मंगलवार, 28 मई 2024

व्रज की रज को- नमन करो मन।वन्दन बृषभानु-कुमारी का-।।

व्रज की रज को- नमन करो मन।
वन्दन बृषभानु-कुमारी का-।।
उसके सुमिरण से ही बनता है 
बिगड़ा नसीब  भिखारी का।
भजन कर श्यामा प्यारी का
व्रज की उजियारी का।।
भजन कर  ! श्यामा प्यारी का -
व्रज की उजियारी का।

वही सृष्टि की  है अधीश्वरी ।
करुणा और दया से भरी ।
जग का स्वामी अन्तर्यामी
उसके चरणों का भ्रमरी ।२
सीमित श्वाँसो के मनकों की 
जीवन की भंगुर माला।
सुमिरन कर ले उसका रे मन।
जो जीवन का रखवाला।

दुनिया के ये रोग बड़े हैं ।
जीवन में लफड़े ही लफड़े है।
ये मर्ज है दुनियादारी का-
भजन कर ! श्यामा प्यारी का -
व्रज की उजियारी का।

व्रज की रज को नमन करो मन 
वन्दन बृषभानुकुमारी का
उसके सुमिरण से ही बनता है 
बिगड़ा नसीब  भिखारी का।।

राधे कृष्ण की सच्ची भक्ति
जिसने भी कर पायी है।
कष्टों के सागर से उतरा।
जिसने भी महिमा गायी है।२।

राधे नाम रटे रसना नित।
शक्ति नाम में समायी है।
नाम जगत में तभी बड़ा है 
जब अर्थ की महिमा पायी है।

उसकी यादें और फरियादें।
भव रोगों को जड़ से मिटा दें। 
हिकमत है  हर बीमारी का।
भजन श्यामा प्यारी का
व्रज की उजियारी का।।


व्रज की रज को- नमन करो मन।
वन्दन बृषभानु-कुमारी का-।।
उसके सुमिरण से ही बनता है 
बिगड़ा नसीब  भिखारी का।।




हर मजा की सजा इस जमाने में एक मुकम्मल रजा है।

हर मजा की सजा इस जमाने में एक मुकम्मल रजा है।

किसी आशिक को पूछ लो तुम जाकर कि इसकी क्या वजाह है।।

कराह पूजा-

जब भगवान श्री कृष्णा गोवर्धन महाराज की पूजा करते हैं और उसके द्वितीय बार सारे गोप लोग भगवान कृष्ण की पूजा करने लगते हैं क्योंकि वह जान जाते हैं कि कृष्णा कोई साधारण व्यक्ति नहीं है आप अलौकिक विभूतियों से संपन्न पर ब्रह्म परमेश्वर हैं तभी श्री कृष्णा पूजा का जो आगाज है वह कृष्ण पूजा कण्ह पूजा और कराह पूजा हो गया 

गुरुवार, 23 मई 2024

लुङ् लकार और लङ् -लकार का प्रयोग -

सामान्य भूतकाल’ का अर्थ है कि जब भूतकाल के साथ ‘कल’ ‘परसों’ सप्ताह, वर्ष" आदि विशेषण न लगे हों तब यदि ये समय निर्धारण सूचक विशेषण है तो लङ् -लकार का प्रयोग होगा 

बोलने वाला व्यक्ति चाहे अपना अनुभव बता रहा हो अथवा किसी अन्य व्यक्ति का, अभी बीते हुए का वर्णन हो या पहले बीते हुए का, सभी जगह लुङ् लकार का ही प्रयोग करना है।

भले ही घटना साल भर पहले की हो किन्तु यदि कोई विशेषण नहीं लगा है तो इस भूत काल की घटना में लुङ् लकार का ही प्रयोग होगा।।
___________

(२) ‘आज गया’ , ‘आज पढ़ा’ , ‘आज हुआ’ आदि अद्यतन (आज वाले) भूतकाल के लिए भी लुङ् लकार का ही प्रयोग करना है, लङ् या लिट् लकार का नहीं।

लुङ् लकार के रूप के साथ यदि ‘माङ्’ अव्यय ( मा शब्द ) लगा दें तो उसका अर्थ निषेधात्मक हो जाता है और तब इसका प्रयोग भूतकाल के लिए नहीं अपितु ‘आज्ञा’ या ‘विधि’ अर्थ हो जाता है जैसे –

      ”दुःखी मत होओ” = “खिन्नः मा भूः”  

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एक बात ध्यान रखनी है कि जब माङ् का प्रयोग करेंगे तो लुङ् लकार के रूप के "अकार" का लोप हो जाएगा। 

जैसे-अभूत् के अ का लोप होकर – मा अभूत् का मा-भूत् रूप,तथा  मा-अभूः का मा-भू: रूप हो जाता है

बुधवार, 22 मई 2024

गीता के ब्राह्मणवादी श्लोक-


 

" दोषैरेत: कुलघनानां वर्णसङ्कर कारकै:। उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता:।१/४३।| 

 व्याख्या--'दोषैरेतैः कुलघ्नानाम् ৷৷. कुलधर्माश्चशाश्वताः'--युद्धमें कुलका क्षय होने से कुलके साथ चलते आये कुलधर्मोंका भी नाश हो जाता है। कुलधर्मोंके नाशके कुलमें अधर्मकी वृद्धि हो जाती है। अधर्मकी वृद्धिसे स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। स्त्रियोंके दूषित होनेसे वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं। इस तरह इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषोंसे कुलका नाश करनेवालोंके जातिधर्म (वर्णधर्म) नष्ट हो जाते हैं।

कुलधर्म और जातिधर्म क्या हैं एक ही जातिमें एक कुलकी जो अपनी अलग-अलग परम्पराएँ हैं, अलग-अलग मर्यादाएँ हैं, अलग-अलग आचरण हैं, वे सभी उस कुलके 'कुलधर्म' कहलाते हैं। एक ही जातिके सम्पूर्ण कुलोंके समुदायको लेकर जो धर्म कहे जाते हैं, वे सभी जातिधर्म अर्थात् वर्णधर्म कहलाते हैं जो कि सामान्य धर्म हैं और शास्त्रविधिसे नियत हैं। इन कुलधर्मोंका और जातिधर्मोंका आचरण न होनेसे ये धर्म नष्ट हो जाते हैं।



या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥15॥

या देवी सर्व-भूतेषु जाति-रूपेन्ना संस्थिता |
नमस-तस्यै नमस-तस्यै नमस-तस्यै नमो नमः ||15||

15.1: उस देवी को जो सभी प्राणियों में जीनस (हर चीज का मूल कारण) के रूप में निवास करती है , 15.2: उसे नमस्कार है , उसे नमस्कार है , उसे नमस्कार है , उसे बार-बार नमस्कार है । या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥16॥ या देवी सर्व-भूतेषु लज्जा-रूपेन्ना


मंगलवार, 21 मई 2024

भूतकाल का एक और लकार :--3. लुङ् -- Past tense - aorist लुङ् लकार = सामान्य (अनिश्चित )भूत काल ; जो कभी भी बीत चुका हो।





ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)

इसमें प्रयुक्त क्रिया (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचन रूप है । 
नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय  लड्. लकार के क्रिया रूप हैं ।

तथा आसीत् "अस्" धातु का लड्. लकार का प्रथम पुरुष एक वचन का परस्मैपदीय रूप है ।

तथा अजायत क्रिया जन् धातु का आत्मनेपदीय एक वचन  रूप है।

एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम् प्रथमपुरुषः 
               "अजायत "अजायेताम् "अजायन्त ।

मध्यमपुरुषः "अजायथाः "अजायेथाम् अजायध्वम् ।

उत्तमपुरुषः "अजाये अजायावहि अजायामहि

ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा में लड्.(अनद्यतन प्रत्यक्ष भूत काल ) लकार का प्रयोग हुआ है ---जो वैदिक ऋचाओं के वर्णन में असंगत तथा व्याकरण नियम के पूर्णत: विरुद्ध भी है । 

क्योंकि इस लकार का प्रयोग आज के बाद कभी भी घटित भूत काल को दर्शाने के लिए होता है ---जो आँखों के सामने घटित हुआ हो। ऐतिहासिक विवरण के लिए कभी भी इस लकार का प्रयोग नहीं होता अपितु ऐतिहासिक विवरण के लिए केवल लिट्- लकार का प्रयोग ही होता है।

और अनद्यतन  परोक्ष भूत काल में लिट्-लकार का प्रयोग -युक्ति युक्त है क्योंकि इसका अर्थ है ऐसा भूत काल ---जो आज के बाद कभी हुआ हो परन्तु आँखों के सामने घटित न हुआ हो ---जो ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है। 
और वेदों की घटना ऐतिहासिक विवरण ही है। और वह भी प्रागैतिहासिक

और लड् लकार का प्रयोग इस सूक्त की लगभग पूरी ऋचाओं में है, तो इससे यह बात स्वयं ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है । वैदिक नहीं-और ऋग्वेद आदि में लिपिबद्ध करने वाला भूल गया कि इसे लिट्- लकार में लिखना था।


लिट्- लकार का आत्मनेपदीय क्रिया रूप अस्- धातु के ---निम्नलिखित हैं।

प्रथमपुरुषः  "जज्ञे- "जज्ञाते- "जज्ञिरे 
मध्यमपुरुषः "जज्ञिषे -"जज्ञाथे- "जज्ञिध्वे -
उत्तमपुरुषः. जज्ञे - जज्ञिवहे - जज्ञिमहे -

लिट् लकार तथा लड्. लकार दौनों के अन्तर को स्पष्ट कर दिया गया है ।
इनका कुछ और स्पष्टीकरण:-
2. लङ् -- Past tense - imperfect (Indefinite) इसमें हिन्दी वाक्यों में एक भूतकालिक क्रिया पद का प्रयोग होता है।

 (लङ् लकार = अनद्यतन भूत काल ) 
आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो घटना हुई हो । जैसे :- आपने उस दिन भोजन पकाया था ।

भूतकाल का एक और लकार :--
3. लुङ् --  Past tense - aorist

लुङ् लकार = सामान्य (अनिश्चित )भूत काल ; जो केवल आज ही बीत चुका हो ।
जैसे :- मैंने आज गाना खाया । 

व्याकरण शास्त्रीय ग्रीक में और कुछ अन्य उपेक्षित भाषाओं में क्रिया का एक काल है aorist , 


अब संस्कृत के लिट् लकार को देखें---
4. लिट् --  Past tense - perfect ( पूर्ण भूतकाल )
 
लिट् =अनद्यतन परोक्ष भूतकाल । जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो 
जैसे :- राम ने रावण को मारा था । राम: रावणं ममार।

संस्कृत भाषा में दश लकार क्रिया के दश कालों को दर्शाते हैं
5. लुट् -- Future tense - likely
6. लृट् -- Future tense - certain
7. लृङ्  -- Conditional mood
8. विधिलिङ् -- Potential mood
9. आशीर्लिङ् -- Benedictive mood
10. लोट् --  Imperative mood

लौकिक संस्कृत तथा वैदिक भाषा में अन्तर रेखाऐं --

लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है। 

दोनों के शब्दरूप तथा धातुरूप  अनेक प्रकार से भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं।

इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं :-

(1) शब्दरूप की दृष्टि से उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे - देवाः, जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)। 

जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप देवासः, जनासः भी बनते हैं। 

इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है।

तृतीया विभक्ति बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है। 

इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ भी प्राप्त होता है।

तथा दासा वैदिक द्विवचन रूप तो लौकिक दासौ रूप मिलता है. 

(2) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है। 

वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है; तथा उसमें कुछ अन्य रूपों की उपलब्धि होती है।

जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिड्. जोकि लट् प्रकृति अर्थात् वर्तमान काल की धातु से बनते हैं। 

उदाहरणार्थ पठ् से पठतु लोट् और पठेत् विधिलिड् ये दोनों बनते हैं। 

वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो अन्य लकार हैं- लेट् लकार एवं निषेधात्मक लुंलकार (Injunctive)
(जो कि लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ निपात से प्रदर्शित होता है ;और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है)।

इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुड्. प्रकृति से भी बनते हैं। 

इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। वैदिक भाषा में 'मिनीमसि भी' (लट्, उत्तम पुरुष, बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है। 

जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि।

निश्चित रूप से पुरुष सूक्त पुष्यमित्र सुंग कालीन रूढि वादी ब्राह्मणों के द्वारा रचित हुआ है ।
कालान्तरण में ब्राह्मणों के द्वारा यह सूक्त वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है । 

क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है।
और वेद में केवल लिट् लकार  व  लेट् लकार का प्रयोग होता है ।
विशेषत: लेट लकार का ..
जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है
 
इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है; कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व चातुर्य पूर्ण गहन षड्यन्त्र है ।
जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया।

ईरानी समाज में  वर्ग-व्यवस्था थी । 
जो वस्तुत: असुर-महत् (अहुर-मज्दा) के उपासक थे ।

वर्ग-व्यवस्था का विधान व्यक्ति के स्वैच्छिक वरण अथवा चयन प्रक्रिया पर आश्रित था ।

और इरानी स्वयं को आर्य अथवा वीर कहते थे ।
परन्तु इन्हीं ईरानीयों की वर्ग-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था बना दिया । 

यही वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था की शैशवावस्था थी ।
  ब्राह्मण जो स्वयं  को आर्य मानते हैं
वस्तुत: आर्य कदापि नहीं हैं । 

क्यों कि आर्य शब्द का मूल भारोपीय अर्थ है :- वीर अथवा यौद्धा और ब्राह्मण कब से वीर अथवा यौद्धा होने लगे ? 
ब्राह्मण मन्त्रों का उच्चस्वर में उच्चारण करने वाले 
धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करते थे ।
युद्ध इनका कार्य नहीं था ।

ये तो केवल आर्यों के चारण अथवा भाट होते थे । 
शोध के अनुसार ये केवल आर्यो के कबिलों के भाट थे । जो अपने मालिकों का गुणगान करते थे।

और उनकी वंशावली का इतिहास लिखते थे ।
उनसे ही इनकी जीविका चलती थी । 
ये यौद्धा अथवा वीरों के लिए देवों से स्तुति तथा युद्ध में विजयी होने की प्रार्थना तथा धार्मिक करें- काण्ड करते थे ।
वस्तुत: ये इनका धन्धा था , व्यवसाय था  आज भी वही है बस  !
धन्धे को इन्होंने धर्म बता दिया  है ।

आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर थे ! 
उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था ।
जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है ।
वास्तव में ये सब गोलमाल है ।

कथित ब्राह्मणों में आर्य होने का कोई प्रमाण नही है । 
न तो ये वैदिक ऋचाओं के  अनुसार आर्य हैं और न  वैज्ञानिक शोधों के अनुसार ...
क्यों ऋग्वेद के दशम् मण्डल  का पुरुष-सूक्त भी प्रक्षिप्त है काल्पनिक है जिसकी भाषा लौकिक संस्कृत है  । 

____________________________________
ब्राह्मणो८स्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: ! 
उरू तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रो८जायत !! 
(ऋग्वेद 10/90/12)

जबकि इससे पहले की ऋचा ऋग्वेद के नवम मण्डल में है 👇

"कारूरहं ततोभिषग् उपल प्रक्षिणी नना ।। 
(ऋग्वेद 9/112//3)

अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने  वाली   है । 

__________________

यादव योगेश कुमार 'रोहि'
एवम् वी कुमार यादव -----
सम्पर्क सूत्र 8077160219

द्वितीय का पूर्वार्द्ध- संस्कृत भाषा का सरल व्याकरण-

★-व्याकरण के भेदों के बारे में जानने से पहले ही जानते हैं कि व्याकरण किसे कहते हैं? 

 तो आपको बता दें कि इसका उपयोग भाषा की रचना के लिए और उसे बोलने के लिए किया जाता है.।

व्याकरण के बिना हम किसी भी भाषा की लिखित या मौखिक रचना नहीं कर सकते.

–★-व्याकरण के कितने अंग होते हैं ?- 
किसी भी शब्द में भाव व्यक्त करने के लिए. व्याकरण का उपयोग किया जाता है. 

व्याकरण की मदद से आप किसी भी भावनाओं को, किसी भी काल को शब्द रूप में ही बता सकते हो. वाक्य की रचना के लिए शब्दों का समूह बनाया जाता है

वाक्य के तीन मूल अवयव निम्न हैं।

वर्ण विचार- Phonology -
शब्द विचार-Morphology-
पद विचार- Inflection -
वाक्य विचार-Syntax- 

1.वर्ण विचार –
वर्ण विचार को हम ऐसा कह सकते हैं की जिसकी वजह से कोई भी वाक्य पूरा किया जा सकता है वह वर्ण है.

वर्ण के बिना किसी भी वाक्य को लिखित रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता.  

हमारे हिंदी भाषा में 52  वर्ण है.  जिसके आधार पर हमारी हिंदी भाषा और हिंदी व्याकरण की रचना की गई है. 

हमारे हिंदी भाषा के 52 वर्णों में 11 स्वर, 33 व्यंजन और एक अनुस्वार, सम्मिलित, विसर्ग हैं.


स्वर
व्यंजन
2. शब्द विचार –
शब्दों को हम एक हिंदी भाषा का खंड कहते हैं. जब कोई एक से अधिक वर्ण को मिलते हैं तब एक शब्द निर्माण होता है. और क्या कई शब्दों से मिलकर एक वाक्य निर्माण होता है.

उदहारण:
जैसे : म +द+ न –मदन

जैसे उपर 3 वर्ण से मिलकर मदन इस शब्द का निर्माण होता है।

३-पद विचार –
व्याकरणिक श्रेणियां जैसे काल, कारक ,वाच्य, पहलू ( aspect )व्यक्ति, संख्या, लिंग, मनोदशा,(mood)   एनिमेशन, और निश्चितता  (definiteness.)।

 क्रियाओं की विभक्ति को संयुग्मन.(conjugation)  कहा जाता है, और कोई संज्ञा, विशेषण, क्रिया विशेषण, सर्वनाम, निर्धारक.(determiners,) कृदंत(,participles )पूर्वसर्ग (postpositions) , अंक, लेख, आदि के विभक्ति को घोषणा के रूप में संदर्भित कर सकता है


"कुत्ते" के लिए स्कॉटिश गेलिक लेक्सेम का विभक्ति , जो एकवचन के लिए cù है, संख्या dà ("दो") के साथ दोहरे के लिए ch, और बहुवचन के लिए-Coin
एक विभक्ति व्याकरणिक श्रेणियों को प्रत्यय (जैसे उपसर्ग , प्रत्यय , इन्फिक्स , परिधि , और ट्रांसफिक्स ), एपोफोनी ( इंडो-यूरोपियन एब्लाट के रूप में ), या अन्य संशोधनों के साथ व्यक्त करता है। 

उदाहरण के लिए, लैटिन क्रिया ducam , जिसका अर्थ है "मैं नेतृत्व करूंगा", प्रत्यय -am , व्यक्त व्यक्ति (प्रथम), संख्या (एकवचन), और तनाव-मनोदशा (भविष्य संकेतक या वर्तमान उपजाऊ) शामिल है।

  अपरिवर्तनीय कहलाते हैं ;

जैसे कि किसी पर वाक्य में एक शब्द का एक स्थान होता है जो कि वाक्य को पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण है

वैसे ही शब्द पूर्ण करने के लिए वरना की जरूरत पड़ती है उसी वरना का एक शब्द में एक महत्वपूर्ण पद होता है उसी को हम और विचार कहते हैं. किसी भी शब्द का पद से हमको उस शब्द के बारे में जानने के लिए आसान होता है

वे शब्द जो कभी विभक्ति के अधीन नहीं होते


"४-वाक्य विचार
 यह हिंदी व्याकरण में बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है. वाक्य की रचना शब्दों को मिलाकर की जाती है. हर वाक्यों का कोई सार्थक अर्थ होता है. वाक्य वाक्य के मुख्य तीन प्रकार है ।

जोकि साधारण वाक्य, संयुक्त वाक्य, मिश्रण वाक्य. इन तीनों प्रकार से वाक्य की रचना की जाती है.

साधारण वाक्य:
साधारण वाक्य एक ऐसा वाक्य है जिसमें कर्ता मुख्य रहता है.

जैसे – आज मैं स्कूल नहीं जाऊंगा.

संयुक्त वाक्य:
संयुक्त वाक्य की रचना 2 वाक्य को मिलाकर की जाती है. जिसमें दोनों वाक्य विभिन्न परिस्थिति को दर्शाते हैं.

जैसे – गणेश को खेलना पसंद है और  गौरव को पढ़ना पसंद है

मिश्रण वाक्य:
मिश्रित वाक्य, वाक्य का ऐसा प्रकार है जिसमें 2 वाक्य रहते हैं.  जिसमें पहला वाक्य को प्रधानों के कहते हैं और दूसरे वाक्य को उपवाक्य कहते हैं.  जिसमें कि दूसरा और के पहले वाक्य पर निर्धारित होता है.

जैसे – मैं आज जल्दी सो जाऊंगा, मुझे कल जल्दी उठना है


निष्कर्ष –
यहाँ पर हम व्याकरण के कितने अंग होते हैं?- व्याकरण के कितने भेद होते हैं ? – 
व्याकरण के कितने प्रकार होते हैं? 

व्याकरण शब्द वि + आँड् + कृ धातु + ल्युट प्रत्यय  के योग से बना है ।

"व्याकृयन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा: अनेन इति व्याकरणम्।

अर्थात जिस शास्त्र के द्वारा शब्द की उत्पत्ति या रचना का ज्ञान करवाया जाता है उसे व्याकरण शास्त्र कहते हैं ।

प्रधानम् च षडांगेषु  व्याकरणम्।
वेद के 6 अंगों में व्याकरण को सबसे प्रधान अंग माना जाता है ।

मुखम् व्याकरणम् स्मृतम् ।
वेद के 6 अंगों में व्याकरण को वेद पुरुष के मुख अंग के रूप में स्वीकार किया जाता है ।
व्याकरण = मुखम।
ज्योतिष = चक्षु ।
निरुक्त = श्रोतुम (कान)।
कल्प:- हस्तौ (हाथ) 
शिक्षा :-  घ्राणम ( नाक)
छन्द :-  पादौ(पैर)।
महर्षि पतंजलि ने एवं किशोर दास बाजपेई ने व्याकरण को शब्दानुशासन कहकर पुकारा है ।

किशोरी दास बाजपेई ने व्याकरण को भाषा का भूगोल भी कह कर पुकारा है।

डॉक्टर स्वीट महोदय के अनुसार भाषा का व्यवहारिक विश्लेषण व्याकरण है ।
व्याकरण को भाषा शिक्षण का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी कहा जाता है।

व्याकरण को भाषा का मेरुदंड भी कहा जाता है।
संस्कृत व्याकरण के अंतर्गत पाणिनी, वररुचि एवं पतंजलि व्याकरण शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हुए माने जाते हैं।

इन तीनों को मुनित्रय के नाम से भी पुकारा जाता है।

इन तीनों में भी महर्षी पाणिनी सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण हुए हैं , उन्होंने व्याकरण के नियमों को अपनी अष्टाध्याई रचना में सूत्रों के नाम से प्रतिपादित किया है ।

पाणिनी ने वाक्य को ही भाषा की इकाई माना है।

महर्षि वररुचि ने पाणिनी द्वारा बनाए गए सूत्रों में संशोधन करते हुए लगभग 1500 वार्तिक लिखे हैं ।

पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों की सरल शब्दों में व्याख्या की इनके द्वारा बनाए गए नियम इष्ठि के नाम से एवं उनकी रचना महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है।

व्याकरण शास्त्र का उच्चारण में बहुत अधिक महत्व माना जाता है।

व्याकरण की प्रशंसा करते हुए एक पिता अपने पुत्र से कहता है  यद्यपि बहूनाधीषे  तथापि पठ पुत्र व्याकरणम् । स्वजन: श्वजनो मा भूत सकलम् शकलं सकृच्छ्कृत ( सकृत + शकृत )।

बहुत से शास्त्रों का अध्ययन किए हुए पुत्र से पिता कह रहा है कि हे पुत्र तुमनेेेे बहुत शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है फिर भी तुम व्याकरण को अवश्य पढो।

स्वजन = परिजन।
श्वजन = कुत्ता।
सकलम = संपूर्ण ।
शकलम = टुकड़ा ।
सकृत= एक बार ।
शकृत = मल ।

बालकों को भाषा के नियमोंं का ज्ञान करवाना ।
बालकों को शब्दों एवं वाक्य रचना का ज्ञान करवाना ।
बालकों को शब्द रूप व धातु रूप का ज्ञान करवाना ।
बालकों में तर्क एवं चिंतन शक्ति का विकास करना ।
बालकों में भाषा के चारों मूलभूत कौशलों का क्रमबद्ध विकास करना ।
______________________________
महर्षि पतंजलि ने व्याकरण के निम्नलिखित ५ प्रयोजन माने हैं । "-रक्षोहगमल्घ्वसन्देहा:"  

१-रक्षा = वैदिक ज्ञान की रक्षा करना।
२-ऊह =  नवीन शब्दों की रचना।
३-आगम = पठन में निरंतरता।
४-लघु=  संक्षिप्तता ।
५-असन्देह =  शंका या संदेह का समाधान ।

व्याकरण शिक्षण की विधियां :-
व्याकरण शिक्षण के लिए अनेक प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है ।

प्राचीन विधियां :- आगमन विधि ,
निगमन विधि ,
सूत्र विधि ,
पारायण विधि ,
भाषा संसर्ग विधि,
विवाद विधि ,
व्याख्या विधि ,
अर्वाचीन या नवीन विधियां :- आगमन निगमन विधि ।
समवाय या सहयोग विधि ।
पाठ्यपुस्तक विधि।
अन्य विधि :- अनौपचारिक विधि या सैनिक विधि।
________________________________________

शिक्षा शब्द का अर्थ है सीख-परन्तु व्याकरण के  प्रसंग में यह शिक्षा सामान्य सीख न होकर वर्णों अथवा अक्षरों दे उच्चारण की शिक्षा है।

इस शिक्षा ता महत्व इसी से समझा जा सकता है कि इसे चौथे वेदांग के रूप मे स्थान दिया गया है। वेद को छ: अंग माने गयें हैं।

यद्यपि शिक्षा व्याकरण से पृथक विषय है परन्तु व्याकरण के सम्पूरक के रूप अवश्य है ।
दूसरे शब्दों में शिक्षा व्याकरण को शैशव रूप है।

जैसे नागरिक शास्त्र राजनीति शास्त्र का शैशव है।शिक्षा को वेदांग का
चौथा अंग तो व्याकरण तीसरा वेदांग माना गया है। व्याकरण यदि शब्दों की व्युत्पत्ति तथा भाषा का ज्ञान कराती है। 
शिक्षा में वर्णों का सम्यक् व शुद्ध उच्चारण करने का शिक्षण है।
शुद्ध उच्चारण के अभाव में अर्थ का अनर्थ हो जाता है। इसी लिए कोई पिता अपने पुत्र को व्याकरण पढ़ने की प्रेरणा देता हुआ कहता है।
___________________________________
यद्यपि बहु ना अधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।।
स्वजन:श्वजनो मा भूत् सकलं शकलं सकृत् शकृत्।।
( हे पुत्र यदि तू बहुत अध्ययन नहीं करते हो तो भी व्याकरण को पढ़ो इससे स्वजन( अपने जन) परिवार वाले श्वजन:( कुत्ते के जन)  सकल =(सम्पूर्ण) शकल- (टुकड़ा) सकृत्( एकबार) और शकृत् =मल न हो जाये।

जब से वेदों का प्रचलन हुआ तभी से उनके अंग भी प्रचलन में हैं ।
इस आधार पर कहा जाता सकता है कि शिक्षा का प्रचार भी बहुत प्रचीन है।

लगभग सभी वैयाकरणों ने अपने अपने शिक्षा ग्रन्थों की रचना की होगी।
परन्तु वर्तमान में केवल पाणिनीय-शिक्षा ही उपलब्ध है। 
वर्ण- उच्चारण की उचित शिक्षा के अभाव में विद्यार्थी (ऋ) और (ष) वर्णों का उच्चारण प्राय: भूल गये।

पाणिनीय शिक्षा का प्रतिपाद्य विषय संस्कृत वर्णो का सम्यक् ( पूर्ण ) विवेचन करना है जिससे इनके प्रयोग में कोई त्रुटि न हो सके ।

पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: । 
_____     

परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
२२ अच् ( स्वर) :– अ आ आ३, इ ई ई३, उऊऊ३, ए ए३, ऐ ऐ३, ओ ओ३ ,औ औ३,  ऋ ऋृ ऋृ३, ऌ ऌ३। २५ हल् ( व्यञ्जन) :- कवर्ग चवर्ग टवर्ग तवर्ग पवर्ग। ४ अन्त:स्थ ( Interior / Semi Vowel):- (य र ल व) । ३ ऊष्म वर्ण :– श , ष , स ।

 १ महाप्राण :- "ह" १ दु:स्पृष्ट वर्ण है :- ळ । 

इस प्रकार हलों की संख्या ३४ है ।

अयोगवाह का पाणिनीय अक्षरसमाम्नाय में कहीं वर्णन नहीं है. जिनमें चार तो शुद्ध अयोगवाह हैं ।

१- (अनुस्वार ां , )२- (विसर्ग ा: )३-  (जिह्वया मूलीय ≈क)४- (उपध्मानीय ≈प ) औरचार यम संज्ञक :- १-क्क्न, २-ख्ख्न ३- ,ग्ग्न,४-घ्घ्न। इस प्रकार 22, +34 +,8 ,= 63 वर्ण हैं। ।

परन्तु तीन स्वर :– १-उदात्त २-अनुदात्त तथा ३-स्वरित के सहित पच्चीस हैं । 
पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी)

 फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए ) तो इस प्रकार से स्वरों के 110 रूप हो जाते हैं।22×5 ________________________________________________ 
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ । क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25 ________________________________________________ 
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25। तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ ) ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ ) अनुस्वार तथा विसर्ग। 
अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।




 वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात्
 १-(अक्षरसमाम्नाय- वर्णमाला),

 २-नाम(संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), 

३-पद (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द , 

४-आख्यात(क्रिया), उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।
"अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों में समान रूप से विभाजित हैं 
व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में कर दिया है। 

जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।
तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। 

विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी के समकालिक ही हुआ ।

तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी ।
यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई। व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
पुनः विवेचन का अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों (भाषा-मूलक तथ्यों) के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।
 माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति के विषय में अतिश्योक्ति भाव अधिक है।रूढ़िवादी पुरोहितों ने कल्पना सृजित की कि माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से है।
वस्तुत जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है । रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 
"  👇 नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥ 
अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया। 
इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।
 " डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ। इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। 

👇वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का ओ३म् स्वरूप भी है । उमा शिव की ही शक्ति का रूप है ।

उमा शब्द की व्युत्पत्ति (उ भो मा तपस्यां कुरुवति । माता ने पार्वती से कहा उ ( अरे!) मा ( नहीं) तपश्या करो । तत्पश्चात पार्वती को उमा कहा जाने लगा । यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” ।
इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)। 
यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव । अथवा जो शिव के लिए लक्ष्मी के समान है । उं शिवं माति मिमीते वा आतोऽनुपसर्गेति कः अजादित्वात् टाप् । अथवा जो उं (शिव) का मान करती है वह उमा है । अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् ) दुर्गा का विशेषण ।

वस्तुत ये संपूर्ण व्युत्पत्ति आनुमानिक व भिन्न भिन्न प्रकार से होने से असत्य ही हैं । 

 और संशोधन- अपेक्षित है।
 यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर ( संयुक्त स्वर)  ए,ऐ,ओ,औ का समावेश नहीं होता ! तथा अन्त:स्थ वर्ण    –
 ( य,व,र,ल ) भी न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं। जो क्रमश: (इ अ=य) (उ अ=व) (ऋ अ=र) (ऌ अ= ल) इसके अतिरिक्त  "ह" महाप्राण भी ह्रस्व "अ" का घर्षित गत्यात्मक रूप है ;दौनों कण्ठ से उच्चारित हैं । 
(यदि "अ" ह्रस्व स्वर स्पन्दन (धड़कन) है तो "ह" श्वाँस है समग्र वर्णमाला में अनिवार्य भूमिका है । 
केवल वर्ग के प्रथम  वर्ण  ( कचटतप) ही सघोष अथवा नादित होकर तृतीय रूप में उद् भासित होते हैं ।

 अन्यथा 👇 प्रथम चरण :– (क् ह्=ख्)  (च् ह् =छ्)  (ट् ह्=ठ्) (त् ह्=थ्)  (प् ह्=फ्) । __________________________________________________

 द्वित्तीय -चरण:– ♪(क् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ग्  ) ♪( च् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ज् ) ♪(ट् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ठ् ) ♪( त् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =द् ) ♪(प् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =ब् )
 ____________________________________

तृतीय -चरण:– (ग् ह्=घ्)  (ज् ह् =झ्)  (ड् ह्=ढ्) (द् ह्=ध्)  (ब् ह्=भ्) । और इन स्पर्श - व्यञ्जनों में जो प्रत्येक वर्ग का अनुनासिक वर्ण ( ञ ङ ण न म  ) है वह वस्तुत: केवल अनुस्वार का अथवा "म"/ "न" का स्व- वर्गीय रूप है । यहाँ केवल "न" का रूपान्तरण है । जब यही "न" मूर्धन्य हुआ तो लृ के रूप में स्वर बन गया👇👆

यद्यपि "ऋ" तथा "ऌ" स्वर न होकर होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है। 
___________
 न=ल=र) तीनों वर्णों का विकास अ का पार्श्वविक आलोडित रूप है जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है । अंग्रेजी में सभी अनुनासिक वर्ण (An) से अनुवादित हैं अत: स्पर्श व्यञ्जन वर्णों में क, च ,ट ,त, प, न, ही मूल वर्ण हैं । ऊष्म वर्णों में केवल  "स" वर्ण मूल है ।

 "ष" और "श" वर्ण तो सकार के क्रमश टवर्गीय और च" वर्गीय होने पर बनते हैं ।
अंग्रेजी में अथवा यूरोपीय भाषाओं में तवर्ग का शीत जलवायु के प्रभाव से अभाव है ।
अत: अंग्रेजी में केवल शकार (श)और षकार (ष) क्रमश "Sh"  और "Sa" का नादानुवाद होंगे। तवर्ग के न होने से सकार (स) उष्म वर्ण उच्चारित नहीं होगा । 

अब आगे के चरणों में संयुक्त व्यञ्जन वर्णों की व्युत्पत्ति का विवरण है ।👇 


सर्वप्रथम पाणिनीय माहेश्वर सूत्रों का विवरण प्रस्तुत कहते हैं । _________________________________________________ 
पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇 _________________________________________________
( १. अइउण्।  २. ॠॡक्।  ३. एओङ्। ४ . ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।  ८.  झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्।  ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्। 

स्वर वर्ण:–अ इ उ ॠ ॡ एओ ऐ औ य व र ल  । अनुनासिक वर्ण:– ञ ङ ण न म। वर्ग के चतुर्थ वर्ण :- झ भ घ ढ ध  । वर्ग के तृतीय वर्ण:–ज ब ग ड द । वर्ग के द्वित्तीय वर्ण:- ख फ छ ठ थ । वर्ग के प्रथम वर्ण :- च ट त क प । अन्त में ऊष्म वर्ण :- श, ष, स , महाप्राण  वर्ण :-"ह" 
___________________            
उपर्युक्त  14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। 

परन्तु पाणिनीय मान्यताओं के विश्लेषण स्वरूप  मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
___________________________    
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
२२ अच् ( स्वर) :– अ आ आ३, इ ई ई३, उऊऊ३, ए ए३, ऐ ऐ३, ओ ओ३ ,औ औ३,  ऋ ऋृ ऋृ३, ऌ ऌ३। २५ हल् ( व्यञ्जन) :- कवर्ग चवर्ग टवर्ग तवर्ग पवर्ग। ४ अन्त:स्थ ( Interior / Semi Vowel):- (य र ल व) । ३ ऊष्म वर्ण :– श , ष , स ।
 १ महाप्राण :- "ह" १ दु: स्पृष्ट वर्ण है :- ळ । इस प्रकार हलों की संख्या ३४ है । अयोगवाह का पाणिनीय अक्षरसमाम्नाय में कहीं वर्णन नहीं है. जिनमें चार तो शुद्ध अयोगवाह हैं ।

 (अनुस्वार ां , ) (विसर्ग ा: )  (जिह्वया मूलीय ≈क) (उपध्मानीय ≈प ) चार यम संज्ञक :- क्क्न, ख्ख्न ,ग्ग्न,घ्घ्न। इस प्रकार 22 34 8 = 63 । परन्तु तीन स्वर :– १-उदात्त २-अनुदात्त तथा ३-स्वरित के सहित पच्चीस हैं । पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए ) तो इस प्रकार से स्वरों के 110 रूप हो जाते हैं।22×5 ________________________________________________ 
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ । क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25 ________________________________________________ 
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25। तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ ) ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ ) अनुस्वार तथा विसर्ग। 
अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।

पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: । 

स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है। अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं। 
वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 ________________________________________________ 

अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है ।
 कण्ठ तथा काकल । ________________________________________________ 
नि: सन्देह काकल कण्ठ का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । 
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं । अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 
👇👇👇👇👇
 अ-<हहहहह.... । अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ । अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं। ______________________________________________
 य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं। क्यों कि अन्त: का अर्थ  मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ स्थित रहने वाला ।
ये अन्त:स्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्याक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 
👇 जैसे :-  इ अ = य   अ इ =ए             उ अ = व  अ उ= ओ    ____________________________________
''५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते  हैं । ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्।  

 उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं । जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त । 
यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है । टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है । तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है । _______________________________________________ 
👇💭 यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है । 

अतः त थ द ध  तथा स वर्णो को नहीं लिख सकते हैं । क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है । अतः "श्" वर्ण  के लिए  Sh तथा "ष्" वर्ण के  S वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं । __________________________________________________
 १४. हल्। तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है । इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं ।
 मौलिक रूप में केवल 28 वर्ण हैं । जो ध्वनि के मुल रूप के द्योतक हैं । ______________________________

स्वरयन्त्रामुखी:-.  ह वर्ण है । "ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है । जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह"  वर्ण हैं। "ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।

काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । 
२. कंठ की मणि या गले की मणि । 

उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का  वर्गीकरण--👇
 उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है। विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।

 क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं। च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है। इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं। 
मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं। 

हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म  व्यञ्जन नासिक्य हैं।
 इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है। और अनुनासिक भी  -- इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है। 

वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के  पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं । 
परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं । 
जैसे :-  कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
 चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
 टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- कण्टक,  कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर । 
तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन,  अन्ध । पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- पम्प , गुम्फन , अम्बा,  दम्भ । _______________________________________________
 इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं। उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है। वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप  सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है । तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है । और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है। जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि-- इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं। जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि चवर्ग -च छ ज झ ञ का  तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।

 जैसे- जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है। उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं। ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह। __________________________________________________

 1- पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है। 'ल' ऐसी ही  पार्श्विक ध्वनि है। अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है। 

हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं। 

2-लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है। 

3- उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं। ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं। जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।


घोष और अघोष वर्ण– व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।
 दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं। स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है। _________________________________________________
 घोष - अघोष ग, घ,   ङ,क, ख ज,झ,   ञ,च, छ ड, द,   ण, ड़, ढ़,ट, ठ द, ध,   न,त, थ ब, भ,   म, प, फ य,  र,   ल, व, ह ,श, ष, स । प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है। प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु  जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है। पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं। हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।

वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं। क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं। 
वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है । परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है । 
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।) _________________________________________________
 भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को कहते हैं।
 किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है । 

शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो  शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं। उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'। यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।

लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।
अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है। यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है । 

कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')। कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')। 

एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है। 

इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है।
 व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।

अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है। अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।

उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।

यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा। 

इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।

इसमें व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। 
अंग्रेजी भाषा में न, र, ल,  जैसे एन ,आर,एल, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। 
अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है। __________________________________________ 
ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त----- 
👇 मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं? --  ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।

श्रवण तंत्रिकाएँ,  (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है । 

भौतिक विज्ञान में - ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है।

किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।

ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ--- ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युतचुम्बकीय तरंग। (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है। 
ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।

 निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।
 द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य तरंग  (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है। 
अनुदैर्घ्य तरंग:--- जिस माध्यम में ध्वनि का सञ्चरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं!

अनुप्रस्थ तरंग:- जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।

सामान्य ताप व दाब (NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग  343 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है। बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है। मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है। 
बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं।

जैसे चमकाधड़ एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है। माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है। 

किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:- {\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}} जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है। आवृत्ति के अनुसार वर्गीकर--- अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती, श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है। 

पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती, अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है। ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है । 
ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत - ________________________________________________

सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ -- 

ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति----   एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है; वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे । 

क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है ।
 द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव विद= समाक्षर लोप (Haplology) के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है ! 
ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में  द्रूयूद (Druid) रूप में हैं । 

कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham) शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था ! कि  उनका विश्वास था !

कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है। 

और उनका मान्यता भी थी.. प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है इसके उच्चारण प्रभाव से 

ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था । जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं।

वास्तव में ओघम्" (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है । . जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है। आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है। 
सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में ओमन् शब्द आमीन के रूप में है ।

 तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है।

.अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे .. दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे । 

मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,  मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !!

इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् !! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन (omi /ovin )या के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे जो भारतीयों का बुध ज्ञान का देवता था! 

इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था यही (woden) अंग्रेजी में (Goden) बन गया था। 

.. जिससे कालान्तर में गॉड(God )शब्द बना है जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में प्रतिष्ठित हैं ! सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ; वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है । 

भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की ! जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ । पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे ! ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे ! 

वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था द्रुज जनजाति प्राचीन इज़राएल  जॉर्डन लेबनॉन में तथा सीरिया में आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है। द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है तथा पुनर्जन्म कर्म फल के भोग के लिए होता है।

 ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति (druid) द्रयूडों  पुरोहितों( prophet,s )में प्रबल रूप  में मान्य  थी ! 
केल्ट ,वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था। द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य -वेत्ता और तत्व दर्शी थे !

 जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है द्रविड  (द्रव विद) -- समाक्षर लोप से द्रविड  । ...मैं यादव योगेश कुमार "रोहि" भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर कुछ व्याख्यान करता हूँ !


पाठ द्वितीय का पूर्वाद्ध-

प्रस्तुति करण - यादव योगेश कुमार रोहि -

द्वितीय पाठ-

                       -वचन-
संस्कृत में तीन वचन होते हैं- एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन।

संख्या में एक होने पर एकवचन का, दो होने पर द्विवचन का तथा दो से अधिक होने पर बहुवचन का प्रयोग किया जाता है।

जैसे- एक वचन -- एकः बालक: क्रीडति।

द्विवचन -- द्वौ बालकौ क्रीडतः।

बहुवचन -- त्रयः बालकाः क्रीडन्ति।

_______________________________

लिंग-′पुल्लिंग- जिस शब्द में पुरुष जाति का बोध होता है, उसे पुलिंग कहते हैं।
(जैसे रामः, बालकः, सः आदि)
स: बालकः अस्ति।- वह बालक है।
तौ बालकौ स्तः‌।- वे दोनों बालक हैं।
ते बालकाः सन्ति। -वे सब बालक हैं।
_____________________
स्त्रीलिंग- जिस शब्द से स्त्री( महिला) जाति का बोध होता है, उसे स्त्रीलिंग कहते हैं। (जैसे रमा, बालिका, शीला , सा  आदि)
सा बालिका अस्ति। वह बालिका है ।
ते बालिके स्तः। वे दो बालिका हैं।
ताः बालिकाः सन्ति। वे सब बालिका हैं।-
__________
नपुंसकलिंग (जैसे: फलम् , गृहम्, पुस्तकम् , तत् आदि)
तत् फलम् अस्ति | वह फल है ।
ते फले स्त: |वे दो फल हैं।
तानि फलानि सन्ति | वे सब फल हैं।

               "संस्कृत के पुरुष"
पुरुष एकवचन द्विवचन बहुवचन
उत्तमपुरुष अहम्(मैं) आवाम्(हमदोनों) वयम्-(हमसब)

मध्यमपुरुष त्वम्(तू) युवाम्(तुम दोनों) यूयम्(तुम सब)

प्रथम/अन्य पुरुष स:/सा/तत् (वह) तौ/ते/ते (वे   दोनों    
ते/ता:/तानि (वे सब)

अन्य पुरुष एकवचन मे 'स:' पुल्लिङ्ग के लिये , 'सा' स्त्रीलिङ्ग के लिये और 'तत्' नपुन्सकलिङ्ग के लिये है।

क्रमश: द्विवचन और बहुवचन के लिए भी यही रीति है |
उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष मे लिङ्ग के भेद नही है ।
                    
                     "कारक"
कारक नाम - वाक्य के अन्दर उपस्थित पहचान-चिह्न से समन्वित क्रिया से सम्बन्धित पदों का नाम कारक है
कर्ता - ने (रामः) गीतं गायति।)

कर्म - को (to) (बालकः (विद्यालयं) गच्छति।)

करण - से (by /With), द्वारा (सः (हस्तेन) फलं खादति।

सम्प्रदान -को , के लिये (for) (निर्धनाय) धनं देयं।

अपादान - से (from) अलगाव (वृक्षात् )पत्राणि पतन्ति।

सम्बन्ध - का, की, के (of) (राम: (दशरथस्य पुत्रः) आसीत्। 

अधिकरण - में, पे, पर (in/on) यस्य (गृहे) माता नास्ति,)

सम्बोधन - हे!,भो !,अरे !, (हे राजन्) !अहं निर्दोषः।

भवत् स्त्रील्लिंग शब्द के रूप – 
भवत् स्त्रील्लिंग शब्द रूप: “भवत् शब्द” नाम का 

भवत् (भवती = आप स्त्री) अन्यपुरुष, स्त्री० – 
विभक्ति एकवचन द्विवचन बहुवचन
प्रथमा भवती=
आप एक स्त्री ने  भवत्यौ=आप दौनों स्त्रीयों ने भवत्यः=
आप 
सब स्त्रीयों ने
द्वितीया भवतीम्=
आप एक स्त्री को भवत्यौ=आप दौनों स्त्रियों को भवत्यः=
आप 
सब स्त्रीयों को
तृतीया भवत्या=
आप एक स्त्री को द्वारा भवतीभ्याम्= 
आप दौंनो स्त्रियों के द्वारा भवतीभिः=
आप सब स्त्रियों के द्वारा
चतुर्थी भवत्यै=
आप एक 
स्त्री के लिए भवतीभ्याम्=
आप दौंनो स्त्रियों के लिए भवतीभ्यः=
आप सब स्त्रीयों के लिए
पञ्चमी भवत्याः=
आप एक स्त्री से भवतीभ्याम्=
आप दौनों स्त्रीयों से भवतीभ्यः=
आप सब स्त्रीयों से
षष्ठी भवत्याः=
आप एक स्त्री का भवत्योः=
आप दौंनो
स्त्रियों का

 भवतीनाम्=
आप सब स्त्रीयों का
सप्तमी भवत्याम्=
आप एक स्त्री में भवत्योः= आप दौनों स्त्रीयों में भवतीषु= आप सब स्त्रीयों में
सम्बोधन हे भवति हे भवत्यौ हे भवत्यः


___________________

"भवत्" सर्वनामपद  के रूप तीनों लिंगों में सदैव  अन्य पुरुष के क्रियापद का प्रयोग होता है।

                "डवतुप्रत्ययान्तपुल्लिङ्गः

भवत् शब्दः
                    (भवत् -पुल्लिङ्गः)

एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमा भवान्=
आप एक ने भवन्तौ=
आप दौनों
ने भवन्तः=
आप सब
ने 
द्वितीया भवन्तम्=
आप एक 
को भवन्तौ=
आप दौनों
को भवतः=
आप सब
को 
तृतीया भवता=
आप एक 
को द्वारा- भवद्भ्याम्
=आप दौनों को 
द्वारा 

भवद्भिः=
आप सब
के द्वारा

चतुर्थी भवते=
आप एक के लिए भवद्भ्याम्
=आप दौनों
के लिए भवद्भ्यः=
आप सब
को लिए
पञ्चमी भवतः=
आप एक से भवद्भ्याम्
आप दौनों
से भवद्भ्यः=
आप सब से
षष्ठी भवतः=
आप एक का भवतोः=
आप दौंनो का भवताम्=
आप सब 
का
सप्तमी भवति=
आप एक में भवतोः= आप दौनों में भवत्सु= आप सब में
सम्बोधन हे भवान् हे भवन्तौ हे भवन्तः
"वाच्य"-
संस्कृत में तीन वाच्य होते हैं- कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य।

कर्तृवाच्य में कर्तापद में प्रथमा विभक्ति का होता है। 
(छात्रः) श्लोकं पठति- यहाँ (छात्रः) कर्ता है और प्रथमा विभक्ति में है।
कर्मवाच्य में कर्तापद में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है और कर्म में प्रथमा विभक्ति का। 
जैसे, छात्रेण (श्लोकः) पठ्यते। 

यहाँ छात्रेण तृतीया विभक्ति में और कर्म-श्लोक: में प्रथमा विभक्ति  है।
अकर्मक क्रिया में कर्म नहीं होने के कारण क्रिया की प्रधानता होने से भाववाच्य के प्रयोग सिद्ध होते हैं।
कर्ता की प्रधानता होने से कर्तृवाच्य प्रयोग सिद्ध होते हैं। भाववाच्य एवं कर्मवाच्य में क्रियारूप एक जैसे ही रहते हैं।

कर्तृवाच्य. से -भाववाच्य
1.पु० भवान् तिष्ठतु -आप बैठो।
भवता स्थीयताम्आ=प के द्वारा बैठा जाए-

2.स्त्री० भवती नृत्यतु आप नाचो- भवत्या नृत्यताम्आ=प के द्वारा नाचा जाए-

3. त्वं वर्धस्व त्वया वर्ध्यताम् =आपके द्वारा बढ़ा जाए-   

4.पु० भवन्तः न खिद्यन्ताम् भवद्भिः न खिद्यताम् =आप सबके द्वारा दु:खी न हुआ जाए-
5.स्त्री० भवत्यः उत्तिष्ठन्तु भवतीभिः उत्थीयताम् =आपके सबके द्वारा उठा जाए

6.
यूयं संचरत
युष्माभिःसंचर्यताम्= आप सबके द्वारा चरा जाए

 
7.पु०
भवन्तौ रुदिताम् भवद्भयां रुद्यताम् =आप सबके द्वारा रोया जाए.

8.स्त्री० 

भवत्यौ हसताम् भवतीभ्यां हस्यताम्  आप दौनों के द्वारा हसा जाए. 
    
9. विमानम् उड्डयताम् विमानेन उड्डयताम् विमान के द्वारा उड़ा जाए.
10 सर्वे उपविशन्तु
सर्वै: उपविश्यताम् -सबके द्वारा बैठा जाए-    
उपर्युक्त वाक्यों में क्रिया अन्य पुरुष, एक वचन और आत्मनेपदीय में रूप में है।
___________________
उप+ विश् धातुरूपाणि -लोट् लकारःविशँ प्रवेशने तुदादिःगणीय- परस्मैपदीय व आत्मनेपदीय रूप-
 "उप+विश्-बैठना।
  कर्तरि प्रयोगः परस्मैपदीय रूप-
प्रथमपु०-एकव०उपविशतात् / उपविशताद् / उपविशतु।
द्विव०उपविशताम्।
बहुव०उपविशन्तु।

मध्यम पु०-एकवचन-उपविश।
 द्विवचन-उपविशतम्।
बहुवचन-उपविशत।

उत्तम पु०
एकव०- उपविशानि।
द्विव ०- उपविशाव।
 बहुव० - उपविशाम।
_______________________
"कर्मणि प्रयोग: आत्मनेपदीय रूप"
________
प्रथमपु०
एकव०-उपविश्यताम्
द्विव० -उपविश्येताम्
बहुव०-उपविश्यन्ताम्
_______
मध्यम
एकव०-उपविश्यस्व
द्विव० - उपविश्येथाम्
बहुव०-उपविश्यध्वम्
_____
उत्तम
एकव०-उपविश्यै
द्विव०-उपविश्यावहै
बहुव०-उपविश्यामहै
_____________________
रूपिम-(Morpheme) भाषा उच्चारण की लघुत्तम अर्थवान् इकाई है।
रूपिम स्वनिमों (ध्वनि समूहों)का ऐसा न्यूनतम अनुक्रम है जो व्याकरणिक दृष्टि से सार्थक होता है।

स्वनिम के बाद रूपिम भाषा का महत्वपूर्ण तत्व व अंग है। 

(रूपिम को 'रूपग्राम' और 'पदग्राम' भी कहते हैं। जिस प्रकार स्वन-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई स्वनिम (ध्वनि है
उसी प्रकार रूप-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई रूपिम है। 
रूपिमवाक्य-रचना और अर्थ-अभिव्यक्ति की सहायक इकाई है।
स्वनिम -भाषा की अर्थहीन इकाई है, किन्तु इसमें अर्थभेदक क्षमता होती है।
_________________________________________

(रूपिम- लघुत्तम अर्थवान इकाई है, किन्तु रूपिम को अर्थिम का पर्याय नहीं मान सकते हैं;
यथा-" परमात्मा" एक अर्थिम पद है, जबकि इसमें ‘परम’ और ‘आत्मा’ दो रूपिम पद हैं।
परिभाषा - विभिन्न भाषा वैज्ञानिकों ने रूपिम को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख विद्वानों के अनुसार  पदग्राम पदों का समूह (रूपिम) वस्तुतः परिपूरक वितरण या मुक्त वितरण मे आये हुए सहपदों (शब्दों) का समूह है। रूप भाषा की लघुतम अर्थपूर्ण इकाई होती है जिसमें एक अथवा अनेक ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है।

डॉ॰ भोलानाथ तिवारी के मतानुसार, भाषा या वाक्य की लघुतम सार्थक इकाई रूपग्राम है।

डॉ॰ जगदेव सिंह ने लिखा है, रूप-अर्थ से संश्लिष्ट भाषा की लघुतम इकाई को रूपिम कहते हैं।


पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रदत्त परिभाषाएँ:-
"ब्लॉक का रूपिम के विषय में विचार है- कोई भी भाषिक रूप, चाहे मुक्त अथवा आबद्ध हो और जिसे अल्पतम या न्यूनतम अर्थमुक्त (सार्थक) रूप में खण्डित न किया जा सके, रूपिम होता है।
"ग्लीसन का विचार है- रूपिम न्यूनतम उपयुक्त व्याकरणिक अर्थवान रूप है।
"आर. एच. रोबिन्स ने व्याकरणिक संदर्भ में रूपिम को इस प्रकार परिभाषित किया है- न्यूनतम व्याकरणिक इकाईयों को रूपिम कहा जाता है। 

स्वरूप- रूपिम के स्वरूप को उसकी अर्थ-भेदक संरचना के आधार पर निर्धारित कर सकते हैं। 

प्रत्येक भाषा में रूपिम व्यवस्था उसकी अर्थ-प्रवृति के आधार पर होती है। इसलिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूपिमों में भिन्नता होना स्वभाविक है।
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                 "वाक्य विज्ञान --
दो या दो से अधिक पदों के सार्थक समूह जिसका पूरा अर्थ निकलता है, उसे वाक्य कहते हैं।
                     -- 
उदाहरण के लिए 'सत्य की विजय होती है।'
यह एक वाक्य है क्योंकि इसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है किन्तु 'सत्य विजय होता।' परन्तु यइस प्रकार यह वाक्य नहीं है क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है।

शब्दकोशीय अर्थ की दृष्टि से --

- वह पद -समूह जिससे श्रोता को वक्ता के अभिप्राय का बोध हो।
भाषा के भाषा-वैज्ञानिक आर्थिक इकाई का बोधक पद समूह। वाक्य में कम से कम कारक (कर्तृ आदि) जो संज्ञा या सर्वनाम होता है और क्रिया का होना भी आवश्यक है। 

क्रियापद और कारक पद से युक्त सेच्छिक ( इच्छा-सहित) अर्थबोधक पद- समूह या पदोच्चय। जो उद्देश्यांश और विधेयांश वाले सार्थक पदों का समूह हो 

विशेष—नैयायिकों और अलंकारियों के अनुसार वाक्य में

(१) आकांक्षा,
(२) योग्यता और
(३) आसक्ति या सन्निधि होनी चाहिए।
'आकांक्षा' का अभिप्राय यह है कि शब्द यों ही रखे हुए न हों, वे मिलकर किसी एक तात्पर्य अथवा इच्छा का बोध कराते हों। 

जैसे, कोई कहे—'मनुष्य चारपाई पुस्तक' तो यह वाक्य न होगा।
जब वह कहेगा—'मनुष्य चारपाई पर पुस्तक पढ़ता है।' तब वाक्य होगा। क्यों कि इसमें ऐच्छिकता का क्रमिक अन्वय( सम्बन्ध) है।

'योग्यता' का तात्पर्य यह है कि पदों के समूह से निकला हुआ अर्थ असंगत या असंभव न हो।
जैसे, कोई कहे—'पानी में हाथ जल गया' तो यह वाक्य न होगा क्योंकि पानी में हाथ जलाने की योग्यता का अभाव है।
'आसक्ति' या 'सन्निधि' का मतलब है सामीप्य या निकटता अर्थात् तात्पर्यबोध करानेवाले पदों के बीच देश या काल का  अधिक व्यवधान अथवा दूरी न हो। जैसे, कोई यह न कहकर कि 'कुत्ता मारा, पानी पिया' यह कहे—'कुत्ता पिया मारा पानी' तो इसमें आसक्ति न होने से वाक्य न बनेगा; क्योंकि 'कुता' और 'मारा' के बीच 'पिया' शब्द का व्यवधान पड़ता है।
इसी प्रकार यदि काई 'पानी' सबेरे कहे और 'पिया' शाम को कहे, तो इसमें काल संबंधी व्यवधान होगा।
काव्य भेद का विषय मुख्यतः न्याय दर्शन के विवेचन से प्रारंभ होता है और यह मीमांसा और न्यायदर्शनों के अंतर्गत आता है।

दर्शनशास्त्रीय वाक्यों के ३ भेद मानते हैं- 

"विधि-वाक्य, अनुवाद वाक्य और अर्थवाद -वाक्य किए गए हैं ; इनमें अंतिम के चार भेद- १-स्तुति, २-निंदा, ३-परकृति और ४-पुराकल्प बताए गए हैं। 
(वक्ता का अभिप्रेत अथवा वक्तव्य की अबाधकता वाक्य का मुख्य उद्देश्य माना गया है।इसी की पृष्ठ भूमि में संस्कृत वैयाकरणों ने वाक्यस्फोट की उद्भावना की है।वाक्यपदोयकार द्वारा स्फोटात्मक वाक्य की अखंड सत्ता स्वीकृत है।

भाषावैज्ञानिकों की द्दष्टि में वाक्य संश्लेषणात्मक और विश्लेषणात्मक तत्व होते हैं।

"शब्दाकृतिमूलक वाक्य के शब्द-भेदानुसार चार भेद हैं—१-समासप्रधान, २-व्यासप्रधान, ३-प्रत्ययप्रधान और ४-विभक्तिप्रधान।

इन्हीं के आधार पर भाषाओं का भी वर्गीकरण विद्वानों ने किया है। 

आधुनिक व्याकरण की दृष्टि से वाक्य के संरचना के आधार पर तीन भेद होते हैं—

 १-सरल वाक्य. 

२-मिश्रित वाक्य और 

३-संयुक्त वाक्य।

तथा अर्थ की दृष्टि से वाक्यों के आठ भेद होते हैं।________________________________________

वाक्य – अर्थ की दृष्टि से वाक्य के प्रकार |

वाक्य किसे कहते हैं?

सार्थक शब्दों का ऐसा समूह जो व्यवस्थित हो तथा पूरा आशय प्रकट करता हो, वाक्य कहलाता है।

उदाहरण– 1. सोहन विद्यालय जाता है।

2. आप की इच्छा क्या है ?

वाक्यों के प्रकार के संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने के लिए नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ें और रेखांकित वाक्य पर गौर करें।

शुभम के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।

 शुभम् उनसे मिलने राजनगर गया। 

अचानक शुभम् को देखकर अशोक ने कहा- अरे ! शुभम् तुम ! शुभम् ने बताया कि आपसे मिलने का मन हुआ तो चला आया। 

अशोक ने पूछा- क्या तुम आज ही वापस जाओगे ? शुभम ने उत्तर दिया- मैं आज नहीं जाऊँगा। अशोक ने कहा ठीक है। शायद आज मैं देर से लौटू। तुम बाजार चले जाओ लो ये पैसे, माया के लिए एक अच्छा सूट खरीद लेना। अशोक ने शुभम के साथ भोजन किया और अपने काम पर चला गया। 

शुभम् बाजार गया।

 उसने एक छोर से दूसरे छोर तक बाजार का चक्कर लगाया किन्तु उसे कपड़ों को कोई अच्छी दुकान दिखाई नहीं दी। आखिरकार एक कोने में उसे कपड़े की एक दुकान नजर आई। 

उसने वहाँ से माया के लिए एक सूट खरीदा और लौट आया। शाम को अशोक ने बताया कि कल उसकी छुट्टी रहेगी।

शुभम् ने उसे अपना लाया हुआ मोबाइल दिखाया। 

अमित ने कहा- मैं चाहता हूँ कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।

 मेरे साथ ढेर सारा सामान है। 

अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी। शुभम् ने कहा- कल हम साथ ही घर चलेंगे।

______________ 

जैसे– शुभम् के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।

यह शब्द समूह सार्थक है, व्याकरण के नियमों के अनुरूप व्यवस्थित है तथा पूरा आशय प्रकट कर रहा है। अतः यह एक वाक्य है।

अब रेखांकित वाक्यों को देखें।

रेखांकित वाक्य अर्थ की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं। 

_________  

सामान्यतः वाक्य भेद दो दृष्टियों से किया जाता है -

1. अर्थ की दृष्टि से

2. रचना की दृष्टि से

__________

हिन्दी व्याकरण के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़िए।।

1. 'ज' का अर्थ, द्विज का अर्थ

2. भिज्ञ और अभिज्ञ में अन्तर

3. किन्तु और परन्तु में अन्तर

4. आरंभ और प्रारंभ में अन्तर

5. सन्सार, सन्मेलन जैसे शब्द शुद्ध नहीं हैं क्यों

6. उपमेय, उपमान, साधारण धर्म, वाचक शब्द क्या है.

7. 'र' के विभिन्न रूप- रकार, ऋकार, रेफ

8. सर्वनाम और उसके प्रकार

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        -अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद–

अर्थ के आधार पर वाक्यों के निम्नलिखित आठ भेद होते हैं।

(अ) विधानवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी क्रिया के करने या होने की सामान्य सूचना मिलती है, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते हैं। किसी के अस्तित्व का बोध भी इस प्रकार के वाक्यों से होता है।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

अशोक राजनगर में रहता है।

(ब) निषेधवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं।

 इन्हें नकारात्मक वाक्य भी कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

मैं आज नहीं जाऊंगा।

(स) प्रश्नवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाए अर्थात् किसी से कोई बात पूछी जाए, उन्हें प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

क्या तुम आज ही वापस जाओगे?

(द) विस्मयादिवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आश्चर्य (विस्मय), हर्ष, शोक, घृणा आदि के भाव व्यक्त हों, उन्हें विस्मयादिवाचक वाक्य कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

अरे! शुभम् तुम!!

इन प्रकरणों 👇 को भी पढ़ें।

1. हिंदी गद्य साहित्य की विधाएँ

2. हिंदी गद्य साहित्य की गौण (लघु) विधाएँ

3. हिन्दी साहित्य का इतिहास चार काल

4. काव्य के प्रकार

5. कवि परिचय हिन्दी साहित्य

6. हिन्दी के लेखकोंका परिचय

7. हिंदी भाषा के उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचंद

(ई) आज्ञावाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आज्ञा या अनुमति देने का बोध हो, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

तुम बाजार चले जाओ।

(फ) इच्छावाचक वाक्य– वक्ता की इच्छा, आशा या आशीर्वाद को व्यक्त करने वाले वाक्य इच्छावाचक वाक्य कहलाते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

मैं चाहता कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।

(ग) संदेहवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में कार्य के होने में सन्देह अथवा संभावना का बोध हो, उन्हें संदेहवाचक वाक्य कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

शायद मैं आज देर से लौटूँ।

(ह) संकेतवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से एक क्रिया के दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें हेतुवाचक वाक्य भी कहते हैं। इनसे कारण, शर्त आदि का बोध होता है।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी।

___________________________

     -अर्थ की दृष्टि से वाक्य में परिवर्तन–

आप पढ़ चुके हैं कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें से विधानवाचक वाक्य को मूल आधार माना जाता है। अन्य वाक्य भेदों में विधानवाचक वाक्य का मूलभाव ही विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है। किसी भी विधानवाचक वाक्य को सभी प्रकार के भावार्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है।

जैसे– उपरोक्त अनुच्छेद का विधानवाचक वाक्य–

"अशोक राजनगर में रहता है।" को लेते हैं– इस वाक्य को सभी प्रकार के वाक्यों में निम्नानुसार परिवर्तित किया जा सकता है।

_________

1. विधानवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में रहता है।

2. विस्मयादिवाचक वाक्य - अरे! अशोक राजनगर में रहता है।

3. प्रश्नवाचक वाक्य - क्या अशोक राजनगर में रहता है?

4. निषेधवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में नहीं रहता है।

5. संदेहवाचक वाक्य - शायद अशोक राजनगर में रहता है।

6. आज्ञावाचक वाक्य - अशोक! तुम राजनगर में रहो।

7. इच्छावाचक वाक्य- काश, अशोक राजनगर में रहता!।

8. संकेतवाचक वाक्य - यदि अशोक राजनगर में रहना चाहता है तो रह सकता है।

____________
वाक्यांश--
शब्दों के ऐसे समूह को जिसका अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता, वाक्यांश (Phrase) कहते हैं। उदाहरण -

'दरवाजे पर', 'कोने में', 'वृक्ष के नीचे' आदि का अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता इसलिये ये वाक्यांश हैं।
__________________________________________
कर्ता और क्रिया के आधार पर वाक्य के भेद करें
वाक्य के दो भेद होते हैं-
__________
उद्देश्य और
विधेय-
वाक्य में जिसके बारे में कुछ बात की जाय उसे उद्देश्य कहते हैं।
और जो बात उद्देश्य के वाले में की जाय  उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए, 'मोहन प्रयाग में रहता है'।
इसमें उद्देश्य है - 'मोहन' , और विधेय है - 'प्रयाग में रहता है।'
________________________________________
वाक्य के भेद

वाक्य -भेद दो प्रकार से किए जा सकते हँ-

१- अर्थ के आधार पर वाक्य भेद
२- रचना के आधार पर वाक्य भेद
अर्थ के आधार पर वाक्य के तीन भेद हैं ।
अर्थ के आधार पर आठ प्रकार के वाक्य होते हँ-

 1-विधान वाचक वाक्य,
2- निषेधवाचक वाक्य,
3- प्रश्नवाचक वाक्य,
4- विस्म्यादिवाचक वाक्य,
5- आज्ञावाचक वाक्य,
6- इच्छावाचक वाक्य,
7-संकेतवाचक वाक्य,
8-संदेहवाचक वाक्य।

विधानवाचक सूचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है,
वह विधानवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत एक देश है।
राम के पिता का नाम दशरथ है।
दशरथ अयोध्या के राजा हैं।

निषेधवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से कार्य न होने का भाव प्रकट होता है, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं। जैसे-
मैंने दूध नहीं पिया।
मैंने खाना नहीं खाया।

प्रश्नवाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार प्रश्न किया जाता है, वह प्रश्नवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत क्या है?
राम के पिता कौन है?
दशरथ कहाँ के राजा है?

आज्ञावाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार की आज्ञा दी जाती है या प्रार्थना की जाती है, वह आज्ञा वाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
बैठो।
बैठिये।
कृपया बैठ जाइये।
शांत रहो।
कृपया शांति बनाये रखें।
इस प्रकार के हिन्दी वाक्यों के अन्त में ओ अथवा ए की ध्वनि निकलती है ।

विस्मयादिवाचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की गहरी अनुभूति का प्रदर्शन किया जाता है, वह विस्मयादिवाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
अहा! कितना सुन्दर उपवन है।
ओह! कितनी ठंडी रात है।
बल्ले! हम जीत गये।

इच्छावाचक वाक्य - जिन वाक्य‌ों में किसी इच्छा, आकांक्षा या आशीर्वाद का बोध होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण- भगवान तुम्हेँ दीर्घायु करे।
नववर्ष मंगलमय हो।

संकेतवाचक वाक्य- जिन वाक्यों में किसी संकेत का बोध होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। उदाहरण-
राम का मकान उधर है।
सोनु उधर रहता है।

संदेहवाचक वाक्य - जिन वाक्य‌ों में सन्देह का बोध होता है, उन्हें सन्देह वाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण-
क्या वह यहाँ आ गया ?
क्या उसने काम कर लिया ?
रचना के आधार पर वाक्य के भेद---

रचना के आधार पर वाक्य के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं-'

(१)सरल वाक्य/साधारण वाक्य :-
जिनमें एक ही विधेय होता है, उन्हें सरल वाक्य या साधारण वाक्य कहते हैं, इन वाक्यों में एक ही क्रिया होती है;
जैसे- मुकेश पढ़ता है।
राकेश ने भोजन किया।

(२) संयुक्त वाक्य - जिन वाक्यों में दो-या दो से अधिक सरल वाक्य समुच्चयबोधक अव्ययों से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है;
जैसे- वह सुबह गया और शाम को लौट आया।
प्रिय बोलो पर असत्य नहीं।

(३) मिश्रित/मिश्र वाक्य - जिन वाक्यों में एक मुख्य या प्रधान वाक्य हो और अन्य आश्रित उपवाक्य हों, उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं।

इनमें एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक से अधिक समापिका क्रियाएँ होती हैं।

जैसे - ज्यों ही उसने औषधि सेवन किया, वह सो गया।
यदि परिश्रम करोगे तो, उत्तीर्ण हो जाओगे।
मैं जानता हूँ कि तुम्हारे कार्यअच्छे नहीं होते।

प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि" संस्कृत में काल गत वाक्य निरूपण के लिए लकार हैं।





_________  

सामान्यतः वाक्य भेद दो दृष्टियों से किया जाता है -

1. अर्थ की दृष्टि से

2. रचना की दृष्टि से

__________

हिन्दी व्याकरण के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़िए।।

1. 'ज' का अर्थ, द्विज का अर्थ

2. भिज्ञ और अभिज्ञ में अन्तर

3. किन्तु और परन्तु में अन्तर

4. आरंभ और प्रारंभ में अन्तर

5. सन्सार, सन्मेलन जैसे शब्द शुद्ध नहीं हैं क्यों

6. उपमेय, उपमान, साधारण धर्म, वाचक शब्द क्या है.

7. 'र' के विभिन्न रूप- रकार, ऋकार, रेफ

8. सर्वनाम और उसके प्रकार

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अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद–

अर्थ के आधार पर वाक्यों के निम्नलिखित आठ भेद होते हैं।

(अ) विधानवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी क्रिया के करने या होने की सामान्य सूचना मिलती है, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते हैं। किसी के अस्तित्व का बोध भी इस प्रकार के वाक्यों से होता है।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

अशोक राजनगर में रहता है।

(ब) निषेधवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं।

 इन्हें नकारात्मक वाक्य भी कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

मैं आज नहीं जाऊंगा।

(स) प्रश्नवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाए अर्थात् किसी से कोई बात पूछी जाए, उन्हें प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

क्या तुम आज ही वापस जाओगे?

(द) विस्मयादिवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आश्चर्य (विस्मय), हर्ष, शोक, घृणा आदि के भाव व्यक्त हों, उन्हें विस्मयादिवाचक वाक्य कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

अरे! शुभम् तुम!!

इन प्रकरणों 👇 को भी पढ़ें।

1. हिंदी गद्य साहित्य की विधाएँ

2. हिंदी गद्य साहित्य की गौण (लघु) विधाएँ

3. हिन्दी साहित्य का इतिहास चार काल

4. काव्य के प्रकार

5. कवि परिचय हिन्दी साहित्य

6. हिन्दी के लेखकोंका परिचय

7. हिंदी भाषा के उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचंद

(ई) आज्ञावाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आज्ञा या अनुमति देने का बोध हो, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

तुम बाजार चले जाओ।

(फ) इच्छावाचक वाक्य– वक्ता की इच्छा, आशा या आशीर्वाद को व्यक्त करने वाले वाक्य इच्छावाचक वाक्य कहलाते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

मैं चाहता कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।

(ग) संदेहवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में कार्य के होने में सन्देह अथवा संभावना का बोध हो, उन्हें संदेहवाचक वाक्य कहते हैं।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

शायद मैं आज देर से लौटूँ।

(ह) संकेतवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से एक क्रिया के दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें हेतुवाचक वाक्य भी कहते हैं। इनसे कारण, शर्त आदि का बोध होता है।

ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी।

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अर्थ की दृष्टि से वाक्य में परिवर्तन–

आप पढ़ चुके हैं कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें से विधानवाचक वाक्य को मूल आधार माना जाता है। अन्य वाक्य भेदों में विधानवाचक वाक्य का मूलभाव ही विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है। किसी भी विधानवाचक वाक्य को सभी प्रकार के भावार्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है।

जैसे– उपरोक्त अनुच्छेद का विधानवाचक वाक्य–

"अशोक राजनगर में रहता है।" को लेते हैं– इस वाक्य को सभी प्रकार के वाक्यों में निम्नानुसार परिवर्तित किया जा सकता है।

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1. विधानवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में रहता है।

2. विस्मयादिवाचक वाक्य - अरे! अशोक राजनगर में रहता है।

3. प्रश्नवाचक वाक्य - क्या अशोक राजनगर में रहता है?

4. निषेधवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में नहीं रहता है।

5. संदेहवाचक वाक्य - शायद अशोक राजनगर में रहता है।

6. आज्ञावाचक वाक्य - अशोक! तुम राजनगर में रहो।

7. इच्छावाचक वाक्य- काश, अशोक राजनगर में रहता!।

8. संकेतवाचक वाक्य - यदि अशोक राजनगर में रहना चाहता है तो रह सकता है।


वाक्यांश--
शब्दों के ऐसे समूह को जिसका अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता, वाक्यांश (Phrase) कहते हैं। उदाहरण -

'दरवाजे पर', 'कोने में', 'वृक्ष के नीचे' आदि का अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता इसलिये ये वाक्यांश हैं।
__________________________________________
कर्ता और क्रिया के आधार पर वाक्य के भेद करें
वाक्य के दो भेद होते हैं-

उद्देश्य और
विधेय
वाक्य में जिसके बारे में कुछ बात की जाय उसे उद्देश्य कहते हैं।
और जो बात उद्देश्य के वाले में की जाय  उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए, 'मोहन प्रयाग में रहता है'।
इसमें उद्देश्य है - 'मोहन' , और विधेय है - 'प्रयाग में रहता है।'
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वाक्य के भेद

वाक्य -भेद दो प्रकार से किए जा सकते हँ-

१- अर्थ के आधार पर वाक्य भेद
२- रचना के आधार पर वाक्य भेद
अर्थ के आधार पर वाक्य के तीन भेद हैं ।
अर्थ के आधार पर आठ प्रकार के वाक्य होते हँ-

 1-विधान वाचक वाक्य,
2- निषेधवाचक वाक्य,
3- प्रश्नवाचक वाक्य,
4- विस्म्यादिवाचक वाक्य,
5- आज्ञावाचक वाक्य,
6- इच्छावाचक वाक्य,
7-संकेतवाचक वाक्य,
8-संदेहवाचक वाक्य।

विधानवाचक सूचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है,
वह विधानवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत एक देश है।
राम के पिता का नाम दशरथ है।
दशरथ अयोध्या के राजा हैं।

निषेधवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से कार्य न होने का भाव प्रकट होता है, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं। जैसे-
मैंने दूध नहीं पिया।
मैंने खाना नहीं खाया।

प्रश्नवाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार प्रश्न किया जाता है, वह प्रश्नवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत क्या है?
राम के पिता कौन है?
दशरथ कहाँ के राजा है?

आज्ञावाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार की आज्ञा दी जाती है या प्रार्थना की जाती है, वह आज्ञा वाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
बैठो।
बैठिये।
कृपया बैठ जाइये।
शांत रहो।
कृपया शांति बनाये रखें।
इस प्रकार के हिन्दी वाक्यों के अन्त में ओ अथवा ए की ध्वनि निकलती है ।

विस्मयादिवाचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की गहरी अनुभूति का प्रदर्शन किया जाता है, वह विस्मयादिवाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
अहा! कितना सुन्दर उपवन है।
ओह! कितनी ठंडी रात है।
बल्ले! हम जीत गये।

इच्छावाचक वाक्य - जिन वाक्य‌ों में किसी इच्छा, आकांक्षा या आशीर्वाद का बोध होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण- भगवान तुम्हेँ दीर्घायु करे।
नववर्ष मंगलमय हो।

संकेतवाचक वाक्य- जिन वाक्यों में किसी संकेत का बोध होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। उदाहरण-
राम का मकान उधर है।
सोनु उधर रहता है।

संदेहवाचक वाक्य - जिन वाक्य‌ों में सन्देह का बोध होता है, उन्हें सन्देह वाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण-
क्या वह यहाँ आ गया ?
क्या उसने काम कर लिया ?
रचना के आधार पर वाक्य के भेद---

रचना के आधार पर वाक्य के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं-

(१)सरल वाक्य/साधारण वाक्य :-
जिनमें एक ही विधेय होता है, उन्हें सरल वाक्य या साधारण वाक्य कहते हैं, इन वाक्यों में एक ही क्रिया होती है;
जैसे- मुकेश पढ़ता है।
राकेश ने भोजन किया।

(२) संयुक्त वाक्य - जिन वाक्यों में दो-या दो से अधिक सरल वाक्य समुच्चयबोधक अव्ययों से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है;
जैसे- वह सुबह गया और शाम को लौट आया।
प्रिय बोलो पर असत्य नहीं।

(३) मिश्रित/मिश्र वाक्य - जिन वाक्यों में एक मुख्य या प्रधान वाक्य हो और अन्य आश्रित उपवाक्य हों, उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं।

इनमें एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक से अधिक समापिका क्रियाएँ होती हैं।

जैसे - ज्यों ही उसने औषधि सेवन किया, वह सो गया।
यदि परिश्रम करोगे तो, उत्तीर्ण हो जाओगे।
मैं जानता हूँ कि तुम्हारे कार्यअच्छे नहीं होते।

प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"




संस्कृत में लकार — एक चिन्तन → 

उससे निकली देवनागरी वर्णमाला के वर्णों की विभिन्न ध्वनियाँ ( स्वर ) और वे वर्ण जो इन ध्वनियों से अभिव्यञ्जित हुए — व्यञ्जन 

 इन सभी स्वर और व्यञ्जन में एक ऐसा वर्ण भी था जो न पूर्ण स्वर था और न पूर्ण व्यञ्जन ।

 वह वर्ण था — ल् । 

पहले किसी पोस्ट पर मैंने कहा था कि सृष्टि के पूर्व अखिल ब्रह्माण्ड में एक ही स्वर गुञ्जायमान था — ॐ ! देवनागरी वर्णमाला के जो वर्ण महादेव के डमरू-निनाद से प्रकट हुए, यह उनमें भी नहीं था क्योंकि यह तो अनादिकाल से ब्रह्माण्ड में था ही, सतत सनातन ध्वनि । जब ब्रह्म में सृष्टि की उत्पत्ति की स्फुरणा हुई तो प्रकृति ने ब्रह्म की अध्यक्षता में त्रिविध गुणमयी सृष्टि की रचना की, वह ब्रह्म निमित्त होकर भी अपनी ही स्वभावभूता प्रकृति के संयोग से संसार के रूप में प्रकट भासने लग गया ।

वह ही भासने लग गया, यह कहने का तात्पर्य है कि वह ही इस सम्पूर्ण दृश्यमान सृजन का उपादान कारण था, सृष्टि में समाया हुआ होकर भी सृष्टि का संचालक नियामक । 

क्रिया का आरोपण तो प्रकृति पर गया परन्तु वह भी उस चेतना रूपी ब्रह्म के बिना संचालित नहीं थी ।

 – स्वर अर्थात् ध्वनियाँ सीधे-सीधे ब्रह्म की द्योतक हैं और व्यञ्जन प्रकृति के द्योतक ।

बिना स्वर के प्रकृति कैसे अपने को व्यक्त कर पाती ।

 बिना स्वर के प्रकृति के कार्य-व्यापार कैसे संचालित हो पाते । 

प्रकृति तो ब्रह्म के बिना सर्वथा अधूरी थी । इसलिए स्वर-स्वरूप ब्रह्म के संयोग से ही प्रकृति-स्वरूप व्यञ्जन अपने को व्यञ्जित कर पाए । तभी तो सारे व्यञ्जन हलन्त ( हल् + अन्त ) हैं । पाणिनि के माहेश्वर सूत्र से व्युत्पन्न प्रत्याहार ‘हल्’ में आने वाले समस्त वर्ण जो बिना स्वर-संयोग के उच्चारण नहीं किये जा सकते थे, हलन्त अर्थात् व्यञ्जन कहलाए ।

  — ल् , जो स्वर भी था और व्यञ्जन भी । अत: प्रकृति के कार्य-व्यापार के संचालन को निर्देशित करने के लिए ‘ल्’ ( लकार ) का प्रयोग सर्वथा सम्यक् प्रतीत हुआ ।

संस्कृत में क्रिया के Mood को बताने के लिए 10 लकार नियत किये गये । इसमें छ: लकार ‘ट्’–अन्त्यक हैं, लट्, लृट्, लोट्, लिट्, लुट् और लेट् — ये छ: लकार । ट् वर्ण धनुष् की टंकार का वाचक है । टंकार से संकल्प ध्वनित होता है और बिना संकल्प के क्रिया हो नहीं सकती है । ट्-अन्त्यक लकार क्रियाओं में संकल्प को ध्वनित करते हैं । 

शेष चार लकार ‘ङ्’–अन्त्यक हैं, लङ्, लिङ्, लृङ् और लुङ् — ये चार लकार । ङ् वर्ण इच्छा का बोधक है । किसी इच्छा या इच्छा के भाव ( अपूर्णतार्थ में ) को निर्देशित करने के लिए ‘ङ्’ का उपयोग समीचीन और सम्यक् है ।

इस प्रकार संकल्प और विषयेच्छा से सृष्टि की समस्त क्रियाएँ संचालित हैं । 

"लकार -"
संस्कृत में लट् , लिट् , लुट् , लृट् , लेट् , लोट् , लङ् , लिङ् , लुङ् , लृङ् – ये दस लकार होते हैं। वास्तव में ये दस प्रत्यय ही हैं जो धातुओं में जोड़े जाते हैं।

इन दसों प्रत्ययों के प्रारम्भ में 'ल' है इसलिए इन्हें 'लकार' कहते हैं ।

इन दस लकारों में से आरम्भ के छः लकारों के अन्त में 'ट्' है- लट् लिट् लुट् आदि इसलिए ये टित् लकार कहे जाते हैं ।

और अन्त के चार लकार (ङित् )कहे जाते हैं क्योंकि उनके अन्त में 'ङ्' है। 

व्याकरणशास्त्र में जब धातुओं से पिबति, खादति आदि रूप सिद्ध किये जाते हैं तब इन टित्" और ङित् "शब्दों का बहुत बार प्रयोग किया जाता है।

इन लकारों का प्रयोग विभिन्न कालों की क्रिया बताने के लिए किया जाता है। 

जैसे – जब वर्तमान काल की क्रिया बतानी हो तो धातु से 'लट् लकार' जोड़ देंगे, अनद्यतन परोक्ष भूतकाल की क्रिया बतानी हो तो लिट् लकार जोड़ेंगे।

(१) लट् लकार (= वर्तमान काल) जैसे :- श्यामः खेलति । ( श्याम खेलता है।)

(२) लिट् लकार (= अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो । जैसे :-- रामः रावणं ममार। ( राम ने रावण को मारा ।)

(३) लुट् लकार (= अनद्यतन भविष्यत् काल) जो आज का दिन छोड़ कर आगे होने वाला हो । जैसे :-- सः श्वः विद्यालयं गन्ता। ( वह कल विद्यालय जायेगा ।)

(४) लृट् लकार (= अद्यतन भविष्यत् काल - सामान्य भविष्य काल) जो आने वाले किसी भी समय में होने वाला हो आज से लेकर कभी भी । जैसे :--रामः इदं कार्यं करिष्यति । (राम यह कार्य करेगा।)

(५) लेट् लकार (= यह लकार केवल वेद में प्रयोग होता है, ईश्वर की प्रार्थना के लिए, क्योंकि वह किसी काल में बंधा नहीं है।)

(६) लोट् लकार (= ये लकार आज्ञा, अनुमति लेना, प्रशंसा करना,प्रार्थना आदि में प्रयोग होता है ।) जैसे :-भवान् गच्छतु । (आप जाइए ) ; सः क्रीडतु । (वह खेले) ; त्वं खाद । (तुम खाओ ) ;  अहं किं वदानि । ( मैं क्या बोलूँ ?)

(७) लङ् लकार (= अनद्यतन भूत काल ) आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- भवान् तस्मिन् दिने भोजनमपचत् । (आपने उस दिन भोजन पकाया था।)

(८) लिङ् लकार = इसमें दो प्रकार के लकार होते हैं :--

(क) आशीर्लिङ् (= किसी को आशीर्वाद देना हो) जैसे :- भवान् जीव्यात् (आप जीओ ) ; त्वं सुखी भूयात् । (तुम सुखी रहो।)

_________________________________


           "आशीर्लिङ्लकार का प्रयोग- 
लकारों के क्रम में लिङ् लकार के विषय में समझाते हुए हमने इसके दो भेदों का उल्लेख किया था- विधिलिङ् और आशीर्लिङ्। विधिलिङ् लकार के प्रयोग के नियम तो आपने जान लिये। अब आशीर्लिङ् के विषय में बताते हैं। आपने यह वेदमन्त्र तो कभी न कभी सुना ही होगा –



"मधुमन्मे निष्क्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मधुमद् ‘भूयासं’ मधुसंदृशः॥
( मेरा जाना मधुर हो, मेरा आना मधुर हो। मैं मधुर वाणी बोलूँ, मैं मधु के सदृश हो जाऊँ। अथर्ववेद १।३४।३॥ )


इसमें जो ‘भूयासम्’ शब्द है, वह भू धातु के आशीर्लिङ् के उत्तमपुरुष एकवचन का रूप है। भू धातु के आशीर्लिङ् में रूप देखिए –___________________________

भूयात् भूयास्ताम् भूयासुः
भूयाः भूयास्तम् भूयास्त
भूयासम् भूयास्व भूयास्म

१) इस लकार का प्रयोग केवल आशीर्वाद अर्थ में ही होता है। इसके सन्दर्भ में पाणिनि  ने एक सूत्र लिखा है – “आशिषि लिङ्लोटौ।३।३।१७२॥” अर्थात् आशीर्वाद अर्थ में आशीर्लिङ् लकार और लोट् लकार का प्रयोग करते हैं। जैसे – सः चिरञ्जीवी भूयात् = वह चिरञ्जीवी हो।

२) इस लकार के प्रयोग बहुत कम दिखाई पड़ते हैं, और जो दिखते भी हैं वे बहुधा भू धातु के ही होते हैं। अतः आपको भू धातु के ही रूप स्मरण कर लेना है।
________________________________________

शब्दकोश :

‘गर्भवती’ के पर्यायवाची शब्द –
(१) आपन्नसत्त्वा
(२) गुर्विणी
(३) अन्तर्वत्नी
(४) गर्भिणी
(५) गर्भवती

पतिव्रता स्त्री के पर्यायवाची-
(१) सुचरित्रा
(२) सती
(३) साध्वी
(४) पतिव्रता

स्वयं पति चुनने वाली स्त्री के लिए संस्कृत शब्द –
(१) स्वयंवरा
(२) पतिंवरा
(३) वर्या

वीरप्रसविनी – वीर पुत्र को जन्म देने वाली
बुधप्रसविनी – विद्वान् को जन्म देने वाली

उपर्युक्त सभी शब्द स्त्रीलिंग में होते हैं।
________________________________________

वाक्य अभ्यास प्रयोग-:

यह गर्भिणी वीर पुत्र को उत्पन्न करने वाली हो !
= एषा आपन्नसत्त्वा वीरप्रसविनी भूयात्।

ये सभी स्त्रियाँ पतिव्रताएँ हों!
= एताः सर्वाः योषिताः सुचरित्राः भूयासुः।

ये दोनों पतिव्रताएँ प्रसन्न रहें!
= एते सुचरित्रे मुदिते भूयास्ताम्।

हे स्वयं पति चुनने वाली पुत्री ! तू पति कीप्रिय होवे।
= हे पतिंवरे पुत्रि ! त्वं भर्तुः प्रिया भूयाः।

तुम दोनों पतिव्रताएँ होवो ।
= युवां सत्यौ भूयास्तम् ।

वशिष्ठ ने दशरथ की रानियों से कहा –
= वशिष्ठः दशरथस्य राज्ञीः उवाच –

तुम सब वीरप्रसविनी होओ।
= यूयं वीरप्रसविन्यः भूयास्त ।

मैं मधुर बोलने वाला होऊँ।
= अहं मधुरवक्ता भूयासम्।

सावित्री ने कहा –
सावित्री उवाच

मैं स्वयं पति चुनने वाली होऊँ।
= अहं वर्या भूयासम्।

माद्री और कुन्ती ने कहा –
माद्री च पृथा च ऊचतुः –

हम दोनों वीरप्रसविनी होवें।
= आवां वीरप्रसविन्यौ भूयास्व ।

हम सब राष्ट्रभक्त हों।
वयं राष्ट्रभक्ताः भूयास्म ।

हम सब चिरञ्जीवी हों।
= वयं चिरञ्जीविनः भूयास्म।
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श्लोक :

एकः स्वादु न भुञ्जीत नैकः सुप्तेषु जागृयात्।
एको न गच्छेत् अध्वानं नैकः चार्थान् प्रचिन्तयेत्॥
(पञ्चतन्त्र)

स्वादिष्ट भोजन अकेले नहीं खाना चाहिए, सोते हुए लोगों में अकेले नहीं जागना चाहिए, यात्रा में अकेले नहीं जाना चाहिए और गूढ़ विषयों पर अकेले विचार नहीं करना चाहिए।

इस श्लोक में जितने भी क्रियापद हैं वे सभी विधिलिङ् लकार प्रथमपुरुष एकवचन के हैं।

आशीर्लिङ्लकार का प्रयोग

(ख) विधिलिङ् (= किसी को विधि बतानी हो ।) जैसे :- भवान् पठेत् । (आपको पढ़ना चाहिए।) ; अहं गच्छेयम् । (मुझे जाना चाहिए।
(९) लुङ् लकार (= अद्यतन भूत काल) आज का भूत काल) जो आज कभी भी बीत चुका हो । जैसे :- अहं भोजनम् अभक्षत् । (मैंने खाना खाया।)

(१०) लृङ् लकार हेतुहेतुमद्भविष्य काल(= ऐसा भविष्य काल जिसका प्रभाव वर्तमान तक हो  जब किसी क्रिया की असिद्धि हो गई हो । जैसे :- यदि त्वम् अपठिष्यत् तर्हि विद्वान् भवितुम् अर्हिष्यत् । (यदि तुम पढ़गे तो विद्वान् बनोगे।)

इस बात को स्मरण रखने के लिए कि धातु से कब किस लकार को जोड़ेंगे, निम्नलिखित श्लोक स्मरण कर लीजिए-

लट् -वर्तमाने लेट् -वेदे भूते- लुङ् लङ् लिटस्‍तथा ।
विध्‍याशिषोर्लिङ् लोटौ च लुट् लृट् लृङ् च भविष्‍यति ॥
(अर्थात् लट् लकार वर्तमान काल में, लेट् लकार केवल वेद में, भूतकाल में लुङ् लङ् और लिट्, विधि और आशीर्वाद में लिङ् और लोट् लकार तथा भविष्यत् काल में लुट् लृट् और लृङ् लकारों का प्रयोग किया जाता है।)
लकारों के नाम याद रखने की विधि-
ल् में प्रत्याहार के क्रम से ( अ इ उ ऋ ए ओ ) जोड़ दें और क्रमानुसार 'ट' जोड़ते जाऐं । फिर बाद में 'ङ्' जोड़ते जाऐं जब तक कि दश लकार पूरे न हो जाएँ । जैसे लट् लिट् लुट् लृट् लेट् लोट् लङ् लिङ् लुङ् लृङ् ॥ इनमें लेट् लकार केवल वेद में प्रयुक्त होता है । लोक के लिए नौ लकार शेष रहे|

"समास:"
१) द्वन्द्व

२) तत्पुरुष

३) कर्मधारय

४) बहुव्रीहि

५) अव्ययीभाव

६) द्विगु समास क्रिया पदों में नहीं होता। समास के पहले पद को 'पूर्व पद' कहते हैं, बाकी सभी को 'उत्तर पद' कहते हैं।

समास मुख्य क्रियापद में नहीं होता गौण क्रियापद में होता है। समास के पहले पद को 'पूर्व पद' कहते हैं, बाकी सभी को 'उत्तर पद' कहते हैं।

समास के तोड़ने को विग्रह कहते हैं, जैसे -- "रामश्यामौ" यह समास है और रामः च श्यामः च (राम और श्याम) इसका विग्रह है।


पाठ - द्वितीय-

प्रस्तुति -यादव योगेश कुमार रोहि -  8077160219