शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

अहीरों के विरोधी रूप-

भागवत पुराण लिखने वाला यदु की सन्तानों को म्लेच्छ जाति के रूप में वर्णन करता है तो यह यादवों के नायक कृष्ण का चरित्र हनन क्यों नहीं करेगा।

मगध देश का राजा होगा विश्व-स्फूर्जि। यह पूर्वोक्त पुरंजय के अतिरिक्त द्वितीय पुरंजय कहलायेगा। 
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मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः
करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिन्दयदुमद्र कान् ३४।

यह ब्रह्माणादि उच्च वर्णों को पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियों के रूप में परिणत कर देगा।

 इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाश करके शुद्रप्राय: जनता की रक्षा करेगा ।

यादवों की जाति अहीर थी वही अहीर जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री जी का जन्म हुआ।
गायत्री के युग में आभीर पुण्यजन सदाचरण करने वाले और सुव्रतज्ञ कहे गये हैं।

अत्रि सप्तर्षियों में से एक ब्रह्मा के मानस पुत्र थे और गायत्री ब्रह्मा की पत्नी होते हुए भी कहीं वैष्णवी विन्ध्याचलवासिनी दुर्गा तो कहीं लक्ष्मी  स्वरूपा राधा भी हैं ।

अत: अत्रि ऋषि के ऊपर सदैव गायत्री की अहेतुकी  कृपा दृष्टि रही ।
गायत्री उपासक पुरुरवा के कुल में  आगे होने वाली सन्तानें ययाति से लेकर यदु तक  गोपालक रूप में  आभीर कहीं जाती रहीं हैं ।

तारानाथ वाचस्पति नें  अमीर शब्द की व्युत्पत्ति ""अभिमुखी ईरयति गा = अर्थात सामने मुख करके गायें घेरता है वह अभीर है के रूप में अहीरों की गोपालन वृति को दर्शाया । 

क्यो उस जमाने में गो सें देवों की ही नही अपितु विश्व की माता थीं 

गावो विश्वस्य मातरा" के उपनिषदीय वाक्य में गायों दुनिया की जननी कहा गया है।

गाय प्रथम पैल्य पशु है। 
और. यही पशु हमारे समाज की आर्थिक रीढ़ रहे हैं। 
पेैसा और फीस जैसे मौद्रिक रूपों का विकास भी ग्रीक/लैटिन मूल के  पशु ( पाउस) शब्द से ही हुआ है।

 तारानाथ वाचस्पति कलकत्ता की जॉन विलियम्स कॉलेज के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष थे ।
जिन्होंने संस्कृत भाषा या सबसे बड़ा शब्द कोश वाचस्पत्यम् " या सम्पादन किया।

अभीर शब्द को उन्होंने अभि-उपसर्ग पूर्वक ईर्=कम्पन करना ( घेरना, बटोरना, हँकना अर्थ के रूप में स्वीकार किया ।

वहीं इनसे पूर्व के शब्दकोशकार "अमर सिंह ने अपने अमरकोष में  "आभीर शब्द आ -समन्तात् भीयं राति शत्रूणां हृत्सु के रूप में प्रवृति मूलक दृष्टिकोण से व्युत्पन्न रूप में स्वीकार किया ।

अहीरों की वीरता उनके दुश्मन भी मानते थे।

खेर अहीर सदीयों से गो पालक और वीरता की मिसाल रहे हैं ।

तुलसीदास जैसा कट्टर सांप्रदायिक कवि भी  मजबूरी में कहीं अहीरों गाली देते हुए तों कहीं उनकी बहादुरी की ताली देते हुए देखे गये और सुने गयें  है।

तुलसी दास ने रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में छन्द १२९ से आगे यह भी लिखा है ।

पाई न केहिं गति पतित पावन
 राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध 
गजादिखल तारे घना।।

आभीर जमन किरात खस
 स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि 
पावन होहिं राम नमामि ते।।

भावार्थ: अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्रीराम को भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। 
अभीर,(अहीर) यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पाप से उत्पन्न  हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ।।

और इससे पूर्व इसी उत्तर काण्ड में तुलसी दास ने अहीरों को निर्मल और पवित्र मन कह कर जितेन्द्रिय (मन जिसका दास है) कहा है ।

वास्तव में ये दोगली व विरोधाभासी बातें हास्यास्पद ही हैं यो तो पुचकार के मारना ही है।

श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे चौपाई लिखते हैं 

सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।
 जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। 
जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।

तेइ तृन हरित चरै जब गाई। 
भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा।
 निर्मल मन अहीर निज दासा।।

परम धर्ममय पय दुहि भाई। 
अवटै अनल अकाम बनाई।।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै।
 धृति सम जावनु देइ जमावै।।

मुदिताँ मथै बिचार मथानी।
 दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। 
बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।

भावार्थ: 

श्रीहरि की कृपा से यदि सात्त्विकी श्रद्धारूपी सुन्दर गौ हृदयरूपी घरमें आकर बस जाय; असंख्यों जप, तप, व्रत, यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार (आचरण), जो श्रुतियों ने कहे हैं,।।

 उन्हीं [धर्माचाररूपी] हरे तृणों (घास) को जब वह गौ चरे और आस्तिक भावरूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। तो 
निवृत्ति (सांसारिक बिषयोंसे और प्रपंच से हटना) नोई (गौके दुतहे समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी के समान ) है, विश्वास [दूध दूहनेका[] बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वशमें है ), दुहनेवाला अहीर है।।
हे भाई ! इस प्रकार (धर्माचारमें प्रवृत्त सात्त्विकी श्रद्धा रूपी गौ से भाव, निवृत्ति और वश में किये हुए निर्मल मन की सहायता से) परम धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भावरूपी अग्नि पर भलीभाँति औटावे।
 फिर क्षमा और संतोष रूपी हवा से उसे ठंढा करे औऱ धैर्य तथा शम (मनका निग्रह) रूपी जामन देकर उसे जमावे।
तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी में तत्त्वविचाररूपी मथानीसे दम (इन्द्रिय-दमन) के आधार पर (दमरूपी खम्भे आदि के सहारे) सत्य और सुन्दर वाणीरुपी रस्सी लगाकर उसे मथे और मथकर तब उसमें से निर्मल, सुन्दर और अत्यन्त पवित्र बैराग्यरूपी मक्खन निकाल ले। 

अगर हम समग्र धार्मिक ग्रंथों का सार समझे तो यही है कि ब्राह्मणों ने कहीं कहीं  यादवों को क्षत्रिय के रूप में श्रेष्ठ  और कहीं कहीं म्लेच्छ आदि रूपों में नीचा भी बताया। 

लेकिन यह जो भी विरोधाभासी रूप हैं । ,हमारी प्रभुता के चलते ही कहा गया है  वह हमारी कम से कम चर्चा करते हैं। 

आश्चर्य कि किसी अन्य दलित जाति की वह पुरोहित इतनी  चर्चा भी नही करते हैं।

इससे तो यही सिद्ध होता है कि यादवों में गुणों की कमी नही थी  ,चूंकि हम सवर्णों के वंश के नही है और आदिकाल से दबंग क्षत्रिय हैं । भले ही हमें उनकी सवर्ण  व्यवस्था ने क्षत्रिय का पूरा प्रमाणपत्र नही दिया तो भी इसका मतलब यह नही कि हम क्षत्रिय नही हैं। हम स्वनाम धन्य वीर  और प्रवृत्ति रूप में योद्धा हैं । 

तभी तो तुलसी को यह भी कहना पड़ा।

नोय निर्वृत्त पात्र विश्वासा ,
निर्मल मन अहीर निज दासा ।।

मतलब पवित्र मन का अहीर अपने मन का राजा है वह किसी का गुलाम नही।

इसलिए हमें यादवों को सिर्फ सकारात्मक चीजें ग्रहण करनी चाहिये। 
शूद्र मानसिकता वाले यादव इस पोस्ट से दूर रहें।

मनोविज्ञान का मान्य सिद्धांत है कि आप अपने को जो समझोगे आप वैसे ही हो जाओगे।
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सौजन्य से  प्रोफेसर डॉ० संतोष यादव 

जय श्रीकृष्ण

इसके पश्चात् अवभृति-नगरी के सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कंक पृथ्वी का राज्य करेंगे।


श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः १
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्याय१-




अथ प्रथमोऽध्यायः 12.1
राजोवाच -
(अनुष्टुप्)
स्वधामानुगते कृष्ण यदुवंशविभूषणे ।
कस्य वंशोऽभवत् पृथ्व्यां एतद् आचक्ष्व मे मुने
श्रीशुक उवाच
योऽन्त्यः पुरञ्जयो नाम भाव्यो बार्हद्रथो नृप
तस्यामात्यस्तु शुनको हत्वा स्वामिनमात्मजम् १।


प्रद्योतसंज्ञं राजानं कर्ता यत्पालकः सुतः
विशाखयूपस्तत्पुत्रो भविता राजकस्ततः २।


नन्दिवर्धनस्तत्पुत्रः पञ्च प्रद्योतना इमे
अष्टत्रिंशोत्तरशतं भोक्ष्यन्ति पृथिवीं नृपाः ३।


शिशुनागस्ततो भाव्यः काकवर्णस्तु तत्सुतः
क्षेमधर्मा तस्य सुतः क्षेत्रज्ञः क्षेमधर्मजः ४।


विधिसारः सुतस्तस्या जातशत्रुर्भविष्यति
दर्भकस्तत्सुतो भावी दर्भकस्याजयः स्मृतः ५।


नन्दिवर्धन आजेयो महानन्दिः सुतस्ततः
शिशुनागा दशैवैते सष्ट्युत्तरशतत्रयम् ६।


समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कुरुश्रेष्ठ कलौ नृपाः
महानन्दिसुतो राजन्शूद्रा गर्भोद्भवो बली ७।


महापद्मपतिः कश्चिन्नन्दः क्षत्रविनाशकृत्
ततो नृपा भविष्यन्ति शूद्र प्रायास्त्वधार्मिकाः ८।


स एकच्छत्रां पृथिवीमनुल्लङ्घितशासनः
शासिष्यति महापद्मो द्वितीय इव भार्गवः ९।


तस्य चाष्टौ भविष्यन्ति सुमाल्यप्रमुखाः सुताः
य इमां भोक्ष्यन्ति महीं राजानश्च शतं समाः १०।


नव नन्दान्द्विजः कश्चित्प्रपन्नानुद्धरिष्यति
तेषां अभावे जगतीं मौर्या भोक्ष्यन्ति वै कलौ ११।


स एव चन्द्र गुप्तं वै द्विजो राज्येऽभिषेक्ष्यति
तत्सुतो वारिसारस्तु ततश्चाशोकवर्धनः १२।


सुयशा भविता तस्य सङ्गतः सुयशःसुतः
शालिशूकस्ततस्तस्य सोमशर्मा भविष्यति
शतधन्वा ततस्तस्य भविता तद्बृहद्रथः १३।


मौर्या ह्येते दश नृपाः सप्तत्रिंशच्छतोत्तरम्
समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कलौ कुरुकुलोद्वह १४।


अग्निमित्रस्ततस्तस्मात्सुज्येष्ठो भविता ततः
वसुमित्रो भद्रकश्च पुलिन्दो भविता सुतः १५।


ततो घोषः सुतस्तस्माद्वज्रमित्रो भविष्यति
ततो भागवतस्तस्माद्देवभूतिः कुरूद्वह १६।


शुङ्गा दशैते भोक्ष्यन्ति भूमिं वर्षशताधिकम्
ततः काण्वानियं भूमिर्यास्यत्यल्पगुणान्नृप १७।


शुङ्गं हत्वा देवभूतिं काण्वोऽमात्यस्तु कामिनम्
स्वयं करिष्यते राज्यं वसुदेवो महामतिः १८।


तस्य पुत्रस्तु भूमित्रस्तस्य नारायणः सुतः
काण्वायना इमे भूमिं चत्वारिंशच्च पञ्च च
शतानि त्रीणि भोक्ष्यन्ति वर्षाणां च कलौ युगे १९।


हत्वा काण्वं सुशर्माणं तद्भृत्यो वृषलो बली
गां भोक्ष्यत्यन्ध्रजातीयः कञ्चित्कालमसत्तमः २०।


कृष्णनामाथ तद्भ्राता भविता पृथिवीपतिः
श्रीशान्तकर्णस्तत्पुत्रः पौर्णमासस्तु तत्सुतः २१।


लम्बोदरस्तु तत्पुत्रस्तस्माच्चिबिलको नृपः
मेघस्वातिश्चिबिलकादटमानस्तु तस्य च २२।


अनिष्टकर्मा हालेयस्तलकस्तस्य चात्मजः
पुरीषभीरुस्तत्पुत्रस्ततो राजा सुनन्दनः २३।


चकोरो बहवो यत्र शिवस्वातिररिन्दमः
तस्यापि गोमती पुत्रः पुरीमान्भविता ततः २४।


मेदशिराः शिवस्कन्दो यज्ञश्रीस्तत्सुतस्ततः
विजयस्तत्सुतो भाव्यश्चन्द्र विज्ञः सलोमधिः २५।


एते त्रिंशन्नृपतयश्चत्वार्यब्दशतानि च
षट्पञ्चाशच्च पृथिवीं भोक्ष्यन्ति कुरुनन्दन २६।


सप्ताभीरा आवभृत्या दश गर्दभिनो नृपाः
कङ्काः षोडश भूपाला भविष्यन्त्यतिलोलुपाः २७।


ततोऽष्टौ यवना भाव्याश्चतुर्दश तुरुष्ककाः
भूयो दश गुरुण्डाश्च मौला एकादशैव तु २८।


एते भोक्ष्यन्ति पृथिवीं दश वर्षशतानि च
नवाधिकां च नवतिं मौला एकादश क्षितिम् २९।


भोक्ष्यन्त्यब्दशतान्यङ्ग त्रीणि तैः संस्थिते ततः
किलकिलायां नृपतयो भूतनन्दोऽथ वङ्गिरिः ३०।


शिशुनन्दिश्च तद्भ्राता यशोनन्दिः प्रवीरकः
इत्येते वै वर्षशतं भविष्यन्त्यधिकानि षट् ३१।


तेषां त्रयोदश सुता भवितारश्च बाह्लिकाः
पुष्पमित्रोऽथ राजन्यो दुर्मित्रोऽस्य तथैव च ३२।


एककाला इमे भूपाः सप्तान्ध्राः सप्त कौशलाः
विदूरपतयो भाव्या निषधास्तत एव हि ३३।

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मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः
करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिन्दयदुमद्र कान् ३४।


प्रजाश्चाब्रह्मभूयिष्ठाः स्थापयिष्यति दुर्मतिः
वीर्यवान्क्षत्रमुत्साद्य पद्मवत्यां स वै पुरि
अनुगङ्गमाप्रयागं गुप्तां भोक्ष्यति मेदिनीम् ३५।


सौराष्ट्रावन्त्याभीराश्च शूरा अर्बुदमालवाः
व्रात्या द्विजा भविष्यन्ति शूद्र प्राया जनाधिपाः ३६।


सिन्धोस्तटं चन्द्रभागां कौन्तीं काश्मीरमण्डलम्
भोक्ष्यन्ति शूद्रा व्रात्याद्या म्लेच्छाश्चाब्रह्मवर्चसः ३७।


तुल्यकाला इमे राजन्म्लेच्छप्रायाश्च भूभृतः
एतेऽधर्मानृतपराः फल्गुदास्तीव्रमन्यवः ३८।


स्त्रीबालगोद्विजघ्नाश्च परदारधनादृताः
उदितास्तमितप्राया अल्पसत्त्वाल्पकायुषः ३९।


असंस्कृताः क्रियाहीना रजसा तमसावृताः
प्रजास्ते भक्षयिष्यन्ति म्लेच्छा राजन्यरूपिणः ४०।


तन्नाथास्ते जनपदास्तच्छीलाचारवादिनः
अन्योन्यतो राजभिश्च क्षयं यास्यन्ति पीडिताः ४१।


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इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 21-39 द्वादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद

 कण्व वंश के चार नरपति काण्वायन कहलायेंगे और कलियुग में तीन सौ पैंतालिस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे। प्रिय परीक्षित! कण्ववंशी सुशर्मा का एक शूद्र सेवक होगा-बली। वह अन्ध्रजाति का एवं बड़ा दुष्ट होगा। वह सुशर्मा को मारकर कुछ समय तक स्वयं पृथ्वी का राज्य करेगा। इसके बाद उसका भाई कृष्ण राजा होगा। कृष्ण का पुत्र श्रीशान्तकर्ण और उसका पौर्णमास होगा। पौर्णमास का लम्बोदर और लम्बोदर का पुत्र चिविलक होगा।
चिविलक का मेघस्वाति, मेघस्वाति का अटमान, अटमान का अनिष्टकर्मा, अनिष्टकर्मा का हालेय, हालेय का तलक, तलक का पुरीषभीरु और पुरीषभीरु का पुत्र होगा राजा सुनन्दन। परीक्षित! सुनन्दन का पुत्र होगा चकोर; चकोर के आठ पुत्र होंगे, जो सभी ‘बहु’ कहलायेंगे।
 इनमें सबसे छोटे का नाम होगा शिवस्वाति। वह बड़ा वीर होगा और शत्रुओं का दमन करेगा। शिवस्वाति का गोमतीपुत्र और उसका पुत्र होगा पुरीमान्। पुरीमान् का मेदःशिरा, मेदःशिरा का शिवस्कन्द, शिवस्कन्द का यज्ञश्री, यज्ञश्री का विजय और विजय के दो पुत्र होंगे-चन्द्रविज्ञ और लोमधि। परीक्षित! ये तीस राजा चार सौ छप्पन वर्ष तक पृथ्वी का राज्य भोगेंगे। परीक्षित!
 इसके पश्चात् अवभृति-नगरी के सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कंक पृथ्वी का राज्य करेंगे। 

ये सब-के-सब बड़े लोभी होंगे। इनके बाद आठ यवन और चौदह तुर्क राज्य करेंगे। इसके बाद दस गुरुदण्ड और ग्यारह मौन नरपति होंगे। 

मौनों के अतिरिक्त ये सब एक हजार निन्यानबे वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे तथा ग्यारह मौन नरपति तीन सौ वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेंगे। जब उनका राज्यकाल समाप्त हो जायेगा, तब किलिकिला नाम की नगरी में भूतनन्द नाम का राजा होगा। भूतनन्द का वंगिरि, वंगिरि का भाई शिशुनन्दि तथा यशोनन्दि और प्रवीरक-ये एक सौ छः वर्ष तक राज्य करेंगे।
 इनके तेरह पुत्र होंगे और वे सब-के-सब बाह्लिक कहलायेंगे। 

उनके पश्चात् पुष्यमित्र नामक क्षत्रिय और उसके पुत्र दुर्मित्र का राज्य होगा। परीक्षित! बाह्लिकवंशी नरपति एक साथ ही विभिन्न प्रदेशों में राज्य करेंगे। उनमें सात अन्ध्र देश के तथा साथ ही कोसल देश के अधिपति होंगे, कुछ विदूर-भूमि के शासक और कुछ निषेध देश के स्वामी होंगे। इनके बाद 

मगध देश का राजा होगा विश्व-स्फूर्जि। यह पूर्वोक्त पुरंजय के अतिरिक्त द्वितीय पुरंजय कहलायेगा। 
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मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः
करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिन्दयदुमद्र कान् ३४।


यह ब्रह्माणादि उच्च वर्णों को पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियों के रूप में परिणत कर देगा।
इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाश करके शुद्रप्राय जनता की रक्षा करेगा।
यह अपने बल-वीर्य से क्षत्रियों को उजाड़ देगा और पद्मवतीपुरी को राजधानी बनाकर हरिद्वार से लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वी का राज्य करेगा। परीक्षित! 
ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायेगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देश के ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायेंगे 

तथा राजा लोग भी शूद्रतुल्य हो जायेंगे। सिन्धुतट, चन्द्रभागा का तटवर्ती प्रदेश, कौन्तीपुत्री और

 काश्मीर-मण्डल पर प्रायः शूद्रों का, संस्कार एवं ब्रह्मतेजस से हीन नाम मात्र के द्विजों का और म्लेच्छों का राज्य होगा।


गुरुवार, 22 सितंबर 2022

द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः। पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥४२॥ (पहले जो राक्षस थे वही कलियुग में ब्राह्मण होते हैं।) पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥४३॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां षष्ठस्कन्धे युगधर्मव्यवस्थावर्णनं नामकादशोऽध्यायः।११॥


देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ०६/अध्यायः ११

< देवीभागवतपुराणम्‎ | स्कन्धः ०६
युगधर्मव्यवस्थावर्णनम्

               जनमेजय उवाच
भारावतारणार्थाय कथितं जन्म कृष्णयोः।
संशयोऽयं द्विजश्रेष्ठ हृदये मम तिष्ठति ॥ १॥

पृथिवी गोस्वरूपेण ब्रह्माणं शरणं गता ।
द्वापरान्तेऽतिदीनार्ता गुरुभारप्रपीडिता ॥ २ ॥

वेधसा प्रार्थितो विष्णुः कमलापतिरीश्वरः ।
भूभारोत्तारणार्थाय साधूनां रक्षणाय च ॥ ३ ॥

भगवन् भारते खण्डे देवैः सह जनार्दन ।
अवतारं गृहाणाशु वसुदेवगृहे विभो ॥४॥

एवं सम्प्रार्थितो धात्रा भगवान्देवकीसुतः ।
बभूव सह रामेण भूभारोत्तारणाय वै ॥ ५॥

कियानुत्तारितो भारो हत्वा दुष्टाननेकशः ।
ज्ञात्वा सर्वान्दुराचारान्पापबुद्धिनृपानिह ॥ ६ ॥

हतो भीष्मो हतो द्रोणो विराटो द्रुपदस्तथा ।
बाह्लीकः सोमदत्तश्च कर्णो वैकर्तनस्तथा ॥ ७ ॥

यैर्लुण्ठितं धनं सर्वं हृताश्च हरियोषितः ।
कथं न नाशिता दुष्टा ये स्थिताः पृथिवीतले॥८॥
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आभीराश्च शका म्लेच्छा निषादाः कोटिशस्तथा ।
भारावतरणं किं तत्कृतं कृष्णेन धीमता ॥ ९ ॥

सन्देहोऽयं महाभाग न निवर्तति चित्ततः।
कलावस्मिन्मजाः सर्वाः पश्यतः पापनिश्चयाः॥१०।

                   व्यास उवाच
राजन् यस्मिन्युगे यादृक्प्रजा भवति कालतः 
नान्यथा तद्‌भवेन्नूनं युगधर्मोऽत्र कारणम् ।११।

ये धर्मरसिका जीवास्ते वै सत्ययुगेऽभवन् ।
धर्मार्थरसिका ये तु ते वै त्रेतायुगेऽभवन् ॥ १२ ॥

धर्मार्थकामरसिका द्वापरे चाभवन्युगे ।
अर्थकामपराः सर्वे कलावस्मिन्भवन्ति हि॥ १३॥

युगधर्मस्तु राजेन्द्र न याति व्यत्ययं पुनः ।
कालः कर्तास्ति धर्मस्य ह्यधर्मस्य च वै पुनः।१४।

                      राजोवाच
ये तु सत्ययुगे जीवा भवन्ति धर्मतत्पराः ।
कुत्र तेऽद्य महाभाग तिष्ठन्ति पुण्यभागिनः॥१५॥

त्रेतायुगे द्वापरे वा ये दानव्रतकारकाः ।
वर्तन्ते मुनयः श्रेष्ठाः कुत्र ब्रूहि पितामह ॥१६॥

कलावद्य दुराचारा येऽत्र सन्ति गतत्रपाः।
आद्ये युगे क्व यास्यन्ति पापिष्ठा देवनिन्दकाः।१७।

एतत्सर्वं समाचक्ष्व विस्तरेण महामते ।
सर्वथा श्रोतुकामोऽस्मि यदेतद्धर्मनिर्णयम् ॥१८॥

                    व्यास उवाच
ये वै कृतयुगे राजन् सम्भवन्तीह मानवाः।
कृत्वा ते पुण्यकर्माणि देवलोकान्व्रजन्ति वै ।१९॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम।
स्वधर्मनिरता यान्ति लोकान्कर्मजितान्किल॥ २०॥

सत्यं दया तथा दानं स्वदारगमनं तथा।
अद्रोहः सर्वभूतेषु समता सर्वजन्तुषु ॥२१॥

एतत्साधारणं धर्मं कृत्वा सत्ययुगे पुनः ।
स्वर्गं यान्तीतरे वर्णा धर्मतो रजकादयः ॥२२॥

तथा त्रेतायुगे राजन् द्वापरेऽथ युगे तथा ।
कलावस्मिन्युगे पापा नरकं यान्ति मानवाः ॥२३ ॥

तावत्तिष्ठन्ति ते तत्र यावत्स्याद्युगपर्ययः ।
पुनश्च मानुषे लोके भवन्ति भुवि मानवाः ॥ २४ ॥

यदा सत्ययुगस्यादिः कलेरन्तश्च पार्थिव ।
तदा स्वर्गात्पुण्यकृतो जायन्ते किल मानवाः॥२५॥

यदा कलियुगस्यादिर्द्वापरस्य क्षयस्तथा ।
नरकात्पापिनः सर्वे भवन्ति भुवि मानवाः ॥२६॥

एवं कालसमाचारो नान्यथाभूत्कदाचन।
तस्मात्कलिरसत्कर्ता तस्मिंस्तु तादृशी प्रजा॥२७॥

कदाचिद्दैवयोगात्तु प्राणिनां व्यत्ययो भवेत् ।
कलौ ये साधवः केचिद्‌द्वापरे सम्भवन्ति ते ॥२८॥

तथा त्रेतायुगे केचित्केचित्सत्ययुगे तथा ।
दुष्टाः सत्ययुगे ये तु ते भवन्ति कलावपि ॥२९॥

कृतकर्मप्रभावेण प्राप्नुवन्त्यसुखानि च ।
पुनश्च तादृशं कर्म कुर्वन्ति युगभावतः ॥३०॥

               जनमेजय उवाच
युगधर्मान्महाभाग ब्रूहि सर्वानशेषतः ।
यस्मिन्वै यादृशो धर्मो ज्ञातुमिच्छामि तं तथा॥३१।

                व्यास उवाच
निबोध नृपशार्दूल दृष्टान्तं ते ब्रवीम्यहम् ।
साधूनामपि चेतांसि युगभावाद्‌भ्रमन्ति हि।३२॥

पितुर्यथा ते राजेन्द्र वुद्धिर्विप्रावहेलने।
कृता वै कलिना राजन् धर्मज्ञस्य महात्मनः ॥३३॥

अन्यथा क्षत्रियो राजा ययातिकुलसम्भवः ।
तापसस्य गले सर्पं मृतं कस्मादयोजयत् ॥३४॥

सर्वं युगबलं राजन्वेदितव्यं विजानता ।
प्रयत्‍नेन हि कर्तव्यं धर्मकर्म विशेषतः ॥ ३५ ॥

नूनं सत्ययुगे राजन् ब्राह्मणा वेदपारगाः ।
पराशक्त्यर्चनरता देवीदर्शनलालसाः ॥३६॥

गायत्रीप्रणवासक्ता गायत्रीध्यानकारिणः ।
गायत्रीजपसंसक्ता मायाबीजैकजापिनः।३७॥

ग्रामे ग्रामे पराम्बायाः प्रासादकरणोत्सुकाः ।
स्वकर्मनिरताः सर्वे सत्यशौचदयान्विताः॥३८॥

त्रय्युक्तकर्मनिरतास्तत्त्वज्ञानविशारदाः ।
अभवन्क्षत्रियास्तत्र प्रजाभरणतत्पराः ॥३९॥

वैश्यास्तु कृषिवाणिज्यगोसेवानिरतास्तथा ।
शूद्राः सेवापरास्तत्र पुण्ये सत्ययुगे नृप।४०।

पराम्बापूजनासक्ताःसर्वे वर्णाः परे युगे।
तथा त्रेतायुगे किञ्चिन्न्यूना धर्मस्य संस्थितिः।४१।
द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥४२॥
उस सत्ययुगमें सभी वर्णोंके लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे। 
उसके बाद | त्रेतायुगमें धर्मकी स्थिति कुछ कम हो गयी। सत्ययुगमेंजो धर्मकी स्थिति थी, वह द्वापरमें विशेषरूपसे कम हो गयी। हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुगमें ब्राह्मण माने जाते हैं । 41-42 ॥

पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।
असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥४३॥

दाम्भिका लोकचतुरा मानिनो वेदवर्जिताः।
शूद्रसेवापराः केचिन्नानाधर्मप्रवर्तकाः॥ ४४ ॥

वेदनिन्दाकराः क्रूरा धर्मभ्रष्टातिवादुकाः ।
यथा यथा कलिर्वृद्धिं याति राजंस्तथा तथा॥४५ ॥

धर्मस्य सत्यमूलस्य क्षयः सर्वात्मना भवेत् ।
तथैव क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च धर्मवर्जिताः ॥ ४६॥

असत्यवादिनः पापास्तथा वर्णेतराः कलौ ।
शूद्रधर्मरता विप्राः प्रतिग्रहपरायणाः ॥ ४७ ॥

भविष्यन्ति कलौ राजन् युगे वृद्धिं गताः किल ।
कामचाराः स्त्रियः कामलोभमोहसमन्विताः॥ ४८॥

पापा मिथ्याभिवादिन्यः सदा क्लेशरता नृप ।
स्वभर्तृवञ्जका नित्यं धर्मभाषणपण्डिताः॥४९॥

भवन्त्येवंविधा नार्यः पापिष्ठाश्च कलौ युगे ।
आहारशुद्ध्या नृपते चित्तशुद्धिस्तु जायते।५०।

शुद्धे चित्ते प्रकाशः स्याद्धर्मस्य नृपसत्तम ।
वृत्तसङ्करदोषेण जायते धर्मसङ्करः ॥५१॥

धर्मस्य सङ्करे जाते नूनं स्याद्वर्णसङ्करः ।
एवं कलियुगे भूप सर्वधर्मविवर्जिते ॥ ५२ ॥

स्ववर्णधर्मवार्तैषा न कुत्राप्युपलभ्यते ।
महान्तोऽपि च धर्मज्ञा अधर्मं कुर्वते नृप ॥ ५३ ॥

कलिस्वभाव एवैष परिहार्यो न केनचित् ।
तस्मादत्र मनुष्याणां स्वभावात्पापकारिणाम्॥ ५४॥

निष्कृतिर्न हि राजेन्द्र सामान्योपायतो भवेत् ।

           जनमेजय उवाच
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ॥ ५५ ॥

कलावधर्मबहुले नराणां का गतिर्भवेत् ।
यद्यस्ति तदुपायश्चेद्दयया तं वदस्व मे ॥ ५६ ॥

              व्यास उवाच
एक एव महाराज तत्रोपायोऽस्ति नापरः ।
सर्वदोषनिरासार्थं ध्यायेद्देवीपदाम्बुजम् ।५७।

न सन्त्यघानि तावन्ति यावती शक्तिरस्ति हि ।
नास्ति देव्याः पापदाहे तस्माद्‌भीतिःकुतो नृप।५८।

अवशेनापि यन्नाम लीलयोच्चारितं यदि ।
किं किं ददाति तज्ज्ञातुं समर्था न हरादयः ॥ ५९ ॥

प्रायश्चित्तं तु पापानां श्रीदेवीनामसंस्मृतिः ।
तस्मात्कलिभयाद्‌राजन् पुण्यक्षेत्रे वसेन्नरः ॥६०॥

निरन्तरं पराम्बाया नामसंस्मरणं चरेत् ।
छित्त्वा भित्त्वा च भूतानि हत्वा सर्वमिदं जगत्।६१॥

देवीं नमति भक्त्या यो न स पापैर्विलिप्यते।
रहस्यं सर्वशास्त्राणां मया राजन्नुदीरितम् ॥६२॥

विमृश्यैतदशेषेण भज देवीपदाम्बुजम्।
अजपां नाम गायत्रीं जपन्ति निखिला जनाः॥६३॥

महिमानं न जानन्ति मायाया वैभवं महत् ।
गायत्रीं ब्राह्मणाः सर्वे जपन्ति हृदयान्तरे ॥६४॥

महिमानं न जानन्ति मायाया वैभवं महत् ।
एतत्सर्वं समाख्यातं यत्पृष्टं तत्त्वया नृप ।
युगधर्मव्यवस्थायां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥६५॥
द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥४२॥

पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।
असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥४३॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां षष्ठस्कन्धे युगधर्मव्यवस्थावर्णनं नामकादशोऽध्यायः।११।

युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन

जनमेजय बोले- हे द्विजश्रेष्ठ ! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलराम और श्रीकृष्णके अवतारकी बात आपने कही, किंतु मेरे मनमें एक संशय है ॥1॥ द्वापरयुगके अन्तमें अत्यन्त दीन तथा आतुर होकर भारी बोझसे दबी हुई पृथ्वी गौका रूप धारण करके ब्रह्माजीकी शरणमें गयी ॥2।।तब ब्रह्माजीने लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु प्रार्थना की- 'हे भगवन्! हे विभो ! हे जनार्दन! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये और साधुजनोंकी रक्षाके लिये आप देवताओं के साथ भारतवर्ष में वसुदेवके घरमें शीघ्र ही अवतार लीजिये ॥3-4 ॥


ब्रह्माजीके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलरामके साथ देवकीके पुत्र हुए; तब उन्होंने अनेक दुष्टों तथा सभी दुराचारी और पापबुद्धि राजाओंको ज्ञात करके उन्हें मारकर पृथ्वीका कितना भार उतारा ? ॥ 5-6 ॥

भीष्म मारे गये, द्रोणाचार्य मारे गये इसी प्रकार विराट, द्रुपद, बाह्लीक सोमदन और सूर्यपुत्र कर्ण मारे गये। परंतु जिन्होंने कृष्णकी पत्नियोंका हरण किया और उनका सारा धन लूट लिया, उन दुष्टोंको तथा जो करोड़ों आभीर, शक, म्लेच्छ और निषाद पृथ्वीतलपर स्थित थे उन सबको उन्होंने नष्ट क्यों नहीं कर दिया? तब उन बुद्धिमान् श्रीकृष्णने पृथ्वीका कौन-सा भार उतार दिया! हे महाभाग ! मेरे चित्तसे यह सन्देह नहीं हटता है; इस कलियुगमें तो समस्त प्रजा पापपरायण ही दिखायी देती है ।।7-10॥
व्यासजी बोले—हे राजन्! जैसा युग होता है, कालप्रभावसे प्रजा भी वैसी ही होती है, इसके विपरीत नहीं होता; इसमें युगधर्म ही कारण है ।। 11 । जो धर्मानुरागी जीव हैं, वे सत्ययुगमें हुए; धर्म और अर्थसे प्रेम रखनेवाले प्राणी हैं, वे प्रेतायुग जो हुए: धर्म, अर्थ और कामके रसिक प्राणी द्वापरयुगमें हुए और अर्थ तथा काममें आसक्ति रखनेवाले सभी प्राणी इस कलियुगमें होते हैं । 12-13 ॥हे राजेन्द्र । युगधर्मका प्रभाव विपरीत नहीं होता है; काल ही धर्म और अधर्मका कर्ता है ।।14 ।।राजा बोले- हे महाभाग !सत्ययुगमें जो धर्मपरायण प्राणी हुए हैं, वे पुण्यशाली लोग इस समय कहाँ स्थित हैं ? हे पितामह। त्रेतायुग या द्वापरमें जो दान तथा व्रत करनेवाले श्रेष्ठ मुनि हुए हैं, वे अब कहाँ विद्यमान हैं; मुझे बतायें। इस कलियुगमें जो दुराचारी, निर्लज्ज, देवनिन्दक और पापी लोग विद्यमान हैं, वे सत्ययुगमें कहाँ जायँगे ? हे महामते ! यह सब विस्तारपूर्वक कहिये; मैं इस धर्मनिर्णयके विषयमें सब कुछ सुनना चाहता
हूँ । ll15-18 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन्! जो मनुष्य सत्ययुगमें उत्पन्न होते हैं, वे अपने पुण्यकार्योंके कारण देवलोकको चले जाते हैं ॥ 19 ॥

हे नृपश्रेष्ठ! अपने-अपने वर्णाश्रमधर्मो में संलग्न रहनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने कर्मोंसे अर्जित लोकोंमें चले जाते हैं ॥ 20 ॥

सत्य, दया, दान, एकपत्नीव्रत, सभी प्राणियोंमें अद्रोहभाव तथा सभी जीवोंमें समभाव रखना यह सत्ययुगका साधारण धर्म है। सत्ययुगमें इसका धर्मपूर्वक पालन करके रजक आदि इतर वर्णके लोग भी स्वर्ग चले जाते हैं। हे राजन् ! त्रेता और द्वापरयुगमें यही स्थिति रहती है, किंतु इस कलियुगमें पापी मनुष्य नरक जाते हैं और वे वहाँ तबतक रहते हैं जबतक युगका परिवर्तन नहीं होता, उसके बाद मनुष्यके रूपमें पुनः पृथ्वीपर जन्म लेते हैं । ll21 - 24 ॥

हे राजन् ! जब कलियुगका अन्त और सत्ययुगका आरम्भ होता है, तब पुण्यशाली लोग स्वर्गसे पुनः मनुष्यके रूपमें जन्म लेते हैं ॥ 25 ॥

जब द्वापरका अन्त और कलियुगका प्रारम्भ होता है, तब नरकके सभी पापी पृथ्वीपर मनुष्यके रूपमें उत्पन्न होते हैं ॥ 26 ॥

इस प्रकार युगके अनुरूप ही आचार होता है, उसके विपरीत कभी नहीं। कलियुग असत् प्रधान होता है, इसलिये उसमें प्रजा भी वैसी ही होती है।दैवयोगसे कभी-कभी इन प्राणियोंके जन्म लेनेमें व्यतिक्रम भी हो जाता है। कलियुगमें कुछ जो साधुजन हैं, वे द्वापरके मनुष्य हैं। उसी प्रकार द्वापरके मनुष्य कभी-कभी त्रेतामें और त्रेताके मनुष्य सत्ययुग में जन्म लेते हैं। जो सत्ययुगमें दुराचारी मनुष्य होते हैं, वे कलियुगके हैं। वे अपने किये हुए कर्मके प्रभावसे दुःख पाते हैं और पुनः युगप्रभावसे वे वैसा ही कर्म करते हैं ।। 27-30 ॥

जनमेजय बोले- हे महाभाग ! आप समस्त युगधर्मोका पूर्णरूपसे वर्णन करें; जिस युगमें जैसा धर्म होता है, उसे मैं जानना चाहता हूँ ॥ 31 ॥

व्यासजी बोले—हे नृपशार्दूल! ध्यानपूर्वक सुनिये, इस सम्बन्धमें मैं एक दृष्टान्त कहता हूँ । साधुजनोंके मन भी युगधर्मसे प्रभावित होते हैं ॥ 32 ॥

हे राजेन्द्र ! आपके महात्मा और धर्मज्ञ पिताकी भी बुद्धि कलियुगने विप्रका अपमान करनेकी ओर प्रेरित कर दी थी; अन्यथा ययातिके कुलमें पैदा हुए क्षत्रिय राजा परीक्षित् एक तपस्वीके गलेमें मरा हुआ सर्प क्यों डालते ? ।। 33-34 ॥

हे राजन् विद्वान्को इसे युगका ही प्रभाव समझना चाहिये। इसलिये विशेषरूपसे धर्माचरण ही प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ll 35 ॥

हे राजन् ! सत्ययुगमें सभी ब्राह्मण वेदके ज्ञाता, पराशक्तिकी पूजामें तत्पर रहनेवाले, देवीदर्शनकी लालसासे युक्त, गायत्री और प्रणवमन्त्रमें अनुरक्त, गायत्रीका ध्यान करनेवाले, गायत्रीजपपरायण, एकमात्र मायाबीजमन्त्रका जप करनेवाले, प्रत्येक गाँवमें भगवती पराम्बाका मन्दिर बनानेके लिये उत्सुक रहनेवाले, अपने-अपने कर्मोंमें निरत रहनेवाले, सत्य-पवित्रता दयासे समन्वित, वेदत्रयी कर्ममें संलग्न रहनेवाले और तत्त्वज्ञानमें पूर्ण निष्णात होते थे। क्षत्रिय प्रजाओंके भरण-पोषण में संलग्न रहते थे। हे राजन् ! उस पुण्यमय सत्ययुगमें वैश्यलोग कृषि, व्यापार और गो-पालन करते थे तथा शूद्र सेवापरायण रहते थे । ll 36-40 ॥

उस सत्ययुगमें सभी वर्णोंके लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे। उसके बाद | त्रेतायुगमें धर्मकी स्थिति कुछ कम हो गयी। सत्ययुगमेंजो धर्मकी स्थिति थी, वह द्वापरमें विशेषरूपसे कम हो गयी। हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुगमें ब्राह्मण माने जाते हैं । 41-42 ॥ वे प्रायः पाखण्डी, लोगोंको ठगनेवाले, झूठ बोलनेवाले तथा वेद और धर्मसे दूर रहनेवाले होते हैं। उनमें से कुछ तो दम्भी, लोकव्यवहारमें चालाक, अभिमानी, वेदप्रतिपादित मार्गसे हटकर चलनेवाले, शूद्रोंकी सेवा करनेवाले, विभिन्न धर्मोंका प्रवर्तन करनेवाले, वेदनिन्दक, क्रूर, धर्मभ्रष्ट और व्यर्थ वाद-विवादमें लगे रहनेवाले होते हैं। हे राजन् ! जैसे-जैसे कलियुगकी वृद्धि होती है, वैसे-वैसे सत्यमूलक धर्मका सर्वथा क्षय होता जाता है और वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और इतर वर्णोंके लोग भी धर्महीन, मिथ्यावादी तथा पापी होते हैं। ब्राह्मण शूद्रधर्म में संलग्न और प्रतिग्रहपरायण हो जाते हैं ॥ 43-47 ॥

हे राजन् ! कलियुगका प्रभाव और बढ़नेपर स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी तथा काम, लोभ और मोहसे युक्त हो जायँगी हे राजन् ! वे पापाचारिणी, झूठ बोलनेवाली, सदा कलह करनेवाली, अपने पतिको ठगनेवाली और नित्य धर्मका भाषण करनेमें निपुण होंगी। कलियुगमें इस प्रकारकी पापपरायण स्त्रियाँ होती हैं ।। 48-493 ॥

हे राजन् ! आहारकी शुद्धिसे ही अन्तःकरणकी शुद्धि होती है और हे नृपश्रेष्ठ ! चित्त शुद्ध होनेपर ही धर्मका प्रकाश होता है। आचारसंकरता (दूसरे वर्णोंके अनुसार आचरण ) - दोषसे धर्ममें व्यतिक्रम (विकार) उत्पन्न होता है और धर्ममें विकृति होनेपर वर्णसंकरता उत्पन्न होती है। हे राजन् ! इस प्रकार | सभी धर्मोंसे हीन कलियुगमें अपने-अपने वर्णाश्रम धर्मकी चर्चा भी कहीं नहीं सुनायी देती। हे राजन् ! धर्मज्ञ और श्रेष्ठजन भी अधर्म करने लग जाते हैं। यह कलियुगका स्वभाव ही है; किसीके भी द्वारा इसका प्रतीकार नहीं किया जा सकता। अतः हे राजेन्द्र ! इस कालमें स्वभावसे ही पाप करनेवाले मनुष्योंकी निष्कृति सामान्य उपायसे नहीं हो | सकती ॥। 50-543 ॥जनमेजय बोले- हे भगवन्! हे समस्त धर्मोक ज्ञाता ! हे समस्त शास्त्रोंमें निपुण ! अधर्मके बाहुल्यवाले | कलियुगमें मनुष्योंकी क्या गति होती है? यदि उससे निस्तारका कोई उपाय हो तो उसे दयापूर्वक मुझे बतलाइये ।। 55-56 ॥

व्यासजी बोले- हे महाराज ! इसका एक ही उपाय है दूसरा नहीं है; समस्त पापोंके शमनके लिये देवीके चरणकमलका ध्यान करना चाहिये। हे राजन्! देवीके पापदाहक नाममें जितनी शक्ति है, उतने पाप तो हैं ही नहीं। इसलिये भयकी क्या आवश्यकता ? यदि विवशतापूर्वक भी भगवतीके नामका उच्चारण हो जाय, तो वे क्या-क्या दे देती हैं, उसे जाननेमें भगवान् शंकर आदि भी समर्थ नहीं हैं ! ।। 57 - 59॥

भगवती देवीके नामका स्मरण ही समस्त पापोंका प्रायश्चित्त है, इसलिये हे राजन् ! मनुष्यको कलिके भयसे पुण्यक्षेत्रमें निवास करना चाहिये और पराम्बाके नामका निरन्तर स्मरण करना चाहिये। जो देवीको भक्तिभावसे नमस्कार करता है, वह प्राणियोंका छेदन-भेदन और सारे संसारको पीड़ित करके भी उन पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 60-613 ॥

हे राजन्! यह मैंने आपसे सम्पूर्ण शास्त्रोंके रहस्यको कह दिया, इसपर भलीभाँति विचारकर आप देवीके चरणकमलकी आराधना करें। [ वैसे तो ] | सभी लोग 'अजपा' नामक गायत्रीका जप करते हैं, लेकिन वे [मायासे मोहित होनेके कारण] उन महामायाकी महिमा और महान् वैभवको नहीं जानते। सभी ब्राह्मण अपने हृदयमें गायत्रीका जप करते हैं, परंतु वे भी उन महामायाकी महिमा और उनके महान् वैभवको नहीं जानते। हे राजन्! युगधर्मकी व्यवस्थाके विषयमें आपने जो कुछ पूछा था, यह सब मैंने कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 62-65 ॥

-संवाद शैली से तेरी भावनाऐं प्रतिबिम्बित हो गयी हैं ; शब्दों से न हमको भरमा अब मेरी वारगाह से तेरी बेवफाऐं निलम्बित हो गयी हैं ।
वाकई जो लोग अपने फरेब ऐब छुपा कर सादिकों को छला करते हैं ! 
वे औरों का तो क्या ? अपना भी कभी नहीं   भला करते हैं ।और वे कभी हमारे निष्कर्षों पर पहुँचना ही नहीं चाहते हैं ।


 "क्योंकि महान होने वाले ही सभी ख़य्याम नहीं होते उनकी महानता के भी 'रोहि' कोई  इनाम नहीं होते। फर्क नहीं पढ़ता उनकी शख्सियत में कुछ भी रोहि" ,ग़मों में सम्हल जाते हैं वे ,जो कभी नाकाम नहीं होते।।बड़ी सिद्दत से संजोया है, ठोकरों के अनुभवों को अनुभवों से प्रमाणित ज्ञान के कोई दाम नहीं होते ।।  
इस लिए यादव समाज की सेवा के लिए यह  एक क़दम है।आने वाली अगली पीढी़याँ उन्हें ज़ेहन में संजोती हैं, याद करती हैं उन्हें मुशीबतों में ,और तब उनके के लिए ही रोती हैं। जो समाज की हीनता मिटाकर उनके स्वाभिमान के लिए कुछ खा़स और नया उपक्रम करते हैं । सारी दुनियाँ जब सोती हैं ; परन्तु वे रात तक श्रम करते हैं । उनको मैं नमन करता हूँ।
                                                         

मंगलवार, 20 सितंबर 2022

सत्यनारायण व्रत कथा में अहीरों की भक्ति चर्या-


सत्य नारायण व्रत कथा के पात्र अहीर लोग-

सत्यनारायण व्रत - सत्य नारायण व्रत कथा

                 सत्यनारायणव्रतकथाः विशेषव्रतपूजाः - बुधाष्टमीव्रताङ्गपूजाविधि:

                    ॥ अथ कथा ॥
                    "व्यास उवाच ॥ 

एकदा नैमिषारण्ये ऋषय: शौनकादय: ॥ पप्रच्छुर्मुनय: सर्वे सूतं पौराणिकं खलु ॥१॥                          ऋषय ऊचु:। 

व्रतेन तपसा किंवा प्राप्यते वाञ्छितं फलम् ॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: कथयस्व महामुने ॥२॥                           सूत उवाच। 

नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान् कमलापित:॥    सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं समाहिता:॥३॥

एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्क्षया॥      पर्यटन् विविधान् लोकान् मर्त्यलोकमुपागत:॥४॥ततो दृष्टवा जनान्सर्वान्नानाक्लेशसमन्वितान्॥ नानायोनिसमुत्पन्नान्क्लिश्यमानान् स्वकर्मभि:।५।  केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशो भवेद ध्रुवम् ।      इति सञ्चिन्त्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा॥६॥तत्र नारायणं देवं शुक्लवर्णं चतुर्भुजम् । शङखचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम् ॥७॥द्दष्टवा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे ॥                               -नारद उवाच ॥                          नमो वाङमनसातीतरूपायानन्तशक्तये ॥८॥आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणत्मने ॥ सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने ॥९॥श्रुत्वा स्तोत्रं ततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत ॥                          -श्रीभगवानुवाच॥                       किमर्थमागतोऽसि त्वं कि ते मनसि वर्तते ॥१०॥कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते ॥                          नारद उवाच ॥              मर्त्यलोके जना: सर्वे नानाक्लेशसमन्विता:॥ नानायोनिसमुत्पन्ना: पच्यन्ते पापकर्मभि:॥११॥

तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्वद॥ श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि॥१२॥

                   श्रीभगवानुवाच॥

साधु पृष्टं त्वया वत्स लोकानुग्रहकाङ्क्षया ॥ यत्कृत्वा मुच्यते मोहात्तच्छृणुष्व वदामि ते॥१३॥

व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मर्त्ये च दुर्लभम् ॥      तव स्नेहान्मया वत्स प्रकाश:क्रियतेऽधुना॥१४॥

सत्यनारायणस्यैव व्रतं सम्यग्विधानत:॥        कृत्वा सद्य:सुखं भुक्त्त्वापरत्र मोक्षमाप्नुयात्॥१५॥

 तच्छुत्वा भगवद्वाक्यं नारदो मुनिरब्रवीत् ॥                             "नारद उवाच ॥

किंफलं किंविधानं च कृतं केनैव तद् व्रतम्॥१६॥
तत्सर्वं विस्तराद् ब्रूहि कदा कार्यं हि तद व्रतम्॥ दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम् ॥१७॥

सौभाग्यसन्ततिकरं सर्वत्र विजयप्रदम्।      यस्मिन् कस्मिन्दिने मर्त्यो भक्तिश्रद्धासमन्वित:।१८।

सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे॥ ब्राह्मणैर्बान्धबैश्चैव सहितो धर्मतत्पर:॥१९॥

नैवेद्यं भक्तितो दद्यात्सपादं भक्तिसंयुतम् ॥ रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णाकम् ॥२०॥

अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा च गुडस्तथा ।     सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत् ॥२१॥

विप्राय दक्षिणां दद्यात्कथां श्रुत्वा जनै: सह ॥ ततश्च बन्धुभि: सार्धं विप्रांश्च प्रतिभोजयेत् ॥२२॥

प्रसादं भक्षयेद्भक्त्या नृत्यगीतादिकं चरेत् ॥    ततश्च स्वगृहं गच्छेत्सत्यनारायणं स्मरन् ॥२३॥

एवं कृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ॥ विशेषत: कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले ॥२४॥

"अनुवाद:-

श्री व्यासजी ने कहा- एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि हजारों ऋषि-मुनियों ने पुराणों के महाज्ञानी श्री सूतजी से पूछा कि वह व्रत-तप कौन सा है, जिसके करने से मनवांछित फल प्राप्त होता है। हम सभी वह सुनना चाहते हैं। कृपा कर सुनाएँ। श्री सूतजी बोले- ऐसा ही प्रश्न नारद ने किया था। जो कुछ भगवान कमलापति ने कहा था, आप सब उसे सुनिए।

परोपकार की भावना लेकर योगी नारद कई लोकों की यात्रा करते-करते मृत्यु लोक में आ गए। वहाँ उन्होंने देखा कि लोग भारी कष्ट भोग रहे हैं। पिछले कर्मों के प्रभाव से अनेक योनियों में उत्पन्न हो रहे हैं। दुःखीजनों को देख नारद सोचने लगे कि इन प्राणियों का दुःख किस प्रकार दूर किया जाए। मन में यही भावना रखकर नारदजी विष्णु लोक पहुँचे। वहाँ नारदजी ने चार भुजाधारी सत्यनारायण के दर्शन किए, जिन्होंने शंख, चक्र, गदा, पद्म अपनी भुजाओं में ले रखा था और उनके गले में वनमाला पड़ी थी।

नारदजी ने स्तुति की और कहा कि मन-वाणी से परे, अनंत शक्तिधारी, आपको प्रणाम है। आदि, मध्य और अंत से मुक्त सर्वआत्मा के आदिकारण श्री हरि आपको प्रणाम। नारदजी की स्तुति सुन विष्णु भगवान ने पूछा- हे नारद! तुम्हारे मन में क्या है? वह सब मुझे बताइए। भगवान की यह वाणी सुन नारदजी ने कहा- मर्त्य लोक के सभी प्राणी पूर्व पापों के कारण विभिन्न योनियों में उत्पन्न होकर अनेक प्रकार के कष्ट भोग रहे हैं।

यदि आप मुझ पर कृपालु हैं तो इन प्राणियों के कष्ट दूर करने का कोई उपाय बताएँ। मैं वह सुनना चाहता हूँ। श्री भगवान बोले हे नारद! तुम साधु हो। तुमने जन-जन के कल्याण के लिए अच्छा प्रश्न किया है। जिस व्रत के करने से व्यक्ति मोह से छूट जाता है, वह मैं तुम्हें बताता हूँ। यह व्रत स्वर्ग और मृत्यु लोक दोनों में दुर्लभ है। तुम्हारे स्नेहवश में इस व्रत का विवरण देता हूँ।

सत्यनारायण का व्रत विधिपूर्वक करने से तत्काल सुख मिलता है और अंततः मोक्ष का अधिकार मिलता है। श्री भगवान के वचन सुन नारद ने कहा कि प्रभु इस व्रत का फल क्या है? इसे कब और कैसे धारण किया जाए और इसे किस-किस ने किया है। श्री भगवान ने कहा दुःख-शोक दूर करने वाला, धन बढ़ाने वाला। 

सौभाग्य और संतान का दाता, सर्वत्र विजय दिलाने वाला श्री सत्यनारायण व्रत मनुष्य किसी भी दिन श्रद्धा भक्ति के साथ कर सकता है।

सायंकाल धर्मरत हो ब्राह्मण के सहयोग से और बंधु बांधव सहित श्री सत्यनारायण का पूजन करें। भक्तिपूर्वक खाने योग्य उत्तम प्रसाद (सवाया) लें। यह प्रसाद केले, घी, दूध, गेहूँ के आटे से बना हो। यदि गेहूँ का आटा न हो, तो चावल का आटा और शक्कर के स्थान पर गुड़ मिला दें। सब मिलाकर सवाया बना नैवेद्य अर्पित करें। इसके बाद कथा सुनें, प्रसाद लें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और इसके पश्चात बंधु-बांधवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराएँ।

प्रसाद पा लेने के बाद कीर्तन आदि करें और फिर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए स्वजन अपने-अपने घर जाएँ। ऐसे व्रत-पूजन करने वाले की मनोकामना अवश्य पूरी होगी। कलियुग में विशेष रूप से यह छोटा-सा उपाय इस पृथ्वी पर सुलभ है।

इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे  सत्यनारायणव्रतकथायां प्रथमोऽध्याय: ॥१॥

        
                   "सूत उवाच॥ अथान्यत्सम्प्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा द्विज॥ कश्चित्काशीपुरे रम्ये ह्यासीद्विप्रोऽतिनिर्धन:॥१॥

क्षुतृडभ्यां व्याकुलो भूत्वा नित्यं बभ्राम भूतले॥ दू:खितं ब्राह्मणं दृष्टवा भगवान् ब्राह्मणप्रिय:॥२॥

वृद्धब्राह्मणरूपस्तं पप्रच्छ द्विजमादरात् ॥    किमर्थं अमसे विप्र महीं नित्यं सुदु:खित:॥३॥

तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां द्विजसत्तम ॥                          "ब्राह्मण उवाच॥                        ब्राह्मणोऽतिदरिद्रोऽहं भिक्षार्थं वै भ्रमे महीम् ॥४॥


उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो ।                              "वृद्धब्राह्मण उवाच।                      सत्यनारायणो विष्णुर्वाञ्छितार्थफलप्रद:॥५॥

तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम् ॥    यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥६॥

विधानं च व्रतस्यापि विप्रायाभाष्य यत्नत:॥ सत्यनारायणो वद्धस्तत्रैवान्तरधीयत ॥७॥


तदव्रतं सङ्करिष्यामि यदुक्तं ब्राह्मणेन वै॥      इति सञ्चिन्त्यविप्रोऽसौ रात्रौनिद्रांलब्धवान्।८।


तत प्रात: समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम् ॥      करिष्य इति सङ्कल्प्य भिक्षार्थमगमद् द्विज:॥९॥


तस्मिन्नेव दिने विप्र: प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान्।        तेनैव बन्धुभि: सार्द्धं सत्यस्य व्रतमाचरत्॥१०॥


सर्वदूःखविनिर्मुक्त: सर्वसम्पत्समन्वित:॥        बभूव स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्यास्य प्रभावत:॥११॥


तत:प्रभृति कालं च मासि मासि व्रतं कृतम्॥      एवं नारायणस्येदं व्रतं कृत्वा द्विजोत्तम:॥१२॥


सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं मोक्षमाप्तवान् ।      व्रतमस्य यदा विप्रा: पृथिव्यां सङ्करिष्यति॥१३॥


तदैव सर्वदुःखं च मनुजस्य विनश्यति।              एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने॥१४॥


मया तत्कथितं विप्रा: किमन्यत्कथयामि व:॥                               ऋषय ऊचु:।                          तस्माद्विप्राच्छ्रुतं केन पृथिव्यां चरितं मुने॥    तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: श्रद्धास्माकं प्रजायते॥१५॥


                       सूत उवाच॥                         
श्रृणुध्वं मुनय: सर्वे व्रतं येन कृतं भुवि ॥          एकदा स द्विजवरो यथाविभवविस्तरै:॥१६॥

बन्धुभि:स्वजनै: सार्धं व्रतं  कर्तुं समुद्यत:॥ एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेता समागमत्॥१७॥


बहि:काष्ठं च संस्थ्याप्य विप्रस्य गृहमाययौ॥ तृष्णया पीडितात्मा च दृष्ट्वा विप्रंकृत व्रतम्॥१८॥


प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं क्रियते त्वया ॥      कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद्वाद मे प्रभो ॥१९॥


                   विप्र उवाच॥                              सत्यनारायणस्येदं व्रतं सर्वेप्सितप्रदम् ॥          तस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत् ॥२०॥


तस्मादेतद् व्रतं ज्ञात्वा काष्ठविक्रेतातिहर्षित:॥      पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा स नगरं ययौ ॥२१॥


सत्यनारायणं देवं मनसा इत्यचिन्तयत् ॥          काष्ठं विक्रयतो ग्रामे प्राप्यते चाद्य यद्‌धनम् ॥२२॥


तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये व्रतमुत्तमम् ॥            इतिसञ्चिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा तु मस्तके॥२३॥


जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थिति: ॥      तद्दिने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ॥२४॥


तत: प्रसन्नहृदय: सुपक्वं कदलीफलम् ॥ शर्कराघृतदुग्धं च गोधूमस्य च चूर्णकम्॥२५॥


कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ ॥        ततो बन्धून्समाहूय चकार विधिना व्रतम् ॥२६॥


तदव्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत्।    इहलोके सुखं भुंक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥२७॥

"अनुवाद:-

सूत जी बोले – हे ऋषियों ! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया था उसका इतिहास कहता हूँध्यान से सुनो! सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था।  भूख प्यास से परेशान वह धरती पर घूमता रहता था।  ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर उसके पास जाकर पूछा – हे विप्र! नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी पर क्यूँ घूमते होदीन ब्राह्मण बोला – मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ।  भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूँ।

हे भगवन् ! यदि आप इसका कोई उपाय जानते हो तो कृपाकर बताइए।  वृद्ध ब्राह्मण कहता है कि सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं इसलिए तुम उनका पूजन करो।  इसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।  वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए सत्यनारायण भगवान उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अन्तर्धान हो गए।  ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण करने को कह गया है मैं उसे अवश्य करूँगा।  यह निश्चय करने के बाद उसे रात में नीँद नहीं आई।

वह सवेरे उठकर सत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला गया। उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला। जिससे उसने बंधु-बाँधवों के साथ मिलकर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत संपन्न किया। भगवान सत्यनारायण का व्रत संपन्न करने के बाद वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से छूट गया और अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया। उसी समय से यह ब्राह्मण हर माह इस व्रत को करने लगा।

इस तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। जो मनुष्य इस व्रत को करेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा। सूत जी बोले कि इस तरह से नारद जी से नारायण जी का कहा हुआ श्रीसत्यनारायण व्रत को मैने तुमसे कहा। हे विप्रो ! मैं अब और क्या कहूँऋषि बोले – हे मुनिवर ! संसार में उस विप्र से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को कियाहम सब इस बात को सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा का भाव है। सूत जी बोले – हे मुनियों ! जिस-जिस ने इस व्रत को किया हैवह सब सुनो ।

एक समय वही विप्र धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बंधु-बाँधवों के साथ इस व्रत को करने को तैयार हुआ। उसी समय एक एक लकड़ी बेचने वाला लकड़हाड़ा आया और लकड़ियाँ बाहर रखकर अंदर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से दुखी वह लकड़हारा ब्राह्मण को व्रत करते देख विप्र को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे हैं तथा इसे करने से क्या फल मिलेगाकृपया मुझे भी बताएँ।ब्राह्मण ने कहा कि सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है।इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन धान्य आदि की वृद्धि हुई है।

विप्र से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ । चरणामृत लेकर व प्रसाद खाने के बाद वह अपने घर गया। लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से श्रीसत्यनारायण भगवान का उत्तम व्रत करूँगा। मन में इस विचार को ले लकड़हारा सिर पर लकड़ियाँ रख उस नगर में बेचने गया जहाँ धनी लोग ज्यादा रहते थे। उस नगर में उसे अपनी लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना अधिक मिला ।

लकड़हारा प्रसन्नता के साथ दाम लेकर केलेशक्करघीदूधदही और गेहूँ का आटा ले और सत्यनारायण भगवान के व्रत की अन्य सामग्रियाँ लेकर अपने घर गया। वहाँ उसने अपने बंधु-बाँधवों को बुलाकर विधि विधान से सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख भोग अंत काल में बैकुंठ धाम चला गया।

        
                 सूत उवाच ॥                              पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा: ॥            पुरा चोल्कामुखो नाम नृपश्चासी:महामति:॥१॥

जितेन्द्रिय: सत्यवादी ययौ देवालयं प्रति ॥        दिने दिने धनं दत्वा द्विजान्सन्तोषयत्सुधी:॥२॥

भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती ॥ भद्रशीला नदीतीरे सत्यस्य व्रतमाचरत् ॥३॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र साधुरेक: समागत: ॥ वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकै: परिवारित: ॥४॥

नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति ॥          दृष्ट्वा स व्रतिनं भूपं पप्रच्छ विनयान्वित:॥५॥

                   साधुरुवाच ॥                            किमिदं कुरुषे राजन्भक्तियुक्तन चेतसा ॥      प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम्॥६॥

                   'राजोवाच ॥                        पूजनं क्रियते साधो विष्णोरतुलतेजस: ॥            व्रतं च स्वजनै: सार्वं पुत्राद्यावाप्तिकाम्यया॥७॥

भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधु: प्रोवाच सादरम् ॥      सर्वं कथय मे राज्यन्करिष्येऽहं तवोदितम् ॥८॥

ममापि सन्ततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते ध्रुवम्॥    ततो निवृत्य वाणिज्यात्सानन्दो गृहमागत:॥९॥

भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं सन्ततिदायकम् ॥        तदा व्रतं करिष्यामि यदा मे सन्ततिर्भवेत् ॥१०॥

इति लीलावतीं प्राह पत्नीं साधु: स सत्तम:॥ एकस्मिन्दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती॥११॥

भर्तृयुक्ताऽऽनन्दचित्ताऽभवद्धर्मपरायणा ॥  गर्भिणी साऽभवत्तस्य भार्या सत्यप्रसादत:॥१२॥

दशमे मासि वै तस्या: कन्यारत्नमजायत ॥        दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी॥१३॥

सम्ना कलावति चेति तन्नामकरण कृतम् ॥        ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वच:॥१४॥


न करोषि किमर्यं वै पुरा सङ्कल्पितं व्रतं॥                               साधुरुवाच॥                            विवाहसमये त्वस्या: करिष्यामि व्रतं प्रिये ॥१५॥

इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति॥          तत: कलावती कन्या ववृधे पितृवेश्मनि॥१६॥

दृष्ट्वा कन्यां तत: साधुर्नगरे सखिभि:सह॥ मन्त्रयित्वा द्रुतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित्॥१७॥

विवाहार्थे च कन्याया: वरं श्रेष्ठं विचारय ॥ तेनाज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काञ्चनं नगरं ययौ ॥१८॥

तस्मादेकं वणिक्पुत्रं समादायागतो हि स: ॥       दृष्ट्वा तु सुन्दरं बालंवणिक्पुत्रं गुणान्वितम्॥१९॥

ज्ञातिभिर्बन्धुभि: सार्धं परितुष्टेन चेतसा ॥    दत्तवान् साधु: पुत्राय कन्यां विधिविधानत:॥२०॥

ततो भाग्यवशात्तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम् ॥ विवाहसमये तस्यास्तेन रुष्टेऽभवत्प्रभु:॥२१॥

तत: कालेन नियतो निजकर्मविशारद:॥ वाणिज्यार्थं तत:शीघ्रं जामातृसहितो वणिक्।२२।

रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धुसमीपत:॥ वाणिज्यमकरोत्साधुर्जामात्रा श्रीमता सह॥२३॥

तौ गतौ नगरे रम्ये चन्द्रकेतोर्नृपस्य च॥  एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायण:प्रभु:॥२४॥

भ्रष्टप्रतिज्ञमालोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान् ॥      दारुणं कठिनं चास्य महद दुःखं भविष्यति॥२५॥

एकस्मिन्दिवसे राज्ञो धनमादाय तस्कर:॥        तत्रैव चागतश्चौरो वणिजौ यत्र संस्थितौ॥२६॥

तत्पश्चाद्धावकान् दूतान्‌ दृष्ट्वा भीतेन चेतसा ॥ धनं संस्थाप्य तत्रैव स तु शीघ्रमलक्षित:॥२७॥

ततो दूता:समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक्॥  दृष्ट्वा नृपधनं तत्र बदध्वाऽऽनीतौ वणिक्सुतौ॥२८॥

हर्षेण धावमानाश्च ऊचुर्नृपसमीपत:॥            तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याज्ञापय प्रभो॥२९॥

राज्ञाऽऽज्ञप्तास्तत: शीघ्रं दृढं बदध्वा तु तावुभौ ॥ स्थापितौ द्वौमहादुर्गे कारागारेऽविचारत:॥३०॥

मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वच: ॥ अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चन्द्रकेतुना ॥३१॥

तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवातिदुःखिता ॥ चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम् ॥३२॥

आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपासातिदुःखिता ॥ अन्नचिन्तापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे गृहे ॥ कलावती तु कन्यापि बभ्राम प्रतिवासरम् ॥३३॥

एकस्मिन्दिवसे जाता क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम् ॥ गत्वाऽपश्यद व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च॥३४॥

उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं प्रार्थितवत्यपि । प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति ॥३५॥

माता कलावतीं कन्यां कथयामास प्रेमत: ॥      पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्र किं ते मनसि वर्तते ॥३६॥

कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम्॥ द्विजालये व्रतं मातर् दृष्टं वाञ्छितसिद्धिदम् ॥३७॥

तच्छत्वा कन्यकावाक्यं व्रतं कर्तुं समुद्यता ॥      सा तदा तु वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च ॥३८॥

व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभि: स्वजनै: सह ॥ भर्तृजामातरौ क्षिप्रमागच्छेतांस्वामाश्रमम् ॥३९॥

अपराधं च मे भर्तुर्जामातु: क्षन्तुमर्हसि ।      व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायण: पुन:॥४०॥

दर्शयामास स्वप्नं हि चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् ॥    बन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम ॥४१॥

देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत्त्वयाधुना ॥              नो चेत्त्वां नाशयिष्यामि सराज्यं धनपुत्रकम्॥४२॥

एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत्प्रभु:॥      तत: प्रभातसमये राजा च स्वजनै: सह ॥४३॥

उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं प्रति॥      वृद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचयद्वौ वणिक्सुतौ॥४४॥

इति राज्ञो वच:श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ॥ समानीय नृपस्याग्रे प्राहुस्ते विनयान्विता:॥४५॥

आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्तो निगडबन्धनात् ॥ ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् ॥४६॥

स्मरन्तौ पूर्ववृत्तान्तं नोचतुर्भयविह्वलौ॥          राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य वच:प्रोवाच सादरम्॥४७॥

दैवात्प्राप्तं महद्दुःखमिदानीं नास्ति वै भयम्॥      तदा निगडसंत्यागं क्षौरकर्माद्यकारयत् ॥४८॥

वस्त्रालङ्कारकं दत्वा परितोष्य नृपश्च तौ॥ पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसाऽतोषयद् भृशम॥४९॥

पुराऽऽनीतं तु यद्- द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान् । प्रोवाच तौ ततो राजा गच्छ साधो निजाश्रमम्।५०॥

राजानं प्रणिपत्याह गन्तव्यं त्वत्प्रासादत:॥ इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतु: स्वगृहं प्रति॥५१॥

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"अनुवाद:-

सूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियोंअब आगे की कथा कहता हूँ। पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली तथा सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनो ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत किया। उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन भी था। राजा को व्रत करते देखकर वह विनय के साथ पूछने लगा

हे राजन ! भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैंमैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप मुझे बताएँ। राजा बोला – हे साधु ! अपने बंधु-बाँधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए महाशक्तिमान श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुन साधु आदर से बोला – हे राजन ! मुझे इस व्रत का सारा विधान कहिए। आपके कथनानुसार मैं भी इस व्रत को करुँगा। मेरी भी संतान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से मुझे संतान की प्राप्ति होगी। राजा से व्रत का सारा विधान सुनव्यापार से निवृत हो वह अपने घर गया। साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले इस व्रत का वर्णन कह सुनाया और कहा कि जब मेरी संतान होगी तब मैं इस व्रत को करुँगा।
साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहे। एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। दिनोंदिन वह ऎसे बढ़ने लगी जैसे कि शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है। माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा। एक दिन लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने सत्यनारायण भगवान के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था उसे करने का समय आ गया हैआप इस व्रत को करिये। साधु बोला कि हे प्रिये ! इस व्रत को मैं उसके विवाह पर करुँगा।

इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर को चला गया। कलावती पिता के घर में रह वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो तुरंत ही दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या के योग्य वर देख कर आओ। साधु की बात सुनकर दूत कंचनपुर नगर में पहुंचा और वहाँ देखभाल कर लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया। सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बंधु-बाँधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

लेकिन दुर्भाग्य की बात ये कि साधु ने अभी भी श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया। इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिले। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया। वहाँ जाकर दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे।

एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से दो चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था। उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते देख चुराया हुआ धन वहाँ रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था।
राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को बाँधकर राजा के पास ले गए और कहा कि उन दोनों चोरों हम पकड़ लाएं हैंआप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें। राजा की आज्ञा से उन दोनों को कठिन कारावास में डाल दिया गया ।

और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया गया। श्रीसत्यनारायण भगवान के श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई। घर में जो धन रखा था उसे चोर चुरा ले गए। शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी हो अन्न की चिन्ता में कलावती के ब्राह्मण के घर गई। वहाँ उसने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा फिर कथा भी सुनी वह प्रसाद ग्रहण कर वह रात को घर वापिस आई।

माता ने कलावती से पूछा कि हे पुत्री अब तक तुम कहाँ थी़तेरे मन में क्या है कलावती ने अपनी माता से कहा – हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है। कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार व बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगा कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र घर आ जाएँ। साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम सब का अपराध क्षमा करें।श्रीसत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए ।
और राजा चन्द्रकेतु को सपने में दर्शन दे कहा कि – हे राजन ! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापिस कर दो। अगर ऎसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन राज्य व संतान सभी को नष्ट कर दूँगा। राजा को यह सब कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए। प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले कि बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ।

दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा मीठी वाणी में बोला – हे महानुभावों ! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम्हें प्राप्त हुआ है लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है। ऎसा कह राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।

इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां तृतीयोऽध्याय:॥३॥


     

                  सूत उवाच॥                                यात्रां तु कृतवान् साधुर्मङ्गलायनपूर्विकाम् । ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा तदा तु नगरं ययौ ॥१॥

कियद दूरे गते साधौ सत्यनारायण: प्रभु:॥ जिज्ञासां कृतवान् साधो किमस्ति तव नौ स्थितम्।२॥

ततो महाजनौ मत्तौ हेलया च प्रहस्य वै  ॥        कथं पृच्छसि भो दण्डिन् मुद्रां नेतुं किमिच्छसि।३।

लतापत्रादिकं चैव वर्तने तरणौ मम ॥            निष्ठुरं च वच: श्रुत्वा सत्यं भवतु ते वच:॥४॥

एवमुक्त्वा गत: शीघ्रं दण्डी तस्य समीपत:॥ कियद् दूरे ततो गत्वा स्थित: सिन्धुसमीपत:॥५॥

गते दण्डिनि साधुश्च कृतनित्यक्रियस्तदा ॥ उत्थितां तरणिं द्दष्ट्वा विस्मयं परमं ययौ ॥६॥

दृष्ट्वा लतादिकं चैव मूर्छितो न्यपतद भुवि ॥ लब्धसंज्ञो वणिक्पुत्रस्ततश्चिन्तान्वितोऽभवत् ॥७॥

तदा तु दुहितु: कान्तो वचनं चेदमब्रवीत् ॥      किमथ क्रियते शोक: शापो दत्तश्च दण्डिना॥८॥

शक्यते तेन सर्वं हि कर्तुं चात्र न संशय:। अतस्तच्छरणं यामो वाञ्छितार्थो भविष्यति॥९॥

जामातुर्वचनं श्रत्वा तत्सकाशं गतस्तदा ॥      दृष्ट्वा च दण्डिनं भक्तया नत्वा प्रोवाच सादरम्।१०॥

क्षमस्व चापराधं मे यदुक्तं तव सन्निधौ॥            एवं पुन: पुनर्नत्वा महाशोकाकुलोऽभेवत्॥११॥

प्रोवाच वचनं दण्डी विलपन्तं विलोक्य च॥          मा रोदी:श्रृणु मद्वाक्यं मम पूजाबहिर्मुख:॥१२॥

ममाज्ञया च दुर्बुद्धे लब्धं दुःखं मुहुर्मुहु:॥      तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं स्तुतिं कर्तुं समुद्यत:॥१३॥

                     ॥साधुरुवाच॥                           त्वन्मायामोहिता: सर्वे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकस:॥     न जानन्ति गुणान् रूपं तवाश्चर्यमिदं प्रभो॥१४॥

मूढोऽहं त्वां कथं जाने मोहितस्तव मायया॥    प्रसीद पूजयिष्यामि यथाविभवविस्तरै:॥१५॥

पुरा वित्तं च तत्सर्वं त्राहि मां शरणागतम् ॥      श्रत्वा भक्तियुतं वाक्यं परितुष्टो जनार्दन:॥१६॥

वरं च वाञ्छितं दत्त्वा तत्रैवान्तर्दधे हरि: ॥          ततो नौकां समारुह्य द्दष्ट्वा वित्तप्रपूरिताम्॥१७॥

कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम॥ इत्युक्त्वा स्वजनै:सार्द्धं पूजांकृत्वा यथाविधिम्।१८॥

हर्षेण चाभवत्पूर्ण:सत्यदेवप्रसादत:।              नावं संयोज्य यत्नेन स्वदेशगमनं कृतम्॥१९॥

साधुर्जामातरं प्राह पश्य रत्नपुरी मम ॥              दुतं च प्रेषयामास निजवित्तस्य रक्षकम्॥२०॥

दूतोऽसौ नगरं गत्वा साधुभार्यां विलोक्य च॥ प्रोवाच वाञ्छितं वाक्यंनत्वा बद्धाञ्जलिस्तदा।२१॥ 

निकटे नगरस्यैव जामात्रा सहितो वणिक् ॥ आगतो बन्धुवर्गैश्च वित्तैश्च बहुभिर्युत:॥२२॥

श्रुत्वा दूतमुखाद्वाक्यं महाहर्षवती सती ॥ सत्यपूजां तत: कृत्वा प्रोवाच तनुजां प्रति॥२३॥

व्रजामि शीधमागच्छ साधुसंदर्शनाय च ॥          इति मातृवच: श्रुत्वा व्रतं कृत्वा समाप्य च॥२४॥

प्रसादं च परित्यज्य गता सापि पतिं प्रति।          तेन रुष्ट: सत्यदेवो भर्तारं तरर्णि तथा॥२५॥

संहृत्य च धनै: सार्द्धं जले तस्यावमज्जयत् ॥      तत: कलावती कन्या न विलोक्य निजं पतिम् ॥२६॥

शोकेन महता तत्र रुदती चापतद भुवि ॥             दृष्ट्वा तथाविधां नावं कन्यां च बहुदु:खिताम्।२७॥

भीतेन मनसा साधु: किमाश्चर्यमिदं भवेत् ॥ चिन्त्यमानाश्च ते सर्वे बभूवुस्तरिवाहका: ॥२८॥

ततो लीलावती कन्यां दृष्ट्वा सा विह्वलाभवत् ॥ विललापातिदुःखेन भर्तारं चेदमब्रवीत्॥२९॥

इदानीं नौकया सार्द्धं कथं सोऽभूदलक्षित:॥        न जाने कस्य देवस्य हेलया चैव सा हृता ॥३०॥

सत्यदेवस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वा केन शक्यते ॥ इत्युक्त्वा विललापैव ततश्व स्वजनै:सह ॥३१॥

ततो लीलावती कन्यां क्रोडे कृत्वा रुरोद ह॥      तत: कलावती कन्या नष्टे स्वामिनि दुःखिता॥३२॥

गृहीत्वा पादुकां तस्यानुगन्तुं च मनो दधे॥ कन्यायाश्चरितं दृष्ट्वा सभार्य: सज्जनो वणिक्।३३।

अतिशोकेन सन्तप्तश्चिन्तयामास धर्मवित् ॥        हृतं वा सत्यदेवेन भ्रान्तोऽहं सत्यमायया॥३४॥

सत्यपूजां करिष्यामि यथाविभवविस्तरै: ॥      इति सर्वान्समाहूय कथयित्वा मनोरथम्॥३५॥

नत्वा च दण्डवद् भूमौ सत्यदेवं पुन: पुन: ॥ ततस्तुष्ट: सत्यदेवो दिनानां परिपालक:॥३६॥

जगाद वचनं चैनं कृपया भक्तवत्सल: ॥        त्यक्त्वा प्रसादं ते कन्या पर्ति द्रष्टुं समागता॥३७॥

अतोऽदृष्टोऽभवत्तस्या: कन्यकाया: पतिर्ध्रुवम् ॥ गृहं गत्वाप्रसादं च भुक्त्वा साऽऽयाति चेत्पुन:।३८।

लब्धभर्त्री सुता साधो भविष्यति न संशय:॥ कन्यका तादृशं वाक्यं श्रुत्वा गगनमण्डलात्।३९॥

क्षिप्रं तदा गृहं गत्वा प्रसादं च बुभोज सा॥        सा पश्चात्पुनरागत्य ददर्श स्वजनं पतिम् ॥४०॥

तत: कलावती कन्या जगाद पितरं प्रति ॥      इदानीं च गृहं याहि विलम्बं कुरुषे कथम् ॥४१॥

तच्छुत्वा कन्यकावाक्यं सन्तुष्टोऽभूद्वणिक्सुत:॥ पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा विधिविधानत:॥४२॥

धनैर्बन्धुगणै: सार्धं जगाम निजमन्दिरम् ॥ पौर्णमास्यां च सङ्क्रा:तौकृतवा:सत्यपूजनम्।४३।

इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥४४॥

               "चतुर्थोऽध्यायः – 

सूतजी बोले- साधु नामक वैश्य मंगल स्मरण कर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देअपने घर की ओर चला। अभी कुछ दूर ही साधु चला था कि भगवान सत्यनारायण ने साधु वैश्य की मनोवृत्ति जानने के उद्देश्य सेदंडी का वेश धरवैश्य से प्रश्न किया कि उसकी नाव में क्या है। संपत्ति में मस्त साधु ने हंसकर कहा कि दंडी स्वामी क्या तुम्हें मुद्रा (रुपए) चाहिए। मेरी नाव में तो लता-पत्र ही हैं। ऐसे निठुर वचन सुन श्री सत्यनारायण भगवान बोले कि तुम्हारा कहा सच हो।

इतना कह दंडी कुछ दूर समुद्र के ही किनारे बैठ गए। दंडी स्वामी के चले जाने पर साधु वैश्य ने देखा कि नाव हल्की और उठी हुई चल रही है। वह बहुत चकित हुआ। उसने नाव में लता-पत्र ही देखे तो मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। होश आने पर वह चिंता करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा ऐसे शोक क्यों करते हो। यह दंडी स्वामी का शाप है। वे दंडी सर्वसमर्थ हैं इसमें संशय नहीं है। उनकी शरण में जाने से मनवांछित फल मिलेगा।

दामाद का कहना मानवैश्य दंडी स्वामी के पास गया। दंडी स्वामी को प्रणाम कर सादर बोला। जो कुछ मैंने आपसे कहा था उसे क्षमा कर दें। ऐसा कह वह बार-बार नमन कर महाशोक से व्याकुल हो गया। वैश्य को रोते देख दंडी स्वामी ने कहा मत रोओ। सुनो! तुम मेरी पूजा को भूलते हो। हे कुबुद्धि वाले! मेरी आज्ञा से तुम्हें बारबार दुःख हुआ है। वैश्य स्तुति करने लगा। साधु बोला- प्रभु आपकी माया से ब्रह्मादि भी मोहित हुए हैं। वे भी आपके अद्भुत रूप गुणों को नहीं जानते।

हे प्रभु! मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं माया से भ्रमित मूढ़ आपको कैसे पहचान सकता हूं। कृपया प्रसन्न होइए। मैं अपनी सामर्थ्य से आपका पूजन करूंगा। धन जैसा पहले था वैसा कर दें। मैं शरण में हूं। रक्षा कीजिए। भक्तियुक्त वाक्यों को सुन जनार्दन संतुष्ट हुए। वैश्य को उसका मनचाहा वर देकर भगवान अंतर्धान हुए। तब वैश्य नाव पर आया और उसे धन से भरा देखा। सत्यनारायण की कृपा से मेरी मनोकामना पूर्ण हुई हैयह कहकर साधु वैश्य ने अपने सभी साथियों के साथ श्री सत्यनारायण की विधिपूर्वक पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा प्राप्त कर साधु बहुत प्रसन्न हुआ। नाव चलने योग्य बना अपने देश की ओर चल पड़ा।

अपने गृह नगर के निकट वैश्य अपने दामाद से बोला- देखो वह मेरी रत्नपुरी है। धन के रक्षक दूत को नगर भेजा। दूत नगर में साधु वैश्य की स्त्री से हाथ जोड़कर उचित वाक्य बोला। वैश्य दामाद के साथ तथा बहुत-सा धन ले संगी-साथी के साथनगर के निकट आ गए हैं। दूत के वचन सुन लीलावती बहुत प्रसन्न हुई। भगवान सत्यनारायण की पूजा पूर्ण कर अपनी बेटी से बोली। मैं पति के दर्शन के लिए चलती हूं। तुम जल्दी आओ अपनी मां के वचन सुन पुत्री ने भी व्रत समाप्त माना।

प्रसाद लेना छोड़ अपने पति के दर्शनार्थ चल पड़ी। भगवान सत्यनारायण इससे रुष्ट हो गए और उसके पति तथा धन से लदी नाव को जल में डुबा दिया । कलावती ने वहां अपने पति को नहीं देखा। उसे बड़ा दुख हुआ और वह रोती हुई भूमि पर गिर गई। नाव को डूबती हुई देखा। कन्या के रुदन से डरा हुआ साधु वैश्य बोला- क्या आश्चर्य हो गया। नाव के मल्लाह भी चिंता करने लगे। अब तो लीलावती भी अपनी बेटी को दुखी देख व्याकुल हो पति से बोली।

इस समय नाव सहित दामाद कैसे अदृश्य हो गए हैं। न जाने किस देवता ने नाव हर ली है। प्रभु सत्यनारायण की महिमा कौन जान सकता है। इतना कह वह स्वजनों के साथ रोने लगी। फिर अपनी बेटी को गोद में ले विलाप करने लगी। वहां बेटी कलावती अपने पति के नहीं रहने पर दुखी हो रही थी। वैश्य कन्या ने पति की खड़ाऊ लेकर मर जाने का विचार किया। स्त्री सहित साधु वैश्य ने अपनी बेटी का यह रूप देखा। धर्मात्मा साधु वैश्य दुख से बहुत व्याकुल हो चिंता करने लगा। उसने कहा कि यह हरण श्री सत्यदेव ने किया है। सत्य की माया से मोहित हूं।

सबको अपने पास बुलाकर उसने कहा कि मैं सविस्तार सत्यदेव का पूजन करूंगा। दिन प्रतिपालन करने वाले भगवान सत्यनारायण कोबारंबार प्रणाम करने पर प्रसन्न हो गए। भक्तवत्सल ने कृपा कर यह वचन कहे। तुम्हारी बेटी प्रसाद छोड़ पति को देखने आई। इसी के कारण उसका पति अदृश्य हो गया। यदि यह घर जाकर प्रसाद ग्रहण करे 
और फिर आए। तो हे साधु! इसे इसका पति मिलेगा इसमें संशय नहीं है। साधु की बेटी ने भी यह आकाशवाणी सुनी।

तत्काल वह घर गई और प्रसाद प्राप्त किया। फिर लौटी तो अपने पति को वहां देखा। तब उसने अपने पिता से कहा कि अब घर चलना चाहिए देर क्यों कर रखी है। अपनी बेटी के वचन सुन साधु वैश्य प्रसन्न हुआ और भगवान सत्यनारायण का विधि-विधान से पूजन किया। अपने बंधु-बांधवों एवं जामाता को ले अपने घर गया। पूर्णिमा और संक्रांति को सत्यनारायण का पूजन करता रहा। अपने जीवनकाल में सुख भोगता रहा और अंत में श्री सत्यनारायण के वैकुंठ लोक गयाजो अवैष्णवों को प्राप्य नहीं है और जहां मायाकृत (सत्यरजतम) तीन गुणों का प्रभाव नहीं है।

       

(इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां चतुर्थोऽध्याय:॥४॥


        श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे अन्तर्गते सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्मोऽध्याय: प्रारम्भ ॥४॥

सत्य नारायण व्रत कथा के पात्र अहीर लोग-

सत्यनारायण व्रत - सत्य नारायण व्रत कथा

                 सत्यनारायणव्रतकथाः विशेषव्रतपूजाः - बुधाष्टमीव्रताङ्गपूजाविधि:

                    ॥ अथ कथा ॥
                    "व्यास उवाच ॥ 


                    ॥सूत उवाच॥ 

अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा: ॥ आसीत्तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥१॥

प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप स:॥  एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान्पशून् ॥२॥

आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् ॥    गोपा:कुर्वन्ति सन्तुष्टा भक्तियुक्ता: सबान्धवा:।३॥

राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स:॥      ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥४॥

संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्या सर्वे यथेप्सितम् ॥ तत: प्रसादं सन्त्यज्य राजा दुःखमवाप स: ॥५॥

तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत् ॥ सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥६॥

अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम् ॥      मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह ॥ भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप:॥८॥

सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ॥        इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥९॥

य इदं कुरुने सत्यव्रतं परमदुर्लभम् ॥          श्रुणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तांफलप्रदाम्॥१०॥

धनधान्यादिकं तस्य भवेत्सत्यप्रसादत: ॥        दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात्॥११॥

भीतो भयात्प्रसुच्येत् सत्यमेव न संशय:॥    ईप्सितं च फलं भुक्त्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत्॥१२॥

इति व: कथितं विप्रा; सत्यनारायणव्रतम् ॥ यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥१३॥

विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा ॥ केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥१४॥

सत्यनारायणं केचित्सत्यदेवं तथापरे ॥ नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद: ॥१५॥

भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:॥ श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥

य इदं पठते नित्यं श्रृणोति मुनिसत्तमा: ॥        तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादत:॥१७॥

व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च ॥          तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा:॥१८॥

शतानन्दो महाप्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणो ह्मभूत ॥ तम्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह।१९॥

काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह ॥ तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै॥२०॥

उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत् ॥ श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥

धार्मिक: सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत् ॥ देहार्धं क्रकचैश्छित्वा दत्वा मोक्षमवाप ह ॥२२॥

तुङ्गध्वजो महाराज: स्वायम्भुरभवत्किल॥      सर्वान्भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्।२३॥

"अनुवाद:-

सूतजी बोले – हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँउसे भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख प्राप्त किया। एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा। अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया।

लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। वह दुबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।

तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।

सूतजी बोले – जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा  कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।

 इति श्री स्कन्द पुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायण व्रत कथायां पञ्चमोध्यायः समाप्तः ॥ 

    "इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्याय:।५।  इति श्रीसत्यनारायणकथा समाप्त।।     

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सत्यनारायण व्रत कथा करवाने का संकल्प किए हुए व्रती को प्रातः उठकर नित्यक्रिया से निवृत होकर दिनभर व्रत (उपवास)करे। संध्याबेला (शाम)को पुजा करने वाली स्थल को गोबर से लीप कर धान्य या आटा(रंगोली)से सुंदर चौंक बनावे,उस पर पाटा रख दें । गौरी-गणेश ,नवग्रह ,कलश की स्थापना,पूजन  करें। फिर इन्द्रादि दशदिक्पालपंच लोकपाल,लक्ष्मी-नारायणमहादेव-पार्वती और ब्रह्मा-सरस्वतीजी की पूजा करें। तत्पश्चात् पाटा पर सत्यनारायण भगवान  या शालिग्राम रखें पाटा के चारों कोर पर केलापत्ता लगा देवें। पूजन की समस्त सामाग्री,आटे या सूजी से बना प्रसाद या पंजरी इकट्ठा कर आचार्य को बुलवाकर  सत्यनारायण भगवान का पूजन करें  व व्रत कथा का श्रवण करेंआरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। आचार्य को दक्षिणा एवं वस्त्र दे व भोजन कराएं। आचार्य के भोजन के पश्चात् उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं समस्त कुटुम्बसहित  भोजन करें।

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           श्रीसत्यनारायण

        श्रीसत्यनारायण  की आरती 

जय लक्ष्मी रमणाजय श्रीलक्ष्मी रमणा ।सत्यनारायण स्वामी जन – पातक – हरणा ।। जय ।।टेक 
रत्नजटित सिंहासन अदभुत छबि राजै ।      नारद करत निराजन घंटा-ध्वनि बाजै ।। जय ।।

प्रकट भये कलि-कारणद्विजको दरस दियो ।  बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो ।। जय ।।

दुर्बल भील कठारोजिन पर कृपा करी ।  चन्द्रचूड़ एक राजाजिनकी बिपति हरी ।जय।

वैश्य मनोरथ पायोश्रद्धा तज दीन्हीँ ।  सो फल फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं । जय । 
भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रुप धरयो । श्रद्धा धारण कीनीतिनको काज सरयो ।। 
जय ।।

ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी । मनवाँछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी । जय।
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफलमेवा । धूप –दीप – तुलसी से राजी सत्यदेवा ।। जय ।। 
सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै । तन मन सुख संपत्ति मन वांछित फल पावै ।। जय॥ 



                 "सूत उवाच"

अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः। आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः ॥ १ ॥

प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः । एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून्॥ २॥ 

आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम्। गोपाः कुर्वन्ति संतुष्टा भक्तियुक्ताः सबान्धवाः ॥३॥ 

राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम सः। ततो गोपगणाः सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥४॥ 

संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम्। ततः प्रसादं संत्यज्य राजा दुःखमवाप सः॥५॥

"अनुवाद:-श्रीसूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियो ! अब इसके बाद मैं एक अन्य कथा कहूँगा, आप  उसे  सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर( तैयार रहने वाला) तुङ्गध्वज नाम का एक राजा था।१।

उसने सत्यदेव ( सत्यनारायण) के प्रसाद का परित्याग करके दुःख प्राप्त किया। एक बार वह वन में जाकर और वहाँ बहुत-से पशुओंको मारकर।२। 

वह वट वृक्ष के नीचे आया तो वहाँ उसने देखा कि गोपगण (अहीर लोग) बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा करतें हैं।३।

राजा यह देखकर भी अहंकार( दर्प)  वश न तो वह राजा वहाँ गया और न उसने भगवान् सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। इसके बाद (पूजन के पश्चात) सभी गोपगण भगवान् सत्य नारायण का  प्रसाद राजा के समीप में ।४।

रखकर वहाँ से पुन: लौट कर और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान्‌का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसादका परित्याग करने से बहुत दुःख हुआ॥ ५॥


तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत्। सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥६ ॥

अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम्। मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥ 

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैः सह। भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृपः॥८॥ 

सत्यदेवेन प्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् । इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥ ९॥

"अनुवाद:-

उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य हो भगवान् सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है।६।

इसलिये मुझे वहीं जाना चाहिये जहाँ श्रीसत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों( अहीरों) के समीप गया।७।

और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा की।८।

 भगवान् सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों को उपभोगकर अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक)- को चला गया॥९॥

य इदं कुरुते सत्यव्रतं परमदुर्लभम्।        शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तः फलप्रदाम् ॥१०॥ 

धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादतः। दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात् ॥ ११॥ 

भीतो भयात् प्रमुच्येत् सत्यमेव न संशयः। ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत् ॥ १२ ॥ 

इति वः कथितं विप्राः सत्यनारायणव्रतम्। यत् कृत्वा सर्वदुः खेभ्यो मुक्तो भवति मानवः॥१३॥

"अनुवाद:-

सूत जी कहते हैं- जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्रीसत्यनारायण के व्रत को करता  और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है।।१०।

उसे भगवान् सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र के घर में धन  हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से छूट जाता है।११।

डरा हुआ व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है-यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। (इस लोकमें वह सभी इच्छित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) को जाता है।१२।

 हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान् सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है ॥१३ ॥


विशेषतः कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा।    केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च ॥ १४॥

सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे। नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥१५॥

भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातनः। श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥

य इदं पठेत् नित्यं शृणोति मुनिसत्तमाः।      तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादतः॥१७॥

व्रतं वैस्तु कृतं पूर्व सत्यनारायणस्य च।            तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वराः॥१८॥

"अनुवाद:-

कलियुग में तो भगवान् सत्यदेव (सत्यनारायण) की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान् विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश।१४।

 और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान् सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं।१५।

कलियुग में सनातन भगवान् विष्णु ही सत्यव्रत-रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करनेवाले होंगे।१६।

हे श्रेष्ठ मुनियो। जो व्यक्ति नित्य भगवान् सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान् सत्यनारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।१७।

हे मुनीश्वरो ! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान् सत्यनारायण का व्रत किया था, उनके अगले जन्म का वृत्तान्त कहता हूँ, आप लोग उसे सुनें॥१८॥

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"शतानन्दो महाप्राज्ञः सुदामा ब्राह्मणो ह्यभूत्। तस्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ॥१९॥

शब्दार्थ- शतानन्द:( प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक- । महाप्राज्ञ:= महती प्रज्ञा( प्रकृष्टं ज्ञापयति यया इति प्रज्ञा- (विवेक बद्धि)।सुदामा ब्राह्मण: हि अभूत् =सुदामा नामक ब्राह्मण हुआ।अभूत् = भू -धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लुङ् लकार परस्मैपद प्रथम पुरुष एकवचन। तस्मिन् + जन्मनि = उस जन्म में। श्रीकृष्णं = श्रीकृष्ण को । ध्यात्वा= ध्यै- धातु + क्त्वा प्रत्यय। ध्यान करके। मोक्षं = मुक्ति को। अवाप= प्राप्त किया। ह = निश्चय ही।

"काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह। तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै ॥ २० ॥ 

शब्दार्थ:- काष्ठभारवह: = लकड़हारा। भिल्ल: गुहराज: बभूव= भील गुहराज हुआ। ह= निश्चय ही। तस्मिन् + जन्मनि = उस जन्म में। श्रीरामं सेव्य= श्रीराम की सेवाकरके। मोक्षं जगाम वै= निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त हुआ। जगाम= गम्- धातु - गम्- प्राप्तौ गतौ च- लिट् लकार कर्तरि प्रयोग परस्मैपद ; एकवचन कर्ताकारक रूप।

"उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत्। श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥ २१ ॥ 

शब्दार्थ:- उल्कामुख: +महाराज:+नृप:+ दशरथ:+अभवत्= उल्कामुख महाराज [दूसरे जन्म में ] राजा दशरथ हुए।  श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत्=  श्रीरंगनाथ(दक्षिण भारत में विष्णु का स्वरूप) की भलीभाँति पूजाकर तब वे वैकुण्ठ धाम को चले गये।

"धार्मिकः सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत्। देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्त्वा मोक्षमवाप ह ॥ २२ ॥

शब्दार्थ:- धार्मिक:= धर्मकर्मकरनेवाला। सत्यसन्ध= सत्य प्रतिज्ञा करने वाला:+ साधु = साधु नामक वैश्य +  मयूरध्वज:+ अभवत्।= मयूर ध्वज नामक राजा हुआ। देहार्धं= आधी देह को । क्रकचैश्छित्त्वा = आरे से चिरवाकर( कटवाकर। दत्त्वामोक्षं+ अवाप ह।=  और उस देह को देकर निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त किया।

"तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल । सर्वान् भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत् ॥ २३ ॥

शब्दार्थ:-तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल ।= तुंगध्वज महाराज कालान्तर में निश्चय ही स्वायम्भुव हुए । सर्वान् भागवतान् कृत्वा = सभी भगवत भक्तों को । कृत्वा= करके ।श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत् =  तब वैकुण्ठ को गये।

"भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे व्रजमण्डलवासिनः। निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः॥२४ ॥

शब्दार्थ:-शब्दार्थ:- 

सत्यनारायण की वन में  कथाकरने वाले वे सभी गोपगण ही  व्रजमण्डल में ( भूत्वा = जन्म लेकर /होकर ) 

गोपा: = गोप गण। ते सर्वे= वे सब। व्रजमण्डलवासिनः= व्रजमण्डल के निवासी।

 निहत्य= मारकर। राक्षसान् सर्वान् = सभी राक्षसों को ।

गोलोकं तु तदा ययुः=  इसके पश्चात गो-लोक को चले गये।

महान् प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण [सत्यनारायणका व्रत करनेके प्रभावसे] दूसरे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।१९।

लकड़‌हारा भिल्लों का राजा गुहराज हुआ और अगले जन्ममें उसने भगवान् श्रीरामकी सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया।२०।

महाराज उल्कामुख [दूसरे जन्म में] राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरङ्गनाथ ( विष्णु) की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया।२१।

इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु [पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में] मोरध्वज नाम का राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान् विष्णुको अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।२२।

महाराज तुङ्गध्वज पूर्व जन्म  में स्वायम्भुव मनु के रूप में हुए थे और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगणा थे, वे सब जन्मान्तरमें व्रजमण्डलमें निवास करनेवाले गोप हुए और सभी राक्षसोंका संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वतधाम – गोलोक प्राप्त किया ॥ १९-२४॥ 

  ॥इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्यायः॥ ५॥

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथाका यह पञ्चम्- अध्याय पूरा हुआ ॥५॥