गुरुवार, 27 अक्टूबर 2022

अहीरों को बाल्मीकि-रामायण और रामचरितमानस तथा पद्म पुराण सृष्टिखण्ड और पातालखण्ड में परस्पर विरोधी रूपों में वर्णन-




समस्त अहीर जाति को रामचरितमानस किताब का बहिष्कार कर श्रीमद्भगवद्गीता को पढ़ना चाहिए।
 
क्यों की जब  तुलसीदास ने अहीरों को पाप का रूप बता़ ही दिया  है तो क्या वे रामचरित पढ़कर पुण्यरूप हो जाऐंगे। 

और भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ  हरिवंश पुराण पद्म पुराण" गर्ग संहिता और श्रीमद्भगवद्गीता में अहीरों को "सुव्रतज्ञ तथा सदाचरणवादी बताया गया।


धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ताचैषा विरञ्चये।१५।

अनया आभीरकन्याया तारितोगच्छ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय ।।१७।।

उपर्युक्त श्लोकों में अहीरों को विष्णु भगवान धार्मिक सदाचारी और धर्मवत्सल बताया है।
जिसकी जाति में ही भविष्य में द्वापर युग में विष्णु देव कार्य की सिद्धि के लिए अवतरण करते हैं।
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अहीरों के वर्चस्व से अभिभूत होकर ही कालान्तर में उनके खिलाफत में हिन्दू खलीफाओं ( पुरोहितों ने पूर्ण अहितकारी काल्पनिक बातें जोड़ कर बाद के समय में अहीरों को कहीं  " पापयोनि , म्लेच्छ और शूद्र तथा महाशूद्र के रूप में शास्त्रों में जोड़ डाला - इसी लिए अहीरों के विषय में शास्त्रों में पहले तो उन्हें धर्मवत्सल" पुण्यजन और सुव्रतज्ञ बताया जाता है।

और बाद के संस्करणों में उन्हें ही  "पापयोनि "म्लेच्छ आदि बताकर विरोधीयो द्वारा अपने अहम् की तुुष्टि कर ली जाती है । कितना तमाशाई है ये मंजर

  सर्वेऽधिकारिणश्चात्र चण्डालांता मुनीश्वर
स्त्रियः शूद्रादयश्चापि जडमूकादि पंगवः ।१९।
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अन्ये हूणाः किराताश्च पुलिंदाः पुष्कसास्तथा
आभीरा यवनाः कंकाः खसाद्याः पापयोनयः ।२०।

दंभाहंकारपरमाः पापाः पैशुन्यतत्पराः
गोब्राह्मणादि हंतारो महोपपातकान्विताः ।२१।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनमाहात्म्ये
एकाशीतितमोऽध्यायः (८१)
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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड पुराणों का सबसे पुराना रूप है । परन्तु इसी पद्म पुराण  के  पाचवें पातालखण्ड तक पहुँचते पहुँचते पुरोहितों नें उन्हें अहीरों को "पापयोनि तक लिख कर पुराणों का पुरानापन ही खत्म कर दिया।

तुलसीदास ने भी इस परम्परा का  निर्वहन कर अहीरों को कही "निर्मल मन "  बताया तो बाद में फिर कहीँ "पापयोनि कहकर  परस्पर विरोधी बाते कह डाली-

जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है । जिसने राम से अहीरों को मारने सा निवेदन किया।
और राम ने भी समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ वाण से त्रेता युग-- में ही  मार डाला  ।
परन्तु अहीर आज भी कलियुग में  जिन्दा होकर ब्राह्मण और राजपूतों की नाक में दम किये हुए हैं।

उनके मारने में रामबाण भी चूक गया और शायद ये राम की ही पराजय सिद्ध हुई।

निश्चित रूप से यादवों (अहीरों) के विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में  ब्राह्मणों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है।
अन्यथा समाज के एक सीधे सच्चे गोपालक वर्ग को नाहक बुरा बुरा बोलना राष्ट्र निर्माण सा उपक्रम नहीं ।

कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या वर्णन है
कि जड़  निर्जीव जलता समूह  समुद्र भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है।

 जिनमें चेतना नहीं हैं  फिर भी  ब्राह्मणों ने  राम को भी अहीरों का हत्यारा' बना कर  राम के नाम की तौहीन ही की है।

राम ने अहीरों को त्रेता युग अपने राम वाण से द्रुमकुल्य" देश में मार दिया  फिर भी अहीर लोग कलि युग में जिन्दा है।

इस द्रुमकुल्य देश का आज तक नक्शा नहीं मिला
और फिर राम के द्वारा मारे जाने पर भी अहीरों की आज तादाद है।

अहीरों को कोई नहीं जीत सकता है यह सच है अहीर अजेय हैं ।
अत:आज  अहीरों से भिड़ने वाले नेस्तनाबूद हो जाओगे 

अहीरों को वैसे भी हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड और भारतीय पुराणों में ईश्वरीय शक्तियों से युक्त माना है ।

ब्राह्मण ने स्वयं को धर्म का निर्णायक मान कर धर्म की मनमानी अपने स्वार्थ हित के अनुरूप व्याख्या की और हिन्दू अहीर लोग  धर्म के अनुयायी बने  हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही मान रहे हैं।

 भला हो हमारी बुद्धि का जिसको मनन रहित श्रृद्धा (आस्था) ने दबा दिया ।

और मन गुलाम हो गया पूर्ण रूपेण अन्धभक्ति का ! आश्चर्य  ! घोर आश्चर्य !
वाल्मीकि रामायण के युद्ध-काण्ड २२वाँ सर्ग में 
अहीरों को राम द्वार मारा जाने काम वर्णन नीचे देंखे-)
"उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।
द्रुमकुल्य इतिख्यातो लोके ख्यातोयथा भवान् ।३२।

उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव: ।
आभीर प्रमुखा: पापा: पिवन्ति सलिलम् मम ।।३३।
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तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: ।
अमोघ क्रियतां रामो$यं  तत्र शरोत्तम: ।।३४।।

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन: ।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।।
  (वाल्मीकि-रामायण युद्ध-काण्ड २२वाँ सर्ग)

अर्थात् समुद्र राम से बोला हे प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं।
 उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर "द्रुमकुल्य नामका बड़ा ही प्रसिद्ध देश है।३२।

वहाँ आभीर आदि जातियों के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं।  जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं ; सबके सब पापी और लुटेरे हैं ।
वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३।

उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है 
इस पाप को मैं नहीं सह सकता हूँ ।

हे राम आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए ।३४।

महामना समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार उसी अहीरों के देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह वाण छोड़ दिया ।३५।

निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त 
कथाओं का सृजन किया है । 
ताकि इन पर सत्य का आवरण  चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातें को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके ।

अब आप ही बताओ मूर्खों की जब राम अहीरों को त्रेता युग में अपने राम वाण से द्रुमकुल्य देश में मार देते हैं ।
केवल निर्जीव जड़ समु्द्र के ही कहने पर  फिर भी अहीर पर रामवाण भी निष्फल हो जाता है ।

फिर भी अहीर राम मन्दिर को बनाने के लिए अपना बलिदान कर दें ।

और मन्दिरों के रूप में धर्म की दुकान चलाऐं पाखण्डी कामी धूर्त ब्राह्मण ।

दान दक्षिणा हम चड़ाऐं और और ब्राह्मण उससे एश-आराम करें ।

इससे बड़ी मूर्खता क्या हो सकती है ?

पुरुष सूक्त, मनुस्मृति ,रामायण ,रामचरितमानस इन सभी ने  धर्म की संस्कृति को नष्ट कर डाला है ।
भारत की अखण्डता के लिए ये मिला बची मिथक खतरा हैं ।
इसका ध्यान रखो

कर्म प्रधान होता है । कहने वाले हरामखोर ढकोसली उपाख्यानों और दान  और भीख पर जीवन जीने वाले ब्राह्मण श्रेष्ठ कैसे ?

 शोषण और व्यभिचार करने वाला क्षत्रिय ब्राह्मणों के बाद श्रेष्ठ है ।

ये क्षत्रिय किसी भी गरीब की सुन्दर लड़कियों को बल पूर्वक अपनी रखैल बना लेते थे ।

और हेराफेरी करने वाला वैश्य भी क्षत्रियों के वाद श्रेष्ठ है ।

परन्तु मेहनत और इन तीनों की सेवा करने वाला  शूद्र और अछूत है । जिसे ब्राह्मणों ने शिक्षा और संस्कार के लिए निषिद्ध घोषित कर दिया हो ।
ये कौन सा धर्म है ।
 ये ही हिन्दू धर्म है ।

राम का युद्ध यद्यपि अहीरों से कभी नहीं हुआ । परन्तु पुष्यमित्र सुंग कालीन पाखण्डी ब्राह्मणों नें जड़ चेतना हीन समु्द्र के राम से यह करने पर कि पापी अहीर मेरा जल पीकर मुझे अपवित्र करते हैं ।

 ---हे राम आप उनका वध कर दो ! यह कहा परन्तु
राम का अमोघ वाण भी अहीरों पर निष्फल हो गया !

ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन इस कारण से किया  है । 

कि अहीरों को लोक मानस में हेय व दुष्ट घोषित किया जा सके !
परन्तु त्रेता युग में जिस राम ने रावण जैसे- वीर पुरुष को मार दिया हो ! और वही राम अहीरों का कुछ न बिगाड़ पाए हों !

तो निश्चित रूप अहीरों की वीरता रावण से भी अधिक रही होगी । और समु्द्र भी जिन्हें न डुबा पाया हो !
वो अहीर साधारण नहीं हो सकते ।
पुराणों में तथा यहूदीयों की हिब्रू बाइबिल में अहीरों को ईश्वरीय सत्ता स्वीकार किया गया है ।

 
अहीरों के प्रति सोच आज भी रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज की बहुत ही तुच्छ है ।
कदाचित् इसी कारण तुलसीदास के अनुयायी गोलोकवासी श्रद्धेय मुलायम सिंह यादव को उनके अन्तिम प्रयाण पर गालीयाँ देते रहे रामद्रोही कहकर- 

इसका पैमाना उनके पास नहीं कि पापी कौन है । दान दक्षिणा के नाम पर भीख माँगकर खाने कमाने वाले पापी हैं ? अथावा खेतों में हल चलाकर अन्नोत्पादन करके सबको  खिलाने वाले पापी है ?
भीख माँकर

जिस समाज में सम्मान और स्वाभिमान सलामत न हो उस समाज का तत्काल बहिष्कार ही श्रेय कर है 

बोलो राधे कृष्ण !
प्रस्तुतिकरण - यादव योगेश कुमार रोहि-

बुधवार, 26 अक्टूबर 2022

पुङ्गव और उससे विकसित "पौंगा शब्द का जीवन चरित-

पुङ्गव और उससे विकसित पौंगा शब्द का जीवन चरित-


आज कल टीवी चैनल वाले  चाहे जिस पौंगा पण्डित को पकड़ लाते हैं और  उसका परिचय धर्मगुरू अथवा शंकराचार्य  कहकर सारी दुनियाँ से कराते हैं। 

उनकी बकवास सुनकर बुद्धिजीवी वर्ग को   शर्म आती है। माथे पर त्रिपुण्ड लगाने, गले में रुद्राक्ष की बड़ी बड़ी मालाऐं और भगवा उत्तरीय डाल लेने,अथवा गैरिकवस्त्र ओढ़ लेने मात्र से  ही इन टीवी चैनल वालों की निगाह में  वह कोई धर्मगुरु हो जाता है।

वास्तव में धर्म जैसी कोई चीज़ जब उनकी निगाह में नहीं है तब धर्मगुरु  कैसा है ? वह तो धर्म की आचरण गत परिभाषा भी नहीं जानता!

धर्मगुरु वैसे  तो  कभी नहीं होते जिस प्रकार टीवी स्टूडियो में नज़र आते हैं। 

जैसे टीवी वालों को शब्द और अर्थ की समझ नहीं, वैसे ही धर्म और गुरु  की भी समझ नहीं होती।

इसी प्रसंग में बात करते चले हिन्दी में 'पोंगा' शब्द की जो रूढ़िवादी  और आँख बन्द कर परम्पराओं का बोझ ठोने वाले पुरोहित के अर्थ में प्रयोग होता है। 

पोंगा में खाली, रिक्त, खोखलापन का भाव हैं। अनेक भाषाशास्त्रीय साक्ष्य हैं जिनसे पता चलता है कि "पोंगा शब्द  संस्कृत के 'पुंगव' शब्द का विकास क्रम है ।

जिसमें अर्थापकर्ष की प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है। पुंगव का मूल अर्थ है।

अभिधेय रूप में (पुमान् गौः कर्म + षच् समास रूप  में ) अर्थात् गाय का पुल्लिंग रूप- वृषभ है। अब वृषभ तो पौरुष पूर्ण होता है परन्तु बद्द ( भद्र) के अण्डकोष निकाल कर उसे खस्सी कर दिया जाता है जो उसके खोखलेपन की स्थिति है।
शब्द कोशों तथा संस्कृत शास्त्रों में भी पुंगव का अर्थ - वृष २ ऋष ३औषधि आदि है ।

 
यथा नरः पुङ्गव इव उपमितसमासवाक्यम् । नरपुङ्गव =नरश्रेष्ठार्थ । यहाँ  नरपुङ्गव में उत्तरपद  श्रेष्ठवाचकः । 

जैसे भगवद्गीता के अध्याय प्रथम का पञ्चम् श्लोक

धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान् |पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गव: || 5||

हिन्दी में अनुवाद-
इनके साथ ही धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज, वीर्यवान पुरुजित्, कुन्तिभोज तथा ( नरपुङ्गव=  मनुष्यों में श्रेष्ठ) शैब्य जैसे योद्धा भी हैं ||5||

 गौरतलब है  यहाँ  नरपुङ्गव- का अर्थ है नर-श्रेष्ठ।
अक्सर होता यह  है कि जब समाज अपने आदर्शों को फ़िसलते देखता है तब उस शब्द के मायने भी बदल देता है। इसे अर्थापकर्ष  अथवा अर्थावनति भी कहा जाता है ।

जैसे बुद्ध का मूल अभिधेय अर्थ  =बोधयुक्त अथवा जागा हुआ होता है  " परन्तु उसीसे निकला शब्द "बुद्धू आज विपरीतार्थी मूर्ख या जड़बुद्धि का वाचक हो गया। 

यह सब तब होता है जब शब्दों के धारक अपना आचरण पतित कर लेते हैं।

 तो उनके साथ शब्दों के अर्थ भी पतित हो जाते हैं। 
दिखावटी समाज में जब मूर्ख लोग गाल बजाने लगें, हिटलर जैसे  लोग नायक होने लगें और सन्तों के आचरण न करने वाले  ऐश-ओ आराम की जिन्दगी में केवल (लबादे) पहनावे में ही सन्त दिखने लगे और योैनदुराचार के जुल्म में जेल में भी जाने लगे तब पुंगव का अर्थ पोंगा हो जाता है।

सरल शब्दों में " जिसकी लुंगी उतर कर  पुंगी बज जाय वही पौंगा है।

पुंगव से पहले पोंगा बना फिर पुंगी और पोंगली जैसे शब्द भी बन गए जिसका अर्थ नली, खोखल आदि होता है।

पुंगी एक किस्म की पीपनी को भी कहते हैं।
जिसमें हवा फूँकने से बड़ी तेज पौं पौं की आवाज़ होती है। ये पुरोहित इसी प्रकार विवेक शून्य होकर पौं -पौंकरते रहते हैं।

यह  इस पुँगी शब्द की ध्वनि- अनुकरण मूलक देशी व्युत्पत्ति है। 
आज इतना ही .....

प्रस्तुति करण- यादव
 योगेश कुमार रोहि"
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ईजिप्ट, ग्रीक, रोमन की मायथोलॉजी में वो सब पात्र अौर कहानियाँ पहले से ही मौजुद हैं जो अंग्रेज' संस्कृत की हुई लिपि में ट्रांसलेशन कर करके हिन्दू बता रहे हैं|

ईजिप्ट, ग्रीक, रोमन की मायथोलॉजी में वो सब पात्र अौर कहानियाँ पहले से ही मौजुद हैं जो अंग्रेज' संस्कृत की हुई लिपि में ट्रांसलेशन कर करके  हिन्दू बता रहे हैं|

मतलब यूरोपियन कलाकारों के नाम सम्बन्धित देश की भाषा व कल्चर में बदल कर ,अपनी मायथोलोजिकल कहानियाँ एशियाई देशों  में फिट कर दी है और कर रहे हैं | 

 हालांकि ये सभी सभ्यताएँ आगे चलकर क्रिश्यनिटी में बदल गई थी' लेकिन ये कहानियाँ, घटनायें अौर कलाकार (पात्र) आज भी उनकी संस्कर्ती का हिस्सा हैं|

 इसको  फैलाने के लिये यूरोपियंन  अपने स्थानीय घार्मिक एजेंट ( फ्रीमेशन ) उत्पनं करते हैं और इन्हें स्थानीय सुधारक के रुप में  स्थापित करते  है | इन कहानियों को भिन्न पात्रों से फैलाने वाले कट्टर समूहों को भी  यूरोपियन  का पूरा समर्थन रहता है और आर्थिक सहयोग भी दिया जाता है। 

क्योंकि जिस किसी देश व धर्म में जितना अधिक धार्मिक कट्टरवाद बढेगा' उतनी अराजकता बढेगी और सम्बंधित  देश के नागरिक हर तरह के अत्याधुनिक ज्ञान विज्ञान में पिछडते चले जायेंगे।

स्थानीय भाषा की लिपी अौर व्याकरण  तैयार करने के नाम पर यूरोपियन अपनी धार्मिक कहानियों को स्थानीय साहित्य में फिट कर देते हैं और प्राचीन इतिहास व प्राचीन धर्म के नाम से पढाते लिखाते हैं और ज़िसका प्रचार-प्रसार वे तरह-तरह के तरीकों से करते व करवाते हैं|

 ये कथा-कहाँनिया क्रिश्यनिटी का पूर्व  रुप हैं, इनको विभिन्न स्थानों पर विभिन्न रुप में  फिट करना बताता है कि यूरोपियन कितने कट्टर  धार्मिकता को फैलाने वाले लोग हैं। बस इनके तरीके इतने सोफिस्टीकेट हैं कि लोगों को समझ में ही नही आते हैं। दुनिया के सभी किताब-ग्रंथ श्लोक-सुरा यानि कोड लिपि में लिखे गये हैं।

ये आजके विश्व में सबसे ताकतवर भी हैं, ज़िसकी इच्छा के बिना कुछ भी नही होता है। इसलिये ये अपना काम अपने धार्मिक  एजेंटो से करवाते हैं अौर उनको संरक्षण देते हैं जो इनके  बिना श्रवाईव ही नही कर पाते हैं |

रविवार, 23 अक्टूबर 2022

-मूलरामायणम्-


          "मूलरामायणम्" 

 "सम्पादको जगदानन्द झा संस्कृतस्य व्यारकरणाचार्य एवं प्रख्यातो मनीषी) 

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पदच्छेदः-  तपःस्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् । नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिः मुनिपुङ्गवम् ।। १।।

अन्वयः- तपस्वी वाल्मीकि: तप:स्वाध्यायनिरतं वाग्विदां वरं मुनिपुङ्गवं नारदं परिपप्रच्छ ।। १।।

शब्दार्थ- तपस्वी=तापसः। वाल्मीकिः= वाल्मीकिनामकः महर्षिः। तप:स्वाध्यायनिरतम् = तपस्यावेदाध्ययनासक्तम् । वाग्विदाम् = शब्दब्रह्मतत्त्वविदाम्। वरम् = श्रेष्ठम्। मुनिपुङ्गवम् = ऋषिप्रवरम्। नारदम् = नारदाख्यं ब्रह्मणः मानसपुत्रम्। परिपप्रच्छ = सादरं पृष्टवान्।

भावार्थ - महान् तपस्वी वाल्मीकिः एकदा तपस्यावेदाध्ययनासक्तं शब्दब्रह्मतत्त्वविदां पाणिनिपतञ्जल्यादीनां मध्ये वरं ब्रह्मणः मानसपुत्रं देवर्षिनारदं 'कोन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्इत्यादिवक्ष्यमाणं वचनं विस्तरेणापृच्छत्।

हिन्दी शब्दार्थ - तपस्वी = तापसतपस्या करने वाला । वाल्मीकिः = वल्मीक से उत्पन्न तथा 'प्राचेतसनाम से प्रथित रामायण प्रणेता आदि कवि वाल्मीकि ने । तपः स्वाध्यायनिरतम् = तपस्या तथा स्वाध्याय में तत्पर । वाग्विदां = शब्द वेत्ताओंवाणी-विशेषज्ञों में। वरं = श्रेष्ठ । मुनिपुङ्गवं = मुनि-प्रवर । नारदं = ब्रह्मपुत्र नारद से । परिपप्रच्छ = विस्तारपूर्वक पूछा ।

हिन्दी भावार्थ - तपस्वी वाल्मीकि ने (अपने आश्रम में समागत) तपस्या तथा स्वाध्याय में संलग्नशब्द-वेत्ताओं में उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ मुनि नारद जी से (इस प्रकार) विस्तारपूर्वक पूछा ।

व्याकरण-

(क) कारक-

तपस्वी  तपस्विन्पुंप्रथमाएकवचनम्

वाल्मीकिः - वाल्मीकि, पुंप्रथमाएकवचनम्

तपःस्वाध्यायनिरतम् तपःस्वाध्यायनिरतपुंद्वितीयाएकवचनम्

वाग्विदाम् – वाग्विद्पुंषष्ठीबहुवचनम्

वरम् - वरपुंद्वितीयाएकवचनम्

मुनिपुङ्गवम् – पुनिपुङ्गव, पुंद्वितीयाद्विवचनम्  

नारदम् - नारदपुंद्वितीयाएकवचनम्

परिपप्रच्छ  परि+प्रच्छ् ज्ञीप्सायाम् - तुदादिः + लिट्प्रथमपुरुषःएकवचनम् 

'वाग्विदांवरम्में 'यतश्च निर्धारणेइस पाणिनि सूत्र के द्वारा वैकल्पिक षष्ठी विभक्ति है । 'नारदं परिपप्रच्छमें 'दुह= याच्– पच् -इत्यादि नियम के अनुसार 'परिउपसर्ग-पूर्वक 'प्रच्छ्धातु के योग में 'नारदंपद में द्वितीया एकवचन का प्रयोग हुआ है ।

(ख)सन्धि -

वाक् + विद् = वाग्विद् (जश्त्व सन्धि)

वाल्मीकिर्मुनिपुङ्गवम् = वाल्मीकिस् + मुनिपुङ्गवम् । (विसर्ग)

(ग) समास - 

तपः स्वाध्याय-निरतम् = तपश्च स्वाध्यायश्च तयोः निरतःतम् । (द्वन्द्वष० त० ) । 

वाग्विदाम् = विदन्तीति विदःवाचां विदो वाग्विदःतेषाम् । ष० त० । 

मुनिपुङ्गवम् = मुनिषु पुङ्गवः ( श्रेष्ठः) तम् ( स० त०) ।  

(घ) धातु-प्रत्ययादि पद परिचय

तपस्वी = तपः अस्ति अस्यइति तपस्वीतपस् + विनि (मतुबर्थक) + प्रथमा एकवचन । 

विदाम् = विदन्ति इति विदःतेषाम्विद् + क्विप् = विद् +षष्ठी बहुवचन । 

निरतम् = नि + रम् + क्त= निरत + द्वितीया एकवचन ।

काव्य सौन्दर्य

(क) छन्द-यहाँ अनुष्टुप् छन्द है । 

(ख) अलङ्कार – 'वाग्विदां वरम्में '' 'परिपप्रच्छमें 'तथा अग्रिम पदों में 'की अनेकधा आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है । 

(ग) रस- तपस्वीमुनिस्वाध्यायतप इत्यादि पदों से गम्य 'शान्त रसकी छाया है । 

(घ) कोष- पुङ्गव= 'स्युरुत्तरपदे व्याघ्र-पुङ्गवर्षभ पुंसि श्रेष्ठार्थ-गोचराः ॥' (अमरकोषे ३।१।५६) वर- 'वरः श्रेष्ठे' (इत्यमरः ३।३।१७३) । कुञ्जराः । 

टिप्पणी- परिपप्रच्छ - परि + प्रछँ ज्ञीप्सायाम् - तुदादिः - लिट् लकार परस्मैपद प्रथमपुरूषएकवचन । लिट् लकार का प्रयोग अनद्यतन भूतकाल ( अनद्यतन परोक्ष) में होता है।  यहाँ सहज प्रश्न उठता है कि पूछने रूपी क्रिया अनद्यतन परोक्ष में कैसे हो सकती हैपरिपप्रच्छ यह क्रियापद लिट् लकार का हैजो कि अनद्यतन परोक्ष क्रिया में प्रयोग की जाती है। यहाँ प्रश्न का परोक्षत्व इसलिए दिखाया गया है क्योंकि आगे कहा जाने वाला श्लोक भगवान श्री राम के गुणों के अनुसन्धान से जुड़ा है। 'सुप्तोऽहं किल विललापइस वाक्य की तरह भी यहाँ अनद्यतन परोक्ष का प्रयोग हुआ है। "ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति" इस वाक्य की तरह परिपप्रच्छ में अपना विनय दिखाने के लिए प्रथम पुरुष का निर्देश किया गया हैृ। अपने से अन्यत्व दिखाने  के लिए भी परोक्ष  क्रिया का निर्देश किया गया। अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति से सीधे बात करना अविनय माना जाता है। परिपप्रच्छ परि विशेषेण पृष्टवान्।

तिलक टीका- तपःस्वाध्यायेत्यादि । "श्रुत्वा चैतत्" इत्यन्तेन सम्बन्धः । तपस्त्वेन श्रुतः स्वाध्यायस्तपःस्वाध्यायः । "तपःस्वाध्याय इति ब्राह्मणम्" इत्यापस्तम्बोक्तेः । स्वाध्यायशब्देनाप्रायत्यानध्ययनकालदेशपरिहारादिनियमोपेततया फलवदर्थावबोधपर्यन्तं स्वशाखाध्ययनमुच्यते । तस्मिन्निरतः तदभ्यासनिरत इति यावत् । यत्तु तपश्च स्वाध्यायश्च तपःस्वाध्यायौ तयोर्निरतः । तपःशब्देन चित्तप्रसादहेतुभूतं व्रतनियमादिकर्मोच्यते । यद्वा "यस्य ज्ञानमयं तपः" इति श्रुतेस्तपःशब्देन ब्रह्मविषयज्ञानमुच्यत इतितन्न । तपोविशिष्टपुंविशेषप्रसिद्धमुनिपुङ्गवशब्देनैवोक्ततपःसम्पत्तैः सिद्धत्वादिति कतककृतः । एवं हि तपोरतमित्येव सिद्धे स्वाध्यायपदवैयर्थ्यापत्तिः । तस्मात्तपःशब्देन निदिध्यासनजन्यपरिपाकवद्ब्रह्मज्ञानमुच्यते । मुनिपुङ्गवशब्देन मननजन्यपरिपाकवत्त्वमेवोच्यत इति न तेन गतार्थतेत्यन्ये । वाग्विदां स्वरूपतो ऽर्थतश्च शब्दब्रह्मतत्त्वविदां पाणिनिपतञ्जल्यादीनां मध्ये वरम् श्रेष्ठम् । मुनिशब्द उक्तार्थः । तेषु पुङ्गवम् श्रेष्ठम् । एवं विशिष्टं नारदम् । तपस्वी कृच्छ्रैकादश्युपवासादिलक्षणं मुख्यं तपः, "तपो नानशनात्परम्" इति श्रुतेः स्वाध्यायरूपं च तपःसमनस्केन्द्रियाणामैकाग्र्यरूपं च तपस्तद्वान् । वाल्मीकिर्वल्मीकस्यापत्यम् "वाल्मीकप्रभवो यस्मात्तस्माद्वाल्मीकिरित्यसौ" इति ब्रह्मवैवर्तोक्तेः । वल्मीकप्रभवत्वेन गोणीपुत्रादिवद्गौणस्य वल्मीकापत्यत्वं गृहीत्वेञ् साधुरपत्यार्थः । यद्वा वाल्मीक इति ऋषिविशेषस्य सञ्ज्ञेत्याहुः । नारदं नराणामिदं नारमज्ञानं तद्द्यति खण्डयति ज्ञानोपदेशेनेति नारदः । "गायन्नारायणकथां सदा पापभयापहाम् । नारदो नाशयन्नेति नृणामज्ञानजं तमः" इति नारदीयोक्तेः । तं पप्रच्छेत्वन्वयः । अत्र प्रष्टुरुक्तविशेषणेन दिव्यार्थविषयश्रवणाधिकारसम्पदुक्ता । वक्तुरप्युक्तविशेषणः सार्वज्ञ्यादि प्रतिपादितम् । ग्रहणधारणहेतुशिष्यानुग्रहशक्तिमत्वं च प्रतिपादितम् ।। 1.1.1 ।।

को न्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान् ।

धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः ।। २।।

पदच्छेदः-  नु कः  अस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कः च वीर्यवान् । धर्मज्ञः च कृतज्ञः च सत्यवाक्यः दृढव्रतः ॥ ।। २।।

अन्वयः- साम्प्रतम्‌ अस्मिन्‌ लोके क: नु गुणवान्‌ क: च वीर्यवान्‌ क: धर्मज्ञ: कृतज्ञ: सत्यवाक्य: दृढव्रत: च (अस्ति)

शब्दार्थ - नु = इति वितर्के । साम्प्रतम्= अधुनावर्तमानकाले। अस्मिन् लोके = भूलोके। कः गुणवान् = प्रशस्तबहुगुणवानित्यर्थः। कोऽस्तीत्याह्रियते। कश्च वीर्यवान् = अतिशयपराक्रमवाँश्च कः विद्यते। धर्मज्ञः = धर्मतत्त्ववेत्ता कः वर्तते। कृतज्ञः = कृतं कथंचिज्जातोपकृतिमेव जानाति स्मरति नानन्तरजाताऽपकृतिगुणं जानातीति। सत्यवाक्यः = सत्यवचनः। दृढव्रतश्च = निश्चलसंकल्पश्चएकपत्न्यादि विषयकदृढव्रतवाँश्च। कः = कतमः पुरुषः। दृढव्रतः = परिगृहीतव्रतविशेषः वर्तते

भावार्थः- महर्षिः वाल्मीकिः देवर्षिनारदम् अपृच्छत् यत् अस्मिन् लोके सम्प्रति सद्गुणमण्डितः पराक्रमशाली धर्मरहस्यवेत्ता उपकारज्ञः सत्यवचश्च कः पुरुषोऽस्तीति?

हिन्दी शब्दार्थ - नु = वितर्क के अर्थ को सूचित करने वाला अव्यय-पद । कः = कौन । साम्प्रतम् = इस समय । अस्मिन् लोके = इस लोक (मर्त्य-लोक) में । गुणवान् = प्रशंसनीय गुणों से सम्पन्न । कः = कौन (है) । वीर्य्यवान् = बलवान्पराक्रमी । धर्म्मज्ञः = धर्म के तत्त्व को जानने वाला । कृतज्ञः = दूसरों के द्वारा किये गये कार्य (के श्रम या मूल्य) को जानने वाला । सत्यवाक्यः = सत्य वचनों वालासत्य बोलने वाला । दृढव्रतः = दृढ संकल्प वालादृढतापूर्वक नियम पालन करने वाला ।

हिन्दी भावार्थ - वितर्क है कि इस समय (वर्तमान काल में) इस लोक (मर्त्य लोक) में कौन महापुरुष प्रशस्त गुणों से सम्पन्नमहनीय शक्तिशालीधर्म (के गूढ तत्त्वों) का ज्ञाताकृतज्ञता स्वीकार करने वालासत्य (अमोघ) वचनों वाला तथा दृढ संकल्पों (या नियमों) से युक्त है 

व्याकरण-

(क) कारक-

साम्प्रतम् – अव्ययम्

अस्मिन् – इदम्सर्वनामपुंसप्तमीएकवचनम्

लोके - लोकपुंसप्तमीएकवचनम्

कः- किम्- सर्वनामपु.प्रथमाएकवचनम्  

नु - अव्ययम्

गुणवान् – गुणवत्- पुंप्रथमाएकवचनम्

वीर्यवान् वीर्यवत् - पुंप्रथमाएकवचनम्  (अस्ति)

धर्मज्ञःकृतज्ञःसत्यवाक्यःदृढव्रतः - धर्मज्ञकृतज्ञसत्यवाक्यदृढव्रत- पुं.प्रथमाएकवचनम्

च – अव्ययम् (अस्ति)

(ख) सन्धि- 

न्वस्मिन् = नु + अस्मिन् (यण् सन्धि ) । 

कश्च = कः + च (विसर्ग सन्धि,, श्चुत्व सन्धि ) । विसर्जनीयस्य सः, स्‍तोः श्‍चुना श्‍चुः। 

धर्मज्ञश्च धर्मज्ञः + च (विसर्ग सन्धि, श्चुत्व सन्धि ) । विसर्जनीयस्य सः,  स्‍तोः श्‍चुना श्‍चुः। 

कृतज्ञश्च = कृतज्ञः + च (विसर्ग सन्धि, श्चुत्व सन्धि ) । विसर्जनीयस्य सः, स्‍तोः श्‍चुना श्‍चुः, । 

सत्यवाक्यो दृढव्रतः = सत्यवाक्यः + दृढव्रतः (विसर्ग सन्धि ) । विसर्जनीयस्य सः, हशि च

(ग) समास - 

धर्मज्ञः = 'धर्म जानातिइति धर्मज्ञः (धर्म-इस उपपद के - = साथ 'ज्ञाधातु में 'उपपदमतिङ्इस पा० सू० से उपपद तत्पुरुष समास है ।

कृतज्ञः = कृतं (कर्म) जानाति इति कृतज्ञः (उपपद तत्पुरुष) ।

सत्य-वाक्यः = सत्यं वाक्यं यस्य सः (बहुव्रीहि समास) । 

दृढव्रतः = दृढ व्रतं यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः  

गुणवान् = प्रशस्ता गुणाः सन्ति अस्यअस्मिन् वा । गुण + मतुप् (प्रशंसार्थक) + प्रथमा एकवचन ।

वीर्यवान् = प्रशस्तं वीर्य्यम् अस्ति अस्यअस्मिन् वा । वीर्य्य + मतुप् (प्रशंसार्थक) = वीर्य्यवत् + प्रथमा एकवचन ।

धर्मज्ञः = धर्म + √ज्ञा + क = धर्मज्ञ + प्रथमा एकवचन । 

कृतज्ञ: = कृत + √ज्ञा + क = कृतज्ञ + प्रथमा एकवचन ।

दृढ दृहि (दृंह) + क्त ('दृढः स्थूलबलयोः) इस पा० सू० से 'दृ'के न् तथा ह् का लोप एवं क्त के 'को 'हो जाता है (निपातनात्) ।

काव्यसौन्दर्य-

(क) छन्द - प्रस्तुत पद्य 'अनुष्टुप् छन्द में है ।

(ख) अलङ्कार  वर्णों की आवृत्ति के कारण 'अनुप्रासहै । एक ही व्यक्ति में अपेक्षित गुणों का वर्णन होने से 'भाविकअलंकार है ।

(ग) रस  धीरोदात्तनायकोचित सद्गुण-गुम्फित विशेषणों से 'वीररसकी व्यञ्जना प्रस्फुटित है।

(घ) कोष:

साम्प्रतम् = 'एतर्हि सम्प्रतीदानीमधुना साम्प्रतं तथा' (इत्यमरः ३।४।२३) ।

व्रत 'नियमो व्रतम्इत्यमरः २।७।३७ ।

नु = नु इच्छायां विकल्पे च'(इत्यमरः३।३।२४८ ) 

टिप्पणी – आदि कवि वाल्मीकि ने 'गुणवान्इस सामान्य विशेषण की व्याख्या में ही वीर्य्यवान्धर्मज्ञ आदि पदों को प्रयुक्त किया हैं अर्थात् गुणी वही हैजिसमें वीर्य्यंधर्मकृतज्ञतासत्य वचन तथा दृढ नियम (संकल्प) का मञ्जुल सामञ्जस्य हो ।

तिलक टीका- अथ प्रश्नमभिनयति को न्विति । नुशब्दो वितर्के । साम्प्रतं वर्तमानकाले ऽस्मिँल्लोके भूलक्षणे को नु गुणवान् । प्रशस्तबहुगुणवानित्यर्थः । भूमप्रंशसादौ मतुप् । अस्यैव प्रपञ्चः कश्च वीर्यवानित्यादि । दिव्यास्त्रबलादिजशक्तिविशेषेण पराभिभवसामर्थ्यं वीर्यं तद्वान् । कश्च श्रौतस्मार्तसकलधर्मरहस्यज्ञः । बह्वीमप्यकृतिमुपेक्ष्यैकामप्युपकृतिं बह्वीं मन्यत इति कृतज्ञः । सत्यवाक्यः सर्वावस्थास्वपि यथाश्रुतदृष्टतत्त्वार्थवक्ता । दृढव्रतः आपद्यपि धर्माय परिगृहीतव्रतविशेषस्य त्यागरहितः ।। 1.1.2 ।।


चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः ।

विद्वान्कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः ।। ३।।

पदच्छेदः - चारित्रेण च कः युक्तः सर्वभूतेषु कः हितः । विद्वान् कः कः समर्थः च कः च एकप्रियदर्शनः ।। ३।।

अन्वयः-  कः च चारित्रेण युक्तः (अस्ति) कः च सर्वभूतेषु हितः (अस्ति)कः विद्वान् (अस्ति)कः च समर्थः (अस्ति)एक-प्रियदर्शनः च कः (अस्ति) 

शब्दार्थ - (अधुना) कः= कतमः पुरुषः।  = अपि । चारित्रेण = चरित्रगुणेन । युक्तः = सम्पन्नः (अस्ति) ।   कः = कतमः जनः।  = अपि । सर्वभूतेषु = सकलजीवेषु च। हितः = हितकारकः (अस्ति) । कः = कतमः जनः। विद्वान् = ज्ञानवान् (अस्ति) । कः = कतमः पुरुषः ।  = अपि । समर्थः = सम्पूर्णकृत्यकरणक्षमः । एकप्रियदर्शनः च = अपूर्वप्रियदर्शनविषयीभूतश्च। कः = कः जनः वर्तते 

भावार्थ --  चरित्रस्य गुणेन युक्तः कः अस्तिसर्वेषां भूतानां हितकारकः अस्ति कः सकलपदार्थतत्त्वज्ञः कः समर्थः कः सर्वान्  अस्ति? अथवा एकं प्रति प्रियं दर्शनं यस्यासौ एकप्रियदर्शनः।

हिन्दी शब्दार्थ -  कः = कौन । चारित्रेण = चरित्र सेसदाचार से । युक्तः = सम्पन्न (है)। कः च = और कौन । सर्वभूतेषु = समस्त प्राणियों (के बारे) में। हितः = हितकारकहितचिन्तक (है)। विद्वान् = शास्त्रों को जानने वाला । कः = कौन । च = और । समर्थः = किसी भी कार्य को करनेन करने तथा अन्य रूप में डाल देने में जो निपुण हो। एक-प्रियदर्शनः = विलक्षण प्रिय स्वरूप वाला ।

हिन्दी भावार्थ - (वाल्मीकि जी नारद जी से पूछते हुए अपने प्रश्न को आगे बढ़ाते हैं कि) कौन महापुरुष प्रशस्त चरित्र से युक्त है तथा कौन समस्त प्राणियों का हितकारक, (कर्तव्याकर्तव्य का) विवेक रखने वालासर्व-समर्थ एवं लोकोत्तर प्रिय स्वरूप वाला है ?

व्याकरण- 

(क) कारक-

 च – अव्ययम्

चारित्रेण – चारित्र, नपुं., तृतीयाएकवचनम्

कः- किम्- सर्वनामपुं.प्रथमाएकवचनम्  

युक्तः - युक्त- पुंप्रथमाएकवचनम्

सर्वभूतेषु – सर्वभूत- पुंसप्तमीबहुवचनम्

हितः हित - पुंप्रथमाएकवचनम् 

विद्वान् -विद्वस् - पुंप्रथमाएकवचनम् 

'सर्वभूतेषु' में 'सप्तम्यधिकरणे चसे वैषयिक आधार के कारण सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त है। अर्थ हुआ- समस्त प्राणियों के विषय में।

(ख)सन्धि

समर्थश्च = समर्थः + च (श्चुत्व सन्धि) ।

कश्चैकप्रियदर्शनः = कः + च = कश्च (श्चुत्व) + एकप्रियदर्शन: (अ + ए = ऐ वृद्धि सन्धि ) ।

(ग)समास- 

सर्वभूतेषु - सर्वे च ते भूताःतेषु (कर्म० त०) । 

एकप्रियदर्शनः - प्रियं दर्शनं यस्य सः प्रियदर्शन: (बहुव्रीहि समास)एकश्चासौ प्रिय दर्शनश्च एकप्रियदर्शन: (कर्म० त०) । =

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः  

चारित्रेण -चरित्रम् एव चारित्रम्तेन । चरित्र + अण् ('प्रज्ञादिभ्योऽण्इस पा० सू० से स्वार्थ में अण्) चारित्र + तृतीया एकवचन

युक्तः - √युजिर् (युज्) + क्त + प्रथमा एकवचन ।

हितः = √ धा + क्त (दधातेर्हि: इस पा० सू० से 'धाको हि आदेश हित + प्रथमा, एकवचन । अथवा – 'हिगतौ + क्त= हित + प्र० एकवचन अथवा हितमस्ति अस्येति हितः । 

हित + अच् (मतुबर्थक) = हित + प्रथमा, एकवचन, पुं० ।

काव्य सौन्दर्य

छन्द-  यह श्लोक अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध है। 

तिलक टीका- चारित्रेणेति । चरित्रमेव चारित्रम् । स्वार्थिकोऽण् । वृत्तसम्पदनेनोच्यते । सर्वभूतेषु सर्वप्राणिषु मध्ये कः पुमान्हितः । ऐहिकामुष्मिकहितवहो ऽशत्रुभ्यः । यत्तु सर्वप्राणिषु सापराधिष्वपि हितकरणशील इति व्याचक्षते तत्तु हितयोगे चतुर्थ्यापत्तेरयुक्तम् । विद्वानात्मानात्मसकलपदार्थतत्त्वज्ञः । समर्थो लौकिकव्यवहारे प्रजारञ्जनादौ चातुर्यं सामर्थ्यं तद्वान् । कामाधिकसौन्दर्यवत्त्वेन नित्यसुखरूपत्वेन चैकप्रियं केवलप्रियं दुःखासम्भिन्नप्रियत्ववद्दर्शनं यस्य सः । यत्त्वेकं प्रति प्रियं दर्शनं यस्येति तदयुक्तम्सर्वप्रियत्वस्य प्रतिपादनात् । एको ऽद्वितीयः स चासौ प्रियदर्शनश्चेत्यर्थ इति तीर्थः ।। 1.1.3 ।।

आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोऽनसूयकः

कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ।। ४।।

पदच्छेदः - आत्मवान् कः जितक्रोधः द्युतिमान् कः अनसूयकः । कस्य बिभ्यति देवाः च जातरोषस्य संयुगे ।। ४।।

अन्वयः - कः आत्मवान् (अस्ति)कः जितक्रोधः (अस्ति)कः द्युतिमान् अनसूयकः ( च अस्ति) । संयुगे कस्य जातरोषस्य (समक्षं) देवाश्च बिभ्यति ?

शब्दार्थ - कः = कतमः पुरुषः। आत्मवान् = धैर्यवान्वशीकृतान्तःकरणः। कः = कतमः पुरुषः।  जितक्रोधः = सापराधेष्वपि प्राणिषु अपेतक्रोधः कः । कः = कतमः ? द्युतिमान् = शोभावान्  अनसूयकः = परदोषोद्घाटनरहितःगुणेषु दोषाविष्करणरहितः । संयुगे = युद्धे । कस्य = जनस्य। जातरोषस्य = विहितक्रोधस्य । देवाः= अमरादयःचकारात् अन्ये असुरादयः । बिभ्यति = भयं प्राप्नुवन्तिभीतिं लभन्ते।

भावार्थ:- आदिकविः वाल्मीकिः नारदम् अपृच्छत् यत् लोकेऽस्मिन् कः एतादृशः अस्ति यः खलु सापराधेष्वपि प्राणिषु अपेतक्रोधःधृतिमान्परदोषोद्घाटनरहितः गुणेषु दोषाविष्करणरहितःकान्तिमान्युद्धकाले स्वीकृतकोपाभासस्य इन्द्रादयो देवाः असुराश्च भीतिं लभन्ते ।

हिन्दी शब्दार्थ - कः = कौन । आत्मवान् = आत्मा के स्वभाव से युक्त (है), पदार्थ के विना इस अस्तित्व में स्वयं के अस्तित्व को स्थापित रखने वाला । जित-क्रोधः = जिसने क्रोध को जीत अर्थात् अपने वश में कर लिया है। द्युतिमान् = प्रभायुक्तकान्तिशाली । अनसूयकः = दूसरे के गुण में दोष नहीं निकालने वाला, जलनईर्ष्या नहीं करने वाला। संयुगे = युद्ध में । कस्य = किसके। जातरोषस्य (समक्षम्) = क्रोध उत्पन्न हो जाने पर । देवाश्च = देवगण भी । बिभ्यति - डर जाते हैं ।

हिन्दी भावार्थ - कौन आत्मा के स्वभाव से युक्त (है)?  कौन क्रोध-विजेतापरम कान्तिशाली तथा दूसरे के गुण में दोष निकालने से रहित वाला अर्थात् सर्व-सहिष्णु है युद्ध में उत्पन्न क्रोध वाले किस (अप्रतिम योद्धा) के समक्ष देवता लोग भी भयभीत हो जाते हैं ?

व्याकरण-

(क) कारक – 

आत्मवान् – आत्मवत्- पुंप्रथमाएकवचनम्

द्युतिमान् - द्युतिमत्- पुंप्रथमाएकवचनम्

कस्य - किम्- सर्वनामपुषष्ठीएकवचनम्

जातरोषस्य - जातरोष, पुषष्ठीएकवचनम्

संयुगे संयुगपुषष्ठीएकवचनम्

'कस्य जातरोषस्य देवाश्च बिभ्यतिइस वाक्य में भयार्थक 'भीधातु के प्रयोग (बिभ्यति) को देखते हुए 'कस्य जातरोषस्यइन दोनों पदों में षष्ठी विभक्ति अनुपपन्न प्रतीत होती हैक्योंकि यहाँ तो 'भीत्रार्थानां भयहेतुःइस सूत्र से पञ्चमी होने पर 'कस्माद् जातरोषाद् (वै)ऐसा होना चाहिए था। षष्ठी-प्रयोग के समर्थन में हम कह सकते हैं कि १. आर्षत्वात् पंचमी न होकर षष्ठी ही हुई है ।

२. 'कस्य जातरोषस्यके आगे 'समक्षम्पद का अध्याहार कर लेने पर षष्ठी प्रयोग भी उपपन्न हो जाता है। आर्ष ग्रन्थों में ऐसे प्रयोग बहुशः प्राप्य हैं ।

(ख) सन्धि 

कोऽनसूयक: = कः + अनसूयकः (विसर्गसन्धि )

देवाश्च  देवाः + च (श्चुत्वविसर्ग सन्धि ) । 

(ग) समास- 

जितक्रोधः = जितः क्रोध: येन सः (बहुब्रीहि ।

अनसूयकः = असूयति इति असूयकःन असूयकः = अनसूयकः (नञ् त०)

जातरोषस्य- जातः रोषो यस्य सः (बहुब्रीहि) ।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः   –

आत्मवान् = प्रशस्त आत्मा अस्ति अस्य । आत्मन् + मतुप् (प्रशंसार्थक) = आत्मवत् + प्र० एकवचन, पुं० ।

द्युतिमान् = द्युति + मतुप् = द्युतिमत् +  प्रथमा एकवचनपुं० ।

बिभ्यति भी + लट्प्रथम पु० बहुवचन

काव्य सौन्दर्य

छन्द  इस पद्य में अनुष्टुप् छन्द प्रयुक्त है। 

(ख) अलङ्कार  '' 'आदि वर्णों की आवृत्ति से अनुप्रासालंकार है। एक ही महापुरुष में अन्वेष्टव्य गुणों की विवेचना के कारण "भाविकअलङ्कार भी है।

(ग) रस - पद्य के पूर्वार्ध-भाग में 'शान्तरसहै । उत्तरार्ध-भाग में संयुगेरोषस्यबिभ्यति पदों के द्वारा परिपोषित 'रौद्ररस अङ्गी है तथा अङ्ग रूप में 'भयानक रसभी उन्मीलित है ।

(घ) कोष-

आत्मा = 'आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्ष्म चइत्यमरः ३।३।१०६ । "आत्मा कलेवरे यत्ने स्वभावे परमात्मनि इति च कोषान्तरम् ।

असूया - 'असूया तु दोषारोपो गुणेष्वपि इत्यमरः १।७।२४ ।

साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने धृष्टता के कारण गुणी जनों के गुणों में बलात् दोष निकालने को 'असूयाकहा है: - 'असूयाऽन्यगुणर्द्धनामौद्धत्यादसहिष्णुता ।' (साहित्य-दर्पण ३।१६६) ।

संयुग  सम्प्रहाराभिसम्पात-कलि-संस्फोट-संयुगाःइत्यमरः २।८।१०५ ।

टिप्पणी- इस श्लोक में 'जितक्रोधःतथा 'जातरोषस्य' इन दो परस्पर विरुद्ध स्वभाव का एक व्यक्ति में अन्वेषण किया जा रहा है। इसका आशय यह है कि महापुरुष लोग सामान्य जीवन-क्षणों में क्रोध-हीनसहिष्णुप्रसन्नचित्त तथा शान्त-मानस रहते हैंकिन्तु विषम परिस्थिति होने पर जब शान्ति के आलम्बन से कार्य सिद्धि असम्भव हो जाती है तो वे हो शान्त महापुरुषसमुद्र की ज्वार भाटा की भाँतिसमयोचित क्रोध धारण कर लेते हैंजिनके क्रोध को देख कर देव-गण भी भयभीत हो जाते हैं ! ।

तिलक टीका-  आत्मवानिति । वशीकृतान्तःकरण इत्यर्थः । जितक्रौधो निन्दाहिंसादिजनकचित्तवृत्तिविशेषरहितः । क्रोधो ऽत्र कामादीनामप्युपलक्षणम् । द्युतिः सर्वलोकस्य दिदृक्षाजनको देहकान्तिविशेषस्तद्वान् । अनसूयको विद्यैश्वर्यादितपःसुपरौन्नत्यासहनमसूया तद्रहितः । असूयतेः कण्ड्वादियङन्तादुपतापार्थाण्ण्वुल् । संयुगे युद्धकाले जातरोषस्य कस्य रोषाद्देवाश्च देवा अपीन्द्रादयो ऽपि अपिना असुराश्च बिभ्यति अतिबलवतो ऽस्मानप्यस्य क्रोधः संहरिष्यतीति भयं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । कस्येति सम्बन्धसामान्ये षष्ठीत्यन्ये । कस्य संयुगे कस्माद्बिभ्यतीति तीर्थः ।। 1.1.4 ।।


एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे ।

महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम् ।। ५।।

पदच्छेदः - एतद् इच्छामि अहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे।  महर्षे त्वं समर्थः असि ज्ञातुम्  एवंविधं नरम् ।। ५।।

अन्वयः- हे महर्षे ! अहम् एतत् श्रोतुम् इच्छामि हि मे परं कौतूहलं (वर्तते) त्वम् एवंविधं नरं ज्ञातुं समर्थः असि ।।

शब्दार्थ - हे महर्षे = हे नारदमुने । अहम् = वाल्मीकिः मुनिः । एतत् = पूर्वोक्तलक्षणसम्पन्नं पुरुषम्। या जिज्ञासा मया कृता तस्मिन् विषये। श्रोतुम् = आकर्णयितुम्। इच्छामि = अभिलषामि। हि = यतः। मे = मम वाल्मीकिमुनेः। परम् = नितराम्। कौतूहलम् = कौतुकम् (वर्तते)। त्वम् = भवान्। एवंविधम् = उक्तगुणवन्तम्। नरम् = पुरुषम् । ज्ञातुम् = बोद्धुम् । समर्थः = क्षमः। असि = वर्तसे।

भावार्थ:- महर्षिः वाल्मीकिः देवर्षिनारदमुवाच यदहं सर्वविधसर्वोत्तमगुणगणोपेतं पुरुषं ज्ञातुमभिलषामि यतोहि भवान् एतादृशं जनं ज्ञातुं समर्थोऽस्ति। येन एतत् श्रोतुं मे उत्कटाभिलाषा जागर्ति।

हिन्दी शब्दार्थ - हे महर्षे = हे महामुने ! अहं = मैं बाल्मीकि । एतत् = पूर्वोक्त प्रश्नों का उत्तर । श्रोतुम् = सुनने को। इच्छामि =इच्छा करता हूँ। हि- यतःक्योंकि (अव्यय) । मे = मममेरे (मन में) । परं = अत्यधिक । कौतूहलं = जिज्ञासा है । त्वम् = तुम। एवंविधं = इस प्रकार के । नरं = मनुष्य को। ज्ञातुं = जानने के लिए। समर्थः = सामर्थ्यशाली । असि = हो ।

हिन्दी भावार्थ - हे महान् ऋषि नारद ! मैं वाल्मीकि उक्त गुणों से युक्त महापुरुष के बारे में आप से सुनना चाहता हूँक्योंकि मेरे (मन में) अत्यधिक जिज्ञासा है। आप इस प्रकार के (उक्त-विशेषताओं से युक्त) मानव को जानने में समर्थ हैं।

व्याकरण-

(क) कारक-

महर्षे ! - महर्षि-  पुंसम्बोधनएकवचनम्

अहम् - अस्मद्- सर्वनाम, पुंप्रथमाएकवचनम्

एतत् - एतद् - सर्वनाम, नपुंप्रथमाएकवचनम्

प्रथमा                एतत् / एतद्                               एते                   एतानि

द्वितीया             एनत् / एनद् / एतत् / एतद्           एने / एते            एनानि / एतानि

मे - अस्मद्- सर्वनाम, षष्ठीएकवचनम्


परम् - परम् - अव्यय।  १ नियोगे २ क्षेपे ३ केवले च मेदि० । ४ पश्चादर्थे च ।

कौतूहलं - कौतूहल - पुंप्रथमाएकवचनम्

त्वम् - युष्मद्- सर्वनाम, प्रथमा, एकवचनम्

युष्मद् शब्द रूप

                        एकवचन                  द्विवचन                                      बहुवचन

प्रथमा               त्वम्                              युवाम्                                       यूयम्

द्वितीया            त्वाम् / त्वा                     युवाम् / वाम्                              युष्मान् / वः

तृतीया             त्वया                             युवाभ्याम्                                  युष्माभिः

चतुर्थी              तुभ्यम् / ते                      युवाभ्याम् / वाम्                         युष्मभ्यम् / वः

पञ्चमी              त्वत् / त्वद्                     युवाभ्याम्                                  युष्मत् / युष्मद्

षष्ठी                 तव / ते                          युवयोः / वाम्                             युष्माकम् / वः

सप्तमी              त्वयि                             युवयोः                                      युष्मासु

एवंविधं - एवंविध- पुंद्वितीयाएकवचनम्

नरं - नृ / नर - पुंद्वितीयाएकवचनम्

(ख) सन्धि

एतदिच्छाम्यहम् = एतत् + इच्छामि= एतदिच्छामि ( जश्त्व) + अहम् = एतदिच्छाम्यहम् (यण् सन्धि ) ।

समर्थोऽसि = समर्थस् + असि (विसर्ग) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

श्रोतुम्=  श्रु+तुमुन् (तुम्) = श्रोतुम् 'अव्ययपद है। तुमुन् प्रत्ययान्त शब्द अव्यय होते हैं।

ज्ञातुम् = ज्ञा + तुमुन् (तुम्) = ज्ञातुम् 'अव्ययपद है।

कौतूहलम् = कुतूहलम् एव कौतुहलम् । कुतूहल + अण् (स्वार्थ) + नपुं० प्रथमा एकवचन ।

काव्य सौन्दर्य

(क) छन्द - यहाँ अनुष्टुप् छन्द हैइसे ही श्लोकछन्द भी कहते हैं।

(ख) अलंकार- अनुप्रास अलंकार है।

(ग) रस- अद्भुत एवं शान्तरस है ।

(घ) कोष- कौतूहल- कौतूहलं कौतुकं च कुतुकं च कुतूहलम् । इत्यमरः 

कौतूहल- प्रशस्ते ३ अद्भुते च त्रि० हेमचन्द्र।

परम् -  १ नियोगे २ क्षेपे ३ केबले च मेदि० । ४ पश्चादर्थे च ।

टिप्पणी - यहाँ वाल्मीकि नारद से श्लोक सं० २,३ तथा ४ में पूछे महापुरुष के बारे में उत्कट उत्कण्ठा व्यक्त कर रहे है। 

तिलक टीका- एतदित्युक्तगुणसामान्यापेक्षया नपुंसकम् । एतद्दिव्यपुरुषगुणजातं कस्यास्तीति श्रोतुमहमिच्छामि । उक्तगुणसामग्र्यस्यैकत्र दुर्लभत्वात्तादृशपुरुषविशेषज्ञाने मे परं सर्वस्मादपि कौतुकान्तरादुत्कटं कौतुकं वर्तते । नन्वेवंविधनरो मयापि दुर्ज्ञेयो नेत्याह हि यतो महर्षे अपरोक्षीकृताशेषार्थ त्वमेवंविधमुक्तगुणवन्तं नरं दिव्यपुरुषं ज्ञातुं समर्थो ऽसि सर्वलोकप्रसिद्धसामर्थ्यो ऽसि । तस्मात्त्वत्त एव श्रोतुमिच्छामीति पूर्वेण सम्बन्धः ।। 1.1.5 ।।

श्रुत्वा चैतत्त्रिलोकज्ञो वाल्मीकेर्नारदो वचः ।

श्रूयतामिति चामन्त्र्य प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत् ।। ६।।

पदच्छेदः - श्रुत्वा च एतत् त्रिलोकज्ञः वाल्मीकेः नारदः वचः । श्रूयताम् इति च आमन्त्र्य प्रहृष्टः वाक्यम् अब्रवीत् ।। ६।।

अन्वयः - त्रिलोकज्ञः नारद: वाल्मीके: एतत् वचः श्रुत्वा 'श्रूयताम्इति च आमन्त्यप्रहृष्टः च (सन्) (अग्रिमं) वाक्यम् अब्रवीत् ।

शब्दार्थ - त्रिलोकज्ञः = भूर्भुवःस्वर्लोकज्ञः। नारदः= देवर्षिनारदः। वाल्मीकेः = वाल्मीकिमहर्षेः। एतत् = इदम्। वचः = वचनम्। श्रुत्वा = आकर्ण्य। (हे महर्षे!) श्रूयताम् = आकर्ण्यताम्। इति = इत्थम्। च = अपि ।  आमन्त्र्य = आहूय। प्रहृष्टः = अतिहर्षविशिष्टः। (सन्) (अग्रिमं)  वाक्यम् = वक्ष्यमाणं वचनम्। अब्रवीत् = अकथयत्।

भावार्थः- भूर्भुवःस्वर्लोकसमाचारज्ञः देवर्षिनारदः महर्षेः वाल्मीकेः इदं वचनमाकर्ण्य श्रूयतामिति तं प्रश्नकर्तारं प्रशस्य एकाग्रतासिद्धये ऽभिमुखीकृत्य अतिप्रसन्नः सन् वक्ष्यमाणमिदं वाक्यमब्रवीत्।

हिन्दी शब्दार्थ - त्रिलोकज्ञः = तीनों लोकों का ज्ञाता। नारदः = ब्रह्मा के मानस-पुत्र महाज्ञानी देवर्षि नारद ने । वाल्मीके: = बाल्मीकि के। एतत् = इसपूर्वोक्त । वचः = वचन को । श्रुत्वा = सुन कर।  'श्रूयताम्' = 'सुनिए। इति = इस प्रकार ।  = और । आमन्त्र्य = सत्कार पूर्वक सुनने को बुलाकर । प्रहृष्टः च (सन्) = और प्रसन्न होते हुए। वाक्यम् = वाक्य को । अब्रवीत् = कहा ।

हिन्दी भावार्थ - तीनों लोकों के ज्ञाता देवर्षि नारद ने महर्षि वाल्मीकि के इस पूर्वोक्त वचन को सुनकर तथा पूछे गये महापुरुष के बारे में 'सुनियेइस प्रकार ससम्मान सम्बोधित करके और प्रसन्न होते हुए इस वाक्य को कहा।

व्याकरण-

(क)

वचः-  वचस् (नपुंसकलिंग) द्वितीया, एकवचनम्

(ख) सन्धि

चैतत् - च + एतत् (वृद्धि सन्धि) ।

चामन्त्र्य- च + आमन्त्र्य (दीर्घ सन्धि) ।

(ग) समास

त्रिलोकज्ञः- त्रयश्च ते लोकाः त्रिलोका: (कर्मधारय)तान् जानातिइति त्रिलोकज्ञः ।

(ङ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

त्रिलोकज्ञः- त्रिलोक + √ ज्ञा + क = त्रिलोकज्ञ, पुं० प्रथमा एकवचन ।

श्रुत्वा√ श्रु+ क्त्वा । 

वाल्मीके: = वल्मीके भवःवल्मीकस्य अपत्यं पुमान् वा वाल्मीकिःतस्य । वल्मीक + इञ् = वाल्मीकि + षष्ठी, एकवचन ।

नारदः- नराणाम् इदं नारम् अथवा नरेभ्यो हितं नारम् मानवोपयोगि ज्ञानं ददाति इति नारदः = नार + दा + क = नारद (उपपद त०) + पृ० प्र० एकवचन । नर + अण् =नार । अथवा नारम् = मानवानाम् अन्तनिगूढम् अज्ञानंयति (खण्डयति) इति नारदः = नार + दो अवखण्डने + अच् (पचादेराकृतिगणदात्) नारद + पुं० प्र० एकवचन । 

अब्रवीत् = ब्रु + लुङ् + प्र० पु० एकवचन ।

काव्य सौन्दर्य

(क) छन्द - यहाँ अनुष्टुप् छन्द है।

(ख) अलङ्कार- अंतिम चरण में अनुप्रास अलंकार है।

(ग) कोष-:- वचः = 'भाषितं वचनं वचःइत्यमरः १।६।१ । 

वचस् - न० वचम्रसुन् । वाक्ये वाक्पदार्थे अमरकोषः ।

तिलक टीका- श्रुत्वेति । एतदुक्तप्रश्नजातम् । त्रिलोकज्ञः भूर्भुवःस्वर्लोकलक्षणांस्त्र्यवयवलोकांस्तत्रत्यवृत्तान्तं जानातीत्यर्थः । एवं च द्विगुत्वाभावान्न ङीप् । नारदो वाल्मीकेरेतद्वचः श्रुत्वा श्रूयतामिति चामन्त्र्यैकाग्र्यसिद्धये ऽभिमुखीकृत्य स्वगतस्यार्थस्य चिरं प्रतिपिपादयिषितस्य जिज्ञासुलाभेन प्रहृष्टो भूत्वा वक्ष्यमाणं वाक्यमब्रवीत् ।। 1.1.6 ।।

बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः ।

मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः ।। ७।।

पदच्छेद- बहवः दुर्लभाः च एव ये त्वया कीर्तिताः गुणाः । मुने वक्ष्यामि अहं बुद्ध्वा तैः युक्तः श्रूयतां नरः ।। ७।।

अन्वयः- मुने ! (यद्यपि) त्वया ये बहवः गुणाः कीर्तिताः, (ते) दुर्लभाः च एव (सन्तितथापि) अहं (तान्) बुद्ध्वा वक्ष्यामितैः युक्तः नरः (त्वया) श्रूयताम् । 

शब्दार्थ- हे मुने = हे महर्षे! त्वया = भवता। ये = पूर्वकथिताः । बहवः = असंख्यकाः। गुणाः = शौर्यौदार्यगाम्भीरादयः गुणाः। कीर्तिताः= कथिताः। (ते) दुर्लभाः = लब्धुमशक्याःअसंभाविताः। च = अपि। एव (सन्तितथापि) । अहम् = देवर्षिः नारदः। (तान्) । बुद्ध्वा = ज्ञात्वा। वक्ष्यामि= (त्वाम्) कथयामि ।   तैः= पूर्वोक्तैः गुणैः। युक्तः= समन्वितः। नरः = पुरुषः। (त्वया)  श्रूयताम् = आकर्ण्यताम्।

भावार्थः- देवर्षिः नारदः वाल्मीकिमुनिं सम्बोधयन् तमाह यत् ये खलु दुर्लभाः असंख्यकाः शौर्यौदार्यगाम्भीरादयः गुणाः भवद्भिः उक्ताः ते गुणाः दुर्लभाः सन्ति। अहं तथाविधं नरं ज्ञात्वा भवन्तं कथयामि। तैः महनीयैः गुणैः समन्वितः पुरुषः त्वया निशम्यताम्।

हिन्दी शब्दार्थ- हे मुने = हे महर्षे! त्वया = आपके द्वारा। ये = पूर्व में कह गये । बहवः = असंख्यक, अगणित। गुणाः = शौर्य, उदारता, गम्भीरता आदि गुण। कीर्तिताः= कहा। (ते- वे) दुर्लभाः = दुर्लभ है।  च = और। एव (ही हैं) । अर्थात् एक ही प्राणी में ये समस्त गुण प्राप्त होना असंभव हैं। अहम् = मैं देवर्षि नारद । (तान्- उन गुणों को) । बुद्ध्वा = जानकर। वक्ष्यामि= (त्वाम्- आपको) कहूँगा ।   तैः= पूर्वोक्त गुणों से। युक्तः= समन्वित, संयुक्त। नरः = पुरुष। (त्वया – आपके द्वारा)  श्रूयताम् = सुना जाय।

हिन्दी भावार्थ - नारद जी ने कहा कि हे मुनिवर वाल्मीकि जी ! आपने जिन बहुसंख्य गुणों का वर्णन किया हैवे (एक ही महापुरुष में) प्राय: दुर्लभ ही हैंतथापि मैं उन गुणों को जानकर बताऊँगा । (अब आप) उन दुर्लभ गुणों से युक्त महामानव के बारे में (मुझसे) सुनें ।

(क) कारक

मुने - मुनि-  पुंसम्बोधनएकवचनम्

त्वया - युस्मद्- सर्वनाम, तृतीयाएकवचनम्

ये - यत्- सर्वनाम, पुं. प्रथमाबहुवचनम्

बहवः - बहु- पुं. प्रथमाबहुवचनम्

तैः - तत्-  सर्वनाम, पुं. तृतीयाबहुवचनम्

(ख) सन्धि

दुर्लभाश्चैव = दुर्लभाः + च - दुर्लभाश्च ( विसर्ग०श्चुत्व ० ) + एव (वृद्धि०) ।

वक्ष्याम्यहम् = वक्ष्यामि + अहम् (यण् सन्धि ) ।

बुद्ध्वा = बुध + क्त्वा (जश्त्व सन्धि) । 

(ङ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

दुर्लभाः = दुर् + √ लभ् + खल् = दुर्लभ + प्र० बहुवचनपुं० ।

बुद्ध्वा = √ बुध् + क्त्वा । 

काव्यसौन्दर्य-

(क) छन्द - प्रस्तुत स्थल में अनुष्टुप् छन्द है।

(ख) अलङ्कार-अनुप्रास अलंकार है ।

(ग) रस– दुर्लभ गुणों का एकत्र समावेश होने से अद्भुत रस है। 

तिलक टीका- बहव इति । ये बहवो गुणास्त्वया कीर्तितास्त एकत्र प्राकृतपुरुषमात्रे दुर्लभा एव । चः पादपूरणे । अथापि हे मुने यस्तैर्युक्तस्तं बुद्ध्वा स्मृत्वाहं वक्ष्यामि तादृशो नरः श्रूयताम् । प्राप्तकाले लोट् । तस्य श्रवणं ते प्राप्तकालमित्यर्थः ।। 1.1.7 ।।

अब नारद जी राम के विलक्षण गुणों का प्रतिपादन श्लोक सं० ८ से १६ तक में करते हैं : -

इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः ।

नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान्धृतिमान्वशी ।। ८।

पदच्छेदः-  इक्ष्वाकुवंशप्रभवः रामः नाम जनैः श्रुतः । नियतात्मा महावीर्यः द्युतिमान् धृतिमान् वशी ।।

अन्वयः - जनैः श्रुतः इक्ष्वाकुवंश-प्रभवः रामः नाम नियतात्मा महावीर्यः द्युतिमान् धृतिमान् वशी (च अस्ति) ।

शब्दार्थ-  जनैः = लोकैः ।  श्रुतः = आकर्णितःज्ञातः इत्यर्थः। इक्ष्वाकुवंशप्रभवः = इक्ष्वाकुकुलोत्पन्नः । रामः नाम = राम इति नाम्ना प्रसिद्धः। नियतात्मा = निगृहीतान्तःकरणः। महावीर्यः=विपुलशक्तिकः। द्युतिमान् = कान्तिमान्। धृतिमान्= धैर्य शाली। वशी=जितेन्द्रियः।  (अस्ति)। 

भावार्थः- ब्रह्मणः मानसपुत्रः देवर्षिः नारदः महर्षेः वाल्मीकेः जिज्ञासां शान्तिं प्रापयन् तमाह यत् लोके राम इति नाम्ना ख्यातः जनैश्च श्रुतः सः इक्ष्वाकुकुलोत्पन्नः निगृहीतान्तःकरणः विपुलशक्तिकः कान्तिमान् धैर्यशाली जितेन्द्रियश्चास्ति।

हिन्दी शब्दार्थ  – जनैः = लोगों के द्वारा । श्रुतः = सुने गये (प्रख्यात) । इक्ष्वाकुवंशप्रभवः = इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न । रामः = दशरथ पुत्र राम । नाम = नाम वाले।  'प्राकाश्य' (प्रसिद्धि) अर्थ में अव्यय-पद । नियतात्मा = नियन्त्रितसंयत आत्मा वाले । महावीर्यः = महान् शक्तिशाली । द्युतिमान् = कान्ति सम्पन्न । धृतिमान् = धैर्यशाली । वशी = जितेन्द्रिय (च अस्ति) =और हैं।

हिन्दी भावार्थ - लोगों के द्वारा सुने गये (सुविदित) इक्ष्वाकु नामक वंश में उत्पन्न राम वाले व्यक्ति, नियन्त्रित आत्मा वालेमहान् शक्तिशालीकान्ति सम्पन्नधैर्यशाली तथा जितेन्द्रिय हैं ।

व्याकरण-

(ख) सन्धि

नियतात्मा = नियत + आत्मा (दीर्घ सन्धि) ।

प्रभवो रामो = प्रभवः + रामः (विसर्ग सन्धि)

इसी प्रकार महावीर्यः + द्युतिमान्

(ग) समास

इक्ष्वाकुवंशप्रभवः = इक्ष्वाकोः वंशः इक्ष्वाकुवंशः, षष्ठी तत्पुरुष। इक्ष्वाकुवंशात् प्रभवः यस्य सः - इक्ष्वाकुवंशप्रभवः - बहुव्रीहि ।

नियतात्मा = नियतः आत्मा यस्य सः नियतात्मन् (बहुव्रीहि) ।

महावीर्यः = महद् वीर्यं यस्य सः (बहुव्रीहि) ।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः –

जितः =  जि अभिभवे (न्यूनीभवने न्यूनीकरणे च)  भ्वादिः। जि + क्त,  पुं , नपुं

प्रभवः- प्र + √ भू + अप्पुं० प्रथमा, एकवचन ।

श्रुतः- √ श्रु+ क्त, प्रथमा, एकवचन, पुं० ।

नियत- नि + यम् + क्तप्रथमा, एकवचन

द्युतिमान्- द्युति + मतुप्= द्युतिमत् + प्रथमा, एकवचन, पुं० ।

धृतिमान् - धृति + मतुप्- धृतिमत् + प्रथमा, एकवचन, पुं०  

काव्य सौन्दर्य

(क) छन्द-  श्लोक अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध है ।

(ख) अलङ्कार- अनुप्रास तथा भाविक अलङ्कार हैं। उत्तरार्ध में विशेषोक्ति अलंकार है।

(ग) रस - वीररस ध्वनित है।

(घ) कोष- 

प्रभवः = 'स्याज्जन्महेतुः प्रभवःइत्यमरः ३।३।२१० । 

नाम - नाम प्राकाश्य-सम्भाव्य-क्रोधोपगम-कुत्सने । इत्यमरः ३।३।२५२ । 

धृति - 'धृतिर्धारण-धैर्य्ययोः । इत्यमरः ३।३।७४ ।  

तिलक टीका- इक्ष्वाक्विति । इक्ष्वाकुवंशात्प्रभव आविर्भावो यस्य स तथा । रामो नाम राम इति नान्ना प्रसिद्धो जनैश्च श्रुतो ऽस्ति । तस्मिन्नेवैकत्र सर्वे त्वत्पृष्टा गुणाःअन्ये च गुणा इति शेषः । तच्चेदं यौगिकं नाम । रमन्ते योगिनो ऽस्मिन् यद्वा रमयति स्वकानिति योगस्य प्रदर्शनात् । तत्रान्त्ये नारकपूरुषादिवत् "अन्येषामपि दृश्यते" इति दीर्घः । तानेव गुणानाह नियतात्मा निगृगीतान्तःकरणः । वीर्यं व्याख्यातम् । द्युतिः कान्तिः । आपत्सम्पदोरविकृतिश्चित्तस्य धृतिस्तद्वान् । वशी जिताशेषबहिरिन्द्रियः ।। 1.1.8 ।।

बुद्धिमान्नीतिमान्वाग्मी श्रीमाञ्चछत्रुनिबर्हणः ।

विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनुः ।। ९।।

पदच्छेदः - बुद्धिमान् नीतिमान् वाग्मी श्रीमान् शत्रुनिबर्हणः । विपुलांसः महाबाहुः कम्बुग्रीवः महाहनुः ।। ९।।

अन्वयः- (रामः) बुद्धिमान् नीतिमान् वाग्ग्मीश्रीमान्शत्रुनिवर्हणःविपुलांसःमहाबाहुःकम्बुग्रीवःमहाहनुः (च) ।

शब्दार्थ  – (सः रामः) बुद्धिमान् = धीमान्। नीतिमान् =नीतिज्ञः। वाग्मी =प्रशस्त वाग्युतः  । श्रीमान् = ऐश्वर्यवान्सर्वातिशायिशोभैश्वर्यादियुक्तः। शत्रुनिर्बहणः = शत्रुविनाशकः। विपुलांसः = उन्नतकन्धरः। महाबाहुः= आजानुबाहुः। महाहनुः =परिपुष्टकपोलोपरिभागः। कम्बुग्रीवः =शङ्खसमकण्ठश्चास्ति।

भावार्थ:- सः रामः धीमान् नीतिज्ञः समयोचितवाक्चातुरीचतुरः सर्वातिशायि शोभैश्वर्ययुक्तः अरिन्दमः  उन्नतकन्धरः आजानुबाहुः परिपुष्टकपोलोपरिभागः शङ्ख समानकण्ठश्चास्ति ।

हिन्दी शब्दार्थ  – बुद्धिमान् = प्रतिभाशाली । नीतिमान् = नीतिज्ञ । (नीति = सदाचार-मार्ग या राजनीति) । वाग्मी = प्रशस्त वक्ता । श्रीमान् = ऐश्वर्यशाली । शत्रुनिवर्हणः = शत्रु विनाशक । विपुलांसः = विशाल या स्थूल कन्धों वाले । महाबाहुः = लम्बी भुजाओं वाले । कम्बुग्रीवः = शंख के समान गर्दन वाले । महाहनुः = विशाल ठुड्डी वाले । (अस्ति  = है)

हिन्दी भावार्थ – (नारद जी वाल्मीकि से कहते हैं कि भगवान् राम) प्रतिभाशालीनीति को जानने वालाप्रशस्त वक्ताऐश्वर्य से युक्तशत्रुओं के विनाशक, विशाल कन्धों वालेलम्बी भुजाओं वालेशंख के समान (तीन रेखाओं वाली) गर्दन से युक्त तथा विशाल ठुड्डी वाले हैं।

व्याकरण

(क) कारक-

(ख) सन्धि

श्रीमाञ्छत्रुनिवर्हणः = श्रीमान् + शत्रुनिवर्हणः ( व्यञ्जन-सन्धि ) ।

विपुलांसः = विपुल + अंसः (दीर्घ सं० ) ।

विपुलांसो महाबाहुः = विपुलांसः + महाबाहुः  (विसर्ग सं० ) ।

कम्बुग्रीवो महाहनुः = कम्बुग्रीवः + महाहनुः (विसर्ग सं० ) ।

(ग) समास

शत्रुनिवर्हणः = नितरां बर्हतीति निबर्हणःशत्रूणां निबर्हणः = शत्रु - निबर्हणः (ष० त०) ।

विपुलांसः = विपुलौ अंसौ यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

महाबाहुः = महान्तौ बाहू यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

कम्बुग्रीवः = कम्बुरिव ग्रीवा यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

महाहनुः = महती हनुः यस्य सः (बहुव्रीहि समास) । 

स्थितप्रज्ञः = स्थिता प्रज्ञा यस्य सः (बहुव्रीहि समास)

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

निबर्हणः = निः + √ बर्हँ (हिंसायाम् - चुरादिः) + ल्यु (कर्तरि) = निबर्हण + प्रथमा, एकवचनपुं० ।

बुद्धिमान् = बुद्धि + मतुप् = बुद्धिमत् + प्रथमा, एकवचन, पुं० ।

नीतिमान् = नीति + मतुप् (पुं० प्रथमा, एकवचन ) ।

वाग्मी = प्रशस्ता वाक् अस्ति अस्य इति वाग्ग्मीवाच् + ग्मिनि (मतुबर्थक) = वाग्मिन् + प्रथमा, एकवचन, पुं० =  वाग्मी। 'वाचो ग्मिनिःइस पा० सू० से ग्मिनि प्रत्यय हुआ है।

काव्य सौन्दर्य

(क) अलंकार- अनुप्रासभाविक तथा 'कम्बु-ग्रीवःमें उपमा अलङ्कार है।

(ख) रस- वीररसोचित वर्णसंघटना तथा पद-शय्या

(ग) कोष- 

वाग्मी - वाचोयुक्तिपटुर्वाग्मी ३ |१|

श्रीः - 'शोभा-सम्पत्ति-पद्मासु लक्ष्मी: श्रीरपि गद्यते ।इति कोषः ।

अंसस्कन्धो 'भुजशिरोंऽसोऽस्त्रीइत्यमरः २/६/७८

हनुः – 'कपोलौतत्परा हनुःइत्यमरः २||६०  

कम्बुग्रीवा- 'कम्बुग्रीवा त्रिरेखा साइत्यमरः २/६/८८ ।

टिप्पणी – यहाँ बुद्धि और नीति पदों से मानसिक सौन्दर्य, 'वाग्मीपद से वाचिक सौन्दर्य एवं श्रीमान् से 'महाहनुःतक प्रयुक्त पदों से शारीरिक सौष्ठव युक्त सामर्थ्य की अभिव्यञ्जना राम को स्पृहणीय व्यक्तित्व प्रदान करती है। व्याख्येय महनीय पद्य में नारद ने राम के मनमोहक अङ्ग-सौन्दर्य की झाँकी उपन्यस्त की है।

यहाँ निबर्हण शब्द बर्हँ (हिंसायाम् - चुरादिः) से बना है। यह धातु अनेक गण में अनेक अर्थ में पठित है।

तिलक टीका- बुद्धिमानिति । प्रशस्तबुद्धिः बुद्धेः प्राशस्त्यं च सकृद्गृहीताविस्मरणावापोद्वापादिशक्तिमत्त्वम् । सर्वत्र प्रशंसादौ मतुप् । नीतिः कामन्दकादिप्रसिद्धराजनीतिस्तद्वांस्तज्ज्ञाता । वाग्मी प्रशस्तवाक् । श्रीमान्सर्वातिशायिशोभैश्वर्यादियुक्तः । यद्वा "ऋचः सामानि यजूँषि । सा हि श्रीरमृता सताम्" इत्युक्तश्रौतश्रीमान् । शत्रूणां बाह्यान्तराणां निबर्हणो नाशकर्ता । बाहुलकात्कर्तरि ल्युट् । विपुलांस इत्यादिना सामुद्रिकलक्षणं कथ्यते । विपुलौ मांसलोन्नतावंसौ भुजशिरसी यस्य सः । "स्कन्धो भुजशरिरों ऽसः" इति कोशः । अस्य सुलक्षणत्वं च वररुचिनोक्तम् "कक्षः कुक्षिश्च वक्षश्च घ्राणस्कन्धौ ललाटिका । सर्वभूतेषु निर्दिष्टा उन्नतास्ते सुखप्रदाः" इति । महाबाहुः "आत्महतः" इत्यात्वम् । "शिरो ललाटश्रवणे ग्रीवा वक्षश्च हृत्तथा । उदरं पाणिपादं च पृष्ठं दश महत्सुखम्इति ब्राह्मे ऽस्य सुलक्षणत्वमुक्तम् । कम्बुग्रीवः कम्बुवद्रेखात्रयविशिष्टग्रीवः । महाहनुर्मांसलकपोलापरभागः । "पूर्णमांसलहनुस्तु भूपतिः" इति संहिता ।।

महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिन्दमः ।

आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः ।। १०।।

पदच्छेदः- महोरस्कः महेष्वासः गूढजत्रुः अरिन्दमः । आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः ।।

अन्वयः - (रामः) महोरस्क: महेष्वासः गूढजत्रुः अरिन्दमः । आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः (अस्ति) ।

शब्दार्थ  – (सः रामः) महोरस्कः =  विशालवक्षःस्थलः । महेष्वासः = बृहद्धनुः। गूढजत्रुः = मांसलत्वान्निमग्ने जत्रुणी वक्षोंऽससंधिगते अस्थिनी यस्य सः। अरिन्दमः = शत्रु-विदारकः। आजानुबाहुः =जानुपर्यन्तदीर्घभुजः। सुशिराः = शोभनशिरस्कः। सुललाटः = रेखाधिकभालः। सुविक्रमः = विपुलपराक्रमशाली (अस्ति) ।

भावार्थः- सः रामः विशालवक्षःस्थलः बृहद्धनुः मांसलत्वादप्रकटितांसद्वय सन्धिगतास्थिः शत्रुघ्नः जानुपर्यन्तभुजः शोभनशिरस्कः रेखाधिकभालः विपुलपराक्रमशाली सुविक्रमोऽस्ति। 

हिन्दी शब्दार्थ  – महोरस्कः = चौड़े वक्षस्थल वाले । महेष्वासः = विशाल धनुष वाले  गूढजत्रुः :- गुप्त स्कन्ध-सन्धियों वाले (जिनके कन्धे के दोनों जोड़ छिपे अर्थात् मांस-पिण्ड से ढंके हैं)। अरिन्दमः = शत्रु नियन्ताशत्रु विदारक । आजानुबाहुः = पैरों के घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाले । सुशिराः = विशाल मस्तक वाले । सुललाटः = सुन्दर ललाट वाले । सुविक्रमः = महान् पराक्रमी । 

हिन्दी भावार्थ - (नारद जी कह रहे हैं कि) भगवान् राम चौड़े वक्षःस्थल वालेविशाल धनुष् वालेगुप्त अर्थात् मांस से ढ़के स्कन्ध-सन्धियों वालेशत्रु - गणों के विदारकपैरों के घुटनों तक लम्बी भुजाओं वालेविशाल मस्तक वालेसुन्दर ललाट वाले तथा महान् पराक्रमी हैं।

व्याकरण

(क) सन्धि-

महोरस्कः = महा + उरस्क: ( गुण सन्धि )।

महोरस्कः महेष्वासः = महोरस्को महेष्वासः । सकार को उकारः - अतो रोरप्लुतादप्लुते (विसर्ग सन्धिः)  आद् गुणः से उकार को गुण ओकार (स्वर सन्धिः)

इष्वासः = इषु + आसः = इष्वासः (यण् ) ।

महेष्वासः - महा + इष्वासः = महेष्वासः ( गुण सन्धि ) ।

गूढजत्रुररिन्दमः- गूढजत्रुः + अरिन्दमः = गूढजत्रुररिन्दमः । विसर्ग को रू, रेफः- विसर्ग सन्धिः  

(ख) समास :

महोरस्कः = महत् उरः यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

महत् + उरस् + कप् ।

महेष्वासः = आस्यतेऽस्मिन्निति आसःइषूणाम् आसः (आसनम्) = इष्वासः ( षष्ठी तत्पुरूष ) ।

महान् इष्वासः यस्य सः = =महेष्वासः (बहुव्रीहि समास) 

गूढजत्रुः  = गूढे जत्रुणी यस्य सः (बहुव्रीहि समास)।

अरिन्दमः = अरीन् दमयतीति अरिन्दमः - = (उपपद त०) ।

आजानुबाहुः = आ जानोः बाहू यस्य सः (बहुव्रीहि समास)।

सुशिराः = सुष्ठु शिरो यस्य सः (बहुव्रीहि समास)।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

इष्वासः √ इषु + आस् + (अधिकरणे) घञ् ।

अरिन्दम: = अरि + दम् + खच् = अरिन्दमः। प्रथमा, एकवचनपुल्लिँग

काव्यसौन्दर्य

(क) छन्द - यहाँ अनुष्टुप् छन्द है ।

(ख) अलङ्कारः- अनुप्रास अलङ्कार है ।

(ग) रसः – वीर रसोचित पदावली है।

(घ) कोष:-

इष्वास = धनुश्चापौ धन्वशरासनकोदण्डकार्मुकम्।

इष्वासोऽप्यथ कर्णस्य कालपृष्ठं शरासनम्॥ इत्यमरः २/८/ ८३ ।

उरः = 'उरो वत्सं च वक्षश्चइत्यमरः २/६/७८ ।

जत्रु -'सन्धी तस्यैव जत्रुणीइत्यमरः २।६।७८ ।

शिरः - 'उत्तमाङ्गं शिर: शीर्षम्इत्यमरः २।६। ६५ ।

ललाट - ललाटमलिकं गोधि इत्यमरः २/६/९२ ।

जानु = 'जानुरु पर्वाऽष्ठीवदस्त्रियाम्इत्यमरः २।६।७२ ।

महेष्वासः शब्द आया। इसमें महा- इषु- आस ये तीन शब्द हैं। महा का अर्थ स्पष्ट है।  इषु का अर्थ इषुः, -बाणः, -सायकः है। 

आसःपुं, (अस्यन्ते शरा अनेनेति । अस् + करणे घञ् ।) धनुः । इति हेमचन्द्रः ॥


तिलक टीका- महोरस्क इति । महद्विशालमुरो यस्य सः । "उरः शिरो ललाटं च" इत्युपक्रम्य "विशालास्ते सुखप्रदाः" इत्युक्तेः । महेष्वासो महानिष्वासो धनुरस्य । गूढजत्रुर्गूढे मांसलत्वान्निमग्ने जत्रुणी वक्षोंऽससंधिगते अस्थिनी यस्य । अरिन्दमो निजभक्तानामरीन्कामादीन्निजभक्त्यन्तरायकर्तृपापानि वा दमयतीत्यरिन्दमः । यद्वा अरिन्दम इति राज्ञोऽन्वर्थसञ्ज्ञा । शत्रुञ्जय इतिवत् । आजानुबाहुर्जानुपर्यन्तदीर्घबाहुः । "दीर्घभ्रूबाहुमुष्कश्च चिरञ्जीवी धनी नरः" इति ब्राह्मे । सुशिराः "समवृत्तशिराश्चैव च्छत्राकारशिरास्तथा । एकच्छत्रां महीं भुङ्क्ते दीर्घमायुश्च विन्दति" इति नारदः । सुललाटो रेखाधिकललाटः । "ललाटे यस्य दृश्यन्ते चतुस्त्रिद्व्येकरेखिकाः । शतद्वयं शतं षष्टिस्तस्यायुर्विंशतिस्तथा" इति कात्यायनः । सुविक्रमो गजसिंहादिगतिसदृशगतिः विक्रमः पादविक्षेपः । "स्वरो गतिश्च नाभिश्च गम्भीरः स प्रशस्यते" इति ब्राह्मे ।।

समः समविभक्ताङ्गः स्निग्धवर्णः प्रतापवान् ।

पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवाञ्चछुभलक्षणः ।। ११।।

अन्वयः- (रामः) सम: समविभक्ताङ्गः स्निग्धवर्णः प्रतापवान् । पीनवक्षा विशालाक्षः लक्ष्मीवान् शुभलक्षणः (अस्ति) ।

शब्दार्थ  – समः = समानः । समविभक्ताङ्गः = अन्यूनाधिक परिमाणात् अश्लिष्टकरचरणाद्यवयवः। स्निग्धवर्णः = चिक्कणवर्णःश्यामलवर्णः। प्रतापवान् = पराक्रमशाली। पीनवक्षाः = उन्नतवक्षःस्थलः । विशालाक्षः = आकर्णान्तनेत्रः। लक्ष्मीवान् = सर्वाङ्गशोभासमन्वितः। शुभलक्षणः = सामुद्रिकशास्त्रविहित- सम्पूर्णसुलक्षणोपेतश्च सः रामः वर्तते।

भावार्थ:- सः रामः नातिप्रांशुः नातिह्रस्वः अतएव समः समविभक्ताङ्गः अन्यूनाधिककरचरणाद्यवयवः श्यामलवर्णः पराक्रमशाली विशालवक्षःस्थलः आकर्णान्तनेत्रः सर्वाङ्गशोभासमन्वितः सामुद्रिकशास्त्र- विहितसम्पूर्ण- सुलक्षणोपेतश्चास्ति।

हिन्दी शब्दार्थ  – समः = समान भाव वालेनिष्पक्ष । समविभक्ताङ्ग: = समान रूप से विभक्त अंगों वाले। स्निग्धवर्णः = चिकने शारीरिक वर्ण वाले । प्रतापवान् = प्रतापी । पीनवक्षा: = स्थूल वक्षः स्थल वाले । विशालाक्षः = विशाल आँखों वाले । लक्ष्मीवान् = ऐश्वर्य या शोभा से युक्त । शुभलक्षणः = सुन्दर लक्षणों वाले (राम हैं)।

हिन्दी भावार्थ  – ( नारद जी वाल्मीकि से कहते हैं कि श्रीराम जी) समान भाव रखने वाले (समदर्शी)समान रूप से अंगों वालेचिकने (सुकोमल) शारीरिक वर्ण वालेप्रतापशालीस्थूल वक्षः-स्थल वालेविशाल आँखों वालेअसीम शोभा या ऐश्वर्य से सम्पन्न तथा शुभ-सूचक शारीरिक लक्षणों से युक्त हैं।

व्याकरण

(क) सन्धि-

विभक्ताङ्गः = विभक्त + अङ्गः ( दीर्घ सन्धि )।

विशालाक्षः = विशाल + अक्ष: ( दीर्घ सन्धि )।

लक्ष्मीवाञ्छुभलक्षणः = लक्ष्मीवान् + शुभलक्षणः ( व्यञ्जन सन्धि )।

(ख) समास-

समविभक्ताङ्गः = समं यथा स्यात् तथा विभक्तानि अङ्गानि यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

स्निग्धवर्णः = स्निग्धः वर्णः यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

पीनवक्षाः = पीनं वक्षः यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

विशालाक्षः = विशाले अक्षिणी यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

शुभलक्षणः = शुभानि लक्षणानि यस्य सः (बहुव्रीहि समास) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

स्निग्ध = स्निह् + क्त ।

प्रतापवान् = प्रताप + मतुप् (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) ।

लक्ष्मीवान् = लक्ष्मी + मतुप् (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) ।

(क) छन्द - यहाँ अनुष्टुप् छन्द है ।

(ख) अलङ्कार-- अनुप्रास अलङ्कार ।

(ग) गुणरीति- प्रसाद गुण तथा वैदर्भी रीति है।

(घ) कोष-

पीन - 'पीनपीब्नी तु स्थूलपीवरेइत्यमरः ३।१।६१ ।

स्निग्ध = 'चिक्कणं मसृणं स्निग्धम्इत्यमरः २।६।४६ ।

लक्ष्मी = 'शोभासम्पत्तिपद्मासु लक्ष्मीः श्रीरपि गद्यते ।इति कोषः ।

विभक्त- त्रिलिंग = वि + भजक्त । १ पृथक्कृते २ विभिन्ने कृत-विभागे च ३ भावे क्त । ३ विभागे ४ भेदे न० । इति वाचस्पत्यम्।

टिप्पणी - श्लोक सं. ६ वें तथा १० वें में राम के अङ्गों की वीर-जनोचित दृढतापरिपुष्टता वर्णित है । ११ वें (प्रस्तुत) पद्य में राम की मानसिक कोमलता तथा शारीरिक सुकुमारता कही गयी है । 

तिलक टीका- सम इति । समो नातिदीर्घो नातिह्रस्वः । "षण्णवत्यङ्गुलोत्सेधो योनांशः स दिवौकसाम्" इत्युक्तेः । समान्यन्यूनानधिकपरिमाणानि विभक्तानि पृथग्भूतान्यङ्गान्यवयवा यस्य सः । "भ्रुवौ नासापुटे नेत्रे कर्णावोष्ठौ च चूचुके । कूर्परौ मणिबन्धौ च जानुनी वृषणौ कटी ।। करौ पादौ स्फिजौ यस्य समौ ज्ञेयः स भूपतिः" इत्युक्तेः । स्निग्धवर्णः स्निग्धश्यामलवर्ण इत्यर्थः । "स्निग्धेन्द्रनीलवर्णस्तु भोगं विन्दति पुष्कलम्" इत्युक्तेः । प्रतापः स्मृतिमात्रेण रिपुहृदयविदारणक्षमं पौरुषं तद्वान् । "प्रतापौ पौरुषातपौ" इति कोशः । पीनवक्षा मांसलसमोन्नतवक्षाः । विशालाक्षो विस्तृतायतनेत्रः । "नासिका चक्षुषी कर्णौ यस्यायतौ" इत्युक्तेः । लक्ष्मीवान्सीतारूपलक्ष्मीशक्तिमान् सर्वावयवसौन्दर्यवान्वा । मोपधत्वाद्वत्वम् । एवमुक्तरीत्या शुभानि सामुद्रिकशास्त्रोक्तानि लक्षणानि यस्य स शुभलक्षणः ।। 1.1.11 ।।

।धर्मज्ञः सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः ।

यशस्वी ज्ञानसम्पन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान् ।। १२।।

अन्वयः- (रामः) धर्मज्ञः सत्यसन्धः च प्रजानां च हिते रतः । यशस्वी ज्ञानसम्पन्नः शुचिः वश्यः समाधिमान् (अस्ति) । 

शब्दार्थ - धर्मज्ञः = धर्मतत्त्ववेत्ता। सत्यसन्धः = सत्यप्रतिज्ञः। प्रजानां च = लोकानाञ्च । हिते = कल्याणे। रतः = तत्परः। यशस्वी = कीर्तिमान् । ज्ञानसम्पन्नः = ज्ञानवान्, ज्ञानी। शुचिः = पूतःपवित्रः। वश्यः = संयमी। समाधिमान् च = समाधिनिष्ठश्च ( रामः वर्तते) ।

भावार्थ:- सः रामः धर्मतत्वस्य ज्ञाता सत्यप्रतिज्ञः प्रजानां हिते सदैव तत्परः कीर्तिमान् ज्ञानवान् पवित्रः संयमी समाधिनिष्ठश्चास्ति।

हिन्दी शब्दार्थ - धर्मज्ञः = धर्म को जानने वाले। सत्यसन्धः = सत्यप्रतिज्ञा वाले । प्रजानां = प्रजा के । हिते = कल्याण मेंभलाई करने में । रतः = तत्परअनुरक्त । यशस्वी = यश वाले। ज्ञानसम्पन्नः = ज्ञानी । शुचिः = पवित्र हृदय वाले । वश्यः = वश में रहने योग्य । समाधिमान् = मानसिक एकाग्रता से युक्त (श्री राम हैं)।

हिन्दी भावार्थ  – (भगवान् राम) धर्म के यथार्थ ज्ञातासत्य-प्रतिज्ञप्रजा के कल्याण में तत्परकीर्तिशालीज्ञानीपवित्र हृदय वालेवश में करने योग्य तथा मन की एकाग्रता से युक्त हैं।

व्याकरण

सन्धि-

सत्यसन्धश्च = सत्यसन्धः + च (विसर्ग०श्चुत्व ० ) ।

(ख) समास - 

सत्यसन्धः = सत्या सन्धा यस्य सः, (बहुव्रीहि समास) ।

ज्ञानसम्पन्नः = ज्ञानेन सम्पन्न इति ( तृतीया तत्पुरूष ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

धर्मज्ञः = धर्म +  ज्ञा + क ( उपपद त० प्रथमा, एकवचनपुल्लिँग) ।

यशस्वी = यशस् + विनि= यशस्विन् + प्रथमा, एकवचनपुल्लिँग)

वश्यः = वश + यत् ।

समाधि = सम् + आ + धा + कि = समाधि + पुल्लिँग प्रथमा एकवचन  ।

समाधिः अस्ति अस्येति समाधिमान् = समाधि + मतुप् + प्रथमा, एकवचनपुल्लिँग ।

(क) अलंकार- अनुप्रास अलंकार है।

(ख) रस- शान्त रसोचित पद-विन्यास है।

(ग) कोष-

सन्धा सन्धा प्रतिज्ञा मर्यादाइत्यमरः ३।३।१०२ ।

समाधि = 'स्युः समर्थन-नीवाक-नियमाश्च समाधयः ।इत्यमरः ३।३।९८ ।

वश्य = 'वश्यः प्रणेयःइत्यमरः ३।१।२५ ।

तिलक टीका- धर्मज्ञ इति । सत्याऽमोघा सन्धा "सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम" इत्यादिरूपिणी प्रतिज्ञा यस्य । यशस्वी रावणवधादिना दिव्ययशःसम्पन्नः । ज्ञानसम्पन्नो ब्रह्मज्ञानपरिपूर्णः । अत एव जटायुषं प्रति "मया त्वं समनुज्ञातो गच्छ लोकाननुत्तमान्" इत्युक्तिः सङ्गच्छते । ब्रह्मज्ञस्यैव ब्रह्मोपदेशे ऽधिकारात् । विना ब्रह्मोपदेशमनुत्तमलोकावाप्त्यसम्भवात् । न विद्यन्ते उत्तमा येभ्यस्ते ऽनुत्तमाः । "आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्" इत्यादिवचस्तु मायामात्रमित्यन्यत्र विस्तरः । शुचिः प्रातःस्नानादिना प्राणायामाभ्यासादिना प्रत्याहारादिजन्यरागद्वेषहानेन च मायिकशरीरत्वाच्च नित्यं बाह्यान्तरशुद्धः । वश्यः पित्राचार्यदेवेषु विनीतः । समाधिमान् निजतत्त्वसमाधिमान् ।। 1.1.12 ।।

प्रजापतिसमः श्रीमान् धाता रिपुनिषूदनः ।

रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता ।। १३।।

अन्वयः- (रामः) प्रजापति-समः धाताश्रीमान्रिपुनिषूदनःजीव-लोकस्य रक्षिताधर्मस्य परिरक्षिता च अस्ति । 

शब्दार्थ -(सः रामः) प्रजापतिसमः = विधातातुल्यः । श्रीमान् = शोभासमन्वितः । धाता = पितृवत्प्रजापालकः। रिपुनिषूदनः=अरिविनाशकः। जीवलोकस्य=प्राणिलोकस्यसंसारस्य। रक्षिता=रक्षकः। धर्मस्य च=वर्णाश्रमधर्मस्य च। परिरक्षिता=सर्वतोभावेन च रक्षकः (अस्ति)। 

भावार्थ:- सः रामः विधातातुल्यः शोभासमन्वितःपितृवत्प्रजापालकः शत्रुविनाशकः प्राणिजगतः रक्षकः वर्णाश्रमधर्माणाञ्च सर्वतोभावेन रक्षकः (अस्ति)।

हिन्दी शब्दार्थ - प्रजापति-सम: = प्रजापति (ब्रह्मा या राजा) के समान । श्रीमान् = ऐश्वर्य सम्पन्न या शोभा-युक्त ।धाता = पालक या पोषक ।  रिपु-निषूदन: = शत्रु-विध्वंसक। जीव-लोकस्य = प्राणि-समूह के । रक्षिता = रक्षक। धर्मस्य = धर्म-तत्व के। परिरक्षिता = चतुर्दिक् संरक्षक (श्री राम हैं)

हिन्दी भावार्थ  - (भगवान् राम) प्रजापति (ब्रह्मा या राजा) के समान (प्रजाओं के) पालकऐश्वर्य या शोभा से युक्तशत्रुजनों के विध्वंसकप्राणि वर्ग के रक्षक तथा धर्म तत्त्व के संरक्षक है।

व्याकरण

(क ) कारक- 'प्रजापतिसमःमें समास के पूर्व तुल्‍यार्थैरतुलोपमाभ्‍यां तृतीयाऽन्‍यतरस्‍याम्  सूत्र से समानार्थक शब्दों के योग में तृतीया या षष्ठी विभक्ति होगी। 'जीव-लोकतथा 'धर्मस्यमें 'कर्तृ कर्मणोः कृतिसूत्र से कर्म में षष्ठी हुई। 

(ख) समास - 

प्रजापतिसमः = प्रजानां पतिः प्रजापतिः (षष्ठी तत्पुरूष)तेन समः, (तृतीया तत्पुरूष)। 

रिपुनिषूदनः = नितरां सूदयति (नाशयति) इति निषूदनः रिपूणां निपूदन रिपु-निषूदनः (षष्ठी तत्पुरूष) । 

जीवलोकस्य जीवानां (जन्तूनां) लोकः (समूह)तस्य (षष्ठी तत्पुरूष ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

धाता =  (डु)धाञ् धारणपोषणयोः + तृच्  ।धातृ + प्रथमा, एकवचनपुल्लिँग । 

निषूदन:=  निः + √सूद + ल्यु (कर्तरि ) = निषूदन + प्रथमा, एकवचनपुल्लिँग । = 

रक्षिता = √रक्ष् + तृच् (कर्तरि) = रक्षितृ + प्रथमा, एकवचनपुल्लिँग । 

(क) अलंकार- प्रजापति-समो धाताइस अंश में उपमा तथा अन्यत अनुप्रास है।

(ख) रस-  वीर-रस है।

(ग) कोष- 'प्रजापति' = 'स्रष्टा प्रजापतिर्वेधाइत्यमरः १/११७ ।

टिप्पणी- किसी भी समर्थ महापुरुष में प्रजारक्षण तथा शत्रु विध्वंसन- इन दोनों गुणों का सामञ्जस्य अपेक्षित है अर्थात् उचित अवसर या पात्र में दया तथा क्रोध का प्रयोग युक्तियुक्त है।

तिलक टीका- प्रजापतीति । प्रजापतिसमः यद्यपि रामो ब्रह्मैव तथापि मानुषधर्माणां शोकमोहादीनां मायिकानां तत्र दर्शनेनौपाधिकभेदमादाय तत्समत्वोक्तिः । भार्गवलोकप्रतिबन्धरूपाज्जटयुमोक्षप्रदानरूपात्स्वेन सह सर्वायोध्यावासिजनस्य सशरीरस्य ब्रह्मलोकनयनरूपाच्च कारणात्तत्समत्वम् । सर्वथा स्वतन्त्रस्यैवेदृशेषु योग्यत्वात् । श्रीमानित्येवमादीनां पौनःपुन्यं सकलैश्वर्यादिमत्त्वबोधनार्थम् । धाता पितेव सर्वप्रजाधारणपोषणसामर्थ्ययुक्तः । रिपुनिषूदन आश्रितजनरिपुनाशकः कामादिरिपुनाकश्च । अन्यथा जगद्गुरोर्भगवतो रिपोरेवाभावेनैतद्विशेषणासङ्गतिः स्यात् । बाहुलकात्कर्तरि ल्युट् । जीवलोकस्य प्राणिसमूहस्य सकलव्यवहारप्रवर्तकत्वेन रक्षिता । धर्मस्य तत्तद्वर्णाश्रमधर्मस्य मर्यादापरिपालनद्वारा रक्षिता ।। 1.1.13 ।।

यहाँ नारद जी राम की स्व-कर्तव्य-परायणता तथा शास्त्र-निष्ठा को इङ्गित कर रहे हैं

रक्षिता स्वस्य[1] धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता ।

वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः ।। १४।।

अन्वयः - (रामः) स्वस्य धर्मस्य रक्षितास्वजनस्य च रक्षिता (अस्ति)। (स) वेद-वेदाङ्ग तत्वज्ञः धनुर्वेदे निष्ठितः च (अस्ति) ।

शब्दार्थ - स्वस्य=स्वीयस्य। धर्मस्य=यज्ञाध्ययनदण्डयुद्धादिरूपस्य धर्मस्यशरणागतरक्षणरूपस्य धर्मस्य यद्वा प्रजापालनरूपस्य धर्मस्य। रक्षिता=रक्षकःपालकः। स्वजनस्य च = स्वकीयकुटुम्बजनस्य च। रक्षिता= रक्षकःपालकः। वेद-वेदाङ्ग-तत्त्वज्ञः वेदानाम्=(ऋग्यजुःसामाथर्वाणां चतुर्णा वेदानाम्,) वेदाङ्गानाम्= शिक्षाकल्पव्याकरणनिरुक्तच्छन्दज्यौतिषाणाञ्चतत्त्वज्ञः = मर्मज्ञःरहस्यवेत्ता। धनुर्वेदे  =युद्धशास्त्रे । निष्ठितः=कुशलः । च = अपि (रामोऽस्ति)। 

भावार्थ:- सः रामः राजशासनपद्धतिरूपधर्मस्य पालकः स्वकीयकुटुम्बजनस्य च पालकः ऋग्यजुःसामाथर्वाणां चतुर्णां वेदानां शिक्षाकल्पव्याकरण निरुक्तच्छन्दज्यौतिषाणां वेदाङ्गानाञ्च रहस्यवेत्ता धनुर्वेदे च निष्णातोऽस्ति ।

हिन्दी शब्दार्थ - स्वस्य= अपने । धर्मस्य= यज्ञ, अध्ययन, दण्डयुद्ध आदि क्षत्रियोचित धर्म का।  रक्षिता - रक्षक। स्वजनस्य च = और अपने बन्धु बान्धवों का। रक्षिता= रक्षक। वेद-वेदाङ्ग - तत्त्वज्ञः = ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेद तथा अथर्ववेद इन चारों वेदों एवं शिक्षाकल्पज्योतिषनिरुक्तछन्द तथा व्याकरण- इन छ: वेदाङ्गों के रहस्य को जानने वाला।  धनुर्वेदे = धनुर्विद्या (यहाँ धनुष् शब्द समस्त शस्त्रों तथा अस्त्रों का उपलक्षण है । अर्थ हुआ = शस्त्रास्त्र विद्या ) । निष्ठितः = अभ्यस्तकुशल । च = और  (राम हैं)। 

हिन्दी भावार्थ   – (भगवान् राम) अपने (जातीय तथा मानवीय) धर्म के रक्षक तथा स्वजनों के परिपालक हैं। वे चारों वेदों एवं छहों वेदाङ्गों के रहस्य को जानने वाले और धनुर्विद्या में कुशल हैं।

व्याकरण

सन्धि-

वेदाङ्ग = वेद + अङ्ग ( दीर्घ सन्धि )।

कारक-

'स्वस्य धर्मस्य एवं 'स्वजनस्यमें 'कर्तृकर्मणोः कृतिःसे कर्म में पष्ठी है। 'धनुर्वेदेमें वैषयिक आधार के कारण सप्तमी है। 

(ख) समास - 

स्वजनस्य = स्वश्चासौ जनः स्वजन: तस्य, (कर्म० त०) । 

वेद-वेदाङ्ग-तत्त्वज्ञः = वेदाश्च वेदाङ्गानि च वेद-वेदाङ्गानितेषां तत्त्वं जानाति इति । ( द्वन्द्वष० त०उपपद०) ।

धनुर्वेदे = धनुषो वेदःतस्मिन् (षष्ठी तत्पुरूष) ।

१४ विद्याओं में ४ उपविद्याएँ जोड़ देने पर १८ विद्याएँ स्वीकृत की गई हैं।

इन्ही ४ उपविद्याओं में धनुर्वेद भी एक हैं। 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

रक्षिता = √रक्ष + तृच् (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

तत्त्वज्ञ = तस्य भावः तत्त्वं ( तत् + त्व)तद् जानाति इति तत्त्वज्ञः (तत्त्व + √ज्ञा + क = पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

निष्ठितः = निष्ठा सञ्जाताऽस्मिन्निति निष्ठितः । निष्ठा + इतच् = निष्ठित + पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन= निष्ठितः । अथवा नितरां स्थितः == निष्ठितः । निः + √स्था + क्त निष्ठित + पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन= निष्ठितः । 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलंकार है।

(ख) रस-  वीर रस

(ग) कोष- 

वेद = 'श्रुतिः स्त्री वेद आम्नायइत्यमरः १/६/३/ 

धर्म = 'धर्मस्तु तद्विधिःइत्यमरः १/६/३/ 

स्व – 'स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं विष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धनेइत्यमरः ३/३/२१२/ 

स्वजन- 'सगोत्र-बान्धव-ज्ञाति-बन्धु-स्व-स्वजनाः समाःइत्यमरः २/६/३४/

टिप्पणी- यहाँ एक आदर्श नरेश के लिए अपेक्षित गुणों ( धार्मिकतास्वजन वात्सल्यविद्वत्ता तथा वीरता) का दिग्दर्शन किया गया है।

तिलक टीका- रक्षितेति । स्वस्य धर्मस्य यज्ञाध्ययनदानदण्डयुद्धादिरूपस्य रक्षिता सादरमनुष्ठाता । स्वजनस्य स्वभक्तजनस्यावश्यंभाविनो ऽप्यनिष्टस्य निरासपूर्वकं परमेष्टमोक्षदानेन रक्षिता । तच्चाम्बरीषप्रह्लादध्रुवादीनां रक्षणेन प्रसिद्धमेव । वेदानामृग्यजुःसामार्थवणां छन्दःकल्पव्याकरणज्योतिषनिरुक्तशिक्षारूपदेवाङ्गानां च तत्त्वज्ञः पाठतो ऽर्थतश्च ज्ञाता । शस्त्रास्त्रादिप्रतिपादकं शास्त्रं धनुर्वेदस्तस्मिन्निष्ठितः सम्यक्तज्ज्ञाता ।। 1.1.14 ।।

सन्दर्भ - अब राम के शास्त्रीय ज्ञान तथा लौकिक व्यवहार-ज्ञान के कौशल का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है 

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो स्मृतिमान्प्रतिभानवान् ।

सर्वलोकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षणः ।। १५।।

अन्वयः - (रामः) सर्वशास्त्रार्थ-तत्त्वज्ञः स्मृतिमान् प्रतिभानवान् । सर्वलोकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षणः (च अस्ति)

शब्दार्थ -सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः=सम्पूर्णशास्त्रार्थरहस्यवेत्ता। स्मृतिमान्=मेधावीअधीतवेदशास्त्रार्थविस्मरणरहितः। प्रतिभानवान्=प्रत्युत्पन्नमतिशाली। सर्वलोकप्रियः = सकललोकानुरञ्जनः। साधुः = सज्जनः। अदीनात्मा= अकातरस्वभावःउदारः। विचक्षणः= पण्डितश्चास्ति रामः।

भावार्थः- सः रामः सम्पूर्णशास्त्रार्थरहस्यवेत्ता स्मरणशक्तिसम्पन्नः प्रत्युत्पन्नमतिः सकललोकानुरञ्जकः सज्जनः उदारवादी तेजस्वी सदैवोत्साहान्वितः पण्डितश्चास्ति।

हिन्दी शब्दार्थ - सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः= समस्त शास्त्रों के अर्थ जानने वाले। स्मृतिमान्  = स्मृति (मनुस्मृति आदि स्मृति-ग्रन्थों) के ज्ञाता या स्मरण शक्ति से युक्त । प्रतिभानवान् = प्रतिभाशाली । सर्वलोकप्रियः = सभी लोगों के प्रिय। साधुः = सद्-विचार सम्पन्न । अदीनात्मा = अदीन (अखिन्नअव्यथित प्रसन्नउदार) अन्तःकरण वाला विचक्षणः यथोचित लौकिक अलौकिक सभी क्रियाओं में कुशल, चतुर । (राम हैं)

हिन्दी भावार्थ – (वे भगवान् राम ) समस्त शास्त्रों के अर्थ के मर्मज्ञमनुस्मृति आदि स्मृतियों के ज्ञाता या स्मरण शक्ति से युक्तप्रतिभा-शालीसमस्त लोकों या सभी लोगों को प्रिय लगने वाले सद्-विचार सम्पन्न प्रमुदित या उदार अन्तःकरण वाले एवं व्यवहार-पटु है।

व्याकरण

सन्धि-

अदीनात्मा = अदीन + आत्मा = अदीनात्मा( दीर्घ ० ) ।

साधुरदीनात्मा = साधुस् + अदीनात्मा = साधुरदीनात्मा । (विसर्ग   ) । 

शास्त्रार्थ = शास्त्र + अर्थ ( दीर्घ सन्धि )। 

(ख) समास - 

सर्व-शास्त्रार्थ-तत्त्वज्ञः = सर्वाणि च तानि शास्त्राणि = सर्वशास्त्राणितेषाम् अर्थाःतेषां तत्त्वं जानाति इति । (कर्म० तत्पुरूष, षष्ठी तत्पुरूष, उपपद समास ) । 

सर्वलोकप्रियः = सर्वे च ते लोकाः सर्वलोकाःतेषां प्रियः (कर्म०षष्ठी तत्पुरूष ) । 

अदीनात्मा = न दीनः अदीनःअदीन आत्मा यस्य सः (नञ् तत्पुरूष, बहुव्रीहि समास) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

स्मृतिमान् = स्मृति + मतुप्पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन। 

प्रतिभानवान् = प्रतिभान + मतुप्प्रथमा, एकवचन। 

साधुः = साध्नोति परं कार्यम् इति साधु: । √साध् + उ (औणादिक प्रत्यय) । 

(क) अलंकार- अनुप्रास तथा भाविक अलंकार हैं ।

(ख) कोष-  

स्मृति = स्मृतिस्तु धर्म-संहिताइत्यमरः १/६/६/ 'स्याच्चिन्ता स्मृतिराध्यानम्इत्यमरः १/७/२६ । 

साधु = 'महाकुलकुलीनार्य-सभ्य-सज्जन-साधवःइत्यमरः २/८/३/ 

विचक्षण = 'लब्धवर्णो विचक्षणः । दूरदर्शी इत्यमरः २/७/६ ।

टिप्पणी- भगवान् राम में शास्त्रीय वैदुष्य तथा लोक व्यवहार चातुरी इन दोनों तत्त्वों का समन्वय वर्णित हैक्योंकि शास्त्र -कुशल व्यक्ति भी लोक-व्यवहार में निपुण न होने पर उपहास पात्र हो जाता है 

'अपि शास्त्रेषु कुशला लोकाचार-विवर्जिताः । सर्वे ते हास्यतां यान्ति यथा ते मूर्ख पण्डिताः ।' (पञ्चतन्त्र ) ।

अर्थ - विभिन्न शास्त्रों में कुशल व्यक्ति  भी यदि  सामाजिक व्यवहार से रहित हों  तो ऐसे व्यक्ति  हंसी के पात्र होते है,  जैसे वे मूर्ख पण्डित उपहास के पात्र हुए।

तिलक टीका- सर्वेति । साङ्ख्ययोगतर्कपूर्वोत्तरमीमांसासूत्राणि सव्याख्यानान शास्त्राणिस्मृतय उपस्मृतयश्च तत्त्वार्थशासकत्वाच्छास्त्रम्सर्वमूलशब्दशासकत्वाद्व्याकरणं च शास्त्रम्तथैव कामन्दकादीन्यपि नीतिशास्त्राणिसर्वेषामेषामर्थतत्त्वज्ञः । स्मृतिमानुक्ताधीतवेदशास्त्रार्थविस्मरणरहितः । प्रतिभानवान्व्यवहारकाले श्रुतस्याश्रुतस्य चोचितार्थस्य शीघ्रं प्रतिभासः प्रसिभानं तद्वान् । तदुक्तम् "प्रज्ञां नवनवोन्मेषशालिनीं प्रतिभां विदुः" इति । सर्वलोकप्रियो द्रष्टृस्मर्तृलोकानामिहामुत्रहितावहः । साधुर्मृदुमधुरस्वभावः । अदीनात्मा सहजासाधारणक्षत्रभावेनादीनस्वभावः । अतिव्यसनपरम्परायामप्यक्षुभितान्तःकरणो वा । विचक्षणो यथोचितलौकिकालौकिकसर्वक्रियासु कुशलः ।। 1.1.15 ।।

सन्दर्भ- अधोलिखित पद्य सज्जनानुरागी राम के समदर्शी प्रिय स्वभाव को सूचित करता है :-

सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः ।

आर्यः सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शनः[2] ।। १६।।

अन्वयः- (रामः) सिन्धुभिः (अभिगतः) समुद्र इव सर्वदा सद्भिः अभिगतः (अस्ति) । (सः) आर्यःसर्व-समःसदैव प्रियदर्शनः च एव (अस्ति) । 

शब्दार्थ - (सः रामः) सिन्धुभिः (अभिगतः) = नदीभिः । समुद्रः = सागर । इव = यथा । सर्वदा=सततम्। सद्भिः=सज्जनैः। अभिगतः=सेवितः (अस्ति)। (सः) आर्यः=कुलीनः। सर्वसमः =सर्वेषु उत्तममध्यमाधमेषु जनेषु समदर्शी। सदैव=सर्वदैव। प्रियदर्शनः =मधुराकृतिः । एव च = अपि निश्चयेन (अस्ति)।

भावार्थः- सः रामः नदीभिः सागरः इव सज्जनैः सेवितः महाकुलप्रसूतः सर्वेषु उत्तममध्यमाधमेषु जनेषु समदर्शी सर्वदैव मधुराकृतिरस्ति।

हिन्दी शब्दार्थ - सिन्धुभिः = नदियों से । अभिगतः = संगतसम्मिलित । समुद्रः इव = सागर के जैसे । सर्वदा= हमेशा। सद्भिः = सज्जनों या विद्वानों से । अभिगतः=सेवित (हैं)। (सः- वह) आर्यः = श्रेष्ठमहानुभाव । सर्व-समः = सभी के साथ समान व्यवहार करने वाला । सदैव = हमेशा।  प्रिय-दर्शन: =  मधुर आकृति वाले, आकर्षक ।( हैं)

हिन्दी भावार्थ  - (भगवान् राम) सज्जनों या विद्वानों से सर्वदा संगत रहते हैंजैसे समुद्र नदियों से संगत रहता है। वे श्रेष्ठ आचरण वालेसभी के साथ समान व्यवहार करने वाले एवं सदैव प्रिय (आकर्षक) दर्शन वाले हैं।

व्याकरण

सन्धि-

सर्वदाभिगतः = सर्वदा + अभिगतः ( दीर्घ सन्धि )। 

समश्चैव = समः + च == समश्च (श्चुत्व) + एव = समश्चैव ( वृद्धि० ) । 

सदैव = सदा + एव ( वृद्धि) । 

(ख) समास - सर्व-समः = सर्वेषु समः ( स० त० = प्रिय-दर्शन = प्रियं दर्शनं यस्य सः ( बहुव्रीहि समास) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

सर्वदा = सर्व + दा ।  अव्यय-पद । 

अभिगतः : = अभि । √गम् = = क्त = अभिगत + पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन । 

आर्यः = '√गतौ + ण्यत् । शाब्दिक अर्थ है-गमनीयअनुगमनीय या अनुकरणीय । 

(क) अलंकार-  अनुप्रास तथा उपमा अलंकार हैं।

(ख) रस- ध्वनि- सज्जनों के प्रति प्रीति-विशेष के कारण यहाँ 'भावध्वनि है। रतिर्देवादि-विषयाव्यभिचारी तथाऽञ्जितः । 'भाव:प्रोक्तः ।' (काव्य-प्रकाशच० उ०) ।

(ग) कोष- 

सद्भिः (सन् ) = 'सत्ये साधौ विद्यमाने प्रशस्तेऽभ्यहिते च सन् इत्यमरः ३/३/८३ । 

सिन्धु – 'देशे नद-विशेषेऽन्धो सिन्धुर्ना सरिति स्त्रियाम् ।इत्यमरः ३/३/१०१। 

आर्य = 'महाकुल-कुलीनार्य सभ्य-सज्जन-साधवः ।इत्यमरः २/७/३ । 

टिप्पणी- जैसे समुद्र में विशाल नदियाँ प्रत्यक्ष रूप में मिलती हैं तथा सामान्य नदियाँ बड़ी नदियों के सहारे (अप्रत्यक्षतः) मिलती हैंवैसे ही भगवान् राम से महापुरुष एवं सामान्य पुरुष क्रमशः प्रत्यक्षतः तथा अप्रत्यक्षतः मिलते रहते हैं । 

तिलक टीका- सर्वदेति । सर्वदा होमदेवपूजासभाधिष्ठानकालेषु तत्तत्कालोचितैः सद्भिः सात्विकस्वभावैः पुरोहितद्विज-मन्त्रिप्रधानादिभिः सिन्धुभिर्नदीभिः समुद्र इव अभिगतः सेवितः । यद्वा सद्भिर्भक्तैः सदा सेवितः । भगवत्सेवायां कालनियमाभावात् । दृष्टान्तेन तं प्राप्तानां सतां भक्तानां तेन सहैक्यं ध्वनयति । आर्यः सर्वपूज्यः । सर्वेषु सुखदुःखोदर्केषु समो हर्षविषादरहितः शत्रुमित्रोदासीनेषु वैषम्यरहितः । तत्तत्कार्यानुरूपफलदातेत्यर्थः इत्यन्ये । सदैव सर्वावस्थासु मुहुर्मुहुरनुभवे ऽप्यननुभूतपूर्ववद्विस्मयनीयदर्शनः ।। 1.1.16 ।

सन्दर्भ – अग्रिम पद्य में राम की धीरतागम्भीरता का संकेत मिलता हैं

स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः ।

समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ।। १७।।

अन्वयः- सर्व गुणोपेतः सः कौसल्यानन्द-वर्धनः,  गाम्भीर्ये समुद्र इव धैर्येण हिमवान् इव च (अस्ति) ।

शब्दार्थ - सर्वगुणोपेतः = दयादाक्षिण्यादिसमस्तगुणगण-समन्वितः । सः  = रामः । कौशल्यानन्दवर्धनः = निजजननीहर्षोत्पादकः। गाम्भीर्ये= गम्भीरतायाम्। समुद्रः इव=सागरः यथा। धैर्येण=धीरतया। हिमवान् इव=हिमालयः यथा ।  = अपि (अस्ति) ।

भावार्थ:- सः रामः दयादाक्षिण्यादिसमस्तगुणगणसमन्वितः निजजनन्याः कौशल्यायाः हर्षोत्पादकः वर्तते तथा सागरः इव गम्भीरः हिमालयः इव धीरश्च अस्ति । 

हिन्दी शब्दार्थ -  सर्व-गुणोपेतः - समस्त गुणों से युक्त । सः  = वह राम । कौसल्यानन्द-वर्धनः = अपनी  माता कौसल्या के आनन्द को बढ़ाने वाले । गाम्भीर्ये = गम्भीरता में । समुद्रः इव= सागर के समान । धैर्येण=धीरता में ।हिमवान् = हिमालय पर्वत । इवके जैसे।  = और (हैं) 

हिन्दी भावार्थ  - समस्त गुणों से सम्पन्न वे (भगवान् राम) कौसल्या (नामक अपनी माता) के आनन्द को बढ़ाने वालेगम्भीरता में समुद्र की भाँति ( अगाध ) तथा धैर्य के कारण हिमालय पर्वत की भाँति (उन्नत) हैं।

व्याकरण

सन्धि-

उपेतः = उप + इतः = उपेतः (गुण संधि) 

सर्वगुणोपेतः  सर्वगुण + उपेतः = सर्वगुणोपेतः ( गुण सन्धि )

कौसल्यानन्द - कौसल्या + आनन्द = कौसल्यानन्द (दीर्घ सन्धि) । 

(ख) समास - 

सर्वगुणोपेतः = सर्वेः गुणैः उपेतः (तृ०तत्पुरूष) । 

कौसल्यानन्दवर्धनः = कौसल्याया आनन्दःतं वर्धयति इति (षष्ठी तत्पुरूषउपपद त० ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

उपेतः = उप + √ इण् + क्त (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) ।

वर्धनः = √वृध् + णिच् + ल्यु (कर्तरि)पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन।

गाम्भीर्ये = गम्भीरस्य भावः गाम्भीर्यःतस्मिन्गम्भीर + ध्य= गाम्भीर्य + नपुंसकलिंगसप्त० एकवचन।

धैर्य्येण = धीरस्य भावः कर्म वा धैर्य्यंतेन। धीर+ ष्यञ्- धैर्य्यं + तृ० एकवचन, नपुंसकलिंग ।

हिमवान् = हिम + मतुप् = हिमवत् + पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन।

(क) अलंकार- उत्तरार्ध में उपमालंकार है।

(ख) रस- 'वत्सलरस द्योतित होता है।

(ग) कोष- 

हिमवान् = 'हिमवान् निषधो विन्ध्यो नगाः -इत्यमरः २/३/३  

धीरः = 'धीरो मनीषी ज्ञः प्राज्ञ इत्यमरः २/७/५/ 

गम्भीर = निम्नं गभीरं गम्भीरम्इत्यमरः १/१०/१५ । 

टिप्पणी- जैसे गम्भीरता (गहराईअतल-स्पृश्यता) के कारण समुद्र के निम्नतम तल का स्पर्शज्ञान असम्भव है-वैसे ही गम्भीर प्रकृति के कारण राम के हृदय-गत गूढ आशय का ज्ञानअनुमान सर्वजन-ज्ञातव्य नहीं है। जैसे धैर्य्य (सहिष्णुता) के कारण हिमालय शीतवर्षाप्रचण्ड आतपहिम-पात आदि प्राकृतिक विपदाओं को अविचलित होकर सहता रहता है-तथैव भगवान् राम भी मुखदुःखमान-अपमान आदि द्वन्द्वात्मक वृत्तियों को एक (तटस्थ) भाव से सहते, निश्चल बने रहते है।

तिलक टीका- स चेति । स रामः सर्वैर्गुणैर्युक्त उक्तैर्वक्ष्यमाणैश्च । कौसल्यानन्दवर्धनत्वेन महाकुलप्रसूतत्वप्रधान- महिषीपुत्रत्वादि- रूपस्याभिषेकोचितधर्मस्य सत्ता दर्शिता । गाम्भीर्यमगाधाशयत्वं तत्र समुद्रतुल्यः । धैर्यं मनसाप्यधृष्यत्वम्इष्टवियोगादावनभिभूतचित्तत्वंच रणे ऽचलतया सहायाभावे ऽपि स्थितिश्चतेन हिमवत्सदृशः ।। 1.1.17 ।।

विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः ।

कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः ।। १८।।

धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः ।

अन्वयः - ( स रामः ) वीर्ये विष्णुना सदृशः सोमवत् प्रिय-दर्शनःक्रोधे कालाग्नि-सदृशःक्षमया पृथिवी-समःत्यागे धनदेन समःसत्ये (च) अपरः धर्म इव (अस्ति) । 

शब्दार्थ - ( स रामः ) वीर्ये=पराक्रमे। विष्णुना=नारायणेन । सदृशः  =  तुल्यः । सोमवत्प्रियदर्शनः= चन्द्रतुल्यः मधुराकृतिः वर्तते । क्रोधे=कोपे। कालाग्निसदृशः= प्रलयकालिकवह्नितुल्यः । क्षमया=अपराधिषु अनपकारेच्छा क्षमाया  =  शान्त्या। पृथिवीसमः = धरित्रीसदृशः । त्यागे  =  धर्मार्थधनव्ययविषये। धनदेन= कुबेरेण । समः=तुल्यः। सत्ये=सत्यवचने। अपरः= द्वितीयः। धर्म इव= धर्मराज इव (रामोऽस्ति)।

भावार्थ:- रामः युद्धकाले पराक्रमे नारायणतुल्यः चन्द्रमाः इव सर्वजनहृदयाह्लादकः वर्तते। क्रोधावसरे सः प्रलयकालाग्निसमः शान्त्या च पृथिवीतुल्योऽस्ति। याचकानां कृते धनवितरणकाले सः खलु द्वितीयः धर्मराज इवास्ति। 

हिन्दी शब्दार्थ - ( स रामः ) वीर्य्ये = पराक्रम में । विष्णुना=नारायण के । सदृशः  =  समान (हैं) । सोमवत् = चन्द्रमा की भाँति । प्रियदर्शनः= आकर्षक स्वरूप वाले । क्रोधे= क्रोध में। कालाग्नि-सदृश: = प्रलय-कांलिक अग्नि के समान । क्षमया = सहनशीलता के द्वारासहिष्णुता । त्यागे = दान में । धनदेन  = कुबेर के । समः =  समान । सत्ये=सत्यवचन में ।   अपर: = दूसरे । धर्म इव = धर्मराज के समान । (राम हैं)

हिन्दी भावार्थ  - ( वे भगवान् राम )  पराक्रम में विष्णु के समान चन्द्रमा के समान आकर्षक (रोचक) स्वरूप वालेक्रोध में प्रलय-कालिक अग्नि के समान (भयंकर)सहनशीलता में पृथ्वी के समान (अविचलित)दान (शीलता) में धनेश कुबेर के समान (उदार) तथा सत्य (के पालन) में द्वितीय धर्मराज के समान (कठोर) हैं।

व्याकरण

(क) कारक –  'विष्णुना सदृश:धनदेन समःइन दोनों स्थलों में समानार्थक शब्दों के योग में (विष्णुना तथा धनदेन में) तृतीया हुई है। 'कालाग्निसदृशः तथा 'पृथिवीसम:' – इन समस्त पदों में भी समास के पूर्व कालाग्नि एवं पृथिवी में तृतीया ऊहनीय है। 'तुल्यार्थेरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम्- इस सूत्र-नियम के अनुसार ही उक्त सारे स्थलों में तृतीया हुई है ।

(ख) सन्धि-

कालाग्नि = काल + अग्नि ( दीर्घ सन्धि )। 

इवापरः = इव + अपरः ( दीर्घ सन्धि )। 

समस्त्यागे = समः + त्यागे (विसर्ग सन्धि )। 

(ग) समास - 

कालाग्नि-सदृशः = कालस्य अग्निःतेन सदृशः (षष्ठी तत्पुरूषतृतीया तत्पुरूष) । 

पृथिवी-समः = पृथिव्या समः (तृतीया तत्पुरूष) । 

धनदेन = धनं ददाति इति धनदःतेन ( उपपद त ० ) ।

 (क) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

वेवेष्टि व्याप्नोति सकलं जगद् इति विष्णुःतेन । √विष्लृ + नुक् ।

सोमवत् = सोम इवसोम + वतिअव्यय-पद ।

धनदेन = धनं ददाति इति धनदःतेन । धन + √दा + क - धनद + पुल्लिँगतृ० एकवचन।

सत्ये = सते हितंसताम् इदं वा सत्यंतस्मिन् । 'सत्' (समीचीनसाधुविद्वान् या विद्यमान) शब्द से 'तस्मै हितम्अथवा 'तस्येदम्सूत्र से यत् प्रत्यय ज्ञातव्य है ।

वीर्ये = वीर + यत् (सप्त० एकवचन) वीरेभ्यो हितम् अथवा वीराणाम् इदं = वीर्यंतस्मिन् । 

(क) अलंकार- प्रत्येक चरण में उपमालङ्कार है। अन्तिम चरण में 'उत्प्रेक्षाध्वनित होती है ।

(ग) कोष-

वीर्य = 'वीर्यं बले प्रभावे चइत्यमरः ३/३/१५५ ।

सत्य = 'सत्यं शपथ-तथ्ययोःइत्यमरः ३।३।१५४ ।

सोम= 'सोमो ग्लौर्मृगाङ्क: कलानिधिःइत्यमरः १।३।१४  

काल = कृतान्तानेहसोः कालइत्यमरः ३।३।१६४ १

धर्म = धर्माः पुण्य-यम-न्याय-स्वभावाचार-सोमपाःइत्यमरः ३।३।१३६ । 

टिप्पणी- सर्वदेवात्मक राम के वर्णन-प्रसङ्ग में सर्वप्रथम विष्णु के समान बताने की गूढ व्यञ्जना 'राम को विष्णु का अवतारघोषित करती है। 

तिलक टीका- विष्णुनेति । यद्यपि रामो विष्णुरेव सर्वरूपश्च तथापि मानुषोपाधिभेदात्सर्वत्र सादृश्यं द्रष्टव्यम् । यद्वा विष्णुना सदृश इत्यनन्वयालङ्कारः । चन्द्रवत्प्रजाव्यवहारनिरीक्षणकाले सौम्यदर्शनः । क्रोधे युद्धकालिके कालाग्निसदृशः । परैरधृष्य इति यावत् । क्षमाप्रतीकारसामर्थ्ये ऽप्यपकारसहिष्णुता तया पृथिवीतुल्यः ।। 1.1.18 ।।

धनदेनेति । त्यागे धनत्यागे धर्मार्थं धनव्ययविषये ऽपेक्षितधनसम्पत्तौ धनदेन नवनिधीशेन समः । अस्मिन्नेवांश उपमान तु त्यागांशे । तस्य धनसङ्ग्रह एव प्रवृत्तेः । धनदव्यवहारस्तु कतिपयत्रिदशेभ्यो भगवदाज्ञया कतिपयधनदानमात्रादिति बहवः । सत्ये सत्यवचने ऽपरो धर्म इव धर्मस्य मूर्त्यन्तरमिवेत्युत्प्रेक्षा । एतदन्तं बालकाण्डीयार्थसङ्ग्रहः । 

।सन्दर्भ- अग्रिम चारों पङ्क्तियों में 'राजा दशरथ के द्वारा राम जैसे सर्व गुण सम्पन्न ज्येष्ठ राजकुमार को युवराज बनाने की इच्छा करनावर्णित है। इस प्रकार यहीं से संक्षिप्त राम-जीवन-कथा का श्रीगणेश हो रहा है। यही संक्षिप्त राम-कथा 'मूल रामायणभी कही जाती है :

तमेवं गुणसम्पन्नं रामं सत्यपराक्रमम् ।। १९।।

ज्येष्ठं श्रेष्ठगुणैर्युक्तं प्रियं दशरथः सुतम् ।

प्रकृतीनां हितैः युक्तं प्रकृतिप्रिय काम्यया ।। २०।।

यौवराज्येन संयोक्तुमैच्छत्प्रीत्या महीपतिः ।

अन्वयः  महीपतिः दशरथः एवं गुण-सम्पन्नं सत्य-पराक्रमंश्रेष्ठ-गुणैः युक्तंप्रकृतीनां हितैः युक्तंप्रियं ज्येष्ठं सुतं तं रामंप्रकृति-प्रियकाम्यया प्रीत्या यौवराज्येन संयोक्तुम् ऐच्छत् ।

शब्दार्थ - महीपतिः=भूपतिः। दशरथः = दशरथनामा अयोध्यायाः नृपतिः। एवम् = इत्थम्। गुणसम्पन्नम्= शौर्यौदार्यादिगुणगणान्वितम्। सत्यपराक्रमम् =अमोघवीर्यम्। श्रेष्ठगुणैः= सर्वाधिकप्रशंसनीयगुणैः। युक्तम्= समन्वितम्। प्रकृतीनाम्= प्रजानाम्। हितैः= हितावहैः कार्यैः। युक्तम्= समन्वितम्। प्रियम्= अभीष्टम्। ज्येष्ठम्= पुत्रचतुष्टयमध्ये प्रथमम्। सुतम्= पुत्रम्। तम्= पूर्वोक्तम्। रामम्= श्रीरामचन्द्रम्। प्रकृतिप्रिय-काम्यया=प्रजाहितकामनया। प्रीत्या= स्नेहेन। यौवराज्येन संयोक्तुम्= युवराजं कर्तुम् । ऐच्छत्= अभिलषितवान्।

भावार्थ:- दशरथनामा अयोध्यायाः महाराजः अमोघवीर्यं पुत्रचतुष्टयमध्ये प्रथमं सर्वाधिकप्रशंसनीयगुणैः समन्वितं प्रजानां हितावहैः कार्यैः सम्पन्नमित्थं दयादाक्षिण्यशौर्यौदार्यगम्भीरादिगुणगणान्वितं प्रियं पुत्रं श्रीरामचन्द्रं प्रजाहितकामनया स्नेहेन युवराजं कर्तुमभिलषितवान्।

हिन्दी शब्दार्थ - महीपतिः = भूपतिराजा । दशरथः = अयोध्या-नरेश दशरथ । एवम् = इस प्रकार, पूर्व में कहे गये। गुणसम्पन्नम्= गुण से युक्त। सत्यपराक्रमम् = यथार्थ या अमोध शक्ति वाले । श्रेष्ठ-गुणैः = अति प्रशंसनीय सद्गुणों से । युक्तम्= समन्वित, युक्त, सम्पन्न। प्रियम्= प्रिय। ज्येष्ठम्= चारों पुत्रों में सबसे बड़े । सुतम्= पुत्र को। प्रकृतीनां = मन्त्रीपुरोहित आदि अट्ठारह  प्रकृतियों के। हितैः = कल्याणकारक कार्यों से । तम्= उस। रामम्= राम को। प्रकृति-प्रिय-काम्यया = प्रजाओं के अनुकूल कार्य करने की कामना से । प्रीत्या = प्रीति-पूर्वकप्रेम-वश । यौवराज्येन = युवराज पद से। संयोक्तुम् = संयुक्त करना । ऐच्छत् = चाहा।

हिन्दी भावार्थ  - अयोध्या नरेश महाराज दशरथ ने इस प्रकार के (उपरि वर्णित) गुणों से सम्पन्नअमोध शक्ति से युक्तअत्यन्त प्रशंसनीय गुणों से युक्तप्रजाओं के प्रिय कार्यों को सम्पन्न करने में तत्परएवं परम प्रिय (अपने) ज्येष्ठ पुत्र राम को प्रजाओं की हित-कामना सेप्रेम-पूर्वक 'युवराज' –पद से संयुक्त करना चाहा ।

व्याकरण

(क) समास - 

एवं गुण सम्पन्नं = एवं गुणे: सम्पन्नः तम् (तृतीया तत्पुरूष ) ।

सत्य-पराक्रमम्= सत्यः (सफलःअमोधो वा) पराक्रमः यस्य तम् (बहुव्रीहि समास)।

ज्येष्ठ-गुणैः = अतिशयेन प्रशस्या ज्येष्ठाः । ते च ते गुणाःतैः (कर्म० तत्पुरूष ) ।

प्रकृति-प्रिय-काम्यया  प्रकृतीनां प्रियस्य काम्यातया (षष्ठी तत्पुरूष) ।

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

सम्पन्नम् = सम् + √पद् + क्त, (पुल्लिँग द्वि० एकवचन) ।

ज्येष्ठम् = अतिशयेन प्रशस्यःज्येष्ठःतम् । 'प्रशस्य + (अतिशायने) इष्ठन्में 'ज्य चसे प्रशस्य को 'ज्यआदेश हुआ है।

प्रीत्या = √प्री + क्तिन् (स्त्री०तृ० एकवचन) ।

संयोक्तुम् = सम् + √युज् +तुमुन् (अव्यय पद) ।

ऐच्छत् = √ इष् + = लङ् + प्रथमा, पु० एकवचन।

यौवराज्येन = युवा चासौ राजा युवराजःतस्य भावः कर्म वा = यौवराज्यं तेन । युवराज + ष्यञ् (नपुंसकलिंगतृ० एकवचन) ।

प्रियकाम्यया = प्रियस्य कामना प्रियकाम्यातया । प्रिय-काम्य + अ + (स्त्रियाम्) टाप् = प्रिय-काम्या + तृ० एकवचन।

(क) अलंकार-  अनुप्रासालङ्कार है। विषयक प्रेम का निदर्शन होने के कारण 'भावध्वनि ।

(ख) रस- मम्मट के परवर्ती कालचक्र में यहाँ 'वत्सल रसमाना जा सकता है।

(ग) कोष- प्रकृति = 'प्रकृतयः पौराणां श्रेणयोऽपि चइत्यमरः २।८।१८।

ज्येष्ठ – विषु ज्येष्ठोऽतिशस्तेऽपि इत्यमरः ३।३।४१ ।

टिप्पणी- राम के लिए प्रदत्त विशेषण-पद वस्तुतः किसी भी भविष्णु आदर्श युवराज के लिए उपादेय एवम् अनुरूप ही हैं। युवराजोचित गुण-गणों से मण्डित 'रामको देख कर ही दशरथ ने उपयुक्त समय में उन्हें युवराज बनाना चाहा ।

तिलक टीका- "तमेवम्" इत्यादिनायोध्याकाण्डीयार्थसङ्ग्रह आरभ्यते । तत्रेक्ष्वाकुवंशप्रभव इत्यनेन भगवदाविर्भावः सूचतः । महावीर्यःशत्रुनिबर्हण इत्यनेन विश्वामित्रानुग्रहजशस्त्रास्त्रसम्पत्तिताटकावधादि सूचितम् । लक्ष्मीवानित्यनेन सीतापरिणयः सूचितः । सत्यपराक्रममित्यनेन भार्गवलोकप्रतिबन्धादि सूचितम् । एवंगुणसम्पन्नं प्रागुक्तरीत्या सकलकल्याणगुणयुक्तम् । सत्यपराक्रमममोघपराक्रमम् ।। 1.1.19 ।।

ज्येष्ठमिति । ज्येष्ठगुणैर्यौवराज्याभिषेकार्हगुणैर्युक्तम् । प्रकृतीनां प्रजानां हितैरिहामुत्रहितावहैर्युक्तम् । ज्येष्ठं सुतं रामम् । प्रकृतिप्रियकाम्यया प्रकृतीनां प्रियं कर्तुमिच्छया । "छान्दसः काम्यच्" इति प्राञ्चः । प्रकृतिसम्बन्धेनात्मनः प्रियं कर्तुमिच्छया । युवराजेन हि प्रजाकृत्ये सम्पादिते सति व्यवहारादिनिरीक्षणजन्यश्रमनिवृत्तिरूपं प्रियं स्वस्य भवतीति वयम् ।। 1.1.20 ।।

यौवराज्येनेति । युवराजस्य भावो यौवराज्यम् । पितरि राज्यं कुर्वत्येव सर्वराजव्यापारे ऽभिषेकपूर्वकमधिकृतः पुत्रो युवराजः । संयोक्तुं योजयितुम् । महीपतिर्दशरथः ऐच्छत् । 

सन्दर्भ-  राम के राज्याभिषेक की सामग्रियों को देखकर परितप्त-हृदया कैकयी ने दशरथ से पूर्वस्वीकृत दो वरों को माँगा- राम का वन-वास एवं भरत का राज्याभिषेक ।

तस्याभिषेकसम्भारान्दृष्ट्वा भार्याथ कैकयी ।। २१।।

पूर्वं दत्तवरा देवी वरमेनमयाचत ।

विवासनं च रामस्य भरतस्याभिषेचनम् ।। २२।।

अन्वयः  अथ पूर्वं दत्तवरा तस्य भार्या देवी कैकयी अभिषेक-सम्भारान् दृष्ट्वा एनं (दशरथं) वरम् अयाचत। रामस्य विवासनंभरतस्य  अभिषेचनं  (इति) । 

शब्दार्थ - अथ= रामाय राज्यप्रदानेच्छानन्तरम्। पूर्वम्= पुरा। दत्तवरा=अर्पिताभिलषितवरद्वया। तस्य=रामस्य ।भार्या= जायाराज्ञः दशरथस्य मध्यमा पत्नी। देवी कैकेयी= केकयराजपुत्री।  अभिषेकसम्भारान्= दध्यक्षतदूर्वाफलपुष्पच्छत्रचामरादीन् यौवराज्याभिषेकार्थम् आहृतान् द्रव्यसमूहान्। दृष्ट्वा= आलोक्य।एनम्=महीपतिं दशरथम् । वरम्= मनोगतं प्रार्थनीयम्। अयाचत= प्रार्थितवती । रामस्य= यौवराज्यार्थमुद्युक्तस्य दाशरथेः। विवासनम्= राज्यादुद्वास्य चतुर्दशवर्षपर्यन्तं वनवासम्। भरतस्य = एतदाख्यस्य स्वीयपुत्रस्य। = अपि । अभिषेचनम् =यौवराज्याभिषेचनम् ।  

भावार्थ:- रामाय राज्यप्रदानेच्छानन्तरं पूर्वम् अर्पिताभिलषितवरद्वया राज्ञः दशरथस्य मध्यमा पत्नी कैकेयी रामस्य दध्यक्षतदूर्वाफलपुष्पच्छत्रचामरादीन् यौवराज्याभिषेकार्थमाहृतान् द्रव्यसमूहान् दृष्ट्वा यौवराज्यार्थमुद्युक्तस्य दाशरथे: राज्यादुद्वास्य चतुर्दशवर्षपर्यन्तं वनवासं स्वपुत्रस्य भरतस्य यौवराज्याभिषेचनञ्चैनं महीपतिं दशरथं मनोगतं प्रार्थनीयं वरद्वयम् अयाचत।

हिन्दी शब्दार्थ - अथ = इसके पश्चात् । अथ अथो ये दोनों समानार्थक अव्ययपद हैं। पूर्वं दत्तवरा = जिसे पहले ही राजा दशरथ के द्वारा वर दिया जा चुका है। तस्य = दशरथ की । भार्या= पत्नी देवी = रानी। अभिषेक-सम्भारान् = राज्याभिषेक की सामग्रियों को । दृष्ट्वा = देखकर । एनम् = इससे अर्थात् राजा दशरथ से । वरम् = वरदान को । अयाचत = मांगा। रामस्य= युवराज बनने को तत्पर श्री राम का ।  विवासनम् = निर्वासनघर से बाहर निकालना।  = और । भरतस्य = भरत का । अभिषेचनम्  = राज्याभिषेक ।

हिन्दी भावार्थ  -  (राम को युवराज बनाने की इच्छा करने के बाद दशरथ ने राम के राज्याभिषेक की सामग्रियों को संकलित कराया) इसके बाद राजा दशरथ के द्वारा पहले ही दिये गये दो वरों वालीदशरथ की पत्नी रानी कैकयी ने (राम के) राज्याभिषेक की सामग्रियों को देखकर (सन्तप्त हो) राजा से वर मांगा । राम का निर्वासन (घर से बाहर निकालना) अर्थात् वन-वास तथा भरत का राज्याभिषेक ।

व्याकरण

सन्धि-

तस्याभिषेक० = तस्य + अभिषेक० ( दीर्घ सन्धि )। 

भार्याथ = भार्या + अथ ( दीर्घ सन्धि )। 

भरतस्याभिषेचनम् = भरतस्य + अभिषेचनम्  ( दीर्घ सन्धि )। 

(ख) समास -  अभिषेक-सम्भारान् अभिषेकस्य सम्भाराःतान् (षष्ठी तत्पुरूष) ।

दत्त-वरा = दत्तौ वरौ यस्यैसा (बहुव्रीहि)। 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

'एनम् अयाचतमें 'दुहयाच्– पच्.इस वार्त्तिक- नियम से 'एनम्में द्वितीया विभक्ति दृष्टिगत है। इदम् या एतत् शब्द की द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अन्वादेश (पूर्व-वर्णित व्यक्ति या वस्तु का पुनः दूसरीतीसरी बार प्रयोग ) के कारण 'द्वितीया-टौस्वेनः:सूत्र से इदम् या एतद् के स्थान पर 'एनआदेश होकर 'एनम्बना है। इदम् + द्वितीया एकवचन= एनम् अथवा एतद् + द्वितीया एकवचन = एनम् ।

अभिषेक = अभि + √ सिच् +घञ् ।

सम्भारान् = सम् + √ भृ + घञ् (पुल्लिँग, द्वितीया बहुवचन) ।

दृष्ट्वा = √दृश् + क्त्वा (अव्यय-पद) ।

भार्या = √भृ + ण्यत् + टाप् (स्त्री० प्रथमा, एकवचन)।

कैकयी = केकय + अण् + ङीप् (स्त्री०प्रथमा, एकवचन) ।

विवासनम् = वि + √वस् + णिच् + ल्युट् (भावे) = नपुंसक लिंग प्रथमा, ए० ।

अभिषेचनम् = अभि + √सिन् + ल्युट् (भावे) = नपुंसक लिंग, प्रथमा, एकवचन।

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है।

(ख) कोष-

वर -'वरो वृतोइत्यमरः ॥२८॥ 

देवाद ते वर श्रेष्ठे त्रिपुइति च अमरः ३।३।१७३१ 

भार्या = सहधर्मिणी । भार्या जायाथ इत्यमरः श६।६ 

टिप्पणी- 

दूसरों की प्रगति पदोन्नति भाग्योदय आदि उत्कर्ष-सूचक परिस्थितियों में मात्सर्यग्रस्त (परसन्तापी) पुरुष या नारी बाधा पहुँचाने का प्रयास करते ही है। अतएव कैकयी को राम का राज्याभिषेक अच्छा नहीं लगा।

कैकयी के द्वारा राजा दशरथ से दो वर मांगने की कथा प्रसिद्ध है। एक बार देवासुर-संग्राम के समय इन्द्र ने अपनी सहायता हेतु दशरथ को सादर बुलाया था। देवराज इन्द्र के पक्ष से संग्राम करते हुए महाराज दशरथ शत्रुओं असुरों के वाणों से आहत हो गये। उस रण-स्थली में पूरी रात जागती हुई तथा अनेक प्रयत्नों से राजा के कष्ट को दूर करती कैकयी ने राजा के प्राणों की रक्षा कीजिससे अति सन्तुष्ट होकर राजा ने केकयी से दो वर माँगने को कहा। कैकयी ने राजा के द्वारा प्रदत्त दोनों वरों को राजा के पास ही धरोहर के रूप में रख दिया। अब राम के राज्याभिषेक के समय ईर्ष्यालु कैकयी ने राजा से उन्हीं पूर्व में धरोहर के रूप में रखे दोनों वरों की याचना की। इस घटना का उल्लेख अयोध्या काण्ड में प्राप्त होता है।

तिलक टीका- अथ तस्य रामस्य यौवराज्याभिषेके ऽपेक्षितान्सम्भारान् "औदम्बर्यासन्दी तस्यै प्रादेशमात्राः पादाः स्युः" इत्यादिना बह्वृचब्राह्मणेनोपदिश्यमानान्दधिमधुसर्पिरादीन्सम्भूतान्दृष्ट्वा मन्थरावचनाज्ज्ञात्वा । कैकेयी राज्ञः कनीयसी भार्या । अत्र कैकेयीत्येव । यद्यपि केकयशब्दादञि "केकयमित्रयु" इत्यादिना यादेरियादेशे गुणे आदिवृद्धौ ङीपि "यस्येति च" इति लोपे साधुतथापि "अपि माषं मषं कुर्याच्छन्दोभङ्ग न कारयेत्" इति न्यायेन कैकयीति प्रयोगः । पुंयोगलक्षणे ङीपि "केकयी" इति पाठ इत्यन्ये ।। 1.1.21 ।।

पूर्वमिति। पूर्वं पूर्वस्मिन्काल इन्द्रसहायार्थं प्रवृत्तदशरथस्य दैत्यैर्युद्धकाले दशरथेतरप्रयुक्तामासुरीं मायां धवलाङ्गमुनिदत्तविद्यया निवारयित्र्यै कैकेय्यै तुष्टेन दशरथेन दत्तौ वरौ यस्यै सा । देवी सैव राज्याभिषेकसमये प्राप्ताभिषेका देवी तद्वत्प्रियतमैनं वक्ष्यमाणलक्षणं वरं प्राप्तकालत्वादयाचत राजानम् । याचेर्द्विकर्मकत्वात् । वरद्वयमाह रामस्य राज्यादुद्वासनम्भरतस्य स्वपुत्रस्याभिषेचनम् ।। 1.1.22 ।।

सन्दर्भ- राजा दशरथ सत्य रूपी धर्म-बन्धन में पड़कर अन्ततः राम को वनवास का आदेश दे ही दिया।

स सत्यवचनाद्राजा धर्मपाशेन संयतः ।

विवासयामास सुतं रामं दशरथः प्रियम् ।। २३।।

अन्वयः- धर्मपाशेन संयतः स राजा दशरथः सत्यवचनात् प्रियं सुतं रामं विवासयामास ।

शब्दार्थ - धर्मपाशेन= धर्मबन्धनेनपूर्व स्वीकृतवरदानद्वय-जालेन। संयतः (सन्) = बद्धः (सन्)। सः = पूर्ववर्णितः। राजा= नृपतिः। दशरथः= एतदाख्यः अयोध्यायाः भूपतिः। सत्यवचनात् =सत्यकथनाद्धेतोः।  प्रियम्= अभीष्टम्। सुतम्= पुत्रम्। रामम् = श्रीरामचन्द्रम्। विवासयामास= वनं प्रेषयामास।

भावार्थ:- सत्यकथनाद्धेतोः पूर्वस्वीकृतवरदानद्वयजालेनाबद्धो भूत्वा अयोध्यायाः महाराजः दशरथः स्वीयमभीष्टं पुत्रं श्रीरामचन्द्रं वनं प्रेषयामास ।

हिन्दी शब्दार्थ - धर्मपाशेन = धर्म बन्धन से।  संयतः = बंधा हुआआबद्ध। स राजा वह राजा । दशरथः= दशरथ नामक । सत्यवचनात्= सत्य वचनों के कारण। प्रियं सुतं रामं = प्रिय पुत्र राम को । विवासयामास = घर से बाहर निकाल दिया अर्थात् वनवास दे दिया।

हिन्दी भावार्थ  - धर्म के बन्धन में आबद्ध होकर उन राजा दशरथ ने सत्य वचन के कारण अपने प्रिय पुत्र राम को निर्वासित कर ही दिया अर्थात् वन-वास दे ही दिया ।

व्याकरण

सन्धि- 

सत्यवचनात् + राजा = सत्यवचनाद्राजा (जश्त्व सन्धि)

कारक- 

'सत्यवचनात्में हेतु (कारण) अर्थ में पञ्चमी है। 'निमित्त-पर्याय प्रयोगे सर्वासां प्राय-दर्शनम्' (वार्त्तिक) ।

(ग) समास - 

सत्यवचनात् = सत्यं च तद् वचनंतस्मात् ( कर्म० त०) ।

धर्म-पाशेन= धर्मस्य पाशः धर्मपाशः, तेन (षष्ठी तत्पुरूष )  

दशरथ: = दशसु (दिक्षु) रथो यस्य सः (बहुव्रीहि समास)।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

संयतः = सम् + √यम् + क्त (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

विवासयामास = वि + √वस् + णिच् + लिट् (प्रथम, पु० एकवचन) । 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलंकार है।

(ख) कोष- संयत - 'बद्धे कीलित संयतौइत्यमरः ३।१।४२  

वचन -'भाषितं वचनं वचइत्यमर १।६।१ ।

टिप्पणी- प्रस्तुत श्लोक हमें सत्य रूपी परम धर्म के पालन का सन्देश देता है। सत्य की रक्षा के लिए महापुरुष अपनी प्रियतम वस्तु का भी परित्याग कर देते हैं- 'न हि सत्यात् परो धर्मः। अत एव सत्य वचनों की रक्षा में राजा दशरथ ने प्रियतम पुत्र 'रामको वन में जाने का आदेश दियाफलतः आगे चल कर अपने प्राणों को भी वे छोड़ देते हैं।

तिलक टीका- स इति । सत्यवचनात् । धर्मपरनिर्देशेन सत्यप्रतिज्ञत्वादित्यर्थः । अतो हेतोः सत्यरूपेण धर्मपाशेन संयतो बद्धः सन्दशरथः प्रियं सुतमपि विवासयामास ।। 1.1.23 ।।

प्रसंग - माता कैकयी की मानसिक प्रीति तथा पिता दशरथ की आज्ञा-पूर्ति के लिए राम वन की ओर चल पड़े।

स जगाम वनं वीरः प्रतिज्ञामनुपालयन् ।

पितुर्वचननिर्देशात्कैकेय्याः प्रियकारणात् ।। २४।।

अन्वयः - कैकय्याः प्रिय-कारणात् पितुः वचननिर्देशात् प्रतिज्ञामनुपालयन् स वीर: वनं जगाम ।

शब्दार्थ -  कैकेय्याः = कनीयस्याः विमातुः। प्रियकारणात्= प्रीतिहेतोः। पितुः= जनकस्य दशरथस्य । वचननिर्देशात्= आज्ञावचनात् । प्रतिज्ञाम् =पितुः प्रतिज्ञां देवासुरसंग्रामे कैकेय्यै प्रदत्तां सन्धाम् 'चतुर्दशवर्षपर्यन्तं वनं वत्स्यामि’ इति स्वां प्रतिश्रुतिं वा। अनुपालयन्=संरक्षन्। सः = रामः । वीरः = आदेशपालने वीरः। वनम्= अरण्यम्। जगाम= ययौ।

भावार्थ:- पराक्रमी रामः कनीयस्याः विमातुः प्रीतिसम्पादनार्थं पितुः राज्ञः दशरथस्य आज्ञाक्यनात् तस्य प्रतीज्ञां संरक्षणार्थं वनं जगाम।

हिन्दी शब्दार्थ - कैकेय्याः = कैकयी का । प्रियकारणात् = प्रिय (मनोरथ पूर्ण) करने में कारण। पितुर्वचन-निर्देशात् = पिता के वन-निर्देश (आदेश) के कारण । प्रतिज्ञामनुपालयन् = ( उनकी) प्रतिज्ञा का पालन करते हुए।  = वह ।  वीर: आदेश पालन में वीर राम। वनं = जंगल को । जगाम = चले गये 

हिन्दी भावार्थ  - कैकेयी का प्रिय (मनोरथ पूर्ण) करने में कारण पिता के वचन-निर्देश (आदेश) के अनुसार (उनकी) प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वे वीर वर (रामचन्द्र) वन की ओर चल पड़े।

व्याकरण

(क) समास -  

वचननिर्देशात् - वचनस्य निर्देशःतस्मात् ( षष्ठी तत्पुरूष )। 

प्रियकारणात् = प्रियस्य कारणंतस्मात् ( षष्ठी तत्पुरूष ) ।

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

जगाम= √ गम् + लिट् + प्रथमा, पु० एकवचन। 

प्रतिज्ञाम् = प्रति + √ज्ञा + क + टाप्स्त्री०द्वि० एकवचन। 

अनुपालयन् = अनु + √पाल् + शतृ (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

निर्देशात् = निर् + √दिश् +घञ् (पुल्लिँगपं० एकवचन)

(क) अलंकार तथा ध्वनि- अनुप्रास अलङ्कार है। माता-पिता के प्रति श्रद्धा-सूचक इस पद्य में 'भाव ध्वनिहै।

(ख) कोष- 'अववादस्तु निर्देशो निदेशइत्यमरः २१८१२५ । 

प्रतिज्ञा = 'संविदागूः प्रतिज्ञानं नियमाश्रव-संश्रवाःइत्यमरः १।५।५ ।

टिप्पणी- भारतीय संस्कृति के अमर उद्घोषों "मातृदेवो भवपितृदेवो भवके अनुसार माँ कैकेयी को प्रसन्न करने के लिए तथा पिता दशरथ की प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए राम का वन-गमन मातृ-पितृ-भक्ति का अनूठा उदाहरण है।

तिलक टीका- स इति । वीरो ऽनेकैरपराङ्मुखतया योद्धापि स रामः पितुः प्रतिज्ञां सत्यतया स्वविवासनेनानुपालयन् । यद्वा कैकेयीसन्निधौ पितृवचनपरिपालनविषयां स्वकृतां प्रतिज्ञां परिपालयत्पितृवचनकृतान्निर्देशादाज्ञातो मातुश्च कैकेय्याः प्रियकारणात्प्रियसिद्धिनिमित्तं वनं जगाम । अनेन पितृतत्पत्नीसन्तोषकरणमेव सर्वात्मना पुत्रस्य धर्म इति भगवतोपदिष्टम् ।। 1.1.24 ।।

।तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता लक्ष्मणोऽनुजगाम ह ।

स्नेहाद्विनयसम्पन्नः सुमित्रानन्दवर्धनः ।।२५।।

भ्रातरं दयितो भ्रातुः सौभ्रात्रमनुदर्शनयन् ।

अन्वयः - (अथ) सुमित्रानन्दवर्धनःविनय-सम्पन्नःभ्रातुः दयितःप्रियः भ्राता लक्ष्मण: सौभ्रात्रम् अनुदर्शयन् व्रजन्तं तं भ्रातरं स्नेहाद् अनुजगाम ह । 

शब्दार्थ - सुमित्राऽऽनन्दवर्धनः = स्वकीयजननीप्रमोदजनकः । विनयसम्पन्नः= विनयान्वितः।  भ्रातुः = रामस्य । दयितः=स्नेहपात्रम्। प्रियः= स्पष्टम्।  भ्राता=भ्राता। लक्ष्मणः=लक्ष्मणः। सौभ्रात्रम्=सहोदरसौजन्यम्। अनुदर्शयन्=प्रकटयन्। व्रजन्तम् =वनं गच्छन्तम्। तं भ्रातरम्=अग्रजं श्रीरामचन्द्रम्। स्नेहात्= प्रेम्णः।  अनुजगाम=अनुययौ। =इति सुप्रसिद्धम्।

भावार्थ:- श्रीरामस्य नितान्तप्रियः विनयशीलः निजजननीहर्षोत्पादकः दयितः लक्ष्मणः भ्रातृस्नेहमाविर्भावयन् प्रेम्णः वनं गच्छन्तं तं भ्रातरं श्रीराममनुययौ।

हिन्दी शब्दार्थ - सुमित्रानन्दवर्धनः = सुमित्रा नामक अपनी माता के आनन्द को बढ़ाने वाले। विनय सम्पन्नः = विनीत । भ्रातुः =भाई श्रीरामचन्द्र के । दयितः = स्नेह-पात्र । प्रियः - अभीप्सितअभीष्ट । भ्राता= भाई। लक्ष्मणः=लक्ष्मण।  सौभ्रात्रम् = सुन्दर भ्रातृत्वसद् बन्धुत्व को । अनुदर्शयन् = दिखलाते हुएप्रकाशित करते हुए। व्रजन्तम् = (वन की ओर) जाते हुए । तम् = उन (श्रीराम) का । स्नेहात् = स्नेह के कारण । भ्रातरं = भाई के साथ। अनुजगाम = अनुगमन किया।  = प्रसिद्धि या निश्चय अर्थ को द्योतित करने वाला अव्यय ।

हिन्दी भावार्थ  - (इसके पश्चात्) सुमित्रा नामक अपनी माता का आनन्द बढ़ाने वालेविनीत स्वभाव वाले (बड़े) भाई श्रीराम जी के स्नेह-पात्र तथा अभीष्ट भाई लक्ष्मण ने उत्कृष्ट भ्रातृत्व को दिखलाते हुएवन की ओर जाते हुए उन भाई श्रीरामचन्द्र जी का स्नेह के कारणअनुगमन किया। ऐसी प्रसिद्धि है।

व्याकरण

सन्धि-

सुमित्रानन्द ० = सुमित्रा + आनन्द०, ( दीर्घ सन्धि )।

लक्ष्मणोऽनुजगाम = लक्ष्मणस् + अनुजगाम (विसर्ग०) ।

(ख) समास - 

सुमिनान्दवर्धनः = सुमित्रायाः आनन्दःतं वर्धयति इति । (ष० त०उपपद त० ) । 

विनय-सम्पन्न: = विनयेन सम्पन्न: ( तृतीया तत्पुरूष) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

व्रजन्तम् = √ व्रज् + शतृ= व्रजत् + द्वितीया, एकवचनपुल्लिँग । 

लक्ष्मणः = प्रशस्तानि लक्ष्माणि (लक्षणानि बन्धु प्रेमादीनि) अस्य सन्तिइति लक्ष्मणः = लक्ष्मन् + न । अथवा-लक्ष्मीः (कान्तिः) अस्य अस्ति इति लक्ष्मणः = लक्ष्मी + न (ई को अन को ण हुआ, 'लक्ष्म्या अच्चइस गणसूत्र से) । 

विनय – वि + √नी + अच् (भावे) । 

वर्धनः = √वृध् + णिच् + ल्यु (कर्तरि)पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन। 

दयितः - दया + इतच्पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन। 

सौभ्रात्रम् - सुभ्रातु: भावः कर्म वा सौभ्रात्रम्, तत् । सुभ्रातृ + ष्यञ् नपुंसकलिंग द्वि० एकवचन। 

अनुदर्शयन् = अनु + √दृश् + णिच् + शतृपुं. प्रथमा, एकवचन। 

अनुजगाम = अनु + √ गम् + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) ।

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। दयितः तथा प्रियः- इन दोनों शब्दों में एकार्थकता का भ्रम होने के कारण 'पुनरुक्त होनेका आभास होता है अतः 'पुनरुक्तवदाभासनामक शब्दालंकार हैं। दयित = (दया-पात्रस्नेह-भाजन) तथा प्रिय- (अभीष्टअनुकूल) में अर्थ भेद के कारण पुनरुक्ति दोष का निर्मूलन हो जाता है।

(ख) रस -बड़े भाई के प्रति छोटे भाई लक्ष्मण का अनुरागातिशय होने के कारण 'भावध्वनि है।

(ग) कोष- 

दयित = 'अभीष्टेऽभीप्सितं हृद्यं दयितं वल्लभं प्रियम्इत्यमरः ३।१।५३ । 

टिप्पणी- इस स्थल में अपने अग्रज राम के प्रति विमातृज होने पर भी लक्ष्मण का बन्धुत्व प्रदर्शन स्तुत्य है।

तिलक टीका- तमिति । व्रजन्तं भ्रातरम् । प्रियो रामे सहजप्रीतिमान् ।। 1.1.25 ।।

भ्रातरमिति । भ्रातू रामस्य दयितः प्रियः । सौभ्रात्रं सुभ्रातृभावम् । स्नेहमिति यावत् । स्नेहादेव जगाम । न पित्रादिनिर्देशादिति भावः । 

रामस्य दयिता भार्या नित्यं प्राणसमा हिता ।।२६।।

जनकस्य कुले जाता देवमायेव निर्मिता ।

सर्वलक्षणसम्पन्ना नारीणामुत्तमा वधूः ।। २७।।

सीताप्यनुगता रामं शशिनं रोहिणी यथा ।

पौरैरनुगतो दूरं पित्रा दशरथेन च ।। २८।।

अन्वयः - जनकस्य कुले जातादेवमाया इव निर्मितासर्वलक्षण-सम्पन्नानारीणाम् उत्तमा वधूःनित्यं रामस्य हिता, (रामस्य) प्राण-समा दयिता भार्या सीता अपि- यथा रोहिणी शशिनम् अनुगता (भवतितथैव) रामम् (अनुगता) । पौरै: पित्रा दशरथेन च (रामः) दूरम् अनुगतः (बभूव) । 

शब्दार्थ- जनकस्य=विदेहनृपतेः। कुले=वंशे। जाता= उत्पन्ना। देवमाया=देवनिर्मितमाया। इव= यथा। निर्मिता = स्पष्टम् । सर्वलक्षण-सम्पन्ना=सामुद्रिकशास्त्रोक्तसकलशुभलक्षणलक्षिता। नारीणाम्=स्त्रीणाम्। उत्तमा= श्रेष्ठा। वधूः= स्नुषा सूर्यवंशे दशरथस्य बभूवेति शेषः। नित्यं= सर्वदा। रामस्य = श्रीरामचन्द्रस्य। हिता= हितकारिणी। प्राणसमा=जीवनसदृशी । दयिता= प्रियतमा। भार्या=पत्नी। सीता अपि= जानकी अपि। यथा= इव। रोहिणी=रोहिणी नाम्नी दक्षकन्या चन्द्रपत्नी। शशिनम्=चन्द्रमसम्। (अनुयाति=अनुसरति। तथा=तथैव) अनुगता=अनुययौ। (भवतितथैव) रामम्=श्रीरामचन्द्रम्। (अनुगता) । पौरैः=अयोध्यावासिभिः जनैः। पित्रा=जनकेन। दशरथेन च=दशरथेन च। दूरम्=दीर्घमध्वानम्। अनुगतः=अनुयातः रामः।

भावार्थ:- श्रीरामचन्द्रस्य प्राणप्रिया भार्या सर्वदा हितकारिणी विदेहनृपतेः जनकस्य कुले समुत्पन्ना मोहिनी इव विधात्रा रचिता सामुद्रिकशास्त्रोक्त सकलशुभलक्षणसमन्विता नारीणां श्रेष्ठा सूर्यवंशे दशरथस्य पुत्रवधूः सीता अपि यथा रोहिणी चन्द्रमसं अनुसरति तथैव वनं व्रजन्तं श्रीरामचन्द्रमनुययौ। अयोध्यावासिभिः सह पिता दशरथोऽपि दीर्घमध्वानं राममनुयातः।

हिन्दी शब्दार्थ- जनकस्य=राजा जनक के। कुले=वंश में। जाता= उत्पन्न। देवमाया = देवताओं की जगन्मोहिनी शक्ति । इव= के समान। निर्मिता = बनायी गयी । सर्वलक्षण-सम्पन्ना=सामुद्रिक शास्त्रोक्त सभी शुभ लक्षणों से युक्त। नारीणाम् उत्तमा= नारियों में उत्कृष्ट । वधूः = नवोढा स्त्री । नित्यं= बमेशा। रामस्य = श्रीरामचन्द्र का। हिता= हित करने वाली। प्राणसमा=जीवन के समान । दयिता= प्रियतमा। भार्या=पत्नी। सीता अपि= जानकी भी।  यथा= -जैसे। रोहिणी=रोहिणी नाम वाली दक्षकन्या चन्द्रमा की पत्नी । शशिनम् = चन्द्रमा का । (अनुसरण करती है वैसे ही)  पौरै: =पुर-वासी मनुष्यों के द्वारा  च = और । पित्रा = पिता जी (दशरथ) के द्वारा । दूरम्= दूर रास्ते तक। अनुगतः=पीछे -पीछे जाया गया।

हिन्दी भावार्थ  - (इसके बाद) जनक (मिथिला-नरेश) के कुल में उत्पन्नदेवमाया (देवताओं की विशिष्ट शक्ति) के समान (ब्रह्मा के द्वारा निर्मित की गई-सी (अति सुन्दरी)समस्त लक्षणों से सम्पन्ननारियों में श्रेष्ठनवोढा (नव-विवाहिता)सदैव राम का हित चाहने वालीराम को अपने प्राणों के समान प्रिय लगने वाली (उनकी) पत्नी सीता ने भी राम का अनुगमन (उसी प्रकार) कियाजैसे रोहिणी चन्द्रमा का अनुगमन करती है। पुर-वासियों तथा पिता दशरथ ने भी (सुमन्त्र के माध्यम से) दूर तक राम का अनुगमन किया ।

व्याकरण

(क) सन्धि-

देवमायेव = देवमाया + इव (गुण सन्धि ) । 

सीताऽप्यनुगता = सीता + अपि - सीतापि ( दीर्घ सन्धि ) + अनुगता (यण् ) । 

पौररनुगतः = पौरैस् + अनुगतः (विसर्ग सन्धि) । 

(ख) कारक

'नारीणाम् उत्तमामें 'यतश्च निर्धारणम्इस पा० सू० से षष्ठी ज्ञातव्य है । 'दूरम् अनुगतःमें 'कालाध्वनो—' सूत्र से 'दूरमें द्वितीया हुई है। 

(ख) समास - 

प्राणसमा = प्राणैः समा ( तृतीया तत्पुरूष ) । 

सर्व-लक्षण-सम्पन्ना = सर्वाणि च तानि लक्षणानितैः सम्पन्ना (कर्म० त०तृतीया तत्पुरूष) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

जाता = √जनी प्रादुर्भाव + क्त+टाप् (स्त्रीप्रथमा, ए०व०) । 

निर्मिता = निर् + √मा + क्त + टाप् (स्त्री० प्रथमा, एकवचन) । 

अनुगता = अनु + √गम् + क्त + टाप् (स्त्री०प्रथमा, एकवचन) 

पौरैः पुरे भवाः पौराःतैः । पुर + अण् = पौर + तृ० ब० व०पुल्लिँग

(क) अलंकार- 

यहाँ निम्नांकित अलङ्कार हैं : (१) उपमा- 'प्राण-समामें लुप्तासमासगा उपमा । 'देवमाया इवमें उपमा । 'यथा रोहिणी शशिनम् अनुगतामें पूर्णोपमा ।

पुनरुक्तवदाभास- 'दयिताभार्या तथा वधूःइन तीनों पदों में समानार्थकता के भ्रम से 'पुनरुक्तिका आभास होता हैअतः पुनरुक्तवदाभासनामक शब्दालङ्कार है। क्रमशः प्रियापत्नी एवं नवोढा अर्थ कर लेने पर उक्त तीनों पदों में पुनरुक्ति-दोष नहीं आ पाता है। 

(ख) रस - प्रियतमा सीता के द्वारा प्रियतम राम का अनुगमन वर्णन तथा 'रोहिणी-चन्द्रका उपमा निदर्शन 'शृङ्गार रसको आमन्त्रित करता है । 

(ग) कोष- 

'भार्या' = 'भार्या  जायाऽथ' इत्यमरः २।१०।११ । 

माया = 'स्यान् माया शाम्बरीइत्यमरः २/६/६ ।

टिप्पणी-  शशिनं रोहिणी यथा का उदाहरण देकर वाल्मीकि शिव पुराण की कथा का स्मरण कराते हैं। इस प्रकार वाल्मीकि रामायण अपने साथ भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक आख्यानों का भी स्मरण कराता है। कथा के अनुसार राजा दक्ष की 27 कन्यायें थी । इनके नाम अश्विनी आदि है। इन कन्याओं का विवाह चंद्रमा के साथ हुआ। रोहिणी चन्द्रमा की अतिशय प्रिय पत्नी है। यह चन्द्रमा का साथ कभी नहीं छोड़ती। राम और सीता में निरूपित पारस्परिक दृढ अनुराग दाम्पत्य प्रेम की प्रगाढता का सूचक है। यहाँ सीता का निश्चल पातिव्रत्य प्रशंसनीय है।

तिलक टीका-  अथ रामस्य दयितेष्टा । प्राणसमा निरतिशयप्रेमास्पदम् । हिता नित्यं हितकारिणी ।। 1.1.26 ।।

जनकस्य कुले ऽन्वये जाता । यद्यप्येषा ऽयोनिजा तथापि सीरध्वजस्य देवयजनलाङ्गलपद्धतावाविर्भूतत्वादेवमुक्तिः । अत एवाह देवमायेवेति । सेवाचिन्त्योदयस्थितिलया । देवैरेव स्वकार्यसिद्ध्याकाङ्क्षिभिर्निर्मिताविर्भाविता । यद्वा इवशब्द एवार्थे । देवेन भगवताविर्भाविता स्वमायैव । भगवतो ऽनाद्यन्ता सर्वकार्यसहायभूता सहजशक्तिरेव हि मायाः । यत्तु तिलोत्तमादिवद्देवमायेव स्थितेतितन्न । निर्मितपदवैयर्थ्यापत्तेः । सर्वैः स्त्रीलक्षणैः सम्पन्ना युक्ता ।। 1.1.27 ।।

सीतेति । सीता लाङ्गलपद्धतिस्तदुत्थत्वात्सीता । शशिनं रोहिणीव राममनुगता ।। 1.1.28 ।।

।शृङ्गवेरपुरे सूतं गङ्गाकूले व्यसर्जयत् ।

गुहमासाद्य धर्मात्मा निषादाधिपतिं प्रियम् ।।२९।।

अन्वयः- (अथ) धर्मात्मा (रामः) गङ्गाकूले शृङ्गवेरपुरे प्रियं निषादाधिपतिं गुहम् आसाद्य सूतं व्यसर्जयत् ।

शब्दार्थ- धर्मात्मा=धर्मशीलः श्रीरामचन्द्रः। गङ्गाकूले=भागीरथीतीरे। शृङ्गवेरपुरे=शृङ्गवेरपुरपत्तने । प्रियम्=सुहृदम्। निषादाधिपतिम्=धीवरस्वामिनम्। गुहम्=गुहनामानम्। आसाद्य = लब्ध्वा। सूतम्= सारथिं सुमन्त्रम्। व्यसर्जयत्-परावर्तयत्।

भावार्थ:- धर्मशीलः रामः गङ्गातीरे शृङ्गवेरपुरनामके पत्तने सुहृदं गुहनामकं धीवरस्वामिनं प्राप्य सारथिं सुमन्त्रम् अयोध्यां प्रति परावर्तयत्। 

हिन्दी शब्दार्थ - धर्मात्मा = धार्मिक । गङ्गाकूले = गङ्गा-तट पर । शृङ्गवेरपुरे=शृङ्गवेर पुर नामक स्थान पर ।प्रियम्=प्रिय। निषादाधिपतिम् = निषादों के राजा (गूह) को । आसाद्य = प्राप्त करके । सूतम् = सारथि (सुमन्त्र) को । व्यसर्जयत् = लौटा दिया । 

हिन्दी भावार्थ  - (इसके बाद) धार्मिक स्वभाव वाले राम ने गङ्गा तट पर (स्थित) 'शृङ्गवेर-पुरनामक स्थान में अपने प्रिय निषाद-राज 'गुहको प्राप्त करके सारथि (सुमन्त्र) को लौटा दिया।

व्याकरण

सन्धि-

व्यसर्जयत् = वि + असर्जयत्, (यण् सन्धि ) । 

धर्मात्मा = धर्म + आत्मा ( दीर्घ सन्धि )।

निषादाधिपतिम् = निषाद + अधिपतिम् ( दीर्घ सन्धि )।  

(ख) समास - 

शृङ्गवेर- पुरे = शृङ्गवेर-प्रधानं पुरंतस्मिन् (मध्यम-पद-लोपी त०) । 

गङ्गाकूले = गङ्गायाः कूलंतस्मिन् ( षष्ठी तत्पुरूष) । 

धर्मात्मा = धर्मः आत्मा ( स्वभावः ) यस्य सः (ब० श्री०) । 

निषादाधिपतिम् = निषादानाम् अधिपतिः तम् । (प० व० ) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

व्यसर्जयत् = वि + √सृज् + णिच् (स्वार्थे + लङ् + प्रथमा, पु० ए० व॰) । 

आसाद्य =आङ् + √सद् + णिच् + क्त्वा>ल्यप् (अव्यय पद) ।

(क) अलंकार- 

(ख) रस - राम का मित्र गुह के प्रति अगाध प्रेम के कारण 'भावध्वनि है ।

(ग) कोष- 

सूत = 'सूतस्त्वष्टरि सारथौ" इत्यमरः ३।१।६२।

कूल = 'कूलं रोधश्च तीरं चइत्यमरः १।१०।७१

निषाद = 'निषाद-श्वपचावन्तेवासि-चाण्डाल-पुववसाःइत्यमरः २/१०/२०

टिप्पणी- 

तिलक टीका- शृङ्गेति । गङ्गाकूले वर्तमानशृङ्गवेरपुरे स्थितं निषादाधिपतिं प्रियमिष्टं गुहमासाद्य तत्सहितो लक्ष्मणादिसहितश्च रामः सूतं रथेन स्वप्रापणार्थमागतं गङ्गाकूले व्यसर्जयत्परावर्तितवान् ।। 1.1.29 ।।

।गुहेन सहितो रामो लक्ष्मणेन च सीतया ।

ते वनेन वनं गत्वा नदीस्तीर्त्वा बहूदकाः ।। ३०।।

चित्रकूटमनुप्राप्य भरद्वाजस्य शासनात् ।

रम्यमावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रयः ।।३१ ।।

देवगन्धर्वसङ्काशास्तत्र ते न्यवसन्सुखम् ।

अन्वयः - गुहेन लक्ष्मणेन सीतया च सहितः रामः (इति) ते वनेन वनं गत्वाबहूदकाः नदीः तीर्त्वाभरद्वाजस्य शासनात् चित्रकूटम् अनुप्राप्य (च)तत्र वने रममाणाः देव-गन्धर्व- सङ्काशाः ते त्रयः रम्यम् आवसथं कृत्वा सुखं (यथा स्यात् तथा ) न्यवसन् । 

शब्दार्थ- गुहेन= निषादाधिपतिना। लक्ष्मणेन=सुमित्रातनयेन। सीतया च= जानक्या च । सहितः = समवेतःसमन्वितः। रामः = श्रीरामचन्द्रः। ते = चत्वारो जनाः। वनेन= अरण्येन। वनम्= अरण्यम्। गत्वा= प्राप्य । बहूदकाः= प्रभूतजलाः। नदीः= सरितः। तीर्त्वा= उत्तीर्य। 

भरद्वाजस्य=भरद्वाजमुनेः। शासनात्= उपदेशात्आदेशात् । चित्रकूटम्= चित्रकूटनामकं पर्वतम्। अनुप्राप्य= लब्ध्वा ।रम्यम्= मनोहरम् । आवसथम्= पर्णशालाम्। कृत्वा= निर्माय। तत्र= तस्मिन् पर्णशालायाम्। ते त्रयः=सीतारामलक्ष्मणाः। वने=अरण्ये। रममाणाः=विहरन्तः। देवगन्धर्वसङ्काशाः= देवगन्धर्वतुल्याः। सुखम्= सानन्दम्। न्यवसन्= सुखं निवासं चक्रुः।

भावार्थ:-निषादाधिपतिना सुमित्रातनयेन सीतया च समन्वितः रामः ते सर्वे चत्वारो जनाः अरण्यात् अरण्यं गत्वा बहूदकाः नदीः तीर्त्वा चित्रकूटमनुप्राप्य तत्र सुखं न्यवसन्।

ते त्रयः सीतारामलक्ष्मणाः अरण्ये विहरन्तः चित्रकूटाख्यं पर्वतं लब्ध्वा भरद्वाजमुनेः आदेशात् मनोहरं पर्णकुटीरं निर्माय तस्मिन् पर्णकुटीरे देवगन्धर्वसदृशाः सुखं न्यवसन्।

हिन्दी शब्दार्थ - गुहेन= निषाद राज गुह। लक्ष्मणेन=लक्ष्मण। सीतया च= और जानकी । सहितः = सहित। रामः = श्री राम। ते = वे चारों लोग।  वनेन वनं - एक वन से दूसरे वन को। बहूदकाः नदीः = बहुत (अगाध) जल वाली नदियों को । तीर्त्वा = पार करके ।

भरद्वाजस्य = प्रयाग वासी मुनिवर भरद्वाज के । शासनात् = आदेश से । चित्रकूटम्= चित्रकूट नामक पहाड़ पर। अनुप्राप्य= पहुँच कर । रम्यम् = रमणीयआकर्षक । आवसथं - आवास-स्थान (पर्णकुटी) को । कृत्वा =बना कर । तत्र = वहाँ पर्णकुटी में ।  ते त्रयः= वे सीता राम और लक्ष्मण। वने= अरण्ये।  रममाणाः = आनन्दानुभूति करते हुए। देव-गन्धर्व-सङ्काशा: = देवताओं तथा गन्धर्वो के समान (तेजस्वी तथा सुन्दर)। सुखं = सुख-पूर्वक (क्रिया-विशेषण-पद है)। न्यवसन् = रहने लगे ।

हिन्दी भावार्थ  - निषाद-राज गुहलक्ष्मण तथा सीता के साथ श्रीरामचन्द्र - एक वन से दूसरे वन को जाकर (मार्ग में) पर्याप्त जल वाली नदियों को पार करके (तथा भरद्वाज-आश्रम में पहुँच कर) भरद्वाज जी के आदेश से चित्रकूट (नामक पर्वत पर) पहुँच कर वहाँ वन में आनन्द प्राप्त करते हुए देवताओं तथा गन्धर्वो के समान (तेजस्वी और सुन्दर) वे तीनों लोग रमणीय आवास स्थल (पर्णशाला) बना कर सुख-पूर्वक रहने लगे ।

व्याकरण

(क) कारक 

'गुहेन लक्ष्मणेन सीतया च सहितःमें सह-पर्याय वाची 'सहितके योग में गुहलक्ष्मण तथा सीता शब्द में तृतीया हुई है ('सह-युक्त प्रधानेसूत्र से) । मुखम् =यह क्रिया-विशेषण पद है। अतएव 'सामान्ये नपुंसकम्के नियमानुसार नपुंसकलिंग एकवचनका प्रयोग है। 

(ख)सन्धि-

बहूदकाः = बहु + उदकाः ( दीर्घ सन्धि )। 

न्यवसन् = नि + अवसन् (यण् सन्धि ) । 

नदीस्तीर्त्वा = नदीः + तीर्त्वा (विसर्ग०) । 

(ग) समास - 

बहूदका:  = बहूनि उदकानि यासु ताः,, ताः (द्वि० ब० व०) स्त्री० । 

चित्रकूटम् = चित्रा: ( विचित्रा:) कूटा: (शिखराणि) यस्य सः तम् (बहुव्रीहि समास)। 

देव-गन्धर्व-सङ्काशा: = देवाश्च गन्धर्वाश्चतैः सङ्काशाः (सदृशाः) - (द्वन्द्व०उपमित त० ) अथवा – त इव सम्यक् काशन्ते (शोभन्ते) ये ते (उपपद त० ) । 

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

गत्वा = √ गम् + क्त्वा (अव्यय) । 

तीर्त्वा = √ तृ (प्लवन-सन्तरणयोः) + क्त्वा (अव्यय पद) । 

अनुप्राप्य = अनु + प्र + √आप् + क्त्वा > ल्यप् (अव्यय) । 

शासनात् = √शासु (इच्छायाम् – अदादिः) + ल्युट् (करणे) = शासन + पं० एकवचन। 

रम्यम् = √रम् (रमुँ क्रीडायाम् रमँ इति माधवः - भ्वादिः) + यत् (पुल्लिँगद्वि० एकवचन) । 

रममाणा: = √ रम् (रमुँ क्रीडायाम् रमँ इति माधवः - भ्वादिः) + शानच् (पुल्लिँग प्रथमा, ब० व०) । 

न्यवसन् = नि + √वस् (वसँ निवासे - भ्वादिः) + लङ् + प्रथमा, पु० बहुवचन। 

(क) अलंकार- 

'देवगन्धर्व-सङ्काशा: ' में 'उपमाअलंकार है ।

(ख) रस -

(ग) कोष- 

कूट = 'कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गम्इत्यमरः २।३।४। 

सङ्काश  =  'निभ-सङ्काश-नीकाश-प्रतीकाशोपमादय:इत्यमरः २।१०।३७। 

आवसथ = 'समौ संवसथ-ग्रामौइत्यमरः २।२।१९। (आवसथ तथा संवसथ दोनों एक ही धातु 'वस्से निष्पन्न हैं।) 

टिप्पणी-  यहाँ न्यवसन् सुखम् कहकर वाल्मीकि जंगल में भी  मंगल हो सकता यदि लक्ष्मण जैसा भाई और सीता जैसी पत्नी के साथ में हो तो। इस श्लोक में राम के वन-निवास-प्रकार की प्रथम झलक प्राप्त होती है।

श्लोक का अन्वय करते समय विशेष्य पदों को विशेषण पदों के साथ रखने में अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता होती है। अन्यथा अर्थ परिवर्तन हो जाता है।

तिलक टीका- गुहेनेति । पूर्वार्धं पूर्वश्लोकान्वयि । अथ ते सीतारामलक्ष्मणा वनेन पुरोवर्तिप्राप्तवनद्वारेण परमपरं वनं गत्वा । तेवनं पादचारस्तेन वनं गत्वेत्यर्थ इति सम्प्रदायः ।। 1.1.30 ।।

चित्रेति । अनु पश्चाद्भरद्वाजस्य शासनाच्चित्रकूटं प्राप्य तत्र रम्यमावसथं पर्णशालां कृत्वा तत्र वने रममाणास्त्रयो देवगन्धर्वसदृशाः सुखं न्यवसन्नित्यन्वयः ।। 1.1.31 ।।


चित्रकूटं गते रामे पुत्रशोकातुरस्तथा[3] ।।३२।।

राजा दशरथः स्वर्गं जगाम विलपन्सुतम् ।

अन्वयः- रामे चित्रकूटं गते (सति) तदा पुत्रशोकातुरः राजा दशरथःसुतं विलपन् स्वर्गं जगाम ।

शब्दार्थ- रामे = श्रीरामचन्द्रे। चित्रकूटम्=चित्रकूटाख्ये पर्वते। गते=प्राप्ते सति। तदा= तस्मिन् काले। पुत्रशोकातुरः = सुतशोकाकुलः । राजा दशरथः= महाराजः दशरथः। सुतम्=पुत्रं रामम् । विलपन् = राम! हा राम! इत्येवं विलापं कुर्वन्। स्वर्गम्= स्वर्गलोकम्। जगाम = ययौ ।

भावार्थः- रामे चित्रकूटं गते सति तस्मिन् काले पुत्रशोकाकुलः राजा दशरथः सुतं रामं हा राम! हा राम! इत्येवं विलापं कुर्वन् सुरलोकं जगाम।

हिन्दी शब्दार्थ - रामे = श्री राम के। चित्रकूटम्=चित्रकूट नामक पर्वत पर।  गते = चले जाने पर। तदा = तब उसके बाद । पुत्र-शोकातुरः - पुत्र 'रामके शोक के कारण व्याकुल (होकर) । राजा दशरथः= राजा दशरथ। सुतं विलपन् - पुत्र (राम) के बारे में विलाप करते हुए। स्वर्गम्=स्वर्ग को।  जगाम = चले गये ।

हिन्दी भावार्थ  - राम के चित्रकूट चले जाने पर उसके बाद (सुमन्त्र से सारे समाचार जान कर) पुत्र के शोक में व्याकुल राजा दशरथ ने पुत्र के बारे में विलाप करते हुए (रामराम कह कर रोते हुए) स्वर्ग प्रयाण किया ।

व्याकरण

(क) कारक  

'चित्रकूटं गते तथा 'स्वर्ग जगामइन दोनों स्थलों में गम् धातु (गत्यर्थक) के योग में 'गत्यर्थकर्मणि द्वितीया०सूत्र से (चित्रकूटं तथा स्वर्गं में) द्वितीया विभक्ति हो सकी है।

(ख)सन्धि-

पुत्रशोकातुरः = पुत्र-शोक + आतुरः, ( दीर्घ सन्धि )।

(ग) समास - 

पुत्र-शोकातुर: = पुत्रस्य (पुत्रयोः वा) शोकः तेन आतुरः (ष०तृतीया तत्पुरूष) ।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

विलपन् = वि + √लप् (लपँ व्यक्तायां वाचि - भ्वादिः) + शतृ (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन)

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलंकार है। 

(ख) रस - 'करुण रसका दृश्य है । 

(ग) कोष- 

'स्वर्ग-स्वरव्ययं स्वर्गनाकत्रिदिवत्रिदशालयाः। सुरलोको द्योदिवौइत्यमरः  १।१।६ । 

सुत= सूनुः सुतः पुत्रः" इत्यमरः २।६।२७

टिप्पणी- इस श्लोक में पुत्र जन्य वियोग को दिखाया गया है। कोई भी पिता शोकाकुल होता ही हैपर 'शोक ग्रस्त हो प्राण त्याग कर देनापुत्र-शोक की चरम पराकाष्ठा है जिसका निदर्शन दशरथ की प्रस्तुत स्वर्ग-प्राप्ति-घटना से ही प्राप्त होता है ।

तिलक टीका- तथा पुत्रशोकातुरो ऽनिर्वाच्यपुत्रवियोगजन्यशोकपीडितः ।। 1.1.32 ।।

गते तु तस्मिन् भरतो वसिष्ठप्रमुखैर्द्विजैः ।। ३३।।

नियुज्यमानो राज्याय नैच्छद्राज्यं महाबलः ।

स जगाम वनं वीरो रामपादप्रसादकः ।। ३४।।

अन्वयः- तस्मिन् तु गते (सति) वशिष्ठ-प्रमुखैः द्विजैः राज्याय नियुज्यमानःमहाबल: भरतः राज्यं न ऐच्छत्, (प्रत्युत) राम-पाद-प्रसादकःवीरः स वनं जगाम ।

शब्दार्थ- तस्मिन्= राजनि दशरथे। तु = पादपूत्यै। गते (सति) =स्वर्गलोकं प्राप्ते सति। वसिष्ठप्रमुखैः = वसिष्ठाद्यैः श्रेष्ठैः। द्विजैः=ब्राह्मणैः। राज्याय=अयोध्याराज्यभारवोढुम्। नियुज्यमानः=प्रेर्यमाणोऽपि। महाबलः= बलशाली । भरतः=कैकेयीतनयः। राज्यम्=राज्यभारम्। =नैव। ऐच्छत्=चकमे। रामपादप्रसादकः=श्रीरामचन्द्रचरणसेवकः । वीरः = शूरः। सः = अतुलबलशाली भरतः। वनम् = अरण्यम्। जगाम= ययौ ।

भावार्थ:- राजनि दशरथे स्वर्ग याते सति राज्यकार्यभारवोढुं वसिष्ठप्रमुखैः द्विजैः नियुज्यमानः अतिबलशाली भरतः राज्यकार्यभारवहनसमर्थोऽपि कैकेयीतनयः भरतः राज्यं नैव चकमे। महाबलशाली रामचरणसेवकः भरतः चित्रकूटं जगाम।

हिन्दी शब्दार्थ  - तस्मिन् = दशरथ के। गते (सति) = स्वर्ग चले जाने पर। वशिष्ठ-प्रमुखैः = वशिष्ठ आदि के द्वारा द्विजैः=ब्राह्मणों के द्वारा।  राज्याय = राज्य प्राप्त करने के लिए । नियुज्यमानः= नियुक्त किये जाते हुए । महाबलः = महान् बलशाली। भरतः= कैकेयी का पुत्र भरत। राज्यम्= राज्य को। नैच्छत् = नहीं चाहा । राम-पाद-प्रसादकः = राम के चरणों को प्रसन्न करने वालाराम के चरणों का सेवक । वीरः = राज्य संचालन में समर्थ । सः = वह भरत। वनम् = जंगल को। जगाम= गया ।

हिन्दी भावार्थ  - उन (दशरथ) के स्वर्ग चले जाने पर वशिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणों के द्वारा नियुक्त किये जाते हुए (भी) महान् बल-शाली भरत ने राज्य की इच्छा नहीं की, (बल्कि) श्री रामचन्द्र के चरणों को प्रसन्न करने वाले (राम चरण-सेवक) वीर भरत ने वन की ओर ही प्रस्थान किया।

व्याकरण

सन्धि-

नैच्छत् =न + ऐच्छत् (वृद्धि०) ।

(ख) समास - 

वशिष्ठ-प्रमुखै: =वशिष्ठः प्रमुखः येषु तैः (बहुव्रीहि समास)। 

महाबलः = महद् बलं यस्य सः (बहुव्रीहि समास)। 

राम-पाद-प्रसादकः = रामस्य पादौतौ प्रसादयति इति (षष्ठी तत्पुरूषउपपद त०) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

नियुज्यमानः = नि + √युज् + यक् + शानच् (पुल्लिँगप्रथमा, एकवचन) । 

राज्यम् = राज्ञः कर्म राज्यम्राजन् + ध्यञ् (नपुंसकलिंगप्रथमा, एकवचन) । 

प्रसादकः = प्र + √सद् + ण्वुल् ( कर्तरि )पुल्लिँगप्रथमा, एकवचन। 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) रस -यहाँ भरत की पूर्ण निष्काम स्थिति 'शान्त रसकी आभा करती है ।

(ग) कोष- 

प्रमुख = प्रधानं प्रमुख प्रवेकानुत्तमोत्तमाःप्रदान इत्यमरः ३।१।५७ । 

द्विज = 'द्विजात्यग्रजन्म-भूदेव-वाडवाःइत्यमरः २।७।४।

टिप्पणी-   

तिलक टीका- राजेति । तस्मिन्दशरथे गते लोकान्तरं गते मृते वसिष्ठाद्यैर्द्विजैस्त्रैवर्णिकैः । इदमुपलक्षणम् । तत्सहितैर्मन्त्रिवृद्धैरित्यपि बोध्यम् ।। 1.1.33 ।।

राज्याय राज्यं कर्तुं तैर्नियुज्यमानः प्रेर्यमाणो महाबलः समर्थो ऽपि सौभ्रात्राद्राज्यं नैच्छत् । ततो रामपादप्रसादकः पूज्यं रामं प्रसादयितुं वनं जगाम । पादशब्दः पूज्यवची ।। 1.1.34 ।।

गत्वा तु स महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम्।

अयाचद् भ्रातरं राममार्यभाव-पुरस्कृतः॥३५॥

त्वमेव राजा धर्मज्ञ इति रामं वचोऽब्रवीत्।

अन्वयः - आर्यभाव-पुरस्कृतः स तु सत्यपराक्रमं महात्मानं भ्रातरं रामम् गत्वा अयाचत्, 'त्वमेव धर्मज्ञः राजा (भव)इति वचः रामम् अब्रवीत् (च) । 

शब्दार्थ- आर्यभावपुरस्कृतः = - ज्येष्ठमर्यादाभिज्ञः। सः= भरतः । सत्यपराक्रमम्=अमोघवीर्यम्।  महात्मानम्= उदारचरितम्। भ्रातरम्=अग्रजम् । रामम्= श्रीरामचन्द्रम् । गत्वा = यात्वा । अयाचत्=प्रार्थयामास। त्वम् एव=भवान् एव। धर्मज्ञः= धर्मवेत्तागुणवति ज्येष्ठे वर्तमाने कनिष्ठो राजभाग् न भवति इति धर्म जानन् त्वम् एव। राजा=अयोध्यायाः अधिपतिः असि। इति=एवम्। वचः=वचनम्। रामम्= श्रीरामचन्द्रम् । अब्रवीत् =अकथयत्।

भावार्थ:- ज्येष्ठमर्यादाभिज्ञः भरतः विपिनं गत्वा उदारचरितम् अमोघवीर्यम् अग्रजं श्रीरामचन्द्रं प्रार्थयामास यत् भवान् एव धर्मज्ञः वर्ततेअतएव भवान् एव अयोध्यायाः भूपतिः भवितुं योग्यः अस्ति। इत्येतत् वचनम् अब्रवीत्।

हिन्दी शब्दार्थ - आर्य-भाव-पुरस्कृतः =सज्जनता की भावना से ओत-प्रोत । सः= वह भरत । सत्यपराक्रमम्= अमोघ शक्ति सम्पन्न।   महात्मानम् = महान् स्वभाव वाले महानुभाव । भ्रातरम्=भाई । रामम्= राम के पास । गत्वा = जाकर ।  अयाचत् = याचना (निवेदन) किया। त्वम् एव=आप ही। धर्मज्ञः= धर्म को जानने वाले, सत्कर्तव्य या न्याय राजा=अयोध्या का राजा हैं। इति=इस प्रकार।  वचः = वचन को । रामम्=  श्रीरामचन्द्र को । अब्रवीत् = कहा ।

हिन्दी भावार्थ  - सज्जनोचित भावनाओं से ओत-प्रोत भरत ने अमोघ पराक्रम एवं उदार चरित वाले भाई राम के पास जाकर याचना (प्रार्थना ) की और यह वचन कहा कि 'धर्म (सत्कर्तव्य या न्याय) के मर्मज्ञ आप ही राजा हों।

व्याकरण

(क) कारक- 'भ्रातरम् अयाचत्में तथा 'रामम् अब्रवीत्में क्रमशः 'याच्के योग में 'भ्रातरम्में तथा 'ब्रूके कारण 'रामम्में द्वितीया विभक्ति हुई है। ('दुह-याच्... के नियम से) ।

(ख) सन्धि- 

धर्मज्ञ इति = धर्मज्ञः + इति (विसर्ग०) ।

वचोऽब्रवीत् = वचः + अब्रवीत् (विसर्ग०) ।

(ख) समास - 

महात्मानम् = महान् आत्मा यस्यसः तम् (बहुव्रीहि समास)। 

सत्य-पराक्रमम् = सत्यः पराक्रमो यस्य सः तम् (बहुव्रीहि समास)। 

आर्य-भाव-पुरस्कृतः = आर्यश्चासौ भावःवा – 'अर्योचितो भावः' ( कर्म० त०वा-मध्यम-पद-लोपी त०)तेन पुरस्कृत: (तृतीया तत्पुरूष ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

'अयाचत्' = √याच् + लङ् + प्रथमा, पु० एकवचन। यद्यपि 'याच्धातु आत्मनेपदी है और उससे लङ् लकार प्रथमा, पु० एकवचन में 'अयाचत' रूप बनेगान कि प्रस्तुत स्थल वाला 'अयाचत्। परस्मैपदी धातु होने पर ही अयाचत् रूप बन सकता है । इसका समाधान 'पद-कार्यमनित्यम्इस परिभाषा के द्वारा किया जा सकता है। आत्मनेपदी आदि धातुओं में पद-कार्य की अनित्यता (अनियमित स्थिति) के कारण 'याच्का आत्मनेपदित्व ही अनित्य है । अतएव प्रस्तुत स्थल पर याच् को  परस्मैपदी मान कर 'अयाचत्' रूप भी बनेगा। अथवा - रामायण आर्ष ग्रन्थ हैआर्षत्वात् यह प्रयोग मान्य है । 

पुरस्कृतः =  पुरस् + √कृ + क्त (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

(क) रस - यहाँ भाव-ध्वनि हैजो व्यङ्ग्य होने के कारण रसध्वनि का ही रूपान्तर है।

(ख) कोष- 

पराक्रम =  'शक्तिः पराक्रमः प्राणइत्यमरः २।८।१०२। 

आर्य = 'महाकुल-कुलीनार्य-सभ्य सज्जन-साधवःइत्यमरः २।७।३। 

भाव = 'भावः सत्ता-स्वभावाभिप्राय-चेष्टात्म-जन्मसु इत्यमरः ३।३।२०८ 

टिप्पणी- भरत की अनुजोचित मर्यादाकुलीनताकुल-परम्परानुगामिताविनम्रता तथा राम के प्रति भक्ति-प्रवणता दर्शनीय है ।

तिलक टीका- गत्वेति । स भरतो महात्मानं सत्यप्रतिज्ञत्वादिधर्मैर्महावैभवं भ्रातरं रामं गत्वार्यभावपुरस्कृतो विनीतवेषस्तं रामं राज्याय प्रतिनिवृत्तिमयाचत् । याचिर्द्विकर्मकः ।। 1.1.35 ।।

।रामोऽपि परमोदारः सुमुखः सुमहायशाः॥३६॥

न चैच्छद् पितुरादेशाद् राज्यं रामो महाबलः।

अन्वयः- परमोदारःसुमुखःसुमहायशाःमहाबलःरामः अपि पितुः आदेशाद् राज्यं न च ऐच्छत् ।

शब्दार्थ  -परमोदारः=अत्युदारः। सुमुखः= प्रसन्नवदनः। सुमहायशाः= प्रशस्तकीर्तिमान् । महाबलः= अतिबलशाली। रामः अपि= श्रीरामचन्द्रोऽपि । पितुः = जनकस्य दशरथस्य । आदेशात्= आज्ञया। राज्यम्=अयोध्यायाः राज्याधिकारम्।  =नैव। ऐच्छत् = अभिलषितवान्।

भावार्थ:- अत्युदारः प्रसन्नवदनः प्रशस्तकीर्तिमान् अतिबलशाली श्रीरामचन्द्रोऽपि पितुः दशरथस्य आज्ञापालनार्थं अयोध्यायाः राज्याधिकारं नैवाभिलषितवान् ।

हिन्दी शब्दार्थ  - परमोदार: = महान् दयालु । सुमुखः = सुन्दर मुख-मण्डल वाले । सुमहायशाः = प्रशस्त एवं व्यापक यश वाले । महाबलः = महान् पराक्रमी । रामः अपि= राम भी। पितुः = पिता दशरथ की । आदेशात्= आज्ञा से। राज्यम्= अयोध्या का राज्य ।  = नहीं। ऐच्छत् = चाहा।

हिन्दी भावार्थ  - महान् दयालुप्रसन्न मुख, परम यशस्वी तथा अतिबलशाली राम भी अपने पिता दशरथ की आज्ञा का पालन करने के लिए राज्य को नहीं चाहा।

व्याकरण

(क) सन्धि-

परमोदारः = परम + उदार: ( गुण सन्धि ) । 

(ख) समास - 

परमोदार: = परमश्चासऔ उदारश्च (कर्म० त०) । 

सुमुखः = सुष्ठ (शोभनं ) मुखं यस्य सः (बहुव्रीहि समास)। 

सुमहायशाः = सुष्ठु महत् च यशो यस्य सः (बहुव्रीहि समास)। 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

ऐच्छत् = √ इषँ ( इच्छायां तुदादि, इच्छा) + लङ् + प्रथमा, पु० एकवचन। 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है । 

(ख) रस - भरत एवं राम की विशुद्ध धर्म-परायणता के कारण 'धर्म-वीररस की निष्पत्ति है (धनञ्जय-कृत 'दशरूपकके अनुसार) ।

टिप्पणी-  भरत भी प्रसन्न हो जायेंउनके हृदय में असन्तोष या अपमान भी न हो— साथ ही साथ पिता के आदेश का उल्लङ्घन भी न हो- इन सारी ध्यातव्य बातों का सन्तोषजनक सर्वमान्य उभय-पक्ष-सम्मत समाधान कर देना राम की तीक्ष्ण प्रतिभा का परिचायक है।

तिलक टीका- ननु पितृमातृदत्तं राज्यं तवैव योग्यमिति मम प्रतिनिवृत्तिरनुचितेत्यत्राह त्वमेवेति । सर्वगुणश्रेष्ठे ज्येष्ठे सति कनिष्ठो न राज्यार्ह इति धर्मं त्वमेव जानासीति त्वमेव राजेति वचो राममब्रवीत् । रामो ऽपि रमयतीति व्युत्पत्त्याश्रितचित्तरञ्जको ऽपि पितुरादेशाद्राज्यं नैच्छदित्युत्तरेणान्वयः । अत्र हेतुगर्भं विशेषणम् । परमोदारः स्वसुखसाधनस्य परस्मै दानमौदार्यं तद्युतः । सुमुखो राज्यादपि वने ऽम्लान्याद्यधिकमुखप्रसादयुक्तः । सुमहायशाः प्रतिज्ञापालनरूपयशोभङ्गभिया नैच्छदिति कतककृतः । तीर्थस्तु परमोदारो याचकाभीष्टप्रदाननिरतो ऽर्थिलाभेन प्रसन्नमुखः । सुमहायशा अर्थ्यवैमुख्येन प्रसिद्धकीर्तिरपि पित्राज्ञयैव भरतवाक्यं नैच्छदित्याह ।। 1.1.36 ।।

पादुके चास्य राज्याय न्यासं दत्वा पुनः पुनः॥३७॥

निवर्तयामास ततो भरतं भरताग्रजः ।

अन्वयः- ततः भरताग्रजः राज्याय न्यासं पादुके अस्य दत्त्वाभरतं  पुनः पुनः निवर्तयामास च ।

शब्दार्थ  ततः=चित्रकूटात्। भरताग्रजः=भरतज्येष्ठभ्राता। राज्याय=अयोध्यायाः राज्यं कर्तुम्। न्यासम्= निक्षेपम्स्वप्रतिनिधिरूपम् इत्यर्थः। पादुके = काष्ठचरणपादुके। अस्य= भरतस्य।  दत्त्वा= अर्पयित्वा । भरतम्=स्वीयानुजम् कैकेयीतनयम्। पुनः पुनः= भूयोभूयः।  निवर्त्तयामास=अयोध्यायाः कृते परावर्तयामास। 

भावार्थ:- तदनन्तरं भरताग्रजः रामः राज्याय स्वप्रतिनिधिस्वरूपं स्वीयकाष्ठचरणपादुके भरताय अर्पयित्वा बारं बारं स्वीयानुजं भरतं चित्रकूटात् अयोध्यायाः कृते परावर्तयामास।

हिन्दी शब्दार्थ  - ततः = उसके बाद, चित्रकूट से। भरताग्रजः = भरत के बड़े भाई (राम) ने। राज्याय = राज्य संचालन के लिए। न्यासम् = धरोहर रूप,  पादुके - दोनों चरण पादुकाओं (खड़ाऊँ) को । अस्य = भरत को। दत्वा देकर । भरतम्= अपने छोटे भाई भरत को ।  पुनः पुनः = बार-बार (समझा-बुझाकर ) । निवर्तयामास = लौटा दिया।

हिन्दी भावार्थ  - तब इसके बाद भरत के अग्रज राम ने राज्य के लिए धरोहर रूप में अपनी दोनों चरण पादुकाएँ उन्हें (भरत को) देकर बार-बार (समझा-बुझाकर) भरत को लौटा दिया ।

व्याकरण

(क) कारक- 'अस्य दत्त्वामें देने के अर्थ का योग होने पर भी चतुर्थी नहीं हुई हैक्योंकि दान की परिभाषा 'स्व-स्वत्व परित्याग-पूर्वकं पर स्वत्वोपपादनं दानम्के अनुसार यहाँ पादुकाएँ सदा के लिए भरत को नहीं दी जा रही हैं बल्कि केवल धरोहर रूप मेंवनवास काल तक के लिए ही । वन-वास से लौटने पर ये पादुकाएँ राम के द्वारा ले ली जायेंगी । अतएव चतुर्थी (अस्मै) न होकर षष्ठी एकवचन(अस्य) का प्रयोग समीचीन ही है । जैसे— 'रजकस्य वस्त्रं ददाति 

 (ख) सन्धि-

परमोदारः = परम + उदार: ( गुण सन्धि ) । 

भरताग्रजः = भरत + अग्रजः ( दीर्घ सन्धि )।  

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

 न्यासम् नि + √अस् + घञ्पुल्लिँग द्वि० एकवचन। 

दत्त्वा = √दा (डुदाञ् दाने, जुहोत्यादि) + क्त्वा । 

निवर्तयामास = निः + √वृत् + णिच् + लिट् + प्रथमा, पु० एकवचन।

(घ) कोष- 

न्यास = 'पुमानुपनिधिर्न्यासःइत्यमरः २।९।८१ 

पादुका = 'अथ पादुका । पादूरुपानत् स्त्रीइत्यमरः २।१०।३०।

टिप्पणी- दाण् दाने भ्वादि गण के धातु का लट् लकार में रूप यच्छाति रूप होता है। अतः यह जुहोत्यादि गण का धातु है।

तिलक टीका- ततो ऽस्य भरतस्य राज्याय राज्यरक्षणसामर्थ्यं लब्धुमहल्यादौ दृष्टशक्तिकाचिन्त्यवैभवस्वपदस्पृष्टे पादुके न्यासरूपेण दत्त्वा पुनःपुनः प्रतिनिवृत्तिं याचमानं भरतं चतुर्दशसमानन्तरं सर्वथा प्रतिनिवर्तितव्यमित्यभ्युपेत्य निवर्तयामास । अस्येति राज्यापेक्षया षष्ठी । दत्त्वेत्यत्र अस्मै इत्यर्थलभ्यम् । दत्त्वेत्यन्वये ऽपि सम्प्रदानस्य शेषत्वविवक्षया षष्ठीत्यन्ये । यत्तु निक्षेपे मुख्यदानाभावान्न चतुर्थी दत्त्वेत्यन्वये ऽपीतितन्न । खण्डिकोपाध्यायस्तस्मै चपेटां ददातीति महाभाष्यप्रयोगविरोधात् ।। 1.1.37 ।।

स काममनवाप्यैव रामपादावुपस्पृशन् ।। ३८।।

नन्दिग्रामेऽकरोद्राज्यं रामागमनकाङ्क्षया ।

अन्वयः - कामम् अनवाप्य एव राम-पादौ उपस्पृशन् सः रामागमनकाङ्क्षया नन्दिग्रामे राज्यम् अकरोत् ।

शब्दार्थ  कामम् = रामस्य आनयनरूपाभिलाषम्। अनवाप्य एव= अलब्ध्वा एव। रामपादौ = रामचरणौ । उपस्पृशन्= संस्पृशन्। सः= भरतः।  रामागमनकाङ्क्षया =श्रीरामचन्द्रप्रत्यागमनवाञ्छया। नन्दिग्रामे= अयोध्यातो दक्षिणदिग्भागे वर्तमाने नन्दीग्रामनामके स्थाने। राज्यम् =प्रजापालनम्। अकरोत्=कृतवान्।

भावार्थ:- भरतः रामस्य परावर्तनाभिलाषम् अप्राप्य एव रामपादौ संस्पृशन् ततः परावर्त्य रामागमनकाङ्क्षया रामस्य चरणपादुके संस्पृशन् नन्दीग्रामनामके स्थाने यावत्कालपर्यन्तं रामो वनात् नैवागमिष्यति तावत्कालपर्यन्तम् अहमत्रैव स्थित्वा तदादेशात् सर्वं राज्यकार्य सम्पादयिष्यामि, इति विचारेण प्रजापालनं अकरोत् ।

हिन्दी शब्दार्थ  - कामम् = मनोरथ को। अनवाप्य =न प्राप्त करके । एव = ही । रामपादौ = राम के चरणों को ।उपस्पृशन् = स्पर्श करते हुए। सः=  वह भरत। रामागमनकाङ्क्षया= राम के आगमन की इच्छा (=प्रतीक्षा) से।नन्दिग्रामे=  नन्दीग्राम नामक स्थान में। राज्यम् =प्रजा पालन। अकरोत्=किया।

हिन्दी भावार्थ  - अपने मनोरथ को न प्राप्त करके अर्थात् इच्छा पूर्ति के बिना ही राम के दोनों चरणों का स्पर्श करते हुए वे (भरत) राम के (लौट कर) आने वे की इच्छा (=प्रतीक्षा) से 'नन्दिग्राममें राज्य करने लगे।

व्याकरण

(क) कारक- 'रामागमन-काङ्क्षयामें 'हेतौसूत्र से हेतु अर्थ में तृतीया विभक्ति हुई है।

(ख)सन्धि-

काममनवाप्यैव कामम् + अनवाप्य + एव (वृद्धि०)। 

राम-पादावुपस्पृशन् = राम-पादौ + उपस्पृशन् (अयादि०) । 

नन्दिग्रामेऽकरोत् = नन्दिग्रामे + अकरोत् (पूर्वरूप ० ) । 

रामागमन ० = राम + आगमन० (दीर्घ ०) । 

(ग) समास - 

राम-पादौ = रामस्य पादौ तौ (षष्ठी तत्पुरूषद्वि०द्वि० व०) । 

रामागमन-काङ क्षया = रामस्य आगमनंतस्य काङ्क्षातया ( षष्ठी तत्पुरूष ) । 

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अनवाप्य = अव + √आप् + क्त्वा > ल्यप् = अवाप्यन अवाप्य = अनवाप्य (नञ् त० ) । 

उपस्पृशन् = उप + √स्पृश् + णतृ (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार

(ख) रस - शान्तरसकी स्थिति है ।

(ग) कोष- 

काम- इच्छा मनोभवौ कामौइत्यमरः ३।३। १३८ । 

काङ्क्षा- 'इच्छा काङ्क्षा स्पृहेहा तृड् वाञ्छा लिप्सा मनोरथः । इत्यमरः १।७।२७ । 

टिप्पणी-  वीतराग भरत का राम-योग्य राजसिंहासन पर न बैठना तथा राम की आज्ञा को शिरोधार्य करके राज्य संम्हालना (नन्दिग्राम में ही रह कर ) - परम औचित्य का परिपालन है।

।गते तु भरते श्रीमान्सत्यसन्धो जितेन्द्रियः ॥३९॥

रामस्तु पुनरालक्ष्य नागरस्य जनस्य च ।

तत्रागमनमेकाग्रो दण्डकान् प्रविवेश ह ॥४०॥

अन्वयः - भरते तु गते (सति ) श्रीमान्सत्य-सन्धःजितेन्द्रियः रामः तु तत्र पुनः नागरस्य जनस्य आगमनम् आलक्ष्य एकाग्रः (सन्) दण्डकान् प्रविवेश चह । 

शब्दार्थ  भरते= कैकेयीपुत्रे। तु गते= चित्रकूटात् प्रस्थिते सति। श्रीमान् = लक्ष्मीवान्शोभासम्पन्नः। सत्यसन्धः= सत्यप्रतिज्ञः।  जितेन्द्रियः= वशीकृतचक्षुरादीन्द्रियग्रामः । रामः तु= श्रीरामचन्द्रस्तु। तत्र= चित्रकूटे। पुनः= भूयः। नागरस्य जनस्य= अयोध्यावासिनो लोकस्य। आगमनम्=आगमनम्। आलक्ष्य=सम्भाव्य। एकाग्रः (सन्) = स्थिरलक्ष्यः सन्। दण्डकान्= दण्डकारण्यानि। प्रविवेश= अन्तःप्राविशत्। =इति प्रसिद्धौ।

भावार्थ:- भरते चित्रकूटात् प्रस्थिते सति सत्यप्रतिज्ञः शोभान्वितः लक्ष्मीवान् जितेन्द्रियः रामः अयोध्यावासिनो लोकस्य चित्रकूटनिकटग्रामीणस्य जनसमूहस्य आगमनं सम्भाव्य स्थिरलक्ष्यः सन् दण्डकारण्यानि प्रविवेश।

हिन्दी शब्दार्थ  - भरते= कैकेयी पुत्र भरत के । तु = पादपूर्ति के लिए अव्यय। गते (सति) = चले जाने पर । श्रीमान् = दीप्तिमान् शोभा सम्पन्न  सत्य-सन्धः = सत्य प्रतिज्ञा वाले । जितेन्द्रियः = इन्द्रियों को जीतने ( वश में करने ) वाले । तत्र - वहाँ (चित्रकूट में) । नागरस्य जनस्य = नागरिक (नगर-वासी) लोगों का । आगमनम्=आगमन को।  आलक्ष्य = देख करभाँप कर । एकाग्रः = सुस्थिरतल्लीन होकर । दण्डकान् = दण्डक वन के भू-प्रदेशों में । प्रविवेश = प्रवेश किया । ह = निश्चयप्रसिद्धि अर्थ वाला निपात-पद (अव्यय) । यह पाद-पूरणार्थंक भी होता है। च भी पाद-पूरण में निपात है।

हिन्दी भावार्थ  - भरत के लौट जाने पर दीप्ति-शालीसत्य प्रतिज्ञा वाले तथा इन्द्रिय-विजयी राम ने वहाँ (चित्रकूट में) फिर भी नागरिक जनों का आगमन देख कर सुस्थिर (परम शान्त) होकर दण्डकारण्य (के भू-भागों) में प्रवेश किया । ऐसी प्रसिद्धि है ।

व्याकरण

सन्धि-

पुनरालक्ष्य = पुनस् + आलक्ष्य (विसर्ग सन्धि) । 

तत्नागमनम् = तत्र + आगमनम् ( दीर्घ सन्धि )। 

(ख) समास - 

सत्यसन्धः - सत्या सन्धा ( प्रतिज्ञा ) यस्य सः (बहुव्रीहि समास)। 

जितेन्द्रियः = जितानि इन्द्रियाणि येन सः (बहुव्रीहि समास)। 

एकाग्र:= एकस्मिन् ( प्रधान-लक्ष्ये) अग्रः ( स० त० ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

श्रीमान् = श्री + मतुप् (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

आलक्ष्य = आ + √ लक्ष् (लक्षँ दर्शनाङ्कनयोः, चुरादिः ) + क्त्वा ल्यप् (अव्यय-पद) । 

नागरस्य = नगरे भवः नागरःतस्य । नगर + अण्, (पुल्लिँगप० एकवचन) । 

प्रविवेश प्र + √विश् (विशँ प्रवेशने तुदादिः) + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

विवेश, विविशतुः, विविशुः

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार 

(ख) रस -शान्तरस

(ग) कोष- 'सन्धा' = 'सन्धा प्रतिज्ञा प्रथमः स मर्यादाइत्यमरः ३।३।१०२ । 

एकाग्रः = 'अनाकुलेऽपि चैकाग्रः३।३।१६० । इत्यमरः

टिप्पणी-   वन वासस-काल में शान्त एकान्त स्थल की ही उपयोगिता होती हैअतएव दण्डकारण्य में राम का प्रवेश उचित ही है।

प्रविश्य तु महारण्यं रामो राजीवलोचनः ।

विराधं राक्षसं हत्वा शरभङ्गं ददर्श ह ॥४१॥

सुतीक्ष्णं चाप्यगस्त्यं च अगस्त्यभ्रातरं तथा ।

अन्वयः - राजीवलोचनः रामः तु महारण्यं प्रविश्यराक्षसं विराधं हत्वा शरभङ्गं तथा सुतीक्ष्णम् अगस्त्यम् अगस्त्यभ्रातरं च अपि ददर्श ह ।

शब्दार्थ  - राजीवलोचनः=कमलनयनः। रामः तु = श्रीरामचन्द्रः तु । महारण्यम्= दण्डकारण्यम्। प्रविश्य=अन्तर्गत्वा। राक्षसम्=निशाचरम्। विराधम्= एतत् नामकम्। हत्वा= मारयित्वा। शरभङ्गम् = शरभङ्ग इति नामकं मुनिम्। तथा = अपि। सुतीक्ष्णं च=सुतीक्ष्णमुनिं च। अगस्त्यम् अपि=अगस्त्यमुनिम् अपि। अगस्त्यभ्रातरं च= सुदर्शन - नामकं मुनिं च ।  ददर्श = अवलोकयामास । ह = प्रसिद्धौ ।

हिन्दी शब्दार्थ  - राजीव-लोचनः = कमल की भाँति लोचनों वाले। रामः तु = राम ने। महारण्यम् = विशाल वन ( दण्डकारण्य) में । प्रविश्य = प्रवेश करके । राक्षसम्= निशाचर। विराधम्=  विराध को। हत्वा = मार कर । शरभङ्गम् = शरभङ्ग नामकं मुनि । तथा = और। सुतीक्ष्णं च= सुतीक्ष्ण मुनि को। अगस्त्यम् अपि=अगस्त्यमुनि को भी। अगस्त्यभ्रातरम् = अगस्त्य के भाई को। ददर्श = देखा है- निश्चयप्रसिद्धि अर्थ मेंपादपूर्ति लिए भी इसका प्रयोग होता है।

हिन्दी भावार्थ  -  कमल के समान विशाल नेत्रों वाले राम ने तो विशाल वन ( दण्डकारण्य) में प्रवेश करकेविराध-नामक राक्षस का हनन करके शरभङ्ग तथा सुतीक्ष्णभगस्त्य एवम् अगस्त्य के भाई का भी दर्शन किया। ऐसी प्रसिद्धि है।

व्याकरण

सन्धि-

महारण्यम् = महा + अरण्यम् (दीर्घ ०) ।

चाप्यगस्त्यम् = च+अपि + अगस्त्यम् (दीर्घयण् ७) । 

(ख) समास - 

महारण्यम् =महत् च तत् अरण्यम् च  (कर्मधारय समासः) नपुं

राजीव-लोचनः = राजीव इव लोचने यस्य सः (बहुव्रीहि समास)।

सुतीक्ष्णम् =सुष्ठु तीक्ष्णश्च तम् । मनोहर और कठोर स्वभाव वाले सुतीक्ष्ण मुनिको। (कर्म० त० ) 

अर्थ हुआ 'अत्यन्त कठोर स्वभाव वाले सुतीक्ष्ण मुनि को।"

अगस्त्यभ्रातरम् = अगस्त्यस्य भ्रातातम् (षष्ठी तत्पुरूष) ।

अगस्त्यम्= (पर्वत) स्तम्भयति (विष्टम्नाति) स्वेन तेजसा इति अगस्त्यः तम् । उपपद त० 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

प्रविश्य= प्र + √विश् + क्त्वा> ल्यप्(अव्यय) । 

लोचन = (लोचृँ दर्शने, भ्वादिः) लोच् + ल्युट्  (नपुं)

हत्वा = √हन् (हनँ हिंसागत्योः, अदादिः, परस्मैपदी) + क्त्वा (अव्यय) । 

ददर्श = √दृश् + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) ।

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 'राजीव लोचनःमें 'उपमाहै। 

(ख) ध्वनि- मुनियों के प्रति दृढ प्रेम के कारण 'भावध्वनि है।

(ग) कोष- 

राजीव = 'बिसप्रसून- राजीव-पुष्कराम्भोरुहाणि चइत्यमरः ११०४१। 

लोचन = 'लोचनं नयनं नेत्रम्इत्यमरः २।६।९६। 

अरण्यम् = 'अटव्यरण्यं विपिनं गहनं काननं वनम्इत्यमरः २।४।१।

टिप्पणी-  वन-वास काल में राम के दो ही पुनीत कर्त्तव्य रहे :- दानव दलन तथा मुनिजन दर्शनइन दोनों लक्ष्यों का श्रीगणेश दण्डक-वन में प्रवेश करते ही हो रहा है।

अगस्त्यवचनाच्चैव जग्राहैन्द्रं शरासनम् ॥४२॥

खङ्गं च परमप्रीतस्तूणी चाक्षयसायकौ ।

अन्वयः - परम प्रीतः (रामः) अगस्त्य वचनात् एव ऐन्द्रं शरासनंखड्गम्अक्षयसायकौ तूणी च जग्राह । 

शब्दार्थ  -परमप्रीतः=अतिप्रसन्नः श्रीरामचन्द्रः। अगस्त्यवचनात्=अगस्त्यमुनेः आदेशात् । एव = निश्चयेन। ऐन्द्रं शरासनम् = इन्द्रसम्बन्धि धनुः।  खड्गं= असिं च। अक्षय-सायकौ= सर्वदा बाणपूर्णौ। तूणी च = तूणीरौ च। जग्राह=स्वीचकार ।

भावार्थ:- परमप्रीतः रामः अगस्त्यमुनेः आदेशात् एव खड्गं च इन्द्रसम्बन्धिधनुः च अक्षयसायकौ तूणीरौ च स्वीचकार ।

हिन्दी शब्दार्थ  - परम- प्रीतः = अत्यन्त प्रसन्न (होकर) । (राम)  अगस्त्य-वचनात् = अगस्त्य मुनि के कथनानुसार ऐन्द्रम् = इन्द्र के । शरासनम् = धनुष को । खड्गम् = तलवार को । अक्षय्य-सायकौ = कभी समाप्त न होने वाले बाणों से युक्त ।  तूणी = दो तरकसों को । जग्राह = ग्रहण किया ।

हिन्दी भावार्थ  - (अगस्त्य के आश्रम में प्रवेश करने के बाद) अत्यन्त प्रसन्न होकर श्रीराम ने अगस्त्य मुनि के कथनानुसार ही इन्द्र से सम्बद्ध (ऐन्द्र) धनुषतलवार तथा कभी समाप्त न होने योग्य बाणों से परिपूर्ण दो तूणीरों (तरकसों) को ग्रहण किया ।

व्याकरण

सन्धि-

अगस्त्य-वचनाच्चैव = अगस्त्य-वचनात् +च+ एव, (श्चुत्ववृद्धि०) । 

जग्राहेन्द्रम् = जग्राह + ऐन्द्रम् ( वृद्धि०) । 

शरासनम् शर + आसनम् (दीर्घ०) । 

चाक्षय्य-सायकौ = च + अक्षय्य० ( दीर्घ सन्धि )। 

(ख) समास - 

परम-प्रीतः = परमश्चासौ प्रीतश्च (कर्म० त०) । 

अगस्त्यवचनात्  =  अगस्त्यस्य वचनंतस्मात् = अगस्त्यवचनात् (षष्ठी तत्पुरूष) । 

शरासनम्  =  शराणाम् आसनंतत्, (षष्ठी तत्पुरूषनपुंसकलिंग द्वि० एकवचन) । 

अक्षय्य-सायकौ = क्षेतुं शक्याःक्षय्याः न क्षय्याः = अक्षय्याः (नञ् त०) । अक्षय्याः सायकाः ययोःतौ (द्वि०द्वि० ब०) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

प्रीतः = √ प्री + क्त (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

ऐन्द्रम् = इन्द्रस्य इदम् ऐन्द्रम् = इन्द्र + अण् (नपुंसकलिंग द्वि० एकवचन) । 

अक्षय्यः = क्षेतुं शक्यः क्षय्यः । √'क्षि क्षये + यत्में 'क्षय्य-जय्यौ शक्यार्थे'' इस सूत्र से अयादेश का निपातन हुआ । क्षय्यःन क्षय्यः = अक्षय्यः । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) रस - वीर रस

(ग) कोष- 

तूणी-'तूणोपाङ्ग-तूणीर तुण्याम्इत्यमरः २।८।८६-८९ । 

यद्यपि तूणतूणीर तथा तूणी (स्त्री०) इन शब्दों के अतिरिक्त 'तूणि' (पुल्लिँग या स्त्री०) का उल्लेख अमर कोष में नहीं है ('पद्य में प्रयुक्त 'तूणीपद तो तूणि (पुल्लिँग ) + द्वि०द्वि० व० का ही रूप है)तथापि आर्षत्वात् पुल्लिँग तूणि शब्द को स्वीकृत कर लेने पर उक्त प्रयोग सिद्ध हो जाएगा । 

शरासन = 'धनुश्चापौ धन्व-शरासन कोदण्ड-कार्मुकम्इत्यमरः २८1८३  

टिप्पणी- विकराल दुर्घर्ष दानवों के दलन हेतु देवों तथा ऋषियों के शुभाशीर्वाद चुम्बित शस्त्रों-अस्त्रों को स्वीकार करना राम की क्षत्रियोचित मर्यादा के अनुकूल ही है।

वसतस्तस्य रामस्य वने वनचरैः सह ॥४३॥

ऋषयोऽभ्यागमन्सर्वे वधायासुररक्षसाम् ।

अन्वयः - वने वनचरैः सह वसतः तस्य रामस्य (पार्श्वे) असुर-रक्षसां वधाय सर्वे ऋषयः अभ्यागमन् ।

शब्दार्थ - वने=अरण्ये। वनेचरैः= अरण्यवासिभिः। सह=साकम्। वसतः = वासं कुर्वतः। तस्य = पूर्ववर्णितस्य रामस्य = श्रीरामचन्द्रस्य। असुररक्षसां=दानवनिशाचराणाम्। वधाय=विनाशाय। सर्वे=समस्ताः। ऋषयः=मुनयः। अभ्यागमन्= आगतवन्तः। 

भावार्थ:-दण्डकारण्ये वनवासिभिः सह निवासं कुर्वतः रामस्य समीपे ऋषयः उपस्थितो भूत्वा मांसभोजिनां राक्षसानां विनाशाय रामं प्रार्थितवन्तः रामश्च तेषां मुनीनां प्रार्थनां स्वीकृत्य तेषां दानवानां विनाशाय प्रतिज्ञातवान् ।

हिन्दी शब्दार्थ - वने=जंगल में। वनचरैः सह = वनवासी प्राणियों के साथ  वसतः = निवास करते हुए । तस्य = उस । रामस्य = राम के। (पास में) असुर-रक्षसाम् = असुरों तथा राक्षसों के। धाय=वध करने के लिए। ऋषयः = ऋषिगण । अभ्यागमत् = अभिमुख आ गये। 

हिन्दी भावार्थ  - दण्डक वन में वन-वासी प्राणियों के साथ निवास करते हुए राम के पास समस्त ऋषिगण असुरों (दैत्यों) तथा राक्षसों के वध हेतु (निवेदन करने) सामने आ गये । 

व्याकरण

(क) कारक- वनचरै: सहमें 'सहके योग के कारण 'वनचरै:में तृतीया विभक्ति हुई   

(ख) सन्धि-

ऋषयोऽभ्यागमन् = ऋषयः + अभ्यागमन् (विसर्गपूर्वरूप) 

अभ्यागमनम् =  अभि + आ + अगमन् (यण्०दीर्घ०) । 

वधायासुर =  वधाय+असुर ( दीर्घ सन्धि )

वसतस्तस्य = वसतः + तस्य (विसर्ग०) ।

(ग) समास - 

वनचरै: = वने चरन्ति इति वनचराः तैः ( उपपद त०) । 

असुररक्षसाम् = सुराणां विरोधी असुरः (नञ्०) असुराश्च रक्षांसि च असुररक्षांसि, तेषाम् (द्वन्द्व०)  

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

वसतः =√वस् + शतृ = वसत् +षष्ठी० पुल्लिँग । 

वनचरैः = वन + √चर् + ट (तृ० बहुवचन पुल्लिँग) 

अभ्यागमन् =अभि + आ + गम् +लुङ् (प्रथमा, पु० बहुवचन ) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार 

(ख) कोष- 

असुर=असुरा दैत्य-देतेय दनुजेन्द्रारि दानवाःइत्यमरः १।१। १२ 

रक्षः = 'राक्षसः कौणपः क्रव्यात्... यातुरक्षसीइत्यमरः १।१।५९-६० 

ऋषि = ॠषयः सत्यवचसः इत्यमरः २।७। ४३

टिप्पणी-  कश्यप की पत्नी दिति के पुत्रशुक्राचार्य के शिष्य तथा देवों के सनातन शत्रु 'असुरकहे गये हैं। रक्षस या राक्षस तो मद्यपानरक्तपान (कोणप) तथा मांस-भक्षण (पिशिताशन) में निरत 'निशाचरऔर मायावी होते हैंजो निर्ॠति के वंशज माने गये हैं । द्रष्टव्यअमरकोष १॥१॥१२ तथा १।१।५६-६० ।

 'मुनिशास्त्रों के मनन कर्ता होते हैं-  'शास्त्र-तत्त्व-मन्तारो मुनयः। 'ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः,' 'ऋषिवेद-मन्त्रों के द्रष्टा होते हैं,।

स तेषां प्रतिशुश्राव राक्षसानां तदा वने ॥४४॥

प्रतिज्ञातश्च रामेण वधः संयति रक्षसाम् ।

ऋषीणामग्निकल्पानां दण्डकारण्यवासिनाम् ॥४५॥

अन्वयः - तदा वने सः दण्डकारण्यवासिनाम् अग्निकल्पानां तेषाम् ऋषीणां (समक्षं) राक्षसानां (वधं) प्रतिशुश्रावसंयति च रामेण रक्षसां वधः प्रतिज्ञातः ।

शब्दार्थ - तदा=तस्मिन् काले। वने=अरण्ये। सः= रामः। दण्डकारण्य-वासिनाम्= दण्डकवन-वसतीनाम्।अग्निकल्पानाम्=वह्निसदृशतेजःपुञ्जमूर्तीनाम्। तेषाम्=मुनीनाम् । ऋषीणां (समक्षं)=मुनीनां समीपे। राक्षसानां (वधं) = निशाचराणां विनाशाय। प्रतिशुश्राव= प्रतिज्ञातवान्। संयति=युद्धे।  = अपि । रामेण=श्रीरामचन्द्रेण।  रक्षसाम्=राक्षसानाम्। वधः=नाशः। प्रतिज्ञातः=प्रतिज्ञां चकार ।

भावार्थ:- अग्निसदृशतेजःपुञ्जमूर्तीनां दण्डकवनवसतीनां मुनीनां समीपे रामेण युद्धे राक्षसानां विनाशनं च प्रतिज्ञातवान्।

हिन्दी शब्दार्थ - तदा = ऋषियों की प्रार्थना सुनने के बाद । वने=जंगल में। सः = श्रीराम ने । दण्डकारण्यवासिनाम् = दण्डकारण्य-निवासी । अग्निकल्पानाम् = अग्नि के समान (तेजस्वी) । तेषाम्=मुनीनाम् ।ऋषीणां (समक्षं)=ऋषियों को समक्ष । राक्षसानां = निशाचरों के । (वधं= वध करना)  प्रतिशुश्राव = (बारे में सुना) प्रतिज्ञा किया, वचन दिया। संयति च = और युद्ध में। रक्षसां राक्षसों के । वधः प्रतिज्ञातः = वध की प्रतिज्ञा की ।

हिन्दी भावार्थ  - राक्षस-वध हेतु ऋषियों की प्रार्थना सुनने के बाद उस वन में रामचन्द्र जी ने दण्डकारण्य-वासी और अग्नि के समान तेजस्वी उन ऋषियों के समक्ष ही राक्षसों का वध करना स्वीकृत कर लिया तथा युद्ध में राक्षसों के वध की प्रतिज्ञा की ।

व्याकरण

(क) समास - 

दण्डकारण्य-वासिनाम् = दण्डकस्य अरण्यंतस्मिन् वसन्ति इतिदण्डकारण्यवासिनःतेषाम् (ष० त०उपपद त० ) । 

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अग्निकल्पानाम् = अग्नेः ईषद् ऊना अग्निकल्पाःतेषाम् । अग्नि + कल्पप् (तद्धित प्रत्यय)पुल्लिँगष० बहुवचन।

प्रतिशुश्राव = प्रति + √श्रु + लिट्प्रथमा, पृ० एकवचन। 

प्रतिज्ञात = प्रति + √ज्ञा + क्तपुल्लिँग प्रथमा, पु० एकवचन । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास तथा 'अग्निकल्पसादृश्य का भान होने से उपमा की छाया है। 

(ख) रस - उत्साहाधिक्य की में व्यञ्जना के कारण 'वीर रसकी अभिव्यक्ति है।

(ग) कोष- 

प्रतिशुश्राव ( प्रतिश्रव) = 'अङ्गीकाराभ्युपगम-प्रतिश्रव-समाधयः', इत्यमरः १॥५॥५॥ 

प्रतिज्ञातः (प्रतिज्ञा) = 'प्रतिज्ञानं नियमाश्रवसंश्रवाःइत्यमरः १॥५॥५॥ 

संयत् ='संयत्-समित्याजि-समिद्-युधःइत्यमरः १॥५५॥ 

टिप्पणी- उपद्रवीधर्म-द्रोहीयज्ञ-विध्वंसक राक्षसों के वध हेतु की गई ऋषियों की प्रार्थना को स्वीकृत करने से राम का अधर्म-विनाशकराक्षस-मर्दकयज्ञ पालकधर्म-समर्थकऋषिरक्षक तथा विनीत स्वरूप प्रकाशित होता है । 

तेन तत्रैव वसता जनस्थाननिवासिनी ।

विरूपिता शूर्पणखा राक्षसी कामरूपिणी ॥४६॥

अन्वयः- तत्र एव वसता तेन जनस्थाननिवासिनी कामरूपिणी राक्षसी शूर्पणखा विरूपिता ।

शब्दार्थ - तत्र एव = तस्मिन्नेव दण्डकारण्ये। वसता = निवासं कुर्वता । तेन = रामेण। जनस्थाननिवासिनी = जनस्थाननामके दण्डकारण्यप्रदेशे वासं कुर्वती। कामरूपिणी = स्वेच्छयानेकरूपधारिणी। राक्षसी=निशाचरी। शूर्पणखा = शूर्पणखानाम्नी रावणभगिनी। विरूपिता= लक्ष्मणेन नासिकोच्छेदनं कारयित्वा कुरूपा कृता ।

भावार्थ:- तस्मिन्नेव दण्डकारण्ये निवसता रामेण जनस्थाननामके दण्डकारण्यप्रदेशे वासं कुर्वती स्वेच्छयानेकरूपधारिणी शूर्पणखानाम्नी रावणभगिनी निशाचरी, लक्ष्मणेन तस्याः नासिकोच्छेदनं कारयित्वा विरूपिता।

हिन्दी शब्दार्थ -तत्र एव =  उसी दण्डक-वन में । वसता = रहते हुए। तेन = भगवान् राम के द्वारा । जनस्थान- निवासिनी = ( दण्डकारण्य के ही एक भाग का नाम 'जनस्थानथाजहाँ जन समुदाय सपरिवार रहता था और जहाँ का स्वामित्य खर एवं दूषण के हाँथों में था)। उसी 'जनस्थानमें रहने वाली । कामरूपिणी = इच्छानुसार रूप धारण करने वाली अर्थात् मायाविनी । राक्षसी शूर्पणखा =  शूर्पणखा नामक राक्षसी । विरूपिता = विकृत रूप वाली बना दी गई ।

हिन्दी भावार्थ  - उसी दण्डक-वन में निवास करते हुए उन श्रीराम ने 'जनस्थान' में निवास करने वालीस्वेच्छा से रूप बना लेने वाली शूर्पणखा नामक राक्षसी को (लक्ष्मण के द्वारा) विकृत स्वरूप वाली बना दिया।

व्याकरण

सन्धि-

तत्रैव - तत्र + एव ( वृद्धि०) ।

(ख) समास - 

जनस्थान-निवासिनी = जनाः तिष्ठन्ति (वसन्ति) अस्मिन् स्थान इति जनस्थानंतत्र निवसितुं शीलम् अस्या इति । (उपपद त०) । 

शूर्पणखा = शूर्पाणि इव नखा यस्याःसा (बहुव्रीहि समास)। 

कामरूपिणी =कामेन (इच्छ्या) धृतं रूपं कामरूपम्तद् अस्ति अस्या इति कामरूपिणी (मध्यमपदलोपी त० ) ।

विरूपिता = विकृतं रूपं विरूपंतत् सञ्जातम् अस्या इति (कर्म० त० ) 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

निवासिनी = नि + √वस् + णिनि (ताच्छील्ये) + ङीप्स्त्री०प्रथमा, एकवचन। 

वसता = √वस् + शतृपुल्लिँगतृ० एकवचन। 

कामरूपिणी = कामरूप + इनि + ङीप्स्त्री०प्रथमा, एकवचन। 

विरूपिता = विरूप + इतच् + टाप्स्त्री०, प्रथमा, एकवचन  । 

शूर्पणखा शूर्पनख + टाप् ('नखमुखात् संज्ञायाम्सूत्र से ङीष् का निषेध होने पर टाप् होता है)स्त्री०प्रथमा, एकवचन। 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास तथा 'शूर्पणखामें समासगा उपमा है । 

(ख) रस - विरूप करने के कारण हास्य रस है  

(ग) कोष- 'इच्छा मनोभवो कामीइत्यमरः ३।३।१३८ ।

टिप्पणी- यद्यपि नारियों पर शस्त्रास्त्र प्रहारअङ्गभङ्ग आदि कार्यों का निषेध शास्त्रसम्मत है तथापि जिन दुरावारिणी महिलाओं के दुराचार से सभ्य समाज खिन्नदूषित तथा पीडित हो रहा हो उनका वध कर देना समाज हित के अनुकूल ही है— 'आततायी वधार्हण:' (महाभारत ) । अतएव मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने ताड़का का वध तथा शूर्पणखा का नासिका खण्डन करना उचित समझा ।

।ततः शूर्पणखावाक्यादुद्युक्तान्सर्वराक्षसान् ।

खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसम् ॥४७॥

निजघान रणे रामस्तेषां चैव पदानुगान् ।

अन्वयः - ततः रामः शूर्पणखा-वाक्यात् उद्युक्तान् सर्वराक्षसान्राक्षसं खरं त्रिशिरसं दूषणं चैव तेषां पदानुगान् चैव रणे निजघान ।

शब्दार्थ - ततः= शूर्पणखानासाच्छेदनानन्तरम्। रामः= दाशरथिः। शूर्पणखा-वाक्यात् = शूर्पणखावचनात्।उद्युक्तान् = योद्धुं तत्परान् । सर्वराक्षसान्=सकलनिशाचरान्। खरम्= एतत् नामकं निशाचरम्। त्रिशिरसं चैव-तन्नामकं अपि। दूषणम्=एतत् नामकं चैव। राक्षसम्= निशाचरम्। तेषाम्=खरदूषणत्रिशिरसां राक्षसानाम्। पदानुगान् च=अनुचरान् राक्षसान् च। रणे=युद्धे। निजघान=विनाशयामास ।

भावार्थः- शूर्पणखानासाच्छेदनानन्तरं सकललोकैकवीरेषु युष्मत्सु जीवत्सु एव युष्माकं भगिन्या मम साधारणेन अत्रैव निवसता एकेन तापसेन नासाच्छेदनेन ईदृशी दशा कृता किमिदानीं राक्षसानां कुले न सन्ति ते वीरा ये क्षणात् सचराचरम् इदं जगत् भस्मसात् कर्तुं समर्था आसन् इति शूर्पणखावाक्यं श्रुत्वा युद्धाय कृतोद्यमान् सर्वान् निशाचरान् खरं दूषणं त्रिशिरसं नामकं चैव राक्षसं तेषां खरदूषणत्रिशिरसां निशाचराणाञ्चानुचरान् राक्षसान् युद्धे रामः व्यापादयामास

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = शूर्पणखा को अङ्ग - विकृत कर देने के बाद । रामः= राम ने। शूर्पणखा-वाक्यात् = शूर्पणखा के वचनों से। उद्युक्तान् = उकसाये गयेलड़ाई के लिए सन्नद्ध । सर्वराक्षसान्=सभी राक्षसों को।खरम्= खर नामक निशाचर को। त्रिशिरसं चैव - त्रिशिरा नामक राक्षस को। दूषणम्=दूषण नामक राक्षस को । राक्षसम्= निशाचर को। तेषां खर-दूषण आदि राक्षसों के । पदानुगान् = चरणों के पीछे-पीछे चलने वालेअनुचरों को। रणे = युद्ध में। निजघान = मार डाला ।

हिन्दी भावार्थ  - शूर्पणखा के नासिका खण्डन के बाद श्रीराम ने शूर्पणखा के द्वारा उकसाये गये ( युद्ध करने के लिए उद्यत) समस्त राक्षसों तथा खरविशिरा एवं दूषण नामक (विशिष्ट) राक्षसों और उनके चरणानुगामियों (अनुचरों) को युद्ध में मार डाला।

व्याकरण

सन्धि-

वाक्यादुद्युक्तान् = वाक्यात् उद्युक्तान् (जश्त्व०) । 

उद्युक्तान् = उत् + युक्तान् (जश्त्व०) । 

चैव च + एव ( वृद्धि०) । 

पदानुगान् = पद + अनुगान् ( दीर्घ सन्धि )। 

(ख) समास - 

शूर्पणखा-वाक्यात् = शूर्पणखायाः वाक्यंतस्मात् (षष्ठी तत्पुरूष ) । 

सर्व-राक्षसान् = सर्वे च ते राक्षसाः तान् (कर्म० त० ) । 

त्रिशिरसम् = त्रिणि शिरांसि यस्य सः त्रिशिराः तम् (पुल्लिँग द्वि० एकवचन) । 

पदानुगान् = अनुगच्छन्ति इति अनुगाःपदस्य अनुगाः पदानुगा:तान् (षष्ठी तत्पुरूष ) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

उद्युक्तान् = उत् + √युज् + क्त= उद्युक्त + द्वि० बहुवचन पुल्लिँग । 

निजघान = नि + √हन् + लिट्, (प्रथम पु० एकवचन) । 

अनुगान् = अनु + गम् +ड  = अनुग + द्वि० बहुवचन पुल्लिँग ।

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) रस -वीररस का हाव-भाव है। 

(ग) कोष- 

पद- 'पदं व्यवसित वाण-स्थान-लक्ष्माङ्घ्रि-वस्तुषुइत्यमरः (३।३। ९३)

टिप्पणी-  राक्षस-दमन की प्रतिज्ञा करने के कारण खर दूषणादि का वध राम के शौर्य एवं पौरुष के अनुकूल ही है।

वने तस्मिन्निवसता जनस्थाननिवासिनाम् ॥४८॥

रक्षसां निहतान्यासन्सहस्राणि चतुर्दश ।

अन्वयः - तस्मिन् वने निवसता (रामेण) जन-स्थान-निवासिनां चतुर्दशसहस्राणि रक्षसां  निहतानि आसन् ।

शब्दार्थ - तस्मिन् वने= तस्मिन् दण्डकनामके अरण्ये। निवसता= वासं कुर्वता (रामेण)। जनस्थाननिवासिनां= जनस्थाने कृतवसतीनाम्। चतुर्दशसहस्राणि =चतुर्दशसहस्रसंख्यकानि।  रक्षसां=राक्षसानाम्। निहतानि=विनाशितानि । आसन्=अभवन्।

भावार्थः- तस्मिन्नेव दण्डकारण्ये वासं कुर्वता रामेण जनस्थाने कृतवसतीनां राक्षसानां चतुर्दशसहस्रसंख्यकानि विनाशितानि आसन्।

हिन्दी शब्दार्थ - तस्मिन् वने = उस दण्डकवन में । निवसता = निवास करते हुए ( राम के द्वारा) ।जनस्थाननिवासिनां = 'जन स्थान' नामक स्थान पर रहने वाले ।  चतुर्दश सहस्राणि = १४ हजार । रक्षसां=राक्षसों को। निहतानि आसन् = मारे थे । 

हिन्दी भावार्थ  - उस दण्डक-वन में निवास करते हुए श्रीराम के द्वारा 'जन स्थानमें रहने वाले चौदह हजार राक्षस मारे गये थे । 

व्याकरण

सन्धि-

निहतान्यासन् = निहतानि + आसन्, (यण् सन्धि) । 

(ख) समास - 

जनस्थान-निवासिनाम् = जनस्थाने निवसन्ति तेषाम् (उप पद त०) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

निवसता = नि + √वस् + शतृ पुल्लिँगतृ० एकवचन। 

निवासिनाम् = नि + √वस् + णिनिषष्ठी, बहुवचन । 

निहतानि = निः + √हन् + क्तनपुंसकलिंग प्रथमा, बहुवचन। 

(क) रस -वीररस है। 

टिप्पणी-   प्रतिज्ञा-पालन-पटु राम ने धर्म-विध्वंसक १४ हजार राक्षसों का संहार करके मानों ऋषि-रक्षण हेतु रावण का मानमर्दन किया।

ततो ज्ञातिवधं श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्छितः ॥४९॥

सहायं वरयामास मारीचं नाम राक्षसम् ।

अन्वयः - ततः ज्ञातिवधं श्रुत्वा क्रोध-मूच्छितःरावणःमारीचं नाम राक्षसं सहायं वरयामास ।

शब्दार्थ - ततः=तदनन्तरम्। (शूर्पणखामुखात्) ज्ञातिवधं=खरदूषणत्रिशिरसां राक्षसबन्धूनां विनाशनम्। श्रुत्वा=आकर्ण्य। क्रोधमूच्छितः = कोपघूर्णितः सन्। रावणः=लङ्काधिपतिः राक्षसराजः। मारीचं नाम= मारीचनामकम्। राक्षसम्=निशाचरम्। सहायम्=(सीताहरणे) सहायताम्। वरयामास =ययाचे।

भावार्थ:- तदनन्तरं शूर्पणखामुखात् त्रिशिराखरदूषणादीनां बन्धूनां विनाशम् आकर्ण्य कोपघूर्णितः सन् लङ्काधिपतिः राक्षसराजः रावणः मारीचनामकं राक्षसं सीताहरणे सहायतां वरयामास ।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = इसके बाद अर्थात् चौदह हजार राक्षसों के वध के बाद । ज्ञाति-वधम् = खर, दूषण, त्रिशिरा आदि राक्षस बन्धओं का वध को। श्रुत्वा=सुनकर। क्रोधमूच्छितः =कोप से विह्वल । रावणः = लङ्कापति दशानन रावण ने । मारीचं नाम राक्षसं = मारीच नामक ताडकापुत्र राक्षस से । सहायम् = सहयोग (को) । वरयामास = माँगा ।

हिन्दी भावार्थ  - इसके बाद अर्थात् चौदह हजार राक्षसों के साथ खरदूषणादि प्रमुख राक्षसों के वध के पश्चात् अपने बान्धवों के विनाश को सुन कर क्रोध-विह्वल रावण ने मारीच नामक राक्षस से सहयोग माँगा ।

व्याकरण

(क) कारक - 'दुहयाच्-पच्-के नियमानुसार मारीचं राक्षसं वरयामासमें याच् धातु के समानार्थक 'वृधातु के रूप 'वरयामासके योग में मारीचं तथा उसके विशेषण-पद 'राक्षसंमें द्वितीया हुई है   

(ख) समास - 

ज्ञातिवधम् = ज्ञातीनां वधः = ज्ञातिवधः तम् ( षष्ठी तत्पुरूष ) (द्वि० एकवचन)  

क्रोध-मूच्छितः = क्रोधेन मूर्च्छित : ( तृतीया तत्पुरूष ) 

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

रावणः = रावयति शब्दाययति = रोदयति निखिलं जगत्कुकर्मभिःइति रावणः । √रु + णिच् = रावि + ल्यु (कर्तरि)पुल्लिँग प्रथमा,एकवचन । 

मूच्छितः = √मूर्च्छ + क्तप्रथमा,एकवचन । 

सहायम् = सह + √ इण् (इण् गतौ अदादिः)+ अच् ( भावे)द्वि० एकवचनपुल्लिँग । 

वरयामास = √वर (ईप्सायाम्, चुरादिः) + लिट्प्रथम पु० एकवचन । 

(क) अलंकार-  अनुप्रास है । 

(ख) रस - क्रोध के सन्निवेश के कारण रौद्र रस है,  

(ग) कोष- 

ज्ञाति-'सगोत्र-बान्धव-ज्ञाति-बन्धु-स्व-स्वजनाः समाःइत्यमरः (२।६।३४) । 

सहाय– 'सहायानां सहायताइत्यमरः (३।२।४० ) । 

टिप्पणी- त्रैलोक्य-विजयी महाबली रावण द्वारा माया-पटु मारीच से सहायता मांगना यह ध्वनित करता है कि अवसर पर तुच्छ व्यक्ति भी महान् व्यक्ति के लिए उपयोगी हो जाता है।

।वार्यमाणः सुबहुशो मारीचेन स रावणः ॥५०॥

न विरोधो बलवता क्षमो रावण तेन ते ।

अन्वयः - रावण ! तेन बलवता (सह) ते विरोध न क्षम: (इत्थं) मारीचेन स रावणःसुबहुशः वार्यमाणः (आसीत्) ।

शब्दार्थ -'हे रावण! = हे लङ्काधिपते दशानन! तेन =रामेण सह । बलवता=बलशाली। ते= तव। विरोधः = विवादःकलहः । = नैव । क्षमः= उचितः। (इत्थम्) मारीचेन= मारीचनामकेन राक्षसेन। सः=लङ्काधिपतिः। रावणः=दशाननः। सुबहुशः = अनेकशः। वार्यमाणः (आसीत्)=निषिध्यमानोऽभूत्। 

भावार्थ:- मारीचनामकः राक्षसः रावणं सम्बोधयन् तमब्रवीत् यत् 'हे लङ्काधिपते दशानन! बलशालिना रामेण सह तव विरोधः नैवोचितःइत्थम् अनेकशः तेन राक्षसेन सः रावणः कालप्रेरितः सन् मारीचवाक्यम् अनादृत्य मारीचेनसहितः तस्य रामस्य आश्रमस्थानं जगाम।

हिन्दी शब्दार्थ - 'हे रावण! = हे रावण तेन बलवता = उन बलवान् श्रीराम के (साथ) । ते = तुम्हारा। विरोधः = विरोध करनाशत्रुता मोल लेना । न क्षमः = उचित नहीं है। (इत्थम्= इस प्रकार) मारीचेन= मारीच नामक राक्षस के द्वारा। सः= वह लङ्काधिपति। सुबहुशः = अनेकों बार । वार्यमाणः (आसीत्) = रोका जा रहा थामना किया जा रहा था ।

हिन्दी भावार्थ  - 'हे रावण ! उन परम बलशाली राम के साथ तुम्हारा विरोध-कार्य उचित (या हितकर) नहीं है' (इस प्रकार) मारीच के द्वारा वह रावण अनेकों भाँति (बहुत प्रकार से) रोका जा रहा था ।

व्याकरण

(क) कारक  'तेन बलवतामें गम्यमान 'सहके योग में 'सहयुक्तेऽप्रधानेसूत्र से तृतीया हुई ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

वार्यमाणः = √वृञ् वरणे (चुरादि) + यक् + शानच् (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

सु-बहुशः = सु + बहु + शस् (अव्यय-पद) ।

टिप्पणी-  सच्चा हितैषी बन्धु या मित्र या स्वजन वही हैजो अपनों को या - अपने स्वामी को अनिष्टअहितकर कार्य करने से रोक देसत्-परामर्श देकर मना कर दे। भारवि ने किरातार्जुनीयम् (प्रथम सर्ग) में इसी तथ्य का विवेचन किया है : 'स किं सखासाधु न शास्ति योऽधिपम् ।इसीलिए रावण को मारीच ने पहले ही समझाने का प्रयास किया । 

अनादृत्य तु तद्वाक्यं रावणः कालचोदितः ॥५१॥

जगाम सहमारीचस्तस्याश्रमपदं तदा ।

अन्वयः- तु तदा काल-चोदितः रावणः तद्-वाक्यम् अनादृत्य सह-मारीचः तस्य आश्रम-पदं जगाम । 

शब्दार्थ -  तु= किन्तु। तदा= तस्मिन् काले। काल-चोदितः= मृत्युप्रेरितः (सन्)। रावणः= लङ्काधिपतिः रावणः। तद्वाक्यम्= तद्वचनम्। अनादृत्य= अवज्ञाय । सह-मारीच: = मारीचेन सहितः। तस्य= रामस्य । आश्रमपदम्=आश्रमस्थलम्। जगाम= ययौ ।

हिन्दी शब्दार्थ -  तु = परन्तु। तदा = उस समय । कालचोदितः = काल (विपरीत काया यमराज) के द्वारा प्रेरित होकर) । रावणः= लङ्का के रावण। तद्-वाक्यम् = उस मारीच के वाक्य को । अनादृत्य = ठुकराकर करके । सह-मारीचः = मारीच के साथ।  तस्य = श्रीराम के । आश्रमपदम् = आश्रम-स्थान की ओर । जगाम = गया ।

हिन्दी भावार्थ  - (यद्यपि मारीच ने बहुत रोका) परन्तु उस समय (या मृत्यु) से प्रेरित होकर रावण उस मारीच के वाक्य का अनादर करके भारीच के साथ उनके (श्रीराम के) आश्रम स्थान को गया।

व्याकरण

सन्धि-

तस्याश्रमपदम् तस्य + आश्रमपदम्। 

तद्-वाक्यम् = तत् + वाक्यम् (जश्त्व) । 

(ख) समास - 

तद्वाक्यम् = तस्य वाक्यम् (षष्ठी तत्पुरूष)

कालचोदितः = कालेन चोदितः, (तृतीया त०)

आश्रमपदम् आश्रमस्य पदम् (षष्ठी तत्पुरूष)

सहमारीचः मारीचेन सह इति सहमारीचः । सुप्सुपा से समास 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अनादृत्य = आ + दृ + क्त्वा ल्यप् = आदृत्यन आदृत्य = अनादृत्य । (नञ् त०) ।

चोदितः = चुद् + क्त (पुं०प्र० ए० व० ) । 

(क) रस - रौद्र रस है ।

(ग) कोष- 

 काल- 'कृतान्तानेहसो: कालइत्यमरः (३।३।१४) ।

पद-  'पदं व्यवसित त्राण-स्थान-लक्ष्माङ्घ्रि-वस्तुषु ।इत्यमरः (३।३।३)

टिप्पणी- अपने हितेच्छु जनों के सत्-परामर्शों की अवहेलना करने वाला पतन गर्त में जा गिरता है। भारवि के शब्दों में : 'हितान्न य: संशृणते स किं प्रभुः ।मारीच जैसे अन्यान्य हितैषियों की हितकर बातें न मानने वाला रावण दुर्गति पाता है।

तेन मायाविना दूरमपवाह्य नृपात्मजौ ॥ ५२॥

जहार भार्यां रामस्य गृध्रं हत्वा जटायुषम् ।

अन्वयः- (रावणः) मायाविना तेन नृपात्मजौ दूरम् अपवाह्य  रामस्य भार्यां जहारगृध्रं जटायुषं (च) हत्वा (लङ्कां ययौ) ।

शब्दार्थ -(रावणः)  मायाविना=ऐन्द्रजालिकविद्याभिज्ञेन। तेन=सुवर्णमृगरूपधारिणा मारीचेन। नृपात्मजौ =राजपुत्रौ रामलक्ष्मणौ। दूरम् अपवाह्य=आश्रमात् दीर्घमध्वानमपसार्य नीतौ । (यस्मात् कारणात् )। रामस्य= श्रीरामचन्द्रस्य। भार्यां= पत्नीं सीताम्। जहार=अपहृतवान्। गृध्रं= बृहदाकारपक्षिविशेषं सम्पातिभ्रातरम्। जटायुषम् = जटायु- नामानम्।  हत्वा= व्यापाद्य ((लङ्कां ययौ) 

भावार्थ:- ऐन्द्रजालिकविद्याभिज्ञेन सुवर्णमृगरूपधारिणा मारीचेन राजपुत्रौ रामलक्ष्मणौ आश्रमात् दीर्घमध्वानमपसार्य नीतौ यस्मात् कारणात् रावणः श्रीरामचन्द्रस्य पत्नी सीतामपहृतवान्। गमनकाले च मार्गे विघ्नकर्तारं सीताविमोचनार्थमुपस्थितं जटायुनामानम् बृहदाकारपक्षिविशेषं सम्पातिभ्रातरम् व्यापाद्य सः लङ्काधिपतिः रावणः लङ्काभिमुखं प्रस्थितः।

हिन्दी शब्दार्थ - (रावणः)  मायाविना = माया रचने में निपुणमायावी मृग का रूप धारने वाले । तेन = उस मारीच के द्वारा । नृपात्मजौ = दोनों राजकुमारों (राम और लक्ष्मण को) । दूरम् = दूर तक । अपवाह्य = हटा कर । (रावणः) भार्यां = पत्नीसीता को । जहार = चुरा लिया। जटायुषम् =जटायु नामक गृध्र को । हत्वा = मार कर । लङ्कां ययौ = लङ्का की ओर चला गया ।

हिन्दी भावार्थ  - रावण ने उस मायावी (मृग-रूप-धारी) मारीच के द्वारा दोनों राज-पुत्रों (राम और लक्ष्मण) को दूर तक हटा कर राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया और (वह) गृध्र जटायु को मार कर (लङ्का चला गया) ।

व्याकरण

सन्धि-

नृपात्मजौ = नृप + आत्मजौ ( दीर्घ सन्धि )। 

(ख) समास - 

नृपात्मजौ = नृपस्य आत्मजौतौ (षष्ठी तत्पुरूषद्वि० द्वि० 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अपवाह्य – अप + √वह् + णिच् + क्त्वा > ल्यप् (अव्यय) । 

जहार = √हृञ् (हरणे) + लिट् + प्रथमा, पु० एकवचन। 

हत्वा = √हन् + क्त्वा (अव्यय) । 

(क) रस - भयानक रस का परिवेश है

(ख) कोष- 

भार्या-'सहधर्मिणी । भार्या जायाऽथइत्यमरः (२।६।६) । 

गृध्र - 'दाक्षाय्य-गृध्रौइत्यमरः (२।५।२१) । 

टिप्पणी- प्रभाव और पराक्रम में श्रीराम को अपनी अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट समझ कर ही रावण ने माया चातुरी से राम और लक्ष्मण को दूर करा कर ही सीता हरण किया ।

।गृध्रं च निहतं दृष्ट्वा हृतां श्रुत्वा च मैथिलीम् ॥५३॥

राघवः शोकसन्तप्तो विललापाकुलेन्द्रियः ।

अन्वयः-  राघवः निहतं गृध्रं दृष्ट्वा मैथिलीं च हृतां श्रुत्वा शोकसन्तप्तः (सन् ) आकुलेन्द्रियः (च सन्) विललाप ।

शब्दार्थ - राघवः=रघुवंशसमुद्भुतः रामः । निहतम् = व्यापादितम्। गृध्रं =जटायुषं गृध्रम्। दृष्ट्वा=अवलोक्य। मैथिलीम् च=सीतां च। हृताम्= रावणेन चोरिताम्। श्रुत्वा=आकर्ण्य। शोकसन्तप्तः= गृध्रराजवधजनितेन दुःखेन तापितः। आकुलेन्द्रियः सन्=विकलकरणः सन्। विललाप=परिदेवयामास।

भावार्थ:-कपटसुवर्णमयमृगरूपधारिणं मारीचं व्यापाद्य राघवः यदा पञ्चवट्यामाययौ तदा सीतमदृष्ट्वा शङ्कया व्याकुलहृदयः सन् यावदितस्ततः सीतामन्विष्यन् तावत् एवाहतं निश्चेष्टं मृतप्रायं जटायुनामानं गृध्रमवलोकितवान् तस्य मुखादेव च रावणेनापहृतां सीतां श्रुत्वा शोकसन्तप्तो भूत्वा परिदेवयामास।

हिन्दी शब्दार्थ - राघवः = रामचन्द्र जी । निहतम् = रावण के द्वारा मारे गये। गृध्रम् = जटायु को। दृष्ट्वा = देख कर । मैथिलीम् =जनकनन्दिनी सीता को । हृताम् = चुरा कर ले जाई गई । श्रुत्वा = सुन कर । शोकसन्तप्तः = शोक से व्यथित होकर । आकुलेन्द्रियः ( च सन्) = तथा विकल इन्द्रियों वाले होकर । विललाप = विलाप करने लगे ।

हिन्दी भावार्थ  - (इसके पश्चात् माया-मृग मारीच को मारकर लौटे हुए) रामचन्द्र जी मारे गये जटायु गृध्र को देख कर तथा (उसी से) चुरा कर ले जाई गई सीता के बारे में सुन कर शोक से व्यथित तथा विकल इन्द्रियों वाले होकर विलाप करने लगे।

व्याकरण

सन्धि-

विललापाकुलेन्द्रियः  विललाप + आकुलेन्द्रियः ( दीर्घ सन्धि )। 

आकुलेन्द्रियः = आकुल + इन्द्रियः ( गुण० ) । 

(ख) समास - 

शोकसन्तप्तः = शोकेन ( हेतुना) सन्तप्तःतृ त० । 

आकुलेन्द्रियः = आकुलानि इन्द्रियाणि यस्य सः (बहुव्रीहि समास)। 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

निहतम् = नि + √हन् + क्त (पुल्लिँगद्वि० एकवचन) । 

दृष्ट्वा = √दृश + क्त्वा (अव्यय) । 

हृताम् = √हृ + क्त + टाप् (स्त्री० द्वि० एकवचन) ।

श्रुत्वा = √श्रु + क्त्वा । 

मैथिलीम् = ( जनक पुत्री सीता को) मैथिलस्य अपत्यं स्त्री मैथिलीताम्= मैथिल + अण् + ङीप् (स्त्री०द्वि० एकवचन) ।

सन्तप्तः = सम् + √तप् + क्त (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

विललाप = वि + √लप् + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) रस - जटायु के प्रकरण से 'करुण रसतथा सीता-हरण के प्रकरण से विप्रलम्भ शृङ्गार रसध्वनित होते हैं।

(ग) कोष- 

शोक = 'मन्यु शोकौ तु शुक् स्त्रियाम्इत्यमरः (१७२५) । 

आकुल = 'व्यग्रो व्यासक्त आकुलइत्यमरः (३।३।१६०) । 

टिप्पणी- हितचिन्तक प्राणी तथा सहधर्मिणी प्रियतमा पर आई विपत्तियों पर शोक-सन्तप्त होना मानवीय मर्यादा के अनुकूल ही हैअतएव मर्यादा पुरुषोत्तम ने लोक-शिक्षा हेतु विलाप किया।

ततस्तेनैव शोकेन गृध्रं दग्ध्वा जटायुषम् ॥५४॥

मार्गमाणो वने सीतां राक्षसं सन्ददर्श ह ।

अन्वयः- ततः (रामः) तेन एव शोकेन (सह) जटायुषं गृध्रं दग्ध्वावने सीतां मार्गमाण: (सन्) राक्षसं सन्ददर्श ह।

शब्दार्थ - ततः=तदनन्तरम्, सीताहरणात्, जटायुषो मरणानन्तरम् । तेन एव=सीताहरणजनितेनैव। शोकेन=दुःखेन दुःखितो भूत्वा। जटायुषम्= जटायुनामकम्। गृध्रम् =सम्पातिभ्रातरं गृध्रराजम्। दग्ध्वा=भस्मीकृत्यदाहसंस्कारं विधाय। वने=दण्डकारण्ये। सीताम्=मैथिलीम्। मार्गमाणः= अन्विष्यन्। राक्षसम्= निशाचरम्। सन्ददर्श =अवलोकयामास। =इति प्रसिद्धम्।

भावार्थ:-जटायुषो मुखात् सीताहरणवृत्तान्तश्रवणानन्तरम् सीताहरणजनितेनैव दुःखेन दुःखितो भूत्वा जटायुषोः नामकस्य सम्पातिभ्रातुः गृध्रराजस्य दाहसंस्कारं विधाय दण्डकारण्ये सीतामन्विष्यन् सः रामः आकारेण कुक्षिनिक्षिप्तमस्तकतया देहवैकल्यमापन्नं घोरदर्शनं गमनाकर्षणादिरूपक्रियायुक्तशिरोहीनकलेवरविशिष्टं कबन्धनामानं राक्षसमवलोकयामास।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = जटायु मृत्यु तथा सीता-हरण के बाद । तेन एव = उसी । शोकेन = शोक से (युक्त होकर) । दग्ध्वा जलाकरदाहक्रिया करके । जटायुषम्= जटायु नामक। गृध्रम् =सम्पाति के भाई गीध को । दग्ध्वा=जलाकरदाह संस्कार करके। वने = वन में । सीताम्=सीता को। मार्गमाणः = खोजते हुए। राक्षसम्= निशाचर को। सन्ददर्श = देखा । = निश्चय तथा प्रसिद्धि के अर्थ में अव्यय । पाद-पूर्ति के लिए भी यह प्रयुक्त होता है।

हिन्दी भावार्थ  - इसके बाद (जटायु-मृत्यु तथा सीता-हरण के बाद) राम ने उसी शोक के साथ गृध्र जटायु का दाह-संस्कार करके (पुनः) वन में सीता को खोजते हुए (उन्होंने) एक राक्षस (कबन्ध) को देखा। ऐसी प्रसिद्धि है ।

व्याकरण

सन्धि-

ततस्तेनैव = ततः + तेनैव (विसर्ग)

तेनैव = तेन + एव ( वृद्धि ० ) । 

दग्ध्वा = √दह् + क्त्वा (व्यञ्जन०) । 

सन्ददर्श = सम् + ददर्श ( व्यञ्जन०) । 

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

दग्ध्वा = √दह् + क्त्वा (अव्यय) ) 

मार्गमाणः = √मार्ग अन्वेषणे (चुरादि) + शानच् (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

सन्ददर्श = सम् + √दृष् + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) रस -करुण एवं विप्रलम्भ शृङ्गार रस है।

टिप्पणी- गृध्र जैसे अपवित्र प्राणी के लिए भी विलापशोक तथा दाह-क्रिया करना राम की समदर्शिता तथा सर्व-वत्सलता के प्रमाण हैं। 

संदर्भ - श्रीराम ने कबन्ध राक्षस की दाहक्रिया कर दी और वह राक्षस स्वर्ग चला गया ।

कबन्धं नाम रूपेण विकृतं घोरदर्शनम् ॥५५॥

तन्निहत्य महाबाहुर्ददाह स्वर्गतश्च सः ।

अन्वयः- महाबाहुः (राम:) रूपेण विकृतंघोरदर्शनं तं कबन्धं नाम निहत्य ददाहस च स्वः गतः ।

शब्दार्थ - महाबाहुः=आजानुदीर्घभुजो रामः। रूपेण= आकारेण। विकृतम्= कुक्षिनिक्षिप्तमस्तकतया देहवैकल्यमापन्नम्। घोरदर्शनम् =भीषणाकृतिम्। तम्= कबन्धं राक्षसम्। कबन्धं नाम= कबन्धं नाम राक्षसम्।निहत्य= व्यापाद्य। ददाह=दग्धवान्। सः=कबन्धः। =अपि। स्वर्गतः=स्वर्लोकं गतः। 

भावार्थ:- आजानुदीर्घभुजो रामः तं कबन्धराक्षसं व्यापाद्य ततः प्राप्तदिव्यदेहस्य तस्य प्रार्थनया तस्य मृतदेहम् अग्निना संस्कृतवान्। 

हिन्दी शब्दार्थ - महाबाहुः = विशाल भुजाओं वाले (राम ने) । रूपेण = स्वरूप में । विकृतम् - विकार युक्त। घोर-दर्शनम् = देखने में भयङ्कर प्रतीत होने वाले । तम् = उसपूर्वोक्त । कबन्धं नाम = इन्द्र के द्वारा छिन्न-भिन्न जङ्घाओं और मस्तक वाले तथा ब्रह्मा के वरदान से दीर्घायु बने हुए 'कबन्धनामक राक्षस को । नाम = प्रसिद्धि-सूचक अव्यय है । निहत्य = मार कर । ददाह = जला दिया, (गड्ढे में) दाह क्रिया कर दी। सः = वह कबन्ध । स्वः = स्वर्ग को ('स्वर्स्वर्गवाचक अव्यय है) । गतः = चला गया । 

हिन्दी भावार्थ  - विशाल भुजाओं वाले श्रीराम ने (सीता को खोजते समय मार्ग में) स्वरूप से विकृत (कुरूप) तथा देखने में भयङ्कर उस (पूर्व-दृष्ट) कबन्ध नामक राक्षस को मार कर (दाहक्रिया द्वारा) दग्ध कर दिया और वह राक्षस स्वर्ग चला गया ।

व्याकरण

(क) कारक - 'रूपेण विकृतम्में 'येनाङ्गविकार:सूत्र से या 'प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्इस वार्त्तिक से तृतीया हुई है ।

(ख) सन्धि-

स्वर्गतश्च = स्वर् + गतश्च । 

गतश्च = गतः + च ( विसर्ग०) । 

(ग) समास - 

घोरदर्शनम् = घोरं दर्शनं यस्य सःतम् (बहुव्रीहि समासपुल्लिँगद्वि० एकवचन) । 

महाबाहुः = महान्तौ बाहू यस्य सः (बहुव्रीहि समास)।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

विकृतम् = वि + √कृ + क्त (पुल्लिँगद्वि० ए० द०) । 

दर्शनम् = √दृश् + ल्युट् । 

निहत्य = नि + √हनु + क्त्वा > ल्यप् (अव्यय) । 

ददाह = √दह + लिट् + प्रथमा, पु० एकवचन। 

गतः = गतम् अस्ति अस्य इति गतः = गत ( गम् + क्तभावे) + अच् = गत + पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन। 

(क) रस - भयानक रस का है।

(ख) कोष- घोर = 'घोरं भीमं भयानकम्इत्यमरः (१।७।२०) । 

बाहु= 'भुज-बाहू प्रवेष्टो दोःइत्यमरः (२।६।८०) । 

स्वर् = 'स्वरव्ययं स्वर्गनाक त्रिदिव-त्दरिशालयाःइत्यमरः (१।१।६) ।

टिप्पणी- चूंकि कबन्ध ने राम से कहा था कि यदि आप मुझे जलायें। सीताहरण करने वाले तथा सीता की खोज में सहयोग करने वाले के बारे में बता सकूंगा । अतएव प्रयोजन-सिद्धि के लिएसाथ ही ऋषि-शाप से उसे मुक्त करने के लिए राम ने उस कबन्ध का दहन किया।

स चास्य[4] कथयामास शबरीं धर्मचारिणीम् ॥५६॥

श्रमणां धर्मनिपुणामभिगच्छेति राघव ।

अन्वयः- स च अस्य कथयामास (यत्) 'हे राघव ! धर्मचारिणीं धर्म-निपुणां श्रमणां शबरीम् अभिगच्छ इति ।

शब्दार्थ - सः च= किन्तु स्वर्लोकगमनावसरे सः दिव्यगन्धर्वदेहधारी सन्। अस्य=रामस्य सम्बन्धे। कथयामास =उवाच। 'हे राघव!= हे राम! । धर्मचारिणीम्= धर्मशीलाम्श्रमणधर्मानुतिष्ठन्तीम्। धर्मनिपुणाम्= धर्मतत्त्वज्ञाम्। श्रमणाम्= संन्यासिनीम्। शबरीम् = शबरजातीयां स्त्रियाम्। अभिगच्छ=उपसीद। इति= एतत् वचनम्। 

भावार्थः-अथ च सः दिव्यगन्धर्वदेहधारी स्वर्गं गन्तुमुद्यतः रघुनन्दनमुवाच -हे रघुकुलोत्पन्न राम! भवान् धर्मतत्त्वज्ञायाः श्रमणधर्ममनुतिष्ठन्त्याः धर्माचरणरतायाः तपस्विन्याः शबर्याः समीपं गच्छतु।

हिन्दी शब्दार्थ -स च = उस कबन्ध ने। अस्य = इनसेराम से। कथयामास (यत्) = कहा (कि) । 'हे राघव!= हे राम! । धर्मचारिणीम् = धर्म का आवरण करने वालीतपस्विनी । धर्मनिपुणाम् = धर्म पालन में प्रवीण । श्रमणाम् = संन्यासिनी । शबरीम् =  शबर-जातीय वृद्धा स्त्री की ओर । अभिगच्छ = समीप जाइए । इति= इस प्रकार के वचन को।

हिन्दी भावार्थ  - और उस कबन्ध ने (स्वर्ग जाते समय) श्रीरामचन्द्र से यह कहा कि हे रघुनाथ राम जी ! आप धर्माचरण करने वाली (तपस्विनी) तथा धर्म-प्रवीणा संन्यासिनी शबरी के पास जाइए ।

व्याकरण

(क) कारक  'अस्य कथयामासमें 'कथधातु के 'ब्रू' के समानार्थक होने पर भी 'दुह्-याच्-पच् के नियम से द्वितीया नहीं हुईक्योंकि अपादानादि के अविवक्षित होने पर ही उक्त नियम से अकथित कर्म संज्ञा तथा द्वितीया विभक्ति होती हैअपादानादि की विवक्षा में तो पञ्चमी आदि होंगी ही। अतः सम्बन्ध की विवक्षा में 'अस्यमें षष्ठी हुई।

(ख)सन्धि-

स चास्य = सः + च = स च (विसर्ग) 

चास्य =  + अस्य = चास्य ( दीर्घ सन्धि )। 

अभिगच्छेति = अभिगच्छ + इति ( गुण सन्धि )।

(ग) समास - 

धर्मचारिणीम् = धर्मं चरितुं शीलम् अस्या इति धर्मचारिणीताम् (उपपद त०स्त्री० द्वि० एकवचन) । 

धर्म-निपुणाम् = धर्मे निपुणाताम् (सप्तमी त०) ।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

कथयामास = √कथ + लिट् + प्रथमा, पु० एकवचन

धर्मचारिणीम् =धर्म + √चर् + णिनिस्त्री०द्वि० एकवचन। 

श्रमणाम् = √श्रम् + ल्यु (कर्तरि) + टाप्स्त्री० द्वि० एकवचन। 

राघव = रघोः गोत्रापत्यं पुमान् राघवःतत्-संबोधने हे राघव ! रघु + अण् (सम्बोधनेप्रथमा, एकवचन) । 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलंकार है।

(ख) रस- शान्तरसोचित स्थल है। 

(ग) कोष- 

निपुण = प्रवीणे निपुणाभिज्ञ-विज्ञ-निष्णात-शिक्षिताःइत्यमरः ( ३।१।३)  

धर्म = स्याद् धर्ममस्त्रियां 'पुण्य-श्रेयसीइत्यमरः (१।४।२४) । 

टिप्पणी- धर्म-परायण जनों से सम्पर्क करना राम की प्रकृति है। अतः शबरी के पास जाने का परामर्श दिया गया है ।

सोऽभ्यगञ्च्छन्महातेजाः शबरीं शत्रुसूदनः ॥५७॥

शबर्या पूजितः सम्यग्रामो दशरथात्मजः ।

अन्वयः- शत्रु-सूदनः महातेजाः दशरथात्मजः सः राम: शबरीम् अभ्यगच्छत् शबर्या सम्यक् पूजितः (च) ।

शब्दार्थ - शत्रु-सूदनः=रिपुनाशकः। महातेजाः = अतितेजस्वी । दशरथात्मजः = अयोध्यानृपतेः पुत्रः। सः = रामः । रामः= श्रीरामचन्द्रः। शबरीम् = शबरजातिसमुद्भवां निजभक्तिमतीम्। अभ्यागच्छत् = उपससाद । ततः = तदनन्तरम् । शबर्या = एतन्नामिकया स्वीयभक्तिमत्या तपस्विन्या। सम्यक् = यथा विधि। पूजितः = सत्कृतः । 

भावार्थ  - अतितेजस्वी शत्रुविनाशकः रामः शबरजातिसमुद्भवां निजभक्तिमतीम् उपससाद। 

हिन्दी शब्दार्थ - शत्रु-सूदनः = शत्रु विनाशक । महातेजाः = महान् प्रतापी । दशरथात्मजः =दशरथ के पुत्र । सः रामः = वह श्रीरामचन्द्र। शबरीम् = शबरी की तरफ । अभि अगच्छत् = गये । ततः = उसके बाद । शबर्या = शबरी के द्वारा । पूजितः = सम्मानित किये गये ।

हिन्दी भावार्थ  - शत्रुओं के विनाशकमहान् प्रतापशालीदशरथ-नन्दन राम शबरी की तरफ गये और शबरी के द्वारा सम्मानित किये गये ।

व्याकरण

सन्धि-

सोऽभ्यगच्छत् = सः + अभ्यगच्छत् = सोऽभ्यगच्छत् (विसर्ग०पूर्वरूप ० ) । 

सोऽभ्यगच्छन्महातेजाः = सोऽभ्यगच्छत् + महातेजाः = सोऽभ्यगच्छन्महातेजाः (व्यञ्जन०) । 

दशरथात्मजः = दशरथ + आत्मजः ( दीर्घ सन्धि )। 

(ख) समास - 

महातेजाः = महत् तेजो यस्य सः (बहुव्रीहि समास, पुल्लिँगप्रथमा, एकवचन) । 

शत्रुसूदनः = शत्रून् सूदयति इति (उपपद०) । 

दशरथात्मजः = दशरथस्य आत्मजः (षष्ठी तत्पुरूष ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अभ्यगच्छत् = अभि + √गम् + लङ् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

सूदनः = √सूद् + ल्यु (कर्तरि)पुल्लिँगप्रथमा, एकवचन। 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है।  

(ख) रस - रूपगोस्वामी आदि आचार्यों के मतानुसार यहाँ भक्तिरस है। मम्मट के अनुसार यहाँ भाव-ध्वनि है।

(ग) कोष- 

तेज = 'तेजः प्रभावे दीप्तौ चइत्यमरः (३।३।२३४ ) ।

    किष्किन्धाकाण्ड

पम्पातीरे हनुमता सङ्गतो वानरेण ह ॥५८॥

हनुमद्वचनाच्चैव सुग्रीवेण समागतः ।

अन्वयः - (स रामः) पम्पा-तीरे वानरेण हनुमता सङ्गतः ह । हनुमद्-वचनात् एव सुग्रीवेण समागतः च ।

शब्दार्थ -  पम्पा-तीरे=पम्पासरःतटे। वानरेण=कपिना। हनुमता=अञ्जनिपुत्रेण। सङ्गतः =मिलितः आसीत्। ह = इति प्रसिद्धौ । हनुमद्- वचनात् =केशरीतनयस्य कथनात्।  = अपि। एव=निश्चयेन । सुग्रीवेण = सुग्रीव-नामकः बालिनः कनिष्ठभ्रात्रा वानरेण । समागतः  = मिलितः सन्। 

भावार्थ:-  तदनन्तरं दशरथात्मजः श्रीरामचन्द्रः पम्पानामकसरतटे कपिना अञ्जनिपुत्रेण हनुमता मिलितः।

हिन्दी शब्दार्थ - पम्पा-तीरे = किष्किन्धा के पास ऋष्यमूक पर्वत के निकटवर्ती 'पम्पानामक सरोवर के तट पर ।वानरेण = वानर। हनुमता= हनुमान् से। सङ्गतः = मिले । हनुमद्-वचनात् च एव = और हनुमान जी के कहने से ही । सुग्रीवेण = सुग्रीव नामक बालि-भ्राता वानर राज से । समागतः =समागम कियाभेंट किया।

हिन्दी भावार्थ  - वे रामचन्द्र जी पम्पा सरोवर के तट पर हनुमान् नामक वानर से मिले तथा हनुमान जी के ही कथन से सुग्रीव (नामक वानर-राज) से जा मिले ।

व्याकरण

(क) सन्धि-

हनुमद्-वचनाच्चैव = हनुमत् + वचनाच्चैव (जश्त्व)वचनात् +च = वचनाच्च (श्चुत्व) + एव (वृद्धि०) = वचनाच्चैव । 

(ख) समास - हनुमतः वचनंतस्मात् (ष० त०पंचमी एकवचन, नपुंसकलिंग) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

सङ्गतः = सम् + √गम् + क्तपुंप्रथमा,एकवचन । 

समागतः  = सम् + आ + गम् + क्तपुंप्रथमा, एकवचन।

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है ।

(ख) कोष- वानर = 'मर्कटो वानरः कीशइत्यमरः, (२।५।३ ) ।

टिप्पणी- सीता की प्राप्ति में प्रमुखतम सहयोगी हनुमान जी से मिलने पर राम की चिन्ता प्रशान्त होने लगी तथा अग्रिम उपाय सामने आने लगे ।

सुग्रीवाय च तत्सर्वं शंसद्रामो महाबलः ॥५९॥

आदितस्तद्यथावृत्तं सीतायाश्च विशेषतः ।

अन्वयः- महाबलः रामः सुग्रीवाय च आदितः तत् सर्वंविशेषतः च सीताया यथावृत्तं तत् शंसद् ( अशंसत्) ।

शब्दार्थ - महाबलः =अतिबलशाली। रामः= श्रीरामचन्द्रः। सुग्रीवाय = सुग्रीव-नामकः बालिनः कनिष्ठभ्रात्रा वानराय ।  = अपि । आदितः = आरम्भतः । तत् सर्वं =सम्पूर्णं स्वीयवृत्तान्तम्। विशेषतः = विस्तरतः।  सीतायाः च = जानक्याश्च। यथावृत्तम् = यत् यत् जातं तत् कथानकम्। तत् शंसत्= सर्वं कथयामास।

भावार्थ:- केशरीतनयस्य हनुमतः कथनादेव बालिकनिष्ठ भ्रात्रासुग्रीवेण सह समागतः महाबलः रामः बालिकनिष्ठभ्रात्रे वानराय सुग्रीवाय आदितः चरमं यावत् स्वीयं समस्तं वृत्तान्तं विस्तरतः सीतायाश्च यथावद्वृत्तं कथयामास । 

हिन्दी शब्दार्थ - महाबलः = महान् पराक्रमी । रामः= श्री रामचन्द्र ने। सुग्रीवाय = सुग्रीव के लिएसुग्रीव से। = आदितः = प्रारम्भ से लेकर । तत् सर्वम् = उन समस्त घटित वृत्तान्तों को । विशेषतः = विशेष रूप से । सीतायाः = सीता के सम्बन्ध में। यथावृत्तम् = जो घटना घटित हुई। तत् = उन सारी बातों को । शंसत्  (अशंसत्) = बता दिया।

हिन्दी भावार्थ  - महान् पराक्रमी राम ने सुग्रीव से उन सारी बातों को (जो राम के साथ घटित हुई थीं) प्रारम्भ से बता दिया तथा विशेष रूप से सीता के बारे में जो वृत्तान्त घटित हुआउसे बताया ।

व्याकरण

सन्धि-

सीतायाश्च = सीतायाः + च (विसर्ग०श्चुत्व ० ) । 

(ख) समास - 

सुग्रीवाय =सुष्ठु (शोभना) ग्रीवा यस्य सः तस्मै (बहुव्रीहि समास)। 

महाबलः = महद् बलं यस्य सः (बहुव्रीहि समास) । 

यथावृत्तम् = वृत्तमनतिक्रम्य यथावृत्तम् (अव्ययीभाव०) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

रामः = रमन्ते योगिनोऽस्मिन् इति रामः, √रम् + घञ् (अधिकरणे)पुं. प्रथमा, एकवचन। 

आदितः = आदि + तसिल् (अव्यय) । 

विशेषतः = विशेष + तसिल् (अव्यय) । 

शंसत् = अशंसत् के अर्थ में 'शंसत्यह आर्ष प्रयोग है । 

वृत्तम् =  √वृत् + क्त । 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है।

(ख) रस - विप्रलम्भ शृङ्गार रस है।

(ग) कोष- 

आदि = पुंस्यादिः  पूर्व-पौरस्त्य-प्रथमाद्याइत्यमरः (३।१।८०) । 

वृत्त = 'वृत्तपद्ये चरित्रे, त्रिष्वतीते दृढ-निस्तलेइत्यमरः (३।३।७८) ।

टिप्पणी- राम के द्वारा प्रथम भेंट और परिचय के समय आदि से लेकर सीता हरण तक के वृत्तान्त को सुग्रीव से बता देना भावी निश्छल मैत्री की पूर्वपीठिका है। मित्रता में कुछ भी छिपाना घोर अपराध माना जाता है।

सुग्रीवश्चापि तत्सर्वं श्रुत्वा रामस्य वानरः ॥६०॥

चकार सख्यं रामेण प्रीतश्चैवाग्निसाक्षिकम् । 

अन्वयः- वानरः सुग्रीवः  च अपि रामस्य तत् सर्वं (वृत्तं) श्रुत्वाप्रीतः (सन्) च रामेण (सह) एव अग्निसाक्षिकम्  सख्यं चकार ।

शब्दार्थ - वानरः=कपिः । सुग्रीवः च = बालिनः अनुजश्चापि। रामस्य =श्रीरामचन्द्रस्य। तत् सर्वम्=निखिलं वृत्तान्तम्। श्रुत्वा = आकर्ण्य। प्रीतः (सन्) च =अतिप्रसन्नः सन्। रामेण (सह) एव = श्रीरामचन्द्रेणैव साकम्। अग्निसाक्षिकम्= वह्निसाक्षिणम्। सख्यम् = मित्रत्वम्। चकार = कृतवान्।

भावार्थः- कपिः सुग्रीवः अपि रामस्य आदितः निखिलं वृत्तान्तं श्रुत्वा अतिप्रसन्नः सन् रामेण सह अग्निसाक्षिकं मित्रत्वं चकार ।

हिन्दी शब्दार्थ - वानरः = कपि । सुग्रीवः च = सुग्रीव ने भी। रामस्य =श्रीरामचन्द्र का। तत् सर्वं (वृत्तम् ) = उन समस्त अतीत में घटित वृत्तान्तों को । श्रुत्वा = सुनकर । प्रीतः (सन्) च = और प्रसन्न होते हुए। रामेण एव= राम सेराम के साथ ही। अग्निसाक्षिकम्  = साक्षी अग्नि से युक्त । सख्यम् = मैत्रीमित्रता । चकार = कर ली ।

हिन्दी भावार्थ  - वानर सुग्रीव ने भी राम की उन सारी बातों को सुनकर और प्रसन्न होकर श्रीराम के साथ अग्नि को साक्षी मानकर मित्रता कर ली।

व्याकरण

(क) कारक- 'रामेण सख्यंमें गम्यमान 'सहके योग में 'सहयुक्तेऽप्रधानेसूत्र से रामेण में तृतीया विभक्ति हुई। 

(ख) सन्धि-

सुग्रीवश्चापि = सुग्रीवः + च + अपि (विसर्ग०चुत्व, = दीर्घ ० ) । 

प्रीतश्चैवाग्नि-साक्षिकम् = प्रीतः + च + एव + अग्निसाक्षिकम् = प्रीतश्चैवाग्नि-साक्षिकम् (विसर्ग०श्चुत्ववृद्धि०दीर्घ०) ।

(ग) समास - अग्निसाक्षिकम् = अग्निः साक्षी यस्मिन्तत् (नपुंसकलिंगद्वि० एकवचन) बहुव्रीहि समास ।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

चकार = √कृ + लिट् (प्रथम पु० एकवचन) । 

सख्यम् = सख्युः इदम् == सख्यम्सखि + यत्, (नपुंसकलिंग द्वि० एकवचन) । 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है।

(ख) ध्वनि- 'भावध्वनि है ।

(ग) कोष- 

वानर = 'मर्कटो वानरः कीशइत्यमरः (२  ५।३) ।

टिप्पणी- अग्नि को साक्षी बनाकर की गई मित्रता टिकाऊनिश्छल तथा स्थिर होती है।

ततो वानरराजेन वैरानुकथनं प्रति ॥६१॥

रामायावेदितं सर्वं प्रणयादुःखितेन च ।

अन्वयः- ततः दुःखितेन वानरराजेन वैरानुकथनं प्रति प्रणयाद् सर्वं रामाय आवेदितम् ।

शब्दार्थ - ततः= तयोः रामसुग्रीवयोः सख्यं करणानन्तरम्। दुःखितेन= सञ्जातदुःखेन। वानरराजेन = कपिपतिना। वैरानुकथनं प्रति = शत्रुतावर्णनमुद्दिश्य। प्रणयात् = स्नेहात्विश्वासाद्वा। सर्वम् = स्वीयाग्रजेन बालिना विहितं समस्तं दुर्व्यवहारम्। रामाय = श्रीरामचन्द्राय। आवेदितम् = निवेदितम् ।

भावार्थः- तयोः रामसुग्रीवयोः सख्यं करणानन्तरं सञ्जातदुःखेन कपिपतिना सुग्रीवेण शत्रुतावर्णनमुद्दिश्य स्नेहात् स्वीयाग्रजेन बालिना विहितं समस्तं दुर्व्यवहारं रामाय निवेदितम् ।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = राम से मित्रता करने के बाद । दुःखितेन = (सता) = खिन्न होकर । वानरराजेन = सुग्रीव ने । वैरानुकथनम् = शत्रुता की चर्चा । प्रति = के बारे में । प्रणयात् = स्नेह से । सर्वं = सब कुछ । रामाय = श्रीराम को। आवेदितम् = बता दिया ।

हिन्दी भावार्थ  - इसके पश्चात् (राम के साथ मैत्री करने के बाद) खिन्न होकर वानरराज सुग्रीव ने बालि से बैर होने की चर्चा आदि सारी बातों के बारे में प्रेम-वश श्रीराम को बता दिया ।

व्याकरण

(क) कारक  'वैरानुकथनं प्रतिमें 'अभितः - परितः - समया- निकषा-हा-प्रति-योगेऽपि के नियमानुसार द्वितीया हुई है  

(ख) सन्धि-

वैरानुकथनम् = वैर + अनुकथनम् ( दीर्घ सन्धि )। 

रामायावेदितम् = रामाय + आवेदितम् ( दीर्घ सन्धि )।

(ग) समास - 

वानरराजेन = वानराणां राजा वानरराजःतेन (पुल्लिँगतृ० एकवचन) षष्ठी तत्पुरूष । 

वैरानुकथनम् = वैरस्य अनुकथनंतत् (द्व० एकवचननपुंसकलिंग ) । षष्ठी तत्पुरूष । 

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

वानरराजेन= वानरराजन् + टच् (पुल्लिँग, तृ० एकवचन। 

आवेदितम् = आ + √विद् + णिच् + क्त । 

प्रणयाद् = प्र + √नी + अच् (भावे)पुल्लिँगपं० एकवचन। 

दुःखितेन = दुःखं सञ्जातम् अस्य इति दुःखितःतेन । दुःख + इतच्पुल्लिँग तृ० एकवचन। 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) कोष- 

वैर = 'वैरं विरोधो विद्वेषइत्यमरः (१।७।२५) । 

प्रणय = 'प्रणयास्त्वमी  विश्रम्भ-याच्ञा प्रेमाणःइत्यमरः (३।३।१५२) ।

टिप्पणी- मित्रता हो जाने पर मित्र से सारी बातें अविकल रूप में बता देना ही श्रेयस्कर होता है। इसीलिए सुग्रीव ने राम से बाली के साथ बढ़ी शत्रुता के बारे में प्रणय से ( प्रेम के कारण या बालि का वध करने की याचना के कारण या अतिविश्वास के कारण) बता दियाक्योंकि 'प्रणयके तीनों अर्थ होते हैं। विश्वासयाचना तथा प्रेम (द्रष्टव्यअमरकोप ३।३।१५२) ।

।प्रतिज्ञातं च रामेण तदा बालिवधं प्रति ॥६२॥

बालिनश्च बलं तत्र कथयामास वानरः ।

सुग्रीवः शङ्कितश्चासीन्नित्यं वीर्येण राघवे ॥६३॥

अन्वयः- तदा रामेण बालि-वधं प्रति प्रतिज्ञातम्वानरः च तत्र बालिनः बलं कथयामाससुग्रीवः च वीर्येण राघवे नित्यं शङ्कितः आसीत् ।

शब्दार्थ - तदा=तस्मिन् कालेसुग्रीवदुःखश्रवणानन्तरम्। रामेण =. श्रीरामचन्द्रेण च । बालिवधं प्रति= बालिनः विनाशम् अभिलक्ष्य। प्रतिज्ञातम्=प्रतिज्ञा विहिता। वानरः =कपिः सुग्रीवः  तत्र=तत्प्रतिज्ञातविषये।बालिनः=स्वीयाग्रजस्य बालिनः। बलं =वीर्यं । कथयामास=उवाच।) सुग्रीवः च= बालिनः अनुजः अपि ।वीर्येण=बलेन। राघवे = श्रीरामचन्द्रे । नित्यम् = सर्वदा। शङ्कितः च आसीत्= सन्दिग्धश्चासीत्विक्रमेण सञ्जातसंदेह इत्यर्थः। 

भावार्थ:- तस्मिन् काले सुग्रीवदुःखश्रवणानन्तरं रामेण बालिनः विनाशम् अभिलक्ष्य प्रतिज्ञा विहिता। किन्त्वत्र रामः बालिवधे सामर्थ्यवान् अस्ति न वेति सन्दिहानः कपिराजः सुग्रीवः तस्मिन् काले एव बालिनो बलम् अरुणोदयानन्तरं सूर्योदयात् प्रागेव रावणं कुक्षौ गृहीत्वा चतुःसमुद्रलङ्घनादिरूपं विशिष्टं बलं कथयामास।

हिन्दी शब्दार्थ - तदा = उस समयसुग्रीव के मुख से उसकी व्यथा की कथा सुन लेने पर । रामेण =. श्रीराम के द्वारा । बालि-वधं प्रति = बाली का वध करने के बारे में। प्रतिज्ञातम् = प्रतिज्ञा की । वानरः च और वानर सुग्रीव ने । तत्र = राम के समक्ष । बालिनः = बाली के । बलम् = पराक्रम के बारे में। कथयामास = कहा। सुग्रीवः च= और सुग्रीव ने । वीर्येण = बल के निमित्तबल के विषय में । राघवे =  राम पर । नित्यम् = हमेशासदैव । शङ्कितः = सन्देह-युक्तसन्दिग्ध । आसीत् = रहता था।

हिन्दी भावार्थ  - तब (सुग्रीव की व्यथा-कथा सुन लेने पर) श्रीराम ने बाली का वध करने के विषय में प्रतिज्ञा की और वानर-राज सुग्रीव ने राम के समक्ष बाली के (प्रचण्ड) बल का वर्णन किया क्योंकि सुग्रीव बल के विषय में राम पर सदैव शङ्का - ग्रस्त रहता था ।

व्याकरण

(क) कारक  'बालिवधं प्रतिमें 'अभितः परितः -समयाके नियमानुसार द्वितीया विभक्ति हुई है । 'राघवेमें वैषयिक आधार में सप्तमी है। 'वीर्येणमें तृतीया है । 

(ख) सन्धि-

बालिनश्च = बालिनः + च (विसर्गश्चुत्व०) । 

शङ्कितश्चासीन्नित्यम् = शङ्कितः + च = शङ्कितश्च + आसीत् = शङ्कितश्चासीत् + नित्यम् = शङ्कितश्चासीन्नित्यम् । (क्रमश: विसर्ग० श्चुत्व०दीर्घ०, व्यञ्जन०) ।

(ग) समास - 

बालिवधम् = बालिनः वधःतम् (षष्ठी तत्पुरूष) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

प्रतिज्ञातम् = प्रति + √ज्ञा + क्त । 'हेतोकथयामास = √कथ + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

शङ्कितः = शङ्का = सञ्जाताऽस्य इति शङ्कितःशङ्का + इतच् (पुल्लिँगप्रथमा,, एकवचन) । 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है।

(ख) रस -बाली से भयभीत सुग्रीव की मनोदशा के कारण 'भयानक रस'  है।

(ग) कोष- 

प्रतिज्ञात = 'ऊरीकृतमुररीकृतमङ्गीकृतमाश्रुतं प्रतिज्ञातम्इत्यमरः (३।१।१०८) । 

वीर्यबल = 'वीर्यं बले प्रभावे च ।इत्यमरः (३।३। १५५) । 

वधं = 'घातोन्माथ-वधाइत्यमरः (२/८/११५) 

टिप्पणी- सुग्रीव एवं राम में मैत्री हो जाने के बाद सर्व प्रथम राम के द्वारा ही मित्रोचित साहाय्य का सम्पादन किया गयाइससे राम के लोकोत्तर औदार्य एवं समयोचित कर्तव्य-पालन की पुष्टि होती है। राम पर सुग्रीव की शंकाब्रह्म पर जीव की शंका के समान अल्पज्ञता को सूचित करती है ।

राघवप्रत्ययार्थं तु दुन्दुभेः कायमुत्तमम् ।

दर्शयामास सुग्रीवो महापर्वतसन्निभम् ॥६४॥

अन्वयः- सुग्रीवः तु राघव-प्रत्ययार्थं महा-पर्वत-सन्निभं दुन्दुभे: उत्तमं कायं दर्शयामास ।

शब्दार्थ - सुग्रीवः = सुग्रीवः। तु = किन्तु । राघव-प्रत्ययार्थं =बालिनो महाबलशालित्वे रामस्य विश्वासोत्पादनार्थम्। महापर्वतसन्निभम् = बृहद्गिरिसदृशम् उत्तमम् =उन्नततमम् । दुन्दुभेः = बालिनिहतस्य तन्नाम्नो राक्षसस्य। कायम् = देहम्देहकङ्कालम् इत्यर्थः। दर्शयामास = अदर्शयत्।

भावार्थ:- वानरराजः सुग्रीवः बालिनो महाबलशालित्वे रामस्य विश्वासोत्पादनार्थं बृहद्गिरिसदृशं बालिनिहतस्य दुन्दुभेः राक्षसस्य उन्नततमं देहकङ्कालं दर्शयामास।

हिन्दी शब्दार्थ - तु = किन्तु । सुग्रीवः = सुग्रीव ने। राघव-प्रत्ययार्थम् = राम पर विश्वास करने के लिए। महा-पर्वत सन्निभम् = विशाल पर्वत के समान । दुन्दुभेः = दुन्दुभि नामक भयङ्कर दैत्य का । उत्तमम् = अत्यन्त उन्नत  कायम् = शरीर को । दर्शयामास = दिखलाया ।

हिन्दी भावार्थ  - सुग्रीव ने तो राम के बल पर विश्वास करने के लिए महान पर्वत के समान दीख पड़ने वाले दुन्दुभि नामक महान् दैत्य के अत्यन्त उन्नत शरीर को (राम को) दिखलाया ।

व्याकरण

सन्धि- राघव-प्रत्ययार्थम् = राघव-प्रत्यय + अर्थम् ( दीर्घ सन्धि )।

(ख) समास - 

राघवप्रत्ययार्थम् = राघवे प्रत्ययःतस्य अर्थः तम् (सप्तमी, षष्ठी तत्पुरूष ) । 

महापर्वतसन्निभम् = महान् चासौ पर्वतः तेन सन्निभः तम् ( कर्म० त०तृतीया तत्पुरूष) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

उत्तमम् = अतिशयेन उन्नतः उत्तमःतम्उत् + तमप् (पुल्लिँग द्वि० ए०व०) । 

दर्शयामास = √दृश् + णिच् + लिट् (प्रथमा,पु० ए०व० ) । 

(क) अलंकार- 

'महापर्वत-सन्निभं कायम्में उपमालंकार है। 

(ख) रस -भयानक रस है।

(ग) कोष- 

काय-कायो देहइत्यमरः (२।६।७१) । 

प्रत्यय- प्रत्ययोऽधीन शपथ-ज्ञान-विश्वास हेतुषुइत्यमरः (३।३।१४८) । 

टिप्पणी- महा भयङ्कर दैत्य दुन्दुभि वर प्राप्त कर प्रचण्ड बल के कारण समुद्र तथा हिमालय को भी भयभीत कर चुका थाजिसे वाली ने युद्ध-कौशल से पराजित कर मार डाला था तथा कई योजन दूर मतङ्गमुनि के आश्रम में (ऋष्यमूक पर्वत के पास ) फेंक दिया था। उसी दुन्दुभि राक्षस के अस्थि-पुञ्ज को फेंकने के अभिप्राय से सुग्रीव ने उसकी ओर राम को सूचित किया था कि यदि वाली की तरह राम इसे फेंक दें तो विश्वास हो जायेगा कि राम भी वाली के समान बलवान् हैं और कथञ्चित् बाली से युद्ध कर सकते हैं ।

उत्स्मयित्वा महाबाहुः प्रेक्ष्य चास्थि महाबलः ।

पादाङ्गुष्ठेन चिक्षेप सम्पूर्णं दशयोजनम् ॥६५॥

अन्वयः- महाबाहुः महाबलः (श्रीरामः) उत्स्मयित्वा अस्थि प्रेक्ष्य चपादाङ्गुष्ठेन तत् सम्पूर्णं दशयोजनं (यावत्) चिक्षेप ।

शब्दार्थ - महाबाहुः = विशालभुजः। महाबलः = अतिबलशाली रामः।  उत्स्मयित्वा = किञ्चित् विहस्य । अस्थि = दुन्दुभिनिशाचरस्य कङ्कालम् । प्रेक्ष्य = दृष्ट्वा ।  = अपि । पादाङ्गुष्ठेन=चरणागुष्ठेन। सम्पूर्णम् = समस्तम्। दशयोजनम् =चत्वारिंशत्क्रोशान् (यावत्) । चिक्षेप = निक्षिप्तवान्।

भावार्थ:-आजानुलम्बितभुजः अतिबलशाली रामश्च दुन्दुभिनिशाचरस्य कङ्कालं दृष्ट्वा आःएतदस्थिकङ्कालं कियन्मात्रमिति विहस्य स्वीयचरणाङ्गुष्ठेन समस्तास्थिकङ्कालं चत्वारिंशत्क्रोशान् व्याप्य निक्षिप्तवान्।

हिन्दी शब्दार्थ - महाबाहुः = विशाल भुजाओं वाले । महाबलः = महान् बलशाली (राम ने) । उत्स्मयित्वा = कुछ मुस्कराकर कर । अस्थि = दुन्दुभि के उस अस्थि समुदाय को । प्रेक्ष्य = देख कर ।  =और । पादाङ्गुष्ठेन = पैर के अँगूठे से । सम्पूर्णं = उस समस्त अस्थि-समुदाय को । दश-योजनम् =१० योजन दूरी पर । चिक्षेप = फेंक दिया।

हिन्दी भावार्थ  - विशाल भुजाओं वाले तथा महान् बलशाली श्री राम ने कुछ ने मुसकरा कर और (दुन्दुभि के) उस अस्थि-पुञ्ज को देखकरपैर के अंगूठे से उस समस्त अस्थिपुञ्ज को दस योजन दूर फेंक दिया।

व्याकरण

(क) कारक-'दशयोजनम्में 'कालाध्वनोः सूत्र के नियमानुसार द्वितीया का प्रयोग है।

अस्थि = द्वितीया एकवचन, नपुंसकलिङ्ग

(ख)सन्धि-

प्रेक्ष्य = प्र + ईक्ष्य ( गुण सन्धि )

चास्थि = च + अस्थि ( दीर्घ सन्धि )। 

पादाङ्गुष्ठेन  =पाद + अङ्गुष्ठेन, ( दीर्घ सन्धि )। 

(ग) समास - 

महाबाहुः = महान्तौ बाहू यस्य सः, (बहुव्रीहि समास)। 

महाबलः = महद् बलं यस्य सः (बहुव्रीहि समास)। 

पादाङ्गुष्ठेन= पादस्य अङ्गुष्ठःतेन (षष्ठी तत्पुरूष) । 

दशयोजनम् = दशानां योजनानां समाहार: दशयोजनंतत् (समाहार त०, . नपुंसकलिंगद्वि० एकवचन) । 

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

उत्स्मयित्वा = उत् + √स्मिङ ईषद्धास्ये + क्त्वा (यहाँ 'उत्उपसर्ग पूर्वक 'स्मिङ्में क्त्वा के स्थान पर आर्षत्वात् ल्यप् का प्रयोग नहीं हुआ है) । 

प्रेक्ष्य = = √ईक्ष् + क्त्वा > ल्यप्  

चिक्षेप = √क्षिप् + लिट्प्रथमा, पु० एकवचन। 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है।

(ख) रस - वीर रस का प्रस्फुरण है ।

(ग) कोष- 

अस्थि-कीकसं कुल्यमस्थि चइत्यमरः (२।६।६८ )  

पाद - 'पादः पदङघ्रिश्चरणोऽस्त्रियाम्इत्यमरः (२।६।७१) । 

टिप्पणी- सुग्रीव के शङ्काग्रस्त हृदय में विश्वास दीप प्रज्वलित करने के लिए राम का प्रथम प्रयास था- गगनचुम्बी अस्थि-पुञ्ज को दस योजन दूर फेंकना ।

।बिभेद च पुनस्तालान् सप्तैकेन महेषुणा ।

गिरिं रसातलं चैव जनयन्प्रत्ययं तदा ॥ ६६॥

अन्वयः- तदा पुन: च प्रत्ययं जनयन् (रामः) एकेन महेषुणा सप्त तालान् गिरिं रसातलं च एव बिभेद ।

शब्दार्थ - तदा = सुग्रीवसंशयध्वंसकाले। पुनः  = भूयः च। प्रत्ययम् = विश्वासम्। जनयन् =उत्पादयन् (रामः)। एकेन = एकसंख्याकेनअद्वितीयेन। महेषुणा = महता बाणेन। सप्त तालान् = सप्तसंख्याकान् तालवृक्षान्। गिरिम् = पर्वतम्। रसातलं चैव=पातालं चैव । बिभेद = विदीर्णवान्।

भावार्थः- सुग्रीवसंशयमपाकरणकाले भूयः च विश्वासमुत्पादयन् आजानुबाहुः बलवान् श्रीरामचन्द्रः अद्वितीयेन महता बाणेन सप्तसंख्याकान् तालवृक्षान् पर्वतं पातालं चैव विदीर्णवान्।

हिन्दी शब्दार्थ - तदा = तब । पुनः  = फिर भी । प्रत्ययम् = (सुग्रीव के हृदय में) विश्वास को । जनयन् = उत्पन्न करते हुए (श्रीराम ने) । एकेन = एक ही। महेषुणा = महान् बाण से । सप्त तालान् = ताड़ के सात पेड़ों को। गिरिम् = पर्वत को । रसातलं च एव = और रसातल को भी। विभेद = छिन्न-भिन्न कर दिया।

हिन्दी भावार्थ  - तब (अस्थि-पुज को अंगूठे से फेंकने के बाद) पुनः (सुग्रीव के हृदय में) विश्वास उत्पन्न करते हुए श्रीराम ने एक ही महान् बाण से ताड़ के सात वृक्षोंपर्वत तथा रसातल को भी छिन्न-भिन्न कर दिया।

व्याकरण

सन्धि-

सप्तैकेन = सप्त + एकेन (वृद्धि०) ।

महेषुणा = महा + इषुणा ( गुण सन्धि )। 

चैव = च + एव (वृद्धि०

(ख) समास - 

महेषुणा = महान् चासौ इषुःतेन, (कर्म० त०) । 

रसातलम् = रसायाः (पृथिव्याः) तलंतद् (षष्ठी तत्पुरूष) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

जनयन् - जन् + शतृ ।

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है।

(ख) रस -वीररस की ध्वनि हैसाथ ही अद्भुत रस का उच्छ्वास है।

(ग) कोष- 

इषु- कलम्ब- मार्गण-शराः पत्नी रोष इषुर्द्वयोःइत्यमरः (२१८८७) । 

प्रत्यय = 'प्रत्ययोऽधीन-शपथ-ज्ञान-विश्वास हेतुषु'  (३।३।१४८) । इत्यमरः।

टिप्पणी- सुग्रीव को अपने बल पर विश्वास दिलाने हेतु राम के ये शौर्य पूर्ण कृत्य अत्यन्त आश्चर्यजनक है। इससे सुग्रीव को विश्वास हो जाता है।

ततः प्रीतमनास्तेन विश्वस्तः स महाकपिः ।

किष्किधां रामसहितो जगाम च गुहां तदा ॥६७॥

अन्वयः- ततः तेन विश्वस्तः स महाकपिः प्रीतमनाः (जातः)तदा राम-सहितः (सः) किष्किन्धां गुहां च जगाम  ।

शब्दार्थ ततः = तदनन्तरम्रामपराक्रमदर्शनानन्तरम्।  तेन = रामेण। विश्वस्तः = जातप्रत्ययःविश्वासं प्राप्तः। सः महाकपिः = महावानरः सुग्रीवः । प्रीतमनाः (जातः) = हृष्टचित्तः जातः। तदा = तस्मिन् काले । राम-सहितः = रामेण सह । (सः सुग्रीवः ) किष्किन्धां गुहां च= किष्किन्धां नाम्नीं पर्वतकन्दराम् अपि। जगाम = ययौ ।

भावार्थ:- रामपराक्रमदर्शनानन्तरं महावानरः सुग्रीवः दुन्दुभिनाम्नः राक्षसस्य देहकङ्कालप्रक्षेपेण सप्ततालविच्छेदनकर्मणा च विश्वस्तः प्रसन्नचित्तः सन् रामेण सह तदानीं किष्किन्धानाम्नीं पर्वतकन्दरां जगाम।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = उसके बाद । तेन = उन राम के द्वारा । विश्वस्तः = विश्वास बनाये गये। सः = वह । महाकपिः = महा वानर । प्रीतमनाः = प्रसन्न मन वाले  हो गये।  तदा = तब ।  राम-सहितः = राम के साथ । किष्किन्धांकिष्किन्धा नामक गुहा में । जगाम = गये।

हिन्दी भावार्थ  - उसके बाद (सात ताल-वृक्षों को छिन्न-भिन्न कर डालने के बाद) उन श्रीराम के द्वारा विश्वस्त किये गये वे महा-वानर सुग्रीव प्रसन्नचित्त हो गये तब राम को साथ लेकर वे किष्किन्धा गुफा में गये।

व्याकरण

(क) कारक -  'गत्यर्थ-कर्मणि द्वितीया इस सूत्र से 'गुहां जगाममें गत्यर्थक 'जगामके योग में 'गुहांमें द्वितीया हुई है  

(ख)सन्धि- प्रीतमनास्तेन = प्रीतमनाः + तेन (विसर्ग सन्धि )।

(ग) समास - प्रीतमनाः = प्रीतं मनः यस्य सः (बहुव्रीहि समास)। 

महाकपिः = महान् चासौ कपिः इति, (कर्म ० त० )  

राम-सहितः = रामेण सहितः, (तृतीया तत्पुरूष)

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः- 

विश्वस्तः = वि + √श्वस् + क्त । 

किष्किन्धाम् = 'किं किं न दधातिइस अर्थ में निपातन से 'किष्किन्धाशब्द बनता है – 'किम् + किम् + √धा + अङ् + टाप्। (स्त्री०द्वि० एकवचन) । 

जगाम =  √गम् + लिट्

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है ।

(ख) कोष- 

मनः = 'स्वान्तं हृन् मानसं मनइत्यमरः (१।४।३१) । 

गुहा = 'देव-खात-बिले गुहा गह्वरम्इत्यमरः (२।३।६ ) 

टिप्पणी- राम की शक्ति पर विश्वास प्राप्त कर लेने के बाद ही बाली से युद्ध करने को सुग्रीव किष्किन्धा में जाता है ।

ततोऽगर्जद्धरिवरः सुग्रीवो हेमपिङ्गलः ।

तेन नादेन महता निर्जगाम हरीश्वरः ॥६८॥

अन्वयः- ततः हेम-पिङ्गलः हरिवरः सुग्रीवः अगर्जत् । तेन महता नादेन (कुपितः) हरीश्वर: निर्जगाम ।

शब्दार्थ - ततः = किष्किन्धागुहागमनानन्तरम्। हेम-पिङ्गलः = स्वर्णवत्पीतोज्ज्वलः कान्तिः। हरिवरः = कपिश्रेष्ठः ।सुग्रीवः = वानराधिपतेः बालेः अनुजः। अगर्जत् = अनादत् । तेन = सुग्रीवकृतेन। महता = पूर्वापेक्षयाधिकेन। नादेन = शब्देन । हरीश्वरः च = वानरराजबालिः अपि । निर्जगाम = गुहाया बहिर्निर्गतः। 

भावार्थः- किष्किन्धागुहागमनानन्तरं सुवर्णवत्पीतोज्ज्वलः कान्तिः कपिश्रेष्ठः सुग्रीवः सिंहनादम् अकरोत्। सुग्रीवकृतमाक्रमणसूचकं गर्जनमाकर्ण्य महाबली बालिः किष्किन्धागुहातो बहिः आययौ ।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = राम की शक्ति पर विश्वस्त हो जाने के बाद । हेम-पिङ्गलः - सुवर्ण के समान पीत-बभ्रु, (पीलापन से युक्त भूरे) वर्ण वाले । हरिवरः = कपि में श्रेष्ठ । सुग्रीवः = वानरों के राजा बालि का अनुज सुग्रीव । अगर्जत् = गर्जना करने लगे । तेन = उस । महता = विशालऊँची । नादेन = गर्जना सेगर्जना के कारण । हरीश्वरः = वानर राज बाली । निर्जगाम = गुफा से बाहर निकला ।

हिन्दी भावार्थ  - तब ( राम के अप्रतिम पराक्रम पर विश्वास हो जाने के पश्चात्) सुवर्ण की भाँति पीलापन से युक्त भूरे वर्ण वाले वानर-श्रेष्ठ सुग्रीव ने गर्जना कीउस समय उस विशाल गर्जन-ध्वनि के कारण (कुपित हो) वानर राज बाली  गुफा से बाहर निकला ।

व्याकरण

(क) कारक  'तेन महता नादेन'–में 'हेतौसे तृतीया ज्ञातव्य है । 'एकेन शरेणमें करण अर्थ में तृतीया है । 

(ख)सन्धि-

अगर्जद्धरिवरः = अगर्जत् + हरिवरः, (व्यञ्जन० ) । 

ततोऽगर्ज० = ततः + अगर्ज०, (विसर्गपूर्वरूप०) । 

हरीश्वरः = हरि + ईश्वरः, (दीर्घ०) । 

(ग) समास - 

हरिवरः = हरीणां हरिषु वा वरः । (ष० या स० त० ) । 

हेम-पिङ्गलः = हेम इव पिङ्गलः (ईषत्-प्रीत-बभ्रु वर्णः)उपमित त ० । 

हरीश्वरः = हरीणाम् ईश्वरःष० त० ।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अगर्जत् = √गर्ज + लङ् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

अनुमान्य तदा तारां सुग्रीवेण समागतः ।

निजघान च तत्रैव शरेणैकेन राघवः ॥६९॥

अन्वयः - तदा  ताराम् अनुमान्य  सुग्रीवेण समागतः च । तत्र राघव: च एकेन शरेण निजघान  ।

शब्दार्थ - तदा = तस्मिन् काले। ताराम् = तारानाम्नीं निजपत्नीम्। अनुमान्य = सन्तोष्य। सुग्रीवेण = स्वकनिष्ठभ्रात्रा सह। समागतः = योद्धुम् उपस्थितः। राघवः च = श्रीरामचश्च । तत्र = किष्किन्धायाम्। एकेन = अद्वितीयेन। शरेण = बाणेन। जघान =निहतवान्। 

भावार्थः- तस्मिन् काले तारानाम्नीं निजपत्नीं अनुमान्य स्वकनिष्ठभ्रात्रा सुग्रीवेण योद्धुम् उपस्थितोऽभूत् राघवश्च युद्धे बालिनं एकेनैव बाणेन व्यापादयामास।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = उसके बाद । ताराम् = तारा नामक अपनी पत्नी को । अनुमान्य = आश्वस्त करकेसमझा-बुझा कर ।  सुग्रीवेण = सुग्रीव के साथ । समागतः = आये हुए । तत्र = वहींउसी युद्ध-स्थल पर । राघवः = राम ने । एकेन शरेण = एक ही बाण से। निजघान = मार डाला ।

हिन्दी भावार्थ  - तब वानर राज बाली तारा (नामक अपनी पत्नी) को आश्वस्त करके (समझा-बुझा कर) सुग्रीव के साथ आये श्रीराम ने एक ही बाण से उस बाली को मार डाला ।

व्याकरण

(क)सन्धि-

तत्रैनम् = तत्र + एनम् (वृद्धि०) । 

शरेणैकेन = शरेण + एकेन (वृद्धि०) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अनुमान्य = अनु + √मन् + णिच् + क्त्वा > ल्यप् (अव्यय) । 

समागतः = सम् + आ + √गम् + क्त (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

निजधान = नि + √हन् + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

(क) अलंकार- सर्वत्र 'अनुप्रासहै । 'हेम-पिङ्गलःमें समासगा 'उपमाहै ।

(ख) रस - श्लोक संख्या ६८ तथा ६९ के प्राथमिक तीन पङ्क्तियों में रौद्र रस है तथा अन्तिम पङ्क्ति में वीर रस है।

(ग) कोष- हेम = स्वर्ण- सुवर्ण कनकं हिरेण्यं हेम हाटकम् ।इत्यमरः (२।६।६४) । 

हरि = 'यमानिलेन्द्र चन्द्रार्क-विष्णु-सिंहांशु-वाजिषु । शुकाहि-कपिभेकेषु हरिर्नाकपिले त्रिषु ।। "

टिप्पणी- श्लोक संख्या ६८ तथा ६९ का एक साथ अन्वय करने पर हरीश्वरः ताराम् अनुमान्य निर्जगाम इस प्रकार अन्वय होगा। बाली तारा (नामक अपनी पत्नी) को आश्वस्त करके (समझा-बुझा कर)  गुफा से निकला । यह अर्थ हो जाता है।

ततः सुग्रीववचनाद्धत्वा बालिनमाहवे ।

सुग्रीवमेव तद्राज्ये राघवःप्रत्यपादयत् ॥७०॥

अन्वयः- ततः राघवः सुग्रीव-वचनाद् आहवे बालिनं हत्वा तद्-राज्ये सुग्रीवमेव प्रत्यपादयत् ।

शब्दार्थ - ततः = तदनन्तरम्। राघवः = रामः । सुग्रीव-वचनात् = सुग्रीवकरुणापूर्ण वाक्यात्। आहवे =युद्धे। बालिनम् = सुग्रीवभ्रातरम्। हत्वा = मारयित्वा। तद्-राज्ये = बालिराज्ये । सुग्रीवम् एव = बालि-कनिष्ठभ्रातरम् एव। प्रत्यपादयत् = स्थापयामास । 

भावार्थ:- तदनन्तरं रामः सुग्रीवस्य कथनानुसारेण युद्धे तस्याग्रजं बालिनं एकेनैव बाणेन मारयित्वा बालिराज्ये सुग्रीवमेव स्थापयामास।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = उसके बाद अर्थात् बाली और सुग्रीव के भिड़ जाने पर । राघवः = राम ने । सुग्रीव-वचनात् = सुग्रीव के कथनानुसार । आहवे = युद्ध में । बालिनम् = बाली को । हत्वा = मारकर । तद्राज्ये =उस बाली के राज्य पर । सुग्रीवम् एव = सुग्रीव को ही । प्रत्यपादयत् = प्रतिष्ठापित कर दिया ।

हिन्दी भावार्थ  - उसके पश्चात् (अर्थात् सुग्रीव के साथ वाली के भिड़ जाने - पर) श्रीराम ने सुग्रीव के कहने से उस युद्ध में वाली को (एक वाण से) मार करउसके अधिकृत राज्य पर सुग्रीव को ही प्रतिष्ठापित कर दिया ।

व्याकरण

(क)सन्धि- वचनाद्धत्वा = वचनात् + हत्वा (व्यञ्जन०) । 

प्रत्यपादयत् = प्रति + अपादयत् (यण्० ) ।

(ख) समास - 

सुग्रीव-वचनात् = सुग्रीवस्य - वचनंतस्मात् ( षष्ठी तत्पुरूष ) । 

तद्-राज्ये =तस्य राज्यंतद्रराज्यंतस्मिन् ( स० त०) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः - 

ततः = तस्माद् इति ततःतत् + तसिल् (पञ्चमी अर्थ में) । 

हत्वा = √हन् + क्त्वा । आहवे = आहूयन्तेऽस्मिन् इति आहवःतस्मिन् । 

आहव = आङ् + √ह्वञ् + अप् । पुल्लिँगस० एकवचन, 'आङि युद्धेइस सूत्र से निपातित रूप । 

प्रत्यपादयत् = प्रति + √पद + णिच् + लङ् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

राज्ये = राज्ञः कर्म राज्यम्तस्मिन् (राजन् + ष्यञ्) ।

(क) रस - वीररस की व्यञ्जना है ।

(ख) कोष- आहवसङ्ग्रामाभ्यागमाहवाःइत्यमरः (२।८।१०५) ।

टिप्पणी- तात्पर्य यह है कि मित्रता की रस्सी को दृढ से दृढतम बनाने के लिए पारस्परिक स्वीकृत वचनोंप्रतिज्ञाओं तथा गूढ मन्त्रणाओं एवं शपथ वचनों पर अविचल विश्वास तथा यथा-समय ही उनका परिपालन अत्यन्त. अनिवार्य तत्त्व है । अतएव मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपने उद्देश्य (सीता प्राप्ति) को पीछे रख कर मित्र मुग्रीव को आश्वस्तविश्वस्त करने के लिए सर्व प्रथम उसी के इष्ट उद्देश्य (घोर शत्रु बाली का हनन तथा राज्य प्राप्ति) की सर्वात्मना पूर्ति करते हैं। परार्थ-सम्पादन के बाद ही स्वार्थ-सम्पादन में प्रवृत्त होना महापुरुषत्व का सर्वोपरि लक्षण है।

सन्दर्भ- स्वार्थ पूर्ति से प्रसन्न-चित्त हो सुग्रीव ने अपने मित्र राम को प्रसन्न करने के लिए सीता का पता लगाने हेतु वानरों को चारों दिशाओं में भेजा ।

स च सर्वान् समानीय वानरान् वानरर्षभः । 

दिशः प्रस्थापयामास दिदृक्षुर्जनकात्मजाम् ॥७१॥

अन्वयः- जनकात्मजां दिदृक्षुः वानरर्षभः सः सर्वान् वानरान् समानीय दिश: प्रति प्रस्थापयामास च ।

शब्दार्थ -  जनकात्मजाम् = जनकतनयां जानकीम्।  दिदृक्षुः =द्रष्टुमिच्छुःअन्वेषिषुः । वानरर्षभः =कपिश्रेष्ठः । सः  = सुग्रीवः अपि। सर्वान् = सम्पूर्णान्। वानरान् = कपीन्। समानीय = आकार्य।   दिशः = सर्वाः ककुभः प्रति। प्रस्थापयामास = प्रेषयामास

भावार्थ:-कपिश्रेष्ठः सुग्रीवः अपि सर्वान् कपीन् आकार्य जनकतनयां सीताम् अन्वेषणार्थं सर्वासु दिक्षु प्रेषयामास।

हिन्दी शब्दार्थ - जनकात्मजाम् = जनकतनया सीता को। दिदृक्षुः = देखने को इच्छुक । वानरर्षभः = वानर श्रेष्ठ । सः = सुग्रीव ने । सर्वान् वानरान् समस्त वानरों को । समानीय = लेकरबुलाकर। दिश: (प्रति) = दिशाओं की ओर । प्रस्थापयामास = प्रेषित कियाभेज दियाप्रस्थित किया ।

हिन्दी भावार्थ  - जनकनन्दिनी सीता को देखने के लिए इच्छुक (सीता का पता लगाने की इच्छा करने वाले ) वानर-शिरोमणि सुग्रीव ने समस्त (अधीनस्थ ) वानरों को बुलाकर चारों दिशाओं की ओर भेज दिया।

व्याकरण

(क)सन्धि- 

जनकात्मजाम् = जनक + आत्मजाम्, ( दीर्घ सन्धि )। 

वानरर्षभः = वानर + ऋषभः (अ [र्] गुण) ।

(ख) समास - 

जनकात्मजाम् =  जनकस्य आत्मजा जनकात्मजाताम् - जनकात्मजाम् (षष्ठी तत्पुरूषस्त्री० द्वि० एकवचन) । 

वानरर्षभः = वानरेषु ऋषभ इव (उपमित त०) ।

(ग) कारक-दिशः (प्रति) प्रस्थापयामासइस अंश के 'दिशःपद में अध्याहार्य 'प्रतिके योग में 'अभितः परित: समया निकषा-हा-प्रति-योगेऽपि इस नियम से द्वितीया हुई । ( दिशः = दिश् (स्त्री०) + द्वि०, बहुवचन) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः- 

समानीय = सम् + आङ् + √नी + क्त्वा > ल्यप् । 

प्रस्थापयामास = प्र + √स्था + णिच् = प्रस्थापि + लिट् प्रथमा, पु० एकवचन। 

दिदृक्षुः = द्रष्टुम् इच्छुदिदृक्षुः; √दृश् + सन् दिदृक्ष + उ  (कर्तरि) ।

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है; 'वानरर्षभ:में उपमालङ्कार है। यहाँ उपमेय 'वानरपहले तथा उपमान 'ऋषभउत्तर पद में प्रयुक्त है।

(ख) कोष- ऋषभः = 'स्युरुत्तरपदे व्याघ्र पुङ्गवर्षभ-कुञ्जराः श्रेष्ठार्थ-गोचराः ॥इत्यमरः (३/११५६) दिशः = 'दिक्षस्तु कंकुभः काष्ठाइत्यमरः (१।३।१ ) ।

टिप्पणी- प्रतिज्ञा-पालक राम की तरह सुग्रीव भी मित्रवर राम के अभी प्सित कार्य-विशेष को निष्पन्न करने के लिए सन्नद्ध हो गयायह बहुत बड़ी बात थी उस वानरजातीय सुग्रीव के लिए। (यद्यपि काम-मद और आलस्य में प्रमत्त हो वह सुग्रीव कृतघ्नता की सेज पर सोने लगता हैपर राम-प्रेरित लक्ष्मण के वचन-वाण-फूत्कारों से सुग्रीव की मूर्च्छातन्द्रा दूर हो जाती है और वह तुरन्त पूर्व स्वीकृत राम कार्य को सिद्ध करने में तत्पर हो जाता है ।) द्रष्टव्यवाल्मीकीय रा०किष्किन्धा का० सर्ग - ३१-४१ ।

                            सुन्दरकाण्ड

ततो गृध्रस्य वचनात्सम्पातेर्हनुमान्बली ।

शतयोजनविस्तीर्णं पुप्लुवे लवणार्णवम् ॥ ७२॥

अन्वयः- ततः बली हनुमान् गृध्रस्य सम्पातेः वचनात् शतयोजन विस्तीर्णं लवणार्णवं पुप्लुवे ।

शब्दार्थ - ततः = सीतायाः अन्वेषणार्थं सुग्रीवेण वानरान् प्रस्थापनानन्तरम्। बली = अतिबलशाली। हनुमान् = पवनसुतः । गृध्रस्य सम्पातेः =जटायुज्येष्ठभ्रातुः। वचनात् = वाक्यात्। शतयोजनविस्तीर्णम् = चतुःशतक्रोशविस्तीर्णम्। लवणार्वम् = लवणसागरम्। पुप्लुवे =उल्लङ्घितवान्।

भावार्थ:- सीतायाः अन्वेषणार्थ किष्किन्धाराज्यात् प्रस्थानानन्तरं महाबलशाली पवनपुत्रः हनुमान् जटायुज्येष्ठभ्रातुः सम्पातेः कथनात् चतुःशतक्रोशविस्तीर्णं लवणसमुद्रम् उल्लङ्घितवान्।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = उसके पश्चात् अर्थात् सुग्रीव के द्वारा चारों तरफ वानरों के भेज दिये जाने के बाद । बली = अत्यन्त शक्तिशाली । हनुमान् = अञ्जनानन्दन पवन कुमार हनुमान जी । गृध्रस्य सम्पाते: - जटायु के बड़े भाई गृध्रराज सम्पाति के। वचनात् = वचनों के अनुसार । शतयोजन-विस्तीर्णम् = चार सौ कोसों तक फैले हुए (१ योजन = ४ कोस) । लवणार्णवम् = खारे समुद्र को । पुप्लुवे = कूद कर लाँघ गये ।

हिन्दी भावार्थ  - (सुग्रीव के द्वारा चतुर्दिक् वानरों के भेज दिये जाने पर) उसके बाद महाबली हनुमान् जी गृध्रराज सम्पाति के वचनानुसार सौ योजनों अर्थात् चार सौ कोसों तक फैले हुए उस खारे समुद्र को कूद कर लाँघ गये ।

व्याकरण

(क)सन्धि- लवणार्णवम् = लवण + अर्णवम् (दीर्घ ०) ।

(ख) समास - शत-योजन-विस्तीर्णम् == शतं योजनानामिति शत-योजनानि तानि यावद् विस्तीर्ण:तम् (द्वि० त०) । लवणार्णवम् = लवणमयः अर्णवः = लवणार्णवःतम् (मध्यम पदलोपी त०पुल्लिँग द्वि० एकवचन) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः- 

हनुमान् प्रशस्ता विशाला वा हनुः अस्ति अस्य इति हनुमान्हनु + मतुप् (प्रशंसायां भूमनि वा) पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन। 

बली = प्रशस्तं पर्याप्तं वा बलम् अस्ति अस्य इति बली = बल + इनि (मतुबर्थे) = बलिन् + पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन। 

विस्तीर्णम् = वि + √स्तृ + क्तपुल्लिँग द्वि० एकवचन । 

अर्णवम् = अर्णासि जलानि (पर्याप्तानि) सन्ति अस्यअस्मिन् वा इति अर्णवः तम् = अर्णस्+व (मतुबर्थे, 'अर्णसो लोपश्चवार्तिक से पु० एकवचन। 'तथा स्-लोप) । 

पुप्लुवे = √प्लु + लिट् + प्रथम पुएकवचन

(क) अलंकार- अनुप्रास अलंकार है।

(ख) रस -वीर रस तथा अद्भुत रस है।

(ग) कोष- अर्णव = 'सरस्वान् सागरोऽर्णवइत्यमरः (१1१०19 ) ।

टिप्पणी- सम्पाति ने समुद्र तथा लङ्का का वर्णन कियासाथ ही लंकेश रावण : के द्वारा सुरक्षित की गई सीता के बारे में विस्तार से बताया। जाम्बवान् ने भी हनुमान जी की अवतरण-कथा तथा असीम पराक्रम का विस्तृत विवेचन किया। फलतः निसर्ग-सिद्ध तेजस्वीओजस्वी एवं मनस्त्री हनुमान जी के हृदय णित स्फूर्ति तरङ्गावली उत्तरङ्गित हो उठी और वे जय श्रीरामकी गर्जना के साथ अपने सामर्थ्य-गुणों का उद्घोष करकेवानरों को आश्वस्तविश्वस्त करते हुए विशाल सागर को वैसे ही लाँघ गयेजैसे वह सागर मानों गौ का खुर-गत हो –'गोष्पदीकृत-वारीशं वन्दे – ऽनिलात्मजम्

तत्र लङ्कां समासाद्य पुरीं रावणपालिताम् ।

ददर्श सीतां ध्यायन्तीमशोकवनिकां गताम् ॥७३॥

अन्वयः- तत्र (हनुमान्) रावण-पालितां लङ्कां पुरीं  समासाद्य, (तत्र) अशोक वनिकां गतां ध्यायन्तीं सीतां ददर्श ।

शब्दार्थ - तत्र = तस्मिन्। रावण-पालिताम् = दशाननरक्षिताम्। लङ्काम् = लङ्काम्। पुरीम् = नगरीम्। समासाद्य = प्राप्य। अशोकवनिकाम् = अशोक-वृक्षवाटिकाम्। गताम् = अवस्थिताम्। ध्यायन्तीम् = श्रीरामचन्द्र-चरणकमलमनुचिन्तयन्तीम्। सीताम् = जानकीम्। ददर्श = अवलोकयामास ।

भावार्थः- लवणसमुद्रस्य परपारे दशाननरक्षितां लङ्कां नगरीं समासाद्य अशोकवृक्षवाटिकाम् अवस्थितां श्रीरामचन्द्रचरणकमलमनुचिन्तयन्तीं सीतां हनुमान् अवलोकयामास ।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = उसके पश्चात् अर्थात् समुद्र को लांघने के बाद । रावण-पालिताम् = रावण के द्वारा सुरक्षित की गई। लङ्कापुरीम् = लङ्का नगरी को । समासाद्य = प्राप्त कर पहुँचकर । अशोकवनिकां गताम् = अशोक स्थित । ध्यायन्तीम् = अपने प्रियतम राम का ध्यानचिन्तन करती हुई । ददर्श = देखा ।

हिन्दी भावार्थ  - उसके पश्चात् अर्थात् समुद्र को लाँधने के बाद (हनुमान् जी ने) रावण के द्वारा रक्षित लङ्का नामक नगरी को प्राप्त करके अर्थात् वहाँ पहुँचकर (वहाँ) अशोक वाटिका में स्थित तथा चिन्तन-रत सीता को देखा।

व्याकरण

(क) समास - 

रावण-पालिताम् = रावणेन पालिताताम् (तृतीया तत्पुरूष) । 

अशोकवनिकाम् = अशोकानां वनी अशोकवनीसा एव अशोकवनिकाताम् = अशोकवनिकाम् 

अशोकवनी + क + टाप् (स्त्री० द्वि० एकवचन) । षष्ठी तत्पुरूष ।

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

समासाद्य = सम् + आङ् + √सद् + णिच् + क्त्वा > ल्यप् । 

ददर्श = √दृश + लिट् + प्रथमा, पु० एकवचन। 

ध्यायन्तीम् = √ध्यै + शतृ + ङीप् (स्त्री०द्वि० एकवचन) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है । 

(ख) रस -विप्रलम्भ शृङ्गार

(ग) कोष- 

पुरी = पूः स्त्री पुरी-नगयौंइत्यमरः (२।२।१ ) । 

अशोक = 'वञ्जुलोऽशोक' (२।४।६४) । इत्यमरः 

टिप्पणी- हनुमान जी ने गहन अन्वेषण-श्रम करने के पश्चात् चिन्ता-सागर में डूबी तथा अपने उद्धार का कोई भी उपाय देखती-सी सीता का अवलोकन कर स्वयं दुःखार्त हो गये ।

किसी-किसी पाठ में तत्र लङ्कां के स्थान पर ततो लङ्कां पाठ मिलता है।

निवेदयित्वाऽभिज्ञानं प्रवृत्तिं विनिवेद्य च ।

समाश्वास्य च वैदेहीं मर्दयामास तोरणम् ॥७४॥

अन्वयः- (ततः हनुमान्) अभिज्ञानं निवेदयित्वा प्रवृत्तिं च विनिवेद्यवैदेहीं समाश्वास्य तोरणं च मर्दयामास।

शब्दार्थ - -(हनुमान्) अभिज्ञानम्=रामेण प्रेरितोऽहमिति ज्ञापनार्थं रामस्य अङ्गुरीयकम्। निवेदयित्वा = कथयित्वासमर्प्य इत्यर्थः। प्रवृत्तिं च=रामस्य सुग्रीवसख्यादिकं सर्व कुशलवृत्तान्तं च। विनिवेद्य=उक्त्वा। वैदेहीं =जानकीं च। समाश्वास्य=सान्त्वयित्वा। तोरणम्= अशोकवाटिकाबहिर्द्वारम्।  = अपि।  मर्दयामास= चूर्णयामास ।

भावार्थ:- हनुमान् रामस्य परिचायकम् अङ्गुरीयकं सीतायै दत्वा सुग्रीव सख्यादिकं वृत्तं कथयित्वा च भवत्याः पतिः रामः ससैन्यमत्र शीघ्रमेवागमिष्यति येन भवत्याः समागमः तेन सह झटिति एव भविष्यतीति सीतां सान्त्वयित्वा अशोकबाटिकाबहिर्द्वारं च मर्दयामास।

हिन्दी शब्दार्थ -(हनुमान्) अभिज्ञानम् = पहुँचान या पहुँचान का साधन 'अंगूठी' (राम के द्वारा दी गई) । निवेदयित्वा = अर्पित करकेनिवेदित करके । प्रवृत्तिम् च = (राम और लक्ष्मण के) और समाचार को । विनिवेद्य = ठीक से बता कर ।  वैदेहीम् = सीता जी को । समाश्वास्य = सम्यक् आश्वासन देकर । तोरणम् = अशोक वाटिका के बाहरी द्वार को ।  = और। मर्दयामास = तोड़ डाला ।

हिन्दी भावार्थ  - (सीता जी को देखने के बाद दुःखाकुल होकर हनुमान जी ने) पहुँचान के साधन-स्वरूप (राम-प्रदत अंगूठी) को सीता को देकर तथा राम के समाचार को ठीक से बता कर और जनकनन्दिनी सीता को आश्वस्त करके अशोक वाटिका के बाहरी द्वार का मर्दन कर डाला (चूर-चूर कर दिया) ।

व्याकरण

(क) सन्धि- निवेदयित्वाभिज्ञानम् - निवेदयित्वा +  अभिज्ञानम् (दीर्घ सन्धि)

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

निवेदयित्वा = निः + √विद् (ज्ञाने) + णिच् + क्त्वा ('समासेऽनञ्- पूर्वे क्त्वो ल्यप् से यहाँ ल्यप् होना आवश्यक था और रूप बनना चाहिए था- 'निवेद्य', जैसे कि द्वितीय चरण में विनिवेद्य है। परआर्षत्वात् सह्य है) । 

अभिज्ञानम् = अभिज्ञायते परिचीयतेऽनेन इति अभिज्ञानंतत् । अभि + √ज्ञा + ल्युट् (करणे)नपुंसकलिंग द्वि० एकवचन 

प्रवृत्तिम् = प्र + √वृत् + क्तिन् (स्त्री०द्वि० ए० एकवचन) । 

विनिवेद्य = वि + नि + √विद् + णिच् + क्त्वा > ल्यप् । 

समाश्वास्य = सम् + आ + √श्वस् + णिच् + क्त्वा > ल्यप् । 

वैदेहीम् = विदेह + अण् + ङीप् (स्त्री० द्वि० एकवचन) । 

मर्दयामास = √मृद् (भौवादिक) + लिट् + प्रथमा, पु० एकवचन।  

(क) रस - वीररस

(ख) कोष- 

तोरण = 'तोरणोऽस्त्री बहिर्द्वारम्इत्यमरः (२।२।१६) । 

प्रवृत्ति = 'वार्ता प्रवृत्तिवृत्तान्त उदन्तः स्यात्इत्यमरः (१।६।७) । 

टिप्पणी- सीता को विश्वास दिलाने के लिए हनुमान् ने अभिज्ञान (पहुँचान = अंगूठी) दियाजिससे कि अंगूठी को पहचान कर सीता विश्वस्त हो सकें कि अंगूठी देने वाले हनुमान् राम के द्वारा ही प्रेषित किये गये सन्देश-वाहक हैंन कि माया-पटु रावण के द्वारा प्रेषित कोई गुप्तचर ।

पञ्च सेनाग्रगान् हत्वा सप्त मन्त्रिसुतानपि ।

शूरमक्षं च निष्पिष्य ग्रहणं समुपागमत् ॥७५॥

अन्वयः- -(हनुमान्) पञ्च सेनाग्रगान्सप्त मन्त्रि-सुतान् अपि (च) हत्वाशूरम् अक्षं निष्पिष्य ग्रहणं च समुपागमत् ।

शब्दार्थ - -(अशोकवाटिकाबहिर्द्वारस्य मर्दनानन्तरम्) पञ्च =पञ्चसंख्याकान्। सेनाग्रगान् =पिङ्गनेत्रादीन् सेनापतीन्। सप्त=सप्तसंख्याकान्। मन्त्रिसुतान् अपि = जाम्बमाल्यादीन् अमात्यपुत्रान् अपि। हत्वा = मारयित्वा। शूरम् = वीरम्। अक्षं च=तन्नामकं रावणपुत्रञ्च। निष्पिष्य=चूर्णयित्वा । ग्रहणम् = (हनुमान्) बन्धनम्।  = अपि।  समुपागमत् = प्राप्तवान्। ब्रह्मणः प्रतिष्ठारक्षणाय मेघनादप्रयुक्तब्रह्मास्त्रबन्धनं प्राप्तवान् इत्यर्थः।

भावार्थ:- अशोकवाटिकाबहिर्द्वारस्य मर्दनानन्तरं हनुमान् रावणस्य पञ्च सेनापतीन् पिङ्गलनेत्रादीन् सप्त अमात्यपुत्रान् जाम्बमाल्यादीन् च व्यापाद्य विक्रम शालिनम् अक्षनामकं रावणपुत्रञ्च चूर्णयित्वा ब्रह्मणः प्रतिष्ठारक्षणाय मेघनादेन प्रयुक्तब्रह्मास्त्रबन्धनं प्राप्तवान्।

हिन्दी शब्दार्थ - पञ्च = पाँच । सेनाग्रगान् सेना के अग्रगामी सेनापतियों को । सप्त = सात । मन्त्रिसुतान् = मन्त्रियों के पुत्रों को । हत्वा =मार कर। शूरं = वीर। अक्षम् = रावण-पुत्र अक्षकुमार को । निष्पिष्य = पीस कर अर्थात् पूर्णतया चूर-चूर करके। ग्रहणम् = मेघनाद के ब्रह्मपाश के बन्धन में । समुपागमत् = स्वतः आ गये ।

हिन्दी भावार्थ  - (हनुमान् जी ने अशोकवाटिका में तैनात) पाँच सेनापतियों तथा सात मन्त्रि-पुत्रों को मार कर और अक्षकुमार को चकना-चूर करके (मेघनाद के ब्रह्म-पाश के) बन्धन में स्वतः आ गये ।

व्याकरण

(क) कारक- 'ग्रहणं समुपागमत्में 'गत्यर्थ - कर्मणि द्वितीया  सूत्र से द्वितीया हुई ।

(ख) सन्धि-

सेनाग्रगान् = सेना + अग्रगान् ( दीर्घ सन्धि )। 

समुपागमत् =  सम् + उप + अगमत् ( दीर्घ सन्धि )।

(ग) समास - 

सेनाग्रगान् = सेनानाम् अग्रंतस्मिन् गच्छन्ति इति सेनाग्रगाःतान् (षष्ठी तत्पुरूषउपपद०) । 

मन्त्रि-सुतान् = मन्त्रिणां सुताः तान् ( षष्ठी तत्पुरूष ) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रासालङ्कार है। 

(ख) रस - वीर रस की अभिव्यक्ति है ।

(ग) कोष- 

अग्र = 'पुरोऽधिकमुपर्यग्राणिइत्यमरः (३३१८४) । 

सेना = 'ध्वजिनी वाहिनी सेनाइत्यमरः (२।८।७८) । 

टिप्पणी- हनुमान् जी ने सेनापतियोंमन्त्रि-पुत्रों तथा विशेष करके अक्षकुमार नामक रावण-पुत्र को इसलिए मारा ताकि उन्हें रावण के पास किसी तरह उपस्थित होने का अवसर मिले। वे पितामह ब्रह्मा के द्वारा अजेयअवध्य तथा अग्राह्य होने का वर प्राप्त करने पर भी सर्व-वन्द्य पितामह ब्रह्मा जी का सम्मान-वर्धन करने के लिए तथा रावण के पास जाने की तीव्र उत्कष्ठा की पूर्ति के लिए स्वतः मेघनाद के ब्रह्म-पाश में बंध गये ।

अस्त्रेणोन्मुक्तमात्मानं ज्ञात्वा पैतामहाद्वरात् ।

मर्षयन्राक्षसान्वीरो यन्त्रिणस्तान्यदृच्छया[5] ॥७६॥

अन्वयः- (सः) वीर: ( हनुमान्) पैतामहाद् वराद् आत्मानम् अस्त्रेण उन्मुक्तं ज्ञात्वा (अपि) तान् यन्त्रिण: राक्षसान् मर्षयन् यदृच्छया (ग्रहणं समुपागमत् ) ।

शब्दार्थ - वीरः = महावीरः सः हनुमान् । पैतामहाद् = ब्रह्मादत्तात्। वराद् = वरदानात् आशीर्वादात्तदस्त्रादपि निर्मुक्तिर्भविष्यतीति लक्षणाद्वरादित्यर्थः। आत्मानम् = स्वम्। अस्त्रेण = आयुधेन। उन्मुक्तम्=अवध्यम्। ज्ञात्वा=विदित्वा। तान् यन्त्रिणः=बन्धनकारिणःपाशहस्तान् वा।  राक्षसान्=निशाचरान्। मर्षयन्= तदपराधान् क्षममाणः। यदृच्छया=स्वेच्छया (ग्रहणं समुपागमत् ) = (ब्रह्मणः प्रतिष्ठारक्षणार्थं मेघनाद-प्रयुक्तब्रह्मास्त्रबन्धने आबद्धोऽभूत् ।

भावार्थ:- ब्रह्मणः वरप्रभावेणात्मानमवध्यं ज्ञात्वाऽपि रावणसभाप्रवेशबुद्ध्या अञ्जनीनन्दनः वीरः हनुमान् बन्धनकारिणः सर्वान् राक्षसान् तदपराधान् क्षममाणः ब्रह्मणः प्रतिष्ठासंरक्षणाय मेघनादप्रयुक्तब्रह्मास्त्रबन्धने आबद्धः एवाभूत्।

हिन्दी शब्दार्थ - वीरः = महावीर हनुमान् जी। पैतामहाद् = पितामह ब्रह्मा जी के । वरात् = वर से वरदान के कारण । आत्मानम् = अपने को। अस्त्रेण = ब्रह्मास्त्र या ब्रह्म-पाश से। उन्मुक्तम् = छूटा हुआ। ज्ञात्वा (अपि) =जान कर भी। तान् = उन । यन्त्रिणः == बाँधने वाले । राक्षसान् = राक्षसों को । मर्षयन् = सहते हुए । ('ग्रहणं समुपागमत्इतना अंश पूर्व-पद्य ७५ वे के अन्तिम चरण से ले लेने पर अर्थ सुस्पष्ट हो जाता है) ।

हिन्दी भावार्थ  - वे वीर हनुमान जी पितामह ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अपने को ब्रह्मास्त्र से मुक्त जान कर भी (अपने शरीर को) बाँधने वाले उन राक्षसों को सहते हुए स्वेच्छा से (पकड़ में या बन्धन में आ गये) ।

व्याकरण

(क)सन्धि- 

अस्त्रेणोन्मुक्तम् = अस्त्रेण + उन्मुक्तम् ( गुण सन्धि )। 

यन्त्रिणस्तान् यन्त्रिण: + तान् (विसर्ग सन्धि )।

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

मर्षयन् = √ मृष तितिक्षायाम् (चौरादिक) + शतृ, (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

यन्त्रिणः = यन्त्रयन्ति, (सङ्कोचयन्तिबध्नन्ति ) शरीरम् इति यन्त्रिणःतान्यति सङ्कोचे (चौरादिक ० ) + णिनि ('नन्दि-ग्रहि- सेकर्ता अर्थ में) = यन्त्रिन् + द्वि०व० वपुल्लिँग । 

(क) अलंकार- अनुप्रास तथा विरोधाभास है, (उन्मुक्त होने पर भी बँधने के कारण) ।

(ख) रस - शान्त रस है. (क्षमा'-दान के कारण) ।

(ग) कोष- अस्त्र = 'आयुधं तु प्रहरणं शस्त्रमस्त्रम्इत्यमरः (२१८८२) । 

पितामह = 'ब्रह्माऽऽत्मभूः सुरज्येष्ठ: परमेष्ठी पितामहइत्यमरः (१11१६) । 

वर = 'देवाद् वृते वरःइत्यमरः (३।३।१७३) । 

यदृच्छा ='यदृच्छा स्वैरिताइत्यमरः (३।२१२) ।

टिप्पणी- चूंकि समुचित तथा सुविधानुकूल समय पाकर ही हनुमान जी लङ्का दहन करना चाहते थेअतएव विविध बहानों से रावण के समक्ष प्रस्तुत हो स्वतः स्वेच्छया बन्धन- ग्रस्त हो गये ।

ततो दग्ध्वा पुरीं लङ्कामृते सीतां च मैथिलीम् ।

रामाय प्रियमाख्यातुं पुनरायान्महाकपिः ॥७७॥

अन्वयः- ततः महाकपिः मैथिलीं सीताम् ऋते लङ्कां पुरीं दग्ध्वारामाय च प्रियम् आख्यातुं पुनः आयात् ।

शब्दार्थ - ततः=पूर्ववृत्तानन्तरम्। महाकपिः=वानरश्रेष्ठो हनुमान्। मैथिलीम्=मिथिलादेशोद्भवाम्। सीतां =जानकीं च (सीतानिवासस्थानमशोकवाटिकां विभीषणगृहं च)। ऋते=विना। लङ्कां पुरीम्=लङ्कानगरीम्। दग्ध्वा= भस्मीकृत्य। रामाय=सीतावाप्तिमुत्सुकाय दाशरथये।  = अपि । प्रियम्=सीतादर्शनरूपमिष्टम्। आख्यातुम्=कथयितुम्। पुनः=भूयः। आयात्=रामसमीपम् प्रत्यागच्छत।

भावार्थ:- मेघनादप्रयुक्तब्रह्मास्त्रबन्धनेनाबद्धो भूत्वा कपिश्रेष्ठः हनुमान् रावणेन सह विहितसंवादानन्तरं लङ्काधिपतिरावणस्यादेशेन लाङ्गूलयोजितेनाग्निना मिथिलादेशोद्भवां सीतां सीतानिवास स्थानमशोकवाटिकां च विभीषणगृहं च विना लङ्कानगरीं दग्ध्वा सीतावाप्तिमुत्सुकाय दाशरथये इष्टं संवादम् आख्यातुं पुनः रामसमीपमाययौ।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = उसके बाद अर्थात् (स्वेच्छा पूर्वक राक्षसों के बन्धन में पड़कर । महाकपिः = महान् वानरवानर-मूर्धन्य हनुमान् । मैथिलीम् जनक नन्दिनी (सीता) के। ऋते = विना के अतिरिक्त । लङ्कां पुरीम् = नगरी को । दग्ध्वा = जलाकर । रामाय = राम के लिएराम को । प्रियम् = प्रिय बातअनुकूल समाचार । आख्यातुम् = बताने के लिए । पुनः = फिर । आयात् = आ गये ।

हिन्दी भावार्थ  - उसके पश्चात् अर्थात् बन्धन में आ जाने के बाद वानर मूर्धन्य हनुमान जी जनकनन्दिनी सीता के अतिरिक्त (सम्पूर्ण) लङ्का नगरी को जलाकर राम के लिए अनुकूल समाचार बताने हेतु ( राम के पास) पुनः आ गये ।

व्याकरण

(क) कारक- 'मैथिली सीताम्इन दोनों क्रमशः विशेषण = विशेष्य पदों में पाणिनि-सूत्र 'अन्यारादितरर्ते-दिवशब्दाञ्चूत्तरपदाजाहि-युक्तसे 'ऋतेके योग में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होना चाहिए थापर रामायण के प्राचीनतम ग्रन्थ होने के कारण यहाँ 'ऋते द्वितीया चइस चान्द्र-व्याकरण-गत सूत्र से द्वितीया ज्ञातव्य है ।

(ख) सन्धि-

दग्ध्वा = √दह् + क्त्वा (अव्यय) । 

आयात् = आ (ङ्) + अयात् (दीर्घ ०) । 

आयान्महाकपिः आयात् + महाकपिः (व्यञ्जन) । 

(ग) समास - 

महाकपिः = महान् चासौ कपिः (कर्म० त० ) ।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

दग्ध्वा = √दह् + क्त्वा । 

मैथिलीम् = मिथिला + अण् = मैथिल + अण् + ङीप् (स्त्री०द्वि० एकवचन) । 

आख्यातुम् = आङ् + √ख्या + तुमुन् (अव्यय) । 

आयात् = आङ् + √या + लङ् ( प्रथमा, पु० एकवचन) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) रस -उत्माहाधिक्य के कारण वीररस है ।

(ग) कोष- 

ऋते = 'पृथग्विनान्तरेणर्ते हिरुनाना च वर्जनेइत्यमरः ( ३ । ४ । ३ ) । 

प्रिय = 'अभीष्टेऽभी प्सितं हृद्यं दयितं वल्लभं प्रियम्इत्यमरः (३।१।५३) ।

टिप्पणी- हनुमान जी के समान निश्छलकृतज्ञअकारण-करुणअद्वैतुक कृपालुभक्ति-निष्ठ तथा भक्तवत्सल दूसरा कौन देव या मानव हो सकता है ? अपने राजा सुग्रीव के रक्षकपरिवाण-कर्ता होने पर भी वे उनके आदेश तथा अपने आराध्य भगवान् राम के सविनय सन्देश का अविचल पालन कर सकुशल लौट आये- राम को सीता का कुशल समाचार बताने तथा लङ्का दहनादि प्रिय घटनाओं को कहने !!

सोऽभिगम्य महात्मानं कृत्वा रामं प्रदक्षिणम् ।

न्यवेदयदमेयात्मा दृष्टा सीतेति तत्त्वतः ॥७८॥

अन्वयः-  अमेयात्मा सः महात्मानं रामम् अभिगम्य प्रदक्षिणं कृत्वा च 'तत्त्वतः सीता दृष्टा (मया)इति न्यवेदयत् ।

शब्दार्थ - अमेयात्मा =अपरिमितबलबुद्धिसम्पन्नः। सः = हनुमान्। महात्मानम् = धैर्यशालिनं महामतिम्। रामम् = श्रीरामचन्द्रम्। अभिगम्य=उपसृत्य प्रदक्षिणम् = परिक्रमम्। कृत्वा=विधाय। तत्त्वतः= वस्तुतः । (मया)  सीता=जानकी। दृष्टा=अवलोकिता। इति=एतत् वचनम्। न्यवेदयत्=कथयामास।

भावार्थ:-अपरिमितबलबुद्धिसम्पन्नः अञ्जनीनन्दनः हनुमान् धैर्यशालिनं महामतिं राममुपसृत्य प्रदक्षिणां कृत्वा वस्तुतः सीता भवत्प्राणप्रिया भवन्तमेवानुध्यायन्ती मया अवलोकिता सम्भाषिता चैतद्वचनं रामाय कथयामास।

हिन्दी शब्दार्थ - अमेयात्मा = असीम बुद्धिधैर्य या शरीर वाले। सः = वे हनुमान् । महात्मानम् = महनीय स्वभाव या बुद्धि वाले ('रामका विशेषण है) । अभिगम्य = पास पहुँचकर । प्रदक्षिणं कृत्वा च और प्रदक्षिणा करके । तत्त्वतः = वस्तुतःवास्तव मेंयथार्थता पूर्वक । (मया) सीता दृष्टा = मेरे द्वारा सीता जी देख ली गई हैं । इति = इस प्रकार । न्यवेदयत् = बतायानिवेदित किया ।

हिन्दी भावार्थ  - असीम बुद्धि (या धैर्य या शरीर) वाले उन हनुमान जी ने महान् स्वभाव या बुद्धि बाले महापुरुष राम के पास पहुँचकर और उनकी प्रदक्षिणा करके अर्थात् उन्हें दाहिनी ओर करके 'मैंने वास्तव में सीता जी को देख लिया हैऐसा निवेदन-पूर्वक बताया।

व्याकरण

(क) सन्धि-

सोऽभिगम्य = सः + अभिगम्य (विसर्ग०पूर्वरूप० ) । 

महात्मानम् = महा + आत्मानन् ( दीर्घ ० ) । 

न्यवेदयत् = नि + अवेदयत् (यण् सन्धि ) । 

अमेयात्मा अमेय + आत्मा ( दीर्घ सन्धि )। 

(ख) समास - 

महात्मानम् = महान् आत्मा यस्य सः तम् (बहुव्रीहि समास)। 

प्रदक्षिणम् = प्रकृष्टा दक्षिणा यस्यतम् (बहुव्रीहि समास) । 

अमेयात्मा = अमेयः (अतुलनीयः) आत्मा यस्य सः (बहुव्रीहि समास) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अभिगम्य = अभि + √गम् + क्त्वा > ल्यप् । 

न्यवेदयत् = नि + √विद् (ज्ञाने) + णिच् = √निवेदि + लङ् + प्रथमा,। 

अमेय = मातुं योग्यः मेयःन मेयः अमेयः । √मा + यत् (अर्थे) - मेय । न + मेयं अमेयं (नञ् त ० ) । 

तत्त्वतः = तस्य (यथादृष्टं यथाश्रुतं वा) भावः = तत्त्वम् = तत् + त्वतत्त्वात् इति तत्त्वतः = तत्त्व + तसिल् (अव्यय पद) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) ध्वनि - राम के प्रति श्रद्धातिरेक के कारण 'भावध्वनि है।

(ग) कोष- आत्मा  =आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्म चइत्यमरः (3।3।908)

टिप्पणी- 

अतुलनीय बुद्धिसम्पन्न होने पर भी विनम्रता तथा राम-भक्ति के कारण ही प्रदक्षिणा करना एवं संविनय निवेदन करनाहनुमान् जी की विनय-प्रवणता का परिचायक है !

ततः सुग्रीवसहितो गत्वा तीरं महोदधेः ।

समुद्रं क्षोभयामास शरैरादित्यसन्निभैः ॥७९॥

अन्वयः- ततः सुग्रीव सहित: (राम:) महोदधेः तीरं गत्वा आदित्य-सन्निभैः शरैः समुद्रं क्षोभयामास ।

शब्दार्थ - ततः = सीतावृत्तान्तश्रवणानन्तरम्। सुग्रीवसहितः = सुग्रीवेण सार्धम् (रामः)। महोदधेः = महासागरस्य। तीरम् = तटम्। गत्वा=यात्वाउपगम्य। आदित्य-सन्निभैः=सूर्यसदृशैः। शरैः=बाणैः। समुद्रम्=सागरम्। क्षोभयामास= व्याकुली- चकार ।

भावार्थ:- महात्मा श्रीरामचन्द्रः हनुमता सीतावृत्तान्तश्रवणानन्तरं सुग्रीवेण सह महासागरस्य तीरं यात्वा सूर्यसदृशैः बाणैः तमाकुलीचकार। कथनस्य तात्पर्यमिदं वर्तते यत् यदा सः लङ्कागमनमार्गं न लब्धवान् तदा सः कुपितो भूत्वा सागरं तीक्ष्णैः बाणैः व्याकुलीचकार ।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = हनुमान् जी से सीता का समाचार जानने के बाद । सुग्रीव-सहितः = सुग्रीव के सहित (श्रीराम ने) । महोदधेः = महासागर के । तीरम् = तट पर । गत्वा = जाकर। आदित्य-सन्निभैः = सूर्य के समान देदीप्यमान । शरैः = वाणों से । समुद्रम् = सागर को । क्षोभयामास = कम्पित कर दियाआकूलित कर दिया।

हिन्दी भावार्थ  - तब ( हनुमान जी के द्वारा सीता का कुशल- समाचार सुन कर) सुग्रीव के सहित श्रीराम ने महासागर के तट पर जाकर सूर्य के समान देदीप्यमान वाणों से समुद्र को आकम्पित कर दिया।

व्याकरण

(क) सन्धि-

महोदधेः = महा + उदधेः ( गुण सन्धि )। 

शरैरादित्य ० = शरैस् + आदित्य (विसर्ग०) ।

(ख) समास - 

सुग्रीवसहितः = सुग्रीवेण सहितः (तृतीया तत्पुरूष) । 

महोदधेः = महान् चासौ उदधिःमहोदधिःतस्य (कर्म० त० ) । 

आदित्यसन्निभैः  = आदित्येन सन्निभाःतैः (तृतीया तत्पुरूष ) अथवा आदित्य इव सम्यग् नितरां भान्ति इति आदित्य-सन्निभाःतैः (उपपद ० ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

गत्वा = √गम् + क्त्वा । 

क्षोभयामास = √क्षुभ संचलने (भौवादिक या देवादिक) + णिच् = क्षोभि + लिट् + प्रथमा, पु० एकवचन। 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है।

(ख) रस -वीर रस की अभिव्यक्ति है।

(ग) कोष- 

उदधि = "उदन्वानुदधिः सिन्धुःइत्यमरः (१1१०1१) । 

समुद्र = समुद्रोऽब्धिरकूवारइत्यमरः । 

आदित्य ='सूर-सूर्यार्यमादित्य द्वादशात्म-दिवाकराःइत्यमरः ( १।३।२८ ) ।

टिप्पणी- समुद्र के उस पार दक्षिणी भाग पर स्थित लङ्का में जाने के लिए समुद्र को पार करना नितान्त आवश्यक थाअतएव राम ने समुद्र से मार्ग की याचना की। समुद्र के शान्त रहने पर राम को वाण सञ्चालन करना पड़ाजिससे जलचर-सहित समुद्र का अन्तस्तल आन्दोलित हो उठा !!

दर्शयामास चात्मानं समुद्रः सरितां पतिः ।

समुद्रवचनाच्चैव नलं[6] सेतुमकारयत् ॥८०॥

अन्वयः- सरितां पतिः समुद्रः आत्मानं दर्शयामास । (रामः) समुद्र-वचनात् च एव  नलं सेतुम् अकारयत् च ।

शब्दार्थ - सरिताम् = नदीनाम्। पतिः = स्वामी। समुद्रः=सागरः। आत्मानम्= स्वम्। दर्शयामास=रामाय स्वं प्रकटितवान्समुद्रो मूर्तिमान् भूत्वा रामसमीपमाजगामेत्यर्थः। समुद्रवचनात् च=सागरस्य वाक्याद्धेतोः च। एव=निश्चयेन। नलम्= एतदाख्यं कपिम्। सेतुम्=आलिम्जलोपरिगमनमार्गम् इत्यर्थः। अकारयत्=कारितवान्।

हिन्दी शब्दार्थ -सरिताम् = नदियों के । पतिः = स्वामी । समुद्रः = समुद्र ने । आत्मानम् = अपने स्वरूप को दर्शयामास = प्रदर्शित कियाप्रकट हो दिखलाया। (रामः) समुद्र-वचनात् च = और समुद्र के कथनानुसार । एव = ही । नलम् = नल से । सेतुम् = पुल को । अकारयत् = बनवाया ।

हिन्दी भावार्थ  - --(राम के वाणों से आकम्पित हो) नदियों के स्वामी समुद्र ने अपने साकार स्वरूप को दिखला दिया और समुद्र के कथनानुसार ही (श्री राम ने) नल से सेतु-निर्माण कराया ।

व्याकरण

(क) कारक ='नलं सेतुम् अकारयत्में 'नलः सेतुम् अकार्षीत्रामः तं प्रेरिरत् इति 'राम: नलं सेतुम् अकारयत्। यहाँ 'ह्रीक्रोरन्यतरस्याम्सूत्र से अणिजन्त का कर्ता 'नलकर्म फलतः द्वितीया एकवचन 'नलम्हो गया है ।

(ख) सन्धि-

चात्मानम् च + आत्मानम् 

समुद्र-वचनाच्चैव = समुद्र वचनात् + च + एव ( त्व० तथा वृद्धि०) ।

(ग) समास - समुद्र-वचनात् = समुद्रस्य वचनंतस्मात् (षष्ठी तत्पुरूष ) ।

(घ) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

दर्शयामास = √दृश् + णिच् = √दशि + लिट् (प्रथम, पु० एकवचन) । 

अकारयत् = √कृ + णिच् = √कारि + लङ् + प्रथम, पु० एकवचन।

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है

(ख) रस -अद्भुत रस है।

(ग) कोष- 

आत्मा = आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्ष्म चइत्यमरः (३।३।१०६) । 

समुद्र: सरितां पतिः =' ='समुद्रो ब्धिरकूपार: पारावारः सरित्पतिःइत्यमरः (१1१०1१) । 

सेतु = 'सेतुराली पुमान् स्त्रियाम्इत्यमरः (२।१।१४) ।

टिप्पणी- देव वरदान के कारण सिद्धहस्त शिल्पकला-कोविद नल एवं नील के आध्यक्ष्य में सागर में भी पुल बँध सकाजो समग्र विश्व के दैविक इतिहास की विलक्षणतम घटना है। अतएव यहाँ अद्भुत रस का परिस्फुरण है।

तेन गत्वा पुरीं लङ्कां हत्वा रावणमाहवे ।

रामः सीतामनुप्राप्य परां ब्रीडामुपागमत् ॥८१॥

अन्वयः-  रामः तेन (सेतुना) लङ्कां पुरीं गत्वाआहवे रावणं हत्वासीताम् अनुप्राप्य (च) परां व्रीडाम् उपागमत् ।

शब्दार्थ - रामः = श्रीरामचन्द्रः । तेन = नलनिर्मितेन सेतुना। लङ्कां पुरीम् = लङ्कानगरीम्। गत्वा = यात्वा । आहवे = युद्धे। रावणम् = लङ्काधिपतिं दशाननम्। हत्वा = मारयित्वा। सीताम् = जानकीम्। अनुप्राप्य = लब्ध्वा। पराम् = सातिशयाम्। व्रीडाम् = (रावणगृहे चिरमुषिताम् इमां गृह्णामीति मत्वा) लज्जाम्। उपागमत् = प्राप्तवान्।

भावार्थ:-नलनिर्मितेन सेतुना रामः लङ्कां नगरीं गत्वा युद्धे रावणं हत्वा सीतां लब्ध्वाऽपि कामिनो दशाननस्य भवने चिरमुषितायाः सीतायाः स्वीकरणे लोकापवादभीत्या सातिशयलज्जां प्राप्नोत् ।

हिन्दी शब्दार्थ -रामः = श्रीराम । तेन = नलनिर्मित उस पुल से । लङ्कां पुरीम् = लङ्का नगरी में। गत्वा = जाकर । आहवे = युद्ध में । रावणम् = रावण को। हत्वा = मार कर । सीताम् = सीता को । अनुप्राप्य = प्राप्त करके । पराम् = अत्यधिक । व्रीडाम् = लज्जा को । उपागमत् = प्राप्त हुए।

हिन्दी भावार्थ  - श्रीराम उससे (नल-निर्मित पुल से) लङ्का पुरी को जाकरयुद्ध में रावण को मार कर तथा सीता को प्राप्त कर परम लज्जा को प्राप्त हुए।

व्याकरण

(क) सन्धि- उप + आ + अगमत् ( दीर्घ सन्धि )।

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अनुप्राप्य = अनु + प्र + √आप् + क्त्वा > ल्यप् (अव्यय) । 

उपागमत् = उप + √गम् + लुङ् (प्रथमा, पु० एकवचन) ।

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है तथा कई क्रियाओं के कारण तुल्ययोगिता अलंकार है।

(ख) रस - वीररस है तथा घृणा से अनुप्राणित लज्जा के कारण बीभत्स रसोचित उद्दीपन विभाव है।

(ग) कोष- 

'जपा ब्रीडा लज्जाइत्यमरः (१७७२३) । 

आह्व= 'सङ्ग्रामाभ्यागमाहवाइत्यमरः (२१८/१०४) ।

टिप्पणी- जन वर्ग में सम्भावित अपवाद (रावण-गृह में पर्याप्त दिनों तक सीता के रहने के कारण अनुमानित दोषारोपण) से बचने के लिए तथा अपने ही निर्विकार हृदय की तरह लोगों के मन में भी निर्दोष सीता के प्रति निर्मल भावना लाने के लिए ऊपर से कुछ लज्जित हुए श्रीराम ।

तामुवाच[7] ततो रामः परुषं जनसंसदि ।

अमृष्यमाणा सा सीता विवेश ज्वलनं सती ॥८२॥

अन्वयः- ततः रामः जन-संसदि ताम् (प्रति) परुषं (यथा स्यात् तथा वच:) उवाच (तत्) अमृष्यमाणा सा सती सीता ज्वलनं विवेश ।

शब्दार्थ - ततः = तदनन्तरम्लज्जोत्पादनानन्तरम्। (लज्जामपनेतुम्) रामः= श्रीरामचन्द्रः। जनसंसदि = लोकसभायाम्। ताम् = सीताम्। परुषम्= कठोरं, निष्ठुरं (वचनम्) उवाच =अवदत् । अमृष्यमाणा = (रामस्यैतादृशं वचनम्) असहमाना सती। सा सती=पतिव्रता सा। सीता = जानकी। ज्वलनम् = अग्निम्। विवेश = प्रविष्टवती।

भावार्थ:-रावणगृहे चिरमुषितामिमां गृह्णामीति मत्वा लज्जामनुभवन् रामः तां लज्जामपनेतुं लोकसभायां सीतामुद्दिश्य तामब्रवीत् यत् त्वया बहुकालं यावत् परगृहे उषिता येन लोकापवादः उत्पन्नः जातः। जनाः तव पातिव्रते संशयग्रस्ताः सन्ति अतः लोकापवादभीरु अहमपि त्वां वच्मि यत् त्वया स्वकीयपातिव्रतस्य परीक्षा देयाअन्यथाऽहं त्वां नैव स्वीकरिष्यामीति रामस्य निष्ठुरं वचनं श्रुत्वा असहमाना सा सती सीता सहर्षम् अग्नौ विवेश ।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः = उसके बादसीता को देख कर राम के लज्जित होने पर। रामः= श्री रामचन्द्र। जनसंसदि = लोगों की सभा में। ताम् = उस सीता से। परुषम्  कठोरतापूर्वक या कठोर वचन । उवाच = कहा । सती = पतिव्रतासदाचारिणी । (तत्) अमृष्यमाणा = उसे न सहन करती हुई । ज्वलनं विवेश = अग्नि में प्रविष्ट हो गई ।

हिन्दी भावार्थ  - उसके पश्चात् अर्थात् सीता को देख कर लज्जित होने के बाद धीराम ने जन-सभा में सीता के प्रति कठोरता पूर्वक कुछ कहाजिसे न सहती हुई वे सदाचारिणी (पतिव्रता) सीता अग्नि में प्रविष्ट हो गईं।

व्याकरण

(क) कारक-'ताम् उवाचमें 'दुह्याच्-पच् ' इस वात्तिर्कार्थ-संग्रह वाक्य के नियमानुसार 'ताम्में द्वितीया हुई है।

(ख) समास - जनसंसदि = जनानां संसद् तस्याम् ( षष्ठी तत्पुरूष ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

उवाच = √वच + लिट् + प्रथमा, पु० एकवचन

अमृष्यमाणा = √मृष् तितिक्षायाम्  (दिवादि०) + शानच् + टाप् मृष्यमाणा । न मृष्यमाणा अमृष्यमाणा (नञ्- त० ) । 

विवेश = √/विश् + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

ज्वलनम् - √ज्वल् + ल्युः ( कर्तरि) = ज्वलनः तम् (पुल्लिँगद्वि० एकवचन) । 

सती = सत् + ङीप् (स्त्री० प्रथमा, एकवचन) । 

संसदि = सम् + √सद् + क्विप्स्त्री०सप्त० एकवचन।

(क) अलंकार- अनुप्रास है।

(ख) रस - रौद्र रस है।

(ग) कोष- 

संसद् = 'सभा-समिति-संसद: ' इत्यमरः (२२७११५) । 

ज्वलन = ज्वलनो जातवेदा स्तनूनपात्इत्यमरः (१।१।५३) । 

परुषम् = 'निष्ठुरं परुषम्इत्यमरः (१/६/१६) । 

सती = 'सुचरिवा तु सती साध्वी पतिव्रताइत्यमरः (२१६१६) ।

टिप्पणी- शङ्कित चित्त वाले लोगों के बीच में ही उनके मनो-निहित आरोपों से सम्बद्ध निष्ठुर वचनों का प्रयोग करके राम ने सीता की अग्नि-परीक्षा करा दी। कोई भी पतिव्रता नारी अपने पवित्र चरित्र पर मिथ्या आरोप नहीं सहन करती है। अतः सीता की असहिष्णुता तथा अग्नि-प्रवेशउनके सतीत्व की अक्षुष्ण पहचान के कारणसमुचित ही है।

ततोऽग्निवचनात्सीतां ज्ञात्वा विगतकल्मषाम् ।

कर्मणा तेन महता त्रैलोक्यं सचराचराम् ॥८३॥

सदेवर्षिगणं तुष्टं राघवस्य महात्मनः ।

बभौ रामः सम्प्रहृष्टः पूजितः सर्वदैवतैः ॥८४॥

अन्वयः- ततः अग्नि-वचनात् सीतां विगत-कल्मषां ज्ञात्वा (निश्चिन्तस्य) महात्मनः राघवस्य तेन महता कर्मणा सदेवर्षि-गणं सचराचरं त्रैलोक्यं तुष्टं (जातम्) । (अयं) सर्वदेवतः पूजितः सम्प्रहृष्टः (सन्) रामः बभौ ।

शब्दार्थ - ततः=सीतासतीत्वपरीक्षानन्तरम्। अग्निवचनात्=(निष्पापामिमां गृहाणेति) अनलवाक्यात् । सीताम्=जानकीम्। विगतकल्मषाम्=निष्पापाम्। ज्ञात्वा=विदित्वा। महात्मनः=महानुभावस्य। राघवस्य=रामस्य । तेन महता कर्मणा =रावणवधरूपेण सीतायाः अग्निपरीक्षारूपेण च गुरुतरेण कार्येण। सदेवर्षिगणम्= देवतामुनिगणसमन्वितम्। सचराचरम्=स्थावरजंगमसहितम्। तुष्टम्=प्रीतम् अभवत्। (ततः) सर्वदैवतैः=समस्तैः देवैः । पूजितः= सम्मानितः। संप्रहृष्टः= अतीवानन्दितः। रामः=दाशरथिःश्रीरामचन्द्रः । बभौ= शुशुभे ।

भावार्थः-सीतासतीत्वपरीक्षानन्तरम् अनलः रामम् अवोचत् यत् निष्पापामिमां सीतां गृहाणेति अनलवचनात् एव निष्पापां जानकीं विदित्वा महानुभावस्य रामस्य रावणवधरूपेण सीतायाः अग्निपरीक्षारूपेण च गुरुतरेण कार्येण देवता मुनिगणसमन्वितं सचराचरं प्रीतमभवत्। ततः सर्वैः देवैः सम्मानितः अतीवानन्दितः रामः शुशुभे ।

हिन्दी शब्दार्थ - ततः - अग्नि में सीता के प्रविष्ट हो जाने के बाद । अग्नि-वचनात् = अग्निदेव के वचनानुसार सीतां = सीता को । विगतकल्मषाम् निष्पापनिर्दोष । ज्ञात्वा = जान कर (सन्तुष्ट हुए) महात्मनः = महान् धैर्यशाली । राघवस्य = श्री राम के तेन उस महता = महान् । कर्मणा = कार्य से । सदेर्वाधि-गणम् = देवताओं तथा ऋषियों के समूहों से युक्त । सचराचरम् = चराचर सहित । त्रैलोक्यम् = तीनों लोक। तुष्टम् = प्रसन्न हो गये। (अर्थ) सर्व-देवतः = समस्त देवताओं द्वारा । पूजितः = सम्मानित ( होने पर ) । सम्प्रहृष्टः = अत्यन्त प्रसन्न हो । रामः = श्रीराम जी । बभौ = सुशोभित हुए।

हिन्दी भावार्थ  - उसके बाद अर्थात् अग्नि में सीता के प्रविष्ट हो जाने के बाद (प्रकट हुए) अग्निदेव के वचन से सीता जी को निर्दोष ज्ञान कर (निश्चिन्त हुए) महा-धैर्यशाली श्रीराम के उस महान् कार्य से देवताओं तथा ऋषियों युक्त चराचर सहित तीनों लोक प्रसन्न हो उठे। (अब ) समस्त देवों के द्वारा सम्मानित होने पर अत्यन्त प्रमुदित हो श्रीराम जी सुशोभित होने लगे ।

व्याकरण

(क) सन्धि- 

ततोऽग्निवचनात् = ततस् + अग्नि-वचनात् (विसर्ग०) । 

सदेवर्षिगणम् = सदेव + ऋषिगणम् (अर्गुण०) ।

(ख) समास - 

अग्निवचनात् = अग्ने वचनंतस्मात् (षष्ठी त०) । 

विगत-कल्मषाम् = विगतं कल्मषं यस्याः सा ताम् (बहुव्रीहि समास) । 

सचराचरम् = चराश्च अचराश्चतेषां समाहारः चराचरंतेन सहितम् (द्वन्द्व०, बहुव्रीहि समास) । 

सर्वदेवतैः = देवतानां समूहाः दैवतानिसर्वाणि च तानि दैवतानि तैः (कर्म ० त० ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

तुष्टम् = √तुष् = क्त (नपुंसकलिंग प्रथमा,एकवचन) । 

बभौ = √भा + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) 

सम्प्रहृष्टः = सम् +प्र+ √हृष् + क्त (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

देवतैः = देवतानां समूहाः दैवतानितैः ।  देवता + अण् = दैवत + तृतीया बहुवचन। 

त्रैलोक्यम् = त्रयो लोका इति त्रैलोक्यम् । 'चतुर्वर्णादीनां स्वार्थ उपसंख्यानाम्इस वार्त्तिक से ष्यञ् । त्रिलोक + ष्यञ्  । 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है तथा 'उदात्तअलङ्कार का सन्निवेश है।

(ख) रस - अद्भुत रस तथा 'भावध्वनि है।

(ग) कोष- 

कल्मषं- पापं किल्विष-कल्मषम्इत्यमरः (१।४।२३) । 

चराचर = 'जङ्गम-चरं त्रसमिङ्ग चराचरम्इत्यमरः (३११७४) । 

देवत  = 'वृन्दारका दैवतानि पुंसि वा देवताः स्त्रियाम्इत्यमरः (१1१६) ।

टिप्पणी- अग्नि परीक्षा द्वारा सीता को विशुद्ध एवं निष्कलङ्क घोषित करने के उपक्रम को देख कर देवों एवं ऋषियों सहित त्रिभुवन के प्राणी आश्चर्य चकित रह गये और राम के सद्-गुण-गणों की प्रशंसा करने लगे ।

अभिषिच्य च लङ्कायां राक्षसेद्रं विभीषणम् ।

कृतकृत्यस्तदा रामो विज्वरः प्रमुमोद ह ॥८५॥

अन्वयः- लङ्कायाम् राक्षसेन्द्रं विभीषणं अभिषिच्य तदा रामः कृतकृत्यः विज्वरः च (सन्) प्रमुमोद ह ।

शब्दार्थ - लङ्कायाम् = रावणराज्यसिंहासने। राक्षसेन्द्रम् = निशाचरकुलश्रेष्ठम्। विभीषणम् = रावणकनिष्ठभ्रातरम्। अभिषिच्य=अभिषिक्तं कृत्वा । तदा=अभिषेककार्यसम्पादनानन्तरं तस्मिन् काले।  रामः = दाशरथिः । कृतकृत्यः = सम्पादितराक्षस - कुलसहितरावणवधरूपदेवर्षिगणकार्यः। विज्वरः = सीताविरहजनितसन्तापरहितः।  = एव।  प्रमुमोद = प्रमुमुदे।  = इति हर्षाधिक्ये।

भावार्थ:-रावणराज्यसिंहासने राक्षसकुलप्रमुखं रावणस्यानुजमेव विभीषणं अभिषिच्य सम्पादितराक्षसकुलसहितरावणवधरूपदेवर्षिगणकार्यः सीताविरह जनितसन्तापरहितः रामः तस्मिन् काले सर्वविधचिन्तारहितोऽभूत्। अतएव तदा सः खलु परमः प्रसन्नोऽभूत् ।

हिन्दी शब्दार्थ -लंकायाम् = लङ्का मेंलङ्का के राज्य पर । राक्षसेन्द्रम् = निशाचर कुल के श्रेष्ठ। विभीषणम् =  विभीषण को । अभिषिच्य=अभिषेक करके ।  तदा = इसके बाद । रामः = राम । कृत-कृत्यः = कृतार्थ (हो कर) । विज्वरः = सन्ताप रहितनिश्चिन्त ।  = और । प्रमुमोद = प्रमुद्रित हुए।  = प्रसिद्धि तथा पादपूरणार्थक निपात ।

हिन्दी भावार्थ  - इसके बाद श्रीराम  लङ्का (के राज्य) पर राक्षस-शिरोमणि विभीषण को अभिषिक्त करके निश्चिन्त और कृतार्थ होते हुए अत्यन्त आनन्दित हुए।

व्याकरण

(क) सन्धि-

राक्षसेन्द्रम् = राक्षस + इन्द्रम् ( गुण सन्धि )। 

कृतकृत्यस्तदा = कृत-कृत्य + तदा (विसर्ग०) । 

(ख) समास - 

राक्षसेन्द्रम् = राक्षसानाम् इन्द्र इवतम् ( उपमित त०) । 

विज्वरः = विगतः ज्वरः यस्य सः (बहुव्रीहि समास) । 

कृतकृत्यः = कृतानि कृत्यानि येन सः (बहुव्रीहि समास) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अभिषिच्य = अभि + √सिच् + क्त्वा > ल्यप् । 

विभीषणम् = 'विशेषेण भीषयते' - = विभीषणःतम् = वि + √भी + ल्यु (अनकर्तरि, 'भियो हेतुभये षुक्इति षुक्) (पुल्लिँग द्वि०ए०व०) । 

प्रमुमोद = प्र + √मुद + लिट् (प्रथमा,पू०ए०व०) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) रस -निवृति एवं निश्चिन्तता के कारण 'शान्तरसका परिस्पन्दन है।

(ग) कोष- राक्षस = 'राक्षस: कौणपः क्रव्यात्इत्यमरः (१1१५६)

टिप्पणी- लङ्कानरेश रावण को पराजित करके इन्द्र-कुबेरादि के अनन्त ऐश्वर्य को पराभूत करने वाली लङ्का-गत समृद्धिराशि की सर्वथा उपेक्षा करके पूर्ण निरीह भाव से उस लङ्का-राज्य पर रावण के ही वंशज (अनुज) विभीषण को स्थापित करना राम के लोकोत्तर प्रभुत्वनिष्काम कर्म-योग तथा न्याय-प्रियता का जाज्वल्यमान निदर्शन है।

देवताभ्यो वरं प्राप्य समुत्थाप्य च वानरान् ।

अयोध्यां प्रस्थितो रामः पुष्पकेण सुहृद्वृतः ॥८६॥

अन्वयः- (अथ) रामः देवताभ्यः वरं प्राप्यवानरान् समुत्थाप्य च सुहृद् वृतः (सन्) पुष्पकेण अयोध्यां (प्रति) प्रस्थितः ।

शब्दार्थ - रामः = दाशरथिः । देवताभ्यः = इन्द्रादिदेवेभ्यः। वरम् = अभिलषितम् आशीर्वचनम्। प्राप्य = गृहीत्वा। वानरान् = (युद्धे राक्षसहृतान्) कपीन् भल्लूकाँश्च। समुत्थाप्य   = पुनः जीवितान् कृत्वा । सुहृद्वृतः = सुग्रीवाङ्गदादिविभीषणहनुमदादिभिः मित्रैः परिवेष्टितः सन्।  पुष्पकेण = कुबेरपुष्पकविमानेन। अयोध्याम् = साकेतनगरीम्। प्रस्थितः = चलितः।

भावार्थः- ततः रामः इन्द्रादिदेवेभ्यः आशीर्वादं लब्ध्वा युद्धे राक्षसैः हृतान् वानरान् भल्लूकाँश्च पुनः जीवयित्वा सुग्रीवविभीषणहनुमदङ्गादिपरिवेष्टितः सन् विभीषणेन समर्पितपुष्पकविमानेन अयोध्यामुद्दिश्य प्रस्थितः।

हिन्दी शब्दार्थ - (अथ) रामः = (इसके बाद) राम । देवताभ्यः = देवताओं से । वरं = वरदान को । प्राप्य = प्राप्त करके । वानरान्  = और (मृत) बानरों को । समुत्थाप्य - उठा कर अर्थात् जीवित करके । सुहृद्वृतः = शुभचिन्तक मित्रों से घिरे हुए। पुष्पकेण= पुष्पक विमान के द्वारा । अयोध्यां (प्रति) = अयोध्या नगरी की ओर । प्रस्थितः = प्रस्थान किया ।

हिन्दी भावार्थ  - (लङ्का के राज-सिहासन पर विभीषण को राज्याभिषिक्त करके) श्रीराम जी देवताओं से अनुकूल वर प्राप्त करके तथा (युद्ध में मृत) वानरों को उठा कर अर्थात् जीवित करके शुभचिन्तक मित्रों से घिरे हुए पुष्पक विमान के द्वारा अयोध्या की ओर चल पड़े।

व्याकरण

(क) सन्धि-

सुहृद्वृतः = सुहृत् + वृतः (जश्त्व०) ।

(ख) समास - 

सुहृद् = सुष्ठु हृदयं यस्य स सुहृद् (वहुब्रीहि०) । 

सहृद्वृतः = सुहृद्भिः वृतः, तृतीया तत्पुरूष । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

प्राप्य = प्र + √ आप्लृ + क्त्वा > ल्यप् (अव्यय) । 

समुत्थाप्य सम् + उत् + √स्था + णिच्= समुत्थापि + क्त्वा > ल्यप् । 

प्रस्थितः प्र + √स्था + क्त (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 'उदात्तभी है। 

(ख) कोष- 

वर = देवाद् वृते वरइत्यमरः (३।३।१७३) । 

पुष्पक = विमानं तु पुष्पकम्इत्यमरः (१1१७०) । 

सुहृत् = अथ मित्रं सखा सुहृद्इत्यमरः (२०१२)

टिप्पणी- रावण-पीडित कुबेर के पुष्पक विमान पर आरूढ हो सीता सहित भगवान् राम अपनी सुधावर्षिणी कृपा-दृष्टि से निर्जीव वानरों को जीवनदान करके सुग्रीवहनुमानविभीषण आदि के साथ अयोध्या की ओर चल पड़े। 

भरद्वाजाश्रमं गत्वा रामः सत्यपराक्रमः ।

भरतस्यान्तिके रामो हनूमन्तं व्यसर्जयत् ॥८७॥

अन्वयः- सत्य-पराक्रमः रामः भरद्वाजाश्रमं गत्वा भरतस्य अन्तिके हनूमन्तं  व्यसर्जयत् ।

शब्दार्थ -  सत्य-पराक्रमः= अमोघवीर्यः। रामः =  श्रीरामचन्द्रः। भरद्वाजाश्रमम् = भरद्वाजमुनेः कुटीरम्। गत्वा = यात्वाअभिगम्य। भरतस्य = कैकेय्यः पुत्रस्य । अन्तिके = समीपे। हनूमन्तम् = आञ्जनेयम्। व्यसर्जयत् = प्रेषयामास ।

भावार्थः-अमोघवीर्यः रामः भरद्वाजमुनेः कुटीरम् अभिगम्य स्वीयप्रत्यावर्तन वृत्तसूचनायै स्वीयानुजस्य कैकेय्याः पुत्रस्य भरतस्य अन्तिके वेगवन्तं पवनपुत्रं हनुमन्तं प्रेषयामास ।

हिन्दी शब्दार्थ - सत्य-पराक्रमः = सफल पराक्रमी । रामः =  श्रीराम ने । भरद्वाजाश्रमं = भरद्वाज मुनि के आश्रम पर । गत्वा = जाकर । भरतस्य = भरत के । अन्तिके = समीप में । हनूमन्तम् = हनुमान् को। व्यसर्जयत् = भेजा।

हिन्दी भावार्थ  - सब को आनन्दित करने वाले सफल पराक्रमी श्रीराम भरद्वाज मुनि के आश्रम पर जाकर भरत के समीप (नन्दिग्राम की ओर) हनुमान् को भेजा ।

व्याकरण

(क) सन्धि-

भरद्वाजाश्रमम् = भरद्वाज + आश्रमम् ( दीर्घ सन्धि )। 

भरतस्यान्तिके = भरतस्य + अन्तिके (दीर्घ ०) । 

व्यसर्जयत् = वि + असर्जयत् (यण् सन्धि ) ।

(ख) समास - 

भरद्वाजाश्रमम् = भरद्वाजस्य आश्रमःतम् ( षष्ठी तत्पुरूष ) । 

सत्य-पराक्रमः = सत्यः पराक्रमः यस्य सः (बहुव्रीहि समास) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

रामः = रमन्ते जना अस्मिन् इति रामः, √रम् + घञ् ( अधिकरणे ) । 

व्यसर्जयत् = वि + √सृज् + णिच् + लड् प्रथमा, पु० एकवचन। 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। 

(ख) रस - शान्त रस है।

(ग) कोष- 

अन्तिक = उपकण्ठान्तिकाभ्यर्णाभ्यागमाइत्यमरः (३।१।६७) । 

पराक्रम = शौर्योद्योगौ पराक्रमौइत्यमरः (३।३।१३८ ) ।

टिप्पणी- अयोध्या से काफी दूरी पर प्रयाग में भरद्वाज के आश्रम पर ही अयोध्या का आन्तरिक समाचार जान लेने के लिए राम वहाँ उतरे और आश्रम में ठहरे। वहीं से हनुमान् जैसे बलवान् एवं बुद्धिमान् दूत को भरत के पास भेज कर अयोध्यावासियों की मानसिक धारणा तथा परिवर्तित या अपरिवर्तित राजनीति की जिज्ञासा का प्रयास करना राम की दूरदर्शिता तथा नीतिपटुता का परिचायक है।

प्रस्तुत श्लोक में गत्वा रामः इस प्रकार का पाठ है। गत्वारामः को  एक साथ लिखने पर गत्वा + आरामः यह विच्छेद होता है । इसमें आरामः का अर्थ इस प्रकार होगा- आरामः = आसमन्ताद् रमयति = आनन्दयति जनान् इति आरामःआ + √रम् + अण् (कर्मणि) । 

पुनराख्यायिकां जल्पन् सुग्रीवसहितस्तदा ।

पुष्पकं तत्समारुह्य नन्दिग्रामं ययौ तदा ॥ ८८॥

अन्वयः- तदा सुग्रीव-सहित: (रामः) आख्यायिकां जल्पन्तत् पुष्पकं पुनः समारुह्य तदा नन्दिग्रामं ययौ ।

शब्दार्थ -तदा = तस्मिन् भरद्वाजाश्रमान्निर्गमनसमये। सुग्रीव-सहितः = सुग्रीवादिसहितः रामः। आख्यायिकाम् = भरतसम्बन्धितकथाम्। जल्पन् = कथयन्। पुनः = भूयः। तत् पुष्पकम् = प्रसिद्धं कुबेरविमानम्। समारुह्य = अधिष्ठाय।  तदा = हनुमद्गमनानन्तरमेव। नन्दिग्रामम् = तात्कालिकभरतवसतिम्। ययौ = जगाम।

भावार्थ:-पवनपुत्रस्य हनुमतः भरतस्यान्तिके गमनानन्तरं श्रीरामचन्द्रः सुग्रीवेण सह भरतसम्बन्धितकथां कथयन् पुष्पकविमानमारुह्य तस्मिन्नेव समये तात्कालिकभरतवसतिं नन्दिग्रामं जगाम।

हिन्दी शब्दार्थ -ततः = उसके बाद । सुग्रीव-सहितः = सुग्रीव के सहित (राम) । आख्यायिकाम् = पूर्वानुभूत विषयों के वर्णन से भरी कहानियों को। जल्पन् = कहते हुए । तत् पुष्पकम् = उसी पुष्पक पर । पुनः = फिर । समारुह्य = चढ़कर । तदा = तब । नन्दिग्रामम् = जहाँ भरत राम के आगमन की प्रतीक्षा में तपोरत थेउसी स्थान की ओर। ययौ = गए।

हिन्दी भावार्थ  - इसके पश्चात् अर्थात् हनुमान को भरत के पास भेज देने के में बादसुग्रीव के सहित श्रीराम जी अनुभूत विषयों वाली कहानी कहते हुए उसी पुष्पक पर पुनः आरूढ होकर तब नन्दिग्राम  गए।

व्याकरण

(क) सन्धि- पुनराख्यायिकाम् = पुनस् + आख्यायिकाम् (विसर्ग)

(ख) समास - सुग्रीवसहितः = सुग्रीवेण सहितः, (तृतीया तत्पुरूष ) 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

जल्पन् = जल्प + शतृ, पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन

ययौ = √या + लिट् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

समारुह्य सम + आ + √रुह् + क्त्वा > ल्यप् । 

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है।

(ख) कोष- आख्यायिका = 'आख्यायिकोपलब्धार्थाइत्यमरः (१/९/६५) ।

टिप्पणी- राम अपनी जन्मभूमि अयोध्या की ओर अब चलने लगे हैं। सुदूर दक्षिण दिशावर्ती सुग्रीव आदि को शृङ्गवेरपुरगङ्गा जीभरद्वाज मुनिप्रयागअयोध्याचित्रकूट आदि उत्तरी तत्त्वों के बारे में जानकारी नहीं थी-अतः राम ने उन्हें उत्तर दिशा की उन-उन तात्त्विक बातों की ऐतिहासिक तथा लोक-विश्रुत कहानियाँ सुना दी। साथ हीकहीं सुग्रीव आदि अपनी उपेक्षाअनादर आदि का अनुभव न करेंइसलिए भी समदर्शी तथा सब को मान देने वाले राम अब उन्हीं की ओर उन्मुख हो मनोऽनुकूल बातें करने लगे।

नन्दिग्रामे जटां हित्वा भ्रातृभिः सहितोऽनघः ।

रामः सीतामनुप्राप्य राज्यं पुनरवाप्तवान् ॥८९॥

अन्वयः- अनघः रामः नन्दिग्रामे जटां हित्वा भ्रातृभिः सहितः सीताम् अनुप्राप्यपुनः राज्यम् अवाप्तवान् ।

शब्दार्थ - अनघः = निष्पापः। रामः = दाशरथिः । नन्दिग्रामे =भरतनिवासस्थाने। जटाम् = शिरसि संहतान् केशान्। हित्वा = परित्यज्यमुण्डयित्वा ।  भ्रातृभिः = भरतादिभिः त्रिभिः अनुजैः । सहितः = समन्वितः । सीताम् = जानकीम्। अनुप्राप्य = लब्ध्वा । पुनः = भूयः। राज्यम् = अयोध्याराज्यम्। अवाप्तवान् = लब्धवान्।

भावार्थः-भरतादिभिः त्रिभिः अनुजैः सहितः पितुः आज्ञापालने निष्पापः रामः सीतां लब्ध्वा भरतनिवासस्थाने नन्दिग्रामे शिरसि संहतान् केशान् परित्यज्य भूयः अयोध्याराज्यं लब्धवान्।

हिन्दी शब्दार्थ - अनधः = निष्कल निर्विकार, पाप रहित । रामः = दशरथ के पुत्र राम । नन्दिग्रामे = नन्दिग्राम नामक स्थान में। जटाम् = वनवास काल में बढ़ हुई जटा को । हित्वा = छोड़ करपरित्याग करके । भ्रातृभिः सहितः = अपने तीनों भाइयों के साथ। सीताम् = सीता को। अनुप्राप्य = अपने पीछे लेकर । पुनः = फिर । राज्यम् = अयोध्या का राज्य । अवाप्तवान् = प्राप्त किया । 

हिन्दी भावार्थ  - पाप रहित श्रीराम ने नन्दिग्राम में  जटा को छोड़ कर (कटा  कर) अपने भाइयों के साथसीता को पीछे लेकर पुनः (कैकयी के कारण १४ वर्ष पूर्व छोड़े गये) राज्य को प्राप्त कर लिया ।

व्याकरण

(क) सन्धि- सहितोऽनघः = सहितः + अनघः (विसर्गपूर्वरूप) । 

(ख) समास - अनघः = न अघं यस्य सः तम् (त०) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः- 

हित्वा = √ ओहाक् (त्यागे) + क्त्वा । 

अनुप्राप्य - अनु + प्र  + √आप् + क्त्वा > ल्यप् 

अवाप्तवान् = अव + √आप् + क्तवतु ( पुल्लिँगप्रथमा, एकवचन) ।

(क) अलंकार-  अनुप्राससमुच्चय तथा तुल्ययोगिता अलङ्कार हैं। 

(ख) रस - भ्रातृभिः सहितःके कारण वत्सल रस है।

(ग) कोष- 

अघ = 'कलुषं वृजिनैनोऽघमंहइत्यमरः (१।४।२३) । 

जटा = 'व्रतिनस्तु सटा जटा इत्यमरः (२/१६/९७) ।

टिप्पणी- कैकयी की वर-याचना के कारण अयोध्या का जो राज्य राम के द्वारा तृणवत् परित्यक्त कर दिया गया थाआज वही राज्यचित्रकूट में वशिष्ठ-प्रभृति गुरुजनों के समक्ष भरत से की गई वार्ता को ध्यान में रख कर पुनः अपना लिया गया। यही 'पुन:पद से द्योतित निर्गलित व्यङ्ग्यार्थ है ।

प्रदृष्टमुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः ।

निरामयो ह्यरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः ॥९०॥

अन्वयः- (राम-राज्ये) लोकः प्रहृष्टमुदितः तुष्टःपुष्टःसुधार्मिकनिरामयःअरोग: दुर्भिक्ष-भय-वर्जितः च हि (भविष्यति) ।

शब्दार्थ - लोकः = रामराज्ये प्रजाजनः । प्रहृष्टमुदितः = हर्षसञ्जातपुलकः, = सकलमनोरथावाप्त्या प्रमोदविशिष्टः। तुष्टः = सन्तुष्टः। पुष्टः = कृशतारहितः। सुधार्मिकः = स्वधर्मनिरतः। निरामयः = आरोग्ययुतः। अरोगः = रोगहीनः । दुर्भिक्षभयवर्जितः च = अन्नकष्टचोरभयरहितन। हि = निश्चयेनासीत्।

भावार्थः- रामराज्यं सर्व प्रजाजनाः हर्षसञ्जातपुलकाः सन्तुष्टाः दारिद्र्या दिकृशतारहिताः स्वधर्मनिरताः व्याधिरहिताः रोगहीना: दुर्भिक्षभयवर्जिताश्च बभूवुः।

हिन्दी शब्दार्थ -लोकः = सम्पूर्ण संसार या सारे लोग। प्रहृष्ट-मुदितः  = अत्यन्त हर्षित (हृदय से) तथा आनन्दित (प्रफुल्ल मुखमण्डलादि से परिलक्षित) । तुष्ट:= सन्तुष्ट । पुष्ट:= शरीर से सुदृढ । सुधार्मिकः = प्रशस्त धर्मनिष्ठ । निरामयः = निर्विकार (सकुशल) । अरोगः = नीरोग (स्वस्थ ) । दुर्भिक्ष-भय-वर्जितः = अकाल के भय से रहित । च  = और । हि  = निश्चय हीं। (होंगे)

हिन्दी भावार्थ  - (राम-राज्य में) सम्पूर्ण संसार या जन-समुदाय (आन्तरिक रूप सेहृदय से) अत्यन्त हर्षित तथा (मुखमण्डल की प्रफुल्लता से अनुमेयअतः बाहर से) आनन्दितसन्तुष्ट (यथा प्राप्त वस्तु से ही सन्तोष करने वाला)पुष्ट शरीर वालाप्रशस्त धर्मानुरागी, (मन से) विकार रहित, (शरीर से) निरोग अर्थात् स्वस्थ तथा अकाल पड़ने के भय से रहित होगा ।

व्याकरण

(क) सन्धि- लोकस्तुष्ट: = लोक: + तुष्ट: (विसर्ग) ।

(ख) समास - 

प्रहृष्टमुदितः = प्रहृष्टश्चासौ मुदितश्च (कर्म० त० ) । 

सुधार्मिक: = सुष्ठु धार्मिक, (कर्म० त०) । 

निरामयः = निष्क्रान्त आमयेभ्य इति निरामयः (पं० त०) । 

अरोगः = न रोगो यस्य सः (बहुव्रीहि समास)। 

दुर्भिक्षभयवर्जितः = दुर्भिक्षाद् भयंतेन वर्जितः (पं० तत्पुरूष. तृतीया तत्पुरूष ) । भिक्षाया अत्ययः (अभाव:ह्रासो वा) दुर्भिक्षम् (अव्ययी भाव ) 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

प्रहृष्ट = प्र + √हृष् + क्त । मुदितः = √मुद् + क्त । 

तुष्टः = √तुष् + । पुष्ट: - पुष् + क्त । 

धार्मिकः =धर्म + ठक् । 

वर्जितः = √ वृजी वर्जने (चुरादि या रुधादि) + क्तपुल्लिँग प्रथमा, एकवचन

(क) अलंकार- अनुप्रास तथा उदात्त अलङ्कार है, 'उदात्तं वस्तुनः सम्पत् ।' (काव्य प्रकाश १० उ०) ।

(ख) कोष- 

प्रहृष्ट-मुदितः = 'मुत् प्रीतिः प्रमदो हर्षःइत्यमरः (१।४। २४) । 

निरामय = वार्ता निरामयः कल्यःइत्यमरः (२/१६/५७) । 

भय = 'भीतिर्भी: साध्वसं भयम्इत्यमरः (१।७।२१) ।

टिप्पणी- 'यथा राजा तथा प्रजाइस लोकोक्ति के अनुसार ही सदाचारीधर्मरक्षण-सक्षण तथा परोपकारी राम के राज्याधिरूढ होने पर प्रजाओं में भी धर्मानुरागनैरोग्यसदाचार आदि सत्-प्रवृत्तियों का उदय हो गया था । दुराचारी राजा के राज्य में तो पृथ्वी में फसलअन्नरसफल आदि की न्यूनता हो जाने पर दुर्भिक्ष पड़ता ही है : 'राज्ञोऽपचारात् पृथिवी स्वल्प-सस्या भवेत् किल ।'

न पुत्रमरणं केचिद्रक्ष्यन्ति पुरुषाः क्वचित् ।

नार्यश्चाविधवा नित्यं भविष्यन्ति पतिव्रताः ॥९१॥

अन्वयः- (राम-राज्ये) केचिद (अपि) पुरुषाः क्वचिद् (अपि) पुत्र-मरणं न द्रक्ष्यन्तिनार्यः अविधवाःनित्यं पतिव्रताः च भविष्यन्ति ।

शब्दार्थ -  केचित्=रामराज्ये केऽपि । पुरुषाः=नराः। क्वचित्=कुत्रापि। पुत्रमरणम्=सुतमृत्युम्। न=नैव। द्रक्ष्यन्ति= अवलोकयिष्यन्ति। नार्यः च=स्त्रियश्च। अविधवाः=वैधव्यरहिताः। नित्यम्= निरन्तरम्। पतिव्रताः = साध्व्यःसतीत्वसमन्विताः। भविष्यन्ति=यास्यन्ति।

भावार्थः-रामराज्ये केचिदपि जनाः पुत्रमरणं नैवावलोकयिष्यति येन सर्वे पुत्रवन्तः भूत्वा स्वकीयं पूर्ण जीवनं जीविष्यन्ति। नार्यश्च पतिव्रताः भूत्वा वैधव्यरहितं जीवनं पूर्णरूपेण जीविष्यन्ति येन ताः सर्वाः नार्यः सधवाः सत्यः स्वस्व पत्यनुकूलवर्तिन्यः भविष्यन्ति।

हिन्दी शब्दार्थ - केचिद् अपि = कोई भी पुरुषाः = नर । क्वचिद् अपि = कहीं भी। पुत्र-मरणम् = अपने पुत्रों की मृत्यु । न द्रक्ष्यन्ति = नहीं देखेंगे। नार्यः = स्त्रियाँ । अविधवा = वैधव्य रहित अर्थात् सुहागिन । नित्यम् = सदैव । पतिव्रताः = पति-परायणासदाचारिणी । च= और भविष्यन्ति = होंगी।

हिन्दी भावार्थ  - रामराज्य में कोई भी पुरुष कहीं भी अपने पुत्रों का निधन नहीं देखेंगे और नारियाँ सुहागिन तथा सदैव पतिव्रता (सदाचारिणी) होंगी।

व्याकरण

(क) सन्धि-

नार्यश्च + अविधवाः ( दीर्घ सन्धि )। 

नार्यश्च = नार्यः + च (विसर्गश्चुत्व०) ।

(ख) समास - 

पुत्रमरणम् = पुत्राणां मरणम् (षष्ठी तत्पुरूष) । 

अविधवाः = विगतः धवः (पतिः) यासां ता विधवाः (बहुव्रीहि समास)न विधवाः = अविधवाः (नञ् त०) । 

पतिव्रताः = पत्यौ व्रतं (नियम पालनं ) यासां ताः (बहुव्रीहि समास)।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

द्रक्ष्यन्ति = √दृश् + लृट् प्रथमा, पु० बहुव० । 

क्व = कस्मिन् स्थाने इतिकिम् (क्व) + अत् - क्व ।

(क) अलंकार- अनुप्रास अलङ्कार है ।

(ग) कोष- 

धव - 'धव: प्रियः पतिर्भर्ताइत्यमरः (२६३५) । 

पतिव्रता =  - 'सुचरिता तु सती साध्वी पतिव्रताइत्यमरः (२१६१६) ।

टिप्पणी- रामराज्य में 'शतायुर्वै पुरुष:के नियमानुसार मानव की आयु १०० वर्षों की होती थीइससे कम आयु में किसी का भी निधन नहीं होता था। फलतः लोग पुत्र-मरण की दुस्सह पीडा से रहित थेसभी पुत्र-पौत्र-समन्वित थे। द्रक्ष्यन्ति आदि भविष्यत् कालिक क्रियाओं से ज्ञात होता है कि राम के राजा बनते ही नारद जी ने बाल्मीकि से रामकथा कही ।

न चाग्निजं भयं किञ्चिन्नाप्सु मज्जन्ति जन्तवः ।

न वातजं भयं किञ्चिन्नापि ज्वरकृतं तथा ॥९२॥

अन्वयः- (राम-राज्ये) किञ्चिद् अग्निजं भयं न ( भविष्यति)जन्तवः च अप्सु न मज्जन्तिवातजं किञ्चिद् भयं न ( भविष्यति)तथा ज्वर-कृतम् अपि किञ्चिद् भयं न (भविष्यति) ।

शब्दार्थ -  तत्र = तस्मिन् रामराज्ये। किञ्चित् = ईषदपि। अग्निजम्=वह्निजातम्। भयम्=भीतिः। न=नैव भवति । जन्तवः = प्राणिनः। अप्सु जलेषु । न=नैव। मज्जन्ति=निमग्नाः भविष्यन्ति। किञ्चित् ईषदपि। वातजम्=पवनोद्भूतम्। भयम्= भीतिः। न=नैवास्ति। तथा = तद्वत् । ज्वरकृतम्=ज्वरजनितमपि। किञ्चित् भीतिः। न=नैवास्ति। 

भावार्थः- तस्मिन् रामराज्ये अग्निजलवायुक्षुधाजन्यं किञ्चित् अपि भयं नैव भवति। पौराः जानपदाश्चापि वित्तशस्यसम्पन्नाः भवन्ति । यथा सत्ययुगे जनाः प्रसन्नचित्ताः भवन्ति तथैव त्रेतायुगेऽपि सर्वे जनाः हर्षान्विताः सन्ति।

हिन्दी शब्दार्थ - अग्निजम् = अग्नि से उत्पन्न । किश्चिद् = कुछ भी। भयम् = डर । अप्सु जल में। जन्तवः = प्राणिमात्र । न मज्जन्ति = नहीं डूबते हैं । निकटतम समय में घटनाओं की सम्भावना रहने पर (भविष्यत् काल में भी) वर्तमान काल की क्रिया (लट् लकार) का प्रयोग व्याकरण-सम्मत ही है- 'वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवद् वा' (पा० सू० ३३१३१) । वातजम् = वातरोग से उत्पन्न या तीव्र झञ्झावातादि से उत्पन्न । ज्वर-कृतम् = ज्वर आदि शारीरिक रोगों से उत्पन्न । ज्वर शब्द रोगमात्र का उपलक्षण है।

हिन्दी भावार्थ  - (राम-राज्य में) अग्नि से उत्पन्न होने वाला कोई भी भय नहीं रहेगाकोई भी प्राणी (उत्पीडित होने पर या दैव-वशात्) पानी में नहीं डूबेंगेवायु (रोग या प्रचण्ड झञ्झावात) से उत्पन्न तथा ज्वर आदि रोगों से उत्पन्न थोड़ा भी भय नहीं रहेगा।

व्याकरण

(क) सन्धि-

चाग्निजम् = च + अग्निजम् ( दीर्घ सन्धि )। 

किन्चिन्नाप्सु = किम् + चित् = किञ्चित् (परसवर्ण०) + न=किचिन्न (परसवर्ण) + अप्सु = किन्चिन्नाप्सु ( दीर्घ सन्धि )। 

किञ्चिन्नापि = किम् + चित् +न+अपि (परसवर्ण तथा दीर्घ ० ) ।

(ख) समास - 

अग्निजम् अग्नौ जायतेअग्ने वा जायते इति । उपपद त० । 

बातजम् = बातेषु बातेभ्यो वा जायत इति (उपपद०)। 

ज्वरकृतम् =ज्वरैः कृतम् ( तृतीया तत्पुरूष) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

अग्निजम् अग्नि + √ जन् + (नपुंसकलिंग प्रथमा, एकवचन) । 

मज्जन्ति = (टु) मस्जो (शुद्धौ) + लट्प्रथम, पु० बहु० 

(क) अलंकार- 

निषेधमुवेन 'उदात्तअलङ्कार है। अनुप्रास की आभा है। 

(ख) रस - निर्बाध स्थिति 'शान्त रसकी व्यञ्जना करती है।

(ग) कोष- 

'अप्' = '='आपः स्त्री भूम्नि वार्वारि सलिलं कमलं जलम्इत्यमरः (१1१०1३) 

भयम् = 'भीतिर्भी: साध्वसं भयम्इत्यमरः (१७७२१) । 

वात = 'नभस्वद् वात-पवन-पवमान-प्रभञ्जना" (१1१।६३) । इत्यमरः 

टिप्पणी- रामराज्य में न तो प्राकृतिक रूप से एकाएक कहीं आग लगने का भय थान ही विद्वेष के कारण कोई दुष्ट व्यक्ति किसी के घरखलिहान आदि में ही आग लगाता रहा। इसी तरह जलबात बादि से उत्पन्न भय के प्रसंग में भी प्राकृतिक तथा विद्वेष-कृत भय का तात्पर्य समझना चाहिए। संकेत पच- राम राज्य में सारा देश भूखप्यास की ज्वाला से रहित तथा सतयुग की भाँति धनधान्य सम्पन्न रहेगा

न चापि क्षुद्भयं तत्र न तस्करभयं तथा ।

नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्ययुतानि च ॥९३॥

नित्यं प्रमुदिताः सर्वे यथा कृतयुगे तथा ।

अन्वयः- तव न क्षुद्भयं (भविष्यति) तथा न च तस्करभयम् अपि (भविष्यति)नगराणि च धन-धान्य-युतानि (भविष्यन्ति)यथा कृतयुगे सर्वे नित्यं प्रमुदिता (आसन्)तथा (रामराज्येऽपि सर्वे नित्यं प्रमुदिता भविष्यन्ति) ।

शब्दार्थ -  क्षुद्भयं च अपि= क्षुधाभीतिः अपि । न=नैवास्ति। तथा=तद्वत्। तस्करभयम्=चौरभीतिः अपि । न=नास्ति। नगराणि= पुराणि । राष्ट्राणि च=जनपदाश्च। धनधान्ययुतानि च=वित्तशस्यसम्पन्नानि च सन्ति। सर्वे यथा=येन प्रकारे समस्ताः जनाः। कृतयुगे= सत्ययुगे प्रसन्नचित्ताः आसन्। तथा=तेनैव प्रकारेण। त्रेतायामपि सर्वे जनाः। नित्यम्= निरन्तरम् । प्रमुदिताः=हर्षान्विताः सन्ति।

हिन्दी शब्दार्थ - तव = वहाँउस रामराज्य में । क्षुद्भयम् = भूख का डर । तस्कर भयम् = चोरों से उत्पन्न डर। नगराणि = शहर। राष्ट्राणि = राज्यों के मुख्यालय, = राजाओं की राजधानी वाले नगर (सारे शासन-क्षेत्र ) । धन = रत्नादि । धान्य = अनाज आदि । कृतयुगे = सतयुग में यथा = जैसे। तथा = वैसे। सर्वे = सभी प्राणी । नित्यम् = हमेशासदा । प्रमुदिताः = प्रसन्न-चित्त ।

हिन्दी भावार्थ  - उस राम-राज्य में लोगों को न भूख का डर रहेगा और न ही चोरों का भय रहेगा। सारे नगर तथा सारे राष्ट्र (देश के शासन क्षेत्र) धनराशि तथा अन्तराशि से सम्पन्न रहेंगे। सत्य युग की ही तरह समस्त प्राणी सदैव आनन्दित रहेंगे।

व्याकरण

(क) सन्धि-

चापि =च + अपि ( दीर्घ सन्धि )। 

(ख) समास - 

क्षुद्द्भयम्= क्षुद्भ्यः भयम् (पं० त०) । 

तस्करभयम् = तस्करेभ्यः भयम् (पं० त०) । 

धनधान्य-युतानि = धनानि च धान्यानि च तैः युतानि (द्वन्दुभित तृतीया तत्पुरूष ) । 

कृतयुगे = कृतं प्रधानं युगंतस्मिन् (मध्यमपद-लोपी त०)

कृतम् = सुकृतं कृतयुगे क्रतुर्वा । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

प्र + √मुद + क्त (पुल्लिँगप्रथमा,व०व० ) । अथवा--प्रकृष्टा मुत् प्रमुत् (परमानन्दः)सा सञ्जाता एषाम् इति प्रमुदिताः = प्रमुत् + इतच्पुल्लिँग प्रथमा, बहुवचन। 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है। आदर्श शासन व्यवस्था तथा राष्ट्र-समृद्धि के वर्णन के कारण 'उदात्तअलङ्कार है- 'उदात्तं वस्तुनः सम्पत्'; 'महतां चोपलक्षणम्' (मम्मट: काव्यप्रकाश १० उ०) । 

(ख) रस -शान्त रस की सुखद अनुभूति है।

(ग) कोष- 

क्षुत् = 'अशनाया बुमुक्षा क्षुद्इत्यमरः (२६१५४) । 

तस्कर =  'स्तेन-दस्यु-तस्कर मोक्षकाः इत्यमरः (२।१०।२४) । 

राष्ट्र = 'राष्ट्रोऽस्त्री विषयेइत्यमरः (३।३।१८४) । 

धान्य = 'धान्यं बीहिः स्तम्बकरिःइत्यमरः (२।३।२१) । 

टिप्पणी- उक्त पथ में प्रजाओं की अनुकूल सुख-सम्पत्तिनिर्विघ्न सुविधाएँ तथा समस्त राष्ट्र की असीम समृद्धि के वर्णन से शासक श्रीराम की न्याय-प्रियतानिष्पक्षता तथा प्रशासन-पटुता प्रमाणित होती है ॥६॥१/२॥

अश्वमेधशतैरिष्ट्वा तथा बहुसुवर्णकैः[8] ॥९४॥

गवां कोट्ययुतं दत्त्वा विद्वद्भ्यो विधिपूर्वकम् ।

असंख्येयं धनं दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यो महायशाः ॥९५॥

राजवंशाञ्छतगुणान्स्थापयिष्यति राघवः ।

चातुर्वर्ण्यं च लोकेऽस्मिन् स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति ॥९६॥

अन्वयः- महायशाः राघव: बह-सुवर्णकः अश्वमेध-शतैः इष्ट्वाविद्वद्भ्यः विधि पूर्वकं गवां कोट्ययुतं दत्त्वा तथा बाह्मणेभ्यः असंख्ययं धनं दत्वा च शतगुणान् राजवंशान् स्थापयिष्यतिअस्मिन् लोके चातुर्वण्यं स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति च ।

शब्दार्थ -  महायशाः=अतुलकीर्तिःअतिख्यातिमान् इत्यर्थः। राघवः=रामः। अश्वमेधशतैः= शतसंख्यकैः अश्वमेधाख्ययाः । इष्ट्वा = यज्ञं विधाय। तथा=अपि च। बहुसुवर्णकैः= असंख्यस्वर्णाभरणैः सह । गवाम्=धेनूनाम्। कोट्ययुतम्= दशसहस्रकोटीः। विधिपूर्वकम्=यथा स्यात्तथा। विद्वद्भ्यः=पण्डितेभ्यः। दत्वा = समर्प्य। ब्राह्मणेभ्यः=साधारणद्विजेभ्यः। असंख्येयम्=अपरिमितम्। धनम्= वित्तम्। दत्वा=समर्प्य। शतगुणान्=असंख्यगुणगणान्वितान्। राजवंशान्=राजकुलानि। स्थापयिष्यति=निवेशयिष्यति। अस्मिन् लोके=भूलोके। चातुर्वर्ण्यम्=ब्राह्मण क्षत्रियवैश्यशूद्वान्। स्वे स्वे=निजे निजे। धर्मे=कर्तव्यकर्मणि। नियोक्ष्यति च= प्रवर्तयिष्यति च।

भावार्थ:- अतिख्यातिमान् रामः असंख्यसुवर्णदायिनः अश्वमेधयज्ञान् कृत्वा विद्वद्भ्यः कोटिसंख्यकाः गाः ब्राह्मणेभ्यः च प्रभूतं धनं प्रदाय धरित्र्यां अपरिमित गुणगणान्वितान् राजवंशान् स्थापयित्वा चतुरः वर्णान् ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रान् स्वे स्वे धर्मे प्रवर्तयिष्यति।

हिन्दी शब्दार्थ - महायशाः = महान् यशस्वी राघवः = श्रीराम बहु-सुवर्णक: पर्याप्त स्वर्णराशियों (की दक्षिणा) से युक्त। अश्वमेध-शतैः = सैकड़ों अश्वमेध यशों से इष्ट्वा =यजन करके विद्वद्भ्य - विद्वानों को विधि-पूर्वकम् = सविधि विधान पूर्वक । कोटि = करोड़ । अयुत = १० हजार । गवां कोट्ययुतम् = दस हजार करोड़ (१ खरब) गौओं को। दत्वा = देकर । असंख्येयम् = अगणित । शतगुणान् = सौगुने । राजवंशान् = राजाओं के वंशों को । स्थापयिष्यति = स्थापित करेंगे। अस्मिन् लोके= इस संसार में चातुर्वण्यम् = चारों वर्गों को । स्वे-स्वे = अपने-अपने । धर्मे = निर्धारित कर्तव्यों में । नियोक्ष्यति = नियुक्त करेंगेप्रवृत्त करेंगे ।

हिन्दी भावार्थ  - महान् यशस्वी श्रीरामचन्द्र जी पर्याप्त स्वर्ण-राशियों (की दक्षिणा) से युक्त सैकड़ों अश्वमेध-यज्ञानुष्ठानों द्वारा देव-यजन करके, (यज्ञ संलग्न तथा अन्य) विद्वानों को विधिपूर्वक एक खरब गौओं का दान देकर तथा ब्राह्मणों को अपरिमित धनराशि देकर सौगुने राज-कुलों को (शासन-सोविध्य के लिए) संस्थापित करेंगे और चारों वर्णों (की प्रजाओं) को अपने-अपने (निर्धारित) कर्तव्य-कलापों में प्रवृत्त करेंगे।

व्याकरण

(क) सन्धि-

शतैरिष्ट्वा = शतैस् + इष्ट्वा (विसर्ग०) । 

कोट्ययुतम् = कोटि + अयुतम् (यण्०)। 

राजवंशाञ्छतगुणान् = राज-वंशान् + शतगुणान् (व्यञ्जन०)। 

लोकेऽस्मिन् = लोके + अस्मिन् (पूर्वरूप०) । 

(ख) समास - 

अश्वमेध-शतैः = अश्व-मेधानां शतानितैः (षष्ठी तत्पुरूष ) । 

बहु-सुवर्णकैः = बहूनि सुवर्णाति (दक्षिणारूपेण देयानि) येषु तैः (बहुव्रीहि समास)। 

कोट्ययुतम् = कोटीनाम् अयुतं, (षष्ठी तत्पुरूष) । 

विधिपूर्वकम् = विधिः पूर्व: (प्रधान) यस्मिन् तद् (यथा स्यात् तथा ), (बहुव्रीहि समास, क्रियाविशेषण) । 

महायशाः = महान्ति यशांसि यस्य सः (बहुव्रीहि समास) । 

राज-वंशान् राज्ञां वंशाःतान्ष० त० । 

शतगुणान् = शतं गुणाः येषुतान् (बहुव्रीहि समास) । 

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

दृष्ट्वा = √यज् + क्त्वा । दत्त्वा = √दा (दाने) + क्त्वा । 

स्थापयिष्यति = √स्था + णिच् = √स्थापि + लृट् ( प्रथम पु० एकवचन) । 

चातुर्वर्ण्यम् चत्वारो वर्णाः चातुर्वर्ण्यतत् । चतुर्वर्ण + प्यञ्, = (चतुर्वर्णादिभ्य: स्वायें उपसंख्यानम्इस वार्त्तिक से स्वार्थ में प्यञ्)नपुंसकलिंग द्वि० एकवचन। 

नियोक्ष्यति = निः + √युज् + लृट् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

(क) अलंकार- 

बहुत-सी क्रियाएँ एक कर्तृक हैंअतः समुच्चय तथा तुल्ययोगिता अलङ्कार है । अखण्ड ऐश्वर्यदान कौशल तथा प्रतापातिरेक के कारण 'उदात्तअलङ्कार हैं। भाविक एवम् अनुप्रास का भी सौरभ है।

(ख) रस -धर्म-वीरदानवीरदयावीर रस द्योतित हैं। (दश रूपक के अनुसार) ।

(ग) कोष- सुवर्ण = स्वर्ण सुवर्ण कनकम्इत्यमरः = (२१६१६४) । 

विधि = विधिविधाने देवेऽपिइत्यमरः (३।३।१००) । 

गुण = 'सत्त्व-शौर्य-सन्ध्यादिके गुण:इत्यमरः (३।३।४७) ।

टिप्पणी- लोक-शिक्षा तथा आदर्श राज्य व्यवस्था के द्वारा परवर्ती नरेशों में कर्तव्य बुद्धि को जागृत करने की दृष्टि से श्रीराम के द्वारा किये गये सैकड़ों राजकुलों की स्थापना तथा वर्णाश्रम धर्मो का प्रवर्तन प्रशंसनीय हैं। सैकड़ों यज्ञों में इन्द्र की सहिष्णुता तथा विरोध-शून्यता भी ध्यातव्य है- विष्णु के वामना वतार में इन्द्र अग्रज हो चुके हैं तथा विष्णु = राम उपेन्द्र हैं। अतः इन्द्र का विघ्नोपस्थापन अनुचित होने के कारणराम के सैकड़ों यज्ञ निर्विघ्न सविधि सम्पन्न हो गयेइन्द्र शान्त तथा प्रसन्न बने रहे।

दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ।

रामो राज्यमुपासित्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यति ॥९७॥

अन्वयः- रामः दश वर्ष-सहस्राणि दश वर्ष-शतानि च राज्यम् उपासित्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यति ।

शब्दार्थ -  रामः = कौशल्यानन्दजनकः श्रीरामचन्द्रः। दशवर्षसहस्राणि= दशसंख्याकसहस्रवर्षाणि। दशवर्षशतानि च=एकसहस्रवर्षाणि चएतदुभयोः संकलनया एकादशसहस्रवत्सरान् व्याप्य इत्यर्थः। राज्यम्=प्रजापालनविधानभारम् । उपासित्वा=परिपाल्यपालयित्वा । ब्रह्मलोकम्= वैकुण्ठलोकम्। प्रयास्यति=गमिष्यति।

भावार्थः-कौशल्यानन्दजनकः मर्यादापुरुषोत्तमः श्रीरामचन्द्रः एकादशसहस्र वत्सरपर्यन्तं राज्यं कृत्वा पश्चात् वैकुण्ठलोकं यास्यति।

हिन्दी शब्दार्थ - राम:- श्रीराम जी । दशवर्ष-सहस्राणि = दस हजार वर्षों तक । दशवर्ष-शतानि च = और दस सौ अर्थात् १ हजार वर्षों तक = कुल ११ हजार वर्षों तक । राज्यम् = भू-मण्डल के राज्य का उपासित्वा = सेवन करकेपरिपालन करके । ब्रह्मलोकम् = परब्रह्म-धाम की ओर। प्रयास्यति = प्रयाण करेंगेचले जाएँगे ।

हिन्दी भावार्थ  - (इस तरह प्रजा-वर्ग को आनन्दित करते हुए) श्रीराम जी ग्यारह हजार वर्षों तक (भूमण्डल पर ) राज्य करके परब्रह्म-धाम की ओर (स्या) प्रस्थान करेंगे।

व्याकरण

(क) कारक- कालाध्वनो- ' के नियमानुसार दशवर्ष-सहस्राणितथा 'दशवर्षशतानिमें द्वितीया हुई है  

(ख) समास - 

दशवर्ष-सहस्राणि = दश च तानि वर्षाणि तेषां सहस्राणि = तानि (द्वि० ०नपुंसकलिंग) । 

दशवर्षशतानि = दश व तानि वर्षाणि तेषां शतानितानि (नपुंसकलिंग द्वि०) 

ब्रह्मलोकम् = ब्रह्मणः लोकः तम् (पुल्लिँग द्वि० एकवचन) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

राज्यम् राम कम्म राज्यं तत् (राजन् + ध्यज् (कर्मणिनपुंसकलिंग द्वि० ए ० ) । उपासित्वा उप++ला। यहाँ 'उपउपसर्ग के कारण क्त्वाके स्थान पर '' होना चाहिएपर आर्य काव्य होने के कारण व्य का अभाव सहा है। प्रयास्यति प्र + √या + लृट् (प्रथमा, पु० ए० १०)। 

(क) अलंकार- अनुप्रासअतिशयोक्ति तथा उदात्त अलंकार है।

(ख) रस - शान्त रस है। अमानुषोचित आयु का वर्णन होने से अद्भुत रस भी है।

(ग) कोष- लोक- लोकस्तु भुवने जतेइत्यमरः (३१३१२) ।

ब्रह्म 'वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्मइत्यमरः (३।३।११४) ।

टिप्पणी- धीराम के विष्णु अवतार होने के कारण तथा बिगड़ी हुई विलास विकृत राज्य व्यवस्था को मर्यादित बनाने में समयाधिक्य की अपेक्षा होने के कारण एकादश सहस्र (११ हजार) वर्षों तक उनका शासन-काल आश्चर्यजनक होने पर भी असम्भव नहीं लगता है।

इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम् ।

यः पठेद्रामचरित्रं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥९८॥

अन्वयः-  वेदैः सम्मितम् पवित्रं पापघ्नं पुण्यं इदं रामचरितं  यः पठेद् (सः) सर्व-पापैः प्रमुच्यते ।

शब्दार्थ - यः=कश्चित् नरः। पवित्रम्=पूतम्देहमनःशुद्धिकरम् इत्यर्थः। पापघ्नम्=सकलकल्मषहरम्। पुण्यम्=श्रेयस्करम्। वेदैः च=श्रुतिभिः च। सम्मितम्= सदृशम्। इदम् = एतत् । रामचरितम् = रामचरितात्मकं रामायणम्। पठेत्=अभ्यस्येत्। (सः) सर्वपापैः=सकलदुष्कृतैः । प्रमुच्यते=मुक्तो भवति।

भावार्थ:- यः कश्चिदपि नरः पूतं सकलकल्मषहरं श्रेयस्करं श्रुतिभिः सदृशम् इदं रामचरितम् अभ्यस्येत् सः खलु सकलदुष्कृतैः मुक्तो भवति। अतएव सर्वैः रामचरितमेतत् नूनं श्रद्धया पठितव्यम् यतोहि इदं प्राणिनां कृते सर्वविधं कल्याणकरमस्ति।

हिन्दी शब्दार्थ - वेदैः सम्मितम् = वेदों के समान ।  पवित्रम् = निर्मल । पापघ्नं = पाप-विनाशक । पुण्यम् = पुण्यमय । इदम् = इस । रामचरितम् = श्रीराम की कथा को । यः पठेत् = जो पढ़े। सः = वह । सर्व- पापैः = समस्त पापों से । प्रमुच्यते = विमुक्त हो जाता है।

हिन्दी भावार्थ  - जो व्यक्ति वेदों के समान निर्मलपाप-विनाशक तथा पुण्य मय इस राम-कथा को पढ़ेवह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है अर्थात् वह भी पवित्र हो जाता है।

व्याकरण

(क) कारक- 'वेदैः सम्मितम्में 'तुल्यायेंरतुलोपमाभ्यां तृतीयाऽन्यतस् स्याम्इस सूत्र से 'वेदै:में तृतीया ज्ञातव्य है।

(ख) समास - पापघ्नम् = पापानि हन्तीति पापघ्नं तत् ( उपपद त०) । रामचरितम् = रामस्य चरितम् तत् (षष्ठी तत्पुरूष) । सर्व-पापः = सर्वाणि च तानि पापानितैः (कर्म ० ) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

पवित्रम् = √पूज् + इव पापघ्नम् - पापानि हन्ति इति तत् (द्वि० एकवचननपुंसकलिंग)पाप + √हन + टक् ('अमनुष्यकर्तृ के चइस सूख से) । 

सम्मितम् = सम् + √मा क्त (नपुंसकलिंग द्वि० एकवचन) । प्रमुच्यते = प्र + √ मुच् + वक् + लट् (प्रथमा, पु० एकवचन) । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास है। 

(ख) ध्वनि - भाव ध्वनि है।

(ग) कोष- 

पवित्र = पवित्रः प्रयतः पूतःइत्यमरः (२७१४५) । 

पुण्य = 'पुण्य-श्रेयसी सुकृतं वृष इत्यमरः (१।४।२४ ) । वेद - 'श्रुतिः स्त्री वेद आम्नायइत्यमरः (१।६।३) ।

टिप्पणी- वाल्मीकीय रामायण ही लौकिक संस्कृत साहित्य का आदि-काव्य है। इसके पूर्व तो वैदिक संस्कृत-बद्ध रचनायें ही रहीं। फलतः 'वेदों के समानकहने से लोगों में रामायण के प्रति भी वेदवत् समादर-भाव जागृत करना ही उद्देश्य है। 'दैः सम्भितम्'; 'पवित्र', 'पापघ्नतथा 'पुष्पं लगभग समानार्थ-बाही इन शब्दों से रामायण की अति पवित्रता व्यज्जित होती है।

एतदाख्यानमायुष्यं पठन् रामायणं नरः । 

सपुत्रपौत्रः सगणः प्रेत्य स्वर्गे महीयते ॥९९॥

अन्वयः- एतद् आयुष्यं रामायणम् आख्यानं पठन् नरः स-पुत्र-पौत्रः सगणः (च सन्) प्रेत्य स्वर्गे महीयते ।

शब्दार्थ - एतद्=इदम्। आयुष्यम्=आयुर्वृद्धिकरम्। रामायणम्=रामायणा ख्यम्। आख्यानम्=इतिहासम्। पठन्= अधीयानः । नरः= मनुष्यः। सपुत्रपौत्र:= पुत्रपौत्रसहितः। सगणः=अनुचरसमन्वितश्च । प्रेत्य=शरीरं त्यक्त्वा । स्वर्गे= सुरलोके। महीयते=पूजां लभते।

भावार्थ:- आयुर्वृद्धिकरम् इदं रामायणाख्यम् आख्यानम् अधीयानः नरः पुत्रपौत्रसहितः अनुचरसहितश्च इहलोके सर्वविधं समस्तं सुखं भुक्त्वा शरीरं त्यक्त्वा सुरलोके स्वर्गवासिभिः सत्कृतो भूत्वा तत्रत्यं सर्वविधं सुखं विन्दति।

हिन्दी शब्दार्थ - एतत् = इस । आयुष्यम् आयु बढ़ाने वाले । रामायणम् आख्यानम् = रामायण की कथा को । पठन् = पढ़ता हुआपढ़ने वाला । नरः = मनुष्य । प्रेत्य = मरने पर। स-पुत्र-पौत्र:= पुत्रों तथा पौत्रों के साथ । सगणः = अन्य अनुचरगणों के साथ । स्वर्गे = स्वर्ग लोक में । महीयते = पूजित होता हैसम्मानित होता है ।

हिन्दी भावार्थ  - इस आयुर्वर्धक रामायण कथा को पढ़ने वाला मनुष्य मृत्यु के बाद पुत्रों एवं पौतों के साथ तथा अन्य अनुचरगणों के साथ स्वर्ग-लोक में सम्मानित होता है ।

व्याकरण

(क) सन्धि- प्रेत्य = प्र + इत्य ( गुण सन्धि ) ।

(ख) समास - 

रामायणम् = रामस्य अयनं चरितं यस्मिन् तत् (द्वि० एकवचननपुंसकलिंग) बहुव्रीहि समास । 

सपुत्रपौत्रः = पुत्राश्च पौत्राश्च - पुत्र-पौत्राःतैः सहित: (सह) (द्वन्द्व-गर्भित बहुव्रीहि समास) । 

सगणः = गणैः सहितः (सह) (बहुव्रीहि समास) ।

(ग) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

आख्यानम् =आङ् + √ख्या + ल्युट् । 

आयुष्यम् = आयुषे हितम् आयुष्यम् = आयुष् + यत् ('तस्मै हितम्से) । 

पठन् = √पठ् + शतृ (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

प्रेत्य= प्र + √इण् + √ क्त्वा > ल्यप् । 

महीयते = महीङ् पूजायाम् (कण्ड्वादि० ) + लट्प्रथमा, पु० ए०व० । 

(क) अलंकार- 

अनुप्रास तथा उदात्त अलङ्कार है। 

(ख)  ध्वनि-भाव ध्वनि है । 

(ग) कोष- 

आयुः =' 'आयुर्जीवित कालो नाइत्यमरः २२८/१२० । 

स्वर्ग = 'स्वर्ग-नाक- त्रिदिव-त्रिदशालयाःइत्यमरः (१1१६) ।

टिप्पणी- आयुर्वधक तथा स्वर्ग-प्रद होने के कारण रामायण-काव्य की वेद तुल्यता तथा अलोकिता स्वतः प्रस्फुटित होती है। लोगों को रामायण के प्रति आकर्षितआवर्जित करने में समर्थ यह उक्ति एक 'प्ररोचनाहै। 

पठन्द्विजो वागृषभत्वमीयात्स्यात् 

     क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात् ।

वणिग्जनः पण्यफलत्वमीयात् 

     जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात् ॥१००॥

अन्वयः- (रामायण) पठन् द्विजः वागृषभत्वम् ईयात्क्षत्रियः (रामायणं पठन्) स्यात् (तदा) भूमिपतित्वम् ईयात् (रामायणं पठन्) वणिग्-जनः पण्य फलत्वम् ईयात् ।. (रामायणं पठ्न) शूद्रः जनः च अपि महत्त्वम् ईयात् ।

शब्दार्थ -  -(एतद्रामायणम्) पठन्=अधीयानः। द्विजः=ब्राह्मणः। वागृषभत्वम्= वाग्मिताम्। ईयात्=प्राप्नुयात्। क्षत्रियः= यदि क्षत्रियः। स्यात्=भवेत्। भूमिपतित्वम्= राज्यत्वम्। ईयात्= प्राप्नुयात्। वणिग्जनः= वैश्यः। पुण्यफलत्वम्=क्रयविक्रयकर्मणि वणिग्जनः=वैश्यः। सफलत्वम्। ईयात्=प्राप्नुयात्। शूद्रः जनः=चतुर्थवर्णस्थो जनः। च अपि=निश्चयेन। महत्त्वम् = गौरवम्। ईयात्=प्राप्नुयात् ।

भावार्थ:- ब्राह्मणः यदि इदं रामायणं पठेत् तदा सः वाग्मी भवेत्क्षत्रियो यदि एतत् रामायणं पठेत् तदा सः साम्राज्यं प्राप्नुयात्वैश्यः यदि पठेत् चेत् तदा सः व्यापारे बहुवित्तं प्राप्नुयात् शूद्रः जनश्च यदि इदं रामायणं पठेत् तदा सः खलु सर्वत्र सम्मानं प्राप्नुयात्।

हिन्दी शब्दार्थ - पठन् = पढ़ता हुआ द्विजः = ब्राह्मण वागृषभत्वम् = वाणी में उत्कृष्टताको वाक्पटुता को । ईयात् = प्राप्त होप्राप्त करे। स्यात् = यदि हो । भूमिपतित्वम् भूपतित्वभू-स्वामित्व वणिग्जनः = वैश्य-जन । पण्य-फलत्वम् = व्यापार-फल (आय) । महत्त्वम् = बड़प्पनगौरव ।

हिन्दी भावार्थ  - रामायण को पढ़ता हुआ ब्राह्मण वाक्पटुता को प्राप्त करेयदि इसे पढ़ने वाला क्षत्रिय हो तो वह भू-पतित्व (राज्य-सुख या भू-स्वामित्व) प्राप्त करें रामायण को पढ़ता हुआ वैश्य-जन व्यापार- फल ( लाभ) को प्राप्त करे तथा रामायण पढ़ने वाला शूद्र व्यक्ति भी (सामाजिक) गौरव प्राप्त करे।

व्याकरण

(क) सन्धि-

वागृषभत्वम् = वाक् + ऋषभत्वम् (जात्व) । 

वणिग्जनः = वणिक् + जन: ( जश्त्व० ) । 

जनश्च = जनः + च (विसर्ग०प्रचुत्व०) । 

शूद्रोऽपि शूद्रः + अपि (विसर्ग०पूर्वरूप०) । 

ईयाज्जनः = ईयात् + जनः (जश्त्व, श्चुत्व ) । 

(ख) धातु-प्रत्ययादि-पद परिचयः

पठन् = पठ् + शतृ (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

द्विजः = द्वाभ्यां जन्म-संस्काराभ्यां जायत इति द्विजः = द्वि + √जन् + (पुल्लिँग प्रथमा, एकवचन) । 

ईयात् = √इण् गतौ (अदादि०) + आशीलिङ् + प्रथमा,पू०ए०व० । 

पण्य = पण + यत् (अर्थिक) । 

महत्त्वम् = महत् + त्व (भावे)नपुंसकलिंग द्वि० एकवचन। 

वागृषभत्वम्वा =चि ऋषभः वागृषभःतस्य भावः तत्त्वं वागृषभत्वम्। 

भूमिपतित्वम् भूमेः पतिः भूमिपतिःतस्य भावः तत्त्वं भूमिपतित्वम् ।

(ख) समास - 

 पण्यफलत्वम्प =ण्यानां फलं (भावे ण्यतिपण्यं फलं यस्य इति वा) पण्यफलम्तस्य भावः तत्त्वं पण्यफलत्वम्। पणं मूल्यं तदर्हतीति पण्यं क्रयविक्रयार्ह वस्तु तदेव फलं लाभो यस्य स पण्यफलः तस्य भावः पण्यफलत्वम्। पणशब्दादर्हार्थे यत्प्रत्ययः। अवद्यपण्य” इत्यादिना पणतेर्यत्प्रत्ययान्तो निपातो वा। 

आर्षम् = ऋषिणा प्रोक्तम् आर्षम्। तेन प्रोक्तम्” इत्यण्।

(क) अलंकार- 

अनुप्रास अलङ्कार है।

(ख) ध्वनि - भाव ध्वनि व्यङ्ग्य है ।

 (ग) छन्द- इस श्लोक में उपजाति छन्द है। उपजाति छन्द का लक्षण-'स्यादिन्द्रवज्रा ततजास्ततोगौ उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ। अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजः पादा यदीयावुपजातयस्ताः।।

(ग) कोष- 

द्विज= 'दन्त विप्राण्डजा = द्विजाःइत्यमरः (३।३।३०) । 

वाक् - गीर्वाग् वाणी सरस्वतीइत्यमरः (91519) ऋथम 'स्युस्तरपदे व्याघ्र-पुङ्गवर्षभ-कुञ्जराः पुंसि 1 घेष्ठार्थ-गोचराः ॥इत्यमरः (३१५६) । 

पथ्य = 'विक्रेयं पणितव्यं च 1 पच्यम्इत्यमरः (२६८२) । 

पण - 'पणो द्यूतादिषूत्सृष्टे भृतौ मूल्ये धनेऽपि चइत्यमरः ।


१. अन्य धर्मों के अनुकूल फल को देखते हुए वैश्यों के लिए 'पुण्यके स्थान पर 'पथ्यका प्रयोग तर्क-संगत है ।

टिप्पणी- भगवान् राम चातुर्वर्ण्य के जनक और व्यवस्थापक दोनों हैं। ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त के मन्त्र 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्इत्यादि के अनुसार परमेश्वर के मुखबाहुयुगलऊरु-युगल तथा पाद-युगल से क्रमशः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य एवं शूद्र उद्भूत हुए। इसी वैदिक सत्य का अनुस्मरण गीता में कृष्ण भगवान् के श्रीमुख से मुस्पष्ट है-, 'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म-विभागशः ।उसी परमेश्वर के अवतार-स्वरूप श्रीराम अपने प्रशासन काल में चारों वर्णों के नियत कर्तव्य-कलापों के पालकप्रेरकअनुमोदकप्रोत्साहक तथा प्रवर्तक थे । अतः उनकी हृदय-ताप-हारिणी श्रुति-सुधा-वर्षिणी अभिराम राम कथा यदि चारों वर्णों की दूर कर दे व्यथातो इसमें वृथा आश्चर्य ही क्या है ! वेदों का पारायणअध्ययन-मनन-पाठन-वाचन भले ही कतिपय जनों के लिए दुष्करदुर्लभ रहा है— पर वेद-तुल्य तथा वेद की दुरूहता से दूर सुललितसर्व सुगमसर्वजन-ग्राह्य यह लोकप्रिय रामायण तो चातुर्वर्ण्य-चित्त-चन्द्रिका हैजो सञ्चित लोक-सन्ताप के प्रगाढ निगूढ ध्वान्त-पटल का निवारण कर ज्ञान का सुखद आलोक बिखेरती है । अन्तिम पद्य की फल-श्रुति यही मङ्गलमयी आशंसा करती है 'सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् ।

यह मूलरामायणम् वाल्मीकिरामायणम् के बालकाण्ड का प्रथम सर्ग है।

दण्डि के अनुसार काव्य तथा सर्ग का लक्षण-

नगरार्णवशैलर्तुचन्द्रार्कोदयवर्णनैः ।

उद्यानसलिलक्रीडामधुपानरतोत्सवैः ।।

विप्रलम्भैर्विवाहैश्च कुमारोदयवर्णनैः।

मन्त्रद्यूतप्रयाणाजिनायकाभ्युदयैरपि।।

अलङ्कृतिमसंक्षिप्तं रसभावनिरन्तरम्।

सगैरनतिविस्तीर्णैः श्राव्यवृत्तैः सुसन्धिभिः ।।

सर्वत्र भिन्नवृत्तान्तैरुपेतं लोकरञ्जनम्।

काव्यं कल्पान्तरस्थायि जायते सदलङ्कृतिः ॥

                             काव्यादर्श

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सङ्क्षिप्तरामायणं नाम प्रथमः सर्गः

 


[1] जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता

[2] सदैकप्रियदर्शनः

[3] पुत्रशोकातुरस्तदा

[4] ततोऽस्य

[5] मन्त्रिणस्तान्यदृच्छया

[6] नलः

[7] तमुवाच

[8] बहुवस्त्रसुवर्णकैः

9. मतिमान्कोऽनसूयकः

मूलरामायणम् प्रश्नोत्तरी

प्रश्नः 001. नारदः तपस्स्वाध्यायनिरतं नारदं किं पृष्टवान्

उत्तरम्- कोन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान् ।

धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः ।। २।।

चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः ।

विद्वान्कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः ।। ३।।

आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोऽनसूयकः ।

कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ।। ४।।

प्रश्नः 002. गूढजत्रुररन्दिमः इति कस्य विशेषणं ?

उत्तरम्- रामस्य विशेषणम् श्लोक सं- 10

प्रश्नः 003. रामः क्रोधे कीदृशः आसीत् ?

उत्तरम्- रामः क्रोधे कालाग्निसदृशः आसीत् । उत्तरम्- श्लोक सं- 18

प्रश्नः 004.कैकेयी किं दृष्ट्वा दशरथं वरं अयाचत ?

उत्तरम्- कैकेयी रामस्य अभिषेकसम्भारान् दृष्ट्वा दशरथं वरं अयाचत् – श्लोक सं- 21

प्रश्नः 005. कैकेयी दशरथं किं वरं अयाचत?

उत्तरम्- पूर्वंदत्तवरा कैकेयी रामस्य विवाशं भरतस्य च अभिषेचनं अयाचत् श्लोक सं -22

प्रश्नः 006. रामः कथं वनं जगाम?

उत्तरम्- कैकेय्याः प्रियकारणात्पितुर्वचननिर्देशात्प्रतिज्ञां अनुपालयन वन जगाम। -श्लोक सं- 24

प्रश्नः 007. रामस्य दयिता सीता कीदृशी आसीत् ?

उत्तरम्- सीता प्राणसमाहितः जनकस्य कुले जाता देव माया इव निर्मिता सर्वलक्षणसम्पन्नः आसीत् । -श्लोक सं- 27

प्रश्नः 008. चित्रकूटं अनुप्राप्य सीतारामलक्ष्मणः कथं न्यवसन् ?

उत्तरम्- चित्रकूटमनुप्राप्य सीतारामलक्ष्मणः भरद्वाजस्य शासनात् रम्यमावसथं कृत्वा देवगन्धर्वसङ्काशाः सुखं न्यवसन् । - श्लोक सं- 31-32

प्रश्नः 009. दशरथः कथं स्वर्गं जगाम ?

उत्तरम्- रामे चित्रकूटं गते पुत्रशोकातुरः विलपन् दशरथः स्वर्गं जगाम । - श्लोक सं- 32-33

प्रश्नः 010. भरतः तत्र प्राप्य रामं किं अयाचत्?

उत्तरम्- चित्रकूटं प्राप्य भरतः रामं अयाचत् यत् त्वमेव धर्मज्ञः राजा भव । - श्लोक सं- 35-36

प्रश्नः 011. भरतः कथं राज्यं अपालयत् ?

उत्तरम्- भरतः रामपादौ उपस्पृशन् नन्दिग्रामे वसन् रामागमनकाङ्क्षया राज्यं अकरोत् । - श्लोक सं- 38-39

प्रश्नः 012. महारण्यं प्रविश्य रामः किं कृतवान् ?

उत्तरम्- महारण्यं प्रविश्य रामः विराधं राक्षसं हतवान् । श्लोक सं- -41

प्रश्नः 013. तत्र रामः कस्य वचनात् इन्द्रस्य शरासनं जग्राह ?

उत्तरम्- तत्र रामः अगस्त्यवचनात् ऐन्द्रं शरासनं जग्राह । श्लोक सं- 42

प्रश्नः 014. तत्र वसता रामेण का विरूपिता ?

उत्तरम्- तत्र वसता रामेण जनस्थाननिवासिनी कामरूपिणी शूर्पणखा राक्षसी विरूपिता । श्लोक सं- 46

प्रश्नः 015. तस्मिन् वने वसता रामेण कति राक्षसाः निहता ?

उत्तरम्- वने निवसिता रामेण जनस्थानिवासिनाः चतुर्दशसहस्रसंख्यकाः राक्षसाः निहता । श्लोक सं- 48-49

प्रश्नः 016. रावणेन सीता कथं अपहृतः ?

उत्तरम्- रावणेन मायाविना मारीचेन रामलक्ष्मणौ उत्तरम्- नृपात्मजौ दूरमपवाह्य गृधं जटायुषं हत्वा सीता अपहृतः । श्लोक सं- 52-53

प्रश्नः 017. रामः पम्पातीरे केन सङ्गतः?

उत्तरम्- रामः पम्पातीरे हनुमता वानरेण सङ्गतः । श्लोक सं- 58

प्रश्नः 018. सुग्रीवः किं श्रुत्वा रामेण सख्यं चकार ?

उत्तरम्- सुग्रीवः आदितः सीतायाः च यथावृत्तं श्रुत्वा अग्निसाक्षिकं सख्यं चकार । श्लोक सं- 60-61

प्रश्नः 019. बालिवधं प्रति प्रतिज्ञातं रामं सुग्रीवः किं कथयामास ?

उत्तरम्- बालिवधं प्रति प्रतिज्ञातं रामं सुग्रीवः बालिनः बलं कथितवान् । श्लोक सं-62-63

प्रश्नः 020. सुग्रीवः रामं बालिनः बलं कथं कथयामास ?

उत्तरम्- सुग्रीवः रामं बालिनः बलं कथयामास यतो हि सः वीर्येण रामे शङ्कितः आसीत् ।

प्रश्नः 021. सुग्रीवेण दुन्दुभेः कायं दर्शितं महाबाहो रामः किं कृतवान् ?

उत्तरम्- सुग्रीवेण दर्शितं दुन्दुभेः कायं शरीरं दृष्ट्वा उत्तरम्- प्रेक्ष्य महाबाहो रामः उत्स्मयित्वा सम्पूर्णं दशयोजनं पादाङ्गुष्ठेन चिक्षेप । एकेन इषुना सप्ततालान् विभेद । श्लोक सं- 65-66

प्रश्नः 022.हरीश्वरः बालिः गुहातः कथं निर्जगाम?

उत्तरम्- हरिश्वरः बालिः सुग्रीवस्य महागर्जनं श्रुत्वा गुहातः निर्जगाम । श्लोक सं-68

प्रश्नः 023. बालिनं हत्वा रामः किं कृतवान्?

उत्तरम्- बालिनं हत्वा रामः तद्राज्ये सुग्रीवं प्रत्यपादयत् । श्लोक सं- 70

प्रश्नः 024. हनुमान कस्य वचनं श्रुत्वा कं पुप्लुवे ?

उत्तरम्- हनुमान गृध्रस्य वचनं श्रुत्वा शतयोजनविस्तीर्णं लवणार्णवं पुप्लुवे । श्लोक सं- 72

प्रश्नः 025. लङ्कां समासाद्य हनुमान किं ददर्श ?

उत्तरम्- लङ्कां समासाद्य हनुमान् अशोकवनिकां गतां ध्यायन्तीं सीतां ददर्श । श्लोक सं- 73

प्रश्नः 026. हनुमान् ग्रहणं कथं समुपागमत्?

उत्तरम्- हनुमान पञ्चसेनाग्रगान् हत्वा सप्त मन्त्रिसुतान् हत्वा शूरमक्षं च निष्पिष्य ग्रहणं समुपागमत् । श्लोक सं- 75

प्रश्नः 027. महाकपिः हनुमान किं कृत्वा पुनः आयात्?

उत्तरम्- महाकपिः हनुमान् सीतामृते लङ्कां पुरीं दग्ध्वा पुनः आयात । श्लोक सं- 77

प्रश्नः 028. रामं अभिगम्य हनुमान् किं न्यवेदयत्?

उत्तरम्- रामं अभिगम्य हनुमान् न्यवदेयत् तत्त्वतः मया सीता दृष्टा इति। श्लोक सं- 78

प्रश्नः 029. रामः कथं सेतुं अकारयत्?

उत्तरम्- रामः समुद्रवचनात् नलं सेतुं अकारयत् । श्लोक सं- 80

प्रश्नः 030.सीतामनुप्राप्य रामः कामुपागमत् ?

उत्तरम्- सीतामनुप्राप्य रामः व्रीडामुपागमत् । श्लोक सं- 81

प्रश्नः 031. जनसंसदि रामः सीतां कथमुवाच ?

उत्तरम्- जनसंसदि रामः सीतां परुषमुवाच । श्लोक सं- 82

प्रश्नः 032. सीता कुत्र विवेश ?

उत्तरम्- सीता ज्वलनं विवेश । श्लोक सं-82

प्रश्नः 033. कीदृशी सीता ज्वलनं विवेश ?

उत्तरम्- अमृष्यमाणा सीता ज्वलनं विवेश । श्लोक सं- 82

प्रश्नः 034.रामः सीतां विगतकल्मषां कथं ज्ञातवान् ?

उत्तरम्- रामः अग्निवचनात् सीतां विगतकल्मषां ज्ञातवान् । श्लोक सं- 83

प्रश्नः 035. रामः कथं प्रमुमोद ?

उत्तरम्- रामः लङ्कायां राक्षसेन्द्रं विभीषणं अभिषिच्य प्रमुमोद । श्लोक सं- 85

प्रश्नः 036. देवताभ्यो वरं प्राप्य रामः किं कृतवान् ?

उत्तरम्- देवताभ्यो वरं प्राप्य रामः अयोध्यां प्रस्थितवान् । श्लोक सं- 86

प्रश्नः 037. कीदृशः रामः अयोध्यां पुष्पकेण प्रस्थितः ?

उत्तरम्- सुहृद्वृतः रामः पुष्पकेण अयोध्यां प्रस्थितः । श्लोक सं- 86

प्रश्नः 038सत्यपराक्रमः रामः ततः कुत्र गतवान् ?

उत्तरम्- सत्यपराक्रमः रामः ततः भरद्वाजाश्रमं गतवान् । श्लोक सं- 87

प्रश्नः 039सः हनूमन्तं कुत्र व्यसर्जयत् ?

उत्तरम्- सः हनूमन्तं भरतस्यान्तिके व्यसर्जयत् । श्लोक सं- 87

प्रश्नः 040सः नन्दिग्रामं कथं गतवान् उत्तरम्- ययौ ?

उत्तरम्- सः सुग्रीवसहितः आख्यायिकां जल्पन् पुष्पकं आरुह्य नन्दिग्रामं ययौ । श्लोक सं- 88

प्रश्नः 041सीमामनुप्राप्य रामः किं अवाप्तवान् ?

उत्तरम्- सीतामनुप्राप्य रामः राज्यं पुनरवाप्तवान् । श्लोक सं- 89

प्रश्नः 042तस्य उत्तरम्- रामराज्ये राज्ये लोकः कथं भविष्यति ?

उत्तरम्- रामराज्ये लोकः तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः निरामयो ह्यरोगः दुर्भिक्षभयवर्जितश्च भविष्यति । श्लोक सं- 90

प्रश्नः 043रामराज्ये पुरुषाः किं न द्रक्ष्यन्ति ?

उत्तरम्- रामराज्ये पुरुषाः पुत्रमरणं न द्रक्ष्यन्ति । श्लोक सं- 91

प्रश्नः 044रामराज्ये नार्यः कीदृश्याः भविष्यन्ति ?

उत्तरम्- रामराज्ये नार्यः अविधवा पतिव्रताश्च भविष्यन्ति । श्लोक सं- 91

प्रश्नः 045मूलरामायणे कति श्लोकाः सन्ति ?

उत्तरम्- मूलरामायणे शतं श्लोकाः सन्ति।

प्रश्नः 046मूलरामायणस्य रचयिता कः ?

उत्तरम्- मूलरामायणस्य रचयिता वाल्मीकिः अस्ति ।

प्रश्नः 047मूलरामायणस्य नायकः कः ?

उत्तरम्- मूलरामायणस्य नायकः रामः ।

प्रश्नः 048अग्निजं भयं कुत्र/कदा नासीत् ?

उत्तरम्- अग्निजं भयं रामराज्ये न आसीत् । श्लोक सं-92

प्रश्नः 049जन्तवः कदा अप्सु न मज्जन्ति ?

उत्तरम्- जन्तवः रामराज्ये अप्सु न मज्जन्ति । श्लोक सं-92

प्रश्नः 050रामराज्ये कस्य कस्य भयं नासीत् ?

उत्तरम्- रामराज्ये अग्निजं वातजं ज्वरकृतं क्षुद्भयं तस्करभयं च नासीत् । श्लोक सं- 92-93

प्रश्नः 051रामराज्ये नगराणि राष्ट्राणि च कीदृशानि आसन् ?

उत्तरम्- रामराज्ये नगराणि राष्ट्राणि च धनधान्ययुतानि आसन् । श्लोक सं- 93

प्रश्नः 052रामराज्ये सर्वे कीदृशाः आसन् ?

उत्तरम्- रामराज्ये सर्वे यथा कृतयुगे तथा नित्यं प्रमुदिताः आसन् । श्लोक  सं-94

प्रश्नः 053रामः चातुर्वण्यं कथं नियोक्ष्यति ?

उत्तरम्- रामः चातुर्वण्यं स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति । श्लोक सं-96

प्रश्नः 054रामराज्यस्य कालः कति वर्षात्मकः प्रोक्तः ?

उत्तरम्- रामराज्यस्य कालः दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च इति प्रोक्तः । श्लोक सं-97

प्रश्नः 055सर्वपापैः कः प्रमुच्यते ?

उत्तरम्- यः पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्च सम्मितं रामचरित्रं पठेत् सः सर्वपापैः प्रमुच्यते । श्लोक सं.-98

प्रश्नः 056एतत् रामायणं पठन् नरः प्रेत्य क्व महीयते ?

उत्तरम्- एतत् रामायणं पठन् नरः सपुत्रपौत्रः सगणः स्वर्गे महीयते । श्लोक सं.-99

प्रश्नः 057द्विजः रामायणं पठन् कथं स्यात् ?

उत्तरम्- द्विजः रामायणं पठन् वागृषभत्वमीयात्/वाग्मीस्यात् । श्लोक सं.-100

प्रश्नः 058रामायणं पठन् क्षत्रियः कथं स्यात् ?

उत्तरम्- रामायणं पठित्वा क्षत्रियः भूमिपतिः स्यात् । श्लोक सं.-100

प्रश्नः 059पण्यफलत्वं कः ईयात् ?

उत्तरम्- रामायणं पठन् वणिग्जनः पण्यफलत्वं ईयात् । श्लोक सं.- 100

प्रश्नः 060.रामायण पठने शूद्रस्य अधिकारः अस्ति वा ?

उत्तरम्- आम् । रामायण पठने शूद्रस्य अधिकारः अस्ति । श्लोक सं-100

प्रश्नः 061रामायणः पठन् शूद्रः किं ईयात् ?

उत्तरम्- रामायणः पठन् शूद्र महत्वं ईयात् । श्लोक सं- 101

 


श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्

माधवयोगिविरचितया अमृतकतकाख्यव्याख्ययायुतम्

बालकाण्डः

प्रथमः सर्गः

तपस्स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् ।

नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुङ्गवम् ।। 1 ।।

अमृतकतकव्याख्या

कालहस्तीशमेकाम्रनाथं वेदगिरीश्वरम् ।

स्वमनःप्राणदेहान्तस्स्थितांस्त्रीन्ब्रह्मणो भजे ।।

हैरण्यगर्भं यत्तेजः श्रीप्रजेशावतारितम् ।

चतुर्मुखचतुर्व्यूहं त्रिपदार्थं सदा भजे ।।

अम्बात्र्यष्टाक्षरोल्लासत्र्यष्टश्लोकसहस्रकम् ।

महाषोढात्मकाण्डं यत् तद्रामायणमाद्रिये ।।

असङ्गतव्याकृतिपांसुपङ्किलं

रामायणं तीर्थसमुद्धृतामृतम् ।

योगीन्द्रवाणीकतकाद्विपङ्किलं

सर्वोपकारक्षममस्तु सर्वदा ।।

भो भोः किमिदं रामायणं व्याख्येयंउत नयदि प्रयोजनं व्याख्येयं यदि नोन व्याख्येयम् । प्रयोजनमप्यैहिकमामुष्मिकं वा स्यात् । न तु कृषिवाणिज्यसेवादिना धनधान्यादिवदैहिकं किञ्चित्प्रयोजनं रामायणपाठात्पश्यामः । नाप्यामुष्मिकं निरयं निस्तितीर्षुः स्वरारुक्षुर्मुमुक्षुर्वा रामायणमाम्नेयात् इति श्रुतिस्स्मृतिर्वा न ह्यस्तिपारलौकिके चार्थे त एव प्रमाणम् ।।

अपि च विशिष्यामुष्मिकश्रेयो ऽर्थिभिरिदमनादर्तव्यं काव्यत्वात् । "काव्यालापांश्च वर्जयेत्" इति स्मृतिघण्टाघोषः । काव्यता चास्याविवादा सर्वलोकस्य ।।

अत्रोच्यते-- यत्तावदवादि-- निष्प्रयोजनत्वतो न व्याख्येयमिति-- तदपेशलम् । एकभुक्तनियमेन गृहोचितब्रह्मचर्येण श्रवणकाले(षु) वीटीचर्वणासत्संभाषणसांसारिकव्यापारान्तरपरित्यागपूर्वं गन्धपुष्पादि पूजितरामायणार्थतत्त्वविन्निजाचार्यात्समग्रश्रद्धाभक्त्युपबृह्मिततया यथाविधि रामायणश्रवणतो मन्त्रायुर्वेदवदपरोक्षमेव सुपुत्रादिप्राप्तिमहारोगविमोचनादीष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरतिप्रसिद्धत्वात् ।।

 अपि च गृहक्षेत्रादिबलारोग्यादिबाह्यान्तरार्थसिद्धिद्वादशकोचितपल्लवैः तथा द्वेषभेदादिक्रियासिद्धिद्वाशकोचितपल्लवैश्च शास्त्रसिद्धैरुपेततया अम्बाया उपासने उक्तसिद्धीनां शास्त्रसिद्धत्वात् । अपरोक्षानुभवसिद्धत्वाच्च । अम्बाविलासभूतरामायणध्यानेनापि यथोक्तार्थसिद्धेर्न्यायप्राप्तत्वाच्च । कार्यभूतप्रकृतिरपि यथाकारणं यथाबलं तमोनिवृत्त्यादिप्रयोजनकरणम् ।।

यच्चावादि रामायणस्यामुष्मिकार्थसाधकत्वे प्रमाणाभाव इति-- तदप्यसुष्ठु । "इदं पवित्रं पापघ्नं" इत्यादि "जनश्च शूद्रो ऽपि महत्वमीयात्" इत्यन्तैः श्लोकैरामुष्मिकानिष्टपरिहारेष्टप्राप्तिप्रकाशनस्य यथोचितैहिकार्थसाधकत्वस्य च सुस्पष्टमत्रैव श्रूयमाणत्वात् । तथा "शृण्वन्रामायणं भक्त्या यः पादं पदमेव वा । स याति ब्रह्मणः स्थानं ब्रह्मणा पूज्यते सदा" इति शतकोटिप्रविस्तरब्राह्मालौकिकमूलरामायणवचनतो ब्रह्मलोकावाप्तेरतिप्रकाशत्वात् । तथा ग्रन्थान्तरे च सकलैहिकामुष्मिकफलसाधकत्वस्मरणाच्च ।।

न च स्वस्मिन् स्वयमेव प्रमाणमिति न युज्यत इति-- परमाप्तपरमर्षिप्रणीतत्वेन रामायणमात्रस्य प्रामाणिकत्वे सिद्धे स्वविषयकत्वे ऽन्यविषयकत्वे च तत्प्रतिपाद्यार्थस्य प्रमाणत्वात् । यथा सिद्धप्रामाण्यया श्रुत्या "वाचा विरूपनित्यया" "अनन्ता वै वेदाः" इत्यादिवाक्यैः प्रतिपाद्यमाने वेदनित्यत्वे भगवदहर्भेदवशात्तदुचितसन्निवेशविशेषं जानात्येवसैव प्रमाणम् ।।

अपि चाम्बया ब्रह्मानुसन्धानवशाद्ब्रह्मलोकावाप्तिवदम्बाविलासरामायणेन ब्रह्मलीलाविलासावतारवैभावानुसन्धानेन च विभूतिसंपत्तिरपि न्यायसिद्धा । "देवो भूत्वा देवानप्येति" तथा "देवान् देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि" इत्यादेश्च । ब्रह्मावतारो भगवान्राम इति च सुस्पष्टम् । प्रक्रमे पुत्रकामेष्टिना यज्ञेन सुप्रीतेन ब्रह्मणा स्वस्यैव तेजसः स्वीयपुरुषद्वारा प्रदापितस्याविर्भावितलीलाविग्रहत्वात् । अन्ते च "रामो राज्यमुपासित्वा ब्रह्मलोकं गमिष्यति" इति ब्रह्मलोकप्राप्तेश्च सुस्पष्टत्वात् । भगवतों ऽशावतारत्वस्य च स्वशक्त्यं शातिघोरांशस्य शक्तित्वाविशेषप्राप्तस्य शोधनेन दिव्यशक्तितासंपादनं प्रयोजनम् । देवीघोरांशं तच्छोधनं च संप्रदायविदो विदुः ।।

ननु किमस्ति यथाधीतमन्त्रस्य शोधनमपिकिं न शृणोषि? "अभि नो वीरो अर्वति क्षमेत । प्रजायेमहि रुद्र प्रजाभिः" इति यथाधीतमन्त्रस्य ब्राह्मणेन शोधनं क्रियते । "त्वं नो वीरो अर्वति क्षमेथा इति ब्रूयान्नाभि न इति । अनभिमानुको हैष देवः प्रजा भवति । प्रजायेमहि रुद्रिय प्रजाभिः इति ब्रूयान्न रुद्रेत्येतस्यैव नाम्नः परिहृत्यै" इत्याद्यम् । एवमेव श्रीमद्रहस्योपनिषदादौ शोधनादि । प्रयोजनाय शोधनाद्युपायोप्युदेति । ततो ऽस्ति । तत्र दशरथपुत्रप्रतिबन्धादिः प्रथमपादघोरांशकृतः । राज्यापहारवनवासादिः द्वितीयपादघोरांशकृतः । सीतापहारादिस्तृतीयपादघोरांशकृतः । किं बहुना सर्वमेव रामचरितं अस्मदादीनामम्बाक्षरार्थविद्योगिनामम्बाक्षरार्थसुप्रोतसुदर्शनं" आप्ततमशिष्याणां च । तत् स्थितं सार्थकत्वं व्याख्येयबीजम् ।।

यच्चावादि-- काव्यकृतेरनुपादेयतेति-- अत्र ब्रूमः-- उभयथा ऽस्ति काव्यशब्दः "कबृवर्णनस्तुत्योः" इत्यस्मादौणादिककिप्रत्ययजनितकविशब्दादुत्पन्नः चित्तविकृतिजनिद्वाराऽगम्य-गमनान्तमहानर्थहेतुयोषिदासवाद्यसद्विषयवर्णनासन्मनुष्यस्तुत्यादिप्रतिपादकग्रन्थसन्दर्भविशेषार्थक एकः काव्यशब्दः । अपरस्तु वारि वहतीति वलाहक इतिवत् "क्रान्तं वेत्तीति कविः" इत्यतीन्द्रियतत्त्वार्थविदः अनुग्रहाय तत्प्रवक्तारो व्यासादयः पृषोदरादिवत्साधुनानेन कविशब्देनोच्यन्ते । तस्येयं कृतिः कर्म काव्यमिति ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वात् कर्मणि ष्यञन्तः । तस्यास्य काव्यस्य चतुर्विधपुरुषार्थसाक्षात्साधनत्वेन सर्वप्रयत्नोपसङ्ग्राह्यत्वात् रामायणस्य तथात्वस्य प्रागेव प्रतिपादितत्वात् इतरकाव्यकोट्यनभिनिवेशः ।।

एवं विशिष्टविषयप्रयोजनवदिदं किमधिकारम्त्रैवर्णिकाधिकारम् । त्रिपदाविलासत्वात् ।।

ननु त्रैवर्णिकस्य स्वकुलदैवतब्रह्मानुसन्धानस्य स्वकुलविद्ययैव सिद्धत्वात् किमेतेनउच्यते-- पञ्चाङ्गसन्ध्यावन्दनाद्यनुष्ठानरहितेन त्रैवर्णिकेन अम्बया ब्रह्मशक्त्यनुसन्धानं प्रातर्मध्याह्नसन्ध्ययोश्चैव तयानुसन्धानं समस्तवैश्वदेवप्राणाग्निहोत्राद्यनन्तरं पुनस्सायंसन्ध्यावन्दनपर्यन्तमम्बया ब्रह्मानुसन्धान(योगात्)म् । तत्र च काले तेषां भगवदनुसन्धानप्रयोजनं च भवति । अतिमानुषभगवद्रामचन्द्रचरितश्रवणेन प्रत्यक्षसन्तोषभक्त्यतिशयपापक्षयादिश्च भवति । अपि चाम्बानधिकृतब्राह्मणीब्रह्मकुलदाससच्छूद्राणामपि पुण्यलोकादिप्राप्तिहेतुभगवच्छ्रवणं सप्रयोजनं भवति । तदपीहाङ्गीकृतमेव "जनश्च शूद्रो ऽपि महत्त्वमीयात्" इति । एवं चतुर्णामाश्रममात्राधिकारम्न सङ्कराधिकारम् अम्बासम्बन्धिसम्बन्धस्याप्यभावात् ।।

अथ काव्यविषयस्य रामचरितस्य काव्यस्य च प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावस्सम्बन्धः । उक्तप्रयोजनस्य काव्यस्य च साध्यसाधनभावस्सन्बन्धः । एवं समग्रप्रवृत्त्यंशोपेतं रामायणं व्याख्येयं प्रतिष्ठितम् ।।

अथादिकविर्वाल्मीकिर्दिव्यकाव्यकृतिशक्तये कृतकाष्ठसमाधिसाधितपरमादृष्टसुप्रीतभगवन्नियोगसमुपागतं देवर्षिं नारदं दिव्यं काव्यनायकं पृच्छति स्म । पृष्टस्स यथावद्भगवन्मुखश्रुतं तद्दिव्यकाव्यविषयं प्रपञ्चश्रुतं तदीयचरितञ्चानुस्मृत्य संक्षिप्योपदिश्य अथ सरहस्यो ऽशेषो ऽस्य विस्तरः स्वतः प्रतिभात्वित्यनुगृह्य यथागतं जगाम । ततस्तदनुग्रहस्मृतित्रिपदावलम्बनेन भगवत्प्रपञ्चितं रामचरितं सरहस्यं निरवशेषमनुस्मृत्य स्वयमपि त्रिपदावलम्बनेनैव चतुर्विंशतिसाहस्र्या समग्रहीत् ।।

तस्यास्य दिव्यकाव्यस्याद्यसर्गो वाल्मीकेर्नारदस्योपदेशः । तत्र च "नापृष्टः कस्य चिद्ब्रूयात्" इति न्यायेनापेक्षितप्रश्नाक्षेपः "तपस्स्वाध्यायेत्यादि "श्रुत्वा चैतत्" इत्यन्तो ग्रन्थः । अत्र-- तपस्त्वेन श्रुतः स्वाध्यायः तपस्स्वाध्यायः । श्रूयते च तथा-- "तप एव तत्तप्यते । तपो हि स्वाध्यायः" इति । उक्तश्रुत्यर्थसिद्धस्वाध्यायस्य तपस्त्वमापस्तम्बश्च स्मरति-- "तपस्स्वाध्याय इति ब्राह्मणम् । तत्र श्रूयते "तपो हि स्वाध्यायः" इति । स्वाध्यायश्चाप्रायत्यानध्ययनकालदेशादिपरिहारादिनियमोपेततया स्वशाखाध्ययनम् । तस्मिन्निरतः तदभ्यासनिरत इति यावत् । अत्र तपश्च स्वाध्यायश्च तपस्स्वाध्यायौ तयोर्निरत इति द्वन्द्वस्तूपेक्ष्यः । गौणतपोविशिष्टैकपरपुंविशेषप्रसिद्धमुनिपुङ्गवशब्देनैव तपस्सम्पत्तिमत्तायास्सिद्धत्वात् । अन्वयेन मृदुमतिसौकर्याय व्याकुर्मः । वाग्विदां स्वरूपतो ऽर्थतश्च शब्दब्रह्मतत्त्वविदां पाणिनिपतञ्जल्यादीनाम् । निर्धारणे षष्ठी । वरं-- तदन्यूनतया तत्त्वविदमिति यावत् । मुनिशब्दो व्याकृतार्थः । मुनिपुङ्गवमिति । "सप्तमी" इति योगविभागात्समासः । "न निर्धारणे" इति निषेधात् षष्ठीसमासो ऽशक्याश्रयः । पुमांश्चासौ गौश्च पुङ्गव इति, "गोरतद्धितलुकि" इति टप् समासान्तः । व्युत्पत्तिमात्रमिदं । श्रैष्ठ्ये रूढस्तु पुङ्गवशब्दः । एवंविशिष्टं नारदं । तपस्वी गौणमुख्यतपोयुक्तः । तत्र तप इति "तपो ना ऽनशनात्परम्" इति श्रूतेः कृच्छ्रचान्द्रायणैकादश्युपवासादिलक्षणं मुख्यतपः । "मनसश्चेन्द्रियाणाञ्च ह्यैकाग्र्यं परमं तपः" इत्यादिश्रुतं गौणम् । एवंभूतो वाल्मीकिः पप्रच्छेत्यन्वयः । अत्र प्रष्टुरुक्तविशेषणेन दिव्यकाव्यविषयादिश्रवणाधिकारसम्पत्तिर्द्योतिता । वक्तुरप्युक्तविशेषणैः क्रमात्प्रतिपादनापेक्षितं सर्वज्ञत्वं वाग्मित्वं च प्रतिपादितम् । ग्रहणधारणसिद्धिहेतुशिष्यानुग्रहशक्तिमत्वं च प्रतिपादितम् ।। 1.1.1 ।।

को न्वस्मिन् सांप्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान् ।

धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः ।। 2 ।।

किं पप्रच्छेत्यतः प्रश्नाभिनयः-- को न्वस्मिन्नित्यादि । नुशब्दो वितर्के । सांप्रतं संप्रतिपर्यायं स्वरादित्वादव्ययं । वर्तमानकाले ऽस्मिन् लोके भूलक्षणे को नु गुणवान्भूमप्रशंसादौ मतुप् । सहजनित्यानन्द(नित्य)कल्याणगुणवान् को नु दिव्यः पुरुषःअस्यैव प्रपञ्चः कश्च वीर्यवानित्यादि । दिव्यास्त्रबलादिजः शक्तिविशेषो वीर्यम् । वीर्यवदिदमौषधमित्यादौ शक्तिविशेषे सुप्रसिद्धो वीर्यशब्दः । सकृद्व्याकृतश्शब्दः पुनर्न व्याख्यायते ग्रन्थगौरवात् । अतस्तत्र सा व्याकृतिर्हृदि धार्या । धर्मज्ञश्च श्रौतस्मार्तसकलधर्मरहस्यज्ञश्च । बह्वीमप्यपकृतिमुपेक्ष्य एकामप्युपकृतिं बह्वीयसीं मन्यत इति कृतज्ञः । सत्यवाक्यः यथाश्रुतदृष्टार्थवक्ता । दृढव्रतः आपद्यपि धर्माय परिगृहीतव्रतविशेषशैथिल्यरहितः ।। 1.1.2 ।।

चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः ।

विद्वान् कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः ।। 3 ।।

"अर्तिलू" इत्यादिना इत्रप्रत्ययान्तो वृत्तसंपत्तिवाची चरित्रशब्दः । तस्माद्वायसादिवत्स्वार्थिको ऽण् । तेन को युक्तःसर्वभूतेषु सर्वप्राणिषु । "यतश्च निर्धारणम्" इति सप्तमी । कः प्राणी पुमान् हितः-- सर्वस्मै हितः । ऐहिकामुष्मिकहितावहः । तथात्वं च भगवत एव समस्ति यतो रावणस्यापि परलोकहितमवाक्षीत् । कश्चिदिह सर्वप्राणिष्वपि हितकरणशील इति हितशब्दयोगमावृत्तसर्वभूतशब्दस्याह-- तदसत्-- हितयोगे चतुर्थ्या भाव्यत्वात् । को विद्वान् आत्मानात्मसकलपदार्थतत्त्वज्ञः । "विदेश्शतुर्वसुः" । सामर्थ्यं-- लौकिकव्यवहारे प्रजारञ्जनादौ चातुर्यंतद्वान् । अतिकामसौन्दर्यतो नित्यसौमुख्यतश्च एकरूपतया प्रियं दर्शनं यस्य स तथा । एकं प्रति प्रियं दर्शनं यस्यासौ एकप्रियदर्शन इति कश्चित् । तेनानेन किं प्राशस्त्यं प्रतिपादितं स्वदासादिकमेकं मुक्त्वा सर्वाप्रियत्वस्य प्रतिपादनात् ।। 1.1.3 ।।

आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान् को ऽनसूयकः ।

कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ।। 4 ।।

आत्मवान् वशी जितान्तःकरणः । क्रोधः त्रिविधजिघांसा । जितक्रोधः त्रिविधजिघांसा विहितापि व्यर्थहिंसाप्रसङ्गरहित इति यावत् । द्युतिः सर्वलोकदिदृक्षाजननी देहसौन्दर्यकान्तिविशेषलहरी तद्वान् । अनसूयकः विद्यौन्नत्यादिपरौन्नत्यासहनमसूयातद्रहित इति यावत् । असु उपतापे इत्यस्मात्कण्वादियगन्तात् ण्वुलि अनसूयक इति । संयुगे यथाप्राप्तयुद्धकाले जातरोषस्य कस्य रोषद्दोवा अपि इन्द्रादयो ऽपि बिभ्यति । अभ्यस्तत्वाददादेशः । अविषयानस्मानपि भगवत्क्रोधस्संहरिष्यतीति भयं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । एवं पाङ्क्ते मार्गे स्थिते-- कस्येति षष्ठी ऋषिवचनत्वादित्याह कश्चित् ।। 1.1.4 ।।

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे ।

महर्षे त्वं समर्थो ऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम् ।। 5 ।।

उक्तगुणजातसामान्यनिर्देशापेक्षया एतदिति नपुंसकम् । यदेतदुपन्यस्तं तदेतद्दिव्यपुरुषगुणजातं त्वेतादृशस्यास्तीति श्रोतुमहमिच्छामि । उक्तगुणसामग्र्या एकत्रातिदुर्लभत्वात्तादृशविशेषजिज्ञासायां मे परं-- सर्वस्मादपि कौतूहलान्तरादुत्कटं कौतूहलं वर्तते एवं पाङ्क्ते एवमितिपाठः सम्यगिति कश्चित् । ननु कथं त्वत्पृष्टस्सर्वो मया शक्यप्रत्युत्तर इत्यतो महर्ष इत्यादि । हे महर्षे अपरोक्षातीन्द्रियाशेषार्थ इदं हेतुगर्भविशेषणम् । हि यस्मात् त्वमेवंविधं यथोक्तकल्याणगुणाकरं नरं दिव्यपुरुषं ज्ञातुं समर्थो ऽसि सर्वलोकप्रसिद्धसामर्थ्यो ऽसि तस्मात्त्वत्त एव श्रोतुमिच्छामीति पूर्वेणान्वयः ।। 1.1.5 ।।

श्रुत्वा चैतत् त्रिलोकज्ञो वाल्मीकेर्नारदो वचः ।श्रूयतामिति चामन्त्र्य प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत् ।। 6 ।।

श्रुत्वेति ।। त्रिलोकज्ञः भूर्भुवः स्वर्लोकलक्षणांस्त्रीन् लोकान् तत्रत्यवृत्तान्तांश्च जानातीति तथा । एवमत्र समाहारद्विगुत्वाभावान्न ङीप् । नारदो वाल्मीकेः एतत् यथोक्तरूपं वचः श्रुत्वा श्रूयतामिति चामन्त्र्य सम्बोध्य स्वरहस्यस्य चिरप्रतिपिपादयिषितस्य प्रतिपादनलाभेन प्रहृष्टो भूत्वा वक्ष्यमाणलक्षणं वाक्यमब्रवीत् । अत्र कूजन्तमित्यादिपुराणपाठीयान् श्लोकानपि व्याकुर्वन् तत्र वाल्मीकिशब्दो ऽपत्यार्थे ऽपि साधुःगहादिपाठादित्याह । तदेतद्गहादिपाठस्य वाल्मीकिशब्दो ऽपि छप्रत्ययप्रकृतिरित्येतावन्मात्रसमर्थत्वेन तदीयव्युत्पत्तिविशेषे औदासीन्यात् । कथं तर्हि तस्य साधुताबाह्वादीञन्तत्वादेव । कथं बाह्वादिपाठस्य नकारान्तता उपपद्यतेइञन्तत्वात् । क्वचित् "अत इञ्" अपवादापवादार्थत्वात् । सुमित्रादौ प्रत्ययान्तरबाधनार्थत्वात् । गणत्वेन क्वचिदनपत्यार्थे ऽपीञन्तत्वाच्च । यद्वा ऽयमप्यपत्यार्थेञन्तः । कथंवल्मीकगर्भान्निर्गतत्वोपाधिना वल्मीकापत्यत्वस्य गोणीपुत्रः कलशीसुत इत्यादिवत्सुवचत्वात् । यद्वा वल्मीको नाम कश्चिदृषिः तस्यापत्यमिति वा । यद्वा दाडिमादिवदव्युत्पन्नः केवलसञ्ज्ञाशब्दः । यद्वा दैवगत्या किञ्चिदवयवव्युत्पत्तेश्च सत्वात्पङ्कजादिवद्योगरूढो वा ।। 1.1.6 ।।

बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः ।

मुने वक्ष्याम्यहं बुध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः ।। 7 ।।

त्वया ये बहवो गुणाः कीर्तिताःत एते प्राकृतपुरुषमात्रे दुर्लभा एव । अथ च अथापि हे मुने यस्तैर्युक्तः तं बुध्वा स्मृत्वा ऽहं वक्ष्यामि । तादृशो नरः श्रूयताम् । प्राप्तकाले लोट् । तस्य श्रवणं ते प्राप्तकालमित्यर्थः ।। 1.1.7 ।।

इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः ।नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान् वशी ।8।

इक्ष्वाकुवंशात्प्रभवः आविर्भावो यस्य स तथा । रामो नाम राम इति प्रसिद्धः जनैश्च तथा श्रुतो ऽस्ति कश्चित् । तस्मिन्नेवैकत्र सर्वे त्वत्पृष्टा गुणा इति शेषः । त एते गुणाः त्वदपृष्टानेकगुणाश्चअनन्तकल्याणालयत्वं रामस्य द्योतयितुं प्रतिपाद्यन्ते-- नियतेत्यादि । नियतात्मा निगृहीतान्तःकरणः । वीर्यादिकं व्याकृतम् । आपत्सम्पदोरविकृतिश्चित्तस्य धृतिः तद्वान् । वशी जिताशेषबहिःकरणः ।। 1.1.8 ।।

बुद्धिमान् नीतिमान् वाग्मी श्रीमान् शत्रुनिबर्हणः ।विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनुः ।।9।।

बुद्धिः तत्त्वज्ञानसाधनं सत्त्वप्रधानमन्तःकरणम् । सर्वत्रात्र प्रशंसादौ यथायोगं मतुप् । बुद्धेः प्राशस्त्यं सकृद्गृहीताविस्मरणावापोद्वापादिशक्तिमत्त्वम् । नीतिः कामन्दकादिप्रसिद्धराजनीतिः । वाग्मी "वाचो ग्मिनिः" प्रशस्तवाक् । त्रिलोकशेखरीभूतनिजशासन इति यावत् । श्रीमान् शोभैश्वर्योभयप्रकारनिस्तुलाधिकश्रीयुक्तः । शत्रुनिबर्हणः शत्रूणां बाह्यान्तराणां यथाकालं यथोचितं निबर्हणः । "कृत्यलुटो बहुलम्" इति कर्तरि ल्युट् । धातूनामनेकार्थत्वान्निपूर्वो ब्रूहिर्हिंसार्थः । विपुलांस इत्यादिना सामुद्रिकं लक्षणं कथ्यते । इदमपृष्टगुणकथनम् । विपुलः विशालः उत्कृष्टः उन्नतः असः भुजशिरो यस्य स तथा । "स्कन्धो भुजशिरों ऽसौ ऽस्त्री" इति निघण्टुः । तदुन्नतत्वं सुलक्षणम् । तथाऽऽह वररुचिः—

"कक्षः कुक्षिश्च वक्षश्च घ्राणः स्कन्धो ललाटिका ।सर्वभूतेषु निर्दिष्टा उन्नतास्तु सुखप्रदाः ।।"

इति । महाबाहुः । "आन्महत" इत्यात्वम् । तत् ब्रह्मत्वलक्षणम् । तथा हि--

"शिरो ललाटश्रवणे ग्रीवा वक्षश्च हृत्तथा ।

उदरं पाणिपादौ च पृष्ठं दश बृहत्सुखम् ।।"

इति ब्राह्मे । कम्बुवद्रेखात्रयविशिष्टा ग्रीवा यस्य स तथा । कम्बुः शङ्खः । हनुः कपोलोपरिभागः । तस्य महत्त्वं मांसलत्वम् । तच्च लक्षणम्-- "पूर्णमांसलहनुस्तु भूमिपः" इति संहितायाम् ।। 1.1.9 ।।

महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिन्दमः ।

आजानुबाहुस्सुशिरास्सुललाटस्सुविक्रमः ।। 10 ।।

महत् विशालं उरः यस्य स तथा । "उरः प्रभृतीनि" इति नित्यः कप् । "उरश्शिरो ललाटश्च" इत्यारभ्य "विशालास्ते सुखप्रदाः" इति शास्त्रम् । महेष्वासः महान् इष्वासः घनुरस्य । अस्यतेः करणे घञ् । गूढे मांसलत्वान्मग्ने जत्रुणी वक्षांससन्धिगतास्थिनी यस्य स तथा । अरीन् पापान्तरायादिलक्षणान्निजभक्तानां दमयतीति अरिन्दमः । "सञ्ज्ञायां भृतृ৷৷." इत्यादिना दमेः खच् । अरिन्दम इति राज्ञो ऽन्वर्थसञ्ज्ञा । शत्रुञ्जयो हस्तीत्यादिवत् । आजानुबाहुः जानुपर्यन्तदीर्घबाहुः । "दीर्घभ्रूबाहुमुष्कश्च चिरञ्जीवी धनी नरः" इति ब्राह्मे । शिरसस्सुष्ठुत्वं समवृत्तत्वम् । तच्च लक्षणम् ।

"समवृत्तशिराश्चैव छत्राकारशिरास्तथा ।

एकछत्रां महीं भुङ्क्ते दीर्घमायुश्च विन्दति ।।"

इति नारदः । सुललाटः ललाटस्य रेखाविशेषवत्वं सौष्ठवम् । तच्च लक्षणम्--

"ललाटे यस्य दृश्यन्ते चतुस्त्रिद्व्येकरेखकाः ।

शतद्वयं शत षष्टिस्तस्यायुर्विंशतिस्तथा" । ।

इति कात्यायनः । विक्रमः पदविक्षेपः तस्य सौष्ठवं गम्भीरत्वम् । तच्च लक्षणं--

"स्वरो गतिश्च नाभिश्च गम्भीरः स प्रशस्यते" इति ब्राह्मे ।। 1.1.10 ।।

समः समविभक्ताङ्गः स्निग्धवर्णः प्रतापवान् ।

पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवान् शुभलक्षणः ।। 11 ।।

समः नातिदीर्घो नातिह्रस्वः । "षण्णवत्यङ्गुलोत्सेधो यः पुमान् स दिवौकसाम्" इति ब्राह्मे । अंश इति शेषः । समानि अन्यूनानधिकपरिमाणानि विभक्तानि पृथक्कृतानि अंगानि यस्य स तथा । कानि पुनस्तानि?

"भ्रुवौ नासापुटे नेत्रे कर्णावोष्ठौ च चूचुकौ ।

कूर्परौ मणिबन्धौ च जानुनी वृषणे कटी ।

करौ पादौ स्फिजौ यस्य समौ ज्ञेयस्स भूपतिः"

इत्युक्तानि । स्निग्धवर्णः स्निग्धश्यामलवर्ण इति यावत् । तत्फलं "स्निग्धेन्द्रनीलवर्णस्तु भोगं विन्दति फुष्कलम्" इति । प्रतापः स्मृतिमात्रतः अरिहृदयविदारणक्षमं पौरुषम् । "प्रतापौ पौरुषातपौ" इति निघण्टुः । पीनवक्षाः मांसलसमोन्नतवक्षाः । तादृशवक्षस्त्वस्य सुलक्षणत्वं प्रागेवोक्तम् । "प्यायः पी" "ओदितश्च" इति निष्ठानत्वम् । विशालाक्षः विस्तृतायताक्षः । "बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः" इति वच् । "नासिका चक्षुषी कर्णौ प्रजानू यस्य चायताः" इति लक्षणशास्त्रम् । लक्ष्मीवान् सीतारूपलक्ष्मीशक्तिमान् । मोपघत्वाद्वत्वम् । एवमुक्तनित्यशुभानि सामुद्रिकशास्त्रोक्तानि लक्षणानि यस्य स तथा ।। 1.1.11 ।।

धर्मज्ञस्सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः ।

यशस्वी ज्ञानसंपन्नः शुचिर्वश्यस्समाधिमान् ।। 12 ।।

धर्मज्ञकृतज्ञौ व्याकृतौ । सत्याः अमोघाः सन्धाः-- "सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम" इत्येवामादिरूपिण्यः प्रतिज्ञाः यस्य स तथा । प्रजानामित्यादि गतार्थम् । यशस्वी रावणवधादाचन्द्रतारकानस्तमितदिव्ययशस्सम्पन्नः । असन्ततत्वादिनिः । ज्ञानसंपन्नः विशिष्य ब्रह्मानन्यताज्ञानपरिपूर्णः । तथा हि विशिष्य ब्रह्मदर्शनमूलं वचनं जटायुषं प्रति "मया त्वं समनुज्ञातो गच्छ लोकाननुत्तमान्" इति । येभ्य उत्तमा न विद्यन्ते ते अनुत्तमाः ब्रह्मलोका इति यावत् । तथा च श्रुतिः "अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषु" इति । ननु कथं "आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्" इति रामवचनम्ब्रह्मज्ञानवत्वे का द्रुष्टिः । मानुषदेहोपाधिवशात् यदा रजस्तमस उद्रेकस्तदा ऽसमाधिदशायां निजतत्वविस्मरणं स्यात् स्वप्ननिद्रयोरिव । तथा हि गीयते-- " न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः । सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः" इति । एवं सति उक्तकादाचित्कमानुषभावस्य अभावप्रतिपादनवृथाक्लेशः कस्यचित्केवलं श्राद्धः । तच्चासत्-- सीताविरहजप्रलापादीनां सर्वथैवामानुषभावे ऽतिदुर्घटत्वात् । यथोक्तब्रह्मज्ञानसंभवाय त्रीणि विशेषणानि-- शुचिरित्यादीनि । प्रातस्स्नानादिपूर्वकगायत्रीजपादिना रेचकपूरकाभ्यासादिना प्रत्याहारजनितरागद्वेषहानेन च नित्यशुद्धस्थूलसूक्ष्मान्तरपरिकरत्रयः । वश्यः-- वशंगत इति यावत् । अकृतकानन्यतायोगेन ब्रह्मतावशं गतः । समाधिमान्-- यथेच्छं साकारनिराकारनिजब्रह्मतत्त्वसमाधिमान् । समा एकीभूता या परेण ब्रह्मणा चित्तस्य आधिः धारणं समाधिः । निवातनिश्चलदीपवच्चित्तस्य लक्ष्याचलस्थितिरिति यावत् । अत्र वश्य इति आश्रितपरतन्त्र इति समाधिमान् प्रतिज्ञावान् इति चाह कश्चित् । तदसत् । सत्यसन्ध इति प्रतिज्ञावत्वस्य गतत्वाच्च । आश्रितपारतन्त्रस्यानुग्राहकत्वमात्रतात्पर्यतः पारतन्त्र्यस्य मिथ्यात्वाच्च ।। 1.1.12 ।।

प्रजापतिसमः श्रीमान् धाता रिपुनिषूदनः ।

रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता । । 13।।

प्रजापतिसमः । यद्यपि प्रजापतिसमविष्णुभूमिविराट्प्रधानब्रह्मावतारो रामो भगवान् प्रजापतिर्ब्रह्मैव-- अथापि मानुषवैराजलोकदेहावतारोपाधितस्तदुपाधिसंसर्गजानां धर्माणां सीतामूलमोहशोकादीनां "इमौ तौ मुनिशार्दूल किङ्करौ समुपस्थितौ" इत्यादिपारतन्त्र्यादीनां आदेहपातमुपाधिप्रयुक्ताशेषनिजनित्यकर्मणां च क्रियतां अब्रह्मधर्माणामसमाधिकालेष्वनुवर्तनादस्त्येव चोभयोर्भेदः । अथापि भार्गवलोकप्रतिबन्धजटायुलोकप्रदानविभीषणशाश्वतराज्यप्रदानहनूमदाकल्पनित्यत्वभाविकार्यब्रह्मत्वदानसमुद्रसेतुबन्धनस्वावतारानुयायिस्वभूमविग्रहसर्वदेवावतार (पूर्व) सर्वसेव्यत्वसशरीरसपरिकरब्रह्मलोकनिर्याणान्तानां वयमस्मद्देहानामिव स्वकभूमाविग्रहब्रह्माण्डयात्रादिस्वतन्त्रब्रह्मैकसाध्यानां भूयसां ब्रह्मधर्माणां रामोपाधावपि लोकस्य ब्रह्मावतारताप्रत्यायनायाविर्भावितत्वाद्वा ब्रह्मसमत्वम् । नैवं धर्माः कृष्णाद्यवतारे ऽपि । स तु प्रजापतिविष्णुप्रधानः । तथैव तेनैव भगवतोपदिष्टम्-- "महर्षयस्सप्त पूर्वे चत्वारः" इत्यादिना गीतायाम् । श्रीमान् एवमादीनां भगवत्कल्याणगुणानामादरातिशयजपौनःपुन्यकीर्तनमभ्युदयहेतुतो ऽलङ्काराय न दोषगन्धाय । अतः परं व्याकृतपदमतिस्पष्टं पाङ्क्तान्वयश्च न दोषगन्धाय । अतः परं व्याकृतपदमतिस्पष्टं पाङ्क्तान्वयश्च त्यज्यते । धाता योगरूढ्या । तथा हि-- "रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसेइति (च) ब्रह्मत्वादिदानीमौपाधिरामविग्रहेणापि पितेव सर्वप्रजाधारणाच्च । रिपुनिषूदन इति । "नन्द्यादिभ्यो ण्यन्तेभ्यस्सञ्ज्ञायाम्" इति वचनात् एवमादौ वा सञ्ज्ञायाम् । तथा हि रिपुं निषूदयतीति रिपुनिषूदन इत्यण्यन्तात्कर्तरि नन्द्यादिल्योरयोगात् "कृत्यलुटो बहुलम्" इत्येव सर्वतो ल्युट् द्रष्टव्यम् । सुषामादित्वात् इह षत्वम् । जीवा ऊर्ध्वस्रोतोलक्षणाः-- तेषां लोकः समूहः-- तस्य अन्नपानादिदानचोराद्युपद्रवत्राणादितः स्थूलदेहरक्षिता । धर्मः श्रौतस्मार्तरूपः । तस्य जीवलोकस्य यो नित्यप्राप्तो वर्णाश्रमधर्मः तस्य तत्तन्मर्यादापालनद्वारा रक्षिता ।। 1.1.13 ।। 

रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता ।

वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः ।। 14 ।।

न केवलं तस्य अपि तु स्वस्य-- स्वीयस्य "अध्ययनमध्यापनं यज्ञो याजनं दानं प्रतिग्रहणं दायाद्यं सिलोञ्छः । (आप. धर्मसू.2.20.4) अन्यच्चापरिगृहीतम् (5) । एतान्येवं क्षत्रियस्याध्यापनयाजनप्रतिग्रहणानीति परिहाप्य दण्डयुद्धादिकानि (6)" इत्युपदिष्टस्वधर्मस्य च रक्षिता सादरं सदानुष्ठाता । अपि च स्वजनस्य बन्धुजनस्य स्वभक्तजनस्य च विशिष्य रक्षिता । तथा हि "राजवंशान् शतगुणान् स्थापयिष्यति राघवः" इतितथा "सकृदेव प्रपन्नाय" इत्यादिकं च । वेदानां चतुर्णां छन्दःकल्पव्याकरणज्योतिषनिरुक्तशीक्षालक्षणवेदाङ्गानां च पाठतो ऽर्थतश्च तत्त्वज्ञः परमार्थस्वरूपज्ञः । धनुर्वेदः धनुषो हस्तमुष्टिस्थितिविशेषाकर्षणविमोकादिदिव्यास्त्रादिप्रतिपादकं शास्त्रं तस्य च वेदत्वमुक्तार्थशासनोपचारात् । अत एवान्यत्रापि आयुर्वेदादीनि सव्याख्यानि शास्त्राणि स्मृतयश्च सूत्राण्यपि तत्त्वार्थशास्त्रेणोपचाराच्छास्त्राणि ।। 1.1.14 ।।

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान् प्रतिभानवान् ।

सर्वलोकप्रियस्साधुरदीनात्मा विचक्षणः ।। 15 ।।

सर्वमूलशब्दशासनाद्व्याकरणं च महाशास्त्रंतथैव कामन्दकादीन्यपि शास्त्रशब्दकानिसर्वेषामेषामर्थतत्त्वज्ञः । पाठस्य नातिप्रयोजनत्वादर्थविशेषणम् । स्मृतिमान् उक्ताधीतवेदशास्त्रविस्मरणरहितः । प्रतिभानवान् व्यवहारकाले श्रुतस्याश्रुतस्य चोचितार्थस्य द्राक्प्रतिभासः प्रतिभा प्रतिभानं तद्वान् । सर्वलोकप्रियः स्वद्रष्टृस्मर्तृसर्वलोकानामिहामुत्र हितावहः । सर्वलोकानां प्रियं यस्मादित्यन्यपदार्थो बहुव्रीहिर्वा । साधुः मृदुमधुरशुभस्वभावः । इदं पूर्वोक्तविशेषणसाधकं विशेषणम् । यद्येवं साधुद्विजवद्दीनस्वभावस्यादित्यत्रोक्तम् अदीनात्मेति ।

 

"शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।।" (गी. 1843)

 

इति सहजासाधारणक्षात्रभावेनातिधीरमहाप्रभुस्वभाव एव भवति । अत्र अपकारिष्वपि साधुत्वात्साधुरित्यादिकमसंगतमेवमादौ कश्चिज्जल्पति । तदसंगतमिति सन्तस्समवेदिषीरन् । तदतःपरमतिविरलं तादृशकश्मलप्रजल्पः प्रकाश्यते । विचक्षणः यथोचितं लौकिकालौकिकसर्वार्थकृतिकुशलः ।। 1.1.15 ।।

सर्वदा ऽभिगतस्सद्भिस्समुद्र इव सिन्धुभिः ।

आर्यस्सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शनः ।। 16 ।।

होमदेवपूजासभाधिष्ठानादिकालेषुकामन्दकादिना, (राज्ञा) विमुक्तेषु सर्वेष्वपि तत्तत्कालोचितैस्सद्भिः पुरोहितविद्वन्मन्त्रिप्रधानादिभिश्च "यथा राजा तथा प्रजाः" इति न्यायेन सात्विकस्वभावैःसमुद्रस्तत्तत्प्रदेशे तत्तत्सिन्धुभिरिवाभिगतः सेवितः । आर्यः सार्वभौमत्वादेव सर्वपूज्यः । सर्वसमः सर्वेष्वपि कर्मायत्तद्वन्द्वमात्रेषु सुखदुःखादिषु हर्षविषादरहितः । शत्रुमित्रोदासीनेषु वैषम्यरहित इत्यन्यः । किमयं रामः परिव्राट्येन तथा स्यात् ।। 1.1.16 ।।

स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः ।

समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ।। 17 ।।

स रामः एवं क्षत्रियमात्रसामान्यप्राप्तैः सर्वैर्गुणैरुपेतः । चकाराद्वक्ष्यमाणराज्याभिषेकार्हक्षत्रियगुणैश्चोपेतः । कोसलस्यापत्यं स्त्री कौसल्या । "वृद्धेत् कोसल৷৷." इति ञ्यङ् । "यङश्चाप्" । तस्या आनन्दं सुतत्वाद्वर्धयतीति कौसल्यानन्दवर्धनः । एतेन महाकुलप्रसूतप्रधानमहिषीसुतत्वरूपस्य साक्षादभिषेकापेक्षितधर्मस्य सत्त्वं भगवति दर्शितम् । वक्ष्यमाणास्तु सर्वे ऽभिषिषिक्षिते सर्वथा ऽपेक्षितधर्मत्वे स्पष्टाः । गाम्भीर्यं-- अगाधाशयत्वं तत्र समुद्रतुल्यः । संयुगे सर्वसेनापलायने ऽपि स्वयमचलतयावस्थानं धैर्यम् । राजप्रधानं इष्टवियोगादावनतिक्षुभितचित्तत्वं सर्वासाधारणं धैर्यम् । तत्रोभयत्र हिमवत्तुल्यः । अत्र रामस्य सीतावियोगे शोकात् प्रलापदोषमाशंक्य तदभावं समर्थयति कश्चित् । एवमादिरसङ्गतः प्रत्यक्षवचनविरुद्धो भाक्तः प्रलापः पृष्ठीकार्य इति प्रोगेवोक्तम् । उपाधिगतधर्माणां तु संसर्गस्य यावद्देहपातमवर्ज्यत्वात् । अपि तु परमात्मकुलपरमकल्याणगुणपरमपतिव्रताया मातुः सीताया वियोगे यदि शोकं प्रलापं च न कुर्यात् तदा शुभाशुभोचितव्यवहाररहितपिशाचतुल्य एव रामः स्यात् । अतस्तत्कालशोकादिकमुक्तं पुरुषोचितमेवेति नायं दोषः ।। 1.1.17 ।।

विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः ।

कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः ।। 18 ।।

वीर्यं व्याकृतम् तत्र विष्णुना तुल्यः । अनुग्रहप्रधानो विराड्विष्णुःस्वप्रधानो विराट् प्रजापतिः । प्रजापतिरेव विष्णुः विष्णुरेव प्रजापतिः भेदव्यवहारस्तूपाधिमात्रात् । अयमर्थः श्रीमद्ब्रह्मसिद्धान्तप्रकरणे बहुग्रन्थविस्तृत इति नेह शक्यप्रपञ्चनः । यद्यप्ययमेव रामो विष्णुः प्रजापतिः । तथापि मानुषोपाधिभेदात् सादृश्यम् । एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् । सोमवत् प्रियदर्शनः-- सभायां प्रजाव्यवहारनिरीक्षणकाले । कालाग्निसदृशः क्रोधे युद्धादिकाले । शक्यप्रतिक्रियापकारसहिष्णुता क्षमातया अन्वितत्वे पृथिवीतुल्यः । पृथिवी हि माता सर्वस्रोतसामनन्यगतिकत्वात् तत्प्राप्ताघं क्षमते ।। 1.1.18 ।।

धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः ।

धनत्यागे यज्ञदानादिरूपधर्मार्थवित्तव्ययविषये अपेक्षितधनसंपत्तौ धनदेन नवनिधीशेन समः । अस्मिन्नेवांशे अयं दृष्टान्तः न तु त्यागांशे । स तु यक्षगणैः सर्वतः सर्वेषामपि निधीनपहृत्य नित्यं निजनिधीनेव केवलं पूरयति । धनदव्यवहारस्तु भगवदाज्ञया भगवदवयववस्वदितिदशगणेभ्यो यावद्भगवदाज्ञं ददाति । नान्येभ्यः काचमात्रमपि । सत्यं व्याकृतम्तत्रापरो धर्म इव । धर्मस्य मूर्त्यन्तरमिवेति यावत् ।। 1.1.19 ।।

तमेवंगुणसंपन्नं रामं सत्यपराक्रमम् ।। 19 ।।

ज्येष्ठं श्रेष्ठगुणैर्युक्तं प्रियं दशरथस्सुतम् ।

प्रकृतीनां हितैर्युक्तं प्रकृतिप्रियकाम्यया ।। 20 ।।

यौवराज्येन संयोक्तुमैच्छत्प्रीत्या महीपतिः ।

"तमेवंगुणसंपन्नम्" इत्यारभ्यायोध्याकाण्डीयः सङ्क्षेपः । अतः प्रागुक्तश्लोकैरेव यथाकथञ्चित् बालकाण्डीयो ऽर्थः भगवदवतारादिः सूचितो वेदितव्यः । तत्र इक्ष्वाकुवंशप्रभव इत्यनेन विश्वामित्रानुग्रहजदिव्यास्त्रसंपत्त्यादिः ताटकावधयज्ञशत्रुनिबर्हणान्तो व्यापारः सूचितः । अथ "विपुलांसः" इत्यादि "लक्ष्मीवान्" इत्यन्ते यौवनदशावर्तिसीतापरिणयादिसङ्क्षेपः । सत्यपराक्रम इत्यनेन सत्यलोकवर्तिसत्याख्यलोकेशश्रीहिरण्यगर्भभावेन स्वीयेन भार्गवलोकप्रतिबन्धान्तव्यापारः सङ्क्षिप्तो वेदितव्यः । अथ एवंगुणसंपन्नम् प्रागुक्तनित्यासाधारणकल्याणगुणसंपन्नम् पश्चादुक्तरीत्या श्रेष्ठगुणैः यौवराज्यसार्वभौमपदाभिषेकार्हविशिष्टगुणैश्च युक्तम् सत्यपराक्रमं सत्यपरिपालनबलात् प्रवर्तमानः सत्यः अमोघः पराक्रमः परेषां शत्रूणां आक्रमः अभिभवः यस्य स तथा । प्रकृतीनां मन्त्रिपुरोहिताद्यष्टादशप्रकृतीनांहितैः इहामुत्रहितावहैः कर्मभिर्युक्तं श्रेष्ठं सुतं तं रामं प्रकृतिप्रियकाम्यया प्रागुक्तप्रकृतीनां मन्त्रिपुरोहिताद्यष्टादशानां प्रियं कर्तुमिच्छया । यद्यपि आत्मन इच्छायां काम्यजपि क्कचित्अथापि "छन्दसि परेच्छायामपि काम्यज्वक्तव्यः" इति वचनात् आर्षस्यापि छन्दोवद्भावात् काम्यच् । ततः "अ प्रत्ययात्" इत्यकारे स्त्रीप्रत्यये टेर्लोपे टाप् । युवा चासौ राजा च युवराजःतस्य भावः कर्म वाब्राह्मणादित्वात् ष्यञ्यौवराज्यं तेन संयोक्तुं महीपतिः दशरथःप्रीत्या यौवराज्यपदार्हपुत्रानुभवजनितानन्देन ऐच्छत् । सश्वेतच्छत्रे भद्रासने पितरि स्थिते तदतिरिक्तसर्वव्यापारे अभिषेकपूर्वकमधिकृतो युवराजः ।। 1.1.20 ।।

तस्याभिषेकसंभारान् दृष्ट्वा भार्या ऽथ कैकयी ।। 21 ।।

पूर्वं दत्तवरा देवी वरमेनमयाचत ।

अथ तस्य रामस्ययौवराज्याभिषेकापेक्षितान् संभारान्-- "औदुम्बरी आसन्दीतस्यैव प्रादेशमात्राः पादाः स्युः" इत्यादितः तथा "दधिमधुसर्पिरातपवर्ष्या आपः" इत्यन्ततः बह्वृचब्राह्मणेनोपदिश्यमानान् संभृतान्दृष्ट्वा मन्थरावाक्यात् अवगत्य राज्ञः कनीयसी भार्यापूर्वं विभक्तिप्रतिरूपकमव्ययम् । "कालाध्वनोः" इति तृतीयेति कश्चित् । न हि इह अत्यन्तसंयोगं मासमधीत इतिवत् पश्यामः । पूर्वं-- पूर्वस्मिन् इन्द्रसहायार्थप्रवृत्तदशरथयुद्धकाले दशरथोपरि प्रयुक्तां आसुरीं मायां धवलाङ्गमुनिदत्तविद्यया निवारयन्त्यै कैकेय्यै तुष्टेन दशरथेनदत्तवरा-- दत्तौ वरौ यस्यै सा तथादेवी कृताभिषेका कैकयी-- केकयस्य अपत्यं स्त्री, "क्षत्रियसमानशब्दात् जनपदात् तस्य राजन्यपत्यवत्इत्यञि जनपदे लुप् । "केकयमित्रयुइत्यादिना यादेरियादेशे गुणे चादिवृद्धौ "टिढ्ढाणञ्৷৷." इत्यादिना ङीपि "यस्य--" इति लोपे कैकेयीति भवति । अत्र "अपि माषं मषं कुर्यात् छन्दोभङ्गं न कारयेत्" इति न्यायेन कैकयी इति प्रयोगः । एनं वक्ष्यमाणलक्षणं वरं-- पूर्वदत्तं प्राप्तकालत्वादयाचत दशरथंद्विकर्मकत्वात् याचेः ।। 1.1.21 ।।

विवासनं च रामस्य भरतस्याभिषेचनम् ।। 22 ।।

किं तत् वरद्वयमित्यतः-- विवासनमित्यादि । निजराज्यात् रामस्य उद्वासनं तत्र भरतस्य अभिषेचनं च अयाचत ।। 1.1.22 ।।

स सत्यवचनाद्राजा धर्मपाशेन संयतः ।

विवासयामास सुतं रामं दशरथः प्रियम् ।। 23 ।।

सत्यवचनात् सत्यप्रतिज्ञत्वादेव हेतोः सत्यमयेन धर्मपाशेन संयतः-- बद्धस्सन् दशरथः प्रियं सुतमपि विवासयामास ।। 1.1.23 ।।

स जगाम वनं वीरः प्रतिज्ञामनुपालयन् ।

पितुर्वचननिर्देशात् कैकेय्याः प्रियकारणात् ।। 24 ।।

वीरत्वं-- एकेन अनेकैरपराङ्मुखतया धैर्यममुक्त्वा शोभामुखतया योद्धृत्वं वीरत्वम् । स रामः पितुः प्रतिज्ञां स्वविवासनेन सत्यतयानुपालयन् । "लक्षणहेत्वोः" इति हेतौ शतृपत्ययः । तत एव हेतोर्वनं जगाम । न केवलं स्वेच्छयाअपि तु पितृवचनकृतनिर्देशात्-- आज्ञातः । अपि च कैकेय्या मातुश्च प्रियकारणात्-- प्रियसिद्धिनिमित्तमपीत्यर्थः । एतेन मातापितृसन्तोषणमेव सर्वात्मना पुत्रस्य परमो धर्म इति सर्वजगतां भगवता रामेणोपदिष्टं भवति ।। 1.1.24 ।। 

तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता लक्ष्मणो ऽनुजगाम ह ।

स्नेहाद्विनयसम्पन्नः सुमित्रानन्दवर्धनः ।। 25 ।।

भ्रातरं दयितो भ्रातुः सौभ्रात्रमनुदर्शनयन् ।

व्रजन्तं भ्रातरं प्रियः-- अर्श आद्यच् । रामे सुहृत्प्रीतिमान् भ्राता रामस्य स्वयं दयितः विनयसंपन्नः सुमित्रानन्दवर्धनो लक्ष्मणो भ्राता चसौभ्रात्रं-- "हायनान्तयुवादिभ्यो ऽण्" इत्यण् । सुभ्रातृभावं अनुदर्शयन्स्नेहात् भ्रातृस्नेहादेव जगाम न पित्रादिनिर्देशात् ।। 1.1.25 ।।

रामस्य दयिता भार्या नित्यं प्राणसमा हिता ।। 26 ।।

जनकस्य कुले जाता देवमायेव निर्मिता ।

सर्वलक्षणसम्पन्ना नारीणामुत्तमा वधूः ।। 27 ।।

सीताप्यनुगता रामं शशिनं रोहिणी यथा ।

अथ रामस्य दयिता इष्टाभार्यान केवलमिष्टामात्रं-- अपि तु प्राणसमा । निरतिशयप्रेमास्पदा नित्यं हितकारिणी च । जनकस्य निमिपुत्रस्य कुले अन्वये जाता । यद्यप्ययोनिजा सीताअथापि जनककुलजस्य सीरध्वजस्य देवयजनलांगलपद्धतावाविर्भूतत्वादेवंवादः । कथमेवं प्रादुर्भाव इत्यतो देवमायेव अचिन्त्योदयस्थितितया देवैरेव स्वकार्यसिद्धिकाङ्क्षिभिराविर्भाविता । यथा देव्या उदयस्तथा तल्लयोप्यचिन्त्यः । तथा भर्तृवियुक्तया बहुकालं स्थितिश्चाचिन्त्यहेतुका । यद्वा इवशब्द एवार्थः । सा देवेन भगवता स्रष्ट्रा देवकार्याय निर्मिता देवमायैव । "दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया" (गी.714) इति गीता । भगवतो ऽनाद्यनन्ता सहजा शक्तिरेवन केवलं या काचित् द्वौपद्यादिवदयोनिजा स्त्रीति मातुस्त्वात्यन्तिकस्वकुलकथनम् । तिलोत्तमादिवद्देवमायेव स्थितेत्यन्यः । एवमर्थे निर्मितापदं व्यर्थम् । पुंलक्षणै रामवत् सर्वस्त्रीलक्षणसम्पन्ना । पुरुषेषु रामवन्नारीणामुत्तमा वधूः स्त्री सीता-- "सीता लाङ्गलपद्धतिः" तदुत्थत्वात्सीता । शशिनं रोहिणी यथा राममनुगता ।। 1.1.26,27 ।।

पौरैरनुगतो दूरं पित्रा दशरथेन च ।। 28 ।।

शृङ्गबेरपुरे सूतं गङ्गाकूले व्यसर्जयत् ।

गुहमासाद्य धर्मात्मा निषादाधिपतिं प्रियम् ।। 29 ।।

गुहेन सहितो रामो लक्ष्मणेन च सीतया ।

अथ रामः पौरैः पित्रा दशरथेन च दूरमनुगतः गङ्गाकूले वर्तमानं निषादाधिपतिं प्रियं-- इष्टं गुहमासाद्य-- गृहादिभिः सहितो रामः आगङ्गं रथेनागतरामविसर्जनार्थमागतं सूतं गङ्गाकूले व्यसर्जयत् ।। 1.1.28,29 ।।

ते वनेन वनं गत्वा नदीस्तीर्त्वा बहूदकाः ।। 30 ।।

चित्रकूटमनुप्राप्य भरद्वाजस्य शासनात् ।

रम्यमावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रयः ।। 31 ।।

देवगन्धर्वसङ्काशास्तत्र ते न्यवसन् सुखम् ।

अथ ते सीतारामलक्ष्मणा वनेन पुरोवर्तिवनप्राप्तिद्वारेण वनं-- अपरं वनं गत्वा वनमिति जात्या बहूदका नदीश्च तीर्त्वा "श्र्युकः किति" इतीण्निषेधः । अनु पश्चात् चित्रकूटं प्राप्य भरद्वाजस्य शासनात् तत्र रम्यमावसथं पर्णशालां कृत्वा तत्र रममाणाः देवगन्धर्वसङ्काशाः ते त्रय वने सुखं न्यवसन् ।। 1.1.30,31 ।।

चित्रकूटं गते रामे पुत्रशोकातुरस्तदा ।। 32 ।।

राजा दशरथः स्वर्गं जगाम विलपन् सुतम् ।

चित्रेत्यादि ।। रामे चित्रकूटं गते सति तदा पुत्रशोकातुरो दशरथो राजा सुतं स्मृत्वा विलपन् परिदेवनं कुर्वन्नेव तद्दुःखवशात्स्वर्गं जगाम ।। 1.1.32 ।।

गते तु तस्मिन् भरतो वसिष्ठप्रमुखैर्द्विजैः ।। 33 ।।

नियुज्यमानो राज्याय नैच्छद्राज्यं महाबलः ।

तस्मिन् दशरथे गते मृते भरतस्तु वसिष्ठप्रमुखैर्द्विजैस्त्रैवर्णिकैस्सह मन्त्रिवृद्धैः राज्याय नियुज्यमानो महाबलः-- राज्यं कर्तुं समर्थो ऽपि सौभ्रात्राद्राज्यं नैच्छत् । राज्यायेति "तुमर्थाच्च" इत्यादिना चतुर्थी ।। 1.1.33 ।।

स जगाम वनं वीरो रामपादप्रसादकः ।। 34 ।।

वीरो व्याकृतः । स भरतो रामपादप्रसादकः "तुमुण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम्" इति ण्वुल् । पादशब्दः पूज्यवाची । पूज्यं रामं प्रसादयितुं जगाम ।। 1.1.34 ।।

गत्वा तु स महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् ।

अयाचत् भ्रातरं राममार्यभावपुरस्कृतः ।। 35 ।।

स भरतो महात्मानं-- सत्यप्रतिज्ञत्वाद्यनेकधर्मैर्महान् वैभववान् आत्मा यस्य तं सत्यपराक्रमं भ्रातरं रामं गत्वा-- आर्यभावपुरस्कृतः-- विनीतवेषपुरस्कृतस्सन् "आर्यो हृद्यो विनीतश्च" इति निघण्टुः । तं रामं राज्याय प्रतिनिवर्तितुमयाचत् । याचिर्द्विकर्मकः ।। 1.1.35 ।।

त्वमेव राजा धर्मज्ञ इति रामं वचो ऽब्रवीत् ।

ननु कथं मे प्रतिनिवृत्तिः । पितृमातृदत्तराज्यं त्वमेव किलार्हसीत्यत्राह-- त्वमेव राजेति ।। ननु कथमेवमवधारणमित्यत्राह-- धर्मज्ञ इति । ज्येष्ठे श्रेष्ठगुणैर्युक्ते कनीयान् राज्यं नार्हतीत्यनादिप्रवाहसिद्धिं धर्मं त्वमेव जानासि । अतः प्रतिनिवर्तितव्यमेव इति न्यायमार्गोपेतं वचो रामं प्रत्यब्रवीत् ।।

रामोऽपि परमोदारः सुमुखस्सुमहायशाः ।। 36 ।।

न चैच्छत्पितुरादेशाद्रामो राज्यं महाबलः ।

न च राज्यमैच्छत्तदा ।। वनवासक्षोदक्षममहत्तरसहजकायबलवान्रामो ऽपि राज्यं नैच्छत् । कुत इत्यतो हेतुचतुष्टयं-- परमोदार इत्यादि । स्वसुखानादरेणाविगीतस्वसुखसाधनस्य परस्मै त्यागस्त्वौदार्यम् । एवं परमोदारत्वाद्राज्यसुखं बालो भरत एव भुङ्क्तामित्युपैक्षिष्ट । सुमुखः । भगवतो रामस्य राज्ये वने वा पादसंवाहनादिसकलबाह्यशुश्रूषायै लक्ष्मण एव । ऐहिकसकलसुखभोगाय राज्ये वने वा ऽविशेषेण लोकमाता सीतैव । राज्ये तु प्रजाकार्यनिरीक्षणदुःखमभ्यधिकम् । वने तु तदभावः योगजसन्तोषश्चाधिकः । अतो राज्याद्वनमेव नः परमं सुखं दैवगत्या लब्धमिति धिया राज्यादपि वने ऽम्लानाभ्यधिकमुखप्रसादयुक्तः । अत उपेक्षिष्ट । सुमहायशाः-- मुहुः प्राप्तमपि राज्यं पितुः परलोकहेतुसत्यपरिपालनाय रामो न स्वीकरोतीति सुमहति यशस्यपेक्षा यस्य स तथा । अत उदासि । अथ परमो हेतुः-- पितुरादेशादिति । पितुः-- चतुर्दशसमा वनवासनियोगस्य परिपालनाद्धेतोः नैच्छत् ।। 1.1.36 ।।

पादुके चास्य राज्याय न्यासं दत्त्वा पुनःपुनः ।। 37 ।।

निवर्तयामास ततो भरतं भरताग्रजः ।।

यद्येवं राज्यनाशप्रसङ्गः तत्रोच्यते पादुक इत्यादि । चो हेतौ । दत्त्वेति । दाञ् धातोरनेकार्थत्वात् कृतौ । एवं प्रतिनिवृत्तिं याचमानस्यास्य भरतस्य राज्याय राज्यरक्षणसिद्धये इमे अहल्यादौ दृष्टशक्तिकाचिन्त्यवैभवभगवत्पादस्पृष्टे पादुके एवालंअतस्तयोर्न्यासं समर्पणं राज्यरक्षार्थं कृत्वा तत एव हेतोर्भरताग्रजो रामश्चतुर्दशसमानन्तरमेव वा सर्वथा प्रतिनिवर्तितव्यमिति तामेव च प्रतिनिवृत्तिं पुनः पुनर्याचमानं भरतं तदभ्युगमेन च निवर्तयामास । कश्चित्तु राज्याय राज्यं कर्तुं पादुके न्यासं दत्त्वेत्ययूयुजत् । अनेन न्यासो निक्षेपो यथा तथा दत्त्वेति वक्तव्यत्वतो न्यासस्य क्रियाविशेषत्वेन क्रियान्तर्भावात् पादुकयोरेव ददाति कर्मत्वात् तेनेदमर्थाभिप्रायस्य स्पष्टत्वात् सर्वथा चतुर्थ्या भाव्यत्वेन षष्ठ्योगः । न च न्यासमिति पदेन स्वत्वनिवृत्त्यभावात् संप्रदानाभाव इति ऋणं यज्ञदत्ताय दत्त्वेत्यादौ चतुर्थ्यभावप्रसङ्गात् । अपि च राज्याय पादुके दत्त्वेत्येतावतैव तदपेक्षितार्थसिद्धेर्न्यास इति पदं सर्वथा व्यर्थम् । न्यासतया स्वत्वनिवृत्तिमकृत्वैव दानं च पादुकयो रामस्यावश्यकं किल । यतः प्रत्यावृत्त्यनन्तरं सार्वभौमस्य ते दुर्लभे एवमादिदुर्योजनकठिनस्थले इदमेवास्य व्याख्यानंत्यागो वा । तथा ऽग्रे ऽपि द्रष्टव्यम् ।। 1.1.37 ।।

स काममनवाप्यैव रामपादावुपस्पृशन् ।। 38 ।।

नन्दिग्रामे ऽकरोद्राज्यं रामागमनकाङ्क्षया ।

स भरत इदानीं रामप्रतिनिवृत्तिरूपं काममनवाप्यैव रामपादावुपस्पृशन् नमस्कुर्वन् पश्चान्नमस्कृत्य प्रतिनिवृत्तो नन्दिग्रामे स्थित्वा रामः प्रतिज्ञातसमयानन्तरं राज्यायागमिष्यतीति रामागमनगतया ऽ ऽकाङ्क्षया पादुकां पुरस्कृत्य राज्यमकरोत् राज्यरक्षां कृतवान् ।। 1.1.38 ।।

गते तु भरते श्रीमान् सत्यसन्धो जितेन्द्रियः ।। 39 ।।

रामस्तु पुनरालक्ष्य नागरस्य जनस्य च ।

तत्रागमनमेकाग्रो दण्डकान् प्रविवेश ह ।। 40 ।।

गत इत्यादि । श्रीमत्त्वादिविशिष्टो रामस्तु अत्यासत्त्या नागरस्य मन्त्रिवृद्धादिपौरजनस्य सौभ्रात्रादिदिदृक्षया पुनर्भरतस्य च तत्र चित्रकूटे आगमनं तत्संभावनां आलक्ष्य पर्यालोच्य तेषां प्रतिनिवर्तनप्रयासाद्वरमितो ऽपि किञ्चिद्दूरदेशगमनमिति सञ्चिन्त्य दण्डकारण्यानां रक्षश्चोरादिभूयिष्ठत्वात् एकाग्रः-- सज्जो भूत्वा दण्डकान् दण्डो नाम राजा तस्य निवासो जनपदः । "तस्य निवासः" इत्यणो "जनपदे लुप्" इति प्राग्दीव्यतीयाणो लुपि दण्डः । जनपदस्तु शुक्रशापेन वनतां प्राप्तःअतः कुत्सायां कन् । अवान्तरबहुवचनत्वाद्दण्डकानिति । प्रविवेश ह । हेत्यैतिह्ये प्रसिद्धौ ।। 1.1.39,40 ।।

प्रविश्य तु महारण्यं रामो राजीवलोचनः ।

विराधं राक्षसं हत्वा शरभङ्गं ददर्श ह ।। 41 ।।

प्रविश्येति ।। महच्च तदरण्यं च महारण्यम् । राजीवं पद्मम् । शरभङ्गाद्या ऋषयः । चापीत्यादि निपातमुच्चयः पद्यपूरकः क्वचित्क्वचित् । इहापि पद्यपूरकः ।। 1.1.41 ।।

सुतीक्ष्णं चाप्यगस्त्यं च अगस्त्यभ्रातरं तथा ।

अगस्त्यवचनाच्चैव जग्राहैन्द्रं शरासनम् ।। 42 ।।

खड्गं च परमप्रीतस्तूणी चाक्षयसायकौ ।

इध्मवाहननामा ऽगस्त्यभ्राता । दिव्यं धनुरादिकं कार्याय प्रतिगृहाणेत्येवंरूपादगस्त्यवचनात् । ऐन्द्रं-- इन्द्रादगस्त्य आगतं शरासनम् । इदमिहानुसन्धेयम्-- पूर्वं भार्गवं जित्वा ततः प्राप्तं यद्वैष्णवं धनुर्भगवता वरुणे न्यस्तम्तदिन्द्रेण वरुणादाहृत्यागस्त्ये स्थापितं रामाय दातुम् । तथा खड्गादिकं च द्रष्टव्यम् । किमर्थमेवं कल्पनाउच्यते-- आरण्ये अगस्त्येनोच्यते--

 

"इदं दिव्यं महच्चापं हेमरत्नविभूषितम् ।

वैष्णवं पुरुषव्याघ्र निर्मितं विश्वकर्मणा ।।

अमोघः सूर्यसङ्काशो ब्रह्मदत्तश्शरोत्तमः ।

दत्तो मम महेन्द्रेण तूणी चाक्षयसायकौ ।।

तद्धनुस्तौ च तूणीरौ शरं खड्गं च मानद ।

जयाय प्रतिगृह्णीष्व वज्रं वज्रधरो यथा ।।"

 

इति स्वेन दीयमानधनुषो ऽगस्त्येन वैष्णवत्वप्रतिपादनात् । तूणी चेति चकारेण धनुषो ऽपि महेन्द्रदत्तत्वप्रतिपादनं तत्र । यद्वा इन्द्रः परमेश्वरो विष्णुः तस्येदमैन्द्रम् । अनुरूपायुधलाभात्परमप्रीतः । अक्षयाः सायका ययोस्तौ तथा ।। 1.1.42 ।।

वसतस्तस्य रामस्य वने वनचरैस्सह ।। 43 ।।

ऋषयो ऽभ्यागमन् सर्वे वधायासुररक्षसाम् ।

वनचरैः वानप्रस्थमुनिभिस्सह तस्मिन् वने वसतस्तस्य रामस्यान्तिकं असुररक्षसां असुराः कबन्धादयःरक्षांसि खरादयः तेषां वधाय वधं प्रार्थयितुं "क्रियार्थोपपदस्य--" इत्यादिना चतुर्थी । सर्वे ऋषयो वनान्तरवर्तिनश्चाभ्यागमन् ।। .1.1.43 ।।

स तेषां प्रतिशुश्राव राक्षसानां तदा वने ।। 44 ।।

स रामस्तदा तस्मिन् वने तेषां राक्षसानां वधं तेभ्यः सर्वेभ्य ऋषिभ्यः प्रतिशुश्राव प्राप्तकालं असुररक्षांसि सर्वथा संहरिष्येनोपेक्षे इति प्रतिज्ञातवानित्यर्थः ।। 1.1.44 ।।

प्रतिज्ञातश्च रामेण वधः संयति रक्षसाम् ।

ऋषीणामग्निकल्पानां दण्डकारण्यवासिनाम् ।। 45 ।।

एवं ऋषीणामुच्यमानविशेषणानामपेक्षितः रक्षसां वधश्च संयति यथाप्राप्तकाले करिष्यामीति अचिन्त्यामितनिजशक्तिवैभवाद्रामेण प्रतिज्ञातः ।। 1.1.45 ।।

तेन तत्रैव वसता जनस्थाननिवासिनी ।

विरूपिता शूर्पणखा राक्षसी कामरूपिणी ।। 46 ।।

तेन तत्रैव दण्डकारण्यदक्षिणप्रदेशवर्तिपञ्चवट्याश्रम इत्यर्थः । जनस्थानं नाम रावणसामाजिकबलनिवासदेशः । विरूपिता तत्करोतीति ण्यन्तान्निष्ठा । यद्वा तारकादेशकृतिगणत्वादितच् । नासिकाछेदनेनेति शेषः । शूर्पणखा "नखमुखात्सञ्ज्ञायाम्" इति ङीब्निषेधः । "पूर्वपदात्सञ्ज्ञायां--" इति णत्वम् । कामः-- इच्छा । स्वाभीष्टरूपग्रहशक्तिमती ।। 1.1.46 ।।

ततश्शूर्पणखावाक्यादुद्युक्तान् सर्वराक्षसान् ।

खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं नाम राक्षसम् ।। 47 ।।

निजघान रणे रामस्तेषां चैव पदानुगान् ।

सर्वराक्षसानिति ।। जनस्थाननिवासिन इति शेषः । पदमनुगच्छन्तीति पदानुगाः । "अन्यत्रापि--" इति वचनाड्डुः टिलोपः ।। 1.1.47 ।।

वने तस्मिन्निवसता जनस्थाननिवासिनाम् ।। 48 ।।

रक्षसां निहतान्यासन् सहस्राणि चतुर्दश ।

निवसतेति । रामेणेति शेषः । चतुर्दशसहस्रसङ्ख्याकानि रक्षसां सैन्यानीति शेषः ।। 1.1.48 ।।

ततो ज्ञातिवधं श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्छितः ।। 49 ।।

सहायं वरयामास मारीचं नाम राक्षसम् ।

वार्यमाणस्सुबहुशो मारीचेन स रावणः ।। 50 ।।

न विरोधो बलवता क्षमो रावण तेन ते ।

ज्ञातिवधमिति ।। रावणादयः खरादयश्च द्वैमातुरः विश्रवसः पुत्राः । अतो ज्ञातयो रावणस्य खरादयः । रावणशब्दश्च विश्रवः प्रकृतिकः । कथम्विश्रवसः अपत्यमित्यर्थे "विश्रवणरवण" इत्यसन्नियोगे विश्रवणरवणयोरादेशयोर्विधानात् । मूर्छितः व्याक्षिप्तचित्तस्सन् । हे रावण ते बलवता तेन रामेण विरोधो न क्षमः न युक्तःन हितः च परदारहरणस्य परमानर्थत्वात्बलवद्विरोधस्य खरादेरिव निजनाशान्तत्वाच्चेत्येवं सुबहुशो मारीचेन द्वित्रिःपञ्चसप्तवारं वार्यमाणो ऽपि स ज्ञातिवधक्रोधमूर्छितो रावणो मारीचं नाम प्रसिद्धं राक्षसं सीतापहारे सहायं वरयामास । वृञ् श्नौश्नायां वृङ्णौ वृञ् वरण इति स्वार्थेण्यन्तो ऽपि धातुरस्ति । तथापि नास्माण्णिच् । अपि तु वरशब्दात् "तत्करोति" इति णिच् ।। 1.1.49,50 ।।

अनादृत्य तु तद्वाक्यं रावणः कालचोदितः ।। 51 ।।

जगाम सहमारीचस्तस्याश्रमपदं तदा ।

अथोक्तप्रकारं तद्वाक्यं मारीचवाक्यं तु कालचोदितः हेतुगर्भं विशेषणम् विधिचोदितत्वाद्रावणो ऽनादृत्य सहमारीचः "वोपसर्जनस्य" इति विकल्पात् सहशब्दस्य सत्वाभावः । तदा तस्य रामस्य आश्रमपदं जगाम ।। 1.1.51 ।।

तेन मायाविना दूरमपवाह्य नृपात्मजौ ।। 52 ।।

जहार भार्यां रामस्य गृध्रं हत्वा जटायुषम् ।

मायाविना तेन मारीचेन । "अस्माया--" इत्यादिना विनिः । नृपात्मजौ दूरमपवाह्य-- वहेर्ण्यन्तात् ल्यप्-- अपसरणं कारयित्वा । गृध्रं हत्वेति । पक्षापहारेण कण्ठगतप्राणं कृत्वेति यावत् ।। 1.1.52 ।।

गृध्रं च निहतं दृष्ट्वा हृतां श्रुत्वा च मैथिलीम् ।। 53 ।।

राघवश्शोकसन्तप्तो विललापाकुलेन्द्रियः ।

निहतं निहतप्रायम् । श्रुत्वेति । गृध्रमुखादिति शेषः । विललाप पर्यदेवयत् । आकुलानि उत्कटरजस्तमोविजृम्भितशोकपरवशानि इन्द्रियाणि यस्य स तथा ।। 1.1.53 ।।

ततस्तेनैव शोकेन गृध्रं दग्ध्वा जटायुषम् ।। 54 ।।

मार्गमाणो वने सीतां राक्षसं सन्ददर्श ह ।

कबन्धं नाम रूपेण विकृतं घोरदर्शनम् ।। 55 ।।

तं निहत्य महाबाहुर्ददाह स्वर्गतश्च सः ।

 

तेनैव शोकेनेति । निवृत्तिहेतुमप्राप्तेनाभिभूयमान एव सन् । मार्गमाण इति । मार्गयमाणः । (संस्कारे वा) णौ मार्ग अन्वेषण इति । "णेर्विकल्पितत्वान्मार्गमाण इति । रूपेण विकृतमिति । "प्रकृत्यादिभ्य उपसङ्ख्यानम्" इति तृतीया । निहत्य ददाह च । ततस्स कबन्धः स्वर्गं गतः ।। 1.1.55 ।।

स चास्य कथयामास शबरीं धर्मचारिणीम् ।। 56 ।।

श्रमणीं धर्मनिपुणामभिगच्छेति राघवम् ।

गच्छन् स कबन्धः अस्य रामस्योपचिकीर्षया शबरीं उच्यमानविशेषणां अभिगच्छेति राघवं कथयामासेति योजना । श्रमणीं तापसीं "श्रमु तपसि खेदे च" । अस्मात्कर्तरि ल्युट् । टित्वात् ङीप् । सर्वतो ऽस्माभिरुचित एक एव पाठो निश्चयाय लिख्यते ।। 1.1.56 ।।

सो ऽभ्यगच्छन्महातेजाः शबरीं शत्रुसूदनः ।। 57 ।।

शबर्या पूजितस्सम्यग्रामो दशरथात्मजः ।

पंपातीरे हनुमता सङ्गतो वानरेण ह ।। 58 ।।

हनुमद्वनाच्चैव सुग्रीवेण समागतः ।

सुग्रीवाय च तत्सर्वं शंसद्रामो महाबलः ।। 59 ।।

आदितस्तद्यथावृत्तं सीतायाश्च विशेषतः ।

हनुमद्वचनादिति । ह्रस्वान्तश्शब्दः क्वचित् । छन्दोवत् दीर्घश्च द्रष्टव्यः । सुग्रीवो युष्मत्सङ्गतिमभिकाङ्क्षत इत्यादिरूपं हनूमद्वचनं । सुग्रीवाय चेति । सङ्गतायेति शेषः । शंसदिति । "बहुलं छन्दस्यमाङ्योगे ऽपि" इत्यडभावः । महाबल इति । सुग्रीवेण स्वपुरुषार्थसाधकमहाबलत्वेनावगत इत्यर्थः । किमशंसदित्यतः आदित इत्यादि । तत् प्रसिद्धं वृत्तं स्वीयं यथा येन प्रकारेण प्रसिद्धं तथैव तदादितः निजजन्मारभ्याशंसत् । सीताया वृत्तमपि विशिष्य रावणापहारान्तमशंसत् ।। 1.1.57,58,59 ।।

सुग्रीवश्चापि तत्सर्वं श्रुत्वा रामस्य वानरः ।। 60 ।।

चकार सख्यं रामेण प्रीतश्चैवाग्निसाक्षिकम् ।

वानरः सुग्रीवो ऽपि तत्सर्वं च श्रुत्वा स्वसमानदुःखमहाबलसम्बन्धलाभात् सुप्रीतस्सन् रामेणाग्निसाक्षिकमेव अग्निस्साक्षी साक्षादनुभविता यस्य तत्तथा । ततः "शेषाद्विभाषा" इति कप् । पृषोदरादित्वात्साक्षिशब्दस्साधुः । सख्यं चकार ।। 1.1.60 ।।

ततो वानरराजेन वैरानुकथनं प्रति ।। 61 ।।

रामायावेदितं सर्वं प्रणयाद्दुःखितेन च ।

प्रतिज्ञातं च रामेण तदा वालिवधं प्रति ।। 62 ।।

ततो वैरानुकथनं वालिनस्तव च वैरे किं कारणमिति रामकृतमनुकथनं अनुप्रश्नं प्रति यत् प्रत्युत्तरमावेदितव्यं तत्सर्वं दुःखितेन रामवद्दारापहारान्तकष्टैस्सञ्जातदुःखेन सुग्रीवेण प्रणयाद्रामायावेदितं तदा । एवं तद्वृत्तान्तश्रवणानन्तरकाले रामेण वालिवधं च प्रति उद्दिश्य प्रतिज्ञातं अवश्यं हनिष्ये वालिनमिति ।। 1.1.62 ।।

वालिनश्च बलं तत्र कथयामास वानरः ।

सुग्रीवश्शङ्कितश्चासीन्नित्यं वीर्येण राघवे ।। 63 ।।

तत्र ऋश्यमूकपर्वते वालिनो बलं च कक्षीकृतरावणतया पुरा सूर्योदयादरुणोदयानन्तरं चतुस्समुद्रलङ्घनादिरूपं कथयामास । अपि च सुग्रीवो नित्यं वीर्येण वालिना तुल्यो न वेति शंकितश्चासीत् । मतिबुद्धिसूत्रे चकारेण शंकिताद्याः कर्तरि क्तान्ताः सङ्गृहीताः ।। 1.1.63 ।।

राघवप्रत्ययार्थं तु दुन्दुभेः कायमुत्तमम् ।

दर्शयामास सुग्रीवो महापर्वतसन्निभम् ।। 64 ।।

अपि च राघवप्रत्ययार्थं राघवस्य वालिमहाबलज्ञापनार्थं उत्तमं बलप्रत्यायनोत्तमसाधनं महापर्वतसन्निभं दुन्दुभेः कायं दर्शयामास । यस्य काय इदानीमेतादृशस्तादृशो दुन्दुभिश्च वालिना हत इति वालिबलप्रख्यापनं भवति ।। 1.1.64 ।।

उत्स्मयित्वा महाबाहुः प्रेक्ष्य चास्थि महाबलः ।

पादाङ्गुष्ठेन चिक्षेप संपूर्णं दशयोजनम् ।। 65 ।।

कुत्स्मिदुत्स्मिरपि स्वार्थे णिः । महाबाहुः महाबलो रामः अस्थि प्रेक्ष्योत्स्मयित्वा उत्स्मितं ईषत्स्मयं कृत्वा तत् पादाङ्गुष्ठेन चिक्षेप । क्षिप्तं च तत् दशयोजनपरिमितदूरं संपूर्णं अनुपचारेण दशयोजनादन्यूनतया क्षिप्तमभूत् ।। 1.1.65 ।।

बिभेद च पुनस्सालान् सप्तैकेन महेषुणा ।

गिरिं रसातलं चैव जनयन् प्रत्ययं तदा ।। 66 ।।

पुनश्च प्रत्ययं जनयन् । हेतौ शता । तदा तदर्थं एकेनैव महेषुणा सकृत्प्रयोगेणैव च सप्तसालान् सालवृक्षान् ततः पुरोवृत्तिगिरिं रसातलं षष्ठमधोलोकञ्च बिभेद । पाताले रसातलो नामाधोलोकभेदः । अतलवितलसुतलतलातलमहातलरसातलपाताला इति सप्ताधोलोकाः ।। 1.1.66 ।।

ततः प्रीतमनास्तेन विश्वस्तस्स महाकपिः ।

किष्किन्धां रामसहितो जगाम च गुहां तदा ।। 67 ।।

ततः अनन्तरं भगवदतिरिक्तेन येन केन चिदपि दुष्करेण तेन कर्मणा विश्वस्तः प्राप्तविस्रंभः । इडभावश्छान्दसः । प्रीतमनाश्च महाकपिः किष्किन्धाख्यां गुहां रामसहितो जगाम । पारस्करप्रभृतिषु "किष्किन्धा गुहा" इति वचनात् षत्वम् ।। 1.1.67 ।।

ततो ऽगर्जद्धरिवरः सुग्रीवो हेमपिङ्गलः ।

तेन नादेन महता निर्जगाम हरीश्वरः ।। 68 ।।

ततः अगर्जत् इति पदम् । हरीश्वरो वाली ।। 1.1.68 ।।

अनुमान्य तदा तारां सुग्रीवेण समागतः ।

निजघान च तत्रैनं शरेणैकेन राघवः ।। 69 ।।

तदा ऽङ्गदमुखादवगतसुग्रीवरामसहायंअत एव संयुगनिर्गमनं वारयन्तीं तारां स्वस्त्रियं "मया ऽकृतापकारो रामो मह्यं नापकरिष्यति" इति वचनेनानुमान्य अनुमतिं करोतितामनुमानयति । मानयतेः क्त्वाया ल्यप् । "गतिबुद्धि" इत्यादिना तारायाः कर्मत्वम् । कृतानुमतिकां कृत्वेत्यर्थः । सुग्रीवेण वाली युद्धाय समागतो ऽभवत् । तत्र संयुगे एनं "वालिनं जहि काकुत्स्थ मया बद्धो ऽयमञ्जलिः" इत्येवंरूपात्सुग्रीववचनात् राघव एकेनैव शरेण निजघान । अत्र सुग्रीववचनस्य हननप्रयोजकत्वकथनमनपकारिवालिवधस्यायुक्तत्वे ऽपि मित्रापकारित्वेन हननमिति द्योतनायानुवादरूपम् ।। 1.1.69 ।।

ततस्सुग्रीववचनात् हत्वा वालिनमाहवे ।

सुग्रीवमेव तद्राज्ये राघवः प्रत्यपादयत् ।। 70 ।।

तत इत्यादि । एवं सुग्रीववचनादाहवे वालिनं हत्वा राघवः सुग्रीवमेव तस्य वालिनो राज्ये प्रत्यपादयत् प्रतिष्ठापितवान् ।। 1.1.70 ।।

स च सर्वान् समानीय वानरान् वानरर्षभः ।

दिशः प्रस्थापयामास दिदृक्षुर्जनकात्मजाम् ।। 71 ।।

स च दिशः सर्वा दिशः प्रतिदिदृक्षुः अन्वेषिषुरिति यावत् ।। 1.1.71 ।।

ततो गृध्रस्य वचनात् संपातेर्हनुमान् बली ।

शतयोजनविस्तीर्णं पुप्लुवे लवणार्णवम् ।। 72 ।।

संपातेः गृध्रस्येति योजना । पुप्लुवे । प्लुगतौ लिट् । प्लुतवान् उल्लङ्घितवानिति यावत् ।। 1.1.72 ।।

तत्र लङ्कां समासाद्य पुरीं रावणपालिताम् ।

ददर्श सीतां ध्यायन्तीमशोकवनिकां गताम् ।। 73 ।।

रावणपालितां लङ्कापुरीमासाद्य, "आङः षदेः गतौ णौ च" इति स्वार्थणिच्चास्ति सदिः । तत्र लङ्कायां । अशोकवनिकां अशोकवनं प्रमदावनंतस्मादज्ञाते सञ्ज्ञायां वा कन् । "प्रत्ययस्थात्" इतीत्वम्तां ध्यायन्तीं रामविषयकध्यानारूढां सीतां ददर्श ।। 1.1.73 ।।

निवेदयित्वाभिज्ञानं प्रवृत्तिं विनिवेद्य च ।

समाश्वास्य च वैदेहीं मर्दयामास तोरणम् ।। 74 ।।

अभिज्ञानं अङ्गुलीयकरूपं । प्रवृत्तिं स्ववियोगानन्तरजरामसुग्रीवसख्यादिसर्ववृत्तान्तम् । त्रैकालिकसर्वव्यापाराः राघवस्य त्वत्प्रत्यापत्त्येकप्रवृत्तय इति तत्वकथनेन वैदेहीं समाश्वास्य । तोरणं अशोकवनिकागतप्रासादबहिर्द्वारसन्निवेशं अशोकवनं च मर्दयामास ।। 1.1.74 ।।

पञ्च सेनाग्रगान् हत्वा सप्त मन्त्रिसुतानपि ।

शूरमक्षं च निष्पिष्य ग्रहणं समुपागमत् ।। 75 ।।

सेनाग्रगाः सेनापतयः पिङ्गलनेत्रप्रमुखाः । मन्त्रिसुताः जम्बुमाल्यादयः । अक्षो रावणकुमारः । ग्रहणं इन्द्रजित्प्रयुक्तब्रह्मास्त्रकृतबन्धनम् ।। 1.1.75 ।।

अस्त्रेणोन्मुक्तमात्मानं ज्ञात्वा पैतामहाद्वरात् ।

मर्षयन् राक्षसान् वीरो यन्त्रिणस्तान् यदृच्छया ।। 76 ।।

"मदस्त्रस्यामोघतस्तेन बन्धनमात्रंचतुःपञ्चघटिकानन्तरं विमोक्षश्च भवतु" इति भगवतो ब्रह्मणो वरदानानुग्रहात् चतुःपञ्चघटिकानन्तरं ब्रह्मास्त्रेणोन्मुक्तमात्मानं स्वं ज्ञात्वा यदृच्छया कार्यान्तरप्रसङ्गेन रावणदर्शनापेक्षया यन्त्रिणः बध्वा नेतृ़न् तान् राक्षसान् प्रति वीरः हन्तुं समर्थो ऽपि मर्षयन् क्षमां कुर्वन् ।। 1.1.76 ।।

ततो दग्ध्वा पुरीं लङ्कां ऋते सीतां तु मैथिलीम् ।

रामाय प्रियमाख्यातुं पुनरायान् महाकपिः ।। 77 ।।

ततः रावणदर्शनादिव्यापारानन्तरं मैथिलीं सीतामृतेः तदवस्थानप्रदेशं विना "अन्यारात्" इति पञ्चम्यभाव आर्षः । रामाय प्रियं सीतादर्शनरूपं आख्यातुं पुनः रामान्तिकं महाकपिरायात् ।। 1.1.77 ।।

सो ऽभिगम्य महात्मानं कृत्वा रामं प्रदक्षिणम् ।

न्यवेदयदमेयात्मा दृष्टा सीतेति तत्त्वतः ।। 78 ।।

सो ऽभिगम्य । "वा ल्यपि" इत्यनुनासिकलोपाभावः । महात्मानं रामं प्रति प्रदक्षिणं प्रगतो दक्षिणं प्रदक्षिणाख्योपचारं कृत्वा अमेयात्मा अपरिच्छेद्यबलबुध्यादिवैभवः सःदृष्टा सीतेति तत्त्वतः सार्वविभक्तिकस्तसिः । तत्त्वं न्यवेदयदित्यर्थः । अत्र दर्शनपदप्रथमप्रयोगः हनुमदुक्तिचातुरी । प्रथमतो दिदृक्षितार्थपदग्रहेणादर्शनविषयकसन्देहोदयो मा भूदिति ।। 1.1.78 ।।

ततस्सुग्रीवसहितो गत्वा तीरं महोदधेः ।

समुद्रं क्षोभयामास शरैरादित्यसन्निभैः ।। 79 ।।

क्षोभयामासेति । लङ्कागमनमार्गप्रदानौदासीन्यादिति शेषः ।। 1.1.79 ।।

दर्शयामास चात्मानं समुद्रस्सरितां पतिः ।

समुद्रवचनाच्चैव नलं सेतुमकारयत् ।। 80 ।।

दर्शयामासेति । शरक्षोभित इति शेषः । समुद्रेति । नलं सेतुमकारयदिति । नलेन सेतुं कृतवानित्यर्थः । "हृक्रोरन्यतरस्याम्" इत्यणौ कर्तुः प्रयोज्यस्य कर्मत्वम् ।। 1.1.80 ।।

तेन गत्वा पुरीं लङ्कां हत्वा रावणमाहवे ।

रामः सीतामनुप्राप्य परां व्रीलामुपागमत् ।। 81 ।।

तेनेति । सेतुनेति यावत् । अनुप्राप्य प्रत्यापद्य । परां व्रीलां रक्षोगृहे वत्सरोषितां पुनर्गृहीतवानिति लोकापवादशङ्काजनितां । तथा कथमप्युषितामहमुभयकुलशुद्धो लोकविख्यातकीर्तिवैभवो गृह्णामीति स्वत एव परां व्रीलाम् ।। 1.1.81 ।।

तामुवाच ततो रामः परुषं जनसंसदि ।

अमृष्यमाणा सा सीता विवेश ज्वलनं सती ।। 82 ।।

ततः अनन्तरं रामः जनसंसदि तां सीतां प्रति परुषं रूक्षविगर्हितं मर्मस्पृग्वचनान्युवाच । लोकस्य नास्यां रामस्य कामादिदोषतः पुनर्जिघृक्षास्तीति प्रत्यायनार्थम् । अथ उक्तरूपवचनान्यमृष्यमाणा सती सा सीता ज्वलनं विवेश । सतीति पातिव्रत्यबलान्निजेच्छयाग्निप्रादुर्भावनशक्तिमत्वद्योतनाय । वस्तुतो लक्ष्मणप्रादुर्भावितो ज्वलनः ।। 1.1.82 ।।

ततो ऽग्निवचनात्सीतां ज्ञात्वा विगतकल्मषाम् ।

बभौ रामः संप्रहृष्टः पूजितस्सर्वदैवतैः ।। 83 ।।

ततो जनसंसद्येव "विशुद्धभावां निष्पापां प्रतिगृह्णीष्व राघव" इत्येवंरूपादग्निवचनात्स्वयं च विगतकल्मषां ज्ञात्वा लोकस्य च तथात्वं प्रत्याय्य संप्रहृष्टः सर्वदैवतैश्च पूजितो बभौ । एवमेव पाङ्क्तः क्रमपाठः । एवं स्थिते "सदेवर्षि" इत्यर्धानन्तरं "बभौ रामः" इत्यर्धं लेखकदोषादुपरि लिखितमिति कश्चित् ।। 1.1.83 ।।

कर्मणा तेन महता त्रैलोक्यं सचराचरम् ।

सदेवर्षिगणं तुष्टं राघवस्य महात्मनः ।। 84 ।।

महता तेन रावणवधान्तेन कर्मणा सचराचरं चराचरप्रजासहितं चरप्रजाः तिर्यगूर्ध्वस्रोतसः । अचरप्रजाः अर्वाक्स्रोतसः । सदेवर्षिगणं देवगणाः इन्द्रादयः । ऋषिगणाः विश्वामित्रादयः । त्रय एव लोकास्त्रैलोक्यम् । चतुवर्णादित्वात् स्वार्थे ष्यञ् । अत ऊर्ध्वं तिर्यगर्वाक्स्रोतसोरपि वाद ऊर्ध्वस्रोतश्शेषत्वात् । सचराचरं स्वस्वशेषतिर्यगर्वाक्स्रोतोयुक्तं त्रैलोक्यं त्रिलोकवर्त्यशेषमूर्ध्वस्रोतोमात्रं विशिष्य सदेवर्षिगणं तन्महात्मनो राघवस्य तेन कर्मणा निजैहिकामुष्मिकार्थहेतुतपोयज्ञादिप्रवृत्तिप्रत्यूहनिवर्तकेन तुष्टमभवदिति । अत्र सदेवर्षिगणमिति विशिष्य वचनं रावणस्य मर्त्योपेक्षकत्वात् देवर्षिगणयोरेव साक्षादरातिबुध्या नित्योपद्रवकरणात् रावणवधाद्विशिष्य हर्षः । एवं लक्षणाश्रयेण व्याख्या रावणपीडातन्निवृत्तिपरज्ञानप्रसक्तिरहितार्वाक्तिर्यक्स्रोतसो रावणवधमूलसन्तोषासम्भवात्रावणवधाद्यज्ञादिप्रवृत्त्या ऽस्माकं वृष्ट्यादिर्भाविष्यतीति स्मरणजसन्तोषो दूरापास्तः । "अथेतरेषां पशूनामशनायापिपासे एवाभिविज्ञानं न विज्ञातं वदन्ति न विदुः श्वस्तनं न लोकालोकौ त एतावन्तो भवन्ति यथाप्रज्ञं हि संभवाः" इति श्रुतेः ।। 1.1.84 ।।

अभिषिच्य च लङ्कायां राक्षसेन्द्रं विभीषणम् ।

कृतकृत्यस्तदा रामो विज्वरः प्रमुमोद ह ।। 85 ।।

लङ्कायामिति । लङ्काराज्यपद इत्यर्थः । तदा विभीषणाभिषेकानन्तरकाले । रावणवधसीताबन्दीविमोकानन्तरमपि प्राक्प्रतिज्ञातविभीषणाभिषेकलक्षणकिञ्चित्कृत्यस्यानिर्वर्तितत्वात्तस्य च निर्वृत्तौ सर्वात्मना कृतकृत्यत्वम् । अत एव विगतचिकीर्षितकृतिविषयकचिन्तातापः प्रमुमोद मुदहर्षे व्यत्ययात्परस्मैपदम् ।। 1.1.85 ।।

देवताभ्यो वरं प्राप्य समुत्थाप्य च वानरान् ।

अयोध्यां प्रस्थितो रामः पुष्पकेण सुहृद्वृतः ।। 86 ।।

"सुप्तोन्मिषितवदुत्तिष्ठन्तु वानराः" इत्येवं रूपं वरं देवताभ्यः प्राप्य । सुहृदः .सुग्रीवविभीषणादयः ।। 1.1.86 ।।

भरद्वाजाश्रमं गत्वा रामः सत्यपराक्रमः ।

भरतस्यान्तिकं रामो हनूमन्तं व्यसर्जयत् ।। 87 ।।                       

भरतस्यान्तिकं रामो हनूमन्तं व्यसर्जयदिति । --"चतुर्दशे हि संपूर्णे वर्षे ऽहनि रघूत्तम । न द्रक्ष्यामि यदि त्वां तु प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्" इति भरतेन प्रतिज्ञातत्वात्भरद्वाजाश्रमे चतुर्दशसमासमाप्त्यनन्तरं एकद्विदिनविलम्बस्य प्राप्तत्वात् स्वागमनप्रबोधनाय हनुमद्विसर्जनम् ।। 1.1.87 ।।

पुनराख्यायिकां जल्पन् सुग्रीवसहितस्तदा ।

पुष्पकं तत्समारूह्य नन्दिग्रामं ययौ तदा ।। 88 ।।

पुनरित्यादि । भरद्वाजाश्रमे पुष्पकादवतीर्णत्वात् पुनश्च तत्पुष्पकं समारुह्य पुनश्चाख्यायिकाः-- उपलब्धार्थविषयिणी कथा आख्यायिका । भरद्वाजाश्रमावरोहात्पूर्वमिव सीतायै जल्पन्-- "जल्पव्यक्तायां वाचि" व्यक्तमालपन् । सुग्रीवसहित इति विभीषणादेरुपलक्षणम् ।। 1.1.88 ।।

नन्दिग्रामे जटां हित्वा भ्रातृभिस्सहितो ऽनघः ।

रामः सीतामनुप्राप्य राज्यं पुनरवाप्तवान् ।। 89 ।।

नन्दिग्रामे भरतेन सह स्वस्यापि व्रतप्रयुक्तां जटां हित्वा-- "जहातेश्च क्त्वि" इति हिभावः त्यक्त्वा सर्वैर्भातृभिस्सह प्राप्तविसृष्टं राज्यं पुनरवाप्तवान् । अत्रेदमनुसन्धेयम्-- रामस्य राज्यप्राप्त्यनन्तरकाले वाल्मीकेः "को नु" इत्यादिकस्य जिज्ञासितदिव्यकाव्यनायकस्यअर्थात् काव्यविषयस्य तच्चरितस्य च प्रश्नः । अन्यथा नारदेन तच्चरितोक्तेरपृष्टोत्तरत्वप्रसङ्गात् । तथापृष्टश्च नारदः तादृशं काव्यनायकं "इक्ष्वाकुवंशप्रभवः" इत्यादिनोपदिश्य "तेमवं गुणसंपन्नम्" इत्यादिना "राज्यं पुनरवाप्तवान्" इत्यन्तेन वृत्तं तदीयचरितं चोपदिदेश ।। 1.1.89 ।।

प्रहृष्टमुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टस्सुधार्मिकः ।

निरामयो ह्यरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः ।। 90 ।।

अतःपरमुत्तरकाव्यविषयं भविष्यत्त्वेनोपदिशति-- प्रहृष्टेत्यादि । प्रहृष्टः प्रातिस्विकपुत्रपश्वादिसम्पत्त्या मुदितः साधारणेन क्षामक्षोभराहित्यजेन मोदेन । लोकः सर्वाः प्रजाः । बहुप्रदाद्भगवतो यावदपेक्षितसांसारिकार्थलाभात्तुष्टःअत एव पुष्टः दारिद्र्यकार्श्यरहितः । आमयः मनःपीडारोगः देहीयो व्याधिः । दुर्भिक्षेण चोरादिजेन च भयेन विवर्जितः । भिक्षाया व्यृद्धिः दुर्भिक्षंव्यृद्ध्यर्थे ऽव्ययीभावः भविष्यतीति शेषः ।। 1.1.90 ।।

न पुत्रमरणं केचित् द्रक्ष्यन्ति पुरुषाः क्वचित् ।

नार्यश्चाविधवा नित्यं भविष्यन्ति पतिव्रताः ।। 91 ।।

पुत्रमरणं न द्रक्ष्यन्तीति । पितृषु स्वेषु जीवत्स्विति शेषः । अविधवा इति । अतितीव्रवैराग्येण भर्त्रनुगमनेनधवाङ्गभूतसत्पुत्रवत्वेन वेति शेषः ।। 1.1.91 ।।

 न चाग्निजं भयं किञ्चिन्नाप्सु मज्जन्ति जन्तवः ।

न वातजं भयं किञ्चिन्नापि ज्वरकृतं तथा ।। 92 ।।

न चापि क्षुद्भयं तत्र न तस्करभयं तथा ।

नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्ययुतानि च ।। 93 ।।

क्षुद्भयमिति । क्षुदुपशमोपायाभावजमित्यर्थः ।। 1.1.93 ।।

नित्यं प्रमुदितास्सर्वे यथा कृतयुगे तथा ।

कृतयुगे अधर्मासम्बन्धः स्वाभाविक इति तत्र नित्यं प्रजाप्रमोदः । त्रेतायामधर्मस्य पादांशतस्सम्बन्धप्रसङ्गे रामलक्ष्मणवैभवात् तदनाक्रमात् नित्यप्रमोदत्वम् ।।

अश्वमेधशतैरिष्ट्वा तथा बहुसुवर्णकैः ।। 94 ।।

एवं रामस्य राज्यपरिपालनवैभवचरितमुपदिश्य भविष्यद्रामस्य वृत्तान्त उपदिश्यते-- अश्वमेधेत्यादि । अश्वमेधशतैरिष्ट्वेति । तेषां निष्कामतया ऽनुष्ठानात् ब्रह्मलोकहेतुत्वम् । क्त्वाप्रत्ययात्कार्यकारणभावश्चावसितः । यद्यपि ब्रह्मैव भगवान् रामः स्वस्वलोकप्राप्तौ न किञ्चित्साधनमपेक्षते अथापि मानुषोपाधिप्रयुक्तावर्ज्यसप्ताघशमनद्वारा ब्रह्मलोकोपयोगः । यथा ब्राह्मणस्यानुपचरितब्रह्ममुक्तेः स्वनित्यब्रह्मलोके ब्रह्मविद्यानुष्ठानोपयोगः৷৷৷৷ ।। 1.1.94 ।।

गावां कोट्ययुतं दत्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यति ।

असङ्ख्येयं धनं दत्वा ब्राह्मणेभ्यो महायशाः ।। 95 ।।

असङ्ख्येयं धनं दत्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यतीति पूर्वेण सम्बन्धः ।। 1.1.95 ।।

राजवंशान् शतगुणान् स्थापयिष्यति राघवः ।

चातुर्वर्ण्यं च लोके ऽस्मिन् स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति ।। 96 ।।

कामरूपकन्याकुब्जादि तत्तद्राज्यपदस्थान् राजवंशान् शतगुणान् अनेकगुणवृद्धिमतः स्थापयिष्यति । शाश्वततत्तद्राज्यप्रदानेनेति शेषः । चत्वारो वर्णाश्चातुर्वर्ण्यंस्वार्थे ष्यञ् । नियोक्ष्यतीति । शङ्कितस्वधर्मभ्रंशमपीति शेषः ।। 1.1.96 ।।

दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ।

रामो राज्यमुपासित्वा ब्रह्मलोकं गमिष्यति ।। 97 ।।

ब्रह्मलोकं प्रयास्यतीत्युक्तं तत्कियत्कालानन्तरमित्यपेक्षायां दशवर्षेत्यादि । उपासित्वेति । राज्यपरिपालनमेव नित्यप्राप्तं योगबुध्या ऽनुष्ठायेत्यर्थः । तथा हि गीयते-- "स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः" इति, "स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः" । इति च । ब्रह्मलोकं गमिष्यतीति । एवं भगवतो रामस्य ब्रह्मत्वं रामतुल्ययज्ञदानादिनिजनित्यकर्मोपेतयोगिमात्रप्राप्यत्वं ब्रह्मलोकस्यैव सर्वलोकोत्तमत्वं श्रुतिसिद्धं चोपदिष्टं वेदितव्यम् । इह केचिदतिशब्दब्राह्मणाः अविदितकुलदेवताः अनाकुलितकुललोकाः अनुपासितकुलविद्याः अनाश्रितकुलदेशिकाः अखिलवेदशास्त्रनिरतिशयश्रुतब्रह्मतल्लोकप्राशस्त्याः धृष्टधूपपिशाचवत् श्रुततदुत्कर्षामर्षोत्थिता ब्रह्मलोकशब्दयोरन्यथानयने अतिमहत्प्रयतन्ते । कथम्ब्रह्मेति विष्णुश्शिवो वा तस्य लोको ब्रह्मलोकः । स च भूर्भुवःस्वरादिसर्वलोकोपरिवर्तिसत्यब्रह्मलोकादपि परः इति तथा ब्रह्मैव लोको ब्रह्मलोक इत्यादि । भगवानेव तेभ्यः प्रतिवक्ति-- "तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।।" इत्यीदि "ततो यान्त्यधमां गतिम्" --इत्यन्तेन । अस्माभिस्तु तेषामस्मदन्तेवास्यनुग्रहाय यद्वक्तव्यं तदाकरे प्रपञ्चितमिति नेह बहुग्रन्थसाध्यतस्सुप्रतिपादनम् । बत नारद एषामदुःखाय विष्णुपदं न प्रायुङ्क्तनावेदीद्वालोकपदं प्रयाणपदं च द्वितीयार्धे व्यक्तं प्रायुङ्क्त ।। 1.1.97 ।।

इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम् ।

यः पठेद्रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। 98 ।।

अथ नारदः स्वोपदिष्टसङ्क्षेपपाठफलं प्रवृत्यङ्गमुपदिशति-- इदमित्यादि ।। पूयते ऽनेनेति पवित्रम् । "कर्तरि चर्षिदेवतयोः" इति यथासङ्ख्यं करणे कर्तरि इत्रः । ऋषिः वेदः । वेदतुल्यञ्चेदम् । तथोक्तं वेदैश्च सम्मितमिति । तुल्यमिति यावत् ।। 1.1.98 ।।

एतदाख्यानमायुष्यं पठन् रामायणं नरः ।

सपुत्रपौत्रस्सगणः प्रेत्य स्वर्गे महीयते ।। 99 ।।

अनर्थनिवृत्तिवदर्थावाप्तिरप्युपदिश्यते-- एतदित्यादि । आयुः प्रयोजनमस्य आयुष्यंस्वर्गादिभ्यो यद्वक्तव्यम् । यद्वा निमित्ताधिकोर? "गोद्व्यचो ऽसङ्ख्या"-- इत्यादिना यत् । आयुष्यं वर्चस्यं इत्यादि स्वरितत्वदर्शनात् कश्चन यत् प्रत्यय एवेह मृग्यः । तत्र संयोगरूपे निमित्ते उत्पातरूपे वा निमित्ते अयं यत्प्रत्ययः । अत्र चायुरादिफलमेव कर्त्रा संयुज्यत इति समस्ति । इह च संयोगरूपनिमित्तम् । आख्यानं आख्यायिकाउपलब्धार्थम् । रामायणमिति । अयगतौ भावे ल्युट्अयनं चरितम् । रामस्यायनं रामायणं, "पूर्वपदात्सञ्ज्ञायां" इति णत्वम् । पठन्निति हेतौ शता । अत एव हेतोः सपुत्रेत्यादिफलम् । गणः दासीदासादिगणः । सपुत्रपौत्रस्सगणः इह ऐहिकान् भोगान् भुक्त्वा प्रेत्य मृत्वा स्वर्गे पुण्यलोके महीयते । महधातुः पूजार्थः । स्वर्गिभिस्सत्कृतो मोदत इत्यर्थः ।। अथात्र रामायणमित्यनेन विस्तृतसङ्क्षेपाविशेषेणोपदेशे तु सर्वपापेति सर्वशब्दासङ्कोचेन प्रेत्य सपुत्रपौत्रः स्वर्गे महीयत इति विना ऽध्याहारं यथावस्थितपदान्वयेन ब्रह्मलोकावाप्तिफलकत्वमेव रामायणस्योपदिश्यत इति युज्यते । ब्रह्मावतारश्च राम इत्यवादिष्ट च न्यायेन । अतस्तच्चरितानुसन्धातुः स्वर्गलोकावाप्तिर्न्यायसिद्धा । असङ्कोचोपचारेण सर्वपापविमोकश्च ब्रह्मलोकासाधारणधर्मः । तथाविमोकस्य "तत्सुकृतदुष्कृते धूनुते" इति श्रुतेः ब्राह्मालौकिकविरजावगाहैकसाध्यत्वात् । अन्यत्र कुत्रापि कालकृतिमूलपुण्यातिवाहाविलयात् । प्रेत्य सपुत्रादिकतया महीयमानत्वस्य ब्रह्मलोकातिरिक्तलोके ऽसम्भवाच्च । तत्र तु "यदि पितृलोककामो भवति सङ्कल्पादेवास्य पितरस्समुत्तिष्ठन्ति । तेन पितृलोकेन सम्पन्नो महीयते" इत्यादिना छान्दोग्येन प्राप्तब्रह्मलोकमुक्तस्य सत्यसङ्कल्पत्वस्तदिच्छया तत्तत्पितृपुत्रादिसमुत्थानस्य घण्टाघोषत्वात् । ब्रह्मलोकश्च परनाकपरस्वर्गादितः सर्वोपनिषत्प्रसिद्धः । उक्तविशेषणबलात् परस्वर्गग्रहश्च । अयमेवास्मदभिप्रेतो ऽर्थः ।। 1.1.99 ।।

पठन् द्विजो वागृषभत्वमीयात्

स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात् ।

वणिग्जनः पण्यफलत्वमीयात्

जनश्च शूद्रोऽपि महत्वमीयात् ।। 100 ।।

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे बालकाण्डे प्रथमः सर्गः ।।

एवं चतुर्वर्णसाधारणं फलमुपदिश्य तत्तत्प्रातिस्विकफलोपदेशः पठन्नित्यादि ।। हेतौ शता । रामायणमिति शेषः । द्विजः मुख्यो द्विजः । वागृषभत्वमीयादिति । शब्दब्रह्मपारगो भवतीति यावत् । यदि रामायणं पठन् क्षत्रियः स्यात् तदा ऽसौ भूमिपतित्वमीयात् । "इण्" आशिषि लिङ् । "अकृत्सार्वधातुके" इति दीर्घः । ईङ् गतावित्यस्मादिति कश्चित् । स त्वात्मनेपदी । पण्यैः क्रयद्रव्यैः साध्यं मूलात् द्विगुणत्रिगुणवृद्ध्यादिरूपं फलं यस्यतस्य भावस्तत्वम् । शूद्रजनः द्विजदासो ऽपि तदितरसर्वप्रजाभ्यो महत्वं श्रैष्ठ्यं ईयात् देहान्तरे स्वोपरिवर्णप्राप्तिलक्षणं महत्वमीयात् ।। 1.1.100 ।। 

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