की कथा भाटौं की मुखार बिन्दु से श्रवण की गयी होगी ।
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इतिहास में दो मत प्रचलित हैं।
कर्नल टोड व स्मिथ आदि के अनुसार राजपूत वह विदेशी जातियाँ है ;
जिन्होंने भारत पर आक्रमण किया था और ---जो ब्राह्मणों के समानान्तर भारत में आये और यहाँ की भरत अथवा व्रात्य ---जो वृत्र से सम्बद्ध थी ।
उन जातियों को परास्त किया ।
वे उच्च श्रेणी के विदेशी राजपूत कहलाए, चन्द्रबरदाई लिखते हैं ।
कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के संपूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउण्ट आबू पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, गुर्जर-प्रतिहार व सोलंकी राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
यहाँ गुर्जर शब्द जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) से आगत विदेशीयों का रूप है ।
न कि गौश्चर: या गूज़र का वाचक ---जो अहीरों की एक शाखा है।
गुर्जर शब्द की प्राच्य और पाश्चात्य व्युत्पत्ति-पर आगे विश्लेषण (Etymological Analization)किया गया है
उपर्युक्त माउण्ट आबू की घटना को इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप मे देखते हैं।
इन्हीं राजपूतों के रूप में जादौन पठानों को भी वर्गीकृत किया गया हैं ।
---जो राजस्थान में बंजारों की एक शाखा है ।
आज भी भूबड़िया बञ्जारे स्वयं को राजपूतों के रूप में मानते हैं ।
राजपूतों में जादौन जन-जाति तो अपने प्रारम्भिक काल में बञ्जारा वृत्ति का निर्वहन करती थी।
ये जादौन पठान थे ।
ये भी यौद्धा व सहासी तो थे ही ।
इन्होंने स्वयं को यहूदी माना तो बाद में यदुवंशी क्षत्रिय मानने लगे ।
परन्तु यहाँ समस्या यह है कि वैदिक सन्दर्भों में यदुस्तुर्वश्च ( यदु और तुर्वसु को दास स्वीकार किया है । और दास वैदिक सन्दर्भों में असुर अथवा अदैवीय रूप है तथा इन्हें जीतने के लिए पुरोहितों ने इन्द्र से प्रार्थना भी हैं । इस लिए जादौन राजपूत
प्रत्यक्षत: वैदिक यदु से सम्बद्ध नहीं हैं।
क्योंकि दूसरा बडा़ कारण यह है कि जादौन ठाकुर अपने को कभी भी गोपों से सम्बन्धित नहीं मानते हैं ।
जबकि सम्पूर्ण यदुवंश की पृष्ठ-भूमि गोपालन वृत्ति से सम्बद्ध हैं ।
इसके लिए ऋग्वेद की यह प्राचीनत्तम ऋचा प्रमाण भूत है कि यदु को ऋग्वेद में गोप रूप वर्णन किया है ।👇
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद-१० /६२ /१०
इस लिए ब्राह्मणों ने इन्हें राजपूतों के रूप में समायोजित किया।
उस समय जादौन पठानों के कबीलों में अपने रुतबे का इज़हार करने के लिए सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब के रूप में तक्वुर( tekvur) शब्द का प्रचलन था ।
तब जादौन पठान ईरानी एवं यहूदी विचार धारा से ओत-प्रोत थे ।
यद्यपि मनु (नूह) ए-ब्राहम (ब्रह्मा) विश-नु (देवन) इशहाक( इक्ष्वाकु) इत्यादि नाम भारतीय पुराणों में भी हैं।
ब्राह्मणों को भी ईरानी धर्म-ग्रन्थों में बरहमन कहा गया तथा सुमेरियन पुरातन कथाओं बरम ( Baram )
यहूदीयों की बहुत सी पृथा ब्राह्मणों जैसी थीं ।
क्योंकि देवर -विवाह जिसे लैविरेट (levirate) पृथा के रूप में भी जाना जाता है ।
यहूदीयों में प्रचलित थी ; वह ब्राह्मणों में यथावत् रही ।
परन्तु नियोग पृथा तो ब्राह्मणों की - मौलिक सृष्टि है।
-जैसे बाद में इस्लामीय शरीयत में हलाला की रश्म जो विवाह-विच्छेदन के पुन: समायोजन हेतु ज़िना के तौर पर बनायी गयी ।
परन्तु इस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय धरातल पर सर्वत्र ईसाई विचार धारा का बोल-बाला था ।
जादौन शब्द (Joda) शब्द से विकसित हुआ है ।
जिसका अर्थ है यहुदह् अथवा Yehudah की सन्तानें
विदित हो कि ईसाई मज़हब यहूदीयों की विकसित विचार धारा है यह हमने ऊपर बताया ।😘
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यहाँ हम ठाकुर शब्द की व्युत्पत्ति पर भी एक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं; कि इसका प्रयोग जादौन पठानों के साथ कब से जुड़ा हुआ है?
देखें नीचें (तुर्की ऐैतिहासिक विवरणों से उद्धृत तथ्य )👇
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Origin and meaning of tekvur name in pathan Tribes...
The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning "Wearer of the Crown".
It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople.
The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos - which means "born in the Purple Chamber".
It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and From Middle Armenian (թագւոր ) (tʿagwor) टैंगॉर , from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor). Attested in Ibn Bibi's works...... (Classical Persian) /tækˈwuɾ/ (Iranian Persian) /tækˈvoɾ/ تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_
हिन्दी उच्चारण ठक्कुरन)
(takvorân) or تکورها (takvor-hâ)) alternative form of Persian in Dehkhoda Dictionary
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तुर्कों की कुछ शाखाऐं सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से यहाँ हिन्दुस्तान में आकर बसीं।
इससे पहले यहाँ से पश्चिम में देव संस्कृति के अनुयायी आर्य(आयोनियन , हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का बसाव रहा था।
भारत में हर्षवर्धन (590-647 ई० सन्) प्राचीन भारत में एक कान्यकुब्ज (कन्नौज) का राजा था ;
जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था ;
उसके राज्यविस्तार के पतन के बाद यहाँ विदेशीयों विशेषत: हूणों ,कुषाणों , तुर्कों एवं सीथियन (Scythian) जन-जातियाें का राजपूतीकरण हुआ । और फिर नये सिरे से ब्राह्मणों की कर्म काण्ड परक वैदिक क्रियाऐं प्रारम्भ हुईं।🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
इन राजपूतों में सिन्धु और अफगानिस्तान के गादौन / जादौन पठानों की भी बड़ी संख्या थी।
ठाकुर शब्द के मूल रूप के विषय में हम आपको बताऐं! कि तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर ) परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी।
ये लोग तुर्की होने से खाँन अथवा पठान अथवा तक्वुर tekvur टाइटल लगाते थे ।
बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के रूप में उदित हुआ ।
संस्कृत शब्दकोशों में इसे ठक्कुर के रूप में लिखा गया है। कुछ समय तक ब्राह्मणों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है ।
क्योंकि ब्राह्मण भी जागीरों के मालिक होते थे ।
जो उन्हें राजपूतों द्वारा दान रूप में मिलती थी। और आज भी गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल में ठाकुर ब्राह्मणों की ही उपाधि है।
तुर्की ,ईरानी अथवा आरमेनियन भाषाओ का तक्वुर शब्द एक जमींदारों की उपाधि थी ।
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समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का हम इस सन्दर्भों में उल्लेख करते हैं। कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे " उसमान खलीफ का समय (644 - 656 ) ईस्वी सन् के समकक्ष रहा है भारत में यहाँ हर्षवर्धन का शासन तब क्षीण होता जा रहा था ।
बौद्ध श्रमणों के पलायन तथा संहार के लिए पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण ब्राह्मण धर्म के विस्तार के लिए विदेशीयों को सम्मोहित कर रहे थे ।
उस्मान फलीफा के नैतृत्व में इस्लामीय विचार धाराओं का प्रसार पश्चिमीय एशिया में निरन्तर हो रही था ।
उस्मान को शिया लोग ख़लीफा मानने को तैयार नहीं
थे।
सत्तर साल के तीसरे खलीफा उस्मान (644- से 656 राज्य करते रहे हैं) उनको एक धर्म प्रशासक के रूप में निर्वाचित किया गया था। उन्होंने राज्यविस्तार के लिए अपने पूर्ववर्ती शासकों- की नीति प्रदर्शन को जारी रखा ।
इन्हीं के मार्ग दर्शन में तुर्कों ने इस्लामीय मज़हब को स्वीकार किया।
ठाकुर शब्द विशेषत तुर्की अथवा ईरानी संस्कृति में अफगानिस्तान के पठान जागीर-दारों में भी प्रचलित था
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पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यही जादौन पठान जाति ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है। इस कथा की पृष्ठ-भूमि के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी-इस्राएल के दस कबीलों को देश -निकाला दे दिया गया था।
और यही कबीले पख़्तून थे ।
मुग़ल काल में भी अकबर से लेकर अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक , हर मुग़ल शासक अकबर के बाद और तक़रीबन सारे बादशाह राजपूत कन्याओ से ही पैदा हुए ।
-जैसे जहाँगीर , शाहजहाँ , औरंगजेब आदि ।
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विदित हो कि मुस्लिम काल में हजारों राजपूतो ने इस्लाम स्वीकार किया -और कुछ इस्लामीय विचार धाराओं के खिलाफ रहे ।
इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले राजपूत
जैसे- कायमखानी , खानजादे , मेव ,रांघड , चीता , मेहरात , राजस्थान के रावत जो फिर हिन्दू बन गए आदि सब राजपूत मुस्लमान ही तो है।
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और जादौन अफगानिस्तान मूल के ईरानी यहूदीयों का कबीला था ।
---जो सातवीं सदी के आसपास कुछ मुसलमान हो गये मणिकार अथवा पण्यचारी का व्यवसाय करने वाले मनिहार तथा बंजारे भी थे ।
---जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी अत: राजस्थान के बंजारा समाज में जादौन कबीला भी है । जिनका ऐैतिहासिक विवरण निम्न है👇
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As Follows (1) Dharawat (2)ghuglot (3)Badawat (4) Boda (5)Malod (6)Ajmera (7) Padya (8)Lakhavat (9) Nulawat... All the above Come under the jadon (jadhav) Sub-Group of the Charan Banjara also called as Gormati in the area. from the same area among the Labhana banjara the following clan are reported : 1- kesharot 2-dhirbashi 3- Gurga 4- Rusawat 5- Meghawat 6- khachkad 7-Pachoriya 8 Alwat 9- khasawat 10 bhokan 11- katakwal 12- Dhobda 13 Machlya 14 -khaseriya 15-Gozal 16- borya 17- Ramawat 18 Bhutiya 19 Bambholya 20 Rethiyo 21-Majawat the Rathor and jadon are Charan banjara are more common in the area Among the sonar Banjara clan names like medran are found but the type is rare. A Sub-Group by name Banjara (the drum -beater are also found in the pusad area having topical clan names like (1) Hivarle, ( 2) karkya (3)Failed (4) Shelar (5) kamble (6) Deopate (7) Dhawale. These clan names unlike the other given above Do not sound akin to Rajput clan names and are similar to those among the pardhan or other lower castes in the area who are traditionally enged in drum- beating at the time marriage or other ceremonies. it is likely that these lower castes were assimilated in the Banjara community as there drum-beater or the lowest in ranks among the Banjara adopted the function along with the clan names/surnames of the local lower castes engaged in the function. Rathod is also used as a clan name among the Gormati Banjaras which is very common another common surname is jadhav which sound akin the Maratha surname in Maharashtra. madren is a clan name reported from the Sonar Banjara....
हिन्दी अनुवाद:---निम्नलिखित के अनुसार (1) धारवत (2) घुह्लोट (3) बदावत (4) बोडा (5) मालोड (6) अजमेरा (7) पद्या (8) लखवत (9) नुलावत ... उपरोक्त सभी चरन बंजारा के जादौन (जाधव) उप-समूह के तहत आते हैं । जिन्हें क्षेत्र में गोर्मती भी कहा जाता है। लैबाना (लभाना) बंजारा के बीच एक ही क्षेत्र से निम्नलिखित कबीलों की सूचना दी गई है: 1- केशारोट 2-धीरबाशी 3- गुड़गा 4- रसवत 5- मेघावत 6- खचकड़ 7-पचोरिया 8 अलवत 9- खसावत 10 भोकन 11- कटकवाल 12- ढोबा 13 मच्छिया 14-चेकेसरिया 15-गोज़ल (गोयल) 16- बोर्य 17- रामावत 18 भूटिया 1 9 बंबोल्या 20 रेथियो 21-माजावत आदि.. राठौर और जादौन क्षेत्र में चारन बंजारा अधिक आम हैं सोनार बंजारा कबीले के नाम जैसे मेद्रान में पाए जाते हैं लेकिन यह प्रकार दुर्लभ है। बंजारा नाम से एक उप-समूह (ड्रम -बीटर नगाड़ा बजाने वाला ) पुसाड क्षेत्र में भी पाए जाते हैं ; जिसमें सामयिक कबीलों के नाम होते हैं (1) हिवरले, (2) करका (3) असफल (4) शेलर (शिलार) (5) कॉम्बले (6) द्योपेत ( 7) धवले। ऊपर दिए गए दूसरे के विपरीत ये कबीले नाम राजपूत कबीले के नामों की तरह नहीं लगते हैं और वे उस क्षेत्र में क्षमा या अन्य निचली जातियों के समान हैं जो पारम्परिक रूप से शादी या अन्य समारोहों में ड्रम को पीटते हैं।
यह सम्भावना है कि बंजारा समुदाय में इन निचली जातियों को समेकित (समायोजित) किया गया था क्योंकि बंजारा के बीच ड्रम-बीटर या सबसे कम रैंक समारोह में लगे स्थानीय निचली जातियों के कबीलों के नामों / उपनामों के साथ समारोह को अपनाया था।
राठोड़ और जादौन गोर्मती के बीच एक कबीले के नाम के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
जो कि आम बात है, एक आमनाम जाधव है ।
जो महाराष्ट्र में मराठा उपनाम जैसा लगता है। जादौन पठान---जो अफगानिस्तानी मूल के उनमें मणिकार अथवा मनिहार भी बंजारा वृत्ति से जीवन यापन करते थे ।
पश्चिमीय एशिया के यहूदीयों के ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ों में यहूदीयों को सोने - चाँदी तथा हीरे जवाहरात का सफल व्यापारी भी बताया गया है मदर सोनार बंजारा से एक कबीले का नाम है जादौन ।
मिश्र में कॉप्ट Copt यहूदीयों की सोने -चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है।
जो भारतीय गुप्ता वार्ष्णेय गोयल आदि यदुवंशी वैश्य शाखा से साम्य परिलक्षित करती है। मनिहार-- मनिहार (अंग्रेजी: Manihar) हिन्दुस्तान में पायी जाने वाली एक मुस्लिम बिरादरी की जाति है। इस जाति के लोगों का मुख्य पेशा चूड़ी बेचना है। इसलिये इन्हें कहीं-कहीं चूड़ीहार भी कहा
जाता है। मुख्यतः यह जाति उत्तरी भारत और पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में पायी जाती है।
यूँ तो नेपाल की तराई क्षेत्र में भी मनिहारों के वंशज मिलते हैं। ये लोग अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द के रूप में अब प्राय: सिद्दीकी ही लगाते हैं।
मुसलमान होने से.. मणिकार अथवा पण्यचारि दौनों शब्द वैदिक हैं -
--जो कालान्तरण में मनिहार तथा बंजारा रूप में परिवर्तित हुए ।
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उत्पत्ति का इतिहास-- इन जातियों की उत्पत्ति के विषय में दो सिद्धान्त हैं ; एक भारतीय, दूसरा मध्य एशियाई।
भारतीय सिद्धान्त के अनुसार ये मूलत: राजपूत थे जो सत्ता को त्याग कर मुसलमान बने। इसका प्रमाण यह है कि इनकी उपजातियों के नाम राजपूत उपजातियों से काफी कुछ मिलते हैं जैसे-भट्टी, सोलंकी, चौहान, बैसवारा, जादौन आदि।
इसीलिये इनके रीति रिवाज़ हिन्दुओं से मिलते हैं; दूसरी ओर मध्य एशियाई सिद्धान्त के अनुसार ये वो लोग है जिनका गजनी में शासकों के यहाँ घरेलू काम करना था ; और इनकी महिलायें हरम की देखभाल करती थी जो 1000 ई० में महमूद गज़नवी क़े साथ भारत आये और फिरोजाबाद के आस-पास नारखी, बछिगाँव आदि के क्षेत्रों में बस गये।
इन पठानों की कुछ उपजातियाँ --- (1)शेख़ (2) इसहानी, (3) कछानी, (4) लोहानी, (5) शेख़ावत, (6) ग़ोरी, (7) कसाउली, (8) भनोट, (9) चौहान, (10) पाण्ड्या, (11) मुग़ल, (12) सैय्यद, (13) खोखर, (14) बैसवारा और (15) राठी (16) गादौन अथवा जादौन । पश्चिमीय पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के पठानों में जादौन पठानों की एक शाखा है जिसकी कद- काठी जादौन राजपूतों तथा जादौन बन्जारों से मिलती है ।
-जो पश्तो भाषा बोलते हैं - जैसे राजस्थानी पिंगल डिंगल उपभाषाओं के सादृश्य- पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा-- पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा ।
(Theory of Pashtun descent from Israelites)
19 वीं सदी के बाद से बहुत से पश्चिमी इतिहासकारों में एक विवाद का विषय बना हुआ है।
पश्तून लोक मान्यता के अनुसार यह समुदाय इस्राएल के उन दस क़बीलों का वंशज है; जिन्हें लगभग २,८०० साल पहले असीरियाई साम्राज्य के काल में देश-निकाला मिला था।
सम्भवत वैदिक सन्दर्भों में दाशराज्ञ वर्णन इसकी संकेत है ।
ऐैतिहासिक विवरण के सन्दर्भों में - पख़्तूनों के बनी इस्राएल होने की बात सोलहवीं सदी ईस्वी में जहाँगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है।
अंग्रेज़ लेखक अलेक्ज़ेंडर बर्न ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् १८३५ में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है। यद्यपि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं।
अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः सन् 1837 में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था ; कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है ।
इसमें कोई सन्देह नहीं ! लेकिन इसमें भी सन्देह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करते हैं।
विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी १८१९ व १८२५ के बीच भारत, पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है।
यहूदी होने से ये स्वयं को जूडान अथवा जादौन पठान कहते हैं ।
इधर भारतीय जादौन समुदाय भी स्वयं को यदुवंशी कहता है ।
जे. बी . फ्रेज़र ने अपनी १८३४ की 'फ़ारस और अफ़्ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त' नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था। जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने सन् 1858 ईस्वी में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया ;जब उसे यह जानकारी मिली कि नादिरशाह भारत-विजय से पहले जब पेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ाई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा (हिब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये।
इन्हें उसके ख़ेमे में मौजूद यहूदियों ने तुरंत पहचान लिया। जार्ज मूरे द्वारा इस्राएल की दस खोई हुई जातियों के बारे में जो शोधपत्र 1861 में प्रकाशित किया गया है, उसमे भी उसने स्पष्ट लिखा है कि बनी इस्राएल की दस खोई हुई जातियों को अफ़ग़ानिस्तान व भारत के अन्य हिस्सों में खोजा जा सकता है ।
वह लिखता है कि उनके अफ़्गानिस्तान में होने के पर्याप्त सबूत मिलते हैं। और वह आगे यह भी लिखता है कि पख्तून की सभ्यता संस्कृति, उनका व उनके ज़िलों ,गावों आदि का नामकरण सभी कुछ बनी इस्राएल जैसा ही है।
ॠग्वेद के चौथे खंड के 44 वें सूक्त की ऋचाओं में भी पख़्तूनों का वर्णन ‘पृक्त्याकय अर्थात् (पृक्ति आकय) नाम से मिलता है ।
इसी तरह ऋग्वेद के तीसरे खण्ड की 91 वीं ऋचा में आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र ‘आपर्यतय’ के नाम से मिलता है।
भारत में कान्यकुब्ज के राजा हर्षवर्धन के उपरान्त कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के बृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो।
इस युग मे भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे।
तथा इसी समय के शासक राजपूत कहलाते थे ; तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है। राजपूतों के दो विशेषण और हैं ठाकुर और क्षत्रिय ये ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ हैं।
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कर्नल टोड व स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत वह विदेशी जन-जातियाँ है ।
जिन्होंने भारत के आदिवासी जन-जातियों पर आक्रमण किया था ; और अपनी धाक जमाकर कालान्तरण में यहीं जम गये इनकी जमीनों पर कब्जा कर के जमीदार के रूप "
और वही उच्च श्रेणी में वर्गीकृत होकर राजपूत कहलाए ।
ब्राह्मणों ने इनके सहयोग से अपनी कर्म काण्ड परक धर्म -व्यवस्था कायम की और बौद्ध श्रमणों के विरुद्ध प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से युद्ध छेड़ दिया ।
बारहवीं सदी में
"चंद्रबरदाई लिखता हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप में देखते हैं " जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं ।
सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी।
और संस्कृत भाषा में भी ठक्कुर शब्द जमीदार का विशेषण है ।
संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठक्कुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के सन्दर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है । इसके कुछ समय बाद पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाने लगी । जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया । पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है । और यह शब्द का आगमन छठी से बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ ।
वल्लभाचार्य भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तम्भ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता माने जाते हैं।
जिनका प्रादुर्भाव ईः सन् 1479, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ।
इन्होंने ने ही कृष्ण के विग्रह को ठक्कुर नाम दिया।
महमूद गजनबी ने 1000-1030 र्इ. और मुहम्मद गोरी ने 1175-1205 र्इ०सन् के मध्य भारत पर आक्रमण किए थे ; ये भी मंगोलियन तुर्की थे ।
तभी से तक्वुर ,ठक्कुर रूप धारण कर संस्कृत भाषा में समाविष्ट हो गया था ।
और इसका प्रचलन विस्तारित रूव से तक्वुर tekvur खिताब के तौर पर 16 वीं सदी की संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द रूप में ;
संस्कृत और फारसी बहिन बहिन होने से जादौन लोगों की बोली (क्षेत्रिय भाषा) डिंगल और पिंगल प्रभाव वाली राजस्थानी व्रज उपभाषा का ही रूप है ।
जो राजस्थान करौली( कुकुरावली) क्षेत्रों की रही है । और जादौन पठानों की भाषा पश्तो , पहलवी पर जिनका पूरा प्रभाव है ।
जादौन पठान यहूदीयों की शाखा होने से यदुवंशी तो हैं ही ।
परन्तु गोपों या अहीरों से स्वयं को सम्बद्ध न मानना इनको जादौन पठानों की भारतीय शाखा सूचित करता है ।
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ये कहते हैं कि हमारा गोपों से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु इतिहास कार अहीरों को ही यादव मानने के पक्ष में ।
क्योंकि यादव ही सदीयों से गोपालन करने वाले रहे हैं । इसी लिए गोप विशेषण केवल यादवों को रूढ़ हो गया । संस्कृत भाषा में गोप शब्द का अर्थ:- (गां गौर्जातिं पाति रक्षतीति गोप: ।
(गो + पा + कः) जातिविशेषः यादव । गोयल इति हिन्दी भाषा में॥
तत् पर्य्यायः १ गोसंख्यः २ गोधुक् ३ आभीरः ४ वल्लवः ५ गोपालः ६ गोप:। इति अमरःकोश ।२।९ ।५७
अमरकोशः में गोप के पर्याय वाची रूप हैं ।
गोसंख्य ,गोधुक, अहीर,वल्लभ (जाट) , गौश्चर: (गुर्जर)
हम आप को बताऐं कि अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है।
इसे विश्व का पहला समान्तर कोश (थेसॉरस्) कहा जा सकता है।
इसके रचनाकार अमरसिंह बताये जाते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे।
कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं।
इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं। इसी कारण पण्डितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई।
और अमर सिंह ने आभीर तथा गोप परस्पर पर्याय वाची रूप में वर्णित कर यादवों के व्यवसाय परक विशेषण माने हैं । परन्तु हिन्दू समाज की रूढि वादी ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था में तो देखिए! कि यहाँ अहीरों को क्षत्रिय कभी नहीं माना जाना !
निश्चित रूप में यादवों के इतिहास को विकृत करने में हिन्दू धर्म के उन ठेकेदारों का हाथ है ।
स्मृति-ग्रन्थों का निर्माण रूढि वादी ब्राह्मणों ने की है । जिनमें आँशिक नैतिक मूल्यों की आढ़ में अनेक अनैतिकताओं से पूर्ण बातों का भी समायोजन कर दिया गया है ।
गोपों की काल्पनिक मनगढ़न्त व्युत्पत्ति का वर्णन स्मृति-ग्रन्थों में भिन्न भिन्न प्रकार से है ।
कहीं “मणिबन्ध्यां तन्त्रवायात् गोपजातेश्च सम्भवः ” इति पराशरपद्धतिः ॥
अर्थात् मणि बन्ध्या में तन्त्रवाय्यां से गोप उत्पन्न हुए! तो मनु-स्मृति कार कहीं गोपों का वर्णन बहेलियों , चिड़ीमार , कैवट , तथा साँप पकड़ने वालों के साथ वनचारियों के रूप में वर्णित किया है।
मनुः स्मृति में अध्याय -८ / २६० / “व्याधाञ्छाकुनिकान् गोपान् कैवर्त्तान् मूल खानकान् ।
व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः )
अहीरों या गोपों ने ब्राह्मणों की इस अवैध -व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया ।
इनकी गुलामी (दासता) स्वीकार न करके दस्यु अथवा विद्रोही बनना स्वीकार कर लिया है !
आइए देखें--- यादवों को कैसे वीर अथवा यौद्धा जन जाति से शूद्र बनाया गया है ?
एक वार सभी अहीर वीर इस सन्देश को ध्यान पूर्वक पढ़ें! और उसके वाद सुझावात्मक प्रति क्रिया दें ! आपका भाई यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर
पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़-उ०प्र०
ब्राह्मण समाज तथा ख़ुद को असली यदुवंशी क्षत्रिय कहने वाले जादौन तथा अन्य राज-पूत सभी अहीरों को यादव नहीं मानते हैं और उन्हें चोर , लुटेरा मानकर परोक्ष रूप में गालियाँ देते रहते हैं अहीरों के विषय में ये कहते हैं कि अहीरों अथवा गोपों ने प्रभास क्षेत्र में यदुवंशी स्त्रीयों सहित अर्जुन को लूट लिया था ।
इस लिए ये गोप यदुवंशी नहीं होते हैं ।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि गोपों ने प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर गोपिकाओं को क्यों लूट लिया था ? और अहीरों के यदुवंशी न होने के लिए ये इसी बात को प्रमाणों के तौर पर पेश करते हैं ।
अब हम इसी प्रश्न का पौराणिक सन्दर्भों पर आधारित उत्तर प्रस्तुत करते हैं !
गोपों ने अर्जुन को इसलिए परास्त कर लूटा ---
एक दिन जब दुर्योधन श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिए सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा पहुँचा। जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे ;अतएव वह उनके सिरहाने जा बैठा !
इसके कुछ ही देर पश्चात पाण्डु पुत्र अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचा !
और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने बैठ गया।
जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो पहले उनकी दृष्टि अर्जुन पर पड़ी। पहली दृष्टि का फल---- अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा।
अर्जुन ने कहा, “भगवन्! मैं भावी युद्ध के लिये आपसे सहायता लेने आया हूँ।” अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, “हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिये आया हूँ।
क्योंकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला अधिकार मेरा है।
” दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, “हे दुर्योधन!
मेरी दृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो।
अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूँगा।
किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा।
अब तुम लोग निश्चय कर लो कि किसे क्या चाहिये ? अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल गोप यौद्धाओं की नारायणी सेना लेने के लिये ही आया था।
इस प्रकार श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गये।
अब हम घटना काआगे वर्णन करने से पूर्व एक अक्षौहिणी सेना का मान बताते हैं -- 21870 रथ तथा 21870 हाथी तथा 65610 अश्वारोहि तथा 109350 पदाति ( पैदल सैनिक ) यह एक अक्षौहिणी सेना का मान होता था ।
संस्कृत भाषा जिसकी व्युत्पत्ति- इस प्रकार वर्णित है👇 अक्ष+ ऊहः समूहः संविकल्पकज्ञानं वा सोऽस्यामस्ति +इनि, अक्षाणां रथानां सर्व्वेषामिन्द्रियाणाम् “वा ऊहिनीणत्वं वृद्धिश्च । रथगजतुरङ्गपदाति संख्याविशेषान्विते सेनासमूहे । “अक्षौहिण्यामित्यधिकैः सप्तत्या चाष्टभिः शतैः । संयुक्तानि सहस्राणि गजानामेकविंशतिः।
एवमेव रथानान्तु संख्यानं कीर्त्तितं बुधैः ।
पञ्चषष्टिः सहस्राणि षट् शतानि दशैव तु । संख्यातास्तुरगास्तज्ज्ञैर्विना रथ्यतुरङ्गमैः ।
नॄणां शतसहस्रं तु सहस्राणि न वैवतु ।
शतानि त्रीणिचान्यानि पञ्चाशच्च पदातय इति ।
गोपों की अक्षौहिणी सेना में कुछ गोप यौद्धाओं का संहार भी हुआ ।
और कुछ शेष भी बच गए थे इन्हीं गोपों ने प्रभास क्षेत्र में परास्त कर गोपिकाओं सहित लूट लिया था 👇।
इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का वर्णन किया गया है । इसे भी देखें---👇 _________________________________________
"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! (श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०)
पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें- इसी बात को महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय में वर्णन किया है परन्तु निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है अत: यह प्रक्षिप्त नकली श्लोक हैं। देखें👇
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।
अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को परास्त कर लूट लिया ।।
महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है। कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलती है ।
अर्जुन के प्रति यादवों का दूसरा बड़ा विरोध का कारण सुभद्रा का हरण था ---- जब एक बार वृष्णि संघ, भोज और अन्धक वंश के समस्त यादव लोगों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया।
इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार सम्पत्ति का दान -गरीबों को दिया गया।
बालक, वृद्ध और स्त्रियाँ सज-धजकर घूम रही थीं। अक्रूर, सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, हार्दिक्य, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे।
गन्धर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे।
गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी।
इस उत्सव में कृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे।
वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं।
उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगा।
कदाचित अर्जुन काम-मोहित हो गया ।
एक दिन जब सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया।
जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई,
तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिया। गोप सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए !
और वहाँ सब हाल कहा।
सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया।
वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के समस्त यादव योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहां इकट्ठे होने लगे।
सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर सभी यादवों की आंखें चढ़ गईं।
उनका स्वाभिमान डगमगाने लगा उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले अर्जुन को उचित दण्ड देने का निश्चय किया।
कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी। तब बलराम ने विचार किया कि अभी युद्ध का उचित समय नहीं है ।
इसलिए बलराम ने गोपों से कहा- "हे वीर योद्धाओ ! कृष्ण की राय सुने बिना ऐसा क्यों कर रहे हो ?"
फिर उन्होंने कृष्ण से कहा- "जनार्दन!
तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय क्या है ?
तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया।
यह दुस्साहस करके उसने हम समस्त यादवों को अपमानित किया है।
मैं यह कदापि नहीं सह सकता।
" तब कृष्ण बोले- भाई बलराम
"अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं, सम्मान किया है।
क्योंकि यादवों में तो ये वधू-अपहरण परम्परा है ही उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहन का हरण किया है।
क्योंकि उन्हें स्वयंवर के द्वारा उसके मिलने में संदेह था।
उसके साथ संबंध करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।" कृष्ण की यह बात सुन कर कुछ यादव लोग कसमसाए और अर्जुन---से बदला लेने के लिए संकल्प बद्ध हो गये वही नारायणी सेना के गोप रूप में यादव यौद्धा ही थे --- जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया है ।
सन्दर्भित ग्रन्थ-- ↑ महाभारत, आदिपर्व, अ0 217-220 ↑ श्रीमद् भागवत, 10।86।1-12
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गोप निर्भाक होने से ही अभीर कहलाते थे ।
गोप यादवों का व्यवसाय परक विशेषण है ; गो-पालक होने से तथा यादव वंशगत विशेषण है ।
यदु की सन्तान होने से " यदोर्पत्यं इति यादव" और अभीर यादवों का ही स्वभाव गत विशेषण है ।
क्योंकि ये कभी किसी से डरते नहीं हैं ।
हिब्रू बाइबिल में भी इनके इसी विशेषण को अबीर रूप में वर्णित किया है जिसका अर्थ है: वीर ,सामन्त अथवा यौद्धा मार्शलआर्ट का विशेषज्ञ ।
संस्कृत भाषा में अभीर शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण इस प्रकार है👇
अ = नहीं + भीर: = भीरु अथवा कायर अर्थात् अहीर या अभीर वह है जो कायर न हो इसी का अण् प्रत्यय करने पर आभीर रूप बनता है ---जो समूह अथवा सन्तान वाची है । इसी लिए दुर्योधन ने इन अहीरों(गोपों) का नारायणी सेना के रूप में चुनाव किया ! और समस्त यादव यौद्धा तो अर्जुन से तो पहले से ही क्रुद्ध थे ! यही कारण था कि ; गोपों (अहीरों)ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था । क्योंकि नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन के पक्ष में थे और कृष्ण का देहावसान हो गया था और बलदाऊ भी नहीं रहे थे ।
क्योंकि फिर इनको निर्देशन करने वाले बलराम तथा कृष्ण दौनों में से कोई नहीं था ।
फिर तो इन यदुवंशी गोपों ने अर्जुन पर तीव्रता से आक्रमण कर तीर कमानों से उसे परास्त कर दिया बहुत से यादव यौद्धा तो पहले ही आपस में लड़ कर मर गये थे ।
ये केवल कृष्ण से सम्बद्ध थे ।
नारायणी सेना के इन गोपों ने केवल अर्जुन से ही युद्ध किया था ।
नकि कृष्ण की रानियों अथवा यदुवंशी गोपिकाओं के रूप में वधूओं को लूटा था !
लूटपाट के वर्णन अतिरञ्जना पूर्ण व अहीरों के प्रति द्वेष भाव को अभिव्यञ्जित करने वाले लेखकों के हैं । केवल यदुवंश की सभी स्त्रीयों को अर्जुन के साथ न जाने के लिये कहा !
परन्तु ---जो साथ चलने के लिए सहमत नहीं हुईं थी उन्हें प्रताडित कर चलने के लिए कहा !
बहुत सी गोपिकाऐं स्वेैच्छिक रूप से गोपों के साथ वृन्दावन तथा हरियाणा में चलीं गयी ।
यहाँ यह तथ्य भी उद्धरणीय है कि -👇
भगवान कृष्ण ने अपने अवसान काल से पूर्व अर्जुन को निर्देश दिया था कि ---हे अर्जुन आप इन सभी यदु वंशी गोप स्त्रीयों को यादव यौद्धाओं के संहार के पश्चात् अपने साथ ही ले जाना सम्भवत: कृष्ण अर्जुन के साथ गोपियों को जानबूझ कर भेजा था ।
क्योंकि वह इस बात को भली भांति जानते थे कि यादव योद्धा अर्जुन को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करते हैं ! जब से उसने सुभद्रा का हरण किया है ।
किन्तु यादवों के बल पौरुष और प्रभाव को अर्जुन इसीलिए झेल पा रहा था क्योंकि उसके साथ भगवान् कृष्ण थे !
किन्तु अर्जुन यह समझता था कि मैं परम शक्तिशाली हूं मैंने नारायणी सेना को भी परास्त कर दिया है । तो ये अर्जुन का भ्रम था ।
नारायणी सेना शान्त थी कृष्ण के प्रभाव से क्योंकि वह कृष्ण की ही सेना थी ! आज उनके इसी अहंकार को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण ने अपने शरीरान्त काल में गोपियों को अर्जुन के साथ भेजा था ; ताकि आज उसका यह अहंकार भी खण्ड खण्ड हो जाए कि अहीरों को भी वह हरा सकता है !
कृष्ण इस तथ्य को भली-भांति जानते थे ; कि अहीर योद्धा अर्जुन को युद्ध में अवश्य ही परास्त कर देंगे और गोपियों को अपने साथ उनको ले जाएंगे और प्रभास क्षेत्र में यही हुआ। और अहीरो को अपने यदुवंश का मान रखना था ।
और इधर कृष्ण का भी मान रखना था । क्योंकि कृष्ण ही नारायणी सेना के अधिपति थे । कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में सर्व-प्रथम सभी के सम्मुख कहा था ये नारायणी सेना अपराजेय है इस पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता ; परन्तु उधर कृष्ण पाण्डवों के भी सारथी थे ।
कृष्ण के रथेष्ठा अर्जुन को हराना यदुवंश और कृष्ण के ही मान का घटाना था ।
इसलिए कृष्ण के रहते गोपों ने अर्जुन को कुछ नहीं कहा और अन्त समय में कृष्ण के अवसान काल में गोपों ने अर्जुन का भी मान मर्दन कर दिया और नारायणी सेना के अपराजेयता का संकल्प अहीरों ने अखण्ड बनाए रखा ।
और फिर यादव अथवा अहीर स्वयं ही ईश्वरीय शक्तियों (देवों) के अंश थे ; गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ; देखें 👇
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" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४ अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं ! तब प्रभास क्षेत्र में अर्जुन इनका मुकाबला कैसे कल सकता था ? क्योंकि अहीरों का मुकाबला तो त्रेता युग में राम भी नहीं कर पाये थे ।
---जो राजपूत लोग कहते हैं कि यदुवंशीयों के पुरोहित गर्गाचार्य थे । तो उन मूर्खों को यह भी जान लेना चाहिए कि यहाँ तो शाँडिल्य वज्रनाभ के पुरोहित हैं । ---जो गोकुल में नन्द के पुरोहित थे ।
गर्गाचार्यजी ने कहा- "नन्दजी! मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ। यदि तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी का पुत्र है। कंस की बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है। वसुदेजी के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है। जब से देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारने वाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकी के आठवें गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिए। यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और वह इस बालक को वसुदेवजी का लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अनर्थ हो जायेगा।"
यादवों के कुल गुरु गर्गाचार्य
ग्वालों के कुल गुरु शांडिल्य ऐसा राजपूत समाज तथा कुछ रूढि वादी ब्राह्मण कहते हैं ।
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भगवान् श्री कृष्ण के देहावसान के बाद ब्रजभूमि सूनी हो गयी थी ।
कृष्ण की सभी लीला स्थलियां लुप्त हो गयी । तब उनके प्रपौत्र वज्रनाभ ने व्रज में पुनर्स्थापन किया।
वज्रनाभ को इन्द्रप्रस्थ से लाकर पाण्डवों के वंशज महाराज परीक्षत ने मथुरा का राजा बनाया।
वज्रनाभ की माता विदर्भ राज रुक्मी की पौत्री थी जिनका नाम रोचना अथवा सुभद्रा था।
अनुरुद्ध जी की माता का नाम रुक्मवती या शुभांगी था जो रुक्मणी के भाई रुक्म की पुत्री थी।
वज्रनाभ ने कृष्ण कर्म स्थलों का चिन्हांकन किया।लीला स्थलियों पर समृति चिन्ह बनवा कर ब्रज को सजाने संवारने की पहल सर्व प्रथम वज्रनाभ ने ही की थी ।
महाराज वज्रनाभ का पुत्र प्रतिबाहु हुए उनके पुत्र
सुबाहु हुए सुबाहु के शान्तसेन शान्तसेन के शत्सन हुए।
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वज्रनाभ ने शाण्डिल्य जी के आशीर्वाद से गोवर्धन( दीर्घपुर ), मथुरा , महावन , गोकुल (नंदीग्राम ) और वरसाना आदि छावनी बनाये।
और उद्धव जी के उपदेशानुसार बहुत से गांव बसाये।
शाण्डिल्य के विषय में पौराणिक विवरण हम आपको देते हैं -👇
शाण्डिल्य वंश :शाण्डिल्य मुनि कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र थे।
शंख और लिखित के पिता भी हैं।
हालांकि शाण्डिल्य के 12 पुत्र बताए गए हैं जिनके नाम से कुलवंश परंपरा चली।
महर्षि कश्यप के पुत्र असित, असित के पुत्र देवल मंत्र दृष्टा ऋषि हुए।
इसी वंश में शांडिल्य उत्पन्न हुए।
मत्स्य पुराण में इनका विस्तृत विवरण मिलता है।
महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।
उन्हें त्रेतायुग में राजा दिलीप का राजपुरोहित बताया गया है, वहीं द्वापर में वे पशुओं के समूह के राजा नंद के पुजारी हैं।
एक समय में वे राजा त्रिशंकु के पुजारी थे तो दूसरे समय में वे महाभारत के नायक भीष्म पितामह के साथ वार्तालाप करते हुए दिखाए गए हैं।
कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं।
इसके साथ ही वस्तुत: शाण्डिल्य एक ऐतिहासिक व्यक्ति है लेकिन कालांतार में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुईं जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियाँ होती हैं।
उस समय मथुरा की आर्थिक दशा बहुत ध्वस्त हो चुकी थी। जरासंध ने सब कुछ नष्ट कर दिया था।
राजा परीक्षत ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली )से मथुरा में बहुत से बड़े बड़े सेठ लोग भेजे।
इस प्रकार राजा परीक्षत की मदद और महर्षि शाण्डिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने उन सभी स्थानों की खोज की जहाँ भगवान् ने अपनी गोप मण्डली के साथ नाना प्रकार की लीलाएं की थीं।
लीला स्थलों का ठीक ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहां की लीला के अनुसार उस स्थान का नामकरण किया।
भगवान् के लीला विग्रहों की स्थापना की तथा उन उन स्थानों पर अनेकों गांव वसाए।
स्कन्द पुराण के अनुसार यदुवंशी गोपों के पुरोहित शाण्डिल्य ऋषि की सहायता से श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने पुन: व्रज को बसाया ।
वे गाँव अहीरों तथा जाटों एवम् गूजरों की आधुनिक वस्तीयाँ हैं ।
स्थान स्थान पर भगवान् श्री कृष्ण के नाम से कुण्ड ओर कूए व बगीचे लगवाये।
शिव आदि देवताओ की स्थापना की। गोविन्द , हरिदेव आदि नामो से भगवधि गृह स्थापित किये।
इन सब शुभ कर्मों के द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सर्वत्र एक मात्र श्री माधव भक्ति का प्रचार किया।
इस प्रकार वजनाभ् जी को ही मथुरा का पुनः संस्थापक के साथ -साथ यदुकुल पुनः प्रवर्तक भी माना जाता है ।इनसे ही समस्त यदुवंश का विस्तार हुआ माना जाता है। वज्रनाभ जी को ही भगवान श्री कृष्ण का प्रतिरूप माना गया है ।
वज्रनाभ के कारण से ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा आरम्भ हुई।उन्होंने ही ब्रज में 4 प्रसिद्ध देव प्रतिमा स्थापित की।
मथुरा में केशव देव ,
वृन्दावन में गोविन्द देव ,
गोवर्धन में हरि देव ,
बलदेव में दाऊजी स्थापित किये थे ।
इन यदुवंशियों का राज्य ब्रज प्रदेश में सिकंदर के आक्रमण के समय भी होना पाया जाता है ।
जब चीनी यात्री सन 635 में भारत आया था ;
उस समय मथुरा का शासक कोई आभीर थे ।
लेकिन मथुरा के आस पास के क्षेत्र जैसे मेवात ,भदानका ,शिपथा (आधुनिक बयाना) ,कमन आदि में (8 वीं तथा 9 वीं सदी ) के शासक राजपूत थे जिनका बौद्धों के पलायन के लिए क्षत्रिय करण हुआ था।
जिनके नाम भी प्राप्त है इस काल में मथुरा पर शासन कनौज के (गुर्जर प्रतिहार ) शासकों था ये जॉर्जिया (गुर्जिस्तान)से आये हुए विदेशी थे जिन्हें माउण्ट आबू पर ब्राह्मणों ने क्षत्रिय करण करके बौद्धों के विरुद्ध संगठित किया था ।
परन्तु गुर्जर शब्द का समायोजन अहीरों की शाखा गौश्चर: गा चारयन्ति इति गौश्चरा: अर्थात् गायें चराने वाले से हो गया ।
विदित हो कि विदेशी गुर्जर स्वयं को अग्नि वंशी या सूर्य वंशी लिखते हैं जबकि गूज़र (गौश्चर) यदुवंशी के रूप में
सम्भवत:
इस काल में यदुवंशी उनके अधीनस्थ रहे हों
लेकिन इसी समय में मथुरा के शासक यदुवंशी राजा धर्मपाल भगवान श्रीकृष्ण के 77 वीं पीढ़ी में मथुरा के आस पास के क्षेत्र के शासक रहे है जिनके कई प्रमुख वंशज ब्रह्मपाल ,जयेंद्र पाल मथुरा के शासक 9 वीं सदी तक मिलते है इसके बाद महमूद गजनवी के काल में भी मथुरा /महावन पर यदुवंशियों जैसे कुलचंद राजा का शासन थी ।
इसके बाद भी शूरसेन शाखा के भदानका /शिपथा (आधुनिक बयाना );त्रिभुवनगिरी (आधुनिक तिमनगढ़ ) के कई शासको जैसे राजा विजयपाल (1043),राजा तिमानपल (1073), राजा कुंवरपाल प्रथम (1120), राजा अजयपाल जिनको महाराधिराज की उपाधि थी (1150) नें महावन के शासक थे इनके बाद इनके वंशज हरिपाल (1180), सोहनपाल (1196)महावन के शासक थे ।
इसी समय बयाना और त्रिभुवनगिरी पर राजा धर्मपाल के बेटे कुंवरपाल द्वित्तीय का शासन था ।
जिसका युद्ध मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक से हुआ था ।
इसके बाद भी महावन के राजा महिपाल यदुवंशी थे उनके वंशज आज भी जाटों या जाट कह लाते हैं ।
इति ---
Kis mDar chod ne LIKHA HAI JEMSTOT IN KI MA ko choda hoga Jo ITANA bada gandu hua sale Hindustan me itane itihas kabi ved puran duniya bhar ke sabse satik sahi jankari Hindustan ke pass hai Jis yadubansi Jadon ke khilaf jhot fhailaya jA raha hai ye ahir banjare rajput ke gulam khakar Jadon ke the inki amma ko yadubansi kans chod chod kar bura hal karta tha ahir dekhate rahate the
जवाब देंहटाएंAbe bhosidi tum jadono ki gujar AISI maa chod Darren hai beta muh se ahh nikalti hai Teri Amma k sammne, maderchod Dekh le chambel mai kiska raaj hai gujjer roj maa chod detey hai tum banjaro ki
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंBeta chambal ka hi hu mai roj gujjaro ki maa chodte hai hum gujjariyo ko land pe baitha ke chodte hai
हटाएंBhaiyo gaali kisiko naa de
हटाएंBehan ka louda likhne wala hi akhand chutiya hai maderchod 2 samaajon k beech dusmani faila raa hy behan ka louda
इस प्रकार की बिल्कुल ही झूठी जानकारी फैलाकर आप कुछ भी हासिल नही कर सकते बल्कि आप जैसे लोगो के कारण दो समाज के बीच मे दुश्मनी बढ़ रही है, अगर रेफ्रेंस नही है तो अफवाहे न फैलाहे
जवाब देंहटाएंAllah ki den se itihas likha gya h kya ....mtlb kuch bhi
हटाएंSachchi bat kadvi lagi muslim
जवाब देंहटाएंFake history
जवाब देंहटाएंBhai sach kadva hota hai aur jadon jo karuli vale hai unko chod kar bhi kay rajya hai jime raja khud ko yaduvanshi khate hai like revadi ke asli yaduvanshi hai vo aj bhi ahir rajvansh khlya hai kuch chutyia unhe rajput se nikla batate hai 🤣🤣balki vo khud bol chuke hai unka aur rajput ka koi sambhnd nahi hai ab kuch jadon jadeja bhati yeh pagal ho chuke hai pahli baat abhir ka Nepal ka rajvansh bhi vijay pal ke vansh ke khud kaha hai unhone bhi 😅😅
हटाएंशगुन कुमार मीरपुर वार्ड ( 14 ) अखण्डनग सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश
हटाएंYadav hai chandravansi
जवाब देंहटाएंYadav hai yaduvansi
जवाब देंहटाएंYadav hai ahir
जवाब देंहटाएंयदुवंशी सिर्फ ग्वाल गोप सदगोप अहीर गवली etc apne aap ko Yadav ko bap bna चाहता है ओह यादव को बेटी देना सुरु कर दे
जवाब देंहटाएं😂1910 se yadav bane ahir sudra apne apko yadhavanshi samkhne lage
हटाएंTo fhir aap shi history bta do kbhi kitab khol kr bhi dekhi h
हटाएंKbhi puran kholi h saale anpd shudra kon hote h ye bhi pta h tujhe ahir or yadav ek hi h madarchod saalo anpd jahil ki aulaad 😂😂😂😂😂
हटाएंबहुत अच्छा जय श्री कृष्ण राधे राधे
हटाएंGurjar sabd gochar se aaya h na ji gujristan se jb turko, yamno,mughlo ne bharatvarsh pr aakraman kiya tb kaha the ahir
जवाब देंहटाएंJay yadav jay madhav.......
जवाब देंहटाएंराजाधिराज,योगिराज,यदुवंशी सम्राट श्री कृष्ण भगवान की जय।।
Yaduvansi beta yadav nahi yad sabd match ho gya to sare gud dharm karm sab jabardasti thodi na match ho jayegi abase 30 saal pahle gobar chara dudh k alawa kabhi koi itihaas nahi tha sab jhooth banaya gya 4 paise aa kya gye log kshatriyon k karmo pe kabja karne lage unhe badnaam karne lage apna poorvaj batane lge karm kuchh aisa nahi kara gya kisipe jisse buddhi ka vikash ho bas paisa looto aur apni buddhi bhrast karo bas yahi karmo ka sudhar sabse unche karm karne wale hi kshatriya h unke dna me hi sarvochchta hoti h jahan achchhayi ki baat hogi sabse age kshtriya milenge hamesha
हटाएंJab sau cbutiye marate he tab tumhare jaisa gandu paida hota he...abe madhrchod mahbahart or ramayan kal me hindu ke alwa santan dharam ke alwa dusra koi dharam nahi tha dur dur tak....jiske sabut ajj bhi videso me sanatan dharam se juri hui 2000 3000 sal puraniya murtiya milti he ...ab gandu tumko ye to pata hoga gandhri kon thi afganistan usi ka tha...or afganistan me bhi yyaduvhsi the...or waha se wo panjab aye fir jesalmed...thik he..kyuki mathru me yadav apas me lad ke mar gaye the krihsn ka beta bazranabh jo ki gandhri ke desh chala gaya wo bacha hua tha or gop gwala vansh bacha hua tha...beta dusri bat ...bharat aisa desh he jaha mugal afagan angreej or sbse pehle purtagal aye sbko jung ka samna karna para...to bahinchod jadon bhati chudsma kiske ma ke yar the jo sasak bane gaye bharat ke...or bhan ke lode krishn ji ko thakur kaha jata he nahi janta he bharwe tum...unke mandiro ko thakur bari bola jata he nahi janta he gandu tum ...thakur ji mahraj bola jata he gandu krihsn ko...thik he...ab dusri bat sun....
जवाब देंहटाएंYadu kul karamo ke adar pe banta gaya tha....
Chatriya raja hota he use apne rajya ke liye jung ladayi yudh hathi ghore top talwar ke sath karni parti he...
Gop vansh-gai bhai palak jati jiska kam charwaha ka hota he ise cbatriya me nahi rakha gaya je
3 ahir choti choti riyasato me kam karke kar(tex ) diya karte the jo yaduvshi khajane me jama hota tha
To beta jan le yaeuvhsi me jo raja chatriya hote the ajj unko rajput kaha jata he thik waise hi jaise suryavshi raja ke vansaj ko rajput kaha gya he.
Jaise gujjar samrat kehte ho wo raja the or raja ke putra hi the isliye unko rajput kaha gaya or unke vansaj bhi rajput kehlate he...
Chatriyo ka vansh hmesa kuch pidhi pe badlta he jise chatriya vansawali kehte he...suryavhsi raguvshi dhashrat nandan ram...chandra vahshi som vanshi yayati ke putra yadu ka yaduvshi fir vrishni vanshi puru vanshi pandu vansh...nam badote rehte he chatriyo ke vans ke...or jo chatriya nahi hote ...wo ahir ke ahir reh jate he yadav ke yadav(nakli yadav) gop ke gop kyuki na to inka vansh ka koi raj tha na raja to vanhsvali kaha se hoga...
To bhai asali to asali yaduvhsi he hi...jo nakali je wp ajj ke yadav he jankari loge to pata chalega 1920 ke asapas ahiro me khud ko yadav likhna suru kiya kyuki jitne bhi yaduvshi sasak the wo singh chauhdri pal likhte the ...or baki bache ahir ko chudra bola jata tha kyukk inka rajpath jahi tha gai bail kheti karte the ...isi chdrata se nikle ke liye yadav likhna suru kiya...magar chatriya rajvsh jo ki singh chauhdri thakur pal likhne laga tha asali yaduvhsi the jo wo samjhte the ahir ke gandupan le bare me...magar fir bhi yadav likhte likhte mar gaye ajtak koi harahamn chatriya rajput kpi inse sadi ka rista nahi jorta he...baki love martiage to dom chamar se bhi kar skte he... ajj ke yadav khud asali yadav nahi he...ye ahir se alG hue he...or ja kisi yadav ahir ke pas koi raj riyasat ka record he unka niji...dusre ke ourwaj jinke vansaj kp aur he ajke gandu dusro ka itihas dikhankar bate karte he or apne khadN se nahi ouchteitihas apna nini kya tha..app bji pata lagye ye gandu yadav aye kHa se he pata chal jayega
Abe maderchod hindi grammar per phele ahir or yadav kya matlab hota, usmai yeh nahi likha ki tum mullo ki aullad Yadav ho, bhosidi hindi shbkosh Dekh le, or rahi baat ki jadaun ki hahaha choti si riyasat thi Meena jaati vhi tum logo maa chod DETI haramkhore
हटाएंOr rahi baat ki Yadav toh sun ne maderchod pransukh yadav Raja Rao tula ka senapati, ranjeet Singh ka khaaas bhosidi unke name Yadav hai, jaa ker search kai news nai mil jaiyga pran shukh Yadav, yeh beta Dekh le or mera Lund choos le or uhi tum maderchod kavi Yadav nahi likha tum jadaun he likh te aai ho per yadav likhne lagey saalo banjaro,
हटाएंBc gandu tu h marwani ho to reply krna thakuro ko hi pelta hu me
जवाब देंहटाएंKrishn ko bhi thakur ji kehte he unko bhi pel dena unki ma yasodha ko bhi pel dena or jada josh ajaye to apni ma ko pel lena...abe pelaye hue tumlog ho chudra ho ch2udra jisse koi bhi brahman rajput singh thakur chaudri sadi nahi karta he 😂 tunhari aukat yaduvshi charwahe se jada kch nai he khandani record pata jar ke 1000 2000 3000 sal ka tumlogo ki ma bahan yaduvnshi rajao thakuro allah udal singh jaise yaduvshiyo ke ghar me gand narwati thi tum wo ahir ho...or sun randi ke bache tere jaise chutiye yahi bolte he yadav ahir gop ek he...magar tum randiyo oe bacho se ek swala he yadav ahir gop agar ek the to krishn bhagwan muslim the jo apni hi ma bahan ke sath raslila karte the...randi ke bache yadav yadukul se he ...gop ahir gokul se jura he ...dono yaduvans he magar kul banta hua he randi ke bache...tere jaise gandu kabi nahi smjhenge vansh kul kaise kya hota he...or bhosdike bate karoge rajao ke ...pehle ye to pata kar le raja yadu 1000 sal pehle janme or krihsn yadu ke bad 3000 sal bad janme the to randi ke bache 3000 sal me kitne yadav ahir gop apni ma ke chut se nikle honge...jinke raja bane the krihsn krihsn ke bap vansudev yadav the or krishn ke bete pote brajnabh the or barjnbah ka vansh kalug me raja tha...to randi ke bache itna bata timlog ke pas rajpath jamjndari kyu nahi he...jabki krohsn ke sara rajpath jamkndari bhati jadaun jadeja ke pas tha...sale charwahe ke vansaj ho tumlog ajj se 7000 sal oehle krohsn ka janm hua tha or 10000 sap pehle yadu ka salo sabko raja nahi banya gaya tha alag alag rajaya ke alag alag raja the baki yadav ahir gop charwaha kheti wale the tum randi ke bache wahi ho...or teri ma ki chut salne mil ek bar tujhe batata hun teri aukat he ya nahi thakur kk pelne ki ...ja krihsn ko bhi thakur kaha jata he gita padh lena nahbahart me lukha he unko thakur ji kaha jata he unko chod le unki biwi ko chod oe unki ma ko chod le ...sala randi ka aulad ..tere jaise yadav ahir mere kheti me akar gahs kat ti he or jb chahe unko gand bhi mar sakte he magar tum randi ke bacho ki tarah charwahe ka vansh nahi he mera ...kr sun randi ke bache kkrishn ke vansaj kab se ma bahn ko lekar khet me jane lage sharam nahi ayegi mar jana pasnd karenge magar ma bahan biwi ko lekar kisi ke kheto me kam nahi karenge ...sale charwahe batat3 badi ..khandani record bata 1000 2000 sal ka charwahe se jada kuch nahi hoga...
हटाएंAkal ke andho Ahir charwahe the mughalo ke waqt to chup gaye the pata nahi kaha Rajput hi asli kshtriye h
हटाएंसही कहा आपने और राजपूत मुगलों को अपनी बेटियां बेच कर क्षत्रिय धर्म का पालन कर रहे थे।
हटाएंराजपूत कितने दोगले हो सकते है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की न्यूज़18 इंडिया पर एक आर्टिकल मुगलों को भी राजपूत साबित करने की कवायद कर रहा था
मुख्य राजपूत-मुग़ल वैवाहिक संबंधों की सूची
जनवरी 1562, अकबर ने राजा भारमल की बेटी से शादी की. (कछवाहा-अंबेर)
15 नवंबर 1570, राय कल्याण सिंह ने अपनी भतीजी का विवाह अकबर से किया (राठौर-बीकानेर)
1570, मालदेव ने अपनी पुत्री रुक्मावती का अकबर से विवाह किया. (राठौर-जोधपुर)
1573, नगरकोट के राजा जयचंद की पुत्री से अकबर का विवाह (नगरकोट)
मार्च 1577, डूंगरपुर के रावल की बेटी से अकबर का विवाह (गहलोत-डूंगरपुर)
1581, केशवदास ने अपनी पुत्री का विवाह अकबर से किया (राठौर-मोरता)
16 फरवरी, 1584, राजकुमार सलीम (जहांगीर) का भगवंत दास की बेटी से विवाह (कछवाहा-आंबेर)
1587, राजकुमार सलीम (जहांगीर) का जोधपुर के मोटा राजा की बेटी से विवाह (राठौर-जोधपुर)
2 अक्टूबर 1595, रायमल की बेटी से दानियाल का विवाह (राठौर-जोधपुर)
28 मई 1608, जहांगीर ने राजा जगत सिंह की बेटी से विवाह किया (कछवाहा-आंबेर)
1 फरवरी, 1609, जहांगीर ने राम चंद्र बुंदेला की बेटी से विवाह किया (बुंदेला, ओर्छा)
अप्रैल 1624, राजकुमार परवेज का विवाह राजा गज सिंह की बहन से (राठौर-जोधपुर)
1654, राजकुमार सुलेमान शिकोह से राजा अमर सिंह की बेटी का विवाह(राठौर-नागौर)
17 नवंबर 1661, मोहम्मद मुअज्जम का विवाह किशनगढ़ के राजा रूप सिंह राठौर की बेटी से(राठौर-किशनगढ़)
5 जुलाई 1678, औरंगजेब के पुत्र मोहम्मद आजाम का विवाह कीरत सिंह की बेटी से हुआ. कीरत सिंह मशहूर राजा जय सिंह के पुत्र थे. (कछवाहा-आंबेर)
30 जुलाई 1681, औरंगजेब के पुत्र काम बख्श की शादी अमरचंद की बेटी से हुए(शेखावत-मनोहरपुर)
Totally fake news. Nothing is based on true history of jadaun rajput. This is information is totally wrong and the writer must be trying to spoil the royalty of Rajputana. This is useless blog.
जवाब देंहटाएंTo tu hi shi history bta de khud kbhi history pdi bhi h bhonk rhi h pagal aurat
हटाएंJadon rajput ka symbol dekhna ho to karoli jao waha ke raja jadon the rajsthan jao dekho aheero se humara koi comparison nahi
हटाएंऔकात में रहो बालिका
हटाएंAsli yaduvanshi jadaun jadaza bhati jadav he jenka praman aj be he
जवाब देंहटाएंKya praman h kon si puran mein inka jikr btaiyo bhosdike 😂😂😂😂 kbhi kuch pda hota nhi h muh utha kr aajate h
हटाएंWa re lekhak mama hmari to kuchh samjh m nhi Aya h wa re shudro
जवाब देंहटाएंAcha hm shudra bhosdike kbhi puran utha liyo tb btaiyo kon shudra h Jo gau palan krte h naa vo srbahresth hote h manushye jaati mein smjha madarchod kbhi tumne puran kholi h nhi to kaise pta hoga
हटाएंAhiro ki aurte Rajputo ki Rakhel thi Yakin nahi thi history padh lena ek baar
जवाब देंहटाएंAhirandiyo ne mughalo ke tym ek baar bhi nahi bola hum kshtriye h kiyoki inki fatti thi the to ye charwahe 1910 ke baad yadav laga liya to apne apko yadhuvansi samjhte h
जवाब देंहटाएंYogirohigya
जवाब देंहटाएंलेखक ने अपनी पोस्ट मे कयी गहरी और समझने वाली बाते लिखी कुछ ठोस प्रमाण भी दिये कोई विद्वान कृपया इनके लेख का प्रतिउत्तर लिखे जो प्रमाण के सा हो ताकि सच्चाई सामने आ सके...बिना सही ग्यान के कृपया इस विद्वान लेखक का आधारहीन उत्तर न दे
जवाब देंहटाएंHa Bhai bilkul sahi bole aap ye saale anpd jaahil log jabab de rhe h jinhone kbhi puran utha kr kholi kya dekhi bhi nhi hogi
हटाएंO abhiras I shall be born among u in my eighth birth - Padam puran
हटाएंयदुवंश बहुत विशाल है कृपया आपस में न लड़ें। राजा का बड़ा पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होता था विशेष परिस्थिति में ही दूसरे पुत्रों को राज्य मिलता था तो सम्भव है अन्य रानियों के पुत्र धीरे धीरे छोटे जमींदार जमींदार से खेतिहर मजदूर बन गए हों पर अपने इष्टदेव योगिराज कृष्ण जी के गौपालन से जुड़े रहे हों।बाकी लेखक की सारी बातों में कुछ गलत तथ्य भी हो सकते है सो जो लोग विरोध कर रहे हैं कृपया यहां तथ्य स्रोत के साथ लिखे जिससे हम सभी का ज्ञानबर्धन भी हो सके। धन्यबाद जय यदुवंश
जवाब देंहटाएंभाई मृदुल बात बोलकर बेवकूफ मत बनाओ, माउंट आबू का यज्ञ पता नहीं तुम्हें : मलेक्ष, यवन, और यहूदियों को हिन्दू धर्म में मिलाकर उनका राजपूती करण किया । आग से कोइ पैदा नहीं होता, जलकर राख होते हैं। हां यदि किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति को हिन्दू धर्म में बदलने कि लिए हवन कि परम्परा है राजपूत हमारे भैन नहीं मलैक्ष, यवनों, और यहूदियों कि संतान है, यवन सूर्यवंश में शामिल हुए, मालेक्ष चंद्रवंश और नागवंशी, यहूदियों को यदुवंशी बना दिया ।
हटाएंJadoun vansh Krishna bhagwan se utpann hua vansh hai yah Puri story fake story hai
जवाब देंहटाएंबेटा माउंट आबू पर हवन करके यहूदियों का धर्म परिवर्तन से जादौन बंजारा राजपूत की उत्पत्ति हुई थी।
जवाब देंहटाएंBhosadi valo 1930 ki padaiso jo aaj up bihar vale yadav likh rahe hai unke baap goop or guala the 1930 mai inhone miting ki or sabhi yadav likhne lage or ha tumhare baap dadao ka lettar pada hai yaha karoli aake dekh lo unhone karoli mharaj se permission li thi iski
जवाब देंहटाएंOr ha yaduvansh ki sari riyasat rajputo ke pass hai 1 karoli 2 jaisalamer 3 dwarika mai jadeja or ha dwarika maine mandir ke trust ke chairman or jaam bhi yaduvansi rajput jadeja hai or ha karoli mai bhagvan shri krisna ki bahan ka mandir hai ji he ham kaila devi bhi kahte hai vo mandir jadaun rajputo ke hath mai hai uske trust malik or chairman bhi jadaun hai or hai jaisalmer mai aaj bhi 5000 sall purana shri krisna ka singhasan rakha hai unke pass jao jake dekh aao rajputo ke pass kaffi khuch hai tumhare pass kya hai shudro gualo
जवाब देंहटाएंYaduvansi kaffi jatiyo mai paye jate hai jaise jaat mai saini. Or maratha mai jadav or rajput mai jadaun jadeja bhati or sikh mai bhatiya or muslmano mai bhi kaffi paye jate hai ahir keval rewari haryana ke paaye jate hai na ki up or bihar vale up bihar ke gualvansi ya nand bansi hoge lekin yaduvansi se unka koi nata nahi ha 1930 mai unhone khud ko yduvans se jood kar yadav likhna suru kar diya jiske praman hai
जवाब देंहटाएंOr jo ye tum log banjara banjara kar rahe ho na banjare apne name ke piche jadaun tital lagate hai aachi bat hai hame koi aitraj nahi isase hamne to tumhara aitraj nahi kiya tum log yadav kyo lagane lage 1930 mai lagane ko to chamar bhi rajputo ke sir name lagate hai rathod tomar chouhan gujar bhi rajputo ke sirname lagate hai to kyavo ush vans ke ho gaye sampati or riyasat ushi ko milti hai jo uska varish ho jo ki rajput hai agar tum log yaduvansi ho to batao kha hai tumhari riyasate or sampati or kile yaduvansi ke
जवाब देंहटाएंKisi ke bare mai ghoot mat failao duniya janti hai tum kon ho tumhare neta sansad mai chila chila kar kahte hai ki ham shudr or pichade hai tumhare papa tumhara admission karne school jate hai to kahte hai mere beta shudra hai hamara number pahile lagao yaha tak ki nokri se lekar pramosan mai bhi tum log ishi shudra ke name se labh lete ho or yaha tum chatri banteho shukar manao bhimrao ambedkar ki unhi ko pujoo jo tum aaj yaha tak pahuche varna kahi aaj bhi bhais chara rahe hote
जवाब देंहटाएंBlog likhne baala
जवाब देंहटाएंPta nhi koun sa sasta nasha krta h..
Yaduvanshi sirf jadoun,bhati,jadeja or chudasma hain...
Baaki sb kya h vo apne purkhon se puche yahan jyada gyanchand n bne..
Jadaun.bhati..jadeja..inka koi puratan itihas Nahi hai Mitra..yadi hai to ye converted history hai..Indian history me Kshatriyo Ka gauravshali itihas haihai.. hai..aur gantantratmak samaj me ke Krishna Ka BHI..aur ye clear hai ki unka samaj alag tha...Kisi BHI raja ne Krishna se apni beti Ka vivah swechvhha se Nahi Kiya..aur ahir shudra kab se ho Gaye Mitra..please itni ghrina uchit nahi.asaliyat Sab ko pata hai.
जवाब देंहटाएंKrishna kshatriya the to yadav nahi the vo kshatriya brahman baisya soodra aur haan yadav soodra se nikle h yaduvansi kshatriyon se nahi krashna khatriya the unke purvajon se hi kshatriyo me ristedari thinjhooth madhne walon ne khoob prayash karke gobar ka gud aur gud ka gobar banane ka prayatn kiya Abhi 30 saal pahle hi lalu aur mulayam k pahle kiski seva me dinraat rahte the pta karna kitaabi aur ye 15_20 saal ki online rachi duniya ki jagah itihas jaanna h to 100 saal purani kitaben ya usse bhi purane lekhan ya sachhaat bataye gye logon se suno jo sach batate hon
हटाएंDuniyaa janti hai yadav kon RAJPUT ko btaane ki koi jarurat nhi hai😅😂😅
जवाब देंहटाएंHamare yahan kheton mai kaam krte hai yadav ghaas katate hain
Jai Rajputana💪🏼
Suar madarjaat jhaantu jhoont failane wale kutto tumhare jaise likhne walon ne hi kalyug utpann kiya hai bhosadiwalon lekhak ki gaand madarjaat acchhayi k liye mar mitne walon ko apni dimag rupi gaand ka hu likh likh k badnaam kar diya unka ijjat samman sampatti sab chheen li gyi jhoothe prachar k chalte
जवाब देंहटाएंसाले कुत्ते श्री कृष्ण भगवान जिन्हें ठाकुर जी भी कहते हैं वो जादौन ठाकुर हैं। हम जादौन ठाकुर उन्हीं के वंशज हैं जय राजपुताना जय ठाकुर जी महाराज।और बहन के लौंडे तूने तो सारा इतिहास ही बदल दिया। किसी जादौन ठाकुर को ये जो तूने लिखा है ना उसे सुना कर देखियो वो वहीं तेरी गांड़ फाड़ देगा। ये तुम्हारे बापों का इतिहास है। भोंसड़ी वालों कुछ भी लिखा करो तो कुछ सोच समझ के लिखा करो। समझ आया कुछ। जय राजपुताना जय ठाकुर जी महाराज। जय जादौन वंशज भगवान श्री कृष्ण।
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